tag:blogger.com,1999:blog-91155616311555715912024-03-18T20:59:42.511+01:00जो न कह सकेभारत, इटली, समाज, कला, संस्कृति, धर्म, इतिहास, जीवन ...Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.comBlogger540125tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-78567686410283494882024-03-18T14:47:00.005+01:002024-03-18T20:59:07.917+01:00हमारी भाषा कैसे बनी<p>कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने <b>डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा</b> की <a href="https://jonakehsake.blogspot.com/2024/03/blog-post.html" target="_blank">१८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म</a> के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की एक अन्य फ़िल्म, "<b>जिस तरह हम बोलते हैं</b>" पर लिख रहा हूँ।</p><p>इस फ़िल्म को बनाने में उन्होंने हिंदी भाषा के विकास के प्रख्यात जानकार लोगों का सहयोग लिया, जिनमें <b>प्रो. नामवर सिंह</b> का नाम सबसे पहले आता है, वह इस फ़िल्म के सूत्रधार थे। अन्य विद्वान जिन्होंने फ़िल्म में सहयोग दिया उनमें प्रमुख नाम हैं वाराणसी के <b>प्रो. जुगल किशोर मिश्र</b> तथा <b>प्रो. शुकदेव सिंह</b>, उज्जैन के <b>डॉ. कमलदत्त त्रिपाठी</b> और दिल्ली विश्वविद्यलय के <b>प्रो. अजय तिवारी</b>। नीचे तस्वीर में फ़िल्म से प्रों. नामवर सिंह।<br /></p><p style="text-align: center;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQxB-MH7z7sTTnuwHIfp5BS-nmqWY1ZQLaHI1eAOwSyvS_znUmmJLOCHgmgbPW1YmeB2wu18a1dp9P7OkOPQWThPt7y4Wx7DWDmkjjEU5k5fxXHa3UvCUG_7h2xBVOGGXtDCUnVcWYyx7BW9Nm64gh5PA4cuZLczBjeIgMt7g6t_dMV_uuol876YyhyphenhyphenJoY/s918/Jaisa01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="743" data-original-width="918" height="259" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQxB-MH7z7sTTnuwHIfp5BS-nmqWY1ZQLaHI1eAOwSyvS_znUmmJLOCHgmgbPW1YmeB2wu18a1dp9P7OkOPQWThPt7y4Wx7DWDmkjjEU5k5fxXHa3UvCUG_7h2xBVOGGXtDCUnVcWYyx7BW9Nm64gh5PA4cuZLczBjeIgMt7g6t_dMV_uuol876YyhyphenhyphenJoY/s320/Jaisa01.jpg" width="320" /></a></div><p></p><p style="text-align: left;"></p><p style="text-align: left;"></p><p>फ़िल्म में संस्कृत से पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश के रास्ते से हो कर आज की भाषाओं और बोलियों के विकास की गाथा चित्रित की गई थी। यह फ़िल्म २००४-०५ के आसपास दूरदर्शन इंटरनेशनल चैनल पर तथा अमरीका में विश्व हिंदी दिवस समारोह में दिखायी गई थी।</p><p>जब मैंने यह फ़िल्म पहली बार देखी ती तो मुझे लगा था कि इसमें हमारी भाषाओं और बोलियों के बारे में बहुत सी दिलचस्प जानकारी है, और इस फ़िल्म को जितना महत्व मिलना चाहिये था, वह नहीं मिला था। इसलिए नवम्बर २०२२ में मैंने इसे अरुण के साथ देखा और उससे फ़िल्म में दिखायी बातों पर लम्बी बातचीत को रिकॉर्ड किया। कई महीनों से इसके बारे में लिखने की सोच रहा था, आखिरकार यह काम कर ही दिया।</p><p>फ़िल्म में दी गई कुछ जानकारी मुझे गूढ़ तथा कठिन लगी। चूँकि फ़िल्म में सबटाईटल
नहीं हैं, हो सकता है कि कुछ बातें मुझे ठीक से समझ नहीं आयी हों, इसके लिए
मैं पाठकों से क्षमा मांगता हूँ। मेरे विचार में दूरदर्शन को इस फ़िल्म को इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध करना चाहिये।</p><h3 style="text-align: left;">"जिस तरह हम बोलते हैं" - फ़िल्म के बारे में निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा से बातचीत</h3><p> <b>अरुण चढ़्ढ़ा</b>: "हम लोग स्कूल में पढ़ते थे कि भारत की बहुत सारी भाषाएँ हैं, हर प्रदेश की अपनी भाषा है, और हर भाषा की बहुत सी बोलियाँ हैं। कहते हैं कि यात्रा करो तो हर दो कोस पर बोली बदल जाती है। इसी बात से मैं सोच रहा था कि हिंदी कैसे विकसित हुई, और हिंदी से जुड़ी कौन सी प्रमुख बोलियाँ हैं, उनके आपस में क्या सम्बंध हैं, उनके संस्कृत से क्या सम्बंध हैं। एक बार इसके बारे में जानने की कोशिश की तो पता चला कि जिसे हम एक भाषा कहते हैं, उसमें भी कई तरह के भेद हैं। जैसे कि संस्कृत भी दो प्रमुख तरह की है, वैदिक संस्कृत तथा लौकिक संस्कृत। तो मेरे मन में आया कि हमारी भाषाओं के विकास में यह सब अंतर कैसे आये और क्यों आये? (नीचे तस्वीर में अरुण चढ़्ढ़ा)<br /></p><p style="text-align: center;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnfdgOAjF6oK-8BJIPG5cNKByDyamRLqTbt0Je70tEU7OmaydIZt_-3CBZVRBHtkT2cLAFjJ0tc2Ynirt1Csqa5-5fpJICW9TA_IeXax7HvGvCfxJI1u0uu5m-cI0hOHjy0cUTRsfE45hIqKcyphRDGgJ9vGaZcvPCVWNoWg434sm0Cm11ChelfO070lZP/s648/IMG_0309.JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="448" data-original-width="648" height="221" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnfdgOAjF6oK-8BJIPG5cNKByDyamRLqTbt0Je70tEU7OmaydIZt_-3CBZVRBHtkT2cLAFjJ0tc2Ynirt1Csqa5-5fpJICW9TA_IeXax7HvGvCfxJI1u0uu5m-cI0hOHjy0cUTRsfE45hIqKcyphRDGgJ9vGaZcvPCVWNoWg434sm0Cm11ChelfO070lZP/s320/IMG_0309.JPG" width="320" /></a></div><p></p><p style="text-align: center;"></p><p>हमारी हिंदी की जड़े कम से कम चार हज़ार वर्ष पुरानी हैं और आज की भाषा उस प्राचीन भाषा से बहुत भिन्न है, उनमें ज़मीन-आसमान का अंतर है। अगर कोई भाषा जीवित है तो वह समय के साथ बदलेगी। लोग कहते हैं कि हमारी भाषा में मिलावट हो रही है, भाषा की शुचिता को बचा कर रखना चाहिये, लेकिन अगर भाषा जीवित है तो उसका बदलते रहना ही उसका जीवन है। जयशंकर प्रसाद, मैथिलीचरण गुप्त और निराला जैसे साहित्यकारों ने, हर एक अपने समय की भाषा का उपयोग किया है। </p><p>यही सब सोच कर मुझे लगा कि प्राचीन समय से ले कर हमारी भाषा कैसे विकसित हुई, कैसे कालांतर में उससे अन्य भाषाएँ और बोलियाँ बनी, इस विषय पर फ़िल्म बनानी चाहिये। सबसे पहले मैंने इसके बारे में नेहरु संग्रहालय के एक लायब्रेरियन से बात की, फ़िर उनके सुझाव पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में बात की, वहाँ प्रोफेसर सब्यसांची ने सलाह दी, इस तरह से इस विषय पर सामग्री एकत्रित करनी शुरु की। तब प्रो. नामवर सिंह से बात हुई, जानकारी के साथ उन्होंने इस फ़िल्म का सूत्रधार बनना स्वीकार कर लिया। फ़िर, उज्जैन की संस्कृत एकादमी के निदेशक के. एम. त्रिपाठी साहब मिले, वाराणसी संस्कृत विद्यापीठ के प्रो. जुगल किशोर मिश्रा और अन्य बहुत से लोग इस काम में साथ चले, उन सबके सहयोग के बिना इस फ़िल्म को नहीं बना सकता था। (नीचे फ़िल्म से प्रो. जुगलकिशोर मिश्रा)<br /></p><p style="text-align: center;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_Vwvd5DYW-EjcMah15-wDfKb1MIM5fyYTzKTBHXKptYUlBQlSuCrrvj6pmjj5wl1VMY-jU4jKdDV-5zPMCNPsTKAbZzuB4utvU6hwlj3Q3RZcZnVTdq1xx9eT1R0RBHM92N-CcPiziklptXIjI4e865RN7hfR79bq9cF_zcbuwBtJeRGgKPkjojHxRTrW/s648/Jaise_04.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="496" data-original-width="648" height="245" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_Vwvd5DYW-EjcMah15-wDfKb1MIM5fyYTzKTBHXKptYUlBQlSuCrrvj6pmjj5wl1VMY-jU4jKdDV-5zPMCNPsTKAbZzuB4utvU6hwlj3Q3RZcZnVTdq1xx9eT1R0RBHM92N-CcPiziklptXIjI4e865RN7hfR79bq9cF_zcbuwBtJeRGgKPkjojHxRTrW/s320/Jaise_04.jpg" width="320" /></a></div><p></p><p style="text-align: center;"></p><p>चूँकि भाषा लिखने, पढ़ने और बोलने का माध्यम है, उस पर फ़िल्म कैसे बनाई जाये, यह दुविधा भी थी। मुझे लगा कि हम यह दिखा सकते हैं कि बोली हुई भाषा के उच्चारण कैसे होते हैं। जैसे कि उज्जैन में त्रिपाठी साहब को प्राकृत भाषा के उच्चारण की जो जानकारी थी वह अपने आप में अनूठी थी। वाराणसी में प्रो. मिश्र थे जिनके विद्यार्थयों का संस्कृत थियेटर का दल था, उन लोगों ने संस्कृत नाटकों के मंचन से फ़िल्म में सहयोग दिया था। (नीचे फ़िल्म से डॉ. कमलेश दत्त त्रिवेदी)<br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgf8_d5nEGWRAwLuvlJS0o8Q4fS7v_39EmXyjwayPHF7mrr4AOMuOPpQxN9FZxGxwiSBbz4lz78RYKJPDQc99Ok4mTp53f-mOMB-tHw2RQM4LVitByThXI4jEOIgNYZ7ruOE7_dp9wg-j6rSZhgKiDk3T45ZpZtIc18w0d6qUIOFCVGbZNjzPCRqEPa2fZz/s648/Jaise_05.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="518" data-original-width="648" height="256" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgf8_d5nEGWRAwLuvlJS0o8Q4fS7v_39EmXyjwayPHF7mrr4AOMuOPpQxN9FZxGxwiSBbz4lz78RYKJPDQc99Ok4mTp53f-mOMB-tHw2RQM4LVitByThXI4jEOIgNYZ7ruOE7_dp9wg-j6rSZhgKiDk3T45ZpZtIc18w0d6qUIOFCVGbZNjzPCRqEPa2fZz/s320/Jaise_05.jpg" width="320" /></a></div><p style="text-align: center;"></p><p>इस फ़िल्म की सारी रिकॉर्डिन्ग लोकेशन पर ही की गई, मैं इसकी डबिन्ग नहीं चाहता था। खुली जगहों में, भीड़ में, कैसे लाइव रिकॉर्डिन्ग की जाये, यह हमारी चुनौती थी। यह फ़िल्म बीस-बीस मिनट के पाँच भागों में प्रसारित की गई थी, बाद में उन्हें जोड़ कर मैंने एक घंटे की फ़िल्म भी बनाई थी।</p><h3 style="text-align: left;"></h3><p></p><h3 style="text-align: left;">वैदिक तथा लौकिक संस्कृत और उसकी व्याकरण <br /></h3><p>फ़िल्म का प्रारम्भ <b>जयशंकर प्रसाद</b> की "कामायनी" की एक कविता से होता है। फ़िर <b>नामवर सिंह </b>बताते हैं कि "ऋग्वेद की पहली ऋचा वाक-सूक्त है, जिसमें वाक् यानि भाषा की महिमा गाई गई है। हडप्पा में मूर्तियाँ, चित्र, भवन, सब कुछ हैं लेकिन अभी तक उनकी लिपी नहीं पढ़ी जा सकी। इस तरह से हम उनकी सभ्यता के बारे में बहुत कुछ जानते हैं लेकिन उनके साहित्य के बारे में कुछ नहीं जानते। सभी समाज, संस्कृति, सभ्यता, बिना उसकी भाषा के उसकी पहचान पूरी नहीं होती।"</p><p>वैदिक संस्कृत दो हज़ार वर्ष पहले जैसी बोली जाती थी, आज भी वैसी ही लिखी जाती है, इसके शब्दों को आगे-पीछे नहीं कर सकते। इस भाषा के मंत्रो मे उच्चारण को फ़िल्म में छाऊ नृत्य के साथ दिखाया गया है। लेकिन विभिन्न वेदों में मंत्रों के उच्चारण और ताल में अंतर आ जाता है। जैसे कि हिरण्यगर्भ समवर्ताग्रह ऋचा तीन वेद ग्रंथों (ऋग्वेद, कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद) में मिलती है, इसके शब्द नहीं बदल सकते लेकिन उनका उच्चारण और ताल बदल जाते हैं। यह इस लिए होता है क्योंकि यह स्वाराघात-युक्त भाषा है, इसमें सात स्वरों का समावेश है इसलिए उनका उच्चारण भी सप्त स्वर-नियमों के अनुसार होता है। यह सप्त सुर सामवेद में स्फटित रूप में मिलते हैं, जबकि ऋग्वेद, कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद में यह सात सुर तीन स्वरों (उदात्त, अनुदात्त और छड़िज) में समाहित हो जाते हैं। उदात्त में निशाद और गंधार मिल जाते हैं, अनुदात्त में ऋषभ और भैवत, और छड़िज में षड़ज, मध्यम और पंचम मिल जाते हैं। इस वजह से हर वेद की उच्चारण शैली में अंतर होता है। (नीचे फ़िल्म से प्रो. शुकदेव सिंह)</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXX975pnyDnKqaGMYHsl6VpURbQTT7Ei8cDadnO_3Sa8wry3EQM3rQDLo9j3BT32GIHa7hSRjU4ccYBF1zAlehLsp1tqA5hIxxnqSGx_qgpXIbcd_WddoSeIegEWBxKvR2kPRO18KhZoYqUWECoVShkdt3bs7YX59fG1fQ6aNFjyNCrIlZAFcwDteszv0E/s648/Jaise_06.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="518" data-original-width="648" height="256" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXX975pnyDnKqaGMYHsl6VpURbQTT7Ei8cDadnO_3Sa8wry3EQM3rQDLo9j3BT32GIHa7hSRjU4ccYBF1zAlehLsp1tqA5hIxxnqSGx_qgpXIbcd_WddoSeIegEWBxKvR2kPRO18KhZoYqUWECoVShkdt3bs7YX59fG1fQ6aNFjyNCrIlZAFcwDteszv0E/s320/Jaise_06.jpg" width="320" /></a></div><p style="text-align: center;"></p><p>वेद ग्रंथ वैदिक संस्कृत में लिखे गये हैं, जबकि रामायण और भगवद्गीता जैसे ग्रंथ लौकिक संस्कृत में लिखे गये हैं, जिनकी भाषा में समय के साथ बदलाव हो सकता है। पाणिनी व कात्यायन जैसे आचार्यों ने व्याकरण के नियमों की व्याख्या करके संस्कृत को व्यवस्था दी, उन्हीं नियमों का प्रयोग हिंदी जैसी भाषाएँ भी करती हैं।</p><p>फ़िल्म में बताया गया है कि, "पाणिनी की व्याकरण संस्कृत ही नहीं, किसी भी भाषा की पहली व्याकरण थी, जिसे उन्हों ने १४०० सूत्रों में लिखा था। कहते हैं कि शिव जी ने चौदह बार डमरू बजाया, उस डमरू पर १४ स्वरों वाले "अइउड़ सूत्र" से संस्कृत की उत्पत्ति हुई, उन्हीं सूत्रों पर ही पाणिनी ने अष्टाध्यायी व्याकरण लिखी। उन्होंने संस्कृत की मुख्य धातुओं को निश्चित किया, जिनमें उत्सर्ग, प्रत्येय आदि जोड़ कर शब्द बनाते हैं।"</p><p>फ़िल्म में लौकिक संस्कृत के उदाहरण कालीदास के नाटक के माध्यम से दिखाये हैं। उज्जैन के त्रिपाठी जी बताते हैं कि महाकवि कालीदास के समय में लौकिक संस्कृत संचार की भाषा थी और उसकी प्रवृति धीरे-धीरे मुखर हो कर प्राकृत भाषा में मुखरित हो रही थी, क्योंकि आम व्यक्ति जब उसे बोलते थे तो उनकी बोली में उच्चारण और व्याकरण का सरलीकरण होता था। </p><p>संस्कृत की परम्परा दक्षिण भारत में भी रही है। जैसे कि केरल के मन्दिरों में संरक्षित संगीत तथा नाट्य पद्धिति कुड़ीयट्टम का इतिहास दो हज़ार वर्ष पुराना है, करीब तीन सौ साल पहले इसका कथ्थकली स्वरूप विकसित हुआ है, जिसमें वैदिक गान को तीन स्वरों (उदात्त, अनुदत्त और छड़िज) में ही गाते हैं, लेकिन कुड़ीयट्टम शैली उनमें भावों को जोड़ देती है।</p><h3 style="text-align: left;">प्राकृत भाषा</h3><p style="text-align: left;">ईसा से करीब छह सौ साल पहले प्राकृत भाषाएँ लौकिक संस्कृत के सरलीकरण से बनने लगीं, समय के साथ प्राकृत के कई रुप बदले, इसलिए प्राकृत कई भाषाएँ थीं। सरलीकरण से संस्कृत के तीन वचन से दो वचन हो गये, कुछ स्वर जैसे ऋ, क्ष, आदि प्राकृत में नहीं मिलते थे। भगवान बुद्ध ने जिस प्राकृत भाषा में अपनी बात कही उसे "पाली" कहते हैं। जैन तीर्थांकर महावीर और सम्राट अशोक ने भी प्राकृत में ही अपने संदेश दिये। समय के साथ इनसे अपभ्रंश तथा आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म हुआ।</p><p style="text-align: left;">भारत के <b>नाट्यशास्त्र</b> में ४२ तरह की भाषाओं की बात की गई है, जबकि <b>कोवल्य वाक्यमाला</b> ग्रंथ में १८ तरह की प्राकृत की बात की गई है, जिनमें तीन प्रमुख मानी जाती थीं - मगधी, महाराष्ट्री और शौरसैनी। महाकवि कालीदास ने तीनों प्राकृत भाषाओं का अपने नाटकों में सुन्दर उपयोग किया था। जैसे कि एक ही नाटक में एक पात्र लौकिक संस्कृत बोलता है, गद्य में बोलने वाले शौरसैनी बोलते हैं और गीत महाराष्ट्री में हैं। <br /></p><h3 style="text-align: left;">अपभ्रंश, औघड़ी, अवधी, ब्रज, हिन्दवी, खड़ी बोली ... <br /></h3><div style="text-align: left;"></div><p style="text-align: left;">संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश, अपभ्रंश से औघड़, इस तरह से शताब्दियों के साथ भाषाएँ बदलती रहीं। <b>महाकवि कालीदास</b> ने विक्रमवेशी में अपभ्रंश का उपयोग भी किया और <b>पतांजलि</b> ने अपने महाभाष्य अपभ्रंश में लिखा।</p><div style="text-align: left;"></div><div style="text-align: left;">अपभ्रंश से पश्चिम में गुजरात तथा राजस्थान में पुरानी हिंदी और ब्रज भाषाएँ निकलीं जिनका वीर रस की रचनाओं के सृजन में प्रयोग किया गया। <b>दलपत राय</b> ने खुमान रासो, <b>चंदबरदाई</b> ने पृथ्वीराज रासो, आदि ने अपनी रचनाओ के लिए इन्हीं भाषाओं का प्रयोग किया। राजस्थान में इन रचनाओ को डिन्गल तथा पिन्गल भाषाओं में गान की परम्परा बनी। डिन्गल भाषा में शक्ति, ओज, उत्साह अधिक होता है, जबकि पिन्गल में अधिक कोमलता है, वह ब्रज भाषा के अधिक करीब है। डिन्गल भाषा में युद्ध से पहले राजा और योद्धाओ को उत्साहित करने के लिए गाते थे।<br /></div><div style="text-align: left;"> </div><div style="text-align: left;">मैथिल <b>कवि विद्यापति</b> ने अवहट में लिखा जैसे कि "कुसमित कानन कुंज वसि, नयनक काजर घोरि मसि। नखसौ लिखल नलिनि दल पात, लिखि पठाओल आखर सात।" (नीचे तस्वीर में फ़िल्म से प्रो. अजय तिवारी)</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNNsjf6qqJlnGDyfur75p0sZoihw72hRs4Tvkx7KfRjL79wxkIGbFKDzatqbJizwLN6-vymQ7U5Y4a_bggWXWiYdN_ApSFo1CmQe4FFlBJlHQ4tDKXfFitXyCKG6eyhfqAnmTWTcH4_S2r2SxI8ibDUzwD5D_6D5E9b8BZinGyNsPl-BcPzg6kSXjLx7uL/s648/Jaise_07.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="518" data-original-width="648" height="256" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNNsjf6qqJlnGDyfur75p0sZoihw72hRs4Tvkx7KfRjL79wxkIGbFKDzatqbJizwLN6-vymQ7U5Y4a_bggWXWiYdN_ApSFo1CmQe4FFlBJlHQ4tDKXfFitXyCKG6eyhfqAnmTWTcH4_S2r2SxI8ibDUzwD5D_6D5E9b8BZinGyNsPl-BcPzg6kSXjLx7uL/s320/Jaise_07.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">बाहरवीं-तेहरवीं शताब्दी में हिंदी का स्वरूप सामने आने लगा। निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य <b>अमीर खुसरो</b> ने बहुत सी रचनाएँ इसी हिन्दवी भाषा में लिखीं, जैसे कि उनका यह गीत, "छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके, प्रेम भटी का मदवा पिलाइके, मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके। गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ, बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके", बहुत प्रसिद्ध हुआ। खुसरो ने एक नया प्रयोग भी किया जिसे "दो सुखने" कहते हैं, कविताएँ जिनका एक हिस्सा पारसी में था और दूसरा हिंदी में।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;"><b>मौलाना दाउद</b> ने अवधी भाषा में "चांदायन" महाकाव्य की रचना की जिसमें उन्होंने चौपाई और दोहों को लिखा, यह ग्रंथ तुलसीदास के मानस से करीब दो-ढाई सौ साल पहले था। उन्होंने जिस तरह से चांदायन में रूप और प्रेम की पीड़ा का वर्णन किया, वह अनोखा था। इस तरह से हिंदी में सूफी काव्यधारा की परम्परा का प्रारम्भ हुआ।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">अवधी लेखन की परम्परा में आगे चल कर <b>मालिक मुहम्मद जायसी</b> ने "पद्मावत" को रचा। अवधी भाषा का क्षेत्र बहुत बड़ा था और उसमें एक जगह से दूसरी जगह में कुछ अंतर थे। जायसी की अवधी जौनपुर और सुल्तानपुर की अवधी थी, वह बहुत लोकप्रिय हुई लेकिन सबसे समझी नहीं गई।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;"><b>तुलसीदास</b> जी बहुत घूमे थे, उन्होंने अपनी अवधी को अखिल भारतीय रूप दिया, अपनी बात को सरल भाषा में कहा जिसे आम लोग, हलवाई, हज्जाम भी बोलते-समझते थे। उनके काव्य में इतनी उक्तियाँ हैं जिन्हें गाँव के अनपढ़ लोग भी याद रखते हैं और बोलते हैं।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">१४वीं - १७वीं शताब्दियों में "खड़ी बोली" सामने आई। <b>कबीर</b> जैसे संत-कवियों ने खड़ी बोली में अंधविश्वास, कर्मकाँड, छूआ-छूत के विरुद्ध कविताएँ गाईं, जो आज तक लोकप्रिय हैं।</div><div style="text-align: left;"> </div><div style="text-align: left;">हिंदी का सारा साहित्य ब्रज भाषा और अवधी में लिखा गया। जो मिठास ब्रज भाषा में मिलती है, वह अवधी में नहीं है। इस मिठास का सारा श्रेय महाकवि सूरदास को जाता है जिन्होंने ब्रज भाषा में लिखा, उसे विकसित किया और लोकप्रिय बनाया।</div><div style="text-align: left;"> </div><div style="text-align: left;">अठाहरवीं शताब्दी में हैदराबाद में <b>ख्वाज़ा बंदानवाज़</b> ने मिली-जुली भाषा की बुनियाद रखी जिसमें हिंदी, उर्दू और फारसी मिली-जूली थीं। इसकी लिपी हिंदी थी और यह दखिनी हिंदी या दखिनी उर्दू कहलाती है।</div><div style="text-align: left;"> </div><div style="text-align: left;">१८७३ में <b>भारतेन्दू हरीशचन्द्र</b> ने कविता लिखीं जिनसे हिंदी नयी चाल में ढली। उनकी कविताएँ ब्रज भाषा में थीं, लेकिन सारा गद्य लेखन और नाटक खड़ी बोली में लिखे। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में <b>देवकीनन्दन खत्री</b>, <b>महावीर प्रसाद द्विवेदी</b>, <b>प्रेमचंद</b>, <b>यशवंत</b>, <b>निराला</b>, <b>दिनकर</b>, <b>महादेवी वर्मा</b> जैसे लेखकों ने भारत के विभिन्न वर्गों, स्तरों, क्षेत्रों, समाजों से स्थानीय शब्द को ले कर अपनी लेखनी से जोड़ा जिससे खड़ी बोली समृद्ध हुई और हिंदी का विकास व विस्तार हुआ।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">निराला ने एक ओर जटिल विचारों की अभिव्यक्ति, "नव गति, नव लय, ताल छंद नव, नवल कंठ नव जलद मंद्र रव। नव नभ के नव विहग वृंद को नव पर नव स्वर दे" जैसे शब्दों में की, जबकि "जीवन संग्राम" जैसी कविता में वही निराला ने समान्य बोलचाल की भाषा का उपयोग किया। </div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">फ़िछले पचास वर्षों में हिंदी तेज़ी से बदली है। समाजिक गतिशीलता, आर्थिक बदलावों, बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्कों तथा प्रवासी संस्कृति का प्रभाव हमारी भाषा पर दिखता है। मीडिया ने इसे फैलाने में मदद की है। यह वह हिंदी में है जिसमें अंग्रेज़ी, उर्दू आदि के साथ गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के शब्द भी मिल रहे हैं। <br /></div><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3><div style="text-align: left;"></div><div style="text-align: left;">इस आलेख में हिंदी और उत्तर भारत की भाषाओ के बारे में जो जानकारी है, वह भाषा-इतिहास पढ़ने वालों के लिए नयी नहीं होगी, लेकिन मेरे लिए नयी थी। आज एक ओर भाषा की शुद्ध को बचाने और उसे संस्कृत से जोड़ने की कोशिशें भी हैं और उसके सरलीकरण तथा उसमें अन्य भाषाओ से शब्दों को जोड़ने का क्रम भी है।</div><div style="text-align: left;"> </div><div style="text-align: left;">सौ साल बाद हिंदी होगी या नहीं, और होगी तो कैसी होगी? कत्रिम बुद्धि का जिस तरह से विकास हो रहा है उससे भाषाओं की विविधता बनी रहेगी या लुप्त हो जायेगी? इन प्रश्नों के उत्तर मेरे पास नहीं हैं लेकिन पिछले दो-तीन हज़ार वर्षों का इतिहास यही बताता है कि समय के साथ बदले बिना भाषा नहीं जी पाती। <br /></div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">***<br /></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-35068864727234817742024-03-05T16:49:00.011+01:002024-03-06T08:52:33.775+01:00१८५७ एवं भारत के लोकगीत<p>अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जब तक भारत के अधिकांश लोग अनपढ़ थे, तब तक लोकगीतों के माध्यम से ही धर्म और इतिहास की बातें जनसाधारण तक पहुँचती थीं। पिछले कुछ दशकों में, नई तकनीकी व नये संचार माध्यमों के साथ-साथ साक्षरता भी बढ़ी है, इसलिए लोकगीतों के महत्व में बदलाव आया है।</p><p>इस आलेख में उत्तरी भारत की लुप्त होती हुई लोक-गीत परम्परा की कुछ चर्चा है, विषेशकर १८५७ के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध हुए विद्रोह-युद्ध से जुड़े हुए लोकगीतों की बातें हैं।</p><p>यह आलेख राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध फिल्मकार <b><a href="http://www.kalpana.it/eng/film/arun/index.htm" target="_blank">अरुण चढ़्ढ़ा</a></b> की सन् १९९७ की फिल्म "<a href="http://www.kalpana.it/eng/film/arun/folksongs.htm" target="_blank"><b>१८५७ के लोकगीत</b></a>" पर आधारित है। अरुण ने इस फिल्म को भारत की स्वतंत्रता की पच्चासवीं वर्षगांठ के संदर्भ में बनाया था। इस फिल्म की अधिकतर शूटिन्ग राजस्थान, उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश के बुंदेलखंडी क्षेत्रों तथा बिहार में की गई थी और इसे दूरदर्शन पर दिखाया गया था। </p><p>इस फिल्म को बनाने में बुंदेलखंडी लोक संस्कृति के प्रसिद्ध इतिहासकार <b>डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त</b> (१९३१-२००३) और राजस्थानी लोगसंगीत के विशेषज्ञ <b>पद्मश्री कोमल कोठारी</b> (१९२९-२००४) ने विषेश योगदान दिया था - नीचे के इस पहले वीडियो में कोमल कोठारी जी फिल्म के महत्व के बारे में बताते हैं:</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen='allowfullscreen' webkitallowfullscreen='webkitallowfullscreen' mozallowfullscreen='mozallowfullscreen' width='320' height='266' src='https://www.blogger.com/video.g?token=AD6v5dxfhlYeK-KFBeYmgTlKtlsBO70EfiiTVnmNKk81WDvYgJR_wDSs8pJv4c4bgm-_ImuU5rgH0a-KOhASLzUYMQ' class='b-hbp-video b-uploaded' frameborder='0'></iframe></div><p style="text-align: center;"></p><p>यह लोकगीत खड़ी बोली, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, मगही, भोजपुरी, उर्दू तथा अन्य स्थानीय भाषाओं में गाये जाते थे। इस तरह की कुछ कविताएँ और १८५७ के लोकगीतों से सम्बंधित अन्य जानकारी, आप को डॉ. सुरेन्द्र सिंह पोखरण की वैबसाईट "<a href="http://www.kranti1857.org/poem_of_1857.php" target="_blank">क्रांति १८५७</a>", <a href="https://www.apnimaati.com/2022/11/blog-post_70.html" target="_blank">सुनील कुमार यादव का आलेख</a>, समालोचन पर <a href="https://www.apnimaati.com/2022/11/blog-post_70.html" target="_blank">मैनेजर पाण्डेय का आलेख</a>, <a href="https://www.deshbandhu.co.in/parishist/folk-song-song-of-freedom-struggle-71530-2" target="_blank">डॉ. महिपाल सिंह राठौड़ का आलेख</a>, आदि में भी मिल सकती है।</p><p>मेरा यह आलेख उपरोक्त आलेखों से थोड़ा सा भिन्न है क्योंकि इसमें आप अरुण चढ़्ढ़ा की फिल्म से ऐसे ही कुछ गीतों के अंशों को सुन भी सकते हैं और पुराने लोकगीतों की भाषा का अनुभव कर सकते हैं।</p><h3 style="text-align: left;">फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा से बातचीत</h3><p></p>नवम्बर २०२२ में मैंने यह फिल्म देखी और अरुण से इसके बारे में जानकारी पूछी थी (नीचे तस्वीर में २०१२ में भारत के उपराष्ट्रपति से फिल्मकार श्री अरुण चढ़्ढ़ा को राष्ट्र पुरस्कार)। <br /><p></p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgr7l_SArI_QZwNaReKQcrEMbEFmYSfTAxZSCtnugu2iQIfzJvCw3C6g6RetWKK_ZvxcuOVo8lPjxAEim4RVrnudRWxsdOgtuTJPxc58Ps-sa0-Di_J3xOJsPhXDaZo2zxODhPNplOJuSMj4Y8VVwyD3-Eb4Q4S9L4WMfdlVaCSFnuaNS1Yy-Dzw079Zmj_/s900/01.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="900" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgr7l_SArI_QZwNaReKQcrEMbEFmYSfTAxZSCtnugu2iQIfzJvCw3C6g6RetWKK_ZvxcuOVo8lPjxAEim4RVrnudRWxsdOgtuTJPxc58Ps-sa0-Di_J3xOJsPhXDaZo2zxODhPNplOJuSMj4Y8VVwyD3-Eb4Q4S9L4WMfdlVaCSFnuaNS1Yy-Dzw079Zmj_/w200-h200/01.jpg" width="200" /></a><b>अरुण चढ़्ढ़ा</b>: "<i>उत्तरी भारत में लोकगीत गाने की विभिन्न परम्पराएँ हैं, जिनमें १८५७ के समय पर गाये जाने वाले कुछ गीत आज से कुछ दशक पहले तक सुनने को मिल जाते थे। लेकिन तब भी गाँवों में रेडियो-टीवी-सिनेमा के आने से धीरे-धीरे लोकगायकी के मौके कम होने लगे थे और इनके गायक दूसरे काम खोजने लगे थे। मुझे लगा कि उनकी विभिन्न गायन शैलियों की जानकारी को सिनेमा के माध्यम से बचा कर रखना महत्वपूर्ण है। <br /></i></p><p><i>हमने एक बार खोज करनी शुरु की तो बहुत सी जानकारी मिली। जैसे कि बिहार में जगदीशपुर नाम की जगह पर राजा कुँवर सिंह थे, उनकी अंग्रेज़ों से लड़ाई के बारे में बहुत से गीत सुनने को मिले थे। हम लोग उनके गाँव में उनके परिवार के घर पर गये, वहाँ उनके पड़पोते ने अपने पूर्वज कुँवर सिंह की गाथा से जुड़े बहुत से गीतों को एक किताब में जमा किया था। </i></p><p><i>जैसा कि लोकगीतों में अक्सर होता है, यह कहना कठिन है कि इन लोकगीतों को कब लिखा गया और इन्हें किसने लिखा। अंग्रेज़ों को यह समझ नहीं आये कि इन गीतों में स्वतंत्रता तथा क्रांति की बाते हैं, उसके लिए भी तरीके खोजे गये, जैसे कि इन्हें फाग शैली में होली के समय गाना या बीच में "हर हर बम" जैसी पंक्ति जोड़ देना ताकि सुनने वाले को लगे कि यह शिव जी का भजन है।<br /></i></p><p><i>मेरी फिल्म में पाराम्परिक लोकगायकों तथा उनके पाराम्परिक वाद्यों को देखा जा सकता है, जोकि धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं, क्योंकि अब वाद्य बनाने वाले और बजाने वाले, दोनों के पास आजकल टीवी और सिनेमा आदि की वजह से काम कम है। दिल्ली हाट और सूरजकुंड मेला जैसी जगहों से उन्हें कुछ काम मिल जाता है लेकिन जब उनके लोक संगीत का आज के जीवित लोक-जीवन से सम्पर्क टूट जाता है, तब उनके पुराने गीतों के शब्द भी खोने लगते हैं, क्योंकि यह गीत मौखिक याद किये जाते हैं, किसी कॉपी-किताब में नहीं लिखे जाते।</i>"<br /></p><h3 style="text-align: left;">फिल्म में राजस्थान के लोकगीत <br /></h3><p>फिल्म का पहला भाग राजस्थान के लोकगीतों पर केन्द्रित है। इस भाग में राजस्थान के प्रसिद्ध लोकसंगीत विशेषज्ञ पद्मभूषण-सम्मानित, <b>श्री कोमल कोठारी</b> (१९२९-२००४) ने सूत्रधार के रूप में इन लोकगीतों का परिचय दिया था। शास्त्रीय संगीत की तरह लोकगीतों की गायकी के भी विशिष्ठ शैलियाँ होती हैं
और हर शैली के लिए सही लोक-गायक खोजना कठिन था, इस काम में श्री कमल कोठारी
का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था।</p><p>१८५७ में अंग्रेज़ों से विद्रोह करने वालों में राजस्थान के पाली जिले के <b>आउवा</b> गाँव के शासक <b>ठाकुर कुशाल सिंह</b> भी थे। उन्होंने सितम्बर १८५७ में दो बार अंग्रेज़ी फौज को हराया। जनवरी १८५८ में जब अंग्रेज़ों ने तीसरा हमला किया तब अपनी पराजय होती देख कर कुशाल सिंह अपने राज्य को अपने छोटे भाई को दे कर आउवा से चले गये। आउवा गाँव भिलवाड़ा और जोधपुर के बीच में पड़ता है। फिल्म में दिखाये गये आउवा के गीत की कुछ शूटिन्ग आउवा गाँव में ठाकुर कुशाल सिंह की हवेली में की गई थी। <br /></p><p>इस आउवा विद्रोह से जुड़े कई गीत अरुण की फिल्म के पहले भाग में मिलते हैं।
इसी क्षेत्र में १८०८ में अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक ठाकुर का एक अन्य
विद्रोह हो चुका था, कुछ गीतों में उस पहले विद्रोह का ज़िक्र भी है।</p><p>फिल्म में आउवा के बारे में एक फाग-गीत है जिसे लंगा घुम्मकड़ जाति के लोकगायकों ने लंगा शैली में गाया है (फाग केवल पुरुष गाते हैं लेकिन घुम्मकड़ जातियों में इन्हें औरतें भी गाती हैं।) यह गीत फरवरी-मार्च यानि फल्गुन के महीने में गाते हैं। नीचे के वीडियो में इस फिल्म से लंगा गायकी का छोटा सा नमूना प्रस्तुत है।</p><p style="text-align: center;"><iframe allowfullscreen='allowfullscreen' webkitallowfullscreen='webkitallowfullscreen' mozallowfullscreen='mozallowfullscreen' width='320' height='266' src='https://www.blogger.com/video.g?token=AD6v5dyRTdBi5tqmRcOACxIHoyBoCzA_s5IAxiSjklYeDM0qZ4qtWoEKrFA3klg-lp4AwtrjKjbsVzDl8TXf2b0gWA' class='b-hbp-video b-uploaded' frameborder='0'></iframe> <br /></p><p>राजस्थान की पड़-गायकी
में दो गायक बारी-बारी से प्रश्नोत्तर के अंदाज़ में गाते हैं और इनके
पराम्परिक वाद्य को रावणहत्था कहते हैं (यानि उनके अनुसार यह वाद्य रावण के कटे हुए हाथ
से बना है और रामायण काल से चला आ रहा है)। आजकल इस तरह के पाराम्परिक वाद्यों को बनाने तथा बजाने वाले
दोनों कठिनाई से मिलते है। नीचे के वीडियो में पड़-गायकी का छोटा सा नमूना जिसे घुम्मकड़ जाति के गायक गा रहे हैं, इस गीत में किसी अंग्रेज़ छावनी पर हमले की बात है। इस वीडियो में आप रावणहत्था वाद्य को भी सुन सकते हैं।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen='allowfullscreen' webkitallowfullscreen='webkitallowfullscreen' mozallowfullscreen='mozallowfullscreen' width='320' height='266' src='https://www.blogger.com/video.g?token=AD6v5dxFD7ebSmMJD_023HlyEGKFGkcj4xukBd1DBtF1z-q15dAs5s0FYFiQep-n9ApUI1LxgBXam0gbaWF7S3upNA' class='b-hbp-video b-uploaded' frameborder='0'></iframe></div><p style="text-align: center;"></p><p>१८५७ से जुड़े कुछ लोकगीत राजस्थान की पाराम्परिक डिन्गल तथा पिन्गल शैली में थे, जिन्हें बाँकेदास जी और सूर्य बनवाले जैसे चारण कवियों ने लिखा था और इस फिल्म में <a href="https://www.charans.org/shaktidan-kaviya/" target="_blank">डॉ. शक्तिदान कविया</a> ने गाया था। डिन्गल भाषा व गायन शैली पश्चिमी राजस्थान में प्रचलित थी जबकि पिन्गल शैली पूर्वी राजस्थान में थी। नीचे वीडियो में शक्तिदान कविया की <b>डिन्गल गायकी</b> का छोटा सा नमूना है।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen='allowfullscreen' webkitallowfullscreen='webkitallowfullscreen' mozallowfullscreen='mozallowfullscreen' width='320' height='266' src='https://www.blogger.com/video.g?token=AD6v5dzuMO9D5EpL7YVmqxJeTloWzOYtYaithfTurEQRPHPeMNYQTWWyi1YEWKkimBxOkNnVf8Qp3Dp1pPAnjdJOiQ' class='b-hbp-video b-uploaded' frameborder='0'></iframe></div><p style="text-align: center;"></p><p>ऐसी ही एक अन्य शैली भरतपुर क्षेत्र में भी प्रचलित थी जिसमें चारण कवियों द्वारा लिखे फगुवा गीत होली के मौके पर गाये जाते थे। इन सभी गीतों और गाथाओं में कविताएँ और दोहों का प्रयोग होता है।</p><h3 style="text-align: left;">बुंदेलखंड और बिहार के लोकगीत <br /></h3><p>अरुण की फिल्म का दूसरा भाग अधिकतर बुंदेलखंड तथा बिहार में केन्द्रित है। इन गीतों में एक प्रमुख नाम था कुँवर सिंह का। इस फिल्म का कुँवर सिंह से जुड़ा एक हिस्सा बिहार में उनके गाँव जगदीशपुर में उनके घर में भी शूट किया गया था, जहाँ आज उनके वंशज रहते हैं।</p><p>बुंदेलखंड वाला हिस्सा झाँसी, टीकमगढ़, छत्तरपुर, बाँदा आदि क्षेत्रों में था लेकिन कानपुर तक जाता था। टीकमगढ़ में इस फिल्म में प्रसिद्ध ध्रुपद गायिका पद्मश्री <b>असगरी बाई</b> (१९१८-२००६), जो अपने समय में ओरछा की राजगायिका रह चुकी थीं, ने भी हिस्सा लिया था। फिल्म में वह लेद शैली में गाती हैं, लेद शैली की खासियत थी कि इसे शास्त्रीय तथा लोकगीत दोनों तरीकों से गा सकते हैं, जिसे वह जानती थीं। नीचे वाले वीडियो में इस फिल्म से सुश्री असगरी बाई की गायकी का छोटा सा नमूना।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen='allowfullscreen' webkitallowfullscreen='webkitallowfullscreen' mozallowfullscreen='mozallowfullscreen' width='320' height='266' src='https://www.blogger.com/video.g?token=AD6v5dzn95hwZDpP-ADW3JB4X9bj7nZsHHFkZUBx6GF5dysup9WIcaqTgjtYNXUcAwkqnLZnF0N1EyCzNbxui4BT9Q' class='b-hbp-video b-uploaded' frameborder='0'></iframe></div><p style="text-align: center;"></p><p>इन लोकगीतों में १९४२ के बुंदेला विद्रोह से ले कर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानियाँ थीं।</p><p>मराठा राज्य के बाद जब बुंदेलखंड पर अंग्रेज़ों का राज हुआ तो उन्होंने राजस्व कर को बढ़ा दिया। १९३६ के बुढ़वा मंगल मेले में विद्रोह की बात शुरु हुई जिसमें जैतपुर के राजा परिछत (पारिछित या परीक्षित) द्वारा सागर की अंग्रेज़ छावनी पर हमला करने का निर्णय लिया गया था, जिसे बुंदेला विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इन लोकगीतों में उसी छावनी पर हमले की बात की गई है।</p><p>इन गीतों में हरबोलों द्वारा गाया राजा परिछित द्वारा छावनी पर हमले के गीत भी हैं जिनमें हर पंक्ति के बाद "हर हर बम" जोड दिया जाता है। बुंदेलखंड में लोकगीत गायकों ने यह "हर हर बम" जोड़ने का तरीका अपनाया था
जिसकी वजह से लोग उन्हें "बुंदेली हरबोले" के नाम से जानने लगे थे। सुभद्रा
कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता "<i>बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी
थी</i>", इन्हीं लोकगायकों की बात करती थी।</p><p>राजा परिछित की कहानी पर अरुण की फिल्म में एक गीत राजस्थानी पड़-गायकी से मिलती-जुलती बुंदेलखंड की सैर-गायकी शैली में भी है जिसमें दो लोग मिल कर गाते हैं। इस लोकगीत के लिए गायकों की खोज बहुत कठिन थी क्योंकि काम न होने से वे गायक अन्य कामों में लग गये थे। आखिरकार, एक गाँव से एक रंगरेज मिले थे, जिनके परिवार में यह गायकी होती थी जिसे वह भूले नहीं थे और वह इसे गाने के लिए तैयार हो गये थे। आज सैर-गायकी के गायक खोजना और भी कठिन होगा।<br /></p><p>फिल्म में मूंज, लेघ, आदि शैलियों में भी लोकगीत हैं, शायद स्थानीय लोग इनकी बारीकियों को समझ सकते हैं। जैसे कि एक गीत में मसोबा की आल्हा शैली में रानी लक्ष्मीबाई के बारे में गाया गया है। </p><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3><p>अरुण की इस फिल्म के दोनों भागों में उत्तर भारत की लोकगीत-शैलियों के इतने सारे नमूने मिलते हैं कि उनकी विविधता पर अचरज होता है, लेकिन सोचूँ तो लगता है कि यह फिल्म भारत के कुछ छोटे से हिस्सों की परम्पराओं को ही दिखाती हैं, बाकी भारत में जाने कितनी अन्य शैलियाँ थीं, जो लुप्त हो गईं या लुप्त हो रहीं होंगी। शायद <a href="https://www.sahapedia.org/" target="_blank">सहपीडिया</a> जैसी कोई संस्थाएँ हमारी इस सांस्कृतिक धरोहर को भविष्य के लिए संभाल कर रख रही हों, लेकिन वह संभाल भी संग्रहालय जैसी होगी, वे जीते-जागते लोक-जीवन और लोक-संस्कृति का हिस्सा नहीं होगीं।</p><p>नीचे के आखिरी वीडियो में कुँवर सिंह के बारे में एक भोजपुरी गीत का छोटा सा अंश है, जो मुझे बहुत अच्छा लगता है।</p><p style="text-align: center;"></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen='allowfullscreen' webkitallowfullscreen='webkitallowfullscreen' mozallowfullscreen='mozallowfullscreen' width='320' height='266' src='https://www.blogger.com/video.g?token=AD6v5dye2YYsMgw550-SEG1loZC5dIvkTSRA7mjq3eXSwsLYjtUnmfJ49qpYijFhlsZwWXSpU0mpKNo4p1_pTPl48A' class='b-hbp-video b-uploaded' frameborder='0'></iframe></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><p></p><p>आज इंटरनेट पर नर्मदा प्रसाद गुप्त, कोमल कोठारी, शक्तिदान कविया, असगरी बाई जैसे लोगों की कोई रिकोर्डिन्ग नहीं उपलब्ध, कम से कम उस दृष्टि से अरुण की फिल्म में उनका कुछ परिचय मिलता है। मेरे विचार में ऐसी फिल्मों में भारत की सांस्कृतिक धरोहर का इतिहास है इसलिए दूरदर्शन को ऐसी फिल्मों को इंटरनेट पर उपलब्ध करना चाहिये।</p><p>*** </p><p></p><p>#video #documentaryfilm #arunchadha #folksongsof1857 #india #folksongs <br /></p>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-16192173161078454192024-02-20T07:17:00.003+01:002024-02-20T11:17:25.972+01:00पति, पत्नी और वह<p> पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया। <br /><br />***** <br /><br />सुबह नींद खुली तो बाहर अभी भी अंधेरा था। कुछ देर तक फोन पर इमेल, फेसबुक, आदि चैक किये, फ़िर सोचा कि उठ कर कॉफी बना लूँ। नीचे आ रहा था कि सीढ़ी पर पाँव ठीक से नहीं रखा, गिर ही जाता पर समय पर हाथ बढ़ा कर दीवार से सहारा ले लिया, इसलिए गिरा नहीं केवल पैर थोड़ा सा मुड़ गया।</p><p>मेरे मुँह से "हाय राम" निकला तो वह बोली, “देख कर चलो, ध्यान दिया करो।" <br /><br />“ठीक है, सुबह-सुबह उपदेश मत दो", मैंने उत्तर दिया। <br /><br />“एक दिन ऐसे ही हड्डी टूट जायेगी, फ़िर मेरे उपदेशों को याद करना", उसने चिढ़ कर कहा। <br /><br />कॉफी पी कर कमप्यूटर पर बैठा तो समय का पता ही नहीं चला। साढ़े आठ बज रहे थे, उसने कहा, “आज सारा दिन यहीं बैठे रहोगे क्या? नहाना-धोना नहीं है?” <br /><br />“उठता हूँ, बस यह वीडियो पूरा देख लूँ।" <br /><br />“यह वीडियो कहीं जा रहा है? इसे पॉज़ कर दो, पहले नहा लो, फ़िर बाकी का देख लेना।" <br /><br />“अच्छा, अच्छा, अभी थोड़ी देर में जाता हूँ, तुम जिस बात के पीछे पड़ जाती हो तो उसे छोड़ती नहीं", मुझे भी गुस्सा आ गया। <br /><br />“नहाने के बाद तुम्हें दूध और सब्ज़ी लेने भी जाना है", वह मुस्करा कर बोली। <br /><br />वह बहुत ज़िद्दी है, जब तक अपनी बात नहीं मनवा लेती, चुप नहीं होती, इसलिए अंत में मुझे उठना ही पड़ा। नहा कर निकला ही था कि बन्नू का फोन आ गया। <br /><br />बोला, “दोपहर को मिल सकता है? गर्मी बहुत हो रही है, कहीं बियर पीने चलते हैं, फ़िर बाहर खाना खा लेंगे।" <br /><br />मैंने कहा, “नहीं यार, सच में गर्मी बहुत है, दोपहर को बाहर निकलने का मन नहीं कर रहा। शाम को मिलते हैं।" <br /><br />उसने कहा, “सारा दिन घर पर अकेले बोर हो रहा हूँ, चल न, कहीं गपशप मारेंगे।" <br /><br />मैं हँसा, बोला, “एक नयी एप्प आई है, जीवनसाथी एप्प, अपने फोन पर डाऊनलोड कर ले, सारा अकेलापन दूर हो जायेगा।" <br /><br />फोन रखा तो वह बोली, “अपने दोस्त से मेरी इतनी तारीफें कर रहे थे, अब एप्प रिवयू में मुझे पाँच स्टार देना, समझे?”</p><p> *** <br /></p><p><style type="text/css">p { line-height: 115%; margin-bottom: 0.25cm; background: transparent }</style></p>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-88191822970696118802023-09-21T11:41:00.001+02:002024-02-22T07:59:22.777+01:00रहस्यमयी एत्रुस्की सभ्यता<p>ईसा से करीब आठ सौ वर्ष पहले, इटली के मध्य भाग में, रोम के उत्तर-पश्चिम में, बाहर कहीं से आ कर एक भिन्न सभ्यता के लोग वहाँ बस गये जिन्हें एत्रुस्की (Etruscans) के नाम से जाना जाता है। इनकी सभ्यता से जुड़ी बहुत सी बातें, जैसे कि इनकी भाषा, अभी तक पूरी नहीं समझीं गयी हैं। </p><p>उस समय दक्षिण इटली में ग्रीस से आये यवनों का राज था। एत्रुस्की भी लिखने के लिए यवनी वर्णमाला का प्रयोग करते थे, लेकिन उनकी भाषा, धर्म, आदि बाकी यवनों तथा इटली वालों से भिन्न थे। ईसा से करीब सौ/डेढ़ सौ साल पहले जब रोमन सम्राज्य का उदय हुआ तो एत्रुस्की उनसे युद्ध हार गये और धीरे-धीरे उनकी सभ्यता रोमन सभ्यता में घुलमिल कर लुप्त हो गयी। <br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkp0gHYdavL6XaPCiqAe7HQri3u-OPJ41RFjnT4e4sX-w1sLW4dhotfpbLPjWK7Wr0gp6cuyW9fYwiMI6Yt03Qwp3SjmW7FquGxd-vccJIrTNAdBB6OsM9NeyJzscQuyDqwK46eSp6vBXhFcmYD2ysrbDphXl8dVvyWwsH84l37tHpqg4tbwQcbFlkQD7p/s620/.xdp-07-1.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak" border="0" data-original-height="490" data-original-width="620" height="316" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkp0gHYdavL6XaPCiqAe7HQri3u-OPJ41RFjnT4e4sX-w1sLW4dhotfpbLPjWK7Wr0gp6cuyW9fYwiMI6Yt03Qwp3SjmW7FquGxd-vccJIrTNAdBB6OsM9NeyJzscQuyDqwK46eSp6vBXhFcmYD2ysrbDphXl8dVvyWwsH84l37tHpqg4tbwQcbFlkQD7p/w400-h316/.xdp-07-1.jpg" width="400" /></a></div><p style="text-align: left;">एत्रुस्कियों के इटली में बारह राज्य थे, हर एक का अपना शासक था, लेकिन वह सारे एक ही धर्मगुरु के अधिपत्य को स्वीकारते थे। ईसा से चार-पाँच सौ वर्ष पूर्व उनका एक राज्य बोलोनिया शहर के पास भी था, जहाँ एक बार मुझे उनके शहर के पुरातत्व अवषेशों को देखने का मौका मिला। इस आलेख में उन्हीं प्राचीन भग्नावशेषों का परिचय है।</p><h3 style="text-align: left;">पुरातत्व में रुचि</h3><p>मुझे इतिहास और पुरातत्व के विषयों में बहुत रुचि है। मेरे विचार में जन सामान्य में इतिहास तथा पुरातत्व के बारे में चेतना जगाने में संग्रहालयों का विषेश योगदान होता है। जितना मैंने देखा है, भारत में कुछ संग्रहालयों को छोड़ कर, अधिकांश में हमारी प्राचीन सांस्कृतिक धरौहर का न तो सही तरीके से संरक्षण व प्रदर्शन होता है और न ही उनके बारे में अच्छी जानकारी आसानी से मिलती है। अक्सर, धूल वाले शीशों के पीछे वस्तुएँ बिना विषेश जानकारी के रखी रहती हैं और वहाँ पर तस्वीर नहीं खींचने देते। शायद इसीलिए जन समान्य को इस विषय में कम रुचि लगती है।</p><p>सेवा-निवृत होने के बाद, पिछले कुछ वर्षों में, मैं इतिहास और पुरातत्व के बारे में पढ़ता रहता हूँ। मुझे लगता है कि भारतीय इतिहास और पुरातत्व के क्षेत्रों में अभी तक बहुत कम काम किया गया है और बहुत कुछ खोजना तथा समझना बाकी हैं।</p><p>खैर, अब चलते हैं उत्तरी-मध्य इटली के बोलोनिया (Bologna - इतालवी भाषा में g और n मिलने से 'इ' की ध्वनि बनती है) शहर के पास मार्ज़ाबोत्तो (Marzabotto) में मिले आज से करीब २६०० साल पुराने एत्रुस्की शहर के भग्नावषेशों की ओर। </p><h3 style="text-align: left;">मार्ज़ाबोत्तो के एत्रुस्की भग्नावषेश</h3><p>युरोप की बहुत सी प्राचीन सभ्यताओं में शहर तीन स्तरों पर बंटे होते हैं - (१) एक ऊँचा शहर, जो किसी पहाड़ी या ऊँचे स्थल पर बना होता है, इन्हें एक्रोपोली (ग्रीक भाषा में 'एक्रो' यानि ऊँचा और 'पोलिस' यानि शहर) जहाँ पर बड़े मन्दिर या राजभवन या किले या अमीर लोगों के घर होते हैं; (२) पोली यानि एक मध्य शहर, जो एक्रोपोली के पास में लेकिन थोड़ा सा नीचे होता है, जहाँ आम जनता रहती है; और (३) एक निचला शहर होता है जो सबसे नीचे होता है और जिसे नेक्रोपोली ('नेक्रो' यानि मृत) कहते हैं जहाँ पर कब्रें होती हैं।</p><p>मार्ज़ाबोत्तो के एत्रुस्की शहर के भग्नावषेशों में यह तीनों स्तर दिखते हैं। नीचे की तस्वीर में वहाँ के लोगों के घरों और भवनों की दीवारों और उनके बीच बनी गलियों या सड़कों के अवशेष देख सकते हैं जिनसे उनके जीवन के बारे में जानकारी मिलती है। यह सभी भवन छोटे पत्थरों से बने थे जिन्हें माल्टे से जोड़ते थे। उनकी सबसे चौड़ी सड़क पंद्रह मीटर चौड़ी थी, उसे देख कर मुझे लगा कि उस पर घोड़े या बैल के रथ और गाड़ियाँ आराम से चल सकती थीं।<br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhs4s-pE0WhwJu-C1d7Mt75c7rkR278Wq-vM9-p6ubqPyChqAWrhg9oscgzx1kQbV4VAZovybFCa0P5II5qClrdBoxRlkupwbWAF72tXm1BjyrG1zauhbAAYrJXmbwXiy63upzvSUZlaSBKUiTUpBMq5gIuDGQhR3SU2eTneRppHeq76xO3k95moh50LPm2/s620/.xdp-01-1.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak" border="0" data-original-height="490" data-original-width="620" height="316" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhs4s-pE0WhwJu-C1d7Mt75c7rkR278Wq-vM9-p6ubqPyChqAWrhg9oscgzx1kQbV4VAZovybFCa0P5II5qClrdBoxRlkupwbWAF72tXm1BjyrG1zauhbAAYrJXmbwXiy63upzvSUZlaSBKUiTUpBMq5gIuDGQhR3SU2eTneRppHeq76xO3k95moh50LPm2/w400-h316/.xdp-01-1.jpg" width="400" /></a></div><p style="text-align: left;">यहाँ के भग्नवशेषों में पुरात्तवविद्यों ने तिनिआ (Tinia) नाम के एक देवता के मन्दिर को खोजा है, यह प्राचीन ग्रीक के देवताओं की कहानियों के राजा ज़ेउस (Zeus) जैसे थे। "तिनिआ" शब्द का अर्थ 'दिन' या 'सूर्य' भी था, इसलिए शायद इसे सूर्य पूजा की तरह भी देखा जा सकता है। यहाँ एक मन्दिर वाले हिस्से की खुदाई अभी चल रही है, जहाँ पर बीच में एक तालाब या कूँआ जैसा दिखता है।</p><p>इस क्षेत्र के दक्षिणी-पूर्व के हिस्से में कुछ नीचे जा कर वहाँ पर एत्रुस्की नेक्रोपोलिस यानि कब्रिस्तान के कुछ हिस्से दिखते हैं। इन भग्नावशेषों में सोने के गहने, कमर में बाँधने वाली पेटियाँ, कानों की बालियाँ, आदि मिली हैं जो कि बोलोनिया शहर के पुरातत्व संग्रहालय में रखी हैं। यहाँ पर पत्थरों की बनी चकौराकार छोटी कब्रें मिलती हैं जिनमें से कुछ के ऊपर बूँद या अंडे जैसे आकार के तराशे हुए पत्थर टिके हुए दिखते हैं। शायद यह तराशे पत्थर सभी कब्रों पर लगाये जाते थे और समय के साथ कुछ कब्रों से नष्ट हो गये या शायद, उन्हें किन्हीं विषेश व्यक्तियों की कब्रों के लिए बनाया जाता था, जैसा कि आप नीचे की तस्वीर में देख सकते हैं।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2gPQ282Uj6qPwP-vQiC_8W8StPa7qXNegW7d-xvz9lS_3AKuR4HtF5pVJZ1JJvY4wplaDgeN8V3s4dZ54j25j6fhnM4ezdycFPT6Ic0P_oESvpSN7xCnwoScgvawCQJw7Bm9td_jDMHFWiY9l1cxHhcr_xbOlD9uI9zcMKuzrPMUTRkeHLXjEPV0Fz3zb/s620/.xdp-06-1.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak" border="0" data-original-height="490" data-original-width="620" height="316" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2gPQ282Uj6qPwP-vQiC_8W8StPa7qXNegW7d-xvz9lS_3AKuR4HtF5pVJZ1JJvY4wplaDgeN8V3s4dZ54j25j6fhnM4ezdycFPT6Ic0P_oESvpSN7xCnwoScgvawCQJw7Bm9td_jDMHFWiY9l1cxHhcr_xbOlD9uI9zcMKuzrPMUTRkeHLXjEPV0Fz3zb/w400-h316/.xdp-06-1.jpg" width="400" /></a></div><h3 style="text-align: left;">एत्रुस्कों की भाषा</h3><p>एत्रुस्कों की वर्णमाला यवनी/ग्रीक वर्णमाला जैसी थी लेकिन उनकी भाषा यवनी नहीं थी। इनकी भाषा को यवनी से पुराना माना जाता है, और उसे प्रोटो-इंडोयुरोपी भाषा भी कहा गया है। पुरातत्वविद्य कहते हैं कि यह लोग यवनभूमि के आसपास के किसी द्वीप के निवासी थे।</p><p>मुझे एत्रुस्कों के कुछ शब्दों में संस्कृत का प्रभाव लगा। जैसे कि 'ईश' को वह लोग 'एइसना' कहते थे, 'यहाँ' को 'इका', 'वहाँ' को 'इता', आदि। उनकी भाषा में 'सूर्य' का एक नाम 'उशिल' भी था, जिसमें मुझे 'उषा' की प्रतिध्वनि सुनाई दी। लेकिन उनके अधिकांश शब्दों में संस्कृत का प्रभाव नहीं है। <br /></p><h3 style="text-align: left;">एत्रुस्की संग्रहालय</h3><p>भग्नावशेषों के पास में ही मार्ज़ाबोत्तो में मिली एत्रिस्की वस्तुओं का संग्रहालय भी है। वहाँ उनके मिट्टी के बने तोलने वाले छोटे बट्टे दिखे (नीचे तस्वीर में).</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAE8rPe41Nrx_XcrWL5uZrSe_fxujlTNJ0UeE1qoBkpN7OjbqC4bfy-oju9o_s-wHVfnnYIyv9VaYeK6hLtHcJL5TRwGfGExLiNBi3jebTP4MVF87SQnQf8YJMexE03FMopxCvrpvOYvFyN--sShlIbrF6ejKWVow1uWiQBzA_ylmgVKA3tDuyhc3CA8CU/s620/.xdp-02-2.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak" border="0" data-original-height="490" data-original-width="620" height="316" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAE8rPe41Nrx_XcrWL5uZrSe_fxujlTNJ0UeE1qoBkpN7OjbqC4bfy-oju9o_s-wHVfnnYIyv9VaYeK6hLtHcJL5TRwGfGExLiNBi3jebTP4MVF87SQnQf8YJMexE03FMopxCvrpvOYvFyN--sShlIbrF6ejKWVow1uWiQBzA_ylmgVKA3tDuyhc3CA8CU/w400-h316/.xdp-02-2.jpg" width="400" /></a></div><p style="text-align: left;">उनकी एक पूजा की थाली लिये हुए स्त्री की मूर्ति मुझे सुन्दर लगी।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh9_M3cFyizYdLKxOdvkTujIiaXzSTWtC1tHGVInrwxGZU0JjRVoL3wHCJLZbL-9C7_IcRQD-0-_h17n3Q_Gd9YgoD_Ts-IfcL-J2a-bjcFstIL3U-eWSNpnpT2Ae2XK8-rv1KI94UCzOPqPLlysxZOcrFnA2SY0E_kmK03eGktjSyBqaSWRUSc7NDsrXJF/s620/.xdp-03-2.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak" border="0" data-original-height="490" data-original-width="620" height="316" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh9_M3cFyizYdLKxOdvkTujIiaXzSTWtC1tHGVInrwxGZU0JjRVoL3wHCJLZbL-9C7_IcRQD-0-_h17n3Q_Gd9YgoD_Ts-IfcL-J2a-bjcFstIL3U-eWSNpnpT2Ae2XK8-rv1KI94UCzOPqPLlysxZOcrFnA2SY0E_kmK03eGktjSyBqaSWRUSc7NDsrXJF/w400-h316/.xdp-03-2.jpg" width="400" /></a></div><p style="text-align: left;">नीचेवाली, संग्रहालय की तीसरी तस्वीर में एत्रुस्की स्त्रियों के वस्त्रों को दिखाया गया है।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhUPm-f17NXOSU3e5ljMYJ2mKV-aJul-1pmPu1H3Yznf92IEqmQrNdatU1UxeSRkMLsWGllSvRATB2axMRbro5LEqnZ7wkq63ksiZt3hmKEm41megvnn0nazuQA8fCQ-F2FQOQY6Bpc29_9H4SMc7d_ZIbVHNgSOqngBJIB57lNqEYlU41UndWMixooOvNO/s620/.xdp-04-2.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak" border="0" data-original-height="490" data-original-width="620" height="316" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhUPm-f17NXOSU3e5ljMYJ2mKV-aJul-1pmPu1H3Yznf92IEqmQrNdatU1UxeSRkMLsWGllSvRATB2axMRbro5LEqnZ7wkq63ksiZt3hmKEm41megvnn0nazuQA8fCQ-F2FQOQY6Bpc29_9H4SMc7d_ZIbVHNgSOqngBJIB57lNqEYlU41UndWMixooOvNO/w400-h316/.xdp-04-2.jpg" width="400" /></a></div><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3><p>जब तक भाप के जहाज़, रेलगाड़ियाँ, मोटरगाड़ियाँ आदि नहीं थीं, एक जगह से दूसरी जगह जाना कठिन होता था। जिस रास्ते को आज हम साईकल से एक-दो घंटों में पूरा कर लेते हैं, कभी उसे पैदल चलने में पाँच-छह घंटे लग जाते थे। पहाड़ी घाटियों और द्वीपों में यह रास्ते पार करना और भी कठिन होता था। तब हर दस किलोमीटर पर, हर शहर, हर घाटी, हर द्वीप में, लोगों की भाषा, उनके खानपान का तरीका, आदि बदल जाते थे। एत्रुस्की सभ्यता ऐसे ही समय का नतीजा थी, यह एक द्वीप के लोगों की सभ्यता थी, जिसे ले कर वहाँ के निवासी दूर देश की यात्रा पर निकले और उन्हें उत्तरी-मध्य इटली में नया घर मिला।</p><p>घोड़े से मानव को इतिहास का पहला तेज़ वाहन मिला और दुनिया सिकुड़ने लगी। आज की दुनिया में तकनीकी विकास के सामने दूरियाँ और भी कम हो रहीं हैं और फिल्म-टीवी-इंटरनेट-मोबाइल आदि के असर से हमारी भाषाएँ, संस्कृतियों की भिन्नताएँ आदि धीरे-धीरे लुप्त हो रहीं हैं।</p><p>मानव समाजों का इतिहास क्या था, कैसे दुनिया के विभिन्न भागों में अलग-अलग सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ विकसित हुईं, भविष्य के लिए इसकी याद को सम्भाल कर रखने के लिए, हम सभी को प्रयत्न करना चाहिये। आप चाहे जहाँ भी रहते हो, चाहे वह छोटा शहर हो या कोई गाँव, यह बदलाव का तूफान एक दिन आप की दुनिया को भी बदल देगा। आप कोशिश करो कि बदलाव से पहले वाली दुनिया की जानकारी को, उसकी सांस्कृतिक धरौहर की यादों को सम्भाल कर संजो रखो।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5iSxGIO_G2cZKyDC2C9iivApj4UCPcSAgsmt5c2YAoL2BEQpnyDefXCgn-FT1_vhZMR0w1mmHA9-BiaYicFrMs3VwihSqRPfVsi0oshEgcdNeiGTqLZvHsrWgpzBdzN2NoDCFK7EkH3K1evBCpQQhsOL2bwtgmrxCv3ZXZFcHsnK5Aul87YrA9xoecpqY/s620/.xdp-05-1.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak" border="0" data-original-height="490" data-original-width="620" height="316" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5iSxGIO_G2cZKyDC2C9iivApj4UCPcSAgsmt5c2YAoL2BEQpnyDefXCgn-FT1_vhZMR0w1mmHA9-BiaYicFrMs3VwihSqRPfVsi0oshEgcdNeiGTqLZvHsrWgpzBdzN2NoDCFK7EkH3K1evBCpQQhsOL2bwtgmrxCv3ZXZFcHsnK5Aul87YrA9xoecpqY/w400-h316/.xdp-05-1.jpg" width="400" /></a></div><p>******</p><p>अगर आप ने यह आलेख पूरा पढ़ा और आप को अच्छा लगा, तो यहाँ पर या मेरे फेसबुक पृष्ठ पर इसके बारे में अपनी राय अवश्य दें। अपने पाठकों से बातें करना मुझे बहुत प्रिय है।<br /></p><p style="text-align: center;"><br /></p><p> <br /></p>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-13848526483600849892023-08-29T10:38:00.008+02:002024-02-22T07:59:46.519+01:00"आदिपुरुष" की राम कथा<p>कुछ सप्ताह पहले आयी फ़िल्म "आदिपुरुष" का जन्म शायद किसी अशुभ महूर्त में हुआ था। जैसे ही उसका ट्रेलर निकला, उसके विरुद्ध हंगामे होने लगे। कुछ मित्रों ने देख कर फ़िल्म के बारे में कहा कि वह तीन घंटों की एक असहनीय यातना थी, जिसकी जितनी बुराईयाँ की जायें, वह कम होंगी। जब फ़िल्म के बारे में इतनी बुराईयाँ सुनी तो मन में उसे देखने की इच्छा का जागना स्वाभाविक था, कि मैं भी देखूँ और फ़िर उसकी बुराईयाँ करूँ। चूँकि फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर है तो उसे देखने का मौका भी मिल गया।<br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5ECgzL-Gi9LfJKJKlnvZR7iWz1Buf-UcXga463CL6cRyA73kPHC_stxSbTP_oMz-zEkdhetDEYqt0qHt-OesW0_clIROyfVTpqyDfD1Nc7MWbzq2609eGrYYUCAfiCPs0FyHDheU9AL67ZgnNF9lsAoK729tJfcmPCyPvkZrIDR0kPHyGPJIEAtbZA-Er/s640/aadipurush.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="360" data-original-width="640" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5ECgzL-Gi9LfJKJKlnvZR7iWz1Buf-UcXga463CL6cRyA73kPHC_stxSbTP_oMz-zEkdhetDEYqt0qHt-OesW0_clIROyfVTpqyDfD1Nc7MWbzq2609eGrYYUCAfiCPs0FyHDheU9AL67ZgnNF9lsAoK729tJfcmPCyPvkZrIDR0kPHyGPJIEAtbZA-Er/w400-h225/aadipurush.jpeg" width="400" /></a></div><p style="text-align: left;">जैसा कि अक्सर होता है, जब किसी फ़िल्म की बहुत बुराईयाँ सुनी हों और उसे देखने का मौका मिले तो लगता है कि वह इतनी भी बुरी नहीं थी। "आदिपुरुष" देख कर मुझे भी ऐसा ही लगा, बल्कि लगा कि उसके कुछ हिस्से और बातें अच्छी थीं।</p><h3 style="text-align: left;">फ़िल्म की जो बातें मुझे नहीं जंचीं <br /></h3><p>लेकिन इस आलेख की शुरुआत उन बातों से करनी चाहिये जो मुझे भी अच्छी नहीं लगी। उनमें सबसे पहली बात है कई जगहों पर कम्प्यूटर ग्राफिक्स का प्रयोग अच्छा नहीं है। जैसे कि मुझे कम्प्यूटर ग्राफिक्स से बने दोनों पक्षी, यानि रावण का वहशी वाहन और जटायू, यह दोनों और उनकी लड़ाई वाले हिस्से अच्छे नहीं लगे। इसी तरह से बनी वानर सैना भी मुझे अच्छी नहीं लगी। फ़िल्म के जिन हिस्सों में यह सब थे, मुझे लगा कि वह कमज़ोर थे, क्योंकि उनमें अत्याधिक नाटकीयता थी जिसकी वजह से उन दृष्यों से भावनात्मक जुड़ाव नहीं बनता था।</p><p>लेकिन इन हिस्सों के अतिरिक्त कुछ अन्य हिस्से थे, जहाँ के कम्प्यूटर ग्राफिक्स मुझे अच्छे लगे, हालाँकि मेरे विचार में फ़िल्म में कपिदेश तथा लंका वाले हिस्सों में श्याम और गहरे नीले रंगों को इतनी प्रधानता नहीं देनी चाहिये थी। शायद फ़िल्म के यह काले-गहरे नीले रंगों वाले हिस्से हॉलीवुड की चमगादड़-पुरुष यानि बैटमैन की फ़िल्मों से कुछ अधिक ही प्रभावित थे। इसी तरह से फ़िल्म के अंत में रावण के शिव मंदिर से बाहर निकलने वाले दृश्य में हज़ारों चमगादड़ जैसे जीवों का निकलना भी उसी प्रभाव का नतीज़ा था।</p><p>भारतीय कथा-कहानियों के कल्पना जगत, उनके भगवान और उनके लीलास्थल, रोशनी और रंगों से भरे हुए होते हैं, जैसा कि हमारे मंदिरों की मूर्तियों, रामलीलाओं, नाटकों और नृत्यों में होता है। बजाय "बैटमैन" से प्रेरणा लेने के, अगर फ़िल्म "अवतार" जैसे प्रज्जवलित रंगो वाले संसार की सृष्टि की जाती तो वह बेहतर होता (फ़िल्म में जंगल के ऐसे कुछ हिस्से हैं, लेकिन थोड़े से हैं).</p><p>फ़िल्म में "सोने की लंका" को काले पत्थर की लंका बना दिया गया है, जो मेरी कल्पना वाली लंका से बिल्कुल उलटी थी।</p><p>लंका की अशोक वाटिका, जहाँ जानकी कैद होती हैं, को इस फ़िल्म में जापानी हानामी फैस्टिवल जैसा बनाया गया है जिसमें काले पत्थरों के बीच में गुलाबी चैरी के फ़ूलों से भरे पेड़ लगे हैं जो देखने में बहुत सुन्दर लगते हैं। हालाँकि यह भी मेरी कल्पना की अशोक वाटिका से भिन्न थी, लेकिन यह मुझे अच्छी लगी, क्योंकि मुझे लगा कि इन दृश्यों में वे काले पत्थर जानकी की मानसिक दशा को अभिव्यक्त करते थे। फ़िल्म के अभिनेताओं में मुझे जानकी का भाग निभाने वाली अभिनेत्री सबसे अच्छी लगीं।<br /></p><h3 style="text-align: left;">हनुमान, सुग्रीव तथा वानर सैना</h3><p>जब फ़िल्म का ट्रेलर आया था तो लोग उसमें हनुमान जी के स्वरूप को देख कर बहुत क्रोधित हुए थे। फ़िल्म में हनुमान जी को देख कर मुझे भी शुरु में कुछ अजीब सा लगा लेकिन फ़िर मुझे वह अच्छे लगे। लोग उनके डायलोग सुन कर भी खुश नहीं थे, जबकि मुझे लगा कि इस तरह से फ़िल्म में हनुमान जी की वानर बुद्धि दिखाई गयी है। यानि इसके हनुमान जी सीधी-साधी सोच वाले, कुछ-कुछ गंवार से हैं, लेकिन राम-भक्ती से भरे हैं। वह ऐसे जीव हैं जिन्हें ऊँची जटिल बातों और कठिन पहेलियों के उत्तर नहीं आते, लेकिन वह हर बात को अपनी राम-भक्ति के चश्में से देख कर उनका सहज उत्तर खोज लेते हैं। मुझे उनका यह गैर-बुद्धिजीवि रूप अच्छा लगा।<br /></p><p>फ़िल्म में वानरों और कपि-पुरुषों को भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाया गया है। जैसे कि अगर हनुमान जी की त्वचा मानवीय लगती है तो बाली और सुग्रीव की गोरिल्ला जैसी। साथ में वानर भी विभिन्न प्रकार के हैं। मेरी समझ में फ़िल्म में इस तरह से वानर सैना और कपिराजों को आदिकालीन प्राचीन मानव की विभिन्न नसलों की तरह बनाया गया है।</p><p>मैंने बचपन से रामपाठ और रामलीलाएँ देखी हैं, उनमें सामान्य लोकजन के लिए हँसी-मज़ाक भी होता है और नर्तकियों के झटकेदार नृत्य भी होते हैं, जबकि कुछ लोग जो फ़िल्म की बुराई कर रहे थे,उन्हें इन सब बातों से आपत्ति थी। रामकथा को धर्म और श्रद्धा से सुनने का अर्थ यह बन गया है कि उसमें से लोकप्रिय हँसी-मजाक और ठुमके वाले गीत-नृत्यों आदि को निकाल दिया जाये। मेरी दृष्टि में यह गलती है। यह सच है कि अन्य धर्मों के पूजा स्थलों पर चुपचाप रहना और गम्भीर चेहरा बनाना होता है, वहाँ पर हँसी-मज़ाक की जगह नहीं होती, लेकिन मैंने मन्दिरों में, तीर्थ स्थलों आदि में आम जनता को कभी चुपचाप नहीं देखा, फ़िल्मी धुनों पर भजन और गीत गाना, हँसी-मज़ाक करना, अड़ोसियों-पड़ोसियों की आलोचना करना, मन्दिरों में और तीर्थस्थलों पर यह सब कुछ आनंद से होता है। अन्य धर्मों की देखा-देखी, हिन्दू धर्म की खिलंदड़ता और आनंद को दायरों में बाँधना, कहना कि ऐसा न करो, वैसा न करो, मुझे गलत लगता है।</p><h3 style="text-align: left;">रामकथा की नयी परिकल्पना</h3><p>रामायण की कथा को अनेकों बार विभिन्न रूपों में परिकल्पित किया गया है। इन सब परिकल्पनाओं में तुलसीदास जी की रामचरित मानस का विशिष्ठ स्थान है। लेकिन यह कहना कि रामकथा को नये समय के साथ नये तरीकों से परिभाषित न किया जाये, तो बहुत बड़ी गलती होगी। हमारे उपनिषद कहते हैं कि हर जीव में ईश्वर हैं और जीवन के अंत में हर आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है, यानि "अहं शिवं अस्ति", हमारे भीतर शिव हैं, इसलिए हर आत्मा को अधिकार है कि वह अपनी समझ से अपने ईश्वर से बात करे। जब आप यह बात स्वीकार करते हैं तो क्या व्यक्ति से अपने अंदर के भगवान से बात करने के उसके अधिकार को छीन लेंगे? रामायण को और धर्म से जुड़ी हर बात को, हर कोई अपनी दृष्टि से परिभाषित कर सके, यह भी तो हमारा अधिकार है।<br /></p><p>यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हम लोग समय और विकास के साथ, अपने धर्म को बदल व सुधार सकें, उसे सही दिशा में ले कर जायें।</p><p>इस दृष्टि से "आदिपुरुष" में रामकथा के कुछ हिस्सों की नयी परिभाषा की गयी है जो मुझे अच्छी लगीं। जैसे कि बाली और सुग्रीव के युद्ध में राम का हस्ताक्षेप। रामलीला में जब यह हिस्सा आता था तो मुझे हमेशा लगता था कि राम ने छिप कर बाली पर पीठ से वार करके सही नहीं किया, क्योंकि इसमें मर्यादा नहीं थी। लेकिन "आदिपुरुष" में इस घटना को जिस तरह से दिखाया गया है, वह नयी परिभाषा मुझे अच्छी लगी।</p><p>ऐसे ही रामलीला में लक्ष्मण का सूर्पनखा की नाक को काटना भी मुझे हमेशा गलत लगता था लेकिन फ़िल्म में इस घटना को जिस तरह दिखाया गया है, जिसमें लक्ष्मण सीता जी की रक्षा के लिए दूर से सूर्पनखा पर वार करते हैं जो उसकी नाक पर लग जाता है, यह परिकल्पना भी मुझे अच्छी लगी।</p><p>लेकिन फ़िल्म का रावण मुझे विद्वान और ज्ञानी ब्राह्मण कम और सामान्य खलनायक अधिक लगा। फ़िल्म के प्रारम्भ में उसकी तपस्या से खुश हो कर जब ब्रह्मा जी उसे वरदान देते हैं तब भी उसे दम्भी, अहंकारी दिखाया गया है, तो मन में प्रश्न उठा कि ब्रह्मा जी कैसे भगवान थे कि वह उसके मन की इन भावनाओं को देख नहीं पाये? क्या तपस्या का अर्थ केवल शरीर को कष्ट देना या ध्यान करना है, उसमें मन का शुद्धीकरण नहीं चाहिये? बाद में रावण का सीताहरण भी केवल वासना तथा अहंकार का नतीजा दिखाया गया है। रावण के व्यक्तित्व से जुड़ी यह दोनों बातें मुझे इस फ़िल्म की कमज़ोरी लगीं।</p><p>लेकिन रामानंद सागर की रामायण या रामलीला में डरावना दिखाने के लिए जिस तरह से "हा-हा-हा" करके हँसने वाले रावण या कुंभकर्ण आदि दिखाये जाते थे, वे यहाँ नहीं दिखे, यह बात मुझे अच्छी लगी। <br /></p><h3 style="text-align: left;">और अंत में</h3><p>मुझे "आदिपुरुष" फ़िल्म बुरी नहीं लगी, बल्कि इसके कुछ हिस्से और फ़िल्म का संगीत बहुत अच्छे लगे। मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूँ जो फ़िल्मों को बैन करने की बात करते हैं। मेरे विचार में हमें रामकथा या महाभारत या अन्य धार्मिक कथाओ को नये तरीकों से परिभाषित करते रहना चाहिए। अगर आप को उन नयी परिभाषाओ से आपत्ति है तो उसके विरुद्ध लिखिये, या आप अपनी नयी परिभाषा गढ़िये। <br /></p><p>पिछले कुछ समय से बात-बात पर कुछ लोग सोशल मीडिया पर उत्तेजित हो कर तोड़-फोड़ या बैन की बातें करने लगते हैं। कहते हैं कि उन्होंने हमारे भगवान का या धर्म का या भावनाओ का अपमान किया है, इसलिए हम इस नाटक, फ़िल्म, कला या किताब को बाहर नहीं आने देंगे, दंगा कर देंगे या आग लगा देंगे। मेरे विचार में इन लोगों को हिन्दू धर्म का ज्ञान नहीं है और यह देवनिंदा को अन्य धर्मों की दृष्टि से देखते हैं (मैंने "<a href="https://jonakehsake.blogspot.com/2022/06/blog-post_21.html" target="_blank"><b>देवनिंदा</b></a>" के विषय पर पहले भी लिखा है, <a href="https://jonakehsake.blogspot.com/2022/06/blog-post_21.html" target="_blank">आप चाहे तो उसे पढ़ सकते हैं</a>।) मुझे लगता है कि यह उनके आत्मविश्वास की कमी तथा मन में हीनता की भावना का नतीजा है। </p><p>*****<br /></p>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-40175177182032260282023-06-17T11:08:00.001+02:002024-02-22T08:00:58.035+01:00प्राचीन भित्ती-चित्र और फ़िल्मी-गीत<p>
</p><p>कुछ सप्ताह पहले मैं एक प्राचीन भित्ती-चित्रों की प्रदर्शनी देखने गया था। दो हज़ार वर्ष पुराने यह भित्ती-चित्र पोमपेई नाम के शहर में मिले थे। उन चित्रों को देख कर मन में
कुछ गीत याद आ गये। भारत में फ़िल्मी संगीत हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाता है, और हमारे जीवन में कोई भी परिस्थिति हो, उसके हिसाब से उपयुक्त गीत अपने आप ही मानस में उभर आते है। यह आलेख इसी विषय पर है।</p><h3 style="text-align: left;">पोमपेई के प्राचीन भित्ती-चित्र </h3><p>इटली की राजधानी रोम के दक्षिण में नेपल शहर के पास एक पहाड़ है जिसका नाम वैसूवियो पर्वत है। आज से करीब दो हज़ार वर्ष पूर्व इस पहाड़ से एक ज्वालामुखी फटा था, जिसमें से निकलते लावे ने पहाड़ के नीचे बसे शहरों को पूरी तरह से ढक दिया था। उस लावे की पहली खुदाई सन् १६०० के आसपास शुरु हुई थी और आज तक चल रही है।</p><div><br /><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdxuSHhoEygx0gPmyAjREYtgJMGG8TNyBfrBaCi4_eqYDhnMt-xS8sH7OqfZZL8qwQqg7lOdeyqEiDwQmWAtdMOXss7Dq6yZLULMxc4mvqHPxXG9kkVi3uodJNLA-Rnl4AwrDc9BraSZIWxVo1pI1OdTCvPr824Uugocrcdg80zw9FtPjEw_poz1aaow/s635/02.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="501" data-original-width="635" height="315" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdxuSHhoEygx0gPmyAjREYtgJMGG8TNyBfrBaCi4_eqYDhnMt-xS8sH7OqfZZL8qwQqg7lOdeyqEiDwQmWAtdMOXss7Dq6yZLULMxc4mvqHPxXG9kkVi3uodJNLA-Rnl4AwrDc9BraSZIWxVo1pI1OdTCvPr824Uugocrcdg80zw9FtPjEw_poz1aaow/w400-h315/02.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">इस खुदाई में समुद्र तट के पास स्थित दो प्राचीन शहर, पोमपेई और एरकोलानो, मिले हैं जहाँ के हज़ारों भवनों, दुकानों, घरों, और उनमें रहने वाले लोगों को, उनके कुर्सी, मेज़, उनकी चित्रकला और शिल्पकला, आदि सबको उस ज्वालामुखी के लावे ने दबा दिया था और जो उस जमे हुए लावे के नीचे इतनी सदियों तक सुरक्षित रहे हैं।</div><br />मैं पोमपेई के भग्नवषेशों को देखने कई बार जा चुका हूँ और हर बार वहाँ जा कर दो हज़ार वर्ष पहले के रोमन जीवन के दृश्यों को देख कर चकित हो जाता हूँ। जैसे कि नीचे वाले चित्र में आप पोमपेई का एक प्राचीन रेस्टोरैंट देख सकते हैं - इसे देखते ही मैं पहचान गया क्योंकि इस तरह के बने हुए ढाबे और रेस्टोरैंट आज भी भारत में आसानी से मिलते हैं।</div><div> </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWo6tM1q9bQgvvJqtBjHoqOGun5M3e8SUcfcPULw4GpkluZkNpzZD43K8TA7CU8yyQ_MvulFWZ3XosbBWSxLsuJF-TmlahpydI-JsWVthlFXEqRvNKNW5JyVHM3sqEz9zZc13LTaoxY6j-eouRHWkq7UM1EI0h6fm3GR5xIdl5RgW55XM7UgpL3hlt1w/s635/01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="501" data-original-width="635" height="315" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWo6tM1q9bQgvvJqtBjHoqOGun5M3e8SUcfcPULw4GpkluZkNpzZD43K8TA7CU8yyQ_MvulFWZ3XosbBWSxLsuJF-TmlahpydI-JsWVthlFXEqRvNKNW5JyVHM3sqEz9zZc13LTaoxY6j-eouRHWkq7UM1EI0h6fm3GR5xIdl5RgW55XM7UgpL3hlt1w/w400-h315/01.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">इन अवषेशों से पता चलता है कि उस ज़माने में वहाँ के अमीर लोगों को घरों की दीवारों को भित्तीचित्रों से सजवाने का फैशन था, जिनमें उनके देवी-देवताओं की कहानियाँ चित्रित होती थीं। इन्हीं चित्रों की एक प्रदर्शनी कुछ दिन पहले बोलोनिया शहर के पुरातत्व संग्रहालय में लगी थी।</div><br />पोम्पेई कैसा शहर था और ज्वालामुखी फटने से क्या हुआ इसे समझने के लिए <a href="https://www.youtube.com/watch?v=XDo1a-_RH7A&ab_channel=Altair4Multimedia" target="_blank">आप एक छोटी सी (८ मिनट की) फिल्म</a> को भी देख सकते हैं जो कि बहुत सुंदर बनायी गयी है।<br /><br />अब बात करते हैं पोमपेई के कुछ भित्तीचित्रों की जिन्हें देख कर मेरे मन में हिंदी फिल्मों के गीत याद आ गये।<br /><h3 style="text-align: left;">प्रार्थना करती नारी</h3>नीचे वाला भित्तीचित्र पोमपेई के एक बंगले में मिला जिसे चित्रकार का घर या सर्जन (शल्यचिकित्सक) का घर कहते हैं। इसमें एक महिला स्टूल पर बैठी है, उनके सामने एक मूर्ति है और मूर्ति के नीचे किसी व्यक्ति का चित्र रखा है। चित्र के पास एक बच्चा बैठा है और नारी के पीछे दो महिलाएँ खड़ी हैं। चित्र को देख कर लगता है कि वह नारी भगवान से उस व्यक्ति के जीवन के लिए प्रार्थना कर रही है। सभी औरतों के वस्त्र भारतीय पौशाकों से मिलते-जुलते लगते हैं।<br /></div><div> <br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjggsCT3UO7XUAFKo_qMp0a2AIl3I_EvVJJM9fcj-KSlTa9DhgE4A5C92jg_h4LLGZXVd9A_cuCVPNUHcQBZB58wplAiwnvkhAkJXNdbWf4nRZjMcbv54YzAL15D9843G2Xgd2FrZZDIaBqS_XSNE7X80VjHdXNMdd-QhtcP8-C7QNjfk4MoakNfLSH8Q/s920/03.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjggsCT3UO7XUAFKo_qMp0a2AIl3I_EvVJJM9fcj-KSlTa9DhgE4A5C92jg_h4LLGZXVd9A_cuCVPNUHcQBZB58wplAiwnvkhAkJXNdbWf4nRZjMcbv54YzAL15D9843G2Xgd2FrZZDIaBqS_XSNE7X80VjHdXNMdd-QhtcP8-C7QNjfk4MoakNfLSH8Q/w400-h311/03.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">इस चित्र को देखते ही मुझे १९६६ की फ़िल्म "फ़ूल और पत्थर" का वह दृश्य याद आ गया जिसमें राका (धर्मेंद्र) बिस्तर पर बेहोश पड़ा है और विधवा शांति (मीना कुमारी) भगवान के सामने उनके ठीक होने की प्रार्थना कर रही है, "सुन ले पुकार आई, आज तेरे द्वार लेके आँसूओं की धार मेरे साँवरे"।</div><br />इसी सैटिन्ग में "लगान" का गीत "ओ पालनहारे" भी अच्छा फिट बैठ सकता है। वैसे यह सिचुएशन हिंदी फिल्मों में अक्सर दिखायी जाती है और इसके अन्य भी बहुत सारे गाने हैं। <br /><h3 style="text-align: left;">संगीतकार और जलपरी की कहानी</h3>पोमपेई के भित्ती-चित्रों में ग्रीक मिथकों की कहानियों से जुड़े बहुत से भित्ती-चित्र मिले हैं। जैसे कि प्राचीन ग्रीस के मिथकों की एक कहानी में भीमकाय शरीर वाले पोलीफेमों को जलपरी गलातेया से प्यार था, उन्होंने संगीत बजा कर उसे अपनी ओर आकर्षित करने की बहुत कोशिश की लेकिन जलपरी नहीं मानी क्यों कि वह किसी और से प्यार करती थी। नीचे दिखाये भित्ती-चित्र में पोलीफेमो महोदय निर्वस्त्र हो कर गलातेया को बुला रहे हैं जबकि गलातेया अपनी सेविका से कह रही है कि इस व्यक्ति को यहाँ से जाने के लिए कहो।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoXNo0XAQqsy_CYS5WsvPOBMheytpkSV_VgTW0GaXeKlHioObdIgW4Dwx_GbMTARUPE_DLy8p2fx-XiwF5MSmeiMdbqv6M35CB4VftOjzLsJYGnGvfhjpNhlIi1sbrf6TEfc2UaHqm73J81SaOo16N3IQF0iqI_gwcYeE7GWwRm4Regzu7yohZzX7xjg/s920/05.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgoXNo0XAQqsy_CYS5WsvPOBMheytpkSV_VgTW0GaXeKlHioObdIgW4Dwx_GbMTARUPE_DLy8p2fx-XiwF5MSmeiMdbqv6M35CB4VftOjzLsJYGnGvfhjpNhlIi1sbrf6TEfc2UaHqm73J81SaOo16N3IQF0iqI_gwcYeE7GWwRm4Regzu7yohZzX7xjg/w400-h311/05.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">इस चित्र की जलपरी सामान्य महिला लगती है और उनके वस्त्र व वेशभूषा भारतीय लगते हैं। मेरे विचार में भारत में अप्सराओं को गहनों से सुसज्जित बनाते हैं जबकि यह जलपरी उनके मुकाबले में बहुत सीधी-सादी लगती है।</div><br />जैसा कि इस चित्र में दिखाया गया है, प्राचीन रोमन तथा यवनी भित्तीचित्रों में पुरुष शरीर की नग्नता बहुत अधिक दिखती है और उसकी अपेक्षा में नारी नग्नता कम लगती है। इस चित्र को देख कर मुझे लगा कि इसमें पोलीफेमो अनामिका फिल्म का गीत गा रहा है, "बाहों में चले आओ, हमसे सनम क्या परदा", जबकि जलपरी कन्यादान फिल्म का गीत गा रही है, "पराई हूँ पराई, मेरी आरजू न कर"। <br /><h3 style="text-align: left;">यवनी सावित्री और सत्यवान</h3>प्राचीन ग्रीस की भी एक सावित्री और सत्यवान की कहानी से मिलती हुई कथा है। उनके नाम थे अलसेस्ती और अदमेतो, लेकिन इनकी कथा भारतीय कथा से थोड़ी सी भिन्न थी।<br /><br />जब अदमेतो को लेने मृत्यु के देवता आये तो अदमेतो ने उनसे विनती की कि उन्हें नहीं मारा जाये, तो मृत्यु देव ने कहा कि वह उनके बदले उनके परिवार के किसी भी व्यक्ति की आत्मा ले कर चले जायेंगे, जो उनकी जगह मरने को तैयार हो।<br /><br />अदमेतो ने अपने माता-पिता से अपनी जगह पर मरने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। तब उनकी पत्नी अलसेस्ती बोली कि वह उसकी जगह मरने को तैयार थी। मृत्यु देव अलसेस्ती की आत्मा को ले कर वहाँ से जा रहे थे जब भगवान अपोलो ने उसे जीवनदान दिया और वह पृथ्वी पर अपने पति के पास लौट आयी।<br /><br />इस चित्र में नीचे वाले हिस्से में अदमेतो, अलसेस्ती और उनके दास को दिखाया गया है। ऊपरी हिस्से में, उनके पीछे बायीं ओर अदमेतो के बूढे माता-पिता हैं और दायीं ओर, अलसेस्ती और भगवान आपोलो हैं।</div><div> </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7UUzZP6BhyDI1exv2wSeDWVXD8go5R5xsOSvUIdPB5is1vG_kDIHyYjpi9OC3fSC6vwwjg81-HUnwT_lTCBm5yg8fRJle391rxnPJpGoo09IUyH8DuTjpo1KE8i4u6DabBF423G9QAQdMA3v7ZFUstxrGUK4qdHymm5rwUKJSzMzO8KkCELg97g79IA/s940/06.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="940" data-original-width="695" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7UUzZP6BhyDI1exv2wSeDWVXD8go5R5xsOSvUIdPB5is1vG_kDIHyYjpi9OC3fSC6vwwjg81-HUnwT_lTCBm5yg8fRJle391rxnPJpGoo09IUyH8DuTjpo1KE8i4u6DabBF423G9QAQdMA3v7ZFUstxrGUK4qdHymm5rwUKJSzMzO8KkCELg97g79IA/w296-h400/06.jpg" width="296" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">इस चित्र में अलसेस्ती की वेशभूषा और उसके चेहरे का भाव मुझे बहुत भारतीय लगे, जबकि अदमेतो को निर्वस्त्र दिखाया गया है।</div><div style="text-align: left;"> </div><div style="text-align: left;">सावित्री-सत्यवान की कहानी पर बहुत सी फ़िल्में बनी हैं, लेकिन इस सिचुएशन वाला उनका कोई गीत नहीं मालूम था, उसकी जगह पर मेरे मन में एक अन्य गीत याद आया, “मार दिया जाये कि छोड़ दिया जाये, बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाये"। कहिये, यह गीत इस सिचुएशन पर भी बढ़िया फिट बैठता है न?</div><h3 style="text-align: left;">विश्वामित्र और मेनक </h3><p>कालीदास की कृति "अभिज्ञान शकुंतलम" में ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र स्वर्गलोक से अप्सरा मेनका को भेजते हैं, और उनके मिलन से शकुंतला पैदा होती है। अगले चित्र में ऐसी ही स्वर्ग की एक देवी की प्राचीन यवनी कहानी है।<br /><br />इस ग्रीक कथा में स्वर्ग की देवी सेलेने का दिल धरती के सुंदर राजा एन्देमेनों पर आ जाता है तो वह खुद को रोक नहीं पाती और कामातुर हो कर उनसे मिलन हेतू धरती पर आती है। यह कहानी भी उस समय बहुत लोकप्रिय थी क्योंकि इस विषय पर बने बहुत से भित्तीचित्र मिले हैं। नीचे वाले चित्र में सेलेने निर्वस्त्र हो कर एन्देमेनो कीओर आ रही हैं, उनकी पीछे एक एँजल बनी है।<br /></p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYUr916WZ9ZJWiA98EpoDbRNDG-tjms2oVELcaABFlnDah8yqDw0bKWue_L_0JDNeDlW172bFdZxEHQz9USt5JloG3RevHwzs2kLbCZdOlG8EweIBQj3GDWhHBu_q6AmOsTEYub4taKbGaW3gBGjMsVxyRwqMLeeG1esbTnEJebpYRFhewfnD7Wm7vxQ/s940/07.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="940" data-original-width="695" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYUr916WZ9ZJWiA98EpoDbRNDG-tjms2oVELcaABFlnDah8yqDw0bKWue_L_0JDNeDlW172bFdZxEHQz9USt5JloG3RevHwzs2kLbCZdOlG8EweIBQj3GDWhHBu_q6AmOsTEYub4taKbGaW3gBGjMsVxyRwqMLeeG1esbTnEJebpYRFhewfnD7Wm7vxQ/w296-h400/07.jpg" width="296" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">इस कथा के अनुसार देवी सेलेने उससे प्रेम करते समय एन्देमेनों को सुला देती है, इस तरह से वह सोचता है कि वह सचमुच नहीं था बल्कि उसने सपने में किसी सुंदर अप्सरा से प्रेम किया था।</div><p></p><p>इस तस्वीर को देख कर मेरे मन में आराधना फ़िल्म का यह गीत आया - “रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना, भूल कोई हमसे न हो जाये"। इस सिचुएशन पर अनामिका फ़िल्म का गीत, "बाहों में चले आओ, हमसे सनम क्या परदा" भी अच्छा फिट होता।<br /></p><h3 style="text-align: left;">हीरो जी</h3><p>अंत में अपने हीरो जैसे शरीर पर इतराते एक युवक की शिल्पकला है, जिसे देख कर मुझे सलमान खान की याद आई। इस शिल्प कला से लगता है कि उस समय अमीर लोगों का अपने घरों में नग्न पुरुष शरीर को दिखाना स्वीकृत था।</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEippVW2rulphkiukV7B6zdWtXPTc95Wo8ROMR33vHJxC-GXha_UvEbkth4E_i7BJRETM6_4g0NvBRF71XOhitRZFe4FBsQt1UN_HepjQErVZkhuLtCWmesWj_8syaS0DuyVAum00_Dx5W-wlNcZbO4LzqUGGl46tUGaziL0N-7fkPZMKOiIjAjIQrLQcA/s940/04.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="940" data-original-width="695" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEippVW2rulphkiukV7B6zdWtXPTc95Wo8ROMR33vHJxC-GXha_UvEbkth4E_i7BJRETM6_4g0NvBRF71XOhitRZFe4FBsQt1UN_HepjQErVZkhuLtCWmesWj_8syaS0DuyVAum00_Dx5W-wlNcZbO4LzqUGGl46tUGaziL0N-7fkPZMKOiIjAjIQrLQcA/w296-h400/04.jpg" width="296" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">जब मैंने इस कलाकृति को देखा तो मन में सलमान खान का गीत "मैं करूँ तो साला करेक्टर ढीला है" याद आ गया। अगर कोई आप से इस युवक के चित्र के लिए गीत चुनने को कहे तो आप कौन सा गीत चुनेंगे?</div><br />मैंने पढ़ा कि शिल्प और चित्रकला में पुरुष शरीर को दिखाने की ग्रीक परम्परा में पुरुष यौन अंग को छोटा दिखाना बेहतर समझा जाता था, क्यों कि वह लोग सोचते थे कि इससे पुरुष वीर्य जब बाहर निकलता है तो वह अधिक गर्म और शक्तिशाली होता है, जबकि अगर वह अंग बड़ा हो गा तो वीर्य बाहर निकलते समय ठंडा हो जायेगा और उसकी शक्ति कम होगी।<br /><p></p><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3><p>मुझे पोमपेई की गलियों और घरों में घूमना और वहाँ के दो हज़ार साल पहले के जीवन बारे में सोचना बहुत अच्छा लगता है।<br /><br />भारत में मध्यप्रदेश में भीमबेटका में आदि मानव के जीवन और महाराष्ट्र में अजंता जैसी गुफाओं में भगवान बुद्ध के समय के जीवन, या फ़िर उत्तर-पश्चिम में लोथाल, गनेरीवाला और राखीगढ़ी जैसी जगहों पर पुरातत्व अवशेषों से और भित्ती-चित्रों से सिंधु घाटी सभ्यता को समझने के मौके मिलते हैं, लेकिन पोमपेई तथा एरकोलानो में जिस तरह से उस समय का समस्त जीवन पिघले हुए लावे में कैद हो गया, वह दुनिया में अनूठा है।<br /><br /></p><p>***</p></div></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-69239722857729174382023-04-06T08:44:00.001+02:002023-04-06T08:44:35.613+02:00उपन्यास और जीवन<p>कई बार जब जीवन का समय कम बचता है तो जिस बात को जीवन भर नहीं कह पाये थे,
उसे कहने का साहस मिल जाता है। मेरे मन में भी बहुत सालों से कुछ कहानियाँ
घूम रही थीं और अब जीवन के अंतिम चरण में आ कर उन्हें लिखने का मौका मिला
है। <br /></p><p>शनिवार पहली अप्रैल को इतालवी लेखिका आदा द'अदामो चली गयीं। कुछ माह पहले ही उनका पहला उपन्यास, “कोमे द'आरिया" (जैसे हवा) आया था और आते ही बहुत चर्चित हो गया था। कुछ सप्ताह में २०२२-२३ के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास का इतालवी पुरस्कार स्त्रेगा घोषित किया जायेगा, उसके लिए चुनी गयी दस पुस्तकों में "कोमे द'आरिया" भी है। <br /><br />पचपन वर्ष की आदा को कैंसर था और अपनी आत्मकथा पर आधारित उनके उपन्यास में उन्होंने उस कैंसर की बात और अपनी बेटी दारिया की बात की है। उनके उपन्यास के शीर्षक को "जैसे हवा" की जगह पर "जैसे दारिया" भी पढ़ सकते हैं।<br /><br />दारिया को एक गम्भीर विकलाँगता है और रोज़मर्रा के जीवन के लिए उन्हें सहायता की आवश्यकता है। आदा की भी वही चिंता है जो उन हर माता-पिता की होती है जिनके बच्चों को गम्भीर विकलाँगता होती है और जिनमें मन में प्रश्न उठते हैं कि हमारे बाद हमारे बच्चे का क्या होगा।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4y2oR_e6A7M1Cy6gRkzRy_HsqEaU0FeLYd0d-py6aNa1U9-nkXXU4jrslduTxBMn5jREIMUg4JneN8fr3amw73CdBZUA6vQt9swdgqhVBFlMDF210iZagxw2Ai3HL3o4BaAf_kyJwfL2razX23_xLDPJiqA4ef26EUmOuYr0lSIJmYqN93Rtz4VY6FA/s620/ArteLibro_LorenzoPerrone%20(3).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="490" data-original-width="620" height="316" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj4y2oR_e6A7M1Cy6gRkzRy_HsqEaU0FeLYd0d-py6aNa1U9-nkXXU4jrslduTxBMn5jREIMUg4JneN8fr3amw73CdBZUA6vQt9swdgqhVBFlMDF210iZagxw2Ai3HL3o4BaAf_kyJwfL2razX23_xLDPJiqA4ef26EUmOuYr0lSIJmYqN93Rtz4VY6FA/w400-h316/ArteLibro_LorenzoPerrone%20(3).jpg" width="400" /></a></div><br /><p style="text-align: center;"><br /></p><p>** </p><p>सारा जीवन यात्राओं में बीत गया। सन् २००१ में, जब कुछ महीनों के लिए जेनेवा में परिवार से दूर रह रहा था, तब पहली बार एक उपन्यास लिखने की कोशिश की थी। कुछ महीनों की कोशिश के बाद उसे छोड़ दिया।
</p><p>
<span style="font-family: Lohit Devanagari;"><span lang="hi-IN">दो दशकों
से </span></span>मेरे मन में तीन कहानियाँ घूम रही थीं, जिन्हें मैं अपने "अमर, अकबर, एन्थोनी" उपन्यास कहता था, क्योंकि मनमोहन देसाई की फ़िल्मों की तरह उन सब में खोयी माएँ, बिछड़े भाई और पिता थे। सोचता था कि यह तीनों उपन्यास मेरे साथ बिना लिखे ही रह जायेंगे। हर एक-दो साल में उनमें से किसी कथा के पात्र मेरी कल्पना में जीवित हो जाते थे तो उसे लिखने की इच्छा जागती थी, हर बार थोड़ा-बहुत बहुत लिखता और फ़िर अटक जाता।<br /><br />दो साल पहले, कोविड की वजह से घर में बन्द थे और सब यात्राएँ रद्द हो गयीं थीं। कोविड से चार मित्रों की मृत्यु हुई और इसी समय में एक मित्र, जिसे कुछ वर्ष पहले यादाश्त खोने वाली बीमारी हो रही थी, उसकी पत्नी ने बताया कि वह अपने बेटे को नहीं पहचान पाता था। इन सब बातों का दिल और दिमाग को असर तो था ही, मुझे दिखने में कठिनाई होने लगी, उसके लिए मोतियाबिंद का आप्रेशन हुआ लेकिन पूरा ठीक नहीं हुआ, तो यह ड़र भी लगने लगा कि दृष्टि पूरी न चली जाये।<br /><br />शायद इन सब बातों का मिल कर कुछ असर हुआ या फ़िर लगा कि अब सत्तर <span style="font-family: Lohit Devanagari;"><span lang="hi-IN">की उम्र </span></span>के पास आ कर भी इस काम को नहीं किया तो यह नहीं होगा। जो भी था, एक उपन्यास को २०२१ में लिखना शुरु किया और उसे पूरा करके ही रुका। इसमें एक बेटे की अपनी खोयी हुई माँ और भाई को खोजने की कहानी है।<br /><br />उसे कुछ लोगों को पढ़वाया, अधिकतर सकरात्मक टिप्पणियाँ ही मिलीं, पर यह भी सोचा कि परिवार या मेरी जान पहचान के लोग नकारात्मक बात नहीं कहेंगे। खैर जितने सुझाव मिले, उनमें से कुछ ठीक लगे तो उपन्यास को दोबारा, तिबारा लिखने में उन्हें लागू किया। अब वह लगभग पूरा हो चुका है, मेरी रिनी दीदी उसे वर्तनी की गलतियों के लिए जाँच रहीं हैं, फ़िर उसके लिए प्रकाशक खोजने का काम होगा।</p><p>
</p><p style="line-height: 100%; margin-bottom: 0cm;">
<span style="font-family: Lohit Devanagari;"><span lang="hi-IN">अगर आप में
से कोई अनुभवी जन मेरे उपन्यास
के प्रकाशन के बारे में मुझे
कुछ सलाह और सुझाव दे सकते हैं
तो आप को पहले से धन्यवाद।</span></span></p><p>** <br /><br />इटली के हमारे छोटे से शहर में हमारा एक किताबें पढ़ने वाला का ग्रुप है। हम सब लोग महीने में एक बार मिलते हैं और किसी एक किताब की चर्चा करते हैं, और अगली किताब कौन सी पढ़ी जाये का निर्णय लेते हैं। मुझे पाँच वर्ष हो गये इस ग्रुप का सदस्य बने हुए। इसमें भाग लेने से मुझे यह समझ में आया है कि ऐसी किताबें तो कम ही होती हैं जो सबको पसंद आयें। अक्सर ऐसा होता है कि कोई किताब किसी को बहुत पसंद आती है और किसी को बिल्कुल भी नहीं।<br /><br />इसलिए सोचता हूँ कि मेरी किताब भी कोई न कोई पाठक होंगे। हो सकता है कि वह बहुत से लोगों को पसंद न आये। मेरे इतालवी ग्रुप के मित्रों को शिकायत है कि मैंने यह किताब हिंदी में क्यों लिखी। कुछ लोग मुझसे कहते हैं कि मुझे इसका तुरंत इतालवी में अनुवाद करना चाहिये।<br /><br />मैं कहता हूँ कि अगर इसका अनुवाद होगा तो वह कोई और ही करेगा, वह मेरे बस की बात नहीं। यह भी लगता है कि न जाने लिखने के लिए मेरे पास कितने साल बचे हैं, मुझे अपने "अमर, अकबर, एन्थोनी" के दूसरे उपन्यास को लिखने के बारे में सॊचना चाहिये।<br /><br />लगता है कि शब्दों की नदी मन के भीतर कहीं पर अटकी थी, अब बाँध तोड़ कर निकली है तो रुकती नहीं। कभी-कभी मन सपने बुनता है कि यह तीनों पूरे हो जायें तो एक उपन्यास साईन्स फ़िक्शन का भी लिखना है। फ़िर मन में आता है कि लम्बे कार्यक्रम बनाना ठीक नहीं। हर दिन जो लिखने का मिलता है, उसी के लिए खुश रहना चाहिये।</p><p>** <br /> <br />लिखते समय जब भी कहानी किसी मोड़ पर अटक जाती थी तो अक्सर उसका उपाय शाम को सैर करते हुए सूझता था, या कभी-कभी, सुबह जागने पर।<br /><br />शाम की सैर उपन्यास की परिस्थितियों और पात्रों के बारे में सोचने का सबसे अच्छा मौका है। इसके लिए घर से निकलता हूँ तो अक्सर पास वाली नदी वाला रास्ता लेता हूँ। पिछले साल की तरह, इस साल भी हमारी नदी सूखी है। सैर करते समय नदी के जल का कलरव, कभी पत्थरों और चट्टानों से टकराने का, कभी झरनों का, वह शोर मुझे सोचने में सहायता करता था।<br /><br />लेकिन नदी सूखी होने से बहुत महीनों से चुप बैठी है। यह धरती, हमारा पर्यावरण, सब कुछ बदल रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि आर्टिफीशियल इन्टैलिजैंस यानि कृत्रिम बुद्धिशक्ति के चैट-जीपीटी जैसे कार्यक्रम इंसानों से अच्छे उपन्यास लिखेंगे, फ़िर हमें इतनी मेहनत करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।<br /><br />तो सोचता हूँ कि जाने कल की दुनिया कैसी होगी, होगी भी या नहीं होगी, तो लिखने, छपवाने, पढ़ाने का क्या फायदा? फ़िर सोचता हूँ, मेरी आत्म-अभिव्यक्ति का महसूस किया हुआ सुख, मेरे लिए यही काफ़ी है। असली चिंता तो आजकल के बच्चों को करनी पड़ेगी कि भविष्य में वह लोग क्या काम करेंगे?</p><p>*** <br /></p><p> </p><p><style type="text/css">p { line-height: 115%; margin-bottom: 0.25cm; background: transparent }</style></p>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-57305503151615127532023-01-01T11:15:00.001+01:002023-01-01T11:15:22.843+01:002022 के सबसे सुंदर गीत<p></p><p>परिवार व मित्रों को खोने की दृष्टि से देखें तो मेरा यह बीता वर्ष बहुत बुरा रहा। जितने लोग इस वर्ष खोये, उतने शायद पहले किसी एक साल में नहीं खोये थे। नीचे की तस्वीर में दो परिवार के सदस्य (मेरी साली मिरियम और मेरा मौसेरा भाई राजन) और दो मित्र (इटली में दॉन सिल्वियो और इन्दोनेशिया में डा. नूरशाँती) हैं जिन्हें हमने इस वर्ष खोया। इन खोये साथियों की आत्माओं की शाँती के लिए प्रार्थना करने के साथ मेरी यही आशा है कि नया वर्ष हम सब के लिए सकरात्मक रहे, सुख लाये।<br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj95ZIoblSuCG7HWeli9BEJHfuyUhGTl7t47CsPsldEYVyxwniSV2CAJWLMBgSK5jEHWzRfSRY3SX1RArnwy3pM3FWs30Jq6X-4QWSkVm6PA6lborp7kPRLVkaAwKK2LPEUtLAhIYsGLy81OjsZey9rEqsWRhmLYbmb6ocgZPV0o10JZREP6xTH1dUB0Q/s422/2022.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="250" data-original-width="422" height="238" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj95ZIoblSuCG7HWeli9BEJHfuyUhGTl7t47CsPsldEYVyxwniSV2CAJWLMBgSK5jEHWzRfSRY3SX1RArnwy3pM3FWs30Jq6X-4QWSkVm6PA6lborp7kPRLVkaAwKK2LPEUtLAhIYsGLy81OjsZey9rEqsWRhmLYbmb6ocgZPV0o10JZREP6xTH1dUB0Q/w400-h238/2022.jpg" width="400" /></a></div><br /><p style="text-align: left;">नये वर्ष को सकरात्मक ढंग से प्रारम्भ करने के लिए मैं बीते साल के अपने मनपसंद गानों की बात करना चाहता हूँ। </p><p>मुझे वह गाने अच्छे लगते हैं जो कर्णप्रिय हों, जिनमें शोर-शराबा नहीं हो और जिनके शब्दों में कुछ गहराई हो। पिछले कई सालों से मुझे लगता था कि हिंदी में इस तरह के नये गाने बनते ही नहीं हैं। इसलिए इस वर्ष मैंने नये हिंदी गानों को ध्यान से सुना।</p><p>जब मैं बच्चा था तो मुझे अमीन सयानी का बिनाका गीत माला सुनना बहुत अच्छा लगता था जिसमें हर वर्ष-अंत के अवसर पर वह उस साल के सबसे लोकप्रिय गीत प्रस्तुत करते थे। उसी तरह से इस आलेख में इस वर्ष के मेरे सबसे मनपसंद बीस हिंदी के गाने प्रस्तुत हैं। <br /></p><p>अगर आप को अमीन सयानी जी की आवाज़ याद है तो कल्पना कीजिये कि मेरे शब्दों को वह पढ रहे हैं। तो भाईयों और बहनों, आईये इस कार्यक्रम का प्रारम्भ करें.<br /><br /><b>20 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=g4opr9sqfCY">मैं जी रहा </a></b>- बीसवें नम्बर पर एक गैरफ़िल्मी गीत है जिसे गाया है शिल्पा राव तथा जाज़िम शर्मा ने, संगीतकार हैं प्रीतम और गीतकार हैं श्लोकलाल। यह गीत कर्णप्रिय तो है ही, इसके शब्द भी बहुत सुदंर हैं, जैसे कि - "मेरी खुशियों का बना तू ठिकाना, तुझी में घर मेरा, तू ही है घर मेरा"।<br /><br /><b>19 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=AF72YbWUe08">कच्चियाँ कच्चियाँ हैं निन्द्राँ तेरे बिना</a></b> - उन्नीसवीं पायदान पर भी एक गैर-फ़िल्मी गीत है जिसे गाया है जुबिन नौटियाल ने, संगीत है मीत ब्रोस का और गीत को कुमार ने लिखा है। इस प्रेम गीत के शब्द देखिये, "रोज़ रात तकिये पे आँसुओं की बारिश है, धड़कने नहीं दिल में, ग़म की रिहाईश है"। <br /><br /><b>18 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=dPKz3KKraHw">तुम जो मिलो</a></b> - अगला गीत फ़िल्म "फ्रेड्डी" से है जिसे अभिजीत श्रीवास्तव ने गाया है, गीतकार हैं इर्शाद और संगीतकार हैं प्रीतम। इसके कुछ शब्द देखियॆ, "है यह हकीकत या ख्वाब है, यूँ लग रहा है तू पास है, आँखों को मेरी पूछो ज़रा, चेहरे की तेरी क्यों प्यास है"।<br /><br /><b>17 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=PSbA5OxoP1U">तुम जो गये</a></b> - फ़िल्म "जुग जुग जियो" के इस गीत को दो रूपों में सुन सकते हैं, स्वाति सिन्हा की आवाज़ में और पोज़ी यानि निरंजन धर की आवाज़ में। गीतकार हैं जिन्नी दीवान और संगीत है पोज़ी का। मुझे यह गीत स्वाति सिन्हा का गाया हुआ अधिक अच्छा लगता है। इसके शब्दों में प्रेम टूटने के दर्द की कशिश है - "आँखों में बहता टूटा सा तारा, थमे न रो रो के नैना मेरे, तुम जो गये"।<br /><br /><b>16 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=8rUa-ZOmeG4">फ़ेरो न नज़र से नज़रिया </a></b>- "कला" फ़िल्म के सभी गीत १९५०-६० के दशक के गानों की याद दिलाते हैं। उनमें मेरा सबसॆ प्रिय है नयी गायिका सिरीषा भागवातुला द्वारा गाया यह गीत, जिसके संगीतकार हैं अमित त्रिवेदी और जिसे लिखा है कौसर मुनीर ने। इसके दिल छूने वाले शब्द देखियॆ, "तारों को तोरे न छेड़ूँगी अब से, बादल न तोरे उधेड़ूँगी अब से, खोलूँगी न तोरी किवड़िया, फ़ेरो न नज़र से नज़रिया"। <br /><br /><b>15 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=FdTA_FxfcHE">न तेरे बिन रहना जी</a></b> - अल्तामश फरीदी के गाये इस गीत के गीतकार और संगीतकार हैं तनिष्क बागची और यह "एक विलेन रिटर्न्स" फ़िल्म से है। प्रेम और बिछुड़ने के डर का बहुत सुंदर वर्णन है इसके शब्दों में - "तू मेरे पास है अभी, तो लम्हें खास हैं अभी, न जाने कब हुआ यकीं, के कुछ भी तेरे बिन नहीं"।<br /><br /><b>14 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=2zMZYjKWZkY">पा-परा-रारम कहानी</a></b> - "लाल सिंह चढ्ढा" फ़िल्म का यह गीत मुझे सुनते ही बहुत भाया। हल्के फुलके पर गहरे अर्थ वाले शब्द, सादी सी धुन, इसकी सादगी में ही इसकी सुंदरता है। अमिताभ भट्टाचार्य के गीत को संगीत दिया है प्रीतम ने और इसे गाया है "अग्नि" नाम के रॉक गुट के गायक <a href="https://twitter.com/agneemohan">मोहन कानन</a> ने। हालाँकि इस फ़िल्म को भारत में सफलता नहीं मिली, लेकिन मुझे यह फ़िल्म बहुत अच्छी लगी थी।<br /><br />इसके शब्दों की कविता देखिये - "बैठी फ़ूलों पे तितली के जैसी, कभी रुकने दे कभी उड़ जाने दे, ज़िन्दगी है जैसे बारिशों का पानी, आधी भर ले तू आधी बह जाने दे", इसमें यह जीवन कैसे जीना चाहिये उसका पाठ छुपा है। शब्दों की दृष्टि से मेरे विचार में यह इस वर्ष का सबसे सुंदर गीत था। <a href="https://www.instagram.com/amitabhbhattacharyaofficial/" target="_blank">अमिताभ भट्टाचार्य</a> को इस सुंदर गीत के लिए बहुत धन्यवाद व बधाई।<br /><br /><b>13 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=Ieh-dXsR0OE">काले नैनों का जादू</a></b> - यह एक पाराम्परिक लोकगीत है जिसे मिथुन ने संगीत दिया और नीति मोहन के साथ सादाब फ़रीदी और सुदेश भौंसले ने गाया है, फ़िल्म का नाम है "शमशेरा"। मेरे विचार में अगर इस गीत को किसी ऐसी अभिनेत्री करती जिसमें देहाती धरती वाली नायिका होती तो यह फ़िल्म में अधिक खिलता। खैर, सुनने में तो यह गीत बहुत कर्णप्रिय है ही। शमशेरा फ़िल्म के सभी गीत सुंदर थे, रणबीर कपूर भी बहुत बढिया थे लेकिन फ़िल्म कुछ जमी नहीं। </p><p><b>12 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=HFEO3uDXQGA" target="_blank">हैलो, हैलो, हैलो</a></b> - रोचक कोहली का गाया और संगीतबद्ध किया यह गीत अंग्रेज़ी और हिंदी की आजकल की छोटे शहरों की मिलीजुली भाषा बोलता है। इसे लिखा है गुरप्रीत सैनी ने और इस सम्मिश्रण के बावजूद इसके शब्दों में छोटे शहर से आने वाले नवजवानों की आकाक्षाओं का सुंदर वर्णन है।<br /></p><p>आजकल की अधिकाँश फ़िल्मों को देख कर लगता है कि उन्हें निर्देश करने वाले, लिखने वाले और उनके अधिकतर अभिनेता सभी अंग्रेज़ी में सोचते हैं, लेकिन क्योंकि देखने वाली जनता हिंदी भाषी है, फ़िल्म बनाते हुए वह लोग उस अंग्रेज़ी विचार का हिंदी में अनुवाद कर देते हैं, लेकिन उन की सोच यूरोपीय अधिक है। जैसे इस गीत में टूटे तारे को देख कर भगवान से कुछ माँगने का विचार अंग्रेज़ी परम्परा से लिया गया है। खैर, लगता है कि यह सारी फ़िल्मी दुनिया उसी दिशा में जा रही है, उस पर रोने से कुछ नहीं होगा। </p><p><b>11 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=fEMCcRMZ9Zw" target="_blank">नाराज़गी क्या है</a></b> - सोनल प्रधान के लिखे और संगीत वाला यह गैर-फ़िल्मी गीत नये गायक राज बर्मन ने गाया है। इस प्रेम गीत के शब्द देखिये - "खैरियत भी पूछते नहीं न बात करते हो, नाराज़गी क्या है, क्यों नाराज़ रहते हो"। इसी गीत को नेहा कक्ड़ ने भी गाया है लेकिन मुझे राज बर्मन वाला गाया गीत अधिक अच्छा लगा।</p><p><b>10 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=ydMhAybkcPE" target="_blank">नया प्यार है नया अहसास</a></b>
- फ़िल्म "मिडिल क्लास लव" के इस गीत को जुबिन नौटियाल और पलक मुच्छल ने
गाया है, गीतकार व संगीतकार हैं हिमेश रेशमैया। इसके सुंदर शब्द देखिये -
"तुमने न जाने क्या कर दिया, खामोशियों में शोर भर दिया ... पहली खुशबू,
पहला जादू, पहली याद, पहली बारिश, पहली ख्वाहिश, पहली प्यास", विश्वास नहीं
होता कि रेशमैया जैसा व्यक्ति ऐसा गीत लिख सकता है। </p><p><b>09 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=QrCtvAmSIy4" target="_blank">फ़िर से ज़रा, तू रूठ जा</a></b>
- "अटैक" फ़िल्म के इस गीत को गाया है जुबिन नौटियाल और शाश्वत सचदेव ने,
गीतकार हैं कुमार तथा संगीतकार हैं शाश्वत सचदेव। इस गीत में विरह और
बिछुड़ने का बहुत भावभीना वर्णन है - "ऐ ज़िन्दगी, तू चुप है क्यों, मिल कर
कभी तू बोल ना"। </p><p><b>08 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=kE3F89BNE-Q" target="_blank">बारिश के दिन हैं</a></b> - स्टेबिन बेन का गाया यह गैर-फ़िल्मी गीत बहुत कर्णप्रिय है, एक बार सुन लीजिये तो कई दिनों तक इसे ही गुनगुनाते रह जायेंगे। इसे लिखा है <a href="https://www.kumaarlyricist.com/pages/about.html" target="_blank">कुमार</a> ने और संगीत है विवेक कर का। इसके शब्द कुछ विषेश नहीं हैं - "बादल ही बादल, और हम पागल, तेरे इंतज़ार में", लेकिन गीत की पंक्ति "इससे बुरा क्या होगा भला, बारिश के दिन हैं, हम तेरे बिन हैं" बार-बार सुनने का मन करता है।<br /></p><p><b>07 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=HWQd7FfZUAc" target="_blank">धागों का बंधन</a></b> - मुझे "रक्षाबंधन" फ़िल्म का यह गीत इस वर्ष का सबसे कर्णप्रिय गीत लगा, हालाँकि इसके शब्दों तुकबंदी ही थी, नवीनता नहीं थी। अरिजीत सिंह तथा श्रेया घोषाल द्वारा गाये इस गीत को लिखा था इरशाद कामिल ने और इसका संगीत दिया था हिमेश रेशमैया ने। लगातार बार-बार सुन कर इससे अभी तक मेरा मन नहीं भरा है।</p><p><b>06 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=S2YkkA1212k" target="_blank">जैसे सावन फ़िर से आते हैं</a></b> - फ़िल्म "जुग जुग जीयो" का यह गीत भी बहुत कर्णप्रिय है। इसे तनिष्क बागची और जाहरा खान ने गाया है, गीतकार व संगीतकार भी तनिष्क बागची ही हैं। यानि <a href="https://www.instagram.com/tanishk_bagchi/" target="_blank">बागची साहब</a> बहुमुखी प्रतिभा हैं। गीत के शब्द देखिये - "कोई बाकी न हो बातें अनकही, जिसे चाहे यह दिल वह रूठे अगर, तो मनाले उसे झूठा सही, झूठा ही सही"।</p><p><b>05 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=hdNg1TAtAHg" target="_blank">फितूर</a></b>
- पाँचवें नम्बर पर फ़िर से "शमशेरा" फ़िल्म का यह गीत है जिसे करण मल्होत्रा
ने लिखा है, संगीत मिथुन का है और गाया है अरिजीत सिंह और नीति मोहन ने। इस
गीत के बोल दिल को छू लेने वाले हैं - "तू छाँव है सो जाऊँ मैं, तू धुँध
है खो जाऊँ मैं, तेरी आवारागी बन जाऊँ मैं, तुझे दिल की जुबाँ समझाऊँ मैं"।
यह गीत बहुत कर्णप्रिय भी है, लेकिन फ़िल्म में इस तरह से दिखाया गया है कि
उसकी उन्नीसवीं शताब्दी की पृष्ठभूमि में बहुत अजीब सा लगता है।</p><p><b>04 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=BddP6PYo2gs" target="_blank">केसरिया</a></b> - "ब्रह्मास्त्र" फ़िल्म का यह गीत अरिजीत सिंह ने गाया है और बहुत लोकप्रिय हुआ है। इसके गीतकार हैं अमिताभ भट्टाचार्य और संगीत है प्रीतम का। इस गीत को अनेकों बार सुन कर भी यह नया लगता रहता है।<br /></p><p>कहने को यह फ़िल्म शिव, पार्वति और पौराणिक कथाओं से जुड़ी थी लेकिन मुझे लगा कि इसकी सोच अंग्रेज़ी में थी, उस पर केवल कलई भारतीय थी लेकिन बनाने वालों में पौराणिक कथाओं की समझ नहीं थी। उनकी सोच डिस्ने की मार्वल वाले सुपरहीरो वाली थी, केवल सोच कॆ प्रेरणा सोत्र भारत के देवी देवता थे। इस वजह से मुझे लगा कि इसकी पटकथा लिखने वालों ने सुपरहीरो की भारतीय सोच निर्माण करने का मौका खो दिया। <br /></p><p>कुछ लोगों ने इस गीत में अंग्रेज़ी शब्द जैसे कि "लव स्टोरी" पर एतराज किया था, जबकि मुझे लगा कि गीत के शब्द आजकल के शहरी वातावरण को सही दर्शाते थे। </p><p><b>03 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=CkWDwZMM5mI" target="_blank">दिल बहल जाये</a></b> - <a href="https://twitter.com/abhisheknailwal" target="_blank">अभिषेख नेलवाल</a> दवारा गाया और सगीतबद्ध किया यह गीत फ़िल्म "मुखबिर" से है और यह मुझे बहुत अच्छा लगा। नेलवाल साहब की आवाज़ बहुत सुंदर है। इसे लिखा वैभव मोदी ने है। इसका नारी वर्ज़न भी है जिसे रोन्किनी गुप्ता ने गाया है, वह भी बहुत सुंदर गाया है लेकिन मुझे नेलवाल का गाया बेहतर लगा। यह गाना सुन कर कुछ-कुछ "बर्फी" फ़िल्म से "फ़िर ले आया दिल" याद आ जाता है। गीत के शब्द भी बहुत सुंदर हैं - "क्या पता फ़िर से यह सम्भल जाये, तेरे आने से दिल बहल जाये, सर्द आँखों से बुझ गयी थी कभी, कुछ ऐसा कर यह शमा जल जाये"।</p><p><b>02 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=kX7faWGIT90" target="_blank">ज़िन्द मेरिये</a></b> - "जर्सी" फ़िल्म का यह गीत जावेद अली द्वारा गाया गया है। मैंने यह गीत पहली बार इस साल के प्रारम्भ में सुना और तबसे लगातार सुनता रहा हूँ, अभी तक थका नहीं। इसे लिखा है शैली ने और संगीत है <a href="https://www.instagram.com/sachettandonofficial/" target="_blank">सचेत-परम्परा </a>का। "जर्सी" फ़िल्म के सभी गीत मुझे बहुत अच्छे लगे, लेकिन इस गाने के शब्दों में कुछ ऐसा है कि जो हर बार नया लगता है - "ज़िन्द मेरिये बार-बार खिलदा है ख्वाब एक इसनू मनावाँ, यह जो ख़ला है, ज़िद्द दी खिचदी, राह मैं इसनू दिखावाँ"। उस पर से इसकी धुन दिल को छू लेने वाली है। इस गीत को जितना सुनूँ मुझे उतना अच्छा लगता है।<br /></p><p><b>01 <a href="https://www.youtube.com/watch?v=qh7lxQPYb2o" target="_blank">सहर</a></b> - "ऒम" फ़िल्म का यह गीत अरिजीत सिंह ने बहुत धीमे सुर में गाया है। एक-दो बार सुनें तो शायद वि़षेश न लगे, लेकिन इसका जादू धीरे-धीरे चढ़ता है। इसके बोल तूराज़ के हैं और संगीत <a href="http://arkomusic.com/" target="_blank">आर्को</a> का है। आर्को यानि प्रावो मुखर्जी स्वयं को लोक-कलाकार कहते हैं, इस सुंदर गीत के लिए उन्हें धन्यवाद व बधाई।<br /></p><p>इस गाने में अरिजीत की आवाज़ रेशम जैसी है। और शब्द देखिये - "इस पल में ही ज़िन्दगी है, अब मुक्कमल हुआ सफर, दूर तक निगाहों को कुछ भी आता नहीं नज़र। रहें न रहें मेरी आँखें, ख्वाब तेरे रहेंगे मगर, ऊँचा रहेगा हमेशा फ़क्र में यह तेरा सर, और यही तो है मेरी सहर"। इस साल मैंने इस गीत को लूप पर बार-बार सुना है और गये वर्ष का यह मेरा सबसे प्रिय गीत रहा।<br /></p><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3><p>वर्ष के कौन से गीत सबसे सुंदर हैं, इस बर बहुत बहस हो सकती है, क्योंकि यह सूची मेरी पसंद बताती है, आप की पसंद इससे बहुत भिन्न हो सकती है। खुद मेरे लिए भी एक से पाँच नम्बर वाले गाने छोड़ दें, तो बहुत से गानों में ऊपर-नीचे हो सकता है। जैसे कि मैंने इस सूची में रिमिक्स हुए गानों को नहीं चुना जबकि ऐसे कुछ गाने भी अच्छे आये (जैसे कि "मिस्टर मम्मी" फ़िल्म से अरमान कोहली और शिल्पा राव द्वारा गाया "चुपके चुपके")।</p><p></p><p>खैर, अगर आप को लगे कि आप के किसी बहुत मन पसंद गाने को इस सूची में न ले कर मैंने ज़ुल्म किया है तो नीचे टिप्पणी में बताईयेगा।</p><p>अंत में आप सबको नये वर्ष २०२३ की शुभकामनाएँ।<br /></p><p>*** <br /></p><p><style type="text/css">p { line-height: 115%; margin-bottom: 0.25cm; background: transparent }</style></p>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-27760633083299329342022-09-30T09:28:00.002+02:002024-02-22T08:02:15.165+01:00रोमाँचक यात्राएँमेरा सारा जीवन यात्राओं में बीत गया लेकिन अब लगता है कि जैसे इन पिछले ढ़ाई-तीन सालों में यात्रा करना ही भूल गया हूँ। जब आखिरी बार दिल्ली से इटली वापस लौटा था, उस समय कोविड के वायरस के बारे में बातें शुरु हो रहीं थीं। उसके बाद ढाई साल तक इटली ही नहीं, अपने छोटे से शहर से भी बाहर नहीं निकला। पिछले कुछ महीनों में यहाँ आसपास कुछ यात्राएँ की हैं और अब पहली अंतर्राष्ट्रीय यात्रा की तैयारी कर रहा हूँ - अक्टूबर के प्रारम्भ में कुछ सप्ताह के लिए भारत वापस लौटूँगा, तो लम्बी यात्रा की सोच कर मन में कुछ घबराहट सी हो रही है।<br /><br />सोचा कि आज अपने जीवन की कुछ न भूल पाने वाली रोमाँचकारी यात्राओं को याद करना चाहिये, जब सचमुच में डर और घबराहट का सामना करना पड़ा था (नीचे की तस्वीर में रूमझटार-नेपाल में एक रोमाँचक यात्रा में मेरे साथ हमारे गाईड कृष्णा जी हैं।)।<div><br /><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhvu578Zqt5bh2tm-lRvWj5YX4VspaxU32AFYJbWWO-16qkKmeEXDYxDGTgJkgEaC3_Fdm-yKFZvmas3FJMcnu9PU7myN2Oi0xEiQFejedJPu6ZZc9aZu2CSxxPMrZkjCC26iwKqF7fET_LtQSv38axHUorunqz_RYxz2WRuHd94T7RqvGP1i3rl_MqA/s820/sunil-krishna-okhaldhunga.JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="573" data-original-width="820" height="280" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhhvu578Zqt5bh2tm-lRvWj5YX4VspaxU32AFYJbWWO-16qkKmeEXDYxDGTgJkgEaC3_Fdm-yKFZvmas3FJMcnu9PU7myN2Oi0xEiQFejedJPu6ZZc9aZu2CSxxPMrZkjCC26iwKqF7fET_LtQSv38axHUorunqz_RYxz2WRuHd94T7RqvGP1i3rl_MqA/w400-h280/sunil-krishna-okhaldhunga.JPG" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h3 style="text-align: left;">रोमाँचकारी बोलिविया यात्रा</h3>अगर रोमाँचकारी यात्राओं की बात हो तो मेरे मन में सबसे पहला नाम दक्षिण अमरीकी देश बोलिविया का उभरता है। बोलिविया की राजधानी ला'पाज़ ऊँचे पहाड़ों पर बसी है। 1991 में जब वहाँ हवाई जहाज़ से उतरे तो हवाई अड्डे पर जगह-जगह लिखा था कि अगर चक्कर आयें या साँस लेने में दिक्कत हो या बेहोशी सी लगे तो तुरंत बैठ जायें और सिर को घुटनों के बीच में कर लें। तभी हमारे साथ का एक यात्री "चक्कर आ रहे हैं" कह कर वहीं ज़मीन पर लेट गया तो जी और भी घबराया। खैर मुझे ला'पाज़ में कुछ परेशानी नहीं हुई।<br /><br />कुछ दिन बाद हम लोग छोटे से तीन सीट वाले हवाई जहाज़ से त्रिनीदाद शहर गये। वहाँ का हवाई अड्डा एक घास वाला मैदान था जहाँ पर गायें चर रही थीं। पायलेट साहब ने मैदान पर जहाज़ के चक्कर लगाये जब तक नीचे से कर्मचारियों ने गायों को हटाया। दो दिन बाद हम लोग वहाँ से ला'क्रूस जाने के लिए उसी मैदान में लौटे तो मूसलाधार बारिश हो रही थी। इस जहाज़ में दो ही सीटें थीं, तो मैं स्टूल पर पायलेट के पीछे बैठा। पायलट ने जहाज़ का इंजन चालू किया और चलने लगे, लेकिन बारिश इतनी थी कि जहाज़ हवा में उठ नहीं पाया। तब पायलेट ने जहाज़ को रोकने के लिए ब्रेक लगायी, तो भी एक पेड़ से टक्कर होते होते बची। उस ब्रेक में मेरा स्टूल भी नीचे से खिसक गया तो मैं नीचे गिर गया। चोट तो कुछ नहीं लगी लेकिन मन में डर बैठ गया कि शायद यहाँ से बच कर नहीं लौटेंगे। खैर पायलेट ने जहाज़ को घुमाया और फ़िर से उसको चलाने की कोशिश की, इस बात जहाज़ उठ गया। एक क्षण के लिए लगा कि वह पेड़ों से ऊपर नहीं जा पायेगा, लेकिन उनको छूते हुए ऊपर आ गया, तब जान में जान आयी (नीचे की तस्वीर में त्रिनिदाद शहर की बारिश में हमारा हवाई जहाज़)।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhuS-9_PY95P5Sfynj_OGAhtOWubOFsyPNQiJLlowj3Rt19Cf2jN61Tptvg4GY1iZnJxqtNp7YAbZ1cE4hmT9lO8X49JdGDJrHHQ5oUZ7r35JMSrslpDEXho8l7p3NcsgND4nmeqnjCX5z8zZnwx5jIyh2w9rN1XIEtnBYWPMc5DTPg4sSbKm-M1dpTgw/s920/02.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhuS-9_PY95P5Sfynj_OGAhtOWubOFsyPNQiJLlowj3Rt19Cf2jN61Tptvg4GY1iZnJxqtNp7YAbZ1cE4hmT9lO8X49JdGDJrHHQ5oUZ7r35JMSrslpDEXho8l7p3NcsgND4nmeqnjCX5z8zZnwx5jIyh2w9rN1XIEtnBYWPMc5DTPg4sSbKm-M1dpTgw/w400-h311/02.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div>ला'क्रूस में हम लोगों को रिओ मादेएरा नाम की नदी के बीच में एक द्वीप पर बने स्वास्थ्य केन्द्र में जाना था। जाते हुए तो कुछ कठिनाई नहीं हुई। जब वापस चलने का समय आया तो अँधेरा होने लगा था। नदी का पानी बहुत वेग में था और बीच-बीच में पानी में तैरते हुए बड़े वृक्ष आ रहे थे। तब मालूम चला कि नाव की बत्ती खराब थी, अँधेरे में ही यात्रा करनी होगी। फ़िर नाव वाले ने बताया कि वहाँ नदी में पिरानिया मछलियाँ थीं जो माँस खाती हैं, इसलिए वहाँ पानी में हाथ नहीं डालना था। अँधेरे में नाव की उस आधे घँटे की यात्रा में दिल इतना धकधक किया कि पूछिये मत। डर था कि नाव किसी तैरते वृक्ष से टकरायेगी तो पानी में गिर जाऊँगा और अगर उसके वेग में न भी बहा तो पिरानिया मछलियाँ मेरे हाथों-पैरों के माँस को खा जायेंगी। मन में हनुमान चलीसा याद करते हुए वह यात्रा पूरी हुई।<br /><br />उसके बाद में मैं बोलिविया दोबारा नहीं लौटा! तीस सालों के बाद भी मेरी यादों में वही यात्रा मेरे जीवन का सबसे रोमाँचकारी अनुभव है।<br /><h3 style="text-align: left;">रोमाँचकारी नेपाल यात्रा</h3>मैं नेपाल कई बार जा चुका था लेकिन 2006 की एक यात्रा विषेश रोमाँचकारी थी। उस यात्रा में हम लोग ऊँचे पहाड़ों के बीच ओखलढ़ुंगा जिले में गये थे, जहाँ से एवरेस्ट पहाड़ की चढ़ाई की लिए बेस कैम्प की ओर जाते हैं। रुमझाटार के हवाई अड्डे से ओखलढ़ुंगा शहर तक पैदल गये, तो पहाड़ की चढ़ाई में मेरा बुरा हाल हो गया। लेकिन असली दिक्कत तो लौटते समय समय हुई जब रुमझाटार में इतनी तेज़ हवा चल रही थी कि हमारा हवाई जहाज़ वहाँ उतर ही नहीं पाया। हमसे कहा गया कि हम अगले दिन लौटें, इसलिए रात को वहीं रुमझाटार के एक होटल में ठहरे (नीचे की तस्वीर में रूमझटार का एक रास्ता)।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPwwGKcPrkgJ8VqkDRbpPAW8FlYZUe5J2Z6XGlf4NyYRt1yivmtTbJ7DY-Zjs7kZfmYP7ABFS8HIFp7AWBqAlmvGg1PH8EN8Fc-0j5dqa-cEbRPZJ0ddq17MFC-0jQfkKE0oKu2eXY9gjkB0LU0DDMTSZfJxYne2CEwB64iiIEJzq5hwCOqMfeU1FROQ/s940/05.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="940" data-original-width="920" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPwwGKcPrkgJ8VqkDRbpPAW8FlYZUe5J2Z6XGlf4NyYRt1yivmtTbJ7DY-Zjs7kZfmYP7ABFS8HIFp7AWBqAlmvGg1PH8EN8Fc-0j5dqa-cEbRPZJ0ddq17MFC-0jQfkKE0oKu2eXY9gjkB0LU0DDMTSZfJxYne2CEwB64iiIEJzq5hwCOqMfeU1FROQ/w391-h400/05.jpg" width="391" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div>वह इलाका माओवादियों के कब्ज़े में था। हालाँकि हम लोग जिस प्रोजेक्ट के लिए वहाँ गये थे, उसके लिए माओवादियों से अनुमति ली गयी थी, फ़िर भी कुछ डर था कि रात में माओवादी नवयुवक होटल पर हमला कर सकते थे। वैसा ही हुआ। लड़कों ने रात को मेरे दरवाज़े पर खूब हल्ला किया, लेकिन मैंने दरवाज़ा नहीं खोला। डर के मारे बिस्तर में दुबक कर बैठा रहा, सोच रहा था कि वह लोग दरवाज़ा तोड़ देंगे, लेकिन उन्होंने वह नहीं किया। करीब एक घँटे तक उनका हल्ला चलता रहा, फ़िर वे चले गये।<br /><br />दूसरे दिन भी वह तेज़ हवा कम नहीं हुई थी तो हमारी उड़ान को एक दिन की देरी और हो गयी। दूसरी रात को कुछ परेशानी नहीं हुई। तीसरे दिन भी जब हवा कम नहीं हो रही थी तो मैं घबरा गया, क्योंकि मेरी काठमाँडू से वापस जाने वाली फ्लाईट के छूटने का डर था।<div><br /></div><div>तो हमने एक हेलीकोप्टर बुलवाया। उस तेज़ हवा में जब वह हेलीकोप्टर ऊपर उठने लगा तो मुझे बोलिविया वाली उड़ान याद आ गयी। वह मेरी पहली हेलीकोप्टर यात्रा थी। खैर हम लोग सही सलामत वापस काठमाँडू वापस पहुँच गये।<br /><h3 style="text-align: left;">रोमाँचकारी लंडन यात्रा</h3>नब्बे के दशक में मैं अक्सर लंडन जाता था। हमारा आफिस हैमरस्मिथ में था, हमेशा वहीं के एक होटल में ठहरता था। वहाँ मेरी कोशिश रहती थी कि सुबह जल्दी उठ कर नाश्ते से पहले थेम्स नदी के आसपास सैर करके आऊँ, शहर का वह हिस्सा मुझे बहुत मनोरम लगता था (नीचे की तस्वीर में)।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhaEp7ms2PeSb5ZqfsfVsnL_8v5ssltCn56TlKfWEUq-QmOmkqsT-I9JvABdCIA1Y_9LoSYy2pFayXbZ-WRhDt114peI7XXlvLVMhYO-nQy_HvlMzckNGHqZeB3QhPwrUvOtfZHD1dqcxOP53UFpHgSXw_6s2fJT0BRpQwaKDSfhXnMAcuVTXKuGttQ6Q/s920/01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhaEp7ms2PeSb5ZqfsfVsnL_8v5ssltCn56TlKfWEUq-QmOmkqsT-I9JvABdCIA1Y_9LoSYy2pFayXbZ-WRhDt114peI7XXlvLVMhYO-nQy_HvlMzckNGHqZeB3QhPwrUvOtfZHD1dqcxOP53UFpHgSXw_6s2fJT0BRpQwaKDSfhXnMAcuVTXKuGttQ6Q/w400-h311/01.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>वैसे ही एक बार मैं वहाँ गया तो शाम को पहुँचा। अगले दिन सुबह मेरी मीटिंग थी, मैं खाना खा कर सो गया। अगले दिन सुबह जल्दी नींद खुल गयी। तो मैंने टेबल लैम्प जलाया, सोचा कि नदी किनारे सैर के लिए जाऊँगा, इसलिए उठ कर बिजली की केतली में कॉफ़ी बनाने के लिए पानी गर्म करने के लिए लगाया और खिड़की खोली।</div><div><br />खिड़की खोलते ही बाहर देखा तो सन्न रह गया। बाहर चारों तरफ़ होटल की ओर बँदूके ताने हुए पुलिस के सिपाही खड़े थे। झट से मैंने खिड़की बन्द की, बत्ती बन्द की और वापस बिस्तर में घुस गया। एक क्षण के लिए सोचा कि बिस्तर के नीचे घुस जाऊँ, फ़िर सोचा कि अगर किस्मत में मरना ही लिखा है तो बिस्तर में मरना बेहतर है। करीब आधे घँटे के बाद कमरे के बाहर से लोगों की आवाज़ें आने लगीं, लोग आपस में बातें कर रहे थे। मैंने कमरे का दरवाज़ा हल्का सा खोला और बाहर झाँका तो हॉल पुलिस के आदमियों से भरा था, लेकिन अब उनके हाथों में बँदूकें नहीं थीं।<br /><br />नहा-धो कर नीचे रेस्टोरैंट में गया तो वहाँ पुलिस वाले भी बैठ कर चाय-नाश्ता कर रहे थे। तब मालूम चला कि हमारे होटल में एक आतंकवादी ठहरा था, उसे पकड़ने के लिए वह पुलिसवाले आये थे। खुशकिस्मती से उस आतंकवादी ने पुलिस को आत्मसमर्पण कर दिया और बँदूक चलाने का मौका नहीं आया।<br /><br />लंडन में ही एक और अन्य तरह की सुखद रोमाँचकारी याद भी जुड़ी है। मेरा ख्याल है कि वह बात 1995 या 96 की थी, जब वहाँ एक समारोह में मुझे प्रिन्सेज़ डयाना से मिलने का और बात करने का मौका मिला (नीचे की तस्वीर में)।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhuzp4szADThTOjJUNJtEkhcpbVkX0_YeZrE96PVCXTcc7F_KvNvIgcFthFZptFLvaAHUZ2NpUVCckptocYF_NHXoJIlwAW1-p9jWVhunpL5fRMHvbOt4kfp-9Llt3auRE6Z0qfngVjldUDNPj7Jd7CWKU-Vozjc8bTtS6qLRBDoHvDBlWsvev4G4uWeQ/s920/04.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhuzp4szADThTOjJUNJtEkhcpbVkX0_YeZrE96PVCXTcc7F_KvNvIgcFthFZptFLvaAHUZ2NpUVCckptocYF_NHXoJIlwAW1-p9jWVhunpL5fRMHvbOt4kfp-9Llt3auRE6Z0qfngVjldUDNPj7Jd7CWKU-Vozjc8bTtS6qLRBDoHvDBlWsvev4G4uWeQ/w400-h311/04.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>उनके अतिरिक्त, कई देशों में प्रधान मंत्री या राजघराने के लोगों से पहले भी मिला था और उनके बाद भी ऐसे कुछ मौके मिले, लेकिन उनसे मिल कर जो रोमाँच महसूस किया था, वह किसी अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति से मिल कर नहीं हुआ। उस मुलाकात के कुछ महीनों बाद जब सुना कि उनकी एक एक्सीडैंट में मृत्यु हो गयी है तो मुझे बहुत धक्का लगा था।</div><div><h3 style="text-align: left;">रोमाँचकारी चीन यात्रा</h3>यह बात 1989 की है। तब चीन में विदेशियों का आना बहुत कम होता था। उस समय मेरे चीनी मित्र सरकारी दमन के विरुद्ध दबे स्वर में तभी बोलते थे जब हम खेतों के बीच किसी खुली जगह पर होते थे और आसपास कोई सुनने वाला नहीं होता था। वह कहते थे कि सरकारी जासूस हर जगह होते हैं। एक डॉक्टर मित्र, जिनके पिता माओ के समय में प्रोफेसर थे और जिन्हें खेतों में काम करने भेजा गया था, ने कैम्प में बीते अपने जीवन की ऐसी बातें बतायीं थीं जिनको सुन कर बहुत डर लगा था।</div><div><br /></div><div>28 मई को हम लोग कुनमिंग से बेजिंग आ रहे थे तो रास्ते में हमारे हवाई जहाज़ का एक इँजिन खराब हो गया। उस समय जहाज़ पहाड़ों के ऊपर से जा रहा था, जब नीचे जाने लगा तो लोग डर के मारे चिल्लाये। खैर, पायलेट उस जहाज़ की करीब के हवाई अड्डे पर एमरजैंसी लैंडिग कराने में सफल हुए। तब चीन में अंग्रेज़ी बोलने वाले कम थे। जहाज़ की एयर होस्टेज़ और हवाई अड्डे के कर्मचारी किसी को इतनी अंग्रेज़ी नहीं आती थी कि हमें बता सके कि हम लोग किस जगह पर उतरे थे और हमारी आगे की बेजिंग यात्रा का क्या होगा।</div><div><br />जब हम लोगों को बस में बिठा कर होटल ले जाया जा रहा था तो सड़कों को बहुत से लोग प्रदर्शन करते हुए और नारे लगाते हुए दिखे, लेकिन वह भी हम लोग समझ नहीं पाये कि क्या हुआ था। वहाँ लोगों को खुलेआम सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करते देखना बहुत अद्भुत लगा था। (नीचे की तस्वीर सियान शहर में बस की खिड़की से खींची थी जिसमें सड़क के किनारे बैठा एक परिवार है)</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0-UrmHqzsLSsg4xWH-CC6Vzao7XP1NTPhCevNVo67d2PisQw7HnKCdaWg8eWjg9687YdP3NeAlaGAPpJ-Spn9L7MCSqL_ZR-PvzLCfJD8aKRIqf-zGaFK8-hdPCSyrxq15p60nU_UOUXy1pCvaS3rvMZja21gkRU_LIq9NfM348Xo128X886EgCAN9g/s920/03.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0-UrmHqzsLSsg4xWH-CC6Vzao7XP1NTPhCevNVo67d2PisQw7HnKCdaWg8eWjg9687YdP3NeAlaGAPpJ-Spn9L7MCSqL_ZR-PvzLCfJD8aKRIqf-zGaFK8-hdPCSyrxq15p60nU_UOUXy1pCvaS3rvMZja21gkRU_LIq9NfM348Xo128X886EgCAN9g/w400-h311/03.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>होटल पहुँच कर एक ताईवानी चीनी ने हमको सब कुछ बताया। उस शहर का नाम सियान था, वहाँ कुछ वर्ष पहले दो हज़ार वर्ष पुराने चीनी सम्राट की कब्र मिली थीं जिसमें उनके साथ हज़ारों टेराकोटा मिट्टी के बने सैनिकों, पशुओं आदि को भी दफ़नाया गया था। हम लोग उस टेराकोटा की फौज के खुदाई स्थल को देखने गये तो रास्ते में और प्रदर्शन करने वाले दिखे। मालूम चला कि एक उदारवादी नेता हू याओबाँग की मृत्यु हो गयी थी और लोग, विषेशकर विद्यार्थी, जनताँत्रिक सुधारों के लिए प्रदर्शन कर रहे थे।</div><div><br />दूसरे दिन दोपहर को जब हमारे हवाई जहाज़ के इँजिन की मरम्मत हुई तो हम लोग शाम को बेजिंग पहुँचे। अगले दिन, एक जून को सुबह हमारी स्वास्थ्य मंत्रालय में मीटिंग थी, उस समय बारिश आ रही थी। मंत्रालय से हमें लेने कार आयी तो रास्ते में तिआन-आँ-मेन स्कावर्य के पास से गुज़रे। तब मंत्रालय के सज्जन ने हमे बताया कि वहाँ भी विद्यार्थी हड़ताल कर रहे थे। उस समय बारिश तेज़ थी, इसलिए हम लोग कार से नहीं उतरे, वहीं कार की खिड़की से ही मैंने कुछ विद्यार्थियों की एक-दो तस्वीरें खींची। बारिश में भीगते, ठँडी में ठिठुरते उन युवकों को देख कर वह प्रदर्शन कुछ विषेश महत्वपूर्ण नहीं लग रहा था।<br /><br />उसी दिन रात को हम लोग बेजिंग से वापस इटली लौटे। मेरे पास केवल एक दिन का कपड़े और सूटकेस बदलने का समय था, तीन जून को मुझे अमरीका में फ्लोरिडा जाना था। चार तारीख को शाम को जब फ्लोरिडा के होटल में पहुँचा तो वहाँ टीवी पर बेजिंग के तिआन-आँ-मेन स्कावर्य में टैंकों की कतारों और मिलेट्री के प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों पर हमले को देख कर सन्न रह गया। तब सोचा कि दुनिया ने बेजिंग में जो हो रहा था, केवल उसे देखा था, क्या जाने सियान जैसे शहरों में प्रदर्शन करने वाले नवजवानों पर क्या गुज़री होगी।<br /><br />मैं उसके बाद भी चीन बहुत बार लौटा और उस देश को काया बदलते देखा है। मेरे बहुत से चीनी मित्र भी हैं, लेकिन उस पुराने चीन के डँडाराज को कभी नहीं भुला पाया।<br /><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3>काम के लिए तीस-पैंतीस सालों तक मैंने इतनी यात्राएँ की हैं, कि अब यात्रा करने का मन नहीं करता। आजकल मेरी यात्राएँ अधिकतर भारत और इटली, इन दो देशों तक ही सीमित रहती हैं। बहुत से देशों की यात्राओं के बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं, क्यों कि होटल और मीटिंग की जगह के अलावा वहाँ कुछ अन्य नहीं देख पाया था।<br /><br />उन निरंतर यात्राओं से मैं पगला सा गया था। जैसे कि, नब्बे के दशक में एक बार मुझे भारत हो कर मँगोलिया जाना था। मैं दिल्ली पहुँचा तो हवाई अड्डे से सीधा आई.टी.ओ. के पास मीटिंग में गया और उसके समाप्त होने के बाद सीधा वहाँ से हवाई अड्डा लौटा और बेजिंग की उड़ान पकड़ी। दिल्ली में घर पर माँ को भी नहीं मालूम था कि मैं उस दिन दिल्ली में था और उनसे बिना मिले ही चला आया था। इसी तरह से एक बार मैं पश्चिमी अफ्रीका के देश ग्विनेआ बिसाऊ में था। रात को नींद खुली तो सोचने लगा कि मैं कौन से देश में था? बहुत सोचने के बाद भी मुझे जब याद नहीं आया कि वह कौन सा देश था तो होटल के कागज़ पर शहर का नाम खोजा। (नीचे की तस्वीर दक्षिण अमरीकी देश ग्याना की एक यात्रा से है।)</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK1YuOmM9-6poQ9xhtCRb_Ka20KbQUozG4Wd6FSH9opMEdl_GEJpEMUATRS7zNf4DmRqRBX1njXXxmcJ7A9o1kluuSAnIvWiOyOc31tU5DWmcctAllc-nVO7jPfdqdBLPcb-0Sngk0mXwHfaH2kdvlXD9BCPVJxg2DSxlJE5AEFPAlD65_pPRotlD_vQ/s820/08.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Sunil in Rupununi, near the Brazilian border, in Guyana" border="0" data-original-height="704" data-original-width="820" height="344" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK1YuOmM9-6poQ9xhtCRb_Ka20KbQUozG4Wd6FSH9opMEdl_GEJpEMUATRS7zNf4DmRqRBX1njXXxmcJ7A9o1kluuSAnIvWiOyOc31tU5DWmcctAllc-nVO7jPfdqdBLPcb-0Sngk0mXwHfaH2kdvlXD9BCPVJxg2DSxlJE5AEFPAlD65_pPRotlD_vQ/w400-h344/08.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div>इसीलिए उन दिनों में जब कोई मुझे कहता कि कितने किस्मत वाले हो कि इतने सारे देश देख रहे हो, तो मन में थोड़ा सा गुस्सा आता था, लेकिन चुप रह जाता था। शायद यही वजह है कि कोविड की वजह से कहीं बाहर न निकल पाने, कोई लम्बी यात्रा न कर पाने का मुझे ज़रा भी दुख नहीं हुआ। अब ढाई साल के गृहवास के बाद भारत लौटने का सोच कर अच्छा लगता है क्योंकि परिवार व मित्रों से मिलने की इच्छा है।<div><br /></div><div>*****</div></div></div></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-46012674840884890572022-09-27T18:15:00.001+02:002024-02-22T08:03:05.303+01:00भारत के सबसे सुन्दर संग्रहालयकुछ समय पहले भारत के अंग्रेज़ी अखबार फर्स्टपोस्ट पर <a href="https://www.firstpost.com/blogs/national-museum-needs-a-change-of-scene-9633961.html" target="_blank">रश्मि दासगुप्ता का एक आलेख</a> पढ़ा था जिसका शीर्षक था "राष्ट्रीय संग्रहालय को बदलाव की आवश्यकता है"। इस आलेख की पृष्ठभूमि में मोदी सरकार का दिल्ली के "राजपथ" पर नये भवनों का निर्माण है जिनमें राष्ट्रीय संग्रहालय भवन भी आता है। कुछ दिन पहले ही प्रधान मंत्री ने नये राजपथ का उद्घाटन किया था और इसे नया नाम दिया गया है, "कर्तव्यपथ"।<div><br /></div><div>इस नवनिर्माण में आज जहाँ राष्ट्रीय संग्रहालय है वहाँ कोई अन्य भवन बनेगा और कर्तव्यपथ के उत्तर में जहाँ अभी नॉर्थ तथा साउथ ब्लाक में मंत्रालय हैं वहाँ पर यह नया संग्रहालय बनाया जायेगा। चूँकि दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय मेरे मनपसंद संग्रहालयों में से है, मैंने सोचा कि भारत के अपने मनपसंद संग्रहालयों के बारे में एक आलेख लिखना चाहिये। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से उन्नीसवीं शताब्दी की धनुराशि का एक शिल्प दक्षिण भारत से है।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgP_jNsYN-mV5dRAKMCUQ3a5ePhO1ho_qvV_ez3MQQE3khLd1jMmvHc7cpiRCsFsTK3DAy3HNXBINtIXyR_MKyWxofW0aKWnmavntdNPN2vsRnx4y1w-Lm80L70vAnTHHAEU3g-j2UAQjn3IZ0gBFrUVHsW2gnWR-2Q0Do18Jqh7-3ix1Q89elNq9mJKw/s707/06.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="National Museum, Delhi" border="0" data-original-height="707" data-original-width="687" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgP_jNsYN-mV5dRAKMCUQ3a5ePhO1ho_qvV_ez3MQQE3khLd1jMmvHc7cpiRCsFsTK3DAy3HNXBINtIXyR_MKyWxofW0aKWnmavntdNPN2vsRnx4y1w-Lm80L70vAnTHHAEU3g-j2UAQjn3IZ0gBFrUVHsW2gnWR-2Q0Do18Jqh7-3ix1Q89elNq9mJKw/w389-h400/06.jpg" width="389" /></a></div><br /><h3 style="text-align: left;">संग्रहालयों की उपयोगिता</h3>सतरहवीं से बीसवीं शताब्दियों में युरोप के कुछ देशों ने एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका महाद्वीपों के विभिन्न देशों पर कब्ज़ा कर लिया। क्योंकि उन देशों की भाषाएँ, वेषभूषाएँ, परम्पराएँ यूरोप से भिन्न थीं, इसलिए उनकी संस्कृतियों को नीचा माना जाता था। उन "पिछड़ी" सभ्यताओं के बारे में ज्ञान एकत्रित करने के लिए "मानव सभ्यता विज्ञान" यानि एन्थ्रोपोलोजी के विषेशज्ञ तैयार किये गये जो उन उपनिवेशित देशों में जा कर वहाँ के "जँगली" लोगों के बीच में रह कर उनके रहने, खाने, रीति रिवाज़, आदि विषयों का अध्ययन करते थे। उन देशों से लायी कीमती वस्तुएँ, जिनमें सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि के गहने थे, वह सब भी यूरोप पहुँच गये। उनकी कला व साँस्कृतिक धरौहरों के लिए संग्रहालय बनाये गये, जिनमें विभिन्न देशों से लायी वस्तुओं को रखा गया।<br /><br />आज भी एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों की बहुत सी साँस्कृतिक धरौहरें लँदन, पैरिस और एमस्टरडैम के संग्रहालयों में मिलती हैं। समय के साथ, नये स्वतंत्र हुए विकासशील देशों ने धीरे धीरे अपने संग्रहालय बनाने शुरु किये हैं। पहले जहाँ संग्रहालयों में वस्तुओं को अधिकतर कौतुहल का विषय मान कर रखा जाता था, उसमें बदलाव आया। धीरे-धीरे यह समझ बनी कि हर वस्तु को उसके साँस्कृतिक तथा सामाजिक अर्थ, इतिहास व परिवेश की पृष्ठभूमि के साथ ही समझा जा सकता है। डिजिटल तकनीकी के विकास ने संग्रहालयों को इंटरएक्टिव बना दिया जिससे दर्शकों को हर प्रदर्शित वस्तु के बारे में जानकारी पाने का एक नया माध्यम मिला।</div><div><br />स्वतंत्रता के बाद धीरे धीरे भारत के लोगों में अपनी प्राचीन सभ्यता के विषय में जानने की इच्छा बनी है, और पुरात्तव विभाग ने कई जगहों पर काम किये हैं। हमारे अधिकतर संग्रहालय पुरानी, धूल से भरी जगहें हैं, जो बिना समझ वाले बाबू लोगों द्वारा संचालित हैं, लेकिन साथ ही सुन्दर संग्रहालय बनाने के कुछ प्रयास हुए हैं। जैसे जैसे भारत विकसित देश बनेगा, देश की पुरातत्व संस्थाओं को और संग्रहालयों के बजट बढ़ेंगेतो इनमें और भी सुधार आयेगा। <br /><h3 style="text-align: left;">दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय</h3>भारत की स्वतंत्रता के उपलक्ष्य में लँदन में सन् 1947-48 में एक भारतीय कला प्रदर्शनी लगायी गयी थी, उस कला प्रदर्शनी के समाप्त होने के बाद उस प्रर्दशनी के लिए एकत्रित वस्तुओं से हमारे राष्ट्रीय संग्रहालय की शुरुआत की गयी थी। जब तक राष्ट्रीय संग्रहालय का भवन बन कर तैयार नहीं हुआ था, तब तक सब सामान राष्ट्रपति भवन में रखा गया था।<br /><br />मुझे हमारा राष्ट्रीय संग्रहालय बहुत अच्छा लगता है। मैंने यूरोप में कई संग्रहालय देखे हैं, मुझे यहाँ की प्रदर्शनी विदेशों के किसी भी संग्रहालय से कम नहीं लगती। दिल्ली में जब भी मौका मिलता है मैं राष्ट्रीय संग्रहालय में अवश्य एक चक्कर लगा लेता हूँ। संग्रहालय की गैलरियों में प्रदर्शित शिल्प, कला तथा आम जीवन की वस्तुओं में भारत के दो हज़ार वर्षों से अधिक इतिहास को देखा जा सकता है। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से बाहरवीं शताब्दी की काकातीय शैली का त्रिदेव का शिल्प हैदराबाद के पास वारांगल से है।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXmiNw-Xau9PilMy44DDfHbnkDE8QJKVIaKYontVWwXo2M7n7x9ot3_J7cUK2FboFoS-7YCNCyZoAfqeWIt1POjvUuhmlWT6kWd0mXoWr52fN4pcKVl0RcBbXjVCT5O1ZEUOug5Ogz6BTt1R8EiGsZzQfk0pP7KiHwpLUGUY4v7o8HQPUW2Z43glycrA/s845/07.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="National museum, Delhi" border="0" data-original-height="590" data-original-width="845" height="279" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXmiNw-Xau9PilMy44DDfHbnkDE8QJKVIaKYontVWwXo2M7n7x9ot3_J7cUK2FboFoS-7YCNCyZoAfqeWIt1POjvUuhmlWT6kWd0mXoWr52fN4pcKVl0RcBbXjVCT5O1ZEUOug5Ogz6BTt1R8EiGsZzQfk0pP7KiHwpLUGUY4v7o8HQPUW2Z43glycrA/w400-h279/07.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">उत्तरी, पूर्वी, पक्षिमी, और दक्षिण भारत के भिन्न हिस्सों के विभिन्न युगों के इतिहासों को एक जगह पर ठीक से दिखाना चाहें तो आज के राष्ट्रीय संग्रहालय से दस गुना जगह भी शायद कम पड़ेगी। उसकी प्रदर्शित वस्तुएँ इतनी सुन्दर हैं कि मैं हर बार वहाँ कई घँटों तक घूमता रहता हूँ। सुना है कि नये भवन में संग्रहालय को अपनी प्रर्दशनियों के लिए अधिक और बेहतर जगह मिलेगी।</div><div><br />मेरे विचार में हर सप्ताह-अंत में, राष्ट्रीय संग्रहालय में जन सामान्य के लिए इतिहास, संगीत, धर्म, संस्कृति आदि के विषेशज्ञयों द्वारा संचालित गाईडिड टूर होने चाहिये ताकि लोगों को हमारे इतिहास के बारे में रुचि बढ़े और उन्हें किताबी समझ के दायरे से बाहर का ज्ञान मिले। उन्हें जनता के लिए फ़िल्मों तथा वार्ताओं के कार्यक्रम भी नियमित रूप से आयोजित करने चाहिये, जिनमें संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं के बारे में गहराई से जाना जा सके।</div><div><h3 style="text-align: left;"><a href="https://www.sahapedia.org/" target="_blank">सहपीडिया का डिजिटल संग्रहालय</a></h3>इंटरनेट तथा डिजिटल तकनीकी ने साईबरलोक में नई तरह के संग्रहालय बनाने का मौका दिया है। भारत में इसका सबसे बढ़िया नमूना है <a href="https://www.sahapedia.org/" target="_blank">सहपीडिया</a> में जिनके आरकाईव में भारत के राज्यों, लोगों के जीवन, धर्म, रीति रिवाज़ों, और साँस्कृतिक धरौहरों के बारे में आप को घर बैठे या खाली समय में बहुत सी जानकारी मिल सकती है जिसे किसी एक संग्रहालय में एकत्रित करना असंभव है।<br /><br />मैंने उनके दिल्ली के दफ्तर में कई दिलचस्प वार्ताओं व सम्मेलनों में हिस्सा लिया है। इस सब के साथ वह वर्कशॉप, तथा देश के विभिन्न शहरों में साँस्कृतिक महत्व की जगहों पर "हेरीटेज वॉक" का आयोजन भी करते रहते हैं।<br /><br />उनके <a href="https://www.sahapedia.org/lang/hindi" target="_blank">कुछ पृष्ठ हिंदी</a> तथा अन्य भारतीय भाषाओं में हैं, लेकिन बहुत सी सामग्री केवल अंग्रेज़ी में है। यही सहपीडिया की सबसे बड़ी कमज़ोरी है।<br /><h3 style="text-align: left;">गुरुग्राम का संस्कृति संग्रहालय</h3>दिल्ली के पास गुरुग्राम में, दिल्ली मैट्रो के अंजनगढ़ स्टेशन के पास आनन्दग्राम में एक अन्य सुन्दर संग्रहालय है, संस्कृति संग्रहालय। यह छोटा सा है लेकिन यहाँ भारत के विभिन्न राज्यों से आयी हुई जनजातियों द्वारा बनाई गयी मिट्टी की कला वस्तुओं का संग्रह मुझे बहुत अच्छा लगा। यह एक निजि संग्रहालय है जिसे श्री ओमप्रकाश जैन द्वारा बनवाया गया था।<br /><br />संग्रहालय के तीन भाग हैं - आम जीवन में प्रयोग आने वाली वस्तुएँ, मिट्टी की कला यानि टेराकोटा (Terracotta) कला तथा बुनकर कला जिसमें भिन्न तरह के करघे पर बुने कपड़े (टेक्टाईल)हैं। नीचे की तस्वीर में गुरुग्राम के संस्कृति संग्रहालय से तामिलनाडू से कुप्पास्वामी का टेराकोटा शिल्प है जोकि भगवान आइनार की सेना के अधिपति हैं।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKqJjWjTYfP9EGiA-MHqvwpr34IglstNJAOYUGKynoOIFzHFKDVdJmAisFwPa-sDCiDfCuUzcIa-ALjBvEgiJQ96Yl8vhS-3Wdwwa1Oo83E6z4Vov3r9vpsLcUbSPfJmoHPk1qDO6emUm49k25TnJZOYFa7zlxDjNAyCktOotBOj9mhAdON_a8BHq-ow/s707/05.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Sanskriti museum, Gurugram" border="0" data-original-height="707" data-original-width="687" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKqJjWjTYfP9EGiA-MHqvwpr34IglstNJAOYUGKynoOIFzHFKDVdJmAisFwPa-sDCiDfCuUzcIa-ALjBvEgiJQ96Yl8vhS-3Wdwwa1Oo83E6z4Vov3r9vpsLcUbSPfJmoHPk1qDO6emUm49k25TnJZOYFa7zlxDjNAyCktOotBOj9mhAdON_a8BHq-ow/w389-h400/05.jpg" width="389" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">संग्रहालय पहुँचने के लिए मैट्रोस्टेशन से कुछ किलोमीटर चलना पड़ता है। यह कठिनाई केवल इस संग्रहालय की नहीं बल्कि बहुत से संग्रहालयों की है - मेरी दृष्टि में कुछ जगहों पर जनपरिवहन का न होना इनके प्रबँधकों की लापरवाही भी दर्शाता है, जो शायद सोचते हैं कि अगर आप के पास अपनी कार या स्कूटर नहीं तो आप को संग्रहालय में दिलचस्पी नहीं होगी। कुछ कमी स्थानीय प्रशासन की भी है जिसे मैट्रो स्टेशनों पर वहाँ के आसपास के संग्रहालय व साँस्कृतिक संस्थानों के बारे में सूचना देनी चाहिये तथा वहाँ पहुँचने के लिए जनसाधनों का प्रबंध करना चाहिये।</div><h3 style="text-align: left;">केरल में कोची का जनजाति संग्रहालय</h3>केरल में <a href="https://www.keralafolkloremuseum.org/" target="_blank">कोची का जनजाति संग्रहालय</a> भी एक निजि संग्रहालय है जोकि वहाँ के वास्तुशिल्प, कला, सभ्यता व संस्कृति से आप का परिचय कराता है। यह संग्रहालय लकड़ी के एक पारम्पिक तरीके के बने भवन में बनाया गया है। इस संग्रहालय में धार्मिक कला शिल्प के बहुत सुन्दर नमूने देखने को मिलते हैं। नीचे की तस्वीर में कोची के जनजाति संग्रहालय में तमिलनाडू से सतरहवीं शताब्दी की लकड़ी की गरुण की मूर्ति का शिल्प है।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgT6XfBNGF2eHrQQfS6BILoVtshkrbcUcm7qvcTXuAsiiR5Kd4lUOopDRuPxjfTv28nNNNTta7XQ86_MwJDlEz04SBdsaEpXHMQvYnphh3--d7APw1ewIk_hoI1sCwgmkNZ9_f0qIkQ5P1jer5k7Pr5X8drEQ6-CXGTRrlssOwUiazLGntryjkFp4T0TQ/s876/04.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Folklore Museum, Kochi" border="0" data-original-height="611" data-original-width="876" height="279" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgT6XfBNGF2eHrQQfS6BILoVtshkrbcUcm7qvcTXuAsiiR5Kd4lUOopDRuPxjfTv28nNNNTta7XQ86_MwJDlEz04SBdsaEpXHMQvYnphh3--d7APw1ewIk_hoI1sCwgmkNZ9_f0qIkQ5P1jer5k7Pr5X8drEQ6-CXGTRrlssOwUiazLGntryjkFp4T0TQ/w400-h279/04.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">इसी संग्रहालय में मैंने पहली बार उत्तरी केरल के कन्नूर जिले के आसपास की प्रचलित थैयम परम्परा के नमूने देखे जिनमें कुछ जनजातियों के लोग पाराम्परिक श्रृंगार और वस्त्र पहन कर देवी देवताओं को अपने शरीर में उतारते हैं। इनको देखने के बाद ही मुझमें कन्नूर जा कर वहाँ के गाँवों में थैयम पूजा को देखने की जिज्ञासा जागी, जोकि मेरे जीवन का बहुत रोमांचक अनुभव था।</div><h3 style="text-align: left;">नागालैंड में किसामा का हेरीटेज गाँव</h3>नागालैंड के गाँवों में अधिकाँश जगहों पर ईसाई धर्म और आधुनिकता के साथ पाराम्परिक सँस्कृति, पुराने तरीके का रहन सहन, रीति रिवाज़ आदि लुप्त से हो रहे हैं। प्राचीन समय में विभिन्न नागा जातियों की अपनी विशिष्ठ परम्पराएँ, वास्तुशिल्प, पौशाकें होती थीं। नागालैंड की राजधानी कोहिमा से थोड़ी दूर <a href="https://kohima.nic.in/tourist-place/kisama-heritage-village/" target="_blank">किसामा साँस्कृतिक धरौहर गाँव</a> है जहाँ नागा जनजातियों के घरों, पौशाकों तथा कलाओं को दिखाया गया है (नीचे की तस्वीर में)।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZF6ncPAIt1qbo6tq6TwcBRQBM8sDvMVM4EBjpM_ocFTG3RuLUrsVNTA1DP3CT8oBx3Q_6hM4VpJTHM5jNtr6t_qZ51pUbx7-6JPQoHZmh3Pv218UTlKfnP15n56HDRC9AyJnJUWWUPE5VryZDkq0F08RO3f7pDnsRV8re4MfxwKG69lVe_Yzwv0qdag/s894/02.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="623" data-original-width="894" height="279" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZF6ncPAIt1qbo6tq6TwcBRQBM8sDvMVM4EBjpM_ocFTG3RuLUrsVNTA1DP3CT8oBx3Q_6hM4VpJTHM5jNtr6t_qZ51pUbx7-6JPQoHZmh3Pv218UTlKfnP15n56HDRC9AyJnJUWWUPE5VryZDkq0F08RO3f7pDnsRV8re4MfxwKG69lVe_Yzwv0qdag/w400-h279/02.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">एक स्तर पर लगता है कि किसामा गाँव विभिन्न नागा जनजातियों के पाराम्परिक जीवन को दिखाने वाला खोखला ढाँचा सा है जिसमें सचमुच का जीवन नहीं है, लेकिन मेरे विचार में आने वाली नागा पीढ़ियों के यह महत्वपूर्ण है कि उनकी पश्चिमी सभ्यता की नयी पहचान के बीच में उनके सदियों के पुराने जीवन की कुछ यादें भी बची रहें।</div><div><br />हर वर्ष दिसम्बर में इस गाँव में एक संगीत तथा साँस्कृतिक समारोह होता है, जो होर्नबिल फेस्टीवल (Hornbill festival) के नाम से जाना जाता है और जिसमें नागा युवक व युवतियाँ अपने प्राचीन वस्त्र, रीति रिवाज़ों तथा परम्पराओं को याद करते हैं। इस समारोह के लिए दूर दूर से पर्यटक नागालैंड आते हैं।<br /><h3 style="text-align: left;">गुवाहाटी का श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र संग्रहालय</h3>गुवाहाटी के "छह मील" नाम के क्षेत्र के पास पँजाबाड़ी में असमिया संगीतकार व कलाप्रेमी भूपेन हज़ारिका द्वारा स्थापित "कलाक्षेत्र संग्रहालय" में असम की साहित्य, नृत्य, कला, नाटक तथा जनजातियों से जुड़ी परम्पराओं को प्रदर्शित किया गया है। इस तरह कलाक्षेत्र केवल संग्रहालय नहीं है, यह कला, नृत्य और नाटकों से असम की जीवंत सँस्कृति से जुड़ा है। यहाँ केवल प्रदर्शनी देखने की जगह नहीं है, बल्कि वहाँ आप असम की सभ्यता को जी सकते हैं।<br /><br />मेरा सौभाग्य था कि कुछ वर्ष पहले मुझे कलाक्षेत्र से थोड़ी दूर ही रहने का मौका मिला, जिससे कलाक्षेत्र जाने के बहुत मौके मिले। कलाक्षेत्र का जनजाति सभ्यता संग्रहालय छोटा सा है लेकिन बहुत सुन्दर है।<br /><br />भक्तीकाल में असम में श्रीमंत शंकरदेव तथा अन्य संतो के द्वारा एक जातिविहीन, कृष्ण भक्ति पर आधारित एक नये तरह के हिन्दु धर्म की परिकल्पना की गयी थी, जिसकी नींव सादे जीवन पर टिकी थी। हिंदू धर्म के इस रूप का केन्द्र नामघर तथा सत्रिया होते हैं। कलाक्षेत्र में आप को इस नामघर संस्कृति को जानने और समझने का मौका भी मिलता है (नीचे की तस्वीर में)।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7ZC9XZBbE29f_4v1CpU0dCYTHoQI9F8vgGZVR4MNs0YCWvSI0XXTdfAF7DbyDV6IliuYC2pdLm_IBPiBKxiQUzQWtfH2W_aNuw95rVMMzkyZiDtLQkMJi63Mq1A_fP_gdsJ_fpevmLsUIstqhnO5Sd2FJdqnv0Vbrwi9anrz3cqtLxTMaGMqI-5UPSQ/s1020/01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Namghar, Kalakshetra, Guwahati" border="0" data-original-height="707" data-original-width="1020" height="278" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7ZC9XZBbE29f_4v1CpU0dCYTHoQI9F8vgGZVR4MNs0YCWvSI0XXTdfAF7DbyDV6IliuYC2pdLm_IBPiBKxiQUzQWtfH2W_aNuw95rVMMzkyZiDtLQkMJi63Mq1A_fP_gdsJ_fpevmLsUIstqhnO5Sd2FJdqnv0Vbrwi9anrz3cqtLxTMaGMqI-5UPSQ/w400-h278/01.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">कलाक्षेत्र के साथ ही शिल्पग्राम भी है जहाँ विभिन्न असमियाँ जनजातियों के घरों और गाँवों को दिखाया गया है जोकि किसामा के नागा गाँवों से मिलता है। यहाँ अक्सर प्रदर्शनियाँ लगती रहती हैं जहाँ आप गृहउद्योग तथा पराम्परिक हस्तकला को देख व खरीद सकते हैं।</div><h3 style="text-align: left;">भोपाल के राष्ट्रीय मानस संग्रहालय व जनजाति संग्रहालय</h3>भोपाल का मानस संग्रहालय व जनजाति संग्रहालय मुझे बहुत प्रिय हैं। दो बार वहाँ जा चुका हूँ लेकिन अगर मौका मिले तो वहाँ अन्य दस बार लौटना चाहूँगा। मैंने बहुत दुनिया घूमी है और मेरे विचार में जनजातियों की सभ्यता व संस्कृतियों के बारे में यह दुनिया का सबसे सुंदर संग्रहालय है। नीचे की तस्वीर में छत्तीसगढ़ से राजवर जनजाति के जीवन को दिखाती एक कृति भोपाल के मानस संग्रहालय से।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgM3OWAzmk0lDE5JPeS1Apy5IvcEL_lHP5iadbNTfm4jMcuIrwhSo3XW4puxiR7wa_q9v1-YpbkjfN-bdH5b9vhjUPpMtD_OpZ2FyXm5_aRCe2pxKNkNPU1rf1VlwKxuSS70NL0SMxA5-m06fA3rymqyf5mpMm90OdRBOGFnSE7RrCs_Is9N7CDa3aE1g/s831/03.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Manas Sangrahalaya museum, Bhopal" border="0" data-original-height="581" data-original-width="831" height="280" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgM3OWAzmk0lDE5JPeS1Apy5IvcEL_lHP5iadbNTfm4jMcuIrwhSo3XW4puxiR7wa_q9v1-YpbkjfN-bdH5b9vhjUPpMtD_OpZ2FyXm5_aRCe2pxKNkNPU1rf1VlwKxuSS70NL0SMxA5-m06fA3rymqyf5mpMm90OdRBOGFnSE7RrCs_Is9N7CDa3aE1g/w400-h280/03.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">मध्यप्रदेश की विभिन्न जनजातियों के आम जीवन की वस्तुएँ, उनके घर, वस्त्र, रीति रिवाज़, विभिन्न कलाओं, आदि से जुड़ी इन संग्रहालयों में इतनी वस्तुएँ हैं कि उनको देखने और समझने के लिए कई महीने चाहिये। सब कुछ इतने सुन्दर तरीके से प्रदर्शित किया गया है कि यहाँ घूम कर महीनों तक यहाँ के सपने आते रहते हैं।</div><br />अगर आप को भोपाल जाने का मौका मिले तो आप को इन दोनों संग्रहालय को अवश्य देखने जाना चाहिये।<br /><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3>रश्मि दासगुप्ता नें अपने आलेख में लिखा है कि भारत में संग्रहालयों में जाने की परम्परा नहीं है। शायद यह बात सच है लेकिन मेरी राय में अगर लोगों को संग्रहालय में आकर्षित करने के लिए वस्तुओं को शीशे के डिब्बे से बाहर निकाल कर रखा जाये और लोगों को वहाँ सैल्फ़ी खींचने आदि से नहीं रोका जाये, तो धीरे धीरे अपनी संस्कृति को जानने समझने के बारे में जिज्ञासा बनायी जा सकती है। अगर संग्रहालय केवल वस्तुओं को दिखाने तक सीमित न रहें, उनमें पारम्परिक कला सीखने, फिल्म, नाटक व नृत्य देखने की सुविधाएँ हों, वहाँ के बारे में दिलचस्प तरीके से समझाने बताने वाले गाईड हों, वहाँ बैठने की जगहें हों जहाँ लोग चाय-कॉफ़ी पी सकें, जहाँ लोग छोटे बच्चों को ले कर आ सकें और जो जनपरिवहन सेवाओं से जुड़े हों, तो नयी पीढ़ी में संग्रहालय जाने की तथा देश की संस्कृति का महत्व समझने की परम्परा भी बन सकती है।<br /><br />अधिकतर संग्रहालय सरकारी बाबू लोगों की निजी रियासतें जैसी होती हैं, जहाँ फोटो खींचना मना होता है और न ही उन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से कैसे दर्शकों को संग्रहालय से जोड़ा जाये की कोई जानकारी होती है। आज का युग मोबाईल फ़ोन का व सैल्फ़ी का युग है, अगर आप दर्शकों को संग्रहालयों में टिवटर, टिकटॉक, फेसबुक आदि पर सैल्फ़ी नहीं दिखाने देंगे तो बहुत से लोग वहाँ नहीं आयेंगे, विषेशकर नवजवान लोग। यह समझ निज़ी संग्रहालयों में अधिक है, इसलिए वह वस्तुओं को ऐसे रखते हैं ताकि लोग वहाँ फोटो खींचे और संग्रहालय के बारे में अपने मित्रों व जानकारों को दिखा सकें कि संग्रहालय में उन्होंने क्या क्या दिलचस्प चीज़ें देखीं, जिससे अन्य लोग भी वहाँ आना चाहें।<br /><br />दूसरी बात है कि भारत में पुराने मन्दिर, मस्जिद, किले, राजमहल, भग्नावषेश, बहुत हैं जो कि खुले संग्रहालय जैसे हैं, उनके सामने कमरों में बन्द सँग्रहालय कम दिलचस्प लगते हैं। जैसे कि एक बार हम्पी या महाबलिपुरम के भग्नावषेशों के बीच घूम लें तो उनके संग्रहालयों में वह आनन्द नहीं मिलता। इसलिए यह कहना की लोगों में संग्रहालय जाने की परम्परा नहीं है, शायद संग्रहालयों की कमियों को न देख पाना है।<br /><br />आशा है कि आप को मेरे प्रिय भारतीय संग्रहालयों का यह टूर अच्छा लगा होगा। क्या आप की दृष्टि में भारत के किसी अन्य राज्य में कोई अन्य संग्रहालय है जो आप को बहुत अच्छा लगता है और जिसे इस सूची का हिस्सा होना चाहिये था? मुझे इसके बारे बताईयेगा, ताकि मैं अगर उस तरफ़ जाऊँ तो उसे अवश्य देखने जाऊँ।<br /><br /><br />*****</div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-56665582023322139842022-08-21T08:37:00.001+02:002024-02-22T08:03:22.239+01:00अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट का घोटालागेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़, युएसएड जैसी संस्थाओं के नाम दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। युनेस्को और युनिसेफ़ तो संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाएँ हैं। ऐसी संस्थाएँ जब कोई रिपोर्ट निकालती हैं तो हम उन पर तुरंत विश्वास कर लेते हैं।<div><br /></div><div>लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रति कुछ संदेह जागे हैं। जैसे कि २०१९ के अंत में चीन में वुहान से कोविड की बीमारी निकली और दुनिया भर में फ़ैली तो विश्व स्वास्थ्य संस्थान ने जब इस महामारी की समय पर चेतावनी नहीं दी तो बहुत से लोगों ने इस संस्था की ओर उंगलियाँ उठायीं कि उन्होंने चीनी सरकार के रुष्ट होने के भय से दुनिया के देशों को समय पर महत्वपूर्ण जानकारी नहीं दी। ऐसी ही कुछ बात शिक्षा से जुड़ी एक नयी अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट के बारे में भी उठायी गयी है जिसका विषय है प्राथमिक विद्यालयों के छात्रों में पढ़ायी की क्षमता। इस रिपोर्ट पर आरोप है कि उन्होंने इस रिपोर्ट में जान बूझ कर गलत आंकणों का प्रयोग किया है। यह आलेख इस रिपोर्ट और उस पर लगे आरोपों के बारे में है।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmeFQQLLWUZE9QTzi1kcQu4lJ4nv72iPVdVNO6olRQtQLPVc3aiyvQMI5uwaxLNYkjCBjxu0nFMye68kSWpR50Md4DjScTNZbmD4TxKAYpJR9MamfLnRBSZSvaGR1s7LOEqpgOA7rU-Ri1FuNyNdDAnERGFt_0o5Px_-o2EGtAj7UvognW6k2BFAge0Q/s806/04.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="628" data-original-width="806" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmeFQQLLWUZE9QTzi1kcQu4lJ4nv72iPVdVNO6olRQtQLPVc3aiyvQMI5uwaxLNYkjCBjxu0nFMye68kSWpR50Md4DjScTNZbmD4TxKAYpJR9MamfLnRBSZSvaGR1s7LOEqpgOA7rU-Ri1FuNyNdDAnERGFt_0o5Px_-o2EGtAj7UvognW6k2BFAge0Q/w400-h311/04.jpg" width="400" /></a></div><br /><h3 style="text-align: left;">दो तरह की रिपोर्टें</h3><a href="https://karmacolonialism.org/cooking-the-numbers-about-learning-poverty/" target="_blank">कर्मा कोलोनियलिस्म की वेबसाईट</a> पर <a href="https://twitter.com/TrojanAid" target="_blank">साशा एलिसन</a> ने प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा छापी २०२२ की एक नयी रिपोर्ट "सीखने की गरीबी" (<a href="https://www.unicef.org/media/122921/file/State%20of%20Learning%20Poverty%202022.pdf" target="_blank">Global Learning Poverty Report, 2022</a>) के बारे में लिखा है, जिसमें विभिन्न देशों में शिक्षा की स्थिति के बारे में चर्चा है। इन देशों में भारत भी है। इस रिपोर्ट को छापने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ हैं वर्ल्ड बैंक, युनिसेफ, युनेस्को, बिल गेटस फाऊन्डेशन तथा कुछ विकसित देशों की सहायता एजेन्सियाँ।</div><div><br /></div><div>एलिसन ने अपने आलेख में दिखाया है कि यह संस्थाएँ दो तरह की रिपोर्टें छापती हैं। जब यह दिखाना हो कि इन संस्थाओं के कार्यक्रमों से लाभ पाने बच्चों का शिक्षा स्तर कितना सुधरा है तो यह सकारात्मक जानकारी देती हैं। जब जनता से और सरकारों से अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे माँगने का समय आता है तो अचानक उन्हीं बच्चों के शिक्षा स्तर गिर जाते हैं। इसके लिए यह रिपोर्टें आंकणों को अपनी मनमर्ज़ी से गलत ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर दिखाती हैं।</div><div><br />जैसे कि २०१५ में जब संयुक्त राष्ट्र के लिए मिल्लेनियम डेवेलेपमैंट गोलस् (सहस्राब्दी विकास लक्ष्य) में मिली सफलताओं की रिपोर्ट तैयार की गयी तो युनेस्को की रिपोर्ट में बच्चों की शिक्षा की रिपोर्ट बहुत सकरात्मक थी, क्योंकि उसमें दिखाना था कि सन् २००० से २०१५ तक के किये खर्चे से चलाये जाने वाले कार्यक्रमों से दुनिया में बच्चों को कितना लाभ हुआ।</div><div><br /></div><div>एक साल बाद संयुक्त राष्ट्र ने सस्टेनेबल डेवलेपमैंट गोलस् के तहत २०३० तक के नये लक्ष्य निर्धारित किये, तो सभी संस्थाएँ अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे जमा करने के लिए अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों की शिक्षा स्थिति के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट दिखाने लगीं।<div><h3 style="text-align: left;">२०२२ की अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट</h3>एलिसन स्वयं लाओस में शिक्षा के क्षेत्र में काम करते थे और जब उन्होंने "सीखने की गरीबी" रिपोर्ट में पढ़ा कि लाओस में स्कूल जाने वाले पाँचवीं कक्षा के ९७.६ प्रतिशत बच्चे ठीक से नहीं पढ़ सकते तो उन्हें शक हुआ कि यह गलत आंकणे लिये गये हैं। उन्होंने इस रिपोर्ट में शिक्षा के बारे में छपे आंकणों का विशलेषण किया है और दिखाया है कि इसमें अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों के बारें में जानबूझ कर गलत आंकणे लिए गये हैं। उदाहरण के लिए इस रिपोर्ट के हिसाब से एशिया के छः देशों में केवल ३७ प्रतिशत बच्चे सरल भाषा की किताब को पढ़ सकते हैं जबकि इसका सही आंकणा ८४ प्रतिशत होना चाहिये था।<br /><br />रिपोर्ट के लिए गलत जानकारी देने के अतिरिक्त इस रिपोर्ट में आंकणों की एक अन्य समस्या है, कि अगर किसी देश से आंकणे न मिलें तो उसके आसपास के देशों के आंकणे ले कर उन सब देशों के औसत आंकणे बना लीजिये। जैसे कि रिपोर्ट में नाईजीरिया के आंकणे नहीं थे। जनसंख्या की दृष्टि से नाईजीरिया अफ्रीका का सबसे बड़ा देश है। इसलिए एलिसन कहते हैं कि आसपास के उससे दस गुना छोटे देशों की स्थिति के आधार पर इतने बड़े देश की स्थिति के बारे में "औसत आंकणे" दिखाना गलत है। लेकिन इस औसत आंकणों की बात को रिपोर्ट में स्पष्ट रूप में नहीं बताया गया है।<br /><h3 style="text-align: left;">भारत में शिक्षा की स्थिति</h3>भारत में बच्चों की शिक्षा से पायी समझ को मापने के लिए "आसेर" (Annual State of Education - ASER) के टेस्ट किये जाते हैं, इसमें देखा जाता कि पाँचवीं कक्षा के कितने प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ सकते हैं। भारत की स्वयंसेवी संस्था "प्रथम" इसको जाँचने के लिए देश के विभिन्न राज्यों में समय-समय पर सर्वे करती है। इसका आखिरी "आसेर" सर्वे २०१८ में किया गया, जिसकी <a href="https://img.asercentre.org/docs/ASER%202018/Release%20Material/aserreport2018.pdf" target="_blank">रिपोर्ट २०१९</a> में निकली थी।</div><div><br /></div><div>इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में राष्ट्रीय स्तर पर करीब ४५ प्रतिशत पाँचवीं कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को आसानी से पढ़ सकते थे, जबकि बाकी के ५५ प्रतिशत बच्चों को वह किताबें पढ़ने में कठिनाई थी। विभिन्न राज्यों के स्थिति में बहुत अंतर था - एक ओर हिमाचल प्रदेश में ७५ प्रतिशत, केरल में ७३ प्रतिशत बच्चे पढ़ाई में सक्षम थे जबकि, दूसरी ओर झारखँड में केवल २९ प्रतिशत और असम में ३३ प्रतिशत बच्चे सक्षम थे। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस वर्षों में बच्चों की पढ़ने की सक्षमता बेहतर होने के बजाय कुछ कमज़ोर हुई है, जो चिंता की बात है। शिक्षा व्यवस्था राज्य सरकारों के आधीन है, इसलिए जिन राज्यों में स्थिति कमज़ोर है उन्हें इसे सुधारने में प्रयत्न करना चाहिये और "प्रथम" की रिपोर्ट पर ध्यान देना चाहिये।</div><div><br />२०२२ की "<a href="https://www.unicef.org/media/122921/file/State%20of%20Learning%20Poverty%202022.pdf" target="_blank">पढ़ाई की गरीबी</a>" रिपोर्ट में भारत के बारे में कहा गया है कि ५६ प्रतिशत पाँचवीं के बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ने में असमर्थ थे,जोकि ऊपर दी गयी "प्रथम" की सर्वे की रिपोर्ट के आंकणे से मिलता है।<br /><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3>जब कोई अंतर्राष्टीय रिपोर्ट, विषेशकर जब उससे गेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़ युएसएड जैसे बड़े और प्रतिष्ठित नाम जुड़े हों तो हम उस पर तुरंत भरोसा कर लेता हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि इतनी बड़ी संस्थाएँ अवश्य अच्छा काम ही करेंगी।</div><div><br /></div><div>साशा एलिसन का आलेख दिखाता है कि कभी कभी ऊँची दुकान, फ़ीका पकवान वाली बात हो सकती है। यानि बड़े नामों पर भरोसा नहीं कर सकते और उनकी रिपोर्टों को आलोचनात्मक दृष्टि से परखना चाहिये।</div><div><br /></div><div>अक्सर ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में भारतीय विशेषज्ञ जुड़े होते हैं और भारत का राष्ट्रीय सर्वे संस्थान विभिन्न विषयों पर सर्वे करता रहता हैं इसलिए उनमें भारत सम्बंधी गलत जानकारी या आंकणें नहीं मिलने चाहिये, लेकिन फ़िर भी सावधानी बरतना आवश्यक है।</div><div><div><br /></div><div><br /></div></div></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-62729270963568207672022-08-13T17:44:00.001+02:002024-02-22T08:03:43.417+01:00यादों की संध्यासंध्या की सैर को मैं यादों का समय कहता हूँ। सारा दिन कुछ न कुछ व्यस्तता चलती रहती है, अन्य कुछ काम नहीं हो तो लिखने-पढ़ने की व्यस्तता। सैर का समय अकेले रहने और सोचने का समय बन जाता है। शायद उम्र का असर है कि जिन बातों और लोगों के बारे में ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में दशकों से नहीं सोचा था, अब बुढ़ापे में वह सब यादें अचानक ही उभर आती हैं।<div><br /></div><div>यादों को जगाने के लिए "क्यू" यानि संकेत की आवश्यकता होती है, वह क्यू कोई गंध, खाना, दृश्य, कुछ भी हो सकता है, लेकिन मेरे लिए अक्सर वह क्यू कोई पुराना हिंदी फ़िल्म का गीत होता है। बचपन के खेल, स्कूल और कॉलेज के दिन, दोस्तों के साथ मस्ती, पारिवारिक घटनाएँ, जीवन के हर महत्वपूर्ण समय की यादों के साथ उस समय की फ़िल्मों के गाने भी दिमाग के बक्से में बंद हो जाते हैं। इस आलेख में एक शाम की सैर और कुछ छोटी-बड़ी यादों की बातें हैं।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVmVuNgJKjBmsEOtGySJ2nzLoVKlvvv8mhFwvd9ZHVzD0-1CmQ4PRadhjSdybvx0HvPWL6_iqWafjQENTgKj3PILXIqCmVRhC15C7LdZZFvVHBfcdWWBtkKx-gHineRzripMJxn5p-QeS_zOqSSbSQ4IuyfmStjc3UwJfGHfmfEQcD_vM151uXWSLpQw/s920/IMG_20220504_202520.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhVmVuNgJKjBmsEOtGySJ2nzLoVKlvvv8mhFwvd9ZHVzD0-1CmQ4PRadhjSdybvx0HvPWL6_iqWafjQENTgKj3PILXIqCmVRhC15C7LdZZFvVHBfcdWWBtkKx-gHineRzripMJxn5p-QeS_zOqSSbSQ4IuyfmStjc3UwJfGHfmfEQcD_vM151uXWSLpQw/w400-h311/IMG_20220504_202520.jpg" width="400" /></a></div><br /><div>आज सुबह से आसमान बादलों से ढका था, सुहावना मौसम हो रहा था, हवा में हल्की ठँडक थी। सारा दिन बादल रहे लेकिन जल की एक बूँद भी नहीं गिरी। शाम को जब मेरा सैर का समय आया तो हल्की बूँदाबाँदी शुरु हुई। पत्नी ने कहा कि जाना है तो छतरी ले कर जाओ, लेकिन मैंने सोचा कि थोड़ी देर प्रतीक्षा करके देखते हैं, अगर यह बूँदाबाँदी नहीं रुकेगी तो छतरी ले कर ही जाऊँगा। पंद्रह मिनट प्रतीक्षा के बाद बाहर झाँका तो बादलों के बीच में से नीला आसमान झाँकने लगा था। इस वर्ष अक्सर यही हो रहा है कि बादल कम आते हैं और अक्सर बिना बरसे ही लौट जाते हैं। हमारे शहर का इतिहास जानने वाले लोग कहते हैं कि ऐसा पहली बार हुआ कि हमारे घर के पीछे बहने वाली नदी में करीब आठ महीनों से पानी नहीं है। पूरे पश्चिमी यूरोप में यही हाल है।</div><div><br />खैर मैंने देखा कि बारिश नहीं हो रही तो तुरंत जूते पहने और हेडफ़ोन लगा लिया। शाम की सैर का समय कुछ न कुछ सुनने का समय है। कभी डाऊनलोड किये हुए हिंदी, अंग्रेज़ी या इतालवी गाने सुनता हूँ, कभी हिंदी के रेडियो स्टेशन तो कभी क्लब हाऊस पर कोई बातचीत या गाने के कार्यक्रम। आज मन किया विविध भारती सुनने का। यहाँ शाम के साढ़े सात बजे थे, तो मुम्बई से प्रसारित होने वाले विविध भारती के लिए रात के ग्यारह बजे थे और चूँकि आज गुरुवार है, मुझे मालूम था कि इस समय सप्ताहिक "विविधा" कार्यक्रम आ रहा होगा, जिसमें अक्सर हिंदी फ़िल्मों से जुड़ी हस्तियों के साक्षात्कारों की पुरानी रिकोर्डिंग सुनायी जाती हैं।<br /><br />मोबाईल पर विविध भारती का एप्प खोला तो कार्यक्रम शुरु हो चुका हो चुका था और पुराने फ़िल्म निर्देशक, लेखक तथा अभिनेता <b>किशोर साहू</b> की बात हो रही थी। उनका नाम सुनते ही मन में "गाईड" फ़िल्म की बचपन एक याद उभर आयी। तब हम लोग पुरानी दिल्ली में फ़िल्मिस्तान सिनेमा के पास रहते थे। वह घर हमने १९६६ में छोड़ा था, इसका मतलब है कि वह याद इससे पहले की थी। मन में उभरी तस्वीर में एक दोपहर थी, नानी चारपाई पर चद्दर बिछा कर, उस पर दाल की वणियाँ बना कर सुखाने के लिए रख रही थी। बारामदे के पीछे खिड़की पर ट्राँज़िस्टर बज रहा था जिस पर उस दिन पहली बार किशोर कुमार और लता मँगेशकर का गाया गीत, "काँटों से खींच के यह आँचल, तोड़ के बँधन बाँधी पायल" सुना था। एक पल के लिए मैं उस आंगन में नानी को देखता हुआ सात-आठ साल का बच्चा बन गया था, यह याद इतनी जीवंत थी।<br /><br />बचपन में पापा हैदराबाद में थे और माँ अध्यापिका-प्रशिक्षण का कोर्स कर रही थी और उसके बाद उन्हें नवादा गाँव के नगरपालिका के प्राथमिक स्कूल में नौकरी मिली थी, तो मैं और मेरी बहन, हम दोनों नानी के पास ही रहते थे। नानी और माँ में केवल अठारह या उन्निस साल का अंतर था, इसलिए मेरी सबसे छोटी मौसी उम्र में मेरी बड़ी बहन से छोटी थी।</div><div><br /></div><div>नानी जब पैदा हुई थी तो उनकी माँ चल बसी थीं, इसलिए नानी अपनी मौसी के पास बड़ी हुईं थीं और उनके मौसेरे भाई, इन्द्रसेन जौहर, अपने समय के प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता और निर्देशक बने थे। नानी की शादी करवाने के बाद उनके विधुर पिता ने नानी की उम्र की लड़की से शादी की थी, इस तरह से नानी की पहली संतानें भी उनके पिता की अन्य संतानों से उम्र में बड़ी थीं, और नानी के सबसे छोटे भाई मेरे हमउम्र थे।<br /><br />नानी सुबह उठ कर अंगीठी जलाती थी। घर में एक कोठरी थी, जिसमें कच्चा और पक्का कोयला रखा होता था। अंगीठी की जाली पर नानी पहले थोड़ा सा कच्चा कोयला रखती, और उसके ऊपर पक्का कोयला। फ़िर नीचे राख वाली जगह पर कागज़ जलाती जिससे कच्चे कोयले आग पकड़ लेते। वह राख भी जमा की जाती थी, उससे बर्तन धोये जाते थे और उसे गाय या भैंस के गोबर में मिला कर उपले बनाये जाते थे।<br /><br />उपलों को नानी अपनी पश्चिमी पंजाब के झेलम जिले की भाषा में "गोया" कहती थी। लेकिन उस घर में उपले कम ही बनते थे शायद क्योंकि शहर में गोबर आसानी से नहीं मिलता था। नानी का गाँव वाला घर जिस पर नाना ने "दीवान फार्म" का बोर्ड लगा रखा था, नवादा और नजफ़ गढ़ के बीच में ककरौला मोड़ नाम की जगह से थोड़ा पहले था। जहाँ नानी की रसोई थी, वहाँ अब "द्वारका मोड़" नाम के दिल्ली मेट्रो स्टेशन की दायीं सीढ़ियाँ हैं और जहाँ उनका बड़ा वाला कूँआ था वहाँ अब मेरे मामा के बनाया एक स्कूल चलता है। बचपन में वहाँ मैं अपनी छोटी मौसियों के साथ तसला ले कर गोबर उठाने जाता था। अगर आप ने कभी गोबर नहीं उठाया तो शायद आप को उसे हाथ से छूने या उठाने का सोच कर अज़ीब लगे, लेकिन बचपन में मुझे ताज़े गोबर की गर्मी को हाथ से छूना बहुत अच्छा लगता था। गाँव वाले उस घर में, दूध, दाल, सब्जी, हर चीज़ में उपलों की गंध आती थी।<br /><br />आज उत्तरपूर्वी इटली में, दिल्ली से हज़ारों मील दूर, किशोर साहू के नाम और उनकी बातों से, साठ वर्ष पहले की यह सब यादें एक पल के लिए मन में कौंध गयीं, एक क्षण के लिए उपलों की गंध वाले उस खाने की वह सुगंध भी जीवित हो उठी।<br /><br />किशोर साहू के बाद बात हुई पुरानी फ़िल्म अभिनेत्री <b>मनोरमा</b> की। उनका मुँह बना कर और आँखें मटका कर अभिनय करना मुझे अच्छा नहीं लगता था। उनकी बातें सुन रहा था तो मन में हमारे करोल बाग वाले घर की यादें उभर आयीं। तब दिल्ली में नियमित दूरदर्शन के कार्यक्रम आते थे, जिनमें मेरे सबसे प्रिय कार्यक्रम थे चित्रहार और फ़िल्में। छयासठ से अड़सठ तक हम उस घर में तीन साल रहे और उन तीन सालों में दूरदर्शन पर बहुत फ़िल्में देखीं। तब रंगीन टीवी नहीं होता था और टीवी कम ही घरों में थे। बिना जान पहचान के हम बच्चे मोहल्ले के आसपास के किसी भी टीवी वाले घर में घुस जाते थे, कभी किसी ने मना नहीं किया। हम लोग टीवी के सामने ज़मीन पर पालथी मार कर बैठ जाते।<div><br /></div><div>तब रामजस रोड पर एक स्कूल में भी शाम को फ़िल्म आती तो वहाँ की एक अध्यापिका आ कर टीवी वाला कमरा खोल देती थीं, वहाँ खूब भीड़ जमती। उन सालों की दूरदर्शन पर देखी मेरी प्रिय फ़िल्मों में से वैजयंतीमाला की "मधुमति", मधुबाला की "महल", नूतन की "सीमा" और राजकपूर की "जागते रहो" थीं।<br /><br />उन फ़िल्मों के बारे में सोचते हुए, उस समय सैर करते करते मैं हमारी सूखी हुई नदी के पुल पर पहुँच गया। वहाँ खड़े हो कर पहाड़ों के पीछे डूबते सूरज को देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि उस जगह पर पहाड़ों से घाटी में नीचे आती हुई बढ़िया हवा आती है। इस साल पानी न होने से पहले तो नदी के पत्थरों के बीच में लम्बी घास उग आयी थी, शायद उसे नदी के तल के नीचे की धरती में छुपी उमस मिल गयी थी। फ़िर भी जब पानी नहीं बरसा तो वह घास बहुत सी जगह पर सूख कर पीली सी हो गयी है, इस तरह से पुल से देखो तो संध्या के डूबते सूरज की रोशनी में नदी के तल पर बिछी घास के हरे और पीले रंग बहुत सुंदर लगते हैं। नदी के किनारे लगे पेड़ों के पत्ते जब सर्दी शुरु होती है तो सितम्बर के अंत में पीले और लाल रंग के हो कर गिर जाते हैं, लेकिन इस साल सूखे की वजह से अभी अगस्त के महीने में ही वह पत्ते पीले पड़ रहे हैं। बादलों से ढके आकश में प्रकृति के यह सारे रंग बहुत मनोरम लगते हैं।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvS_Z_-EDCA0IKXVcyxCSyA5nW3JUtkDTRUc0oEZcI2p6ttTVONbQgeJUmCF6XbsAp7-0V4vmXtJt1sH43QMpClLFDq0GonGA2sVC6vZpzeCdZiXarf5Kf-z0GVtYBc4QCT51e30Z-S_dH-lNE9l7_-vW8Rs0UjD016Ikg_VFLzz3f8AN73NGT8JSU_g/s920/IMG_20220812_202307.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhvS_Z_-EDCA0IKXVcyxCSyA5nW3JUtkDTRUc0oEZcI2p6ttTVONbQgeJUmCF6XbsAp7-0V4vmXtJt1sH43QMpClLFDq0GonGA2sVC6vZpzeCdZiXarf5Kf-z0GVtYBc4QCT51e30Z-S_dH-lNE9l7_-vW8Rs0UjD016Ikg_VFLzz3f8AN73NGT8JSU_g/w400-h311/IMG_20220812_202307.jpg" width="400" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div>पुल पर ही खड़ा था, जब विविध भारती पर आ रहे कार्यक्रम में <b>शम्मी कपूर</b> की बात होने लगी। उनकी एक पुराने साक्षात्कार की रिकार्डिंग सुनवायी जा रही थी। थोड़ा सा आश्चर्य हुआ यह जान कर कि वह अच्छा गाते थे। उस साक्षात्कार में उन्होंने "तीसरी मंजिल", "एन ईवनिंग इन पैरिस" जैसी फ़िल्मों के कुछ गाने गा कर सुनाये।<br /><br />शम्मी कपूर के नाम से उनकी फ़िल्म "कश्मीर की कली" और फ़िर नानी के घर की याद आ गयी। घर के पास, ईदगाह को जाने वाली सड़क के पार एक फायर ब्रिगेड का स्टेशन होता था, जिसके सामने मैं सुबह स्कूल की बस की प्रतीक्षा करता था। वहीं पर फायरब्रिगेड में काम करने वाले एक सरदार जी से जानपहचान हो गयी थी। उनके पास एक छोटा सा पॉकेट साईज़ का ट्राँज़िस्टर था जिसमें इयरफ़ोन लगा कर सुनते थे। उन्होंने एक दिन मुझे वह इयरफ़ोन लगा कर रेडियो सुनवाया तो उस समय उसमें "कश्मीर की कली" फ़िल्म का गीत आ रहा था, "यह चाँद सा रोशन चेहरा, ज़ुल्फ़ों का रंग सुनहरा"। आज शम्मी कपूर जी की आवाज़ सुनी तो अचानक उस गीत को सुनने की वह याद आ गयी।</div><div><br />जब हम लोग करोल बाग में रहने आये, उन दिनों में मैं रेडियो पर नयी फ़िल्मों के गाने सुनने का दीवाना था, कोई भी गाना एक बार सुनता था तो उसकी धुन, शब्द, फ़िल्म का नाम, गाने वाले, लेखक, सब कुछ याद हो जाता था, इसलिए जब अंताक्षरी खेलते तो मैं उसमें चैम्पियन था। उन्हीं दिनों में दूरदर्शन पर पुरानी फ़िल्में देखने लगे थे तो सपने देखता कि जब बड़ा होऊँगा और पास में पैसा होगा तो सब फ़िल्मों को देखूँगा। आज तकनीकी ने इतनी तरक्की कर ली कि वह सारी फ़िल्में जो बचपन में देखना चाहता था और नहीं देख पाया था, अब जब चाहूँ तो यूट्यूब पर उनको देख सकता हूँ, तो क्यों नहीं देखता?</div><div><br />सैर से वापस घर लौटते समय सोच रहा था कि इन पचास-साठ सालों में दुनिया कितनी बदल गयी। बचपन का वह मैं, अगर उसे मालूम होता कि एक समय ऐसा भी आयेगा कि दुनिया में कहीं भी, किसी से बात करलो, जो मन आये वह संगीत सुन लो या फ़िल्म देख लो, तो उसे कितनी खुशी होती, और वह क्या क्या ख्याली पुलाव पकाता। </div></div><div><br /></div><div>अन्य दिनों में इस तरह की यादें, घर लौटने के दस मिनट में रात को देखे सपनों की तरह गुम हो जाती हैं, लेकिन आज सोचा है कि अपने ब्लाग के लिए इन्हें शब्दों में बाँध लूँगा।</div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-90919186520137232002022-08-06T10:38:00.002+02:002022-08-29T17:34:00.804+02:00लम्बे कोविड के खतरे<h3 style="text-align: left;">टिप्पणी (२९ अगस्त २०२२)</h3><div><br /></div><div>पिछले कुछ महीनों (विषेशकर अप्रैल २०२२ के अंत के बाद से) से यूरोप, अमरीका आदि कुछ देशों में वर्ष के इस समय में होने वाली औसत मृत्यु दर से करीब दस से १२ प्रतिशत अधिक हो रही हैं। ईंग्लैंड और अमरीका दोनों देशों में मृत्यु के आकणें यह बढ़ी मत्यु दर दिखला रही हैं। कल (२८ अगस्त २०२२ को) स्कॉटलैंड की सरकार ने इस बात को स्वीकारा है। यह बढ़ी मृत्यु दर कोविड से होने वाली मृत्यु से अलग है। इनमें विषेशरूप से घर पर अचानक मरने वालों की संख्या अधिक है। चूँकि कोविड के वजह से पिछले दो वर्षों में बूढ़े और अन्य बिमारियों वाले बहुत से लोगों की मृत्यु हुई थी तो इस साल औसत मृत्यु दर में कमी आनी चाहिये थी, उसमें बढ़ौती का होना चिंताजनक है। वैज्ञानिकों को संदेह है कि शायद इन अधिक मृत्यु के पीछे कोचिड वैक्सीन का प्रभाव न हो इसलिए वैज्ञानिक कह रहे हें कि देशों के मृत्यु के आकणों, कारणों तथा आटोप्सी रिपोर्ट पर तुरंत शोध करना चाहिये। </div><div><br /></div><div>*****</div><h3 style="text-align: left;">लम्बे कोविड के खतरे</h3><div><br /></div>कोविड की बीमारी दो साल पहले, 2020 के प्रारम्भ में चीन से सारे विश्व में फ़ैली। चूँकि यह बीमारी चीन में 2019 में शुरु हुई, इसमें मरीज़ों को साँस लेने में कठिनाई होती थी और यह कोरोना वायरस से इन्फेक्शन से हुई थी इसे सार्स-कोविड-19 (<b>S</b>evere <b>A</b>cute <b>R</b>espiratory <b>S</b>yndrome - <b>Co</b>rona <b>Vi</b>rus <b>D</b>isease) का नाम दिया गया। अब तक इस बीमारी से दुनियाँ में करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं और लाखों लोगों की मृत्यु हुई है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो जहाँ यह बीमारी न पहुँची हो।<div><br /><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjR2ADFHdS9X3WR3yLvMpHd_gP7X5tWJgwEcEw45OCd8fRJaCTJ9PPJEsZswa-qRs84NPwdXvlfKaNRWPQrmfWZ_Wy-mRPFQZolcl3FO9PpACHX5_D2CUI1e3Q1LbqBqiRzLCGlcTu6rYTY-mN-RVxQD_wuL43N2_k6XsllKUghjte-ymwzgP_3FfOevw/s800/01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="600" data-original-width="800" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjR2ADFHdS9X3WR3yLvMpHd_gP7X5tWJgwEcEw45OCd8fRJaCTJ9PPJEsZswa-qRs84NPwdXvlfKaNRWPQrmfWZ_Wy-mRPFQZolcl3FO9PpACHX5_D2CUI1e3Q1LbqBqiRzLCGlcTu6rYTY-mN-RVxQD_wuL43N2_k6XsllKUghjte-ymwzgP_3FfOevw/w400-h300/01.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>अधिकाँश लोगों को जब यह बीमारी हुई तो उन्हें अधिक परेशानी नहीं हुई और वह जल्दी ठीक हो गये। करीब 2 प्रतिशत लोगों की तबियत अधिक बिगड़ी और उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा। अस्पताल में भर्ती होने वाले लोगों में से करीब एक प्रतिशत लोग नहीं बचे, बाकी के लोग धीरे धीरे ठीक हो गये। बीमारी के प्रारम्भ में, जब इससे लड़ने के लिए वैक्सीन का आविष्कार नहीं हुआ था, बीमार होने वाले और मरने वाले अधिक थे। बहुत से देशों में इस बीमारी के लिए विषेश अस्पताल खोले गये। अधिकाँश देशों में 2020-21 में महीनों तक लॉक-डाउन रहे जिससे दुकानदारों, फैक्टरी वालों, स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों, उद्योग चलाने वालों, रैस्टोरेंट वालों, कलाकारों, फ़िल्म वालों आदि सब पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ा।</div><div><br /></div><div>जिन लोगों को यह कोविड की बीमारी हुई उनमें से कुछ लोगों में इस बीमारी का लम्बा प्रभाव पड़ा है, यानि वह इस बीमारी के बाद, कई महीनों या सालों तक ठीक नहीं हो पाये। इन लोगों की बीमारी को "लम्बे कोविड" (Long Covid) का नाम दिया गया है। कुछ दिन पहले, 28 जुलाई 2022 को, लम्बे कोविड के बारे में एक <a href="https://www.medrxiv.org/content/10.1101/2022.07.28.22278159v1" target="_blank"><b>नया और महत्वपूर्ण शोध </b></a>के परिणाम आये हैं जिनसे इस लम्बे कोविड की बीमारी और उसके शरीर पर होने वाले प्रभावों को समझने में मदद मिलती है। इस आलेख में कोविड का वायरस कैसे शरीर पर प्रभाव करता है और लम्बे कोविड की बीमारी से जुड़े इस शोध के परिणामों की चर्चा हैं।<br /><h3 style="text-align: left;"><a href="https://www.medrxiv.org/content/10.1101/2022.07.28.22278159v1" target="_blank">लम्बे कोविड का शोध</a></h3><a href="https://www.medrxiv.org/content/10.1101/2022.07.28.22278159v1" target="_blank">इस शोध</a> के लिए ईंग्लैंड में उन लोगों को चुना गया जिन्हें गम्भीर स्तर का कोविड का इन्फेक्शन हुआ था और बीमारी शुरु होने के २८ दिनों के बाद भी जिनकी तबियत पूरी तरह से नहीं सुधरी थी। इसमें कुल मिला कर तीन लाख छत्तीस हजार लोगों को लिया गया। इन लोगों को स्मार्ट फोन का एक एप्प दिया गया और उनसे नियमित रूप से स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारी इकट्ठी की गयी। इसके अधिकतर शोधकर्ता लँडन के किन्गस कॉलेज से जुड़े थे।<br /><br />कोविड का वायरस जो चीन में निकला, वह समय के साथ बदलता रहा है और उन बदलते हुए वायरसों को अलग अलग नाम दिये जाते हैं जैसे कि अल्फा, डेल्टा, आदि। इस शोध में उन सभी विभिन्न तरह से वायरसों से बीमार व्यक्तियों ने हिस्सा लिया।<br /><br />जिन तीन लाख छत्तीस हज़ार रोगियों ने इसमें हिस्सा लिया, उनमें से एक हज़ार चार सौ उनसठ (1,459) रोगियों को "लम्बा कोविड" हुआ यानि उनकी बीमारी होने के तीन महीने बाद भी उनकी तबियत ठीक नहीं हुई थी। इसका अर्थ है कि इस शोध में हिस्सा लेने वाले हर 230 रोगियों में से एक व्यक्ति को लम्बा कोविड हुआ, जिससे मालूम चलता है कि गम्भीर कोविड होने वाले लोगों में से तकरीबन 0.4 प्रतिशत लोगों को लम्बा कोविड होने का खतरा हो सकता है।।<br /><h3 style="text-align: left;">कोविड का शरीर पर असर</h3>कोविड की बीमारी हमारे शरीर पर किस तरह से असर करती है, इसको जानने के लिए हमारे शरीर की आत्मरक्षा व्यवस्था (immunological system) को समझना ज़रूरी है।<br /><br />जब हमारे शरीर में कोई भी बीमारी वाला किटाणु घुसता है तो हमारा शरीर उससे लड़ने की कोशिश करता है। बीमारी फैलाने वाले किटाणुओं से लड़ने वाली आत्मरक्षा की क्षमता को शरीर की इम्यूनुलोजिकल सिस्टम या शरीर-आत्मरक्षा व्यवस्था कहते हैं। हमारी यह आत्मरक्षा क्षमता मुख्यतः दो तरह की होती है - रक्त में घूमने वाली एँटीबॉडी (antobodies) और सुरक्षा-कोष (cellular immunity)।<br /><br />एँटीबॉडी को शरीर की रक्त धमनियों में घूमने वाला सिपाही समझिये, जैसे ही किसी अनजाने किटाणु को देखता है, उसको पकड़ कर उससे लिपट जाता है और मदद के लिए चिल्लाता है, जिससे की मेक्रोफेज (macrophage) नाम के कोष वहाँ आ कर उन किटाणुओं को निगल जाते हैं और मार कर पचा लेते हैं।<br /><br />अगर आप के शरीर ने उस किटाणु को पहले नहीं देखा, जब यह नया किटाणु शरीर में घुसता है तो एँटीबॉडी उनको पहचान नहीं पाती और इन किटाणुओं को शरीर में फ़ैलने का मौका मिल जाता है। तो इन्हें रोकने की ज़िम्मेदारी सुरक्षा कोषों पर आती है, इनका काम है नये किटाणुओं को पहचानना, लड़ना और उनसे लड़ने के लिए नये तरीके की एँटीबॉडी बनवाना। इस काम में थोड़ी देर लगती है और तब तक बीमारी शरीर में फैलती रहती है।<br /><br />वैज्ञानिक कुछ घातक किटाणुओं जिनसे जानलेवा या गम्भीर बीमारी हो सकती है, उनसे बचने के लिए वैक्सीन बनाते हैं। वैक्सीन में मरे या अधमरे किटाणु, जिनसे बीमारी होने का खतरा नहीं हो, शरीर में टीके से या ड्रापस से भेजे जाते हैं, ताकि शरीर उनको पहचान कर उनसे लड़ने वाली एँटीबॉडी बनाने लगे। इस तरह से जब वह किटाणु आप के शरीर में घुसते हैं तो वे आप की आत्मरक्षा व्यव्स्था के लिए नये नहीं हैं और उनसे लड़ने वाली एँटीबोडी पहले से ही तैयार उनकी घात में बैठी हैं।</div><div><br />जब शरीर किसी किटाणु से लड़ता है, तो कई बार उस लड़ाई की वजह से भी शरीर पर कुछ दुष्प्रभाव हो सकते हैं, जैसे कि शरीर का तापमान बढ़ना। इसलिए जब शरीर में कोई भी इन्फेक्शन हो, बुखार आ जाता है।</div><div><br /></div><div>कोविड के वायरस शरीर में साँस के साथ घुसते हैं और सबसे पहले फेफड़ों में फ़ैलते हैं। अगर शरीर में इन्हें तुरंत रोकने की शक्ति नहीं हो, तो इनकी संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होती है। जब तक शरीर इन किटाणुओं से लड़ने के लिए एँटीबॉडी बनाता है तब तक कुछ लोगों के फेफड़ों में इतने किटाणु बन गये होते हैं कि जब एँटीबॉडी उन पर हमला करती हैं तो वहाँ पानी जमा हो सकता है या फेफड़ों की संकरी धमनियाँ उन किटाणु-एँटीबॉडी के गट्ठरों से बंद हो जाती हैं, जिनसे मरीजों को साँस लेने में कठिनाई होती है, उनके शरीर की आक्सीजन कम होने लगती है। इसके अतिरिक्त, फेफड़ों से किटाणु शरीर के अन्य भागों में जाते हैं और वायरस विभिन्न अंगों के कोषों को नुक्सान दे सकता है। यही सब बीमारी के लक्षण बन कर प्रकट होते हैं।<br /><h3 style="text-align: left;">लम्बे कोविड के कारण</h3>कोविड का वायरस फेफड़ों से घुस कर शरीर के विभिन्न हिस्सों में फ़ैल जाता है, और शरीर के महत्वपूर्ण अंगों के कोषों को नुकसान हो सकता है। अगर कोषों को नुकसान टेम्परेरी है जैसे कि उनमें स्वैलिंग आ जाती है, तो धीरे धीरे यह ठीक हो जाता है। लेकिन अगर महत्वपूर्ण अंगों के कोष बीमारी की वजह से मर जाते हैं तो अक्सर वह दोबारा ठीक नहीं होते।<br /><br />जैसे कि हमारे दिमाग में विभिन्न गँधों को पहचानने वाले कोष होते हैं, जो अक्सर कोविड से प्रभावित होते हैं। अगर वह कोष बीमारी में मर जाते हैं तो हो सकता है कि उस व्यक्ति की सूँघने की शक्ति पूरी तरह से कभी नहीं लौटे। लम्बे कोविड से प्रभावित लोगों में पाया गया है कि उनके विभिन्न शरीर के हिस्सों में जैसे कि दिमाग में, दिल में, फेफड़ों मे, शरीर के कोषों को परमानैंट डेमेज हो गया है जिसकी वजह से वह ठीक नहीं हो पा रहे।<br /><h3 style="text-align: left;">लम्बे कोविड के प्रभाव</h3>इस शोध में लम्बे कोविड बीमारी होने वाले व्यक्तियों में तीन तरह के लक्षण पाये गये हैंः<br /><br /></div></div></div><div><div><div style="text-align: left;">(१) <b>दिमाग और नसों से जुड़े लक्षण </b>- जैसे कि सूँघने की क्षमता खोना, थकान होना, सोचने की शक्ति कमज़ोर होना, डिप्रेशन होना, सिरदर्द होना, आदि।</div></div></div><div><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px; text-align: left;"><div style="text-align: left;"><br /></div></blockquote>(२) <b>हृदय और फेफड़ों से जुड़े लक्षण</b> - जैसे कि साँस लेने में कठिनाई, हाँफना, जल्दी थक जाना, दिल की धड़कन बढ़ना, आदि।<br /><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">(३) <b>शरीर के अन्य अंगों से जुड़े लक्षण </b>- जैसे कि बुखार रहना, गुर्दों की तकलीफ़ होना, जोड़ों में तकलीफ़ होना, आदि।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">इस शोध में शामिल लम्बे कोविड से पीड़ित व्यक्तियों में उपर बताये लक्षणों में से सबसे अधिक लोगों को दिमाग तथा नसों से जुड़ी तकलीफ़ें पायी गयीं।</div><div style="text-align: left;"><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3>कोविड की वैक्सीन के दुष्प्रभावों के बारे में भी बहुत चर्चा हुई हैं और यह दुष्प्रभाव अनेक शोधों में दिखाये गये हैं, लेकिन यह थोड़े ही लोगों में हुए हैं। कोविड की वैक्सीन की एक कमी यह भी है कि इसका असर थोड़े समय के लिए लगता है और वैक्सीन लगवाये कई लोगों को भी कोविड हुआ है। लेकिन विभिन्न शोध यह भी दिखाते हैं कि वैक्सीन लगवाये हुए लोगों को बीमारी कम गम्भीर हुई, उनमें से बहुत कम लोगों को अस्पताल में भर्ती होनी की ज़रूरत हुई और उनमें से इस बीमारी से बहुत कम लोग मरे।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">मेरी राय में अगर आप को अभी तक कोविड नहीं हुआ है, या आप को मालूम नहीं कि आप को लक्षणविहीन कोविड हुआ या नहीं हुआ, तो कोविड की वैक्सीन लगवाना बेहतर है। अब हर दूसरे महीने इसके नये वेरिएन्ट वायरस निकल रहे हैं जिनसे यह बीमारी तेज़ी से फ़ैलती है लेकिन बहुत कम लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है, इसलिए सरकारों ने अब इसकी चिंता करना कम कर दिया है। इसका मतलब है कि अगले महीनों और वर्षों में यह बीमारी आम हो जायेगी, तो कोई भी इससे बच नहीं सकता। अगर आप ने अभी तक वैक्सीन नहीं लगवायी, तो हो सकता है कि आप खुशकिस्मत हो और कोविड होगा भी तो आप को नुक्सान नहीं पहुँचायेगा, लेकिन ऐसा कोई टेस्ट नहीं जो यह बता सके। बाकी तो अगर आप इस आलेख को पढ़ रहे हैं तो जाहिर है कि आप समझदार हैं।</div></div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;"><br /></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-30952030432562575592022-07-29T10:39:00.001+02:002024-02-22T08:04:17.923+01:00इटली की वाईन संस्कृति<div>मेरे इस आलेख का शीर्षक पढ़ कर शायद आप सोच रहे होगे कि शराब का संस्कृति से क्या लेना देना, शराब तो संस्कृति के विनाश का प्रतीक है? आज के भारत में एक ओर से शहरों में रहने वालों में शराब पीने वालों में वृद्धि हुई है। दूसरी और से "शराब बुरी चीज़ है", शराबबँदी होनी चाहिये जैसी सोच वाले लोग भी हैं और बिहार तथा गुजरात में शराब पीना गैरकानूनी है।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCAlROdLAsE0ju7o3mkx9MEQCzGA-7jCSkTw-7GPexp3lJIdb-Hjr6DrexLEHunzwykc3fohBgFfCFBgsS_jNiPyy1s-Y7TskzRB08vorp10kxI3xSXQvxZOgTidV6ca8qpV2S6Q4rXjHXSWFs0cIdSUfWNmar0C4Lckon4a7kzNUJXn00PL7o4nOKJg/s900/06.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="675" data-original-width="900" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCAlROdLAsE0ju7o3mkx9MEQCzGA-7jCSkTw-7GPexp3lJIdb-Hjr6DrexLEHunzwykc3fohBgFfCFBgsS_jNiPyy1s-Y7TskzRB08vorp10kxI3xSXQvxZOgTidV6ca8qpV2S6Q4rXjHXSWFs0cIdSUfWNmar0C4Lckon4a7kzNUJXn00PL7o4nOKJg/w400-h300/06.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>खैर, इस आलेख में भारत की बात कम है, बल्कि इटली तथा दक्षिण यूरोप की वाईन पीने की संस्कृति की बात है।</div><div><h3 style="text-align: left;">कल रात की बात</h3><div>कल रात को हम लोग कुछ मित्रों के साथ तरबूज खाने गये। हमारे घर से करीब तीन किलोमीटर दूर एक छोटा सा गाँव है जहाँ के लोग मिल कर हर साल गर्मियों में तरबूज-समारोह आयोजित करते हैं जिसे "अँगूरियारा" कहते हैं। इस समारोह में आप खेतों के बीच में बैठ कर संगीत सुन सकते हैं, नाच सकते हैं और तरबूज, सैंडविच, तले आलू जैसी चीज़ें खा सकते हैं।</div><div><br /></div><div>इसका सारा काम गाँव वाले लोग स्वयंसेवक की तरह बिना पगार लिये करते हैं। यह दो महीने चलता है, हर सप्ताह में दो या तीन दिन, शाम को आठ बजे से रात के ग्यारह बजे तक। इससे जो भी कमाई होती है, वह सारा पैसा गाँव के स्कूल, स्वास्थ्य क्लिनिक आदि के लिए सामान खरीदने के काम आता है। इस फेस्टिवल को उस गाँव के चर्च के पादरी ने शुरु करवाया था और अभी भी वह स्वयं अन्य स्वंयसेवकों के साथ बीच में काम करते दिख जाते हैं। </div><div><br /></div><div>कल रात वहाँ करीब पाँच सौ आदमी जमा थे, उनमें बच्चे, जवान, प्रौढ़, बूढ़े, सभी तरह के लोग थे। बहुत से लोग साथ में वाईन या बियर भी पी रहे थे। हम लोग वहाँ रात को देर तक रुके लेकिन उनमें से एक भी व्यक्ति नहीं दिखा जो शराब के नशे में लड़खड़ा रहा हो या किसी ने किसी लड़की या युवती से बद्तमीज़ी की हो। अधिकतर लोगों ने एक गिलास वाईन या बियर ली थी।</div><div><br /></div><div>तब सोचा कि ऐसा समारोह अगर भारत में हो तो वहाँ गाँव में खेत में बैठ कर खुलेआम वाईन या बियर पीने ही नहीं दिया जायेगा। भारत में जिन समारोहों में शराब चलती है, जैसे कि विवाह या कोई पार्टी, तो वहाँ विभिन्न उम्र के बच्चे, लड़कियाँ, युवतियाँ नहीं मिलेंगी। साथ ही, अक्सर ऐसे मौकों पर कुछ लोग इतनी पी लेते हैं कि उनके होश काबू में नहीं रहते। कुछ लोग नशे में लड़कियों-युवतियों से छेड़खानी करने लगते हैं और कुछ लोगों को आसानी से गुस्सा आ जाता है, वह आपस में लड़ने लगते हैं।</div><div><br /></div><div>यह सब सोच कर इटली की वाईन और शराब से जुड़ी संस्कृति की बात मेरे दिमाग में आयी।</div></div><h3 style="text-align: left;">प्राचीन समाजों में नशे की परम्पराएँ</h3>एन्थ्रोपोलोजिस्ट (मानव समूहों के विशेषज्ञ) कहते हैं कि लाखों साल पहले से आदिमानवों के पुरखों ने नशा देने वाले पदार्थों को पहचाना और अपनी संस्कृतियों में इनको विषेश महत्व दिये।<div><br /></div><div>वैज्ञानिकों के शोध ने दिखाया है कि मानव ही नहीं, पशु, पक्षी और यहाँ तक कि कीड़े मकोड़ों को भी नशा देने वाले पदार्थ अच्छे लगते हैं। अधिक पके और गले हुए फ़लों में प्राकृतिक शराब बन जाती है, जिनको खा कर पशु और पक्षी ही नहीं, उन फ़लों पर बैठने वाली मक्खियाँ और कीड़े भी नशे में लड़खड़ाने लगते हैं।<div><br /></div><div>मध्य व दक्षिण अमरीकी जनजातियों के पाराम्परिक पुजारी और चिकित्सक शराब के साथ साथ, आयाहुआस्का, कोका तथा अन्य नशीले पदार्थों वाले पौधों को पहचानते थे और उनका नियमित उपयोग करते थे। दक्षिण अफ्रीका में एक शोध ने तीन सौ से अधिक पौधों के बारे में जानकारी एकत्रित की जिन्हें उनके पाराम्परिक चिकित्सक बीमारियों के इलाज में उपयोग करते थे और पाया कि उनमें बहुत से पौधे नशीले पदार्थ वाले थे।</div><div><br /></div><div>भारत के प्राचीन ग्रंथों वेदों में सोम रस के उपयोग की बातें थीं जबकि सदियों से हमारे ऋषियों और साधुओं ने भाँग तथा चरस जैसे पदार्थों का भगवान की खोज या समझ बढ़ाने के लिए उपयोग किया है। समकालीन भारत के छोटे शहरों और गाँवों में पान मसाला, सुर्ती, पान, ज़र्दा, भाँग, चरस, ताड़ी, देसी शराब जैसे नशीले पदार्थों का सेवन आम बात है।<br /><br />पाराम्परिक तथा आदिवासी जन समूहों में इन नशीले पदार्थों में शराब का विषेश स्थान रहा है। लगभग हर देश व प्राँत में अपने विषेश तरीके से शराब बनाने की परम्पराएँ रहीं हैं।</div><h3 style="text-align: left;">यूरोप की वाईन परम्परा</h3><div>दक्षिण-पश्चिमी यूरोप के देशों में अँगूरों से वाईन बनाने की परम्परा बहुत पुरानी है। यह परम्परा में इटली और फ्राँस में विशेष रूप से विकसित हुई। दुनिया के जिन कोनों में इटली और फ्राँस के प्रवासी गये, वह इस परम्परा को अपने साथ ले गये। इन में हर देश की अपनी वाईन संस्कृति है।</div><div><br /></div><div>मध्य इटली में दो हज़ार साल पहले रोमन समय का जीवन पोम्पेई में एक ज्वालामुखी के फटने से राख में कैद हो गया था। वहाँ के घरों में और होटलों में वाईन पीने के दृश्य उनकी दीवारों पर बनी तस्वीरों में दिखते हैं और वाईन रखने के बड़े मर्तबानों से इसका महत्व समझ में आता है।<br /><br />ईसाई धर्म का प्रारम्भ मध्य एशिया में जेरूसल्म में हुआ लेकिन उनके पैगम्बर ईसा मसीह की मृत्यु के बाद उनके सबसे महत्वपूर्ण अनुयायी, जैसे कि सैंट पीटर और सैंट पॉल, इटली में रोमन साम्राज्य में रहने आये और उनका धर्म रोम से पूरे यूरोप में फैला। उनके धार्मिक अनुष्ठानों में वाईन को विषेश स्थान दिया गया और आज भी कैथोलिक गिरजाघरों में पादरी पूजा के समय वाईन पीते हैं।<div><h3 style="text-align: left;">इटली की वाईन संस्कृति</h3></div><div><div>इटली और फ्राँस, इन दोनों देशों में कोई ऐसा जिला, उपजिला और गाँव मिलना कठिन है जहाँ अपने स्थानीय अंगूरों से वाईन बनाने की परम्परा न हो।</div><div><br /></div><div>उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारे छोटे से शहर में, जिसमें आप किसी भी दिशा में निकल जाईये, तीन या चार किलोमीटर से कम दूरी में आप शहर की सीमा के बाहर निकल आयेंगे और वहाँ खेत शुरु हो जायेगे जिनमें हर तरफ़ अंगूरों की खेती होती है। यहाँ लोगों में "हमारे अंगूर, हमारी वाईन" के प्रति बहुत गर्व होता है और अक्सर लोग आपस में बहस करते कि इस साल किसकी वाईन बेहतर हुई है।</div><div><br /></div><div>हमारे शहर के आसपास कम से सात या आठ किस्म की वाईन बनती हैं। बहुत सारे लोगों के घरों में अपनी वाईन को बनाया जाता है। सबके घरों में बेसमैंट में वाईन की बोतलों को सही तापमान और उमस के साथ संभाल कर रखा जाता है और अधिकाँश लोग एक या दो गिलास वाईन को खाने के साथ पीते हैं।</div><div><br /></div><div>उत्तरपूर्वी इटली में दो तरह की अंगूर की शराब बनती है। पहली तो है वाईन जिसमें शराब यानि इथोनोल की मात्रा सात से ग्यारह प्रतिशत की होती है। फ्रागोलीनो यानि कच्ची वाईन में फ़लों का स्वाद अधिक महसूस होता है, उनमें इथोनोल की मात्रा कम (तीन या चार प्रतिशत) होती है, लेकिन फ्रागोलीनो वाईन केवल अक्टूबर या नवम्बर में मिलती है, जब अंगूर इकट्ठे किये जाते हैं और वाइन बनाना शुरु करते हैं।</div><div><br /></div><div>यहाँ की दूसरी शराब को ग्रापा कहते हैं जिसमें इथोनोल की मात्रा अठारह से तीस प्रतिशत के आसपास होती है। ग्रापा को अक्सर बूढ़े लोग अधिक पीते हैं या लोग पार्टियों में पीते हैं। ग्रापा में चैरी, स्ट्राबेरी, शहतूत जैसे फ़लों को डाल कर या उनमें जड़ी-बूटियाँ भिगो कर रखते हैं, इस तरह के विषेश ग्रापा को "डाईजेस्टिव" (पचाने वाले) कहते हैं और अक्सर जब मेहमान हों तो उन्हें खाना समाप्त करने के बाद इसे छोटे गिलासों में पीया जाता है।</div><div><br /></div><div>हमारा पहाड़ी इलाका है। आज से तीस-चालीस साल पहले तक पहाड़ी गाँवों में वाईन में डुबो कर रोटी को खाना या छोटे बच्चों को थोड़ी सी वाईन पिला कर शांत करवाना, सामान्य माना जाता था। आजकल ऐसा नहीं होता। पहले गाँव वाले लोग समझते थे कि लाल वाईन पीने से खून बनता है और छोटे बच्चों को एक या दो घूँट लाल वाईन पिलाने को अच्छा माना जाता था। जबकि आजकल लोग जानते हैं कि वाईन के इथोनोल को जिगर में पचाया जाता है और पंद्रह-सोलह साल की आयु तक बच्चों के जिगर में यह पचायन शक्ति नहीं होती इसलिए उनको शराब देने से उनके जिगर खराब हो सकते हैं। इटली के कानून के अनुसार, अठारह साल से छोटे बच्चों को शराब नहीं बेची जा सकती, लेकिन घरों में अक्सर सोलह-सतरह साल के होते होते, बच्चों को थोड़ी बहुत बियर या वाईन को पीने से मना नहीं किया जाता। </div><h3 style="text-align: left;">इटली तथा भारत की शराब संस्कृति में अंतर</h3><br />यहाँ अमीर, मध्यमवर्गी, गरीब, सभी वाईन पीते हैं, वाईन को बिल्कुल न पीने वाले लोग कम ही देखे हैं। यहाँ के अधिकतर लोग खाने के साथ आधा या एक या बहुत हो गया तो दो गिलास वाईन पी लेते हैं, लेकिन नशे में धुत व्यक्ति कोई विरले ही होते हैं।<br /><br />एक जमाने में यहाँ अंगूर का ग्रापा अधिक पीया जाता था, लेकिन आजकल ग्रापा पीने वाले बहुत कम हो गये हैं, अधिकतर लोग ग्रापा को विशेष अवसरों पर ही पीते हैं। पहले यहाँ बियर पीने वाले बहुत कम होते थे, जबकि पिछले दशकों में यहाँ बियर पीने वाले बढ़े हैं।<br /><br />अगर आप मुझसे पूछें कि इटली तथा भारत की शराब संस्कृति में क्या अंतर है तो मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा अंतर है शराब की मात्रा और उसको पीने का तरीका।<br /><br />इटली में आप बच्चे होते हैं जब आप परिवार के लोगों को खाने के समय वाईन पीता देखते हैं। लोग अक्सर बच्चों को उँगली से या चम्मच से वाईन का टेस्ट करा देते हैं और कहते हैं कि जब तुम बड़े होगे तो तुम इसे पी सकते हो। थोड़ी सी वाईन पी कर लोग खुल जाते हैं, आसानी से बातें करते हैं, अधिक हँसते हैं या नृत्य करते हैं। इस तरह बच्चे बचपन से देखते हैं और सीखते हैं कि वाईन या बियर किस तरह से सीमित मात्रा में आनन्द के लिए पी जाती हैं, नशे में आने के लिए नहीं। बच्चों को वाईन या बियर चखने से रोका नहीं जाता, ताकि उनमें भीतर वह जिज्ञासा नहीं हो कि यह क्या चीज़ है जिसे घर वालों से छुपा कर करना है।</div><div><br />वाईन हर सुपरमार्किट में खुले आम मिलती है और सस्ती है, घर पर आम पीने वाली डिब्बे में बिकने वाली वाईन एक यूरो की भी मिलती है, जबकि दो या तीन यूरो में आप को अच्छी वाईन की बोतल मिल सकती है। इसे वह बच्चों को नहीं बेचते पर वाईन खरीदना, सब्जी या डबलरोटी खरीदने से भिन्न नहीं है। हर रेस्टोरैंट में, ढाबे में, सड़क के किनारे, लोग वाईन या बियर खरीद या पी सकते हैं, जहाँ लोग एक या दो गिलासों से ऊपर कम ही जाते हैं।<br /><br />यहाँ पर ज्यादा पीने वालों में और नशे में धुत होने वालों में अधिकतर गरीब लोग, विषेशकर प्रवासी अधिक होते हैं। यह लोग अधिकतर अँधेरा होने के बाद बागों के कोनों में या बैंचों पर बैठे मिलते हैं।<br /><br />जबकि भारत के मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग के घरों में विह्स्की जैसी अधिक नशे वाली शराब अधिक पी जाती हैं। वहाँ लोग खाने से पहले पीते हैं और कई पैग पीते हैं जिनमें व्हिस्की में पानी या सोडा मिलाते हैं। और वहाँ पीने का मतलब है कि पक्का नशा चढ़ना चाहिये। आधा या एक गिलास केवल आनन्द के लिए पीना जिससे नशा नहीं हो, यह भारत में कम होता है। भारत में लोग बियर भी पीते हैं तो कई बोतलें पी जाते हैं क्योंकि लोग सोचते हैं कि शराब पी और पूरा नशा नहीं हो तो क्या फायदा।<br /><br /><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3><br />मेरे विचार में इटली व फ्राँस में दो या तीन हज़ार सालों से वाईन पीने की परम्परा की वजह से यहाँ के लोग उसे जीवन का हिस्सा समझते हैं, अधिकाँश लोग पीते हैं लेकिन सीमित मात्रा में पीने को सामाजिक मान्यता मिली है। यहाँ शराब पीना आम है, नशे में धुत होने वाले कम हैं।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEin_vKyE5z5DNaM1Lc-z5p1TG3T2nuvE-ez8IK1drC9wp4yi83ZfYiWDUallmdNxkSNdqNxLysXeS5ZgCcPoWoRHTymwYMwK7Dom2kDqS-sgd5n5EGSjUZrvkeOQD0EIzkPxTU4sIBeE-y1iMEWUpBKvQpVJzH1Ib-aNLffyhINUIcaNXfZpnf8yezCFQ/s711/04.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="533" data-original-width="711" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEin_vKyE5z5DNaM1Lc-z5p1TG3T2nuvE-ez8IK1drC9wp4yi83ZfYiWDUallmdNxkSNdqNxLysXeS5ZgCcPoWoRHTymwYMwK7Dom2kDqS-sgd5n5EGSjUZrvkeOQD0EIzkPxTU4sIBeE-y1iMEWUpBKvQpVJzH1Ib-aNLffyhINUIcaNXfZpnf8yezCFQ/w400-h300/04.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div>जबकि भारत की व्हिस्की की परम्परा अंग्रेज़ों से आयी है, उनकी संस्कृति प्रोटेस्टैंट ईसाई धर्म से प्रभावित है जिसमें शराब या वाईन पीने को पाप या बुरा काम माना गया है और इसे सामाजिक व पारिवारिक मान्यता नहीं मिली है, बल्कि यह छुप कर करने वाली चीज़ है। वहाँ वाईन और शराब सामान्य जीवन के अंग की तरह नहीं है और वहाँ का समाज इन्हें गंदी बातों की तरह से देखता है। शायद इसी लिए शुक्रवार और शनिवार की रात को लँडन में पबों तथा नाईटकल्बों के बाहर नशे में धुत, जिस तरह के उल्टियाँ करते हुए नवयुवक व नवयुवतियाँ दिखते हैं, वैसे इटली में कभी नहीं देखे। हालाँकि इटली के नाईटक्लबों में अन्य तरह के नशे करने वाले लोग लँडन जितने ही होंगे।<br /><br />मुझे मालूम है कि पिछले दशकों में महाराष्ट्र तथा कर्णाटक में लोगों ने अंगूरों की खेती तथा वाईन बनाना शुरु किया है। भारत की वाईन पीने की संस्कृति कैसी है? भारत के ग्रामीण समाजों में या आदिवासी समाजों में जो स्थानीय शराबें बनायी जाती हैं, उनके साथ जुड़ी संस्कृति कैसी है और वह इटली या फ्राँस की वाईन संस्कृति से किस तरह से भिन्न है?</div></div></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-38926486942287351032022-07-18T16:14:00.002+02:002024-02-22T08:05:03.713+01:00पानी रे पानी<br />ब्रह्माँड में जीवन तथा प्रकृति का किस तरह से विकास होता है और कैसे वह समय के साथ बदलते रहते हैं इसे डारविन की इवोल्यूशन की अवधारणा के माध्यम से समझ सकते हैं। इसके अनुसार दुनिया भर में कोई ऐसा मानव समूह नहीं है जिसे हरियाली तथा जल को देखना अच्छा नहीं लगता, क्योंकि जहाँ यह दोनों मिलते हैं वहाँ मानव जीवन को बढ़ने का मौका मिलता है।<div><br /></div><div>शाम को जब मैं सैर के लिए निकलता हूँ तो मैं भी वही रास्ते चुनता हूँ जहाँ हरियाली और जल देखने को मिलें। आज आप दुनिया में कहीं भी रहें, अपने आसपास के बदलते हुए पर्यावरण से अनभिज्ञ नहीं रह सकते। इस बदलाव में बढ़ते तापमानों और जल से जुड़ी चिंताओं का विषेश स्थान है।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2tYqTaVF1ZOxe2AWnnBbvgx-gVVc-6pPj4sTDG9PqNB5j-hyFyOJ0xtQUsn9Cx6IHK9EhCUJ7QISE4TxMBgFMZ_OhLacjFo66vKML--hZ3OYSLPgvxETqZ0JDtxy7gL0bQjqjacLbPfnPhlnJP9Q9_WOT-H9TqY9h7DI52Sviv6Q5vVtlozQQ9ZcVyg/s820/2014_sept06_Ganiyari%20(73).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="574" data-original-width="820" height="280" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2tYqTaVF1ZOxe2AWnnBbvgx-gVVc-6pPj4sTDG9PqNB5j-hyFyOJ0xtQUsn9Cx6IHK9EhCUJ7QISE4TxMBgFMZ_OhLacjFo66vKML--hZ3OYSLPgvxETqZ0JDtxy7gL0bQjqjacLbPfnPhlnJP9Q9_WOT-H9TqY9h7DI52Sviv6Q5vVtlozQQ9ZcVyg/w400-h280/2014_sept06_Ganiyari%20(73).jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">ऊपर वाली तस्वीर का सावन के जल से भरा हुआ तालाब भारत के छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से है।</div><div><h3 style="text-align: left;">नदी, नहर और खेती</h3>उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारा छोटा सा शहर पहाड़ों से घिरा है और इसकी घाटी का नाम है ल्योग्रा। हमारे घर के पीछे, इस घाटी की प्रमुख नदी बहती है जिसका नाम भी ल्योग्रा ही है। इसे बरसाती नदी कहते हैं, क्योंकि अगर दो-तीन महीने बारिश नहीं हो तो इसमें पानी कम हो जाता है या बिल्कुल सूख जाता है। </div><div><br />ल्योग्रा नदी के किनारे पेड़ों के नीचे बनी एक पगडँडी मेरी शाम की सैर करने की सबसे प्रिय जगह है। पहाड़ों से नीचे आती नदी पत्थरों से टकराती है और बीच-बीच में झरनों पर छलाँगे लगाती है, इसलिए किनारे पर चलते समय, नदी का गायन चलता रहता है, कभी द्रुत में, तो कभी मध्यम में।</div><div><br />इस साल पहली बार हुआ है कि हमारी नदी पिछले छह-सात महीनों से सूखी है। सर्दियों में बारिश कम हुई, जनवरी से मार्च के बीच में बिल्कुल नहीं हुई। उसके बाद, हर दस-पंद्रह दिनों में छिटपुट बारिश होती रही है, पर केवल दो-तीन बार ही खुल कर पानी बरसा है। जब बारिश आती है उस समय नदी में पानी आता है, जब रुकती है तो दो-तीन घँटों में वह पानी बह जाता है या सूख जाता है। नीचे की तस्वीर कुछ दिन पहले आयी बारिश के बाद की है जिसे मैंने अपनी शाम की सैर के दौरान खींचा था।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjk-C7kwX7w4DzBDHZQK5Vn7-BC3W8M1FmI0H32NVMZka26wksOWNt0uLZuTt50CaS7yvc344NSkF_OHn5ChAwHQJMQppMkzxVD2sLiukNRMt5VV64a13sGiRhNDlW9FRhY2Q0egoQIMLNTCjw0gZcdDgv9f7OacPZNVsPbGcZMjNSoNblKKK5BCHjyMg/s757/IMG_20220504_202256.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="593" data-original-width="757" height="314" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjk-C7kwX7w4DzBDHZQK5Vn7-BC3W8M1FmI0H32NVMZka26wksOWNt0uLZuTt50CaS7yvc344NSkF_OHn5ChAwHQJMQppMkzxVD2sLiukNRMt5VV64a13sGiRhNDlW9FRhY2Q0egoQIMLNTCjw0gZcdDgv9f7OacPZNVsPbGcZMjNSoNblKKK5BCHjyMg/w400-h314/IMG_20220504_202256.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;"><br /></div><div>शहर में घुसने से पहले इस नदी से एक नहर निकलती है। जब बिजली नहीं थी, यहाँ की लकड़ी और आटे की मिलें, ऊन और कपड़े बुनने की फैक्टरियाँ सब कुछ इसी नहर के पानी से चलती थीं। आजकल नहर के पानी का अधिकतर उपयोग यहाँ के आसपास के किसान करते हैं।<div><br />घाटी के आसपास के पहाड़ों से छोटे नाले पानी को नदी की ओर लाते हैं। हर नाले पर छोटे छोटे बँद बने हैं, जिसमें लोहे के दरवाज़े हैं, जिन्हें नीचे कर दो तो वह पानी का बहाव रोक लेते हैं। पिछले महीनों की बारिशों से जो पानी आया है उसे नालों पर बने बँदों की सहायता से जमा किया जाता है, ताकि नहर से किसानों को खेती के लिए पानी मिलता रहे।</div><div><br />इटली के कई हिस्सों में इस साल बारिश कम होने से किसानों को बहुत नुक्सान हुआ है। बहुत सी जगहों पर पहले तो महीनों बारिश नहीं आयी, फ़िर अचानक एक दिन ऐसी बारिश आयी मानों कोई आकाश से बाल्टियाँ उड़ेल रहा हो, या साथ में मोटे ओले गिरे, तो जो बची खुची फसलें थी वह भी नष्ट हो गयीं।</div><div><br /></div><div>मौसम बदल रहे हैं, यहाँ पहाड़ों के बीच भी गर्मी आने लगी है। आज से दस-बारह साल पहले तक यहाँ घरों में पँखे नहीं होते थे, अब कुछ घरों में एयरकन्डीशनर भी लग गये हैं। सबको डर है कि अगले दशक में यह सूखे और ऊँचे तापमान और भी बढ़ेंगे, स्थिति बिगड़ेगी।</div><div><h3 style="text-align: left;">प्रकृति का चक्र</h3>शाम को जब सैर के लिए निकलता हूँ तो सूखी हुई नदी को देख कर दिल में धक्का सा लगता है। सोचता हूँ कि मछलियों के अलावा जो बतखें, सारस और अन्य पक्षी यहाँ नदी में रहते थे, वह कहाँ गये होंगे। अंत में सोचा कि अब इसकी जगह सैर की कोई अन्य जगह खोजी जाये।</div><div><br />इस तरह से इस साल, सूखे के बहाने, मैंने आसपास की बहुत सी नयी जगहें देखीं। इन नयी जगहों को देख कर समझ में आया कि मानव धरती के भूगोल को बदल रहा है, लेकिन प्रकृति धैर्य से वहीं ताक में बैठी रहती है और जैसे ही मानव विकास नयी ओर मुड़ता है, प्रकृति उस बदले भूगोल को फ़िर से दबोच कर अपने दामन में छुपा लेती है। कुछ दिन पहले ऐसा ही एक अनुभव हुआ।</div><div><br />नदी के दूसरी ओर के सबसे ऊँचे पहाड़ का नाम है मग्रे, जो कि करीब सात सौ मीटर ऊँचा है। उसकी चोटी हमारे यहाँ से करीब पाँच किलोमीटर दूर है, लेकिन इतनी चढ़ाई करना मेरे बस की बात नहीं, मैं आसपास की छोटी पहाड़ियों की ही सैर करने जाता हूँ।</div><div><br /></div><div>कुछ दिन पहले मैं सैर को निकला तो बहुत सुंदर रास्ता था। कहीं खेतों में सूरजमुखी के बड़े बड़े फ़ूल लगे थे तो कहीं खेतों में किसानों ने सर्दियों में जानवरों को चारा देने के लिए भूसे को गोलाकार गट्ठों में बाँधा था। बीच में एक पहाड़ी नाला था जिसमें आसपास की पहाड़ियों से छोटी छोटी जल धाराएँ आ कर मिल जाती थीं, जिन पर बँद बने थे, पूरे इलाके में पानी को सँभाल कर नियमित किया गया था।</div><div><br /></div><div>एक जगह बँद को देख रहा था तो अचानक एक सज्जन आ गये, मुझसे पूछा कि क्या देख रहा था, तो मैंने बँद की ओर इशारा किया और पूछा कि उसकी देखभाल कौन करता था। वह हँसे, बोले कि, "हम लोग, यहाँ के किसान, इन सभी नालों, नालियों की देखभाल करते हैं। पत्ते जमा हो रहे हों तो उनको साफ़ कर देते हैं, कही से नाली की दीवार टूट रही हो तो उसे ठीक करते हैं। इस पानी से हमारी खेती होती है, यह पानी नहीं हो तो हम भी नहीं रहेंगे।"</div><div><br /></div><div>नीचे की तस्वीर में पहाड़ी नाले पर बना वही बंद है जहाँ मेरी उस व्यक्ति से मुलाकात हुई थी।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQeeCugZ1it4yd6M350hx41WouZWH8nfa6trQPL-uCqUNRD6NgpUDhvqOtIh3m5OGeU-WZxFx3iGisnsZIS7rG3trs3PTuZTOmADk3lrRCHyOvdFi6ThIudrB1ghrqOl0I4TttlJXApsdBmyzGPIhGhdeVX92qrE-QtsHtr1Pz1qYYBeIxMZM0oXJB5Q/s757/2022_Magre_ViaRive_MonteCrocetta%20(31).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="593" data-original-width="757" height="314" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQeeCugZ1it4yd6M350hx41WouZWH8nfa6trQPL-uCqUNRD6NgpUDhvqOtIh3m5OGeU-WZxFx3iGisnsZIS7rG3trs3PTuZTOmADk3lrRCHyOvdFi6ThIudrB1ghrqOl0I4TttlJXApsdBmyzGPIhGhdeVX92qrE-QtsHtr1Pz1qYYBeIxMZM0oXJB5Q/w400-h314/2022_Magre_ViaRive_MonteCrocetta%20(31).jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>उन्होंने बताया कि वह सड़क कभी वहाँ की प्रमुख सड़क होती थी, बोले, "जब वह बड़ी वाली नयी सड़क नहीं बनी थी, तब ऊपर पहाड़ पर जाने वाले ट्रक, बसें, सब कुछ यहीं से जाता था। यह पानी, यह नाले, सब कुछ खत्म हो गये थे। फ़िर जब वह नयी सड़क बनी तो लोगों ने इधर आना बंद कर दिया, अब यह जगह फ़िर से शांत और सुंदर बन गयी है, हमारे खेत, खलिहान, नाले, पेड़, सब को नया जीवन मिला है।"</div><h3 style="text-align: left;">कान्हा के भिक्षुकों का जल</h3><div>मुम्बई में पूर्वी बोरिविली लोकल ट्रेन स्टेशन के पास संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान है जिसके बीच में दो हज़ार साल पुरानी कन्हेरी की बौद्ध गुफ़ायें हैं, जोकि काली बाज़ाल्टिक चट्टानों में बनी हैं। "कन्हेरी" नाम उन्हीं काली चट्टानों की वजह से हैं। <b><a href="https://www.amazon.in/Indica-Natural-History-Indian-Subcontinent/dp/8184007574" target="_blank">प्रणय लाल की अंग्रेज़ी पुस्तक "इन्डिका"</a></b> में इन चट्टानों के बनने के बारे बहुत अच्छी तरह से बताया गया है।</div><div><br /></div><div>ईसा से दो सौ या तीन सौ साल पहले पूरे भारत में इस तरह की बौद्ध गुफ़ाएँ विभिन्न स्थानों पर बनायी गयीं। औरंगाबाद के पास में अजँता की गुफ़ाएँ तो सारे विश्व में प्रसिद्ध हैं। यह गुफ़ाएँ बौद्ध भिक्षुओं के विहार थे, जहाँ चट्टानों में उनके रहने, प्रार्थना व पूजा करने, सभा करने, खाने, आदि सब जीवनकार्यों के लिए छोटे और बड़े कमरे बनाये गये थे। उसके साथ ही यह गुफ़ाएँ यात्रियों के रहने की सराय का काम भी करती थीं और भारत का व्यवसायिक जाल इन गुफ़ाओं से जुड़ा था।</div><div><br /></div><div>यानि उन बोद्ध भिक्षुओं को चट्टानों के कठोर पत्थरों को कैसे काटा और तराशा जाये, इस सब की तकनीकी जानकारी थी। इन्हीं तकनीकों से एलौरा की गुफ़ाओं में एक महाकाय चट्टान के पहाड़ को काट कर पूरा कैलाश मन्दिर बनाया गया था। इन्हीं तकनीकों से दक्षिण भारत में भी बादामी तथा महाबलीपुरम के मन्दिर बनाये गये थे।</div><div><br />कान्हा की गुफ़ाओं में चट्टानें पहाड़ियों के ऊपर ऊँचाई में बनी हैं जबकि पानी नीचे घाटी में मिलता है जहाँ विभिन्न जल धाराएँ और नाले बहते हैं। उन गुफ़ाओं और चट्टानों में भी भिक्षुकों नें जल की एक-एक बूँद को इक्ट्ठा करने के लिए प्रयोजन किया था, जो दो हज़ार के बाद आज भी बढ़िया काम कर रहे हैं।</div><div><br /></div><div>चट्टानों के ऊपर हर ढलान पर नालियाँ काटी गयीं थीं जिनमें बरसात का पानी इक्ट्ठा हो कर चट्टानों में बने जलाशयों में जमा होता था। नीचे की तस्वीर में कान्हा की चट्टानों में बनी गुफ़ाएँ हैं, ध्यान से देखेंगे तो हर सतह पर पानी जमा करने के लिए बनी हुई संकरी नालियों का जाल दिखाई देगा।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtOw5OxziRRgXQliBTgVNeXhbsB5V2jBLBKvEF9Dn7kJ2k-7p3i0G1UT0rGpyZz0CCCo5Y9EQPhk2lBewBgIRjnuUWxaSU3T5pP3YcfkjVwbOQxSm4NjvurYuJMtNzg15Sxvk6EvAbi1yejZXtgKSpJWlIDD8vkDxXq-H5j-aHZiLaQhpA_LZVUFVteg/s820/2016_april28_Borivali_Kanheri_caves%20(74).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="574" data-original-width="820" height="280" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtOw5OxziRRgXQliBTgVNeXhbsB5V2jBLBKvEF9Dn7kJ2k-7p3i0G1UT0rGpyZz0CCCo5Y9EQPhk2lBewBgIRjnuUWxaSU3T5pP3YcfkjVwbOQxSm4NjvurYuJMtNzg15Sxvk6EvAbi1yejZXtgKSpJWlIDD8vkDxXq-H5j-aHZiLaQhpA_LZVUFVteg/w400-h280/2016_april28_Borivali_Kanheri_caves%20(74).jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div>अगर आप मुम्बई जाते हैं तो कान्हा की गुफ़ाओं को अवश्य देखने जाईये, बहुत सुंदर जगह है, और वहाँ चट्टानों में काट कर बनी नालियों के जाल को भी अवश्य देखियेगा कि कैसे प्राचीन भारत ने जल संचय की तकनीकी का विकास किया था।<br /><h3 style="text-align: left;">खरे हैं तालाब</h3><b>अनुपम मिश्र</b> की किताब "<b><a href="https://www.amazon.in/-/hi/ANUPAM-MISHRA/dp/8173159955" target="_blank">आज भी खरे हैं तालाब</a></b>" हमारे गाँवों के ताल-तालाबों-बावड़ियों की बातें करती है, जोकि एक ज़माने में हर गाँव के जीवन का अभिन्न हिस्सा होते थे और जिनकी पूरी व्यवस्था तथा तकनीकी ज्ञान व कौशल पिछली दो सदियों में धीरे धीरे खोते गये हैं। इस किताब में मिश्र जी ने लिखा हैः</div><div><br /></div><blockquote><div>सैंकड़ों, हज़ारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिल कर सैकड़ों, हज़ार बनाती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गये समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया। ...</div><div><br />पाँचवीं सदी से पंद्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आये थे। कोई एक हज़ार वर्ष तक अबाध चलती हुई इस परम्परा में पद्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएँ आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से नहीं रुक पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लम्बे समय तक इतने व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से नहीं मिटा सका। अठाहरवीं तथा उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह जगह तालाब बन रहे थे। ...</div><div><br />देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैसे राजस्थान और उसमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हज़ारों गावों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते हैं। गावों के नाम के साथ ही जुड़ा है "सर"। सर यानि तालाब। सर नहीं तो गाँव कहां? ... एक समय की दिल्ली में करीब ३५० छोटे-बड़े तालाबों का ज़िक्र मिलता है। ...</div><div><br />आखिरी बार डुगडुगी पिट रही है। काम तो पूरा हो गया है पर आज फ़िर सभी लोग इकट्ठे होंगे, तालाब की पाल पर। अनपूछी ग्यारस को जो संकल्प लिया था, वह आज पूरा हुआ है। बस आगौर में स्तंभ लगना और पाल पर घटोइया देवता की प्राण प्रतिष्ठा होना बाकी है। आगर के स्तम्भ पर गणेश जी बिराजे हैं और नीचे हें सर्पराज। घटोइया बाबा घाट पर बैठ कर पूरे तालाब की रक्षा करेंगे। ...</div><div><br />आज जो अनाम हो गए, उनका एक समय में बड़ा नाम था। पूरे देश में तालाब बनते थे और बनाने वाले भी पूरे देश में थे। कहीं यह विद्या जाति के विद्यालय में सिखाई जाती थी तो कहीं यह जात से हट कर एक विषेश पांत भी बन जाती थी। बनाने वाले लोग कहीं एक जगह बसे मिलते थे तो कहीं ये घूम घूम कर इस काम को करते थे। ...</div></blockquote><div></div><div><br />अनुपम मिश्र जी इस किताब में तालाबों, बावड़ियों के बारे में जो विवरण हैं, वह उस खोये हुए समय का क्रंदन है जिसे संजोरने और सम्भालने की हममे क्षमता नहीं थी। ट्यूबवैल और हैंडपम्प लगा कर धरती के गर्भ में छुपे जल को मशीन से बाहर निकालने की आसानी ने उस ज्ञान और कौशल को बेमानी बना दिया। अब जब मानसून और बारिशें अपने रास्ते भूल रहे हैं, जब धरती के गर्भ में छुपे जल का स्तर घटता जा रहा है, तो लोग बारिश का पानी कैसे बचाया जाये, इसकी बातें करते हैं। लेकिन उन तालाबों से जुड़े संसार को क्या हम लोग समय पर सहेज पायेंगे?</div><div><br /></div><div>इस आलेख की अंतिम तस्वीर में छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से एक तालाब का पुराना मंदिर है। आप बताईये क्या यह तालाब और मंदिर हम भविष्य के लिए समय रहते बचा पायेंगे या नहीं?</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKYm2_8qvs3TDrcW743-fXHwcAEMiRJbU3kvhKnoYzKnuERTnwR-JgZcf9woG0C8M1WHfuRDNXPAs2ZF5iE2iF3l5xAPwej8o1Y8lEfKi5mlLm5AIuEJdIbZW9dh6o_Cp0ubPixn-xQ_HPRgZWLomrezVnWixdm2U6ct8B1Py7MTldYn7ySA9-Gbw9eg/s820/2014_sept06_Ganiyari%20(35).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="574" data-original-width="820" height="280" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKYm2_8qvs3TDrcW743-fXHwcAEMiRJbU3kvhKnoYzKnuERTnwR-JgZcf9woG0C8M1WHfuRDNXPAs2ZF5iE2iF3l5xAPwej8o1Y8lEfKi5mlLm5AIuEJdIbZW9dh6o_Cp0ubPixn-xQ_HPRgZWLomrezVnWixdm2U6ct8B1Py7MTldYn7ySA9-Gbw9eg/w400-h280/2014_sept06_Ganiyari%20(35).jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>***</div><h3 style="text-align: left;">पानी और तालाबों पर गीत</h3><div><div>इस आलेख को पढ़ कर, हमारे शहर से करीब बीस किलोमीटर दूर रहने वाली <a href="https://www.facebook.com/shyama.medhekar/" target="_blank"><b>श्यामा जी </b></a>ने, जो वेनिस विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग से जुड़ी हैं, फेसबुक पर अपनी टिप्पणी में मनोज कुमार की "शोर" फ़िल्म से "पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा" गीत को याद कराया, तो मन में प्रश्न उठा कि इस विषय पर, यानि पानी, जल और तालाब के विषय पर, और कौन कौन से प्रसिद्ध गीत हैं?</div><div><br /></div><div>सबसे पहले तो कुछ-कुछ ऐसे ही अर्थ वाला "विक्की डोनर" से आयुष्मान खुराना का "पाणी दा रंग वेख के" याद आया। फ़िर एक अन्य पुरानी फ़िल्म से "ओह रे ताल मिले नदी के जल से" याद आया जिसे पर्दे पर संजीव कुमार ने गाया था। एक अन्य पुरानी फ़िल्म याद आयी, ख्वाजा अहमद अब्बास की "दो बूँद पानी" लेकिन गीत याद नहीं आया।</div><div><br /></div><div>क्या आप को इस तरह का कोई अन्य गीत याद है? बस मेरी एक बिनती है कि अपनी याद वाला गीत बताईयेगा, गूगल करके खोजा हुआ नहीं।</div></div><div><br /></div><div><br /></div></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-38560009684324662952022-06-25T18:52:00.006+02:002024-02-22T08:05:22.259+01:00डिजिटल तस्वीरों के कूड़ास्थलएक इतालवी मित्र, जो एक म्यूज़िक कन्सर्ट में गये थे, ने कहा कि उन्हें समझ नहीं आता था कि इतने सारे लोग जो इतने मँहगे टिकट खरीद कर एक अच्छे कलाकार को सुनने गये थे, वहाँ जा कर उसे सुनने की बजाय स्मार्ट फ़ोन से उसके वीडियो बनाने में क्यों लग गये थे? उनके अनुसार वह ऐसे वीडियो बना रहे थे जिनमें उस कन्सर्ट की न तो बढ़िया छवि थी न ध्वनि। उनका कहना था कि इस तरह के वीडियो को कोई नहीं देखेगा, वह खुद भी नहीं देखेंगे, तो उन्होंने कन्सर्ट का मौका क्यों बेकार किया?<br /><br />उनकी बात सुन कर मैं भी इसके बारे में सोचने लगा। मुझे वीडियो बनाने की बीमारी नहीं है, कभी कभार आधे मिनट के वीडियो खींच भी लूँ, पर अक्सर बाद में उन्हें कैंसल कर देता हूँ। लेकिन मुझे भी फोटो खींचना अच्छा लगता है।<br /><br />तो प्रश्न उठता है कि यह फोटो और वीडियो जो हम हर समय, हर जगह खींचते रहते हैं, यह अंत में कहाँ जाते हैं?<div><br /><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMdWVjR6M_N3TvSbDxIrg1Yn3EalcLh6RRrpu3n3XOSYxY9mXDfUQWvTEg--mTYL5Vuh97TWiHQG3JxuXRsS7bWLyansT4yRbppuIfBKw6eeOdq7KeMyn9pyo3W2ftoXpSSZcZsRc2khdSveotDqD2447fA529xVERWW33ia0oUd5vBixRU5zCvEaxUA/s685/2015_nov18_chhath_Puja_Kachari_Ghat%20(57)01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="685" data-original-width="665" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMdWVjR6M_N3TvSbDxIrg1Yn3EalcLh6RRrpu3n3XOSYxY9mXDfUQWvTEg--mTYL5Vuh97TWiHQG3JxuXRsS7bWLyansT4yRbppuIfBKw6eeOdq7KeMyn9pyo3W2ftoXpSSZcZsRc2khdSveotDqD2447fA529xVERWW33ia0oUd5vBixRU5zCvEaxUA/w389-h400/2015_nov18_chhath_Puja_Kachari_Ghat%20(57)01.jpg" width="389" /></a></div><br /><h3 style="text-align: left;">क्लाउड पर तस्वीरें</h3><div>कुछ सालों से गूगल, माइक्रोसोफ्ट आदि ने नयी सेवा शुरु की है जिसमें आप अपनी फोटो और वीडियो अपने मोबाईल या क्मप्यूटर में रखने के बजाय, अपनी डिजिटल फाइल की कॉपी "क्लाउड" यानि "बादल" पर रख सकते हैं। शुरु में यह सेवा निशुल्क होती है लेकिन जब आप की फाईलों का "भार" एक सीमा पार लेता है तो आप को इस सेवा का पैसा देना पड़ता है।</div><div><br /></div><div>शुरु में लगता था कि डिजिटल जगत में काम करने से हम प्रकृति को बचा सकते हैं। जैसे कि चिट्ठी लिखने में कागज़, स्याही लगेगें, उन्हें किसी को भेजने के लिए आप को उस पर टिकट लगाना पड़ेगा, पोस्ट करने जाना पड़ेगा, आदि। डिजिटल होने से फायदा होगा कि आप कम्प्यूटर या मोबाईल पर ईमेल या एस.एम.एस. या व्हाटसएप कर दीजिये, इस तरह आप प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं। यानि हम सोचते थे कि आप का जो मन है करते जाईये, गाने डाऊनलोड कीजिये, तस्वीरें या वीडियो खींचिये, हर सुबह "गुड मॉर्निंग" के साथ उन्हें मित्रों को भेजिये, सब कुछ डिजिटल साइबर दुनिया में रहेगा, रोज़मर्रा के जीवन पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा और इस तरह से आप प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं।</div><div><br />प्रसिद्ध डिज़ाईनर जैरी मेकगोवर्न ने इसके बारे में एक आलेख लिखा है। वह कहते हैं कि पिछले वर्ष, 2021 में, केवल एक साल में 14 करोड़-गुणा-करोड़ तस्वीरें खींची गयीं (इस संख्या का क्या अर्थ है और इसमें कितने शून्य लगेंगे, मुझे नहीं मालूम)। इतनी तस्वीरें पूरी बीसवीं सदी के सौ सालों में नहीं खींची गयी थीं। उनके अनुसार इनमें से ९ करोड़-गुणा-करोड़ तस्वीरें, यानि दो तिहाई तस्वीरें और वीडियो गूगल, माइक्रोसोफ्ट आदि के क्लाउड पर रखी गयीं हैं और जिनमें से 90 प्रतिशत तस्वीरें और वीडियो कभी दोबारा नहीं देखे जायेंगे। यानि लोग उन तस्वीरों और वीडियो को अपलोड करके उनके बारे में सब कुछ भूल जाते हैं। इन क्लाउड को वह डिजिटल कूड़ास्थलों या कब्रिस्तानों का नाम देते हैं।<br /><br />यह पढ़ा तो मैं इसके बारे में सोच रहा था। यह कूड़ास्थल किसी सचमुच के बादल में आकाश में नहीं बैठे हैं, बल्कि डाटा सैंटरों में रखे हज़ारों, लाखों कम्प्यूटर सर्वरों के भीतर बैठे हैं जिनको चलाने में करोड़ों टन बिजली लगती होगी। इन कम्प्यूटरों में गर्मी पैदा होती है इसलिए इन्हें ठँडा करना पड़ता होगा। डिजिटल फाईलों को रखने वाली हार्डडिस्कों की तकनीकी में लगातार सुधार हो रहे हैं, लेकिन फ़िर भी जिस रफ्तार से दुनिया में लोग वीडियो बना रहे हैं, तस्वीरें खींच रहे हैं और उनको क्लाउड पर डाल रहे हैं, उनके लिए हर साल उन डाटा सैंटरों को फ़ैलने के लिए नयी जगह चाहिये होगी? तो क्या अब हमें सचमुच के कूड़ास्थलों के साथ-साथ डिजिटल कूड़ास्थलों की चिंता भी करनी चाहिये?</div><h3 style="text-align: left;">मेरे फोटो और वीडियो</h3><div>कुछ वर्ष पहले तक मुझे तस्वीरें खींचने का बहुत शौक था। हर दो - तीन सालों में मैं नया कैमरा खरीदता था। कभी किसी साँस्कृतिक कार्यक्रम में या देश विदेश की यात्रा में जाता तो वहाँ फोटो अवश्य खींचता। कैमरे के लैंस के माध्यम से देखने से मुझे लगता था कि उस जगह को या उस क्षण में होने वाले को या उस कलाकृति को अधिक गहराई से देख रहा हूँ। बाद में उन तस्वीरों को क्मप्यूटर पर डाउनलोड करके मैं उन्हें बड़ा करके देखता। बहुत सारी तस्वीरों को तुरंत कैंसल कर देता, लेकिन बाकी की तस्वीरों को पूरा लेबल करता कि किस दिन और कहाँ खींची थी, उसमें कौन कौन थे। मैंने बाहरी हार्ड डिस्क खरीदी थीं जिनको तस्वीरों से भरने में देर नहीं लगती थी, इसलिए यह आवश्यक था कि केवल चुनी हुई तस्वीरें रखी जायें और बाकियों को कैंसल कर दिया जाये। जल्दी ही उन हार्ड डिस्कों की संख्या बढ़ने लगी तो तस्वीरों को जगहों, देशों, सालों आदि के फोल्डर में बाँटना आवश्यक होने लगा।</div><div><br />तब सोचा कि एक जैसी दो हार्ड डिस्क रखनी चाहिये, ताकि एक टूट जाये तो दूसरी में सब तस्वीरें सुरक्षित रहें। यानि काम और बढ़ गया। अब हर तस्वीर को दो जगह कॉपी करके रखना पड़ता था। इस समय मेरे पास करीब सात सौ जिगाबाईट की तस्वीरें हैं। हार्ड डिस्क में फोटों को तरीके से रखने के लिए बहुत मेहनत और समय चाहिये। पहले आप सब फोटों को देख कर उनमें से रखने वाली तस्वीरों को फोटो चुनिये। उनको लेबल करिये कि कब, कहाँ खींची थी, कौन था उसमें। इसलिए हार्डडिस्क पर कूड़ा जमा नहीं होता, काम ती तस्वीरें जमा होती हैं। <br /><br /><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3>जो हम हर रोज़ फेसबुक, टिवटर, इँस्टाग्राम आदि में लिखते हैं, टिप्पणियाँ करते हैं, लाईक वाले बटन दबाते हैं, यह सब कहाँ जाते हैं और कब तक संभाल कर रखे जाते हैं? अगर दस साल पहले मैंने आप की किसी तस्वीर पर लाल दिल वाला बटन दबाया था, तो क्या यह बात कहीं किसी डाटा सैंटर में सम्भाल कर रखी होगी और कब तक रखी रहेगी? क्या उन सबके भी कोई डिजिटल कूड़ास्थल होंगे जो पर्यावरण में टनों कार्बन डाईओक्साईड छोड़ रहे होंगे और जाने कब तक छोड़ते रहेंगे?<br /><br />मैं गूगल, माईक्रोसोफ्ट आदि के क्लाउड पर भी कोई तस्वीरें या वीडियो नहीं रखता, मेरे पूरे आरकाईव मेरे पास दो हार्ड डिस्कों पर सुरक्षित हैं। मुझे लगता है कि जब मैं नहीं रहूँगा तो मेरे बाद इन आरकाईव को कोई नहीं देखेगा, अगर देखने की कोशिश भी करेगा तो देशों, शहरों, विषयों, सालों के फोल्डरों के भीतर फोल्डर देख कर थक जायेगा। भविष्य में शायद कृत्रिम बुद्धि वाला कोई रोबोट कभी उनकी जाँच करेगा और अपनी रिपोर्ट में लिख देगा कि इस व्यक्ति को कोई मानसिक बीमारी थी, क्योंकि उसने हर तस्वीर में साल, महीना, दिन, जगह, लोगों के नाम आदि बेकार की बातें लिखीं हैं।</div><div><br /></div><div>यह भी सोच रहा हूँ कि भविष्य में जाने उन डिजिटल कूड़ास्थलों को जलाने से कितना प्रदूषण होगा या नहीं होगा? और जैसे सचमुच के कूड़ास्थलों पर गरीब लोग खोजते रहते हैं कि कुछ बेचने या उपयोग लायक मिल जाये, क्या भविष्य में डिजिटल कूड़ास्थलों पर भी इसी तरह से गरीब लोग घूमेंगे? आप क्या कहते हैं?</div><div><br /></div><div>मेरे विचार में आप चाहे जितना मन हो उतनी तस्वीरें या वीडियो खींचिये, बस उन्हें आटोमेटिक क्लाउड पर नहीं सभाल कर रखिये। बल्कि बीच बीच में पुरानी तस्वीरों और वीडियो को देखने की कोशिश करिये और जिनको देखने में बोर होने लगें, उन्हें कैसल कीजिये। जो बचे, उसे ही सम्भाल के रखिये। इससे आप पर्यावरण की रक्षा करेंगे।</div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div></div></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com14tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-31227748512405276902022-06-21T18:30:00.001+02:002024-02-22T08:05:44.412+01:00धर्मों की आलोचना व आहत भावनाएँआप के विचार में धर्मों की, उनके देवी देवताओं की और उनके संतों और पैगम्बरों की आलोचना करना सही है या गलत?<div><br /></div><div>मेरे विचार में धर्मों से जुड़ी विभिन्न बातों की आलोचना करना सही ही नहीं है, आवश्यक भी है।</div><div><br /></div><div>अगर आप सोचते हैं कि अन्य लोग आप के धर्म का निरादर करते हैं और इसके लिए आप के मन में गुस्सा है तो यह आलेख आप के लिए ही है। इस आलेख में मैं अपनी इस सोच के कारण समझाना चाहता हूँ कि क्यों मैं धर्मों के बारे में खुल कर बात करना, उनकी आलोचना करने को सही मानता हूँ।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhedhGu-iqJHKplRj3yZS5BIM61RPt6ApMMxantt2AXaW3U00pvUbRuGA9V0kQ9GK7gECumMYjoplh45aRZ6iSErGNXIneyxw6UUCjGX4C_9Q9aNkaPc5mSgPx1zySIoj07sX0HdQiWwITYFnoOuDXZalERLUwzGoPRtqVEZUCwBs8F_s4e6jOQA5u7ig/s796/Draft01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="402" data-original-width="796" height="203" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhedhGu-iqJHKplRj3yZS5BIM61RPt6ApMMxantt2AXaW3U00pvUbRuGA9V0kQ9GK7gECumMYjoplh45aRZ6iSErGNXIneyxw6UUCjGX4C_9Q9aNkaPc5mSgPx1zySIoj07sX0HdQiWwITYFnoOuDXZalERLUwzGoPRtqVEZUCwBs8F_s4e6jOQA5u7ig/w400-h203/Draft01.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h3 style="text-align: left;">धर्मों की आलोचना का इतिहास</h3>अगर एतिहासिक दृष्टि से देखें तो हमेशा से होता रहा है कि सब लोग अपने प्रचलित धर्मों की हर बात से सहमत नहीं होते और उनकी इस असहमती से उन धर्मों की नयी शाखाएँ बनती रहती हैं। उस असहमती को आलोचना मान कर प्रचलित धर्म उसे दबाने की कोशिश करते हैं, लेकिन फ़िर भी उस आलोचना को रोकना असम्भव होता है। यही कारण है कि दुनिया के हर बड़े धर्म की कई शाखाएँ हैं, और उनमें से आपस में मतभेद होना या यह सोचना सामान्य है कि उनकी शाखा ही सच्चा धर्म है, बाकी शाखाएँ झूठी हैं। कभी कभी एक शाखा के अनुयायी, बाकियों को दबाने, देशनिकाला देने या जान से मार देने की धमकियाँ देते हैं।<div><br /></div><div>उदाहरण के लिए - ईसाई धर्म में कैथोलिक और ओर्थोडोक्स के साथ साथ प्रोटेस्टैंट विचार वालों के अनगिनत गिरजे हैं; मुसलमानों में सुन्नी और शिया के अलावा बोहरा, अहमदिया जैसे लोग भी हैं; सिखों के दस गुरु हुए हैं और हर गुरु के भक्त भी बने जिनसे खालसा, नानकपंथी, नामधारी, निरंकारी, उदासी, सहजधारी, जैसे पंथ बने।</div><div><br /></div><div>जब धर्मों की नयी शाखाएँ बनती हैं तो उसके मूल में अक्सर आलोचना का अंश भी होता है। जैसे कि सोलहवीं शताब्दी में जब जर्मनी में मार्टिन लूथर ने ईसाई धर्म की प्रोटेस्टैंट धारा को जन्म दिया तो उनका कहना था कि कैथोलिक धारा अपने मूल स्वरूप से भटक गयी थी, उसमें संत पूजा, देवी पूजा और मूर्तिपूजा जैसी बातें होने लगी थीं। इसी तरह, उन्नीसवीं शताब्दी में सिख धर्म में सुधार लाने के लिए निरंकारी और नामधारी पंथों को बनाया गया। कुछ इसी तरह की सोच से कि हमारा धर्म अपना सच्चा रास्ता भूल गया है और उसे सही रास्ते पर लाना है, अट्ठारहवीं शताब्दी में सुन्नी धर्म के सुधार के लिए वहाबी धारा का उत्थान हुआ।</div><div><br /></div><div>इन उदाहरणों के माध्यम से मैं कहना चाहता हूँ कि धर्मों में आलोचना की परम्पराएँ पुरानी हैं और यह सोचना कि अब कोई हमारे धर्म के विषय में कुछ आलोचनात्मक नहीं कहेगा, यह स्वाभाविक नहीं होगा।</div><div><h3 style="text-align: left;">भारतीय धर्मों में आलोचनाएँ</h3>हिंदू धर्म ग्रंथ तो प्राचीन काल से धर्मों पर विवाद करने को प्रोत्साहन दते रहे हैं। धर्मों की इतनी परम्पराएँ भारत उपमहाद्वीप में पैदा हुईं और पनपी कि उनकी गिनती असम्भव है। कहने के लिए भारत की धार्मिक परम्पराओं को चार धर्मों में बाँटा जाता है - हिंदू, सिख, बौद्ध, और जैन। लेकिन मेरी दृष्टि में धर्मों का यह विभाजन कुछ नकली सा है। जिस तरह से दुनिया के अन्य धर्म अपनी भिन्नताओं के हिसाब से बाँटते हैं, उस दृष्टि से सोचने लगें तो भारत में हज़ारों धर्म हो जायें, पर अन्य सभ्यताओं से भारतीय सभ्यता में एक महत्वपूर्ण अंतर है कि उसकी दृष्टि धार्मिक भिन्नताओं को नहीं, उनकी समानताओं को देखती है।</div><div><br /></div><div>इसके साथ साथ भारतीय धर्मों की एक अन्य खासियत है कि उनकी सीमाओं पर दीवारे नहीं हैं बल्कि धर्मों की मिली जुली परम्पराओं वाले सम्प्रदाय हैं। पश्चिमी पंजाब से आये मेरे नाना नानी के परिवारों में बड़े बेटे को "गुरु को देना" की प्रथा प्रचलित थी, यानि हिंदू परिवार का बड़ा बेटा सिख धर्म का अनुयायी होता था। हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध प्रार्थनाओं और पूजा स्थलों में अक्सर एक दूसरे की परम्पराओं को भी सम्मान दिया जाता है।</div><div><br /></div><div>यही नहीं, उनके तथा ईसाई एवं मुसलमान परम्पराओं के बीच में भी सम्मिश्रण से सम्प्रदाय या साझी परम्पराएँ बनीं। मेवात के मुसलमानों में हिंदू परम्पराएँ और केरल के ईसाई जलूसों में हिंदू समुदायों का होना, सूफ़ी संतों की दरगाहों में भिन्न धर्मों के लोगों का जाना, विभिन्न हिंदू त्योहारों में सब धर्मों के लोगों का भाग लेना, इसके अन्य उदाहरण हैं।</div><div><br /></div><div>इस साझा संस्कृति में सहिष्णुता स्वाभाविक थी और कट्टर होना कठिन था, इसलिए एक दूसरे के धर्म के बारे में हँसी मज़ाक करना या आलोचना करना भी स्वाभाविक था।<br /><h3 style="text-align: left;">आहत भावनाओं की दुनिया</h3>आजकल की दुनियाँ में ऐसे लोगों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है जिनकी भावनाएँ बहुत आसानी से आहत हो जाती हैं। भावनाओं के आहत होने से वह लोग बहुत क्रोधित हो जाते हैं और अक्सर उनका क्रोध हिँसा या तोड़ फोड़ में अभिव्यक्त होता है। इस वजह से, अगर आप लेखक हैं, कलाकार हैं, या फिल्मकार हैं, तो किसी भी सृजनात्मक कार्य से पहले आप को गम्भीरता से सोचना पड़ता है कि क्या मेरी कृति की वजह से किसी की भावनाएँ आहत तो नहीं हो जायेगीं? वैसे आप कितनी ही कोशिशें कर लें, पहले से कितना भी सोच लें, सब कोशिशों के बाद भी यह हो सकता है कि कोई न कोई, किसी भी वजह से आप से रुष्ठ हो कर आप को सबक सिखाने की धमकी दे देगा।</div><div><br /></div><div>यूरोप में इस्लाम से सम्बंधित आहत भावनाओं वालों के गुस्से के बारे में तो सभी जानते हैं। इस्लाम के बारे में कुछ भी आलोचनात्मक बोलिये तो आप पर कम से कम इस्लामोफोबिया का छप्पा लग सकता है, और किसी को अधिक गुस्सा आया तो वह आप को जान से भी मार सकता है। भारत में अन्य धर्मों के लोगों में भी यही सोच बढ़ रही है कि हमारे धर्म, भगवान, धार्मिक किताबों तथा देवी देवताओं का "अपमान" नहीं होना चाहिये और अगर कोई ऐसा कुछ भी करता या कहता है तो उसको तुरंत सबक सिखाना चाहिये, ताकि अगर वह ज़िंदा बचे तो दोबारा ऐसी हिम्मत न करे। "अपमान" की परिभाषा यह लोग स्वयं बनाते हैं और यह कहना कठिन है कि वह किस बात से नाराज हो जायेगे।</div><div><br /></div><div>जो बात धर्म से जुड़े विषयों से शुरु हुई, वह धीरे धीरे जीवन के अन्य पहलुओं की ओर फैल रही है। आप ने किसी भी जाति के बारे में ऐसा वैसा क्यों कहा? आप ने किसी जाति या धर्म वाले को अपने उपन्यास या फिल्म में बुरा व्यक्ति या बलात्कारी क्यों बनाया? यानि किसी भी बात पर वह गुस्सा हो कर उस जाति या धर्म या गुट के लोग आप के विरुद्ध धरना लगा सकते हैं या तोड़ फोड़ कर सकते हैं।</div><div><br /></div><div>भारत की पुलिस अधिकतर उन दिल पर चोट खाने वालों के साथ ही होती है। आप ने ट्वीटर या फेसबुक पर कुछ लिखा, या यूट्यूब और क्लबहाउस में कुछ ऐसा वैसा कहा तो पुलिस आप को तुरंत पकड़ कर जेल में डाल सकती है, लेकिन अगर आप की भावनाएँ आहत हुईं हैं और आप तोड़ फोड़ कर रहे हैं या दंगा कर रहे हैं या किसी को जान से मारने की धमकी दे रहें हैं, तो अधिकतर पुलिस भी इसे आप का मानव अधिकार मानती है और बीच में दखल नहीं देती।<br /><h3 style="text-align: left;">धर्म के निरादर पर गुस्सा करना बेकार है</h3>एक बार मेरे एक भारतीय मूल के अमरीका में रहने वाले मित्र से इस विषय में बात हो रही थी, जो कि क्रोधित थे क्योंकि उन्होंने अमेजन की वेबसाईट पर ऐसी चप्पलों का विज्ञापन देखा था जिनपर गणेश जी की तस्वीर बनी थी। उनका कहना था कि बाकी धर्मों वाले, हिन्दुओं को कमज़ोर समझते हैं और हिन्दु देवी देवताओं का अपमान करते रहते हैं। उन लोगों ने मिल कर अमेजन के विरुद्ध ऐसा हल्ला मचाया कि अमेजन वालों ने क्षमा माँगी और उन चप्पलों के विज्ञापनों को हटा दिया।</div><div><br /></div><div>मैंने शुरु में उनसे मजाक में कहा कि आप गणेश जी की चिंता नहीं कीजिये, वह उस चप्पल में पाँव रखने वाले को फिसला कर ऐसे गिरायेंगे कि उसकी हड्डी टूट जायेगी। तो मेरे मित्र मुझसे भी क्रोधित हो गये, बोले कि कैसी वाहियात बातें करते हो? उनकी सोच है कि कोई हमारे देवी देवताओं का इस तरह से अपमान करे तो हमें तुरंत उसका विरोध करना चाहिये। उनसे बहुत देर तक बात करने के बाद भी न तो मैं उन्हें अपनी बात समझा पाया, लेकिन उनके कहने से मेरी सोच भी नहीं बदली।</div><div><br /></div><div>मुझे धर्म, पैगम्बर, धार्मिक किताबों या देवी देवताओं के अपमान की बातें निरर्थक लगती हैं। किताबों में कागज पर छपे शब्दों में पवित्रता नहीं, पवित्रता उनको पढ़ने वालों के मन में है, दुनिया की हर वस्तु की तरह किताब तो नश्वर है, एक दिन तो उसे नष्ट हो कर संसार के तत्वों में लीन होना ही है। मेरी सोच भगवत् गीता से प्रभावित है जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को अपना बृहद रूप दिखाते हैं कि सारा ब्रह्माँड स्वयं वही हैंः</div><div><br /><div> तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।<br />अपश्यदेवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ।।</div><div><br />जब ब्रह्माँड के कण कण में स्वयं भगवान हैं, जब भगवान न चाहे तो दुनिया का पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो मानव के पैरों के कण कण में और चप्पलों के कण कण में क्या वह भगवान नहीं हैं? अगर आप सचमुच अपने धर्म में और अपने देवी देवताओं में विश्वास करते हैं, तो आप यह क्यों नहीं समझते कि यह मानव के बस की बात ही नहीं है कि भगवान का अपमान कर सके?</div><div><br /></div><div>हमारी एक कहावत भी है कि आसमान पर थूका वापस आप के अपने ऊपर ही गिरता है। भगवान, देवी देवता, यह सब हमारी श्रद्धा और विश्वास की बातें हैं। भगवान न तो पूजा के प्यासे हैं, न ही वह हमारे गुस्से पर नाराज होते हैं। जब हर व्यक्ति की आत्मा में ब्रह्म है, तो उसकी आत्मा में भी है जिसने आप के विचार में आप के भगवान या देवी देवता का अपमान किया है। यह उसका कर्मजाल है और इसका परिणाम वह स्वयं भोगेगा, उसमें आप क्यों भगवान के बचाव में उसके न्यायाधीश और जल्लाद बन जाते हैं?</div><div><br /></div><div>सभी धर्म कहते हैं कि जिसे हम अलग अलग नामों से बुलाते हैं, वह गॉड, खुदा, भगवान, पैगम्बर सर्वशक्तिमान हैं। अगर वह न चाहें तो दुनियाँ में कोई उनके विरुद्ध कुछ कर सकता है क्या? अगर आप यह मानते हैं कि कोई भी मानव आप के गॉड, खुदा, पैगम्बर, देवी देवता या भगवान का अपमान कर सकता है तो वह सर्वशक्तिमान कैसे हुआ? लोग यह भी कहते हैं कि गॉड, खुदा और भगवान ही हमारा पिता है, जिसने सबको जीवन दिया है। तो हम यह क्यों नहीं मानते कि अगर कोई उनके विरुद्ध कुछ भी कहता या करता है, तो वह अपने पिता से झगड़ रहा है और उसे सजा देनी होगी तो उसका पिता ही उसे सजा देगा, आप उसकी चिंता क्यों करते हैं?</div><div><br /></div><div>सिखों के पहले गुरु, नानक के बारे में एक कहानी है कि वह एक बार मदीना गये और काबा की ओर पैर करके सो रहे थे। कुछ लोगों ने उन्हें देखा तो क्रोधित हो गये, बोले काबा का अपमान मत करो। तब गुरु नानक ने उनसे कहा कि अच्छा तुम मेरे पैर उस ओर कर दो जहाँ काबा नहीं है। कहते हैं कि उन लोगों ने जिस ओर गुरु नानक के पैर मोड़े, उन्हें काबा उसी ओर नजर आया, तब वह समझे कि गुरु नानक बड़े संत थे। इसी तरह से संत रविदास कहते थे कि मन चंगा तो कठौती में गँगा। असली बात सब अपने मन की है और उसे निर्मल रखना सबसे अधिक आवश्यक है। इसलिए मेरी सलाह मानिये और आप अपने मन में झाँकिये और देखिये कि आप का मन चंगा है या नहीं, औरों के मन की जाँच परख को भूल जाईये।<br /><h3 style="text-align: left;">हिंदू धर्म का अपमान</h3>पिछले कुछ दशकों में विभिन्न धर्मों के लोगों में असहिष्णुता बढ़ रही है। शायद उनकी देखा देखी, बहुत से हिंदू भी "हिंदू धर्म के अपमान" के प्रति सतर्क हो गये हैं और जब वह ऐसा कुछ देखते हैं तो तुरंत लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। उनसे कुछ कहो तो वह मुसलमान, ईसाई या सिख समुदायों की अपने धर्मों के अपमान के विरुद्ध लड़ाईयों के उदाहरण देते हैं।</div><div><br /></div><div>मेरे विचार में यह गलती है, हिंदू धर्म को बाकियों के लिए उदाहरण बनना चाहिये कि हम लोग धर्म की किसी तरह की आलोचना को स्वीकार करते हैं,कि हमारे देवी देवता, भगवान सर्वशक्तिमान हैं वह अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं। अन्य धर्मों के कट्टरपंथियों को उदाहरण मान कर, हम उनकी तरह बनने की कोशिश करेंगे तो वह हिंदू धर्म के मूल विचारों की हार होगी।<br /><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3>यह आलेख लिखना शुरु किया ही था कि भारत में "नूपुर शर्मा काँड" हो गया। वैसे तो मैं टिवटर पर कम ही जाता हूँ लेकिन कुछ ऐसे माननीय लोग जिन्हें मैं उदारवादी और समझदार समझता था, और जो कि हिंदू धर्म की आलोचनाओं में खुल कर भाग लेते रहे हैं, उन लोगों ने भी जब "पैगम्बर का अपमान किया है" की बात करके दँगा करने वालों को बढ़ावा दिया, तो मुझे बड़ा धक्का लगा।</div><div><br /></div><div>भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसम्प्रदायिक देश में किसी एक गुट की कट्टरता तो सही ठहराना खतरनाक है, इससे आप केवल अन्य कट्टर विचारवालों को मजबूत करते हैं। अगर हमारे पढ़े लिखे, दुनिया जानने वाले बुद्धिवादी लोग भी इस बात को नहीं समझ सकते तो भारत का क्या होगा?</div><div><br /></div><div>1973 की राज कपूर की फ़िल्म बॉबी में गायक चँचल ने एक गीत गया था, "बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह यह कहता, पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता"। आज अगर यह गीत किसी फ़िल्म में हो तो शायद राज कपूर, चँचल और बुल्लेशाह, तीनों को लोग फाँसी पर चढ़ा देंगे।</div></div><div><br /></div><div><br /></div></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-52489963459275670152022-06-12T10:35:00.010+02:002022-06-14T09:21:55.521+02:00पौशानाटिका के जलवेकुछ दिन पहले उत्तरपूर्वी इटली में हमारे शहर स्किओ (Schio) में रंगबिरंगी पौशाकें पहने हुए बहुत से नवयुवक और नवयुवतियाँ वार्षिक कोज़प्ले (Cosplay) प्रतियोगिता के लिए जमा हुए थे। "कोज़प्ले" क्या होता है, यह मुझे कुछ साल पहले ही पता चला था। कोज़प्ले शब्द दो अंग्रेज़ी शब्दों को मिला कर बना है, कोज़ यानि कोस्ट्यूम (Costume) या रंगमंच की पौशाक और प्ले (Play) यानि खेल या नाटक। इस तरह से मैंने कोज़प्ले शब्द का हिंदी अनुवाद किया है पौशानाटिका।<div><br /><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTeHwW-sz6Q1FHrKN_U2sOU3AoCMs1Y-ekcGSZUoUmx5DY_843KRMq561p5d-KVJBs4Bp12Awa3M9MOUKfB5LsQDQoqn2nrrr8S-dyTN3FHAsl5M4NE4kUsFkPWV_C27cQ-Nrp8j5Dap5YL7AGwIyp47TTzalonHgPF9Q0AmiGkfykudZzXSBLnlvuqg/s920/Schio_Cosplay_15.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTeHwW-sz6Q1FHrKN_U2sOU3AoCMs1Y-ekcGSZUoUmx5DY_843KRMq561p5d-KVJBs4Bp12Awa3M9MOUKfB5LsQDQoqn2nrrr8S-dyTN3FHAsl5M4NE4kUsFkPWV_C27cQ-Nrp8j5Dap5YL7AGwIyp47TTzalonHgPF9Q0AmiGkfykudZzXSBLnlvuqg/w400-h311/Schio_Cosplay_15.jpg" width="400" /></a></div><div><br /></div><br /><h3 style="text-align: left;">कोज़प्ले यानि पौशानाटिका</h3><div><br /></div>कोज़प्ले की शुरुआत जापान में पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में हुई, जब कुछ किशोर रोलप्ले वाले खेलों और माँगा कोमिक किताबों के पात्रों की पौशाकें पहन कर मिलते थे। 1990 के दशक में कमप्यूटर खेलों का प्रचलन हुआ जब गेमबॉय जैसे उपकरण बाज़ार में आये तो कोज़प्ले और लोकप्रिय हुआ। तब से आज तक इस कोज़प्ले या पौशानाटिका का दुनिया में बड़ा विस्तार हुआ है। नये कमप्यूटर खेल, विरच्युल रिएल्टी, एनिमेटिड फ़िल्में आदि के पात्र भी इस परम्परा का हिस्सा बन गये हैं।</div><div><br /></div><div>हमारे शहर में जो पौशानाटिकी समारोह होते हैं, उनमें सबसे अधिक लोकप्रिय हैं - डनजेन एण्ड ड्रेगनज जैसे रोलप्ले वाले खेल, जापान की माँगा (Manga) कोमिक्स किताबें और आनिमे (Anime) एनेमेशन फ़िल्में और टीवी सीरियल। इन सबमें दिलचस्पी रखने वाले लोग, अपने किसी एक प्रिय पात्र को चुन कर उनके जैसी पौशाकें बनाते हें, उनकी तरह बालों का स्टाईल बनाते हैं, उनके जैसा मेकअप करते हैं। जब यह सब लोग मिल कर कहीं इक्ट्ठा हो जाते हैं तो वहाँ कोज़प्ले के मेले लग जाते हैं।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQ--yGSoZDy9Dp07Ysdf6go1WyzTWLcTwrDkSqs1CmIkkj0l5ROdB9uAEZWSbjSygiTfLt8whTXE-j0j7uIZpo294vZ5c27za9_yhUdDgy0z0ENNWWdeGrHAgwk7n7TpM_abQd0MqFdYCazpYRMal-vBM7DApD0rrbB7p9b-lK7BHhpvOVzYcft5LWMQ/s920/Schio_Cosplay_06.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQ--yGSoZDy9Dp07Ysdf6go1WyzTWLcTwrDkSqs1CmIkkj0l5ROdB9uAEZWSbjSygiTfLt8whTXE-j0j7uIZpo294vZ5c27za9_yhUdDgy0z0ENNWWdeGrHAgwk7n7TpM_abQd0MqFdYCazpYRMal-vBM7DApD0rrbB7p9b-lK7BHhpvOVzYcft5LWMQ/w400-h311/Schio_Cosplay_06.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">जापान से धीरे धीरे कोज़प्ले का फैशन सारी दुनिया में फ़ैला है। यूरोप के हर देश में जगह जगह पर वार्षिक कोज़प्ले मेले लगते हैं, जहाँ लाखों लोग एकत्रित होते हैं, उनकी प्रतियोगिता होती हैं कि किसकी पौशाक सबसे सुंदर है, किसका अभिनय अपने पात्र से अधिक मेल खाता है, आदि।</div><div><br />अमरीका में सन दियेगो और लोस एन्जेल्स शहरों के कोज़प्ले बहुत मशहूर हैं। जापान के नागोरो में आयोजित होने वाला कोज़प्ले अपनी तरह का दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। इटली में कई शहर ऐसे आयोजन करते हैं, जिसमें सबसे प्रसिद्ध है लुक्का (Lucca) शहर में होने वाला मेला। हमारे शहर का पौशानाटिकी मेला उन सबके मुकाबले में छोटा सा है, इसमें कोई सौ या दो सौ नवजवान हिस्सा लेते हैं जबकि बड़े समारोहों में लाखों लोग सजधज कर एकत्रित हो जाते हैं।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLYL5xqECSu1SqjcpMY_rLWmlrAQeZeBHYQlKdV6g9iQkXlIj5UX7qlHLafNjI4RyxlZpVh6RYrkiyUGUnZBMm-O5axDo0XCP0uJTERLBeyXgCamZgZuwogyyveXskKSbBxhzxBfLzXbsbFa4_M2NxAW7LRFrTZU--fD0luth8FPx4mKio8PS0tJSmYg/s920/Schio_Cosplay_12.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLYL5xqECSu1SqjcpMY_rLWmlrAQeZeBHYQlKdV6g9iQkXlIj5UX7qlHLafNjI4RyxlZpVh6RYrkiyUGUnZBMm-O5axDo0XCP0uJTERLBeyXgCamZgZuwogyyveXskKSbBxhzxBfLzXbsbFa4_M2NxAW7LRFrTZU--fD0luth8FPx4mKio8PS0tJSmYg/w400-h311/Schio_Cosplay_12.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">हमारे शहर का पौशानाटकी मेला नया है, केवल कुछ साल पुराना, लेकिन मैं इसमें शामिल होने वालों की पौशाकें और मेकअप देख कर दंग रह गया। पौशानाटिका के अभिनेता जिस पात्र को चुनते हैं उसके हावभाव, बोलने और चलने का तरीका, सब कुछ उन्हें वैसे ही करना होता है। मुझे इन कमप्यूटर खेलों, माँगा, आनिमे कामिक्स और फ़िल्मों की थोड़ी सी भी जानकारी नहीं है इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि वह लोग अपने पात्रों की नकल करने में कितने सफल थे, लेकिन उन्हें देख कर मुझे लगा कि हमारे बचपन में इस तरह के मेले होते तो मुझे भी ज़ोम्बी या राक्षस बनना अच्छा लगता।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div style="text-align: left;">कोज़प्ले में हिस्सा लेने वालों का एक नियम है कि बिना उन्हें बताये उनकी फोटो नहीं खींचे। फोटो खींचनी हो तो आप को उन्हें बताना चाहिये ताकि वह अपने पात्र की अपनी मुद्रा में पोज़ बना कर फोटो खिंचवायें। हमारे कोज़प्ले में मैंने जितने लोगों से फोटो खींचने की अनुमति माँगी, उनमें से केवल एक युवती ने मना किया।</div><div><br />क्या भारत में कोई कोज़प्ले मेले लगते हैं? अगर आप को उनके बारे में मालूम है तो नीचे टिप्पणीं में यह जानकारी दीजिये।</div><div><br /><h3 style="text-align: left;">कोज़प्ले जैसे अन्य मेले</h3><div><br /></div>उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारे जिले का नाम है वेनेतो (Veneto) और इसका मुख्य स्थान है वेनेत्जिया (Venezia) यानि वेनिस (Venice) का शहर, इसलिए हमारे पूरे जिले में वेनिस की सभ्यता का गहरा प्रभाव है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में इटली एक देश बना, उससे पहले वेनिस एक स्वतंत्र देश माना जाता था, जहाँ के नाविक और जहाज़ दुनिया भर में घूमते थे। वेनिस के मार्कोपोलो की कहानी तो जगप्रसिद्ध है।</div><div><br /></div><div>वेनिस में फरवरी-मार्च के महीनों में <b>कार्निवाल</b> का त्योहार मनाते हैं जिसे आप पुराने ज़माने का पौशानाटिका मेला कह सकते हैं। आजकल कार्निवाल को ईसाई त्योहार मानते हैं लेकिन लोगों का कहना है कि यह त्योहार बहुत पुराना है, ईसाई धर्म से भी पुराना।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhh5IaRZIg8A1JL1P4Go5Z_u8wcygEin-KzHnxLrfs7MSif2WITH62cmH68wqwSTPntnTJE5H4laQ0iRoqhiUhErRx0QV-be17HBthBBEVL1T0ydKG0RbXj4cX3FoCJPtTZ_4xhsVhE2gvHXOYl4798S-1PQoQvEuNAU9DpgVUKl8-Xas-9sTVjx0WQyg/s581/2022_Carnevale_Venezia%20(198).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="461" data-original-width="581" height="318" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhh5IaRZIg8A1JL1P4Go5Z_u8wcygEin-KzHnxLrfs7MSif2WITH62cmH68wqwSTPntnTJE5H4laQ0iRoqhiUhErRx0QV-be17HBthBBEVL1T0ydKG0RbXj4cX3FoCJPtTZ_4xhsVhE2gvHXOYl4798S-1PQoQvEuNAU9DpgVUKl8-Xas-9sTVjx0WQyg/w400-h318/2022_Carnevale_Venezia%20(198).jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">हर वर्ष कार्निवाल के लिए करीब एक महीने तक भिन्न उत्सवों को आयोजित किया जाता है जिनमें लोग विषेश पौशाकें और मुखौटे बनवा कर पहनते हैं। पौशानाटिकी की तरह लोग इसके लिए बहुत पैसा खर्च करते हैं और कई कई महीनों तक इसकी तैयारी करते हैं। कोज़प्ले और कार्निवाल में एक अंतर है कि कोज़प्ले किशोरों और नवजवानों का शौक है, जबकि कार्निवाल में नवजवान, प्रौढ़ और वृद्ध सभी लोग अपनी पौशाकों में हिस्सा लेते हैं।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijh62LNqwCcVEj81rqQPpy5SbIT_-Yf1jNyQt6vQTZ5nPSa9g0099DBArvfn9x0dH20WMVyT8UUxfHniiL-HLUlkSuu4p1ORzhyey9QBnjzNQMbYycbh97pe3lta6moHOXFjNSgLBhrjRxObKm2wH7EeGKJpcHaPX4F4su_9PMrHvp4D347tvscQay8Q/s636/2022_Carnevale_Venezia%20(164).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="502" data-original-width="636" height="316" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijh62LNqwCcVEj81rqQPpy5SbIT_-Yf1jNyQt6vQTZ5nPSa9g0099DBArvfn9x0dH20WMVyT8UUxfHniiL-HLUlkSuu4p1ORzhyey9QBnjzNQMbYycbh97pe3lta6moHOXFjNSgLBhrjRxObKm2wH7EeGKJpcHaPX4F4su_9PMrHvp4D347tvscQay8Q/w400-h316/2022_Carnevale_Venezia%20(164).jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">वेनिस का कार्निवाल दुनिया भर में प्रसिद्ध है, लोग दूर दूर से इसे देखने आते हैं।</div><div><br />हमारे शहर में एक अन्य तरह का पौशानाटकी मेला भी होता है जिसका नाम है <b>स्टीमपँक</b> (Steampunk)। स्टीम यानि भाप और पँक यानि रंगबिरंगे और अजीबोगरीब कपड़ों और बालों का स्टाईल जिसे कुछ रॉकस्टार गायकों से प्रसिद्धी मिली थी। कोज़प्ले की तरह इसकी शुरुआत भी पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक के आसपास हुई थी।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_hYzr1oHBoiPdzsGDMrDJNDY7O_5kU31-NRk-GQQDWM0qGC7qeT-70ilq1rp3o4XMV8gaUSKmvtmOZdyK8UeZt7zdWPMTnSjbXr7luJPbPGLIO6-vg_MUo_Spm8AxWfn3zHOV2giBDZvqRfwA-YkPAOyH_AOjXkSOUZlIn1Hx9amd6GUYf0Ja47xIfQ/s724/IMG_0017.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="568" data-original-width="724" height="314" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_hYzr1oHBoiPdzsGDMrDJNDY7O_5kU31-NRk-GQQDWM0qGC7qeT-70ilq1rp3o4XMV8gaUSKmvtmOZdyK8UeZt7zdWPMTnSjbXr7luJPbPGLIO6-vg_MUo_Spm8AxWfn3zHOV2giBDZvqRfwA-YkPAOyH_AOjXkSOUZlIn1Hx9amd6GUYf0Ja47xIfQ/w400-h314/IMG_0017.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">इस परम्परा को शुरु करने वाले लोग फ्राँसिसी लेखक जूल्स वर्न की किताबों से प्रभावित थे। यह लोग प्राद्योगिक युग के प्रारम्भ में भाप से चलने वाली स्टीम इंजन जैसी मशीनों को महत्व देते हैं और इनकी पौशाकों में एक ओर से कीलों, ट्यूबों, नलियों, घड़ी के भीतर के हिस्सों आदि का प्रयोग किया जाता है, दूसरी ओर से यह लोग विक्टोरियन समय के वस्त्रों को प्राथमिकता देते हैं। कार्निवाल तथा कोज़प्ले की तरह, यह लोग भी अपने पौशाकों, मेकअप आदि पर बहुत पैसा और समय लगाते हैं। बहुत से लोग हर वर्ष नयी पौशाकें बनवाते हैं।</div><div><br />मुझे स्टीमपँक की पौशाकें बहुत अच्छी लगती हैं। कई बार देखा कि यह लोग आधुनिक उपकरण जैसे कि मोबाईल फोन, कमप्यूटर और कैमरे आदि को ले कर, उन्हें विभिन्न धातुओं या पदार्थों से ढक कर पुराने ज़माने की वस्तुओं का रूप देते हैं, जैसे कि आप नीचे वाली तस्वीर के सज्जन के कैमरे में देख सकते हैं। उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने अपने नये कैमरे को पुराने बक्से में बँद करके, उन्होंने उस पर भिन्न बटन लगाये, डॉयल फिट किये और धातूओं का लेप लगाया, जिससे कैमरा देखने में किसी म्यूज़ियम से निकला लगता था लेकिन तस्वीरें अच्छी खींचता था।</div><div><br /></div><div>इसमें हिस्सा लेने वाले अधिकतर लोग प्रौढ़ या वृद्ध होते हें, उनमें नवजवान कम दिखते हैं, शायद इसलिए क्योंकि इस शौक को पूरा करने के लिए काफ़ी पैसा और समय होना चाहिये।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_DXQTR5qcTLgVJ9H9vroTiw4Nbxk7TTwO5mL4_EWpFBhqOqdyT1wnt3dKsXCNj98SRdJ0tHC1P525dzVlR8rlXzZom2O6KFyHEhqO3gAgKnabLD1xB4QTFkTVxkF530Ccxi9iKXFbybE60L6ZAFafhB1s3FIwADDyPvRTseM1GhiAWmvyJ7povg9YiQ/s820/2017_Oct08_BritishDay_Schio_Steampunk_NordEst%20(10).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="820" height="313" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi_DXQTR5qcTLgVJ9H9vroTiw4Nbxk7TTwO5mL4_EWpFBhqOqdyT1wnt3dKsXCNj98SRdJ0tHC1P525dzVlR8rlXzZom2O6KFyHEhqO3gAgKnabLD1xB4QTFkTVxkF530Ccxi9iKXFbybE60L6ZAFafhB1s3FIwADDyPvRTseM1GhiAWmvyJ7povg9YiQ/w400-h313/2017_Oct08_BritishDay_Schio_Steampunk_NordEst%20(10).jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">इनके अतिरिक्त, इटली के विभिन्न भागों में एतिहासिक घटनाओं और त्योहारों पर भी पुराने समय की पौशाकें पहनने का प्रचलन है, जैसे कि कुछ लोग अपनी नृत्य मँडली बनाते हैं जिसमें वह लोग मध्ययुगीन पौशाकें पहन कर मध्ययुगीन यूरोपी नृत्य सीखते हैं और करते हैं। आधुनिकता की दौड़ में पुराने रीति रिवाज़ लुप्त हो रहें हैं, तो वह लोग चाहते हैं कि अपने पुराने नृत्यों और पौशाकों को जीवित रखें।</div><div style="text-align: left;"><br /></div><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3><div><br /></div><div>गोवा में कार्निवाल मनाया जाता है। मैंने एक बार वहाँ कार्निवाल देखा था लेकिन उसमें वैसा कुछ नहीं था, जिस तरह की पौशाकें और मुखौटे इटली में दिखते हैं। ब्राजील में भी गोवा जैसा कार्निवाल मनाते हैं, हालाँकि उनके नृत्य व पौशाकें कुछ बेहतर होती हैं। गोवा तथा ब्राज़ील के लोग पुर्तगाली सभ्यता से अधिक प्रभावित हैं।</div><div><br /></div><div>मुझे मालूम नहीं कि भारत में किसी अन्य जगह पर कोज़प्ले या स्टीमपँक जैसे मेले लगते हैं या नहीं। लेकिन भारत में भी कुछ लोग धार्मिक मौकों पर देवी देवता का रूप धारण करते हें, जो कि धार्मिक कारणों से करते हैं या फ़िर श्रधालुओं से पैसा माँगने के लिए। भारत में ऐसे कोई त्योहार या मेले हों जहाँ आम लोग भिन्न पौशाकें पहन कर एकत्रित होते हों, मुझे उसके बारे में जानकारी नहीं। अगर आप को हो तो नीचे टिप्पणी में उसके बारे में बताईये।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEilCJKHM0o2cwhzYMMmiAYfNOszDkKQpWgKZRBB8_D4C9owPU6ZDHxAnzcCjDlkfQNwlxSrMYCsT4Rdv_zbANY7l9JOMFQ4onvL5DSJ4FFVezv3uSa-ZpWSeJoD7Yn05cHoxUx3zH6Wyjd_AjMM0_Y-YTy3ifpL74M2Aj29QP4eourXMKh4xoOVe9eAlg/s920/Schio_Cosplay_14.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="715" data-original-width="920" height="311" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEilCJKHM0o2cwhzYMMmiAYfNOszDkKQpWgKZRBB8_D4C9owPU6ZDHxAnzcCjDlkfQNwlxSrMYCsT4Rdv_zbANY7l9JOMFQ4onvL5DSJ4FFVezv3uSa-ZpWSeJoD7Yn05cHoxUx3zH6Wyjd_AjMM0_Y-YTy3ifpL74M2Aj29QP4eourXMKh4xoOVe9eAlg/w400-h311/Schio_Cosplay_14.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">मेरे विचार में जापानी और पश्चिमी देशों में अकेलापन अधिक बढ़ा है, यहाँ कम लोग विवाह करते हैं और उनमें से केवल कुछ लोग बच्चे पैदा करते हैं। नौकरी करके कमाने वाले और अकेले रहने वाले लोगों के पास पैसे और समय की कमी नहीं, उन्हें जीवन में कुछ अलग सा चाहिये जिससे उनकी मानवीय रिश्तों की कमी घटे। उन्हें इस तरह के मेलों और त्योहारों में अन्य लोगों से मिलने और आनन्द लेने के मौके मिलते हैं, इसीलिए यहाँ यह सब पौशानाटिकी समारोह लोकप्रिय हो रहे हैं।</div></div></div><div style="text-align: left;"><br /></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-20329160174638900652022-06-11T11:25:00.001+02:002022-06-12T16:38:49.089+02:00फ़िल्मी दुखड़ेएक समय था जब मुझे फिल्म देखना बहुत अच्छा लगता था, लेकिन फ़िर जाने क्या हुआ, मुझे फ़िल्में देखने से कुछ विरक्ति सी हो गयी है। कहते थे कि कोविड में सूंघने की शक्ति चली जाती है, वैसे ही मुझे शक है कि किसी रोग की वजह से मुझे अब फ़िल्म देखना अच्छा नहीं लगता। <div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZduzKZbm_PcgzF5BPkg07AlHcHtvso6RL1L0VNztuaCwIAkhkeWTPLpcF7Oa7GWViBDkBca_-HNBUtPk-ISKunPPq2QqEgJOGkNIeDHYGOakBm9j8oxwUYtrX4U-5X7JsySTYR6geqWfLmE-V4ypUT_s6zIeofCWFBQ2ha4GRMZt8oSLlBqaOVzghWg/s630/01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="630" data-original-width="630" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZduzKZbm_PcgzF5BPkg07AlHcHtvso6RL1L0VNztuaCwIAkhkeWTPLpcF7Oa7GWViBDkBca_-HNBUtPk-ISKunPPq2QqEgJOGkNIeDHYGOakBm9j8oxwUYtrX4U-5X7JsySTYR6geqWfLmE-V4ypUT_s6zIeofCWFBQ2ha4GRMZt8oSLlBqaOVzghWg/w400-h400/01.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: left;">***</div><div><div>बचपन में सिनेमाहाल में पहली फ़िल्म देखी थी, दिल्ली के झँडेवालान में स्थित नाज़ सिनेमा पर, वह थी भारत भूषण और मीना कुमारी की "बैजू बावरा"। उस फ़िल्म से कुछ भी याद नहीं है केवल अंतिम दृश्य याद है जिसमें मीना कुमारी नदी में बह जाती है। इस फ़िल्म के बारे में खोजा तो देखा कि यह फ़िल्म 1952 में आयी थी, जब मैं पैदा नहीं हुआ था, जबकि मेरे विचार में मैं अपनी मम्मी और उनकी सहेली के साथ इस फ़िल्म को 1959-60 में देखने गया था।</div><div><br /></div><div>तब हम लोग झँडेवालान से फिल्मिस्तान जाने वाली सड़क पर बाँयी ओर जहाँ कब्रिस्तान है उसके साथ वाली सड़क पर रहते थे, तो बैजू बावारा के बाद नाज़ पर बहुत सी फ़िल्में देखीं। उन सब फ़िल्मों में सबसे यादगार फ़िल्म थी बासू भट्टाचार्य की "अनुभव", जिसे देखने मैं अपनी मँजू दीदी और उनके बेटे मुकुल के साथ गया था, जो तब दो या तीन साल का था। बड़े हो कर वही मुकुल जाना माना फोटोग्राफर तथा डाक्युमैंटरी फ़िल्मों का निर्देशक बना, लेकिन तब उसे वह फ़िल्म समझ नहीं आयी थी और वह उसके समाप्त होने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। "फ़िल्म कब खत्म होगी" के उसके प्रश्न पर मँजू दीदी ने कहा "जब झँडा आयेगा"। तब फ़िल्मों के अंत में झँडा आता था और राष्ट्रगान होता था, तो मुकुल जी हर पाँच दस मिनट में पूछते, "अन्ना, झँडा कब आयेगा?" उस फ़िल्म का मुझे कुछ और याद नहीं, लेकिन झँडा कब आयेगा वाला प्रश्न नहीं भूलता।</div><div><br /></div><div>खैर, बचपन की अधिकाँश फ़िल्में तो दिल्ली में दूरदर्शन में देखीं थीं। साठ के दशक में जब टीवी पर बुधवार को चित्राहार, शनिवार रात को हिंदी फ़िल्म और रविवार दोपहर को प्रादेशिक भाषा की फ़िल्में आती थीं तो हमारे घर में टीवी नहीं था, अड़ोस पड़ोस में लोगों के घर जा कर उनके ड्राईंगरूम में सब बच्चे सामने ज़मीन पर बैठ कर यह कार्यक्रम देखते थे। इस तरह से जाने कितने लोगों से, जिनसे अन्य कोई जान पहचान नहीं थी, तब भी हम बच्चे लोग उनके घरों में घुस जाते थे, और वह लोग भी खुशी से हमको घरों में घुसने देते थे। करोल बाग वाले घर में थे तो वहाँ एक नगरपालिका के स्कूल में टीवी था, अक्सर वहाँ भी जा कर फ़िल्में देखते थे। राजेन्द्र नगर वाले घर में रहते थे तब एक दो बार किसी ने अपने घर में टीवी देखने से मना किया था तो लगता था कि कितने वाहियात और स्वार्थी लोग हैं, अगर इनके टीवी को और लोगों ने भी देख लिया तो इनका क्या चला जायेगा?</div><h3 style="text-align: left;">***</h3><div>जब विदेश आया तो हिंदी फ़िल्मों की कमी, खाने में मिर्च मसालों की कमी से भी अधिक खलती थी। जब फ़िल्मों के वीडियो कैसेट बनने लगे तो लगा कि कोई खजाना मिल गया हो। हर वर्ष जब भारत से लौट कर आता तो सूटकेस फ़िल्मों के वीडियो कैसेटों से भरा होता था, उनसे से पुरानी फ़िल्मों के कैसेट तो अच्छे वाले मिलते थे, लेकिन नयी फ़िल्मों के कैसेट तो अधिकतर पायरेटिड होते थे, जिनमें छवि स्पष्ट नहीं होती थी। कुछ सालों के बाद उनमें जाँघियों-बनियानों की पब्लिसिटी भी आने लगी, तो टीवी स्क्रीन के ऊपर वाले हिस्से में माधुरी दीक्षित या श्रीदेवी अपने कमाल दिखातीं, और नीचे वाले हिस्से में जाँघिये बनियानें इधर से उधर फुदकतीं।</div><div><br /></div><div>बाद में जब फ़िल्मों की वीसीडी और फ़िर उसके बाद डीवीडी आने लगीं तो फ़िल्में लाना आसान हो गया था, पर पायेरेटिड फ़िल्में देखने की समस्या का हल नहीं हुआ, हालाँकि वीडियों कैसेटों के मुकाबले में फ़िल्मों की छवि बेहतर दिखती थी।</div><div><br /></div><div>तब यह प्रश्न उठा कि पुराने वीडियो कैसेटों का क्या किया जाये। कुछ तो मित्रों को बाँटीं लेकिन अधिकतर को कूड़े में फ़ैंका। केवल तीन वीडियो कैसेट नहीं फ़ैंके, क्योंकि वह मेरी सबसे प्रिय फ़िल्में थीं जिन्हें बीसियों बार देखा था - बँदिनी, साहिब बीबी और गुलाम और अपने पराये। बहुत सालों बाद जब घर में वीडियो कैसेट प्लैयर ही नहीं रहा तो मन मार कर उनको बेसमैंट के स्टोर रूम की अलमारी में रख दिया, कई सालों के बाद मेरी पत्नी ने उन्हें फ़ैंका, तब तक उन पर फँगस उग आयी थी।</div><div><br /></div><div>उन दिनों में कुछ सालों के लिए लँडन में एक स्वयंसेवी संस्था का प्रैसिडैंट चुना गया था तो अक्सर वहाँ जाना होता था। तब साऊथहाल जा कर वहाँ से नयी फ़िल्मों की पायरेटेड सीडी ले कर आता था। कुछ सालों में घर में इतनी सीडी हो गयीं थीं तो उनको रखने की जगह नहीं बची थी। जब इंटरनेट से फ़िल्म डाऊनलोड करने का समय आया, तो धीरे धीरे नयी सीडी खरीदना बँद हो गया। घर में जो हज़ारों सीडी रखी थीं, फ़िर से उन्हें कुछ मित्रों में बाँटा, अधिकतर को कूड़े में फ़ैंका, लेकिन अभी भी करीब एक सौ सीडी हमारे घर के ऊपर वाले एटिक में एक बक्से में बँद रखी हैं। कभी कभी वहाँ कुछ सामान खोजते हुए जाता हूँ तो उनके कवर की तस्वीरों को देख कर पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं, बस इसी लिए उन्हें फ़ैंकने का मन नहीं करता।</div><div><br /></div><div>आजकल फ़िल्में देखना तो और भी आसान हो गया है। अधिकतर पुरानी फ़िल्में, जिनमें तीन चार साल पहले वाली फ़िल्में भी आती हैं, वह सब यूट्यूब पर उपलब्ध हैं। नयी फ़िल्में नेटफ्लिक्स, प्राईम आदि पर मिल जाती हैं। जैसे जैसे नयी फ़िल्में देखना आसान हुआ है, मेरी फ़िल्म देखने की रुचि रास्ते में ही कहीं खो गयी है।</div><div><br /></div><div>बहुत समय के बाद, कुछ दिन पहले क्रिकेट पर बनी एक फ़िल्म '83 एक बार में ही शुरु से अंत तक पूरी देखी। एक अन्य फ़िल्म देखी आर.आर.आर. (RRR) लेकिन एक बार में नहीं देखी, टुकड़ों में बाँट कर तीन-चार दिनों में देखी, और उसके थोड़े से हिस्सों को ही फास्टफोरवर्ड किया। दो सप्ताह पहले गँगूबाई देखनी शुरु की थी, अभी तक पूरी नहीं देखी।</div><h3 style="text-align: left;">***</h3><div>फ़िल्मों में कुछ भी टैंशन या हिंसा की बात हो तो मेरा दिल धकधक करने लगता है, मुझसे वह फ़िल्म देखी नहीं जाती। अनिल कपूर की "थार" देखनी शुरु की थी तो बीच में ही रोक दी, लगा कि उसे आगे देखना मेरे बस की बात नहीं है। केवल नयी फ़िल्मों से ही तकलीफ़ नहीं है, पुरानी फ़िल्में देखता हूँ तो जल्दी बोर हो जाता हूँ, उन्हें फास्ट फोरवार्ड करके बीस मिनट-आधे घँटे में पूरी कर देता हूँ। यही हाल रहा तो भविष्य में शायद केवल फैंटेसी यानि काल्पनिक दुनियाँओं में आधारित कुछ फ़िल्मों को ही देख सकूँगा, क्योंकि उनमें टैंशन और हिंसा के दृश्य नकली लगते हैं इसलिए उन्हें देखने में परेशानी कम होती है।</div><div><br /></div><div>करीब दस-बारह साल पहले, तब बोलोनिया में रहता था, मैं वहाँ होने वाले मानव अधिकार तथा अंतरलैंगिक-समलैंगिक विषयों के फ़िल्मों के फैस्टिवलों से जुड़ा था। तब फ्लोरैंस में होने वाले भारतीय फ़िल्मों के फैस्टिवल, रिवर तू रिवर, में भी जाता था। दो बार मानव अधिकारों के फ़िल्म फैस्टिवल की जूरी का सदस्य भी रहा। लेकिन धीरे धीरे उन सब फ़िल्मों को देखना बँद कर दिया है। अब मुश्किल से शोर्ट फ़िल्म देख पाता हूँ, गम्भीर विषयों बनी लम्बी फ़िल्में जो अधिकतर फैस्टिवलों के लिए चुनी जाती हैं, उनको नहीं देख पाता। इटली में कभी कोई भारत से जुड़ा फ़िल्म फैस्टिवल हो रहा हो और आयोजक मेरे इटालवी ब्लाग पर हिंदी फ़िल्मों के बारे में पढ़ कर मुझसे सम्पर्क करते हैं कि मैं उनकी जूरी का हिस्सा बनूँ या फ़िल्में चुनने में सहायता करूँ तो मैं मना कर देता हूँ, मुझे मालूम है कि यह मुझसे नहीं होगा। </div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyz2FHGgWGnqZmyF_sBhJdt3ceqJqvc1WDb0H3MQRTqLc5UlE0ZcBp3OkdaPBWl-FiqL3rsOd7sFhxbxOqpFtpNkpkgZxHKWZzhrEh7h749IeP5uoVLiu5y8myp4shJxJ1THVXF44UGrFTxkiIP8Jf17DmZTqcdZycDZvKLKILFP2FhoT5TcoVj09qJg/s413/02.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="413" data-original-width="413" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyz2FHGgWGnqZmyF_sBhJdt3ceqJqvc1WDb0H3MQRTqLc5UlE0ZcBp3OkdaPBWl-FiqL3rsOd7sFhxbxOqpFtpNkpkgZxHKWZzhrEh7h749IeP5uoVLiu5y8myp4shJxJ1THVXF44UGrFTxkiIP8Jf17DmZTqcdZycDZvKLKILFP2FhoT5TcoVj09qJg/w400-h400/02.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>क्या फ़िल्म न देख पाने वाली कोई बीमारी होती है? क्या किसी अन्य को भी ऐसी कोई बीमारी हुई है? क्या इलाज है इस बीमारी का? शयाद उसके बारे में लिखने से उसका कोई इलाज निकल आये!</div></div></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-76803788746758405982022-05-31T17:22:00.006+02:002022-06-12T16:39:25.160+02:00धाय-माँओं की यात्राएँइतिहास अधिकतर राजाओं और बादशाहों की और उनके खानदानों, प्रेम सम्बंधों और युद्धों की बातें करते हैं। उन इतिहासों में सामान्य जन क्या कहते थे, सोचते थे, उनका क्या हुआ, यह बातें कम ही दिखती हैं। फ़िर भी, पिछली कुछ शताब्दियों में जब बड़ी संख्या में सामान्य लोगों के जीवनों पर कुछ बड़े प्रभाव पड़ते हैं तो इतिहास बाँचने वालों को उनके बारे में कुछ न कुछ लिखना ही पड़ता है।<div><br /></div><div>ऐसा कुछ अश्वेत लोगों के साथ हुआ जब लाखों लोंगों को भिन्न अफ्रीकी देशों से पकड़ कर यूरोपी जहाजों में भर कर गुलाम बना कर दुनियाँ के विभिन्न कोनों में ले जाया गया। ऐसा कुछ भारतीय गिरमिटियों के साथ भी हुआ जिन्हें काम का लालच दे कर बँधक बना कर मारिशियस, त्रिनिदाद और फिजी जैसे देशों में ले जाया गया। लेकिन हमारे आधुनिक इतिहास की कुछ अन्य कहानियाँ भी हैं जो अभी तक अधिकतर छुपी हुई हैं।</div><div><br /><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiH2W7p4iCidbs3UZcMakw6pickH2Nfm7C5265pPR3AqeXifw0oAyTnZruhSesTANgoyF_MhGZwcvZR5oFSyYfVm9kDApoFCL-nP3V4nctjxYRX8L6AqF6oY9rRwOoodZAnJSBU0ruwsTkX3qd1gnv8BdNlXKjM0EOWBZIGL5bjV8xK5EdA2Qv3owPo8A/s820/aaya_01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="468" data-original-width="820" height="229" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiH2W7p4iCidbs3UZcMakw6pickH2Nfm7C5265pPR3AqeXifw0oAyTnZruhSesTANgoyF_MhGZwcvZR5oFSyYfVm9kDApoFCL-nP3V4nctjxYRX8L6AqF6oY9rRwOoodZAnJSBU0ruwsTkX3qd1gnv8BdNlXKjM0EOWBZIGL5bjV8xK5EdA2Qv3owPo8A/w400-h229/aaya_01.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>ऐसी छुपी हुई कहानियों में है एक कहानी उन भारतीय औरतों की जिन्हें बड़े साहब लोग अपने बच्चों की देखभाल के लिए आया बना कर विदेशों में, विषेशकर ईंग्लैंड में, साथ ले गये। कुछ महीने पहले एक अंग्रेजी की इतिहास के विषय से जुड़ी पत्रिका <a href="https://www.historytoday.com/" target="_blank"><b>हिस्टरी टुडे</b> </a>के जनवरी 2022 के अंक में मैंने <b><a href="https://www.historytoday.com/archive/history-matters/invisible-hands" target="_blank">सुश्री जो स्टेन्ली का एक आलेख </a></b>देखा जिसका शीर्षक था "इनविजिबल हैंडज" यानि अदृश्य हाथ, जिसमें 1750 से ले कर 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक के समय में भारतीय आया बना कर ले जाई गयी औरतों की बात बतायी गयी थी।</div><div><br /></div><div>उनका कहना है कि "आया" शब्द पुर्गालियों की भाषा से आया जिसमें नानी-दादी को "आइआ" (Aia) कहते हैं। भारत में इस काम को करने वाली औरतों को "धाय" या "धाय माँ" कहते थे। जैसे कि पन्ना धाय के बलिदान की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। अंग्रेजी में इसके लिए "बच्चों की गवर्नैस" का प्रयोग भी होता है।</div><div><br /></div><div>भारत में रहने वाले अंग्रेजों के घरों में हज़ारों औरतें आया या धाय का काम करती थीं। जब वह लोग छुट्टी पर ईंग्लैंड जाते, तो बच्चों की देखभाल के लिए उनकी आया को भी साथ ले जाते। कुछ लोग भारत में काम समाप्त होने पर हमेशा के लिए ईंग्लैंड लौटते हुए भी कई माह लम्बी समुद्री यात्रा में उन्हें तकलीफ न हो, इसलिए इन औरतों को बच्चों की देखभाल और अन्य काम कराने के लिए साथ ले जाते थे। लेकिन एक बार ईंग्लैंड पहुँच कर वह इन्हें घर से निकाल भी सकते थे और घर वापस लौटने का किराया नहीं देते थे।</div><div><br /></div><div>भारत में अंगरेज़ साहब और मेमसाहिब के पास बड़े आलीशान बँगले होते थे जिनमें नौकरों को रखने में कठिनाई नहीं होती थी, लेकिन ईंग्लैंड में वापस आ कर, उन साहबों को सामान्य घरों में रहना पड़ता था, तो समस्या होती थी कि भारत से लायी गयी आया को कहाँ रखा जाये? उनके लिए ईंग्लैंड में आया-होस्टल में बन गये थे, जहाँ यह औरतें भारत जाने वाले किसी अंग्रेज परिवार के साथ नयी नौकरी की प्रतीक्षा करती थीं।</div><div><br /></div><div>न्यू योर्क विश्वविद्यालय की <b><a href="https://www.gc.cuny.edu/people/swapna-banerjee" target="_blank">प्रोफेसर स्वप्न बैन्नर्जी</a></b> अन्य शोधकारों के साथ मिल कर सन् 1780 से ले कर 1945 में भारत उपमहाद्वीप से काम करने के लिए दुनिया भर में ले जाये जानी वाली इन प्रवासी महिलाओं पर शोध कर रही हैं जिसके बारे में <a href="https://ayahsandamahs.com/" target="_blank"><b>आया व आमाह के ब्लोग</b></a> पर आप पढ़ सकते हैं। इसी ब्लाग पर पिछली सदी के प्रारम्भ का एक विज्ञापन है जिसमें लँडन के दक्षिण हेक्नी इलाके में बने "आया होम" के बारे में कहा गया कि अंग्रेज महिलाएँ कुछ पैसा दे कर भारत से लायी आया को यहाँ रखवा कर उनसे छुटकारा पा सकती हैं, साथ यह यहाँ हिंदुस्तानी बोलने की सुविधा भी है। (विज्ञापन नीचे की छवि में)</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNxwePaYwq3-c7-1He4i7CHM_1FXID8DLYg4b5NLWGjHxFElNvF2iRJL7JnXeaC3Uu5XKKxBlpQMs-xrpTSmL3Whe0M7MuIs_iV3gs3yMJKmEKaQqU532gnNDIjxuj4YRTHtBb-BRLDk4HoA8sghBbd5z682Jfgig3JJqcNYiPfFYWtC2B_nyd83sOHQ/s734/aaya_02.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="488" data-original-width="734" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNxwePaYwq3-c7-1He4i7CHM_1FXID8DLYg4b5NLWGjHxFElNvF2iRJL7JnXeaC3Uu5XKKxBlpQMs-xrpTSmL3Whe0M7MuIs_iV3gs3yMJKmEKaQqU532gnNDIjxuj4YRTHtBb-BRLDk4HoA8sghBbd5z682Jfgig3JJqcNYiPfFYWtC2B_nyd83sOHQ/w400-h266/aaya_02.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>कुछ औरतों ने अंग्रेज परिवारों की समुद्री यात्रा में बच्चों की देखभाल का काम अच्छे तरीके से आयोजित किया था। 1922 में ईंग्लैंड में अखबार में छपे एक साक्षात्कार में भारत की श्रीमति एन्थनी पारैरा ने बताया वह 54 बार भारत-ईंग्लैंड यात्रा कर चुकी थीं। एक शोध के अनुसार, 1890 से ले कर 1953 तक, हर वर्ष करीब 20-30 औरतें आया बन कर ईंग्लैंड लायी जाती थीं। इनमें से अधिकतर औरतें "नीची" जाति से होती थीं। इसी काम के लिए कुछ चीनी औरतें भी ईंग्लैंड लायी जाती थीं जिन्हें "अमाह" कहते थे, हालाँकि उनकी संख्या भारतीय मूल की "आयाह" के मुकाबले एक चौथाई से भी कम होती थी।</div><div><br /></div><div>उन औरतों की देखभाल में पले अंग्रेज बच्चों ने उनके बारे में अपनी आत्मकथाओं तथा स्मृतियों में वर्णन किया है कि उनको इन्हीं औरतों से परिवार का प्यार व स्नेह मिला। इन कहानियों से उन औरतों के जीवन की रूमानी छवि बनती है, जब कि जो स्टेन्ली के अनुसार उनकी जीवन की सच्चाई अक्सर रूमानी नहीं थी, बल्कि उसकी उल्टी होती थी। उनमें से कई औरतों के साथ उनके अंग्रेज मालिक बुरा व्यवहार करते थे।</div><div><br /></div><div>अफ्रीका में जन्मी भारतीय मूल की इतिहासकार, <b><a href="https://khojawiki.org/Rozina_Visram" target="_blank">डा. रोज़ीना विसराम</a></b> ने इस विषय पर शोध करके कुछ पुस्तकें लिखी हैं। ब्रिटिश राष्ट्रीय पुस्तकालय ने इस विषय में सन् 1600 से ले कर 1947 तक के समय के विभिन्न दस्तावेज़ों को एकत्रित किया है। इनके अनुसार, शुरु में पुरुषों को अधिक लाया जाता था, वह परिवारों के नौकर तथा जहाज़ो में नाविक का काम करते थे। आया का काम करने वाली औरतों के अतिरिक्त, उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से बहुत से लोग ईंग्लैंड में पढ़ने के लिए भी आते थे ताकि वापस जा कर भारत में उनको अंग्रेजी सरकार में ऊँचे पदों पर नौकरी मिल सके।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMtZkbSMV-yLV46xyL6175J9BwcirvOlayUFMD0O65GO06nPkvnvixziKXG-b3Ivfl1yaAsC56K2HCPlrUZGgyXngGeH1E7rubKWvMMb53y8XPPNhGeKTInJhkt4m-G1J0hAo6jhDJZZGIL0KccKh3XsRb289s0KAjMiiSOxyABhvQgnkVlIbjQECqcQ/s520/aaya_03.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="358" data-original-width="520" height="275" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjMtZkbSMV-yLV46xyL6175J9BwcirvOlayUFMD0O65GO06nPkvnvixziKXG-b3Ivfl1yaAsC56K2HCPlrUZGgyXngGeH1E7rubKWvMMb53y8XPPNhGeKTInJhkt4m-G1J0hAo6jhDJZZGIL0KccKh3XsRb289s0KAjMiiSOxyABhvQgnkVlIbjQECqcQ/w400-h275/aaya_03.jpg" width="400" /></a></div><div style="text-align: center;"><br /></div><div>कुछ वर्ष पहले, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की इतिहासकार प्रो. राधिका सिन्घा ने दो विश्व युद्धों में अंग्रेज़ी फौजों के साथ भारत से लाये गये सिपाहियों के जीवन पर शोध करके एक किताब लिखी थी जिसमें मैंने भी कुछ सहयोग किया था। उन भुला दिये गये सिपाहियों के अवशेष यूरोप के विभिन्न हिस्से में बिखरे हुए हैं, उनमें से इटली के फोर्ली शहर के एक स्मारक-कब्रिस्तान के बारे में मैंने एक बार लिखा था। हिस्टरी टुडे के भारत से आयी धाय-माँओं के बारे में आलेख ने सामान्य जनों के छुपे और भुलाए हुए इतिहासों के बारे में वैसी ही जानकारी दी। सोच रहा था कि जिन परिवारों की वह बेटियाँ, बहुएँ या माएँ थीं, गाँवों और शहरों में जब वह भारत छोड़ कर गयीं थीं, उस समय उनकी कहानियाँ भी कहानियाँ बनी होंगी, लोगों ने बातें की होंगी, फ़िर समय के साथ वह कहानियाँ लोग भूल गये होंगे। क्या जाने उनके बच्चे और वँशज उनकी स्मृतियों को सम्भाले होंगे या नहीं?</div><div><br /></div><div>इतिहास ने और अंग्रेज़ों ने उन औरतों के साथ बुरा व्यवहार किया, उनको शोषित किया, लेकिन क्या स्वतंत्र होने के बाद भारत के नये शासक वर्ग ने वैसा शोषण बन्द कर दिया? भारत से विदेश जाने वाले संभ्रांत घरों के लोग अक्सर भारत से काम करने वाली औरतें बुलाते हैं और उन्हें घर में बन्दी बना कर रखते हैं। भारतीय दूतावासों में काम करने वाले लोगों के इस तरह के व्यवहार के बारे में कई बार ऐसी बातें सामने आयीं हैं। भारत के संभ्रांत घरों में नौकरी करने वाली औरतों के साथ भी कई बार गलत व्यवहार होता है। आज के परिवेश में भारत में ही नहीं, अरब देशों में भारतीय काम करने वालों के शोषण की भी अनगिनत कहानियाँ मिल जायेगी। मेरे विचार में जब हम इतिहास में हुए मानव अधिकारों के विरुद्ध आचरणों को देखते हैं तो हमें आज हो रहे शोषण को भी देखने समझने की दृष्टि मिलती है।</div><div><br /></div><div><b>टिप्पणींः</b> इस आलेख की सारी तस्वीरें <a href="https://ayahsandamahs.com/" target="_blank"><b>आयाह और आमाह ब्लाग</b></a> से ली गयीं हैं।</div></div></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-30950355969536806602022-05-25T10:52:00.001+02:002022-06-12T16:39:59.727+02:00अरे ओ साम्बा, कित्ती छोरियाँ थीं?भारत में कितनी औरतें हैं यह प्रश्न गब्बर सिंह ने नहीं पूछा था, लेकिन यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है।<div><br /></div><div>कुछ माह पहले भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने 2019 से 2021 के बीच में किये गये <a href="http://rchiips.org/nfhs/" target="_blank">राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण</a> के नतीजों की रिपोर्ट निकाली थी। इस रिपोर्ट के अनुसार आधुनिक भारत के इतिहास में पहली बार देश में लड़कियों तथा औरतों की कुल जनसंख्या लड़कों तथा पुरुषों की कुल जनसंख्या से अधिक हुई है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है जिससे देश की सामाजिक, आर्थिक व स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। यह भारत के लिए गर्व की बात है। अपने इस आलेख में मैंने इस बदलाव की राष्ट्रीय तथा राज्यीय स्तर पर कुछ विषलेशण करने की कोशिश की है।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1lW6BR7n23c3CYSjjeCRob-YESCAEp8jUWJYLFrxBVCfvvWo84u7qTxqIVH4YB8Nx662K6rUpDsNPFuLnuJlxlJggJHk9S3HSADbPNJgX9csnA7aXbTkfBoZO5jp7cb4jpvi3aWpFQGitWoKwPLdykr9nDnjc4H0naTZAhSSOECkvQrIbdcTYYjagbg/s820/women_03.JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="574" data-original-width="820" height="280" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1lW6BR7n23c3CYSjjeCRob-YESCAEp8jUWJYLFrxBVCfvvWo84u7qTxqIVH4YB8Nx662K6rUpDsNPFuLnuJlxlJggJHk9S3HSADbPNJgX9csnA7aXbTkfBoZO5jp7cb4jpvi3aWpFQGitWoKwPLdykr9nDnjc4H0naTZAhSSOECkvQrIbdcTYYjagbg/w400-h280/women_03.JPG" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><h3 style="text-align: left;">नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात</h3><div>कुल जनसंख्या में लड़कियों तथा औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक होनी चाहिए। अगर गर्भ में भ्रूण के बनते समय उसका नर या मादा होने के मौके एक बराबर ही होते हैं, तो समाज में नर और नारियों की संख्या भी एक बराबर होनी चाहिये। तो पुरुषों की संख्या औरतों से कम क्यों होती है? इसके कई कारण होते हैं। सबसे पहले हम नर तथा नारी जनसंख्या पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों को देख सकते हैं। </div><div><br /></div><div>नर भ्रूणों को स्वभाविक गर्भपात का खतरा अधिक होता है, इस लिए पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियाँ अधिक होती हैं। </div><div><br /></div><div>पैदा होने के बाद भी लड़के कई बीमारियों का सामना करने में लड़कियों से कमजोर होते हैं। समूचे जीवन काल में, बचपन से ले कर बुढ़ापे तक, चाहे एक्सीडैंट हों या आत्महत्या, चाहे शराब अधिक पीना हो या नशे की वजह हो, चाहे लड़ाईयाँ हों या सामान्य हिँसा, लड़के व पुरुष ही अधिक मरते हैं। लड़कों व पुरुषों की हड्डियाँ व माँस पेशियाँ अधिक मजबूत होती हैं, वह अधिक ऊँचे और शक्तिशाली होते हैं, लेकिन वह मजबूत शरीर बीमारियों से लड़ने तथा मानसिक दृष्टि से कम शक्तिशाली होते हैं। </div><div><br /></div><div>जबकि औरतों के जीवन में सबसे बड़ा स्वास्थ्य से जुड़ा खतरा होता है उनका गर्भवति होना और बच्चे को जन्म देना। पिछड़े व गरीब समाजों में औरतों की उर्वरता दर अधिक होती है, यानि बच्चों की संख्या अधिक होती है। कृषि से जुड़े गरीब समाजों को बच्चों के बाहुबल की आवश्यकता होती है। गरीब देशों की स्वास्थ्य सेवाएँ भी निम्न स्तर की होती हैं, तो बच्चों को टीके नहीं लगाये जाते या बीमार होने पर उनका सही उपचार नहीं हो पाता। इन सब वजहों से गरीब समाजों में बच्चे अधिक होते हैं। इसलिए गर्भवति होने वाली उम्र में गरीब समाजों में नवयुतियों के मरने का खतरा अधिक होता है। जबकि विकसित समाजों में, विषेशकर अगर लड़कियाँ पढ़ी लिखी हों, तो उनके बच्चे देर से पैदा होते हैं और उनकी संख्या कम हो जाती है। </div><div><br /></div><div>नारी शरीर की दूसरी कमजोरी का कारण है मासिक माहवारी। अगर उन्हें सही खाना मिलता रहे तो सामान्य माहवारी का उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं पड़ता, वरना इससे उनके रक्त में लोहे की कमी से अनीमिया होने का खतरा रहता है। लेकिन अगर प्रसव तथा माहवारी से जुड़े खतरों को छोड़ दें तो नारी शरीर में बीमारियों से लड़ने की अधिक शक्ति होती है। नारी शरीर के हारमोन उनकी बहुत सारी बिमारियों से, जैसे कि बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर तथा हृद्यरोग आदि से जब तक माहवारी चलती है, तब तक उनकी रक्षा करते हैं, उन बीमारियों से पुरुष अधिक मरते हैं। बुढ़ापे में भी नारी हारमोन उनकी कुछ हद तक रक्षा करते हैं जिससे कि औरतों की औसत जीवन अपेक्षा पुरुषों से अधिक होती है। </div><div><br /></div><div>प्राकृतिक स्वास्थ्य संबंधी कारणों के अतिरिक्त नर-नारी जनसंख्या पर सामाजिक सोच का असर पड़ता है। बहुत से समाजों में लड़कियों को पैदा होने से पहले ही गर्भपात करवा कर मरवा देते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि लड़कों से परिवार और संस्कृतियाँ चलती हैं। पैदा होने के बाद बेटों के तुलना में उन्हें खाना कम दिया जाता है, खेलकूद और पढ़ायी के अवसर कम मिलते हैं। और जब वह बीमार होती हैं तो उनका इलाज देर से करवाया जाता है और कम करवाया जाता है।</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3Ogy7nkgvN2XXwZRg9AuIZXKr1uYbvXqwWOtTxjRYJA54xFSv8TaEsb08HOoFP3fvj1--fFlA_1OkT1GLr0Kr9hFtnuHI5Cvw8OOeBEOfTzI0Al2qj-Yn-lL0SK3oN6Dd2UvIBV2RsfKnvMocKs0oCFEjCzOAiPXczJpFViMoquaFDOJzZq6DMh4gEg/s820/women_01.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="612" data-original-width="820" height="299" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3Ogy7nkgvN2XXwZRg9AuIZXKr1uYbvXqwWOtTxjRYJA54xFSv8TaEsb08HOoFP3fvj1--fFlA_1OkT1GLr0Kr9hFtnuHI5Cvw8OOeBEOfTzI0Al2qj-Yn-lL0SK3oN6Dd2UvIBV2RsfKnvMocKs0oCFEjCzOAiPXczJpFViMoquaFDOJzZq6DMh4gEg/w400-h299/women_01.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><br /></div><div>देशों में कुल जनसंख्या में नर अधिक होंगे या नारियाँ, उस आकंणे पर ऊपर बताये गये सब भिन्न प्रभावों के नतीजों को जोड़ कर देखना पड़ेगा। विश्व स्तर पर उन आकंणों को देखें तो हम पाते हैं कि विकसित देशों में जनसंख्या में नारियाँ अधिक होती हैं, जबकि कम विकसित तथा गरीब देशों में पुरुषों की संख्या अधिक होती है। जैसे जैसे समाज विकसित होने लगते हैं, औरतें अधिक पढ़ती लिखती हैं, नौकरी करके स्वंतत्र रहने के काबिल बन जाती हैं और आवश्यकता पड़ने पर माता पिता की देखभाल भी कर सकती हैं, तो जनसंख्या में उनका अनुपात बढ़ने लगता है। </div><div><h3 style="text-align: left;">अन्य देशों से नर-नारी अनुपात के कुछ आकंणे</h3>नये भारतीय सर्वेषण के नतीजों को देखने से पहले आईये पहले हम कुछ अन्य देशों में नर-नारी अनुपात की क्या स्थिति है उसको देखते हैं।</div><div><br />इस दृष्टि से पहले दुनिया के कुछ विकसित देशों की स्थिति कैसी है, पहले उसके आकणें देखते हैं। 1000 पुरुषों के अनुपात में देखें तो फ्राँस में 1054 औरतें हैं, जर्मनी में 1039, ईंग्लैंड और स्पेन में 1024, इटली में 1035, अमरीका में 1030, तथा जापान में 1057। यानि हर विकसित देश में लड़कियों व औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक है। </div><div><br /></div><div>आईये अब भारत के आसपास के देशों की स्थिति देखें। यहाँ पर 1000 पुरुषों के अनुपात में पाकिस्तान में 986 औरतें हैं, बँगलादेश में 976, नेपाल में 1016, और चीन में 953। यानि नेपाल में स्थिति बेहतर हैं जबकि चीन, पाकिस्तान व बँगलादेश में खराब है। हाँलाकि पिछले दो दशकों में चीन बहुत अधिक विकसित हुआ है लेकिन चीन में अभी कुछ समय पहले तक नियम था कि परिवार में एक से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिये, और वहाँ की सामाजिक सोच इस तरह की है जिसमें वह सोचते हैं कि लड़के ही पैदा होंने चाहिए, इसके दुष्प्रभाव पड़े हैं।</div><div><br />विभिन्न देशों के आंकणें देखते समय वहाँ की अन्य परिस्थितयों के असर के बारे में सोचना चाहिये। जहाँ युद्ध हो रहे हैं वहाँ पुरुषों की संख्या और भी कम हो सकती है। कुछ जगहों में पुरुषों को घर-गाँव छोड़ कर पैसा कमाने के लिए दूर कहीं जाना पड़ता है, तो वहाँ भी जनसंख्या में पुरुषों की संख्या कम हो जायेगी, जबकि जिन जगहों पर पुरुष प्रवासी काम खोजने आते हैं, वहाँ पर उनका अनुपात बढ़ जाता है। जब आंकणों में किसी जगह पर बहुत अधिक पुरुष या नारियाँ दिखें तो वहाँ की सामाजिक स्थिति के बारे में अन्य कारणों को समझना आवश्यक हो जाता है।<br /><h3 style="text-align: left;">भारत के राष्ट्रीय स्तर के आंकणे</h3>राष्ट्रीय स्तर पर यह आकंणे सन् 1901 के बाद से जमा किये जाते रहे हैं। चूँकि सौ वर्ष पहले के भारत में आज के पाकिस्तान, बँगलादेश तथा कुछ हद तक मयनमार भी शामिल थे तो उनके आंकणों की आधुनिक भारत के आंकणों से पूरी तरह तुलना नहीं की जा सकती लेकिन उनसे हमारी स्थिति के बारे में कुछ जानकारी तो मिलती है।</div><div><br />1901 में भारत में हर 1000 पुरुषों से सामने 972 औरतें थीं, जबकि 1970 में उनकी संख्या 930 रह गयी थी। 2005-06 में जब तृतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेषण में यह जानकारी जमा की गयी तो भी स्थिति में बदलाव नहीं आया था, 1000 पुरुषों के सामने 939 औरतें थीं। 2015-16 में जब चौथा सर्वेषण किया गया तो पहली बार महत्वपूर्ण बदलाव दिखा जब औरतों की संख्या बढ़ कर 991 हो गयी थी। इस वर्ष आये परिणामों में स्थिति और मजबूत हुई है, इस बार 1000 पुरुषों के मुकाबले में 1020 औरतें हैं।</div><div><br />इन आकंणो से हम क्या निष्कर्श निकाल सकते हैं? मेरे विचार में सौ साल पहले औरतों की संख्या कम होने का कारण था उन्हें खाना अच्छा न मिलना, बच्चे अधिक होना, और प्रसव के समय स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। यह सभी बातें 1970 के सर्वेषण तक अधिक नहीं बदली थीं। 1990 के दशक में भारत में विकास बढ़ा, साथ में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बेहतर हुई लेकिन साथ ही गर्भवति औरतों के लिए अल्ट्रासाँऊड टेस्ट कराने की सुविधाएँ भी तेजी सी बढ़ी जिनसे परिवारों के लिए होने वाले बच्चे का लिंग जानना बहुत आसान हो गया, जिससे बच्चियों की भ्रूण बहुत अधिक संख्या में गिरवाये जाने लगे। इसका असर 2005-06 के सर्वेषण पर पड़ा और बच्चे कम होने, भोजन बेहतर होने व स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर होने के बावजूद औरतों की संख्या कम ही रही।<br /><h3 style="text-align: left;">भारत में बच्चियों का गर्भपात</h3>हालाँकि भारत सरकार ने गर्भवति औरतों में अल्ट्रासाऊँड टेस्ट से लिंग ज्ञात करने की रोकथाम के लिए 1994 से कानून बनाया था, इसे 2005-06 के सर्वेषण के बाद सही तरह से लागू किया गया जब डाक्टरों पर सजा को बढ़ाया गया। लेकिन सामाजिक स्तर पर भारत में बेटियों की स्थिति अधिक नहीं बदली, इस कानून का भी कुछ विषेश असर नहीं पड़ा है।</div><div><br /></div><div>भारत में बच्ची होने पर गर्भपात कराने की परम्परा अभी महत्वपूर्ण तरीके से नहीं बदली, यह हम एक अन्य आंकणे से समझ सकते हैं - छः वर्ष से छोटे बच्चों में लड़कों और लड़कियों के अनुपात को देखा जाये। 2001 में छः वर्ष से छोटे बच्चों की जनसंख्या में हर 1000 लड़कों के सामने 927 लड़कियाँ थीं। 2005-06 में यह संख्या घट कर 918 हो गयी। 2015-16 में यह संख्या बदली नहीं थी, 919 थी। और, 2019-21 के नये सर्वेषण में भी यह अधिक नहीं बदली, 924 है।</div><div><br />इसका अर्थ है कि औरतों की संख्या में बढ़ोतरी का बदलाव जो 2019-21 के सर्वेषण में दिखता है वह अन्य वजहों से हुआ है जैसे कि उन्हें पोषण बेहतर मिलना, छोटी उम्र में विवाह कम होना, विवाह के बाद बच्चे कम होना और प्रसव के समय बेहतर स्वास्थ्य सेवा मिलना।</div><div><h3 style="text-align: left;">ग्रामीण तथा शहरी क्षत्रों में अंतर</h3>राष्ट्रीय स्तर पर और बहुत से प्रदेशों में ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की स्थिति शहरों से बेहतर है। राष्ट्रीय स्तर पर 1998-99 में 1000 पुरुषों के अनुपात में शहरी क्षेत्रों में 928 औरतें थीं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी संख्या 957 थी। बाईस साल बाद, 2019-21 के सर्वेषण में राष्ट्रीय स्तर के आंकणों में दोनों क्षेत्रों में स्थिति सुधरी है, शहरों में उनकी संख्या 985 हो गयी है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में संख्या 1037 हो गयी है।</div><div><br />लेकिन यह बदलाव बड़े शहरों से जुड़े ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं आया। दिल्ली, चंदीगढ़, पुड्डूचेरी जैसे शहरों के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की संख्या शहरों से कम है। यह आंकणे देख कर मुझे लगा कि इन क्षेत्रों में स्थिति को समझने के लिए विषेश शोध किये जाने चाहिये। एक कारण हो सकता है कि यहाँ बच्चियों का गर्भपात अधिक होता हो? शायद उससे भी बड़ा कारण है कि देश के अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी युवक इन गाँवों में सस्ती रहने की जगह पाते हैं जिसकी वजह से यहाँ पुरुषों की संख्या अधिक हो जाती है?</div><div><br />अन्य कुछ बातें भी हैं। जैसे कि सामान्य सोच है कि गाँवों में समाज अधिक पाराम्परिक या रूढ़िवादी होते हैं, वहाँ सामाजिक सोच को बदलने में समय लगता है। वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं को पाना भी कठिन हो सकता है, हालाँकि प्राथमिक सेवा केंद्रों तथा आशा कर्मियों से बहुत जगहों पर स्थिति में बहुत सुधार आया है। लेकिन इन सबको ठीक से समझने के लिए विषेश शोध होने चाहिये।</div><div><h3 style="text-align: left;">राज्य स्तर के आंकणे</h3>अंत में राज्य स्तर के आंकणों के बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत है। जैसा कि मैंने ऊपर बताया है, इन आंकणों पर अन्य बहुत सी बातों का असर पड़ता है इसलिए उनके महत्व को ठीक से समझने के लिए सावधानी बरतनी चाहिये।</div><div><br />मेरे विचार में राज्यों की स्थिति को देश के विभिन्न भागों में बाँट कर देखना अधिक आसान है। मैंने राज्यों को चार भागों में बाँटा है - पहले भाग में हैं उत्तरपूर्व को छोड़ कर उत्तरी व मध्य भारत की सभी राज्य; दूसरे भाग में मैंने दक्षिण भारत के राज्यों को रखा है, जिनमें गोवा भी है; तीसरा भाग है उत्तरपूर्व के राज्य जिनमें सिक्किम भी है; और चौथा भाग है केन्द्रीय प्रशासित क्षेत्र जैसे कि अँडमान या चँदी गढ़, इनमें दिल्ली भी है।</div><h4 style="text-align: left;">उत्तर तथा मध्य भारत के राज्य</h4><div>2015-16 के आंकणों के अनुसार, उत्तर व मध्य भारत में सात राज्यों में औरतों की संख्या की स्थिति नकरात्मक थी - हरियाणा 876, राजस्थान 887, पँजाब 905, गुजरात 950, महाराष्ट्र 952, एवं जम्मु कश्मीर में 971। उत्तरप्रदेश में स्थिति बाकियों के मुकाबले में कुछ ठीक थी, 995। बाकी के सभी प्रदेशों में (झारखँड, पश्चिम बँगाल, उत्तरखँड, छत्तीसगढ़, ओडीशा, बिहार व हिमाचल प्रदेश) में औरतों की संख्या पुरुष अनुपात में 1000 से अधिक थी, उनमें से सबसे उच्चस्थान पर थे बिहार 1062 तथा हिमाचल प्रदेश 1087।</div><div><br /></div><div>2019-21 के आंकणें देखें तो कुछ बदलाव दिखते हैं। जम्मू कश्मीर को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में स्थिति में कुछ सुधार आया है, हालाँकि पँजाब व राजस्थान में सुधार की मात्रा थोड़ी सी ही है। इन परिवर्तनों के बाद सबसे अधिक नकारात्मक स्थितियाँ इन राज्यों में हैं - राजस्थान 891, हरियाणा 926, पँजाब 938, जम्मू कश्मीर 948, गुजरात 965, महाराष्ट्र 966, और मध्यप्रदेश 970। बाकी सभी राज्यों में औरतों का अनुपात 1000 से ऊपर है। सबसे बेहतर स्थिति है ओडीशा में 1063 तथा बिहार में 1090। मेरे विचार में जिन राज्यों में स्थिति सकारात्मक दिखती है वहाँ के आंकणों पर अधिक पुरुषों के प्रवासी होने का भी प्रभाव है।</div><div><h4 style="text-align: left;">दक्षिण भारत के राज्य</h4>गोवा सहित दक्षिण भारत के राज्यों में 2015-16 में स्थिति केवल कर्णाटक में नकारात्मक थी, 979, बाकी सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक थी।</div><div><br /></div><div>2019-21 के सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक हो गयी थी।</div><div><h4 style="text-align: left;">उत्तरपूर्वी भारत के राज्य</h4>उत्तरपूर्वी भारत के आठ राज्यों में से 2015-16 में 3 राज्यों में स्थिति नकारात्मक थी - सिक्किम 942, अरुणाचल 958 तथा नागालैंड 968। दो राज्यों में स्थिति थोड़ी सी नकारात्मक थी, असम में 993 और त्रिपुरा में 998, जबकि मेघालय, मिजोरम तथा मणीपुर में स्थिति सकारात्मक थी।</div><div><br /></div><div>इस बार के 2019-21 सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सुधरी है, हालाँकि अभी भी सिक्किम में 990 तथा अरुणाचल में 997 होने से थोड़ी सी नकारात्मक है।</div><div><h4 style="text-align: left;">दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भाग</h4>अंत में दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भागों में देखें तो 2015-16 में चार क्षेत्रों में स्थिति गम्भीर थी - दादरा, नगर हवेली, दमन, दीव 813, दिल्ली 854, चंदीगढ़ 934 तथा अँडमान 977। सभी जगहों पर इन क्षेत्रों के ग्रामीण हिस्सों की स्थिति और भी गम्भीर थी, जिसका एक कारण अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी पुरुष हो सकता है।</div><div><br /></div><div>2019-21 में स्थिति में कुछ सुधार हुआ और कुछ स्थिति और भी नकारात्मक हुई - दादरा, नगर हवेली आदि 827, दिल्ली 913, चंदीगढ़ 917, अँडमान 963, लदाख 971। अँडमान में कितने प्रवासी है, वहाँ क्या कारण हो सकते हैं, उसके आंकणों से मुझे थोड़ी हैरानी हुई।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZVm5z9Z9XjyoVfnHOIZpwW5nKB-Vx0BtomsyxDp1WnLvC9tmIM08PICuzzJunr10nWiVj4E0tUUZFJeePmsHsdIPye-CeoMVIvuTU1oOFwjENZVqlTfgx-VkjjBaK_uIRFhoD1gdWQE-f7zKnn7JpNu48zAIei0w32HAPZs1dpqdYLRFaLTjtxI2phg/s762/women_02.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="762" height="336" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZVm5z9Z9XjyoVfnHOIZpwW5nKB-Vx0BtomsyxDp1WnLvC9tmIM08PICuzzJunr10nWiVj4E0tUUZFJeePmsHsdIPye-CeoMVIvuTU1oOFwjENZVqlTfgx-VkjjBaK_uIRFhoD1gdWQE-f7zKnn7JpNu48zAIei0w32HAPZs1dpqdYLRFaLTjtxI2phg/w400-h336/women_02.jpg" width="400" /></a></div><div style="text-align: center;"><br /></div><h3 style="text-align: left;">अंत में</h3>अगर हम पूरे भारत के स्तर पर विभिन्न राज्यों में नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात में आये परिवर्तनों को देखें तो पाते हैं कि बहुत राज्यों में स्थिति सुधरी है, विषेशकर लक्षद्वीप, केरल, कर्णाटक, तमिलनाडू, हरियाणा, सिक्किम, झारखँड, नागालैंड तथा अरुणाचल में। कुछ जगहों पर अनुपात कुछ घटा है जैसे कि हिमाचल प्रदेश, हालाँकि कुछ स्थिति अभी भी सकारात्मक है।</div><div><br />राज्य स्तर के आंकणों में आने वाले बदलावों को ठीक से समझना आसान नहीं है क्योंकि उस पर अन्य कारणों के साथ साथ पुरुषों के काम की खोज में अन्य राज्यों में जाने से भी बहुत असर पड़ता है। इसकी वजह से समृद्ध राज्य जहाँ प्रवासी आते हैं उनकी पुरुष संख्या बढ़ी दिखती है और पिछड़े राज्य, जहाँ से पुरुष प्रवासी बन कर निकलते हैं, उनके आंकड़े सच्चाई से बेहतर दिखते हैं।</div><div><br />राज्यों की स्थिति चाहे जो भी हो, राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जनसंख्या में औरतों के अनुपात में इस तरह से बढ़ौती बहुत सकारात्मक बदलाव है। केवल एक आंकणे पर अधिक बातें कहना सही बात नहीं होगी, उसके लिए हमें स्वास्थ्य से संबंधित अन्य आंकणों को देखना पड़ेगा। लेकिन यह स्थिति भारत को विकास की ओर बढ़ाने में यह सही राह पर होने का आभास देती है।</div><div><br /></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-66502915920526408842022-05-18T18:39:00.002+02:002022-06-12T16:40:44.432+02:00स्वास्थ्य विषय पर फ़िल्मों का समारोह<p>विश्व स्वास्थ्य संस्थान (विस्स) यानि वर्ल्ड हैल्थ ओरग्नाईज़ेशन (World Health Organisation - WHO) हर वर्ष <a href="https://www.who.int/initiatives/the-health-for-all-film-festival/special-prizes-2022/" target="_blank">स्वास्थ्य सम्बंधी विषयों पर बनी फ़िल्मों का समारोह </a>आयोजित करता है, जिनमें से सर्व श्रेष्ठ फ़िल्मों को मई में वार्षिक विश्व स्वास्थ्य सभा के दौरान पुरस्कृत किया जाता है। विस्स की ओर से जनसामान्य को आमंत्रित किया जाता है कि वह इन फ़िल्मों को देखे और अपनी मनपसंद फ़िल्मों पर अपनी राय अभिव्यक्त करे। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चुनने वाली उनकी जूरी इस जन-वोट को भी ध्यान में रखती है। आजकल इस वर्ष की फ़िल्मों को <a href="https://www.youtube.com/c/who" target="_blank">विस्स की यूट्यूब चैनल</a> पर देखा जा सकता है। कुछ दिन पहले मैंने इस फैस्टिवल में तीन श्रेणियों में सम्मिलित की गयी लघु फ़िल्मों को देखा। वह श्रेणियाँ थीं - <a href="https://www.youtube.com/playlist?list=PL9S6xGsoqIBUoaRBXer0WOXekXLZJ4P7N" target="_blank">स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष</a> (Innovation), <a href="https://www.youtube.com/playlist?list=PL9S6xGsoqIBWgGc1i29H8_MqiWAltgeZL" target="_blank">पुनर्क्षमताप्राप्ति</a> (Rehabilitation) तथा <a href="https://www.youtube.com/playlist?list=PL9S6xGsoqIBX-HXgwWIDNjM3YxRy61QRu" target="_blank">अतिलघु फ़िल्में</a>। यह आलेख उनमें से मेरी मनपसंद फ़िल्मों के बारे में हैं।</p><p><br /></p><p style="text-align: center;"><img height="277" src="http://www.deepaksunil.com/hindi/2022/images/swasthya_01.jpg" width="400" /></p><h3 style="text-align: left;">स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष विषय की फ़िल्में</h3>स्वास्थ्य के बारे में सोचें कि उससे जुड़े नये उन्मेष (innovation) या नयी खोजें किस किस तरह की हो सकती हैं तो मेरे विचार में हम उनमें नयी तरह की दवाएँ या नयी चिकित्सा पद्धतियों को ले सकते हैं, नये तकनीकों तथा नये तकनीकी उपकरणों को भी ले सकते हैं, जनता को नये तरीकों से जानकारी दी जाये या किसी विषय के बारे में अनूठे तरीके से चेतना जगायी जाये जैसी बातें भी हो सकती हैं। इस दृष्टि से देखें तो मेरे विचार में इस श्रेणी की सम्मिलित फ़िल्मों में सचमुच का नयापन अधिक नहीं दिखा। इन सभी फ़िल्मों की लम्बाई पाँच से आठ मिनट के लगभग है।<br /><br />एक फ़िल्म में आस्ट्रेलिया के एक भारतीय मूल के डॉक्टर की कहानी है (<a href="https://www.youtube.com/watch?v=9tQwJfEJ_70&list=PL9S6xGsoqIBUoaRBXer0WOXekXLZJ4P7N&index=2&ab_channel=GriffithInclusiveFutures" target="_blank">Equal Access</a>) जिनका कार दुर्घटना में मेरूदँड (रीड़ की हड्डी) में चोट लगने से शरीर का निचले हिस्से को लकवा मार गया था। वह कुछ वैज्ञानिकों के साथ मिल कर विकलाँगों द्वारा उपयोग होने वाले नये उपकरणों के बारे में होने वाले प्रयोगों के बारे में बताते हैं जैसे कि साइबर जीवसत्य (virtual reality) का प्रयोग। इसमें नयी बात थी कि वैज्ञानिक यह प्रयोग प्रारम्भ से ही विकलाँग व्यक्तियों के साथ मिल कर रहे हैं जिससे वह उनके उपयोग से जुड़ी रुकावटों तथा कठिनाईयों को तुरंत समझ कर उसके उपाय खोज सकते हैं।<br /><br />एक अन्य फ़िल्म (<a href="https://www.youtube.com/watch?v=uYflH_Ax7Qo&list=PL9S6xGsoqIBUoaRBXer0WOXekXLZJ4P7N&index=3" target="_blank">Malakit</a>) में दक्षिण अमरीकी देश फ्राँसिसी ग्याना में सोने की खानों में काम करने वाले ब्राज़ीली मजदूरों में मलेरिया रोग की समस्या है। जँगल में जहाँ वह लोग सोना खोजते हैं, वहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं हैं। वह मजदूर जब भी उन्हें बुखार हो, अपने आप ही बिना कुछ जाँच किये मलेरिया की दवा ले कर खा लेते हैं जिससे खतरा है कि मलेरिया की दवाएँ काम करना बन्द कर देंगी। इसलिए सरकार ने किट बनाये हैं जिससे लोग अपने आप यह टेस्ट करके देख सकते हैं कि उन्हें मलेरिया है या नहीं, और अगर टेस्ट पोसिटिव निकले तो उसमें मलेरिया का पूरा इलाज करने की दवा भी है। मजदूरों को यह किट मुफ्त बाँटे जाते हैं और मलेरिया का टेस्ट कैसे करें, तथा दवा कैसे लें, इसकी जानकारी भी उन्हें दी जाती है।<br /><br />पश्चिमी अफ्रीकी देश आईवरी कोस्ट की एक फ़िल्म (<a href="https://www.youtube.com/watch?v=SQsGy4KuE2o&list=PL9S6xGsoqIBUoaRBXer0WOXekXLZJ4P7N&index=4&ab_channel=Cl%C3%A9liaB." target="_blank">A simple test for Cervical cancer</a>) में वहाँ की डॉक्टर मेलानी का काम दिखाया गया है जिसमें वह एक आसान टेस्ट से औरतों में उनके गर्भाश्य के प्रारम्भिक भाग में होने वाले सर्वाईक्ल कैंसर (Cervical cancer) की जाँच करती हैं, और अगर यह टेस्ट पोसिटिव निकले तो उस स्त्री की और जाँच की जा सकती है।<br /><br />मिस्र यानि इजिप्ट की एक फ़िल्म में विकलाँग बच्चों को कला के माध्यम से उनके विकास को प्रोत्साहन देने की बात है, तो फ्राँस की एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों को पहाड़ पर चढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। नेपाल में एक सामुदायिक कार्यक्रम स्कूल जाने वाले किशोरों को मासिक माहवारी की जानकारी देता है, जबकि पश्चिमी अफ्रीकी देश सिएरा लिओने में पैर कटे हुए विकलाँग लोगों के लिए त्रिभुज छपाई (3D printing) से कृत्रिम पैर बनाने की बात है, जबकि तन्ज़ानिया में बच्चियों तथा लड़कियों को यौन अंगों की कटाई की प्रथा से बचाने की बात है।<div><br /><div><div style="text-align: center;"><img height="229" src="http://www.deepaksunil.com/hindi/2022/images/swasthya_02.jpg" width="400" /></div><br />मुझे लगा कि इन फ़िल्मों में सचमुच का नवोन्मेष थोड़ा सीमित था या पुरानी बातें ही थीं। नेपाल में मासिक माहवारी की जानकारी देना या तन्ज़ानियाँ में यौन कटाई की समस्या पर काम करना महत्वपूर्ण अवश्य हैं लेकिन यह कितने नये हैं इसमें मुझे संदेह है। सिएरा लिओने का कृत्रिम पैर नयी तकनीकी की बात है लेकिन उसमें भी उपकरण के एक हिस्से को बनाने की बात है, उसका बाकी का हिस्सा पुरानी तकनीकी से बनाया जा रहा है।<br /><h3 style="text-align: left;">पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा</h3>पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा(rehabilitation) के लिए अधिकतर लोग पुनर्निवासन शब्द का प्रयोग करते हैं जोकि मुझे गलत लगता है। पुनर्निवासन की बात उस समय से आती है जब विकलाँग व्यक्ति को रहने की जगह नहीं मिलती थी और उनके रहने के लिए विषेश संस्थान बनाये जाते थे। आजकल जब हम रिहेबिलिटेशन की बात करते हैं तो हम उन चिकित्सा, व्यायाम तथा उपकरणों की बात करते हैं जिनसे व्यक्ति अपने शरीर के कमजोर या भग्न कार्यक्षमता को दोबारा पाते हैं। इस चिकित्सा में फिजीयोथैरेपी (physiotherapy) यानि शारीरिक अंगों की चिकित्सा, आकूपेशनल थैरेपी (occupational therapy) यानि कार्यशक्ति को पाने की चिकित्सा जैसी बातें भी आती हैं। इसलिए मैं यहाँ पर पुनर्निवासन की जगह पर पूर्वक्षमताप्राप्ति शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। अगर किसी पाठक को इससे बेहतर कोई शब्द मालूम हो तो मुझे अवश्य बतायें।<br /><br />पुनर्क्षमताप्राप्ति विषय की कुछ फ़िल्में मुझे अधिक अच्छी लगीं। यह फ़िल्में भी अधिकतर पाँच से आठ मिनट लम्बी थीं।<br /><br />जैसे कि एक फ़िल्म (<a href="https://www.youtube.com/watch?v=dQHDnFY1xEU&list=PL9S6xGsoqIBWgGc1i29H8_MqiWAltgeZL&index=2" target="_blank">Pacing the Pool</a>) में आस्ट्रेलिया के एक ६४ वर्षीय पुरुष बताते हैं कि बचपन से विकलाँगता से जूझने के बाद कैसे नियमित तैरने से वह अपनी विकलाँगता की कुछ चुनौतियों का सामना कर सके। दुनिया में वृद्ध लोगों की जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और मुझे उस सबके लिए तैरना या चलना या अन्य तरह के व्यायाम नियमित रूप से करना बहुत महत्वपूर्ण लगता है।<br /><br />इसके अतिरिक्त दो फ़िल्में कोविड से प्रभावित लोगों की बीमारी से ठीक होने के बाद लम्बे समय तक अन्य शारीरिक कठिनाईयों का समाना करने की बात है। नेपाल की एक फिल्म में (<a href="https://www.youtube.com/watch?v=oSreus7eMfU&list=PL9S6xGsoqIBWgGc1i29H8_MqiWAltgeZL&index=8&ab_channel=DhulikhelHospital" target="_blank">A Model One Stop</a>) उन कठिनाईयों का अस्पताल में विभिन्न स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सहायता से चिकित्सा करना दिखाया गया जबकि एक अमरीकी फ़िल्म (<a href="https://www.youtube.com/watch?v=wlk9LhcXAdE&list=PL9S6xGsoqIBWgGc1i29H8_MqiWAltgeZL&index=11&ab_channel=NoahGreenspan" target="_blank">Long Haul</a>) में पीड़ित व्यक्तियों का कमप्यूटर या मोबाइल फोन के माध्यम से नियमित मिलना, आपस में आपबीती सुनाना, एक दूसरे को सहारा देना जैसी बातें हैं। यह अमरीकी फ़िल्म मुझे बहुत अच्छी लगी और कोविड के शरीर पर किस तरह से लम्बे समय के लिए असर रह सकते हें इसकी कुछ नयी समझ भी मिली।<br /><br />इंग्लैंड की एक फ़िल्म (<a href="https://www.youtube.com/watch?v=YZZR4P76C-E&list=PL9S6xGsoqIBWgGc1i29H8_MqiWAltgeZL&index=10&ab_channel=EmilyJenkins" target="_blank">Move Dance Feel</a>) में कैसर से पीड़ित महिलाओं का हर सप्ताह दो घँटे के लिए मिलना और साथ में स्वतंत्र नृत्य करने का अनुभव है। ऐसा ही एक कार्यक्रम उत्तरी इटली में हमारे शहर में भी होता है, जिसमें महिला और पुरुष दोनों भाग लेते हैं। यह बूढ़े लोग, बीमार लोग, मानसिक रोग से पीड़ित लोग, आदि सबके लिए होता है, और सब लोग सप्ताह में एक बार मिल कर साथ में नृत्य का अभ्यास करते हैं।</div><div><br /></div><div><div style="text-align: center;"><img height="265" src="http://www.deepaksunil.com/hindi/2022/images/swasthya_03.jpg" width="400" /></div><br />इनके साथ कुछ अन्य फ़िल्में थीं जिनमें मुझे कुछ नया नहीं दिखा जैसे कि बँगलादेश की एक फ़िल्म में एक नवयुवती की कृत्रिम टाँग पाने से उसके जीवन में आये सुधार की कहानी है। ब्राजील की एक फिल्म में टेढ़े पाँव के साथ पैदा हुए एक बच्चे के इलाज की बात है। मिस्र से विकलाँग बच्चों का कला, संगीत आदि से उनके विकास को सशक्त करने की बात है।<br /><h3 style="text-align: left;">अतिलघु फ़िल्में</h3>यह फ़िल्में दो मिनट से छोटी हैं, इसलिए इनके विषय समझने में सरल हैं। एक फिल्म से कोविड से बचने के लिए मास्क तथा वेक्सीन का मह्तव दिखाया गया है तो कामेरून की एक फ़िल्म में एक स्थानीय अंतरलैंगिक संस्था की कोविड की वजह से एडस कार्यक्रम में होने वाली कठिनाईयों की बात है। दो फ़िल्मों में, एक मिस्र से और दूसरी किसी अफ्रीकी देश से, घरेलू पुरुष हिँसा के बारे में हैं। एक फ़िल्म में स्वस्थ्य रहने के लिए सही भोजन करने के बारे में बताया गया है, तो एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से उबरने में व्यायाम के महत्व को दिखाया गया है।<br /><br />मुझे इन सबमें से एक इजराईली फ़िल्म (<a href="https://www.youtube.com/watch?v=G7iAG98qGOM&list=PL9S6xGsoqIBX-HXgwWIDNjM3YxRy61QRu&index=5&ab_channel=%D7%A2%D7%9E%D7%95%D7%AA%D7%AA%D7%90%D7%A0%D7%95%D7%A9" target="_blank">Creating Connections</a>) सबसे अच्छी लगी जिसमें मानसिक रोगियों को विवाह करने वाले मँगेतरों के लिए हस्तकला से अँगूठी बनाना सिखाते हैं जिससे रोगियों को प्रेमी युगलों से बातचीत करने का मौका मिलता है।</div><div><br /><div style="text-align: center;"><img height="269" src="http://www.deepaksunil.com/hindi/2022/images/swasthya_04.jpg" width="400" /></div><br /></div><h3 style="text-align: left;"><span style="text-align: center;">अंत में</span></h3><div>अगर आप को लघु फिल्में देखना अच्छा लगता है और स्वास्थ्य विषय में दिलचस्पी है, तो मेरी सलाह है कि आप विस्स के फैस्टिवल में सम्मिलित फ़िल्मों को अवश्य देखें। सभी फ़िल्मों में अंग्रेजी के सबटाईटल हैं और फ़िल्म देखना निशुल्क हैं। सबटाइटल में फ़िल्म में लोग जो भी बोल रहे हों वह लिखा दिखता है, इसलिए शायद उन्हें हम हिंदी में "बोलीलिपि" कह सकते हैं। इसके बारे में अगर आप को इससे बेहतर शब्द मालूम हो मुझे बताइये।<br /><br />अभी तक ऐसे सोफ्तवेयर जिनसे अंग्रेजी के सबटाईटल अपने आप हिंदी में अनुवाद हो कर दिखायी दें, यह सुविधा नहीं हुई है, जब वह हो जायेगी तो हम लोग किसी भी भाषा की फ़िल्म को देख कर अधिक आसानी से समझ सकेंगे। शायद कोई भारतीय नवयुवक या नवयुवती ही ऐसा कुछ आविष्कार करेगें जिससे अंग्रेजी न जानने वाले भी इन फ़िल्मों को ठीक से देख सकेंगे।</div></div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-51140602660846060572022-04-27T11:42:00.003+02:002022-06-12T16:41:26.522+02:00बिमल मित्र - दायरे से बाहर<div>बहुत समय के बाद बिमल मित्र की कोई किताब पढ़ी। बचपन में उनके कई धारावाहिक उपन्यास पत्रिकाओं, विषेशकर साप्ताहिक हिंदुस्तान पत्रिका, में छपते थे, वे मुझे बहुत अच्छे लगते थे। फ़िर घर के करीब ही दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी से ले कर भी उनकी बहुत सी किताबें पढ़ीं थीं। उनकी पुस्तक "खरीदी कौड़ियों के मोल" मेरी सबसे प्रिय किताबों में से थी।</div><div><br />वह बँगला में लिखते थे, लेकिन हिंदी के साहित्य पढ़ने वालों में भी बहुत लोकप्रिय थे, इसलिए उनके सभी उपन्यास हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किये जाते थे। बिमल मित्र का जन्म 18 मार्च 1912 को हुआ था। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. की शिक्षा पायी और लगभग साठ किताबें लिखीं। उनका देहांत 2 दिसम्बर 1991 को हुआ।</div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAMaOWNBQ425AlA0hkhU5B6QB2pum4ftnWq4ktrBA35q6k_hUNL1LVzX_9TeiGrymU7dH-ft0LvfgynPeUgWGbI52RRRC60Vak6G6zH1ZnMMSb6MRcsIUbEvIXVMn-vrV6y_-NzwicZtdfwqBpozWWXGVlriQtfLbTPDOYWyEEgJ4xSlKXWJMdpi9l3Q/s281/Bimal_Mitra_author.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Bimal Mitra" border="0" data-original-height="263" data-original-width="281" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhAMaOWNBQ425AlA0hkhU5B6QB2pum4ftnWq4ktrBA35q6k_hUNL1LVzX_9TeiGrymU7dH-ft0LvfgynPeUgWGbI52RRRC60Vak6G6zH1ZnMMSb6MRcsIUbEvIXVMn-vrV6y_-NzwicZtdfwqBpozWWXGVlriQtfLbTPDOYWyEEgJ4xSlKXWJMdpi9l3Q/w320-h300/Bimal_Mitra_author.jpg" width="320" /></a></div>बिमल मित्र की बहुत सी किताबों पर बँगाली में फ़िल्में बनी थीं जैसे कि उनकी एक किताब पर पहले १९५६ में सुमित्रा देवी और उत्तम कुमार की फ़िल्म थी "साहेब बीबी गोलाम", जिस पर कुछ वर्षों के बाद १९६२ में मीना कुमारी और गुरुदत्त की हिंदी फ़िल्म "साहब बीबी और गुलाम" भी बनी थी जिसे आज तक हिंदी की उच्च फ़िल्मों में गिना जाता है। उनकी किताबों पर बनी अन्य बँगाली फ़िल्मों में हैं - नीलाचले महाप्रभु (१९५७), बनारसी (१९६२) और स्त्री (१९७२)। उनकी पुस्तक "आसामी हाजिर" पर १९८८ में हिंदी धारावाहिक सीरियल "मुजरिम हाजिर" दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ था जिसमें नूतन, उत्पल दत्त, रीता भादुड़ी और मोहन भँडारी जैसे जाने माने कलाकारों ने काम किया था।</div><div><br /></div><div>पिछली बार दिल्ली गया था तो उनकी किताब "<b>दायरे के बाहर</b>" को दरियागँज के फुटपाथ से खरीदा था। ला कर अल्मारी में रख दिया था कि एक दिन पढ़ूँगा। कोविड महामारी की वजह से घर में बँद रहने के कारण बहुत सी पुरानी खरीदी किताबों को पढ़ने का मौका मिला तो उनमें "दायरे के बाहर" का नम्बर भी आ गया। यह उपन्यास दिल्ली के सन्मार्ग प्रकाशन द्वारा 1996 में छापा गया लेकिन उसमें यह नहीं लिखा कि उसका मूल बँगला नाम क्या था या वह पहली बार कब छपा और उसके कितने संस्करण छप चुके थे। पुस्तक का बँगला से हिंदी अनुवाद श्री हंसकुमार तिवारी ने किया था।</div><div><br /></div><div><b>"दायरे के बाहर" का अनोखा प्रारम्भ</b></div><div><br /></div><div>"दायरे के बाहर" कुछ अजीब तरह से शुरु होती है। वैसे तो यह बिमल मित्र के लिखने की शैली ही थी कि उनकी बहुत सी किताबों के शुरु में कुछ एक या दो पृष्ठ लम्बा दर्शनात्मक विवेचन होता था। पर "दायरे के बाहर" के प्रारम्भ में यह विवेचन बहुत लम्बा है। उसमें यह भी लिखा है कि यह उनका पहला उपन्यास था जो उन्होंने द्वितीय महायुद्ध के बाद के समय में लिखा था और तब इसका नाम था "राख"। फ़िर लिखा है कि पहली बार लिखा उपन्यास जिस बात पर समाप्त किया गया था, उसके बाद उनके पात्रों के जीवन कुछ अन्य बातें हुईं जिन्हें उन्होंने इस नये संस्करण में जोड़ दिया है। वह कहते हैं कि इसे पहले जब लिखा था तो वह नये लेखक थे और इसकी भाषा में भी कुछ कमियाँ थीं जिन्हें उन्होंने नये संस्करण में कुछ सीमा तक सुधारा था।</div><div><br /></div><div>इस टिप्पणी से लगता है कि यह उपन्यास पूरी तरह से काल्पनिक नहीं था, बल्कि वह सचमुच के लोगों के जीवन पर आधारित था। इन सब बातों में कितना सच था, यह तो कोई उनके साहित्य को मुझसे बेहतर जानने वाला ही बता सकता है कि यह सचमुच की बात थी या फ़िर कहानी को नाटकीय बनाने का एक तरीका।</div><div><br /></div><div><b>"दायरे से बाहर" का कथा सार</b></div><div><br /></div><div>उपन्यास की नायिका हैं सुरुचि जोकि द्वितीय महायुद्ध के पहले के दिनों में कलकत्ता में अपने अध्यापक पिता सदानंद और माँ मृण्मयी के साथ रहती है। उनके घर में रहने एक युवक आता है जिसका नाम है शेखर और जिसे सदानंद के पुराने मित्र गौरदास ने भेजा है। शेखर और सुरुचि एक दूसरे को चाहने लगते हैं और सुरुचि गर्भवति हो जाती है। यह बात जान कर शेखर सुरुचि से कहता है कि वह उससे विवाह करेगा लेकिन एक दिन वह अचानक वहाँ से बिना कुछ कहे गुम हो जाता है। सुरुचि को ले कर उसकी माँ एक दूर गाँव में रिश्ते की एक बुआ के पास रहने चली जाती है, सबको कहा जाता है कि मृण्मयी गर्भवति है। उस समय द्वितीय महायुद्ध छिड़ चुका है और कलकत्ता में भी बम गिरने की आशंका है, इसलिए बहुत से लोग शहर में अपने घर छोड़ कर गाँव जा रहे है।</div><div><br /></div><div>गाँव में सुरुचि के बेटा होता है और उसके थोड़े दिनों के बाद मृण्मयी का देहांत हो जाता है। सुरुचि अपने बेटे राहुल को अपना छोटा भाई कहने को मजबूर है, उसे ले कर वह शहर वापस लौट आती है, जहाँ सदानन्द को पक्षाघात हो जाता है। शहर में उसे नौकरी देते हैं एक प्रौढ़ विधुर उद्योगपति विलास चौधरी, जो नौकरी देने के साथ साथ उसके बीमार पिता की देखभाल का इन्तजाम भी करवाते हैं। जब वह सुरुचि से विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तो एहसानों से दबी सुरुचि उन्हें न नहीं कह पाती। विवाह के बाद वह अपने पति की पहली संतान से मिलती है, जो कि जेल से छूटा शेखर है, तो हैरान हो जाती है लेकिन अब तो उनके रिश्ते को बहुत देर हो चुकी है। अपने पिता की नयी पत्नी को देख कर शेखर घर छोड़ कर दोबारा गुम हो जाता है।</div><div><br /></div><div>साल बीत जाते हैं और विलास चौधरी का देहांत हो जाता है। तब सुरुचि की मुलाकात गौरदास से होती है जोकि अनाथ बच्चों के लिए आश्रम चला रहे हैं। विधवा सुरुचि जानती है कि शेखर गौरदास के लिए ही काम करता है, तो वह गौरदास पर दबाव डालती है कि शेखर को कलकत्ता बुलाया जाये ताकि वह उससे बात कर पाये।</div><div><br /></div><div><b>कथानक से जुड़ी कुछ बातें</b></div><div><br /></div><div>बिमल मित्र की अन्य किताबों की तरह यह भी बहुत दिलचस्प है, एक बार पढ़ना शुरु किया जो बीच में छोड़ी नहीं गयी। नायिका की दुविधा कि जिस पुरुष के बच्चे की माँ थी, वह उसे बेटा बुलाने को बाध्य है, में जो ड्रामा छुपा है उसे बिमल मित्र बहुत सुंदर तरीके से अभिव्यक्त करते हैं।</div><div><br /></div><div>यह किताब पढ़ते हुए मेरे मन में दो फ़िल्मों की कहानियाँ याद आ रही थीं। एक तो जरासंध के १९५८ के बँगला उपन्यास "तामसी" पर बनी बिमल राय द्वारा निर्देशित फ़िल्म "बन्दिनी" (१९६३) थी। मैंने "तामसी" का हिंदी अनुवाद बचपन में पढ़ा था। जैसे "दायरे के बाहर" में गाँव से आया क्राँतीकारी शेखर मेहमान बन कर सदानंद के यहाँ आ कर रहता है और उसे उनकी बेटी सुरुचि से प्रेम हो जाता है, यही कहानी "बन्दिनी" की पृष्ठभूमि में भी थी जिसमें क्राँतीकारी शेखर (अशोक कुमार) को ब्रिटिश सरकार गाँव में गृहकैद के लिए एक गाँव में भेज देती है जहाँ उसे गाँव के पोस्टमास्टर बाबू की बेटी कल्याणी (नूतन) से प्रेम हो जाता है।</div><div><br /></div><div>दूसरी फ़िल्म जिससे इस उपन्यास की कहानी मिलती थी वह थी १९५७ की एल वी प्रसाद द्वारा निर्देशित फ़िल्म "शारदा" जिसकी नायिका शारदा (मीना कुमारी) को एक नवयुवक शेखर (राज कपूर) से प्रेम है। विदेश गये शेखर की अनुपस्थिति में पिता की बीमारी का इलाज कराने के लिए शारदा को सेठ जी की सहायता लेनी पड़ती है और जब वह उसे विवाह के लिए कहते हैं तो एहसानों तले दबी शारदा न नहीं कह पाती। विवाह के बाद जब वह जान पाती है कि शेखर उन्हीं सेठ जी का बेटा है, तब तक बहुत देर हो चुकी है। "शारदा" १९५४ की तमिल फ़िल्म "एधीर पराधनु" पर बनी थी।</div><div><br /></div><div>बिमल मित्र के उपन्यास का नायक शेखर, तामसी/बन्दिनी में भी था और शारदा में भी। चूँकि बिमल मित्र ने इस उपन्यास को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लिखा था, मुझे लगता है जरासंध की तामसी कहानी की समानता संयोगवश हो सकती है लेकिन शारदा की कहानी शायद "राख" से प्रेरित थी? </div><div><br /></div><div>"दायरे के बाहर" किताब पढ़ते समय स्पष्ट लगता है कि इसका अंतिम भाग बाद में लिखा गया था। जैसे कि किताब के पहले भाग में गौरदास और शेखर को क्राँतीकारी दिखाया गया है, वह हिंसा और बम की बात भी करते हैं, और सुभाषचँद्र बोस की आजाद हिंद फौज का हिस्सा बन कर अँग्रेजों से लड़ने की बात भी करते हैं। जबकि अंत के हिस्से में गौरदास अहिँसावादी बन जाते हैं, शेखर समाजसुधारक बन जाता है। शायद यह बदलाव लेखक के अपने विचार बदलने का सूचक था?</div><div><br /></div><div>उपन्यास के अंतिम भाग में लेखक ने एक पात्र गौरदास के माध्यम से अपनी आध्यात्मिक सोच को भी अभिव्यक्त किया है। जैसे कि यह सुरुचि से बात करते हुए गौरदास कहते हैं (पृष्ठ २५२):</div><div><br /></div><div><blockquote>"पुरुष कहता है, कर्म जो पदार्थ है, वह स्थूल है, आत्मा के लिए बँधन है। लेकिन आदमी में जो नारी है, वह कहती है काम चाहिये, और काम चाहिये। इसलिए कि काम में ही आत्मा की मुक्ति है. वैराग्य भी मुक्ति नहीं है, अंधकार भी मुक्ति नहीं है, आलस्य भी मुक्ति नहीं है। ये सब भयंकर बंधन हैं। इन बंधनों को काटने का एक ही हथियार है, वह है कर्म। कर्म ही आत्मा को मुक्ति देता है और यह संसार ही कर्म का स्थल है. संसार को छोड़ने से तुम्हारा कैसे चल सकता है बिटिया! यदि मुक्ति चाहती हो तो तुम्हें इस संसार में ही रहना होगा।"</blockquote></div><div><br /></div><div>इस तरह से सुरुचि और शेखर की कहानी के साथ साथ, इस पुस्तक में बिमल मित्र ने अपने जीवन तथा धार्मिक दर्शन को बहुत गहराई के साथ अभिव्यक्त किया है। यह दर्शन वाले हिस्से भी मेरे विचार में उन्होंने बाद में जोड़े थे, जो शायद उनकी बढ़ती आयु के साथ जुड़ी समझ का नतीजा थे।</div>Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-68423934301418816782017-08-23T17:18:00.002+02:002022-06-12T16:41:50.732+02:00उत्तरप्रदेश में लड़कियाँ क्या सोचती हैं?हिन्दी फ़िल्में देखिये तो लगता है कि छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों के जीवन बदल गये हैं. "बरेली की बरफ़ी", "शुद्ध देसी रोमान्स", और "तनु वेड्स मनु" जैसी फ़िल्मों में, छोटे शहरों की लड़कियों को न सड़कों पर डर लगता हैं, न वह लड़कों से वे स्वयं को किसी दृष्टि से पीछे समझती हैं. जाने क्यों, अक्सर पिछले कुछ सालों से हमारी फ़िल्मों में छोटे शहरों की लड़कियों की आधुनिकता को सिगरेट पीने से दिखाया जाता है (शायद इन फ़िल्मों को सिगरेट कम्पनियों से पैसे मिलते होंगे, क्योंकि अब भारत में सिगरेट के अन्य विज्ञापन दिखाना सम्भव नहीं)<br />
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हिन्दी फ़िल्मों की लड़कियों और सचमुच की लड़कियों के जीवनों में कोई अन्तर हैं, तो कौन से हैं? पिछले दशकों में छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों और युवतियों की सोच बदली है, तो कैसे बदली है? और अगर बदली है तो उसका उन सामाजिक समस्याओं पर क्या असर पड़ा है जो कि लड़कियों के जीवनों से जुड़ी हुई हैं? इस आलेख में इसी बात से सम्बंधित सर्वे की बात करना चाहता हूँ.<br />
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<b>गाँव कनक्शन का सर्वे</b><br />
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इन दिनों में <b><a href="https://www.gaonconnection.com/" target="_blank">गाँव कनक्शन</a></b> पर उत्तरप्रदेश की 15 से 45 वर्षीय <b><a href="https://www.gaonconnection.com/gaon-connection-survey/up-bigest-survey-of-rural-women-by-gaonconnection-women-want-to-work-wath-news-and-go-to-parlours" target="_blank">महिलाओं के साथ हुए एक सर्वे</a></b> के बारे में छपा है. इस सर्वे में पाँच हज़ार औरतों ने भाग लिया.<br />
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सर्वे में 56 प्रतिशत महिलाओं कहा कि वह नौकरी करना चाहती हैं. इसमें से सबसे अधिक महिलाएँ स्कूल में अध्यापिका बनना चाहती हैं. 14 प्रतिशत महिलाएँ डॉक्टर बनना चाहती हैं और 6 प्रतिशत पुलिस में जाना चाहती हैं.<br />
<br />
67 प्रतिशत ने कहा कि अगर मौका मिले तो वह और पढ़ना चाहेंगी. 50 प्रतिशत महिलाओं-लड़कियों ने कहा कि उन्हें साइकिल चलाना पसंद है, लेकिन ससुराल में साइकिल चलाने की अनुमति कम ही मिलती है. 67 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें घर से बाहर निकलने के लिए पति या पिता से अनुमति लेनी पड़ती है, जबकि 15 प्रतिशत ने बताया कि वह घर से बाहर किसी के साथ ही जा सकती हैं.<br />
<br />
81 प्रतिशत लड़कियों ने कहा कि वह जानती हैं कि उनकी शादी के समय उनके माता-पिता को दहेज देना पड़ेगा।<br />
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<b>उत्तरप्रदेश में मेरा सर्वे</b><br />
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गाँव कनक्शन के इस सर्वे की लड़कियों-महिलाओं के जीवन, उनकी आशाएँ, और उनके सपने, फ़िल्मी छोटे शहरों की लड़कियों के जीवनों से बहुत भिन्न लगती हैं.<br />
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इस सर्वे के बारे में पढ़ कर मुझे अपना एक सर्वे याद आ गया. 2014 में, मैं उत्तरप्रदेश में कुछ दिन अपनी एक मित्र के पास ठहरा था जिनका एक प्राईवेट अस्पताल था और साथ में नर्सिंग ट्रेनिन्ग कॉलिज भी था जहाँ तीन वर्ष का नर्सिन्ग कोर्स होता था. वहाँ पढ़ने वालों को उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से छात्रवृत्ति मिल रही थी. मैंने इस सर्वे में द्वितीय वर्ष के छात्र-छात्राओं से स्वास्थ्य सम्बंधी तथा सामाजिक विषयों के प्रश्न पूछे थे.<br />
<br />
सर्वे करने से पहले उसके प्रश्नों को तीसरे वर्ष के तीन छात्राओं में जाँचा गया और जाँच के अनुसार, जो प्रश्न अस्पष्ट थे या जिनके सही अर्थ समझने में छात्रों को कठिनाई हो रही थी, उन्हें सुधारा गया. किसी छात्र या छात्रा ने सर्वे में भाग लेने से मना नहीं किया, लेकिन करीब 20 प्रतिशत छात्राओं ने कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये.<br />
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<b>सर्वे में भाग लेने वाले</b><br />
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कुल 35 छात्रों ने सर्वे में हिस्सा लिया जिनमें 31 छात्राएँ (89%) थीं और 4 छात्र थे. चूँकि सर्वे में पुरुष छात्र केवल चार थे, उनके उत्तरों का अलग से विश्लेषण नहीं किया गया है.<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJoJfMCrBfm4oVisisnadrjm12q7MFOV4oIgDsYf4aNYRMBhb8V6MB7mdc42eY8W6744IOotiOM3huYMPEV0aO-6lAJ-5W1VtLWaQfatIxzElQWoDJNzmL2hdWFbFrBKJoVITNDDtY81hs/s1600/2014_July30_Staff_Students_St_Marys+%25288%2529.JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="431" data-original-width="620" height="276" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJoJfMCrBfm4oVisisnadrjm12q7MFOV4oIgDsYf4aNYRMBhb8V6MB7mdc42eY8W6744IOotiOM3huYMPEV0aO-6lAJ-5W1VtLWaQfatIxzElQWoDJNzmL2hdWFbFrBKJoVITNDDtY81hs/w400-h276/2014_July30_Staff_Students_St_Marys+%25288%2529.JPG" width="400" /></a></div>
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छात्रों की औसत आयू 21.7 वर्ष थी. उनमें से 33 लोग (94%) उत्तरप्रदेश से थे और 2 लोग अन्य करीबी राज्यों (बिहार तथा उत्तराखँड) से थे.<br />
<br />
उत्तरप्रदेश के 33 लोगों में से 9 लोग (27%) लखनऊ से थे. बाकी के 24 लोग (73%) राज्य के 8 जिलों से थे (सीतापुर, बलिया, माउ, बस्ती, अकबरपुर, एटा, लक्खिमपुर तथा बाराबँकी). जिलों से आने वाले लोग जिला शहरों, उपजिलों के छोटे शहरों तथा गाँवों के रहने वाले थे. यानि सर्वे में प्रदेश की राजधानी से ले कर, गाँवों तक के, हर तरह की जगहों के लोग थे.<br />
<br />
उनमें से 33 लोग (94%) हिन्दू थे, केवल 1 व्यक्ति मुसलमान परिवार से था और 1 ईसाई परिवार से. हिन्दू छात्रों में 20 लोग (60%) शिड्यूल कास्ट जातियों से थे और 6 लोग (18%) जनजातियों से थे.<br />
<br />
छात्रों में से 19 लोग (54%) संयुक्त परिवारों में रहते थे, जबकि 16 लोग (46%) ईकाई (nuclear) परिवारों से थे.<br />
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<b>छात्र परिवारों की आर्थिक स्थिति</b><br />
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उनमें से 32 लोगों (91%) ने खुद को मध्यम वर्गीय बताया, केवल 2 लोगों ने खुद को निम्न मध्यम वर्गीय कहा और 1 ने खुद को उच्च मध्यम वर्गीय कहा. उनमें से 18 लोगों (51%) के घर में स्कूटर, मोटरसाईकल या ट्रेक्टर थे जबकि बाकी के 17 लोगों (49%) के घर बैलगाड़ी या साईकल थी या कोई व्यक्तिगत यात्रा साधन नहीं था.<br />
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उनमें से अधिकाँश के घर में टीवी था, जबकि करीब 50% लोगों के घर में फ्रिज था.<br />
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इसका अर्थ है कि हालाँकि अधिकाँश लोग अपने आप को मध्यम वर्ग को कह रहे थे, उनमें से करीब पचास प्रतिशत लोगों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी.<br />
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<b>पढ़ायी और अंग्रेज़ी ज्ञान</b><br />
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नर्सिंग कॉलिज में आने से पहले 34 छात्रों ने 12 कक्षा तक पढ़ाई की थी, केवल एक छात्रा के पास बीए की डिग्री थी.<br />
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छात्रों की माओं ने औसत 6 वर्ष की स्कूली पढ़ायी की थी, उनमें से 34% अनपढ़ थीं और 11% के पास कॉलिज की डिग्री थीं. उनके पिताओं की औसत पढ़ायी 11 वर्ष की थी, उनमें से 11% अनपढ़ थे और 42% कॉलिज में पढ़े थे.<br />
<br />
सब छात्रों ने स्वीकारा कि उनके माता पिता की पीढ़ी में पढ़ने के क्षेत्र में पुरुषों तथा महिलाओं के बीच में अधिक विषमताएँ थीं जो उनकी पीढ़ी में कम हो गयीं थीं. कई छात्राएँ जिनकी माएँ अनपढ़ थीं, बोलीं कि उनको अपनी माँ से पढ़ाई करने का बहुत प्रोत्साहन मिला था. एक छात्रा ने कहा, "मेरी माँ बचपन से मुझे कहती थी कि तुमको पढ़ना है, मेरी तरह अनपढ़ नहीं रहना."<br />
<br />
छात्रों में से 19 लोगों (54%) ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी कमज़ोर थी जिससे उन्हें नर्सिंग की किताबों को पढ़ने व समझने में दिक्कत होती थी. उन्होंने बताया कि कुछ शिक्षकाएँ अक्सर अपनी बात को समझाने के लिए उसे हिन्दी में भी समझाती थी, जिससे उन्हें आसानी हो जाती थी.<br />
<br />
बाकी के 16 लोगों ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी थी और उन्हें नर्सिन्ग की किताबें पढ़ने समझने में दिक्कत नहीं होती थी. लेकिन उनसे जब सर्वे के दौरान अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछे गये तो केवल एक छात्रा ही उसका सही अंग्रेज़ी में पूरा उत्तर दे पायी. बाकी लोगों को अंग्रेज़ी बोलने में कठिनाई थी. यानि जब छात्र अंग्रेज़ी की किताबों को पढ़ तथा समझ सकते हैं, तब भी उन्हें अंग्रेज़ी बोलने में हिचक या कठिनाई हो सकती है. इसका यह भी अर्थ है कि अंग्रेज़ी में उनकी अभिव्यक्ति कमज़ोर रहती है.<br />
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<b>नर्सिंग पढ़ने का निर्णय किसने लिया</b><br />
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19 लोगों (54%) ने नर्सिंग की पढ़ायी करने का निर्णय स्वयं लिया था, जबकि बाकी 16 (46%) लोगों में यह निर्णय परिवार या अन्य लोगों ने लिया.<br />
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अधिकाँश लोगो ने माना कि उनके मन में कुछ अन्य पढ़ने की कामनाएँ थीं लेकिन उन्होंने अंत में नर्सिन्ग को चुना क्योंकि इसमें छात्रवृत्ति मिलती है, वरना उनके परिवार के लिए उनकी पढ़ायी का खर्चा पूरा कठिन होता. नर्सिन्ग पढ़ने का एक कारण यह भी था कि इस काम में नौकरी आसानी से मिल जाती है.<br />
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केवल दो लोगों ने कहा कि वह सचमुच नर्सिन्ग की पढ़ायी ही करना चाहते थे. 15 लोगों (43%) का कहना था कि वह शिक्षक बनना चाहते थे. 4 लोगों (11%) ने कहा कि वह पुलिस में काम करना चाहते थे. बाकी के लोगों की अलग अलग राय थी, कोई फेशन डिज़ाईनर बनना चाहता था, कोई ब्यूटी पार्लर चलाना चाहता था, कोई कम्पयूटर कोर्स तो कोई वकील या एकाऊँटेन्ट. उनमें से एक छात्रा ने कहा कि नर्सिन्ग की पढ़ायी पूरी करके वह आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलिज में पढ़ने की कोशिश करेगी.<br />
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<b>विवाह और जीवन साथी का चुनाव</b><br />
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छात्रों में से 5 लोग विवाहित थे, वह पाँचों छात्राएँ थीं और पाँचों के पति परिवार ने चुने थे.<br />
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बाकी 30 लोगों में से 24 (80%) ने कहा कि उनका जीवन साथी परिवार चुनेगा. केवल 6 लोगों ने कहा कि वह अपना जीवन साथी स्वयं चुनना चाहेंगे, पर उनकी भी चाह थी कि उनका चुना जीवनसाथी उनके परिवार को पसंद आना चाहिये और वे परिवार की मर्ज़ी के विरुद्ध जा कर विवाह नहीं करना चाहेंगे. केवल एक छात्रा ने कहा कि चाहे उसका परिवार कुछ भी कहे, वह तो उसी से विवाह करेगी जो उसे पसंद होगा, और इसके लिए वह परिवार के विरुद्ध भी जा सकती है.<br />
<br />
<b>जाति और भेदभाव के अनुभव</b><br />
<br />
केवल 6 लोगों (17%) ने कहा कि उनको जाति सम्बंधित भेदभाव के व्यक्तिगत अनुभव हुए थे। अन्य 9 लोगों (26%) ने कहा कि उनको स्वयं ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ लेकिन उनके परिवार में अन्य लोगों को ऐसे अनुभव हुए.<br />
<br />
33 लोगों (95%) ने स्वीकारा कि समाज में जाति से सम्बंधित भेदभाव होता है.<br />
<br />
भेदभाव के विषय पर बात करते समय कई छात्रों ने कहा कि नर्सिन्ग होस्टल में रहने की वजह से उनके जाति सम्बंधी विचार बदल गये थे. एक छात्रा ने कहा, "घर में कुछ भी कहते थे तो हम मान लेते थे. लेकिन होस्टल में हम लोग जात पात की बात नहीं सोचते, साथ बैठते, साथ खाना खाते हैं. अलग जाति की लड़कियाँ मेरी मित्र हैं, इससे जाति के बारे में मेरी सोच बदल गयी है."<br />
<br />
साथ ही अधिकाँश लोगों का कहना था कि चाहे उनकी अपनी सोच बदल गयी है लेकिन जब वह घर जाते हैं और घर में बड़े बूढ़े लोग जाति का भेदभाव करते हैं तो वह उसका विरोध नहीं कर पाते. एक विवाहित छात्रा ने कहा, "मेरी सास जात-पात को बहुत मानती हैं, मैं अपने घर में किसी अन्य जाति के मित्र को नहीं बुला सकती. जब तक उनके साथ रहूँगी तो उनकी बात ही माननी पड़ेगी. मैं उनसे झगड़ा नहीं कर सकती."<br />
<br />
उनसे कहा गया कि मान लीजिये की आप की सहेली या दोस्त अपनी जाति से भिन्न जाति या धर्म के व्यक्ति से प्रेम करता है और उससे विवाह करना चाहता है, लेकिन उसका परिवार इसके विरुद्ध है. आप किसकी तरफ़ होंगे, अपनी सहेली या दोस्त की ओर या उसके परिवार की ओर?<br />
<br />
3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 21 (66%) ने कहा कि परिवार ठीक कहता है, जाति या धर्म से बाहर के व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं होगा, बाकी के 11 (34%) लोगों ने कहा कि जो जिससे प्रेम करता है उसे उसी से विवाह करना चाहिये.<br />
<br />
<b>घरेलू हिँसा</b><br />
<br />
छात्रों से कहा गया कि मान लीजिये कि एक महिला का पति शाम को थका हुआ घर लौटा. देखा कि पत्नी की सहेली आयी थी, वह उससे बातें कर रही थी और उसने खाना नहीं बनाया था. अगर इस स्थिति में वह अपनी पत्नी को मारे तो क्या आप की राय में वह ठीक है?<br />
<br />
10 लोगों (29%) का कहना था कि इस स्थिति में पति का पत्नी को मारना ठीक था. 25 (71%) लोगों ने कहा कि पति का मारना गलत था.<br />
<br />
उन 25 में से 11 लोगों (44%) ने कहा कि पति को पहले पत्नी से बात करनी चाहिये थी. अगर ऐसा पहली बार हुआ हो या फ़िर अगर वह पत्नी की विषेश सहेली थी जिससे बहुत सालों से नहीं मिली थी, तो पति को इस बात को समझना चाहिये था कि कभी कभी पत्नी से भूल हो सकती है और उसे मारने की बजाय प्यार से समझाना चाहिये था. लेकिन अगर समझाने के बावज़ूद पत्नी बार बार ऐसा करती है तो उन्होंने कहा कि तब पति का उसे मारना सही है. यानि कुल 70% लोग यह मान रहे थे कि कई परिस्थितियों में पति का पत्नी को मारने को सही समझा जा सकता है.<br />
<br />
केवल 7 लोगों (20%) ने कहा कि किसी भी हालत में पति को पत्नी को मारने का अधिकार नहीं है.<br />
<br />
इस विषय पर बात करते हुए उनसे पूछा गया कि क्या पत्नी हिँसा करे तो वह सही मानी जा सकती है? मान लीजिये कि पत्नी काम पर गयी है, शाम को थकी हुई घर लौटी है. पति को उस दिन काम पर नहीं जाना था, वह सारा दिन घर पर ही था. पत्नी देखती है कि सारा घर गन्दा पड़ा है, खाना भी नहीं बना. पति के मित्र आये हैं, उनकी ताश और शराब चल रही है और पति ने जूए में बहुत पैसा खो दिया है. क्या ऐसी हालत में पत्नी पति से झगड़ा कर सकती है या उसे मार सकती है?<br />
<br />
4 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी 31 में से 26 लोगों (84%) ने कहा कि नहीं पत्नी को लड़ना या हिँसा नहीं करनी चाहिये. उनमें से अधिकतर का कहना था कि पति तो भगवान बराबर होता है, पत्नी को उसका सम्मान करना होता है, वह उस पर किसी भी हालत में हाथ नहीं उठा सकती.<br />
<br />
तो ऐसी हालत में पत्नी को क्या करना चाहिये? अधिकतर लोगों का कहना था कि अगर पति अक्सर ऐसा करता हो कि हर महीने घर का पैसा जूए और नशे में गँवा देता हो तो ऐसे पति को सुधारने के लिए घर के बड़े बूढ़ों को कहना चाहिये, उन्हें ही कुछ करना पड़ेगा.<br />
<br />
5 लोगों (16%) ने कहा कि इस हालत में पत्नी का पति से लड़ना सही है और अगर यह बार बार हो तो ऐसे पति से तलाक भी ले सकते हैं.<br />
<br />
<b>परिवार में लड़कियों के प्रति भेदभाव</b><br />
<br />
12 लोगों (34%) ने कहा कि उन्हें अपने परिवार में उन्होंने लड़को तथा लड़कियों के प्रति व्यवहार में भेदभाव का व्यक्तिगत अनुभव था.<br />
<br />
32 लोगों ने माना कि समाज में लड़के तथा लड़कियों के प्रति भेदभाव आम होता है. 10 लोगों (29%) ने, वह सभी लड़कियाँ थीं, इस भेदभाव को सही बताया.<br />
<br />
उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि एक घर में शाम को लड़का बाहर जाना चाहता है, परिवार में उसे कोई मना नहीं करता. लेकिन जब उस लड़के की हमउम्र बहन शाम को बाहर जाना चाहती है तो परिवार उसे मना करता है, कहता है कि लड़कियों को घर से बाहर जाने में खतरा है. क्या आपकी राय में यह सही है या गलत?<br />
<br />
3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 24 (75%) ने कहा कि परिवार सही करता है क्योंकि लड़कियों के लिए शाम को बाहर जाने में खतरा है. केवल 8 लोगों (25%) ने कहा कि लड़कियों पर इस तरह रोक लगाना सही बात नहीं हैं.<br />
<br />
फ़िर उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि आप की सहेली का विवाह हो चुका है, उसकी एक बेटी है और वह फ़िर से गर्भवति हैं. उसका अल्ट्रासाउँड टेस्ट बताता है कि अगली भी बेटी होगी. उसकी सास कहती है कि गर्भपात करा दो. आप उसे क्या राय देंगी?<br />
<br />
11 लोगों (31%) ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. बाकी के 24 लोगों में से 12 लोगों (50%) ने कहा कि सास की बात माननी पड़ेगी. 12 लोगों ने कहा कि उनकी सलाह होगी कि गर्भपात नहीं कराया जाये. दो छात्राओं ने कहा कि वह अपनी सहेली की सास को समझाने की कोशिश करेंगी.<br />
<br />
<b>सरकारी व प्राईवेट अस्पताल</b><br />
<br />
छात्रों के अनुसार सरकारी अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ कोई फीस नहीं होती, दवा भी निशुल्क होती है, स्पेशेलिस्ट डाक्टर अधिक होते हैं और सुविधाएँ अधिक होती हैं. उनकी बुरी बाते हैं कि वहाँ देखभाल अच्छी नहीं होती, अक्सर दवाईयाँ नहीं मिलती, सुविधाएँ नाम की होती हैं पर काम नहीं करती, कर्मचारी लापरवाह होते हैं, सफाई की कमी होती है, डाक्टर काम पर नहीं आते और बहुत भीड़ होती है.<br />
<br />
प्राईवेट अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ देखभाल बेहतर होती है, कर्मचारी ज़्यादा ध्यान से काम करते हैं, सफाई बेहतर होती है, भीड़ कम होती है और जो भी सुविधाएँ होती हैं वह ठीक से काम करती हैं. उनकी बुरी बातें हैं कि वहाँ पैसे बहुत लगते हैं, अक्सर बिना जरूरत के टेस्ट किये जाते हैं, बिना ज़रूरत की दवाएँ दी जाती हैं, और अगर आप गरीब हैं तो आप को कोई नहीं पूछता.<br />
<br />
उनसे पूछा गया कि अगर आप बीमार हों तो आप कहाँ जाना चाहेंगे, सरकारी अस्पताल में या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि अगर वह बीमार होंगे तो वह प्राईवेट अस्पताल में जाना चाहेंगे.<br />
<br />
उनसे पूछा गया कि नर्सिंग की ट्रेनिन्ग पूरी होने के बाद आप सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि वे सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे. इसके कारण थे कि सरकारी काम में रहने के लिए घर मिलना, सेवा निवृति पर पैंशन मिलना, काम से छुट्टी लेना अधिक आसान है, काम करना भी अधिक आसान है और नौकरी से निकलना बहुत कठिन है.<br />
<br />
यानि अपनी बीमारी हो या परिवार की तो लोग प्राईवेट अस्पताल में जाना पसंद करते हैं जबकि नौकरी सरकारी अस्पताल में करना चाहते हैं. पर इस बात में उत्तरप्रदेश के नवजवान लोग बाकी भारत जैसे ही है. अप्रैल 2017 में सी.एस.डी.एस. ने भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाले नवजवानों का सर्वे किया था, उस में भी केवल 7 प्रतिशत लोगों ने प्राईवेट सेक्टर में नौकरी को प्राथमिकता दी थी.<br />
<br />
<b>सर्वे में मिले उत्तरों पर विमर्श</b><br />
<br />
जनसंख्या की दृष्टि से देखें तो अगर उत्तरप्रदेश स्वतंत्र देश होता तो दुनिया में पाँचवें स्थान पर होता. विश्व स्तर पर मानव विकास मापदँड की दृष्टि से देखें तो भारत काफ़ी नीचे है, स्वास्थ्य के कुछ आकणों में हमारी स्थिति बँगलादेश से भी पीछे है.<br />
<br />
भारत के विभिन्न राज्यों के मानव विकास मापदँडों को देखें तो उत्तरप्रदेश का स्थान अन्य राज्यों की तुलना में बहुत नीचे है. चाहे वह बच्चियों के भ्रूणों की हत्या हो या वार्षिक बाल मृत्यू दर, उत्तरप्रदेश में इनकी स्थिति दयनीय है. स्वास्थ्य के कई आँकणों में उत्तरप्रदेश की स्थिति अफ्रीका के गरीब और पिछड़े देशों जैसी है या उनसे भी बदतर है.<br />
<br />
ऐसी हालत में यह जानना कि उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी क्या सोचती है, महत्वपूर्ण है. आज की नर्सिन्ग छात्राएँ कल यहाँ की स्वास्थ्य सेवाओं में हिस्सा लेंगी, परिवारों को सलाह देंगी. उनकी सोच तथा आचरण से समाज के अन्य लोग भी प्रभावित होंगे.<br />
<br />
तो आप के विचार में नर्सों से की मेरी बातचीत उत्तरप्रदेश के भविष्य के बारे में हमें क्या बताती है? कुछ दिन पहले गोरखपुर के अस्पताल में 60 बच्चों की मृत्यू से भारत के समाचार पत्रों में हल्ला मचा था, पर उत्तरप्रदेश के लिए यह कोई नयी बात नहीं है. वहाँ के पिछले दस वर्षों के आँकणे देखिये, हर साल वहाँ दस्त, न्योमोनिया, एन्सेफलाईटस, मलेरिया आदि बीमारियों से लाखों बच्चे मरते हैं, जिनका सही समय पर इलाज किया जाये तो वह बच्चे बच सकते हैं.<br />
<br />
यही है भारत की अपने भीतर की विषमताएँ - भारत के दक्षिण के कुछ राज्यों के स्वास्थ्य आँकणे अमरीका जैसे हैं, और उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखँड जैसे राज्यों के अफ्रीका जैसे.<br />
<br />
हमारी कथनी और करनी में भी अंतर है. पाराम्परिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. अगर हम पूछें कि क्या आप नारी पुरुष में बराबरी में विश्वास करते हैं, तो सब लोग हाँ कह देते हैं. अगर आप पूछते हैं कि घर और परिवार में नारी के साथ होने वाली हिँसा गलत है, तो भी सब लोग हाँ कह देते हैं. लेकिन इन विचारों की कहनी और प्रतिदिन के जीवन की करनी में विरोधाभास है. हम लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ और.<br />
<br />
इसका यह अर्थ नहीं कि सकारात्मक बदलाव नहीं हुए है. माता और पिता की पढ़ायी के आँकणे दिखाते हैं कि शिक्षा के स्तर में पिछली पीढ़ी में बहुत भेदभाव था. सर्वे में भाग लेने वाले की करीब एक तिहाई माएँ अनपढ़ थीं. इस दृष्टि से सर्वे की युवतियाँ उन घरों में पढ़ने लिखने वाली युवतियों की पहली पीढ़ी हैं. शायद उनकी बेटियों में कथनी और करनी के यह विरोधाभास कम होंगे, वह लोग पारिवारिक हिँसा और भेदभाव के विरुद्ध आवाज़ उठायेंगी. <br />
<br />
<b>अंत में</b><br />
<br />
इस सर्वे से मुझे लगा कि सामाजिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. हम जितने स्लोगन बना लें, पोस्टर बना लें, लोगों कों जानकारी हो जाती है लेकिन इससे उनके विचार या आचरण नहीं बदलते. ऊपर से दिखावे के लिए हम कुछ भी कह दें लेकिन हमारी भीतरी सोच क्या है, यह कहना समझना कठिन है.<br />
<br />
मैं उम्र में उन नर्सिंग के छात्रों से बहुत बड़ा था, बाहर से आया था और पुरुष था. इसलिए यह नहीं कह सकते कि उन्होंने हर बात का जो सोचते हैं वही सच सच उत्तर दिया होगा. फ़िर भी इस सर्वे से उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी, विषेशकर नवयुवतियाँ क्या सोचती हैं, इसकी कुछ जानकारी मिलती है.<br />
<br />
आप बताईये कि आप के अनुभव इस सर्वे में पायी जाने वाली स्थिति से कितने मिलते हैं और कितने भिन्न हैं? और अगर आप को इस तरह के प्रश्न पूछने का मौका मिलता तो बदलते उत्तरप्रदेश को समझने के लिए आप कौन से प्रश्न पूछते?<br />
<br />
***Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-9115561631155571591.post-65696478265718245592017-03-12T12:30:00.002+01:002022-06-12T16:42:14.517+02:00लेखकों के कुछ पुराने पत्रपरिवार के पुराने कागजों में कुछ खोज रहा था, तो उनके बीच में कुछ पत्र भी दिखे. इन पत्रों में हिन्दी साहित्य के जाने माने लेखक भी थे. उनमें से कुछ पत्र प्रस्तुत हैं।<br />
<br />
यह पत्र मेरे पिता स्व. श्री ओमप्रकाश दीपक के नाम थे, जो कि १९५०-६० की कुछ समाजवादी पत्रिकाओं, जैसे कल्पना, चौखम्बा तथा जन, से जुड़े थे, तथा स्वयं लेखक, पत्रकार, अनुवादक व आलोचक भी थे. पत्रों को लिखने वाले थे राजकमल चौधरी, उपेन्द्रनाथ अश्क तथा शरद जोशी।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikN1K4yKb-US1jcP5XrVT5zk-4BZcxc0lU0Ns-1ceIQlledVow4H2T7DxV1gBdUXMoPCZKcvN-svbfmsASwzaSG8E-EmIwpvGhx2eChB29Slu-0war6gbA59MTdCaZNMYyq4SoRcI2vn19/s1600/Hindi_Lekhak.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="126" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEikN1K4yKb-US1jcP5XrVT5zk-4BZcxc0lU0Ns-1ceIQlledVow4H2T7DxV1gBdUXMoPCZKcvN-svbfmsASwzaSG8E-EmIwpvGhx2eChB29Slu-0war6gbA59MTdCaZNMYyq4SoRcI2vn19/w400-h126/Hindi_Lekhak.jpg" width="400" /></a></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<br />
<b>पहला पत्र, लेखक राजकमल चौधरी</b><br />
<br />
वर्ष १९६१<br />
राजकलम चौधरी, पोस्ट आफिस पुटिआरी पूर्व, कलकत्ता<br />
<br />
प्रिय भाई,<br />
<br />
आप का पत्र पा कर प्रसन्नता हुई, जोकि इस बात से जाहिर है कि मैं दूसरे ही दिन उसका उत्तर भेज रहा हूँ। आपने अपने पत्र में पता नहीं लिखा, खैर "जनमुख कार्यालय" से पता लगा लूँगा।<br />
<br />
"जनमुख" में प्रकाशित मेरा लेख आपके विचारों से मतभेद रखता है। आप राजनीति में सक्रिय भाग लेते हैं, मैं लेखन कार्य (गैर राजनीतिक) में अधिक व्यस्त रहता हूँ। इसलिए ज़रूर आप ही ज़्यादा सही हैं। लेकिन मेरी रचनाओं या मेरी समीक्षाओं या मेरे साहित्यक लेखों से आपको असहमती है, तो मैं यहाँ हमेशा यही कहूँगा कि मैं ही ज़्यादा सही हूँ, और हमेशा सबसे ज़्यादा सही होने की कोशिश करता रहता हूँ - क्योंकि साहित्य मेरा पेशा है, साथ ही मेरी ज़िन्दगी भी है।<br />
<br />
आपने "मानवी" के बारे में लिखा है। मैंने पुस्तक पढ़ी थी और जहाँ तक याद है, जगदीश भाई की "इकाई" में उसकी समीक्षा भी लिखी थी। मैं अपनी उस समीक्षा तथा आप की बात से सहमत हूँ कि "मानवी" दूसरे दर्जे का उपन्यास है। और "मानवी" की कहानी से ज़्याद, बहुत ज़्यादा बेहतर कहानियाँ आपने १९५५-५६-५७ में "ज्ञानोदय" पत्रिका में लिखी थीं।<br />
<br />
आप क्या हमेशा दिल्ली में ही रहते हैं? मैं समझता था कि आपका स्थायी निवास हैदराबाद में है और आप वहीं रह कर "चौखम्बा" संपादित करते हैं।<br />
<br />
आप ने "मानवी" लिखी। जबकि मुझे पूरा विश्वास है, "मानवी" के कथा विषय तथा चरित्रों से आप का अधिक परिचय नहीं है। आप का संघर्ष आप को उस जीवन क्षेत्र से दूर ही रखता होगा। "मानवी" के विषय से उर्दू में सदाअत हसन मन्तो का परिचय था, हिन्दी में राजकमल चौधरी को परिचय है ("ये कोठेवालियाँ" में अमृतलाल नागर तक रिपोर्टर बन कर रह गये हैं।) आपको राजनीतिक उपन्यास लिखने चाहिये, नहीं तो चतुरसेन (आचार्य), गुरुदत्त, सीताराम गोयल, जैनेन्द्र ("जयवर्धन" तो आपने पढ़ा ही होगा), लक्षमी नारायण लाल ("रूपजीवा" की समीक्षा आपने ही "कल्पना" में लिखी थी), आदि की गलतियाँ स्थायी ही रह जायेंगी। और हिन्दी को अपने एक अपटन सिन्क्लेयर की बड़ी ज़रूरत है। कृपया इसे आप advice unwanted नहीं मानेगे, brotherly request ही स्वीकार करेंगे।<br />
<br />
इधर मेरी एक मामूली सी किताब "नदी बहती थी" आयी है। अगले पत्र के साथ सेवा में भेजूँगा।<br />
<br />
इन दिनों एक प्रकाशक के लिए अंग्रेज़ी में पूर्वीय सौन्दर्यशात्र (मेरा शिक्षा का प्रधान विषय यही रहा है) पर एक बड़ी किताब लिख रहा हूँ। वैसे पत्र पत्रिकाओं में तो लिखते रहना ही पड़ता है। कलकत्ते में स्थायी (१९५८ से, और इसी साल से मैंने हिन्दी में लिखना भी शुरु किया है) रहता हूँ। पत्नी है, दो साल की एक बच्ची भी है। कहीं नौकरी नहीं करता हूँ, करने का इरादा अब तक नहीं है।<br />
<br />
आप क्या लिख पढ़ रहे हैं, सूचित करेंगे। अनुगत,<br />
<br />
कमल, १५.१२.६१<br />
<br />
<b>दूसरा पत्र, लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क</b><br />
<br />
वर्षः १९६२<br />
उपेन्द्रनाथ अश्क, ५ खुसरो बाग रोड, इलाहाबाद<br />
<br />
प्रिय दीपक,<br />
<br />
आशा है तुम सपरिवार स्वस्थ और सानन्द हो।<br />
<br />
तुम्हारा एक पत्र आया था, पर उस पर तुमने कोई पता नहीं लिखा, जिस कारण मैं उसका उत्तर नहीं दे सका। पित्ती साहब से तुम्हारा पता मिल गया है तो यह चन्द पंक्तियाँ लिख रहा हूँ।<br />
<br />
पत्र तो तुम्हारा अब कहीं ढूँढ़े से नहीं मिल रहा। याद से ही उत्तर दे रहा हूँ।<br />
<br />
पहली बात तो भाई यह है कि पत्र जो "कल्पना" में छपा, छपने के ख्याल से नहीं लिखा गया था। मेरा ख्याल था कि तुम कहीं राजा दुबे के पास रहते हो, मेरी बात वह तुम तक मज़ाक मज़ाक में पहुँचा देगा। छपने के लिए जो पत्र लिखे जाते हैं, वे दूसरी तरह के होते हैं। यदि उसे छापना अभीष्ट था तो उसमें कुछ पंक्तियाँ काट देनी चाहिये थीं। बहरहाल मुझे तुम्हारी आलोचनाएँ अच्छी लगी थीं। नया नाम होने के कारण तुम्हारा एक नोट पढ़ कर मैं दूसरा भी पढ़ गया था और तब जो impression था, मैंने राजा दुबे को लिख दिया था।<br />
<br />
मेरी कहानियों के बारे में तुम जो सोचते हो, हो सकता है वह ठीक हो। गत पैंतिस वर्षों से लिखते लिखते मेरी कुछ निश्चित धारणाएँ बन गई हैं और मैं उन्हीं के अनुसार लिखता हूँ। एक आध बार सरसरी नज़र से पढ़ कर जो लोग फतवे दे देते हैं, वे प्रायः गलत सिद्ध हो जाते हैं। इधर "पलंग" की कहानियों को ले कर पत्र पत्रिकाओं में बड़ी चर्चा है। कभी कोई कहानी की गहराई को पकड़ लेता है, तब खुशी होती है, नहीं पकड़ पाता तो दुख नहीं होता, क्योंकि यह हर किसी के बस की बात नहीं है।<br />
<br />
"सड़कों पे ढ़ले साये" की भूमिका मैंने व्यंग विनोद की शैली में ही लिखी थी। कुछ लोगों ने समझ लिया कि सचमुच में इस बात पर परेशान हुआ कि "आचार्य जी" ने मुझे "नया कवि" नहीं सकझा और मैं परेशान हुआ। हालाँकि यह लिखने का और गहरी बातों को मनोरंजक ढ़ंग से कहने का एक स्टाइल है। मैंने जो बातें अपनी भूमिका में उठायीं - इतनी आलोचनाओं में किसी लेखक ने भी उन पर बहस नहीं की। सवाल सही या गलत का नहीं है, नयी कविता के क्राइसिस का है। क्या यह सही नहीं है कि नयी कविता महज़ form पर ज़ोर दे रही है, या पश्चिम की स्थितियों और मनोभावों को अपने ऊपर नये कवि टूटन की निराशा की कविताएँ कर रहे हैं, या नया कवि शब्दों को अप्रयास समझ रहा हो, वगैरह वगैरह ... चूँकि ऐसी सभी बातें मैंने कहानी के ढ़ंग से कहीं, लोगों ने समझ लिया कि सचमुच कहीं मेरा अपमान हुआ है और मैं अपने आपको नया कवि मनवाने के लिए हाथ पैर पटक रहा हूँ।<br />
<br />
कुछ ऐसी ही बात कहानियों के सम्बन्ध में भी है। कहानियों के माध्यम से जो मैं कहना चाहता हूँ, उसे जानने के लिए दो एक बार कहानियों को ध्यान से तो पढ़ना पड़ेगा ही। इस पर भी हर लेख की अपनी सीमाएँ होती हैं और उन्हें पार करना कई बार कठिन होता है।<br />
<br />
पता नहीं तुमने मेरा नया कथा संग्रह "पलंग" या कविता संग्रह "सड़कों पे ढले साये" पढ़ा कि नहीं। न पढ़ा हो तो लिखना.<br />
<br />
इधर नीलाभ से मेरी ५९वीं वर्षगाँठ पर एक बड़ी मनोरंजक पुस्तक निकली है। उसकी एक प्रति तुम्हें भेजने के लिए मैंने दफ्तर में फोन किया है, मिले तो पहुँच और राय कौशल्या को भेजना.<br />
<br />
स. उपेन्द्र<br />
<br />
<b>दो पत्र, लेखक शरद जोशी</b><br />
<br />
वर्षः १९६३<br />
नवलेखन, हनुमानगंज, भोपाल<br />
<br />
प्रिय भाई,<br />
<br />
बहुत दिनों से नवलेखन को रचना भेजने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया है। पर ऐसा वोट आफ नो विश्वास पास न करें। नवलेखन का सातवाँ अंक निकल रहा है, आठवां प्रेस में जा रहा है। अब से हम कहानियों की संख्या बढ़ाएगे और थोड़ा बहुत पारिश्रमिक भी देंगे। बहुत अधिक तो नहीं होगा, पर कुछ अवश्य की शुरुआत हो। नवलेखन के लिए यह साहसी कदम है। दाद दीजिये और शीघ्र वैसी ही एक घाटी कहानी भेजें कि आइना देखूँ तो जिस्म अपना ही ...<br />
<br />
मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि कुछ शीघ्र भेजेंगे। नवलेखन का विषेशाँक भी निकाला जाना है, उसके लिए कुछ सुझाव भेजो। आशा है प्रसन्न हो।<br />
<br />
कथा संकलन उत्तर की प्रतीक्षा में,<br />
<br />
तुम्हारा<br />
<br />
शरद जोशी<br />
<br />
वर्षः १९६३<br />
भोपाल से<br />
<br />
डीअर दीपक,<br />
<br />
लेख दुरस्त कर दिया है, जैसा तुम चाहते थे। पत्र नहीं लिख पाया क्योंकि बुरा फँसा हूँ. इस कार्ड को भी पत्र न मानना और गालियाँ देना ही। दिवाली बाद लिखूँगा। संपादक की खसलत नहीं यह दोस्त की खसलत है कि जवाब नहीं देता। संपादक तो साले तुरंत उत्तर देते हैं "आपकी रचना प्राप्त हुई ... यों ... यों ... कृपा बनाए रखे वगैरा" + मैं अभी कहाँ हुआ संपादक। महेन्द्र कुलश्रेष्ठ के नाम कुल तीन गाली नामें अब तक प्राप्त हो चुके हैं, दो इस बार छाप रहा है। "जन" कब निकल रहा है? ओमप्रकाश निर्मल यहाँ आये थे, चर्चा कर रहे थे। प्रसन्न है न।<br />
<br />
तु. शरद जोशी<br />
<br />
<b>एक आमन्त्रण कार्ड</b><br />
वर्षः १९६५, दिल्ली<br />
<br />
"कृतिकार और उसका संसार" विषय पर रविवार १९ दिसम्बर १९६५ को प्रातः साढ़े नौ बजे श्री शामलाल की अध्यक्षता में दिल्ली के सृजनात्मक कलाकारों की एक गोष्ठी आयोजित की गयी है।<br />
<br />
आप सादर आमन्त्रित हैं।<br />
<br />
स्थानः विट्ठल भाई पटेल भवन, रफी मार्ग, नयी दिल्ली<br />
<br />
भवदीयः मकबूल फ़िदा हुसेन, राम कुमार, मोहन राकेश, रिचर्ड बार्थोलोम्यु, रघुबीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, ओमप्रकाश दीपक, जितेन्द्र सिंह, अम्बा दास, जे. स्वामीनाथन, श्रीकांत वर्मा<br />
<br />
कार्यक्रम<br />
<br />
उद्घाटन भाषणः आक्टेवियो पाँज<br />
विषय प्रस्तावनाः अज्ञेय<br />
प्रमुख वक्ताः देवीशंकर अवस्थी, जे. स्वामीनाथन, रिचर्ड बार्थोलोम्यु, मोहन राकेश, ओमप्रकाश दीपक, रभुवीर सहाय, कृष्ण खन्ना, इब्राहीम अलकाज़ी, सुरेश अवस्थी तथा श्रीकांत वर्मा<br />
<br />
<b>***</b><br />
<br />Sunil Deepakhttp://www.blogger.com/profile/05781674474022699458noreply@blogger.com10