मंगलवार, जनवरी 30, 2007

प्रेम की परिभाषा

पँद्रहवीं शताब्दी के इतालवी चित्रकार ब्रोंज़ीनो की कलाकृति "वीनस की जीत की प्रतीक कथा" (Allegory of triumph of Venus), पहली दृष्टि में कामुकता का खुला चित्रण करती लगती है. लंदन की नेशनल गैलरी में लगी यह तस्वीर आँजेलो ब्रोंज़ीनो ने करीब 1545 में बनाई थी जिसे फ्लोरेंस के शासक कोसिमो दे मेदिची प्रथम ने फ्राँस के राजा फ्राँसिस प्रथम को भेंट में दी थी. तस्वीर को कामुक और दिमाग भ्रष्ट करने वाली कह कर, इसके कुछ हिस्सों को ऊपर से रंग लगा कर ढक दिया गया था, जो अब हटा दिये गये हैं. यह तस्वीर लंदन कैसे पहुँची इसकी पूरी जानकारी इतिहास में नहीं है. पर इस तस्वीर में ब्रोंज़ीनो ने प्रेम की पूरी परिभाषा को समझाया है, इसलिए इसे ध्यान से देखिये.




इतालवी कला विशेषज्ञ फेदेरीको ज़ेरी जिनका देहांत 1998 में हुआ था इस तस्वीर के बारे में विस्तार से लिखा है, और यह मेरा वर्णन उन्हीं की एक किताब से है.

चित्र की कहानी ग्रीस के पुराने देवी देवताओं की कहानियों से जुड़ी है. चित्र के बीचों बीच सबसे बड़ी आकृति है प्रेम की देवी वीनस की. जिस तरह वह बैठीं हैं उस मुद्रा को सरपेनटाईन यानि साँप जैसी कहा जाता है. उनके बायें हाथ में सोने का सेब है जो पारिदे ने जूनोने तथा मिनर्वा की प्रतिस्पर्धा के दौरान उन्हें दिया था. वीनस के साथ कामुक मुद्रा में उन्हें चूमने वाले नवयुवक हैं क्यूपिड यानि कामदेव. कामदेव का दायाँ हाथ वीनस के वक्ष पर है और ध्यान से न देखें तो लगता है कि हाँ दोनो काम की अग्नि में एक दूसरे के लिए बेकरार हो कर जल रहे हैं. पर ध्यान से देखें तो वीनस दायें हाथ से कामदेव का तीर चुरा रहीं हैं और कामदेव जी बायें हाथ से वीनस का मुकुट उतारने की कोशिश में हैं. यानि प्रेम के बहाने से दोनो एक दूसरे को धोखा देने और अपने स्वार्थ के लिए लगे हैं.

तस्वीर के दायीं ओर एक नग्न बच्चा है, पाँव में पायल, हाथ में गुलाब के फ़ूल, हँसमुख चेहरा. यह है आनंद.

आनंद के पीछे एक सुंदर कन्या है, जिसके हाथ में शहद का छत्ता है. इसे ध्यान से देखिये तो पायेंगे कि इसके हाथ उल्टे हें यानि दायाँ हाथ बायीं ओर और बायाँ हाथ दायीं ओर. इसकी टाँगें नहीं साँप जैसी पूँछ है जो दो मुखोटों के पास छुप कर डँक मारने का इंतज़ार कर रही है. यह है आनंद के पीछे छुपा धोखा.

तस्वीर के बायीं ओर कामदेव के पीछे हैं सिर को पकड़े, दर्द से चिल्लाने वाले ईर्ष्यादेव और और उनके ऊपर भर्राई आखों वाली पागलपन की देवी.

तस्वीर की अंतिम आकृति है ऊपर बायीं ओर का वृद्ध जो आँखें घुमा कर कह रहा है कि "अभी दिखाता हूँ मैं मजा". यह है समयदेव जो समय की नीली चादर लिए खड़ा है और कह रहा है अभी कुछ समय निकलने दो, सब प्यार भूल जाओगे.

यानि पहली दृष्टि में काम भावना दिखाने वाली यह तस्वीर असल में प्रेम का बहुत निराशाजनक चित्रण करती है.

शनिवार, जनवरी 27, 2007

विचारों की आज़ादी

कल भारत का गणतंत्र दिवस था. जब भी 26 जनवरी आती है तो दिल करता है कि किसी तरह दिल्ली के राजपथ पहुँच कर परेड देखने को मिल जाये. मेरे लिए उस परेड का सबसे अच्छा हिस्सा होता था विभिन्न प्राँतों से आये लोकनर्तक और रंग बिरंगी झाँकियाँ. बचपन में ताल कटोरा बाग और रवींद्र रंगशाला के पास लगे गणतंत्र दिवस शिविर जहाँ देश के विभिन्न भागों से आये बच्चे और जवान ठहरते थे, वहाँ घूमना बहुत अच्छा लगता था. अचरज भी होता था और गर्व भी हमारे भारत में कितने अलग अलग लोग हैं जिनकी भाषा, पौशाक, चेहरे इतने अलग अलग हो कर भी हमसे इतने मिलते जुलते हैं.

1950 में बना हमारा गणतंत्र हमें अपनी बात कहने की आज़ादी देता है और इस बात पर भी गर्व होता है कि कुछ छोटे मोटे अपवाद छोड़ कर भारत में आज भी विभिन्न दृष्टिकोण रखने की आज़ादी बनी हुई है, जबकि अपने पड़ोसी देश चीन से ले कर अन्य बहुत से देशों में यह आज़ादी कितने समय से बेड़ियों में बँधी है.

पत्रकारों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था सीविप यानि "सीमाविहीन पत्रकार" (Reporter without Borders) इस बात की जानकारी देता है कि किस देश में अपने विचार रखने की कितनी स्वतंत्रता है. सन 2007 का प्रारम्भ हुए 26 दिन ही हुए है पर इन 26 दिनों में सीविप के अनुसार 6 पत्रकार और 4 मीडिया सहायक मारे गये हैं, तथा 142 पत्रकार, 4 मीडिया सहायक और 59 अंतर्जाल के द्वारा विरोध व्यक्त करने वाले लोग जेल में बंद किये गये हैं. इराक में जिस गति से पत्रकारों को मारा जा रहा है उसके बारे में सीविप का अभियान कहता है, "अगर इराक में पत्रकार इसी तरह मरते रहे तो जल्द ही आप को स्वयं वहाँ से समाचार लेने जाना पड़ेगा".



कहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व मानव अधिकार घोषणा में "हर मानव का अपने विचार व्यक्त करने" के अधिकार कवियों, लेखकों तथा उपन्यासकारों की एक गैर सरकारी संस्था पेन इंटरनेशनल के जोर डालने तथा अभियान करने पर रखा गया था. आज भी पेन इंटरनेशनल (PEN - Poets, Essayists, Novelists) भी जेल में बंद और मारे जाने वाले लेखकों, कवियों और उपन्यासकारों के बारे में सूचना देती है.

आजकल सरकारी सेंसरशिप का नया काम है अंतर्जाल पर पहरे लगाना ताकि लोगों की पढ़ने और लिखने की आज़ादी पर रोक लगे. सीविप इन देशों को "काले खड्डे" (Black holes) का नाम देती है और इनमें सबसे पहले स्थान पर है चीन, जहाँ कहते हैं कि 30,000 लोग सरकारी सेसरशिप विभाग में अंतर्जाल को काबू में रखने का काम करते हैं. कहते हें कि चीन में अगर आप किसी बहस के फोरम या चिट्ठे पर कुछ ऐसा लिखे जिससे सरकार सहमत नहीं है तो एक घंटे के अंदर उसे हटा हुआ पायेंगे. जिन अंतर्जाल स्थलों को चीन में नहीं देख सकते उनमें वीकीपीडिया भी है.



दुख की बात तो यह है कि बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ चीनी सरकार से डर कर इस काम में सरकार की मदद कर रहीं हैं. चीनी अर्थशास्त्र के बारे में निकलने वाले समाचार पत्र "आधुनिक अर्थशास्त्र समाचार" के प्रमुख सम्पादक शि ताओ ने एक सरकारी फरमान जिसमें समाचार पत्रों को कहा जा रहा था कि वह "तियानामेन की बरसी पर इसके बारे में कोइ समाचार न छापें" को विदेश में भेजने की कोशिश की तो याहू ने यह संदेश रोक कर उसे चीनी सरकार को दिया और शीताओ को देश विरोधी होने के अपराध में दस साल के कारागार की सजा हुई.

सीविप के अनुसार पत्रकारों की सेंसरशिप और दमन में वियतनाम, तुनिसी, ईरान, क्यूबा, जैसे देश भी शामिल हैं. अंतर्जाल में सेसरशिप से कैसे बचें इस विषय पर सीविप ने एक किताब भी निकाली है.


शुक्रवार, जनवरी 26, 2007

अधिकार

संयुक्त परिवार वाले चिट्ठे पर मिली टिप्पणियों में इतने सारे रोचक प्रश्न और पहलू हैं कि मैं अपने ही बनाये नियम "बहस में नहीं पड़ना, वैसे ही समय इतना कम मिलता है, उसमें भी अगर बहस में लग गया तो ..." को एक बार खुशी से भूलने के लिए तैयार हूँ.

सबसे पहले तो जितेंद्र की शिकायत को लें:

सुनील भाई, ब्लॉग की थीम बदलो यार! बहुत दु:खी लगती है।

असल में जाने क्यो मन की गहराई में कहीं छुपा हुआ है कि गम्भीर, उदास, फ़ीके रंगों से अपनी छवि बुद्धिजीवी की हो जायेगी, इसलिए जब भी चिट्ठे का कोई टेम्पलेट ढूँढ़ता हूँ तो रो धो कर ऐसे ही डिज़ाइन पर जा कर मन रुकता है जिसे देख कर मन से निकले, वाह कितना गम्भीर और दुखी है! खैर जीतू तुम्हारी मन से निकली इस आह को कैसे देख कर अनदेखा कर देता? तो नतीजा तुम्हारे सामने है. यह नहीं कि रँग बहुत खुशनुमा हो गयें हैं पर शायद थोड़ा सा फर्क पड़ा है? :-)

अब बात करें संजय की, जिन्होंने लिखा हैः


अपनी बात स्पष्ट करने के लिए एक ऐसे पुरूष की बात करता हूँ जो जन्म से तो पुरूष हैं मगर स्त्री बनना चाहता है, वह समलिंगी है. ऐसे लोगो के लिए मेरा मत है की-व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोत्तम है, मगर अपनी जिम्मेदारी से भागना कहाँ तक सही है. प्रकृति ने पुरूष बनाया है तो एक पुरूष का कर्तव्य निभाओ. कुछ कमी रही है तो ईलाज करवाओ. एक महिला बनने की कामना करते हुए उल्टा ईलाज करवाने से कहीं ज्यादा अच्छे परिणाम एक पुरूष बनने का ईलाज करवाना चाहिए. मन तो और भी बहुत कुछ करने को चाहता होगा, अच्छा
हो अन्य मामलो की तरह इसका भी ईलाज मनोचिकित्सक से करवाया जाय.यह सब नैतिक या धार्मिक प्रेरणाओं से नहीं बल्कि शारीरिक जटिलताओं को ध्यान में रख कर लिखा है.
संजय जैसा तुम सोचते हो, मेरे विचार में दुनिया के अधिकाँश लोग शायद ऐसा ही सोचते हैं. जो लोग इस द्वँद से गुज़रते हैं, उनमें से भी बहुत से लोग अपने मन और भावनाओं को दबा कर यही कोशिश करते हैं कि किसी को मालूम न चले, छुप कर दब कर रहो. जो लोग इतना साहस जुटा पाते हें कि दुनिया में अपना सच बता सकें, उन्हें कदम कदम पर तिरस्कार और परिहास का सामना करना पड़ता है. केवल उन पर ही नहीं, उनके सारे परिवार के लिए कितना कष्टदायक होता है इसका अंदाज़ इस बात से मिलता है कि उनमें से अधिकतर लोगों को घर परिवार से नाता तोड़ना पड़ता है. जब इतनी तकलीफ़ें उठानी पड़ती हैं तो भी क्यों कुछ लोग लिंग बदलाव की कोशिश करते हैं? शायद इसलिए कि "गलत" शरीर में रहने की पीड़ा उनसे सहन नहीं होती? जितना मैंने जाना है, वे कोई भी फैसला करें, भावनाओं को छुपाने और दबाने का या अपने सच के साथ सामने आने का, कोई भी आसान नहीं होता. बहुत से लोग मनोचिकित्सकों के पास ही जाते हैं पर आधुनिक सोच के अनुसार मनोचिकित्सक का काम यह नहीं कि वह किसी को बतायें क्या ठीक है या क्या गलत, बल्कि उनका काम है व्यक्ति को अपने अंतर्द्वंद को समझना और उसे स्वीकार करना. पहले किसी ज़माने में समलैंगिकता को बीमारी माना जाता था पर आज तो वह मानव प्रकृति की विविधता का ही एक हिस्सा है.

घुघुटीबसूटी, मालूम नहीं कि यह नाम ठीक से लिखा है या नहीं, की बात से में बहुत कुछ सहमत हूँ पर उनकी इस बात परः


समलैंगिकता आदि व्यक्तिगत पसन्द हैं, और इसे आम व्यक्ति समझ नहीं सकता ।
मैं कुछ जोड़ना चाहूँगा. समलैंगिकता व्यक्तिगत पसंद है या व्यक्ति के अंदर उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग, इस पर बहस तो हमेशा से ही चलती आई है, पर यह सोचना कि आम आदमी इसे नहीं समझ सकता केवल आज की परिस्थिति को बताता है. मेरे विचार में इस विषय पर आम आदमी के लिए और जानकारी दी जानी चाहिये. बहुत से लोग इन विषयों पर बात करना पसंद नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि जब यह बात हमारे समाज में नहीं है तो इस पर बात करने से शायद इसे प्रोत्साहन मिले या नवयुवकों को गलत विचार मिलें. वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि करीब 10 प्रतिशत लोग इस श्रेणी में आते हैं, आप मान लें कि 10 न हो कर वे केवल 5 प्रतिशत हैं तो भी हम भारत में कितने करोड़ लोंगो की बात कर रहे हैं? जो बात इतने जीवन छूती है, उस पर आम आदमी को क्यों न जानकारी और समझ हो?

अंत में देखें ईस्वामी की टिप्पणियाँ:

१) मुझे समलैंगिकों से बस इतना कहना है की वे अपनी जीवनशैली जीने के लिए स्वतंत्रता का हक रखते हैं लेकिन वे "विवाह" शब्द की परिभाषा से छॆडछाड ना करें. विवाह एक स्त्री और एक पुरुष के बीच ही हो सकता है इस परिभाषा का सम्मान करें. अगर दो पुरुषों को या दो स्त्रीयों को अपनी जोडी को सामाजिक और न्यायिक मान्यता दिलवानी है तो अपने गठजोडों के लिए कोई नये शब्द गढें और सटीक परिभाषा गढें जैसे की
पुरुष-पुरुष का हो तो हीवाह और स्त्री-स्त्री का होतो शीवाह - विवाह कतई नहीं मैरिज कतई नहीं - इस बारे में मैं बहुत कट्टर हूं!

मेरे विचार में बात यह नहीं कि इसे क्या नाम दिया जाये, बात अधिकारों की है चाहे उसे कुछ भी नाम दें. अधिकार कई स्तरों पर हैं. एक आम युगल को विवाह एक दूसरे की सम्पत्ती की वसीयत से जुड़े अधिकार देता है, अगर उनमें से किसी एक को अस्पताल में दाखिल हो तो उससे मिलने का अधिकार देता है, उसका आपरेशन हो इसका फैसला करने का अधिकार देता है, जिस घर में रहते हैं एक की मृत्यु के बाद उसी घर में रहने का अधिकार देता है. समलैंगिक युगल जो सारा जीवन साथ रहें उन्हें यह अधिकार क्यों न मिलें?

बात केवल समलैंगिक युगलों की ही नहीं, उन स्त्री पुरुषों की भी है जो बिना विवाह के साथ रहते हैं, वह भी यही अधिकार चाहते हैं.

आज इन अधिकारों की बात दुनिया के अधिकतर देशों में नहीं मानी जाती और केवल कुछ ही देश हैं जहाँ इने माना गया है. बहुत से समलैंगिक लोग भी इस बारे में अलग अलग राय रखते हैं. मेरे जानने वाले एक समलैंगिक मित्र कहते हैं कि यह सब बेकार की बाते हैं क्योंकि अधिकतर समलैंगिक लोग एक ही आदमी के साथ सारा जीवन बिताना पसंद नहीं करते. मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ, क्योंकि यह मानव अधिकारों की बराबरी की बात है फ़िर चाहे इससे केवल आधा प्रतिशत समलैंगिक युगल फ़ायदा उठाना चाहें और बाकी नहीं.

मंगलवार, जनवरी 23, 2007

नये संयुक्त परिवार

हमारे एक पड़ोसी का परिवार बहुत अनोखा है. यह परिवार है माउरा और उसके पति अंतोनियो का. माउरा के दो बच्चे हैं, जूलिया उसके पहले पति के साथ हुई बेटी है और रिकार्दो, जो अंतोनियो का अपनी पहली पत्नी के साथ हुआ बेटा है.

माउरा के अपने पहले पति राउल और सास ससुर यानि जूलिया के दादा दादी से अच्छे सम्बंध हैं. राउल ने भी दूसरी शादी की और उनका अपनी दूसरी पत्नी सिल्विया के साथ एक बच्चा है.

अंतोनियो के भी अपनी पहली पत्नी के परिवार से अच्छे सम्बंध हैं. उनकी पहली पत्नी मोनिका का भी एक साथी है, जिसका नाम भी अंतोनियो है और जिनका अपनी पहली पत्नी से एक बेटा है, पर मोनिका और उनके वर्तमान वाले अंतोनियो का कोई आपस में बच्चा नहीं है.

कभी भी जूलिया या रिकार्दो से परिवार के बारे में कुछ बात करो तो चक्कर सा आ जाता है. समझ नहीं आता कि किसकी बात कर रहे हैं. माउरा कहती है कि इतने बड़े परिवार होने का यह फायदा है कि जब कभी उन्हें बाहर जाना हो तो बच्चों की देखभाल के लिए बेबी सिटर नहीं खोजना पड़ता, आपस में ही किसी न किसी परिवार में या फ़िर किसी दादा दादी या नाना नानी के परिवार में कोई न कोई अवश्य मिल जाता है.
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न्यू योर्क टाईमस् मेगज़ीन में भी एक अन्य तरह के नये संयुक्त परिवारों के बारे में लेख देखा. यह संयुक्त परिवार हैं समलैंगिक पुरुष तथा महिला युगलों के. समलैंगिक युवतियाँ जब बच्चों वाला परिवार चाहती हैं और अपने किसी समलैंगिक पुरुष मित्र को कृत्रिम वीर्यदान (artificial insemination) के लिए राजी करती हैं. वैसे तो कृत्रिम वीर्यदान किसी वीर्य बैंक से किसी अज्ञात व्यक्ति का भी लिया जा सकता है पर लेख के अनुसार उन्हे अपनी पसंद के जाने पहचाने युवक को अपने साथ जोड़ना बेहतर लगता है ताकि उनके बच्चे को पिता भी मिलें.

कुछ भी करने से पहले सबसे पहला काम जरुरी होता कि सारी बात स्पष्ट की जाये और किसकी क्या ज़िम्मेदारी होगी यह बात साफ़ तय की जाये. युवतियाँ अधिकतर यह माँग करती हैं कि युवक को बच्चे पर से सारे कानूनी अधिकार त्यागने होंगें और बच्चे के पालन पोषण के लिए कोई ज़िम्मेदारी नहीं उठानी पड़ेगी. यह इसलिए कि अगर आपस में न बनी तो युवक कानूनन बच्चे को लेने की कोशिश न करे. पर साथ ही वह यह भी चाहतीं हैं कि युवक बच्चे को नियमित मिले और उसके जीवन में स्नेह की दृष्टि से पिता का स्थान भरे.

इस तरह के युगलों के बच्चों को दो माँ मिलती हैं और कम से एक पिता. अगर पिता का भी स्थायी साथी हो, दो पिता भी मिल सकते हैं.
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मेरे विचार में बच्चों को स्नेहपूर्ण वातावरण की आवश्यकता होती है. अगर माता पिता की न बने और उनमें तलाक हो तो बच्चों को पीड़ा तो होगी ही पर अगर उसके बावजूद, अपने आपसी मतभेद भूल कर माँ पिता बच्चों को स्नेह का वातावरण दे सकते हें तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कैसा संयुक्त परिवार है जहाँ बच्चा बड़ा हुआ है. आप का क्या विचार है इस बारे में?

रविवार, जनवरी 21, 2007

मोने, प्रभाववाद और धुँध

फ्राँस के चित्रकार मोने (Monet) का जन्म हुआ 1840 में हाव्र में. मोने ने प्रभाववादी चित्रकला शैली (impressionism) का पहली बार प्रयोग किया और आधुनिक चित्रकला युग का प्रारम्भ किया.

वह समय था यथार्थवादी चित्रकला शैली (realism) का जिसे पुनर्जन्म युग (renaissance) में द विंची तथा माइकलएँजेलो जैसे चित्रकारों ने उभार दिया था. पुर्नजन्म युग से पहले का मध्यकालीन युग यूरोपीय इतिहास में अँधेरा युग (dark ages) कहा जाता है जब यूरोप में कला और संस्कृति के दृष्टि से रुकाव आ गया था. रोमन और ग्रीक संस्कृति से पनपने, निखरने वाली कला और संस्कृतियाँ कैथोलिक चर्च के रूढ़ीवाद तथा धर्माधिकरण (inquisition) के सामने हार कर अपने भीतर ही बंद हो गयी थी. इसलिए पँद्हवी शताब्दी में जब कला और संस्कृति ने दोबारा खिलने का मौका पाया, उस युग को पुनर्जन्म का नाम दिया गया.

पुर्नजन्म युग से पहले चित्रकला का पहला नियम था सुंदरता दिखाना. पुनर्जन्म युग में यथार्थवादी शैली का प्रारम्भ हुआ जिसमें मानव शरीर को उसकी असुंदरता के साथ दिखाने का साहस किया गया. अब चित्रों के पात्र केवल धनवान, ऊँचे घरों के सुंदर जवान युवक युवतियाँ ही नहीं थे,अन्य लोग जैसे कि बूढ़े, बूढ़ियाँ, बिना दाँत वाले, टेढ़े मेढ़े, गरीब किसान परिवार, इत्यादि सब कुछ जैसे थे वैसा ही दिखाये जा सकते थे. चित्र के पटल पर हर चीज़ स्पष्ट रेखोंओं से बनाई जाती थी, जिससे लगे कि मानो तस्वीर खींची हो जैसे नीचे वाले लियोनार्दो दा विंची (Leonardo da Vinci) के एक रेखा चित्र में देखा जा सकता है.





यही यथार्थवाद अठाहरवीं शताब्दी में दोबारा उभर कर आया था और इसे नवयथार्थवाद का नाम दिया गया था.

मोने ने यथार्थवाद को छोड़ कर प्रभाववाद की नयी तकनीक अपनाई. इस नयी शैली में कलाकार तूलिका से चित्रपटल पर हल्ले हल्के निशान लगाता है, जैसे कि रँगों में हवा मिली हो. तूलिका द्वारा लगी एक एक रेखा, अलग अलग स्पष्ट दिखे. चित्रों का ध्येय कोई यथार्थ दिखाना नहीं बल्कि वातावरण और मनोस्थिति दिखाना है जिसे देख कर आप को एक अनुभूति हो. नीचे की तस्वीर मोने की है जिसमें उनके जन्मस्थान हाव्र की बंदरगाह को दिखाया गया है.




प्रारम्भ में प्रभाववादी चित्रकारों की बहुत हँसी हुई और मोने की चित्रप्रदर्शनियों को सफलता नहीं मिली पर धीरे धीरे इस शैली को स्वीकारा गया और बहुत से चित्रकारों ने अपनाया, जिनमें से विनसेंट वानगाग (Vincent Van Gogh) का नाम प्रमुख है. नीचे वाला चित्र वानगाग का है जिसका शीर्षक है तारों छायी रात (Starry night). इस चित्र के बारे में अधिक समझना चाहें तो ओम थानवी का लेख अवश्य पढ़िये.




आज सुबह धुँध को देख कर मुझे मोने और प्रभाववाद का ध्यान आ गया. धुँध से यथार्थ जीवन की रेखाएँ घुल मिल कर धुँधला जाती हैं और उदासी की मनोस्थिति को व्यक्त करती हैं. इन तस्वीरों को देखिये और बताईये कि प्रभाववाद आप को कैसा लगता है?





गुरुवार, जनवरी 18, 2007

मैसूर का बाघ

बचपन में विद्यालय में मैसूर के बाघ, टीपू सुलतान की कहानी पढ़ी थी कि कैसे उसने अँग्रेजी शासन से लड़ाई की. कुछ वर्ष पहले, मैसूर के पास श्रीरंगापट्नम में उनका महल और मकबरा भी देखा. पिछले महीने, दिसम्बर में जब बंगलूरु में था तो उनका राज भवन भी देखने गया और फ़िर वर्ष के अंत में, अँग्रेज़ी पत्रिका "द वीक" में टीपू के बारे में अँग्रेज़ी मूल के लेखक विलियम डारलिमपल का एक लेख भी पढ़ा, कि कैसे अँग्रेज़ी शासकों ने उनके विरुद्ध आरोप लगाये और इतिहास में उनकी गलत छवि बनाई.

विकिपीडिया टीपू की जनछवि से जुड़ी विभिन्न मान्यताओं के बारे में बताता है, कि अधिकतर हिंदू बहुल्य वाले भाग में टीपू को मुस्लिम शासक होने की वजह से अपनी वैधता स्थापित करने की कठिनाई थी. एक तरफ़ वह स्वयं को धर्मपरायण मुसलमान दिखाना चाहते थे पर साथ ही संतुलित विचारों वाले ताकि अपनी प्रजा से सही नाता बना सकते. उनकी धार्मिक धरोहर के विषय में उपमहाद्वीप में बहुत विवादग्रस्त है. पाकिस्तान में कुछ गुटों का दावा है कि वह घाज़ी यानि धर्म के लिए लड़ने वाले बड़े यौद्धा थे और भारत में कुछ गुट कहते हैं कि उन्होंने बहुत से हिंदुओं को मारा. कई इतिहासकारों का कहना है कि टीपू ने हिंदुओं तथा ईसाईयों के विरुद्ध बहुत से काम किये थे और पूरे भारत में एक मुस्लिम राज्य की स्थापना करने का सपना देखते थे.

विलियम डारलिमपल का लेख टीपू पर अँग्रेज़ी हमले की तुलना, अमरीका के ईराक पर हमले से करते हैं. एतिहासिक दस्तावेज़ों के अध्ययन से वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि सन 1790 के आसपास अँग्रेज़ी शासन रूढ़िवादियों के हाथ में था जो अपने देश को दुनिया की सबसे बड़ी ताकत देखना चाहते थे, फ्राँस के बहुत विरुद्ध थे और अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए उन सभी शासकों को हटाना चाहते थे जिनसे उन्हें कोई खतरा हो सकता था.

अँग्रेज़ी शासन को जिन लोगों से खतरा हो सकता था उनमें टीपू का नाम काफ़ी ऊपर था. उसने अपने शासित हिस्से में सड़के आदि बनवायीं थी, शासन के स्पष्ट नियम बनवाये थे, सेना के लिए फ्राँस से नयी बंदूकें और हथियार बनवाये थे. अँग्रेज़ो़ को लगा कि अगर टीपू इस तरह अपने शासन को सुदृढ़ करता रहा तो बाद में उसे हराना और भी कठिन हो जायेगा. इसलिए टीपू पर हमले का बहाना ढूँढ़ने के लिए उन्होंने टीपू के विरुद्ध मीडिया अभियान शुरु किया कुछ वैसे ही जैसे अमरीका ने सद्दाम हुसैन के विरुद्ध किया था. वह कहने लगे कि टीपू धार्मिक कट्टरवादी था, हिंदुओं और ईसाईयों को मार रहा था, उसे हटाना बहुत जरुरी था और इस तरह टीपू पर युद्ध किया.

डारलिमपल का कहना है कि दस्तावेज़ों से टीपू की जो छवि निकलती है वह उस तरह की नहीं हैं जैसी अंग्रेज़ी इतिहासकारों द्वारा बनाई गयी बल्कि और जटिल है. शासक के रुप में टीपू नये विचारों वाला, जनप्रगति और शासन दृढ़ बनाने, नयी तकनीकों को अपनाने वाला था. उसने पश्चिमों देशों के सामाजिक संगठन को देख कर उससे सीख ली और वैसी ही नीतियाँ अपने ही शासन में चलानी चाहीं. उनके निजि पुस्तकालय में 2000 से अधिक किताबें थीं, न केवल धर्म, सूफ़ी आदि के बारे में बल्कि इतिहास, गणित, नक्षत्रविज्ञान जैसे विषयों पर भी. वह कला को प्रोत्साहन देते थे. एक तरफ़ युद्ध में जीते प्राँतों में उन्होंने हिंदू मंदिर नष्ट करवाये और लोगों को जबरदस्ती धर्म बदलने के लिए मजबूर करवाया, दूसरी ओर अपने शासित प्राँत भाग में हिंदू मंदिरों को सरकारी सुरक्षा मिलती थी और सरकारी दान भी. उन्होंने कई मंदिरों को क्वार्टज़ाईट के शिवलिंगों का दान किया. श्रृंगेरी मंदिर जो एक मराठा युद्ध में नष्ट हुआ था, उसे दोबारा बनवाने के लिए दान दिया.

नीचे की तस्वीरों में टीपू का बंगलूरु का महल.





बुधवार, जनवरी 17, 2007

निडर तस्लीमा

अँग्रेज़ी की पत्रिका आऊटलुक में बँगलादेशी मूल की लेखिका सुश्री तस्लीमा नसरीन का नया लेख निकला है जिसमें तस्लीमा कुरान में दिये गये स्त्री के परदे के नियमों के बारे बतातीं हैं और कहतीं हैं इस्लाम और कुरान दोनों औरतों को परदे से सारा शरीर ढकने का आदेश देते हैं. उनका कहना है कि परदे का विरोध यह कह कर करना कि यह कुरान में नहीं लिखा है, नहीं किया जा सकता. बल्कि परदे का विरोध इस लिए किया जाना चाहिये क्योंकि यह औरत के सम्मान के विरुद्ध हैं. वह कहती हैं कि परदा औरत के शोषण का माध्यम है जिससे औरत को पुरुषों की सम्पत्ती बनाये रखा जा सके, जिससे औरतों को काबू में रखा जा सके.

इस तरह की कोई भी बात कहने के लिए आज बहुत साहस की आवश्यकता है. आप तस्लीमा जी की बातों से सहमत हों या न हों, यह मानने से इन्कार करना कठिन होगा कि इस तरह वही लिख सकता है जिसने अपने मार दिये जाने के बारे में सोच लिया हो और सिर पर कफ़न बाँध लिया हो.

शुक्रवार, जनवरी 12, 2007

इज़्ज़त

एक अँग्रेजी के चिट्ठे में 18 अक्टूबर 1946 के एक अँग्रेजी अखबार में छपे समाचार के बारे में पढ़ा जिसमें गाँधी जी ने पूर्वी बँगाल प्रोविंस में हो रहे हिंदु मुस्लिम दँगों में, नोआखली की एक हरिजन कोलोनी में लोगों को सलाह दी थी कि इज़्ज़त पर खतरा हो तो ज़हर खा कर या चाकू से अपनी जान दी जा सकती है. उनकी यह सलाह विषेशकर औरतों के लिए थी.

इसी बहस को पढ़ कर सोच रहा था कि कैसे बचपन में कही सुनी बातें हमारे सोच विचार को सारा जीवन अपने चगुँल में लपेटे रहती हैं और जिनसे बाहर निकलना आसान नहीं होता. स्त्री का धर्म लज्जा है, उसका काम तो सहना है, वह तो सीता माता है, इज़्जत बचा कर रखना बहुत जरुरी है, स्त्री बदन को ढक कर रखना चाहिये जैसी बातें हमें बचपन से ही सुनने को मिलती थीं. आदर्श स्त्री तो अग्नी परीक्षा देने वाली, धरती में समाने वाली सीता ही थी, पाँच पतियों के साथ रहने वाली द्रौपदी नहीं, यही सिखाया गया था. माँ अच्छी है क्यों कि सबको खाना खिला कर खुद बचा खुचा खाती है, यही सोचते थे.

1965 में एक फ़िल्म आयी थी "नयी उम्र की नयी फसल" जिसमें नये गीतकार नीरज ने बहुत सुंदर गीत लिखे थे और जिसका एक गीत मुझे बहुत अच्छा लगता था जिसकी अंत की पँक्तिया थीं:


राणा अधीर हो कर बोला
ला ले आ ले आ सैनाणी
कपड़ा जब मगर हटाया तो
लहू लुहान रानी का सर
मुस्काता रखा थाली पर
हा रानी, हा मेरी रानी
तू सचमुच ही थी छत्राणी
अदभुत है तेरी कुर्बानी
फ़िर एड़ लगायी घोड़े को
धरती बोली जय हो, जय हो
अँबर बोला जय हो, जय हो
हाड़ी रानी तेरी जय हो
जिस हाड़ी की रानी की कुर्बानी का सोच कर बचपन में रौँगटे खड़े हो जाते थे, उसका धर्म था कि पति का ध्यान न बटे, उसके लिए अपना सिर काट कर देना. रानी पद्मनी का अलाऊद्दीन खिलजी के हाथों न पड़ने के लिए, अन्य स्त्रियों के साथ जौहर करने की गाथा में भी यही बात थी. आज भी पर्यटकों को वहाँ के गाईड गर्व से वह जगह दिखाते हें कि यहाँ जली थी हमारी रानी पद्मनी. रूप कँवर पति की आग में जलती है तो उसके लिए सती मंदिर बन जाता है. सिर पर स्कार्फ लपेटे, ऊपर से नीचे तक ढकी मुसलमान युवती पैरिस में कहती है कि शरीर को ढकना उनका अधिकार है और वह अपनी मर्जी से अपना शरीर ढकती हैं, या विद्वान जब फैसला सुनाते हें कि युवती को बलात्कार करने वाले ससुर के साथ उसकी पत्नी बन कर रहना चाहिये, तो भी शायद वही बात हो रही है?

मुझे लगता है कि हर बार बात केवल एक ही है वही स्त्री शरीर की लज्जा की, इज्जत की. "खामोश पानी" में जब किरण खेर का पात्र इज्जत बचाने के लिए कूँए में कूदने से मना कर देता है और पूछता है कि स्त्री को ही क्यों अपनी इज्जत बचानी होती है, तो सोचने को मजबूर करती है. स्त्री की इज्जत की बात, उसके गर्भ में पलने वाले बच्चे से जुड़ी होती है और यह कैसे कोई समाज मान ले कि उनकी औरतें विधर्मी, बलात्कारियों के बच्चे पालें?

आज मानव अधिकारों, स्त्री पुरुष समानता बनाने की कोशिशें, जात पात के बँधनों से बाहर निकलने की कोशिशें, यह सब इस लिए भी कठिन हैं क्योंकि बचपन से घुट्टी में मिले सँदेश हमारे भीतर तक छुपे रहते हैं और भीतर से हमें क्या सही है, क्या गलत है यह कहते रहते हैं. केवल तर्क या पढ़ लिख कर अर्जित ज्ञान से यह मन में छुपे सँदेश नहीं मरते या बदलते.

शायद थोड़े बहुत लोगों को छोड़ कर बाकी का समाज आज भी यही संदेश अपने बच्चों को सिखा रहा है. परिवर्तन आ तो रहा है, पर बहुत धीरे धीरे. अगर पैदा होने से पहले गर्भपात से मार दी जाने वाली लड़कियों की बात देखें तो बजाय सुधरने के, स्थिति और बिगड़ रही है. तो क्या रास्ता होगा, इससे बाहर निकलने का?

रविवार, जनवरी 07, 2007

तृतीय प्रकृति के द्वँद

हाल ही में 800 मीटर की दौड़ में पदक जीत कर "स्त्री नहीं पुरुष" होने के आरोप में उसे खोने वाली सुश्री शाँती सौंदराजन के हादसे ने अंतरलैगिक जीवन से जुड़ी हुई बहुत सी मानव अधिकार समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है. जिस तरह से यह बात समाचार पत्रों तथा टेलीविजन पर प्रस्तुत की गयी, उनमें मानव अधिकारों की उपेक्षा भी थी और सहज सँवेदना की कमी भी. साथ ही यह भी स्पष्ट था कि अँतरलैंगिक (transgender) विषय पर आम जानकारी कितनी कम है.

जबकि समलैंगिक (homosexual) और द्वीलैंगिक (bisexual) विषयों पर पिछले कुछ वर्षों में कुछ बहस और विमर्श हुआ है, अँतरलैंगिक विषय पर बात अधिक आगे नहीं बढ़ी है. अँतरलैंगिक शब्द का प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में किया जाता है जैसे किः
  • जब व्यक्ति का शारीरिक लिंग उसके मानसिक लिंग से भिन्न हो, जैसे कि स्त्री शरीर हो कर भीतर से पुरुष महसूस करना या पुरुष शरीर में अंदर से स्वयं को स्त्री महसूस करना.
  • जब यौन अंग ठीक से न बने हों जिससे यह कहना कठिन हो कि व्यक्ति पुरुष है या स्त्री

इनसे मिलती जुलती एक अन्य परिस्थिति है जिसमें व्यक्ति अपने से विभिन्न लिंग के वस्त्र धारण करना चाहते हैं लेकिन वह अपने लिंग को नहीं बदलना चाहते (transvestites or cross-dressers).

अपने अंतर में अपने आप को स्त्री या पुरुष महसूस करना (sexual identity) और अपने यौन जीवन के लिए स्त्री या पुरुष का साथ चाहना (sexual orientation), यह दो अलग अलग बातें हैं जिनके बारे में अक्सर लोग ठीक से नहीं समझते हैं और इन सब लोगों को समलैंगिक समझते हैं, जोकि सही नहीं है. अगर आप के शारीरिक और मानसिक लिंग भिन्न हों तो आज विकसित देशों में, शल्य चिकित्सा के द्वारा लिंग बदलना सँभव है. इसकी वजह से लिँग और यौन सम्बंधों के बहुत से विभिन्न गुट बन सकते हैं, जिनकी अपनी विभिन्न कठिनाईयाँ होती हैं.

बोलोनिया में मेरी जान पहचान के एक व्यक्ति शादीशुदा हैं, अपनी पत्नी से बहुत प्यार करते हैं पर साथ ही मन ही मन में वह अपने आप को स्त्री देखते हैं. कुछ समय से वह होरमोन से इलाज करवा रहे हैं ताकि उनके शरीर में पुरुष भाव कम हों और स्त्री भाव तीव्र हों. वह अपने मित्रों के बीच स्त्री पौशाक पहनते हैं और मन में साहस जुटा रहे हैं कि घर से बाहर भी स्त्री रुप में रह सकें. उनकी आशा है कि एक दिन भविष्य में वह शल्य चिकित्सा से शारीरिक रुप में भी स्त्री बन जायेंगे. जहाँ काम करते हें वहाँ अभी यह बात उन्होंने नहीं बताई है पर कभी न कभी, उन्हें वहाँ भी अपना भेद खोलने की हिम्मत करनी पड़ेगी. दुनिया के लिए वह साधारण विषमलैंगिक व्यक्ति हैं पर अपने मन में समलैंगिक, लैसबियन. यह सब कितनी कठिनाईयों से जुड़ा है उसका अंदाज लगाना कठिन है और वह मनोयोग चिकित्सक से इलाज भी करवा रहे हैं ताकि अपने स्त्री होने या पुरुष होने के मानसिक द्वंद को समझ सकें. उनकी बेटी उनसे बात नहीं करती पर उनकी खुशकिस्मती हैं कि इस कठिनाई में उनकी पत्नी और उनकी वृद्ध माँ, उनके साथ हैं.

मानव अधिकारों की दृष्टि से देखें तो हर व्यक्ति को अपने बारे में यह निर्धारित करना का हक है कि वह क्या चाहता है, स्त्री होना या पुरुष होना. इतालवी कानून इस बात की अनुमति देता है कि लिंग बदलाव के बाद, वह कानूनी तौर से स्त्री बन सकते हें और अपना नाम आदि बदल सकते हैं.

जब यौन अँग ठीक से न बने हों तब भी, यह व्यक्तिगत निर्णय पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति को पुरुष माना जाये या स्त्री. पर क्योंकि यह निर्णय अक्सर बचपन में बच्चे के माँ बाप द्वारा लिया जाता है, जैसा कि शाँती सौदराजन के साथ हुआ, तब बड़े हो कर उन व्यक्तियों को यह छूट मिलनी चाहिये कि वह स्वेछा से अपना सामाजिक लिंग निर्धारित कर सकें. इससे सभी कठिनाईयाँ तो नहीं मिटती पर कुछ आसानी होती है.

भारत में इन सब व्यकितयों को जिनका लिंग स्पष्ट न हो "हिँजड़ा" श्रेणी में रखा जाता है पर असलियत में विभिन्न शौध कार्यों नें दिखाया है कि "हिँजड़ा" कहे जाने वाले बहुत से लोग समलैंगिक पुरुष होते हैं. वात्सयायन के "काम शास्त्र" में "तृतीय प्रकृति" की बात की गयी है जिसका अर्थ अधिकतर समलैंगिक पुरुषों से जुड़ा है पर वैचारिक दृष्टि से यह शब्द अंतरलैंगिक की तरह हैं जिसकी अधिक खुली परीभाषा हो सकती है जिसमें विभिन्न परिस्थितियों वाले लोग अपनी पहचान खोज सकते हैं.

हिंदू धार्मिक ग्रँथों में इन सब विषयों पर विभिन्न देवी देवताओं के माध्यम से सामाजिक स्वीकृति दी गयी थी, जिसे आज बहुत से लोग भूल चुके हैं. कैल्ब, नपुसँक और सँधा जैसे शब्द इन विषयों को भिन्न तरीकों से छूते हैं. शिव के रूद्र रुप और अर्धनारीश्वर रुपों में अंतरलैंगिक जीवन की स्वीकृति है तो पुराणों और महाभारत में अर्जुन अंतरलैंगिकता को व्यक्त करते हैं. महाभारत के योद्धा अर्जुन, पद्म पुराण में झील में स्नान के बाद अर्जुनी बन जाते हैं और कृष्ण से संसर्ग करते हैं. महाभारत में इंद्र के श्राप से विराट नगर में अर्जुन का एक वर्ष के लिए स्त्री वस्त्र धारण करने वाला पुरुष बुहनाला बन कर रहना इसकी एक और परिस्थिति पर्स्तुत करता है. दक्षिण भारत में भगवान अयप्पा, जिन्हें मणीकँठ भी कहते हैं और जिनकी पूजा सबरीमाला में होती है, की कहानी भी अंतरलैंगकिता दर्शाती है. ब्रह्माँड पुराण के अनुसार विष्णु के मोहिनी के रुप में, शिव के वीर्य से अयप्पा का जन्म होता है और यौद्धा अयप्पा प्रतिज्ञा करते हें कि जब तक पुरुष भक्त उनके मंदिर में पूजा करने आते रहेंगे वह शादी नहीं करेंगे.

आज विकसित पश्चिमी देशों को अंतरलैंगिक व्यक्तियों के मानव अधकारों के बारे में जागरूक समझा जाता है और विकासशील देशों को इस दिशा में पिछड़ा हुआ कहते हैं. पर मेरे विचार में भारतीय धर्म ग्रँथों में इस विषय पर गहरी समझ भी थी और सामाजिक स्वीकृति भी जिसे विकटोरियन मानसिकता ने भुला दिया है और जिसकी खोज की आवश्यकता है.

बुधवार, जनवरी 03, 2007

निष्पक्ष पत्रकारिता

एनडीटीवी की जानी मानी पत्रकार सुश्री बरखा दत्त ने जब निष्पक्ष पत्रकारिता को मीडिया द्वारा बनाया मिथिक कहा तो बहस शुरु हो गयी. अपनी विवेचना में उन्होंने कहा "निष्पक्षता का सिद्धांत समाचारों में भावनात्मक तत्वों को बढ़ाने के विरुद्ध बात करता है. एक फैशन सा हो गया है कि टेलीविजन पत्रकारों की अतीनाटकीयता की आलोचना की जाये. पर क्या भारतवासी तमिलनाडू के ग़रीब मछुआरों की दुर्दशा को समझ पाते अगर उनकी कहानियों को व्यक्तिगत रुप दे कर न प्रस्तुत किया जाता, जिससे उन्हें जीते जागते लोग महसूस किया गया बजाय कि केवल आँकड़ों की तरह देखा जाता? और यह बताईये कि राहत की राह देखते गावों में जहाँ छोटे बच्चों की सामूहिक कब्रें थीं, उसके बारे में किस तरह से निष्पक्ष रहा जा सकता है?"

मैं सुश्री दत्त की बात से सहमत हुँ. ईराक युद्ध में अमरीकी तथा अँग्रेज सिपाहियों के साथ उनकी फौज का हिस्सा बन कर जाने वाले पत्रकारों से क्या हमें निष्पक्षता की कोई उम्मीद हो सकती थी? सच तो यह है कि हर बात के बहुत से पहलू होते हैं और पत्रकार किसी न किसी पहलू को ही अधिक ज़ोर देते हैं जो उनके व्यक्तिगत सोचने के तरीके पर ही निर्भर होता है. बहुत बार देशद्रोही होने का डर पत्रकारों की कलम को अपने आप ही समाचार दबाने या छुपाने के लिए प्रभाव डालता है.

तो समाचार कौन सा सच बोलते हैं और किस पर विश्वास किया जाना चाहिये?

एमरजैंसी के दौरान या कुछ बड़ी घटनाओं पर भारतीय समाचार पत्रों और संचार माध्यमों के आत्मसैंसरशिप को सरकारी मान्यता मिली थी, जब इंदिरा गाँधी की मृत्यु पर स्वयं राजीव गाँधी ने बताया था कि सही बात जानने के लिए उन्होंने बीबीसी रेडियों को सुनना चाहा था क्योंकि आल इंडिया रेडियों की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता था! क्या अनेक टेलीविजन समाचार चैनलों के आने से स्थिति कुछ बदली है?

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समाचारों की विश्वसनीयता के बारे में बीबीसी का नाम प्रसिद्ध था पर पिछले कुछ वर्षों में इस विश्वसनीयता में कमी आई है. अमरीकी सीएनएन ने तो ईराक युद्ध के दौरान, कम से कम मेरे लिए तो, अपनी सारी विश्वसनीयता खो दी है. हालाँकि यूरोन्यूज़ भी अंतर्राष्ट्रीय समाचार चैनल है पर उसका प्रभाव बहुत कम रहा है और प्रश्न उठता है कि कैसे इन समाचारों को जाना जाये?

पर आज नये नये अंतर्राष्ट्रीय टेलीविजन चैनल आ रहे हैं जिनसे बीबीसी या सीएनएन का अधिपत्य खतरे में है. मध्यपूर्व में कतार से प्रसारित होने वाला अलज़रीरा चैनल अब अँग्रेजी में आने लगा है जो अरबी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है. रूस ने रशिया टुडे के नाम से अँग्रेजी चैनल शुरु किया है और फ्राँस ने फ्राँस 24 के नाम से नया समाचार चैनल फ्राँसिसी और अँग्रेजी में प्रारम्भ किया है. यह सोचना कि इनमें से कोई एक चैनल "सच" बतायेगी गलत होगा पर विभिन्न सूत्रों से एक ही बात के विभिन्न पहलू सुनने को मिल सकते हैं. शायद हमें वही सच लगेगा जिसकी बात हमारे अपने दृष्टिकोण से मिलती होगी!

चिट्ठे और अंतर्जाल एक अन्य माध्यम है जो हमारे हाथों में है, जिससे हम अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सकते हैं और अंतर्राष्ट्रीय समाचारों की बातों को अपनी आँखों देखी से नकार सकते हैं. डिजिटल फ़ोटोग्राफ़ी की बढ़ती आसानी हमारी बात को विश्वासनीयता दे सकती है, हालाँकि उसमे सिर का पैर दिखाना संभव है पर अंत में सच सामने आ ही जाता है.

यूट्यूब जैसी सेवाएँ हममें से हर एक को टेलीविजन पत्रकार बनने का मौका देती हैं, कम से कम उनको जिनके पास तकनीकी जानकारी और अंतर्जाल तक पहुँचने के माध्यम हैं. इन सबसे सारी समस्याएँ समाप्त नहीं होगीं पर कुछ नये विकल्प तो बनेंगे ही.

टिप्पणीः यह चिट्ठा पहले कुछ गलतियों के साथ ही छाप दिया था, फ़िर इसे ओराँगो नाम के प्रोग्राम से हिंदी वर्तनी की जाँच कर के ठीक किया है. क्या आप में से किसी को ओराँगो का अनुभव है? क्या सोचते हैं इसके बारे में?

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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