सोमवार, मई 27, 2013

मिथकों में जीवन

बात कहीं से शुरु होती है और फ़िर किसी अन्य दिशा से कोई तार उससे आ मिलते हैं, और बातों में बातें जुड़ जाती हैं.

Mithak - Myths
कुछ यूँ ही हुआ जब मैंने अपने फोटो ब्लाग "छायाचित्रकार" पर तीन महाद्वीपों से विभिन्न तरह की गिलहरियों की तस्वीरें लगाने की सोची. दिल्ली में कुतुब मीनार के पास खींची गिलहरी की तस्वीर देख रहा था तो उसकी पीठ पर कथई रंग की धारियों से याद आया कि उसके बारे में बचपन में कहानी सुनी थी. उस कथा के अनुसार, जब राम अपनी सैना को ले कर लँका जाने के लिए सागर पर पुल बना रहे थे तो गिलहरी ने पत्थर लाने में बहुत मेहनत की और गिलहरी को धन्यवाद देने के लिए उन्होंने जब उसकी पीठ को सराहा तो उनकी उँगलियों के निशान उसकी पीठ पर रह गये.

फ़िर सोचा कि मानव ने क्यों इस तरह के मिथक रचे? मिथकों का जीवन में क्या लाभ है?

केवल भारत में नहीं, हर देश, हर संस्कति ने पूर्वेतिहासिक काल में अपने मिथक रचे, तो मानव समाज में अवश्य उनका कुछ महत्व और उपयोग होता था, जिसकी वजह से सभी सभ्यताओं में मिथक रचे गये. अक्सर सभ्यताओं से जुड़े मिथक, उन सभ्यताओं के प्रचलित धर्मों से जुड़ जाते हैं, जिसकी वजह से अंग्रेज़ी में धार्मिक कथाओं को माइथोलोजी (mythology) कहते हैं, यानि "मिथकों की कहानियाँ".

यह सोच रहा था तो जानी मानी भारतीय विचारक, पारम्परिक जनजातियों के ज्ञान की रक्षा की पक्षधर और भूमण्डलीकरण की विरोधी सुश्री वन्दना शिव की एक बात याद आयी. वन्दना मेरी मित्र डा. मीरा शिव की बहन हैं. कुछ वर्ष पहले वह इटली के फ्लोरैंस शहर में एक समारोह में आमन्त्रित थीं. मीरा ने उनके हाथ मेरे लिए कुछ सामान भेजा था, जिसके लिए मैं वन्दना से मिलने फ्लोरैंस गया था और उनका भाषण सुनने का मौका मिला. अपने भाषण में उन्होंने बात की थी, नयी तकनीकों से बीजों के डीएनए (DNA) को बदल कर नयी तरह की वनस्पतियों को बनाने के प्रयोगों से प्राकृति के संरक्षण की. उन्होंने कहा कि भारत में हिन्दू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवता माने जाते हैं, और हर देवी देवता के साथ किसी न किसी पशु या पक्षी या वनस्पति का नाम भी जुड़ा होता है, जिनकी वजह से धर्म में विश्वास रखने वाले उन सब की रक्षा करते हैं. इस तरह से यह पौराणिक मिथक, मानव व प्राकृति के साथ साथ सामन्जस्य से रहने का संदेश देते हैं.

यानि, प्राचीन काल में जब विज्ञान नहीं था, किताबें नहीं थीं, तब मिथकों के द्वारा मानव जीवन के अनुभवों से अर्जित ज्ञान को याद रखा जाता था. इस तरह से देवी देवताओं की कहानियाँ एक माध्यम बन गयीं जिनसे मानव और प्राकृति में सामन्जस्य की आवश्यकता को नैतिक रूप दिया गया.

कुछ इसी तरह की बात एक बार मिस्र में एक मित्र ने मुसलमानों द्वारा सूअर के माँस को अपवित्र मानने के बारे में कही थी. वह कहते थे कि मध्य-पूर्व के देशों में सूअरों में सिस्टोसरकोसिस का रोग होता था और सूअर का माँस खाने से वह मानव शरीर में, विषेशकर दिमाग के तंतुओं में फैल जाता था. इसलिए सूअर के माँस की वर्जना की बात, वहाँ रहने वाली मानव जाति की सुरक्षा से जुड़ी थी.

मिथक क्यों बने, यह समझना हमेशा आसान नहीं होता. बहुत सी सभ्यताओं में नमक का गिरना या बिखरना अशुभ माना गया है. शायद इस मिथक के पीछे, पुराने समय में नमक को पाने की कठिनाई थी क्योंकि यह केवल सागर तटवर्ती क्षेत्रों में मिलता था. पर बहुत सी सभ्यताओं में काली बिल्ली को क्यों अशुभ माना गया, इसका कारण क्या हो सकता है?

जब लिखाई नहीं थी, किताबें नहीं थीं, तब इतिहास की महत्वपूर्ण बातों को न भूलने के लिए भी मिथक काम आते थे. जैसे कि अमरीकी जनजातियों के मिथकों में पृथ्वी पर मानव जीवन कैसे बना इसकी कहानियाँ हैं. इन मिथकों में आकाश से या चाँद से धरती तक एक पुल का बनना और उसे पार करके धरती पर आने की बातें हैं. इन कहानियों में कुछ इतिहासकारों ने करीब दस हज़ार वर्ष पहले के हिमयुग में उत्तरी सागर के बर्फ से जमने और उसे पार कर के एशियाई मूल के लोगों के अमरीका महाद्वीप पहुँचने की यात्रा के संकेत पाये हैं.

मिथक सामाजिक विचारों को भी शक्ति देते हैं. चाहे समाज में पुरुष के मुकाबले में नारी का नीचा स्थान हो या विकलाँग व्यक्तियों को समाज से बाहर देखने के प्रवृति, इनको प्राचीन मिथकों का सहारा मिलता है, जिनकी जड़ें समाज में बहुत गहरी होती हैं और जिन्हें बदलना आसान नहीं होता. दिल्ली में विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत मेरी मित्र डा. अनीता घई, रामायण में सूर्पनखा की कहानी का उदाहरण देती हैं कि सुन्दर सूर्पनखा स्वतंत्र हैं, उसकी यौनकिता भी स्वच्छंद है जोकि पितृसत्तावादी समाज में स्वीकार नहीं की जाती थी और इस अपराध के लिए उसकी नाक काट कर उसे विकलाँग बनाया जाता है, जिससे उसकी यौनकिता अस्वीकृत हो जाती है. इस तरह से मिथकों से जुड़े विचार, समाजिक रूढ़ीवाद का हिस्सा भी हो सकते हैं.

अपनी संस्कृति के मिथकों को जानना, हमें अपनी संस्कृति को गहराई से समझने का मौका देता है. भारतीय पारम्परिक मिथकों के बारे में डा. उषा पुरी विद्यावाचस्पति ने एक जानकारी से भरपूर किताब लिखी है, "भारतीय मिथकों में प्रतीकात्मकता" (सार्थक प्रकाशन, दिल्ली, 1997).  उदाहरण के लिए इसमें वह पूजा में उपयोग किये जाने वाली वस्तुओं तथा रीतियों के बारे में बताती हैं कि "ऊँ", शंख और स्वस्तिक में सृष्टि के आरम्भ का नाद है, जलयुक्त कलश को जल, वायू तथा सूर्य का प्रतीक मानते हैं, तथा कलश की गर्दन में बँधा कलावा मंगलमय आयोजन में समाज को स्नेहसूत्र में बाँधने का द्योतक है. रूद्राक्ष, शिव के आँसू या पसीने से बना है इसलिए मनुष्य को आधि व्याधि से मुक्त करता है. हल्दी में रोग निवारण शक्ति हैं और स्वर्ण का प्रतीक है, चावल दीर्घायुदायी हैं, जबकि दीपक प्रकाश तथा ज्ञान का प्रतीक है.

Cover of Bhartiya mithakon mein pratikatamkta by Dr Usha Puri Vidyavachaspati

यह बात नहीं कि मिथक केवल प्राचीन ही होते थे और आजकल नये मिथक नहीं बनते. पिछले वर्ष अमरीकी माया सभ्यता के कैंलेण्डर की भविष्यवाणी बता कर "20.12.2012 को दुनिया का अंत होगा" की बात को बहुत से लोगों ने सच मान लिया था. यानि आज "मिथक" का अर्थ धर्म से जुड़ी बातों से हट कर, झूठ या काल्पनिक बातों की तरह से होने लगा है. लोग फेसबुक और टिव्टर जैसे सोशल मीडिया की सहायता से नये मिथक बनाते हैं जो विभिन्न भाषाओं में अनुवादित हो कर एक देश या सभ्यता में सीमित नहीं रहते बल्कि सारी दुनिया में फ़ैलते हैं. इन नये मिथकों को "शहरी मिथक" भी कहते हैं जिनसे लोगों को डराते हैं. "अगर आप के पास इस तरह का ईमेल आये तो उसे नहीं खोलिये" या "अगर आप ने इस ईमेल को कम से कम दस लोगों को नहीं भेजा तो आप का विनष्ट होगा" या "इस ईमेल को दस लोगों को भेजेंगे तो लाटरी जीतेगें" जैसी बातें शहरी मिथक के दायरे में आती हैं. (नीचे की तस्वीर में "12 दिसम्बर को दुनिया का अंत होगा" के विषय पर बनी एक कलाकृति)

2012 Maya calendar myth sculpture by Joe Venturi and Matteo Varsellona

देखा आपने, एक गिलहरी की तस्वीर से शुरु हुआ विचार कहाँ तक पहुँच गया! मेरे विचार में प्राचीन मिथकों में छुपे प्राचीन ज्ञान को केवल अँधविश्वास कह कर भूल जाना या अस्वीकार करना गलती है. बहुत से मिथकों में सामाजिक बुराईयों के अँधविश्वास बने हैं, जो केवल मिथकों के शब्दिक अर्थ से जुड़े विचारों की कट्टरता का नतीजा हैं. पर जैसे वन्दना शिव के दिये उदाहरण से स्पष्ट होता है, इनमें छिपे सभी ज्ञान अवैज्ञानिक नहीं है. चाहे हम मिथकों में छुपे ज्ञान को संजोने की सोचे या उनसे जुड़ी गलत सामाजिक परम्पराओं को बदलने की बदलने की कोशिश करें, उनके महत्व को नहीं नकार सकते. आधुनिक मिथकों को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये, पर अपनी सोच समझ से उनके सच और झूठ को परखना चाहिये.

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शनिवार, मई 18, 2013

सपनों की दुनिया


"मिलान में इतालवी वोग (Vogue) पत्रिका की नयी फोटो-प्रदर्शनी लगाने की तैयारी हो रही है" के समाचार के साथ अंग्रेज़ी फोटोग्राफर किर्स्टी मिशेल (Kirsty Mitchell) की एक तस्वीर देखी तो देखता रह गया.

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

आजकल क्मप्यूटर की मदद से तस्वीरें बना कर कलाकार कई तरह की पूरी काल्पनिक दुनियाँ बना सकते हैं, जिन पर "अवतार" (Avatar) जैसी पूरी फ़िल्में बनती हैं. इन फ़िल्मों को देख कर यह कहना कठिन होता है कि उनमें कितना असली है और कितना क्मप्यूटर पर बना हुआ है.

इसलिए जब किर्स्टी की तस्वीर देखीं तो यही सोचा कि उन्होंने भी इसे क्मप्यूटर की मदद से ही बनाया होगा. जैसे कि पिछले कुछ वर्षों में एच.डी.आर. (HDR) यानि हाई डायनेमिक रेन्ज की फोटो तकनीक आयी है जिसमें कई तस्वीरों को मिला कर उनसे एक तस्वीर बनाते हैं, जिसमें रंग बहुत निखर कर आते हैं. मैंने सोचा कि किर्स्टी की तस्वीरें एच.डी.आर से बनी होंगी. लेकिन जब पढ़ा कि किर्स्टी ने यह तस्वीर क्मप्यूटर पर नहीं बनायी, बल्कि उन्होंने सचमुच के वस्त्र, विग, मेकअप आदि बना कर, सचमुच के फ़ूलों के सामने वह तस्वीर खीँची है, तो बहुत आश्चर्य हुआ और अच्छा भी लगा.

आज आप को फोटोग्राफ़ी का शौक हो तो उसे पूरा करने के बहुत तरीके हैं. डिजिटल फोटोग्राफ़ी के कैमरे सस्ते भी मिलते हैं. फोटोग्राफ़ी कैसे करें, फोटो को कैसे सुधारें, उनकी कमियों को कैसे छुपायें, उनके रंगो को कैसे निखारें - इस सब को समझने के पाठ इंटरनेट पर मुफ्त भरे पड़े हैं, हालाँकि अधिकाँश अंग्रेज़ी में ही है, हिन्दी में इस तरह की अच्छे स्तर की सुविधाएँ न के बराबर हैं. उदाहरण के लिए, दुनिया के जाने माने फोटोग्राफ़र किस तरह की तस्वीरें खींचते हैं इसे देखने के लिए, उनसे प्रेरणा पाने के लिए और फोटोग्राफी के ट्यूटोरियल पढ़ने के लिए, मुझे 121 क्लिकस की वेबसाइट अच्छी लगती है. जबकि फोटो कैसे खींचने चाहिये इस पर मुझे यूट्यूब पर एडोरामा के वीडियो पाठ भी अच्छे लगते हैं (इन्हें सही समझने के लिए पहले सबसे पुराने वाले पाठ शुरु से देखिये), पर इनके जैसी वेबसाइट और वीडियो अन्य भी बहुत हैं, आप खोजेंगे तो बहुत से मिल जायेंगे.

यानि कि तकनीकी दृष्टि से आज हर कोई बढ़िया फोटोग्राफर बनना सीख सकता है. पर हर कोई बढ़िया तकनीक वाला फोटोग्राफर, बढ़िया कलाकार नहीं होता. आप किसकी फोटो खीँचते हैं, किस एँगल से खीँचते हैं, उसमें किसको महत्व देते हैं, आप की तस्वीरों में आप का व्यक्तिगत दृष्टिकोण क्या है, आप का अपना अन्दाज़ क्या है - आप को कलाकार माना जाये यह उन सब बातों पर निर्भर करता है. इस दृष्टि से देखें तो किर्स्टी की तस्वीरें अन्य फोटोग्राफरों से भिन्न, फोटोग्राफी के कलाजगत में अपनी विशिष्ठ जगह बनाती हैं.

किर्स्टी का जन्म 1976 में इँग्लैंड के कैन्ट जिले में हुआ. उन्होंने फोटोग्राफ़ी 2007 में करनी शुरु की. उनकी माँ बच्चों के लिए किताबें लिखती थीं. सन 2008 में माँ की कैन्सर रोग से मृत्यू के बाद, माँ की याद में ही किर्स्टी ने "वन्डरलैंड" (Wonderland) श्रृँखला की तस्वीरें खीँचना शुरु किया, जिसमें वह अपनी माँ कि किताबों के कल्पना जगतों को मूर्त रूप देना चाहती थीं.

सबसे पहले वह हर तस्वीर की मानसिक तस्वीर बनाती हैं, रंगो का चयन करती हैं, अपने हाथों से उसकी पौशाक, विग, और फोटो में प्रयोग की जाने वाली हर वस्तु को बनाती हैं. तस्वीरों को खीँचने के लिए वह सही मौसम की, जैसे कि बर्फ़ हो या किसी विषेश रंग के फ़ूल खिले हों, इसकी प्रतीक्षा करती हैं. जब सब कुछ उन्हें उनकी कल्पना के अनुसार मिल जाता है तो वह तस्वीर खीँचती हैं. इस तरह उनकी हर एक तस्वीर के पीछे, कई महीनो की मेहनत लगती है.

किर्स्टी की तस्वीरों को दुनिया भर में प्रदर्शनियों के आमँत्रण और पुरस्कार मिले हैं. वह पहले फैशन और कोसट्यूम की एक कम्पनी में काम करती थीं, वहाँ से सन 2011 में उन्होंने इस्तीफ़ा दे कर अपना फ्रीलाँस काम खोला है. वह कहती हैं, "चार साल पहले कोई मुझे कहता कि बड़ी प्रदर्शिनों में मेरी तस्वीरें लगेंगी, हार्पर बाज़ार जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं के मुख्यपृष्ठ पर छपेगीं तो कौन विश्वास करता? इतालवी वोग पत्रिका की मिलान में लगने वाली प्रदर्शनी के लिए मुझे कई हज़ार फोटोग्राफरों में से चुना गया है. मुझे यह सब सपना सा लगता है."

आप किर्स्टी के काम के कुछ नमूने देखिये, सचमुच उनका काम प्रशंसनीय है, इसलिए भी क्योंकि यह क्मप्यूटर पर नहीं बना और इसे उन्होंने अपनी मेहनत से बना कर अपनी कल्पना को साकार किया है.

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

आप किर्स्टी मिशेल की और तस्वीरें उनकी वेबसाइट पर देख सकते हैं. क्या मालूम, आप में से किसी पाठक को इससे प्रेरणा मिले, किर्स्टी की नकल करने की नहीं, बल्कि, अपनी कल्पना से अपनी नयी दृष्टि बनाने की और उसे सच में बदलने की, ताकि एक दिन हम आप के काम को भी इसी तरह अचरज से देखें और आप को वाह-वाह कहें.!

मंगलवार, मई 14, 2013

मेरी कहानी, हमारी कहानी


"हैलो, मेरा नाम लाउरा है, क्या आप के पास अभी कुछ समय होगा, कुछ बात करनी है?"

मुझे लगा कि वह किसी काल सैन्टर से होगी और पानी या बिजली या टेलीफ़ोन कम्पनी को बदलने के नये ओफर के बारे में बतायेगी. इस तरह के टेलीफ़ोन आयें तो इच्छा तो होती है कि तुरन्त कह दूँ कि हमें कुछ नहीं बदलना, पर अगर काल सैन्टर में काम करने वालों का सोचूँ तो उन पर बहुत दया आती है. बेचारे कितनी कोशिश करते हैं और उन्हें कितना भला बुरा सुनना पड़ता है. बिन बुलाये मेहमानों की तरह, काल सैन्टर वालों की कोई पूछ नहीं.

पर वह काल सैन्टर से नहीं थी. उसे मेरा टेलीफ़ोन नम्बर बोलोनिया में मानव अधिकारों पर वार्षिक फ़िल्म फैस्टिवल का आयोजन करने वाली जूलिया ने दिया था. "हम लोग एक फोटो प्रदर्शनी का प्रोजक्ट कर रहे हैं, प्रवासियों के बारे में. उसका नाम है "मेरी कहानी, हमारी कहानी". क्या आप उसमें भाग लेना चाहेंगे?"

मैंने सोचा कि शायद मेरे बढ़िया फोटोग्राफ़र होने का समाचार इनके पास पहुँच भी गया है, और यह लोग मेरी तस्वीरें चाहते हैं, तो खुश हो कर बोला, "अवश्य. मेरी किस तरह की तस्वीरें लेना चाहेंगी, प्रदर्शनी के लिए?"

"नहीं, आप की खींची तस्वीरें नहीं चाहिये हमें, हम आप की तस्वीरें खींचना चाहते हैं, बोलोनिया में रहने वाले भारतीय समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में. आप को हमें दो तीन घँटे देने होंगे, हमारा माडल बन कर और हम आप की तस्वीरें खीँचेगे", उसने समझाया.

"क्या उदेश्य है इस फोटो प्रदर्शनी का?" मैंने जानना चाहा तो लाउरा ने विस्तार से बताया. इटली के कुछ राजनीतिक दल हैं जैसे कि "लेगा नोर्द" जो इटली में बसे प्रवासियों के विरुद्ध अभियान चलाते हैं. उनका कहना है कि प्रवासी अपराधी, आतन्कवादी, गन्दगी वाले, असभ्य, इत्यादि होते हैं और यहाँ आ कर यहाँ की सभ्यता को बिगाड़ रहे हैं, इसलिए प्रवासियों को इटली में नहीं आने देना चाहिये. इस फोटो प्रदर्शनी का उदेश्य यह दिखाना है कि रूढ़िवादी राजनीतिक दलों का यह प्रचार गलत है, क्योंकि प्रवासी यहाँ नये विचार, सभ्यता, नये काम, ले कर आते हैं और शहर के जीवन को नया रंग देते हैं. इस तरह से इस प्रदर्शनी में विभिन्न देशों से आने वाले प्रवासियों के जीवन के बारे में जानकारी दी जायेगी.

मैंने यह सब जान कर, फोटो खिंचवाने के लिए तुरन्त हाँ कह दी. एक बार पहले भी एक प्रदर्शनी के लिए मैं अपनी तस्वीरें खिँचवा चुका था. तब बात थी मृत्यू के बारे में विभिन्न सभ्यताओं में क्या सोच है, उसके बारे में. उस बार अँधेरे में विषेश तरीके से तस्वीरें खीँची गयी थीं जिनमें लगता था कि मैं मर चुका हूँ. उन तस्वीरों की प्रदर्शनी भी यहाँ के कब्रिस्तान में लगी थी. पर तब तो तस्वीरें खिँचवाने में दस पंद्रह मिनट ही लगे थे.

इस बार तस्वीरें खिँचवाना कुछ अधिक कठिन था. फरवरी में फोटो खीचनें के लिए उन्होंने मुझे बुलाया और शहर की कुछ प्रसिद्ध जगहों पर ले जा कर मेरी तस्वीरें खींची गयीं.

"इस तरफ़ घूमिये, इधर देखिये, सिर को थोड़ा उठाईये, नहीं इतना नहीं, थोड़ा सा कम, अब हाथ कमर पर रखिये ...", करीब तीन घँटों तक उन्होंने मुझसे तरह तरह के पोज़ बनवा कर इतनी तस्वीरें खींची कि थक गया. वहाँ से गुज़र रहे लोग मेरी ओर हैरानी से देखते कि कौन है, शायद कोई एक्टर या लेखक या प्रसिद्ध व्यक्ति होगा जिसकी तस्वीरें खीँच रहे हैं? इसलिए पोज़ बनाने में थोड़ी सी शर्म भी आ रही थी. अगर आप ने झूठ मूठ की मुस्कान को तीन घँटे तक बना कर अपनी फोटो खिँचवायीं हों तभी समझ सकते हैं कि फोटो खिँचवाना भी खाला जी का घर नहीं.

"अच्छा, आप ऐनक उतार दीजिये, उससे फोटो ठीक नहीं आ रही", वे बोलीं तो मैंने कहा कि हाथ में किताब दे दीजिये, तो उसे पढ़ते हुए मैं ऐनक उतार कर हाथ में थाम लूँगा, और यह स्वभाविक भी लगेगा. तो अमिताव घोष की किताब "द सी ओफ़ पोप्पीज़" को हाथ में ले कर भी, एक किताबों की दुकान में कुछ तस्वीरें खीँची गयीं. खैर, जब उन्होंने कहा कि बस हो गया, तो लगा कि चलो काम पूरा हुआ, जान छूटी.

19 अप्रैल 2013 को इस प्रदर्शनी का शहर के नगरपालिका भवन के प्राँगण में उद्घाटन हुआ. पैँतालिस देशों के प्रवासियों ने इस प्रदर्शनी में हिस्सा लिया है. प्रदर्शनी में भारत के प्रतिनिधि होने का गर्व भी हुआ. वहाँ देखा कि वही किताबों की दुकान में खींची तस्वीर ही प्रदर्शनी में लगायी गयी थी. प्रदर्शनी के उद्घाटन समारोह में ब्राज़ील और रोमानिया के युवा कलाकारों ने साँस्कृतिक कार्यक्रम किया. इस प्रदर्शनी की और उद्घाटन समारोह के साँस्कृतिक कार्यक्रम की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013

तो कहिये, आप को यह प्रदर्शनी कैसी लगी?

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हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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