शुक्रवार, मई 30, 2008

संगीत कक्ष

कुछ दिन पहले नमिता देवीदयाल की किताब "द म्यूज़िक रूम" यानि "संगीत कक्ष" पढ़ी जो मुझे बहुत अच्छी लगी (The Music Room, Namita Devidayal, Random House India, 2007). इस किताब को किसी श्रेणी में बाँधना आसान नहीं. यह नमिता जी की आत्मकथा भी है और उनकी संगीत शिक्षका धोँधुताई की जीवनकथा भी. बीच में धोँधुताई के गुरु, जयपुर घराने के सुप्रसिद्ध गायक अल्लादिया खान के परिवार की कहानी भी है और साथ ही इसमें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के जानने समझने की बातें भी हैं. इन सब परिभाषाओं से लग सकता है कि किताब रुखी, पढ़ाकू लोगों के पढ़ने वाले ग्रँथों के किस्म की किताब हो, पर सच में यह किताब किसी उपन्यास से अधिक रोचक है.

भारत में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के जानने वाले बहुत अधिक नहीं हैं. भीमसेन जोशी, कुमार गँधर्व, विलायत खान और ज़ाकिर हुसैन जैसे लोगों के नाम और काम को जानने वाले अवश्य ही हिंदी फ़िल्मों मे गाने वालों या इंडियन आइडल जैसे कार्यक्रम जीतने वालों से बहुत कम ही होंगे. शास्त्रीय संगीत बलिदान और जीवन भर की उपासना माँगता है और बदले में संगीत साधना का सुख देता है, और आज की भौतिकवादी दुनिया में जहाँ आप के पास कितना कुछ है कि बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण है वहाँ इस तरह के त्याग के जीवन की आशा करना कठिन हो गया है. यह भी कठिनाई है कि इस त्यागपूर्ण जीवन के बावजूद बहुत थोड़े से शास्त्रीय संगीत के कलाकार प्रसिद्धि पाते हैं और अधिकतर लोग गुमनाम ही रह जाते हैं.

नमिता जी की किताब की नायिका धोँधुताई भी कुछ ऐसी ही है, जो बम्बई के लालबत्ती वाले इलाके में एक कमरे में बूढ़ी माँ के साथ पेयिंग गेस्ट की तरह रहती है और जीवन यापन के लिए लोगों को शास्त्रीय संगीत सिखाती है. आठ साल की नमिता जब पहली बार अपनी संगीत शिक्षका को मिलती है तो वह नहीं समझती कि छोटे से कमरे में, गरीबी में रहने वाली बूढ़ी होती इस महिला के कँठ में सरस्वती का वास है और यह साधारण महिला अकेली वारिस है जयपुर घराने की गायकी के ज्ञान की. धोँधुताई को अपनी छोटी सी विद्यार्थी नमिता में उस प्रतिभा का एहसास होता है जिसके बल पर वह अपने ज्ञान को बाँट सकने और भविष्य के लिए छोड़ने का सपना देख सकती है.



कितनी ही पाराम्परिक कलाओं के ज्ञान को ले कर जीने वाले आज इसी दुविधा से गुज़रते हैं कि कैसे अपने ज्ञान की धरौहर को भविष्य के लिए छोड़ सकें? तुरंत नौकरी, पक्की कमाई, अच्छा जीवन बिताना जैसी अपेक्षाएँ आज सबको हैं और पारिम्परिक कलाओं को जानने वालों के बच्चे उन कलाओं को नहीं सीखना चाहते, न ही उन्हें उस तरह के नवजवान मिलते हैं जो कला को जीवन सम्पर्ण करके गुरु शिष्य की पुरानी परम्परा को चलाना चाहते हों. नमिता जी की किताब इसी कठिनाई को व्यक्त करती है जब प्रतिभा और गुरु के प्रति स्नेह और आदर होते हुए भी नमिता स्वयं अमरीका जाने का फैसला करती है और धीरे धीरे अपने सीखे शास्त्रीय संगीत के ज्ञान को भूलने लगती है.

कुछ दिन पहले रेल से जेनेवा (Geneva) जाना था. हमारे यहाँ से जेनेवा जाने में करीब सात घँटे लगते हैं. गाड़ी में बैठा तो साथ में दो युवक साथ की सीट पर थे जो आपस में लगातार बात कर रहे थे. नमिता जी कि किताब निकाल कर पढ़ना शुरु किया तो उन युवकों के ज़ोर ज़ोर से बात करने पर कुछ खीज आ रही थी, पढ़ने से ध्यान उचट जाता था. लेकिन थोड़ी देर में किताब में ऐसा खोया कि सब कुछ भूल गया. जेनेवा का रेल स्टेशन आने से पाँच मिनट पहले किताब पूरी पढ़ कर बंद की, रास्ता कैसे बीता कुछ याद नहीं था.

शास्त्रीय संगीत से मेरी पहचान कुछ अपने छोटे फ़ूफा से हुई थी और कुछ घर के पड़ोस में रहने वाली डाक्टर आँटी से. पहले लगता था कि शास्त्रीय संगीत में एकरसता की नीरसता है, लगता था कि बस बिना शब्दों के "आ आ" करते रहते हैं. पहली बार जब प्रभा अत्रे को "तन मन धन तोपे वारुँ" गाते सुना तो मंत्रमुग्ध हो गया और "आ आ" की सुंदरता समझ में आई. फ़िर धीरे धीरे भीमसेन जोशी, पंडित जसराज, कुमार गंधर्व जैसे गायकों के रिकार्ड सुने. तीनों गायकों को जानकीदेवी कालेज में गाते हुए भी सुना. फ़िर दिल्ली में रफी मार्ग पर मावलंकर हाल के बाग में रात रात भर होने वाले तानसेन फेस्टिवल में विलायत खान, बिरजु महाराज, गोपीकृष्ण, सितारा देवी, किशोरी आमोनकर जैसे शास्त्रीय नृत्यकारों और कलाकारों को देखा और सुना.

पर इस सब के बाद भी जानकारी विषेश नहीं थी. विभिन्न राग क्या होते हैं, घराना क्या होता है, तबले की विभिन्न तालों का अर्थ क्या होता है, तानपूरा किस लिए प्रयोग करते हैं, तबले की ताल और गायकी में क्या सम्बंध है, इस सब के बारे में मुझे कुछ मालूम नहीं था. संगीत की कोई शिक्षा नहीं पायी थी, बस ध्यान से शास्त्रीय संगीत सुनना अच्छा लगता था, उसे समझने की कभी कोशिश नहीं की.

कई बार सोचता हूँ कि हमारे भारतीय सोचने के तरीके में एक जटिलता है जबकि पश्चिमी सोचने का तरीका तर्क की बात करके उस जटिलता को कम कर देता है. तर्क से बात समझ में आसान में आ सकती है पर बिना तर्क की जटिल सोच, दूसरी तरह की समझ देती है, जो उतनी ही महत्वपूर्ण है. नमिता जी की किताब पढ़ कर कई बार इस बात पर सोचने लगता. धर्म की बात की जाये तो मुसलमान और हिंदू गायकों और संगीतकारों का शास्त्रीय संगीत, हिंदू मंदिरों और हिंदू भक्तिसंगीत से जुड़ा है जिसको समझने के लिए धर्म के बारे में पश्चिमी सोच के बटवारें न्याय नहीं कर पाते. कोल्हापुर के मंदिर के अंतर्कक्ष में जहाँ सभी हिंदू भी नहीं जा सकते थे वहाँ अल्लादिया खान साहब भगवान की स्तुति में भजन सुना सकते थे, इस बात को धर्म के तर्क से समझाना असम्भव है. मुझे यह भी लगता है कि इस जटिलता की धरौहर को बहुत से आम भारतीय समझते हैं पर धीरे धीरे कट्टरवादिता के दबाव में यह समझ लुप्त हो रही है और इसे समझना और सम्भालना बहुत आवश्यक है.

नमिता जी कि किताब में अच्छी कहानी के साथ साथ, इस संगीत के बारे में कुछ अन्य ज्ञान भी बना है. लगता है कि अगली बार शास्त्रीय संगीत सुनुँगा तो शायद उसका आनंद अधिक ले सकूँगा. मन में धोँधुताई और केसरबाई की आवाज़ सुनने की इच्छा भी बहुत है पर इंटरनेट पर वह खोजने से भी नहीं मिली. एक किताब से इतना सब कुछ पाना दुर्लभ बात है और इसके लिए नमिता देवीदयाल को धन्यवाद.

सोमवार, मई 19, 2008

अच्छे अभिनेता

कुछ समय पहले आऊटलुक पत्रिका पर मुकुल केसुवन का लेख छपा था जिसमें उन्होंने हिंदी फ़िल्म अभिनेता धर्मेंद्र के बारे में लिखा था कि उन्होंने बिमल राय, हृषीकेश मुखर्जी जैसे निर्देशकों के साथ बहुत सी फ़िल्मों में बहुत अच्छा अभिनय किया था पर उन्हें कभी अच्छा अभिनेता नहीं माना गया न ही उन्हें कोई विषेश पुरस्कार मिले. इस का कारण उनके विचार में था कि धर्मेंद्र देखने में बहुत अच्छे थे जिसकी वजह से उन्हें सितारा माना गया और उनके किये गये अच्छे अभिनय को अनदेखा कर दिया गया.

मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्मेंद्र के अभिनय को वह मान नहीं मिला जो उसे मिलना चाहिये था. अपनी प्रारम्भ की बहुत सी फिल्मों में उन्होंने गम्भीर, मृदुल, शर्मीला, आदर्शवादी नवयुवक का भाग बहुत खूबी से निभाया. सत्यकाम, बंदिनी, ममता, बहारें फ़िर भी आयेंगी, अनपढ़, नया ज़माना, अनुपमा, जैसी कितनी ही फ़िल्मों में उनकी जगह पर किसी दूसरे अभिनेता को सोचना कठिन है. पर गम्भीर फिल्मों के साथ साथ, शुरु से ही उन्हें व्यवसायिक सफलता भी मिली और फ़ूल और पत्थर, आये दिन बहार के, काजल, आँखें, नीला आकाश जैसी फिल्मों में उन्होंने बम्बईया हीरो के भाग भी बखूब निभाये.

उनकी अच्छी फ़िल्मों की जब बात होती है तो मुझे लगता है कि "बहारें फ़िर भी आयेंगी" को भुला दिया जाता है. यह फ़िल्म पहले गुरुदत्त के साथ बन रही थी और गुरुदत्त की अकस्मात मृत्यु के बाद इसे धर्मेद्र के साथ बनाया गया. इसमें धर्मेंद्र जी एक बार फ़िर गम्भीर और आदर्शवादी पत्रकार के रूप में थे जिनसे अखबार की मालिक और सम्पादिका माला सिंहा भी प्यार करती है और उसकी छोटी बहन, तनूजा भी. 1966 में बनी इस फ़िल्म को बचपन में देखा था पर उस समय मुझे बहुत अच्छी लगी थी. पर इसके बारे में कभी विषेश कुछ नहीं सुना या पढ़ा.

शायद कुछ धर्मेंद्र जैसी ही नियती उनके समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री माला सिंहा की थी. प्यासा, अनपढ़, बहारें फ़िर भी आयेंगी आदि बहुत सी फ़िल्मों में अच्छा अभिनय भी किया पर उनका परिचय भी व्यवसायिक सफल फिल्मों के रूप में अधिक देखा जाता है और उन्हें अच्छी अभिनेत्री के रुप में नहीं याद किया जाता. उस समय की अच्छी अभिनेत्रियों की बात होती है तो नूतन, वहीदा रहमान, मीना कुमारी आदि तक आ कर रुक जाती है.

पर आऊटलुक के आलेख में मुकुल यह भी लिखते हैं कि धर्मेद्र के मुकाबले कुछ अन्य अभिनेता जैसे संजीव कुमार को अच्छा अभिनेता माना गया जो कि देखने में अच्छे नहीं थे, कोई विषेश अच्छे अभिनेता नहीं थे, अतिनाटकीय थे, इत्यादि. मैं यह नहीं मानता कि अगर धर्मेंद्र को अपने अभिनय के लिए अनुरूप नाम नहीं मिला तो इसका कारण अन्य अभिनेता थे. दूसरों को छोटा दिखा कर किसी को बड़ा दिखाना मुझे गलत बात लगती है. प्रार्मभ की फ़िल्मों में संजीव कुमार देखने में बहुत अच्छे लगते थे, बहुत सी फ़िल्मों में उन्होंने अपने स्वाभाविक अनाटकीय अभिनय से अपनी कला दिखाई थी. 1968 की फ़िल्म "शिकार" में धर्मेंद्र हीरो थे और उनके साथ इस फ़िल्म में संजीव कुमार भी थे, दोनों का ही अभिनय अच्छा था हालाँकि यह एक आम व्यवसायिक फ़िल्म थी.

धर्मेंद्र का हृषीकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फ़िल्म "सत्यकाम" का एक दृष्य मुझे बहुत अच्छा लगा था और जब भी अच्छे अभिनेताओं के बारे में सोचता हूँ, इस दृष्य को उनमें गिनता हूँ. यह दृष्य फ़िल्म के अंत के करीब था जब धर्मेंद्र अस्पताल में दाखील हैं, उन्हें कैसर है पर वह यह बात अपनी पत्नि शर्मीला टैगोर से छुपाये हुए हैं, फ़िर उनके रुमाल पर खाँसी गयी खून की बूँदो को उनकी पत्नी देख लेती है तो उनकी आँखों में मजबूरी, बात छुपाने की लज्जा और अपनी मृत्यु का दुख सबकुछ बहुत सुंदर बना था. कुछ यही दृष्य, गुलज़ार ने कई साल बाद परिचय में रखा था जब पिता संजीव कुमार के रुमाल के खून को बेटी जया भादुड़ी देख लेती है, उस दृष्य में संजीव कुमार का अभिनय भी बहुत बढ़िया था पर मुझे धर्मेंद्र वाला दृष्य ही अधिक प्रिय है. (सत्यकाम की तस्वीर आऊटलुक से)



अच्छा अभिनेता कौन कैसा होता है यह कहना कठिन है, पर अगर कोई मुझसे पूछे की आज के सबसे अच्छे अभिनेता कौन हैं तो में तीन नाम लूँगा, पंकज कपूर, के के मेनन और इरफान खान. तीनो अभिनेताओं में क्षमता है कि जब पर्दे पर हों तो आप उन पर से नज़र न हटा पायें.

पंकज कपूर के निभाये मकबूल फ़िल्म के रोल के बारे में सोच कर आज भी झुरझरी आ जाती है. अभी कुछ दिन पहले उनकी एक अन्य फ़िल्म देखी थी "हल्ला बोल". वैसे तो फ़िल्म बहुत अच्छी नहीं लगी पर पंकज कपूर बहुत अच्छे लगे. उनका गुरुद्वारे में बैठे रहने वाला दृष्य देखिये, गुरु ग्रंथ साहब का पाठ हो रहा है, वह कुछ नहीं कहते पर उनकी आँखें और उनका साँस लेना बहुत कुछ कह देता है.



के के मेनन में भी यही क्षमता है. कुछ दिन पहले शोर्य फ़िल्म के बारे में अभिनेता राहुल बोस का एक साक्षात्कार पढ़ रहा था जिसमें वह कह रहे थे कि के के वाला भाग अधिक प्रशँसा पाता है क्योंकि वह नाटकीय है जबकि उनका स्वाभाविक रूप से अभिनय करना लोग नहीं समझ पाते. राहुल बोस बुरे नहीं पर मुझे लगता है कि के के का अभिनय अधिक सशक्त था इसलिए नहीं कि वह भाग नाटकीय था. हनीमून ट्रेवलस जैसी हल्की फुल्की फ़िल्म में भी के. के. लाजवाब थे.



इरफ़ान खान के बारे में तो सभी मानते ही हैं. अँग्रेजी में बनी मीरा नायर की "नेमसेक" (The Namesake) में वह मुझे बहुत अच्छे लगे थे.

और अगर अभिनेत्रियों की बात की जाये और आप से तीन नाम पुछे जायें तो आप किसका नाम लेंगे? मेरे तीन नाम होंगे सीमा विस्वास, सुरेखा सीकरी और शबाना आज़मी. तीनों अभिनेत्रियाँ जब परदे पर आती हें तो मैं उनके सिवा किसी को ठीक से नहीं देख पाता.

सीमा बिस्वास और सुरेखा सीकरी के बारे में मुझे शिकायत है कि उनके भाग फ़िल्मों में बहुत छोटे होते हैं और उन्हें अपनी प्रतिभा के लायक फ़िल्में नहीं मिलती. सीमा बिस्वास की अंतिम फ़िल्म जिसमें उन्हें ढंग के रोल में देखा वह दीपा मेहता की अंग्रेजी फ़िल्म "वाटर" (Water) थी.

सुरेखा सिकरी को तो और भी कम काम मिला है पर "जो बोले सो निहाल" जैसी बेकार फ़िल्म मैंने केवल उनके लिए ही देखी थी. शबाना आज़मी इन सब अभिनेत्रियों में सबसे अच्छी किस्मतवाली हें जिन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का कई बार बढ़िया मौका मिला. उनकी मेरी सबसे प्रिय फ़िल्में हैं स्वामी, अपने पराये और मोरनिंग रागा (Morning Raga).


मंगलवार, मई 06, 2008

यादें

2002 में इंटरनेट पर पहली बार अपना एक पृष्ठ बनाया था, उसका नाम था "सृजन". उसे बनाने के लिए शुशा फोंट से कम्पयूटर पर हिंदी लिखना सीखा था. इस पृष्ठ के बनाने के पीछे माँ की चिंता थी. "तुम्हारे पापा ने जो लिखा है उसे सहेजना है, उसे छपवाना है" यह माँ के जीवन का ध्येय बन गया था. मेरे पिता ओमप्रकाश दीपक शायद पत्रकार, लेखक आदि से पहले समाजवादी चिंतक थे. 1975 में जब अचानक उनकी मृत्यु हुई तो वह 46 वर्ष के थे. माँ तब 44 साल की थी. मैं उस समय अपने पिता के लेखन के बारे में कुछ नहीं जानता था, कभी उनका लिखा कुछ नहीं पढ़ा था. डा. लोहिया, किशन पटनायक, रमा मित्रा, अशोक सेकसरिया जैसे समाजवादी लोग या रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लेखक लोगों को उनके मित्रों या साथियों के रूप में जानता था, पर वह क्या सोचते हैं, क्या लिखते हैं, इसके बारे में कुछ नहीं जानता था, न ही उनसे कुछ बात होती थी. मेरी दुनिया, मेरे मित्र, मेरी दिलचस्पियाँ अलग थीं. 1972 से मेडिकल कालेज जाने के बाद से घर में कम ही रहता था, जब होता भी तो पापा क्या सोचते हैं, क्या लिखते हैं, इसके बारे में मन में कोई जिज्ञासा नहीं होती थी.

जब माँ दिल्ली नगरपालिका के प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापिका के पद से रिटायर हुईं तो उन्होंने पापा के सब कागज पत्री जो सम्भाल कर रखी थीं उन्हें पढ़ने, छाँटने का काम करना शुरु कर दिया था. जब भी भारत जाता तो माँ हर बार वही बात करती. यह कहानियाँ निकाली हैं, यह लेख निकाले हैं, यह करना है, वह करना है. मैं उनकी बात सुनता पर उसके बारे में अधिक नहीं सोचता. बच्चे अपने माँ पिता को केवल माँ पिता के ढांचे में ही देख पाते है, उससे पार जाना शायद उनके लिए कठिन होता है. मेरे लिए तो कम से कम यही बात थी.

11 सितंबर 2001 जिस दिन न्यू योर्क और वाशिंगटन में आतंकवादियों के हमले हो रहे थे, उस सुबह माँ वाशिंगटन पहुँचने वाली थी, पर उनका जहाज़ केनेडा में कहीं भेजा गया, उसके बाद कई दिन तक हम लोग उनकी सूचना पाने के लिए भटकते रहे थे. शायद उसी घटना का असर था या कोई और बात थी, तब से माँ की यादाश्त कम होने लगी. उनका कागज़ो को ले कर बैठना और कुछ न समझ पाने से कागज़ों को आगे पीछे देखना मुझे दुखद लगा. किसी ने कहा कि आप के पास तो पैसे की कमी नहीं, पैसे दे कर इन किताबों, लेखों को छपवा दीजिये क्योंकि इनका बाज़ार नहीं. तभी सोचा कि ऐसे अपने मन की पूरी करने को कुछ छपवाने से क्या लाभ. पापा की किताबों से कुछ कमाई हो इसकी तो हमें आवश्यकता नहीं थी. तब मन में विचार आया कि क्यों न सब सामग्री को इंटरनेट पर रखा जाये जिससे अगर कोई पढ़ना चाहे तो उसे दिक्कत नहीं होगी.

तब पहली बार पापा ने क्या लिखा था यह पढ़ना शुरु किया. कई बार पढ़ कर आश्चर्य होता है कि उस समय मैं भी घर में रहता था, क्यों यह सब बातें मुझे मालूम ही नहीं चलीं? बहुत बार दुख होता है कि पापा को व्यक्ति के रूप में नहीं जाना, बस पिता के रूप में ही देखा. उनके लिखे कुछ लेखों कहानियों को इंटरनेट के लिए युनीकोड में लिखा है. इस बीच "सृजन" बदल कर "कल्पना" हो गया और उसमें पापा के अतिरिक्त बहुत कुछ भर गया.

पिछले साल अफलातून जी ने पापा के बारे सूर्यनारायण जी का 1979 में लिखा एक लेख भेजा तो सोचा था कि उसे कल्पना के लिए तैयार करूँगा, फ़िर कागज़ो के नीचे वह कागज कहीं दब कर रह गये. आज सुबह सफाई करते समय जब उन्हें देखा तो सोचा कि बिना देरी किये तुरंत उसे लिख कर कल्पना पर डालना है. सूर्यनारायण जी कौन हैं, कहाँ रहते हैं, अभी जीवित है, यह सब कुछ नहीं मालूम, उनके और मेरे बीच यहीं सम्बंध है पापा के माध्यम से. इतने छोटे से सम्बंध होने पर भी उनके शब्दों में मुझे मन तक छूने की क्षमता है. तभी यह सब बातें मन में आ रही थीं. उन्होंने लिखा थाः

"एक बार मैंने अपनी रचना गोष्ठी में उन्हें मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया. विषय था "हिंदी साहित्य की वर्तमान प्रवित्ति". उन्होंने अपने अनूठे ढंग से हिदी साहित्य की प्रवित्तियों का उस दिन जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, उसे सुन कर मुझे दीपकजी के बारे में पहली बार "संदेह" पैदा हुआ कि यह व्यक्ति मूल रूप में क्या है, राजनीतिक व्यक्ति है या लेखक. मेरा "संदेह" गलत था क्योंकि दीपकजी की राजनीति के बारे में सोच और साहित्य के बारे में सोच की प्रेरणा एक ही थी. संवेदना और करुणा ही उन्हें राजनीति की ओर प्रेरित करती थीं और ये ही साहित्य की ओर भी. गोष्ठी में देवीदत्त पोद्दार ने उनके उपन्यास "कुछ ज़िन्दगियाँ बेमतलब" की भी चरचा की. दीपकजी ने सामान्य आदमी को आधार बना कर हिंदी में बिल्कुल एक नये ढंग की यात्रा वृतांत शैली भी विकसित की. चाहे बंगलादेश के स्वत्रतासंग्राम का वर्णन हो (पैदल और किन किन कठिन परिस्थितियों में उन्होंने बंगलादेश की यात्रा की और मुक्तिवाहिनी के लोगों से सम्पर्क किया, यह तो शायद पूरी तरह दिनेशदास गुप्त ही जानते हैं), चाहे महाराष्ट्र के किसी आकाल क्षेत्र का, चाहे श्रीवस्ती की प्रचीन बस्ती के नजदीक से गुजरने का प्रसंग हो, उनकी दृष्टि हमेशा समान्य आदमी की जिन्दगी को टटलोती रहती थी. इस जिन्दगी को समझने और उसे बदलने की कामना उनके राजनीतिक लेखन, यात्रा वृतांतों और उपन्यास में हर जगह है.

दीपक जी ने दिनमान के "आधुनिक विचार" स्तम्भ और साप्ताहिक हिंदुस्तान में पश्चिमी विचारकों, महत्वपूर्ण पुस्तकों और भारतीय समाज की "अनपची" समस्याओं पर जो लेख लिखे, उनका शायद सामाजिक महत्व से ज्यादा महत्व नहीं माना जाये लेकिन इन लेखों के पीछे उनकी कोशिश हिंदी के पाठक को गहराई से सोचने समझने के लिए प्रेरित करने की थी. उनके यह लेख भी पाठक को झिंझोड़ते थे और वह शायद पाठक को झिंझोड़ना चाहते भी थे."
पूरा लेख कल्पना पर पढ़ सकते हैं. मैं इस समय केवल सूर्यनारायण जी को धन्यवाद कहना चाहूँगा जिन्होंने यह लेख लिखा था, और अफलातून जी को भी धन्यवाद कहना चाहूँगा जिन्होंने यह लेख मुझ तक पहुँचाया. धन्यवाद के लिए कुछ फ़ूल जिनका नाम मुझे मालूम नहीं पर जो मुझे बहुत अच्छे लगते हैं.









रविवार, मई 04, 2008

नरगिसी आँखें, गुलाबी गाल

इस साल इतनी फ़ूलों की तस्वीरें खींचीं जितनी पहले सारे जीवन में नहीं खींचीं थीं. इस साल एक फ़ूल पर ज़ूम करके फोकस करना और पीछे बैकग्राउँड को धुँधला करके फोटो खींचना पहली बार किया और यह तस्वीरें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं इसलिए जब भी बाहर कोई फ़ूल देखता हूँ, तुरंत कैमरा बाहर निकल आता है.

फ़ूलों की अधिक तस्वीरें खींचने की वजह से ही शायद बार बार मन में फ़ूलों से जुड़ी बातें आती हैं, जैसे कुछ दिन पहले मैंने "फ़ुल गेंदवा न मारो" शीर्षक का संदेश लिखा था.

आज सुबह भी अपने कुत्ते के साथ सैर को निकला तो सुंदर टाईगर लिली के फ़ूलों को देख कर रुक गया. मेरे कुत्ते ब्राँदो को मेरा बार बार बिना वजह रुकना और तस्वीर खींचना अच्छा नहीं लगता, अधिकतर जब कैमरा क्लिक करने लगता हूँ तो झटका लगा कर हिला देता है, या फ़िर कभी फ़ूल के पीछे से आ कर तस्वीर बिगाड़ देता है. बहुत गुस्सा आये तो अँगद जी बन कर पाँव जमा देता है और आगे चलने का नाम नहीं लेता.



खैर टाईगर लिली की तस्वीर खींच रहा था तो मन में फ़ूलो से दी जाने वाली उपमाओं की बात आयी. गुलाबी गालों की उपमा शायद सबसे अधिक प्रचलित है. हिंदी, अँग्रेजी, इतालवी, फ्राँसिसी, सब भाषों में इस उपमा को सुना है. अनारकली की उपमा के बारे में मुगलेआज़म जैसी फ़िल्मों से मालूम है हालाँकि अनार की कलियाँ मुझे विषेश सुंदर नहीं दिखती.

कीचड़ में उगने वाले कमल की उपमा तो समझ में आती है पर कमल जैसे चरणों की उपमा नहीं समझ पाता, क्या अर्थ हुआ इसका? अँग्रेजी में वाटर लिली का नज़ाकत की उपमा देने के लिए प्रयोग होता है.

नरगिसी आँखों की उपमा भी सुनी है पर नरगिस के फ़ूल तो सफ़ेद रंग के होते हैं, सफ़ेद आँखों की भला यह कैसी उपमा हुई यह समझ नहीं आया? अँग्रेज़ी में वायलेट के जामुनी फ़ूलों जैसी आँखों की उपमा मुझे एलिज़ाबेथ टेलर को देख कर समझ में आयी थी.

एक फ़िल्म याद है जिसमें अभिनेता मारूती टुनटुन को "मेरा गोभी का फ़ूल" कह कर बुलाते थे. सुना है जापान में चैरी के फ़ूलों की उपमा दी जाती है श्वेत गोरे चेहरे को.

और कौन सी फ़ूलों की उपमा दी जाती है, भारत के विभिन्न भागों में?

और फ़ूलों की बात हुई तो प्रस्तुत हैं इस वर्ष की खींची मेरी तस्वीरों में कुछ गुलाब की कलियों की तस्वीरें.


















हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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