रविवार, फ़रवरी 19, 2006

खो गये हैं कहाँ ?

कल दिन सुंदर था, धूप निकली थी, मैं साइकल ले कर शहर के प्रमुख चौबारे "पियात्सा माजोरे" जा पहुँचा. पियात्सा का अंग्रेज़ी में अनुवाद होगा, "स्कावायर" यानि समभुज चकोराकार, पर मैंने आज तक कोई समभुज चकोराकार रुप का चौबारा नहीं देखा इस लिए मेरे विचार से इसका सही अंग्रेज़ी अनुवाद रेक्टेंगल होना चाहिये था.

चौबारों का इतालवी सामाजिक जीवन में बहुत महत्व है. यहाँ लोग मित्रों को मिलते हैं, अपने नये कपड़े पहन कर सैर करते हैं औरों को दिखाने के लिए, खेल तमाशा देखते हैं, बैठ कर चाय काफी पीते हैं. इस लिए पियात्सा माजोरे में हमेशा भीड़ सी लगी रहती है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है. कल सब तरफ प्रोदी को समर्थको की भीड़ थी, जो प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के लिए वोट माँग रहे थे.

९ अप्रैल को राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं इटली में और प्रधानमंत्री पद के दो प्रमुख नेता हैं सिलवियो बरलुस्कोनी और रोमानो प्रोदी. बरलुस्कोनी जी जो इस समय प्रधानमंत्री हैं, कानून की झँझटों में फँसे हैं पर उनका जनता पर बहुत प्रभाव रहा है. करोड़पति हैं, कई अखबारों, पत्रिकाओं, टेलीविजन चेनलों के मालिक भी, पर कहते हैं कि उनका अधिक ध्यान सरकार में रह कर भी, अपनी कानूनी समस्याएँ सुलझाना है और अपनी अमीरी बढ़ाना है.

प्रोदी जी प्रोफेसर हैं, गंभीर किस्म है, यूरोपियन कमीशन के प्रधानमंत्री रह चुके हैं. मेरी व्यक्तिगत राय है कि बरलुस्कोनी जी अपने लालू जी की तरह चालू हैं पर उनके भाषण मजेदार होते हैं. प्रोदी जी जरुर अधिक अच्छे प्रधानमंत्री बनेंगे पर उनके भाषण जरा बोरिंग से होते है, सनते सुनते नींद आ जाती है.

प्रोदी और बरलुस्कोनी के चुनाव में अपने वोट माँगने का तरीका भी भिन्न ही है. प्रोदी जी लोग सामने बात करना पसंद करते हैं, वह स्वयं एक बड़ी पीली गाड़ी में शहर शहर घूम रहे हैं. दूसरी तरफ, बरलुस्कोनी जी के रंगबिरंगे बोर्ड हर तरफ लगे हैं, और वह सरकारी पद का इस्तेमाल कर रहे हैं कि सरकारी खर्चे पर सभी देशवासियों को अपनी सरकार के अच्छे कामों के बारे में बता सकें.


कुछ देर चौबारे में खुले में हो रही एक सर्कस देखी. अनौखी साईकल चलाने वाले कलाकार ने मुझे फोटो खींचते देखा तो पोज़ बना कर खड़ा हो गया.

सर्दी थी पर धूप की वजह से कम लग रही थी. ऊपर आसमान इतना नीला और उसमें तैरते सफ़ेद बादलों को देख कर लगा कि पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर सागर में तैरते हिमखँड शायद ऐसे ही लगते हों ?


यूँ ही घूमते घूमते, जाने मन में क्या आया वहाँ एक पुराने गिरजाघर में घुस गया. बाहर से तो यह गिरजाघर बहुत बार देखा था पर अंदर कभी नहीं गया था. इसका नाम है, "सांता मारिया देला वीता" यानि "संत जीवनदायनी मारिया" और यह बोलोनया के एक पुराने अस्पताल (सन 1100 से 1750 तक काम किया इस अस्पताल ने) का हिस्सा था. ऐसे ही चारों तरफ देख रहा था कि वहाँ सफाई कर रही एक युवती ने इशारा कर के कहा कि मूर्तियाँ सीड़ियों के पीछे हैं. कौन सी मूर्तियाँ सोचा पर फ़िर जहाँ इशारा किया था उस तरफ बढ़ा. वहाँ अँधेरे में ऐसा दृष्य देखा कि एक क्षण के लिए साँस नहीं ले पाया. झाँकी सी बनी थी, बीच में रखा जीसस का शरीर, आसपास रोने वाले. रोने वालों में दो मूर्तियाँ इतने सुंदर तरीके से प्रियजन से बिछड़ने का दुख दर्शा रहीं थी. लकड़ी की बनी यह मूर्तियाँ सन 1463 में मूर्तकार निकोला देल आर्का ने बनायीं थीं. बहुत अचरज हुआ कि इतनी सुंदर जगह शहर के बीचोंबीच हो कर भी इस तरह से कैसे छुपी है, दिल्ली की उग्रसेन की बावली की याद आ गयी.




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दिन में केवल 24 घँटे ही क्यों होते हैं और जब दिन भर करने के काम इन 24 घँटों में न समायें तो क्या करना चाहिये ? नौकरी, परिवार और बिस्तर इन 24 घँटों को अपने अपने हिस्सों में बाँट लेते हैं और बस सुबह सुबह के 1-2 घँटे बचते हैं जिन्हे मैं अपनी मन मरजी करने वाले कह सकता हूँ. पिछले वर्ष मन में ठानी थी कि यह समय हिंदी चिट्ठे के लिए है हर सुबह चिट्ठा लिखने बैठ जाता था.

पर इस वर्ष सब कुछ बदल गया है. भारत यात्रा से वापस लौटे तो सबसे पहला काम था कि बेटे के विवाह की विभिन्न विडियो फिल्मों को इकट्ठा करके उन्हें मिला कर एक छोटी सी फिल्म बनायी जाये. करीब एक महीना तो इसी में निकल गया. फ़िर मन में एक उपन्यास लिखनी तमन्ना थी, तो वह शुरु किया. उसके साथ साथ आजकल एक इतालवी डाक्यूमैंट्री निर्देशिका को भारत में बनाई गयी फिल्म के कुछ हिस्से अनुवाद करने में सहायता कर रहा हूँ.

यानि कि खोने के लिए आसपास बहुत सारे रास्ते हैं, पर शायद कुछ अकेले से हैं. कभी कभी दिल करता है अकेलेपन से निकलने का, तो चिट्ठे को खोजते खोजते वापस आना ही पड़ता है.

शनिवार, फ़रवरी 18, 2006

लुक्का छुप्पी

पिछले महीने दिल्ली से वापस आते समय, साथ में "रंग दे बसंती" फिल्म के संगीत का कैसेट ले कर आये थे. इधर कुछ दिनों से कार में वही कैसेट चल रहा है. शुरु शुरु में तो गाने और संगीत कुछ विषेश नहीं लगे थे, पर कुछ बार सुन कर बहुत अच्छे लगने लगे हैं.

भगत सिंह, राजगुरु आदि का गीत "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है", बचपन से जाने कितनी बार सुना और गाया होगा पर उनके शब्दों के बारे में कभी गहराई से सोचा नहीं था. मालूम नहीं कि यह "रंग दे बसंती" में इस गीत को कहने की तरीके की वजह से है या फ़िर गाड़ी में अकेले बैठे, बिना किसी अन्य शोर इत्यादि के सुनने की वजह से, पर इस बार इस गीत के शब्द सुन कर रौंगटे खड़े हो गये.

पर फिल्म का सबसे अच्छा गीत मुझे लगा "लुक्का छुप्पी, बहुत हुई सामने आजा ना", शायद इस लिए कि उम्र के साथ मेरी नज़र भी धुँधली पड़ने लगी है! गीत के कुछ अंश लोरी जैसे लगते हैं और लता जी की गाई हुई लोरियों का कौन मुकाबला कर सकता है. यह सोच कर कि यह गीत पचहत्तर साल की औरत गा रही है, कुछ अजीब भी लगता है और लता जी की आवाज़ पर आश्चर्य भी होता है. शायद यह सच है कि आज लता जी की आवाज़ में महल फिल्म के "आयेगा आनेवाला" या सुजाता की "नन्ही कली सोने चली" वाली बात नहीं है, पर मेरी नज़र में, अपनी तरह से आज भी लता जी की आवाज़ अनौखी है.

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फिल्मों के गीत हमारे जीवन में कितने अधिक समा जाते हैं, क्या ऐसा केवल उत्तरी भारत में हि्दी फिल्में देखने वालो के साथ ही होता है या फ़िर दक्षिण भारत में भी ऐसा ही होता है ? कुछ भी बात हो जीवन की, चाहे खुशी हो या दुख का लम्हा, या फ़िर रोज़मर्रा का साधारण पल, हर स्थिति के लिए मन में कोई न कोई गीत आ ही जाता है. उसके लिए सोचना नहीं पड़ता.


अगर ये गाने न हों तो लगता है कि जैसे खुशी या दुख अधूरे रह गये हों.

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मंगलवार को दो सप्ताह के लिए नेपाल जाना है. हालाँकि वहाँ की स्थिति के बारे में रोज़ चिंताजनक समाचार मिलते हैं पर फ़िर भी मन में अपने बारे में या यात्रा के बारे में कोई विषेश चिंता नहीं है. वहाँ लोग हड़ताल कर रहे हैं, बंद कर रहे हैं, जेलों में जा रहे हैं और मेरे मन केवल "यह देखूँगा, वहाँ जाऊँगा, उससे मिलूँगा.." जैसी बातें आतीं हैं.


नेपाल से आते समय दिल्ली में कुछ देर रुकने का मौका मिलेगा. इस खुशी में आज की तस्वीरें दिल्ली की सड़कों की.


रविवार, फ़रवरी 05, 2006

प्रेमी से जीवनसाथी (२)

ऐसी जीवनसाथी होनी चाहिए जिसके साथ बैठ कर साहित्य, दर्शन शास्त्र, धर्म जैसे विषयों पर बात कर सकूँ, यह सोचता था.

जिससे प्रेम हुआ और विवाह किया, उसे हल्का फुल्का पढ़ने का शौक तो है पर गँभीर बातों पर बहस करने का बिल्कुल नहीं. पर इसके बदले में उसे तरह तरह के पकवान बनाने, घर का काम करने, कपड़े बनाने आदि जैसे शौक हैं. सुबह सुबह उठ कर काफी और नाश्ता बनाती है, काम पर ले जाने के लिए खाना बनाती है. इतालवी हो कर भी, इन सब मामलों में मुझे वह पुराने ज़माने की भारतीय पत्नी सी लगती है. आराम की आदत पड़ गयी है, और जब गम्भीर बहस का दिल करता है तो बहुत मित्र हैं. और कोई न हो तो चिट्ठा जगत में बहुत से निठल्ले बैठे हैं, उनसे बात हो जाती है. :-)

हमारी धर्मपत्नी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी बहुत गम्भीरता से लेती हैं. प्रेम करने से पहले इस बारे में कभी ठीक से नहीं सोचा था. अड़ोस पड़ोस में कहीं किसी को कुछ चाहिए तो हमारी श्रीमति जी को याद कर लेता है. आप की तबियत ठीक नहीं है, बाजार से कुछ लाना है ? आप का कुछ काम है पर आप के पास समय नहीं है ? अपना दुखड़ा रो कर आप किसी को उल्लु बनाने की ताक में हैं ? एक्सीडेंट हो गया, अस्पताल जाना है ? आप की टाँग पर पलस्तर चढ़ा है, खाना नहीं बना सकते ? कुछ भी बात हो हमारी श्रीमति जी पर भरोसा रखिये, वह खुद तो करेंगी ही, अगर जरुरत पड़ी तो हमें भी बीच घसीट लेंगी. इतनी बार लोग कुछ भी बात सुना कर, पैसे ले जाते हैं पर वह हैं कि मानव जाति की अंतर्हीन अच्छाई को मानने से बाज़ नहीं आतीं.

एक बार पड़ोस की एक वृद्धा की तबियत ठीक नहीं थी, तो कई दिन तक उसके लिए खाना बना कर ले जाती रहीं. एक दिन खाना खा कर उन वृद्धा के पेट में दर्द हो गया तो अस्पताल गयीं और बोलीं कि फलाँ औरत ने मुझे जहर दे कर मारने की कोशिश की है. जब बात मेरी श्रीमति तक पहुँची तो आप उनका आश्चर्य और परेशानी को समझ सकते हैं. बोलीं आगे से किसी के लिए खाना नहीं बनाऊँगी. दो महीने बाद फिर उसी वृद्धा की तबियत खराब हुई तो यह फिर से उसके लिए खाना बना रहीं थीं!

उनका यह परोपकारी गुण, कभी मुझे अच्छा लगता है और कभी खीज आती है जब अड़ोसी पड़ोसी बातें करने घर आ धमकते हैं, पर मुझे यकीन है कि हमारे पड़ोसियों को उनका यह गुण बहुत प्रिय है.

एक अन्य गुण है उनका कि उन्हें कार चलानी अच्छी लगती है. चूँकि मुझे कार चलाना बड़ा बोरियत का काम लगता है इसलिए अगर साथ कहीं भी जाना हो मुझे ड्राईवर तैयार मिलता है. इस गुण का एक बुरा पहलू भी है, यानि कि वह समझती हैं कि कार चलाने में उनसे अधिक होशियार कोई और हो नहीं सकता. इसलिए वह साथ में बैठी हों और कोई और गाड़ी चला रहा हो तो उसे निर्देश देने से बाज नहीं आती. "ब्रेक लगाओ. धीरे करो. इतने धीरे क्यों चला रहे हो....".

पर मुझे जो उनका गुण सबसे अच्छा लगता है वह है उनका नाचना. हिंदी फिल्मों से नृत्य की शिक्षा पायी है और हर पार्टी में जैसे ही नाचना प्राम्भ होता है, वह लग जाती हैं श्रीदेवी वाले झटकों में. इस तरह का आधुनिक नृत्य जिसमें हाथ पाँव इधर उधर फैंके जायें मुझे भी बहुत अच्छा लगता है, कुछ ही देर में लगता हैं जैसे सारा तनाव टैंशन दूर हो गये हों.

यह आठ गुण हैं या अस्सी, यह मुझे नहीं मालूम, पर इतना तो आप समझ ही गये होंगे कि हम अपनी श्रीमति पर अभी भी, शादी के पच्चीस साल बाद भी, वैसे ही लट्टू हैं.

आज की तस्वीरें, पिछले महीने की भारत यात्रा के दौरान, उन्हीं के नाम हैं.



प्रेमी से जीवनसाथी

आदर्श प्रेमी या प्रेमिका ? कुछ बेतुका सा सवाल नहीं हैं यह क्या ? प्रेम क्या पूछ कर आता है किसी से या आने से पहले सर्वे करने का समय देता है ताकि आप सवाल जवाब कर सकें ? जब प्रेम का बुखार थोड़ा कम होता है और कुछ सोचने बूझने की समझ आती है, तब तक गुण अगुण गिनने के लिए बहुत देर हो चुकी होती है.

जब प्रत्यक्षा जी का संदेश पढ़ा "आप को टैग किया है" तो कुछ ठीक से समझ नहीं आया. फिर उनका आदर्श प्रेमी वाला लेख पढ़ा तो सोचा कि शायद अनूगूँज का नया तरीका निकला है. इन दिनों काम में ऐसा फँसा हूँ कि कुछ दिनों तक कुछ चिट्ठे लिखने पढ़ने का मौका ही नहीं मिला और मैं इस बात को भूल गया. आज सुबह सोचा कि कुछ चिट्ठे पढ़े जायें तो पाया कि यह टेगिंग रोग तो फ्लू से भी भयँकर रुप से फैल रहा है. सभी इस बीमारी में अटके हैं हाँलाकि विषय कुछ कुछ अदल बदल हो रहा है, कभी कोई प्रेमी प्रेमिका की बात करता है तो कभी कोई जीवन साथी की.

हीर राँझा और सोहनी महवाल जैसे प्रसिद्ध प्रेमियों का सोच कर तो यही ठीक लगता है कि आदर्श प्रेमी तो वही जो अपनी प्रेमिका को जीवन साथी बनाने से पहले ही खुदा को प्यारा हो जाये, यानि प्रेम को रुमानी धूँए में ही महसूस करे, उसे यथार्थ की कसौटी पर न परखे.

सोचने और सच में बहुत अंतर होता है. विद्यार्थी जीवन में सोचता था कि मुझे लम्बी, पतली, साँवली लड़कियाँ अच्छी लगती हैं, लेकिन प्यार हुआ उससे जिसमें इनमें से कोई भी बात नहीं थी. जब प्यार का बुखार आया तो दिमाग ने पहले के सभी विचारों को भुला दिया.

इसलिए अब लगता है कि अच्छा जीवन साथी मिलने के लिए गुणों की सूची नहीं, अच्छी किस्मत चाहिये. जो गुण मैं सोचता था कि मेरे जीवनसाथी में होने चाहियें, उनमें से बहुत कम हैं मेरी पत्नी में, पर उसमें वे बातें हैं जिनके बारे में प्रेम से पहले सोचा नहीं था. वाँछित गुणों की सूची, उम्र के साथ साथ बदलती रहती है.

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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