बुधवार, सितंबर 28, 2005

यह शरीर किसका ?

कल की तरह आज का विषय भी यौन सम्बंधी है. यही नहीं, कठोर भी है, जिसे पढ़ कर अच्छा न लगे. अगर आप फिर भी इसे पढ़ते हैं, और आप को बुरा लगे तो मुझे नहीं कोसियेगा.

आज बात करना चाहता हूँ स्त्री यौन अंगो की कटायी की, यानि कि female genital mutilation और इसके खिलाफ वारिस दिरिए की लड़ाई की. वारिस सोमालिया से हैं और एक प्रसिद्ध माडल हैं, कुछ फिल्मों में भी काम कर चुकी हैं. उन्होंने अपने जीवन के बारे में एक किताब लिखी है Desert Flower (रेगिस्तान का फ़ूल). वह इस किताब में अपनी, अपनी बहनों की और अपने जैसी लाखों लड़कियों के जीवन में होने वाले इस समाज स्वीकृत अपराध के बारे में बताती हैं.


बहुत से देशों में, विषेशकर उत्तरी अफ्रीका तथा मध्य पूर्व में, यह प्रथा प्रचलित है. विश्व स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार, सोमालिया, इथिओपिया, कीनिया जैसे देशों में करीब ६० प्रतिशत लड़कियों और स्त्रियों के जीवन प्रभावित करती है. स्त्री यौन अंगों की कटायी अलग अलग देशों में भिन्न तरह से होती है. सबसे अधिक प्रचलित तरीका है कि यौन अंग का बाहरी हिस्सा काट दिया जाये और अंग खुला कर दिया जाये. पर बहुत सी जगह, इसमें स्त्री यौन अंग को भीतर तक काट कर उसे धागे से सिल दिया जाता है. यह "आपरेशन" गाँव की दाईयाँ बिना किसी एनेस्थीसिया के करती हैं और अधिक खून निकलने से या इन्फेक्शन होने से कई बार इसमें लड़की की मृत्यु भी हो जाती है. आपरेशन सात-आठ साल की उम्र से ले कर सतरह-अठारह बरस तक किया जाता है. पिशाब करने के दौरान, माहवारी के समय और बच्चा पैदा करते समय इससे लड़की को पीड़ा होती है जो सारा जीवन उसे नहीं छोड़ती.

पर बात केवल गरीब, अनपढ़, गाँव में रहने वालों की नहीं, धनवान परिवार इसे शहरों में डाक्टरों की सहायता से पूरी हिफाजत से भी करवाते हैं. यूरोप और अमरीका में रहने वाले प्रवासी, इसे अपने समाज के प्रवासी डाक्टरों की मदद से छुप छुप कर करवाते हैं. कुछ बार कहा गया है कि यह मुसलमानों मे ही होता है पर यह सच नहीं है. जिन जगहों पर यह प्रथा प्रचलित है, वहाँ सभी धर्मों के लोग इसे अपनाते हैं.

कहते हैं कि यह प्रथा उनकी संस्कृति की रक्षा के लिए आवश्यक है और इसे रोकने के सभी प्रयासों पर दंगे शुरु हो जाते हैं. यह प्रथा जरुरी है ताकि लड़कियों का कुँवारापन उनके पतियों के लिए सुरक्षित रखा जा सके. इसका अन्य फायदा है कि इससे स्त्री को यौन सम्बंधों में पीड़ा होगी, इसलिए वह परमर्दों को नहीं देखेगी और परिवार टूटने से बचेंगे. जिन समाजों में लड़कियों को अपने से उम्र में बड़े पुरुषों से उनके विवाह का चलन हो, वहाँ परिवार की रक्षा और भी जरुरी हो जाती है.

शादी की रात को पति देव अपने जोर से उस धागे से सिले अंग को खोलेंगे, तो कसे बंधे अंग में उन्हे अधिक आनंद आयेगा. उनका आनंद कम न हो, इसलिए कई जगह बच्चा जनने के बाद, सूई धागे से अंग को दोबारा सिल कर कसा जाता है. वारिस पूछती है, "यह शरीर किसका है, असली प्रश्न तो यही है ? मेरे पिता का, मेरे भाईयों का, मेरे पति का, मेरे बेटों का ?" आप क्या उत्तर देंगे उसे ?

आज मुझे तीन दिन के लिए बाहर जाना है इसलिए रविवार तक चिट्ठे की छुट्टी.

मंगलवार, सितंबर 27, 2005

गालियों का सामाजिक महत्व

यह बात पहले अनूप ने चलायी, फिर कालीचरण जी ने उसमें भोपाल का किस्सा जोड़ दिया, तो सोचा कि ऐसे गंभीर विषय पर और विचार होना चाहिये. गालियों की बात करेंगे तो गालियों का विवरण भी कुछ स्पष्ट होगा, हालाँकि मैं कोशिश करुँगा कि यह चिट्ठा शालीनता की सीमा के बहुत अधिक बाहर न जाये. अगर आप नाबालिग हैं या फिर आप को ऐसी बातों से परेशानी होती है, तो अच्छा होगा कि आप इस चिट्ठे को बंद करके कुछ और पढ़ें.

गाली एक तरीका है अपना गुस्सा व्यक्त्त करने का. यानि आप बजाये मारा पीटी करने के, कुछ कह कर अपनी नापसंदगी जाहिर कीजिये. जैसे कालीचरण जी कहते हैं, एक उम्र के बाद, हम गाली देने में कुछ संयम बरतने लगते हैं. गुस्सा आये भी, तो गाली को मन ही मन देते हैं, और ऊपर से मुस्कुरा कर कहते हैं, "नहीं, नहीं, कोई बात नहीं. इसे अपना ही समझिये."

गाली हम आनंद के लिए भी दे सकते हैं, वह आनंद जो समाज से मना की हुई बातों को करने से मिलता है. बचपन से ही परिवार और समाज हमें सिखाते हें कि क्या सही है और क्या गलत. गलत कहे जाने वाले काम को करके, हम अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रा को जताते हैं और यार दोस्तों में अच्छी अच्छी, नयी गालियाँ बनाने में बहुत आनंद है.

गाली अपनी शक्त्ति दिखाने का भी माध्यम है. गाली दे कर हम कहते हैं कि तुम हमसे छोटे हो, कमजोर हो, हीन हो. यह सब उद्देश्य तभी पूरे हो सकते हैं, अगर गाली सुनने वाले को बुरी लगे. इसलिए गालियों से हमें यह मालूम चलता हे कि हमारे समाज में किस चीज़ को अधिक बुरा माना जाता है.

पिता के वैध होने या न होने से "हरामी" जैसी गाली बनती है. शायद इस शब्द से हमारा जमीन जायदाद के वारिस होने का सवाल भी जुड़ा हुआ है. पर आजकल, इस गाली की कीमत बहुत कम है, शायद इसलिए भी कि आज तलाक, दूसरी शादी और शादी के बाहर प्रेम का जमाना है, जिसमें हरामी शब्द की ठीक से व्याख्या करना आसान नहीं है ?

अधिकतर गालियाँ यौन अंगों और यौन सम्बंधों से जुड़ी हुई हैं और जबरदस्ती यौन संपर्क की बात करती हैं, जो कि अपनी ताकत दिखाने का तरीका है, यानि मैं चाहूँ तो ..... भारत ही नहीं सभी सभ्यताओं में शायद गालियाँ यौन अंगों तथा यौन सम्बंधों से जड़ी हैं. इटली में आम बोल चाल में सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली गाली है, cazzo यानि पुरुष यौन अंग. इसे पुरुष और स्त्रियाँ बिना किसी परेशानी से बोलते हैं, टीवी पर भी आम है. अन्य गालियाँ भी, स्त्री और पुरुष दोनो ही बिना किसी हिचक के बोलते हैं जैसे fottiti तथा vaffanculo जोकि विभिन्न प्रकार के यौन सम्बंधों की धमकियाँ हैं. शुरु शुरु में, सड़क पर या बस में अच्छी पढ़ी लिखी लड़कियों और औरतों को यौन अंग या यौन सम्बंध की गाली देते सुन कर बहुत अचरज होता था.

पर भारतीय गालियों में एक बात खास है. हमारी अधिकतर गालियाँ स्त्रियों की बात करती हैं. यानि आप का झगड़ा किसी से हो, गाली में अक्सर उसकी माँ या बहन को पुकारा जाता है. ऐसी कुछ गालियाँ अंग्रेजी में भी हैं पर उनका उपयोग आम नहीं है. अंग्रेजी, फ्राँसिसी, इतालवी भाषाओं में आप को गाली देने वाला आप से जबरदस्ती यौन सम्बंध की बात करेगा, आप की माँ, बहन या पत्नी से नहीं. क्या करण है इसका ? शायद इसलिए कि स्त्री और लड़की को हम लोग अधिक हीन समझते हैं ?



आप इटली में आयें और कोई सुंदर सी युवती आप को गस्से से गाली दे कि वह जबरदस्ती आप से यौन सम्बंध रखेगी, तो आप को कैसा लगेगा ? अवश्य आप के मन में लड्डू फूटेंगे, सोचेंगे, यही तो चाहता हूँ मैं. पर सावधान रहियेगा, यहाँ सेक्स दुकानों में कई खिलौने मिलते हैं, कहीं लेने के देने न पड़ जायें.

सोमवार, सितंबर 26, 2005

मोटर साइकिल और ज़ेन

"असली मर्द" को पूछना नहीं पड़ता. वह तो जेमस् डीन या मालोन ब्रांडो की तरह, अपनी हारले डेविडसन पर बैठ कर बस अपने में ही मस्त रहता है, लड़कियाँ उसके पीछे भागती हैं! क्या आप भी ऐसा सोचते हैं ?

मुझे मोटर साइकल अच्छी भी लगती है, पर उससे डर भी लगता है, जाने क्यों मन मे बैठा है कि अगर मोटर साइकल चलाऊँगा तो कोई दुर्घटना हो जायेगी.

कल, कोमो शहर में पुरानी मोटर साइकलों की प्रदर्शनी लगी थी. कोमो अपनी झील और उसके आस पास बने आलीशान भवनों के लिए प्रसिद्ध है. सबसे अधिक प्रसिद्ध घर है होलीवुड के सितारे जोर्ज क्लूनी का. एक नहीं तीन साथ साथ वाले घर खरीद कर उन्हें जोड़ कर अपने होलीवुड के मित्रों के लिए छुट्टियों का गेटअवे बनाया है. वहाँ के सब्जी वाले तक टीवी पर साक्षात्कार देते हैं, यह बाताने के लिए कि कैसे उन्होंने सुबह जूलिया रोबर्ट या मेडोना को संतरे या सेब बेचे.

मोटर साइकल की प्रदर्शनी में सन चालीस से ले कर सन सत्तर तक की पुरानी मोटर साइकलें लगीं थीं और उन के दीवाने इतने प्यार से उन्हें देख रहे थे कि उनकी प्रेमिकाओं को जलन होने लगे. अगर आप ने कभी मोटर साइकल चलायी है तभी आप इस दीवानगी को समझ सकते हैं जिसे "ज़ेन एंड द आर्ट ओफ मोटर साइकल मेनेजमेंट" नाम की किताब में बखूबी बताया गया था.

कल के चिट्ठे पर मारिया के बारे में कालीचरण जी और रमण ने लिखा है. मालूम नहीं कि भारत में विकलांग होने से उनका अनुभव मारिया के अनुभवों से भिन्न होगा. मैं अन्य लोगों से मदद की बात नहीं कर रहा, मित्रता की बात कर रहा हूँ. सच्चे मित्र तो साथ रहने ही चाहिये पर शायद सच्चे मित्र कम ही होते हैं ?

आज की तस्वीरें, कोमो की मोटर साइकल प्रदर्शनी से:


रविवार, सितंबर 25, 2005

ऐसे क्यों ?

मारिया कहती है, "जिस समय मुझे दोस्तों की सबसे अधिक जरुरत थी, उसी समय सारे दोस्त गुम हो गये." मारिया अस्पताल में मनोवैज्ञानिक है. ट्रेफिक दुर्घटना में उसके शरीर का नीचे का हिस्सा पंगु हो गया था और वह व्हील चैयर पर घूमती है. दुर्घटना के बाद, पति ने तलाक ले लिया. मरिया कहती है, "लोगों को शायद लगता है कि कुछ कर नहीं सकते, हमारे दुख को कम नहीं कर सकते. शायद हमारा यह समाज, हमें दुख, दुर्घटना, मृत्यु, बीमारी जैसी कोई भी नेगेटिव बात होने के लिए तैयार नहीं करता. मेरे अधिकतर मित्र मुझसे बात करने से कतराते थे. दुर्घटना से पहले के जो भी मित्र थे, उनमे से आज केवल दो लोग है जिनसे संपर्क बना हुआ है. मैंने देखा है कि किसी को कैसंर जैसी बीमारी हो जाये, लोग उससे बात करना छोड़ देते हैं, शुरु में एक बार टेलीफोन से या चिट्ठी से कहेंगे कि उन्हे दुख है, पर फिर उस व्यक्त्ति से बात करना ही छोड़ देते हैं."

शनिवार, सितंबर 24, 2005

जाल में फँसे

मेरा क्मप्यूटर से परिचय इटली में आने के बाद हुआ. जब दफ्तर में पहला क्मप्यूटर आया तो करीब एक साल तक मैं उसके नजदीक नहीं गया. डर लगता था. १९९१ या १९९२ की बात थी, इंटरनेट का नाम सुना था पर मालूम नहीं था कि क्या होता है.

१९९४ में हम लोग गरमी की छुट्टियों में अमरीका गये तो बोस्टन में विज्ञान म्यूजियम में पहली बार इंटरनेट को देखने का मौका मिला. एक साहब ने उसके बारे में पहले समझाया, फिर एक क्मप्यूटर के सामने बिठा दिया.

छुट्टियों के बाद वापस इटली में घर लौटे तो तुरंत पहला क्मप्यूटर खरीदा. शहर में एक दो प्रोवाईडर खुले थे, उन्होंने ईमेल और इंटरनेट दोनो के प्रोग्राम दिये. पर क्नेक्शन बहुत मंद था और बार बार टूट जाता था, इसलिए जाल पर घूमना आसान नहीं था, बस ईमेल लेने या भेजने में कोई परेशानी नहीं थी. पर ईमेल किसे लिखते, किसी भी जान पहचान वाले के घर में क्मप्यूटर नहीं था ? तो खोज की कि कोई भारतीय ईमेल ग्रुप मिल जाये जो हमें रोज ईमेल भेजें.

जाल का और ईमेल का, उन दिनों सभी काम अमरीका में ही हो रहा था. खोज कर, तीन अमरीकी भारतीय ईमेल ग्रुप मिले. एक तो रोज भारत के समाचार भजता था. दूसरा, सप्ताह में एक दो बार, इंडिया डी नाम से भारत के बारे में साधारण बातों के कविता, किताबों, बहस, आदि के बारे में ईमेल आते थे. कोई मूर्ती जी थे जो इन्हें चलाते थे. जहाँ हम लोग रहते थे वहाँ सिर्फ एक ही अन्य भारतीय था. भारत से कोई समाचार मिलना आसान नहीं था. उन ईमेल से मिले समाचारों से मुझे कितनी खुशी होती थी, आज उसे समझ नहीं सकते.

तीसरे ईमेल ग्रुप का नाम था "खुश", वह अमरीका में रहने वाले भारतीय गै और लेसबियन लोगों का दल था. तब गै यानि समलैंगिक पुरुषों के बारे मे तो समझ थी पर लेसबियन यानि समलैंगिक स्त्रीयों के बारे में बिल्कुल जानकारी नहीं थी. शुरु शुरु में वे संदेश पड़ कर हैरत में पड़ जाता था. लड़कियाँ ऐसी बातें सोच और लिख सकती हैं इससे अचरज होता था.

धीरे धीरे जब जाल पर घूमना आसान होने लगा, तो उन सब से रिश्ते टूट गये. आज ईमेल ज्यादातर, काम का माध्यम है. जाल पर भारत के समाचार पढ़ना, संगीत सुनना, बाते करना, वीडियो देखना, सब कुछ आसान है. लगता है मानो हमेशा ऐसा ही था. पर सिर्फ दस साल पहले ही परिचय हुआ था इससे! अब जाल के बिना रहने का सोचा भी नहीं जाता.

आज की तस्वीरों का विषय है रंग बिरंगे विज्ञापनः


शुक्रवार, सितंबर 23, 2005

लागी नाहीं छूटे रामा

चिट्ठे लिखना पढ़ना तो जैसे एक नशा है, एक बार यह नशा चढ़ गया तो बस कुछ अन्य न दिखता है न करते बनता है. ऐसा कुछ कुछ मेरा विचार बन रहा है.

कल मेरे चिट्ठे पर नारद जी यानि जीतेंद्र की स्नेहपूर्ण टिप्पड़ीं थी कि लगातार नियमित रुप से लिखने में, बीच में छुट्टी मार लेना अच्छी बात नहीं. यह छुट्टी मैंने अपनी मरजी से नहीं मारी थी, ब्लोगर सोफ्टवेयर की कुछ कठिनाई थी इसलिए लिखा संदेश शाम तक नहीं चढ़ा पाया. सोचा, बच्चू अभी भी संभ्हल जाओ. बस एक दिन अपना चिट्ठा औरों को न दिखा पाने से इतनी छटपटाहट हुई है, अगर यह साला सोफ्टवैयर ही ठप्प हो गया तो अपन कहाँ जायेंगे ?

चिट्ठा लिखना ही नहीं, पढ़ना भी एक नशा है. पर कैसे मालूम चले कि किसने ताजा कुछ लिखा है ? पिछले कुछ दिनों से चिट्ठा विश्व पर कुछ गड़बड़ है क्योंकि जो नये चिट्ठे लिखे गये हैं उनकी सूचना वाला खाना खाली दिखता है. जितेंद्र ने सलाह दी कि उन्हे अक्षरग्राम के नारद पर देखिये. नारद को देखा,बहुत बढ़िया लगा. सभी नये चिट्ठे वहाँ दिखते हैं.

पर बात समय की है. परिवारिक जिम्मेदारियाँ, कुत्ते को घुमाने और काम पर जाने के बाद मेरे पास थोड़ा सा ही समय बचता है जिसे मैं अपना कह सकता हूँ. पहले, सुबह जल्दी उठ कर इस समय में ध्यान करता था, कुछ पढ़ता लिखता था, अपने वेबपृष्ठ यानि कल्पना का कुछ काम करता था.

अब, सुबह उठते ही चाय बनाते समय सोचता हूँ आज क्या लिखूँगा ? फिर प्याला लिए, औरों के चिट्ठे पढ़ने बैठ जाता हूँ, एक दो टिप्पड़ियाँ लिख देता हूँ. तब तक अपने चिट्ठे में क्या लिखना है इसका कुछ विचार आ जाता है. जब तक लिखना समाप्त होता है, काम पर जाने का समय हो जाता है और रोज की भागमभाग शुरु हो जाती है जो फिर रात को ही सोते समय खत्म होगी. आप ही कहिये, यह भी कोई जिंदगी है क्या ?

आज की तस्वीरें देबाशीष, जितेंद्र, रमण, अनूप आदि उन सब लोगों के नाम जो मुझ जैसे अकृतज्ञ चिट्ठाकारों का जीवन आसान और दिलचस्प बनाने में अपना समय देते हैं.


गुरुवार, सितंबर 22, 2005

सच्ची प्रेम कहानी

आठ-दस साल पहले, लंदन में एक सभा में हमारी प्रमुख मेहमान थीं प्रिंसेज डयाना. जब भाषण आदि चल रहे थे, उस समय वह स्टेज पर बैठी थीं और उनसे नजर हटाना आसान नहीं था. सुंदरता के साथ साथ उनके व्यक्त्तिव में जादू सा था. सभा के बाद जब उनसे थोड़ी देर मिलने का मौका मिला तो उनका जादू और चढ़ गया.

तब सोचता था कि डयाना और चार्लस् की जोड़ी राजकुमारी और मेंढ़क की जोड़ी है. तब भी चार्लस् के कमिल्ला से प्रेम सम्बंध के चर्चे होते थे और सोचता था, घोड़े को एक घोड़ी मिली है. बहुत सालों तक, डयाना के बाद चार्लस् और कमिल्ला के चक्करों का सुन कर उन पर हँसी आती थी.

पर पिछले साल जब उनकी शादी हुई तो मेरे सोचने का ढ़ंग बदल गया. मेरे इस बदलाव में, मेरे बहुत से अंग्रेज जानने वालों का हाथ है. सभी इस विवाह के खिलाफ थे. कोई कहता वह भद्दी है, कोई कहता उसके कपड़े अच्छे नहीं हैं, कोई कुछ और आलोचना करता.

इस बार लंदन गया तो दोपहर को खाना खाते समय केमिल्ला की बात निकली. दफ्तर के सभी लोगों ने, विषेशकर, औरतों ने, अभी भी केमिल्ला आलोचना बंद नहीं की थी. पर मुझे लग रहा था कि चार्लस् और केमिल्ला की तो सच्ची प्रेम कहानी है. कुछ कुछ "हम तुम" जैसी, कितनी बार मिले और बिछुड़े, अन्य लोगों से विवाह हो गये, बच्चे हो गये, पर फिर भी उनका प्रेम बना रहा. या फिर कहें शाहजहान और मुमताज महल जैसा. अगर चार्लस् जी ताजमहल बनवा सकते, तो जरुर बनवाते.

तो आज की तस्वीर है डायना से उस मुलाकात की, जिसके कुछ महीनों बाद कार दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी थीः

बुधवार, सितंबर 21, 2005

झूठे रिश्ते

"यह लोग झूठमूठ के रिश्ते बना कर लोगों को ले आते हैं. अपनी बिरादरी या अपने गाँव या अपनी भाषा बोलने वाले को, अपना भाई, अपना चाचा या मामा कह कर मिलवाते हैं. दूसरी तरफ मालिक लोग भी जान पहचान के लोगों को काम पर रखना अधिक पसंद करते हैं. अगर आप किसी को अपना भाई या रिश्तेदार बना कर प्रस्तुत करें और उसे काम मिल जाये, तो आप उस नये काम करने वाले के लिए मालिक के सामने जिम्मेदार बन जाते हैं..." यह इटली में रह रहे सिखों के बारे में किये हुए एक शोधग्रंथ में लिखा है.

उत्तरी पूर्वी इटली में सिख परिवार केवल चार पाँच जगहों पर ही बसे हैं और उन्हें आदर्श इमिगरेंटस् कहा जाता है. उत्तरी इटली में "लेगा नोर्द" नाम की राजनीतिक पार्टी है जो कि विदेश से आये काम करने वालों, विषेशकर मुस्लिम प्रवासियों के खिलाफ बहुत सक्रिय है, पर वह भी कहते हैं कि उन्हें सिख प्रवासियों से कोई शिकायत नहीं.

मैं सोच रहा था उन "झूठे" रिश्तों के बारे में. भारत में भी तो शहरों में गाँवों से काम ढ़ूँढ़ने आते हैं लोग. दिल्ली में बहुत से सम्पन्न घरों में गड़वाल या नेपाल से आये लड़के काम करते थे. वहाँ भी तो ऐसे ही भाईचारे में ही लोग अपनी बिरादरी या गाँव आदि के लोगों को काम पर लगवाने ले आते हैं. क्या हम उन्हें झूठे रिश्ते कहते हैं ?

मेरा विचार है कि भारतीय या शायद एशियाई समाज रिश्तों को भिन्न दृष्टी से देखता है. हमारे यहाँ तो सभी को भाई साहब, बहन जी, अम्मा या अंकल कह कर बुलाते हैं. पर क्या यह केवल बुलाने की बात है या रिश्तों को दूसरी नजर से देखने की बात है ?

आज की तस्वीरों में मेरे दो दोस्ती के रिश्ते - ‍न मानो तो कुछ भी नहीं, मानो तो सब कुछ

मंगलवार, सितंबर 20, 2005

अगर वह न आये

कल बात हो रही थी नींद की. पिछले १५ सालों में शायद एक बार जागा हूँ रात के १२ बजे तक, नये साल के आने के इंतज़ार में. अधिकतर तो पत्नी ही जगाती है नये साल की बधायी देने के लिए. कभी रात की यात्रा करनी पड़े या फिर बहुत साल पहले जब अस्पताल में रात की ड्यूटी करनी पड़ती थी, तब न सो पाने पर बहुत गुस्सा आता था.

पर अगर जल्दी सोने वाले की शादी, देर से सोने वाले से हो जाये तो क्या होता है ? अपना यही हुआ. मैं रात को दस बजे सोने वाला और श्रीमति जी रात को दो बजे सोने वाली. नयी शादी के बाद इस बात पर बहस होती थी कि सोने जायें या बाहर घूमने. पहले यह सोचा कि कभी हमारी चलेगी और कभी उनकी. पर बात बनी नहीं, जब हमें रात को बाहर जाना पड़ता, तो हर ५ मिनट में मेरा जुम्हाई लेना या घड़ी की ओर देखना, न श्रीमति को भाता न अन्य मित्रों को. खैर, शादी के २५ सालों में हमने इसका हल ढ़ूँढ़ ही लिया. मैं सोने जाता हूँ और वह सहेलियों के साथ घूमने.

पर, इसी बात का दूसरा पहलू भी तो है. रोज आती थी, जाने एक दिन अचानक क्यों नहीं आती ? अनूप जी जैसा होने के लिए, यानि काम पड़े तो सारी रात जगते रहो और सोना हो तो घंटो सोते रहो, दिमाग में बिजली का बटन चाहिये, जिसे दबाने से काम की बात दिमाग से एकदम से बंद हो जाये.

कालीचरण जी को शायद ऐसे ही बटन की आवश्यकता है. और जब वह नींद नहीं आती तो क्या करें ? अगर दोपहर को या शाम को, काफी पी लूँ या सफेद वाइन पी लूँ तो ऐसा अक्सर होता है. जब बिस्तर में करवटें बदलते बदलते थक जायें तो नींद लाने के लिऐ क्या करें ?

मैं कोई भारी सी, न समझ में आने वाली किताब ढ़ूँढ़ता हूँ. होफश्टाडेर की किताब "गोडल, एशर, बाख", मुझे इसीलिए बहुत पसंद है. कितनी भी बार पढ़ लूँ कुछ समझ में नहीं आता पर आधा घंटा पढ़ने की कोशिश के बाद नींद अवश्य आ जाती है. इसी तरह की एक अन्य प्रिय पुस्तक है, कथोउपानिषद. धार्मिक किताबों में से यह मेरी सबसे प्रिय किताब है. पर अगर संस्कृत के श्लोक, बिना उनके हिंदी अर्थ के पढ़ूँ, तो भी नींद आ जाती है. और आप का कोई रामबाण नुस्खा है नींद लाने के लिए ?


इतालवी एसप्रेसो काफी का छोटा सा प्याला, मेरी नींद गुम कर देता है
इन्हें सोने की कोई चिंता नहीं - रोबेन द्वीप (दक्षिण अफ्रीका) का कब्रीस्तान

सोमवार, सितंबर 19, 2005

मुझे नींद क्यों आये ?

दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो सच्चे दिल से गा सकते हैं कि "मुझे नींद न आये, मैं क्या करुँ". ऐसे लोग रात को १२ बजे तक फिल्म देखते हैं, क्लब जाते हैं, गुलछर्रे उड़ाते हैं. यह वे भाग्यशाली लोग हैं जिनके दिमाग अँधेरे होते ही खुल जाते हैं और जिनके शरीर में रात में नयी स्फुर्ती आ जाती है.

कुछ मेरे जैसे दुर्भाग्यशाली होते हैं जो केवल गाने में ही गा सकते हैं, "मुझे नींद न आये" पर सच में अँधेरा होते ही उबासिया लेने लगते हैं. मेरे जैसे लोगों के दिमाग केवल सुबह ही खुलते हैं, शाम होते ही ये अपने शटर बंद कर, "दुकान बंद है" का बोर्ड लटका देते हैं. शाम को कहीं जाना पड़े तो हमेशा कोई बहाना ढ़ूँढ़ता हूँ, कि न जाना पड़े. जब कोई बहाना न चले तो थोड़ी देर में ही, उबासियों का दौरा पड़ जाता है.

इन रात को जागने वालों में और सुबह जल्दी उठने वालों में कोयल और कौवे का अंतर होता है. सुबह जल्दी उठने वाले भक्त्ती, योग, ध्यान आदि बातें सोचने वाले गंभीर लोग होते हैं. सुबह के अँधेरे में बाग में लम्बे लम्बे साँस लेते हूए भाग भाग कर सैर करते हैं. न ये कभी क्लास छोड़ कर फिल्म देखने जाते हैं, न गप्पबाजी में समय बरबाद करते हैं. मोटी किताबें पड़ने वाले, इन्हें अक्सर उतने ही मोटे चश्मे से पहचाना जा सकता है.

रात देर जागने वाले यह सोचते हैं कि यह जीवन ही सब कुछ है, यह इंद्रियाँ प्रभु ने कुछ सोच कर ही मानव शरीर को दी हैं, इनका पूरा उपयोग होना चाहिये. सुबह देर से जब उठते हैं जो कभी कभी इनका सर अवश्य दुखता है और रात को अंत में क्या हुआ, इन्हें ठीक से याद नहीं रहता. लम्बी साँस ले कर कहते हैं, "बस, अब बहुत हो गया, अब मैं सुधर जाऊँगा, अब गम्भीरता से पढ़ायी करने का समय आ गया है" पर शाम तक वह सब भूल जाते हैं.

क्या आपको भी मेरी तरह दुख होता है कि सारा जीवन यूँ ही बीत गया, "अजुँरी में भरा हुआ जल जैसे रीत गया" ? यानि आप कोयल हैं या मेरी तरह का कौवा ?

आज की तस्वीरें, इटली के फैरारा शहर के पुराने मध्ययुगीन भाग सेः

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