शनिवार, जनवरी 28, 2006

सेठ ने कहा

बहुत बार मन में विचार आता, यह जीवन किस लिए मिलता है, क्या अर्थ है इस जीवन का ? शायद ऐसे विचार तभी अधिक आते हैं जब इन्सान को रोज़मर्रा के जीवन में आम चिन्ताओं से मुक्ति मिल गयी हो. यानि कि, जब रहने, खाने, पहनने के लिए भरपूर हो तो मन इस तरह के सवालों से परेशान रहता है ?

इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए बहुत किताबें पढ़ीं. योग, मोक्ष, निर्वाण, भक्ति जैसे विषयों पर पढ़ा. विवेकानंद, डा. राधाकृष्णन, जे. कृष्णामूर्ती और श्री अरबिंदो जैसे विचारकों की किताबें भी पढ़ी. विभिन्न धर्मों के ग्रंथ क्या कहते हैं वह भी पढ़ा. इतना सब कुछ पढ़ने के बाद भी ऐसा कोई उत्तर नहीं मिला जो मन को पूरी तरह भाया हो.

भग्वदगीता और कठोउपानिषद दोनो किताबें मुझे बहुत अच्छी लगीं पर हिंदू धर्म का मुख्य जीवन दर्शन का संदेश, "यह जग माया है, विरक्ति से जीवन जीना सीखो. लोगों से, वस्तुओं से मोह न बाँधो, अपने कर्तव्य का पालन करो", मुझे अधूरा सा लगता है. जीवन माया है और हमें अपने कर्म का सोचना चाहिये, बिना किसी फ़ल की आशा किये हुए, का संदेश यह नहीं बताता कि यह जीवन हमें क्यों मिला ? कर्म और पुनर्जन्म का विश्वास भी मुझे यह उत्तर नहीं देता.

मुझे उत्तर मिला एक किताब में जिसका नाम है Seth Speaks (सेठ ने कहा). यह किताब तीन या चार भागों में बँटी हुई है और अमरीकी मीडियम जेन रोबर्ट के सेठ नाम की एक आत्मा से बातचीत का विवरण देती है. मैं यह नहीं कहता कि किसी के मीडियम होने या आत्माओं से बात कर पाने जैसी बातों पर विश्वास करता हूँ, या आप को ऐसी कोई सलाह दे रहा हूँ. मेरे कहने का अभिप्राय सिर्फ यह है कि जीवन क्यों मिलता है का जो उत्तर इस किताब में दिया गया है, वह मुझे सबसे अच्छा लगा.

उनके अनुसार हमारे जीवन में जो भी बुरा या कठिन होता है - दुख, परेशानियाँ, बीमारी, दुर्घटना, अमीरी गरीबी, इत्यादि, सब हमने स्वयं माँगे है और जीवन का ध्येय है इन परेशानियों और कठिनाईयों से लड़ कर उन्हे जीत पाना, नया ज्ञान पाना, नयी बातें जानना. यह दर्शन मुझे इसलिए अच्छा लगता है कि मेरे जीवन में कुछ भी कठिनाई हो, मुझे यह पूछने के लिए कहता है कि वह कठिनाई मैंने क्यों माँगी, क्या सीखना है उससे, कैसे उससे लड़ कर उसे जीत सकता हूँ ?

मेरे विचार में जीवन दर्शन जैसे विषयों पर ऐसा कोई एक उत्तर नहीं हो सकता जो हम सबको सतुष्ट कर सके. हो सकता है कि आप का जीवन दर्शन का विचार इससे भिन्न हो या फ़िर आप को इस तरह के बेकार सवालों में समय नष्ट करना बेवकूफ़ी लगे!

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आज की दोनो तस्वीरें भारत यात्रा सेः


शुक्रवार, जनवरी 27, 2006

बर्फ की ख़ामोशी

कल २६ जनवरी थी. दो सप्ताह पहले जब दिल्ली में थे तो राजपथ और इंडियागेट के आसपास से गुज़रते समय, गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने वाला कोई न कोई दल अपना अभ्यास करता दिख जाता था. कई बार दिल किया वहीं गाड़ी रुकवा कर उन्हें देखने का, पर इतने काम थे और समय इतना कम, कि हर बार यह बात मन में ही रह गयी.

बचपन में कुछ बार परेड देखने राजपथ पर गये थे. एक बार दिल्ली नगर पालिका के स्कूलों के शिक्षकों की परेड थी तो उसमें माँ ने भी भाग लिया था. कुछ और सालों के बाद, छोटी बहन थी स्काऊट के दल में. रिज रोड पर रवींद्र रंगशाला में कैम्प लगता जहाँ विभिन्न प्रदेशों से आये लोक नर्तक दल ठहरते थे, उनके बीच में घूमना, उनकी विभिन्न भाषाओं की बाते सुनना, बहुत अच्छा लगता. फ़िर स्कूल की पढ़ाई पूरी होने पर, स्कूल के सभी साथी क्नाट प्लेस में जमा होते और वहाँ रहने वाले अपने एक साथी के घर से २६ जनवरी की परेड देखते.

उन सब पुराने साथियों से बेटे के विवाह के दौरान परिचय हुआ, तो पुरानी २६ जनवरियों की बातें याद आ गयीं.
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कल सुबह उठा तो बर्फ गिर रही थी. जब बर्फ गिरती है तो आसपास ख़ामोशी सी छा जाती है. हर ध्वनि दबी दबी सी लगती है. दिन भर रुक रुक कर बर्फ गिरती रही थी. रात को कुत्ते के साथ बाग की सैर को गया था तो बर्फ की ख़ामोशी में अँधेरे में घूमते हुए लग रहा था मानो सपना देख रहा हूँ.

आज सुबह बर्फ की चादर और भी घनी हो गयी लगती है. आज काम पर जाने के लिए भी बस लेनी पड़ेगी.

फिर मन में विचार आता है, कल २६ जनवरी थी, क्या मालूम राष्ट्रपति ने अपने संदेश में क्या कहा होगा ? कौन सी झाँकियाँ सुंदर थीं ? कौन सा बैंड सबसे अच्छा था ? बाहर बर्फ को देख कर भी आँखें नहीं देखतीं, ख़ामोशी में २६ जनवरी का सपना देखती हैं.
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आज दो तस्वीरें राजपथ की.


बुधवार, जनवरी 25, 2006

पेड़ों के नाम

कल प्रदीप कृष्ण की दिल्ली के पेड़ों के बारे में लिखी नयी किताब के बारे में पढ़ कर बहुत खुशी हुई. समाचार में लिखा है कि इस किताब के लिए उन्होंने कई वर्ष तक शोध किया है और शाहजहान के ज़माने से ले कर अँग्रेजी जमाने तक की राजकीय पेड़ों को लगाने की नीतियाँ और उनके चाहे या अनचाहे असर का भी विषलेशण किया है.

शायद यह दिल्ली की सीमेंट और कोलतार के बीच में बड़े होने का परिणाम था पेड़ों की तरफ कभी कोई विषेश ध्यान नहीं दिया. हमारे अपने घर में तो बस एक कनेर का पेड़ था, जो पेड़ कम, झाड़ अधिक था पर पड़ोसी घर में जामुन और अमरुद के पेड़ थे. फ़िर भी आज जामुन और अमरूद के पेड़ नहीं पहचान सकता. कुछ गिने चुने पेड़ों की ही पहचान है जैसे, आम, पीपल, नीम, कीकर. फ़ूलों वाले पेड़ों में दिल्ली गुलमोहर और अमलतास के लिए प्रसिद्ध है. लेकिन अगर फ़ूल न हों तो मेरा ख्याल है कि मैं केवल गुलमोहर को पहचान सकता हूँ.

कई साल इटली में रहने बाद ही अचानक मेरी आँख खुली कि दुनिया में पेड़ भी होते हैं, व्यक्तियों जैसे, एक दूसरे से भिन्न, जीवित प्राणी. इसका सबसे बड़ा कारण हमारा कुत्ता ब्राँदो है जिसके साथ प्रतिदिन बाग में या शहर के बाहर खेतों के पास सैर करने जाने से पेड़ों से मेरा परिचय हुआ. आज इटली के पेड़ों के बारे में बहुत जानकारी है क्योंकि इस विषय पर बहुत सी किताबें पढ़ीं हैं और करीब से जा कर बहुत बार पेड़ों का अध्ययन किया है. तो अच्छा लगा कि किसी को दिल्ली के पेड़ों के बारे में शोध करने का विचार आया.

एक बार दिल्ली हवाई अड्डे पर प्रदीप कृष्ण से मिलने का मौका मिला था, पर तब उनकी तरफ देखा भी नहीं था. सारा ध्यान उनकी पत्नी, अरूंधती राय से बात करने में था और प्रदीप कृष्ण को नमस्ते भी नहीं की. बाद में इस बारे में सोचा तो अपने बरताव पर खेद हुआ. प्रसिद्ध पत्नियों के पतियों को शायद इसकी आदत हो जाती है और शायद प्रदीप कृष्ण जी को अपने आप में इतना आत्मविश्वास है कि उन्हें इस सब से कुछ फर्क नहीं पड़ता!
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दो दिन पहले ब्राँदो का ओपरेशन हुआ है. उसके गले में डाक्टर ने एक भोंपू जैसा कौलर लगा दिया है जिसे यहाँ एलिजाबेथ कौलर कहते हैं ताकि वह घाव को न चाट सके. कल शाम से वह इस कौलर से परेशान है, बार बार पीछे मुड़ कर घाव चाटने की कोशिश करता है और बदहवास सा एक जगह से दूसरी जगह घूम रहा है. उसके पीछे पीछे आधी रात तक मेरी पत्नी लगी रही, इस समय वह जा कर सोयी है और मेरी बारी है अपने लाडले ब्राँदों की देखभाल करने की.


इस बात से बेटे के बचपन के दिन याद आ गये. तब भी ऐसा ही होता था, रात रात भर जागना!
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आज दो तस्वीरें दिल्ली की कुतुब मीनार से.


शनिवार, जनवरी 21, 2006

नेपाल में

कल सुबह छः बजे पुलिस अचानक उनके घर में घुस आयी और उन्हें गिरफ्तार कर के ले गयी. मैं मथुरा प्रसाद जी की बात कर रहा हूँ जो एक समय में नेपाल के स्वास्थ्य मंत्री भी रह चुके हैं. इसीलिए कल दिन भर मथुरा प्रसाद जी के जानने वालों के संदेश आते रहे. कुछ महीने पहले ही उनसे एक्वाडोर में जन स्वास्थ्य अभियान की आम सभा के दौरान मुलाकात हुई थी, और उन्हें वादा किया था कि अगली बार काठमाँडू जाऊँगा तो उन्हें मिलने अवश्य जाऊँगा. इन महीनों में मथुरा प्रसाद जी नें किसी डर से चुप रहना स्वीकार नहीं किया और ईमेल के द्वारा देश की बिगड़ती हालत के बारे में अपने बयान जारी रखे थे, जो शासन को निश्वय ही पसंद नहीं आये.

एक तरफ है एमरजैंसी जैसी हालत जिसमे जनतंत्र को दबा दिया गया है. दूसरी ओर है माओवादी क्राँतीकारी जो सामाजिक न्याय के नाम पर शुरु तो हुए थे पर जहाँ पहुँच गये हैं, वह न्याय कम, दूसरी तरह की तानीशाही अधिक लगता है. नेपाल के समाचार सुन कर बहुत चिंता होती है.

बुधवार, जनवरी 18, 2006

कम कीमत के लोग

कल शाम को जब बिनिल का टेलीफोन आया तो मैं पहले तो समझ ही नहीं पाया कि कौन बोल रहा है. बिनिल बोलोनिया के "हिंदू धर्म सुरक्षा समिति" के अध्यक्ष हैं. इनकी समिति के करीब ४० सदस्य हैं और सभी लोग बंगाली हैं, कुछ कलकत्ता के और कुछ बंगलादेश के हिंदू. हर साल यह समिति बोलोनिया की दुर्गा पूजा का आयोजन करती है.

बिनिल ने एक परेशानी का समाधान खोजने के लिए टेलीफोन किया था. उनकी समिति के एक सदस्य, ५० वर्षीय दलाल शाह, का कुछ दिन पहले अस्पताल में देहांत हो गया. वह बोलोनिया में अकेले ही रहते थे. उनके परिवार में उनकी पत्नी, बेटी और बेटा, कलकत्ता रहते हैं. दिक्कत यह है कि दलाल यहाँ गैर कानूनी तरीके से आये थे और बँगलादेश का पासपोर्ट बनवा कर शरणार्थी बन कर रह रहे थे. उनके पासपोर्ट पर लिखा है कि वह अविवाहित हैं. तो कैसे उनका शरीर वापस भारत उनके परिवार के पास क्रिया कर्म के लिए ले जाया जाये, यह समस्या है.

सुना है कि कलकत्ता से लोगों को यहाँ लाने के लिए और बँगलादेशी पासपोर्ट दे कर उन्हें शरणार्थी बनवाना कोई नयी बात नहीं है और गैर कानूनी ढ़ंग से प्रवासियों को यूरोप लाने का जाना माना तरीका है.

बिनिल ने बताया कि उन्होंने भारतीय और बँगलादेशी दूतावास, दोनो से ही बात की है पर अभी तक कोई हल नहीं निकाल पाये हैं. मैंने उन्हे कहा है कि मैं भारतीय दूतावास से बात करुँगा, देखें क्या हल निकलता है. अगर कुछ हल नहीं निकले तो दलाल शाह का क्रिया कर्म यहीं होगा और उनकी अस्थियाँ ही वापस भारत जायेंगी, जिन्हें किसी पासपोर्ट की जरुरत नहीं.
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अगर आप पढ़े लिखे हैं, वैधानिक तरीके से विदेश आये हैं, तो शायद गैर कानूनी ढ़ंग से आये गरीब, अकसर कम पढ़े लिखे लोगों के जीवन के बारे में जान नहीं पाते, क्योंकि उनसे सम्पर्क कम ही होता है. यह लोग सड़कों पर कारों के शीशे साफ करते हैं, फ़ूल या अखबार बेचते हैं, रेस्टोरेंट की रसोई में काम करते हैं, और छोटे घरों में दस बीस लोग मिल कर रहते हैं.


बिनिल से बात करने के बाद इसी के बारे में सोच रहा हूँ. कितनी कहानियाँ हैं उनके जीवन की, जिन्हें सुनाने के लिए उनके पास शब्द नहीं हैं और हमारे पास उन्हें सुनने की न तो इच्छा है न समय. उनके जीवन सस्ते हैं, वे मरे या जियें, किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता.
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आज की तस्वीरें हैं दिल्ली में कुतुब मीनार के पास फ़ूलों की मंडी से, ऐसे लोगों की जिनके जीवन भी बहुत सस्ते हैं.


मंगलवार, जनवरी 17, 2006

नये साल के विचार

हर साल ही नये साल आता है तो नये साल में क्या नया करना है या क्या पुराना छोड़ना है, इसका सोवना शुरु हो जाता है. हालाँकि अपने सारे वायदे थोड़े दिनों में ही भूल जाता हूँ फ़िर भी, आदत बदलना आसान नहीं है. इस साल इस सोच में एक अन्य बात का असर भी आ गया था कि बेटे के विवाह से हमारे जीवन का भी नया अध्याय शुरु हो रहा है, यानि उम्र की घड़ी बिना रुके लगातार चलती जा रही है और अपने हिस्से का बचा समय कम होता जा रहा है.

क्या ऐसा करना चाहता था जो नहीं किया या कर पाया ? यह प्रश्न था मेरा स्वयं से. यूँ तो मन में हज़ारों इच्छाएँ होती हैं, पर मेरा ध्येय था उस बात को खोजना जिसकी इच्छा सबसे प्रबल हो, जिसका न कर पाना मुझे सबसे अधिक खलता हो. वह इच्छा है एक उपन्यास लिखना!

कहते हैं कि हम सब के भीतर एक उपन्यास छिपा है. मैंने अपने भीतर छुपे उपन्यास को शुरु करने की चेष्टा पहले भी की थी, पर तब हिंदी में लिख पाने का आत्म विश्वास नहीं था, इसलिए वह पहला ड्राफ्ट अँग्रेज़ी में लिखा गया था. डेढ़ साल पहले लिखा था और अलमारी में बंद कर दिया था, सोचा था कि कुछ समय बीतने के बाद दूसरा ड्राफ्ट लिखूँगा.

इस बीच इस चिट्ठे के माध्यम से हिंदी में लिख पाने का आत्म विश्वास बढ़ा है और जिन लोगों ने उपन्यास का पहला ड्राफ्ट पढ़ा है उनके प्रोत्साहन से भी हौंसला बढ़ा है. तो इस नव वर्ष पर निश्चय कर लिया, इसी काम को आगे बढ़ाना है, इस बार हिंदी में.

इसका अर्थ है कि अब इस चिट्ठे में उतना नियमित रुप से नहीं लिख पाऊँगा जैसे पिछले वर्ष लिख पाता था.

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आज की तस्वीरों में हैं दिल्ली के विषेश हैंडीक्राफ्ट बाज़ार "दिल्ली हाट" के दो कारीगर कलाकार. यह बाज़ार हमारी पाराम्परिक कलाओं को सहारा देता है और बहुत सुंदर है. अगर कभी दिल्ली जाने का मौका मिले तो इस बाज़ार को देखना अवश्य याद रखियेगा.


यह कलाकार हैं मध्यप्रदेश के गौंड चित्रकार वैंकटरमन सिंह श्याम. इनके चित्र मुझे बहुत अच्छे लगेः

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स्वामी जी ने मेरी बड़ी दीदी की समस्या का हल करने के लिये बराहा के प्रयोग करने की सलाह दी है जिससे हिंदी में लिखने की समस्या तो हल हो सकती है पर यूनीकोड की हिंदी पढ़ने की समस्या का हल नहीं मिलता, यानि सभी आधे अक्षर ठीक से नहीं दिखते.

शुक्रवार, जनवरी 13, 2006

नौटंकी की तलाश (३)

उग्रसेन की बावली से बाहर निकले तो दिल में इतनी सुंदर जगह देखने की खुशी भी थी और उसकी बुरी हालत पर थोड़ी निराशा भी. अगर पुरातत्व विभाग और दिल्ली प्रशासन इस जगह की अच्छी तरह से देखभाल कर कर के यहाँ पहुँचने के लिए कुछ मुख्य सड़क पर कोई संकेत लगा दें तो यहाँ बहुत पर्यटक आयेंगे.

बावली पर पहुँचने का रास्ता हैः बारहखम्बा मार्ग से हेली रोड पर मुड़िये, करीब २५ मीटर के बाद दाहिनी ओर हेली लेन में मुड़ जाईये और फिर लेन में छोटी सी गली बाँयी ओर जाती है, उसमे मुड़ जाईये. हेली रोड से पैदल जाने का पाँच मिनट का रास्ता है.

खैर बावली से निकले तो बाहर धोबियों के धोये हुए, धूप में सूखते, फ़ैले कपड़ों को देख कर उनकी तस्वीर लेनी चाही. हमें देख कर एक युवक ने हमें उसी गली में बने धोबी घाट को देखने का आमंत्रण दिया. इससे पहले कभी कोई धोबी घाट नहीं देखा था और मन में यह ज्ञियासा भी थी कि शहर के बीचों बीच में कैसे धोबी घाट बन सकता है, क्योंकि मेरा विचार था कि धोबी घाट केवल नदी के किनारे ही होते हैं. इसलिए आमंत्रण हमने तुरंत स्वीकार कर लिया.


हेली लेन का धोबी घाट विषेश बड़ा नहीं है. कुछ नहाने के टब और कुछ बने हुए घाट मिला कर वहाँ १७ घाट हैं जहाँ करीब ५० धोबी कपड़े धोते हैं और उग्रसेन की बावली के आसपास जो कुछ खुली जगह है, वहाँ उन्हें वहाँ सुखाते हैं. घाट में हमारी मुलाकात रोहित कनोजिया से हुई. रोहित बीए पास नवयुवक हैं, धोबी परिवार में जन्मे रोहित को कोई अन्य काम नहीं मिला और वह भी धोबी का ही काम करते हैं. रोहित ने वहाँ के धोबियों के संघर्ष के बारे में हमे बताया.

अगस्त २००५ दिल्ली सरकार के जल निगम ने उनके पानी की दर को व्यासायिक करने का फैसला किया था. इस फैसले की वजह से घाट के पानी का बिल ३ या ४ हजार रुपये से बढ़ कर ३५ या ४० हजार रुपये हो गया है. रोहित का कहना है कि धोबियों की सारी कमायी यह पानी का बिल देने में चली जाती है और उनके पास बच्चों को स्कूल भेजने के भी पैसे नहीं हैं. अन्य कुछ धोबियों ने इस बात की पुष्टी की. एक धोबी हाथ में मेजपोश दिखा कर बोला, "इसको धोने और प्रेस करने का होटल वाले मुझे ३० पैसे देते हैं, बताओ कैसे बढ़ायें हम इसकी कीमत ? कौन देगा हमें इतने पैसे कि हम यह बिल भर सकें ?"

रोहित कहता है कि वे लोग दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित से भी मिल चुके हैं और अन्य कई अधिकारियों से भी, पर छः महीनों के बाद अभी तक कुछ नहीं हुआ है. इस दौरान, उनके पानी के बिल बढ़े हुए आ रहे हैं और उन्हे पानी कटने के डर से उन्होने पेट काट कर भरा है. एक अन्य धोबी घाट के बारे में रोहित ने बताया कि वहाँ की जमीन मंत्रियों और अधिकारियों के सम्बंधियों को सस्ते दाम में दे दी गयी है.

रोहित ने अपने संघर्ष के लिए सहयोग माँगा है और इसीलिए मैंने इस बात को विस्तार में लिखना चाहा है, हालाँकि चिट्ठे में लिखी मेरी बात से कुछ हो सकेगा, इसमे मुझे बहुत संदेह है.

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रोहित से हुई मुलाकात ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया. एक तरफ से मैं समझता हूँ वित्त मंत्रालय की बात कि पानी की सही कीमत ली जानी चाहिये, पानी सस्ता देने से उसका सही उपयोग नहीं होता. पर धोबी जैसे पारम्परिक धँधे को व्यवसायिक मानना मुझे सही नहीं लगता. ड्राई क्लीनर अगर कपड़े साफ करने के लिए दुगना या तिगुना माँगें, और वह ऐसा ही करते हैं, तो कोई कुछ नहीं कहेगा पर घर के नीचे कपड़े धोने या प्रेस करने वाला अधिक माँगे, यह स्वीकार नहीं किया जाता.

ऐसी हालत में धोबी को अन्य धंधों की तरह व्यव्सायिक मानने का अर्थ है कि धीरे धीरे धोबी का काम ही खत्म हो जाये. शायद यही चाहता है आज का आधुनिक भूमंडलीकरण का ज़माना ? पर साथ साथ यह भी लगता है कि आज जब इतनी तकनीकी तरक्की हो गयी है, क्यों मानव जाति को ऐसे कमर तोड़ काम करने पड़ते हैं, क्या उनका जीवन अधिक आसान नहीं किया जा सकता ?

दूसरी बात रोहित जैसे पढ़े लिखे सोचने वाले युवकों की है. हमारी रिजर्वेशन नीति के बावजूद उस जैसे लड़के को हमारा आधुनिक भारत क्या कोई और मौका नहीं दे सकता बजाय धोबी बनने के ? मैं यह नहीं कहता कि धोबी का काम खराब है या निम्न है. पर क्या दिन भर पानी में खड़े हो कर, झुक कर हाथों से दिन भर कपड़े धोना, क्या यही नियती है पढ़े लिखे लड़कों की, जिन्होने सरकारी नगर निगम के विद्यालय से साधारण शिक्षा पायी हो और जिनकी जान पहचान न हो ?
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इतनी कोशिशों के बाद भी नौटंकी की ऐसी कोई किताब नहीं मिली जिसमे नौंटंकी का पूरा नाटक, गाने वगैरा हों. किसी ने कहा है ऐसी किताबें फुटपाथ पर सस्ती किताबें बेचने वालों के पास मिलती है जिन्हें बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों से आये लोग पढ़ते हैं. पर उन्हें ढ़ूँढ़ने का समय ही नहीं मिला. चाहे नौटंकी की किताब न भी मिली हो, उसे खोजने में बहुत आनंद आया और अच्छी अच्छी जगह देखने को मिलीं.

कल फिर दिल्ली से वापस इटली लौट आये. दिल्ली में बीते तीन सप्ताह सपना सा लगते हैं!
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दिल्ली में बड़ी दीदी ने भी हिंदी में अपना चिट्ठा लिखने की इच्छा व्यक्त की. ब्लोगर डोट कोम पर उनके लिए नया ब्लाग भी खोल दिया और क्योंकि उनके क्मप्यूटर पर विनडोस ९५ है, उसके अनुसार रघु फौंट तथा तख्ती का प्रोग्राम भी लगा दिया. पर वह जब तख्ती पर लिखती हैं, उनके आधे वाले अक्षर ठीक नहीं आते. युनीकोड की हिंदी पढ़ने में भी उनकी यही समस्या है कि आधे अक्षर ठीक नहीं दिखते. इसका क्या कारण हो सकता है ? इसके बारे में जानने वाले शायद इसका कोई उपाय बता सकेंगे ?

बुधवार, जनवरी 11, 2006

नौटंकी की तलाश में (२)

मुझे सलाह दी गयी कि श्रीराम सेंटर पर कोशिश कीजिये, वहाँ नौटंकी की किताब जरुर मिल जायेगी. यही सलाह कल शैल ने भी दी तो इसका अर्थ है कि सलाह गलत नहीं थी. खैर हम पत्नी को साथ ले कर निकल पड़े. मंडी हाऊज़ के पास बने आजकल श्रीराम सेंटर में एक अंतर्राष्ट्रीय नाटक समारोह चल रहा है जिसका पोस्टर बहुत सुंदर है.

श्रीराम सेंटर में हिंदी की किताबों की बहुत अच्छी दुकान है और वहाँ काम करने वाली महिला हमारी सहायता के लिए बहुत तत्पर थीं. नाटक की बहुत सारी किताबें थीं वहाँ पर लेकिन उनमें नौटंकी के नाटक की कोई किताब नहीं थी.

इतनी दूर आ कर भी बात नहीं बनी तो जी थोड़ा उदास हो गया. मैट्रो स्टेशन को ढ़ूँढ़ते हुए पैदल ही क्नाट प्लेस की तरफ चल पड़े. अचानक नज़र दाहिनी ओर की सड़क के नाम पर पड़ी, "हेली रोड". कुछ दिन पहले ही बात हो रही थी "उग्रसेन की बावली" की जब हमने घर में "हजारों ख्वाहिशें ऐसी" फिल्म देखी थी. इस फिल्म में एक दृष्य है जो इस बावली की नीचे जाती हुई सुंदर सीढ़ियों पर फिल्माया गया है. तो मेरी भतीजी बोली थी कि यह बावली मंडी हाऊज़ के पास हेली रोड पर है और वह अपने स्कूल के साथ वहाँ गयी थी.

"चलो, चल कर उग्रसेन की बावली देखते हैं", मैंने अपनी पत्नी से कहा और हम दोनो हेली रोड पर मुड़ गये. सड़क पूरी पार ली पर बावली तो कोई नहीं दिखाई दी, दोनो तरफ आलीशान घर और नयी गगनचुंबी ईमारतें दिख रहीं थी. आस पास कुछ लोगों से पूछा पर किसी को मालूम नहीं था. लगा कि हमारा दिन ही ठीक नहीं था और घर वापस चलना चाहिये. वापस बाराखम्बा रोड की तरफ जाते हुए एक अन्य व्यक्ति ने आखिरकार बताया कि वह बावली अंदर की तरफ जाती हुई एक छोटी सी गली में छुपी है जिसे हेली लेन कहते हैं.

तो खोजते खोजते आखिरकार हमने उग्रसेन की बावली का पता पा ही लिया. बावली बहुत सुंदर है और उसे देख कर मन प्रसन्न हो गया. वहाँ हमे मनोहर लाल जी मिले जो अपने आप को बावली का गाईड बताते हैं, कहते हैं कि उनका परिवार १२० सालों से उस बावली की रक्षा कर रहा है.


मनोहर लाल जी का कहना है कि बावली का पुराना हिस्सा करीब दो हजार साल पुराना है जो भगवान कृष्ण के चाचा राजा उग्रसेन द्वारा बनवाया गया था और यह भाग चूना, उड़द की दाल, गुड़, सिरका आदि मिलवा कर बनाया गया था. बाद का भाग तुगलक के जमाने का है यानि कि करीब पाँच सौ साल पुराना.

बावली के साथ एक छोटी सी मस्जिद है जिसमे उर्दू, फारसी और अरबी में कुछ लिखा है. मनोहर लाल जी को इनमे से कोई भाषा नहीं आती इसलिए वह उनका अर्थ नहीं बता पाये. बावली की ओर नीचे को सुंदर सीढ़ियाँ जाती हैं और बावली के पीछे एक दो सौ गज गहरा कूँआ है. दो अन्य रास्ते भी हैं जो बंद हैं और मनोहर लाल की विचार से एक दिल्ली आगरा सड़क की ओर जाता है, दूसरा जंतर मंतर की ओर.


इतनी सुंदर जगह है पर लगता है कि हमारे पुरात्तव विभाग के पास इसकी देखभाल करने के लिए पैसे नहीं हैं. वहाँ एक बोर्ड लगा है कि यह इतिहासिक धरोहर है और इसके २०० मीटर तक कुछ खुदाई वगैरा नहीं करनी चाहिये पर बावली से दस पंद्रह मीटर दूर ही नये भवन बन गये हैं. खैर अगर आप को दिल्ली में क्नाट प्लेस की तरफ आने का मौका मिले तो उग्रसेन की बावली देखना नहीं भूलियेगा.

मंगलवार, जनवरी 10, 2006

नौटंकी की तलाश में (१)

रोम की एक इतालवी छात्रा जो हिंदी पढ़ती हैं और नौटंकी के विषय पर शोध कर रहीं हैं, को कहा था कि दिल्ली जाऊँगा तो तुम्हारे लिए नौटंकी के नाटक की किताब ढ़ूँढ़ूगा. पहले तो बेटे के विवाह की खरीददारी के दौरान ही कुछ दुकानों पर पूछा पर नहीं मिली. विवाह के कामों से छुट्टी मिली तो सोचा कि दरियागंज के पुस्तक बाज़ार में ढ़ूँढ़ा जाये.

दक्षिण दिल्ली से पहले क्नाट प्लेस आया फिर मेट्ररो ले कर चावड़ी बाज़ार. मेट्ररो जहाँ आधुनिक तकनीक से बनी, स्वच्छ वातावरण से सजी, बीसवीं सदी का यातायात है, चावड़ी बाज़ार अभी अठाहरवीं शताब्दी में खोया लगता है और मेट्ररो स्टेशन से बाहर निकल कर झटका सा लगा मानो "बैक टू फ्यूचर" फिल्म में पहुँच गया हूँ. छोटी छोटी गलियाँ, दुकानें, भीड़ भड़क्का, गाँयें, बकरियाँ, भेड़ें, सामान ढ़ोते गधे, बुरका पहने स्त्रियाँ, गंदे पानी की खुली नालियाँ आदि वह दुनियाँ बनाते हैं जो धीरे धीरे दिल्ली जैसे बड़े शहरों से लुप्त हो रही है.

सीताराम बाज़ार से हो कर तुर्कमान गेट की तरफ आया. यह वही जगह है जहाँ एमरजैंसी के दौरान संजय गाँधी ने झुग्गी झौंपड़ी सफाई और जबरदस्ती नसबंदी के अभियान चलाये थे. वहाँ से दरियागंज आया तो फुटपाथ पर किताबों की दुकाने लगी थीं. करीब दो घंटे घूमा, कई किताबें भी खरीदीं, पर नौटंकी की किताब नहीं मिली. दरियागंज के यह बाज़ार जो हर रविवार को लगता है भारत के सबसे बड़े पुस्तक बाज़ारों में से एक है. हिंदी अंग्रेज़ी के साहित्य की किताबें तो मिलती ही हैं, स्कूल और विश्वविद्यालय की किताबें और कभी कभी ध्यान से ढ़ूँढ़िये तो दुर्लभ पुरानी किताबें भी मिल सकती हैं. अगर आप को पढ़ना अच्छा लगता है तो इस बाज़ार में कुछ घंटे तो ऐसे बीतते हैं कि पता ही नहीं चलता.


वापस चावड़ी बाजार के मेट्ररो स्टेशन की ओर चला तो एक छत पर एक लड़का पालतू कबूतरों को उड़ाता दिखाई दिया. फिर एक छोटे बच्चे को एक रिक्शे पर अकेला बैठा देखा तो उसकी तस्वीर खींचने का दिल किया. कैमरा निकाला ही था कि मेरे चारों ओर बच्चे जमा हो गये. एक तेज़ बच्चा बोला कि पहले हमारी तस्वीर लीजिये, इन भेड़ों के साथ. तो पहले उनकी तस्वीर खींची और फिर रिक्शे पर बैठे बच्चे की.



अंत में वापस घर पहुँचा तो थक गया था और नौटंकी की किताब भी नहीं मिली थी, पर चावड़ी बाज़ार का यह दर्शन मुझे बहुत अच्छा लगा.

शनिवार, जनवरी 07, 2006

शुभ प्रारम्भ

नये वर्ष का प्रारम्भ इस वर्ष हमारे पुत्र मारको तुषार के विवाह से हुआ. विवाह की तैयारी करने के लिए हम लोग २५ दिसंबर को दिल्ली पहुँचे. उनका विवाह पहले सिख रीति से होना था, फिर हिंदू रीति से और दूसरे दिन हमने प्रीतिभोज का आयोजन किया था. बस इस सब की तैयारी में दिन कैसे बीत गये, पता ही नहीं चला.

पिछले दिनों में जब मैंने इस विवाह के बारे में लिखा था तो आप में से बहुत लोगों ने शुभकामनाँए भैजी थीं. आप सब को बहुत बहुत धन्यवाद.

आज प्रस्तुत हैं मारको तुषार एवं आत्मप्रभा के विभिन्न विवाह समारोहों की कुछ तस्वीरें, नये वर्ष के मंगलमय होने की मेरी शुभकामनाओं के साथ.








हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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