बुधवार, नवंबर 30, 2005

मानव संबंध

रात को टीवी पर हम सब लोग एक इतालवी फिल्म देख रहे थे, "अब रोने के सिवाय क्या करें" (Non ci resta che piangere) जिसके प्रमुख कलाकार थे रोबेर्तो बेनिन्यी (Benigni) और मासिमो तरोईसी (Troisi). बेनिन्यी का नाम तो ओस्कर मिलने के बाद लोगों को कुछ मालूम है पर तरोईसी का नाम इटली के बाहर अधिकतर अनजाना है. तरोईसी का स्थान इतालवी सिनेमा में कुछ वैसा ही जैसे जेम्स डीन का अमरीकी सिनेमा. थोड़े से समय में जनप्रिय हो जाना और जवान उम्र में मृत्यु होना, इन दोनो बातें में इन दोनो अभिनेताओं का भाग्य एक जैसा था. तरोईसी की सबसे प्रसिद्ध, और मेरे विचार में सबसे सुंदर फिल्म थी "डाकिया" (Il postino).

रात की फिल्म में बेनिन्यी बने थे एक स्कूल के अध्यापक और तरोईसी थे स्कूल के अदना कर्मचारी जो स्कूल का गेट का ध्यान रखता है, पानी पिलाता है, इत्यादि. और फिल्म में दोनो बहुत पक्के मित्र दिखाये गये है. फिल्म देखते हुए मन में एक बात आयी कि भारत में विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले लोगों में इस तरह की बराबरी और मित्रता होना बहुत कठिन है. अगर बचपन में मित्रता रही भी हो तो बड़े होने पर, स्तर बदलने के साथ दोस्ती भी बदल जाती है. यानि कृष्ण और सुदामा की दोस्ती की कहानी किताबों में ही हो सकती है, आम जीवन में नहीं ?

करीब ३५ साल पहले किशोरपन में एक बार एक अंग्रेजी किताब पढ़ी थी जिसमें एक प्रसिद्ध सर्जन का अस्पताल में काम करने वाली एक सफाई कर्मचारी से प्यार हो जाता है. तब पढ़ कर बहुत अजीब लगा था और विश्वास नहीं हुआ था. वह किताब आधी ही छोड़ दी थी, पूरी नहीं पढ़ी थी. आज मेरे मित्रों में से एक डाक्टर हें जो कि अपने विभाग के अध्यक्ष हैं और उनकी जीवनसंगिनी, मेरे आफिस में सफाई करती हैं. ऐसी बात भारत में आज भी सोचना असंभव ही लगता है.

क्यों है ऐसा ? क्यों हमारे मानव संबंध व्यक्ति से नहीं उसके वर्ण और वर्ग से बनते हैं ? मुझे लगता है कि आज शहरों में रहने वाले लोग वर्ण और जाति भेद से कम प्रभावित होते हैं पर अपने मित्र चुनते समय उसका पैसा, काम और जीवक स्तर अवश्य देखते हैं ? शायद भारत में शारीरिक काम को नीचा देखा जाता है क्योंकि ये काम "निम्न" वर्णों के लिऐ बने थे ?
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निर्मल वर्मा की किताब "चीड़ों पर चाँदनी" उनके १९६० के आसपास के उनके यूरोप निवास मे बारे में यात्रा संस्मरण हैं. इसमें उन्होंने बताया था कि आईसलैंड की भाषा में भी "संबंध" शब्द का बिलकुल वही उच्चारण और अर्थ है जो कि हिंदी में है.

इतालवी और हिंदी में भी कई शब्दों के स्वर और अर्थ कुछ कुछ मिलते हैं जैसे "मरना" और "मुओरे", "जवान" और "ज्योवाने", और इतालवी की व्याकरण के नियम संस्कृत से मिलते हैं. इसका कारण भारतीय और यूरोपीय भाषाओं के एक ही मूल से जन्म लेना है.

रमण जी, आज कल मैं सोचता कुछ हूँ और लिखता कुछ और. माफ कीजिये. लगता है अतुल के अमरीका आने वाले लेखों का मुझपे गहरा प्रभाव पड़ा है और इसीलिए उन्हीं का नाम लिख दिया!

आज दो तस्वीरें उत्तरी पूर्व अफ्रीका में इरित्रेया देश में
एक यात्रा से.


मंगलवार, नवंबर 29, 2005

सही भाषा

हिंदी में कौन सा शब्द कैसे लिखें यह कौन निर्धारित करता है ? क्योंकि देश के विभिन्न भागों में हिंदी विभिन्न तरीके से बोली जाती है और हिंदी भाषा एक "फोनेटिक" भाषा है, जैसे बोली जायी वैसे ही लिखी जाये. न इसमें फ्राँसिसी और इतालवी भाषाओं जैसे कोई खामोश स्वर हैं, जो लिखे जायें पर बोले न जायें. न ही इसमें अंग्रेजी जैसे स्वर हैं जिन्हें एक शब्द में एक तरीके से बोला जाये और दूसरे शब्द में दूसरे तरीके से.

पिछले सप्ताह जब अपने पिता की १९५६ में ज्ञानोदय में छपी कहानी को क्मप्यूटर पर लिख रहा था तो देखा कि हर जगह "पहले" को "पहिले" लिखा था तो अचानक मेरठ की याद आ गयी, जहाँ कई लोग "मत करो" को "मति करो" कहते थे. सोचा कि यह उसी कारण से है कि देश के विभिन्न भागों में एक शब्द को अलग अलग तरह से बोलते हैं. इसमें सही गलत की बात नहीं.

हाँ इसमें मिलते जुलते स्वर अवश्य हैं जिनकी वजह से एक शब्द को आप विभिन्न तरीके से लिख सकते हैं जैसे "जायें" और "जाएँ", पर ऐसी स्थिति में इनमें शब्द को लिखने का एक प्रचलित तरीका हो सकता है जिसे हम सही मान सकते हैं. अतुल की टिप्पणीं पढ़ी तो यह सब सोचा. अतुल ने लिखा है कि मैं "टिप्पणीं" को "टिप्पड़ीं" क्यों लिखता हूँ ?

मैं तुरंत हिंदी का फादर कामिल बुल्के का शब्दकोष निकाल कर लाया. उसमें "टिप्पणीं" ही लिखा था. अच्छा, दूसरे शब्दकोष में देखते हैं, यह सोच कर मैं एलाईड का हिंदी शब्दकोष देखने लगा. उसमें भी टिप्पणीं ही लिखा था. फिर भी मैंने हार नहीं मानी. पुरानी सब किताबें घर के बेसमेंट के कमरे में बंद हैं, वहाँ से एक पुराना शब्दकोष ढ़ूँढ़ कर लाया, डा. भार्गव का अंग्रेजी शब्दकोष. उसमें भी टिप्पणीं ही पाया. आखिर हार माननी ही पड़ी. हो सकता है कि कुछ शब्द हिंदी में दो तरीकों से लिख सकते हैं पर टिप्पणीं उन शब्दों में नहीं है !

इसलिए अतुल को धन्यवाद. आगे से मेरी "टिप्पणियाँ" ही होगीं, "टिप्पड़ियाँ" नहीं.

एक सवाल अब भी है, क्या भारत में कोई ऐसी संस्था है जो यह निर्धारित करे कि हिंदी का कौन सा शब्द कैसे लिखना सही या गलत है, जिसकी सलाह मतभेद होने पर ली जा सके ?
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कई दिनों से चिट्ठा लिखने के कुछ विषय मेरे दिमाग में घूम रहे हैं और हर रोज रात को सोचता हूँ कि सुबह इस बात या उस बात पर लिखूँगा पर सुबह जब लिखने बैठता हूँ तो कुछ और ही बात लिखी जाती है. यानि कि लिखने में अनुशासन नहीं है !

आज की तस्वीरों का शीर्षक है चेहरे.



सोमवार, नवंबर 28, 2005

बेचारे आलोचक

किसी को बताना कि उसमें क्या कमी है, सबके बस की बात नहीं. खुले आम दो टूक बात करने के लिए पत्थर दिल चाहिये. मेरे पास कभी कभी वैज्ञानिक या चिकित्सा संबंधी पत्रिकाओं से रिव्यू करने के लिये लेख आते हैं. बहुत सी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में बिना इस तरह के "पीयर रिव्यू" के बिना कुछ नहीं छपता. अंत में लेखक को सारी आलोचनाँए भेज दी जाती हैं ताकि वे अपने लेखों को सुधार सकें, हालाँकि उन्हें यह नहीं बताया जाता कि किन व्यक्तियों ने ये आलोचनाँए दी हैं. इसी अनुभव के बल पर जानता हूँ कि आम व्यक्तियों के लिए किसी की आलोचना करना कितना कठिन है.

आलोचना अगर आप लेखक की सहायता के लिए कर रहे हैं यानि आप चाहते हैं कि लेखक का लेखन सुधरे, तो उसे सृजनात्मक होना चाहिये. लेख के विभिन्न हिस्सों के बारे में, कहाँ क्या ठीक नहीं है या क्या कमजोर है, आदि बताना चाहिये और सुंदर, बोरिंग, बेकार जैसे शब्द नहीं इस्तेमाल करने चाहिये क्योंकि ये तो व्यक्तिगत अनुभूतियाँ हैं. पर ऐसा शायद वैज्ञानिक लेखों में करना आसान है और यह बात चिट्ठों पर लागू नहीं होती !

आलोचना करना अगर कठिन है तो अपनी आलोचना सुनना उससे भी अधिक कठिन. इसलिए जब वह अनाम संदेश पढ़ा कि किसी को मेरा लिखा नीरस लगता है तो धक्का सा लगा. पहले सोचा कि लिखूँ, "मैं भी आप की बात से बहुत सहमत हूँ, मुझे भी अपना लिखा नीरस लगता है और इसलिए अपना लिखा नहीं पढ़ता, अन्य दिलचस्प चिट्ठे बहुत हैं, उन्हे पढ़ता हूँ. आप भी ऐसा ही करिये." पर कुछ सोच कर लगा कि इस तरह आलोचना की हँसी उड़ाना ठीक नहीं, उसे गम्भीर सोच विचार कर दिये गये उत्तर की आवश्यकता है.

पर कल चिट्ठे के बाद जो संदेश आने शुरु हुए तो बंद ही नहीं हो रहे. सुहानूभूति और प्रोत्साहन के संदेश. आप सब को धन्यवाद.

पर मेरे मन में कुछ शक सा आ रहा है. पिछले दिनों कुछ "टिप्पड़ियाँ कम होने" पर बहस हो रही थी, यह कहीं कोई खुराफात तो नहीं है ? अगर है तो मैं सच कहता हूँ कि मेरा इसमे कोई हाथ नहीं था !

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जेनेवा यात्रा के दौरान, शाम को खाली होटल में बैठे, दो पुरानी कहानियों को क्मप्यूटर पर टाईप किया. एक कहानी है मेरे पिता द्वारा लिखी "आँसू और इंद्रधनुष" जो १९५६ में ज्ञानोदय में छपी थी और दूसरी कहानी है, "जूलिया" जो मैंने १९८३ में लिखी थी और धर्मयुग में छपी थी.


आज दो तस्वीरें कल के हिमपात की.


रविवार, नवंबर 27, 2005

यात्रा और मंजिल

कहते हैं कि जीवन एक यात्रा है और मृत्यु हम सब की मंजिल. इसलिए यात्रा में यात्रा का ही आनंद लेना चाहिये, मंजिल के बारे में नहीं सोचना चाहिये. मंजिल के बारे में सोचने लग जायें तो यात्रा का आनंद भी खो बैठते हैं. शायद यह बात जीवन यात्रा के लिए ही ठीक बैठती है, अन्य रोजमर्रा की सामान्य यात्राओं के लिए नहीं ?

अपनी पहली हवाई यात्रा की हल्की सी याद है मुझे. दिल्ली से रोम की यात्रा थी वह, जापान एयरलाईनस् के जहाज पर. मेरी फुफेरी बहन के पति जापान एयरलाईनस् में काम करते थे, उन्होंने ही टिकट बनवाया था और पहले दर्जे की सीट पर बिठवा दिया था. तब से जाने कितनी यात्राएं होने के बाद, आज हवाई यात्रा में काम पर कहीं भी जाना पड़े तो कोई विशेष उत्साह महसूस नहीं होता. कितने घंटे कहाँ पर इंतजार करना पड़ेगा इसकी चिंता अधिक होती है. और जहाज के भीतर जा कर, सारा समय किताब पढ़ने या कुछ काम करने में निकल जाता है.

जब कभी यात्रा अप्रयाशित रुप में अपने तैयार रास्ते से निकल कर कुछ नया कर देती है तब याद आती है यात्रा और मंजिल की बात. ऐसा ही कुछ हुआ कल सुबह, जेनेवा से वापस बोलोनिया के यात्रा में. परसों जेनेवा में बर्फ गिरी थी और बहुत सर्दी थी. पर कल सुबह जब जागा तो आसमान साफ हो गया था. जेनेवा से म्यूनिख की यात्रा में कोई विशेष बात नहीं हुई पर म्यूनिख में तेज बर्फ गिर रही थी. पहुँच कर पाया कि बोलोनिया का जहाज एक घंटा देर से चलने वाला था. घर पर टेलीफोन करके देरी का बताया और फिर बैठ कर एक किताब पढ़ने लगा. आखिरकार बोलोनिया की उड़ान भी तैयार हुई. जहाज से दिखा कि पूरा उत्तरी इटली बादलों से ढ़का है. एल्पस् के पहाड़ एक क्षण के लिये भी नहीं दिखे. फिर बोलोनिया पहुँचे तो जहाज बहुत देर तक आसमान में ही चक्कर काटता रहा. काफी देर बाद घोषणा हुई कि वहाँ तेज हिमपात की वजह से जहाज पीसा हवाई अड्डे जायेगा और वहाँ से बस द्वारा हमें बोलोनिया लाया जायेगा.

उसके तुरंत बाद जहाज में झटके से लगने लगे. शायद बाहर तेज तूफान था और हमारे छोटे से जहाज में झटके अधिक महसूस होते थे. दस पंद्रह मिनट तक इतनी बार ऊपर नीचे हुए कि कई लोगों ने मतली कर दी, एक सज्जन बेचारी एयर होस्टेस से लड़ने लगे. एक झटका इतनी जोर से आया कि ऊपर से ओक्सीजन का बाक्स खुल गया और मास्क नीचे आ गये. लगा कि अपनी जीवन यात्रा की मंजिल आ गयी. पीसा उतरे तो तेज हवा के साथ बारिश हो रही थी.

अगर म्यूनिख से पीसा की यात्रा रोमांचक थी तो पीसा से बोलोनिया की बस यात्रा भी कम रोमांचक नहीं थी. बर्फीले तूफान में पहाड़ों के बीच में हो कर गुजरना किसी भी भौतिकवादी को आध्यत्मवादी बनाने के लिए अच्छा तरीका है. तीन घंटे बाद जब बोलोनिया पहुँचे तो जेनेवा से यात्रा प्रारम्भ किये ११ घंटे हो चुके थे.

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"आपका लेखन कुछ नीरस टाइप का और एक ही ढर्रे पर रहने वाला है। कुछ नया क्‍यों नहीं ट्राई करते।" एक अनाम पाठक ने यह टिप्पड़ीं दी है. अनाम जी बहुत धन्यवाद क्यों कि आप ने मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि मैं चिट्ठा क्यों लिखता हूँ ? मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मैं अपने लिए लिखना चाहता हूँ, जो मुझे भाये. मुझे लगता है कि अगर मैं यह सोच कर लिखूँ कि पढ़नेवालों को क्या अच्छा लगता है तो यह चिट्ठा लेखन के प्रति बेईमानी होगी. यह नहीं कि मैं उसे पढ़ने वालों के महत्व को छोटा करना चाहता हूँ पर अंतरजाल का यही तो मजा है कि आप के पास पढ़ने के लिए चुनने के लिए बहुत सारे चिट्ठे हैं.

आज की तस्वीरें जेनेवा यात्रा से.


बुधवार, नवंबर 23, 2005

बाग की नाली

हमारे शहर के संस्कृति विभाग ने इश्तेहार छाप दिये कि शहर के इतिहास को जानने पहचानने के लिए "अपने शहर को जानिये" नाम से मुफ्त टूर का आयोजन किया है जिसमें गाईड का काम करेंगे विश्वविद्यालय के जाने माने इतिहासकार. इसके साथ साथ इश्तेहार पर शहर के विभिन्न भागों के टूरों की तारीखें थीं. सभी टूर शनिवार या रविवार को थे ताकि अधिक से अधिक लोग उसमें भाग ले सकें. भाग लेने के लिए आप के पास साइकल का होना जरुरी था.

तुरंत मैं और मेरी पत्नी ने सोचा कि इनमें अवश्य भाग लेंगें. सुबह सुबह साइकल उठा कर पहुँच गये. हमारे गाईड जी आगे साइकल पर मेगाफोन ले कर चलते, उनके पीछे पीछे शहर का इतिहास जानने की इच्छुक भीड़. करीब ६० या ७० व्यक्ति. यातायात की रुकावटें न हों इसलिए यातायात पुलिस भी हमारे साथ साथ चलती. एक दिन ५०-५५ कि.मी. तक के सफर किये साइकल में, नदियों के पास पुरानी पगडँडियों पर, गिरे मकानों के खँडहरों के पास, शहर के आसपास की पहाड़ियों पर. इस तरह से घूमने से, आज मेरे विचार में हम लोगों को अपने शहर की इतनी बातें मालूम हैं जो कम ही लोगों को होंगी.

एक सुबह मिलने की जगह जहाँ से टूर प्रारम्भ होना था हमारे घर के करीब ही थी. मैंने सोचा कि जरुर हमें नदी और पुराने बंदरगाह के बारे में बतायेंगे क्योंकि यह दोनो हमारे घर से अधिक दूर नहीं हैं. जब काफिला शुरु हुआ तो हमें अचरज हुआ कि हमारे गाईड जी हमारे घर की ओर चल पड़े. जब वे हमारे घर के पीछे वाले बाग में घुसे तो हमारा अचरज और भी बढ़ा. यह बाग बहुत सुंदर है और बड़ा है, पर उसमें एतिहासिक क्या है ? आखिर में गाईड जी हमारे बाग के कोने में एक छोटा सा नाला बहता है वहाँ जा कर रुके. पहले उन्होने उँगली उठायी नाले के पीछे दिख रहे चर्च की ओर, और ११६२ में बने चर्च का इतिहास बताया.

फिर उन्होंने इशारा किया नाले की ओर व उसका भी इतिहास बताया. १४६८ में बोलोनिया शहर वापस पोप के शासन का भाग बन गया था. शहर के आसपास गुजरती रेनो नदी के पानी का उपयोग बेहतर करने के लिए शहर में पहले से ही कई नहरें थीं पर उस समय के पोप जिन्हें पोप गिसेल्लो कहते थे क्योंकि वे बोलोनिया के पास ही प्रसिद्ध गिसेल्लो परिवार से थे, एक नहर और बनवाने का निश्चय किया. वह हमारा नाला वही नहर थी, १४६८ में बनी.

जब भी कुत्ते के साथ घूमने निकलता हूँ और नाले पर दृष्टी पड़ती है उसका इतिहास मुझे याद आ जाता है. और घर पर आये महमानों को हम अपने घर के पीछे छुपे इतिहास के बारे में बताना नहीं भूलते.
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आज सुबह मुझे कुछ दिन के लिए बाहर जाना है. रविवार २७ नवम्बर को लौटने पर फिर मुलाकात होगी. आज एक तस्वीर बर्फ से ढ़के हमारे "एतिहासिक" बाग से हैं.

मंगलवार, नवंबर 22, 2005

इस मोड़ से जाती थीं

खेत तिलक नगर से उत्तम नगर के रास्ते पर शुरु हो जाते थे. उसके बाद आता नवादा. अम्मा और बापू नवादा में रहते थे. अम्मा के मिट्टी के घर पर मोर रहते थे. तीन मोर और बहुत सारी मोरनियाँ. अम्मा के यहाँ खाने में मिलती मोटी सी रोटी जिसके साथ वह मक्खन का बड़ा सा टुकड़ा रख देती. और पीने के लिए ठंडी छाछ जिसमें से उपलों की खुशबू आती थी. अम्मा का घर गाँव के बाहर किनारे पर था. उस बार होली देखने के लिए हम लोग गाँव के बीच में जो पानी की टँकी थी उसके पास एक घर में छत पर गये थे. रँगों और गुब्बारों से होली खेलने वाले हम, गाँव की मिट्टी और कीचड़ की होली को अचरज और हल्की सी झुरझुरी से देख रहे थे. पानी की टँकी के पास लड़के और पुरुष पानी की बाल्टियाँ ले कर औरतों के पीछे भाग रहे थे, जो कपड़ों को घुमा और लपेट कर उनके डँडे बना कर उनसे उन लड़कों और पुरुषों को मार रही थीं.

जितनी बार नवादा के सामने से गुजरता होली का यह दृष्य मुझे याद आ जाता. नवादा से दो किलोमीटर आगे सड़क के किनारे नाना का फार्म था. हम लोग, मैं और मौसी, अक्सर फार्म से नवादा की दुकान तक कुछ भी खरीदना हो तो पैदल ही आते थे. अम्मा और बापू कहने को हमारे कोई नहीं थे पर माँ को जब स्कूल में पढ़ाने की नौकरी मिली थी तो सबसे पहले वो नवादा के प्राईमरी स्कूल में थी और माँ तब अम्मा के साथ रहती थी. बापू दिल्ली परिवहन की बस चलाते थे और अम्मा बापू का कोई अपना बच्चा नहीं था.

नाना के फार्म के साथ एक पुरानी पत्थर की हवेली के खँडहर थे. सामने ककरौला को सड़क जाती थी इसलिए उस जगह को सब ककरौला मौड़ कहते थे. आगे चल कर नजफगड़ था पर हम लोग न कभी ककरौला गये न नजफगड़. दोपहर को गर्मियों में खँडहर की ठँडक में बैठ कर हम लोग खेतों से ले कर ककड़ियाँ और तरबूज खाते. गोबर इक्टठा करने और कभी कभी नवादे से दूध लाने के अलावा हमारा अन्य कोई काम नहीं था. लक्की, नाना का कुत्ता हमारा रक्षक और साथी था. दूर दूर तक असीमित खेत और सूनापन.

अब तिलक नगर से नजफगड़ तक घर और दुकानों की लगातार कतारें हैं. मामी जी का स्कूल है वहाँ, जहाँ नाना का फार्म था, ग्रीन मीडोस स्कूल. जहाँ खँडहर थे, बड़े बड़े घर हैं. उन सड़कों पर गाड़ियाँ, स्कूटरों की भीड़ है. नवादा दिल्ली मेट्रों का स्टाप बनेगा और जहाँ ककरौला मोड़ था वहाँ मेट्रो का "द्वारका मोड़" का स्टोप बन रहा है. पिछली बार दिल्ली गया तो मौसी बोली, "तुम्हें विश्वास नहीं होगा कितना बदल गया है. जब मेट्रो पूरा बन जायेगा तब तो और भी बढ़िया हो जायेगा."

जी उदास हो गया. और वो खेत, वो पेड़, वो कूँए उनका क्या हुआ ? कहाँ खो गये वे, सीमेंट के जँगल में. गुलजार का गीत याद आ गया, "इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम राहें, कुछ तेज कदम रस्ते". बचपन की सुस्त कदम राहें, सब तेज कदम रास्तों में बदल गयीं. शायद यह उदासी खोये गाँव के लिए नहीं, खोये बचपन के लिए है ?

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नितिन जी ने लिखा है कि कृष्ण की बहन थी, सुभद्रा जिसे उन्होंने खुद भगाया था. शायद धर्म ग्रँथ नहीं सिखाते जीवन और सामाजिक आचरण के नियम, समाज चुनता है वही धर्म ग्रँथ जो उसके प्रचलित सामाजिक आचरण पर स्वीकृति और नैतिकता की मोहर लगा सके ? वरना राम ही क्यूँ बनते परिवार के आदर्श, कृष्ण भी तो हो सकते थे ?


सोमवार, नवंबर 21, 2005

एक नयी रामायण

रामायण का भारतीय जीवन पर गहरा प्रभाव है. यह कहना कठिन है कि रामायण ने भारतीय परम्पराओं को बदल दिया या फिर तुलसीदास जी रामायण लिखते समय उस समय की प्रचलित भारतीय परम्पराओं से प्रभावित थे. जो भी हो, भारतीय समाज को कुछ परम्पराएँ बनाये रखने में रामायण की तरफ से सामाजिक तथा धार्मिक स्वीकृति मिल गयी.

रामायण स्त्रियों और पुरुषों दोनो के लिए आचरण का मापदंड बनी. पर शायद पुरुष समाज पर उसका कम असर पड़ता है? जहाँ रामायण बड़े भाई और छोटे भाई के बीच प्यार और सम्मान की शिक्षा देती है, यह शिक्षा मुम्बई के सिनेमा में तो जगह पाती है पर समान्य जीवन में पैसे, जयदाद, शक्ति के लिए लड़ने वाले भाईयों की कमी नहीं. गरीब या कम पैसे वालों की ही बात हो यह भी नहीं, देश के सबसे बड़े ओद्योगिक अम्बानी परिवार के भाई जब आपस में लड़े तो हजारों बातें हुई पर किसी ने यह नहीं कहा कि वे दोनो रामायण की शिक्षा को भूल गये थे.

पर रामायण का भारत की स्त्रियों और लड़कियों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा? मेरे विचार में हिंदु धर्म की यह एक कमजोरी है कि हमारी किसी प्रमुख धार्मिक गाथा में हमारे देवी देवताओं की बेटियाँ नहीं होती. न रामायण में राम की कोई बहन है न बेटी, न कृष्ण की कोई बहन या बेटी, न शिव जी की, न हनुमान की... हाँ देवियाँ हैं, लक्ष्मी, पार्वती, सरस्वती पर यह सब किसी देवता की पत्नियाँ हैं. हो सकता है कि इतने वर्ष भारत से दूर रह कर मेरी यादाश्त कमजोर हो गयी हो और मैं ऐसे उदाहरण को भूल रहा हूँ जहाँ किसी प्रमुख देवता की बहन और बेटियाँ थीं. पर रामायण जिसका प्रभाव शायद सभी अन्य धार्मिक पुस्तकों से अधिक है, उसी आदर्श परिवार के उदाहरण देती लगती है जिसमें किसी की बहन या बेटी न हो.

अल्ट्रा साऊँड के सहारे जाँच कर स्त्री भ्रूण की हत्या, छोटी बच्चियों को जान से मार देना, स्कूल न भेजना, खाना कम देना, दहेज के लालच में जान ले लेना, सभी कुकर्म इतने आम हैं कि समाचार पत्र वाले भी छाप छाप कर थक जाते हें पर हमारे समाज को नहीं बदल पाते. और हमारे प्रमुख हिंदू गुरु, वे क्या कहते हें इन सबके बारे में ?

शायद आज भारत को एक नये तुलसीदास की आवश्यकता है जो नयी रामायण की संरचना करे. जिसमे राम की भी बहन हो जिसका लालन पालन दशरथ से पूरे गर्व और स्नेह से करें, जिसके सम्मानपूर्वक जीवन के लिए राम अपना भाई धर्म निभाएँ और जो स्वयं आत्मसम्मान और गौरव से जीवन बिताने का उदाहरण बने. नयी रामायण जिसमें राम की भी एक बेटी हो जिसे वह उतना ही प्यार करें जितना लव और कुश से करते हैं.



रविवार, नवंबर 20, 2005

हम फिल्में क्यों देखते हैं (अनूगूँज)

प्रश्न का उत्तर देने से पहले इस सवाल में दो बातों पर गौर करना ठीक होगा कि इसमें "हम" कौन हैं और दूसरा, कौन सी फिल्में क्यों देखते हैं. एक बार एक इतालियानो की पत्रिका में पढ़ा था कि सिर्फ तीन तरह के लोगों को अपने बारे में बात करते समय पुल्लिंग "हम" प्रयोग करने का अधिकार है. सम्राट शहनशाह, रोम के पोप और वे लोग जिनके पेट में कीड़े हों. चूँकि मैं इन तीनो में से किसी श्रेणीं में नहीं आता इसलिए यहाँ हम का अर्थ है परिवार, यानि हम लोग, मेरी पत्नी और पुत्र मिल कर क्यों फिल्म देखते हैं?

दूसरी बात है कौन सी फिल्मों की बात हो रही है. स्पष्ट है कि हिंदी के चिट्ठे में बात इतालियानो या अंग्रेजी की फिल्मों की नहीं, हिंदी की फिल्मों की बात हो रही है. चूँकि श्रीमति और पुत्र की हिंदी कुछ कमजोर है, कुछ गिने चुने शब्द ही समझ पाते हैं, साथ में बैठ कर हिंदी फिल्म देखने का अर्थ है कि मेरी साथ साथ हिंदी से इतालियानों में अनुवाद की भागती हुई कमेंट्री चलती है. इस बात पर भारत में कुछ बार सिनेमा हाल में फिल्म देखते हुए हमारे अनुभव कुछ अच्छे नहीं थे क्योंकि आसपास बैठे लोग मेरी कमेंट्री की सुंदरता और दक्षता को नहीं समझ पाते थे और लड़ने के लिए तैयार हो जाते थे. तब से हिंदी फिल्में केवल घर पर वीडियो केसेट या डीवीडी से देखी जाती हैं.

पुत्र को अंग्रेजी समझ आती है इसलिये अगर कोई फिल्म अगर श्रीमति को पसंद नहीं आती तो फिल्म को सबटाईटल्स के साथ देखा जाता है और मुझे कमेंट्री से छुटकारा मिलता है.

पत्नी की सबसे प्रिय फिल्म है "राम तेरी गंगा मैली" और दूसरे नम्बर पर "नगीना", यानि वे फिल्मे जो हमने भारत में रहते समय सिनेमा हाल में २० साल पहले देखी थीं. उन्हें "भारतीय मानक" वाली फिल्में अच्छी लगती हैं जिसमें स्त्रियाँ पश्चिमी पौशाकें नहीं पहने और भारतीय शैली में नृत्य करें. हालाँकि उन्होंने सास बहू वाले सीरियल नहीं देखे पर मेरा विचार है कि अगर वे यह देखतीं तो अवश्य पसंद करती.

पुत्र को बचपन में मिस्टर इंडिया और अजूबा बहुत पसंद थीं और आजकल वे भी शाहरुख खान और ऋतिक रोशन को पसंद करते हैं. "हम दिल दे चुके सनम" में उसे नायिका के पिता द्वारा आधे भारतीय आधे इतालवी लड़के को इस बात के लिए ठुकरा देने के दृष्य से बहुत धक्का लगा था. पर "कभी खुशी कभी गम" और "कल हो न हो" जैसी फिल्में देख कर वह आजकल वैसी ही पौशाक पहन कर शादी होने के सपने देख रहे हैं.

रही बात मेरी. बचपन से गंभीर फिल्में पसंद थीं. फिर जब इटली आये तो पहले दस साल तक छोटे से शहर इमोला में रहते थे जहाँ न कोई भारतीय थे न भारत से किसी तरह का कोई संबन्ध. तब हिंदी फिल्में ही भारत से नाता जोड़ती थीं. तभी हर तरह की हिंदी फिल्में देखने लगा. घटिया, बैसिर पैर की फिल्में भी, जाने क्यों लगता कि अगर कोई हिंदी फिल्म अच्छी न लगे तो भारत के साथ गद्दारी होगी. कई बार कुछ फिल्में इतनी बैतुकी होती थीं कि एक बार में पूरी देखी नहीं जाती इसलिए कड़वी दवा की तरह, धीरे धीरे करके किश्तों में देखता. सौभाग्यवश, आज दुनिया बदल गयी है. अंतरजाल के सहारे, भारत से नाता जोड़ने के अन्य कई तरीके बन गये हैं और किसी घटिया हिंदी फिल्म को पूरी न देखना, मुझे भारत से गद्दारी नहीं लगती. आज तो वही फिल्म देखता हूँ जो मन को भाये, जिससे भारत से नाता तो जुड़ा ही रहे पर साथ साथ देख कर भावनाओं और कला की दृष्टि से अच्छा लगे.

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रमण और कालीचरण ने कमबख्त का अर्थ तो बता दिया पर यह नहीं बताया कि बख्त शब्द किस भाषा से आया है?
हिंदी ब्लोगर ने बिहार में बन रहे नये हिंदी+अंग्रेजी शब्दों की बहुत अच्छी टिप्पड़ीं लिखी है. मेरे ख्याल से इस विषय पर उन्हे बहुत विस्तार से लिखना चाहिये.

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आज की तस्वीरों में घर कि खिड़की से दिखते पतझड़ के रंग



शनिवार, नवंबर 19, 2005

कमबख्त

शब्द कहाँ से और कैसे बनते हैं? कमबख्त शब्द कहाँ से आया? कई दिनों से यह बात मेरे दिमाग में घूम रही है कमबख्त के बारे में. कमबख्त किसी की कोसने के लिए या किसी को हल्की सी गाली देने के लिए कहते हैं.

शब्द का अर्थ समझने के लिए शब्द का संधी भेद करना आवश्यक है तो कमबख्त शब्द बना है कम और बख्त से. शायद इसका अर्थ हो "कम वक्त", जिसमें वक्त शब्द का पँजाबीकरण होते होते वह बख्त हो गया? पर किसी को यह कहना कि "तू कम+वक्त है" में गाली देने की क्या बात हुई? क्या भारत के ऋषी मुनियों ने आने वाले जीवन की भागा दौड़ी और उसमें फँसे प्राणियों की नियति जिनके पास जितना "समय बचाने" के उपकरण होंगे उतना ही समय कम होगा की भविष्यवाणी करते हुए कमबख्त शब्द का श्राप के रुप आविष्कार किया था?

या फिर बख्त शब्द बतख शब्द से बना है? यह तो मानना पड़ेगा कि बख्त और बतख शब्दों में गम्भीर फर्क है पर ऐसी भूल गुस्से मे हो सकती है कि शब्द कुछ बिगड़ कर निकलें. सोचिये कि एक बार कहीं कोई बतख वाला था जिसके पास बहुत बतखें थीं और एक दिन गुस्से में उनके अब्बू ने उन्हे बद् दुआ दी कि तेरी बतखें कम हो जायें पर उनके मुख से बजाये कम बतख के कमबख्त निकला और भूल से निकला यह शब्द उन्हें बहुत भाया, तब से वह जब किसी पर गुस्सा होते उसे कमबख्त कहते. धीरे धीरे इस नई गाली की प्रसिद्धि सारे देश में फैल गयी.

कुछ बात जमी नहीं इन बतखों की. शेखचिल्ली की कहानी लगती है.

या फिर यह शब्द बना काम + बख्त से? यानि कि तेरा काम बख्त हो जाये या कि तुम सारे काम बख्त कर देते हो? दुर्भाग्यवश शब्दावली बख्त शब्द का अर्थ नहीं देती पर यह तो मानना पड़ेगा कि "बख्त" सुन कर मन में कुछ बिगड़ने या नष्ट होने की छवि उभरती है.

मानता हूँ ऐसे शब्द के बारे में सोचना शोभनीय नहीं है. मुझे अपनी उम्र और गम्भीर छवि को देखते हुए, सोचने के लिए और भी हजारों गम्भीर शब्द मिल सकते हैं शब्दावली में, पर क्या करूँ अगर कमबख्त दिमाग मेरी सुनता ही नहीं और अपने सोवने के विषय स्वयं ही चुनता है?

आप सोच कर बताईये कि यह कमबख्त शब्द कैसे बना?

चूँकि आज बतखों की बात हुई है तो तस्वीरें भी बतखों की हैं.


शुक्रवार, नवंबर 18, 2005

इनसे मिलो

एक मीटिंग के लिए दिल्ली आया था, और उसके बाद कुछ दिन की छुट्टी ले कर रुक गया था. सभी पुराने मित्रों को टेलीफोन किया, जो करीब रहते थे उनसे मिलने भी गया. एक मित्र के यहाँ से पार्टी का न्यौता मिला. उसके विवाह की वर्षगाँठ थी. बचपन से साथ बड़े हुए थे हम, इसलिए उसे मना करने का तो सवाल ही नहीं हो सकता था.

वहाँ बहुत से अन्य जानने वालों से मिलने का मौका मिला. किसी से बात कर रहा था कि मेरा मित्र आ कर मुझे खींच कर ले गया, बोला तुझे किसी से मिलवाना है. एक युवती से मिलवाया. मैंने नमस्ते की, हालचाल पूछा, पूछा उनके पति देव कैसे हैं, कहाँ हैं, आदि सब बातें जो सभी किसी थोड़ी सी जान पहचान वाले से मिलने पर करते हैं.

रात को जब सब लोग चलने लगे तो मैंने भी मित्र से कहा कि मुझे भी चलना चाहिये.

"अरे रुक तो सही, बता क्या कहा? कैसे लगा उससे मिलना?" मित्र ने उत्सुकता से पूछा. "किससे मिलना कैसा लगा?"मैंने पूछा.

"अबे बन मत, इतनी देर तक घुल मिल कर बातें कर रहा था! क्या कहा उसको?"

तब समझ में आया कि वह उस युवती की बात कर रहा था, बोला, "तू भी यार, कम से कम किसी से मिलवाने से पहले बता तो सही कि कौन है, किससे मिलवा रहा है. बात क्या करनी थी, मैंने बस हालचाल पूछा. कौन थी वह, तेरे साले की दूसरी पत्नी?"

उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि मैं उस युवती को सचमुच नहीं पहचान पाया था. कई साल पहले जब हम दोनो विद्यार्थी थे और तब भाभी, उसकी पत्नी नहीं प्रेमिका थीं, हम लोग बहुत बार इक्टठे बाहर जाते. ऐसे साथ घूमने में मुझे भाभी की एक सखी से प्रेम हो गया. मित्र से सहायता माँगी, भाभी से कहा पर कुछ बात नहीं बनी, क्योंकि उस लड़की की शादी कहीं पक्की हो गयी थी. कुछ दिनों तक मजनूँ की तरह दुखी रहा था तब, और मित्र व भाभी ने मिल कर बहुत दिलासा दिया था. उसी लड़की से मिलवाया था मित्र ने और मैंने उसे पहचाना ही नहीं!

बाद में मैंने सोचा कि ऐसा कैसे हो गया, जिससे प्यार करता था उसी को नहीं पहचाना? दिल को समझाया कि शायद इसकी वजह थी कि वह शादीशुदा थी और इन चार या पाँच वर्षों में बदल गयी थी. या फिर अपनी शादी होने के बाद मैं पुरानी सब ऐसी बातें भूल गया था.

और शायद यह बात भी हो कि सभी "कुछ कुछ होता है" के पहले प्यार वाले नहीं होते, कुछ, मुन्ना भाई भी होते हैं जो सोचते हैं, कि एक प्यार नहीं तो दूसरा सही? पर फिर भी मन से शक नहीं जाता कि मैं असली प्रेमी नहीं और अगर मेरे जैसे मजनूँ हों दुनिया में तो शायद लोगों का इश्क से विश्वास ही मिट जाये?


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अभिषेख जी, क्मप्यूटर पर हिंदी लिखना इतना कठिन नहीं.
अक्षरग्राम के सर्वज्ञ पर हिंदी में लिखने की चाह रखने वालों के लिए सभी जानकारी उपलब्ध है.

आज की तस्वीरों में संगीतकारों की युगल जोड़ियाँ:



गुरुवार, नवंबर 17, 2005

कितनी दूर आ गये

कल चिट्ठा पोस्ट करने लगा तो देखा कि वह १११ चिट्ठा था. देख कर अचरज भी हुआ, खुशी भी. सिर्फ छः महीने पहले भी ऐसा सोचना कि मैं यह कर सकता हूँ, नामुमकिन था.

जब भी यात्रा पर न हूँ तो हर रोज कुछ न कुछ अवश्य लिखूँगा, ऐसा सोचा था. पर शुरु शुरु में एक एक शब्द लिखने में इतनी देर लगती थी कि व्यस्त जिंदगी में इतना समय एक "शौक" के लिए निकालना आसान नहीं लगता था. यह सोचता था कि क्या लिखूँगा? और हिंदी तो भूलने सी लगी थी, सोचता अंग्रेजी या इतालवी में था फिर उसके अर्थ हिंदी में सोचता और अक्सर, हिंदी में अर्थ याद ही नहीं आते थे.

आज कीबोर्ड पर हिंदी लिखने में काफी तेजी आ गयी है. आज भी कभी कभी कोई शब्द ढ़ूँढ़ने के लिए शब्दावली निकाल कर देखनी पड़ती है, पर हिंदी लिखते समय हिंदी में ही सोचता हूँ. और लिखने के विषय के लिए कोई न कोई विचार हर रोज सुबह आ ही जाता है.

ऐसा कब तक चलेगा, मालूम नहीं. हो सकता है कि एक दिन क्मप्यूटर की सफेद स्क्रीन के सामने बैठा रह जाऊँ और कुछ समझ न आये कि क्या लिखूँ. पर आज तो यही सोच कर खुशी हो रही है कि इतने दूर आ गये हम.

आप सब पढ़ने वालों को और आवश्यकता पड़ने पर सहायता करने वालों को धन्यवाद.

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कल मुझे एक रेडियो पर साक्षात्कार के लिए बुलाया गया. किसी वेलेंतीना से टेलीफोन पर बात हुई थी. बोलोनिया का एक प्राईवेट रेडियो स्टेश्न है आस्तेरिस्को और उनका एक प्रोग्राम है जिसमें वह इटली में बसे प्रवासियों से परिचय करवाते हैं. रेडियो स्टेश्न पहुँचा तो पाया कि वह रेडियो स्टेश्न चलाने वाले को मैं बहुत पहले से जानता था. कामेरुन से आये फाऊस्तेन से मेरी मुलाकात कई साल पहले हुई थी जब वह अफ्रीका की संस्कृति के बारे में एक प्रदर्शनी तैयार कर रहे थे. उनकी पत्नी सरेना हमारे दफ्तर में ट्रेनिंग के लिए कुछ समय तक आती थीं.


फाऊस्तेन ने यह रेडियों प्रवासियों के लिए ही बनाया है और इसका उद्देश्य है विदेशों से आये प्रवासियों को अपनी संस्कृति, विचारों और कठिनाईयों के बारे में बात करने का मौका देना और उनकी इटली के समाज में समन्वय हो कर रहने में सहायता करना. ऐसी बातों से पैसे कमाना आसान नहीं पर वह अपने प्रोग्राम पूरे इटली में विभिन्न रेडियों स्टेश्नों को देते हैं और विभिन्न शहरों की सरकारें इन प्रोग्रामों को स्पोन्सर करती हैं. फ्राँस में हुए प्रवासियों के दंगों की बात सोच कर, शायद भविष्य में फाऊस्तिन के रेडियो को और भी स्पोन्सर मिलेंगे.

फाऊस्तेन ने मुझे इस रेडियो पर १ दिसंबर से एक नियमित प्रोग्राम करने के लिए कहा है. इसे वह "रेडियो ब्लाग" या रेलाग का नाम दे रहें हैं. सोमवार से शुक्रवार, हर रोज एक पाँच मिनट का ब्लाग. रोज रेडियो स्टेश्न जाना मेरे बस की बात नहीं पर एक बार जा कर दो‍तीन हफ्तों के लिए एक साथ ही रिकार्डिंग हो जायेगी. आस्तेरिस्को रेडियो अंतरजाल पर भी सुना जा सकता है, हालाँकि मेरा कार्यक्रम केवल इतालवी भाषा में होगा.

आज की तस्वीरों में फाऊस्तेन अपने परिवार के साथ और उनकी अफ्रीका प्रदर्शनी से एक पैनल:


बुधवार, नवंबर 16, 2005

धीरे जलना

क्या अर्थ है पहेली के इस गाने का, "धीरे जलना, धीरे जलना, जिंदगी की लौ पे जले हम"?

जीवन की आग में हमें धीरे धीरे जला कर पकाईये? पुराने तरीके से बिरयानी बनाने का ऐसे एक नुस्खे के बारे में कभी पढ़ा था कि हाँडी आग से बहुत ऊँची रख कर, चावल में थोड़ा सा पानी डालना चाहिये और उसे कड़छी से हिलाते रहिये, जब पानी सूखने लगे तो, थोड़ा सा और डाल दीजिये. कई घंटों में जाकर बिरयानी पकेगी.

अगर पत्नी को सलाह देनी होती है कि कोई चीज़ कैसे पकानी चाहिये, तो मेरी सलाह हमेशा धीरे धीरे पकाने वाले नुस्खों की होती है. इससे खाने में विषेश स्वाद आ जाता है, मैं कहता हूँ. पर उसे यह धीरे पकने वाले नुस्खों को तेजी से बनाने में मजा आता है. पहले पहले तो बहुत शौक से मुझे बतलाती थी कि कैसे उसने एक घंटे में बनने वाली चीज दस मिनट में बनायी.

"बैंगन का भुरता बनाया है, एक नये तरीके से", उसने प्रसन्न हो कर बताया था, "पहले कच्चे बैंगन को मिक्सी में डाल कर अच्छी तरह से महीन पीस लिया फिर तेज आग पर भून लिया, बन गया भुरता!"

"देखें भला कैसा बना है", हमने चखा और नाक सिकौड़ दी, "प्रिये, तुम्हें यह भारतीय खाना, भारतीय तरीके से ही बनाना चाहिये, तुम्हारी यह इटली की जल्दी, यहाँ के पास्ता बनाने में चल सकती है. अगर बैंगन को पहले आग पर भूनोगी नहीं, यूँ ही कच्चा मिक्सी में पीस दोगी तो उसमें वह विषेश भुना हुआ स्वाद नहीं आयेगा!"

"अच्छा, खाने के समय तो दस मिनट में जल्दी से खाना खा कर छुट्टी कर देते हो और मैं पहले एक घंटा पकाने में लगाऊँ और बाद में गैस के छेदों में से बैंगन के टुकड़े निकालते निकालते पागल हो जाऊँ?" वह बिगड़ कर बोली.

इसमे इतना बिगड़ने की क्या बात है, हमने समझाया, तुमने कहा था सच सच बताओ कैसे बने हैं और हमने सच बता दिया, बने तो अच्छे हैं पर यह तो "बैंगन पूरै" जैसी कुछ चीज बनी है इनमें भारतीय भुरते का स्वाद नहीं. भुनभुनाती रहीं वह उस शाम और खाने में हमें भुरता खाने को नहीं मिला.

कुछ सप्ताह बाद कुछ भारतीय मित्र घर पर खाने पर आये, उनमें एक दम्पति भी थे जिनका बोलोनिया में एक रेस्टोरेंट है. श्रीमति जी ने आलू के पराँठे और बैंगन का भुरता बनाया. तब तक हम भी भुरते वाली बात भूल चुके थे. हमने भी खूब खाया. सबने खूब तारीफ की खाने की. रेस्टोरेंट की मालकिन बोली, "मैं अपने कुक को भेज दूँगी उसे यह भुरता बनाना सिखा दो! भारत से बुलवाया है पर इतना बढ़िया भुरता कभी नहीं खाया."

श्रीमति जी ने हमारी ओर कटिल मुस्कान फैंकी और शुरु हो गयीं, "नया तरीका निकाला है भुरता बनाने का. जल्दी भी बन जाता है और गैस भी नहीं गंदी होती..."

आज की तस्वीरें बोलोनिया की भारतीय एसोसियेशन के समारोह की.


मंगलवार, नवंबर 15, 2005

लेखक और आदमी

मुनीष के चिट्ठे कविता सागर पर सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की एक सुंदर कविता पढ़ी. मुनीष जी को धन्यवाद.

सर्वेश्वर जी दिल्ली में राजेन्द्र नगर में हमारे घर के पास ही रहते थे और पिता के मित्र भी थे इसलिए अक्सर देखता था. वे तब साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" में काम करते थे. तब मैं नहीं जानता था कि वे क्या लिखते थे या कैसा लिखते थे.

लेखक, कवि, चित्रकार, कलाकार और समाजवादी कार्यकर्ता और नेता, यह सब बचपन के जीवन का भाग थे और सभी बच्चों की तरह मैं उनका कोई महत्व नहीं समझता था. दिल्ली में क्नाट प्लेस में आज जहाँ पालिका बाजार है, वहाँ कभी एमपोरियम और एक काफी हाऊस हुआ करता था. वही काफी हाऊस अड्डा था सब लोगों के मिलने का. कभी कभी पिता के साथ वहाँ गया था, पर उनकी कलाकारों की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं होती थी, हर समय खाने और खेलने की ही सूझती थी.

चौदह या पंद्रह साल का था जब तीन लेखकों से परिचय हुआ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर यादव और मोहन राकेश. उनमें से उस समय, केवल मोहन राकेश जी को लेखक की तरह जानता था. नया राजेंद्र नगर में पम्पोश की तरफ जाती सड़क पर, बाग के सामने वे तीसरी मंजिल पर बरसाती में रहते थे. करीब ही मेरी बुआ रहती थीं और बुआ के यहाँ छुट्टी में जाता तो दीदी के साथ उनके घर भी कई बार गया. उनके बारे में सोचूँ तो उनका छोटा कद, मोटा काला चश्मा, सिगार पीना और ठहाकेदार हँसी याद आती है. उनकी बेटी पूर्वा का मुंडन हुआ था और उसके गंजे सिर पर हाथ फेरना मुझे बहुत अच्छा लगता. जब १९७२ में अचानक उनकी मृत्यु हुई तो बहुत धक्का लगा था.

सर्वेश्वर जी और रघुवीर जी को मैंने कभी लेखक नहीं बल्कि पिता के मित्रों के रुप में ही देखा. इन्होंने क्या लिखा, मुझे कुछ नहीं मालूम था और न ही मेरी यह जानने की कोई दिलचस्पी थी. रघुवीर जी बच्चों के साथ आते. मंजरी, उनकी बड़ी बेटी मुझसे कुछ छोटी थी, उसी से बात होती और खेलते. अभी कुछ साल पहले जब हिंदी की लेखिका अलका सरावगी ने बताया कि उन्होंने अपनी थीसिस रघुवीर सहाय के लेखन पर की थी तो मुझे अचरज सा हुआ. रघुवीर जी लिखते थे? तब मैंने रघुवीर सहाय जी की किताबें ढ़ूँढ़ीं.

कल सर्वेश्वर जी कविता पढ़ कर यह सब बातें सोच रहा था. उनकी कविता "विवशता" की यह पंक्तियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं:

कितनी चुप चुप गयी रोशनी
छिप छिप आयी रात
कितनी सहर सहर कर
अधरों से फूटी दो बात


चार नयन मुस्काए
खोये, भीगे फिर पथराये
कितनी बड़ी विवशता
जीवन की कितनी कह पाये

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय और मोहन राकेश के बारे में आप अंतरजाल पर अनुभूति तथा अभिव्यक्ति पत्रिकाओं में पढ़ सकते हैं.

आज की तस्वीरें हैं भारतीय लोक गायकों की, अरुण चढ़्ढ़ा के दूरदर्शन सीरियल "१८५७ के लोकगीत" से.


रविवार, नवंबर 13, 2005

इतालवी नाम पुराण

मेरी अस्सिटेंट का नाम है "फ़ैलीचिता" जिसका इतालवी में अर्थ है "खुशी" पर कभी कभी उसका हिंदी अर्थ सोच कर अजीब सा लगता है. हमारे दफ्तर में तीन अन्य नाम हैं जिनके हिंदी अर्थ कुछ और ही होंगेः "मारा" यानि समुद्री, "मारियो" जो संत का नाम है और "पिया" यानि भक्त. मैं कभी कभी मारा को कहता, "मारा तुझे किसने मारा?" और हँसता पर वह समझ नहीं पाती कि मैंने क्या कहा.

इटली में अधिकतर नाम किसी संत के नाम पर रखे जाते हैं. यहाँ के कैलेण्डर में साल का हर दिन एक संत के नाम से जुड़ा होता है. जैसे ११ नवंबर था संत मार्तीनो, १२ नवंबर था संत रेनातो, आज १३ नवंबर है संत और कल १४ नवंबर होगा संत अगोस्तीना. अधिकतर लोगों को बच्चों के नाम चुनने के लिए "नामों की किताब" की आवश्यकता नहीं पड़ती, बस कैलेण्डर देख कर जितने संतो के नाम हैं उनमे से एक चुन लेते हैं. इन नामों के अर्थ नहीं होते. अगर लड़का हो तो नाम अधिकतर "ओ" पर स्माप्त होगा और लड़की हो तो नाम अधिकतर "आ" पर स्माप्त होते हैं. जिस दिन आप के नाम वाले संत का दिन हो, वह आप का ओनोमास्तिको दिन बन जाता है, यानि एक तरह का जन्मदिन.

एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जायेगी. मान लीजिये आप के यहाँ बेटी पैदा हुई है और आप को संत रेनातो का नाम अच्छा लगता है तो आप अपनी बेटी का नाम "रेनाता" रख सकते हैं, और आप की बेटी के साल में दो तरह के जन्मदिन मनाये जायेंगे, एक उसकी जन्मतिथि पर और दूसरा, १२ नवंबर को जब उसका ओनोमास्तिको मनाया जायेगा.

चूँकि साल में ३६५ दिन होते हैं, इसलिए इटली में ३६५ नाम प्रचलित हैं. उनको भिन्न करने के लिए कई बार लड़कियों के नाम में संत के नाम के बाद "पिया" या "ग्रात्सिया" (कृपा) जैसे शब्द जोड़ दिये जाते हैं. इसी तरह, लड़कों को दो संतों के नाम मिला कर दो नाम दे दिये जाते हैं जैसे "जानलूका" जो संत जान्नी और संत लूका के नामों को मिला कर बना है. कभी कभी माता पिता बच्चों को उन संतों के नाम से अलग कोई नाम दे देते हैं जैसे फ़ैलीचिता, पर अगर उनका जन्म सार्टिफिकेट देखिये तो अधिकतर पायेंगे कि उनका एक और नाम है, संत के नाम वाला, जिसका वह आम जीवन में प्रयोग नहीं करते पर उस दिन ओनोमास्तिको मनाते हैं.

इतालवी टेलीफोन डायरेक्टरी के अनुसार मारियो और मारिया सबसे अधिक प्रचलित इतालवी नाम हैं. केवल ३ लाख की आबादी वाले बोलोनिया शहर में ६०० से अधिक मारियो रहते हैं. मेरे एक मित्र का नाम है अंतोनियो, उसके साले का नाम भी अंतोनियो है और साली के पति का नाम भी अंतोनियो है. चूँकि नाम इस तरह से मिल कर गलतफहमी पैदा करने की स्थितियां पैदा कर देते हैं, इतालवी संस्कृति में पारिवारिक नाम यानि सरनेम को अधिक महत्व दिया जाता है. अक्सर लोग एक दूसरे को उनके पारिवारिक नाम से बुलाते हैं और इतालवी फोर्म, सर्टीफिकेट आदि पर पहले पारिवारिक नाम आता है, फिर नाम.
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कल के चिट्ठे की बात को ले कर कालीचरण जी ने मोटापे के बारे में पूरा चिट्ठा लिख दिया. कल जब चिट्ठे में तस्वीरें लगा रहा था तो पीछे श्रीमति जी पीछे आ कर खड़ी हो गयीं. १९८६ की बिबियोने की तस्वीर देख कर बोलीं, "कितने पतले थे तुम तब. मैं तो बिल्कुल भूल गयी थी कि कभी तुम पतले भी थी! मेरे ख्याल से तुम्हें कुछ व्यायाम वगैरा करना चाहिये."

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आज की तस्वीरें हैं रोम सेः



शनिवार, नवंबर 12, 2005

शरीर की लज्जा

मैं अपने डेनिश मित्र ओटो के साथ मिस्र में अलेक्सांद्रिया में था. दिन भर काम के बाद समुद्र के किनारे घूम रहे थे और वह एक व्यक्तिगत अनुभव बता रहा था.

बोला, "तब मैं कोपेनहेगन में अपने पिता वाले घर में रहता था. एक रात को मैं देर से घर वापस आया, साथ में मेरी एक सहेली थी. रात को उसे बाथरुम जाना पड़ा और वह निर्वस्त्र ही चली गयी. संजोग से मेरे पिता भी उसी समय बाथरुम से वापस आ रहे थे और उन्होंने भी कुछ कपड़े नहीं पहने थे. जब उन्होंने मेरी सहेली को देखा तो दोनो एक क्षण के लिए घबरा गये, फिर मेरे पिता ने कहा, "शुभ रात्री मैडम" और अपने कमरे में चले गये."

सुन कर मैं बहुत हँसा पर अंदर ही अंदर सोच रहा था, हमारे यहाँ तो ससुर और जेठ के सामने घूँघट और भी लम्बा कर देते हैं, क्या ऐसा कभी हमारे यहाँ भी हो सकता है?

अतुल के प्रश्न कि क्या मैंने कल की झील वाली तस्वीर छुप कर खींची थी पढ़ कर मुझे यह बात याद आ गयी. नहीं तस्वीर छुप कर खींचने की जरुरत नहीं है, समुद्र तट पर या झील के पास, गरमियों में सभी ऐसे ही कपड़े पहनते हैं, मैं भी पहने था जब तस्वीर खींची थी. शायद यूरोप कुछ बातों में अमरीका से कम रुढ़िवादी है, जैसे शरीर की लज्जा के बारे में?

गरमियों में हमारे घर के पीछे जो बाग है वहाँ बहुत से लोग बिकिनी या जाँघिया पहन कर दिन में धूप लेते हैं, पर मेरे फोटो खींचने पर कभी किसी ने कुछ नहीं कहा. फोटो खींचते समय किसी ने मुझे गुस्से से देखा हो, ऐसा एक दो बार हुआ है, जब मैंने बुरका पहने हुए किसी स्त्री की फोटो खींचने की कोशिश की है. उनके साथ चल रहे आदमी आग बबूला हो जाते हैं.

आज की भारतीय संस्कृति शायद हमें मानव शरीर की लज्जा ही सिखाती है हालाँकि भगवद्गीता कहती है कि यह शरीर केवल वस्त्र है और जब यह पुराना हो जाता है तो आत्मा इसे बदल लेती है.

इटली के उत्तरपूर्व के समुद्र तट पर बहुत सालों से टोपलैस का प्रचलन हो रहा है यानि पुरुष और स्त्रियाँ केवल शरीर का नीचे का भाग ढ़कते हैं, ऊपर वाला भाग खुला रहता है. बिबयोने जहाँ हम लोग छुट्टियों पर जाते हैं, से करीब पाँच किलोमीटर दूर समुद्र तट पर बहुत से लोग बिना वस्त्रों के भी रहते हैं. मेरे विचार में अपने शरीर की लज्जा से छुटकारा पाना एक स्वतंत्रता है.


बिबियोने समुद्र तट पर दीपक परिवार (1986)

मैरीएंजला, मेरी इतालवी मित्र कहती है कि आज कि सभ्यता हमें अपने शरीर के बारे में शर्म करना सिखाती है. पत्रिकाओं, टेलीविजन, हर तरफ केवल लम्बे, पतले सुंदर शरीर ही दिखते हैं. यानि कि अगर हम जवान, पतले, लम्बे या सुंदर नहीं तो हमे अपने शरीर को छुपा कर रखना चाहिये और उस पर शर्म आनि चाहिये.

"न्यूड बीच" ऐसी सोच से बगावत करने का तरीका है. शायद इसी वजह से पिछले जून में हुए बोलोनिया के ग्रीष्म ऋतु समारोह में यहाँ की यनिवर्सिटी की छात्रों ने शहर के बीच में केवल अंडरवियर पहन कर जलूस निकाला था (नीचे तस्वीर में)!


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शुक्रवार, नवंबर 11, 2005

आँखों की दहशत

ऋषिकेष मुखर्जी की फिल्म 'सत्यकाम' मुझे बहुत अच्छी लगी थी. सत्य का पालन करने वाले, इमानदार सत्यकाम, जिसके आदर्शों पर सारी दुनिया हँसती है, का भाग निभाया था धर्मेंद्र ने, जो इस फिल्म के निर्माता भी थे. हालाँकि धर्मेंद्र को "कुत्ते कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊँगा" जैसे डायलोग वाली फिल्मों में अधिक सफलता मिली, फिर भी अपने फिल्मी जीवन में उन्होंने कई संवेदनशील फिल्म निर्देशकों के साथ काम किया. अनुपमा, खामोशी, चुपके चुपके, बंदिनी जैसी उनकी फिल्में मुझे बहुत अच्छी लगीं.

बात "सत्यकाम" से शुरु की थी. इस फिल्म के अंत में एक दृष्य है. सत्यकाम बीमार है, अस्पताल में भरती है. उसे खाँसी आती है और रुमाल पर खाँसी के साथ खून के छींटे आ जाते हैं. ऊपर नजर उठाता है तो देखता है कि उसकी पत्नी (शर्मीला टैगोर) है जिसने उस रुमाल के खून को देख लिया है. उस दृष्टि में उसकी आँखों में शर्म, मजबूरी भी है और करीब आयी मौत की दहशत भी.

ऐसा ही दृष्य गुलजार की फिल्म "परिचय" में भी था, जिसमें "बीते न बितायी रैना" वाले गाने में बेटी (जया भादुड़ी) पिता (संजीव कुमार) के रुमाल पर गिरे खून के धब्बों को देख लेती है और उनकी आँखों में भी वही शर्म, लाचारी और दहशत झलकती है.

दोनों दृष्यों में बात हो रही थी टीबी यानि यक्ष्मा या क्षय रोग की, और उनका अर्थ स्पष्ट था, कि खाँसी में खून आने लगे तो आप का बचना मुश्किल है. बचपन में एक दूर के चाचा को देखने मैं भी एक बार दार्जिलिंग के पास कुर्स्यांग में टीबी सेनाटोरियम गया था. तब वह छोटी सी रेलगाड़ी जो सिलीगुड़ी से चलती है और जिसे 'आराधना' और 'परिणीता' में दिखाया गया है, चलती थी. रास्ता बहुत मनोरम था. पर उस यात्रा की मुझे भी दहशत याद है, उन चाचा की जवान पत्नी की आँखों की दहशत. ननस् द्वारा चलाया वह सेनाटोरियम की सफेदी और धूलरहित चमकते फर्श देख कर लगा था कि शायद यहाँ वह ठीक हो जायेंगे पर कुछ ही दिनों में उनकी मृत्यु हो गयी.

आज भी शायद टीबी का नाम मन में दहशत भर देता है, हालाँकि आज इसका इलाज आसानी से हो सकता है और इससे डरने की कोई जरुरत नहीं है. फिर भी भारत में हर रोज करीब एक हजार व्यक्ति इस रोग की वजह से मरते हैं. दुनिया के सबसे अधिक क्षय रोगी हैं भारत में. इसकी वजह हमारी फैली हुई गरीबी है, जिसका उपचार उतना आसान नहीं. भारतीय क्षय रोग कार्यक्रम के बारे में जानना चाहते हैं तो टीबीसी इंडिया के पृष्ठ को देखें.

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कल सुबह अतुल का अमरीका आने से सम्बंधित लेख संग्रह "
लाइफ इन एचओवी लेन" में पढ़ना शुरु किया तो अधूरा छोड़ने का मन नहीं कर रहा था, एक घंटे तक पढ़ता रहा, काम पर जाने में भी देर हो गयी. फिर भी पूरा नहीं पढ़ पाया, आज शाम को पढ़ने का प्रोग्राम है. यह भी अच्छा हुआ कि यह लेख मैंने पहले नहीं देखे थे, इसलिए उन्हें इक्ट्ठा पढ़ने का आनंद ले सकता हूँ! अतुल जी बहुत बढ़िया लिखा है.

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आज दो तस्वीरें उत्तरी इटली सेः



गुरुवार, नवंबर 10, 2005

धूप और छाँव

एक बार कहीं पढ़ा था कि चित्रकला विधि में सन १३०० और १४०० के आसपास पहली बार मानव शरीर के प्राकृतिक भावों का चित्रण होने लगा. इसकी शुरुआत इटली के कुछ चित्रकारों ने की. उससे पहले चित्रकारों का उद्देश्य था कि केवल सुंदर भावों वाले शरीर ही बनायें. माइकल एंजलो के कई चित्र हैं जिनमें झर्रियों वाले बूढ़े, टेड़े मेड़े शरीर वाले या बिना दाँत वाले, आम लोगों का चित्रण है.

क्या यह बात भारत पर भी लागू होती है? मुझे केवल इतना मालूम है कि मध्ययुगीन भारत में मुगल, काँगड़ा आदि चित्रकला की शैलियाँ थी, जिनमें मानव शरीर विषेश नियमबद्ध तरीके से दिखाये जाते थे, जिससे उनके प्राकृतिक रुप या भाव के बारे में कहना कठिन है. पर अगर पुरानी मूर्तियों के बारे में सोचूं या अजंता की गुफाओं में बने चित्रों के बारे में सोचूं तो कह नहीं सकता कि भारत में असुंदर या बैडोल व्यक्ति या भावों का चित्रण पुराने जमाने में कभी नहीं हुआ.

इटली के मध्ययुगीन चित्रकारों में से माइकल एंजलो और लियोनारदो दा विंची के नाम तो जग प्रसिद्ध हैं. पर उस युग के मेरे सबसे प्रिय कलाकार हैं कारावाज्जो (Caravaggio). उनका असली नाम था माइकल एंजलो मेरीसी, वह १५७१ में पैदा हुए और १६१० में ४१ वर्ष के आयु में मर गये. उन्हें इटली में "बदकिस्मत चित्रकार" के नाम से भी जानते हैं. उनके चित्र अपने "कियारो ओस्कूरो" (chiaro oscuro) यानि धूप-छाँव के प्रभावों के लिए प्रसिद्ध है. उनके हर चित्र में अँधेरे का बहुत महत्व है और चित्रपट का बहुत सा भाग काला होता है. अँधेरे में एक कोने से आती रोशनी की रेखा उनके बनाये पात्रों के चेहरों पर भावों को स्पष्ट कर देती है. परछाईयों से घिरे उनके बनाये चेहरों में मुझे लगता है कि मानव पीड़ा, स्नेह, गुस्सा, प्यार आदि भावनाएं ऐसी कोई अन्य चित्रकार नहीं दिखा पाया.

कारावाज्जो की चित्रकला के दो नमूने प्रस्तुत है. अगर आप उनके अन्य चित्र देखना चाहते हैं तो गूगल की तस्वीर खोज पर Caravaggio लिख कर देखिये.

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राजेश जी आप के संदेश के लिए बहुत धन्यवाद. जिस किताब की मैं बात कर रहा था उसका पूरा नाम है "बंगला की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ", इसे रमाशंकर द्विवेदी ने सम्पादित किया है और २००२ में दिल्ली के साक्षी प्रकाशन ने छापा है.


बुधवार, नवंबर 09, 2005

कथानक में लेखक

आजकल मैं "बंगला की श्रेष्ठ कहानियाँ" पढ़ रहा हूँ और कल रात को प्रेमेन्द्र मित्र की एक कहानी "महानगर" पढ़ रहा था. कहानी का मुख्य पात्र है रतन, एक बच्चा जो पिता के साथ नाव में कलकत्ता आया है और पिता की नजर बचा कर अपनी बहन चपला को ढ़ूँढ़ने निकल पड़ता है. बहन शादी के बाद पति के घर गयी, जहाँ से कोई उसे उठा कर ले गया था और जब वापस मिली तो उसे पति और पिता के घरों में जगह नहीं मिली. रतन को सिर्फ उस जगह का नाम मालूम है जहाँ उसकी दीदी रहती है इसलिए ढ़ूँढ़ना आसान नहीं है पर आखिर वह उसे खोज ही लेता है. रतन बहुत छोटा है नहीं समझ पाता कि उसकी दीदी क्या करती है पर इतना समझ जाता है कि उसे घर वापस नहीं आने दिया जायेगा. अंत में रतन, पिता के पास वापस जाने से पहले दीदी को कहता है कि जब वह बड़ा हो जायेगा तो दीदी को अपने साथ ले जायेगा.

इस कहानी के पहले दो पृष्ठ, यानि कहानी का करीब २० प्रतिशत भाग, महानगरों की विषमतओं के बारे में दार्शनिक विवेचना है, कैसे बड़ा शहर कटु और मधुर दोनों रसों का समन्वय है पर क्यों गरीबों के हिस्से में कटु अनुभव ही अधिक मिलते हैं. इसी से सोच रहा था कि शायद आजकल के लेखक कथानक में अपने विचार ले कर इस तरह से स्पष्ट सामने नहीं आते, बल्कि अपनी बातें कहानी के पात्रों के मुख से कहलवाते हैं. इसी तरह, एक अन्य बंगला लेखक, बिमल मित्र, अक्सर इसी तरह अपनी कहानियां और उपन्यास एक लम्बी दार्शनिक विवेचना से प्रारम्भ करते हैं.

कुछ भी हो, लेखक का कहानी में स्वयं को छुपाना आसान नहीं. कभी वह खुद कहानी का पात्र बन कर "मैं, मुझे, मेरी" कहानी सुनाते हैं. कभी वह पात्रों के आसपास के वातावरण के बारे में समझाते दिखते हैं. कभी कभी वह चालाकी से अपने पात्रों के साथ इतना घुल मिल जाते हैं कि लगे कि वह कहानी अपने दृष्टिकोण से नहीं, एक "ओबजेक्टीव" दृष्टिकोण से बता रहे हैं, यानि मैं सिर्फ वही बता रहा हूँ जो हुआ था, पर हर सच्चाई देखने वाले की नजर के साथ बदल जाती है और लेखक स्वयं को नहीं छुपा पाता. फिर भी मुझे प्रेमेंद्र मित्र या बिमल मित्र का तरीका अधिक इमानदार लगता है, कि प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दीजिये कि लेखक का दृष्टिकोण क्या है, वह किस पात्र की तरफ है.
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स्वामी जी ने बताया कि हमारा चिट्ठा खोलने के साथ उनके क्मप्यूटर पर किसी केसीनों के तीन पोपअप खुल जाते हैं. सुन कर बहुत चिंता हो रही है, क्या चिट्ठे पर किसी हिंदी विरोधी "हैकर" की बुरी नजर तो नहीं पड़ी. क्या किसी अन्य पाठक को भी यह अनुभव हुआ है? मेरे क्मप्यूटर पर तो ऐसा नहीं होता और मैंने अपने मित्र के यहाँ से भी कोशिश करके देखा, वहाँ भी ऐसा नहीं हुआ. आप में ही से कोई अनुभवी साथी राय दीजिये कि क्या करना चाहिये, धन्यवाद.

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आज की तस्वीरें का विषय है जल पक्षी.



मंगलवार, नवंबर 08, 2005

वह यात्रा

जब जीवन यात्राओं से भरा हो तो, किस यात्रा में क्या हुआ, किस शहर में कौन सी चीज देखी, कहाँ किससे मिला, आदि बातें याद रखना आसान नहीं. पर फिर भी कुछ यात्राएं ऐसी होती हैं जो साल बीतने के बाद भी पूरी याद रहती हैं. किमबाऊ की यात्रा ऐसी ही थी.

किमबाऊ एक छोटी सी तहसील है, दक्षिण पश्चिमी कोंगो में, अंगोला की सीमा के करीब. देश की राजधानी किनशासा से ३८० किलोमीटर दूर. कोंगो की सड़कों को सड़क नहीं बड़े या छोटे खड्डों की अंतहीन कतार है, जहाँ गाड़ी अधिकतर सड़क के बाहर या उसके किनारे पर अधिक चलती है. फिर भी, १९९० में जब यह यात्रा मैंने पहली बार की थी, सड़क की स्थिति आज के मुकाबले अधिक अच्छी थी. तब इस यात्रा में करीब १४ या १६ घंटे लगते थे. आज इसके लिए कम से कम दो दिन चाहिये, और अगर रास्ते में सिपाहियों के चंगुल से बच के बिना कुछ खोये निकल आते हैं तो मंदिर में जाकर प्रसाद चढ़ाना चाहिये. आज अगर यह यात्रा आप करें तो बहुत रोमांचक लगेगी, यानि कि डर से आप की जान सूखी रहेगी पर मैं बात बताना चाहता हूँ १९९० की जब खड्डों के इलावा, सड़क पर डरने डराने वाली कोई चीज नहीं थी.

हम लोग किमबाऊ एक अस्पताल देखने गये थे. बेल्जियन शासकों द्वारा बनाया अस्पताल, देश के आजाद होने के समय से खाली पड़ा था, थोड़े से भाग में काम होता था जहाँ स्पेन से आयी कुछ केथोलिक ननस् काम करती थीं. काम समाप्त होने पर हमें दो ननस् साथ ले कर वापस चलीं. उनकी गाड़ी में आगे तीन लोगों के बैठने की जगह थी, पीछे खुला पिकअप था जिसमें वे लोग किनशासा समान ले कर जा रहीं थीं. आगे बैठने की जगह पर ड्राइवर के साथ दो ननस् बैठीं. पीछे की जगह नारियल और केलों से भरी थी जिस पर मेरे साथ बैठे थे मेरे इटालियन साथी एन्ज़ो, गाँव की एक गर्भवती स्त्री, उसका एक पाँच साल का बच्चा और एक और स्त्री.

उस यात्रा में सब कुछ हुआ. तेज धूप, मूसलाधार बारिश, मेरी चीनी छतरी जो तेज हवा के साथ उड़ गयी, छोटा बच्चा जो या रोता था या उल्टी कर रहा था, गर्भवती स्त्री जिन्हें प्रसव की पीड़ा शुरु हो गयी. इन सब बातों के दौरान, खड्डों पर से झटके देती गाड़ी और सख्त नारियलों पर बैठे हम लोग, कुछ घंटों की पीड़ा के बाद लगा कि शरीर का निचला भाग सुन्न हो गया हो. जब होटल पहुँचे तो उठ कर गाड़ी से उतरने में ही समझ आ गया कि मामला कुछ गम्भीर था. कई दिनों तक बैठते उठते, नितम्बों पर पड़े छाले जब ठीक नहीं हुए, दर्द के मारे आई आई करते रहे.

आज की तस्वीरें कोंगो से (बाद की एक यात्रा से, १९९० की यात्रा से नहीं क्योंकि तब मुझे फोटो खींचने का उतना शौक नहीं था).


सोमवार, नवंबर 07, 2005

सब जानते हैं हम?

अनुनाद जी ने लिखा है, "क्या इसका कोई आंकडा है कि समान भार लादे हुए दोपहिया रिक्शा और तीनपहिया रिक्शा में किसको चलाने मे अधिक बल/शक्ति/उर्जा की आवश्यकता होती है".

सच कहूँ तो लिखते समय आंकड़ों के बारे में नहीं सोचा था पर शायद अनुनाद जी ठीक कहते हैं, केवल भावनात्मक वेग में समाज नहीं बदला जा सकता. मुझे बैल जैसे हल में जुते, नंगे पाँव भागते, रिक्शा खींचते उन इंसानों का सोच कर तर्क नहीं याद रहा. पर नंगे पांव भागने से साईकल चलाना अधिक आसान होता है यही सोच कर दो पहियों को तीन पहिये वाले रिक्शों में बदलने की सलाह दे रहा था.

सब मानव भावनाओं को तर्क पर ठीक से तोलना कठिन होता है. इसका पाठ मुझे पढ़ाया था मोरिशियस की एक विकलांग युवती ने. भारतीय मूल की थी वह और भोजपुरी बोलती थी. बचपन से बीमारी ने उसके हाथ पाँव के जोड़ों को जकड़ लिया था, सीधा नहीं खड़ा हो पाती थी, हाथों और घुटनों पर चलती थी. उसके पिता और ग्राम के स्वास्थ्य सेवक ने मिल कर उसके लिए लकड़ी का एक स्टूल सा बनाया था, जिसको उन्होंने मुझे बड़े गर्व से दिखाया. मेरे सामने, उस युवती ने बड़ी कठिनाई से उस स्टूल को पकड़ कर पहले खड़े हो कर दिखाया, फिर झटके दे दे कर, उसी के सहारे से थोड़ा चल कर दिखाया.

मुझे लगता था कि मुझे सब कुछ मालूम है, सब जानता हूँ मैं. मैंने अपना निर्णय सुनाया कि उस स्टूल से उन्होंने उस युवती का जीवन और भी कठिन बना दिया था. बिना स्टूल के वह सब काम अधिक आसानी से कर सकती थी, जबकि गाँव की उबड़ खाबड़ जमीन पर उस स्टूल से गिर कर उसकी हड्डी टूट सकती थी. अंततः मेरी राय थी कि उस स्टूल का कोई फायदा नहीं था, हानि ही थी.

मेरी बात को सुन कर वह बोली, "जब से चलने लगी हूँ, समझने लगी हूँ, लगता है कि मैं कुत्ता हूँ, जब किसी से बात करती हूँ तो उसके मुख की तरफ नहीं देख सकती. यह स्टूल जितना भी कठिन हो, मुझे इंसान महसूस होने देता है. मैं लोगों की आँखों में देख कर उनसे बात कर सकती हूँ."

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एक ईमेल आया है, जिसने मुझे चकित भी किया और प्रसन्न भी. किसी ने मेरे अंतर्जाल पृष्ठ पर लगे कला नमूनों को खरीदने के लिए पूछा है. कहतीं हैं कि वह इन चित्रों को अपने नये घर में लगाना चाहती हैं. क्मप्यूटर पर बनाये चित्रों को कैसे बेचते हैं यह तो मुझे नहीं मालूम, और कोई उन्हें खरीदना चाह सकता है, यह भी नहीं सोचा था. शायद यह कोई नया स्पेम या उल्लू बना कर पैसे ऐठँने का तरीका है? जो भी हो, पढ़ कर अच्छा तो लगा!


आज की तस्वीरें उन्हीं चित्रों की हैं.


रविवार, नवंबर 06, 2005

मानव मान

माता पिता अपने बच्चे का मल मूत्र साफ करते हैं, मल मूत्र से गंदे वस्त्र धोते हैं, इसमे उनका मान नहीं जाता. डाक्टर या नर्स आपरेश्न हुए मरीज का मल मूत्र साफ करते हैं, छूते हैं या उसकी जांच करते हैं, इसमे उनका भी मान नहीं जाता. फिर घर में पाखाना साफ करने वाले को ही क्यों समाज में सबसे नीचा देखा जाता है? शायद इस लिए कि यही उसकी पहचान बन जाती है या फिर इस लिए कि बात सिर्फ सफाई की नहीं, उस मल मूत्र को सिर पर टोकरी में उठा कर ले जाने की भी है? क्या हमारे शहरों में ऐसा आज भी कोई करने को बाध्य है?

ऐसी ही कुछ बात है रिक्शे में बैठ कर जाने की. तीन पहिये वाले रिक्शे से कम बुरा लगता है पर कलकत्ते के दो पहियों वाले रिक्शे जिसे भागता हुआ आदमी खींचे, उस पर बैठना मुझे मानव मान के विरुद्ध लगता है. आज जब साईकल का आविश्कार हुए दो सौ साल हो गये, क्यों बनाते हैं हम यह दो पहियों वाले रिक्शे? क्या बात केवल बनाने के खर्च की है?

शायद यही बात आयी थी कलकत्ता के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के मन में तभी उन्होंने आदेश दिया है कि यह रिक्शे कलकत्ते की सड़कों से हटा दिये जायें. इस बात पर जर्मन पत्रकार क्रिस्टोफ हाइन ने फ्रेंकफर्टर आलगेमाइन अखबार में एक लेख लिखा है. उन्होंने रिक्शा चलाने वाले के जीवन पर शोध किया है और वह कहते हैं कि इससे हजारों गरीब लोगों का जीने का सहारा चला जायेगा.

वह कहते हैं कि कलकत्ता में ६००० रजिस्टर्ड रिक्शे हैं, पर बहुत सारे रिक्शे रजिस्टर नहीं हैं और कुल संख्या करीब २०,००० के करीब है. इसे आठ घंटे की शिफ्ट के लिए रिक्शा चलाने वाला २० रुपये में किराये पर लेता है. दिन रात चलते हैं और २४ घंटों में तीन शिफ्टों में इन रिक्शों को ६०,००० आदमी चलाते हैं. बिहार से आये ये लोग दिन में सौ रुपये तक कमा लेते हैं जिसमें से हर माह करीब २००० रुपये गांव में परिवारों को भेजे जाते हैं. यह सब लोग कहां जायेंगे? क्या करेंगे?

किस लिए इन रिक्शों को हटाने का फैसला किया कलकत्ता सरकार ने? हाइन का कहना है कि रिक्शे मुख्य सड़कों पर नहीं चलते, छोटी सड़कों और गलियों में चलते हैं जहाँ पहूँचने का कोई और जनमाध्यम नहीं है, इसलिए यह कहना कि इनसे यातायात को रुकावट होती है, ठीक नहीं है.

पर शायद इस सरकारी फैसले को लागू करना आसान नहीं होगा. हाइन का कहना है कि ८० प्रतिशत रिक्शों के मालिक कलकत्ता के पुलिस विभाग के कर्मचारी हैं, जो इस फैसले से खुश नहीं हैं. शायद यही हो, तो भट्टाचार्य जी मैं कहूंगा सब रिक्शों को सरकारी ऋण दिला दीजिये जिससे वे तीसरा पहिया लगवा लें. भारत इतनी तरक्की कर रहा है और सुपरपावर बनने के सपने देख रहा है, घोड़े या गधे की तरह रिक्शा खींचने वाले लोगों को भी स्वयं को मानव महसूस करने का सम्मान दीजिये.

शनिवार, नवंबर 05, 2005

कब के बिछुड़े

आज सुबह ईमेल में फ्राँस से मैरी क्रिस्टीन का एक संदेश पाया. उसका भाई जाक्क २१ साल के बाद अपने पिता से मिलने आया. मैरी क्रिस्टीन मेरी पत्र मित्र (pen friend) है, १९६८ से, और अब मित्र से अधिक बहन जैसी है. जब उसने बताया था कि उसका भाई छोटी सी बात पर माँ से झगड़ा करके नाराज हो कर घर छोड़ कर चला गया है, तो थोड़ा दुख हुआ था पर यह नहीं सोचा था कि कोई अपने परिवार को छोड़ कर बिल्कुल भूल सकता है.

समय के साथ हमारा चिट्ठी लिखना कुछ कम हो गया पर फिर भी बीच बीच में हमारी बात होती रहती. "जाक्क?" हर बार मैं पूछता. "उसने शादी करली, हमारे घर से किसी को नहीं बुलाया." "माँ की तबियत बहुत खराब है, उसे लिखा है पर उसने कुछ जवाब नहीं दिया." "पापा का ओपरेश्न हुआ है पर जाक्क नहीं आया." ऐसे २१ साल बीत गये. इस बीच, मैरी क्रिस्टीन और छोटे भाई जां मैरी के विवाह हुए, तलाक हुए, दूसरे विवाह हुए, बड़ी बहन की दुर्घटना में टांग चली गयी, मां की मृत्यु हुई, पर जाक्क नहीं आया, न टेलीफोन किया, न चिट्ठी लिखी.

इतना गुस्सा कोई कैसे कर सकता है अपने मां बाप, भाई बहनों से, मेरी समझ से बाहर है. और अब मां की मृत्यु के चार साल बाद, अचानक क्या हो गया कि जाक्क वापस घर आया?

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शायद यहाँ के सोचने का ढ़ंग ही हमारे सोचने से अलग है? मारियो मेरा मित्र है, जब उसका पहला बेटा पैदा हुआ तो उसकी मां भी दक्षिण इटली से यहां आयीं, और तब वह मारियो की पत्नी आन्ना के माता पिता से पहली बार मिलीं. जब उन्होंने मुझे यह बताया तो मैं हैरान रह गया. "क्यों, जब तुम्हारी शादी हुई थी, तब नहीं मिली थी?" मैंने मारियो से पूछा. "नहीं हमने अपनी शादी में अपने माता पिता को नहीं बुलाया था, न मैंने, न आन्ना ने."


उनके इस व्यवहार के पीछे कोई झगड़ा या परेशानी नहीं, बस उनका सोचना था कि यह उनका जीवन है और वह अपने फैसले अपनी मरजी से करते हैं, इसमें परिवार को नहीं मिलाना चाहते.

मैं सोचता हूँ कि भारत में हमारा सोचने का ढ़ंग अलग है, पर क्या भारत भी बदल रहा है, क्या वहां भी ऐसी व्यक्तिगत संस्कृति आ सकती है, जिसमें सिर्फ, मैं-मेरा-मुझे सबसे ऊपर हों?

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आज दो तस्वीरें दक्षिण अफ्रीका से.




शुक्रवार, नवंबर 04, 2005

गर्म चाय और ताजा अखबार

सुबह सुबह गर्म चाय का प्याला और सुबह का ताजा अखबार, अभी भी सोच कर मजा आ जाता है. बिस्तर में लेट या बैठ कर, प्याले को सम्भालने की कोशिश करते हुए अखबार पढ़ना तो अब केवल भारत यात्रा में ही होता है. शुरु से रोज अखबार पढ़ने की आदत थी. पर अब सब कुछ बदल गया है. बहुत सालों से अखबार कम ही पढ़ता हूँ.

इतना कुछ हो पढ़ने के लिए कि आप जितनी भी कोशिश कीजिये, उसे कभी नहीं पढ़ पायेंगे, इस बात ने शायद मेरी पढ़ने की इच्छा को दबा दिया है ? सबसे पहला धक्का मुझे इटली की अखबारों से लगा. रोज़ ५० या ६० पन्नों की अखबार को शुरु से आखिर तक पढ़ने के लिए कम से कम दो घंटे चाहिये. कई बार कोशिश की पर पूरी अखबार तो बहुत कम बार पढ़ पाया और अखबारें पढ़े जाने के इंतजार में मेरी मेज पर ढ़ेर सी इक्ट्ठी होती जातीं. अंत में निराश हो कर अखबार खरीदना ही बंद कर दिया. अब तो बस इंटरनेट पर मुख्य समाचार पढ़ता हूँ और अखबार तभी खरीदी जाती है जब कोई विषेश बात हो, वो भी केवल रविवार को.

दूसरा धक्का लगा इस बात से कि यहां अखबार आप के घर पर ला कर छोड़ने वाला कोई नहीं है. जब नहा धो कर काम के लिए निकलये तो रास्ते में अखबार भी खरीद लीजिये, पर उसे पढ़ें कब ? रात को सोने से पहले ? या फिर ऐसा काम ढ़ूंढ़िये जिसमे अखबार पढ़ने का समय हो! क्या कोई बेरोजगार घर पर अखबार देने के काम को नहीं अपना सकता? हालांकि यहां चाय नहीं छोटे से प्याले में काफी पीने का रिवाज है जो एक घूँट में ही खत्म हो जाती है, इसलिए बिस्तर में अखबार और चाय वाला मजा तो नहीं होगा, पर फिर भी कोशिश करने में क्या बुरा है!

तीसरी बात कि यहां पत्रकारों को भी सब त्योहारों पर छुट्टियां चाहिये इसलिए सोमवार को यहां अखबार नहीं निकलता. और अगर दो तीन छुट्टियां साथ आ जायें तो अखबार आप को उनमें से केवल पहले दिन ही मिलेगा. यानि जब आप के पास पढ़ने का समय है तो अखबार ही नहीं. पिछले कुछ महीनों से जैसे लंदन में मेट्रो स्टेश्नों पर सुबह मुफ्त छोटा सा अखबार मिलता है, वैसे ही अखबार यहां भी आने लगे हैं. थोड़े से पन्ने होते हैं, कुछ स्थानीय खबरें और बहुत से विज्ञापन. कभी कभी चौराहे पर उसे बाँट रहे होते हैं तो मैं भी ले लेता हूँ. अगर न भी पढ़ा जाये तो दुख कम होता है, क्योंकि मुफ्त में जो मिलता है.

पूरी अखबार पढ़ने के लिए रिटायर होने की प्रतीक्षा है, और गर्म चाय के साथ बिस्तर में बैठ कर अखबार पढ़ना तो केवल भारत यात्रा के दौरान ही होगा.

गुरुवार, नवंबर 03, 2005

कबूतरों की उड़ान

रस्किन बोंड के उपन्यास "कबूतरों की उड़ान" (Flight of pigeons) पर शशि कपूर ने फिल्म बनायी थी "जनून". फिल्म में स्वयं शशि कपूर बने थे लखनऊ के खानदानी रईस जिसे कबूतरबाजी का शौक था. कबूतर पालने वाले गुरु रखना, दबड़े में कबूतर पालना, और शाम को छत पर अन्य रईसों के साथ कबूतर उड़ाने की हौड़ लगाना, बस यही शौक थे उनके. फिल्म का वह दृष्य जिसमें अंग्रेजों से हारा, गुस्से से भरा रईस का भाई (नसीरुद्दीन शाह), अपनी तलबार से कबूतरों के दबड़े तहस नहस कर देता है, बहुत अच्छा लगा था.

एक अन्य फिल्म थी खानदानी रईसों की, "साहिब बीबी और गुलाम". बिमल मित्र के उपन्यास पर बनी इस फिल्म में उन्नीसवीं शताब्दी के कलकत्ता के जीवन का वर्णन है. इस फिल्म के रईस भी अपनी कबूतरबाजी को बहुत गम्भीरता से लेते हैं. कबूतर उड़ाने की प्रतियोगिता में हारना या जीतना, उनके खानदान की इज्जत की बात है.

मेरे बचपन में, कुछ साल हम लोग पुरानी दिल्ली में ईदगाह के पास कब्रीस्तान के सामने बनी एक पुरानी हवेली में रहे. वहां एक छत से दूसरी छत पर जाना बहुत आसान था, और हम बच्चे मुहल्ले के विभिन्न घरों की छतों पर निडर घूमते थे. वहीं एक पड़ोसी घर की छत पर एक कबूतर खाना बना था जहाँ कबूतरबाजी की शौकीन रहते थे. सफेद, काले और चितकबरे, उनके कबूतर मुझे बहुत अच्छे लगते. पर उनकी छत पर नहीं जा सकते थे, उसे केवल दूर से देखते. कभी कभी, शाम को, वह हाथ में लम्बी डँडी लिए, च च च करके विषेश आवाज निकालते और सारे कबूतर हवा में उड़ जाते. नीचे से साहब डँडी को गोल घुमा कर आवाजें निकालते और आसमान में कबूतर, सिखाये हुए सिपाहियों की तरह, गोल चक्कर लगाते. कभी कभी कोई कबुतर थक कर हमारी छत पर आ कर बैठ जाता.

क्या आज कहीं कोई कबूतरबाजी करता होगा ? मुझे लगता है कि टेलीविजन, फिल्म और तेज रफ्तार से जाने वाली आज की जिन्दगी में किसी का पास इतना समय कहाँ कि कबूतर पाले और उन्हें उड़ाये. वह समय ही कुछ और था. आज किसी को कबूतर बाज कहना शायद गाली समझी जायेगी, रईसियत की निशानी नहीं.

आज की तस्वीरों का विषय है कबूतरः



बुधवार, नवंबर 02, 2005

भीड़ में अकेले

प्रत्यक्षा जी की कविता और उससे जुड़ी हुई टिप्पड़ियों को पढ़ा तो अन्य लोगों के साथ रह कर भी कैसे अकेले रह जाते हैं, इसके बारे में सोच रहा था.

भीड़ में हमेशा अकेलापन लगे, यह बात नहीं. कभी कभी आस पास बैठे लोगों में किसी को न पहचानते हुए भी, महसूस होता है मानों हममें से हर एक किसी सागर की लहर है, जो एक दूसरे से अदृष्य धागे से बंधी हो, और साथ साथ उठ गिर रही हो. किसी अच्छे संगीत या नृत्य के कार्यक्रम में ऐसा लगा मुझे. ऐसे में कई बार जब कोई विषेश कला का प्रदर्शन हो तो स्वयं ही आँखे साथ में बैठे हुए लोगों से मिल कर, मुस्कान के साथ एक अपनापन बना देती हैं.

दूसरी ओर अपने जीवन साथी के साथ एक घर में, एक कमरे में रह कर, साथ खा, पी और सो कर भी दो लोग अकेले हो सकते हैं. इस अकेलेपन को फारमूला बातों से भर देते हैं वह, खुद को और औरों को यह दिखाने के लिए कि वे दोनो अकेले नहीं, साथ साथ हैं. आज खाने में क्या बनेगा ? मुन्नु पढ़ता नहीं है. बिजली का बिल भरना है. ऐसी बातें सूनापन भरने का धोखा दे सकतीं हैं. पर दोनों अपने मन में सचमुच क्या क्या सोच रहें हैं, न एक दूसरे से कह पाते हैं न सुन पाते हैं.

प्रेम के धरातल पर भी साथ जीवन शुरु करने वालों के बीच भी समय बीतने के साथ कभी कभी ऐसा हो सकता है. क्यों होता है, इसका कोई उत्तर नहीं है मेरे पास. आन्ना, मेरी पत्नी की सहेली, ने सात साल वित्तोरियो के साथ रह कर उससे विवाह किया, पर शादी के दो साल बाद दोनों ने अलग होने का फैसला किया. जब भी पत्नी कहती कि आन्ना के घर खाने पर जाना है या कि वह लोग हमारे यहाँ आ रहे हैं, तो जी करता कहीं और भाग जाऊँ. सारा समय दोनों एक दूसरे की इतनी कटुता से आलोचना करते थे, हर छोटी छोती बात पर, तुम ऐसी हो, तुमने वैसे किया, एक दूसरे को बातों की तलवारों की नोचते काटते थे, कि सोचता यह दोनों साथ किस लिए रहते हैं ? उन्हें देख कर लगता कि दोनो साथ रह कर अकेले तो थे ही, उस अकेलेपन को झगड़े से भरने की कोशिश कर रहे थे.

इसका यह अर्थ नहीं है कि जोड़ी के बीच आम जीवन की रोटी, खाने, बिजली, बच्चों आदि की बातें नहीं होनी चाहिये, वे तो होंगी ही, पर उनके अलावा भी कुछ हो तभी लगता है कि हम अकेले नहीं.

आज की तस्वीरें एक्वाडोर यात्रा सेः


हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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