शुक्रवार, जून 18, 2010

फ़लों से झुका पेड़

बचपन में यह कहावत सुनी थी कि जिस पेड़ पर जितना फ़ल अधिक लगता है, वह उतना ही झुक जाता है. इस कहावत से यह शिक्षा दी जाती थी कि जीवन में जितना ऊपर उठो, उतने ही विनम्र बनो. लेकिन बहुत से बड़े लोगों को देख कर लग कि असल में तो ऊल्टा ही होता है, जो जितना ऊँचा चढ़ता है, उसके उतने ही नखरे, मानो भगवान ने उन्हें अलग बनाया हो और उनका होना भर ही सारी मानवता पर उपकार है.

लेकिन कुछ दिन पहले सचमुच ऐसे व्यक्ति से मिलने का मौका मिला जिसने इस कहावत को आत्मसार किया था, हालाँकि शायद उन्हें इस कहावत के बारे में कुछ मालूम न हो.

अमरीका से सम्बंधी आये थे, उन्हें शहर घुमा रहा था. हम लोग शहर के पुराने भाग में थे, अचानक मुझे अपने सामने से आते हुए इटली के पूर्व प्रधान मंत्री दिखे, श्री रोमानो प्रोदी. वह दो बार इटली के प्रधान मंत्री बने, 1996 से 1998 और फ़िर, 2006 से 2008 तक.

इटली के दूसरी बार प्रधान मंत्री होने से पहले, बीच में 1999 से 2004 तक वह यूरोप संसद के राष्ट्रपति भी रह चुके हैं. बहुत वर्ष पहले वह प्रधान मंत्री बनने से पहले, हमारे शहर में ही अर्थशास्त्र पढ़ाते थे. मैंने अखबार में पढ़ा तो था कि वह बिना सुरक्षा दल आदि के सामान्य रूप से घूमते हैं, लेकिन उन्हें इस तरह सामने देख कर मैं एक क्षण को हकबका गया. बिना कुछ सोचे तुरंत उनके सामने हाथ मिलाने के लिए बढ़ा दिया. उनके आस पास के लोग कुछ कहते उससे पहले ही, वह तुरंत मेरे पास आये, बड़ी आत्मीयता से मिले, बात की मानो पुराने मित्र हों. साथ तस्वीर भी खिंचवायी.

Sunil and Mr Romano Prodi, Bologna,. Italy


मेरे अमरीकी सम्बंधी भी दंग रह गये कि इतनी सरलता से वह सड़क के बीच में खड़े हमसे बात करते रहे. बोले ऐसा तो यहीं हो सकता है, भारत या अमरीका में नहीं. पर मेरे मन में भारतीय प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह की भी कुछ इसी तरह की तस्वीर है, लगता है कि सामान्य जीवन वह भी इसी तरह के होंगे. प्रोदी जी की तरह वह भी अर्थशास्त्री रहे हैं.

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अगर फ़िर से शुरु होता?

कल सुबह कार पार्क कर रहा था तो अचानक मन में विचार आया, अगर यह जीवन फ़िर से शुरु करने का मौका मिले, एक बार फ़िर से बच्चा बन जाऊँ, तो क्या कौन सी बातें अपने इस जीवन की बदलना चाहूँगा? हरी भरी पहाड़ी के नीचे, सुंदर शांत जगह पर है यह कार पार्क, शायद इसीलिए वहाँ पर सुबह सुबह इस तरह के गम्भीर और महत्वपूर्ण विचार मन में आते हैं?

पिछले कुछ दिनों से मैं अमरीकी प्रोफेसर रेंडी पाउश (Randy Pausch) की किताब "द लास्ट लेक्चर" (The last lecture) पढ़ रहा था. शायद यह दोबारा जीवन शुरु करने वाली बात मन में अचानक उनकी किताब पढ़ने की वजह से ही आयी थी. उनके अमरीकी विश्वविद्यालय में इस तरह के भाषण देने का प्रचलन था कि प्रोफेसर से कहिये कि अगर आप को एक अंतिम बार विद्यार्थियों से बोलने का मौका मिले तो आप कौन सी बात कहना चाहेंगे? इन भाषणों को "अंतिम भाषण" कहा जाता है.

2007 में जब रेंडी से इस तरह का भाषण देने के लिए कहा गया था तो उनकी स्थिति कुछ भिन्न थी. कुछ ही महीने पहले उन्हें अपने शरीर में पनपते लाइलाज कैंसर होने की बात का पता चला था. डाक्टरों का कहना था कि उनके जीवन के कुछ महीने ही शेष बचे थे. पत्नी और तीन छोटे बच्चों का क्या होगा, इसकी चिंता भी थी उनके मन में.

फ़िर भी रेंडी ने इस भाषण को देना स्वीकार किया. उनका यह भाषण, इंटरनेट पर एक दूसरे से सुन कर, हज़ारों लोगों ने देखा, सुना और सराहा. इतना प्रसिद्ध हुआ उनका यह भाषण कि उसे किताब के रूप में भी छापा गया, जिसे मैंने भी पिछली भारत यात्रा में बँगलौर की एक दुकान में खरीदा था. रेंडी तो चले गये, लेकिन उनके इस भाषण की किताब ने उनकी पत्नी और तीन बच्चों को कुछ आमदनी भी दी. अगर आप चाहें तो रेंडी के इस भाषण को आप इंटरनेट पर भी सुन सकते हैं.

जो प्रश्न सुबह मेरे मन में उठा था, उस पर दिन में कई बार सोचा. बचपन से मुझे साहित्य, इतिहास, जैसे आर्ट विषयों में बहुत रुची थी, लेकिन जब विद्यालय में विषय चुनने का समय आया था तो मैंने विज्ञान के विषय चुने थे, जिसका प्रमुख कारण था कि उस समय मुझे लगता था कि इस रास्ते से अच्छी नौकरी मिलने और ठीक पैसा कमाने का मौका मिलेगा, साथ ही डाक्टरी से लोगों के काम भी आ सकूँगा. उस समय आज जैसी बात नहीं थी, तब इंजीनियर, डाक्टर या आई.ए.एस जैसे दो तीन काम छोड़ कर लगता था कि और कोई ढंग का काम नहीं होगा. जीवन में कई बार मन में आता रहा है कि अगर डाक्टरी न कर के कुछ साहित्य संम्बधी किया होता तो शायद मन को अधिक संतोष मिलता. तो क्या अगर जीवन दोबारा से शुरु किया जा सके तो इस बार साहित्य को चुनूँगा, इस बात पर देर तक सोचता रहा.

बहुत सोच कर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि नहीं मैं इस तरह की कोई बात अपने जीवन में नहीं बदलना चाहूँगा, अगर जीवन दोबारा शुरु करने का मौका मिले, तो सब कुछ फ़िर से वैसा ही करूँगा जैसा इस बार किया था.

हाँ कुछ बातें हैं जिन्हें अगर मौका मिल पाता तो अवश्य बदलता. तीस साल पहले मेरे एक प्रिय मित्र ने आत्महत्या की थी. उसने मुझे बहुत संकेत दिये थे, लेकिन मैं उन्हें समझ नहीं पाया था, उसकी बात को गम्भीरता से नहीं लिया था. दोबारा मौका मिले तो उसे अकेला नहीं छोड़ूँगा, उसे रोक लूँगा.

कितनी बार छोटी छोटी बातों पर गुस्सा किया है, अपनों के मन को दुखाया है. दोबारा मौका मिले तो यह मागूँगा कि भगवान मुझे इतनी समझ दे कि उनका मन न दुखाऊँ. बस इसी तरह की बातें मन में आयीं, लेकिन अपने जीवन के किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय को बदलने का बात मुझे ठीक नहीं लगी.

कुछ कुछ रेंडी जैसी बात एडम सेवेज (Adam Savage) ने भी की है, अपने आलेख "फूड फार द ईगल" (Food for the eagle) में. धर्म में या ईश्वर में वह विश्वास नहीं करते. कहते हैं कि अगर विश्वास ही करना हो तो कार्लस कास्टानेडा जैसे लेखकों के बनाये मिथकों में किया जा सकता है. वह बात करते हैं कास्टानेडा (Carlos Castaneda) की किताब "द ईगल्स गिफ्ट" (The eagle's gift) की, जिसमें आध्यात्मिक गुरु दान जुआन (Don Juan) अंत में अपने शिष्य को बताते हैं कि जीवन का और कुछ ध्येय नहीं, जितने साल का भी जीवन मिलेगा, उसके बाद गरुड़ आप की संज्ञा को ले कर खा जायेगा, आत्मसात कर लेगा. इस लिए जीवन में अपनी संज्ञा को जितना ज्ञान और अनुभव दे कर उसे बढ़ा सको उतना ही अच्छा ताकि अंत में तब आप की संज्ञा गरुण से मिले तो उसे भी आनंद मिले.

शायद हम सब को जीवन क्या है और क्यों है इसका कोई उत्तर चाहिये होता है, विषेशकर जब अपने किसी प्रियजनों को खो बैठते हैं. बहुत सालों से मेरी प्रिय पुस्तक है कठोपानिषद, जिसमें कहानी है नचिकेता की, जो पिता की आज्ञा को मान कर यम के पास चले जाते हैं और यम से जीवन और मृत्यु के बारे में समझाने के लिए कहते हैं. मेरा विश्वास इसी पुस्तक से बना है, कठोपानिषद से. मुझे जैसा समझ आया वह कास्तानेदा के गुरु वाली बात ही है. यानि, मुझे भी यही विश्वास है कि जो संज्ञा संसार के कण कण में बसी है, वही भगवान है, और जीवन का ध्येय जितने अनुभव, जितना ज्ञान पा सकें, उसे प्राप्त करना ही है, जीवन समाप्त होगा तो इसी सर्वव्याप्त संज्ञा में हम घुलमिल जायेंगे.

कभी कभी इस तरह की किताब या आलेख पढ़ते रहना अच्छा लगता है ताकि जीवन में क्या आवश्यक है, क्या महत्वपूर्ण है उसका ध्यान बना रहे, छोटी मोटी बातों की चिंता में जीवन को व्यर्थ न करें. आप क्या सोचते हैं कि जीवन का ध्येय क्या है? आप को अपना जीवन फ़िर से जीने को मिले तो क्या बदलना चाहेंगे? और कोई आप से कहे कि आप अपना अंतिम भाषण दीजिये तो आप क्या कहना चाहेंगे?

गुरुवार, जून 17, 2010

बॉली या पॉउली ?

बम्बई के फ़िल्म जगत को बॉलीवुड का नाम कब मिला यह तो कोई ठीक से नहीं कह सकता, विकीपीडिया भी नहीं. मुझे लगता है कि 1970 के दशक में बम्बई से निकलने वाली स्टारडस्ट, सिने ब्लिट्ज़ जैसी फ़िल्मी पत्रिकाओं में तब भी बॉलीवुड शब्द का प्रयोग होता था.

इधर पिछले कुछ सालों में कई बार पढ़ा कि बम्बई के कुछ प्रसिद्ध सितारे अभिनेता, इस नाम से खुश नहीं, वे अपनी पहचान को हॉलीवुड के नकलची छोटा भाई के रुप में नहीं करवाना चाहते, अपने आत्मसम्मान का सोचते हैं. लेकिन यहाँ यूरोप में तो धीरे धीरे बॉलीवुड शब्द की पहचान ही हर तरफ़ बढ़ती जा रही है, और इसका प्रयोग केवल बम्बई में बनने वाली हिंदी फ़िल्मों के लिए ही नहीं बल्कि भारत में बनी सभी फ़िल्मों के लिए किया जाने लगा है, चाहे वे तमिल में हों या बंगला में.

कुछ दिन पहले, इटली के एक लेखक जो कि आजकल बम्बई की पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिख रहे हैं, उनसे बात हो रही थी, तो वे कहने लगे कि बॉलीवुड शब्द को केवल बम्बई में बनने वाली मसाला फ़िल्मों के लिए प्रयोग करना चाहिये, कला फ़िल्मों, समानांतर सिनेमा, कलकत्ता या केरल में बनने वाली फ़िल्में, इन सब को बॉलीवुड कहना गलत है.

मुझे भारत के अलग अलग हिस्सों में बनने वाली फ़िल्मों तथा कला फ़िल्मों और फार्मूला फ़िल्मों का अंतर समझ में आता है, लेकिन यह भी लगता है कि यूरोप में भारतीय फ़िल्मों के बढ़ते प्रशंसकों को इन अंतरों को समझने में कोई दिलचस्पी नहीं है. इटली में भारतीय फ़िल्मों की जानकारी पिछले दो वर्षों में अचानक तेज़ी से बढ़ी है जबसे यहाँ की एक प्रमुख टीवी चेनल ने बहुत सारी बम्बई की मसाला फ़िल्में, "हम तुम" और "नमस्ते इंडिया" से ले कर "जब वी मेट" को दिखाया है. इससे पहले, भारतीय फ़िल्मों को कुछ थोड़े बहुत लोग ही जानते थे. हालाँकि टीवी पर जब यह फ़िल्में दिखायी गयीं तब इनमें से अधिकतर गाने व नृत्य काट दिये गये थे, लेकिन फ़िर भी लोगों में गानों और नत्यों के प्रति उत्सुकता जागी और लोग यूट्यूब जैसे वेब पन्नों पर भारतीय फ़िल्मों को खोजने लगे हैं.

आज इटली के बहुत से शहरों में बौलीवुड क्ल्ब बने हैं, इन फ़िल्मों के दीवाने, शाहरुख खान, आमीर खान और अक्षय कुमार जैसे अभिनेताओं की प्रशंसा में पत्र लिखते हैं, उनकी तस्वीरें सहेजते हैं. फेसबुक पर पृष्ठ बनाते हैं, बॉलीवुड नृत्यों के स्कूल खोलते हैं. उन्हें फ़िल्म की मूल भाषा क्या है, हिंदी या बंगला या तमिल, इसमें दिलचस्पी नहीं, सबटाईटल हैं या नहीं, बस यह जानना होता है. फेसबुक पर बने इतालवी बॉलीवुड पृष्ठ के एक हज़ार से अधिक सदस्य हैं. कुछ दिन पहले एक इतालवी युवती का ईमेल मिला कि क्यों न सब लोग मिल कर ए. आर रहमान को इटली में आ कर संगीत कार्यक्रम करने को कहें?

बॉलीवुड से मिलती जुलती बात का एक समाचार ब्राज़ील से मिला.

कुछ दिनों के लिए मुझे ब्राज़ील जाना है, उसकी तैयारी के लिए खोज कर रहा था तो ब्राज़ील के पॉउलीवुड के बारे में एक लेख दिखा, जिसमें लिखा है कि ब्राज़ील के सनपाउलो राज्य में एक छोटे से शहर ने, जिसका नाम पाउलीनिया है, फ़िल्म शहर बनने का निश्चय किया है. इस शहर में ब्राज़ील की सबसे बड़ी पेट्रोल रिफाईनरी फैक्ट्री है जिस पर टेक्स लगाने की वजह से शहर की नगरपालिका की बहुत आय होती है, और नगरपालिका ने निर्णय लया कि वे इस आय से वे लोग फ़िल्म बनाने वालों को सहारा देंगे, उन्हें सब सुविधाएँ देंगे, पैसे देंगे, इत्यादि. इस नीति की वजह से कुछ ही वर्षों में पाउलीनिया का छोटा सा, अनजाना शहर, अचानक प्रसिद्ध होने लगा है और पिछले वर्ष, ब्राज़ील में बनने वाली एक तिहायी फ़िल्मों की शूटिंग यहीं हुई है. वह चाहते हैं कि शहर का नाम अब लोग पाउलीनिया के जगह, बॉलीवुड की प्रसिद्धी से प्रेरणा पा कर, पॉउलीवुड कहा जाये.

आज के भूमँडलिकरण के जगत का नियम है कि आत्मसम्मान और अपने नाम या पहचान के अलग होने की चिंता न करके, कैसे ब्रैंडनेम बनाया जाये, जिसे दुनिया में प्रसिद्धी मिले, धँधा बढ़े, पैसा आये, कमाई हो, इसको सोचना चाहिये. जब गाँधी जी के नाम को ब्रैँड बना कर बेचा जा सकता है तो बॉलीवुड की ब्रैंड को बेचने में दुविधा क्यों? तो बॉलीवुड के बने बनाये नाम का फ़ायदा पाना ही बेहतर है या फ़िर अपने आत्म सम्मान के लिए सबसे यह कहना कि भारतीय सिनेमा को बॉलीवुड कह कर उसकी तौहीन न करें?

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हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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