बुधवार, अक्तूबर 17, 2007

सप्ताह के दिनों के नाम

एक तरफ़ केलैंण्डर, वर्ष और महीने सब नक्षत्रों यानि सूर्य, पृथ्वी और मौसमों से जुड़े हैं. दूसरी ओर सप्ताह का नक्षत्रों, इत्यादि से कोई वास्ता नहीं लगता. कहते हैं कि विभिन्न सभ्यताओं में सप्ताह सात से कम या अधिक दिनों के भी हो सकते थे हालाँकि अपनी दुनिया के विभिन्न देशों में यात्राओं में मैंने इस बारे में कभी नहीं सुना.

सप्ताह के सात दिन होना, सात नम्बर के विषेश महत्व को दर्शाता है क्योकि सप्त ऋषी के सात तारे थे, और प्राचीन नक्षत्रशास्त्र में सात नक्षत्र थे. इस बात में कितना सच है यह कहना कठिन है.

रोमन केलैंण्डर में सम्राट कोंस्टेंटाईन ने ईसा के करीब तीन सौ वर्ष के बाद सात दिनों वाले सप्ताह को निश्चत किया और उन्हें नक्षत्रों के नाम दिये, यानि सप्ताह के पहले दिन को सूर्य का नाम, दूसरे दिन को चाँद का नाम, तीसरे दिन को मँगल, चौथे दिन को बुध, पाँचवें दिन को बृहस्पति, छठे दिन को शुक्र और सातवें दिन को शनि का नाम. आज भी रोमन संस्कृती से प्रभावित देशों में इन्हीं नामों का प्रयोग होता है.

जैसे कि सोमवार को लूना यानि चाँद का नाम दिया गया इसलिए इतालवी भाषा में उसे लुनेदी और फ्राँस में उसे लंदी कहते है. भारत में भी सप्ताह के दिन इसी परम्परा से जुड़े हैं. लेकिन पुर्तगाल जो कि लेटिन भाषा और रोमन संस्कृति का देश है, वहाँ कुछ भिन्न हुआ. वे लोग रविवार को तो सूर्य के साथ जोड़ते हैं पर सप्ताह के बाकी के दिनों को सुगुंदा फेरा, तेरसेइरा फेरा, यानि दूसरा दिन, तीसरा दिन आदि कहते हैं.

कुछ इसी तरह का हिसाब चीन में भी है जहाँ छिंगचीयी, छिंगचीएर, छिंगचीसान आदि का अर्थ पहला दिन, दूसरा दिन, तीसरा दिन आदि ही होता है. पर जापानी भाषा इससे भिन्न है. जापानी में रविवार को निचीयोबि यानि सूर्य का दिन, सोमवार को गेतसुयोबी यानि चाँद का दिन, मँगलवार को कायोबी यानि आग का दिन, बुधवार को सुईयोबी यानि पानी का दिन, बृहस्पतिवार को मोकुयोबी यानि लकड़ी का दिन, शुक्रवार को किनयोबी यानि स्वर्णदिन और शनिवार को दोयोबी यानि धरती का दिन कहते हैं.

अब देखें अग्रेजी में इन्हीं दिनो को. सण्डे, मण्डे और सेटरडे तीन दिनों के नाम रोमन नामों से मिलते हैं यानि सूर्य, चंद्र और शनि के नाम से जुड़े पर बाकि दिनों के नाम भिन्न हैं, यह कैसे हुआ? इसका कारण ईंग्लैंड का इतिहास है. रोमन साम्राज्य के बाद वहाँ पर बाहर से हमले होते रहे, कभी जर्मनी से, कभी स्केडेनेविया के देशों से, जहाँ के एन्गलोसेक्सन लोग अपने साथ अपने देवी देवता ले कर आये. नोर्वे के थोर देवता जो बादलों और तूफ़ान की गड़गड़ाहट के देवता हैं उन्होंने अपना नाम दिया बृहस्पतिवार को यानि कि थर्सडे. नोर्वे के सबसे बड़े देवता वोडन ने नाम दिया बुधवार यानि वेडनेसडे को. वोडेन देवता के पुत्र तीव ने नाम दिया मँगलवार यानि ट्यूसडे को और वोडेन के पत्नि फ्रिया ने नाम दिया शुक्रवार यानि फ्राईडे को.

इन सब बातों से यह उत्तर देना कि भारत में सप्ताह के दिन कब से शुरु हुए और कहाँ से आये, यह मुझे नहीं मालूम. नामों को देख कर लगता है कि यह नाम अँग्रेजों के आने से पहले ही आ चुके थे क्योंकि यह अंग्रेजी नामों से नहीं बल्कि लेटिन नामों से प्रभावित थे. सुना है कि नोबल पुरस्कार पाने वाले भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने विभिन्न केलैंण्डर आदि के विषय पर शौध किया था और कोई किताब भी लिखी थी, शायद उसमें इसका कोई वर्णन हो?

अपने खेतों में काम करने वाले या रोजाना की पगार पाने वाले लोग जिन्हें छुट्टी न मिलती हो, उनके लिए सप्ताह का कब कौन सा दिन है शायद इसका विषेश महत्व नहीं, बस त्योहारों उत्सवों के दिन पता चलने चाहिये. नौकरी करने वाले लोग जिन्हें सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिलती हो या फ़िर पगार मिलती हो, तो सप्ताह के दिन मालूम करने की बात बनती है. शुक्रवार को जापानी में स्वर्णदिन कहते हें उसका शायद यही अर्थ था कि उस दिन सप्ताह की तनखाह मिलती थी. प्राचीन काल में भारत के नक्षत्र ज्ञान को अच्छा जाना जाता था, शायद लेटिन भाषा को यह नाम भारत ने ही दिये?

मंगलवार, अक्तूबर 16, 2007

महीनों के नाम कहाँ से आये?

प्राचीन काल में रोमन केलैंडर मार्च के महीने से प्रारम्भ होता था और वर्ष में केवल दस महीने होते थे, जिनमें सर्दियों के दो महीनो को नहीं गिना जाता था क्योंकि उन दो महीनो में कोई खेती बाड़ी का काम नहीं होता था. पहले महीने मार्च का नाम युद्ध के देवता मार्स यानि मँगलदेवता के नाम पर था. इसी महीने में अक्सर युद्ध छेड़े जाते थे.

अप्रैल के महीने का नाम बना था लेटिन भाषा के शब्द आपेरीरे से जिसका अर्थ है "खुलना", क्योंकि इस माह में धरती अपना वक्ष खोल कर प्रकृति को नया जन्म देती थी.

मई के महीने का नाम देवी माया से बना था जो फ़लने फ़ूलने की तथा नवजन्म की देवी मानी जाती थी. इसी खुशी में पहली मई को लोग बाहर बागों में, खेतों में जाते थे सारा दिन प्रकृति के साथ बिताते थे. जून का नाम बना जूनोन से जो समृद्धी और धरती की उपजाऊता की देवी थी.

इसके बाद के छह महीने के नाम नहीं बल्कि उन्हें लेटिन भाषा में पाँचवा, छठा, साँतवा आदि कहा जाता था. जैसे कि जून के बाद आता था क्विनतीलिउस यानी पाँचवा महीना जिसका नाम बाद में सम्राट जूलियस सीज़र के नाम पर जुलाई रखा गया. इसी तरह सेक्तीलियस यानि छठे महीने का नाम बाद में सम्राट अगुस्तस के नाम पर अगस्त रखा गया.

सितंबर, अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर महीनों के नाम वही पुराने लेटिन शब्दों से बने हैं जिनका अर्थ है सातवाँ, आठवाँ, नवाँ और दशक. चूँकि लेटिन और संस्कृत दोनो इण्डोयूरोपीय भाषाएँ हैं यह शब्द संस्कृत के शब्दों से भी मिलते हैं इस तरह आप को इन महीनों के नाम में सात, आठ, नव और दस शब्दों की झलक भी दिखती है.

अंतिम दो महीनो को कलैंडर में जोड़ा राजा नूमा पोमपिलियो ने ईसा से सात शताब्दियाँ पहले और इन्हें नाम दिये जनवारियुस जोकि ज्यानो देवता के नाम पर था फैबरुआरियुस जो फाब्रुस शब्द से बना है जिसका अर्थ है पवित्र, निष्कलंक.

ईसा से दो शताब्दियाँ पहले यह निर्णय लिया गया कि वर्ष जनवरी से प्रारम्भ होगा न कि मार्च से, पर दुनिया के अन्य केलैंडर अब भी मार्च के आसपास बसंत के साथ ही नववर्ष को मनाते हैं.

महीनों और मौसमों की बात हुई है तो मध्य इटली के केसर्ता शहर के राजभवन से यह कुछ मौसम के प्राचीन देवी देवताओं की तस्वीरें.







रविवार, अक्तूबर 14, 2007

सिले होठों की कड़वी हँसी

मरजान सत्रापी की फिल्म "पेरसेपोलिस" को इस वर्ष के कान फिल्म समारोह में पुरस्कार मिला है. शायद इसीलिए फैरारा शहर में जहाँ लेखक, पत्रकार, फिल्म निर्देशक और फोटोरिपोर्टरों की सभा में इस फिल्म देखने के लिए इतनी भीड़ इक्ट्ठी हो गयी थी कि हाल में नहीं समा रही थी. "पेरसेपोलिस", एक कार्टून फिल्म है जिसमें मरजान ने अपनी आत्मकथा बतायी है और एक छोटी बच्ची की आँखों से ईरान में होने वाले परिवर्तनों को दिखाया है.



मरजान चित्रकथा कलाकार हैं यानि कि कोमिक्स लिखती हैं और बनाती हैं. अपनी कला के बारे में वह कहती हैं, "मैं द्विलैंगिक हूँ, यानि कि निर्णय नहीं ले पाती थी कि मुझे लिखना अधिक अच्छा लगता है या कि चित्र बनाना, अंत में यह सोचा कि मैं दोनो काम साथ साथ करूँ और इस तरह मैं चित्रकथा बनाने वाली बन गयी." बहुत से देशों में चित्रकथाओं को बच्चों के पढ़ने की चीज़ माना जाता हो, पर यूरोपीय कला और लेखन क्षेत्र में उनके काम को बहुत गम्भीरता से लिया जाता है और साहित्य से किसी भी दृष्टी से कम नहीं माना जाता.

मरजान की खूबी है जीवन की कड़वी बातों को हँस के कहना, उनका चुटकुला बना देना. ईरान के उत्तर में केस्पियन सागर के पास रश्त्त के पास पैदा हुई मरजान तेहरान में पली बड़ी हुईं. चौदह साल की मरजान कुछ सालों के लिए ओस्ट्रिया में पढ़ने आयीं जब ईरान में खोमीनी की इस्लामी रिवोल्यूशन हो चुकी थी और मुल्ला राज का प्रारम्भ हुआ था. अपने उस ओस्ट्रिया निवास की भी उनके मन में कड़वी यादें ही हैं, कहती हैं, "तब ईरान देश का नाम ही सब बुरा माना जाता था, जब भी कोई मुझसे पूछता था कि कहाँ से आयी हूँ, तो घँटों मैं यह समझाने की कोशिश करती थी कि कैसा देश है मेरा, कि वैसा नहीं है जैसा दिखाया जाता है." वापस ईरान जा कर उन्होंने तेहरान के कला विद्यालय में पढ़ाई की और फ़िर मुल्ला राज की घुटन से बचने के लिए १९९४ में ईरान छोड़ कर पेरिस में रहने का फैसला किया. उनके पति स्वीडन के हैं.

उनका कोमिक बनाने का तरीका है सीधी सादे श्वेत श्याम चित्र जिनमें ईरान में औरत होने के अनुभवों के कड़वेपन को इस तरह से कहें कि लोग हँस पड़ें. "पेरसेपोलिस" कोमिक को बहुत से देशों में विश्वविद्यलय स्तर पर अध्य्यन का विषय माना गया है और उसी कोमिक पर फ़िल्म बनी है.

मरजान को ईरान में घुसना मना है, वहाँ की सरकार कहती है कि अपने काम से उसने अपने देश से विश्वासघात किया है, अपनी सभ्यता की हँसी उड़ायी है. यह सोचना कि इस तरह का पिछड़ापन केवल ईरान जैसे देश में है गलत होगा. बहुत से देशों में अपनी आलोचना करना गलत माना जाता है, अगर अपने देश में, अपने धर्म में, अपने समाज में कोई गलत बात हो भी तो उसे भीतर ही छुपा कर रखना ही ठीक माना जाता है, इस बारे में बाहर बात करना देशद्रोह बन जाता है. जैसी बातें मरजान ने आज के ईरानी समाज के बारे में की हैं वैसी बातें भारत में करना भी खतरे से खाली नहीं. मुसलमानों या हिंदुओं के बारे में कुछ भी बोलो तो कट्टरपंथी दल आप की जान के पीछे संस्कृति, सभ्यता और धर्म के नाम पर जान से मारने की धमकी दे सकते हैं, तहस नहस कर सकते हैं.


शनिवार, अक्तूबर 13, 2007

लेखन के दायरे

सभाओं और गोष्ठियों में अपने काम की वजह से भाग लेना, मेरी मजबूरी है, विषेशकर जब यह सभाएँ स्वास्थ्य, विकलाँगता या विकास सम्बंधी विषयों पर होती हैं. हर पंद्रह बीस दिनों में किसी न किसी सभा या गोष्ठी में बोलना पड़ता है, इसलिए पिछले कुछ सालों से मैं कोशिश करता हूँ कि जहाँ तक हो सके उनसे बचूँ.

अपनी मर्जी से, बिना विषेश निमंत्रण के किसी सभा आदि में किसी को सुनने जाऊँ यह बहुत कम होता है. पर जब सुना कि हमारे शहर से करीब सौ किलोमीटर दूर, फैरारा शहर में देश विदेश के पत्रकार और लेखक जमा हो रहे हैं तो वहाँ जाने की मन में उत्सुक्ता हुई और काम से छुट्टी ले कर तीन दिन वहाँ बिताये.

शहर में कई जगहों पर फोटोपत्रकारों के चित्रों की प्रदर्शनियाँ लगीं थीं जिनमें से मुझे इतालवी फोटोग्राफर फ्राँचेस्को जुजोला के युद्ध और मृत्यू के क्षणों की तस्वीरें बहुत प्रभावशाली लगीं. शब्दों से युद्ध के कारण या हाल के बारे में लिखने वाले पत्रकार स्थूल तथ्यों की जानकारी दे सकते हैं पर युद्ध का मानव जीवन पर क्या असर हो सकता है, इसके लिए जो बात एक अच्छी तस्वीर कह सकती है वह हजार शब्द भी नहीं कह पाते, यह मेरा विचार है.



ब्राजील के सुप्रसिद्ध पत्रकार मीनो कार्ता, वेनेजुएला की पत्रकार क्रिस्तीना मरकानो और मेक्सिको के पत्रकार उगो पिपीतोने की दक्षिण अमरीका में आज के बड़े वामपंथी नेताओं के बारे में बहस बहुत दिलचस्प लगी. बहस के मुख्य विषय थे ब्राजील के राष्ट्रपति लूला और वेनेजुएला के उगो शावेज. लूला जनप्रिय हैं, कुछ अच्छा काम भी कर रहे हैं, पर वह वामपंथी नेता नहीं हालाँकि राजनीति में आने से पहले कामगारी यूनियन के नेता थे, बल्कि वह बड़े बिसनेस के फायदे के लिए ही अधिक काम कर रहे हैं, यह निष्कर्श था मीनो कार्ता का. शावेज जी तानाशाह हैं, मिलेट्री से आये हैं, वह प्रेस की स्वतंत्रता का मुख बाँध रहे हैं पर साथ ही उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बंधी नीतियों से गरीब लोगों को सहायता मिली है, यह निष्कर्श था क्रिस्तीना का.

ब्लोग और अंतर्जाल के पत्रकारिता में बढ़ते महत्व पर बहस में मुझे फ्राँस के पियर्र हस्की और चीन के विद्यार्थी नेता काई छोंगवो, जो अब चीन छोड़ कर विदेश में रहने को बाध्य हैं, की बातें अच्छी लगी. बात हो रही थी कि अगर तियानामेन स्कावयर की बात आज होती तो क्या चीन की सरकार उसे इतनी आसानी से दबा पाती? उनका कहना था कि बाजार तथा उपभोक्तावादी संस्कृति से प्रभावित उदारवादी नीति अपनाने से चीन में इंटरनेट का तेजी से विकास हुआ है पर साथ ही चीन की सरकार ने इस माध्यम को किस तरह से काबू में रखा जाये, कैसे लोगों को इंटरनेट के भीतर एक सीमा में बाँध कर रखा जाये इस दिशा में बहुत तकनीकी विकास किया है जितना अन्य किसी देश में नहीं हुआ. इसके बावजूद चीनी ब्लागर और अतंर्जाल प्रयोग करने वाले नये नये तरीके निकलते रहते हें ताकि वह बँधनों से बाहर निकल सके.



बर्मा में मिल्ट्री तानाशाहों द्वारा देश में होने वाली बातों को बाहर जाने से रोकने की कोशिश करने के बारे में उनका विचार था कि दमन की प्रशासन कुछ दिनों में ही दमन की तीव्रता कम करने को बध्य होगा और धीरे धीरे समाचार फ़िर से आने लगेगें.

डाकूमेंट्री फ़िल्मों में मुझे अमरीकी फिल्म निर्देशक जेसन दा सिल्वा की फ़िल्म "हम भूल न जायें" (Lest we forget, 2003) अच्छी लगी. द्वितीय महायुद्ध के दौरान अमरीका में रहने वाले जापानियों का दमन और सितंबर 2001 में न्यू योर्क में हुए बम विस्फोटों के बाद अरब देशों और पाकिस्तान से आये नागरिकों के विरुद्ध हुए व्यवहार के बारे में थी यह फिल्म.

उपन्यास लिखने वाले लेखकों से उपन्यास और पत्रकारिता के दायरों के बारे में बातचीत भी बहुत दिलचस्प लगी. इसमें भाग लेने वालों में से मुझे मोरोक्को की लैला लालामी, तुर्की की एलिफ शफाक और भारत की अरुँधति राय की बातें मुझे अच्छी लगीं. लैला का कहना था कि क्योंकि वह मुसलमान हैं और मध्यपूर्व के देश से हैं, इसलिए बड़ी किताब छापने वाले पब्लिशिंग कम्पनियाँ उनसे केवल मुसलमान स्त्रियों का कितना बुरा हाल है इस विषय पर लिखना माँगती हैं और उनकी किताबों पर केवल बुर्का पहनने वाली औरतों या रेगिस्तानों और ऊँटों की तस्वीरें ही लगती हैं. एलिफ ने बात की अपने विभिन्न देशों में यहाँ से वहाँ बिताये अपने बचपन की जिसकी वजह से उन्हें लगता है कि उनकी जड़ें धरती में नहीं गड़ी बल्कि वह उल्टा पेड़ हैं जिसकी जड़े हवा में हैं. उन्होंने कहा कि लेखन तो लेखक की कल्पना पर निर्भर करता है, कि अगर वह तुर्की की नारी हो कर भी नोर्वे में रहने वाले समलैंगिक व्यापरी को ले कर कहानी लिखना चाहें या अमरीकी अश्वेत पुरुष के जीवन के बारे में लिखना चाहें, उन्हें इसका पूरा अधिकार है और वह कोई भी बँधन मानने को तैयार नहीं कि उन्हें किस विषय पर लिखना चाहिये और किस तरह!

अरुँधति राय जी का बोलने का तरीका बहुत प्रभावशाली है और उनके बोलने के दौरान खचाखच भरा हाल बार बार तालियों से गूँज उठा. अपने अँग्रेजी में लिखने के बारे में उन्होने लंदन में बीबीसी टेलिविजन के बारे में हुए एक साक्षात्कार के बारे में बताया. बुक्कर पुरस्कार मिलने के बाद हो रहे इस साक्षात्कार में उनके साथ एक अंग्रेजी प्रोफेसर भी थे जिनकी सारी बात ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बने देशों को क्या फायदा हुआ और किस तरह अंग्रेजी सभ्यता ने इन पिछड़े देशों की सभ्यताओं को सही दिशा दी, फ़िर अरुँधती की ओर बोले कि उन्हें बुक्कर पुरस्कार मिलना ब्रिटिश साम्राज्य की छोड़ी धरोहर का ही नतीजा है. अरुँधती बोली कि इस तरह की बात करना कुछ वही बात हई कि बलात्कार की बाद पैदा हुई संतान को दिखा कर बलात्कार हुई औरत से कहा जाये कि देखो उस पुरुष ने कुछ ठीक ही किया था. उनकी कही बहुत सी बातों से मन में बहुत से प्रश्न उठे, पर उनके बारे में तो अलग से फ़िर कभी लिखना पड़ेगा.


बुधवार, सितंबर 26, 2007

अत्याचार की नींव

इन दिनों टेलीविज़न पर मयनमार (बर्मा) में हो रहे आंदोलन के दृष्यों को देख कर खुशी भी होती है और मन में दहशत भी. तानाशाहों के दमन से दब कर रहने वालों में जब अपनी आवाज़ उठाने का साहस आता है तो उन्हें स्वयं भी विश्वास नहीं होता. सड़क पर निकलने वाली भीड़ में खुद को पा कर कैसा लगता होगा, इसकी कल्पना मैं कर सकता हूँ.

और तानाशाह क्या करेगा? गोली चला कर आंदोलन को दबायेगा या समझ जायेगा कि हर अत्याचार की तरह, उसके अत्याचार की नींव बहुत कच्ची है, हल्के से धक्के से गिर जायेगी?

1968 के चेकोस्लोवाकिया के वसंत की याद आती है, जब अगस्त में रूसी टैंक प्राग में घुस आये थे और उस वसंत को बँदूक की ताकत से दबा दिया था.

चेकोस्लोवाकिया के वसंत के बारे में केवल पढ़ा था, जबकि 1989 में चीन में हो रहे विद्यार्थी आंदोलन को करीब से देखने का मौका मिला था. पहले सियान में पुराने जनरल सेक्रेटेरी हू याओबेंग के मृत्यु के बाद हो रहे धरनो और जलूसों को देखा फ़िर, बेजिंग में तियानामेन स्क्वायर में विद्यार्थियों का आंदोलन देखा था. कुछ आंदोलनकारी छात्रों से बात की थी. बेजिंग छोड़ने के दो दिन बाद जब टेलीविज़न पर टैंकों को उसी तियानामेन स्क्वायर पर देखा था तो बहुत दहशत हुई थी.

यँगून में जब बुद्ध भिक्षुक जलूस के आगे चलते देखा तो मन में थोड़ी सी आशा जागी, शायद बुद्ध भिक्षुकों पर गोली चलाने का साहस तो उन बहादुर जनरलों में भी नहीं होगा जिन्होंने उँग सान सू क्यी जैसे नेता को पिछले सत्रह साल से कैद में रखा है. अभी सुबह के समाचार में बता रहे हैं कि रात भर रँगून में कर्फ्यू था और सुबह बहुत जगह पुलिस तैनात है. बुद्ध विहारों के बाहर भी पुलिस खड़ी है ताकि भिक्षुकों को बाहर निकलने से रोका जाये.

क्पयूटर, इंटरनेट और टेलीफोन की नयी तकनीकों ने जनरलों द्वारा लगाये बड़े प्रतिबँधों को पार कर के बाहर दुनिया में तस्वीरें, वीडियो और विचार भेजे हैं, ताकि सबको मालूम चल सके कि बर्मा में क्या हो रहा है.

धकधक करते दिल में आशा भी है कि इस बार जन आंदोलन सफल होगा. सवाल यह है कितने लोगों का खून सींचेगा इस सफलता को?

सोमवार, सितंबर 24, 2007

भारतीय पत्नि के सपने

मेरे बेटे ने पिछले वर्ष भारत में विवाह किया. इटली में पला और बड़ा हुआ बेटा मारको तुषार, मारको अधिक और तुषार कम है, और वह किसी भारतीय लड़की से विवाह करना चाहेगा, इसका हम लोगों ने कोई सपना तक नहीं देखा था. यह बात सोचना भी अविश्वासनीय सा लगता था. यहाँ इटली में तो आज के नवयुवक विवाह बहुत देर से करते हैं, कभी कभी दस दस साल तक बिना विवाह के साथ रहने के बाद विवाह होता है और अधिकतर वह भी नहीं होता. पर हमारी होनी में यह सुख लिखा था और उसका दिल भारत यात्रा में छुट्टियों में खोया. बहू इटली आयी और हमारा परिवार पूरा हो गया. बेटे बहू का प्यार देख कर मन को बहुत सुख मिलता है.

कुछ दिन पहले बेटे का एक मित्र पियेरो हमारे यहाँ खाने पर आया था. अचानक मुझसे बोला, "मैं भी भारतीय लड़की से विवाह करना चाहता हूँ, आप का इस बारे में क्या विचार है?"

पहले मुझे लगा कि वह मज़ाक कर रहा है बोला, हाँ क्यों नहीं, कहो तो तुम्हारे लिए लड़की देखें.

पर फ़िर जब उसका गम्भीर चेहरा देखा तो अपनी हँसी को दबा कर बोला, "इस तरह के सोचने से केवल बात नहीं बनेगी, सचमुच की लड़की से शादी करनी है तो सचमुच का प्यार चाहिये. अगर तुम मारको और आत्मप्रभा, इन दोनों को देख कर अगर मन में एक छवि सी बना लोगे तो सच्चाई से नहीं, कल्पना से विवाह करोगे और जब सचमुच की लड़की का सोचना, रहना, इच्छाएँ, विचार समझ में आँयेंगे तो उनसे मेल कैसे बैठेगा?"

भारत में माता पिता द्वारा पक्के किये गये विवाह या फ़िर स्वयं अखबार या किसी एजेंसी के माध्यम से खोजे जीवन साथी से विवाह करना और साथ निभाना आसान है क्योंकि यह बात हमारी सभ्यता, हमारी सोच में बसी है. यहाँ के केवल "मैं" और "मेरा" को सबसे ऊँचा सोचने वाले व्यक्तिगत भावना वाले पश्चिमी संसार में इस तरह की सोच नहीं. यहाँ प्रेम और विचारों के मिलने के बिना विवाह करने की कोई नहीं सोचता. डर सा लगा कि अगर भावुकता में पियेरो कुछ इस तरह का कदम उठायेगा तो खुद तो दुख पायेगा ही, किसी मासूम लड़की को भी दुख उठाना पड़ेगा. यह सब समझाया उसे, पर वह अपनी बात पर ही अड़ा है कि भारतीय लड़की से ही विवाह करना है.

"अच्छा, अगले साल जब मारको और आत्मप्रभा दोनो भारत में छुट्टियों में जायेंगे, तो तुम भी साथ चले जाना. क्या मालूम तुम्हें सचमुच कोई लड़की सच में भा जाये", मैंने सुझाव दिया, "और तब तक तुम कुछ मिर्च मसाले वाला खाना खाने का अभ्यास करो, इस तरह से सूखा सादा खाना खाओगे तो कौन भारतीय लड़की तुमसे विवाह करना चाहेगी?"

तब से अगले साल की छुट्टियों की तैयारी शुरु और कहाँ जायेंगे, क्या करेंगे इसके प्लेन बनने लगे हैं. पियेरो अँग्रेजी का अभ्यास कर रहा है. वह आज कल हिंदी फ़िल्मों और हिंदी फ़िल्म संगीत से जान पहचान बढ़ा रहा है. कहता है कि रानी मुखर्जी और एश्वर्या राय सुंदर हैं. नीचे वाली तस्वीरों में जिसमें पियेरो अपने आप को मारको और आत्मप्रभा के साथ साथ अलग अलग हिरोईनों के साथ देखता है, उसने ही बनायी है.









शनिवार, सितंबर 22, 2007

फणीश्वरनाथ रेणु की "कलंक मुक्ति"

यात्रा की तैयारी कर रहा था, तो सोचा कौन कौन सी किताबें साथ पढ़ने के लिए ले जायी जायें? नज़र पड़ी फणीश्वरनाथ रेणु की "कलंक मुक्ति" पर. जनवरी में भारत यात्रा में खरीद कर लाया था, अभी तक पढ़ने का मौका नहीं मिला था. सोचा कि रेणू जी को पढ़ा जाये.



पढ़ कर कल्पना पर भारतीय लेखकों के बारे में अँग्रेजी और इतालवी भाषाओं में परिचय देने का जो काम करने का सोचा था, उसमें भी रेणु जी का बारे में लिख सकता हूँ, यह विचार भी मन में था. यह काम भी बहुत समय से अधूरा सा पड़ा है. मुझे लगता है कि अच्छा लेखक केवल अपनी भाषा के लोगों के बोलने वालों में जाना जाये और वृहद जगत में उसके बारे में कुछ भी न मालूम हो यह ठीक नहीं.

रेणु जी का नाम मेरे मानस में तीसरी कसम फ़िल्म और उसके हीरामन से जुड़ा है. उनकी कुछ किताबें, जैसा मैला आँचल और परती परिकथा पढ़े तीस पैंतीस साल हो गये थे. लड़कपन के अधकच्चे मन को कहानियाँ अच्छी अवश्य लगी थीं पर क्या कहानी थी उस सब की यादें धुँधलाई सी थीं.




"कलंक मुक्ति" की कहानी की नायिका है सुश्री बेला गुप्त, भारतीय स्वत्रंता संग्राम के जोश में गाँव छोड़ने वाली बेला गुप्त को अपने क्राँतीकारी साथी से धोखा और बलात्कार मिलता है. बेला गुप्त को शरण मिलती है अनपढ़ और साहसी मुनिया और उसकी बेटी रामरति से, और सहारा मिलता है रमला बैनर्जी से जो उसे कामकारी स्त्रियों के होस्टल में काम दिलवाती हैं. बेला गुप्त को अपने बीते जीवन का पश्चाताप करना है, वह जन साधरण की सेवा में जुट जाती हैं और निर्बल कमज़ोर युवतियों को सहारा देना ताकि वे शिक्षा के माध्यम से आत्मनिर्भर बन सकें, में जुट जाती हैं और इसके लिए किसी रिश्वतखोर या भ्रष्ट अफसर से जूझने से नहीं डरती. आँख की किरकिरी बेला गुप्त और उसकी निडर सहायिका रामरति को जेल मिलती है होस्टल में वेश्याघर चलाने और दवा के पैसे खाने के जुर्म में, और दलाली और अत्याचार करने वाले सरकारी अफसरों को कुछ नहीं होता. बेला गुप्त चुपचाप न्याय के इस अन्याय को स्वीकार रकती हैं, अपने बीते कल के पश्चाताप के लिए.

सारी कहानी को फ्लैशबैक में लिखा गया जब लेखक "अजीत भाई" की मुलाकात रात को रामरति से होती है जो बताती है कि वह और बेला गुप्त जेल से मुक्त हो गयीं हैं. अजीत भाई कौन हैं, बेला गुप्त से उनका क्या सम्बंध था यह बात उपन्यास में स्पष्ट नहीं होती. जेल से छूट कर बेला गुप्त और रामरति वेश्या बन गयीं है, प्रारम्भ के रामरति के बोलने से कुछ कुछ ऐसा लगता है पर यह बात भी स्पष्ट नहीं होती. जेल से निकल कर बेला गुप्त के पास जीवन यापन का कुछ और रास्ता नहीं था, यह बात पूरी किताब में बेला गुप्त के बनाये व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती.

किताब छोटी सी है, कुल ११२ पन्ने (राजकमल पेपरबैक्स, मूल संस्करण का असंक्षिप्त रूप, पहला संस्करण १९८६) और कापीराइट है पद्मपराग राय रेणु का जो शायद रेणु जी के पुत्र थे. रेणु जी का देहांत १९७७ में हुआ था, यानि यह पैपरबैक्स संस्करण उनकी मृत्यु के ९ साल बाद प्रकाशित किया गया. एक बार पढ़नी शुरु की तो पूरी पढ़ कर ही दम लिया.

पुस्तक की सबसे सुंदर बात है उसकी भाषा जो शायद बिहार के उस भाग की भाषा है जहाँ रेणू जी रहते थे? भोजपुरी, मैथिली, अवधी, आदि भाषाओं में क्या अंतर है और इन सब भाषाओं को पहचानना मेरे बस की बात नहीं, पर उन्हें पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है, शायद क्योंकि इन भाषाओं में बचपन के कई रिश्तों की यादें छुपी हैं!

कई जगह शब्दों के ठीक अर्थ पूरी तरह समझ नहीं आते पर उन्हें ऊँची आवाज में पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. जैसे उपन्यास से लिया यह हिस्साः

जानकी देवी के उत्साहित करते ही वह गाने लगी, गुनगुनाकर. बेला गुप्त चुप खड़ी सुनती रही. ... गीत सुनते समय, एक ग्रामीण बालिका वधु की छवि उतर आयी आँखों के सामने. चंगेरी भर गेहूँ लेकर पीसने बैठी है चक्की पर. हमदर्द पड़ोसन पूछती है, "औ सुकुमारी! किस पत्थरदिल सास ने तुझे चंगेरी भर गेहूँ दिया है तौल कर, किस ननद ने तुझे अकेली नौ मन की चक्की चलाने को भेजा है. हाय हाय, चक्की का हत्था पकड़ कर, झुमाई हुई निहुरी सी, घूँघट के अंदर ही रोती है, छोटी गुड़िया जैसी दुलहिन...

के तोरा देलकउ सुन्दरि दस सेर गेहूँआ
के तोरा भेजलकउ एकसरि जँतसारे ना कि.
कौन रे निदरदो के तेहुँ रे पुतौहिया
कौन रे मुरुखवा पुरुखवा तोर भतार न कि
"हथड़ा" पकड़ि सुन्दरि झमरि...

चंगेरी, झुमाई, निहुरी जैसे शब्द समझ नहीं आते है पर पढ़ने अच्छे लगते हैं. इसी तरह की भाषा का एक अन्य नमूना हैः

गौरी बोली, "तो, सुरती सहुआइन ने तेरा क्या बिगाड़ा है, कुन्ती मौसी? ...हरिजन तो वह मुझे समझती है.
"मुझे मौसी पीसी मत कहे कोई."
"क्यों री गौरी. छोटी मेम के घर कोंहड़े के लत्तर की भाजी कैसी बनती है, सूखा या रसदार? छोटी मेम खुद बनाती है."
"उँहु! खुद नहीं बनाती है, बनाता है उनका वह डिब्बावाला ... क्या नाम है भला - कूकड़! सभी चीजें डाल देती है, एक साथ. और जब उतारती है तो भात अलग, दाल अलग, तरकारी अलग."
यही बात मुझे रेणू जी की अच्छी लगती है, सुघड़ कथान्यास की संवेदना और भाषा का सौँधापन.

गुरुवार, सितंबर 20, 2007

जननेता का मनमोहक व्यक्तित्व

करीब 25 साल पहले दिल्ली में एक पोलैंड के नवयुवक से मुलाकात हुई थी जो फ़िल्म अभिनेता से नेता बने व्यक्तियों पर शौध कर रहा था और उस पर अपनी थीसिस लिख रहा था. अमरीका में रियेगन से भी मुलाकात कर चुका था. कहता था कि यह बात केवल भारत में नहीं अन्य बहुत से देशों में है कि प्रसिद्ध अभिनेता एक दिन राजनेता बन जाते हैं. बोला, "एनटीआर जैसा जादुवी व्यक्तित्व वाला पुरुष मैंने कोई अन्य नहीं देखा. उनसे बात करके मुग्ध सा हो गया, मन में लगा कि अगर मुझे वोट करना हो तो अपना वोट अवश्य एनटीआर को ही देता."

कुछ ऐसा ही अनुभव मुझे हुआ जब उभरते इतालवी राजनेता निकी वेनदोला से मिलने का मौका मिला. एक दो बार उन्हें पहले टीवी पर देख चुका था. शुरु में उनके छोटे बाल और बायें कान में लटकती बाली देख कर कुछ अजीब सा लगा था. सोचा कि अवश्य हिप्पी किस्म के व्यक्ति होंगे. पर पिछले सप्ताह जब मिलने का मौका मिला तो राय बदल गयी.

दक्षिण इटली के बारी नामक शहर में हो रही सभा का विषय था संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बनाया विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों से सम्बंधित नया अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन. वेनदोला जी उस राज्य के गवर्नर हैं और सभा के उद्घाटन के लिए आये थे. सोचा था कि राजनीतिक नेता जिस तरह के भाषण देते हैं वैसी ही बात सुनने को मिलेगी, यानि बेकार की बातें और कुछ झूठमूठ के वादे. पर जब उन्होंने बोलना शुरु किया तो आश्चर्य हुआ. कोई लिखा हुआ भाषण नहीं था और अपनी बात कहते हुए उन्होंने अपने जीवन अनुभवों से, अपने विकलाँग मित्रों के जीवन अनुभवों से कई बातें बतायीं. बहुत अच्छा लगा. सुना है कि वह केवल अच्छे भाषण ही नहीं देते, काम के लिए भी उनकी सरकार लोकप्रिय है. (नीचे तस्वीर में निकी वेनदोला)



पर क्या लोगों को मंत्रमुग्ध करना ही सब कुछ होता है? क्या सचमुच मंत्रमुग्ध करने वाले नेता जनहित के लिए काम करने में सफल होते हैं?

इण्लैंड के नये प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन का समाजसेवी संस्थाओं के साथ निशुल्क काम करने वाले स्वयंसेवको के बारे में भाषण पढ़ा वह बहुत अच्छा लगा. उनसे पहले के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर में लोगों को मंत्रमुग्ध करने की शक्ति थी, पर जिस तरह के काम उन्होंने किये उससे उनका सारा जादू गायब हो गया. उनके मुकाबले में गोर्डन ब्राउन के व्यक्तित्व में कोई जादू नहीं लगता.

यूरोप में इस तरह सामाजिक कार्यों के लिए काम करने वाले स्वयंसेवकों की संस्थाएँ हर देश में मिल जायेंगी. इटली में तो हर छोटे छोटे शहर में कई कई इस तरह की संस्थाएँ होती हैं. ब्राउन जी ने कहा कि औरों के लिए निस्वार्थ काम करने वाले लोग ही ब्रिटेन को बड़ा बनायेगें और उन्होंने सरकार की ओर से इस तरह की संस्थाओं को मजबूत करने तथा सहारा देने के लिए कई कदमों की घोषणा की. उनके इस भाषण को पढ़ कर मन में उनकी जो छवि थी वह बदल गयी.

लोगों को अपने व्यक्तित्व से मंत्रमुग्ध करना तो आसान है. आसान न होता तो बुश जैसे लोग बार बार कैसे चुने जाते? पर अपनी सरकार के काम से मुग्ध करना यह शायद थोड़ा कठिन है. और भारत में आज कौन से नेता हैं जो देश की जनता को मंत्रमुग्ध कर पाने की क्षमता रखते हैं?

गुरुवार, अगस्त 02, 2007

नया संगीत और धोबी का कुत्ता

कई बार कुछ भारतीय संगीतकारों से बात करने का मौका मिला और फ्यूजन संगीत की बात चली तो उनमें से अधिकाँश का कहना था कि भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिमी संगीत से मिलाना बेकार है क्योंकि जो संगीत बनता है वह धोबी के कुत्ते की तरह होता है, न घर का न घाट का.

वैसे तो मुझे यह धोबी के कुत्ते वाली कहावत ही समझ नहीं आती. बचपन में घर के पास ही सड़क के कोने में धोबी का घर था जिसके पास एक कुत्ता भी था और उस कुत्ते की हालत में मुझे अन्य आसपास के कुत्तों से कोई भी बात भिन्न नहीं दिखी.

खैर बात संगीत की हो रही थी. कुछ दिन पहले हम लोग फ्राँस के एक संगीत ग्रुप "ओल्ली और बोलिवुड ओर्केस्ट्रा" (Olli & Bollywood Orchestra) को सुनने गये. ग्रुप के अधिकाँश सदस्य फ्राँस के ही है. ओल्ली ग्रुप के गायक और प्रमुख संगीतकार भी हैं और भारतीय और पश्चिमी संगीतों की शैलियों को मिला कर अपना संगीत बनाते हैं, पर केवल शास्त्रीय संगीत से नहीं, मुंबई के फ़िल्मी संगीत से भी.




जब ओल्ली गाते हैं तो उनके गीतों के शब्द हिंदी के होते हैं और उच्चारण फ्राँस का, कभी कभी शब्द आपस में यूँ ही जोड़ देते हैं जिनमें कर्णप्रियता तो होती है पर अर्थ नहीं पर सुनते समय अर्थ की कमी नहीं महसूस होती बल्कि शब्दों के अर्थों के बारे में भूल कर आप केवल संगीत का आनंद ले सकते हैं. अपने संगीत की धुनें भी वह स्वयं ही बनाते हैं जो जाने पहचाने गानों से नहीं ली गयीं बल्कि जिनमें हिदी फ़िल्म संगीत और पश्चिमी ओपेरा संगीत का सम्मिश्रण सा है.

संगीत के साथ साथ पीछे पर्दे पर वीडियो छवियाँ भी दिखाते हैं जो अपने आप में कला का संपूर्ण रूप हैं. वीडियो के इन छवियों में पुरानी हिंदी फिल्मों के दृष्यों का अनौखा प्रयोग होता है, कभी एक ही दृष्य को बार बार दिखा कर, कभी उनमें दूसरी छवियाँ मिला कर, कभी उन पर रंग बिखेर कर, अपने संगीत की धुन से छवियाँ के घूमने को मिला कर, अजीब सा अहसास देते हैं. शुरु शुरु में जब उन्होंने गाना प्रारम्भ किया तो शब्दों के अर्थ ने होने, या अर्थ हो कर भी उनका उच्चारण विभिन्न होने के बारे में सोच रहा था पर थोड़ी देर में ही इन सब बातों को भूळ कर केवल ध्वनि, संगीत और छवियों के मायाजाल में खो सा गया.




"सुन मामा", "मेरी तेरी दोस्ती" गीत सबसे अच्छे लगे. कंसर्ट के अंत में गाँधी जी का भजन "रघुपति राघव राजा राम" भी बहुत अच्छा लगा, जो ओल्ली जी तीन विभिन्न सुरों में प्रस्तुत करते हैं पहले सामान्य भजन के रूप में शुरु करते हैं पर जिसमें अंतिम सुर ओपेरा संगीत से लिया गया है.

इस दल में दो भारतीय सदस्य भी है, कलकत्ता की सुदेशना भट्टाचार्य जो सरोद बजाती हैं और पाँडेचेरी के प्रभु एडुआर्ड जो तबला और ढोलक बजाते हैं. दोनो ही बहुत अच्छे कलाकार हैं. कंसर्ट के बीच का हिस्सा, इन दोनो की जुगलबंदी का था और बहुत सुंदर था.




इस ग्रुप ने हिंदी फ़िल्मी संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत, पश्चिमी पोप संगीत और पश्चिमी ओपेरा को मिला कर जो फ्यूजन संगीत बनाया है वह अपने आप में संदर भी है और नया भी है इसलिए शायद नयी कहावत होनी चाहिये, "धोबी का कुत्ता घर का भी और घाट का भी".

प्रस्तुत हैं इस कंसर्ट की कुछ तस्वीरें.



बाँसुरी पर सिल्वान बारो


लाल कमीज में ओल्ली (शायद उनके नाम का सही उच्चारण है ओई?)






बायें से, गिटार बजाने वाले एरवान, बाँसुरी वाले सिल्वान और तबला बजाने वाले प्रभु

बुधवार, अगस्त 01, 2007

आप बीती कहने का साहस

हिंदी की पत्रिका "हँस" कई वर्षों से दलित लेखकों को प्रोत्साहन दे रही है, शायद एक दलित विषेशाँक भी निकल चुका है. मैं इस बात से सहमत हूँ कि किसी भी बात के बारे में लिखना हो, अगर उसे वह लिखे जो स्वयं उस बात का अनुभव कर चुका है और उसके लेखन में एक अन्य ही सच्चाई आ सकती है.

कहानी लिखना या उपन्यास लिखना, आप बीती लिखना नहीं है बल्कि लेखक द्वारा कल्पना की दुनिया से विभिन्न व्यक्तित्व बनाना है. इसलिए शायद यह आवश्यक नहीं कि दलित जीवन के बारे में केवल दलित ही लिख सकते हैं, पर यह अवश्य है कि अगर दलित अपने जीवन के बारे में लिखेंगे तो वे उस जीवन के बारे में नये पहलू रख सकते हैं जिनके बारे में गैरदलित लेखकों ने सोचा भी नहीं हो. यह नहीं कि हर दलित लेखक अपने लेखन में अपने जीवन को समझने के लिए नये पहलू उठा पायेगा, पर उनके बीच में भी कुछ लोग ऐसे अवश्य होंगे जिनमें यह क्षमता हो.

मुझे इस सच्चाई का एहसास तब हुआ जब विकलाँग लेखकों के सम्पर्क में आया. विकलाँगता शरीर में किसी अंग के सामान्य न होने सा या उसके सामान्य तरीके से काम न करने पाने से होती है, यह मेरा विश्वास था पहले. विकलाँग विचारकों के सम्पर्क में आया तो समझने का मौका मिला कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में देखना केवल एक तरीका है विकलाँगता विर्मश का. विकलाँगता को समाज के सोचने और काम करने की तरीके में भी देखा जा सकता है, जब व्यक्ति के आसपास रुकावटें बना कर समाज व्यक्तियों को विकलाँग बना सकते हैं.

समाज के हाशिये से बाहर हर गुट में, चाहे वह विकलाँग हों, चाहे दलित हो, या शोषित स्त्रियाँ हों, या अल्पसँख्यक भाषी या अल्पसँख्यक धर्म के लोग, कुछ सत्य छुपे हैं जिन्हें वह स्वयं ही प्रस्तुत कर सकते हैं और बृहत संसार को समझा सकते हैं.

तो बात "हँस" के दलित लेखन की कर रहा था. अधिकतर दलित लेखक मुझसे पढ़े नहीं जाते, उनके लेखन में मुझे वह सत्य नहीं दिखता जिसे गैरदलित नहीं दिखा सकते और लेखन शैली विषेश नहीं होती, पर हँस के जुलाई अंक में श्यौराज सिंह बैचेन की आत्मकथा "यहां एक मोची रहता था" ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला. एक बार पहले भी हँस में उनका लिखा पढ़ा था जो मुझे बहुत अच्छा लगा था. इस बार भी उनका लेख पढ़ने लगा तो बीच में छोड़ा नहीं गया, पूरा पढ़ कर ही दम लिया और बाद में उसके बारे में सोचता रहा. दलित जीवन क्या होता है इसकी समझ भी देते हैं पर साथ ही उनके लिखने की शैली भी ऐसी है कि पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. जलते अँगारों जैसे शब्द हैं और उन्हें पढ़ कर आधुनिक जातपात के नाम पर होने वाले भेदभाव की अमानवीयता की समझ बनती है.

अपनी आप बीती कहना कभी आसान नहीं होता. श्यौराज जी के अपने बचपन में मोची के काम करने के दिनों के वर्णन में कोई रुमानियत नहीं बस साफ सीधे शब्दों में बात कहते हैं. मैं मानता हूँ कि अपने आप बीते को इस तरह बता सकना ही मन को शोषण की ग्रथियों से और बीते जीवन के अनुभवों की यादों की जंज़ीरों मु्क्ति दे सकता है.

इसी अंक में अभय कुमार दुबे का "कंडोम के साथ चलते हुए यौन शिक्षा का विरोध" लेख भी बहुत अच्छा लगा जिसमें उन्होंने यौन विषय की ओर हमारे समाज में व्यापित दौगली मानसिकता पर प्रश्न उठाये हैं.

दोनो लेख इंटरनेट पर भी पढ़े जा सकते हैं, अगर अब तक नहीं पढ़े हों तो इन्हें अवश्य पढ़ियेगा.

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कभी कभी कोई छोटी सी पढ़ी हुई बात मन में ठहर सी जाती है.

कुछ यूँ ही हुआ जब "हँस" के जून अंक में वंदावन के स्वामी नित्यानंद का पत्र पढ़ा. उन्होने लिखा कि



"जैसे साहित्यकार उदास हैं कि पाठक नहीं मिलते, वैसे ही वेदांत के प्रवक्ताओं के लिए श्रोताओं का अभाव है. अंत यहां करूँगा कि -
दिल खुश हुआ है मस्जिदे वीरान देख कर
मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है"

वेदांत के श्रोताओं की कमी की बात करते हुए स्वामी जी ने बहुत सहजता से मस्जिद और खुदा की बात कर दी, बहुत अच्छी लगी. ऐसे वेदांत दर्शन की बात करने वाले स्वामी की बात को अवश्य सुनना चाहूँगा.

हँस के इसी अंक में एक और पत्र था आजकल के बहुत से धर्मगुरुओं के विषय पर, इंदौर से डा. ओमप्रकाश शर्मा भारद्वाज का यह पत्र, वह भी मुझे बहुत सटीक लगा. बहुत देर तक उनके शब्द मन में गूँजते रहे. आधुनिक धर्म गुरुओं के बारे में उन्होंने लिखा है,



"जो आज नित्य गगन विहार कर रहा है, वही मंच से कारुणिक स्वर में श्रीराम जी के वनगमन के समय उनके तलुओं में पड़े छालों का वर्णन कर रहा है. जो आज श्रीमंतों ही आतिथ्य स्वीकार करते हुए वातानुकूलित कक्षों में डनलप के गद्दों पर जाम लेता है, वही श्रीरामसीता की पंचवटि में भूमि शयन का वर्णन कर रहा है. जो आज काजू बादाम पिस्ता केसर कस्तूरी मेवा व शुद्ध घृत का भोजन करता है वही मंच से शबरी के बेरों का, सुदामा के तंदुल का व दिदुर के सागपात के आलौकिक स्वाद का वर्णन कर रहा है. जो शरीर की क्षणभंगुरता पर दार्शनिक रूप से व्याख्यान देता है, वही अपना जन्मदिन धूमधाम से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाता है. अपनी शोभा यात्राएँ निकलवाता है. अपना पाद पूजन कराता है. जो माया मोहव धन संग्रह की आसक्ति को त्यागने का उपदेश दे रहा है, वही अपने कथा स्थल के बाहर अपने चित्र,कैसेट, ओडियो, वीडियो, पुस्तकें, पूजा का सामान, यहाँ तक मंजन, तेल, शैम्पू, साबुन, चाय, पेन, कापी, आदि बेच रहा है..."
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जीमेल को लकवा मारा?

कुछ दिनों से हमारे गूगल देवता जी नाराज हैं. जीमेल खोलो तो बिना किसी दिक्कत के खुल जाता है पर सिवाय संदेशों को कूड़े में फैंकने के कुछ और नहीं करने देता. संदेश खोल कर पढ़ने नहीं देता, न ही नया संदेश लिखने देता है. कोई भी लिंक काम नहीं करती. क्या कोई मेरी सहायता करेगा कि उनकी यह बिमारी ठीक की जा सके?

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख