रविवार, जुलाई 31, 2005

भूले हुए शहर

आज शाम को रिजु वापस जर्मनी चला जायेगा. आज सुबह, अगर वह जल्दी उठ जाये तो उसे बोलोनिया के पुराने बंदरगाह को दिखाने का वायदा किया है. समुद्र तट से १०० किलोमीटर दूर बोलोनिया में बंदरगाह भी होगा, कोई सोचता नहीं है.

बोलोनिया की नगर पालिका शहर के इतिहास के बारे में यहाँ के नागरिकों को बताने के लिए अक्सर "रिस्कोपरीरे बोलोनिया" यानि "बोलोनिया को फ़िर से जानिये" नाम से शहर के साईकल टूर की योजना करती है. जो लोग इसमे भाग लेना चाहें वे अपनी साइकल ले कर सुबह शहर के किसी भाग में मिलते हैं और शहर के बड़े बूढे इतिहासकारों की मदद से अपने शहर के इतिहास की छोटी बड़ी घटनाओं के बारे में जान पाते हैं.

ऐसे ही एक टूर में मैंने जाना कि बोलोनिया कभी नहरों के जाल से भरा शहर था. इन्हीं नहरों से आयी थी बोलोनिया की समृद्धी जब करीब चार सौ साल पहले बोलोनिया का सिल्क सारे विश्व में मशहूर था. तब शहर के बीचों बीच एक नहर पर बंदरगाह था जहाँ जहाज़ आते थे और यहाँ से सिल्क ले कर सारे संसार में जाते थे. फ़िर धीरे धीरे समय के बदलने के साथ इन नहरों और बंदरगाह की भूमिका बदलती गयी, उनका उपयोग कम होता गया और उन नहरों के ऊपर सड़कें बनती गयीं. आज बहुत से लोग नहीं जानते कि शहर के नीचे एक भूला हुआ शहर है, नहरों का शहर. बस कोई कोई जगह ही बची है जहाँ उस पुराने शहर के हिस्से दिख सकते हैं, पर वे भी इतनी आसानी से नहीं दिखते. पुरानी गलियों के पीछे, झाड़ झँखाड़ से ढके, इस अतीत को देखने के लिए, रास्ता ढूँढना आसान नहीं है.

जाने और कितने भूले हुए शहर होंगे, पुरानी दिल्ली की गलियों के पीछे, मुम्बई और बंगलौर के नये गगनचुम्बी भवनों के पीछे ?

बोलोनिया अपनी सहनशीलता और खुले विचारों के लिए भी प्रसिद्ध है, पर विभिन्न देशों से आये भिन्न सभ्यताओं के लोगों के विचारों की वजह से क्या यह सब बदल जायेगा ? इसके बात के दो उदाहरण. पहला यह कि यहीं पर खुला था इटली का सबसे पहला गै और लेसबियन सेंटर, यानि समलैंगिक जीवन के बारे में खुल कर बात करने का स्थान. पुरानी बंदरगाह के "सालारा" यानि नमक के गोदाम के प्राचीन और भव्य भवन में बना यह सेंटर अपने रेस्टोरेंट तथा डिस्को के लिए बहुत मशहूर है. दूसरा उदाहरण है कि शहर के बीच में लगी है नेपच्यून देवता की नंगी मूर्ती. सोलहवीं शताब्दी में बनी इस मूर्ती के बारे में कहा गया था कि यह अश्लील है और इसे शहर के बीच में नहीं लगा सकते और लोगों की राय माँगी गयी. लोगों ने कहा कि मूर्ती शहर के बीच में ही लगनी चाहिये. फ़िर भी शीलता अश्लीलता के बारे में चिंतित कुछ लोगों ने कहा कि मूर्ती के "अश्लील" भागों को ढक देना चाहिये, क्योंकि "यह बच्चों और औरतों के लिए ठीक नहीं है". पर जब बोलोनिया के लोगों की राय माँगी गयी तो उन्होंने मूर्ती के किसी भी भाग को ढकने से इन्कार कर दिया.


कुछ समय पहले एक बंगलादेशी माँस बेचने की दुकान वाले ने माँग की थी कि उनकी साथ की दुकान, जहाँ जाँघिये, तैरने के कपड़े इत्यादि मिलते हैं, से कहा जाये कि ऐसे भद्दे वस्त्र वे दुकान की शोविन्डो में न रखें. उनका कहना है कि ऐसे कपड़े बेशर्मी की निशानी हैं और उन्हें देख कर माँस की दुकान पर आने वाले ग्राहकों को परेशानी होती है. जब इन साहब का टेलीविज़न पर साक्षात्कार लिया गया तो वह समझ नहीं पा रहे थे कि उनकी माँग पर इतना हल्ला क्यों हो रहा है. बोले, "ऐसे कम कपड़े पहनना क्या स्त्रियों को शोभा देता है ?"

आज की दो तस्वीरे बोलोनिया के जीवन पर गै प्राइड के जलूस की एक झाँकी और सड़क के संगीतकार.

शनिवार, जुलाई 30, 2005

सतही सामानतायें और नफरत की जड़ें

हम लोग वेनिस में घूम रहे थे. मुख्य रास्ते को छोड़ कर घरों के बीच हम लोग उस वेनिस में पहुँच गये जहाँ थोड़े ही पर्यटक पहुँचते हैं. चलते चलते आ पहुँचे वेनिस के पुराने गेटो यानि उस भाग में जहाँ ज्यू रहते थे. खुले चकोर स्क्वायर में एक नल लगा हुआ था. सामने एक घर की बालकनी फ़ूलों के बोझ से दबी जा रही थी. तब तक सूरज आसमान में जोर शोर से चमक रहा था और हम लोग गरमी से पस्त हो रहे थे. नल देख कर तुरंत फुर्ती से बढ़े, हाथ मुँह पानी से भिगोने और ठंडा पानी पीने. तभी एक कमरे की खिड़की पर एक युवक प्रकट हुआ जो हमारी तरफ देख रहा था. दो पुलीस वाले भी आ गये जो हमें देख रहे थे. तुरंत कारण समझ में आ गया, रिजु कुरता जो पहने था. ज्यू कोलोनी में अनजानी पोशाक में लड़के को देख कर उन सब का चिंतित होना स्वाभाविक ही था. जाने कोई कट्टरपंथी हो जो कोई बम वगैरा फौड़ने की सोच रहा हो ! उसके बाद हम लोग वहाँ अधिक नहीं रुके.

कुर्ते को देख कर अक्सर ऐसा ही होता है. पिछले हफ्ते एक्वाडोर में जलूस के समय मैंने एक लम्बा नीले रंग का कुर्ता पहना था, गले में ढोलक थी और मैं बिना सुर और ताल की परवाह किये मस्त हो कर उसे बजा रहा था, जब दो व्यक्तियों को अपनी तरफ घूर कर बातें करते देखा. फ़िर उनमें से एक मेरे पास आया और पूछने लगा कि क्या मैं पाकिस्तानी हूँ, मेरे सिर हिलाने पर बोला कि तब तो मैं अवश्य अफगानी हूँ. चाहे उस समय तो मैंने मुस्कुरा कर कह दिया कि नहीं मैं भारतीय हूँ पर मन में कुछ खटक सी रह गयी. उनका यह सोचना कि मैं पाकिस्तानी या अफगानी हूँ मुझे अच्छा नहीं लगा.

शेनोय रिडिफ डाट काम पर अपने लेख में लिखते हैं कि आजकल लंदन में पाकिस्तानी होना बुरा है. स्वयं को लोगों के शक से बचाने के लिए उन्हें लोगों को कहना पड़ा कि वह भारतीय हैं और हिंदू हैं. किस को कहते फ़िरेंगे हम कि हम यह या वह नहीं हैं ? गले में तख्ती लगा लेंगे ? या क्या हम लोग अब अपने आप को अन्य लोगों से भिन्न साबित करने के लिए धोती पहनें या कोई और नयी पोशाक बनायेंगे अपनी ? जब अमरीकी गुंडे बिन लादन के धर्म का समझ कर एक सिख पैट्रोल पम्प के मालिक को मार सकते हैं, क्या उन्हें हमारे भिन्न देशों, सभ्याताओं और धर्मों का पता भी है ?

मेरी मौसी का परिवार पश्चिम बंगाल में पछले पचास सालों से रहता है. जब भारत की प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गाँधी का खून हुआ तो दिल्ली में तो सिख परिवारों पर हमले हुए ही, उनके एक बेटे पर भी हमला हुआ. बाँध कर ज़िंदा जलाने लगे थे उसे, जिसकी दहशत उसके मन में सालों तक बनी रही. वह चिल्लाता रहा कि वह सिख नहीं है पर किसी को उसकी बात सुनने में दिलचस्पी नहीं थी.

अगर शक और डर का वातावरण बनेगा तो इसमे हम सबका नुक्सान है. कट्टरपंथी और इस्लाम की जोड़ी बना कर उन्हें एक सोचना ठीक नहीं है, यह मालूम है मुझे. आधा बचपन मैंने अपने पड़ोसी साजिद भाई के परिवार के साथ बिताया है. जब दिल्ली में दंगे हुए थे तो माँ ने उन्हें कहा था कि आप लोग चिंता न करें, आप लोग हमारे यहाँ आ जाईये, कोई कुछ नहीं कर सकता. पर कल शाम को घर के पास बाग में जब कुत्ते को घुमा रहा था, पाँच लोगो को कोने वाले मकान से निकलते देखा. उनमें से एक को जानता हूँ, रहमान, बँगलादेश से है. सफेद तहमद, सफेद कुर्ता, सिर पर सफेद टोपी. सभी की एक जैसी पोशाक. शायद जुम्में की नमाज के बाद निकल रहे थे. उन्हें इस तरह इक्ट्ठे देख कर मन में कुछ भय सा हुआ. जल्दी से आगे निकल गया, इससे पहले कि रहमान मेरी तरफ देख कर मुस्कुराता या सलाम करने के लिए हाथ उठाता.

(कल के ब्लाग में अर्चना वर्मा की जिस कविता "सौख" का एक अंश दिया था, उसे आप पूरा पढ सकते हैं कल्पनापर.)

वेनिस के ज्यू गेटो में पुलिसवाला

एक्वाडोर में कुर्ता यानि पाकिस्तानी या अफगानी ?

शुक्रवार, जुलाई 29, 2005

अनोखा वेनिस

पहली बार जब इटली आया था तो विचेंज़ा जाने के लिए वेनिस हवाई अड्डे पर उतरा था. पहली बार मुझे वेनिस घुमाने ले गये मेरे प्रोफेसर रित्सी. तब से अब तक जाने कितनी बार जा चुका हूँ वेनिस घूमने. कभी बारिश में, कभी तेज सर्दी और बर्फ में, और कई बार जुलाई की गर्मी में. बिबयोने से गर्मी की छुट्टियों के बाद घर वापस आते समय अक्सर रास्ते में एक चक्कर वेनिस का लग ही जाता है. और जब कोई मित्र या परिवार का सदस्य बाहर से आये तो उसे वेनिस घुमाना भी आवश्यक है.

निराला, अनोखा शहर है वेनिस. जितनी भी बार देखो, हर बार वैसा ही, अविश्वास्नीय सा. सबसे अधिक अच्छा लगता है मुझे वेनिस की छुपी हुई गलियों में जाना जहाँ आम लोग रहते हैं.

विषेश यादों में वह रात है जब मेरी रेलगाड़ी छूट गयी थी और रात भर रेलवे स्टेश्न के सामने सीड़ियों पर बितायी थी या जब ज्यूदेक्का द्वीप पर माधवी मुदग्ल का ओड़िसी नृत्य देखा था या जब रात को १२ बजे, मेरी क्रिस्टीन के साथ पियात्सा सन मारको में बेले नृत्य देखा था.


कल रिजु के साथ वेनिस फिर लौटा. प्रस्तुत हैं इस बार की वेनिस यात्रा की दो तस्वीरें


गुरुवार, जुलाई 28, 2005

कल के सपने

कितने साल बीत गये. रेने और इवोन फ्राँस से आये थे. नाना जी के खेत पर उन्होंने आपना तम्बू गाड़ा था. उन्होंने ही मेरी जान पहचान करवायी मेरी क्रिस्टीन से. ३९ साल हो गये इस बात को. चिट्ठी से ही बातचीत होती थी हमारी, पहली बार मिले १९८० में जब मैं लियोन गया था. कल मेरी क्रिस्टीन का पत्र आया है. उसे आज भी चिट्ठी लिखना अच्छा लगता है जबकि मुझे किसी को चिट्ठी लिखे हुए ज़माने हो गये. पर इसे कहते हैं दोस्ती.

मेरी क्रिस्टीन ने भेजा था मेरा पहला कैमरा मुझे. दूसरा कैमरा मिला था शादी पर, इतालवी मित्रों से. अपने आप खरीदा हुआ पहला कैमरा मैंने अभी कुछ साल पहले ही खरीदा था. खरीदने से पहले, कई दुकाने घूम कर आया, दोस्तों से सलाह माँगी, कई दिन सोचा. एक्वाडोर से वापस आने पर अपने खोये हुए कैमरे के बदले में नया खरीदना था, पर इस बार कहीं नहीं गया, बस अंतरजाल पर ढूँढा और एक शाम कम्प्यूटर के सामने बिता कर निर्णय लिया, वहीं से आडर दिया और आब इंतज़ार कर रहा हूँ कि आये.

कोलोन से रिजु आया है कुछ दिनों की छुट्टियों में. कल रोम गया था. आज उसके साथ वेनिस जाने का सोचा है. एक्वाडोर से आने के बाद ७ घंटे के जेट लैग को अभी काबू नहीं कर पाया हूँ, थोड़ा ही सो पाता हूँ और दिन भर नींद आती रहती है. गरमी भी बहुत है और उमस भी.

रिजू को देख कर बड़े दादा की याद आ जाती है और रिजु के बचपन की. दादा की शादी थी. शादी के बाद तुरंत पति पत्नि अमरीका में पढ़ाई के लिये जा रहे थे. हम सब बच्चे लोग गप्पबाजी और खेल कूद में मस्त थे. लगता था जीवन जैसे कोई लम्बी सड़क हो जो कभी स्माप्त नहीं होगी, बस सिर्फ खेल कूद और हँसी मज़ाक, बस यही होगा जीवन.

अमरीका से भाभी की चिट्ठी आयी, साथ में दो फोटो भी. एक फोटो में अमरीका का अपार्टमैंट, दूसरी में भाभी यूनीवर्सिटी के बाग में, साथ में एक चीनी या कोरियन चेहरे वाली एक लड़की. सब मुग्ध हो कर देखते. कितना सुंदर था सब कुछ. और भी सपने और गहरी साँसें. अमरीका के सपने, चमकते अपार्टमैंट के सपने, विभिन्न चेहरे वाले लोगों के सपने जो भिन्न भिन्न भाषायें बोलते हैं.

दादा भाभी छुट्टियों में वापस आये. छोटा सा बेटा. उसके पाँव के अंगूठे पर चोट लग गयी. "ओ, माय थम्ब", बोला वह और बुक्का फ़ाड़ कर रोया. सब कोई मंत्र मुग्ध. सब अचरज से उसे देखते. अंग्रेज़ों की तरह कैसे अजीब से तरीके से बोलता था वह.

वर्ष बीत गये. बहुत सारे रिश्ते बदल गये. कई नये रिश्ते बन गये. घर बदल गये. शहर बदल गये. नाम बदल गये. सपने भी बदल गये. कुछ सच हो गये, कुछ रास्ते में खो गये, कुछ नये बन गये. इतने सालों के बाद वही बेटा आया है. जब बोलता है तो लगता है जैसे दादा बोल रहे हों. अचानक बीते हुए दिन फ़िर से लौट आये हैं.

जीवन एक चक्कर जैसा है, गोल घूमता है. जहाँ से निकलता है, फ़िर वहीं से गुज़रता है. बूढ़ी या प्रोढ़ आँखे बचपन का उत्साह और सपने देख कर मुस्कुराती हैं. मालूम है उन्हें कैसे जीवन लम्बी सड़क जैसा लग सकता है और कैसे यह यात्रा अचानक छोटी सी बन जाती है. पीछे मुड़ कर देखो तो कल कितना पास लगता है और कितना दूर, कभी न वापस आने वाला.


आज एक कविता और दो तस्वीरें. कविता है अर्चना वर्मा की जिसके शब्दों के अंदर छुपी लय और धुन मुझे बहुत अच्छी लगते हैं. पूरी कविता पढना चाहें तो कल्पना पर पढ़ सकते हैं. और तस्वीरे हैं: एक्वाडोर कीटो में एक आईसक्रीम बेचने वाले की और घर में मारको, रिजु और ब्रांदो:


सौख

झुनिया को चर्राया
इज्जत का सौख
बड़के मालिक की
उतरन का कुरता
देखने में चिक्कन
बरतने में फुसफुस
नाप में भी छोटा
कंधे पर
छाती पर
कसता
बड़ी जिद और जतन से
महंगू को पहनाया.
मुश्किल है महंगू को
अब सांस लेना भी.

मंगलवार, जुलाई 26, 2005

एक्वाडोर की यात्रा

दो सप्ताह की यात्रा के बाद वापस आया हूँ. पहले राजधानी कीटो, फिर रियोबाम्बा, फिर कुएंका, फिर ग्वायाकिल और अंत में वापस घर.

नये कीटो को टेक्सी से हवाई अड्डे से आते समय देख कर थोड़ा दुख सा हुआ. चारो तरफ ऊँचे सुदंर पहाड़ और बीच में कैंसर के नासूर की तरह हर तरफ सिमेंट के चकोर घर, एक के ऊपर एक, मधुमक्खियों के छत्तों की तरह, कहीं कोई हरियाली नहीं, कोई खाली जगह नहीं. मैं पुराने कीटो में ठहरा था जहाँ इस शहर का अपना पुराना रुप अभी भी कुछ बचा हुआ हैं. यह हिस्सा सुन्दर है. सड़कें तो ऐसी हैं जो पहाड़ों के ऊपर नीचे जाती हैं और उन पर चलने के लिये अच्छी सेहत का होना जरुरी है. कई बार सड़क ऐसे सीधे ऊपर की ओर जाती है कि यहाँ के रहने वाले भी, रुक रुक कर साँस लेने के लिये मजबूर हो जाते हैं.

शहर के बीचों बीच जहाँ पुराना और नया कीटो मिलते हैं, भारत के नाम का छोटा सा स्क्वायर है जहाँ फुव्वहारों के बीच में लगी गाँधी जी की मूर्ती है. सब जगह यहाँ की जन जाती की गरीब इंडियोस् महिलायें सड़क पर कुछ बेच रही होती हैं और हर तरफ, बहुत सारे बच्चे जो हर जगह स्कूल जाने के बजाय काम में लगे हैं, दिखते हैं. जैसी गरीबी भारत में दिखती है वैसी तो नहीं दिखी पर इन इंडियोस परिवारों की हालत बहुत अच्छी नहीं लगी.

रियोबाम्बा के पास है एक्वाडोर की सबसे ऊँची पर्वत चोटी शिमबोराज़ो. कीटो से रियोबाम्बा की यात्रा के दौरान ही मेरा कैमरा चोरी हो गया इसलिये मन कुछ उदास था. कैमरे के साथ घूमने की इतनी आदत हो गयी है कि कोई भी विषेश चीज़ दिखे तो पहला ख्याल आता है उसकी फोटो लेने का और कैमरे के न होने से मुझे लग रहा था जैसे उस विषेश चीज़ का महत्व कम हो गया हो. जैसे शिमबोराज़ो पहाड़ के सूर्यास्त के समय बदलते हुए रंग. शाम को बादल छंट गये थे और पहाड़ पर गिरी बर्फ की चमक साफ दिख रही थी. पर उसकी सुन्दरता का रस लेने के बजाय मन बार बार यही सोच रहा था कि काश कैमरा होता तो इसकी फोटो लेता. शायद इसीलिये भग्वद् गीता संसार की वस्तुओं से मोह न रखने की शिक्षा देती है और उस चोर ने मुझे यही याद दिलाने के लिये मुझ पर यह चोरी करके उपकार किया है.


रियोबाम्बा से कुएंका की यात्रा सचमुच बहुत ही रोचक और सुंदर है. ऊँचे पहाड़, कभी हलके और गहरे हरे के बीच में अनगिनत रंगो वाले, कभी भूरे, कभी जामुनी, कभी काले से. सुनहरी और भूरी घास से ढ़की वादियाँ, जिनमें रेत रेगिस्तान होने का धोखा दे. लम्बे ऊँचे केक्टस के पेड़ों का जंगल. जामुनी रंग के फ़ूलों से भरी हरी भरी घाटियाँ. पुराने ज्वालामुखियों के बुझे हुये मुख जो आज पानी से भरे हुए हैं और गोलाकार झीलों जैसे लगते हैं. इस यात्रा की कुछ तस्वीरें यहाँ प्रस्तुत हैं.

इन्हीं दिनों मैंने अपनी एक नयी कहानी लिखी है, अनलिखे पत्र, जिसे आप कल्पना में पढ़ सकते हैं. चाहें तो आप इस यात्रा की पूरी डायरी भी वहाँ पढ़ सकते हैं.



कुएंका में बूट पालिश करने वाले बच्चे

कीटो का भव्य बसेलिका चर्च

कीटो की साँस चढा देने वाली सड़कें

मंगलवार, जुलाई 12, 2005

विरह का दुख

जुलाई-अगस्त के महीने इटली में बहुत सारे पुरुषों के लिये विरह के महीने होते हैं. यहाँ सभी विद्यालय गरमियों में तीन महीनों के लिये बन्द हो जाते हैं. बहुत सी दुकानें तथा कारखाने भी इसी समय वार्षिक छुट्टियाँ देते हैं पर वे १०-१५ दिनों की ही होती हैं. बहुत सी स्त्रियाँ बच्चों के साथ समुद्र तट पर छुट्टियाँ बिताने चली जाती हैं और उनके पति शहर में सप्ताह के दौरान काम करते हैं और सप्ताह अंत पर हाईवेस् पर कारो में घंटो लाइन में बिताते हैं अपनी पत्नियों और बच्चों से मिलने के लिये.

इन दिनों में सुपर मार्किट में जाईये तो इतने अकेले पुरुष दिखते हैं चारों तरफ जितने अन्य कभी नहीं दिखते. हर कोई बनी बनायी चीज़ों के डब्बे ढूँढ रहा होता है जिसे बनाने में अधिक कष्ट न करना पड़े.

आजकल हमारे भी विरह के दिन हैं. पत्नी अपनी बहन के साथ समुद्र तट पर छुट्टियाँ मना रही हैं. पुत्र जिनकी छुट्टियाँ तो हैं पर वह घर पर हमारे साथ हैं कहते हैं काम करना है पर मेरा ख्याल है कि काम से ज्यादा अंतरजाल और मित्रों का मोह है जो उन्हें यहाँ रोके हुए है. काम पर जाओ, खरीददारी करो, कभी कुछ सफाई करो, रोज खाना बनाओ और बर्तन साफ करो. सुपुत्र महाशय से अधिक काम की आशा रखना बेकार है, जितना कर दें वही बहुत है. अब समझ में आता है कि घर में रहने वाली स्त्रियों का जीवन कितना कठिन होता है !


आषीश ने मेरे ब्रिटिश शासन के चिट्ठे के बारे में लिखा हैः
मुझे पुराने हमलावरों से, खासतौर से मुगलों से उतनी चिढ़ नहीं है क्योंकि वे आखिरकार भारत की मिट्टी में मिल गये लेकिन अंग्रेज़ तो हमेशा अपने आप को श्रेष्ठ समझते रहे और उन्होंने हमारी हर भारतीय चीज़ या पहचान को पूरी तरह मिटाने की कोशिश की, और हर तरह की गन्दी से गन्दी चाल का सहारा लेकर और देश को आर्थिक रूप से नंगा किया वो अलग।


मुझे याद है कि जब पहली बार मुझे इंगलैंड जाना था तो कुछ ऐसे ही विचार थे मेरे मन में भी. शुरु शुरु में लंदन जा कर वहाँ रहने वाले श्वेत लोगों को देख कर चिढ सी आती थी. शायद हमारी पीढी जो स्वतंत्रा के आसपास या उसके बाद के दस सालों में पैदा हुई उसमें ऐसा सोचने वाले बहुत लोग थे पर मुझे लगता है कि आजकल की पीढी के लिए भारत की पराधीनता केवल किताबों मे पढने की चीज़ है, उसका आम जीवन से कुछ सबंध नहीं है. इन पिछले १८ सालों में मुझे हर वर्ष कम से कम चार या पाँच बार लंदन जाना पड़ता है, वहाँ बहुत मित्र हैं मेरे, जिनमें कई लोग हैं जिनके मामा या चाचा या दादा भारत में ब्रिटिश शासन का हिस्सा बन कर रहे थे. पर उनमें से कई मित्र मुझे बहुत प्रिय हैं, आज मैं उन्हें विदेशी उपनिवेशवादी या भारत का शोषण करने वालों की संतान के रुप में नहीं सोच पाता, बस केवल मित्र हैं क्योंकि हम आपस में गप्प लगा सकते हैं, एक दूसरे को गाली दे सकते हैं, कभी कभी झगड़ा भी कर सकते हैं.

कल सुबह मुझे एक्वाडोर यानि दक्षिण अमेरिका जाना है और जुलाई के अंत में ही वापस आऊँगा. इस लिये इस ब्लोग की १५ दिन की छुट्टी.


चूँकी आज बात चली है विरह की तो आज की तस्वीरें भी उसी रंग में हैं, दो पारिवारिक तस्वीरें दिल्ली के दिनों की याद में.



सोमवार, जुलाई 11, 2005

थोड़ी सी ... गंगा

बोलोनिया से करीब पचास किलोमीटर दूर एक शहर है रेजियो एमिलिया. यहाँ के आस पास पिछले दस सालों में बहुत से सिख परिवार बस गये हैं, जो कि गाय पालने तथा दूध के काम से जुड़े हुए हैं. क्योंकि इटली के रहने वाले लोग इस काम को नहीं करना चाहते, और इन बड़े फार्म को काम करने चाहिये थे, इसलिये इस सारे क्षेत्र में पंजाब से आये इन परिवारों की वजह से एक छोटा पंजाब बन गया है यहाँ और उनका अपना एक गुरुद्वारा भी है.

इसी क्षेत्र में एक अन्य भारतीय युवक मुकेश चन्द्र के प्रयत्न से पिछले दस वर्षों से हर साल एक नया उत्सव मनाया जाता है जिसका नाम है "थोड़ी सी ... गंगा". इस उत्सव में इटली की सबसे बड़ी नदी पो के किनारे ग्वास्ताला नाम की जगह पर एक छोटा सा मेला लगता है, कुछ गीत संगीत होता है और भारत से लाया गया गंगा का पानी पो नदी में मिलाया जाता है जो दो देशों तथा सभ्यताओं के मिलन का प्रतीक है. इस वर्ष यह उत्सव कल १० जुलाई को मनाया गया और उसमे शामिल होने के लिये बोलोनिया की भारतीय एसोसियेशन का ८ व्यक्तियों का दल भी गया जिसमे मैं भी था.

नीचे तस्वीरों में दो नदियों के जल के संगम समारोह के दौरान पो नदी के किनारे पर खड़े लोग तथा मिलान में भारत के काऊंसल जनरल रवि थापर के साथ यहाँ के भारतीय समुदाय के कुछ लोग

रविवार, जुलाई 10, 2005

मनमोहन सिंह की ब्रिटिश प्रशंसा

आशीष ने अपने लेख में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा इंगलैंड में ब्रिटिश शासन की प्रशंसा के बारे मे क्षोभ व्यक्त किया है. शायद मनमोहन सिंह सोचते हैं कि किसी के घर जा कर उनकी बुराई नहीं करनी चाहिये ? मैं आशीष की बात से सहमत हूँ. पर यहाँ मैं भारत के ब्रिटिश शासन के बारे में कुछ अन्य पहलुओं की बात करना चाहता हूँ.

पिछली सदियों में एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के बहुत से देशों पर यूरोपीय उपनिवेशवाद की वजह से विदेशी शासन हुए. मुझे इनमें से कई देशों की यात्रा का मौका मिला. मेरे ख्याल से इन सभी उपनिवेशवादी देशों में से शायद अंग्रेज़ ही बेहतर थे क्योंकि उन्होंने उन देशो में शिक्षा, स्वास्थ्य, रेलवे, यातायात इत्यादी शासन की कुछ संस्थाएँ छोड़ीं. इनकी आलोचना की जा सकती है, पर कम से कम आलोचना करने के लिए कुछ है तो सही. बैल्जियन या पोर्तगीज शासनों ने कहीं कुछ नहीं छोड़ा, सिर्फ लूटा. स्पेन ने तो दक्षिण अमरीका में पूरी की पूरी जन जातियों का खातमा कर दिया.

इसका यह अर्थ नहीं कि अंग्रेजी शासन भारत के लिये अच्छा था, केवल यह कि अगर विदेशी शासन होना ही था तो अच्छा हुआ कि वह अंग्रेज़ो का हुआ, स्पेनिश, बैलजियन या पोर्तगीज का नहीं.

एक अन्य पहलू है जिस पर, मेरे विचार से, हमने भारत में पूरा चिंतन नहीं किया है, जो है भारत के विदेशी शासन में भारतीयों का अपना हाथ. थोड़े से अंग्रेज़ बिना भारतीयों के सहयोग के क्या टिक पाते ? जर्मनी के सिपाहियों ने यहूदियों को मारने में नैतिक रुप से गलत नाज़ी सरकार के आदेशों का पालन कर के गलत किया, ऐसा कहा जाता है. पर जर्नल डायर के गलत आदेश को मान कर ज़ालियाँवाला बाग में निहत्ते लोगों पर गोली चलाने वाले भारतीय सिपाहियों का कितना दोष था ? भगत सिहं तथा अन्य क्राँतीकारियों को यातना देने वाले, फाँसी चढाने वाले भारतीय अफसरों का कितना दोष था ? क्यूँ अंग्रेज़ों के बनाये गये राय बहादुर स्वतंत्र भारत में भर्त्सना के पात्र नहीं, अपनी अमीरी की वजह से आदर के पात्र बने जबकि आदर्शवादी स्वतंत्रता के लिये लड़ने वाले गरीब ही रह गये ? क्या हमारी संस्कृति यह नहीं कहती कि शासन करने वाले लोग, उम्र मे बड़े लोग, जाती से बड़े लोग, अमीर लोग, इन सब का आदर करना चाहिये, उनके सब आदेश मानने चाहियें, चाहे नैतिक रुप से वे आदेश सहीं हों या गलत ? इनके खिलाफ लड़ने वाले कितने हैं ? चाहे किताबों में और भाषणों में हम कुछ भी कहें पर व्यवहार में तो हम ऐसा नहीं करते ?

एक और पहलू है उपनिवेशवाद को परखने का, इसे ऐतिहासिक दृष्टि से देखने का. किसी बात का क्या प्रभाव पड़ा, किसने क्या पाया और क्या खोया, यह इतिहास दिखाता है. कुष्ठ रोग के बारे मे कहते हैं कि युद्ध में विजियी सिकंदर की सैनाएँ इस बीमारी को भारत से लौटते समय यूरोप में ले आयीं और अगले एक हज़ार वर्षों में यह रोग यूरोप के हर कोने में फ़ैल गया. मैकेले की बनायी शिक्षा प्रणाली ने एक तरफ भारत में अमीर और गरीब, शहरों में रहने वाले और गाँवों में रहने वालों के बीच अंग्रेज़ी और अंग्रेजियत की दीवारें खड़ी कर दीं पर शायद इसकी वजह से आज भारतीय काल सैंटर यूरोप तथा अमरीका में नीचे नीचे से खाईयाँ खोद रहें हैं. अगली दो-तीन सदियों में ही ठीक से समझ आयेगा इस उपनिवेशवाद का लम्बा असर क्या होगा.

आज की तस्वीर मे लंदन का वाटरलू प्लेस जहाँ भारत पर शासन करने वाले कई अंग्रेज़ अफसरों की मूर्तियाँ हैं

शनिवार, जुलाई 09, 2005

एक बार जब ...

लंदन के बम विस्फौट की घटना के बारे में सोचने से, अपनी अन्य कई यात्राओं के बारे में याद आ गया, जब कोई विशेष बात हुई थी. पिछले १७‍-१८ वर्षों में इतनी बार यात्रा की है कि सबके बारे में याद रखना तो कठिन है पर फ़िर भी कई बार ऐसा हुआ कि उसे भूल पाना संभव नहीं है.

लंदन में रात


शायद १९९४ या १९९५ की बात है. जून का महीना था और मैं लंदन मे हमेशा की तरह हैमरस्मिथ के इलाके में एक होटल में ठहरा था जहाँ पहले भी बहुत बार ठहर चुका था. रात को गरमी बहुत थी, होटल में एयरकंडीशनिंग नहीं थी और न ही कोई पंखा था. कमरे की खिड़की ऐसी थी जो बस ऊपर से थोड़ी सी खुलती थी. इसलिये बस जाँघिया पहन कर सो रहा था. अचानक रात में कुछ शोर से नींद खुल गयी. खिड़की के बाहर से कुछ अजीब सी आवाज़ आयी थी. मैंने बिस्तर के पास की बत्ती जलायी और उठ कर खिड़की के पास आया. बाहर जो देखा तो एक क्षण के लिये दिल रुक सा गया और फिर बहुत तेज़ी से धड़कने लगा. होटल के चारों ओर हाथों में बंदूके लिये पुलिस वाले थे. उनमें से कुछ मेरी खिड़की की रोशनी जलने से सिर उठा कर मेरी तरफ ही देख रहे थे.

जल्दी से बत्ती बंद कर, मैंने खिड़की पर परदा कर दिया. एक बार तो सोचा कि बिस्तर के नीचे घुस जाऊँ, पर अंत में वापस बिस्तर में ही घुस गया. बदन काँपने सा लगा, पर कान बाहर की आवाज़ों पर ही लगे थे. कुछ देर के बाद बाहर से बंदूक की गोली चलने की आवाज़ें आयीं पर मैं बिस्तर से बाहर नहीं निकला. चद्दर सिर पर तान लेटा रहा. करीब दो घंटे यूँ ही गुज़रे फिर मेरी घड़ी का आलार्म बजा तो बिस्तर से निकला. तब तक कँपकँपाहट और घबराहट बंद हो गये थे. मैंने अपना सामान लिया और नीचे चैक-आऊट के लिये आया. चारों तरफ पुलिस वाले थे, कोई अखबार पढ रहा, कोई चाय पी रहा था. होटल वाले ने बताया कि होटल मे पुलिस ने आईरिश रिप्बलिकन आर्मी के एक आतंकवादी को पकड़ा था.

चीन में यात्रा

मई १९८९ का अंत था और मैं दक्षिण चीन में युनान प्रदेश की राजधानी कुनमिंग से बेजिंग की यात्रा कर रहा था. मेरे साथ मेरा एक इतालवी साथी था, फेरनान्दो. वह खिड़की की सीट पर बैठा था और मैं बीच की तरफ, कुछ पढ रहा था. अचानक फेरनान्दो ने कहा, देखो जहाज़ नीवे जा रहा है. सचमुच ज़हाज नीचे एक पहाड़ की तरफ जाता लग रहा था. शायद ज़हाज के पायलट ने चीनी भाषा में यात्रियों को बताया कि क्या हो रहा था पर हमें किसी ने कुछ नहीं बताया. कुछ ही देर में ज़हाज एक हवाई अड्डे पर उतरा. हमने पूछने की कोशिश की कि क्या हो रहा है पर तब समझ में आया कि एयर होस्टेस इत्यादी को अंग्रेज़ी के गिने चुने वाक्य ही आते थे. किस्मत से यात्रियों में ताइवान के कुछ पर्यटक थे जिन्होंने हमे बताया कि हम सियान शहर में उतरे हैं क्योंकि ज़हाज मे कुछ खराबी है और हमें कुछ दिन वहीं रुकना पड़ेगा.

बस मे जब हमें होटल की ओर ले जा रहे थे तो रास्ते में सड़कों पर हजारों लोगों, अधिकतर जवान लड़कों को सड़क पर नारे लगाते देखा. पता चला कि किसी नेता की मृत्यु हुई है और विद्यार्थियों में इस बारे में बहुत रोष है. दो दिन रुके हम सियान में. वहाँ के जग प्रसिद्ध मकबरे, जहाँ एक सम्राट के साथ हज़ारों टैराकोटा योद्धाओं की मूर्तियों को दफ़नाया गया था, को देखने भी गये.

अंत में जब बेजिंग पहुँचे तो उस दिन बारिश आ रही थी. स्वास्थ्य मंत्रालय में हमें लोगों से मिलना था वहाँ जाते समय तियानामेन स्कवायर से गुज़रते हुए देखा कि वहाँ भी विद्यार्थियों के झुंड जमा थे. बारिश में भीगते हुए कई लोग अपने आप को पीले रंग के प्लास्टिक से ढक कर बारिश से बचने की कोशिश कर रहे थे. मंत्रालय की मीटिंग के बाद हम लोग तियानामेन आये. विद्यार्थियों से बात करना तो भाषा की वजह से असंभव था. अगले दिन हम लोग बेजिंग से चल पड़े. फेरनान्दो वापस गया ईटली में और मुझे जाना था ओरलान्दो, अमरीका में. रात को ओरलान्दो में होटल में तियानामेन स्कवायर में चलते टैंक देखे तो बहुत धक्का लगा. इतनी बड़ी बात हो जायेगी यह तो सोचा भी नहीं था. उन विद्यार्थियों का सोच कर बहुत दुख हुआ.

आज दो तस्वीरें - एक बंगलोर के पास माँडया से और दूसरी रोम की नगर पालिका, काम्पी दोलियो सेः


शुक्रवार, जुलाई 08, 2005

लंदन के बम विस्फौट

जब लंदन के बम विस्फौट का समाचार मिला तो सबसे पहली बात जो मन में आयी, वह अपनी जान बचने की खुशी की थी. फ़िर जब अंतरजाल पर विस्फौट के बारे में पढा तो एक पल के लिये काँप गया. केवल २४ घंटे पहले, सुबह वही बम विस्फौट के समय पर मैंने भी हैमरस्मिथ तथा सिटी लाईन से उन्हीं स्टेशनों से गुज़रा था, एड्जवेयर रोड, किन्गस् करौस, लिवरपूल स्ट्रीट, क्योंकि सटेनस्टेड हवाई अड्डे की गाड़ी वहीं से चलती है. जब ब्रिक लेन ढूँढते ढूँढते अल्डगेट स्टेशन पहुँच गया था तो वहाँ एक महिला ने रास्ता बताया था. उन जानी पहचानी जगहों की अनजानी तस्वीरें टेलीविज़न पर देख कर अज़ीब सा लग रहा था.

मेरे बेटे की एक मित्र लंदन गयी है कुछ दिन पहले, उसे उसकी चिंता हो रही थी. मेरे एक अन्य मित्र का बेटा टेविस्टोक प्लेस में रहता है, जहाँ बस में विस्फौट हुआ तो उनका परिवार भी परेशान था. मोबाइल टेलीफोन काम नहीं कर रहे थे. फिर शाम होते होते सब के समाचार मिल गये. सब ठीक ठाक हैं, किसी को कुछ नहीं हुआ, तो जान में जान आयी.

लंदन वालों का खयाल आता है मन में. क्या इस घटना से उनके रहने, घूमने में कोई अंतर आयेगा ? अगर दिल्ली के १९८५‍-८६ के दिनों के बारे में सोचूँ तो लगता है कि नहीं, कुछ दिन सब लोग घबराएँगे, फ़िर सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा. बस जिन लोगों की जान गयी है या जो लोग घायल हुए हैं और कुछ हद तक, जो लोग विस्फौट के समय उन गाड़ियों में थे, उनके जीवन बदल जायेंगे. एक दहशत सी रह जायेगी और उनके परिवार यह दिन कभी नहीं भुला पायेंगे.

ऐसा ही कुछ लगा था ११ सितंबर २००१ में, जब मैं लेबानान जाने के लिये हवाई अड्डे पर अपनी उड़ान का इंतजार कर रहा था और टेलीविजन पर दिखायी जा रही तस्वीरों ने ऐसी ही दहशत फैलायी थी. उस दिन माँ अमरीका जा रहीं थीं और उनका जहाजं वाशिंग्टन के बदले केनाडा में कहीं उतरा था. करीब एक सप्ताह तक उन्हें खोजते खोजते हम भी परेशान हो गये थे. वह दिन आज एक दुस्वप्न से लगते हैं पर उनके घाव अभी भी मन में बैठे हैं और कुछ नया होता है तो फ़िर से उभर आते हैं.

एक तस्वीर, लंदन के पुलिसवालों की

गुरुवार, जुलाई 07, 2005

काल्पनिक यात्रा

काल्पनिक यात्रा
अगले सप्ताह मुझे एकुआडोर जाना है. वहाँ जन स्वाथ्य अभियान की अंतरराष्ट्रीय सभा हो रही है, देश के दक्षिणी भाग में स्थित शहर कुएंका में. ञेरा विचार है कि देश की राजधानी कीटो में पहँच कर वहाँ से कुएंका तक की यात्रा बस में करुँ, रास्ते में छोटे शहरों या गावों में रुक रुक कर. १३ तारीख को कीटो पहुँच जाऊँगा और १६ तारीख को कुएंका पहुँचना है तो इसका मतलब है कि खीटो से कुएंका की यात्रा मैं २-३ दिनों में आराम से कर सकता हूँ. यात्रा में जाने से पहले काल्पनिक यात्रा के अपने ही मजे हैं. यहाँ के पुस्तकालय से मैं एकुआडोर की पर्यटन की एक पुस्तक ले कर आया हूँ जिसमें अपनी यात्रा की योजना बना रहा हूँ.


साला बोरसा, बोलोनिया का अनौखा पुस्कालय
साला बोरसा एक बहुत पुरानी इमारत है बोलोनिया शहर के सबसे प्रमुख पियात्सा में जिसका नाम है पियात्सा माजोरे (पियात्सा यानि खुली चकोर-आकार की जगह. इटली में में, ऐसी खुली जगहों की समाज की सामुदायिक जिन्दगी में बहुत महत्व है जहाँ लोग मिलते हैं, बैठते हैं, बातें करते हैं), करीब दो हज़ार साल पुरानी. इस पुरानी इमारत का पुराना रुप कायम रखते हुए इसे अंदर से बिल्कुल नया बनाया गया है. इसका फर्श पारदर्शी है जिसके उपर चलते हुए आप फर्श के नीचे के पुराने रोमन खंडहर देख सकते हैं. इस पुस्तकालय में केवल किताबें ही नहीं, डीवीडी, कम्प्यूटर की सीडीरोम, संगीत की सीडी भी ले सकते हैं. सब कुछ बिना किसी शुल्क के. कभी बोलोनिया आने का मौका मिले तो यहाँ के साला बोरसा को देखना न भूलियेगा. यह मत सोचियेगा कि भला पुस्कालय भी क्या कोई देखनी की चीज़ है.


आज भी दो तस्वीरें प्रस्तुत हैं बोलोनिया शहर की - साला बोरसा पुस्तकालय के बाहर एक प्रदर्शनी और प्राचीन सान्तो सतेफानो चर्च का एक दृश्य


बुधवार, जुलाई 06, 2005

लंदन का छोटा बंगलादेश, ब्रिक लेन

लंदन जाना मुझे अच्छा लगता है हाँलाकि वहाँ जाने का अर्थ अधिकतर मेरे लिये अंतहीन मीटिंगस् होती हैं, जो जब स्माप्त होतीं हैं तो सिर दर्द कर रहा होता है. इस बार भी यूँ ही हुआ. जो कसर बची थी वह बारिश और ठंड ने पूरी कर दी. फ़िर भी सोचा कुछ तो अपने होटल से बाहर निकलना ही चाहिये. यही सोच कर मैं ब्रिक लेन की तलाश में निकल पड़ा.

लंदन की गाईड पुस्तिका कहती है कि ब्रिक लेन पहले घटिया सा गन्दा इलाका समझा जाता था, पर आज बंगलादेशी समुदाय के लोगों की वजह से सारे इलाके का काया पलट हो गया है. लिवरपूल स्टेशन के आसपास का सारा इलाका आज तो बहुत सुंदर लगता है. हाथ मे नक्शा ले हर मैं भी निकल पड़ा. चलते चलते बहत दूर निकल आया पर आसपास "छोटे बंगलादेश" का कोई निशान नहीं दिखा. फ़िर नक्शे को दुबारा से देखा. इतना छोटा छोटा सब दिखाया था उस नक्शे में के कि सड़कों के नाम पढने के लिये मुझे ऐनक उतार कर उसे आँखों के पास लाना पड़ा पर फ़िर भी कुछ समझ नहीं आया. शायद मेरी सूरत देख कर उन्हें दया आ गयी और एक महिला रुक गयीं. मैंने पूछा तो उन्होंने इशारे से रास्ता बताया. फ़िर से चल दिया और फ़िर से काफ़ी चलने के बाद भी जब ब्रिक लेन न मिली तो एक बार फ़िर किसी से पूछना पड़ा. उतनी देर में बारिश शुरु हो गयी थी.

अंत में जब ब्रिक लेन मिली तो मैं कुछ भीग चुका था. कुछ खास नहीं लगी यह ब्रिक लेन, दोनों तरफ बंगलादेशी रेस्टोरेंट, कोई इक्का दुक्का अन्य दुकान जैसे बंगाली कपड़ों की या किताबों या संगीत की. कुछ कुछ साउथहाल जैसा. सोचा कि इतनी तारीफ कर के एक ऐसी चीज़ जो शहर की अंग्रेज़ी खूबसूरती की बीच में बंगलादेशी हल्ला गुल्ला ले आयी हो, उसे ठीक तरीके से बेचना बहुत अच्छा आता है इन लंदन वालों को. टूरिस्ट घूमते हैं, खरीदारी करते हैं, बंगलादेशी दुकानदार भी अच्छी कमाई करते हैं, सभी खुश हैं. आसपास अधिकतर लोग बंगला बोल रहे थे, कोई कोई हिन्दी भी बोल रहा था. मुझे मिठाई खरीदने में हिन्दी में अपनी बात समझाने में भी कोई कठिनाई नहीं हुई.

लंदन में हर तरफ २०१२ के ओलिम्पिक खेलों की चर्चा हो रही थी कि वे इंग्लैड को मिलेंगे या फिर पैरिस को, या मोस्को को या न्यू योर्क को. वापस आते समय, हवाई जहाज़ में पायलेट ने सूचना सुनायी कि २०१२ के ये खेल इंग्लैंड में ही होंगे तो सभी अंग्रेजं यात्रियों ने तालियाँ बजा कर इस समाचार का स्वागत किया.

दो दिन के लिये गया था लंदन और ये दो दिन तो बीते ठंडक और बारिश मे. इटली में आ कर गरमियों को फ़िर से पाया हालाँकि आज तो केवल २६ डिग्री का तापमान है यहाँ, पर कम से कम स्वेटर या जैकेट पहनने की ज़रुरत तो नहीं है.

आज प्रस्तुत हैं लंदन की दो तस्वीरें - ब्रिक लेन और लिवरपूल स्टेशन


सोमवार, जुलाई 04, 2005

@ का हिन्दी अनुवाद

@ को अंग्रेज़ी मे तो एट कहते ही हैं पर अन्य भाषाओं में क्या कहते हैं ? इतालवी में इसे कहते हैं कियोच्योला और फ्रासिसी में एसकारगो, दोनो का अर्थ है घोंघा. रुसी में कहते हैं सोबाका यानि कुत्ता और ग्रीस भाषा में पापाकी यानि छोटी बतख. इज़राईल वाले इसे स्टूर्डल यानि सेब का केक और कुछ अन्य देशों में इसे बन्दर कहते हैं इसकी लम्बी पूंछ के लिए. तो हिन्दी में क्या अनुवाद होगा इसका ?

भोपाल एक्सप्रेस

कल शाम को १९९९ में बनी महेश मथायी द्वारा निर्देशित फिल्म भोपाल एक्सप्रेस देखी. यूनियन कारबाईड के कारखाने से निकली गैस की "दुर्घटना" के दृश्य भयानक भी हैं दर्दनाक भी. देख कर दुख यही होता है कि अपने भारत में जब हज़ारों गरीब लोग इस तरह से मर सकते हैं तो हमारी सरकार अपने लोगों की रक्षा तो कर नहीं पाती पर उन्हें न्याय दिलाने में भी कुछ नही् करती. यह फ़िल्म अंतरजाल पर निःशुल्क रियल मीडिया प्लैयर पर देखी जा सकती है, भोपाल डाट एफ एम के वैब पृष्ठ पर.

मुक्तिबोध की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ:

अन्तःकरण का आयतन संक्षिप्त है
आत्मीयता के योग्य
मैं सचमुच नहीं.
पर, क्या करुँ,
यह छाँह मेरी सर्वगामी है.
हवाओं में अकेली साँवली बैचेन उड़ती है
कि श्यामल अंचला के हाथ में
तब लाल कोमल फ़ूल होता है
चमकता है अँधेरे में
प्रदीपित द्वन्द्व चेतस् एक
सत्-चित्-वेदना का फ़ूल


आज की तस्वीर बोलोनिया के ग्रीष्म ऋतु के स्वागत फैसटिवल "पेर तोत" से

रविवार, जुलाई 03, 2005

खोये हुए शब्द

हंगरी की सुप्रसिद्ध लेखिका अगोटा क्रिसटोफ स्विटज़रलैंड में रहती हैं. कम्यूनिस्ट शासन के दिनों में, १९५६ मे उन्हें अपना देश छोड़ कर परदेस मे शरण लेनी पड़ी थी और उनका सारा लेखन फ्रांसिसी भाषा मे है. उनकी प्रसिद्ध तीन किताबों की श्रिंखला है, "के का शहर" जिसे मैने कुछ वर्ष पहले पढा था. लिखने का अनोखा अंदाज़ है उनका. गिने चुने शब्द, छोटी पतली किताबें, छोटे छोटे, एक पन्ने या आधे पन्ने के अध्यायों में विभाजित. पर हर एक शब्द चुना हुआ, पैने चाकू की तरह जो दिल की गहराईयों मे घुस जाते हैं.
उनकी आत्मकथा आयी है, "अनपढ". इसमे अपने फ्रांसिसी भाषा मे लिखने के बारे मे अगोटा कहती हैं "सबसे बड़ा क्षय तब हुआ जब मुझसे मेरी मात्तृ भाषा खो गयी, चीज़ों की पहली भाषा, भावनाओं की, रंगों की, शब्दों की, पुस्तकों की, साहित्य की भाषा. जिस जैसी अन्य कोई भाषा नहीं. जो जब खो गयी तो साहित्य और लेखन भी खो जाते हैं, और हम फ़िर से अनपढ बन जाते हैं ..."
ऐसा ही कुछ लगता है मुझे. यह तो नहीं लगता कि मैं अनपढ हो गया हूँ पर एक एहसास अवश्य है कि अंग्रेज़ी या इतालवी भाषा में महसूस की गयी, सोची और लिखी गयी दुनिया हिंदी में महसूस की गयी दुनिया से भिन्न है. और अपनी भाषा के खोने का दुख भी था, जैसे शरीर का कोई अंग कहीं खो गया हो. धीरे धीरे शब्द खोने लगे थे. भारत से आया कभी कोई मिलता भी तो हिन्दी में कहने के शब्द खोजने से भी नहीं मिलते. कई बार मन मे कोई शब्द आता तो उसका हिन्दी का अर्थ घंटों सोचता रहता. एक बार "नटक्रेकर" को हिन्दी में क्या कहते हैं, यह कई दिनों तक सोचता रह गया था.
हिन्दी मे ब्लौग लिखना शुरु किया है तो धीरे धीरे खोये हुए शब्द वापस आने लगे हैं. अभी भावों की अभिव्यक्ति ठीक तरह से नहीं होती है, कई बार रुक कर सोचना पड़ता है कि इसे हिन्दी मे कैसे कहते हैं. कभी लगता है कि वाक्य संरचना मन में इतालवी मे या अंग्रेज़ी में होती है जिसका अनुवाद हिन्दी मे हो जाता है और इसलिये वाक्य संरचना प्राकृतिक नहीं है. पर धीरे धीरे खोये हुए शब्द वापस आ रहे हैं. कल मन मे आया कि हिन्दी मे कहानी लिखूँ. बस सारा दिन छुट्टी का उसी कहानी के चक्कर मे निकल गया. रात को एक बजे जा कर सोया.
***
आज एक कविता दिल्ली की रुपाली सिन्हा की "मुक्ति", जो जून 2004 के हँस में छपी थीः
"तुमने कहा, विश्वास
मैंने सिर्फ तुम पर विश्वास किया
तुमने कहा,
वफ़ा
मैंने ताउम्र वफ़ादारी निभायी
तुमने कहा, प्यार
मैंने टूट कर तुमसे प्यार किया

मैंने कहा, हक
तुमने कहा सबकुछ तुम्हारा ही है
मैंने कहा, मान
तुमने कहा अपनों मे मान अपमान कहाँ ?
मैंने कहा, बराबरी
तुमने कहा,
मुझसे बराबरी ?
मैंने कहा, आज़ादी
तुमने कहा, जाओ मैंने तुम्हें सदा के लिए मुक्त किया."
***
और आज की तस्वीर है उत्तरी इटली की कोमों झील की

शनिवार, जुलाई 02, 2005

अंतरजाल का कमाल

सुबह सुबह उठ का तैयार हुआ और रेलवे स्टेश्न गया. रोम तक की यात्रा में करीब तीन घंटे लगे. फ़िर वहाँ से मैट्रो ली, फ़िर बस. देखने में तो जगह बहुत सुंदर थी हाँलाकि कुछ दूर अवश्य थी. पहाड़ियाँ और हरे भरे पेड़. होटल ढूंढने थोड़ी कठिनाई हुई, पहुँचते पहुँचते, पसीने कमीज़ पीठ पर चिपकने लगी थी, होटल एक पहाड़ी पर जो था. देखा तो दिल धक्क सा रह गया. दीवार पर उतरे हुए रंग, गिरती हुई सी दीवारें. अंदर भी वैसा ही हाल. हर चीज़ पर धूल की परत, थोड़े से लोग इधर उधर बैठे.

अंतरजाल, यानि इंटरनैट पर तो बहुत अच्छा लग रहा था. पर सच्चाई अंतरजाल मे दिखाये गये सच से बिल्कुल भिन्न थी. वह होटल हमारी मीटिंग के लिये उपयुक्त नहीं था. इतनी दूर आ कर मायूसी. फ़िर वापस बोलोनिया आने के लिये, उतनी ही लम्बी यात्रा और पूरे रास्ते पछता रहा था कि यूँ ही सारा दिन बेकार किया. अब कोई अन्य जगह ढूँढनी पड़ेगी.

अंतरजाल का कमाल, गधे को दिखाया घोड़े की चाल. नई कहावत है यह मेरी. सोचता हूँ, कैसे लोग ईबे (ebay) जैसी जगह से चीज़े खरीद लेते हैं, क्या उन्हें भी ऐसे लोग धोखा दे सकते हैं ?

फ़िर सोचा, आज के भूमंडलीकरण और अंतरजाल की दुनिया मे अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिये, क्या नयी कहावतें बन रही हैं या बन सकती हैं ?

आज की कविता मे हैं, विदिशा की सुश्री अमिता प्रजापति की कविता "मत हो उदास" की कुछ पंक्तियाँ

ओ नीलू मत हो निराश
कि चूक हुई है
हमारी पुरखिन मांओ से
नहीं बना पायीं वे ऐसे पुरुष
कि घुल सकें, बह सकें
हवाओं मे हल्के हो कर

ये हमारे पुरखे पिता
जो कसे हुए घोड़ों की तरह
अपनी टापें हमारी छाती पर रखा करते थे
भाई, पिता, प्रेमी और पति बन कर

और आज की तस्वीर है, दक्षिण भारत में भालकी के पास एक गाँव से

शुक्रवार, जुलाई 01, 2005

ब्लौग शिष्टाचार नियम

जैसे ईमेल के शिष्टाचार नियम हैं, वैसे ही चिट्ठे के भी शिष्टाचार नियम होंगे ? जब कोई आप के एक चिटठे पर कोई टिप्पड़ीं लिखे तो क्या करना चाहिये ? क्या सभी टिप्पड़ीं लिखने वालों को अलग अलग उत्तर देना चाहिये ? और अगर ऐसा न किया जाये तो क्या इसका अर्थ है कि आप में शिष्टा की कमी है ?

और कैसी बातें लिख सकते हैं चिट्ठे में ? क्या उसके भी शिष्टाचार नियम हो सकते हैं ? और अगर आप किसी के बारे में ऊल जलूल कुछ भी लिख दें, तो क्या वह व्यक्ति आप पर मान हानि का दावा कर सकता है ? और अगर ऐसे नियम हैं भी तो किसने बनाये हैं ?

कौन पढता है चिट्ठों को और क्यों ? समय गुज़राने के लिये यूँ ही ? कितने सारे सवाल. पर वह सवाल जिसका उत्तर जानने के मुझे शायद सबसे अधिक इच्छा है, क्यों लिखते हैं हम ये चिट्ठे ?

इस अंतिम सवाल के बारे में सोचता हूँ कि शायद हर किसी के मन में आत्म अभिव्यक्ति की इच्छा होती है, पर यह डर भी होता है कि जो हम कहना चाहते हैं, वह किसी को अच्छा लगे या न लगे, और अगर हम उसे किसी पत्रिका या अखबार में भेजने का साहस कर भी लें तो कोई उसे छापेगा नहीं और इससे हमारे आत्म सम्मान को ठेस लगेगी. इंटरनेट तथा चिट्ठे के बहाने यह भय दूर हो जाता है और प्रजातांत्रिक तरीके से हम सब को अपनी अभिव्यक्ति का अवसर मिल जाता है. तो क्या इसका अर्थ है कि धीरे धीरे, आत्मविश्वास बढने के साथ हममे से कुछ लोगों की रचनात्मक शक्ति बढेगी और नये लेखक सामने आयेंगे ?

और कुछ भी हो, एक बात तो है कि पहले जो बै सर पैर की बातें आप अपनी पत्नी या एक दो मित्रों के साथ करते थे, अब चिटठों के माध्यम से सारे विश्व से कर सकते हैं. कोई सुने या न सुने, वह अन्य बात है.

आज एक कविता रायपुर के संजय शाम की, दिसंबर २००३ के हँस से, समाचार बच्चा और झूठ

पापा आँटी क्यों रो रही है
पापा, बच्चे सड़क पर क्यों सो रहे हैं
क्यों ढक रहे हैं उन्हें एक सफ़ेद चादर से
पापा वो भैया जो चाय की केतली पकड़े है
स्कूल नहीं जाता क्या ?
पापा साधु बाबा को पुलीस क्यों पकड़ कर ले जा रही है?

उसने सौ सवाल पूछे
हमने सौ झूठ बोए
उसने छुपायी एक बात
हम भयभीत हुए
और विंतित भी
अभी से झूठ
ईश्वर जाने
इस बच्चे का
भविष्य क्या होगा

यह तस्वीर है लंदन में सोहो में चाईना टाऊन की



लंदन के रिक्शे और उन्हें चलाने वाले श्वेत युवकों को देख कर बड़ा अज़ीब सा लगता है. मन में एक छवि सी है, दो बीघा ज़मीन में रिक्शा खींचने वाले बलराज सहानी जैसी कि रिक्शा खींचने वाले, गरीब, शोषित लोग हैं. उस छवि का लंदन के इन रिक्शे वालों से कुछ दूर का भी नाता नहीं है.

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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