शनिवार, जून 17, 2006

मैं शिव हूँ

अक्सर मैं अपने चिट्ठे पर लिखी टिप्पणियाँ पढ़ने में देर कर देता हूँ. समय कम होता है और लिखने की, और दूसरे लोग क्या लिख रहे हैं, इसकी चिंता अधिक होती है, मेरे लिखे पर किसने क्या कहा, इसकी कम. पर कई बार टिप्पड़ियाँ पढ़ कर सोचता रह जाता हूँ. कई बार मालूम चलता है कि टिप्पणियों के माध्यम से थोड़ी बहस भी हो गयी और मैंने उस बहस में हिस्सा ही नहीं लिया. थोड़ी सी शर्म आती है कि इतनी दिलचिस्प बात हो रही थी जो मेरी बजह से शुरु हुई, जिसमें भाग नहीं लिया.

ऐसी ही टिप्पणी थी सृजनशिल्पी की जो उन्होंने मेरे कुछ दिन पहले के अंतरलैगिक (Transgender) चिट्ठे पर लिखी थी जिसे पढ़ कर सोचता रहा. उन्होंने लिखा था:
"हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास वाणभट्ट की आत्मकथा में किसी व्यक्ति में पुरुष और स्त्री के द्वंद्व के संबंध में भारतीय दर्शन के दृष्टिकोण से प्रकाश डाला गया है, जिससे इस विषय के मनोविज्ञान को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है।"
मैं भी यह सोचता हूँ कि आजकल के भूमँडलीकरण के ज़माने में हम अक्सर बहुत से विषयों पर पश्चिमी विचारों को देवकथित सत्य वचन सा मान लेते हैं, जबकि हमारी अपनी सभ्यता में उस विषय पर, उससे भिन्न सोच थी, उसे भूल सा जाते हैं. मैं यह नहीं कहता कि हर विषय पर हमारी सोच या पश्चिमी सोच बेहतर या घटिया है, पर यह मानता हूँ कि भिन्न विचारों का होना मानव सभ्यता की धरोहर है और इस विभिन्नता को सम्भाल कर रखना चाहिये, खोने नहीं देना चाहिये.

जैसे कि नारीत्व (femminism) पर मानुषी पत्रिका की सम्पादक मधु किश्वर के विचार मुझे इसी लिए महत्वपूर्ण लगते हैं क्योंकि प्रचलित पश्चिमी विचारधारा से भिन्न अर्थ देते हैं.

अंतरलैंगिकी (Transgender) और यौन रुझान (sexual orientation) भी ऐसे ही विषय हैं जिनमें भारतीय दर्शन क्या कहता या सोचता है इस पर बहुत कुछ है जो खो सकता है और जिससे इन विषयों को समझने के नये अर्थ मिल सकते हैं. सृजनशिल्पी जी अगर हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास में वर्णित दर्शन को समझा सकें तो अच्छा होगा.

उदाहरण के लिए, मेरे विचार में पश्चिमी प्रचलित सोच यौन रुझान को विषमलैंगिक (heterosexual) और समलैंगिक (homosexual) की श्रेणियाँ बना कर कैद कर देती है. यह श्रेणियाँ स्वयं पश्चिमी देशों में रहने वालों को अधूरी लगी, तो पिछले दो दशकों में इनमें एक नयी श्रेणी जुड़ गयी, द्विलैंगिक (Bisexual).

जबरदस्ती मानव यौन व्यवहार को श्रेणियों में बाँधना, शोध या चिंतन के लिए तो समझ आता है पर उसे सचमुच की बंद कैदघर की तरह सोचना मुझे लगता है कि बात को छोटा कर रहे हैं. अगर विषमलैंगिक, समलैंगिक और द्विलैंगिक को विभिन्न दिशाओं में बने कमरों की तरह सोचें तो मेरे विचार में विभिन्न मानव उन कमरों के बीच में, आगे पीछे, हर तरफ़ खड़े नज़र आयेंगे.

जब यौन रुझान की बात होती है तो इसे मानव को मापने वाला प्रथम या सबसे अधिक महत्वपूर्ण मापदँड मानना भी मुझे कुछ अजीब सा लगता है. इस विषय पर अपने कुछ इतालवी समलैगिक मित्रों से लम्बी बहस के बाद भी हम किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सके. पर मुझे लगता है, भारत में समलैगिक लोग इसके बारे में क्या भिन्न सोचते होंगे ?

भारतीय दर्शन में शिव का अर्धनारीश्वर रुप मुझे इस विषय में हर मानव मन में साथ बसे पुरुष और स्त्री रुपों की बात करने का बेहतर तरीका लगता है.

किस संस्कृति में कौन सा रुप कितना बाहर आ सकता है यह उस संस्कृति की सामाजिक मान्यताओं पर निर्भर करता है. आज यहाँ इटली में पुरुष अक्सर छोटे बच्चों के साथ सुपरमार्किट में सामान खरीदते दिखाई देते हें, और यहाँ के लोग कहते हैं कि बीस साल पहले तक अधिकतर पुरुष ऐसा नहीं करते थे, क्योंकि छोटे बच्चे को उठा कर चलना पुरुष व्यक्तित्व के विरुद्ध माना जाता था.

जब पुरुषोचित व्यवहार के सामाजिक मापदँड बदल गये तो बाह्य व्यवहार भी बदल जाते हैं. कुछ दिन पहले फिल्म देखी थी जिसमें अभिनेता सैफ़ अपने मित्रों के साथ फिल्म देखने जाते हैं और कोई दृष्य देख कर रोते हैं, यह भी दस या बीस साल पहले पुरुषोचित व्यवहार नहीं माना जाता था. आज मेट्रोसेक्सूअल (metrosexual) पुरुष और स्त्री के लिए अपने भीतर छुपी स्त्री या पुरुष को स्वीकार करना अधिक आसान है!

शुक्रवार, जून 16, 2006

क्यों नहीं ?

"अंतर्राष्ट्रीय विकलाँग मानव" (Disabled Peoples International) के इतालवी प्रतिनिधि जाँपिएरो से बात कर रहा था. जाँपिएरो ने कहा, "विकलाँग लोगों के सामान्य जीवन अधिकारों का तो सदियों से उल्लँघन होता आया था पर तब उनमें इस अन्याय की चेतना नहीं थी. विकलाँग लोगों का घर से बाहर निकलना, अन्य विकलाँग लोगों से बात करना, कहीं आना जाना, आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होना, आदि बहुत कठिन था. केवल द्वितीय विश्व महायुद्ध के आसपास जब उद्योगिक विकास से उत्तरी देशों की आर्थिक स्थिति मज़बूत हुई तो ऐसी संस्थाँए बनाई जाने लगीं जहाँ विकलाँग लोगों को अलग रखा जा सके और वह लोग आपस में मिलने जुलने लगे, एक दूसरे के जीवन अनुभव की बातें करने लगे. तब उन्हें पहली बार समझ में आया कि जिसे वह अपनी विकलाँगता की वजह से हुई कठिनाईयाँ समझते थे, वह उनकी विकलाँगता से नहीं, समाज की मानसिकता से जन्मी कठिनाईयाँ थीं और अगर वह सब मिल कर इस सामाजिक अन्याय और शोषण से लड़ें तो समाज बदल सकता है. अकेले मानव के शरीर के "नुक्स" देखने वाले मेडिकल कारणों की जगह उन्होंने विकलाँगता से सामाजिक कारणों की बात की."

इसी सोच की वजह से विकसित देशों में पटरी ऐसी बनाईये कि व्हील चेयर वाला व्यक्ति उसका इस्तमाल कर सके, सीढ़ियों के साथ लिफ्ट या रेम्प बनवाईये, मार्गदरशक बोर्ड ब्रेल में भी लिखिये, दूरदर्शन समाचार इशारों की भाषा में भी दिखाईये, जैसी बातें होनी लगीं.

जाँपिएरो की बात से मैं एक अन्य वर्ग की बात सोच रहा था जो शोषित है और जिसके मानव अधिकारों को सदियों से कुचला जाता है, दलित वर्ग. क्या हिंदी चिट्ठा जगत में दलित लेखक हैं और वह इस बारे में क्या सोचते हैं ?

ब्राज़ील और कीनिया जैसे देशों में गरीब इलाकों और झोपड़पट्टी में जाना बहुत कठिन है, वहाँ अगर आप अच्छे वस्त्र पहने हों तो आप को लूट लेने वाले बहुत मिल जायेंगे. कहते हैं कि वहाँ के गरीब वर्ग में सामाजिक विषमताओं के प्रति बहुत क्रोध है. जब गरीब, शोषित लोगों की हिंसा की बात होती है तो अक्सर मेरे मित्र मुझसे पूछते हैं कि तुम्हारे भारत में ऐसा क्यों नहीं होता ? क्यों वहाँ किसी गरीब कालोनी में तुम पर हमला नहीं करते, क्यों उनमें गुस्सा नहीं है? क्या कारण हैं इसके ?

मेरे कुछ विदेशी मित्रों का कहना है कि यह हिंदू धर्म की सोच की वजह से है, कि लोग कहते हैं, "किस्मत की बात है, पिछले जीवन में कोई पाप किया था उसकी सजा है". कुछ का कहना है कि अत्याचार से लड़ना चाहिये और अगर कोई धर्म तुम्हें अत्याचार से लड़ने के बजाय उसे स्वीकार करना सिखाता है और उसे तुम्हारी अपनी ही गलती बताता है तो वह धर्म गलत है.

मैं यह बात नहीं मानता. गरीब कालोनी में गुजरने वाले लोगों पर हमला कर या उन्हें लूटने से समाजिक विषमताँए नहीं बदलतीं. शायद हमें धर्म और प्रजातंत्र गरीब मन में यह आशा देता है कि मेहनत करके, कोशिश करके हम भी अपना जीवन बदल सकते हैं, जबकि हिंसा कुछ नहीं बदलती.
*****

कल की अतुल की टिप्पणी:

"पर मुद्दा यह है कि यह प्रसार होगा कैसे? गर इंटरनेट पर तीन सौ से बढ़कर तीन लाख
ब्लाग हो जायें उससे? कल कुछ हिंदी समाचार चैनल देख रहा था। एक छोटी सी घटना की
रिपोर्ट देने में कुल चार वाक्य बारह बार घुमाये गये, हर वाक्य के अस्सी प्रतिशत
शब्द अँग्रेजी के थे। यही हाल अभिनेताओं का है। बात सिर्फ इतनी नही कि ये लोग हिंदी
बोलने में शर्माते हैं, इन्हें ढँग से आती ही नही। "

पर सोच कर बताईये, क्या किया जा सकता है जिससे देश में अधिक चेतना आये कि अँग्रेज़ी जानने के साथ साथ हम अपनी भाषा पर गर्व कर सकें, उसे अच्छा समझना, बोलना बढ़ सके ?

गुरुवार, जून 15, 2006

अपनी भाषा

मैं इन दिनों अमरीकी पुलित्ज़र पुरस्कार से तीन बार सम्मानित पत्रकार थोमस फ्रीडमैन की पुस्तक The World is Flat (Thomas Friedman, दुनिया समतल है, Allen Lane publications, 2005) पढ़ रहा था. इस पुस्तक के अंत के करीब वह अब्राहम जोर्ज की बात बताते हैं. केरल में जन्मे, भारतीय सेना के अफसर रहे, फिर अमरीका जा कर वहाँ एक सोफ्टवेयर की कम्पनी खोली.

1998 में अब्राहम अमरीका में नौकरी छोड़ कर वापस भारत आये जहाँ उन्होंने बँगलौर के पास पत्रकारों को तैयार करने की संस्था बनायी क्योंकि उनका सोचना था कि भारत की उन्नति के लिए ज़िम्मेदार और स्वतंत्र पत्रकारों का होना बहुत आवश्यक है. साथ ही साथ, उन्होंने दलित बच्चों को पढ़ाने के लिए एक गाँव में एक विद्यालय भी खोला, शांति भवन.

फ्रीडमैन शांति भवन विद्यालय को देखने गये और उसके बारे में लिखते हैं कि कैसे सुंदर, स्वच्छ वातावरण में गरीब परिवारों के बच्चों को आम शिक्षा के साथ साथ, क्मप्यूटर आदि भी शुरु से ही सिखाया जाता है. फ़िर बताते हैं कि जिस दिन वह वहाँ गये, बच्चे केलिफोर्निया आचीवमैंट का इम्तहान दे रहे थे और विद्यालय की प्रिंसिपल श्रीमति लाव ने फ्रीडमैन से कहा, "हम इन्हें अँग्रेज़ी में शिक्षा देते हैं ताकि ये भारत में या विश्व में उच्च शिक्षा के लिए कहीं भी जा सकते हैं. हमारा उद्देश्य है कि बच्चों को उच्च स्तर की शिक्षा दें ताकि ये वैसे काम करने के सपने देख सकें जैसे इनके परिवारों में कभी नहीं देखे... यहाँ आसपास तो ये हमेशा दलित ही रहेंगे, अछूत माने जायेंगे. पर अगर ये यहाँ से दूर जा सकें, अच्छा बोलना सीखें, अभिजात्य तरीके से बात कर सकें, तो इस बंधन से मुक्त हो सकते हैं."

पढ़ कर सोच रहा कि यह बिल्कुल सच है. आप दूसरों से अच्छी अँग्रेज़ी में बात करेंगे तो भारतीय समाज में आप की इज़्ज़त करने वालों की कमी नहीं होगी. आप बहुत अच्छी हिंदी बोलते हों, या कन्नड़ या मलयालम पर अँग्रेज़ी न आती हो तो न तो कोई उच्च स्तर का काम मिलेगा, न ही इज़्ज़त. यह बात सब निम्न मध्य वर्गियों और गरीब लोगों को मालूम है और अँग्रेज़ी माध्यम के शिक्षा संस्थानों के कुकरमुत्तों की तरह फैलना का यही कारण है.

यह सोचना कि एक दिन मराठी, बँगाली या हिंदी जैसी भाषाएँ अपनी प्रतिष्ठा पायेंगी और अँग्रेज़ी की शान कुछ कम होगी, शायद ठीक सोचना नहीं है ? जैसा वातावरण है उसमें अँग्रेज़ी घटेगी नहीं, और भी तेज़ी से बढ़ेगी.

बात शायद "अँग्रेज़ी या भारतीय भाषाएँ" की नहीं "अँग्रेज़ी तथा भारतीय भाषाएँ" की होनी चाहिए ? बात यह नहीं हो कि हम कैसे अँग्रेज़ी हटा कर अपनी घर की भाषा को प्रमुखता दे, बल्कि यह हो कि, कैसे काम में और विश्व से जोड़ने में अँग्रेज़ी का इस्तमाल करने के साथ साथ, अपनी भाषा में, अपने साहित्य में, अपने इतिहास में, अपनी सभ्यता में, गर्व बढ़ा सकें ?

सोमवार, जून 12, 2006

पुराने कपड़े

गेंद छज्जे से उछल कर बाहर गिर गयी थी. झाँक कर नीचे देखा, तो उसे घर के सामने वाले गिरजाघर की दीवार पर लगी काँटों वाली तार के बीच में फँसा पाया. पहले गिरजाघर की दीवार पर वह तार नहीं थी पर कुछ महीने पहले कोई लोग रात को दीवार से चढ़ कर अंदर घुस गये थे और खिड़कियाँ तोड़ दी थी, तो उसके बाद वह तार लगा दी गयी थी.

गिरजाघर के पादरी का बेटा मेरे साथ खेलता था, और पादरी को मैं दोस्त के पिता की हैसियत से "अंकल जी" बुलाता था इसलिए बिना सोचे बोला, "अभी मैं ले कर आता हूँ गेंद को". गिरजाघर का गेट खुलवाने में कोई दिक्कत नहीं हुई. माली ने दीवार के पास सीड़ी लगा दी और मैं दीवार पर चढ़ गया. नुकीले काँटों से बचता हुआ तारों के बीच धीरे धीरे कदम रख कर मैं गेंद तक पहुँचा. नीचे झुक कर गेंद उठायी और जब उठ लगा तो चर्र सी आवाज़ सुनी. झुकते समय तार का एक नुकीला काँटा निक्कर में फँस गया था, जब सीधा हुआ तो उस तार ने निक्कर को चीर दिया था.

सुन्न सा रह गया मैं. माँ क्या कहेगी ? काँटे से जाँघ पर भी खरोंच आयी थी और खून बहने लगा था पर उसकी कुछ चिंता नहीं थी. चिंता थी तो निक्कर की. क्या होगा, सोचा. माँ परेशान हो जायेगी. दो ही तो निक्कर थी मेरे पास. उनमें से एक न पहनने वाली हो गयी तो काम कैसे चलेगा ? मालूम था कि उन दिनों पैसे की तंगी चल रही थी. पापा की तबियत ठीक नहीं थी.

कुछ दिन पहले ही दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी में काम करने वाली एक औरत ने मुझे डाँट दिया था, बोली थी कि मेरी निक्कर बहुत छोटी और तंग थी, उसे पहन कर दोबारा लायब्रेरी गया तो वह मुझे घुसने नहीं देगी. बोली कि मैं बड़ा हो गया हूँ और अब मुझे आधी निक्कर नहीं पूरी पैंट पहननी चाहिये. फ़िर भी मैंने माँ को नहीं कहा था कि नयी निक्कर चाहिए. इसलिए फटी निक्कर ले कर डरता डरता घर वापस आया.
*****

अलमारी कपड़ों से भरी है और उसमें कपड़े रखने की जगह नहीं है. जब भी कोई नया कपड़ा खरीदता हूँ तो पत्नी कहती है, "अपने कपड़ों को ठीक से देखो, जो पुराने हैं, या फट गये हैं या ठीक से नहीं आते, उन्हें बाहर फैंको, तभी नये कपड़े लो, वरना अलमारी में कपड़ों की और जगह नहीं है."

पर मुझसे पुराने कपड़े नहीं फैंके जाते. "नहीं, यह कमीज़ नहीं, यह तो मुझे बहुत पसंद है. नहीं यह टीशर्ट नहीं, यह तो में रियो से खरीद कर लाया था, यह तो अभी बहुत अच्छी है", मैं कहता हूँ और पुराने कपड़े और चीज़ें फैंकना मेरे बस की बात नहीं. पत्नी ने भी अब सीख लिया कि अलमारी में जगह कैसे बनायी जाये. जब मैं घर में नहीं होता तो जो मन में आये वह दान में दे देती है.

कल बोली, "हमारा औरतों का समूह "मेरकातीनो" (छोटा बाज़ार) लगा रहा है, जो पैसा कमाएँगे उससे सूडान में डारफूर में शरणार्थियों के लिए भेजना है, कोई अपनी कमीज़ बगैरा दो न बेचने के लिए".

आजकल टीवी पर समाचारों में डारफूर के शरणार्थियों के बारे कई बार बता चुके हैं. मैंने अपनी अलमारी से दो कमीज़े निकाल दीं.

"अरे, यह नहीं कोई अच्छी सी दो न!" पत्नी बोली, "खुद तो पुराने, घिसे पिटे कपड़े पहने रखते हो, कम से कम दूसरों को तो अच्छे से कपड़े दो न, पुराने कपड़ों का ही दान किया तो क्या दान हुआ ?"

शनिवार, जून 10, 2006

पुरुष या स्त्री ?

तुर्की (Turkey) की एक टेलीविज़न चैनल ने एक नया रियेल्टी शौ करना का फैसला किया था. आजकल इन्हीं रियेल्टी शो यानि वह कार्यक्रम जिनमें जीवन की सच्चाई दिखाई जायी, कहानी नहीं, का ज़माना है. इस कार्यक्रम में आठ तुर्की युवक जिनकी आयु १९ से ३९ वर्ष के बीच में थी, को तीन सप्ताह तक एक टेलीविजन कैमरे के सामने एक घर में स्त्री बनके रहना था. कुछ नयी बात नहीं थी, यह एक अमरीकी कार्यक्ररम "ही इज़ ए लेडी" (He is a lady) यानि "वह पुरुष स्त्री है" पर आधारित था. पर यह प्रोग्राम उन्हें रद्द करना पड़ा क्योंकि बहुत सारे लोगों ने कहना शुरु कर दिया कि यह कार्यक्रम पुरुषों का अपमान था.

इधर इटली में श्रीमति ल्कसूरिया जी इतालवी संसद में चुनी गयी हैं. उनकी खासयित है कि वह इतालवी संसद की पहली ट्राँस हैं, ट्राँस यानि वह लोग जिन्हें अपना जन्मजात लिंग ठीक नहीं लगता और वे स्त्री से पुरुष या पुरुष से स्त्री बन जाते हैं.

इसी विषय पर एक नयी अमरीकी फिल्म भी आयी है, "ट्राँसअमेरिका" (Transamerica) जिसमें शल्यक्रिया (surgery) से पुरुष यौन अंग निकलवा कर स्त्री बन जाने का सपना देखने वाला पुरुष मुश्किल में पड़ जाता है जब उसे अपने किशोर पुत्र के साथ कुछ दिन रहना पड़ता है.

इस बारे में बात करना और लिखना भाषा की दृष्टि से आसान नहीं क्योंकि बहुत बार समझ नहीं आता कि जिस व्यक्ति की बात कर रहे हैं उसे पुरुष बुलायें क्योंकि समाज उसे पुरुष मानता है और उनके बाह्य शरीर पुरुष सा है या फ़िर स्त्री बुलायें क्योंकि उनके विचार में उनकी आत्मा स्त्री की है जो गलत शरीर में कैद है ?

मुझे इस विषय में जानकारी तब हुई जब कुछ साल पहले "विगलाँगता और यौनता" के विषय पर शोध कर रहा था. शरीर के बाह्य और भीतरी लिंग में साम्यता न होना भी एक तरह की विकलाँगता है, ऐसा सोचने से इस परिस्थिति में फँसे लोगों के जीवन को घेरने वाली बहुत सी कठिनाईयों को समझने और उनके निधान ढ़ूँढ़ने का अवसर मिलता है.

शोध के सिलसिले में मेरी मुलाकात ईमेल के द्वारा आस्ट्रेलिया की एक युवती से हुई जो युवक बन कर पैदा हुई थी और जो विश्वविद्यालय में ट्राँस विषयों पर शोध कर रही थी. उसने बहुत सी जानकारी दी मुझे. पहले सोचता था कि यह सिर्फ कुछ पुरुषों की समस्या होती है, उसने बताया कि कुछ स्त्रियाँ भी होती हैं जो स्वयं को स्त्री शरीर में पुरुष महसूस करती हैं पर पुरुष के लिए बाह्य यौन अंग शल्यक्रिया से ठीक करवा कर स्त्री बन पाना अधिक आसान है, स्त्री के लिए पुरुष यौन अंग बनवाना बहुत अधिक कठिन.

यह भी सोचता था कि जो पुरुष इस तरह महसूस करते हैं वे सब समलैंगिक होते हैं यानि स्त्री बन कर अन्य पुरुषों के साथ रहना चाहते हैं. मेरी आस्ट्रेलियाई मित्र ने समझाया कि शरीर का लिंग और यौन रुझाव अलग चीज़े हैं. जैसे कि कुछ भीतर से स्वयं को स्त्री सोचने वाला पुरुष, किसी स्त्री की तरफ आकर्षित हो सकता हैं और दूसरी तरफ, अधिकतर समलैंगिक पुरुष अपने पुरुष शरीर से संतुष्ट हैं और स्त्री शरीर नहीं चाहते.

शरीर और भावनाओं का मेल न खाना और स्वयं को गलत शरीर में कैदी सोचना, हारमोन ले कर या शल्यक्रिया से अपने बाह्य शरीर को बदलना, इन सब का अर्थ है कि उस व्यक्ति का सारा जीवन संघर्ष और पीड़ा से गुज़रेगा. अक्सर अपने परिवार से ठुकराये जाते हैं वह. भारत में भी तो जाति से, समाज से बाहर कर उनकी अलग बंद दुनिया ही बन जाती है.


बुधवार, जून 07, 2006

धोखा नम्बर 419

ईमेल में आने वाले संदेश जिनमें कोई लिखे कि उसे करोड़ों रुपये एक जगह से दूसरी जगह भेजने हैं और अगर आप इस काम में उसकी मदद करें तो आप को भी कुछ करोड़ का कमीशन मिल जायेगा. जितने भी इस तरह के संदेश आते हैं मैं उन्हें तुरंत कूड़े के डिब्बे में डाल देता हूँ, शायद इस लिए कि इनकी आदत सी पड़ गयी है और हर दूसरे दिन ऐसे संदेश आते रहते हैं. पर जब पहली बार ऐसा संदेश देखा था तो सचमुच थोड़ी देर के लिए संदेह में पड़ गया था.

बिना कुछ किये करोड़ रुपये बन जायें तो इसमें क्या बुरा है ? इसी चक्कर में बहुत से लोग अपना बहुत कुछ खो बैठे हैं, यह जान कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. जर्मनी की फ्रीडा स्परिंगर बैक नाम की स्त्री पिछले 12 साल से नाईजीरिया की राजधानी लागोस में इसी चक्कर में हैं. उनका कहना है कि इस काम का विश्वकेन्द्र नाईजीरिया में ही है जहाँ हज़ारों लोग इस धँधे में लगे हैं. धोखाधड़ी की कानूनी धारा जिसे भारत में 420 कहते हैं, नाईजीरिया में 419 के नाम से जानी जाती है और फ्रीडा के अनुसार यह वहाँ का गृह उद्योग है जिससे नाईजीरिया बहुत विदेशी मुद्रा कमाता है.

यह धोखा बहुत पुराना है और पहले चिट्ठियों के द्वारा होता था, अंतरजाल के आविष्कार के बाद, ईमेल से इसे और भी तरक्की मिली है. फ्रीडा ने मुकदमा किया है फ्रेड आउडूआ पर जो इस धँधे का बादशाह कहलाते हैं और 12 साल से कोशिश कर रहीं हैं कि अपना पैसा वापस पा सकें और आउडूआ को जेल भिजवा सकें. जब बात चिट्ठियों से होती थी, इस धोखे के शिकार बनते थे केवल विकसित देशों के लोग, पर अब यह धोखा ईमेल से सारे विश्व में हो सकता है.

धोखे का तरीका बहुत आसान है. फ्रीडा को नाईजीरिया जाने का हवाई टिकट भेजा गया, वहाँ रहने के लिए पाँच सितारा होटल में मुफ्त ठहराया गया. उन्होने कहा कि मरने से पहले फ्रीडा के पति ने कुछ पैसा वहाँ एक प्राइवेट बिजलीघर में लगाया था जिसमें करोड़ों का फायदा हुआ. पर पैसे मिलने से पहले, फ्रीडा को टेक्स देना था और वकील की फीस, कुल रकम का १ प्रतिशत. फ्रीडा को विभिन्न तथाकथित बैंक आफिसरों से मिलाया गया, और सरकारी दफ्तरों में घुमाया गया, सब कुछ असली लगता था. सब खर्चों में फ्रीडा ने करीब 3,60,000 यूरो खर्च किये और तब समझीं कि धोखा था.

तब से फ्रीडा ने उन धोखेबाजों से लड़ने का फैसला किया है, वहीं लागोस में ठहर गयीं हैं. उनके जैसे धोखा खाये बहुत से लोगों ने उनके साथ जुड़ने का फैसला किया है. पहले तो श्री आउडुआ ने उन्हें गम्भीरता से नहीं लिया था, सोचा था थक कर यह औरत वापस अपने देश चली जायेगी पर वह इतनी जिद्दी निकलेंगी इसकी अब उन्हें भी चिंता होने लगी है और उन्होंने फ्रीडा को उसके पैसे वापस देना का वायदा किया है.

*****
आज दो तस्वीरें पिछले साल की, घर के पास एक खेत से जहाँ गर्मियों में पोपी के फ़ूल खिलते हैं. इस साल गर्मियाँ आने का नाम ही नहीं ले रहीं. कल रात का न्यूनतम तापमान था 5 डिग्री. अभी तक रात को रजाई ले कर सोना पड़ रहा है.




मंगलवार, जून 06, 2006

कैसे कहें ?

पहले सोचा कि लोरेना बेरदुन (Lorena Berdùn) के बारे में लिखूँ. रात को देर हो गयी थी, जब डीवीडी देख कर उसे बंद किया तो टेलीविज़न का एक प्रोग्राम आ रहा था. सुंदर लड़की, थोड़े से कपड़े पहने, बात कर रही थी यौन सम्बंधों की. बात करने का बिल्कुल सीधा अंदाज़, यानि दूध का दूध और पानी का पानी, कुछ भी कहने में उसे कुछ झिझक नहीं थी, हाथ के इशारों से हर बात अच्छी तरह समझाती थी ताकि जिनको सुनाई कम देता हो, वे भी बात को ठीक से समझ सकें.

अंतरजाल पर खोजा तो पाया कि कुमारी लोरेना तो बहुत प्रसिद्ध हैं. स्पेनवासी लोरेना ने मनोविज्ञान की उच्च शिक्षा के बाद यौनज्ञान विषेशज्ञ का काम अपनाया और कुछ पत्रिकाओं में पढ़ने वालों के पत्रों के उत्तर देने का काम शुरु किया. जल्दी ही उनकी प्रसिद्धी फैलने लगी क्योंकि वे सभी प्रश्नों के उत्तर बड़े खुले तरीके से देतीं थीं. कुछ ही समय में उन्हे टेलीविजन पर अपनी बात कहने का मौका मिलने लगा. वहाँ उन्होंने बिना झिझक किसी भी प्रश्न का उत्तर देने के साथ साथ कम कपड़े पहनने का काम प्ररम्भ किया. कुछ नग्न तस्वीरें भी खिंचवाईं. चूँकि स्पेन में कोई यह कह कर कि "हमारी संस्कृति में ऐसा करना पाप है, हम इसे न होने देंगे", दँगा फसाद करने वाले नहीं थे, तो लोरेना जी का नाम दिन दूना रात चौगुना बढ़ा और स्पेन से बाहर भी फ़ैलने लगा.

आजकल वह इतालवी टेलीविजन की ला7 (La7) चैनल पर रात को 11 बजे के बाद आने वाले एक कार्यक्रम में नाम कमा रहीं हैं. सोचा कि आप को उनके कुछ प्रश्न और उत्तर नमूने की तरह दिखाये जायें. उनके अंतरजाल पर प्रस्तुत कुछ स्पेनिश भाषा के साक्षात्कारों को खोजा पर उनका हिंदी में अनुवाद नहीं कर पाया. ऐसी बातें करने के लिए तो एक "केवल व्यस्कों के लिए" चिट्ठे की आवश्यकता है!
*****

आज की तस्वीर है मिस्र से, गीज़ा के पिरामिडों के पास. तस्वीर वाली औरत कुँगफू स्टाईल में हाथ ऊपर नीचे उठा रही थी तो मैंने तुरंत तस्वीर खींच ली. बाद में समझ में आया कि वह ऐसा क्यों कर रही थी. आप बताईये, क्या कर रही थी वह ?

रविवार, जून 04, 2006

ससुराल में भूमँडलीकरण

मेरी ससुराल उत्तरी इटली में वेनिस के पास छोटा से शहर स्कियो (Schio) में है. जब तक पत्नी की माँ ज़िन्दा थीं तब तक उन्हें मिलने साल में कई बार जाते थे, पर पिछले कुछ सालों से स्कियो जाने के मौके कम ही मिलते हैं. इस सप्ताह छुट्टियाँ थीं तो श्रीमति ने दो दिन के लिए स्कियो जाने का प्रोग्राम बनाया.

शहर छोटा अवश्य है पर बहुत सुंदर है. चारों ओर एल्पस के पहाड़ों से घिरा हुआ, हरियाली से भरा. वहाँ बसने वाले प्रवासी लोग कहते हैं कि वहाँ के लोग कुछ ठँडी तरह के हैं, प्रवासियों से ठीक से बात नहीं करते, पर निजी अनुभव ऐसा नहीं है. शायद इस लिए कि श्रीमति जी का परिवार कई सदियों से वहाँ रह रहा है और उसकी वजह से वहाँ के लोग मेरे साथ आम प्रवासियों वाला व्यावहार नहीं करते ?

स्कियो छोटा सा है पर बहुत पैसे वाला शहर है. वहाँ बने लक्सओटिका चश्मे सारी दुनिया में निर्यात होते हैं. साथ ही बहुत पुराने विचारों वाला शहर है. "असभ्य प्रवासियों को बाहर निकालो ... मुसलमान नहीं चाहिये यहाँ... हम इटली से अलग हो कर अपना देश पादानिया बनायेंगे..." जैसी बातें करने वाली नेशनलिस्टिक पार्टी "लेगा नोर्द" का यहाँ बहुत ज़ोर है.
*****

शाम को कुत्ते को ले कर सैर को निकला तो रास्ते में पुराना मित्र ज्योर्जो मिल गया. बहुत जोश से गले मिला और साथ ही चलने लगा. उसके परिवार की कई दुकाने हैं स्कियो में और बहुत पैसा है उनके पास. भारत और नेपाल कई बार घूम कर आ चुका है और दोनो ही देश उसको बहुत प्रिय हैं.

बातें करते करते, बात आई "लेगा नोर्द" पार्टी की. वह बोला, "मैं यहाँ की पार्टी के दफ्तर में सचिव हूँ." सुन कर मैं सन्न सा रह गया. उसके जैसा देश विदेश घूमा, भारत प्रेमी कैसे इस तरह का सोच सकता था. मैंने पूछा, "अगर तुम सभी प्रवासियों के विरुद्ध हो तो फ़िर तो मुझे भी तुमसे डरना चाहिये ?"

वह गम्भीर हो कर बोला, "पढ़े लिखे सभ्य लोग आयें तो बुरा नहीं लगता पर यहाँ तो अनपढ़, पिछड़े विचारों वाले लोग आ रहे हैं, जिनमें न हमारी सभ्यता की कोई जानकारी है और न ही वह कोई जानकारी चाहते हैं. वह तो आपस में मिल कर चूहों की तरह रहना चाहते हैं और हमारे जीवन को नष्ट कर रहे हैं. उनकी औरतें तो काले पर्दे में सिर से पाँव तक ढ़कीं रहतीं हैं, कहते हैं कि हमारी औरतों को भी इस तरह खुले नहीं घूमना चाहिए ..."

घूमते घूमते स्कियो के पुराने भाग में आ गये जहाँ तंग, छोटी छोटी गलियाँ हैं. इस तरफ आये तो मुझे कई साल हो गये थे. बिल्कुल बदल गयी थी यह जगह. पुरानी दुकानें, कैफ़े, बार आदि होते थे यहाँ. उनकी जगह, टेलीफोन सेंटर, हलाल मीट की दुकान, एशियन स्टोर जैसी दुकानें खुल गयीं थीं. सारी सड़क विदेशियों से भरी थी, कहीं बगँलादेश वाले, कहीं पाकिस्तान वाले, कहीं टुनिसी और मोरोक्को वाले, कहीं नाईजीरिया वाले, कहीं पूर्वी यूरोप वाले.

ज्योर्जो गुस्से से बोला, "देखो, क्या कर रहे हैं यह असभ्य लोग! कितनी ज़ोर ज़ोर से बात करते हैं, आपस में चिल्लाते हैं. सड़क पर कागज, गन्दगी फ़ैंक देते हैं! बताओ, कोई है यहाँ इतालवी बोलने वाला ? तुम्हारे भारत में किसी सड़क पर इस तरह सारे विदेशी आ जायें तो क्या तुम सह पाओगे ?"
*****

लिवियो मिला. उसकी पत्नी सांद्रा हमारी श्रीमति की बचपन की मित्र है. लिवियो की फेक्टरी है, जहाँ चमड़े के कपड़े बनाते हैं. मैंने ही ज्योर्जो से हुई बात कही तो लिवियो बोला, "मुझे अपनी फेक्टरी में काम करने के लिए कोई इतालवी नहीं मिलता. लोग कहते हैं कि बदबू वाला काम है. इतने नखरे हैं इनके, यह करेंगे, वह नहीं करेंगे, आज छुट्टी चाहिये, कल वह चाहिये. अगर प्रवासी न हों तो हमारी सारी फेक्टरियाँ बंद हो जाये. यहाँ लोग बच्चे तो पैदा नहीं करते, लड़के लड़कियाँ चालिस साल के हो जाते हैं पर शादी नहीं करते, तो हम काम कैसे करें ? मुझे भी अच्छा नहीं लगता कि हमारे शहर इस तरह विदेशियों से भर जायें पर क्या करें ? अपनी फेक्टरी को पूर्वी यूरोप के किसी देश में या चीन ले जायें ?"

भूमँडलीकरण में दुनिया बदल रही है. शायद इण्लैंड, अमरीका में ऐसे परिवर्तन बहुत पहले आ चुके हैं और उनसे सीखना चाहिये कि कैसे स्कियो जैसे छोटे शहर इस परिवर्तन का सामना करें!

आज की तस्वीरों में स्कियो में हमारी छुट्टियाँ.








*****
तरुण ने लिखा है कि मुझ जैसे "वरिष्ठ" चिट्ठाकारों को अनुगूँज के विषय पर लिखना चाहिये. तरुण, वरिष्ठता की पदवी के लिए धन्यवाद. हालाँकि नेतागिरी और राजनीति के विषय पर लिखने की कोई इच्छा नहीं थी, पर तुमने कहा तो अवश्य कोशिश करुँगा.

शुक्रवार, जून 02, 2006

कहाँ से चले

विचार थाली के बेंगन होते है, कभी इधर लुड़कते हैं कभी उधर, कहीं से शुरु होते हैं और कहीं और जा कर रुकते हैं. कुछ ऐसा ही है अतंरजाल पर घूमना. छुट्टियाँ हैं इन दिनों, इस लिए कभी कभी यहाँ वहाँ घूमने और पढ़ने में बहुत समय निकल जाता है.

एक जगह पढ़ा कि स्पेन की सबसे प्रसिद्ध अभिनेत्री, पेनेलोपे क्रूज़ (Penelope Cruz) ने स्पेनिश लेखक जाविएर मोरो (Javier Moro) की पुस्तक भारतीय प्रेम ज्वर (Indian Passion) पर फिल्म बनाने का निर्णय किया है जिसमें उनके साथ मुम्बई फिल्मी दुनिया के कई कलाकार भी होंगे. यह फिल्म एक स्पेनिश स्त्री अनीता देलगादो के एक भारतीय महाराजा से विवाह की कहानी है.

मन में कुछ उत्सुकता जागी कि कौन थी और किस भारतीय महाराजा से शादी की थी उन्होने ? हिंदी और अंग्रेजी पर खोज करने से अनीता देलगादो के बारे में कुछ विषेश नहीं खोज पाया सिवाय इसके कि कपूरथला के महाराजा जगतजीत सिंह से उनका विवाह हुआ था सन 1910 में.




पर स्पेनिश भाषा में खोज करने पर अनीता देलगादो के बारे में बहुत कुछ पढ़ने को मिला. आंजेल देलगादो और कंदेलारिया ब्रिओनेस की पुत्री अनीता का जन्म हुआ मलागा में 8 फरवरी 1890 को हुआ था. गरीब घर में जन्मी अनीता गायिका नर्तकी बन कर मेडरिड पहुँच गयीं जहाँ "सेंत्राल कुरसाल" नाम के रेस्तोरेंत में 1908 में उन्हें गाता देख कर जगतजीत सिंह जी उन पर मुग्ध हो गये और उनसे शादी का प्रस्ताव रखा. अनीता पहले तो नहीं मानी फिर महाराजा के साथ पेरिस पहुँची और उसके बाद विवाह करके मुम्बई और कपूरथला. 1925 में वे जगतजीत सिंह से अलग हो कर पहले फ्राँस में आयीं और फिर मेडरिड, जहाँ 7 जुलाई 1962 को उनकी मृत्यु हुई. उनका एक बेटा था राजकुमार अजीत सिंह जो 1910 में पैदा हुए और 1967 में लंदन में मरे.


अनीता की कहानी पढ़ने के बाद दोबारा जगतजीत सिंह के बारे में पढ़ा. सिख साँस्कृतिक धरौहर (Sikh Heritage) नाम के अंतरजाल स्थल पर उनके बारे में बहुत लम्बा लिखा है. इस लेख और उसी विषय पर स्पेनिश में जो पढ़ा, उनमें बहुत अंतर है. यह लेख महाराजाधिराज के किसी अपने द्वारा लिखा लगता है जिसमें जगतजीत सिंह और उनके खानदान को बहुत बढ़ा चढ़ा कर बताया गया है, कितने अमीर थे वह, कितने विद्वान थे, कितनी भाषाएँ जानते थे, कैसे यूरोप के विभिन्न राजा महाराजों से उनके निकट के सम्बंध और दोस्ती थी, कैसे यह ड्यूक या वह बेरोन उनके यहाँ रहने आये, कैसे अंग्रेजी सरकार ने उन्हे यह या वह खिताब दिया. लेख गर्व से यह भी बताता है कैसे उन्होने अंग्रेजों के साथ वफादारी दिखाई और दुश्मनों (भारत की स्वत्रंता के लिए लड़ने वालों) के छक्के छुड़ा दिए और इसके बदले में उन्हें क्या खिताब और ज़मीनें मिलीं.

स्वत्रंता के बाद उनको पुत्रों ने भारतीय सेना में शामिल हो कर पाकिस्तान से युद्धों में वीरता के पुरस्कार भी पायें हैं. आज कपूरथला के महाराजा है जगतजीत सिंह के पोते ब्रिगेडियर सुखजीत सिंह जिन्हें महावीर चक्र मिला था.

स्पेनिश में अनीता देलगादो के बारे में जगतजीत सिंह की शान में कुछ नहीं लिखा है, लिखा है कि स्पेन में स्कैंडल हो गया कि उनकी लड़की एक भारतीय से विवाह करके भारत जा रही थी. लिखने का तरीका ऐसा है कि लगता है उनकी दृष्टि में स्पेन में रहने वाली गरीब नाचने वाला उनका जीवन भारत जैसे देश में रहने से कई गुना अच्छा था और जगतजीत के साथ भारत जा कर उन्होंने बड़ा त्याग किया हुआ हो.

जगतजीत सिंह के बारे में पढ़ते पढ़ते, एक और बात निकल आई. 1877 में पैदा हुए जगतजीत सिंह ने 1886 में 9 वर्ष की आयू में महारानी हरबँस कौर से पहला विवाह किया. दूसरा विवाह किया 1910 में अनीता देलगादो से और तीसरा विवाह किया चेकोस्लोवाकिया की एउजेनिया ग्रोसूपोवा से जिन्होंने दिल्ली की कुतुब मीनार से कूद कर आत्महत्या की थी.

यह पढ़ कर बहुत अचरज हुआ और अब एउजेनिया ग्रोसूपोवा के बारे में जानने की उत्सुक्ता जागी है. अभी तक अंतरजाल में उनके बारे में कुछ अधिक नहीं खोज पाया हूँ पर शायद चेक भाषा में खोजूँ तो अवश्य मिल जायेगा!

गुरुवार, जून 01, 2006

मोटे, छोटे देश

मेले में कभी कभी जादू के शीशे वाला कमरा भी होता है, किसी शीशे में आप बिल्कुल पतले लगते हैं और किसी में आप के गाल फ़ूल जाते हैं. वर्ल्ड मेप्पर के नक्शे देख कर भी लगता है मानो जादू के शीशों के कमरे में घुस आये हों. यह नक्शे बनाने वाले डेन्नी डोरलिंग और अन्ना बारफोर्ड के बारे में न्यू साईंटिस्ट (New Scientist) में पढ़ा. इन नक्शों को बनाने के लिए उन्होंने मिशिगेन तथा एन आर्बर में शोध करने वाले माईकल गेस्टनर तथा मार्क न्यूमेन के बनायी आलगोरिदम का प्रयोग किया है.



आम नक्शे तो हर देश के धरातल को दिखाते हैं जैसे ऊपर वाले नक्शे में दिखता है, वर्ल्ड मेप्पर के नक्शे देशों को विभिन्न मापदँडों से तोलते हैं, जैसे कि देश की आबादी. देश के धरातल के मुकाबले में जितनी आबादी अधिक होगी, उतना ही वह देश फूल जायेगा, जितनी आबादी कम होगी, उतना ही वह देश पतला दिखेगा. नीचे वाले नक्शे में देखिये, अमरीका, दक्षिण अमरीका के देश कितने पतले हैं और एशिया के देश कितने मोटे.



प्रस्तुत है वर्ल्ड मेप्पर से कुछ अन्य नक्शे. सबसे पहले देशों की पर्यटन से होने वाली आमदनी का नक्शा.



अगले नक्शे में है कोपीराईटिंग और रायल्टीस से होने वाली आमदनी.



इस नक्शे में विभिन्न देशों में दो पहिये से चलने वाले वाहनों की संख्या को देखिये, भारत कितना आगे है यहाँ.



इस नक्शे में देखिये कपड़ों के निर्यात से होने वाली आमदनी को



और यह अंतिम नक्शा है रेलगाड़ी से यात्रा करने वाले लोगों की संख्या पर बना.



और भी बहुत सारे रोचक नक्शे हैं वर्ल्ड मेप्पर पर. सोचने पर मजबूर कर देते हैं न यह नक्शे ?

लोकप्रिय आलेख