बुधवार, नवंबर 29, 2006

आलोचना का अधिकार

फ़्योरेल्लो इटली के बहुत लोकप्रिय कलाकार हैं जिन्हें किसी एक श्रेणी में बाँधना कठिन है. गाना गाने, अभिनय करने, नृत्य करने, दूसरों की नकल उतारने, हँसने हँसाने, सबमें वह माहिर हैं. वह टेलीविजन पर कम ही आते हैं और पिछले दो सालों से प्रतिदिन रेडियो पर एक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं, पर जब भी वह टेलीविजन पर आते हैं, वह कार्यक्रम सफ़ल हो जाता है.



कुछ दिन पहले फ़्योरेल्लो ने टेलीविजन पर एक कार्यक्रम में पोप बेनेदेत्तो की नकल उतारी. अगले दिन वेटिकेन के समाचारपत्र ने और स्वयं पोप के प्रेस सम्पर्क अधिकारी ने इसकी आलोचना की, कि फ़योरेल्लो को पोप, जो कि कैथोलिक धर्म के सबसे उच्च पादरी हैं, उनके बारे में इस तरह की घटिया बातें नहीं करनी चाहिए थीं. एक सप्ताह बाद फ़्योरेल्लो दोबारा टेलीविजन पर आये और इस बार वेटीकेन द्वारा की गयी आलोचना की नकल करके उसका मजाक उड़ाया. वेटीकेन की तरफ़ से इस बार आलोचना और भी कड़ी हुई.

इस घटना पर यहाँ की पत्रिका "इंतरनात्सोनाले" ने सम्पादकीय लिखा है जो मुझे विचारनीय लगा. ज्योवान्नी दे माउरो, इस पत्रिका के सम्पादक लिखते हैं, "इस बात पर चिंता होती है कि यह प्रवृति बढ़ती जा रही है कि किसी भी बात पर मतभेद हो तो चर्च अपना दृष्टिकोण हर हाल में जबदस्ती मनवाना चाहता है, बिना यह सोचे की लोगों को सोचने की स्वतंत्रता है और विभिन्न विचार रख कर भी हम शाँति से साथ रह सकते हैं. अगर आप को वह नकल नहीं अच्छी लगी, तो चैनल बदल लीजिये, या फ़िर टीवी बंद करके कोई किताब पढ़िये. यह जिद करना कि उसे कोई भी न देखे, यह कहाँ तक ठीक है?"

कुछ ऐसा ही झगड़ा इन्ही दिनों में एक अन्य इतालवी टीवी फ़िल्म के बारे में हुआ है जिसमें एक इतालवी लेसबियन युवती अपनी स्पेनिश प्रेमिका से स्पेन में विवाह करती है, क्योंकि स्पेन में अब यह नया कानून है जो समलैंगिक युगलों को विवाह की अनुमति देता है. इस बात पर कुछ दिनों तक समाचार पत्रों पर बहुत बहस हुई कि इस तरह का कार्यक्रम शाम को ऐसे समय नहीं दिखाया जाना चाहिये था जब बच्चे भी टेलीविजन देखते हैं या फ़िर, ऐसी फ़िल्में क्या सरकारी चैनल पर दिखाई जानी चाहिये जो कि देश की संस्कृति के विरुद्ध हैं?

मुझे लगा कि यह बहस बेकार की थी. यहाँ टीवी पर शाम को "केवल व्यस्कों के लिए" वाली फ़िल्में आम दिखाई जाती हैं, बस कोने में लाल बिंदू लगा दिया जाता है ताकि माता पिता को मालूम रहे कि यह फ़िल्म उन्हें छोटे बच्चों को नहीं दिखानी चाहिए. अगर नग्नता, सेक्स और हिंसा के दृष्यों को दिखाया जा सकता है तो दो लेसबियन युवतियों के प्यार को दिखाने में क्या परेशानी है? बहस इस लिए भी बेकार लगी क्योंकि लेसबियन युवतियों के बारे में इस फ़िल्म में सेक्स या चुम्बन जैसी कोई बात नहीं थी, फ़िल्म की कथा थी कि कैसे उनमें से एक युवती अपने पिता को बताये कि वह शादी करने वाली है और किससे शादी करने वाली है, यानि परिवारिक कथा थी.

भारत में इस तरह के विषयों पर कुछ भी बात करना कितना कठिन है और किसी भी धर्म या जाति के लोगों को तोड़ फोड़ करके, डराना धमका कर किताब या कला या फ़िल्म पर रोक लगवाना कितना आम हो रहा है, और पुलिस या कानून कुछ नहीं करते, चुपचाप तमाशा देखते हैं! साथ साथ, बात साँस्कृतिक भेदों की भी है. भारतीय सभ्यता में अपने से बड़ों के बारे में, संत माने जाने वाले लोगों के बारे में, सत्ता में होने वाले राजनीतिक नेताओं के बारे में, धार्मिक नेताओं के बारे में, इत्यादि बहुत से ऐसे सामाजिक बँधन से बने हुए हैं जिनके बारे में आम व्यक्तियों की तरह से बात कर पाना बहुत कठिन है. मुझे इतालवी सभ्यता की यह बात कि कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो, या कितना भी जाना पहचाना नेता या धर्मगुरु हो, उसके बारे में भी बात करना या किसी विषेश बात की आलोचना करना अपराध न माना जाये. हाँ, इस वैचारिक स्वाधीनता का यह अर्थ नहीं हो सकता कि किसी के व्यक्तिगत जीवन के प्रश्न उछाले जायें या फ़िर हिंसा और नफ़रत के लिए भड़काया जाये.

रविवार, नवंबर 26, 2006

सोचने वाले विज्ञापन?

इतालवी कम्पनी बेनेटोन ने ओलिवियेरो तोसकानी तथा डेविड सिम जैसे फोटोग्राफर और नये तरीके से विज्ञापनों को बनाने के लिए प्रसिद्धि पाई है, जिसकी वजह से उनके बहुत सारे विज्ञापन आज आप आधुनिक कला सँग्रहालयों में देख सकते हैं. जर्मनी में फ्रैंकफर्ट के आधुनिक कला सँग्रहालय ने तो एक पूरा हाल ही इन विज्ञापनों को दिया है.

इनमें से बहुत से विज्ञापनों का मुख्य ध्येय जनता को चौंका कर धक्का देना लगता है और इसके लिए इटली में उनकी बहुत आलोचना भी हुई है. यह भी सच है कि इनमें से बहुत से कुछ विज्ञापन इटली या यूरोप के बाहर कोई अन्य देश आम जनता के लिए प्रयोग नहीं करने देता, क्योंकि वहाँ लोग जल्दी भड़क उठते हैं.

जैसे कि कुछ वर्ष पहले के एक विज्ञापन में एक कैथोलिक पादरी एक नन (साध्वी) को चूम रहा है. चूँकि कैथोलिक धर्म के अनुसार पादरी और नन को ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है, इस विज्ञापन को धर्म विरोधी माना गया और बहुत आलोचना हुई और कुछ ही दिनों में इसे हटा दिया गया. पर कोई दँगे फसाद या मार काट नहीं हुई. अगर इस तरह का विज्ञापन कोई हिंदू या इस्लाम या किसी अन्य धर्म के लिए बनाता तो आप सोच सकते हैं कि उसका क्या असर होता?





पर बेनेटोन का कहना है कि सामाजिक समस्याओं को छुपाने से समाज में बदलाव नहीं आता और उनका ध्येय है कि विज्ञापनों के माध्यम से वे समाज का ध्यान बदलते युग की बदलती समस्याओं की ओर खींचें. अपने कपड़ों और फैशन का विज्ञापन करने के साथ साथ उनकी तस्वीरें माफिया का शिकार व्यक्ति, विकलाँग युवक का अकेलापन,एडस से मरणहीन युवक, समलैंगिक युगल, रँगभेद, जैसी समस्याओं पर भी सोचने को मजबूर करती हैं.

बेनेटोन की चालिसवीं वर्षगाँठ पर उनके विज्ञापनों की एक प्रदर्शनी आयोजित की गयी है, उन्हीं विज्ञापनों में से कुछ नमूने यहाँ प्रस्तुत हैं.




























अगर आप चाहें तो यह पूरी प्रदर्शनी अंतर्जाल पर बेनेटोन के पृष्ठ पर देख सकते हैं.

शुक्रवार, नवंबर 17, 2006

अचानक

गुयाना से वापस आ कर थकान हो गयी थी, पर वैसे सब कुछ ठीक था. उस दिन सुबह साईकल पर दूर तक पहाड़ी पर सैर करने गया. फ़िर दोपहर को सोया और शाम को परिवार के साथ बाहर खाना भी खाया और फ़िर पार्क में सैर भी की. अचानक रात को दर्द से नींद खुली, दाहिने कूल्हे में पीड़ा हो रही थी और करवट बदलने में तकलीफ़ होती थी. सुबह होते होते बुरा हाल था. बिस्तर से ठीक से उठा नहीं जाता, न ही कुर्सी पर बैठा जाता. थोड़ी सी हैरानी हुई कि रात तक तो सब ठीक था अचानक कैसे, क्या हो गया. खैर दवा खाई, सोचा अनजाने में कुछ चोट या धक्का लग गया हो जिस पर उस समय बातों में खोये होने से ध्यान न किया हो. दूसरी रात तो और भी कठिन बीती, दर्द घटने के बजाय बढ़ गया था.

मन में विचार आया फ्राँचेस्को का. हम दोनो इकट्ठे दक्षिण भारत में वैलूर के पास कारीगिरी में एक कोर्स में मिले थे और जल्दी ही दोस्ती हो गयी थी. कुछ वर्षों के बाद उससे अफ्रीका में गिनिया बिसाऊ में मुलाकात हुई जहाँ वह अस्पताल में काम करता था और मैं विश्व स्वास्थ्य संस्थान के लिए एक काम से वहाँ गया था. वह मुझे होटल से अपने घर ले गया, बोला मेरे साथ ही रहो. दक्षिण इटली का रहने वाला था और प्यार हुआ आल्बा से जो बोलोनिया की रहने वाली थी, अफ्रीका से लौटा तो कुछ दिन दोनो बोलोनिया रहे. तब बीच में कभी कभी मिलते रहते थे. फ़िर वे दोनो उत्तरी इटली में आउस्ट्रिया के पास एक अस्पताल में काम करने चले गये तो मिलना कम हो गया. दो साल पहले अचानक सुना कि फ्राँचेस्को की हालत बहुत खराब है, हड्डी का कैंसर हुआ है तो दिल धक्क से रह गया. मैं उससे मिलने गया तो उसका चेहरा देख कर समझ नहीं पाया कि क्या कहूँ. बड़ा बेटा नौ साल का छोटी बेटी दो साल की. छः महीने बाद मृत्यु हो गयी.

जब मन में फ्राँचेस्को का विचार आया तो बची खुची नींद भी गयी और दर्द भी बढ़ गया. कुछ कुछ याद था कि उसका कैंसर कुछ इसी तरह दर्द के साथ प्रकट हुआ था. सुबह सुबह अँधेरे में अस्पताल के एमरजैंसी विभाग में जा कर दिखाने का फैसला किया. जब तक एक्सरे वगैरा होते तीन घँटे बीते और उन तीन घँटों में बहुत सी बातें मन में आईं. जाने पोते या पोती का मुख देखने को मिलगा मरने से पहले? अगले सप्ताह एक जगह रोम में बोलने जाना है और दूसरी जगह फ्लोरैंस में, वहाँ कौन जायेगा? दिसंबर में जो भारत में प्राकृतिक चिकित्सा की अंतर्राष्ट्रीय सभा आयोजित कर रहा हूँ, उसे कौन सँभालेगा? जो उपन्यास लिखने का सपना था वह अधूरा रह जायेगा?

रोज की भागादौड़ी में यह तो कभी याद ही नहीं आता कि अचानक एक दिन सब कुछ समाप्त भी हो सकता है. लगता है कि अभी तो बहुत जीवन बाकी है, बहुत कुछ करना है.

जब एक्सरे की रिपोर्ट आई तो देखा कि हड्डी तो ठीक ही दिख रही थी, यानि कि फ्राँचेस्को को जो कैंसर हुआ था, वह तो नहीं दिख रहा था. फ़िर एमरजैंसी के डाक्टर से बात हुई. वह बोला कि कुछ माँसपेशियों की मोच सी लगती है. नहीं, न ही मुझे कोई मोच आई है और न ही कोई चोट लगी है, अवश्य इसमें कोई अन्य वजह है, मैंने कहा, आप अल्ट्रासाऊँड या कुछ और टेस्ट नहीं कर सकते? मुस्कुराने लगा डाक्टर, बोला पाँच दिन तक दवा ले कर देखिये, अगर न ठीक हो तो बाकी टेस्ट भी करवा लेंगे.

दो दिनों में दर्द बहुत कम हो गया है. अब दोबारा अस्पताल में लौट कर जाने और अन्य टेस्ट करवाने का विचार छोड़ दिया है. हाँ, मृत्यु के करीब होने के बारे में जो सोचा था, वह अभी भी मन को कटोचता है. समय बेकार की बातों में नहीं बिताना, जाने कब अचानक सब कुछ अधूरा छोड़ कर जाना पड़ेगा! पर फ़िर मालूम है कि थोड़े से ही दिनों में यह सब बातें भूल जाऊँगा, और वापस रोज रोज की भागदौड़ में यह याद रखने की फुरसत ही नहीं होगी कि एक दिन मरना भी है.

गुरुवार, नवंबर 16, 2006

नदियों का देश

मैं यहाँ विकलाँग व्यक्तियों के लिए हो रहे समुदाय पर आधारित पुनर्स्थापन कायर्क्रम (community based rehabilitation programme) के सिलसिले में आया हूँ. गुयाना में यह मेरी चौथी या पाँचवी यात्रा है. पहले तो हर बार किसी न किसी के साथ आया था और देश बहुत घूमा था पर यहाँ के भूगोल को ठीक से नहीं समझ पाया था, सारा समय हमारी आपस की बातचीत में निकल जाता था. इस बार अकेला होने के कारण, सोचने और समझने का समय अधिक मिला है, इसलिए सड़कों, रास्तों, शहरों के भूगोल को समझना भी अधिक आसान है.

गुयाना का इतिहास भी अनोखा है. दो सौ साल पहले तक यह देश घने जँगलों से भरा था जिसमें यहाँ के आदिम लोग रहते थे, जिन्हें आजकल अमेरंडियन (american Indians) कहते हैं, कोलोम्बस की याद में जो दक्षिण अमरीका की तरफ़ भारत को खोजते आये थे. फ़िर यूरोप की उपनिवेशी ताकतों ने यहाँ अपना सम्राज्य बनाने की लड़ाईयाँ शुरु कर दीं, कभी फ्राँस वाले जीतते, कभी होलैंड वाले तो कभी अंग्रेज़. होलैंड वालों का यहाँ बहुत दिन तक राज रहा जिसके निशान आज भी यहाँ के लकड़ी के मकानों में, नहरों के जाल में, समुद्री दीवारों और शहरों के नामों में मिलते हैं. होलैंड की तरह ही यहाँ की भूमि का स्तर समुद्र के स्तर से नीचा है इसलिए वे लोग अपने देश की सभी तकनीकों को यहाँ पर लागू कर सके. खैर लड़ाईयों से बचने का उपनिवेशी ताकतों ने फैसला किया और देश को तीन हिस्सों में बाँट दिया, एक बना फ्राँससी गुयाना जो आज भी फ्राँस का हिस्सा माना जाता है, दूसरा बना डच गुयाना जिसे आज सूरीनाम के नाम से जानते हैं तीसरा बना अँग्रेज़ी गुयाना जहाँ मैं इन दिनों में आया हूँ.

यहाँ काम करने के लिए उपनिवेशी ताकतें पहले तो अफ्रीका से गुलाम ले कर आयीं, पर धीरे धीरे अफ्रीका से आये लोगों ने विद्रोह करना शुरु कर दिया और आदेश मानने से इन्कार करने लगे. तब गन्ने के खेतों में काम करने के लिए यहाँ भारत से लोग लाये गये. वैसे तो यहाँ भारत के उत्तर और दक्षिण दोनों ही हिस्सों के विभिन्न प्राँतों से लोग लाये गये पर उनमें पश्चिमी उत्तरप्रदेश और दक्षिणी बिहार के भोजपुरी बोलने वाले लोग सबसे अधिक थे. उन्हें पाँच साल के लिए लाया जाता था और कहा जाता था कि पाँच साल बाद उन्हें वापस भारत ले जाया जायेगा, कुछ वैसा ही था जैसा आज कल गल्फ के देशों में लोगों को काम के लिए ले जाया जाता है. यहाँ आने वाले अधिकतर लोग पुरुष थे जबकि महिलाओं को अधिक नहीं लाया गया था क्योकि उनसे खेतों में उतना काम नहीं ले सकते थे. 1838 में यहाँ भारत से पहला जहाज़ आया, और उसके बाद तो जहाजों की कड़ी ही लग गयी जो बीसवीं शताब्दी के पहले भाग तक चलता रहा. करीब दो लाख चालिस हजार भारतीय यहाँ लाये गये.

कहते हैं कि गुयाना शब्द किसी अमेरिंडियन भाषा से है और इसका अर्थ है नदियों का देश. सच में देश नदियों के जाल से घिरा है, पर उत्तर में अटलाँटिक महासागर की ओर आते आते उन छोटी नदियों से तीन प्रमुख नदियाँ बनती हैं - बरबीस, डेमेरारा और एसेकीबो. नदियों के इलावा सारे उत्तरी भाग में नहरों के जाल बिछा है जिनसे गन्ने के खेतों की ओर पानी ले जाया जाता था. बहुत सुंदर और मनोरम लगती हैं यह नहरें पर अगर सोचिये कि किन हालातों में अफ्रीकी और भारतीय गुलामों ने अपने खून पसीने से, बिना किसी मशीनों के धरती का सीना चीर कर इन्हें बनाया होगा तो मन कड़वा हो जाता है.

(गुयाना यात्रा की डायरी से - चाहें तो पूरी डायरी कल्पना पर पढ़ सकते हैं.)






रविवार, अक्तूबर 22, 2006

टिप्पणी चर्चा

कभी कभी मन में आता है कि टिप्पणियों ने क्या बिगाड़ा किसी का जो उनकी कहीं कोई पूछ नहीं है? रो धो कर चिट्ठा चर्चा के बाद अगर जगह बचे तो कभी कभी लिख देते हैं, "आज की टिप्पणी". यानि चिट्ठे में कुछ भी लिखिये, गरिमामय माना जायेगा और टिप्पणी में भगवद् गीता भी दीजिये तो लोग पूछेंगे नहीं.

यानि कि टिप्पणियाँ चिट्ठा जगत का अफ्रीका हैं, किसी कमज़ोर देवता के बच्चे हैं, समाज के हाशिये से बाहर निकाले विकलाँग हैं या फ़िर अनचाही भारतीय बेटियाँ हैं या देवदास की चँद्रमुखी हैं, जो किसी को उनकी भावना की परवाह ही नहीं है?

आज मेरी तरफ़ से बेचारी टिप्पणियों के शोषण के विरुद्ध उठाये आँदोलन में छोटा सा सहयोग, अपने चिट्ठे पर आई कुछ टिप्पणियों की प्रस्तुती से.

मेरे सबसे प्रिय टिप्पणी लिखने वाले हैं श्री सँजय बेंगाणी जी. उनकी टिप्पणियों में सरलता होती है पर खाली चिट्ठे को देख कर जब मायूसी हो रही हो हो तो उनकी टिप्पणियाँ मन को सहारा देती है. प्रस्तुत है उनकी एक सरल टिप्पणी, "शीर्षक से लगा आप किसी जंगल से सचमुच की नील गाय की तस्वीर उतार लाए हैं. हरी घास पर नीली गाय बहुत भली लग रही हैं. कम से कम यातायात को बाधित तो नहीं करती."

धाँसू डायलाग खोजने के मेरे निमंत्रण पर बहुत सी सुंदर टिप्पणियाँ मिली जैसे अमित का मुगलेआज़म फिल्म का डायलाग, "काँटों को मुरझाने का ख़ौफ़ नहीं होता" और अनुराग श्रीवास्तव का लिखना, "यह पता नही किस फ़िल्म का संवाद है लेकिन सोचने पर मजबूर करता है "हम एक लमहे में सारी ज़िंदगी जी लेते हैं।" पक्का गुलज़ार साहब का लिखा हुआ होगा।"

पर पिछले दिनों में मेरी सबसे प्रिय टिप्पणी मिली प्रियँकर से, 'मेघे ढाका तारा' फिल्म की समीक्षा वाले मेरे चिट्ठे के साथ, "ऋत्विक घटक बहुत बेचैन करने वाले फ़िल्मकार हैं. उनकी फ़िल्मों की पृष्ठभूमि में बार-बार ध्वनित होने वाला विस्थापन, मात्र भौतिक विस्थापन नहीं है . वह ऐसा विस्थापन है जो मन के भीतर भी भावनात्मक स्तर पर घटित हो रहा है . बस इसी जगह मुझे वे बहुत बेचैन करते हैं . पीड़ा से एकमेक एक ऐसा कलात्मक आनंद सृजित करते है ऋत्विक घटक कि हम स्तब्ध रह जाते हैं . इसकी तुलना सिर्फ़ बच्चे के जन्म के समय मां को होने वाली प्रसव पीड़ा और बच्चे के जन्म से उपजी चरम आनन्द और आह्लाद की मिलीजुली अनुभूति से ही की जा सकती है"

छूती है न मन को प्रियँकर की बात? अंत में बात बड़ा लम्बा लिखने या छोटा लिखने की नहीं, कभी कभी टिप्पणी के दो वाक्यों में भी मोती छुपे मिलते हैं.
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कल सुबह करीब दो सप्ताह के लिए दक्षिण अमरीका जाना है, वापस आने पर ही फ़िर मुलाकात होगी.

बुधवार, अक्तूबर 18, 2006

धाँसू डायलाग

चीन की राजधानी बेजिंग में एक कुष्ठ रोग का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन था जहाँ मैं विषेश अतिथि के लिए निमंत्रित था और भाषण देना था. सोच रहा था कि नयी क्या बात कहूँ. वैसे तो भाषण पहले से लिख कर भिजवाया था पर मैं उससे संतुष्ट नहीं था. खैर भाषण का समय आया और लिखा हुआ भाषण देने के अंत में कुछ नया जोड़ कहने का विचार अचानक ही आया. बोला, "कुष्ठ रोग से हुई विकलांगता वाले लोग आसमान के तारों की तरह हैं, हैं पर दिन की रोशनी में किसी को दिखते नहीं और हमें इंतज़ार है उस रात के अँधेरे का जब हम भी दिखाई देंगे और कोई हमारे बारे में भी सोचेगा."

भाषण समाप्त हुआ तो बहुत तालियाँ बजीं. उन दिनों मैं एक बहुत बड़ी अंतर्राष्ट्रीय संस्था का अध्यक्ष था और जैसा ऐसे पद पर होने से होता है, बहुत लोग भँवरों की तरह आस पास मँडरा रहे थे. उनमें से अनेक लोगों ने भाषण की तारीफ की, पर उस तरह की तारीफ को एक कान से सुन कर दूसरे से निकल करना ही बेहतर होता है. मैं वह वाक्य कैसा लगा, यह सुनना चाहता था. कुछ समय बाद ब्राजील के एक मित्र ने कहा कि हाँ उसे भाषण के अंत में कही वह बात बहुत पसंद आयी तो बहुत अच्छा लगा. सम्मेलन के कुछ दिन बाद इंदोनेशिया की एक जान पहचान की डाक्टर ने मुझे ईमेल भेजा कि मैं उसे वह अंत में कहा गया वाक्य ठीक से लिख कर भेजूँ क्योंकि वह उसे भी बहुत अच्छा लगा था. यानि कि डायलाग में दम था.

यह तो मैं ही जानता था कि वह वाक्य कहाँ से आया था. मेरा नहीं था, चुराया हुआ था. वह वाक्य था हिंदी की फ़िल्म "ज़िंदगी ज़िदंगी" से जिसमें वहीदा रहमान ने सुनील दत्त से कहा था, "हम वो तारे हें जो दिन की रोशनी में दिखाई नहीं देते पर हम हैं, हम हैं!"

यह अभिप्राय है मेरा एक डायलाग को धाँसू डायलाग कहने का, वह वाक्य जिसका गहरा अर्थ हो और जो सोचने पर मजबूर करे. वैसे तो बहुत से फ़िल्मों के डायलाग होते हैं जो जनता को बहुत भाते हैं जैसे "दीवार" में शशि कपूर का कहना, "मेरे पास माँ है", या शोले में संजीव कुमार, अमजद खान और धरमेंद्र के कई डायलाग, जैसे "अब तेरा क्या होगा कालिया?", पर मुझे वह सही मायनो में धाँसू डायलाग नहीं लगते क्योंकि फ़िल्म के संदर्भ से बाहर उनका कोई विषेश अर्थ नहीं बनता.

क्या आप बता सकते हैं अपना कोई ऐसा प्रिय डायलाग जिसे भूल नहीं पाये या जिसका आप के लिए कोई विषेश अर्थ हो?

रविवार, अक्तूबर 15, 2006

बादलों में छिपा तारा

ऋत्विक घटक को सत्यजित राय और मृणाल सेन के साथ बँगला सिनेमा के सबसे उत्तम फिल्मकारों में गिना जाता है. हृषिकेश मुखर्जी की "मुसाफ़िर" और बिमल राय की "मधुमति" जैसी फ़िल्मों की पटकथा लिखने वाले ऋत्विक घटक को अपनी बनाई फ़िल्मों के लिए अपने जीवन में आम जनता की सफलता नहीं मिली पर आज उनकी फ़िल्में सिनेमा परखने वालों में "कल्ट" मानी जाती हैं. ढाका में पैदा हुए ऋत्विक को बँगाल का विभाजन कलकत्ता ले आया पर अपना देस छोड़ने का दर्द उनकी फ़िल्मों में स्पष्ट झलकता है. उनकी मृत्यु 1976 में हुई जब वह केवल ५१ वर्ष के थे.

"मेघे ढाका तारा", यानि "बादलों से ढका तारा" उन्होंने 1960 में बनाई थी, तीन फ़िल्मों की पहली कड़ी के रूप में. इस ट्राईलोजी की अन्य फ़िल्में थीं 1961 की "कोमल गँधार" और 1965 की "सुबर्नरेखा".




कथासारः फ़िल्म प्रारम्भ होती है एक विशालकाय भव्य वृक्ष से, जिसके नीचे से गुज़र कर एक छोटी सी आकृति धीरे धीरे आगे आती है. यह आकृति है नीता (सुप्रिया चौधरी), कोलिज में एम.ए. पढ़ने वाली युवती जो बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर घर वापस आ रही है. झील के पास घास पर बैठे तान लगाते युवक (अनिल चैटर्जी) को देख कर उसके हँसी आ जाती है. वह युवक है शँकर, नीता का बड़ा भाई जो शास्त्रीय सँगीत सीख रहा है और गायक बनने के सपने देखता है. घर पहुँचते पहुँचते, नीता की चप्पल टूट जाती है, किराने वाले की दुकान के सामने से निकलती है तो दुकानदार उसे याद दिलाता है कि उनके उधार को दो महीने हो रहे हैं और उसे अपने पैसों का इंतज़ार है.

घर पर उसकी छोटी बहन गीता (गीता घटक) उसे एक चिट्ठी देती है. चिट्ठी है नीता को चाहने वाले युवक सनत (निरंजन राय) की. सनत चिट्ठी में कहता है, तुम मेरा बादलों में छिपा तारा हो, पर यह कठिनाईयों के बादल एक दिन अवश्य छँट जायेंगे और तब तुम अपनी रोशनी को ले कर चमक उठोगी.
नीता का परिवार बँगलादेश से शरणार्थी बन कर आया है. वर्डवर्थ और यीटस् की कविताँए पढ़ने वाले नीता के पिता बँगला भ्रद्रलोक के प्रतीक हैं जिसके लिए ज्ञान, कविता, सुंदरता जीवन के प्रमुख मुल्य हैं पर घर की गरीबी उस भ्रद्रता के सपनों को यथार्थ से टकराने के लिए मजबूर करती है.

शँकर को सब लोग भला बुरा कहते हें क्योंकि बड़ा बेटा हो कर भी वह कमा नहीं रहा, बल्कि बहन के बल पर जी रहा है, केवल नीता ही भाई को साँत्वना देती है कि एक दिन उसके सपने अवश्य सच होंगे. सनत भौतिकी में शोध कर रहा है और उसे जब पैसा चाहिये होता है तो वह भी नीता का ही दरवाज़ा खटखटाता है. ऐसे में जब नीता के पिता दुर्घटना में टाँग से बेबस हो जाते हैं तो नीता के पास अन्य कोई रास्ता नहीं बचता सिवाय पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने को.

सनत उससे शादी को कहता है पर नीता कहती है कि उसे इंतज़ार करना होगा, वह अपने छोटे भाई बहन को इस तरह नहीं छोड़ सकती. इस डर से कि नीता विवाह करके उनके घर को न छोड़ जाये, नीता की माँ छोटी बेटी गीता को प्रोत्साहन देती है कि वह बड़ी बहन के प्रेमी को रिझाए और सनत शोध कार्य छोड़ कर नौकरी कर लेता है और गीता से विवाह कर लेता है.

नीता चुपचाप आँसू पी कर रह जाती है, केवल शँकर उसका दुख समझता है. धीरे धीरे नीता का अपना कुछ नहीं रहता, घर के लोगों के लिए वह केवल पैसा कमाने वाली मशीन है. सबसे दुतकारा हुआ शँकर, नीता को पिसता देख कर घर छोड़ कर चला जाता है.

जब नीता को मालूम चलता है कि उसे यक्ष्मा (टीबी) है तो वह किससे कहे कि वह बीमार है, उसे समझ नहीं आता. सबसे छोटे भाई को काम पर दुर्घटना से चोट आई है, उसका इलाज करवाना है, उसके लिए खून का इंतजाम करना है. उधर नौकरी और पत्नी से असँतुष्ट, सनत नीता से सुहानुभूति चाहता है पर नीता पीछे हट जाती है. घर में किसी को उसका रोग की छूत न लगे, इसलिए अपना बिस्तर ले कर बाहर की प्रसव कोठरी में रहने चली जाती है. जब खाँसी में खून आने लगता है तो वह उसे भी छुपा लेती है.

बँबई में शँकर को गायक के रूप में सफलता मिली है, वह प्रसिद्ध हो कर घर लौटता है तो सभी उसे घेर लेते हैं. किसी को मोती का हार चाहिये और किसी को दो तल्ले का मकान. शँकर पूछता है कि खोकी यानि नीता कहाँ है और उसे खोजता कोठरी में पहुँचता है. तकिये के नीचे नीता को कुछ छिपाता देख कर शँकर कहता है कि तुम्हारी अभी भी अपने प्रेम पत्र छुपाने की आदत नहीं गयी और आगे बढ़ कर तकिये के नीचे से कपड़ा खींच लेता है और उस पर खून के धब्बे देख कर स्तब्ध रह जाता है.

शँकर नीता को शिलाँग में एक सेनोटोरियम में इलाज के लिए दाखिल करवा देता है. कुछ समय बीत जाता है. शँकर बहन से मिलने आता है. बहन बाहर बैठी पहाड़ों को देख रही है, उसके हाथ में वही पुरानी सनत की चिट्ठी है. भाई को देख कर नीता चिट्ठी फाड़ देती है, "मुझे बादलों के पीछे छुपा तारा नहीं बनना, मैं जीना चाहती हूँ" कह कर भाई से लिपट जाती है.

टिप्पणीः आजकल की अधिकतर फ़िल्में अक्सर मैं एक बार में नहीं देख पाता हूँ, मन ऊब जाता है पर "मेघे ढाका तारा" देखते हुए समय कैसे बीता मालूम ही नहीं चला. 46 साल पहले बनी फ़िल्म पुरानी हो कर भी, कहानी सुनाने के ढँग से पुरानी नहीं लगती. यह बात नहीं कि फ़िल्म में कमज़ोरियाँ नहीं, पर पूरी फ़िल्म एक कविता सी लगती है.

पहले बात करें मुझे लगने वाली कमियों की. फ़िल्म की पटकथा कई कई जगह बनावटी लगती है. सोचने पर लगता है कि फ़िल्म के तीन प्रमुख स्त्री पात्र, सच्ची और त्यागमयी ममता वाली नीता, अपना स्वार्थ, अपनी खुशी देखने वाली, साज सिँगार की शौकीन गीता और कर्कश माँ, स्त्री के तीन विभिन्न रूप दिखाने का बहाना हों, सचमुच के व्यक्ति नहीं. नीता के पिता का भाग निभाने वाला कलाकार करीब से लिए दृष्यों में कम उम्र का लगता है और नीता और शँकर जैसे बच्चों का पिता नहीं लगता. उसका चरित्र भी कुछ नाटकीय सा है.

नीता का इस तरह सब कुछ चुपचाप सहना, उतना बीमार होने पर किसी को कुछ न कहना और बढ़ते रोग के बावजूद काम करती रहती है, अविश्वासनीय सा लगता है. फ़िल्म के अंत में नीता की चीख भी कुछ बनावटी सी लगती है, हालाँकि उसका प्रतीकात्मक महत्व समझ में आता है.

पर यह कमियाँ फ़िल्म की सुंदरता को कम नहीं करतीं. नीता के भाग में सुप्रिया चौधरी बहुत अच्छी हैं. मुझे शँकर के भाग में अनिल चैटर्जी भी बहुत अच्छे लगे. (नीचे तस्वीर में अनिल चैटर्जी एवं सुप्रिया चौधरी) वास्तव में सभी कलाकार, चँदा माँगने वाले युवक से ले कर, सड़क पर चलती नीता जैसी युवती तक और किराने की दुकान के दुकानदार तक, सभी कलाकार असली लगते हैं, कलाकार नहीं.




फ़िल्म की फोटोग्राफी, दृष्यों की अँधेरे और रोशनी के प्रभाव, बहुत सुंदर हैं. अगर आप शास्त्रीय संगीत को पसंद करते हैं तो फ़िल्म के मंत्रमुग्ध करने वाले संगीत को भूल नहीं पायेंगे. जिस तरह बिना कहे ही शँकर नीता के जीवन में होने वाले भूचाल को समझता है वह बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया है.
भावात्मक दृष्टी से फ़िल्म बहुत नियँत्रित है और बजाय डायलागबाजी या रोने धोने के, बिल्कुल सीधे साधे ढँग से अपनी बात कहती है और यही फ़िल्म की शक्ति है. मेरा सबसे प्रिय दृष्य वह है जब सकत और गीता की शादी होने वाली है और अँधेरे कमरे में शादी में गाने के लिए नीता अपने भाई से रबीँद्र सँगीत का कोई गीत सिखाने के लिए कहती है.

नीता का अंत में कहना कि वह प्राश्यचित कर रही है, जब गलत हो रहा था उस पर कुछ न कहने और सब कुछ चुपचाप सहने के पाप का प्राश्यचित, आत्मीय रिश्तों में छुपे स्वार्थ पर सोचने को मजबूर करता है. पर साथ ही समाज में नारी और पुरुष के विभिन्न रुपौं का प्रश्न भी उठाता है. अगर नीता बेटा होती तो कहानी क्या होती? कि उस पर परिवार को चलाने की जिम्मेदारी है पर इसका यह अर्थ नहीं कि वह विवाह नहीं कर सकता, तो सकत जैसे समझदार प्रेमी के होते नीता वह क्यों नहीं कर पाती?

शायद शोषण यह नहीं कि नीता नारी है, शोषण यह है कि नीता घर की कमाने वाली हो कर भी परिवार में सम्मान और निर्णय लेने वाला पुत्र का स्थान नहीं पाती बल्कि अपने लिए केवल बाहर की अँधेरी कोठरी पाती है?

फ़िल्म के अंत में शँकर का सड़क पर नीता जैसी एक अन्य लड़की को टूटी चप्पल पहन कर जाते देखता है जो फ़िल्म के कथानक की नीता को उस जैसी शरणार्थी और गरीब परिवारों में रहने वाली सभी युवतियों के शोषण की कहानी बना देती है.

मुझे मालूम है कि कुछ दिनों के बाद यह फ़िल्म अवश्य दुबारा देखूँगा, और जितनी बार देखूँगा कोई और नई बात दिखाई देगी जो पहली बार नहीं दिखी थी.

गुरुवार, अक्तूबर 12, 2006

हमारे बच्चों की धरती

शाम को टेलीविजन देख रहे थे जब एक नया विज्ञापन देखा, अमरीकी केलिफ्रोनिया के आलुबुखारों को बेचने का. विज्ञापन दिखाता है कि हर आलुबुखारा एक चमकीली पन्नी में बंद होगा जैसे बच्चों की टाफी या चाकलेट बेचते हैं. मुझे लगा कि यह विज्ञापन आज की "कूड़ा बढ़ाओ" संस्कृति का ही एक हिस्सा है.

कुछ भी खरीदिये, तो वह अपने साथ डिब्बे, पोलीफोम, कागज़, प्लास्टिक इत्यादि के साथ आता है, जो सीधा कूड़े में जाते हैं. अधिकाँश खरीदी हुई वस्तुएँ भी कुछ समय के बाद कूड़े में ही जाती हैं. भारत में बिगड़ा टेलीविज़न या रेडियो ठीक करवाना अभी भी हो सकता है, पर यहाँ यूरोप में ठीक करवाने की कीमत इतनी लगती है कि यह कठिन हो जाता है.

हमारा सत्तर यूरो का खरीदा सीडी प्लेयर जब खराब हुआ तो मैं उसे दुकान पर ठीक करवाने ले गया. ठीक करवाने के तीस यूरो का बिल जब भरा तो सोचा कि अगली बार कुछ खराबी होगी तो नया लेना ही बेहतर होगा. शाम को कुत्ते के साथ जब सैर को निकलता हूँ तो सड़क के किनारे बने कूड़ा इक्ट्ठा करने वाले डिब्बों के साथ साथ टीवी, फ्रिज, अलमारियाँ, रेडियो, गद्दे, सोफे, सब मिल सकते हैं.

यह कूड़ा कहाँ डालें नगरपालिकाएँ? कोई शहर या नगरपालिका अपने इलाके में कूड़ा जमा करने वाली खान नहीं रखना चाहती.
कहते हैं कि कूड़े से आसपास की सारी धरती का प्रदूषण होता है. हमारे शहर के बाहर की ओर जहाँ लोग नहीं रहते, कूड़े की पहाड़ियाँ बना रहे हैं. जब बहुत ऊँची हो जाती हैं तब उन्हें मिट्टी से ढ़क कर, ऊपर घास लगा कर, सुंदर बना दिया जाता है.

एक तरफ कूड़ा है और दूसरी ओर प्रदूषण. सड़कों पर कारों की भीड़ कम नहीं होती. सुबह सुबह काम पर जाते समय एक के पीछे दूसरी कार लगे देख कर, हर एक कार में देर होने के गुस्से से मुँह फुलाये लोगों के तनावपूर्ण चेहरे देखने को मिलते हैं, पर टेलीविजन और अखबारें यह बात करती हैं कि कारों की बिक्री कम हो गयी है, अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है और सरकार नयी स्कीम निकालती है कि नयी कार खरीदेंगे तो जाने कितनी छूट मिलेगी और फायदा यह कि आप की पुरानी कार सीधा कारों के शमशानघाट पर बिना खर्चे के ले जाई जायेगी.

वही सरकार चिंता व्यक्त करती है कि अरे गर्मी बहुत बढ़ रही है, समुद्र में जल का स्तर ऊपर उठ रहा है, जाने कितने द्वीप पानी में डूब जायेंगे, जाने कितने तूफान आयेंगे, जाने कितने रेगिस्तान बढ़ते जायेंगे और उर्वर धरती को खा जायेंगे. अपने बेचने, खरीदने और फैंकने को कम करने की भी कोई सलाह देता है. कोई मेरे जैसा नासमझ सोचता है कि साइकल पर काम पर जा कर और कार का उपयोग कम करके ही दुनिया को हम बचा सकते हैं.

चीन और भारत में जो विकास हो रहा है, उससे तो और भी खतरा महसूस हो रहा है सबको. अगर भारत और चीन भी विकसित देशों की तरह धरती के बलात्कार में जुट जायेंगे तो दुनिया कहाँ जायेगी, पूछते हैं और सलाह देते हैं कि इन्हें विकास के नये तरीके खोजने होंगे. अपने बच्चों के लिए कल के जीवन की रक्षा करनी है हमें, कहते हैं.

आप देते रहिये सलाह, सभाएँ करिये और नयी नयी योजनाएँ बनाईये. कुछ भी नयी तकनीक जिससे प्रदूषण कम हो सकता है उसे बाँटने के लिए हमें खूब मुनाफा चाहिये, यहाँ तक कि लाखों की जान बचाने वाली दवाईयों को भी हम बिना करोड़ों के लाभ के बिना नहीं बेचना चाहते. सारा जीवन का सबसे बड़ा मंत्र जब व्यापार है और अगर यहाँ का मानव सिर्फ अपना आज का, अभी का सुख देख पाता है, तो भारत और चीन के मानव भी उस जैसे ही हैं, और वहाँ भी बेचने वाले बिक्री बढ़ाने के नये नये तरीके खोज रहे हैं. अगर विकास का यही अर्थ दिया है कि अधिक से अधिक बेचो और फैंकों तो फ़िर चिंता कैसी, सभी को विकसित होने दीजिये. जब साथ साथ ही डूबना है तो हम भी क्यों न मजे ले कर डूबें?
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आज दो तस्वीरें मिस्र की राजधानी कैरो में अल अजहर बाग से जो कि एक पुराने कूड़े के ढेर पर ही बनाया गया है.





सोमवार, अक्तूबर 02, 2006

अंतहीन गणित राग


प्रभाकर पाण्डेय जी का नौ का महिमागान पढ़ा जिसमें उन्होंने राम और सीता जी के नामों के पीछे छुपे अंको का नौ से रिश्ता बताया है तो सोच रहा था कि किस भाषा की वर्णमाला के हिसाब से अंक देखे जाते हैं? अगर हिंदी वर्णमाला में "क" एक के बराबर है तो अंग्रेज़ी के हिसाब से हुआ बारह, यानि तीन. और इतालवी वर्णमाला तो अंग्रेज़ी से भिन्न है. तो यह न्यूमोरोलोजिस्ट यानि अंकज्ञान विषेशज्ञ किस तरह निर्णय लेते हैं कि किस भाषा में अंकों की गिनती करें?

मुझे स्वयं विश्वास नहीं होता कि एकता कपूर को एकककता ककपूर करने से या विवेक को विवैक लिखने से हमारी नियती बदल सकती है. पर शायद मुसीबत में पड़े लोगों को कोई सहारा चाहिए और जिसमें विश्वास हो उसके लिए नाम के अक्षर बदलने से ही शायद किस्मत बदल जाये!

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पर प्रभाकर जी जैसे लोग जिन्हें गणित के अंकों में कविता दिख सकती है, उनसे कुछ जलन होती है. अपने को तो गणित का सवाल पूछिये तो तारे दिखने लगते हैं.

रामानुज जी कहते थे कि समस्त दुनिया में ही गणित छुपा है. यह बात अंतर्जाल और कम्प्यूटरों को जानने से समझ आती है कि यह कम्प्यूटर पटल पर दिखने वाले शब्द, तस्वीरें, संगीत, फिल्म, सब "शून्य" और "एक" का खेल हैं.

शायद यह मानव जीवन भी भगवान का रचा अंतर्जाल ही है जिसमें हर जीवित अजीवित वस्तु कणुओं और अणुओं का खेल है जिसके पीछे छिपी साँख्यकी मायाजाल में खोई है. शायद एक दिन अंतर्जाल पर दिन रात चलने वाले अंतहीन खेलों को भी यही भ्रम होगा कि उनमें भी जीवन है और हम उनके जीवन के लिए भगवान होंगे?

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बारह साल पहले मेरे एक मित्र ने मुझे एक किताब भेंट दी, डगलास आर होफश्टाटेर (Douglas R. Hofstadter) की लिखी हुई जिसका नाम है "गूडल, एशर, बाखः एक अंतहीन तेजस्वी माला" (Gödel, Escher, Bach: an eternal golden braid). इसमें गूडल के गणित प्रमेय (Theorem), बाख के संगीत और एशर के चित्रों के अंतर्निहित समानताओं का विश्लेषण है और यह समझाया गया कि किस तरह संगीत, चित्रकला और गणित एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. स्वयं सारी पुस्तक का ढाँचा बाख की सिमफनी "मुसिकालिशेस ओपफेर" पर आधारित है. इस एक पुस्तक ने होफस्टाटेर को प्रसिद्ध कर दिया.

बहुत बार इस पुस्तक को पढ़ना शुरु किया पर कभी सौ कभी दो सौ पन्ने तक पढ़ कर थक कर उसे रख दिया. कुछ समझ में नहीं आता. एक एक वाक्य को कई बार पढ़ कर भी उसका अर्थ नहीं समझ पाता. तब से यह पुस्तक उन रातों के लिए रखी है जब नींद न आये. दो पन्ने पढ़ कर तुरंत नींद आ जाती है.

खैर आप देखिये एशर के इन चित्रों को और समझने की कोशिश करिये कि सीढ़ियाँ कहाँ जा रही हैं या फ़िर कौन से रंग की मछलियाँ किस तरफ जा रही हैं!





गुरुवार, सितंबर 28, 2006

रक्त की गंध

केनेडा की पत्रिका वालरस में फेरनांद मेसोनिये का साक्षात्कार निकला है जिन्हें अलजीरिया का अंतिम जल्लाद कहा जाता है और जिन्होंने करीब 200 लोगों को मौत की सजा दी थी. वह मृत्युदँड प्राप्त कैदियों को अपने पिता के साथ गिल्योटीन से मारने का काम करते थे. गिल्योटीन में एक भारी चाकू ऊँचाई से कैदी की गर्दन पर गिराया जाता है ताकि एक ही झटके में सिर धड़ से अलग हो जाये.

इस साक्षात्कार में फेरनंद कहते हैं, "खून निकलता है? अरे बहुत खून निकलता है, यह कोई बिजली का करंट देनी वाली कुर्सी नहीं है! पाँच से सात लिटर तक खून निकलता है जब गर्दन कटती है. खून के फुव्वहारे छूटते हैं, दो तीन मीटर दूर तक धार जाकर गिरती है. मानव खून की गंध विषेश होती है, जैसे घोड़े के खून की होती है. घोड़े काटने वाले कसाई के शरीर से जो गंध आती है वह अन्य कसाईयों से नहीं आती. मानव खून को भी तुरंत धोना पड़ता है, नहीं तो बदबू आने लगे. हम गिल्योटीन को भी धोते हैं पर उसपर साबुन नहीं लगाते."

जबकि उनके पिता का काम था ऊपर टँगे चाकू को छोड़ना, फेरनांद का काम था कैदी का सिर को कानों से खींच कर रखना, ताकि वह सिर पीछे न खींच सके. हालाँकि कैदियों के गर्दन पर लकड़ी का पट्टा रखा जाता है जिससे वह सिर पीछे न खींच सकें, फ़िर भी कैदी कितना ही ज़ोर लगा कर अंतिम क्षण में सिर को पीछे खींचने की कोशिश करते हैं. फेरनंद कहते हैं, "अगर ठीक जगह पर चाकू न गिरे तो सिर धड़ से अलग नहीं होता और उसे फ़िर हाथ से चाकू ले कर काटना पड़ता है."

सच कहिये, यह सब पढ़ते हुए आप का मन काँप जाता है या नहीं? मेरा अवश्य काँपा, झुरझुरी सी आई, जी कच्चा हुआ. शायद बीते समय में इन्सान को मार काट और खूण को करीब से देखना मिलता था पर यहाँ तो सुपरमार्किट में कटी मुर्गियाँ और माँस भी प्लास्टिक की पारदर्शी थैलियों में यूँ रखे होते हैं जिसमें एक बूँद खून नहीं दिखता मानो ऐसे ही पैदा होते हुए हों. एक बूँद खून देखने को मिल जाये तो सबकी तबियत खराब होने लगती है. खून दिखता है तो फिल्म में या वीडियोगेम पर, जहाँ वह सच्चा नहीं लगता.

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