बुधवार, फ़रवरी 25, 2009

एक अन्य अयोध्या

भारत में तो अयोध्या देखने का अभी तक मौका नहीं मिला पर जब थाईलैंड में वहाँ की अयोध्या के बारे में सुना तो निश्चय किया कि अवश्य देखने जाऊँगा. हिंदु धर्म और भारतीय संस्कृति का थाईलैंड पर बहुत प्रभाव है जिसका एक उदाहरण वहाँ का राजपरिवार है जहाँ हर राजा को राम का नाम दिया जाता है. आज के थाई राजा श्री भूमिबोल जिन्होंने सन 1950 में राज शासन सँभाला, उन्हें "राम नवम" के नाम से भी जाना जाता है. अठारहवीं शताब्दी तक थाईलैंड की राजधानी थी प्राचीन शहर अयोध्या जिसे थाई भाषा में अयुथ्या भी कहते हैं.

पूछा तो मालूम चला कि अयोध्या शहर बैंकाक से करीब 80 किलोमीटर दूर है, पर उस सड़क पर यातायात बहुत होने से यात्रा का समय दो घँटे तक हो सकता है. बैंकाक से स्थानीय रेलगाड़ी भी मिलती है अयोध्या जाने के लिए पर उसमें भी दो घँटे लगते हैं. दिक्कत यह थी कि मैं बैंकाक काम पर आया था और दिन भर कहीं जाने का समय नहीं मिलता था. बस एक रविवार की सुबह ही थी जिस दिन खाली था पर उस दिन भी, दोपहर को एक बजे किसी को मिलना था.

रविवार को सुबह छह बजे ही होटल से निकला और फटफटिया ले कर विक्टरी मोनूमैंट पहुँचा जहाँ से अयोध्या की बस मिलने की जानकारी ली थी. विक्टरी मोनूमैंट चौराहा है जहाँ बीच में गोल बाग है और हर दिशा में सड़कें निकलती हैं. तब मालूम चला कि हर कोने से कहीं न कहीं की मिनीबसें जा रहीं थीं और सही सड़क खोजने में, जहाँ से अयोध्या वाली मिनीबस मिलनी थी, कुछ देर लगी. मिनीबस में बैठा तो पता चला कि इनके चलने का कोई पक्का समय नहीं, जब पूरी भर जाती है तभी चल पड़ती है. बस को भरते भरते कुछ देर लगी, तो मन में खुलबुलाहट हो रही थी कि एक ही तो सुबह मिली है घूमने के लिए और वह भी यात्रा में ही निकल जायेगी. करते करते सात बजे बस चली तो बहुत तेजी से और 45 मिनट में हम लोग अयोध्या पहुँच गये थे. यानी रविवार सुबह को यातायात कम होने का कुछ फायदा हुआ. इस यात्रा का किराया था 65 भाट यानि कि करीब 90 रुपये.

थाई अयोध्या शहर तीन नदियों के संगम पर बना है. मिनीबस शहर के नदियों से घिरे बीच के द्वीप में बोंग आयन सोई मार्ग पर रुकती है, वहाँ से मैं छाऊ फ्राया नदी की ओर निकला, सुना था कि वहाँ फेरी बोट स्टेशन के पास साईकिल किराये पर ली जा सकती है. साईकिल की दुकान को खोजने में देर नहीं लगी. साईकल का एक दिन का किराया था 40 भाट यानि कि 55 रुपये. साईकल की दूकान वाली लड़की नें साथ ही शहर का नक्शा भी दिया और  इस तरह साईकल ले कर हम निकल पड़े शहर देखने.

मेरा सबसे पहला पड़ाव था सड़क के किनारे बना एक भग्न बुद्ध मंदिर जिसका नक्शे में कोई नाम नहीं था, न ही कोई बोर्ड लगा था, न कोई देखने वाला वहाँ, न टिकट. वहाँ थी एक मीनार जैसी छेद्दी या स्तूप और सामने पत्थरों पर रखी बुद्ध के सिर की मूर्ती. सब कुछ जीर्ण और गिरता हुआ. बहुत सुंदर लगा और थोड़ा सा दुख हुआ कि उसकी अच्छी देखभाल नहीं हो रही थी.




अगला पड़ाव था महाथाट बुद्ध मंदिर. यहाँ टिकट था 50 भाट. यह अयोध्या का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है. कई एकड़ फ़ैले इस मंदिर में अधिकतर खण्हर ही हैं. मुझसे सबसे अच्छा लगी पीत वस्त्र में बुद्ध की एक प्रतिमा और पंक्तियों में योग मुद्रा में बैठी सिर विहीन प्रतिमाएँ. इस मंदिर में इधर से उधर घूमने में बहुत समय निकल गया.






मंदिर से निकला तो फ़िर रुका एक बाग में जहाँ एक तरफ़ नाचती अप्सरा थी और दूसरी ओर एक अन्य बुद्ध मूर्ती. तब तक सूरज प्रखर हो चुका था और गर्मी बढ़ने लगी थी.



घड़ी देखी तो पाया कि दस बज चुके थे, तो फ़िर साईकल निकाली और चल पड़ा सम्माराट मंदिर की ओर. इस मंदिर में लोग पूजा करने आते हें और यहाँ देखने के लिए कोई शुल्क नहीं. एक ओर प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष हैं जहाँ पंक्ति में खड़ी शेरों की मूर्तियाँ बहुत सुंदर हैं..




पीछे की ओर कमल की पँखुड़ियों में बना बुद्ध मुख भी है जो मुझे कुछ विषेश नहीं जँचा. सामने के भाग में राजा की तस्वीर के सामने भी पूजा हो रही थी और साथ ही वहां बहुत सी मुर्गों की मूर्तियाँ थीं जिनका महत्व मैं समझ नहीं पाया. थाईलैंड में यही दिक्कत है कि अँग्रेज़ी जानने वाले लोग बहुत कम हैं और किसी से कुछ पूछना थोड़ा कठिन है.




घड़ी की सूईयाँ निष्ठुरता से भाग रही थीं, मेरा घूमने का समय चुकता जा रहा इसलिए तुरंत अगले पड़ाव की ओर रुख किया, यानि फ्रा सी सनफेट मंदिर. सनफेट राज भवन का प्राचीन मंदिर था और बहुत सुंदर है. मंदिर के पीछे की ओर प्राचीन राजभवन के खण्डर भी हैं.



मुझे लगने लगा था कि वापस बैंकाक पहुँचनें में देर हो जायेगी इसलिए सनफेट मंदिर में थोड़ा सा रुका और फ़िर साईकल को वापस देने चला. पूरा चक्कर लगा कर वापस साईकल की दुकान पर पहुँचा तो वहाँ काम करने वाली युवती थोड़ी हैरान हुई कि मैं कुछ ही घँटों में वापस आ गया था.

वापस बस अड्डे पर जाने के लिए सीधा रास्ता न ले कर, बल्कि मछली और सब्जी बाज़ार के बीच में होते हुए बस स्टैंड पर वापस आया और वापस बैंकाक जाने की मिनीबस पकड़ी. किस्मत अच्छी थी, अपनी मीटिंग से कुछ मिनट पहले ही वापस होटल पहुँच गया.



यह अयोध्या यात्रा छोटी सी थी, कुछ ठीक से नहीं देखा, थोड़े से मंदिर देखे बस, न तो नाव से नदी की यात्रा की, न ही नये शहर को देखा. मन को समझाया कि इस बार किस्मत में इतना ही था. किस्मत होगी तो फ़िर वहाँ जाने का मौका मिलेगा.

रविवार, फ़रवरी 08, 2009

वास्तुशिल्प से सभ्यता को जानना

भारत से मित्र आते हें तो उनकी अपेक्षा होती है कि उन्हें घुमाने ले जाया जाये और जब मैं उन्हें कोई गिरजाघर दिखाने जाता हूँ तो एक दो गिरजाघर देख कर थोड़ा बोर से हो जाते हैं, कहते हैं यार कुछ और दिखाओ. उनकी नज़र में गिरजाघर एक धार्मिक जगह होती है और उन्हें लगता है कि एक देखा तो मानो सभी देख लिये. फ़िर पूछते हैं यहाँ कोई महल, किले आदि नहीं हैं क्या?

कभी समझाने की कोशिश करुँ कि इटली ही नहीं, यूरोप के प्राचीन गिरजाघरों में पश्चिमी समाज की कला, इतिहास, संस्कृति और सभ्यता की वह झलकें मिल सकती हैं जो अन्य किसी महल, किले में नहीं मिलेंगी तो लोग विश्वास नहीं करते. यूरोप में कैथोकिल ईसाई धर्म में धर्म और शासन दोनों मिले हुए थे, कई सदियों तक पोप धर्मनेता होने के साथ साथ शासन भी करते थे, यह बात सबको नहीं मालूम होती. इसी कारण, गिरजाघर केवल धर्म का इतिहास नहीं बताते बल्कि राज्य कैसे बना, कैसे बदला, उसका क्या प्रभाव पड़ा, यह सब बातें भी बता सकते हैं. यूरोप की बहुत सी चित्रकला, शिल्पकला आदि का विकास धर्म के विकास से जुड़ा है, और इनके सर्वश्रेष्ठ नमूने गिरजाघरों में ही बने. लियोनार्दो द विंची, माईकलएंजेलो जैसे कलाकार गिरजाघरों के लिए काम करने वाले कलाकार थे.

तो गिरजाघर से सभ्यता, संस्कृति को कैसे जाने और परखें, इसको समझाने के लिए, आईये आज आप को मेरे शहर बोलोनिया का एक गिरजाघर दिखाने ले चलता हूँ. इस गिरजाघर को इतालवी भाषा में सन फ्राँसचेस्को गिरजाघर कहते हैं यानि सेंट फ्राँसिस गिरजाघर. यह गिरजाघर बहुत प्रसिद्ध नहीं है, शहर में आने वाले कोई भूले भटके पर्यटक ही यहाँ तक पहुँचते हैं. किसी से पूछिये तो लोग कहेंगे कि हाँ, है यह गिरजाघर पर ऐसी कोई भी विषेश बात नहीं है इसमें.

इसका निर्माण करीब 1225 के आसपास शुरु हुआ और 1266 AD में पूरा हुआ. पहली बार इस गिरजाघर को लूटा 1796 में नेपोलियन की सेना ने, जिसनें शासन करने वाले पोप की सेना को हरा कर, बोलोनिया शहर पर कब्जा किया और इस गिरजाघर को गोदाम बना दिया, यहाँ पर रखी कलाकृतियों को पेरिस भेज दिया गया जहाँ यह लूव्र के संग्रहालय में आज भी देखी जा सकती हैं.

दूसरी बार इसका विनाश हुआ द्वितीय महायद्ध में जब अँग्रेज़ी और अमरीकी बमबारी से गिरजाघर नष्ट हो गया. इस पहली तस्वीर में अगर आप ध्यान से देखें तो सामने की दीवार पर बीच में दो लम्बी खिड़कियाँ और गोल खिड़की के आसपास बने नये भाग को स्पष्ट देख सकते हैं.



यह गिरजाघर गौथिक वास्तुशिल्प शैली का इटली में पहला नमूना है. गौथिक शैली उत्तरी यूरोप में फ्राँस, जर्मनी, ईंग्लैंड आदि में विकसित हुई. इस शैली की विषेशता है इसकी नोकदार महराबें (arch). इससे पहले रोमेस्क या नोरमन शैली में अर्धगोलाकार महराबें बनायी जाती थीं. गौथिक शैली की अन्य विषेशताऐँ हैं ऊँची छतें, जिन्हें नोकदार महराबों जैसी लकड़ी से सहारा दिया जाता है, लम्बी खिड़कियाँ जिससे अंदर बहुत रोशनी आये, बड़ी नक्काशीदार गोल खिड़कियाँ, और उठे हुए खम्बे जो बाहर से दीवारों को सहारा देते हैं. इससे पहले के रोमानेस्क शैली के भवन पक्के, मजबूत दिखते थे, इस शैली से ऊँचाई, रोशनी और भवन के हल्केपन को अधिक महत्व दिया जाने लगा.

आप रोमानेस्क वास्तुशिल्प शैली को मोटे भारी शरीर वाले व्यक्ति की तरह सोच सकते हैं तो गौथिक शैली उसके सामने कँकाल जैसा हवादार ढाँचे की तरह लगेगी.

चूँकि यह नयी शैली थी जो तब उभर रही थी, इसलिए इस गिरजाघर में यह सब विषेशताएँ उतनी स्पष्ट नहीं दिखती जैसी कि पेरिस के नोत्रदाम गिरजाघर या मिलान के कैथेड्रल या लंदन के केंटरबरी गिरजाघर में दिख सकती हैं, जो इस वास्तुशिल्प शैली को अधिक सफ़ाई से दिखाते हैं. जबकि यहाँ गौथिक नहीं, बल्कि रोमानेस्क और गौथिक शैलियों का मिश्रण दिखता है.





उन्हीं दिनो में बोलोनिया में नया विश्वविद्यालय बना था जिसमें दो तरह के विषय पढ़ाये जाते थे, कानून और कला. कानून और अधिकार का सम्बंध विकसित होते व्यापार से था तो कला का सम्बंध था भूगोल, विज्ञान, चिकित्सा, आदि विषयों से. तब कानून और अधिकार को अधिक महत्व दिया जाता था और इसके बड़े शिक्षकों और विषेशज्ञों को गिरजाघर में दफ़नाने का मौका मिलता. साथ ही इस गिरजाघर में कला पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मिलने, बैठने की जगह मिलती.

गिरजाघर की दीवारों पर पुराने अधिकार और कानून पढ़ाने वाले कई शिक्षकों की अलग अलग तरह की कब्रें हैं. कोई कब्र पर अपने चेहरे की मूर्ती लगवाता था तो कोई अपने आप को किताब हाथ में लिये लेटा दिखाता था.




इस गिरजाघर में एक पोप भी दफ़्न हैं, 1410 AD में मरने वाले पोप अलेक्ज़ाडर पंचम. उस समय पोप में आपस में लड़ाई चल रही थी, फाँस में आविनोय्न में एक अन्य पोप बने थे, इसलिए सभी लोग अलेक्ज़ाडर पंचम को पोप नहीं मनाते थे.



गिरजाघर के बाहर भी कुछ अनौखी कब्रें हैं जिनमें कानून के विषेशज्ञ दफ़्न हैं, इसकी खासियत है पिरामिड जैसी हरी रंग की टाईल वाली गुम्बज. इन्हें इस तरह क्यों बनाया गया, या यह शैली कहाँ से आयी, यह मुझे समझ नहीं आया.



इन सब कब्रों में से मेरी सबसे प्रिय कब्र है जिसपर एक कक्षा का दृष्य बना है. बायीं ओर विद्यार्थियों की आपस में बात करना, दाहिने ओर एक विद्यार्थी अपने साथी को स्याही की शीशी दे रहा है, बीच में शिक्षक विद्यार्थियों को चुप कराने की कोशिश में उँगली से इशारा कर रहे हैं. पाँच सौ साल पहले की यह कक्षा जीवित सी लगती है और यह भी समझ आता है कि समय बीत जाये पर विद्यार्थी नहीं बदलते!



सेंट फ्राँसिस का नाम गाँधी जी तरह, शांती और सभी जीवों से प्यार के संदेश से जुड़ा है. सन 1899 में जब हालैंड में हैग शहर में पहली विश्व शाँती सभा का आयोजन हुआ था तो इस गिरजाघर में एक छोटा सा शाँती पूजा स्थल बनाया गया था जो आज भी देख सकते हैं.



आप बताईये, इतिहास की, समाज की, सभ्यता की, कितनी बातें छुपी हैं इस भूले भटके गिरजाघर में? अगर आप केवल गिरजाघर सोच कर देखेंगे तो यह सब कुछ नहीं दिखेगा, रुक कर ध्यान से देखेंगे तभी कुछ समझ में आयेगा.

बुधवार, दिसंबर 17, 2008

चपरासी से उपअध्यक्ष

दिल्ली से बचपन के मित्र ने समाचार पत्र की कटिंग भेजी है जिसमें लिखा है कि एक व्यक्ति जिसने 33 साल पहले दिल्ली के एक विद्यालय में चपरासी की नौकरी की थी, वही उस विद्यालय के वाईस प्रिसिपल यानि उप अध्यक्ष बने हैं. उस व्यक्ति का नाम है श्री गणेश चंद्र जो 55 वर्ष के हैं और जिन्होंने 1975 में दिल्ली के हारकोर्ट बटलर विद्यालय में चपरासी की नौकरी से जीवन प्रारम्भ किया था. उस समय वह मैट्रिक पास थे. उसके बाद धीरे धीरे उन्होंने बीए, एमए, बीएड, एमएड की डिग्री ली.

समाचार में लिखा है कि विद्यालय की एक अध्यापिका ने विद्यालय कमेटी के इस निर्णय के विरुद्ध हाई कोर्ट में दावा किया पर हाई कोर्ट ने दावा नहीं माना, इस तरह श्री गणेश चंद्र जी अपने नये पद पर कायम हैं.

इस समाचार से खुश होना तो स्वाभाविक ही है, मेरी खुशी और अधिक है क्योंकि बात मेरे विद्यालय की है, जहाँ ग्यारह साल तक पढ़ा था. मैं श्री चंद्र को नहीं जानता, उनके नौकरी पर आने से पहले ही मेरी पढ़ायी समाप्त हो चुकी थी, लेकिन मेरी ओर से उन्हें और हारकोर्ट बटलर विद्यालय की कमेटी को बहुत बधाई.

बिरला मंदिर के साथ बने इस सुंदर विद्यालय की मन में पहले ही बहुत सी सुंदर यादें थीं, उनके साथ यह गर्व भी जुड़ गया.




कुछ वर्ष पहले की इस तस्वीर में हरकोर्ट बटलर विद्यालय का पीछे वाला प्राईमरी स्कूल वाला हिस्सा, बिरला मंदिर से.

शुक्रवार, दिसंबर 05, 2008

गोरी, गोरी, ओ बाँकी छोरी

कियारा मेरी पुरानी मित्र है. वह एक इतालवी गायनाकोलोजिस्ट यानि स्त्री रोग की डाक्टर हैं. 1991 में जब हम पहली बार मिले थे तो वह दक्षिण अमरीकी देश निकारागुआ से लौटी थीं, जहाँ शासन से लड़ने वाले गोरिला दलों के बीच में रह कर उन्होंने आठ साल गाँवों में काम किया था. उन्होंने एक पत्रिका में मेरा अफ्रीकी देश कोंगो के एक अस्पताल के बारे में मेरा लेख पढ़ा था और तब उन्होंने निश्चय किया था कि वह उस अस्पताल में ही जा कर काम करेंगी और इसी सिलसिले में हम लोग पहली बार मिले थे.

पिछले सत्रह सालों में कियारा ने कोंगो में रह कर जीवन की कई कठिनाईयों का सामना किया है. एक सड़क दुर्घटना में अपनी दायीं बाजु खोयी है, युद्ध में अपने कई साथियों को मरते देखा है, आकाल के समय में गरीबों के बीच गरीबी में कीड़े मकोड़े खा कर रही हैं, पर इस सब के बावजूद उस अस्पताल में काम करने का अपना इरादा नहीं बदला. यह अस्पताल वहाँ का कैथोलिक चर्च चलाता है और आसपास करीब अस्सी किलोमीटर तक कोई अन्य अस्पताल नहीं इसलिए लोग मीलों चल कर वहाँ आते हैं. अपनी कृत्रिम बाजू की कमी को कियारा ने साथ काम करने वाली नर्सों को शिक्षा दे कर की है.

जब भी कियारा बोलोनिया आतीं हैं तो हमारे यहाँ ही ठहरती है और हम दोनो बहुत बातें करते हें, बहुत बहस करते हैं, रात को देर देर तक. पिछले दो दिनों से कियारा हमारे यहाँ थी और आज सुबह सुबह ही वापस रोम गयी है. कल रात को हमारी बहस शुरु हुई तो बहुत देर तक चली. अधिकतर बातों में मेरे विचार कियारा से मिलते हैं, मैं उसकी लड़ाईयों को समझता हूँ और उनसे सहमत भी हूँ पर कल रात को उससे कुछ असहमती थी इसलिए बहस अच्छी हुई. आज कियारा को रोम में एक मीटिंग में जाना है जहाँ रंगभेद की बात की जायेगी.

कियारा का कहना था कि कोंगो में लोगों में त्वचा का रंग गोरा करने का फैशन चल पड़ा है जिसमें स्वास्थ्य को नुकसान करने वाले पदार्थो, क्रीमों और साबुनों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि पारे वाले साबुन या क्विनोंलोन वाली क्रीमें जिनसे केंसर तक हो सकता है, और त्वचा खराब हो जाती है. उसका यह भी कहना था कि अक्सर यह क्रीमें साबुन आदि वहाँ भारतीय कम्पनियाँ बेचती हैं. साथ ही वह कह रही थी कि हमारी त्वचा का रंग कुछ भी हो हमें उस पर गर्व होना चाहिये, हर रंग सुंदर होता है यह मानना चाहिये और स्वयं को अधिक गोरा करने की कोशिश करना गलत है.

मेरा कहना था कि अगर गोरा करने वाली क्रीम या साबुन में स्वास्थ्य को नुकसान देने वाले पदार्थ हैं तो इसके बारे में जानकारी देना सही है और कोशिश करनी चाहिये कि इन कम्पनियों के बेचे जाने वाले सामान के बारे में जन चेतना जगायी जाये और इन क्रीमों साबुनो के बेचने पर रोक लगनी चाहिये. लेकिन जहाँ तक शरीर को गोरा करने की कोशिश करने की बात है, यह तो समाज में बसे श्याम रंग के प्रति भेदभाव का नतीज़ा है, जब तक उस भेदभाव को नहीं बदला जायेगा, लोगों को यह कहना कि आप इस तरह की कोशिश न करिये शायद कुछ बेतुकी बात है.

मैं यह मानता हूँ कि हम सबको अपने आप पर गर्व होना चाहिये, चाहे हम जैसे भी हों, चाहे हमारी त्वचा का रंग कुछ भी हो, चाहे हम पुरुष हों या स्त्री, चाहे हमारी यौन पसंद कुछ भी हो, चाहे हमारा कोई भी धर्म या जाति हो, चाहे हम जवान हों या वृद्ध. पर यह गर्व कोई अन्य हमें नहीं दे सकता है यह तो हम अपनी समझ से ही खुद में विकसित कर सकते हैं.

हमें समाज की सोच को बदलने की भी कोशिश करनी चाहिये ताकि समाज में भेदभाव न हो. पर अगर कोई भेदभाव से बचने के लिए, शादी होने के लिए, नौकरी पाने के लिए, या किसी अन्य कारण से अपना रंग गोरा करना चाहता है या झुर्रियाँ कम करना चाहता है या पतला होना चाहता है या विषेश वस्त्र पहनता है, तो इसमें उसे दोषी मानना या उसे नासमझ कहना गलत है. समाज की गलतियों से लड़ाई का निर्णय हम स्वयं ले सकते हें, दूसरे हमें यह निर्णय लेने के लिए जबरदस्ती नहीं कर सकते.

साथ ही मेरा कहना था कि काला होना भी गर्व की बात है, काले वर्ण में भी उतनी ही सुंदरता है यह बात काले वर्ण के लोग कहें तो बेहतर होगा. अगर गोरे लोग जिंन्होंने स्वयं भेदभाव को नहीं सहा, उनके लिए यह कहना आसान है पर साथ ही ढोंग भी हो सकता है.

चाहे भारत हो, चाहे अफ्रीकी देश, योरोपीय देश या ब्राजील, अमरीका जैसे देश, कहीं भी देखिये, पत्रिकाओं में, टेलीविज़न में, फ़िल्मों में कितने गहरे काले रंग वाले लोग दिखते हैं? अगर श्याम वर्ण के लोग हों भी तो वैसे कि रंग साँवला हो, गहरा काला नहीं. भारत में तो यह रंगभेद इतना गहरा है कि विवाह के विज्ञापन में बेशर्मी से साफ़ लिखा जाता है कि गोरे वर्ण की कन्या को खोज रहे हैं.

सुबह कियारा को रेलवे स्टेशन छोड़ने गया तो बोली कि वह मेरी बातों पर रात भर सोचती रही थी और अपनी मीटिंग में मेरी बात को भी रखेगी.

आप बताईये, अगर आप से पूछा जाये कि गोरा करने वाली क्रीमों के बैन कर देना चाहिये तो आप क्या कहेंगे?

शनिवार, नवंबर 29, 2008

अचानक आया तूफ़ान

बुधवार को शाम को अचानक जब मुंबई में होने वाले आतंकवादी हमले का पता चला तो वह मेरे सोने का समय था. कम्प्यूटर के काम मैं अधिकतर सुबह जल्दी उठ कर करता हूँ, शाम को काम से घर आकर मुझे कम्प्यूटर के सामने बैठना अच्छा नहीं लगता, संगीत सुनना और कुछ किताब या पत्रिका पढ़ना अधिक भाते हैं.

पर उस दिन शाम को थाईलैंड के समाचारों से परेशान था. दिसम्बर के प्रारम्भ में बैंकाक में बहुत बड़ी कोंफ्रेंस का आयोजन करने में कई महीने से हम लोग जुटे हुए थे, जब मालूम चला कि सरकार विरोधी दलों ने बैंकाक के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कब्ज़ा कर लिया है, तो बहुत घबराहट हुई कि अब क्या होगा, सारा आयोजन और मेहनत तो व्यर्थ जायेंगे ही, साथ ही हज़ारों यूरो का नुकसान होगा. तो शाम को घर आ कर भी मन बार बार बैंकाक की स्थिति के बारे में सोच रहा था, और रात को सोने से पहले सोचा कि कम्प्यूटर पर देखूँ कि वहाँ कि स्थिति में कुछ सुधार आया या नहीं. समाचार देखने लगा तो "मुंबई में आतंकवादियों का हमला" के समाचार पर दृष्टि पड़ी.

खोज कर तुरंत आईबीएन सात की चैनल मिली तो समाचार सुनने लगा. इस तरह घुस कर आंतकवादियों ने निर्भय हो कर कितने लोगों को इस तरह मार दिया जान कर रौंगटे खड़े हो गये. उस रात को सोया कुछ देर ही, बार बार उठ कर कम्प्यूटर के आगे बैठ जाता यह जानने के लिए कि आतंकवादियों को पकड़ा गया या नहीं. सुबह होते होते मेरा भी बुरा हाल था. रात में मुंबई में रहने वाले कुछ सम्बंधियों से बात भी हुई. भतीजी जो ताज होटल में काम करती है, वह ठीक है यह जान कर चिंता कम हुई पर लग रहा कि मानो युद्ध के बीच में बैठा हूँ. सोचा कि दिल्ली या अन्य शहरों में घरों में बैठे भारतीय भी मेरी तरह ही टीवी पर देख कर इस तरह विचलित हो रहे होंगे.

बृहस्पतिवार को सुबह काम पर जाते हुए गाड़ी चलाते हुए लगा कि मेरी हालत ठीक नहीं थी, युद्ध या भयानक घटनाओं में फँसे लोगों को जिस तरह का धक्का लगता है, उसके क्या लक्षण होते हैं, मालूम था और यह समझ आ रहा था कि वही लक्षण मुझमें भी थे. भीतर से स्तब्ध महसूस करना, अपने शरीर से स्वयं को अलग महसूस करना, लगे कि तैर रहे हों या उड़ रहे हों, जैसे कोई सपना हो, रुलाई आना जैसा हो रहा था. यह भी समझ आ रही थी कि इस हालत में गाड़ी चलाना ठीक नहीं था. खैर काम पर पहुँच कर सारा दिन भी करीब करीब इंटरनेट पर मुंबई में क्या हो रहा है इसी बात को देखने सुनने में निकला, काम तो कम ही हुआ. शाम को इतालवी राष्ट्रीय रेडियो वालों नें टेलीफ़ोन पर साक्षात्कार करने के लिए कहा तो उनसे साक्षात्कार में क्या कहा कुछ याद नहीं.

पर रात को थक कर इंटरनेट पर टीवी देखते देखते सो गया. कल शुक्रवार को सुबह सो कर उठा तो लगा कि सामान्य हो गया था, हालाँकि मुंबई में क्या हुआ इसका ध्यान बार बार होता था. आज शनिवार को आखिरकार आतंकवादियों पर काबू पा लिया गया. पिछले तीन दिनों में इतालवी टीवी भी समाचारों की शुरुआत मुबंई से ही कर रहे थे और समाचारों का अधिकाँश भाग इसी हमले की बात में निकलता था. आज भारत से लौटे इतालवी पर्यटकों के विभिन्न साक्षात्कार दिखाये गये. थके चेहरे वाली एक औरत नें ट्राईडेंट होटल की उस इक्कीस वर्षीय काम करने वाली युवती को याद करके धन्यवाद किया जिसनें इतनी कठिनाई में भी हिम्मत नहीं खोयी और विदेशी मेहमानों का ध्यान किया, उन्हें सहारा दिया. ट्राईडेंट के खाना बनाने वाले लोरेंज़ो जो अपनी पत्नी और छह मास की बच्ची के साथ सही सलामत घर वापस आ सके, की तस्वीरें और कहानी तो सारे विश्व में दिखायी जा चुकी हैं. आम लोगों ने किस तरह विदेशियों को ध्यान रखा इसकी बात कई लोगों ने की, सुन कर गर्व हुआ कि इतनी कठिन घड़ी में सामन्य भारतवासियों ने मेहमानों का ध्यान रखने की परम्परा का पालन किया.

आतंकवादी दुनिया में अपना संदेश पहुँचाने में सफ़ल रहे पर साथ ही पहली बार दुनिया ने भारत में आतंकवाद में खतरे की गम्भीरता को करीब से देखा. इससे पहले के बम फटते भी तो वह छोटा सा समाचार बन कर रह जाते थे, कोई उनकी गम्भीरता को ठीक से नहीं समझ पाता था. शायद अब पाकिस्तान में आतंकवादियों को अलग करने और उनका दमन करने का काम हो सकेगा? पिछले दिनों में भारतीय मुसलमान धर्म के विभिन्न जाने माने लोगों ने आतंकवाद और मौत के खेल खेलने वालों के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी, शायद इस घटना से भारतीय मुसलमानों में इस तरह के लोगों को अलग करने और उनके विरुद्ध बोलने की आवाज़ और बुलंद उठेगी.

इस लड़ाई में मरने वाले बेकसूर लोग और पुलिस वालों की मृत्यु के लिए दुख तो होता है पर साथ ही लगता है कि पुलिस वालों और अन्य सैना दलों को मीडिया से क्या कहा जाया, किस तरह सम्पर्क रखा जाये इस पर गम्भीरता से विचार करना होगा और भविष्य के लिए स्ट्रेजी बनानी चाहिये. बार बार कहना कि यह हो गया, वह गया, अब बस फाईनल हमला होगा, बगैरा जैसी बातें कुछ नौसिखियों सी लगीं.

आज सबसे अधिक चिंता तो इस बात की होती है कि इतना कुछ होने पर भी हमारे नेता कुछ नहीं सीखेंगे. हर बार की तरह इस बार ही हमारे नेता सब कुछ भूल कर एक दूसरे पर आरोपबाजी, वोट कैसे बनाये जायें, कैसे अपनी जेब भरी जायें जैसी बातों में मस्त हो जायेंगे, कुछ सबक नहीं लेंगे. यही भारत की सबसे बड़ी कमजोरी और दुर्भाग्य होगा.

रविवार, अक्तूबर 19, 2008

किताबें पढ़ने वाली औरतें

आशा पूर्णा देवी के उपन्यास सुवर्णलता की नायका सुवर्ण अच्छी औरत नहीं. सब गलत मलत काम करती है. जब सबके सामने नहीं कर सकती तो छुप कर करती है. समाज में रहना नहीं जानती, उसके नियम नहीं समझती, जब कुछ नहीं मानना चाहती तो उसे चुप रहना नहीं आता. बार बार मार खा कर फ़िर अपनी इच्छा बताने नहीं घबराती. खुला आसमान, बारामदा, खिड़की, सीढ़ियाँ, समुद्र, किताबें, घर से बाहर दुनिया में क्या हो रहा है इसके बारे में जानना सोचना, सब उसकी इच्छाएँ हैं जिनको नहीं स्वीकारा जा सकता, क्योंकि यह सब बातें अच्छे घर की औरतों को शोभा नहीं देती. (सुवर्णलता, आशापूर्णा देवी, अनुवादक हंसकुमार तिवारी, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2001)

"यह नाटक, उपन्यास पढ़ना बंद कराना ज़रुरी है. उसी से सारा अनर्थ घर में आता है."
इसलिए प्रबोध ने स्त्री को काली माई की, अपनी कसम दी है. रात की निश्चिंत्ता में समझाया था कि उपन्यास पढ़ने में क्या क्या बुराईयाँ हैं.
किन्तु बेहया सुवर्ण उस भयंकर घड़ी में भी एक अदभुत बात बोल बैठी थी. कहा था, "ठीक है, तो तुम भी एक कसम खाओ."
"मैं? मैं किस लिए कसम खाऊँ? मैं क्या चोरी में पकड़ा गया हूँ?"
"नहीं तुम क्यों पकड़े जाओगे, चोरी में तो स्त्रियाँ ही पकड़ी गयी हैं? क्यों, बता सकते हो क्यों?"
"क्यों? यह क्या बात हुई?" इसके अलावा प्रबोध को उत्तर नहीं जुटा.
सुवर्ण नें झट प्रबोध का हाथ सोये हुए भानू के सिर से छुआ कर कहा, "तो तुम भी कसम खाओ कि अब ताश नहीं खेलोगे?"
"ताश नहीं खेलूँगा? मतलब?"
"मतलब कुछ नहीं, मेरा नशा है किताब पढ़ना, तुम्हारा नशा है ताश खेलना. यदि मुझे छोड़ना पड़े, तो तुम भी देखो, नशा छोड़ना क्या होता है? बोलो, अब कभी ताश नहीं खेलोगे?"
प्रबोध के सामने आसन्न रात.
और बहुतेरी लांछनाओं से जर्जर स्त्री के बारे में काँपते कलेजे का आतंक.
कौन कह सकता है, फ़िर कौन सा घिनौना कर बैठे.
फ़िर भी साहस बटोर कर बोल उठा, "खूब, मूढ़ी-मिसरी का एक ही भाव!"
सुवर्णलता तीखे स्वर में बोल उठी थी, "कौन मूढ़ी है कौन मिसरी, इसका हिसाब किसने किया था, उसकी दर ही किस विधाता ने तय की थी, यह बता सकते हो?"
गजब है, इतनी लानत मलामत से भी औरत दबती नहीं. उलटे कहती है, "बल्कि यह सोचो कि शर्म आनी चाहिये तुम लोगों को."
लाचार प्रबोध ने कह दिया था, "ठीक है बाबा, ठीक है. खाता हूँ कसम."
"अब कभी नहीं खेलोगे न?"
"नहीं खेलूँगा. हो गया? खैर मेरा तो हुआ, अब तुम्हारी प्रतिज्ञा?"
"कह तो दिया, तुम अगर ताश न खेलो तो मैं भी किताब नहीं पढ़ूँगी"

एक पश्चिमी चित्रकला की किताब देखी जिसका विषय था, "किताबें पढ़ने वाली लड़कियाँ" तो सुवर्णलता की याद आ गयी. इस किताब में विभिन्न पश्चिमी चित्रकारों के इस विषय पर बनी तस्वीरें थीं और उनके संदर्भ का विश्लेषण था.

पश्चिमी समाज में भी पहले यही सोचा जाता था कि पढ़ना लिखना औरतों को बिगाड़ देता है और यह तस्वीरें इस बात को समझने में सहायता करती हैं कि क्यों पृतसत्तीय समाज को इससे क्या खतरा था और क्यों पृतसत्तीय समाज आज भी स्त्री को घर में रखने, बाहर न निकलने, परदा करने, कहानी उपन्यास न पढ़ने की बात करते हैं. किताबों की होली जलाने वाले अफगानी तलिबान इसका हिंसक और कट्टर रूप दिखते हैं. पाराम्परिक भारतीय समाज में भी यह धारणा थी कि पढ़ी लिखी लड़की, घर से बाहर निकल जाती है, उसका चरित्र ठीक नहीं रहता, वह पराये मर्दों से बात और सम्बंध रखने लगती है, वह घर की रीति मर्यादा को भूल जाती है. आज इस तरह की सोच में छोटे बड़े शहरों में कुछ बदलाव आया है पर फ़िर भी इसे आर्थिक मजबूरी के रूप में अधिक देखा जाता है, वाँछनीय विकास के रूप में कम.

किताब पढ़ने वाली स्त्रियों के विषय पर कुछ प्रसिद्ध चित्रकारों की कृतियाँ प्रस्तुत हैं -

पहली कृति है जगप्रसिद्ध इतालवी चित्रकार और शिल्पकार माईकल एँजेलो की जो रोम में वेटीकेन में सिस्टीन चेपल में बनी है. माईकल एँजेलो की कृति मोनालिजा को सब पहचानते हैं, सिस्टीन चेपल के बारे में सोचिये तो भगवान की ओर बढ़ती मानव उँगली के दृश्य को अधिकतर लोग जानते हैं पर इसी कृति का एक अन्य भाग है जिसमें बनी है सिबिल्ला की कहानी. भविष्य देखने वाली सिबिल्ला को भगवान से एक हजार वर्ष तक जीने का वरदान मिला था पर यह वरदान माँगते समय वह चिरयौवन की बात कहना भूल गयी इसलिए उसकी कहानी वृद्धावस्था के दुखों की कहानी है. इस चित्र में सिबिल्ला को बूढ़ी लेकिन हट्टा कट्टा दिखाया गया है जबकि उसकी भविष्य देखने वाली किताब के पन्नों पर कुछ नहीं लिखा.


यह चित्र 1510 में बनाया गया था जब किताबें आसानी से नहीं मिलती थीं और चित्रों में अधिकतर बाईबल की किताब ही दिखती थी.

दूसरी कृति है हालैंड के चित्रकार जेकब ओख्टरवेल्ट की जो उन्होंने 1670 में बनायी थी. उस समय हालैंड दुनिया के सबसे साक्षर देशों में से था, स्त्री और पुरुष दोनो ने ही पढ़ना लिखना सीखा था. किताबे पढ़ने के अतिरिक्त चिट्ठी लिखने का चलन हो रहा है. इस चित्र में उस समय के संचार के तीन माध्यमों को दिखाया गया - बात चीत, पुस्तक और पत्र. नवयुवक युवती को अपने प्रेम का निवेदन कर रहा है और नवयुवती किताब पढ़ने का नाटक कर रही है. यही प्रेम संदेश मेज पर रखे पत्र में भी है.


आप का क्या विचार है कि क्या वह नवयुवती इस प्रेम निवेदन को स्वीकार करेगी? यही चित्रकार की दक्षता है कि वह चेहरे के भावों को इतनी बारीकी से पकड़ता है कि बिना कुछ कहे ही हम बात समझ जाते हैं.

तीसरी कृति भी हालैंड से ही है, चित्रकार पीटर जानसेन एलिंगा की जो कि 1670 के आसपास की है. इस कृति की नायिका घर में काम करने वाली नौकरानी है. शायद वह मालकिन के कमरे में सफाई करने आयी थी. मालकिन के जूते एक तरफ़ बिखरे पड़े हैं. फ़ल की प्लेट को जल्दबाजी में कुर्सी पर रखा गया है. खिड़की से आती रोशनी के पास कुर्सी खींच कर पाठिका प्रेमकथा पढ़ने में मग्न है.


इस कृति से समझ में आने लगता है कि क्यों पृतसत्तीय समाज को स्त्रियों का किताबें पढ़ना ठीक नहीं लगा था. किताबों की दुनिया स्त्रियों को बाहर निकलने का रास्ता दिखाती थीं, उन्हें अपना कल्पना का संसार बनाने का मौका मिल जाता था जो समाज के बँधनों से मुक्त था, उनमें अपना सोचने समझने की बात आने लगती थी.

इसी मुक्त व्यक्तिगत संसार की सृष्टि वाली बात को चौथी और अंतिम चित्र दिखाता है. कृति है हालैंड के जगप्रसिद्ध चित्रकार विन्सेंट वान गोग की जो 1888 में बनायी गयी. इसमें किताब पढ़ने वाली स्त्री की दृष्टि किताब पर नहीं, बल्कि सोच में डूबी है, शायद उसने कुछ ऐसा पढ़ा जिसने उसे सोचने को मजबूर किया?


भारत में लड़कियों, स्त्रियों की दशा तो दुनिया में सबके सामने है. एक तरफ़ नेता, अभिनेता, लेखक, वैज्ञानिक, अधिकारों के लिए लड़ने वाली आधुनिक युग की चुनौतियों को स्वीकारती. दूसरी ओर अनपढ़, कमजोर, जो जन्म से पहले ही मार दी जाती है, जिसे बोझ समझा जाता है, जिसका विवाह करना ही सबसे बड़ा धर्म है, जो दहेज के लिए जला दी जाती है. स्त्री साक्षरता को बढ़ाना इसके लिए बहुत आवश्यक है. मेरे विचार में आज विकास के रास्ते पर चले भारत की यही सबसे बड़ी आवश्यकता है. आर्थिक विकास के बावजूद पिछले वर्षों में भारत के सम्पन्न राज्यों में पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियों का अनुपात बढ़ने के बजाय और घटा है. इन आकणों को देखा जाये तो अनुमान लगा सकते हैं कि हर वर्ष भारत में करीब दस से पंद्रह लाख बच्चियों को गर्भपात के जरिये से जन्म लेने से पहले मार दिया जाता है.

दुनिया के देशों में अगर देखा जाये कि सरकारें स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए देश की आय का कितना प्रतिशत लगाती है तो भारत सबसे पीछे दिखता है, बहुत सारे अफ्रीकी देशों से भी पीछे. जब तक यह नहीं बदलेगा, भारत सच में विकसित देश नहीं बन पायेगा.

मंगलवार, अक्तूबर 07, 2008

नाम, रंग, जाति, धर्म में छुपी पहचान

जिल रोस्सेलीनी की मृत्यु 3 अक्टूबर को सुबह साढ़े चार बजे रोम की अमरीकी अस्पताल में हुई. जिल का जन्म 23 अक्टूबर 1956 को बंबई में हुआ था और उनका नाम रखा गया था अर्जुन. उनके पिता थे कलकत्ता के जाने माने फिल्म निर्माता हरिसाधन दासगुप्ता और माँ थी बिमल राय की परिवार की सोनाली. हरिसाधन और सोनाली का पहले एक बेटा भी था, राजा जो 1952 में पैदा हुआ था.

दिसंबर 1956 में इटली के जगप्रसिद्ध फिल्मकार रोबर्तो रोस्सेलीनी (Roberto Rossellini) भारत में फ़िल्म बनाने आये, सोनाली उनके साथ काम कर रही थीं. नौ मास के बाद रोबेर्तो और सोनाली करीब एक वर्ष के अर्जुन यानि जिल को ले कर रोम आ गये, तब भारत में उनके प्रेम को ले कर तुफ़ान चल रहा था, अखबारों में तरह तरह की बातें लिखी जा रही थीं. कुछ महीने बाद पेरिस में रोबेर्तो तथा सोनाली की बेटी राफेल्ला पैदा हुई. उस समय रोबेर्तो रोस्सेलीनी भी विवाहित थे, होलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री इंग्रिड बर्गमैन (Ingrid Bergman) के साथ.

रोबेर्तो एवं सोनाली की कहानी के बारे में मैंने कुछ महीने पहले जाना जब मैंने दिलीप पदगाँवकर की एक पुस्तक की समीक्षा पढ़ी. सोनाली को अपना बड़ा बेटे राजा को भारत में छोड़ना पड़ा, उनका छोटा बेटा जिल, अपने पिता के होते हुए भी रोबेर्तो द्वारा गोद लिया गया. इन सब बातों को सोच कर मन में बहुत जिज्ञासा हुई तो इंटरनेट पर खोज की और इस बारे में एक लेख लिखा. उस लेख के द्वारा ही इस कहानी से जुड़े बहुत से लोगों से मेरा सम्पर्क और परिचय हुआ. इसी के दौरान मैंने जिल रोस्सेलीनी के बारे में जाना.

श्याम रंग वाले जिल रोम में बड़े हुए और उनके घर में काम करने वाले माली की पत्नी का एक साक्षात्कार पढ़ने को मिला जिसमे बताया था कि छोटे से जिल को अपने काले रंग का भेद महसूस होता था. जब इतालवी समाचार पत्रों में जिल की मृत्यु का समाचार पढ़ा तो धक्का सा लगा. लेख लिखते समय जब उस परिवार के बारे में जानकारी जमा कर रहा था तो व्यक्तिगत रूप से न जानते हुए भी अपने आप ही कुछ आत्मीयता सी बन गयी थी.



हर जगह जिल की मृत्यु की बात के साथ समाचार वही बात कहते थे कि जिल रोबेर्ती के गोद लिये भारतीय मूल के पुत्र थे और कई वर्षों से बीमार चल रहे थे. कुछ समाचार पत्रों में यह भी लिखा था कि गत जून में जिल ने कैथोलिक धर्म स्वीकारा और फ्राँचेस्को का नाम लिया. इन समाचारों में सोनाली जी का नाम रोबेर्तो की संगनी की तरह से दिया गया है, कहीं उन्हें पत्नी नहीं कहा गया है और न ही यह लिखा कि बेटे की मृत्यु पर वह कहाँ थीं, हालाँकि वह भी रोम में ही रहती हैं.

जिल के बारे में सोच रहा था तो लगा कि अगर उनका रंग भिन्न न होता तो आज किसी को याद नहीं होता कि वह गोद लिये गये थे. उनके मरने के समाचार के साथ यह कहना कि वह गोद लिये हुए थे मुझे क्रूरता सी लगी. सन 2006 में वेनिस फ़िल्म फेस्टिवल के दौरान अपनी बीमारी पर बनायी एक फ़िल्म "किल बिल्ल 2" (Kill Bill 2) प्रस्तुत करते समय, एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था "मैं फैरारी कार रेस पर फ़िल्म बनाना चाहता हूँ. तेज़ कारों का शौक तो मेरे रक्त में है. मेरे पिता की मौसी बेरोनेस मरिया अंतोनियेत्ता 1920 में कार रेस में भाग लेती थी और मेरे पिता ने भी मिल्ले मिलिया नाम की कार रेस में भाग लिया था". जिस पिता रोबेर्तो की बात वह कर रहे थे उनसे जिल का खून का सम्बंध नहीं था पर इस वाक्य से उनके मन में होने वाले द्वंद और अपने परिवार का पूरा हिस्सा होने की अभिलाषा छलकती है.

****

लंदन पहुँचा तो इमिग्रेशन की जाँच कराने के लिए कौन से लाईन चुनी जाये इसका निर्णय करते हुए मेरी आँखें अपने आप ही भारतीय उपमहाद्वीप वाला चेहरा खोज रहीं थीं. मालूम था कि पासपोर्ट जाँचने वाला अगर कोई गोरा या काला अधिकारी होगा तो हमारे पासपोर्ट को अधिक ध्यान से देखा जायेगा, क्यों आये हैं, क्या करना है, कितने दिन रुकना है, इस सबकी पूरी जाँच होगी, जबकि कोई भारतीय महाद्वीप वाला मिल जाये तो उतने प्रश्न नहीं पूछे जायेंगे. भारतीय उपमहाद्वीप मूल के लोग पासपोर्ट देख कर अपने आप समझ जाते हैं कि सामने वाले का क्या धर्म है, वह हिंदू है, मुलमान है, सिख है, ईसाई है या पारसी. अधिकतर गोरे या काले लोग यह नहीं समझ पाते कि हमारे नामों से कैसे हमारे धर्म, जाति को समझा जाये.

सब जानते हैं कि आज अगर आप मुसलमान समझे जायेंगे तो आप की हर बात को अच्छी तरह से देखा जाँचा जायेगा. दिक्कत यह है कि अधिकतर यूरोपीय और अमरीकी मूल के लोगों को हमारे नामों से यह पहचानना नहीं आता, उनके लिए चेहरे और रंग में एक जैसा दिखने वाले भारतीय उपमहाद्वीप से आये हम सब लोग एक जैसे हैं. 2001 में जब न्यू योर्क में ट्विन टोवर्स में हवाई जहाजों के बम फ़टने के बाद कितने वृद्ध सिखों पर हमले हुए थे, जो आज तक नहीं रुके, उन्हें वृद्ध सिखों में बिन लादन का चेहरा दिखता है.

कभी यह नहीं सोचा था कि एक दिन पुलिस, इमिग्रेशन या किसी अन्य सुरक्षा जाँच में मैं यह कहना चाहूँगा कि मैं हिंदु हूँ. पापा क्या सोचेंगे, क्या यही सिखाया था, सोच कर मन में लज्जा आती है और अपनी कायरता पर, अपने आप को बचाने की इस कोशिश में माँ पापा ही याद आते हैं. क्या जाति है हमारी, माँ से पूछा था तो बोलीं थी कि कोई जाति नहीं हमारी. पर फ़िर भी, कुछ तो होगी, मैंने ज़िद की थी तो बोलीं थी कि कह दो कि हम सबसे नीच जाति के हैं, हम तो हिंदू हैं ही नहीं.

हिंदू, मुसलमान, जैन, सिख, ईसाई सब धर्मों के मित्र थे, पड़ोसी थे, पर घर में धर्म के नाम पर कभी कुछ नहीं होता था. न कोई मंदिर जाता या कभी किसी तरह का पूजा पाठ होता. दादी सारा दिन कागजों पर असंख्य बार राम राम लिखती रहती, अड़ोसी पड़ोसी, रिश्तेदारों में ही रीत रिवाज़, प्रार्थना सीखने का मौका मिला, पर बचपन से धर्म के लिए शंका की भावना बैठ गयी कि पूजा पाठ, धर्म केवल दिखावा है, असली धर्म तो मानवता है.

आज उस अतीत के बारे में सोचूँ तो लगता है कि वह अतीत उस समाज का परिणाम है जहाँ हिंदू बहुमत में हैं. चाहे आप माने या माने, अगर आप हिंदू समझे जाते हैं तो भारत में अधिकतर समाज आप से भिन्न तरीके से पेश आता है. आप लाख कहिये या सोचिये कि आप के लिए धर्म का कोई महत्व नहीं, अपने नाम से आप अपने हिंदू समझे जाने का लाभ उठाते हैं. जैन, या बुद्ध या सिख हों तो शायद दिक्कत कम होती है, क्योंकि आप को कुछ हद तक हिंदु ही माना जाता है. लेकिन आप का नाम मुसलिम हो या ईसाई, समाज आप से अलग तरह से पेश आता है. यह समझ तभी आयी जब ईसाई बहुमत के देश में रहने का मौका मिला. आप एक दिन मुसलमान नाम के साथ रह कर देखिये, आप को समझ आ जायेगा.

इटली कैथोलिक धर्म के बहुमत का देश है. धर्म जीवन के हर भाग में गहरा बसता है, जब तक यह बात आप के धर्म की होती है आप को शायद यह दिखे नहीं कि किस तरह जीवन की हर बात में धर्म बसा है, आप यह सोच सकते हैं कि आप को धर्म की परवाह नहीं पर ध्यान से देखिये तो आप उसके आम जीवन पर पड़े प्रभाव को झठला नहीं सकते. यहाँ हर विद्यालय में, कक्षा में, हर अदालत जैसी जगहों पर भी क्रोस लगा दिखता है, संसद में कोई भी बात उठे तो पोप क्या कहते हैं, कैथोलिक धर्म क्या कहता है, यह बात भी अवश्य उठती है. यह सब बातें केवल यहाँ के भारतीय जनता पार्टी जैसे धर्म से जुड़े राजनीतिक दलों द्वारा की जायें यह बात भी नहीं, रेडिकल पार्टी या कुछ राजनीतिक दलों को छोड़ कर, अन्य सभी राजनीतिक दल इन धार्मिक बातों को बहुत गम्भीरता से लेते हैं.

मेरा परिवार बहुधर्मी है, पत्नी कैथोलिक, पुत्रवधु सिख, बेटा हिंदू और कैथोलिक दोनो धर्मों के बीच पला बड़ा हुआ. इस धार्मिक बहुलता को गर्व से जीने का संदेश अपने बचपन की माँ पापा से मिली शिक्षा से मिला. पर मन में स्वयं को धार्मिक न मानते हुए भी आज जब लगता है कि यहाँ ईसाई धर्म के अलावा बाकी सब धर्मों को नीचा देखा जाता है तो अपनी धर्म भिन्नता की आवाज उठाना भी स्वाभाविक लगता है. बात मानव अधिकार की बन जाती है, सब धर्मों को गर्व से रहने का अधिकार होना चाहिये. दूसरी तरफ यही भिन्नता जब बढ़ते आतंकवाद के शीशे में पुलिस या सुरक्षा अधिकारियों के सामने आती है तो दूसरी तरह से चिंता का विषय बन जाती है.

पिछले वर्ष एक ईराकी पत्रकार से बात हो रही थी तो वह बता रहे थे कि बगदाद में टैक्सी चलाने वाले विभिन्न नामों वाले आईडेंटिटी कार्ड रखते हैं, कुछ शिया मुसलमान नाम के, कुछ सुन्नी मुसलमान नाम के, कुछ ईसाई नाम के. जाने कब कोई आतंकवादी रोक ले और जान लेने की धमकी दे, तो ठीक नाम वाला आईडेंटिटी कार्ड ही जान बचा सकता है. तब सोच रहा था कि जैसे यूरोपीय लोग हमारे नामों से यह नहीं पहचान पाते कि हम हिंदू हैं या मुसलमान या सिख, वैसे ही मुझे भी शिया और सुन्नी मुसलमान नामों के अंतर नहीं मालूम. सच कहूँ तो यह भी नहीं मालूम कि शिया, सुन्नी, अहमदिया, बोहरा जैसे मुस्लिम धर्म गुटों में क्या अंतर होता है!

****

आप धर्म से कितना भागना चाहें, धर्म आप का पीछा नहीं छोड़ता जैसी बात दिल्ली में रहने वाली पत्रकार के. के. शाहीना के लेख में भी पढ़ी थी जो अँग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाईमस में कुछ दिन पहले छपा था. कुछ सप्ताह पहले दिल्ली में बम विस्फोट करने वाले आतंकवादियों ने शाहीना जी के एक लेख से कुछ हिस्से ले कर उनका प्रयोग अपने बमों को जायज दिखाने के लिए अपनी ईमेल में उपयोग किया. शाहीना जी ने लिखा है:

"मुसलमान नाम का भारीपन दिल्ली में जीवन कठिन कर सकता है. .. एक अधिकारी से मिले, उन्होंने बहुत विनम्रता से बात की, पूछा, कि क्या तुम मुसलमान हो? मैं कहना चाहती थी कि नहीं, छत पर चढ़ कर चिल्लाना चाहती थी कि मैं नास्तिक हूँ, बचपन से मुझे धर्म से दूर रखा गया है. पर मैं यह नहीं कह सकती थी. मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया. इस तरह का उत्तर क्या पोलिटिक्ली कोरेक्ट होगा इस बारे में मैंने सारा जीवन सोचा है. अपने धर्म से पीठ फ़ेर कर क्या मैं इस धर्म को मानने वाले लाखों निर्दोष लोगों से पीठ फ़ेर रही हूँ जो धर्म का पालन करते हैं और अपने धर्म के नाम पर होने वाले इन बातों का बुरा प्रभाव भी झेलते हैं? मेरे जीवनसाथी, जो कि जन्म से हिंदू हैं, उन्हे भी इसी तरह की बात कहने के लिए अधिकारी के सामने ज़ोर डाला गया ताकि यह साबित किया जा सके हम लोग सेक्युलर हैं, इस शहर में जहाँ हम लोग बस नाम ही हैं. यह पहली बार थी जब हमारे जीवन में धर्म इस तरह घुस रहा था. जब हमारा बेटा अनपु पैदा हुआ था तो फोर्म भरते समय उसमें धर्म वाला भाग खाली छोड़ने में हम लोग एक पल भी नहीं झिझके थे."
जब शबाना आज़मी जी कहती हैं कि मुंबई में मुसलमान होने पर घर खरीदने में कठिनाई होती है, मुझे समझ में आता है. यह कहना कि वह बात को बढ़ा रही हैं, या झूठ कह रही हैं, इस बात को नकारना है. रंग भेद, जाति भेद, धर्म भेद हमारे रोज़ के जीवन में इतना घुला मिले हैं कि इसे तभी समझा जाता है जब आप अल्पसंख्यक हो. अगर आप हिंदू हैं और दलित नहीं उससे ऊँची जाति के हैं तो सोच सकते हैं कि भारत में यह भेद शायद इतना स्पष्ट और खुलेआम नहीं जितना पाकिस्तान, बँगलादेश या अरबी देशों में होता हो, पर दूसरे पक्ष से दृष्टि से देखिये तो यह भेद समझ आता है.

यह सच है कि धार्मिक रूढ़िवाद के साथ मुसलमान देशों में इसका कट्टर स्वरूप देखने को मिलता है जहाँ राजकीय धर्म इस्लाम माना जाता है और बाकि सब धर्मों के साथ भेदभाव को कानूनी स्वीकृति मिलती है. लेकिन इटली, इंग्लैंड, अमरीका जैसे विकसित देशों में भी इसके उदाहरण खोजने में कठिनाई नहीं होती. पिछले सप्ताह लंदन गया था तो वहाँ एक पत्रिका में पाकिस्तान से आये श्री जेम्स डीन का साक्षात्कार पढ़ रहा था जो कि आज एक सफल उद्योगपति हैं. इस साक्षात्कार में वह बताते हैं कि उनका असली नाम तो नज़ीम खान था पर वह जानते थे कि मुसलमान नाम होने से उन्हें इंग्लैंड में यह सफलता कभी न मिल पाती.

आज का जीवन इतनी तेजी से बदल रहा है कि शायद उसे समझना कठिन है. आतंकवाद, असहिष्णुता, उग्रवाद, धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवाद के चक्करों में सभ्यता और मानवता के मानव मूल्य हार रहे हैं. शंका, संदेह, अविश्वास हमारे दिलों को कठोर और अमानवीय बना रहा है. देशों विदेशों में यात्राओं से शायद मुझे इस बढ़ती अमानवता को देखने का अधिक मौका मिलता है.

मुझे लगता है कि इस स्थिति में इस बारे में ईमानदारी से बात करना, एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की कोशिश करना और करते रहना, बहुत आवश्यक है. बात न करना, उसे नकारना, सोचना कि यह तो हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं, इस सबसे नासूर भीतर ही भीतर बढ़ता जाता है. मीडिया में केवल उग्रवादियों और रूढ़िवादियों को जगह मिलती है, उनकी कही हर बात को इतनी बार दोहराया जाता है कि लगता है उस धर्म के सभी लोग कट्टरपंथी हैं. आवश्यक है कि इस बात पर सोचनेवाले पढ़े लिखे, शबाना जी जैसे उदारवादी लोगों की सोच को जगह दी जगह, उस पर खुल कर बहस की जाये.

गुरुवार, सितंबर 11, 2008

कल्पना के पँख

प्रियंकर पालीवाल जी ने "समकालीन सृजन" भेजा तो थोड़ी हैरानी हुई. इतनी सामाग्री से भरी और इतने सारे जाने माने लेखकों के आलेखों से भरी पत्रिका होगी, यह नहीं सोचा था और उनके बीच में अपना लापरवाही से लिखा ग्रीस यात्रा वाला लेख देखा तो स्वयं पर थोड़ा सा गुस्सा भी आया. प्रियंकर जी ने जब लिखा था कि वह यात्राओं के विषय पर एक पत्रिका का विषेश अंक निकाल रहे हैं और मुझसे एक आलेख मांगा था तो जाने किस व्यस्तता के चक्कर में उन्हें झटपट ग्रीस यात्रा की डायरी वाला आलेख भेज दिया, उसे एक बार ठीक से पढ़ा भी नहीं कि वह ढंग से लिखा गया है या नहीं.

समकालीन सृजन कोलकाता से निकलती है और "यात्राओं का जिक्र" नाम के इस विषेश अंक के विषेश सम्पादक हैं प्रियंकर पालीवाल. हिंदी लेखन में यात्रा‍ लेखन विधा का अधिक विकास नहीं हुआ है हालाँकि कभी कभार पत्रिकाओं पर यात्राओं पर लेख मिल जाते हैं. इस अंक की विषेशता है कि इसमें देश विदेश की बहुत सी यात्राएँ एक साथ मिल जाती हैं.



यात्राओं के बारे में पढ़ना मुझे अच्छा लगता है. हर किसी को यात्रा के बारे में लिखना नहीं आता. यहाँ गये, वहां गये, यह देखा, वह खाया जैसी बातें तो हर कोई लिख सकता है पर इसमें उतना रास नहीं आता. फ़िर भी अगर साथ में अच्छी तस्वीरें हों तो भी कुछ बात बन जाती है. लेकिन सचमुच के बढ़िया यात्रा लेखक अपनी दृष्टि से जगह दिखाते हैं, उन बातों की ओर ध्यान खींचते हैं जो आप अक्सर नहीं देखते या सोचते, उनमें भावनाएँ होती हैं, इतिहास होता है, यादें होती है, जीते जागते लोग होते हैं. इस दृष्टि से "समकालीन सृजन" का यह अंक सफल है. तभी मैंने खुद पर संयम करके धीरे धीरे एक महीना लगाया पूरा अंक पढ़ने में, हर रोज रात को सोने से पहले बस एक दो आलेख पढ़ता.

जैसे जाबिर हुसेन की "नदी की पोशाक है रेत" में गीली रेत में घुली छुपी नदी में माँ का छुपा चेहरा है, "मेरे लिए फल्गु की रेतीली गोद मेरी मां के दूधिया आंचल की तरह है. जैसे फल्गु अपने दुख दर्द किसी को नहीं बताती, रेत के उन कणों को भी नहीं, जो खुद उसके वजूद का हिस्सा हैं, वैसे ही मेरी मां ने भी अपने दुख दर्द किसी को नहीं बताए. सारी ज़िन्दगी वो भी अपने दुखों पर मोटी चादर डाले रही. हम भी, जो रेत के कणों की तरह उसके वजूद का हिस्सा थे, कहाँ उसके दुख दर्द को जान पाये."

अमृतलाल बेगड़ "सौंदर्य की नदी नर्मदा" में पेड़ों से बातें करते हैं, और निमाड़ी और गुजराती भाषाओं में जुड़े शब्दों की बात करते हुए लिखते हैं, "नदी जहां समुद्र से मिलती है, वहां एकाएक समाप्त नहीं हो जाती. उसका प्रवाह समुद्र में दूर तक जाता है. भाषा भी प्रादेशिक सीमा पर एकदम से नहीं रुक जाती. उसका प्रवाह भी सीमा के पार काफी दूर तक धंसता चला जाता है."

कृष्णनाथ "नागार्जुनकोंडा की पहचान" में केवल नागार्जुनकोंडा पर्वत यात्रा की बात नहीं करते बल्कि बुद्ध दार्शनिक नागर्जुन की इतिहासिक छवि से ले कर, महायान बुद्ध धर्म के दूर विदेशों तक फैलने की कथा सुनाते हैं, "यह कथा अपने मूल देश में, नागार्जुन की घाटी में खो गयी है. कृष्णा के जल में डूब गयी है. यहां अब उसका कोई साहित्य नहीं है. पहले जरूर रहा होगा. अब लुप्त हो गया है. लेकिन हिमालय पार उत्तर, मध्य, पूर्व एशिया में नागार्जुन की कथा जीवित रही है. तिब्बत में है, चीन में है, जापान में है, कोरिया में है, मंगोलिया में है."

ओम थानवी "इतिहास में दबे पांव" में पाकिस्तान में मुअनजो-दड़ो की खोयी सभ्यता की जड़ों को अपने राजस्थान के जीवन में जीवित पाते हैं, "मुअनजो-दड़ो के घरों में टहलते हुए मुझे कुलधरा की याद आई. यह जैसलमेर के मुहाने पर पीले पत्थर के घरों वाला एक खूबसूरत गांव है. उस खूबसूरती में हर तरफ एक गमी तारी है. गांव में घर हैं पर लोग नहीं हैं... अतीत और वर्तमान का मुझमें यह अजीब द्वंद है. बाढ़ से बचने के लिए मुअनजो-दड़ो में टीलों पर बसी बस्तियाँ देख कर मुझे जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर से ले कर पोकरण-फलोदी तक के वे घर भी याद हो आये जो जमीन से आठ दस फुट उठाकर बनाये जाते थे."

"बंगाले में गंगाजल" में अष्टभुजा शुक्ल यात्रा में अनायास मिले एक बंधु के घर में आत्थिय और आत्मीयता पाते हैं और मन में छुपे विधर्मी कुंठाओं का सामना करते हैं, "स्वीकृति में ही संस्कृति निहित होती है. अस्वीकार की संस्कृति ही कट्टरता की जननी है. स्वीकार करता हूँ रसूल भाई कि हावड़ा में उजबकों की तरह आठ घंटे काटना चार युगों से कम तकलीफ़देह नहीं होगा, स्वीकार करता हूँ कि आपके घर बैंडल में दो चार घंटे आराम करने का हार्दिक निमंत्रण बहुत ही आत्मीय और सहज है, स्वीकार करता हूँ कि एक मुसलमान द्वारा एक अपरिचित हिंदू को अपने घर विश्राम करने का आमंत्रण देने की कोई कुंठा आप के मन में कतई नहीं ... भाई साहब भीतर अपनी पत्नी को बता रहे हैं कि परदेसी दादा निरामिष हाय. बंगाल और शाकाहार. वह भी एक मुस्लिम परिवार में एक खास महमान के लिए? आठवां आश्चर्य. कैसा बौड़म अतिथी है?"

पत्रिका का सबसे अधिक सुंदर आलेख लगा "वर्धाः अनुभवों के आईने में". वर्धा के बारे में गाँधी जी बारे में पढ़ते समय कुछ पढ़ा था, पर अधिक नहीं मालूम था. पी. एन. सिंह का आलेख आज के वर्धा और इतिहास के वर्धा के विवरण बहुत खूबी से देता है जिनमें बापू के समय का वर्धा शब्दों में जीवित हो जाता है. इस आलेख में गाँधी जी का कुष्ठ रोगियों की सेवा करने के बारे में पढ़ा जो मुझे बहुत अच्छा लगा. अक्सर लोग कुष्ठ रोग की बात उठाते हैं पर घृणा, पाप, गन्दगी या दर्द की बात करने के लिए. जैसे कि इसी पत्रिका में कृष्णनाथ जी के नागार्जुनकोंडा वाले लेख में पचास साल पहले के एक जेल कारावास के बारे में लिखा है, "फ़िर, बनारस से रायबरेली जेल तबादला हो गया जहाँ प्रदेश भर के कोढ़ी कैदी जमा किये जाते हैं. मुझे ही शरीर मन की इस यातना के लिए क्यों चुना गया, मैं आज तक नहीं जानता."

मेरे कार्य का क्षेत्र भी कुष्ठ रोग और विकलांगता है. बीच में कुष्ठ रोग के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुष्ठ से जुड़ी एसोसियेशन का अध्यक्ष भी रहा. शुरु में लोगों को इसके बारे में कहते हुए हिचकता था क्योंकि लोग यह बात सुन कर ही पीछे हट जाते थे. कई देशों में देखा कि कुष्ठ रोगी होने से छूआछात और भेदभाव किया जाता है, उनके साथ काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारी भी इस भेदभाव से नहीं बचते. गाँधी जी ने कैसे कुष्ठ रोगियों की सेवा की यह पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.

एक अन्य आलेख पढ़ते हुए अपने एक पुराने मित्र से मुलाकात हुई. रीता रानी पालीवाल के आलेख "सूरज के देश में", उनकी मुलाकात तोक्यो में हिंदी पढ़ाने वाले प्रोफेसर तनाका से होती है. अचानक मन में आया दिल्ली विश्वविद्यालय में १९६८ में हिंदी पढ़ने आया जापानी छात्र तोशियो तनाका. मेरी बुआ डा सावित्री सिंहा दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर थीं और तनाका जी उनके छात्र. दीदी की शादी में उनसे बहुत बातें की थीं, जो आज भी मुझे याद हैं. मन में आया कि क्या मालूम इस लेख के तनाका जी और मेरे बचपन की यादों की तनाका जी एक ही हों?

कल रात को पत्रिका पढ़ना पूरा किया तो थोड़ा सा दुख हो रहा था कि इतनी जल्दी समाप्त हो गयी, जैसी अच्छी किताब को समाप्त करने पर होता है. संभाल कर रखना होगा, क्योंकि कई आलेख हैं जिन्हें दोबारा पढ़ना चाहता हूँ. प्रियंकर पालीवाल जी को धन्यवाद कि उन्होंने मुझे इस अनुभव का हिस्सा बनने का मौका दिया.

सोमवार, सितंबर 08, 2008

हीरामन का क्या ?

जब भी गाँव के जीवन की बात होती है तो मन में "तीसरी कसम" का हीरामन या "मदर इँडिया" के राधू और शामू आते हैं. गाँव से सीधा रिश्ता कभी रहा नहीं, शहरों में रहे और शहरों में बड़े हुए, तो गाँव फ़िल्मों और किताबों में ही मिलते थे.

दिल्ली के पास नजफगढ़ के रास्ते पर आज जहाँ द्वारका मोड़ नाम का मेट्रो स्टेशन है, वहाँ नाना के खेत होते थे, पर गाँव की सोचूँ तो नाना के पास बीते दिन मन में नहीं आते, शायद इस लिए कि वह जगह दिल्ली के बहुत करीब थी और गाँव में रह कर भी लगता था कि शहर में ही हैं. शायद यह बात भी हो कि फ़िल्मों में दिखने वाले गाँव सुंदर दिखते थे पर सचमुच के नाना के खेतों में कड़ी धूप, खुदाई करने और गोबर जमा करने की मेहनत, उपलों की गंध वाला दूध, कूँए का खारा पानी सब मिल कर सचमुच के गाँव के जीवन को फ़िल्मों में दिखने वाले गाँवों के मुकाबले में अधिक कठिन बना देते थे.

जून के "हँस" में वरिष्ठ लेखक संजीव का लेख पढ़ रहा था, "कहाँ गये प्रेमचंद के हीरा मोती", जिसमें उन्होंने बढ़ते मशीनीकरण से गाँवों के बदलते जीवनों और गाँवों से लुप्त होते बैलों तथा मवेशियों के बारे के बारे में लिखा हैः


"कालचक्र घूमता रहा. पन्ने पटलते रहे ... मगर पन्ने इतनी तेजी से पलट जाएंगे कि जुताई, बोवाई, कटाई, मड़ाई और खलिहान की पूरी अवधारणा ही बदल जायेगी, कौन जानता था! जैसे जैसे ट्रैक्टर, थ्रैशर और कृषि की दीगर मशीनें आती गईं, वैसे वैसे फसल के उत्सव से कुछ लोग पीछे छूटते गए. ... लेकिन कहां गए वे लोग जो इन मशीनों के आते ही बाहर धकेल दिये गये? ... क्या विडंबना है कि आज प्रेमचंद का होरी गैर सरकारी नहीं, सरकारी ऋण से मर रहा है, गोबर मुंबई-दिल्ली में "भैया " या "बिहारी" की गाली खा रहा है, उसकी पत्नि सोसाइटियों में चौका बासन कर रही है. मैं सीवान के बीचोबीच खड़ा हूं, दूर दूर तक डंठलों की आम जल रही है. लगता है दूर कहीं धनिया विलाप कर रही है और हीरा मोती के "बां बां" के कातर स्वर उभर रहे हैं."

जिस जीवन को हमेशा देखा, जिया हो वह बदलने लगे तो दुख तो होगा ही. फ़िर गाँव का जीवन तो शायद पिछले चार पाँच हज़ार सालों से नहीं बदला था, जब से लोहे का आविष्कार हुआ था तब से. जितनी तेज़ी से यह बदलाव गाँवों, कस्बों, छोटे बड़े शहरों में आ रहे हैं, शायद इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. यह बात नहीं कि यह बदलाव केवल भारत में आया है, यह तो सारे विश्व में है पर भारत के कच्ची सड़कों वाले, बैलगाड़ी वाले गाँवों में आ रहे और आने वाले बदलाव का सोच कर लगता है कि हाँ, शायद अब समय आयेगा जब जीवन सचमुच बदलेगा.

अपने जाने पहचाने खेतों में बैल की जगह पर ट्रैक्टर देख कर बीते समय का सोच कर दुख होना स्वाभाविक तो है पर शायद गाँवों के लिए जीवित रहने का यही उपाय है? संजीव अपने लेख में बात करते हैं प्रेमचंद की "दो बैलों की कथा" की, चंद्रगुप्त विद्यांलकार की "गोरा" की, बिजेंद्र अनिल की "माल मवेशी" की, स्वयं प्रकाश की "नैनसी का धूड़ा" की", और गाँवों के बारे में लिखने वाले लेखकों के लुप्त होने की, और इसमें संस्कृति और संस्कारों के टूटने को देखते हैं. पर संस्कृति और संस्कारों का यह बदलाव गाँवों के मशीनीकरण से नहीं बल्कि जीवन की तकनीकी तरक्की से आया है. टीवी और मोबाइल फोन ने शहरों के जीवन की एक छवि गाँवों को दिखाई है जिसमें केवल शहरों का उपभोगत्तावाद है, संस्कृति और संस्कार तो बस बिकने वाले टीवी सीरियल हैं जिनमें हर दस मिनट में विज्ञापन दिखाये जाते हैं.

इन भागते शहरों में गाँवों और कस्बों से आँखों में सपने लिए आने वालों के लिए "भैया" और "बिहारी" की गालियाँ हैं, शायद उनके भोले गँवारपन और अँग्रेजी न जानने के बारे में उपहास भी है. वर्तिका नंदा ने अपनी एक कविता "टीवी एंकर और वो भी तुम" में लिखा हैः

तुम नहीं बन सकती एंकर
तुम कहीं और ही तलाशो नौकरी
किसी कस्बे में या फ़िर
पंजाब के उसी गाँव में
जहां तुम पैदा हुई थी
पर बड़े शहरों में बसने वाले गाँवों और कस्बों से आये लोग जानते हैं उनका भविष्य उनके बच्चे होंगे, जो शहरों में पल बढ़ कर शहरों वाली भाषा बोलेंगे, जिनकी कोई हँसी नहीं उड़ायेगा. वह हिम्मत नहीं हारते, जान लड़ाते हैं अपने जीवन बेहतर करने के लिए. गाँवों, बैलों और पाराम्परिक जीवनों के लुप्त होने में अगर मानव का जीवन अधिक आसान हो जाता है तो यही भला है, अगर उसे तपती धूप में खून पसीना नहीं बहाना पड़ता तो यही भविष्य अच्छा है. और अगर उस भविष्य में जातपात, ऊपर नीचे, छोटे बड़े की दूरियाँ कम हो सकेंगी तो वह भविष्य जितनी जल्दी आ सकता है, आये. हीरामन नहीं तो न सही, कथाकार कुछ और सोच लेंगे मन द्रवित और आँखें नम करने के लिए. हज़ारों वर्षों से, पीढ़ियाँ दर पीढ़ियों से पिसने वाले इंसान को अगर कमर सीधा करके सिर उठा कर चलने का मौका मिलेगा तो मुझे उस भविष्य से कोई शिकायत नहीं.

शनिवार, सितंबर 06, 2008

वह दोनो

बस स्टाप पर बस आ कर खड़ी हुई तो तुरंत लोग भागम भाग में चढ़े, लेकिन बस ड्राईवर साहब को जल्दी नहीं थी, बस से उत्तर कर बाहर खड़े वह धूँआ उड़ा रहे थे. तब उन दोनो पर नज़र पड़ी. दोनो की उम्र होगी करीब चौदह या पंद्रह साल की. उनके चेहरों में अभी भी बचपन था.

लड़की के बाल ज़रा से लम्बे थे, कानो को कुछ कुछ ढक रहे थे. दोनो ने ऊपर छोटी छोटी बनियान जैसी कमीज़ पहनी थी. और नीचे छोटी निकेर पहनी थी, नाभि से इतनी नीचे कि भीतर के जाँघिये का ऊपरी हिस्सा बाहर दिखे, जैसा कि आजकल का फैशन है. यानि अगर दोल्चे गब्बाना या केल्विन क्लाईन के जाँघिये पहनो तो उन्हें दुनिया को दिखाओ. लड़के की निकेर थोड़ी खुली ढीली सी थी, लड़की की तंग थी.

जहाँ तक अन्य साज सँवार का प्रश्न है, लड़का ही लड़की से आगे था. उसके गले में अण्डे जैसे बड़े बड़े सफेद मोतियों की माला थी, कानों में चमकते हुए बुंदे और कलाई पर किसी चमकती धातु का ब्रेस्लेट. उसके सामने लड़की साधी साधी लग रही थी, उसके गले में न तो माला थी, न कानों में बालियाँ, बस दाँहिनी कलाई पर तीन चार रंगबिरंगी मोतियों वाली ब्रेस्लेट थी. दोनो के चेहरे साफ़ थे, कोई मेकअप नहीं था.

दीवार से सटे दोनो एक दूसरे के मुख, जिव्हा, दाँतों की भीतर से सूक्ष्म जाँच कर रहे थे, या शायद एक दूसरे के टोंसिलों की सफाई. एक दूसरे के गले में बाँहें और चिपके हुए शरीर मानों वहीं सड़क पर ही एक दूसरे में समा जायेंगे.

उन्हें देखा तो अचानक मन में बहुत ईर्ष्या हुई. हमारे ज़माने में इस तरह का क्यों नहीं होता था?

एक तो लड़के यह रंग नहीं पहनते, ऐसा नहीं करते, वैसा नहीं करते, लड़कियाँ यह नहीं करती, वैसा नहीं पहनती के झँझटों से मुक्ती, स्त्री और पुरुष अपनी मन मरजी से पहने जिसमें स्त्री और पुरुष की बाहरी भिन्नता कुछ घुल मिल सी जाये. एक बार दाढ़ी निकल आयेगी तो थोड़ी दिक्कत आ सकती है पर किशोरो को वह दिक्कत भी नहीं.

दूसरे किशोरावस्था में घुसते ही शरीर में जब होरमोन का तूफ़ान छाता है तो दिमाग यौन सम्बंधों के विषय पर ही अटका रहता है. फ़िर अठारह बीस वर्ष की आयु तक शरीर का यौन विकास अपने चरम पर पहुँच जाता है और उसके बाद धीरे धीरे कम होने लगता है. यह दोनो किशोर किशोरी, उसी होरमोन के तूफ़ान में आनंद से बेपरवाह बह रहे थे.

सब बँधनों से मुक्ति और इस मुक्त संसार में पैदा बड़ा हुआ इंसान क्या नयी बेहतर दुनिया बनायेगा? बचपन में ही शुरु हो जाता है कि लड़कों को क्या पहनना चाहिये. अरे कैसे लड़कियों जैसे कपड़े पहने हैं, क्या कभी किसी लड़के को गुलाबी रंग की कमीज़ पहने देखा है, बदलो इसे तुरंत वरना लोग क्या कहेंगे? लड़के खाने में खट्टा नहीं खाते, चोट लग जाये तो वह लड़कियों की तरह नहीं रोते, उन्हें गुड़िया नहीं कारें और फुटबाल अच्छी लगती हैं. लड़कियों के आसपास लगी यह कर सकते हैं, यह नहीं वाली दीवारें शायद और भी ऊँची होती हैं. पर उन दोनों को देख कर लग रहा था कि यह सब बँधन पुराने हो गये, टूट गये हैं और नहीं टूटे तो आने वाली दुनिया इन्हें तोड़ देगी.

यौन सम्बंधों की दीवारें भी हमारे समय में कितनी ऊँची होती थीं. जहाँ तक मुझे याद है उस लड़के की उम्र में मुझे यौन सम्बँधों की पूरी समझ भी नहीं आयी थी, जबकि वह दोनो इस विषय में पीएचडी कर चुके लगते थे. ब्रह्मचर्य, कौमार्य, इज़्जत बचाना, शरीर को बचा कर रखना, इन सब बातों की उन्हें परवाह नहीं लगती.

इस मुक्ति में ही उनका विनाश छुपा है, यौन स्वच्छंदता और शरीर के सुख सब माया हैं, समय के साथ यह भी गुज़र जायेंगे और जीवन के संघर्ष और कठिन हो जायेंगे, मैं खुद को समझाता हूँ. पर क्या सचमुच ऐसा जीवन जीने का मौका मिलता तो क्या मैं न कह पाता? आप को ऐसा जीवन जीने का मौका मिलता तो क्या आप उसे न कह पाते?

लोकप्रिय आलेख