रविवार, फ़रवरी 19, 2006

खो गये हैं कहाँ ?

कल दिन सुंदर था, धूप निकली थी, मैं साइकल ले कर शहर के प्रमुख चौबारे "पियात्सा माजोरे" जा पहुँचा. पियात्सा का अंग्रेज़ी में अनुवाद होगा, "स्कावायर" यानि समभुज चकोराकार, पर मैंने आज तक कोई समभुज चकोराकार रुप का चौबारा नहीं देखा इस लिए मेरे विचार से इसका सही अंग्रेज़ी अनुवाद रेक्टेंगल होना चाहिये था.

चौबारों का इतालवी सामाजिक जीवन में बहुत महत्व है. यहाँ लोग मित्रों को मिलते हैं, अपने नये कपड़े पहन कर सैर करते हैं औरों को दिखाने के लिए, खेल तमाशा देखते हैं, बैठ कर चाय काफी पीते हैं. इस लिए पियात्सा माजोरे में हमेशा भीड़ सी लगी रहती है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है. कल सब तरफ प्रोदी को समर्थको की भीड़ थी, जो प्रधानमंत्री पद के अपने उम्मीदवार के लिए वोट माँग रहे थे.

९ अप्रैल को राष्ट्रीय चुनाव होने वाले हैं इटली में और प्रधानमंत्री पद के दो प्रमुख नेता हैं सिलवियो बरलुस्कोनी और रोमानो प्रोदी. बरलुस्कोनी जी जो इस समय प्रधानमंत्री हैं, कानून की झँझटों में फँसे हैं पर उनका जनता पर बहुत प्रभाव रहा है. करोड़पति हैं, कई अखबारों, पत्रिकाओं, टेलीविजन चेनलों के मालिक भी, पर कहते हैं कि उनका अधिक ध्यान सरकार में रह कर भी, अपनी कानूनी समस्याएँ सुलझाना है और अपनी अमीरी बढ़ाना है.

प्रोदी जी प्रोफेसर हैं, गंभीर किस्म है, यूरोपियन कमीशन के प्रधानमंत्री रह चुके हैं. मेरी व्यक्तिगत राय है कि बरलुस्कोनी जी अपने लालू जी की तरह चालू हैं पर उनके भाषण मजेदार होते हैं. प्रोदी जी जरुर अधिक अच्छे प्रधानमंत्री बनेंगे पर उनके भाषण जरा बोरिंग से होते है, सनते सुनते नींद आ जाती है.

प्रोदी और बरलुस्कोनी के चुनाव में अपने वोट माँगने का तरीका भी भिन्न ही है. प्रोदी जी लोग सामने बात करना पसंद करते हैं, वह स्वयं एक बड़ी पीली गाड़ी में शहर शहर घूम रहे हैं. दूसरी तरफ, बरलुस्कोनी जी के रंगबिरंगे बोर्ड हर तरफ लगे हैं, और वह सरकारी पद का इस्तेमाल कर रहे हैं कि सरकारी खर्चे पर सभी देशवासियों को अपनी सरकार के अच्छे कामों के बारे में बता सकें.


कुछ देर चौबारे में खुले में हो रही एक सर्कस देखी. अनौखी साईकल चलाने वाले कलाकार ने मुझे फोटो खींचते देखा तो पोज़ बना कर खड़ा हो गया.

सर्दी थी पर धूप की वजह से कम लग रही थी. ऊपर आसमान इतना नीला और उसमें तैरते सफ़ेद बादलों को देख कर लगा कि पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर सागर में तैरते हिमखँड शायद ऐसे ही लगते हों ?


यूँ ही घूमते घूमते, जाने मन में क्या आया वहाँ एक पुराने गिरजाघर में घुस गया. बाहर से तो यह गिरजाघर बहुत बार देखा था पर अंदर कभी नहीं गया था. इसका नाम है, "सांता मारिया देला वीता" यानि "संत जीवनदायनी मारिया" और यह बोलोनया के एक पुराने अस्पताल (सन 1100 से 1750 तक काम किया इस अस्पताल ने) का हिस्सा था. ऐसे ही चारों तरफ देख रहा था कि वहाँ सफाई कर रही एक युवती ने इशारा कर के कहा कि मूर्तियाँ सीड़ियों के पीछे हैं. कौन सी मूर्तियाँ सोचा पर फ़िर जहाँ इशारा किया था उस तरफ बढ़ा. वहाँ अँधेरे में ऐसा दृष्य देखा कि एक क्षण के लिए साँस नहीं ले पाया. झाँकी सी बनी थी, बीच में रखा जीसस का शरीर, आसपास रोने वाले. रोने वालों में दो मूर्तियाँ इतने सुंदर तरीके से प्रियजन से बिछड़ने का दुख दर्शा रहीं थी. लकड़ी की बनी यह मूर्तियाँ सन 1463 में मूर्तकार निकोला देल आर्का ने बनायीं थीं. बहुत अचरज हुआ कि इतनी सुंदर जगह शहर के बीचोंबीच हो कर भी इस तरह से कैसे छुपी है, दिल्ली की उग्रसेन की बावली की याद आ गयी.




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दिन में केवल 24 घँटे ही क्यों होते हैं और जब दिन भर करने के काम इन 24 घँटों में न समायें तो क्या करना चाहिये ? नौकरी, परिवार और बिस्तर इन 24 घँटों को अपने अपने हिस्सों में बाँट लेते हैं और बस सुबह सुबह के 1-2 घँटे बचते हैं जिन्हे मैं अपनी मन मरजी करने वाले कह सकता हूँ. पिछले वर्ष मन में ठानी थी कि यह समय हिंदी चिट्ठे के लिए है हर सुबह चिट्ठा लिखने बैठ जाता था.

पर इस वर्ष सब कुछ बदल गया है. भारत यात्रा से वापस लौटे तो सबसे पहला काम था कि बेटे के विवाह की विभिन्न विडियो फिल्मों को इकट्ठा करके उन्हें मिला कर एक छोटी सी फिल्म बनायी जाये. करीब एक महीना तो इसी में निकल गया. फ़िर मन में एक उपन्यास लिखनी तमन्ना थी, तो वह शुरु किया. उसके साथ साथ आजकल एक इतालवी डाक्यूमैंट्री निर्देशिका को भारत में बनाई गयी फिल्म के कुछ हिस्से अनुवाद करने में सहायता कर रहा हूँ.

यानि कि खोने के लिए आसपास बहुत सारे रास्ते हैं, पर शायद कुछ अकेले से हैं. कभी कभी दिल करता है अकेलेपन से निकलने का, तो चिट्ठे को खोजते खोजते वापस आना ही पड़ता है.

शनिवार, फ़रवरी 18, 2006

लुक्का छुप्पी

पिछले महीने दिल्ली से वापस आते समय, साथ में "रंग दे बसंती" फिल्म के संगीत का कैसेट ले कर आये थे. इधर कुछ दिनों से कार में वही कैसेट चल रहा है. शुरु शुरु में तो गाने और संगीत कुछ विषेश नहीं लगे थे, पर कुछ बार सुन कर बहुत अच्छे लगने लगे हैं.

भगत सिंह, राजगुरु आदि का गीत "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है", बचपन से जाने कितनी बार सुना और गाया होगा पर उनके शब्दों के बारे में कभी गहराई से सोचा नहीं था. मालूम नहीं कि यह "रंग दे बसंती" में इस गीत को कहने की तरीके की वजह से है या फ़िर गाड़ी में अकेले बैठे, बिना किसी अन्य शोर इत्यादि के सुनने की वजह से, पर इस बार इस गीत के शब्द सुन कर रौंगटे खड़े हो गये.

पर फिल्म का सबसे अच्छा गीत मुझे लगा "लुक्का छुप्पी, बहुत हुई सामने आजा ना", शायद इस लिए कि उम्र के साथ मेरी नज़र भी धुँधली पड़ने लगी है! गीत के कुछ अंश लोरी जैसे लगते हैं और लता जी की गाई हुई लोरियों का कौन मुकाबला कर सकता है. यह सोच कर कि यह गीत पचहत्तर साल की औरत गा रही है, कुछ अजीब भी लगता है और लता जी की आवाज़ पर आश्चर्य भी होता है. शायद यह सच है कि आज लता जी की आवाज़ में महल फिल्म के "आयेगा आनेवाला" या सुजाता की "नन्ही कली सोने चली" वाली बात नहीं है, पर मेरी नज़र में, अपनी तरह से आज भी लता जी की आवाज़ अनौखी है.

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फिल्मों के गीत हमारे जीवन में कितने अधिक समा जाते हैं, क्या ऐसा केवल उत्तरी भारत में हि्दी फिल्में देखने वालो के साथ ही होता है या फ़िर दक्षिण भारत में भी ऐसा ही होता है ? कुछ भी बात हो जीवन की, चाहे खुशी हो या दुख का लम्हा, या फ़िर रोज़मर्रा का साधारण पल, हर स्थिति के लिए मन में कोई न कोई गीत आ ही जाता है. उसके लिए सोचना नहीं पड़ता.


अगर ये गाने न हों तो लगता है कि जैसे खुशी या दुख अधूरे रह गये हों.

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मंगलवार को दो सप्ताह के लिए नेपाल जाना है. हालाँकि वहाँ की स्थिति के बारे में रोज़ चिंताजनक समाचार मिलते हैं पर फ़िर भी मन में अपने बारे में या यात्रा के बारे में कोई विषेश चिंता नहीं है. वहाँ लोग हड़ताल कर रहे हैं, बंद कर रहे हैं, जेलों में जा रहे हैं और मेरे मन केवल "यह देखूँगा, वहाँ जाऊँगा, उससे मिलूँगा.." जैसी बातें आतीं हैं.


नेपाल से आते समय दिल्ली में कुछ देर रुकने का मौका मिलेगा. इस खुशी में आज की तस्वीरें दिल्ली की सड़कों की.


रविवार, फ़रवरी 05, 2006

प्रेमी से जीवनसाथी (२)

ऐसी जीवनसाथी होनी चाहिए जिसके साथ बैठ कर साहित्य, दर्शन शास्त्र, धर्म जैसे विषयों पर बात कर सकूँ, यह सोचता था.

जिससे प्रेम हुआ और विवाह किया, उसे हल्का फुल्का पढ़ने का शौक तो है पर गँभीर बातों पर बहस करने का बिल्कुल नहीं. पर इसके बदले में उसे तरह तरह के पकवान बनाने, घर का काम करने, कपड़े बनाने आदि जैसे शौक हैं. सुबह सुबह उठ कर काफी और नाश्ता बनाती है, काम पर ले जाने के लिए खाना बनाती है. इतालवी हो कर भी, इन सब मामलों में मुझे वह पुराने ज़माने की भारतीय पत्नी सी लगती है. आराम की आदत पड़ गयी है, और जब गम्भीर बहस का दिल करता है तो बहुत मित्र हैं. और कोई न हो तो चिट्ठा जगत में बहुत से निठल्ले बैठे हैं, उनसे बात हो जाती है. :-)

हमारी धर्मपत्नी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी बहुत गम्भीरता से लेती हैं. प्रेम करने से पहले इस बारे में कभी ठीक से नहीं सोचा था. अड़ोस पड़ोस में कहीं किसी को कुछ चाहिए तो हमारी श्रीमति जी को याद कर लेता है. आप की तबियत ठीक नहीं है, बाजार से कुछ लाना है ? आप का कुछ काम है पर आप के पास समय नहीं है ? अपना दुखड़ा रो कर आप किसी को उल्लु बनाने की ताक में हैं ? एक्सीडेंट हो गया, अस्पताल जाना है ? आप की टाँग पर पलस्तर चढ़ा है, खाना नहीं बना सकते ? कुछ भी बात हो हमारी श्रीमति जी पर भरोसा रखिये, वह खुद तो करेंगी ही, अगर जरुरत पड़ी तो हमें भी बीच घसीट लेंगी. इतनी बार लोग कुछ भी बात सुना कर, पैसे ले जाते हैं पर वह हैं कि मानव जाति की अंतर्हीन अच्छाई को मानने से बाज़ नहीं आतीं.

एक बार पड़ोस की एक वृद्धा की तबियत ठीक नहीं थी, तो कई दिन तक उसके लिए खाना बना कर ले जाती रहीं. एक दिन खाना खा कर उन वृद्धा के पेट में दर्द हो गया तो अस्पताल गयीं और बोलीं कि फलाँ औरत ने मुझे जहर दे कर मारने की कोशिश की है. जब बात मेरी श्रीमति तक पहुँची तो आप उनका आश्चर्य और परेशानी को समझ सकते हैं. बोलीं आगे से किसी के लिए खाना नहीं बनाऊँगी. दो महीने बाद फिर उसी वृद्धा की तबियत खराब हुई तो यह फिर से उसके लिए खाना बना रहीं थीं!

उनका यह परोपकारी गुण, कभी मुझे अच्छा लगता है और कभी खीज आती है जब अड़ोसी पड़ोसी बातें करने घर आ धमकते हैं, पर मुझे यकीन है कि हमारे पड़ोसियों को उनका यह गुण बहुत प्रिय है.

एक अन्य गुण है उनका कि उन्हें कार चलानी अच्छी लगती है. चूँकि मुझे कार चलाना बड़ा बोरियत का काम लगता है इसलिए अगर साथ कहीं भी जाना हो मुझे ड्राईवर तैयार मिलता है. इस गुण का एक बुरा पहलू भी है, यानि कि वह समझती हैं कि कार चलाने में उनसे अधिक होशियार कोई और हो नहीं सकता. इसलिए वह साथ में बैठी हों और कोई और गाड़ी चला रहा हो तो उसे निर्देश देने से बाज नहीं आती. "ब्रेक लगाओ. धीरे करो. इतने धीरे क्यों चला रहे हो....".

पर मुझे जो उनका गुण सबसे अच्छा लगता है वह है उनका नाचना. हिंदी फिल्मों से नृत्य की शिक्षा पायी है और हर पार्टी में जैसे ही नाचना प्राम्भ होता है, वह लग जाती हैं श्रीदेवी वाले झटकों में. इस तरह का आधुनिक नृत्य जिसमें हाथ पाँव इधर उधर फैंके जायें मुझे भी बहुत अच्छा लगता है, कुछ ही देर में लगता हैं जैसे सारा तनाव टैंशन दूर हो गये हों.

यह आठ गुण हैं या अस्सी, यह मुझे नहीं मालूम, पर इतना तो आप समझ ही गये होंगे कि हम अपनी श्रीमति पर अभी भी, शादी के पच्चीस साल बाद भी, वैसे ही लट्टू हैं.

आज की तस्वीरें, पिछले महीने की भारत यात्रा के दौरान, उन्हीं के नाम हैं.



प्रेमी से जीवनसाथी

आदर्श प्रेमी या प्रेमिका ? कुछ बेतुका सा सवाल नहीं हैं यह क्या ? प्रेम क्या पूछ कर आता है किसी से या आने से पहले सर्वे करने का समय देता है ताकि आप सवाल जवाब कर सकें ? जब प्रेम का बुखार थोड़ा कम होता है और कुछ सोचने बूझने की समझ आती है, तब तक गुण अगुण गिनने के लिए बहुत देर हो चुकी होती है.

जब प्रत्यक्षा जी का संदेश पढ़ा "आप को टैग किया है" तो कुछ ठीक से समझ नहीं आया. फिर उनका आदर्श प्रेमी वाला लेख पढ़ा तो सोचा कि शायद अनूगूँज का नया तरीका निकला है. इन दिनों काम में ऐसा फँसा हूँ कि कुछ दिनों तक कुछ चिट्ठे लिखने पढ़ने का मौका ही नहीं मिला और मैं इस बात को भूल गया. आज सुबह सोचा कि कुछ चिट्ठे पढ़े जायें तो पाया कि यह टेगिंग रोग तो फ्लू से भी भयँकर रुप से फैल रहा है. सभी इस बीमारी में अटके हैं हाँलाकि विषय कुछ कुछ अदल बदल हो रहा है, कभी कोई प्रेमी प्रेमिका की बात करता है तो कभी कोई जीवन साथी की.

हीर राँझा और सोहनी महवाल जैसे प्रसिद्ध प्रेमियों का सोच कर तो यही ठीक लगता है कि आदर्श प्रेमी तो वही जो अपनी प्रेमिका को जीवन साथी बनाने से पहले ही खुदा को प्यारा हो जाये, यानि प्रेम को रुमानी धूँए में ही महसूस करे, उसे यथार्थ की कसौटी पर न परखे.

सोचने और सच में बहुत अंतर होता है. विद्यार्थी जीवन में सोचता था कि मुझे लम्बी, पतली, साँवली लड़कियाँ अच्छी लगती हैं, लेकिन प्यार हुआ उससे जिसमें इनमें से कोई भी बात नहीं थी. जब प्यार का बुखार आया तो दिमाग ने पहले के सभी विचारों को भुला दिया.

इसलिए अब लगता है कि अच्छा जीवन साथी मिलने के लिए गुणों की सूची नहीं, अच्छी किस्मत चाहिये. जो गुण मैं सोचता था कि मेरे जीवनसाथी में होने चाहियें, उनमें से बहुत कम हैं मेरी पत्नी में, पर उसमें वे बातें हैं जिनके बारे में प्रेम से पहले सोचा नहीं था. वाँछित गुणों की सूची, उम्र के साथ साथ बदलती रहती है.

शनिवार, जनवरी 28, 2006

सेठ ने कहा

बहुत बार मन में विचार आता, यह जीवन किस लिए मिलता है, क्या अर्थ है इस जीवन का ? शायद ऐसे विचार तभी अधिक आते हैं जब इन्सान को रोज़मर्रा के जीवन में आम चिन्ताओं से मुक्ति मिल गयी हो. यानि कि, जब रहने, खाने, पहनने के लिए भरपूर हो तो मन इस तरह के सवालों से परेशान रहता है ?

इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए बहुत किताबें पढ़ीं. योग, मोक्ष, निर्वाण, भक्ति जैसे विषयों पर पढ़ा. विवेकानंद, डा. राधाकृष्णन, जे. कृष्णामूर्ती और श्री अरबिंदो जैसे विचारकों की किताबें भी पढ़ी. विभिन्न धर्मों के ग्रंथ क्या कहते हैं वह भी पढ़ा. इतना सब कुछ पढ़ने के बाद भी ऐसा कोई उत्तर नहीं मिला जो मन को पूरी तरह भाया हो.

भग्वदगीता और कठोउपानिषद दोनो किताबें मुझे बहुत अच्छी लगीं पर हिंदू धर्म का मुख्य जीवन दर्शन का संदेश, "यह जग माया है, विरक्ति से जीवन जीना सीखो. लोगों से, वस्तुओं से मोह न बाँधो, अपने कर्तव्य का पालन करो", मुझे अधूरा सा लगता है. जीवन माया है और हमें अपने कर्म का सोचना चाहिये, बिना किसी फ़ल की आशा किये हुए, का संदेश यह नहीं बताता कि यह जीवन हमें क्यों मिला ? कर्म और पुनर्जन्म का विश्वास भी मुझे यह उत्तर नहीं देता.

मुझे उत्तर मिला एक किताब में जिसका नाम है Seth Speaks (सेठ ने कहा). यह किताब तीन या चार भागों में बँटी हुई है और अमरीकी मीडियम जेन रोबर्ट के सेठ नाम की एक आत्मा से बातचीत का विवरण देती है. मैं यह नहीं कहता कि किसी के मीडियम होने या आत्माओं से बात कर पाने जैसी बातों पर विश्वास करता हूँ, या आप को ऐसी कोई सलाह दे रहा हूँ. मेरे कहने का अभिप्राय सिर्फ यह है कि जीवन क्यों मिलता है का जो उत्तर इस किताब में दिया गया है, वह मुझे सबसे अच्छा लगा.

उनके अनुसार हमारे जीवन में जो भी बुरा या कठिन होता है - दुख, परेशानियाँ, बीमारी, दुर्घटना, अमीरी गरीबी, इत्यादि, सब हमने स्वयं माँगे है और जीवन का ध्येय है इन परेशानियों और कठिनाईयों से लड़ कर उन्हे जीत पाना, नया ज्ञान पाना, नयी बातें जानना. यह दर्शन मुझे इसलिए अच्छा लगता है कि मेरे जीवन में कुछ भी कठिनाई हो, मुझे यह पूछने के लिए कहता है कि वह कठिनाई मैंने क्यों माँगी, क्या सीखना है उससे, कैसे उससे लड़ कर उसे जीत सकता हूँ ?

मेरे विचार में जीवन दर्शन जैसे विषयों पर ऐसा कोई एक उत्तर नहीं हो सकता जो हम सबको सतुष्ट कर सके. हो सकता है कि आप का जीवन दर्शन का विचार इससे भिन्न हो या फ़िर आप को इस तरह के बेकार सवालों में समय नष्ट करना बेवकूफ़ी लगे!

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आज की दोनो तस्वीरें भारत यात्रा सेः


शुक्रवार, जनवरी 27, 2006

बर्फ की ख़ामोशी

कल २६ जनवरी थी. दो सप्ताह पहले जब दिल्ली में थे तो राजपथ और इंडियागेट के आसपास से गुज़रते समय, गणतंत्र दिवस की परेड में भाग लेने वाला कोई न कोई दल अपना अभ्यास करता दिख जाता था. कई बार दिल किया वहीं गाड़ी रुकवा कर उन्हें देखने का, पर इतने काम थे और समय इतना कम, कि हर बार यह बात मन में ही रह गयी.

बचपन में कुछ बार परेड देखने राजपथ पर गये थे. एक बार दिल्ली नगर पालिका के स्कूलों के शिक्षकों की परेड थी तो उसमें माँ ने भी भाग लिया था. कुछ और सालों के बाद, छोटी बहन थी स्काऊट के दल में. रिज रोड पर रवींद्र रंगशाला में कैम्प लगता जहाँ विभिन्न प्रदेशों से आये लोक नर्तक दल ठहरते थे, उनके बीच में घूमना, उनकी विभिन्न भाषाओं की बाते सुनना, बहुत अच्छा लगता. फ़िर स्कूल की पढ़ाई पूरी होने पर, स्कूल के सभी साथी क्नाट प्लेस में जमा होते और वहाँ रहने वाले अपने एक साथी के घर से २६ जनवरी की परेड देखते.

उन सब पुराने साथियों से बेटे के विवाह के दौरान परिचय हुआ, तो पुरानी २६ जनवरियों की बातें याद आ गयीं.
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कल सुबह उठा तो बर्फ गिर रही थी. जब बर्फ गिरती है तो आसपास ख़ामोशी सी छा जाती है. हर ध्वनि दबी दबी सी लगती है. दिन भर रुक रुक कर बर्फ गिरती रही थी. रात को कुत्ते के साथ बाग की सैर को गया था तो बर्फ की ख़ामोशी में अँधेरे में घूमते हुए लग रहा था मानो सपना देख रहा हूँ.

आज सुबह बर्फ की चादर और भी घनी हो गयी लगती है. आज काम पर जाने के लिए भी बस लेनी पड़ेगी.

फिर मन में विचार आता है, कल २६ जनवरी थी, क्या मालूम राष्ट्रपति ने अपने संदेश में क्या कहा होगा ? कौन सी झाँकियाँ सुंदर थीं ? कौन सा बैंड सबसे अच्छा था ? बाहर बर्फ को देख कर भी आँखें नहीं देखतीं, ख़ामोशी में २६ जनवरी का सपना देखती हैं.
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आज दो तस्वीरें राजपथ की.


बुधवार, जनवरी 25, 2006

पेड़ों के नाम

कल प्रदीप कृष्ण की दिल्ली के पेड़ों के बारे में लिखी नयी किताब के बारे में पढ़ कर बहुत खुशी हुई. समाचार में लिखा है कि इस किताब के लिए उन्होंने कई वर्ष तक शोध किया है और शाहजहान के ज़माने से ले कर अँग्रेजी जमाने तक की राजकीय पेड़ों को लगाने की नीतियाँ और उनके चाहे या अनचाहे असर का भी विषलेशण किया है.

शायद यह दिल्ली की सीमेंट और कोलतार के बीच में बड़े होने का परिणाम था पेड़ों की तरफ कभी कोई विषेश ध्यान नहीं दिया. हमारे अपने घर में तो बस एक कनेर का पेड़ था, जो पेड़ कम, झाड़ अधिक था पर पड़ोसी घर में जामुन और अमरुद के पेड़ थे. फ़िर भी आज जामुन और अमरूद के पेड़ नहीं पहचान सकता. कुछ गिने चुने पेड़ों की ही पहचान है जैसे, आम, पीपल, नीम, कीकर. फ़ूलों वाले पेड़ों में दिल्ली गुलमोहर और अमलतास के लिए प्रसिद्ध है. लेकिन अगर फ़ूल न हों तो मेरा ख्याल है कि मैं केवल गुलमोहर को पहचान सकता हूँ.

कई साल इटली में रहने बाद ही अचानक मेरी आँख खुली कि दुनिया में पेड़ भी होते हैं, व्यक्तियों जैसे, एक दूसरे से भिन्न, जीवित प्राणी. इसका सबसे बड़ा कारण हमारा कुत्ता ब्राँदो है जिसके साथ प्रतिदिन बाग में या शहर के बाहर खेतों के पास सैर करने जाने से पेड़ों से मेरा परिचय हुआ. आज इटली के पेड़ों के बारे में बहुत जानकारी है क्योंकि इस विषय पर बहुत सी किताबें पढ़ीं हैं और करीब से जा कर बहुत बार पेड़ों का अध्ययन किया है. तो अच्छा लगा कि किसी को दिल्ली के पेड़ों के बारे में शोध करने का विचार आया.

एक बार दिल्ली हवाई अड्डे पर प्रदीप कृष्ण से मिलने का मौका मिला था, पर तब उनकी तरफ देखा भी नहीं था. सारा ध्यान उनकी पत्नी, अरूंधती राय से बात करने में था और प्रदीप कृष्ण को नमस्ते भी नहीं की. बाद में इस बारे में सोचा तो अपने बरताव पर खेद हुआ. प्रसिद्ध पत्नियों के पतियों को शायद इसकी आदत हो जाती है और शायद प्रदीप कृष्ण जी को अपने आप में इतना आत्मविश्वास है कि उन्हें इस सब से कुछ फर्क नहीं पड़ता!
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दो दिन पहले ब्राँदो का ओपरेशन हुआ है. उसके गले में डाक्टर ने एक भोंपू जैसा कौलर लगा दिया है जिसे यहाँ एलिजाबेथ कौलर कहते हैं ताकि वह घाव को न चाट सके. कल शाम से वह इस कौलर से परेशान है, बार बार पीछे मुड़ कर घाव चाटने की कोशिश करता है और बदहवास सा एक जगह से दूसरी जगह घूम रहा है. उसके पीछे पीछे आधी रात तक मेरी पत्नी लगी रही, इस समय वह जा कर सोयी है और मेरी बारी है अपने लाडले ब्राँदों की देखभाल करने की.


इस बात से बेटे के बचपन के दिन याद आ गये. तब भी ऐसा ही होता था, रात रात भर जागना!
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आज दो तस्वीरें दिल्ली की कुतुब मीनार से.


शनिवार, जनवरी 21, 2006

नेपाल में

कल सुबह छः बजे पुलिस अचानक उनके घर में घुस आयी और उन्हें गिरफ्तार कर के ले गयी. मैं मथुरा प्रसाद जी की बात कर रहा हूँ जो एक समय में नेपाल के स्वास्थ्य मंत्री भी रह चुके हैं. इसीलिए कल दिन भर मथुरा प्रसाद जी के जानने वालों के संदेश आते रहे. कुछ महीने पहले ही उनसे एक्वाडोर में जन स्वास्थ्य अभियान की आम सभा के दौरान मुलाकात हुई थी, और उन्हें वादा किया था कि अगली बार काठमाँडू जाऊँगा तो उन्हें मिलने अवश्य जाऊँगा. इन महीनों में मथुरा प्रसाद जी नें किसी डर से चुप रहना स्वीकार नहीं किया और ईमेल के द्वारा देश की बिगड़ती हालत के बारे में अपने बयान जारी रखे थे, जो शासन को निश्वय ही पसंद नहीं आये.

एक तरफ है एमरजैंसी जैसी हालत जिसमे जनतंत्र को दबा दिया गया है. दूसरी ओर है माओवादी क्राँतीकारी जो सामाजिक न्याय के नाम पर शुरु तो हुए थे पर जहाँ पहुँच गये हैं, वह न्याय कम, दूसरी तरह की तानीशाही अधिक लगता है. नेपाल के समाचार सुन कर बहुत चिंता होती है.

बुधवार, जनवरी 18, 2006

कम कीमत के लोग

कल शाम को जब बिनिल का टेलीफोन आया तो मैं पहले तो समझ ही नहीं पाया कि कौन बोल रहा है. बिनिल बोलोनिया के "हिंदू धर्म सुरक्षा समिति" के अध्यक्ष हैं. इनकी समिति के करीब ४० सदस्य हैं और सभी लोग बंगाली हैं, कुछ कलकत्ता के और कुछ बंगलादेश के हिंदू. हर साल यह समिति बोलोनिया की दुर्गा पूजा का आयोजन करती है.

बिनिल ने एक परेशानी का समाधान खोजने के लिए टेलीफोन किया था. उनकी समिति के एक सदस्य, ५० वर्षीय दलाल शाह, का कुछ दिन पहले अस्पताल में देहांत हो गया. वह बोलोनिया में अकेले ही रहते थे. उनके परिवार में उनकी पत्नी, बेटी और बेटा, कलकत्ता रहते हैं. दिक्कत यह है कि दलाल यहाँ गैर कानूनी तरीके से आये थे और बँगलादेश का पासपोर्ट बनवा कर शरणार्थी बन कर रह रहे थे. उनके पासपोर्ट पर लिखा है कि वह अविवाहित हैं. तो कैसे उनका शरीर वापस भारत उनके परिवार के पास क्रिया कर्म के लिए ले जाया जाये, यह समस्या है.

सुना है कि कलकत्ता से लोगों को यहाँ लाने के लिए और बँगलादेशी पासपोर्ट दे कर उन्हें शरणार्थी बनवाना कोई नयी बात नहीं है और गैर कानूनी ढ़ंग से प्रवासियों को यूरोप लाने का जाना माना तरीका है.

बिनिल ने बताया कि उन्होंने भारतीय और बँगलादेशी दूतावास, दोनो से ही बात की है पर अभी तक कोई हल नहीं निकाल पाये हैं. मैंने उन्हे कहा है कि मैं भारतीय दूतावास से बात करुँगा, देखें क्या हल निकलता है. अगर कुछ हल नहीं निकले तो दलाल शाह का क्रिया कर्म यहीं होगा और उनकी अस्थियाँ ही वापस भारत जायेंगी, जिन्हें किसी पासपोर्ट की जरुरत नहीं.
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अगर आप पढ़े लिखे हैं, वैधानिक तरीके से विदेश आये हैं, तो शायद गैर कानूनी ढ़ंग से आये गरीब, अकसर कम पढ़े लिखे लोगों के जीवन के बारे में जान नहीं पाते, क्योंकि उनसे सम्पर्क कम ही होता है. यह लोग सड़कों पर कारों के शीशे साफ करते हैं, फ़ूल या अखबार बेचते हैं, रेस्टोरेंट की रसोई में काम करते हैं, और छोटे घरों में दस बीस लोग मिल कर रहते हैं.


बिनिल से बात करने के बाद इसी के बारे में सोच रहा हूँ. कितनी कहानियाँ हैं उनके जीवन की, जिन्हें सुनाने के लिए उनके पास शब्द नहीं हैं और हमारे पास उन्हें सुनने की न तो इच्छा है न समय. उनके जीवन सस्ते हैं, वे मरे या जियें, किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता.
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आज की तस्वीरें हैं दिल्ली में कुतुब मीनार के पास फ़ूलों की मंडी से, ऐसे लोगों की जिनके जीवन भी बहुत सस्ते हैं.


मंगलवार, जनवरी 17, 2006

नये साल के विचार

हर साल ही नये साल आता है तो नये साल में क्या नया करना है या क्या पुराना छोड़ना है, इसका सोवना शुरु हो जाता है. हालाँकि अपने सारे वायदे थोड़े दिनों में ही भूल जाता हूँ फ़िर भी, आदत बदलना आसान नहीं है. इस साल इस सोच में एक अन्य बात का असर भी आ गया था कि बेटे के विवाह से हमारे जीवन का भी नया अध्याय शुरु हो रहा है, यानि उम्र की घड़ी बिना रुके लगातार चलती जा रही है और अपने हिस्से का बचा समय कम होता जा रहा है.

क्या ऐसा करना चाहता था जो नहीं किया या कर पाया ? यह प्रश्न था मेरा स्वयं से. यूँ तो मन में हज़ारों इच्छाएँ होती हैं, पर मेरा ध्येय था उस बात को खोजना जिसकी इच्छा सबसे प्रबल हो, जिसका न कर पाना मुझे सबसे अधिक खलता हो. वह इच्छा है एक उपन्यास लिखना!

कहते हैं कि हम सब के भीतर एक उपन्यास छिपा है. मैंने अपने भीतर छुपे उपन्यास को शुरु करने की चेष्टा पहले भी की थी, पर तब हिंदी में लिख पाने का आत्म विश्वास नहीं था, इसलिए वह पहला ड्राफ्ट अँग्रेज़ी में लिखा गया था. डेढ़ साल पहले लिखा था और अलमारी में बंद कर दिया था, सोचा था कि कुछ समय बीतने के बाद दूसरा ड्राफ्ट लिखूँगा.

इस बीच इस चिट्ठे के माध्यम से हिंदी में लिख पाने का आत्म विश्वास बढ़ा है और जिन लोगों ने उपन्यास का पहला ड्राफ्ट पढ़ा है उनके प्रोत्साहन से भी हौंसला बढ़ा है. तो इस नव वर्ष पर निश्चय कर लिया, इसी काम को आगे बढ़ाना है, इस बार हिंदी में.

इसका अर्थ है कि अब इस चिट्ठे में उतना नियमित रुप से नहीं लिख पाऊँगा जैसे पिछले वर्ष लिख पाता था.

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आज की तस्वीरों में हैं दिल्ली के विषेश हैंडीक्राफ्ट बाज़ार "दिल्ली हाट" के दो कारीगर कलाकार. यह बाज़ार हमारी पाराम्परिक कलाओं को सहारा देता है और बहुत सुंदर है. अगर कभी दिल्ली जाने का मौका मिले तो इस बाज़ार को देखना अवश्य याद रखियेगा.


यह कलाकार हैं मध्यप्रदेश के गौंड चित्रकार वैंकटरमन सिंह श्याम. इनके चित्र मुझे बहुत अच्छे लगेः

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स्वामी जी ने मेरी बड़ी दीदी की समस्या का हल करने के लिये बराहा के प्रयोग करने की सलाह दी है जिससे हिंदी में लिखने की समस्या तो हल हो सकती है पर यूनीकोड की हिंदी पढ़ने की समस्या का हल नहीं मिलता, यानि सभी आधे अक्षर ठीक से नहीं दिखते.

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