बुधवार, जनवरी 03, 2007

निष्पक्ष पत्रकारिता

एनडीटीवी की जानी मानी पत्रकार सुश्री बरखा दत्त ने जब निष्पक्ष पत्रकारिता को मीडिया द्वारा बनाया मिथिक कहा तो बहस शुरु हो गयी. अपनी विवेचना में उन्होंने कहा "निष्पक्षता का सिद्धांत समाचारों में भावनात्मक तत्वों को बढ़ाने के विरुद्ध बात करता है. एक फैशन सा हो गया है कि टेलीविजन पत्रकारों की अतीनाटकीयता की आलोचना की जाये. पर क्या भारतवासी तमिलनाडू के ग़रीब मछुआरों की दुर्दशा को समझ पाते अगर उनकी कहानियों को व्यक्तिगत रुप दे कर न प्रस्तुत किया जाता, जिससे उन्हें जीते जागते लोग महसूस किया गया बजाय कि केवल आँकड़ों की तरह देखा जाता? और यह बताईये कि राहत की राह देखते गावों में जहाँ छोटे बच्चों की सामूहिक कब्रें थीं, उसके बारे में किस तरह से निष्पक्ष रहा जा सकता है?"

मैं सुश्री दत्त की बात से सहमत हुँ. ईराक युद्ध में अमरीकी तथा अँग्रेज सिपाहियों के साथ उनकी फौज का हिस्सा बन कर जाने वाले पत्रकारों से क्या हमें निष्पक्षता की कोई उम्मीद हो सकती थी? सच तो यह है कि हर बात के बहुत से पहलू होते हैं और पत्रकार किसी न किसी पहलू को ही अधिक ज़ोर देते हैं जो उनके व्यक्तिगत सोचने के तरीके पर ही निर्भर होता है. बहुत बार देशद्रोही होने का डर पत्रकारों की कलम को अपने आप ही समाचार दबाने या छुपाने के लिए प्रभाव डालता है.

तो समाचार कौन सा सच बोलते हैं और किस पर विश्वास किया जाना चाहिये?

एमरजैंसी के दौरान या कुछ बड़ी घटनाओं पर भारतीय समाचार पत्रों और संचार माध्यमों के आत्मसैंसरशिप को सरकारी मान्यता मिली थी, जब इंदिरा गाँधी की मृत्यु पर स्वयं राजीव गाँधी ने बताया था कि सही बात जानने के लिए उन्होंने बीबीसी रेडियों को सुनना चाहा था क्योंकि आल इंडिया रेडियों की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता था! क्या अनेक टेलीविजन समाचार चैनलों के आने से स्थिति कुछ बदली है?

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समाचारों की विश्वसनीयता के बारे में बीबीसी का नाम प्रसिद्ध था पर पिछले कुछ वर्षों में इस विश्वसनीयता में कमी आई है. अमरीकी सीएनएन ने तो ईराक युद्ध के दौरान, कम से कम मेरे लिए तो, अपनी सारी विश्वसनीयता खो दी है. हालाँकि यूरोन्यूज़ भी अंतर्राष्ट्रीय समाचार चैनल है पर उसका प्रभाव बहुत कम रहा है और प्रश्न उठता है कि कैसे इन समाचारों को जाना जाये?

पर आज नये नये अंतर्राष्ट्रीय टेलीविजन चैनल आ रहे हैं जिनसे बीबीसी या सीएनएन का अधिपत्य खतरे में है. मध्यपूर्व में कतार से प्रसारित होने वाला अलज़रीरा चैनल अब अँग्रेजी में आने लगा है जो अरबी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है. रूस ने रशिया टुडे के नाम से अँग्रेजी चैनल शुरु किया है और फ्राँस ने फ्राँस 24 के नाम से नया समाचार चैनल फ्राँसिसी और अँग्रेजी में प्रारम्भ किया है. यह सोचना कि इनमें से कोई एक चैनल "सच" बतायेगी गलत होगा पर विभिन्न सूत्रों से एक ही बात के विभिन्न पहलू सुनने को मिल सकते हैं. शायद हमें वही सच लगेगा जिसकी बात हमारे अपने दृष्टिकोण से मिलती होगी!

चिट्ठे और अंतर्जाल एक अन्य माध्यम है जो हमारे हाथों में है, जिससे हम अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सकते हैं और अंतर्राष्ट्रीय समाचारों की बातों को अपनी आँखों देखी से नकार सकते हैं. डिजिटल फ़ोटोग्राफ़ी की बढ़ती आसानी हमारी बात को विश्वासनीयता दे सकती है, हालाँकि उसमे सिर का पैर दिखाना संभव है पर अंत में सच सामने आ ही जाता है.

यूट्यूब जैसी सेवाएँ हममें से हर एक को टेलीविजन पत्रकार बनने का मौका देती हैं, कम से कम उनको जिनके पास तकनीकी जानकारी और अंतर्जाल तक पहुँचने के माध्यम हैं. इन सबसे सारी समस्याएँ समाप्त नहीं होगीं पर कुछ नये विकल्प तो बनेंगे ही.

टिप्पणीः यह चिट्ठा पहले कुछ गलतियों के साथ ही छाप दिया था, फ़िर इसे ओराँगो नाम के प्रोग्राम से हिंदी वर्तनी की जाँच कर के ठीक किया है. क्या आप में से किसी को ओराँगो का अनुभव है? क्या सोचते हैं इसके बारे में?

गुरुवार, दिसंबर 07, 2006

बम और जहाज़

जितनी बार टेलीविजन पर या अखबारों में लंदन में हुए रुसी जासूस के खून की बात पढ़ता हूँ, थोड़ी सी खीझ आती है. हमारे कैंची या क्रीम और शेम्पू ले जाने पर पिछले सालों से हवाई जहाज़ों पर सुरक्षा जाँच के बहाने इतने चक्कर होते हैं और दूसरी ओर ब्रिटिश एयरवेस के कुछ जहाज़ों में रेडियोएक्टिविटी (radioactivity) पायी गयी है, जिसका असर करीब 36 हजार यात्रियों पर पड़ सकता है, यह पढ़ कर सोचता हूँ कि क्या सुरक्षा जाँच करने करवाने का क्या फ़ायदा!

यह बात भी नहीं कि हर हवाई अड्डे के सुरक्षा जाँच नियम एक जैसे हों, और उसी हवाई अड्डे से अमरीका या इँग्लैंड जाने वाले जहाज़ के यात्रियों की जाँच एक तरीके से होती है और अन्य जगह जाने वाले यात्रयों की जाँच दूसरे तरीके से. तो क्या ले जा सकते हें या क्या नहीं, यह मालूम नहीं चलता.

अँग्रेजी पत्रिका इकोनोमिस्ट (Economist) में एक अन्य समाचार पढ़ा था. हवाई जहाज में मोबाईल टेलीफ़ोन के प्रयोग न कर पाने का. हमेशा कहते हैं कि अगर आप जहाज में टेलीफोन का प्रयोग करें तो जहाज के इलेक्ट्रोनिक उपकरणों में खराबी आ सकती है. यह सुन कर मन में डर सा आ जाता है और अगर कोई जहाज़ में मोबोईल का उपयोग करने की कोशिश करे तो उसके आस पास वाले यात्री गुस्से से उसके पीछे पड़ जाते हैं कि क्यों हमारी जान को खतरे में डाल रहे हो! इकोनोमिस्ट के अनुसार, मोबाईल से जहाज़ के उपकरणों को कुछ नहीं होता बल्कि जिस जगह के ऊपर से जहाज़ गुजर रहा है वहाँ के मोबाईल जाल में दखलअंदाज़ी होती है. उनके अनुसार जहाज़ कम्पनियाँ मोबाईल जालों से समझोता कर रही हैं और अगले साल तक यह फैसला हो जायेगा कि कौन इस तरह के मोबाईल प्रयोग से कितना कमायेगा, तब हवाईजहाज़ों यात्रा के दौरान मोबाईल का प्रयोग करना आसान हो जायेगा.

यानि कि सारी बात पैसे के बाँटने की थी?

इस लेख को पढ़ कर मुझे थोड़ा सा दुख भी हुआ. रेलगाड़ी में सफर करते समय मोबाईल पर बातचीत करने वालों से बचना मुश्किल है. कुछ लोग तो अपना कच्चा पक्का सारा चिट्ठा लोगों के सामने बघार देते हैं, और एक से बात करना बँद करते हें तो दूसरे से शुरु कर देते है. हवाईजहाज़ में अब तक इस झँझट से शाँती थी, अगर यह बात सच है तो वह शाँती भी जाती रहेगी.
****

नोर्वे ने अपील की है कि गुच्छे वाले बमों (cluster bombs) का प्रयोग निषेध कर दिया जाये. फरवरी 2007 में नोर्वे ने एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया है जिसका विषय होगा कि गुच्छे वाले बमों का बनाना और प्रयोग करना अंतर्राष्ट्रीय कानून में गैरकानूनी घोषित किया जाये जैसे कि मानवघाती माईनस् (antihuman mines) के साथ कुछ वर्ष पहले किया गया था.

मेरा बस चले तो दुनिया के सारे हथियार बनाने बंद हो जायें. कितनी बार यात्राओं के दौरान युद्ध में और युद्ध के बाद बचे हुए बमों से मरने वाले और घायल हो कर हाथ पाँव खोने वाले लोगों को देखा है. जब मानवघाती माईनस् को निषेध करने की बात चली थी तो मैं उनसे पूरी तरह सहमत था.

पर अहिँसावादी निति, सभी हथियार न बनाने की नीति को अव्याव्हारिक माना जाता है. यह मान सकते हें कि युद्ध में भाग लेने वाला सिपाही जब तनख्वाह लेता है तो यह भी मानता है कि मैं अपनी तरफ़ वालों के लिए मरने, कैदी होने, घायल होने के लिए तैयार हूँ. इसलिए युद्ध में उसे मारने के लिए कुछ भी हथियारों का प्रयोग किया जाये, शायद जायज होगा.

पर जब मालूम हो कि हथियार किसी सिपाही को मारने के लिए नहीं हों बल्कि सारे क्षेत्र को असुरक्षित करने के लिए हों जिनसे युद्ध के बाद भी आम लोग, स्त्री, पुरुष, बच्चे, जिन्होंने युद्ध में भाग लेने की तनख्वाह नहीं ली, वे भी कई सालों तक मरते रहेंगे, तो उन हथियारों का प्रयोग करने वाला जानता है कि वह केवल सिपाहियों को नहीं मार रहा, बल्कि आम लोगों को मार रहा है और इस तरह का उपयोग किसी भी हालत में नैतिक नहीं कहा जा सकता.

मानवघाती माईनस् की यही बात थी. ज़मीन के नीचे दबा दो, जब ऊपर से कोई गुजरे तो बम फट जाये. अँगोला, मोजामबीक, लाओस जैसे देशों में युद्धों के समाप्त होने के दस साल बाद तक इनसे लोग मरते और घायल होते रहे.

वैसी ही बात गुच्छे वाले बमों की है. एक बम के भीतर छोटे छोटे कई बम होते हैं, गिरने पर उनमें से बहुत से नहीं फटते, और युद्ध समाप्त होने के बाद जान लेते रहते हैं. द्वितीय महायुद्ध में इनका आविष्कार किया गया था और अमरीका और रुस जैसे देशों ने इनका बहुत सी लड़ाईयों में प्रयोग किया है. अभी हाल में इज़राईल ने जब इनका उपयोग लेबनान में किया तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ हल्ला मचा.

कोई भी बम या माईनस् हों, दुख होता कि स्वतंत्रता और मानव अधिकारों की बात करने वाले देश जो अंतर्राष्ट्रीय हथियारों के बाजार से करोड़ों कमाते हैं, इनके निषेध के लिए तैयार नहीं. मानईस् के निषेध की बात हुई तो अमरीका और रुस जैसे देश इसके लिए तैयार नहीं थे, आज गुच्छे वाले बमों की बात हो रही है तो भी यही देश नहीं मान रहे.

पर मैं नोर्वे के साथ हूँ. और आप?

बुधवार, दिसंबर 06, 2006

दिसम्बरी खिचड़ी

दिसम्बर आता है और क्रिसमस की तैयारी शुरु हो जाती है. घर में "क्रिसमस ट्री" बनाने की बातें होने लगती हैं, कहाँ रखा जायेगा, कितना बड़ा हो, सचमुच का पेड़ लेना चाहिये या नकली, कैसे सजाया जाये, इत्यादि. इस साल घर में पहली बार पुत्रवधु भी है तो सब कुछ अधिक धूमधाम से हो रहा है. सालों की नींद से पुत्र जागा है और इस बार अपनी नववधु को सिखाने और दिखाने के चक्कर में बढ़ बढ़ कर सब काम कर रहा है. वरना पत्नी मेरे पीछे पड़ी रहती, "लाल और नीले रंग की सजावट तो पिछले साल की थी, इस साल कौन से रंग की करें?" इस बार पुत्र और पुत्रवधु का निर्णय है कि क्रिसमस के लिए जो छोटा सा चीड़ का पेड़ खरीदा गया है उसे श्वेत, चाँदी और नीले रंग से सजाया जाये.

पेड़ सजाना तो फ़िर भी आसान है, असली सिरदर्द तो भेंट खरीदने की बहस से होती है.

"किसको क्या दिया जाये? अरे फ़िर से जुराबें, याद नहीं कि पिछले साल भी तो जुराबें ही दी थीं? नहीं दस्ताने नहीं, दो साल पहले दस्ताने ही दिये थे! टोपी नहीं, वह बहुत व्यक्तिगत चीज़ है और अपनी पसंद की ही लेनी चाहिए. तुम्हारा बस चले तो सबको किताबें ही दे दो, नहीं नहीं किताबें नहीं! तुमसे तो बात करना ही बेकार है, तुम क्मप्यूटर पर बैठ कर अपना काम करो, मैं भेंटें अपने आप ही खरीद लूँगी!"

"अच्छा बड़ी दीदी पूछ रही थीं कि तुम्हें क्या दिया जाये? पैसे दे दें, यह क्या बात हुई कि तुम अपने आप खरीद लोगे? सब लोगों की रंगीन पैकेट बने होंगे पेड़ के नीचे, तुम्हारे लिए पैसे रख देगें वहाँ, कैसा लगेगा? नहीं कैमरा तो बहुत मँहगा होगा, दीदी से इतनी मँहगी भेंट माँगना ठीक नहीं. क्यों जुराबों में क्या खराबी है? अच्छा नई टाई कैसी रहेगी? अच्छा कोई परफ्यूम लें तो कैसा रहेगा? हाँ यह ठीक रहेगा. अच्छा लाऊरा पूछे कि तुम्हारे लिए क्या खरीदे तो उसे क्या कहूँ?"
****

सिरदर्दी में अचानक मन सपना देखने लगता है. साँभर वड़ा, इडली और मसालेदार चटनी, पेपर दोसा और रवा दोसा के सपने. "एक शाकाहारी उत्तरी भारत की थाली", "एक बटर चिकन", मन ही मन कहता हूँ. "यह वाला पतीसा, वह चमचम, यह बेसन का लड्डू"! अच्छा कौन सी फ़िल्में देखनी है? उमराव जान, धूम २, डोन, जानेमन, बाबुल, विवाह! क्या मालूम कि होटल के पास कोई सिनेमाहाल है कि नहीं जहाँ शाम को मीटिंग समाप्त होने के बाद कोई फ़िल्म देखी जाये?

हाँ शनिवार को भारत जाना है. बँगलोर में प्राकृतिक चिकित्सा पर दक्षिण एशियाई देशों की मीटिंग है जिसके संचालन की ज़िम्मेदारी है. पहले दस दिन बँगलोर में काम करते हुए, फ़िर कुछ दिन घर पर और 28 दिसम्बर को वापस बोलोनिया.

बँगलोर के मित्रों ने बताया कि बँगलोर भी अपना नाम बदलने की ठानी है और अबसे उसे बँगलूरु कहा जाना चाहिये. बधाई हो. मेरा विचार है कि हर भाषा के लोगों को यह अधिकार है कि अपने शहर को अपनी भाषा में पुकारें. पर मेरा विचार था कि यह तो हम हमेशा से करते ही हैं, इसके लिए इतना तमाशा क्यों?

असली झगड़ा अँग्रेजी से लगता है. जहाँ तक मैं समझता हूँ, बँगलोरवासी जब आपस में कन्नड़ में बात करते हैं तो हमेशा ही अपने शहर को बँगलूरु ही कहते आये हैं. उनका यह कहना कि अँग्रेजी में भी उनके शहर को बँगलूरु कहा जाये, समझ में नहीं आता. हर भाषा में शहरों के नामों का उच्चारण भिन्न होता है. जैसे कि इतालवी भाषा में बँगलोर को "बँगलोरे" कहा जाता है. स्वयं इटली में जिस शहर को इतालवी लोग वेनेत्सिया कहते हैं, उसे अँग्रेजी वाले वेनिस कहते हें और जर्मन वाले वेनेडिग कहते हैं.

इन नाम के पीछे होने वाले झगड़ों से लगता है कि असली बात आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की है. अगर कन्नड़, मराठी बोलने वालों को लगता है कि उनके शहर बदल रहे हैं, बाहर से आये "विदेशियों" से भर रहे हैं और अपने ही शहर में वह अल्पसँख्यक हो रहे हें और उनकी पूछ कम रही है तो वह इस तरह का बदलाव चाहते हैं? पर क्या इस नाम के बाहरी बदलाव से सचमुच उनकी स्थिति बदलती है? भूमँडलीकरण से आने वाले बदलावों में जो पीछे रह जा रहे हैं वे कैसे प्रगति में अपना हिस्सा पायें, शायद असली प्रश्न यही है?

बर्मा से बना है मयनमार, कौंगो से बना ज़ाईर और कुछ समय बाद दोबारा कौंगो, इन बदलते नामों की बीमारी केवल भारत में नहीं है. शायद यह भूमँडलीकरण का नतीजा है, दुनिया इतनी तेजी से बदल रही है और उन बदलवों को रोक पाना हमारे बस में नहीं है तो अपनी इस शक्तिहीनता को सहारा देने के लिए शहरों के नाम बदलने की बैसाखी खोजने लग जाते हैं. और कुछ न भी हो, दिल को थोड़ा सहारा तो मिल ही जाता हे कि हम भी कुछ हैं, हम भी कुछ कर सकते हैं!
****

क्रिसमस के साथ साथ आजकल बोलोनिया में साँस्कृतिक कार्यक्रमों का मौसम है. परसों रात को शहर के प्रमुख स्कावयर में सँगीत का कार्क्रम था जिसमें पारदर्शी टबों में स्विमसूट पहने लड़कियों ने जलपरियों की तरह नहाने का नृत्य किया. कँकपाने वाली सर्दी की रात में उनका इस तरह का नृत्य देख कर हिंदी फ़िल्मों की हीरोईनों की याद आ गयी जिन्हें इसी तरह कम कपड़े पहना कर बर्फ़ में गाने गवाये जाते हैं! कल रात को भारत से आये उस्ताद शाहिद परवेज़ खान का सितार वादन है.

आज की तस्वीरों में हमारा क्रिसमस का पेड़ और जलपरियों का साँस्कृतिक कार्यक्रम.








सोमवार, दिसंबर 04, 2006

दिल के घाव

हमारा घर, हमारी कार, हमारा टेलीविजन, हमारी पत्नी, हमारे बच्चे, जैसे कितनी चीज़ें होती हैं जिन्हें हम अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं, कभी जीवन उनके बिना भी हो सकता है, यह सोचा नहीं जाता. "सब माया है, मोह छोड़ दो" जैसी बातें सुन कर भी मन में आता है जब तक जीवन है तब तक मोह माया भी है, जब जीवन ही नहीं रहेगा तो अपने मोह माया छूट जायेंगे. लेकिन अगर जीवन तो रहे पर उसमें से वह सब कुछ खो जाये जिसके सहारे पर हमारे जीवन की नींव टिकी थी, तो?

शरणार्थी हो जाना ऐसी ही घटना है. नाना नानी जब तक जिंदा रहे, उनके लिए पाकिस्तान में भारत विभाजन के समय छूटे घर को खोने का घाव कभी भर नहीं पाया. संयुक्त राष्ट्र संघ के शरणार्थी उच्च कमिशन (यूएनएचसीआर - UNHCR) के साथ मुझे कीनिया, युगाँडा, नेपाल आदि देशों में शरणार्थी केम्प देखने का मौका मिला था. एक बार कश्मीर से आये शरणार्थियों से भी मिला था. जब तक टेलीविजन में दूर से देखो तो लगता है कि फ़िल्म देखी हो, वह सचमुच के लोग नहीं हों, पर करीब से देखने पर यह नहीं सोच सकते. हमारे जैसे ही लोग हैं जो सब कुछ खो चुके हैं, अगर उनके साथ हुआ है तो कल अपने साथ भी हो सकता है. भूचाल, बाढ़, युद्ध, कोई भी बहाना चाहिए नियती को, सब कुछ छीनने के लिए!

पिछले माह यूएनएचसीआर ने हँगरी से आये शरणार्थियों को याद करने की पचासवीं सालगिरह मनायी. 23 अक्टूबर 1956 को बुडापेस्ट में विद्यार्थियों का आँदोलन निकला था जिसके उत्तर में, 12 दिन के बाद, 4 नवम्बर को रूसी सेना ने हँगरी पर हमला किया था. उन दिनों में करीब एक लाख अस्सी हज़ार शरणार्थी हँगरी से आस्ट्रिया में आये थे और अन्य बीस हज़ार शरणार्थी दक्षिण में युगोस्लाविया में आये थे.

आस्ट्रिया में आये शरणार्थियों में थे 19 वर्ष के अँद्रास ग्रोफ़, यानि भविष्य की इंटेल कम्पनी के मालिक, एंड्रूय ग्रोव (Andrew Grove), जो अमरीका में जा कर बसे. उनमें मेरी प्रिय लेखिका अगोता क्रिसटोफ भी थीं जो उस समय 21 वर्ष की थीं और जो स्विटज़रलैंड में जा कर बसीं. अन्य भी जाने कितने लेखक, उद्योगपति, कलाकार, संगीतकार, आम काम करने वाले कितने लोग थे जिनके नाम आज किसी को याद नहीं. उनमें से जाने कितने अपने घरों के साथ अपने भाई बहन, माता पिता को छोड़ कर आये थे, कैसे बिखर गये उनके परिवार, कितने घाव बने उनके दिल पर, जो भरे नहीं पर जिन्हें बाहर औरों को नहीं दिखा सकते थे, अपने मन में छुपा कर जीना था.

रविवार, दिसंबर 03, 2006

आँसुओं में लिखा नाम

मिस्र के पिरामिडों को देख कर करीब दो हज़ार साल पहले के एक रोमन बादशाह, जिसका नाम था काइयो चेस्तियो (Caio Cestio), उसको रोम में पिरामिड बनवाने की सूझी. सदिया बीतीं और रोम से दक्षिण की ओर जाने वाली सड़क विया ओस्तिएन्से (Via Ostiense) पर बना यह पिरामिड समय के धुँधले में खो गया. जिस रास्ते पर राजसी रथ चलते थे, वहाँ घास उग आयी और ग्वाले वहाँ जानवर चराने लगे.

फ़िर करीब दो सौ साल पहले, इसी पिरामिड के साथ साथ एक नया प्रोटेस्टैंट ईसाईयों का कब्रिस्तान बनाया गया जहाँ गैरकेथोलिक ईसाईयों को दफ़न किया जाता था. इटली में रोम में वेटीकेन में केथोलिक धर्म का विश्व केन्द्र बन गया था. उस समय गैरकेथोलिक ईसाईयों के प्रति वेटीकेन का रुख बहुत कड़ा था, उन्हें धर्मभ्रष्ठ मानते थे. इसलिए उस कब्रिस्तान में शरीर केवल रात के अँधेरे में दफ़न किये जा सकते थे. कब्रिस्तान की कोई दीवार नहीं थी और लोग जब मन में आता वहाँ आ कर कब्रों पर तोड़फोड़ करते. किसी भी कब्र पर यह लिखना भी मना था कि "मृतक की आत्मा को भगवान शाँती दें", क्योंकि केथोलिक न होने की वजह से वेटीकेन में कहते थे कि उन्हें भगवान से कुछ भी नहीं मिल सकता था.

खैर इतिहास बदला और दुनिया बदली, विभिन्न धर्मों के साथ साथ रहने की नियम भी बदल गये. आज रोम का यह कब्रिस्तान जिसे उस रोमन बादशाह के पिरामिड के नाम पर काम्पो चेस्तियो (Campo Cestio) कहते हैं, अँग्रेजी पर्यटकों के लिए तीर्थ स्थल जैसा है क्योंकि यहाँ उनके दो प्रसिद्ध कवि, कीटस (Keats) और शैली (Shelley) की कब्रें हैं.

अँग्रेजी के कवि जोह्न कीटस (John Keats) का नाम रोमानी कविताओं के लिए प्रसिद्ध है. उनकी कविताओं में जीवन की क्षणभँगुरता और स्वपनों की अखँडता का मिला जुला दर्द भरा रोमानीपन मिलता है. वे 1820 में रोम आये जब यक्ष्मा से उनका शरीर कमजोर हो चुका था. उस समय यक्ष्मा का कोई इलाज नहीं था. तब लोग कहते कि बारिश वाले ईंग्लैंड में रहने से यक्ष्मा और बिगड़ जाता था जबकि अधिक धूप होने से रोम के मौसम को यक्ष्मा ठीक करने के लिए बेहतर माना जाता था.

उस समय कीटस् केवल 24 वर्ष के थे. उनके साथ थे उनके मित्र सेवेर्न. फरवरी 1821 में उनका रोम में देहाँत हुआ. कुछ ही सालों के लिए उन्होंने कविताएँ लिखीं थीं जिनकी वजह से आज भी उनकी कब्र पर फ़ूल चढ़ाने उनके प्रशँसक आते रहते हैं.

कीटस की कब्र पर लिखा है, "यह वह बदनसीब कवि है जिसका नाम पानी पर लिखा था". कहते हैं कि यह वाक्य स्वयं कीटस ने चाहा था कि उनकी कब्र पर लिखा जाये. उनकी कब्र के सामने ही उनके प्रशँसकों ने एक संगमरमर का पत्थर लगवाया है जिस पर लिखा है, "कीटस अगर तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है, तो वह पानी तुम्हारे चाहनेवालों की आँखों से गिरा है."

नीचे तस्वीरों में (1) कीटस और उनके मित्र सेवेर्न की कब्रों के सामने अँग्रेजी पर्यटक, (2) कीटस के प्रशँसकों द्वारा लगवाया संगमरमर का पत्थर, (3) दूसरे कवि, यानि शैली की कब्र और (4) कब्रिस्तान के साथ काईयो चेस्तियो का पिरामिड




****
कीटस की कब्र पर लिखे शब्द पढ़े तो मन में बचपन में सुने एक तुकबंदी वाले शेर की याद आ गयीः
हमने उनकी याद में रो रो कर आँसुओं से टब भर दिया
वे आये और उसमें नहा कर चले गये!
शायद यह तुकबंदी कीटस की रुमानी कविताओं का अपमान करने वाली बात हो गयी, पर यही तो खूबी है मानव कल्पना की, अच्छा बुरा नहीं देखती, जहाँ दिल चाहे उस तरफ़ घूम जाती है.

शनिवार, दिसंबर 02, 2006

एक नयी बीमारी

इस बार बात यौन विषय से सम्बंधित है इसलिए सोच समझ कर ही पढ़ियेगा.

जब भी किसी नयी बीमारी की बात सुनने को मिलती है तो मन में पहला विचार आता है कि दवा बनाने वाली कम्पनियों ने पैसे कमाने के लिए कुछ और नया सोचा होगा! नई दवाओं की खोज में बहुत से आदर्शवादी वैज्ञानिक सारा जीवन लगा देते हैं पर वह मुश्किल से करोड़पति बनते हैं, पैसे कमाती हैं दवा बनाने वाली अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ. अगर आप को शेयर बाज़ार की जानकारी हो तो अवश्य जानते होंगे कि हथियार बेचने वाली कम्पनियों की तरह, दवाईयाँ बेचने वाली कम्पनियों के शेयर खूब फायदा देते हैं.

जब यह मालूम पड़े कि नयी बीमारी यौन विषय से सम्बंधित है तो शक और भी बढ़ जाते हैं. जिस बीमारी का इलाज करने के लिए वियाग्रा की गोली बनाई गयी, वह बीमारी हमारे जमाने में चिकित्सा शात्र की पढ़ाई में होती ही नहीं थी. दवा बेचने वालों का पहला काम होता है कि पहले आप को यकीन कराया जाये कि आप को कुछ बीमारी है, उसके बाद उस बीमारी का उपचार भी बाज़ार में मिल जायेगा. वियाग्रा की बिक्री इतनी हुई कि बनाने वाली कम्पनियों ने करोड़ों बटोरे. पिछले वर्ष सुना था कि वे कम्पनियाँ परेशान हैं कि वियाग्रा की गोली केवल पुरुषों के काम आती है, और सोच रही हैं कि कैसे ऐसी बीमारी औरतों के लिए भी बनाई जाये, ताकि उसके लिए भी गोली बेची जा सके.

खैर आज जिस नयी बीमारी की बात कर रहा हूँ वह यौन विषय से ही सम्बंधित है और उसका समाचार अँग्रेजी की प्रतीष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका न्यू साईंटिस्ट (New Scientist) पर निकला है. यह बीमारी कुछ कुछ नींद में चलने की बीमारी से मिलती जुलती है. इसका नाम रखा गया है सेक्सोमनिया, यानि सोते सोते नींद में अपने साथ सोये साथी के साथ यौन सम्पर्क बनाना. जब व्यक्ति जागता है तो उसे मालूम नहीं चलता कि उसने नींद में क्या किया.

केनेडा में पश्चिमी टोरोंटो में एक शौधकर्ता निक त्राजनोविच ने पिछले वर्ष एक सर्वे किया और उनका कहना है कि यह बीमारी बहुत फैली हुई है पर लोग शर्म के मारे इसके बारे में बात नहीं करना चाहते. एक महिला को यह तब मालूम चला कि उसके पति को यह बीमारी है जब उसने देखा कि बीच रात में यौन सम्बंध करने वाला उसका पति, साथ साथ खुर्राटे लेता रहता था. इस बीमारी का शिकार पुरुष और स्त्रियाँ दोनो ही होती हैं.

न्यू हेम्पशायर के मनोवैज्ञानिक माईकल मनगन नें इस विषय पर शौध और बीमारी से ग्रस्त लोगों को सहारा देने के लिए एक अंतर्जाल पृष्ठ बनाया है स्लीपसेक्स डाट ओरग, दूसरी ओर कुछ लोग जिन पर बलात्कार और स्त्रियों से जबरदस्ती यौन सम्बंध बनाने की कोशिश करने का आरोप था, उन्होंने कहा कि दरअसल यह उन्होंने जानबूझ कर नहीं किया, यह तो उनकी सेक्ससोमनिया बीमारी का नतीजा है.

आप ही बताई कि कहाँ तक इसमे सच है? साथ साथ ही सोच रहा था कि हमारे आयुर्वेद के प्राचीन ग्रँथों में क्या इस बीमारी का वर्णन है?

बुधवार, नवंबर 29, 2006

आलोचना का अधिकार

फ़्योरेल्लो इटली के बहुत लोकप्रिय कलाकार हैं जिन्हें किसी एक श्रेणी में बाँधना कठिन है. गाना गाने, अभिनय करने, नृत्य करने, दूसरों की नकल उतारने, हँसने हँसाने, सबमें वह माहिर हैं. वह टेलीविजन पर कम ही आते हैं और पिछले दो सालों से प्रतिदिन रेडियो पर एक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं, पर जब भी वह टेलीविजन पर आते हैं, वह कार्यक्रम सफ़ल हो जाता है.



कुछ दिन पहले फ़्योरेल्लो ने टेलीविजन पर एक कार्यक्रम में पोप बेनेदेत्तो की नकल उतारी. अगले दिन वेटिकेन के समाचारपत्र ने और स्वयं पोप के प्रेस सम्पर्क अधिकारी ने इसकी आलोचना की, कि फ़योरेल्लो को पोप, जो कि कैथोलिक धर्म के सबसे उच्च पादरी हैं, उनके बारे में इस तरह की घटिया बातें नहीं करनी चाहिए थीं. एक सप्ताह बाद फ़्योरेल्लो दोबारा टेलीविजन पर आये और इस बार वेटीकेन द्वारा की गयी आलोचना की नकल करके उसका मजाक उड़ाया. वेटीकेन की तरफ़ से इस बार आलोचना और भी कड़ी हुई.

इस घटना पर यहाँ की पत्रिका "इंतरनात्सोनाले" ने सम्पादकीय लिखा है जो मुझे विचारनीय लगा. ज्योवान्नी दे माउरो, इस पत्रिका के सम्पादक लिखते हैं, "इस बात पर चिंता होती है कि यह प्रवृति बढ़ती जा रही है कि किसी भी बात पर मतभेद हो तो चर्च अपना दृष्टिकोण हर हाल में जबदस्ती मनवाना चाहता है, बिना यह सोचे की लोगों को सोचने की स्वतंत्रता है और विभिन्न विचार रख कर भी हम शाँति से साथ रह सकते हैं. अगर आप को वह नकल नहीं अच्छी लगी, तो चैनल बदल लीजिये, या फ़िर टीवी बंद करके कोई किताब पढ़िये. यह जिद करना कि उसे कोई भी न देखे, यह कहाँ तक ठीक है?"

कुछ ऐसा ही झगड़ा इन्ही दिनों में एक अन्य इतालवी टीवी फ़िल्म के बारे में हुआ है जिसमें एक इतालवी लेसबियन युवती अपनी स्पेनिश प्रेमिका से स्पेन में विवाह करती है, क्योंकि स्पेन में अब यह नया कानून है जो समलैंगिक युगलों को विवाह की अनुमति देता है. इस बात पर कुछ दिनों तक समाचार पत्रों पर बहुत बहस हुई कि इस तरह का कार्यक्रम शाम को ऐसे समय नहीं दिखाया जाना चाहिये था जब बच्चे भी टेलीविजन देखते हैं या फ़िर, ऐसी फ़िल्में क्या सरकारी चैनल पर दिखाई जानी चाहिये जो कि देश की संस्कृति के विरुद्ध हैं?

मुझे लगा कि यह बहस बेकार की थी. यहाँ टीवी पर शाम को "केवल व्यस्कों के लिए" वाली फ़िल्में आम दिखाई जाती हैं, बस कोने में लाल बिंदू लगा दिया जाता है ताकि माता पिता को मालूम रहे कि यह फ़िल्म उन्हें छोटे बच्चों को नहीं दिखानी चाहिए. अगर नग्नता, सेक्स और हिंसा के दृष्यों को दिखाया जा सकता है तो दो लेसबियन युवतियों के प्यार को दिखाने में क्या परेशानी है? बहस इस लिए भी बेकार लगी क्योंकि लेसबियन युवतियों के बारे में इस फ़िल्म में सेक्स या चुम्बन जैसी कोई बात नहीं थी, फ़िल्म की कथा थी कि कैसे उनमें से एक युवती अपने पिता को बताये कि वह शादी करने वाली है और किससे शादी करने वाली है, यानि परिवारिक कथा थी.

भारत में इस तरह के विषयों पर कुछ भी बात करना कितना कठिन है और किसी भी धर्म या जाति के लोगों को तोड़ फोड़ करके, डराना धमका कर किताब या कला या फ़िल्म पर रोक लगवाना कितना आम हो रहा है, और पुलिस या कानून कुछ नहीं करते, चुपचाप तमाशा देखते हैं! साथ साथ, बात साँस्कृतिक भेदों की भी है. भारतीय सभ्यता में अपने से बड़ों के बारे में, संत माने जाने वाले लोगों के बारे में, सत्ता में होने वाले राजनीतिक नेताओं के बारे में, धार्मिक नेताओं के बारे में, इत्यादि बहुत से ऐसे सामाजिक बँधन से बने हुए हैं जिनके बारे में आम व्यक्तियों की तरह से बात कर पाना बहुत कठिन है. मुझे इतालवी सभ्यता की यह बात कि कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो, या कितना भी जाना पहचाना नेता या धर्मगुरु हो, उसके बारे में भी बात करना या किसी विषेश बात की आलोचना करना अपराध न माना जाये. हाँ, इस वैचारिक स्वाधीनता का यह अर्थ नहीं हो सकता कि किसी के व्यक्तिगत जीवन के प्रश्न उछाले जायें या फ़िर हिंसा और नफ़रत के लिए भड़काया जाये.

रविवार, नवंबर 26, 2006

सोचने वाले विज्ञापन?

इतालवी कम्पनी बेनेटोन ने ओलिवियेरो तोसकानी तथा डेविड सिम जैसे फोटोग्राफर और नये तरीके से विज्ञापनों को बनाने के लिए प्रसिद्धि पाई है, जिसकी वजह से उनके बहुत सारे विज्ञापन आज आप आधुनिक कला सँग्रहालयों में देख सकते हैं. जर्मनी में फ्रैंकफर्ट के आधुनिक कला सँग्रहालय ने तो एक पूरा हाल ही इन विज्ञापनों को दिया है.

इनमें से बहुत से विज्ञापनों का मुख्य ध्येय जनता को चौंका कर धक्का देना लगता है और इसके लिए इटली में उनकी बहुत आलोचना भी हुई है. यह भी सच है कि इनमें से बहुत से कुछ विज्ञापन इटली या यूरोप के बाहर कोई अन्य देश आम जनता के लिए प्रयोग नहीं करने देता, क्योंकि वहाँ लोग जल्दी भड़क उठते हैं.

जैसे कि कुछ वर्ष पहले के एक विज्ञापन में एक कैथोलिक पादरी एक नन (साध्वी) को चूम रहा है. चूँकि कैथोलिक धर्म के अनुसार पादरी और नन को ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है, इस विज्ञापन को धर्म विरोधी माना गया और बहुत आलोचना हुई और कुछ ही दिनों में इसे हटा दिया गया. पर कोई दँगे फसाद या मार काट नहीं हुई. अगर इस तरह का विज्ञापन कोई हिंदू या इस्लाम या किसी अन्य धर्म के लिए बनाता तो आप सोच सकते हैं कि उसका क्या असर होता?





पर बेनेटोन का कहना है कि सामाजिक समस्याओं को छुपाने से समाज में बदलाव नहीं आता और उनका ध्येय है कि विज्ञापनों के माध्यम से वे समाज का ध्यान बदलते युग की बदलती समस्याओं की ओर खींचें. अपने कपड़ों और फैशन का विज्ञापन करने के साथ साथ उनकी तस्वीरें माफिया का शिकार व्यक्ति, विकलाँग युवक का अकेलापन,एडस से मरणहीन युवक, समलैंगिक युगल, रँगभेद, जैसी समस्याओं पर भी सोचने को मजबूर करती हैं.

बेनेटोन की चालिसवीं वर्षगाँठ पर उनके विज्ञापनों की एक प्रदर्शनी आयोजित की गयी है, उन्हीं विज्ञापनों में से कुछ नमूने यहाँ प्रस्तुत हैं.




























अगर आप चाहें तो यह पूरी प्रदर्शनी अंतर्जाल पर बेनेटोन के पृष्ठ पर देख सकते हैं.

शुक्रवार, नवंबर 17, 2006

अचानक

गुयाना से वापस आ कर थकान हो गयी थी, पर वैसे सब कुछ ठीक था. उस दिन सुबह साईकल पर दूर तक पहाड़ी पर सैर करने गया. फ़िर दोपहर को सोया और शाम को परिवार के साथ बाहर खाना भी खाया और फ़िर पार्क में सैर भी की. अचानक रात को दर्द से नींद खुली, दाहिने कूल्हे में पीड़ा हो रही थी और करवट बदलने में तकलीफ़ होती थी. सुबह होते होते बुरा हाल था. बिस्तर से ठीक से उठा नहीं जाता, न ही कुर्सी पर बैठा जाता. थोड़ी सी हैरानी हुई कि रात तक तो सब ठीक था अचानक कैसे, क्या हो गया. खैर दवा खाई, सोचा अनजाने में कुछ चोट या धक्का लग गया हो जिस पर उस समय बातों में खोये होने से ध्यान न किया हो. दूसरी रात तो और भी कठिन बीती, दर्द घटने के बजाय बढ़ गया था.

मन में विचार आया फ्राँचेस्को का. हम दोनो इकट्ठे दक्षिण भारत में वैलूर के पास कारीगिरी में एक कोर्स में मिले थे और जल्दी ही दोस्ती हो गयी थी. कुछ वर्षों के बाद उससे अफ्रीका में गिनिया बिसाऊ में मुलाकात हुई जहाँ वह अस्पताल में काम करता था और मैं विश्व स्वास्थ्य संस्थान के लिए एक काम से वहाँ गया था. वह मुझे होटल से अपने घर ले गया, बोला मेरे साथ ही रहो. दक्षिण इटली का रहने वाला था और प्यार हुआ आल्बा से जो बोलोनिया की रहने वाली थी, अफ्रीका से लौटा तो कुछ दिन दोनो बोलोनिया रहे. तब बीच में कभी कभी मिलते रहते थे. फ़िर वे दोनो उत्तरी इटली में आउस्ट्रिया के पास एक अस्पताल में काम करने चले गये तो मिलना कम हो गया. दो साल पहले अचानक सुना कि फ्राँचेस्को की हालत बहुत खराब है, हड्डी का कैंसर हुआ है तो दिल धक्क से रह गया. मैं उससे मिलने गया तो उसका चेहरा देख कर समझ नहीं पाया कि क्या कहूँ. बड़ा बेटा नौ साल का छोटी बेटी दो साल की. छः महीने बाद मृत्यु हो गयी.

जब मन में फ्राँचेस्को का विचार आया तो बची खुची नींद भी गयी और दर्द भी बढ़ गया. कुछ कुछ याद था कि उसका कैंसर कुछ इसी तरह दर्द के साथ प्रकट हुआ था. सुबह सुबह अँधेरे में अस्पताल के एमरजैंसी विभाग में जा कर दिखाने का फैसला किया. जब तक एक्सरे वगैरा होते तीन घँटे बीते और उन तीन घँटों में बहुत सी बातें मन में आईं. जाने पोते या पोती का मुख देखने को मिलगा मरने से पहले? अगले सप्ताह एक जगह रोम में बोलने जाना है और दूसरी जगह फ्लोरैंस में, वहाँ कौन जायेगा? दिसंबर में जो भारत में प्राकृतिक चिकित्सा की अंतर्राष्ट्रीय सभा आयोजित कर रहा हूँ, उसे कौन सँभालेगा? जो उपन्यास लिखने का सपना था वह अधूरा रह जायेगा?

रोज की भागादौड़ी में यह तो कभी याद ही नहीं आता कि अचानक एक दिन सब कुछ समाप्त भी हो सकता है. लगता है कि अभी तो बहुत जीवन बाकी है, बहुत कुछ करना है.

जब एक्सरे की रिपोर्ट आई तो देखा कि हड्डी तो ठीक ही दिख रही थी, यानि कि फ्राँचेस्को को जो कैंसर हुआ था, वह तो नहीं दिख रहा था. फ़िर एमरजैंसी के डाक्टर से बात हुई. वह बोला कि कुछ माँसपेशियों की मोच सी लगती है. नहीं, न ही मुझे कोई मोच आई है और न ही कोई चोट लगी है, अवश्य इसमें कोई अन्य वजह है, मैंने कहा, आप अल्ट्रासाऊँड या कुछ और टेस्ट नहीं कर सकते? मुस्कुराने लगा डाक्टर, बोला पाँच दिन तक दवा ले कर देखिये, अगर न ठीक हो तो बाकी टेस्ट भी करवा लेंगे.

दो दिनों में दर्द बहुत कम हो गया है. अब दोबारा अस्पताल में लौट कर जाने और अन्य टेस्ट करवाने का विचार छोड़ दिया है. हाँ, मृत्यु के करीब होने के बारे में जो सोचा था, वह अभी भी मन को कटोचता है. समय बेकार की बातों में नहीं बिताना, जाने कब अचानक सब कुछ अधूरा छोड़ कर जाना पड़ेगा! पर फ़िर मालूम है कि थोड़े से ही दिनों में यह सब बातें भूल जाऊँगा, और वापस रोज रोज की भागदौड़ में यह याद रखने की फुरसत ही नहीं होगी कि एक दिन मरना भी है.

गुरुवार, नवंबर 16, 2006

नदियों का देश

मैं यहाँ विकलाँग व्यक्तियों के लिए हो रहे समुदाय पर आधारित पुनर्स्थापन कायर्क्रम (community based rehabilitation programme) के सिलसिले में आया हूँ. गुयाना में यह मेरी चौथी या पाँचवी यात्रा है. पहले तो हर बार किसी न किसी के साथ आया था और देश बहुत घूमा था पर यहाँ के भूगोल को ठीक से नहीं समझ पाया था, सारा समय हमारी आपस की बातचीत में निकल जाता था. इस बार अकेला होने के कारण, सोचने और समझने का समय अधिक मिला है, इसलिए सड़कों, रास्तों, शहरों के भूगोल को समझना भी अधिक आसान है.

गुयाना का इतिहास भी अनोखा है. दो सौ साल पहले तक यह देश घने जँगलों से भरा था जिसमें यहाँ के आदिम लोग रहते थे, जिन्हें आजकल अमेरंडियन (american Indians) कहते हैं, कोलोम्बस की याद में जो दक्षिण अमरीका की तरफ़ भारत को खोजते आये थे. फ़िर यूरोप की उपनिवेशी ताकतों ने यहाँ अपना सम्राज्य बनाने की लड़ाईयाँ शुरु कर दीं, कभी फ्राँस वाले जीतते, कभी होलैंड वाले तो कभी अंग्रेज़. होलैंड वालों का यहाँ बहुत दिन तक राज रहा जिसके निशान आज भी यहाँ के लकड़ी के मकानों में, नहरों के जाल में, समुद्री दीवारों और शहरों के नामों में मिलते हैं. होलैंड की तरह ही यहाँ की भूमि का स्तर समुद्र के स्तर से नीचा है इसलिए वे लोग अपने देश की सभी तकनीकों को यहाँ पर लागू कर सके. खैर लड़ाईयों से बचने का उपनिवेशी ताकतों ने फैसला किया और देश को तीन हिस्सों में बाँट दिया, एक बना फ्राँससी गुयाना जो आज भी फ्राँस का हिस्सा माना जाता है, दूसरा बना डच गुयाना जिसे आज सूरीनाम के नाम से जानते हैं तीसरा बना अँग्रेज़ी गुयाना जहाँ मैं इन दिनों में आया हूँ.

यहाँ काम करने के लिए उपनिवेशी ताकतें पहले तो अफ्रीका से गुलाम ले कर आयीं, पर धीरे धीरे अफ्रीका से आये लोगों ने विद्रोह करना शुरु कर दिया और आदेश मानने से इन्कार करने लगे. तब गन्ने के खेतों में काम करने के लिए यहाँ भारत से लोग लाये गये. वैसे तो यहाँ भारत के उत्तर और दक्षिण दोनों ही हिस्सों के विभिन्न प्राँतों से लोग लाये गये पर उनमें पश्चिमी उत्तरप्रदेश और दक्षिणी बिहार के भोजपुरी बोलने वाले लोग सबसे अधिक थे. उन्हें पाँच साल के लिए लाया जाता था और कहा जाता था कि पाँच साल बाद उन्हें वापस भारत ले जाया जायेगा, कुछ वैसा ही था जैसा आज कल गल्फ के देशों में लोगों को काम के लिए ले जाया जाता है. यहाँ आने वाले अधिकतर लोग पुरुष थे जबकि महिलाओं को अधिक नहीं लाया गया था क्योकि उनसे खेतों में उतना काम नहीं ले सकते थे. 1838 में यहाँ भारत से पहला जहाज़ आया, और उसके बाद तो जहाजों की कड़ी ही लग गयी जो बीसवीं शताब्दी के पहले भाग तक चलता रहा. करीब दो लाख चालिस हजार भारतीय यहाँ लाये गये.

कहते हैं कि गुयाना शब्द किसी अमेरिंडियन भाषा से है और इसका अर्थ है नदियों का देश. सच में देश नदियों के जाल से घिरा है, पर उत्तर में अटलाँटिक महासागर की ओर आते आते उन छोटी नदियों से तीन प्रमुख नदियाँ बनती हैं - बरबीस, डेमेरारा और एसेकीबो. नदियों के इलावा सारे उत्तरी भाग में नहरों के जाल बिछा है जिनसे गन्ने के खेतों की ओर पानी ले जाया जाता था. बहुत सुंदर और मनोरम लगती हैं यह नहरें पर अगर सोचिये कि किन हालातों में अफ्रीकी और भारतीय गुलामों ने अपने खून पसीने से, बिना किसी मशीनों के धरती का सीना चीर कर इन्हें बनाया होगा तो मन कड़वा हो जाता है.

(गुयाना यात्रा की डायरी से - चाहें तो पूरी डायरी कल्पना पर पढ़ सकते हैं.)






लोकप्रिय आलेख