रविवार, जुलाई 17, 2011

संदेश किसके लिए है?

"तो कैसी लगी फ़िल्म?"

फ़िल्म समाप्त होने पर मैंने अपनी मित्र से पूछा तो उसने मुँह बना दिया था. फ़िर कुछ देर सोच कर बोली थी, "यह फ़िल्म शायद विदेशियों के लिए बनायी गयी है, विदेशों में दिखाने के लिए. यहाँ भारत में इसे शहरों में रहने वाले पैसे वाले लोग देखें जिन्हें अपने देश में गाँव में कैसे रहते हैं यह मालूम नहीं. सचमुच की समस्याएँ क्या हैं गरीबों की, किस तरह इस व्यवस्था में शोषित होते हैं लोग, यह नहीं दिखाना चाहते इस फ़िल्मवाले. गरीबी की पोर्नोग्राफ़ी है, उसे रूमानी बना कर बेचने का ध्येय है उनका. ताकि दया दान देने वाले विदेशी और पैसे वाले मन ही मन खुश हो सकें कि उनकी दया से किसी बच्चे की ज़िन्दगी सुधर गयी, पर इससे व्यवस्था को बदलने के लिए कोई नहीं कहे."

फ़िल्म का नाम था "आई एम कलाम" (I am Kalam) जिसे बँगलौर की स्माईल फाउँडेशन ने निर्मित किया है. मेरी मित्र की आलोचना बिल्कुल गलत तो नहीं थी, पर शायद पूरी भी नहीं थी.

I am Kalam by Smile Foundation

इस फ़िल्म की कहानी सचमुच की गरीबी या सच की कहानी नहीं है, बल्कि बच्चों के लिए लिखी परियों की कथा जैसी है. फ़िल्म में एक राजकुँवर और ढ़ाबे में काम करने वाले गरीब बच्चे में बराबर की दोस्ती की है, और अंत में पुराने विचारों वाले राजा साहब द्वारा गरीब बच्चे को मान देने का सपना है. कुछ दृष्यों को छोड़ कर जिनमें बचपन में ढ़ाबे और रेस्टोरेंटों में काम करने वाले बच्चों के कड़वे सच दिखते हैं, बाकी सारी फ़िल्म में रेगिस्तान के मनोरम दृष्य, रंगीन पौशाकें, समझदार विदेशी लड़कियाँ, दयावान प्रेमी ढ़ाबेवाला, ऊँठ पर बैठ कर चाय बाँटनेवाला और मन लुभाने वाला गरीब लेकिन सुंदर बच्चा दिखता है. यानि मेरी मित्र की दृष्टि में "रुमानी गरीबी".

लेकिन मेरी मित्र की आलोचना मुझे कुछ अधिक कठोर लगी. मैंने सोचा कि सच को इस तरह कहना कि उसे अधिक लोग देख सकें, क्या गलत बात है? अगर सचमुच की गरीबी दिखानी वाली डाकूमैंटरी या कला फ़िल्म होती तो कितने लोग देखते और क्या गरीबी दिखाने वाली डाकूमैंटरियों की कमी है भारत में? जिन लोगों को गरीब बच्चों के जीवन के कड़वे सच मालूम हैं वे इस बारे में लिखते हैं, सेमीनार करते हैं, डाकूमैंट्री फ़िल्में बनाते हैं और देखते हैं. जिन्हें नहीं मालूम या जिनके पास अपने जीवन से बाहर देखने के फुरसत ही नहीं हैं, उनके पास यह सेमीनार, आलेख और डाकूमैंट्री कहाँ पहुँचती हैं?

कुछ इसी तरह की बात उठी थी जब अमोल पालेकर की फ़िल्म "पहेली" देखी थी. उसमें बात थी नारी के अधिकारों की, लेकिन इस तरह से कही गयी थी कि रानी मुखर्जी के रंगों और शाहरुख जैसे प्रेमी भूत की परतों के नीचे दबी हुई, वह भी शायद "रुमानी नारी अधिकारों" की बात थी. पर कम से कम उसे उन लोगों ने देखा तो था जिनको नारी अधिकारों के बारे में जानने और सोचने की आवश्यकता थी. वैसे तो "पहेली" को भी बहुत अधिक व्यवसायिक सफ़लता नहीं मिली थी, लेकिन उसी कहानी पर बनी मणि कौल की "दुविधा" को कितने लोगों ने देखा था?

अक्सर मेरे विचार में बहुत से बुद्धिजीवियों को विश्वास नहीं होता कि अगर कोई बात बिना चीख चिल्ला कर या भाषण की तरह नहीं कही जाये तो लोग उसे समझेंगे. अगर बात को भाषण की तरह बार बार न दोहराया जाये और कहानी का हिस्सा बना कर इस तरह रखा जाये कि तुरंत स्पष्ट न हो लेकिन धीरे धीरे मन को सोचने के लिए प्रेरित करे तो उसे वह प्रभावशाली नहीं मानते. ऐसे लोगों से दुनिया भरी हुई है जो "क्मप्रोमाईज़" नहीं करना चाहते हैं, कहते हैं कि जीवन के कड़वे सचों को उनकी पूरी कड़वाहट के साथ ही दिखाना चाहिये. पर जब सच इतने कड़वे होते हें कि कोई उन्हें देख ही नहीं पाये तो उसे कौन देखता है? वही लोग देखते हैं जिन्हें इस सब के बारे में पहले से मालूम है, पर जिन्हें इस चेतना की आवश्यकता है वे लोग क्या देखते हैं?

मुझे "आई एम कलाम" बहुत अच्छी लगी, आप को भी मौका मिले तो अवश्य देखियेगा. देख कर आप को सचमुच की गरीबी क्या होती है शायद उसकी समझ नहीं आयेगी, लेकिन देख कर अगर आप एक दिन के लिए भी अपने घर में काम करने वाले नाबालिग नौकर या ढाबे रेंस्टोरेंट में वेटर या बर्तन धोने का काम करने वाले बच्चे के कठोर जीवन के बारे में सोचेंगे तो क्या यह कम है?

I am Kalam by Smile Foundation

एक अन्य बात भी है, वह है देखने वाले को बुद्धिमान और व्यस्क समझने की. मुझे लगता है कि "कड़वा सच" दिखाने की ज़िद करने वाले लोगों में अक्सर यह सोच होती है कि जिस तरह हममें इस सच की समझ है, वह अन्य लोगों में नहीं और जब तक उसे बार बार कह कर, दिखा कर, जबरदस्ती कड़वी दवा की तरह लोगों को पिलाया नहीं जायेगा, तब तक उनकी समझ में नहीं आयेगा. जबकि मैं मानता हूँ कि कभी कभी कड़वे सच को सांकेतिक रूप में दिखाने से, बुद्धीमान दर्शक को मौका मिलता है कि वह उसे अपनी दृष्टि से अपने आप समझ सके.

रही बात उन लोगों की जिन्हें सांकेतिक बात समझ नहीं आती, उन्हें कड़वे सच को जिस तरह भी कह लीजिये, वह उसे देखने से या समझने से इन्कार कर देंगे, तो उनकी चिंता करना शायद व्यर्थ ही है.

मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि सामाजिक समस्याओं और कड़वे सचों पर सभी कला अभिव्यक्ति केवल रंगीन, रूमानी तरीके से ही हो सकती है या होनी चाहिये. मणि कौल के सिनेमा अभिव्यक्ति के अंदाज़ में अपनी सुन्दरता थी, जो अमोल पालेकर की "पहेली" की सुन्दरता से भिन्न थी. कलात्मक अभिव्यक्ति के हर क्षेत्र में विभिन्नता आवश्यक है. लेकिन मेरा सोचना है कि अगर किसी कला का उद्देश्य जन सामान्य तक पहुँच कर उनको समझाना या जानकारी देना हैं, तो संदेश को उस भाषा में कहना बेहतर है जो जन सामान्य को समझ आ सके.

***

दो महीने पहले विश्व स्वास्थ्य संस्थान (World Health Organisation) की वार्षिक एसेम्बली में जेनेवा गया था तो वहाँ एक हाल में तम्बाकू और सिगरेट प्रयोग के बारे में बड़े बड़े विज्ञापन लगे थे, जिसमें इन पदार्थों के प्रयोग से शरीर पर होने वाले प्रभावों को इस खूबी से दिखाया गया था कि उन तस्वीरों की ओर ठीक से देखने पर जी मिचलाने लगा था.

WHO poster on tobacco use

WHO poster on tobacco use

तब भी मेरे मन में यही बात आयी थी कि तम्बाकू और सिगरेट बेचने वाली कम्पनियाँ अपना प्रचार करने के लिए जाने माने सुन्दर लोगों और जगहों का उपयोग करती हैं. उससे लड़ने के लिए, यह तो ठीक है कि इन पदार्थों के डिब्बों पर इस तरह की फोटो लगाई लगाई जानी चाहिये जिनसे इनका उपयोग करने वाले लोगों में वितृष्णा हो.

लेकिन अगर जन सामान्य को संदेश देना हो, या नवजवानों और किशोरों को संदेश देना है, और उसके लिए इस तरह की वीभत्स तस्वीरों का प्रयोग होगा तो मुझे लगता है कि अधिकतर लोग उन्हें ध्यान से नहीं देखना चाहेंगे न ही इस तरह की तस्वीरों के पास क्या लिखा है उसे पढ़ना चाहेंगे.

सिगरेट और तम्बाकू का प्रयोग शरीर के लिए हानिकारक है और जन सामान्य में उसके खतरों की जानकारी देना आवश्यक है. पर यह संदेश किस तरह की भाषा में, किस तरह की तस्वीरों के साथ, किस तरह से दिया जाना चाहिये, ताकि नवयुवकों और किशोरों पर असरकारी हो सके? रुमानी बनाके, ताकि अधिक लोग उसे देखें या फ़िर कड़वे सच को उसकी सच्चाई के साथ?

और जन सामान्य में गरीब बच्चों के साथ होने वाले अमानवीय वर्ताव के बारे में सँचेतना जगानी हो, तो उसमें "आई एम कलाम" या "चिल्लर पार्टी" जैसी हँसी खुशी वाली फ़िल्मों का कोई स्थान है या गम्भीर विषयों पर केवल गम्भीर फ़िल्में ही बननी चाहिये?

आप क्या सोचते हैं?

***

सोमवार, जुलाई 11, 2011

सभ्यता का मूल्य

"संग्रहालय के मूल्य को केवल खर्चे और फायदे में मापना गलत है, उसकी कीमत को मापने के लिए उसके उद्देश्य को मापिये. उसका उद्देश्य है जनता को नागरिक बनाना." यह बात कह रहे थे रोम के वेटीकेन संग्रहालय के निर्देशक श्री अन्तोनियो पाउलूच्ची (Antonio Paolucci).

श्री पाउलूच्ची इन दो शब्दों, जनता और नागरिक, को विषेश अर्थ देते हैं. "जनता" यानि एक जगह पर रहने वाले लोग और "नागरिक" यानि वह लोग जो अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझते हैं, जिनके लिए जीवन में सभ्य होने का महत्व हो, जिनमें अपनी कला, संगीत, लेखन, शिल्प को जानने की समझ हो. लेकिन आज के भूमण्डलिकृत जगत में जहाँ पूँजीवाद के आदर्शों से स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि जनकल्याण सेवाओं को मापते हैं, सभ्यता के मापदँड भी अधिकतर खर्चे और फायदे में गिने जाते हैं. उसे नागरिक अधिकार मानना कोई कोई विरला शहर ही कर पाता है, जैसे कि लंदन जहाँ सभी संग्रहालय मुफ्त हैं, अपनी कला और सभ्यता को जानने के लिए आप को कोई टिकट नहीं खरीदना पड़ता.

मैं श्री पाउलूच्ची की बात से सहमत हूँ कि अपनी कला, संस्कृति को बाज़ार के मापदँड से नहीं, सभ्यता के मादँड से तौलना चाहिये. पर यही काफ़ी नहीं. साथ ही, मुझे यह भी लगता है कि कला और सभ्यता की बातों को विषेशज्ञों के बनाये पिँजरों से बाहर निकाल कर जनसामान्य के लिए समझने लायक बनाया जाये. वह कहते हैं कि कला सँग्रहालयों को मैनेजरों की नहीं, कला को समझने वाले निर्देशकों की आवश्यकता है, जो नफ़े नुक्सान की बातों से ऊपर उठ सकें.

बदलते परिवेश में पर्यटक बदल गये हैं जिसके बारे में पाउलूच्ची कहते हैं, "आज कल चार्टर उड़ानों से अलग अलग देशों के बहुत से पर्यटकों के गुट आते हैं. उनके पास रोम घूमने के लिए एक ही दिन होता है, जिसमें से वह लोग एक डेढ़ घँटा वेटीकेन संग्रहालय को देखने के लिए रखते हैं. उनके पास संग्रहालय के अमूल्य चित्रों या शिल्पों की कोई कीमत नहीं, क्योंकि उनके पास कुछ देखने का समय नहीं है. उन्हें देखना होता है केवल सिस्टीन चेपल में माईकल एँजेलो की कलाकृति को. वह लोग संग्रहालय में भागते हुए घुसते हैं, सिस्टीन चेपल देख कर, सेंट पीटर के गिरजाघर की ओर भागते है. फ़िर कोलोसियम देखो, त्रेवी का फुव्वारा देखो, स्पेनी सीढ़ियाँ देखो, बस रोम हो गया. अब बारी है अगले शहर जाने की."

यह सच है कि विदेश घूमते हुए थोड़े दिनों की छुट्टियाँ होती हैं, रहने घूमने के खर्चे भी भारी होते हैं. तो बस यही चिन्ता रहती है कि कैसे जानी मानी प्रसिद्ध चीज़ें देखीं जायें. बाकी सबको देखना समझना मुमकिन नहीं होता. मेरे विचार में असली प्रश्न है कि जिन शहरों में हम रहते हैं क्या वहाँ के इतिहास को जानते समझते हैं, वहाँ के कला संग्रहालयों को देखने का समय होता है हमारे पास?

जब बात संग्रहालयों की हो रही हो तो कला और शिल्प को कैसे जाना और समझा जाये, इसकी बात करना उतना ही आवश्यक है. और मेरे विचार में इस बात को खर्चे और फायदे की बात करने वाले मैनेजरों ने भी समझा है, चाहे वह अपने स्वार्थवश ही समझा हो. यानि पैसे बनाने के लिए, कला और सभ्यता का भला करने के लिए नहीं.

बचपन में स्कूल के साथ कभी दिल्ली के कुछ संग्रहालयों को देखने का मौका मिला था, लेकिन सामने गुज़रने भर से क्या समझ में आता? कोई बताने समझाने वाला नहीं था. कुछ साल पहले एक बार इंडियागेट के पास पुरात्तव संग्रहालय में गया था लेकिन तब भी वहाँ संग्रहालय की विभिन्न कलाकृतियों को समझने के लिए कोई गाइड या किताब आदि नहीं थे. वहाँ जो कुछ देखा उसका हमारे समाज और संस्कृति के लिए क्या अर्थ था? हमारी संस्कृति में क्या स्थान था उस पुरात्तव इतिहास का, यह सब समझने की कोई जगह नहीं थी.

जब विभिन्न देशों में घूमने का मौका मिला तो भी शुरु शुरु में समझ नहीं थी कि कला, इतिहास या पुरात्तव को उसकी सन्दरता देखने के अतिरिक्त, और गहराई से जानना और समझना भी दिलचस्प हो सकता था. वाशिंगटन का आधुनिक कला का संग्रहालय, अमस्टरडाम का वान गोग संग्रहालय, लंदन की टेट गेलरी, जैसे जगहें देखीं पर तब बात वहीं तक जा कर रुक जाती थी कि कौन सी कलाकृति देखने में अच्छी लगती है.

फ़िर एक बार मेरे मन में कुछ आया और मैंने "खुले विश्वविद्यालय" के "कला को कैसे समझा जाये" के कोर्स में अपना नाम लिखवा लिया. इस कोर्स की कक्षाएँ रात को होती थी. दिन भर काम के बाद रात को कक्षा जाने में नींद बहुत आती थी. कई बार मैं कक्षा में ही सो गया. फिर भी, उस कोर्स का कुछ फ़ायदा हुआ. यह समझ आने लगी कि कला को समझने के लिए उसके कलाकार को और जिस परिवेश में उस कलाकार ने जिया और वह कृति बनायी, उसे समझना उतना ही आवश्यक है. समझ आने लगा कि संग्राहलय में जो देखो, उसकी सुन्दरता के साथ साथ, उसके बारे में भी जानो और समझो, तो संग्रहालयों से किताबे खरीदना प्रारम्भ किया.

पिछले दस वर्षों में इंटरनेट के माध्यम से संग्रहालय, कला और शिल्प को समझने के अन्य बहुत से रास्ते खुल गये हैं. जब भी किसी नये संग्रहालय में जाने का मौका मिलता है तो पहले उसके बारे में, वहाँ की प्रसिद्ध कलाकृतियों के बारे में पढ़ने की कोशिश करता हूँ. वहाँ जा कर जो कुछ अच्छा लगता है उसकी बहुत सी तस्वीरें खींचता हूँ. घर वापस आ कर, उन तस्वीरों के माध्यम से कलाकृतियों और कलाकारों के बारे में जानने की कोशिश करता हूँ. कई बार इस तरह से उन कलाकृतियों के बारे में मन में और जानने समझने की इच्छा जागती है तो वापस संग्रहालय जा कर उन्हें दोबारा देखने जाता हूँ.

शायद यही वजह है कि आजकल दुनिया के बहुत से आधुनिक संग्रहालयों में तस्वीर खींचने से कोई मना नहीं करता, बस फ्लैश का उपयोग निषेध होता है. पहले लोग सोचते थे कि संग्रहालय की हर वस्तु को गुप्त रखना चाहिये, तभी लोग आयेंगे. संग्रहालय चलाने वाले लोग सोचते थे कि अगर लोग तस्वीर खींच लेंगे तो उनके मित्र तस्वीरें देख कर ही खुश हो जायेंगे, संग्रहालय नहीं आयेंगे. इसलिए वहाँ फोटो खींचने की मनाई होती थी. तस्वीरें, कार्ड आदि कुछ भी हो, उसे आप केवल संग्रहालय की दुकान से मँहगा खरीद सकते थे.

आज के संग्रहालयों को समझ आ गया है कि जो लोग वहाँ घूमते हुए तस्वीरें खींचते हैं, वही लोग बाद में उन्हें फेसबुक, फिल्क्र, चिट्ठों आदि के द्वारा अपने मित्रों व अन्य लोगों में उस संग्रहालय का मुफ्त में विज्ञापन करते हैं. जितनी तस्वीरें अधिक खींची जाती हैं, उतना विज्ञापन अधिक होता है, और अधिक लोग वहाँ जाने लगते हैं.

पैसा कमाने के लिए संग्रहालयों को नये तरीके समझ में आये हैं, जैसे कि विभिन्न कलाकारों की कला को समझने के लिए उसके बारे में किताबें, पोस्टर, प्रिंट आदि और संग्रहालय में बने काफ़ी हाउस, बियर घर और रेस्टोरेंट.

यह सच है कि ग्रुप यात्रा में निकले लोगों के पास समय कम होता है, बस कुछ महत्वपूर्ण चीज़ों को ही देख सकते हैं. लेकिन मेरे विचार में ग्रुप यात्रा के बढ़ने के साथ साथ, दुनिया में कला को अधिक गहराई से समझने वाले भी बढ़ रहे हैं, जो अब इंटरनेट के माध्यम से कला और इतिहास को इस तरह समझ सकते हैं जैसे पहले मानव इतिहास में कभी संभव नहीं था.

इसका एक उदाहरण है दिल्ली के पुरात्तव संग्रहालय में मोहनजोदारो और हड़प्पा से मिली प्राचीन मुद्राएँ. जब उन्हें देखा था तो वह मुद्राएँ केवल छोटे मिट्टी के टुकड़े जैसी दिखी थीं, उनमें कुछ दिलचस्प भी हो सकता है, यह समझ नहीं आया था. आज टेड वीडियो पर प्रोफेसर राजेश राव का यह वीडियो देखिये. उन मुद्राओं को देख कर उन्हें समझने की उत्सुकता अपने आप बन जाती है.
 
कलाकार और उसके परिवेश को जानने से, उसकी कला को समझने की नयी दृष्टि मिलती है, इसका एक उदाहरण है श्री ओम थानवी द्वारा लिखा वान गोग की एक कलाकृति "तारों भरी रात" का विवरण. किसी संग्रहालय में वान गोग के चित्र देखने का मौका मिल रहा हो, तो पहले इसे पढ़ कर देखिये, कला को समझने की नयी दृष्टि मिल जायेगी.

पर इस तरह कला को देखने, समझने का जिस तरह का मौका आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बन गया है वैसा पहले कभी नहीं था, जिसका एक उदाहरण है गूगल द्वारा संग्रहालयों की प्रसिद्ध कलाकृतियों को देख पाना.

भारत में कला के बारे में, संग्रहालयों के बारे में कैसे जानकारी मिलेगी, यह अभी आसान नहीं हुआ है. भारत के कौन से प्रसिद्ध चित्रकार हैं, किसी अच्छे भले, पढ़े लिखे व्यक्ति से पूछिये तो भी आप को अमृता शेरगिल, मकबूल फिदा हुसैन आदि दो तीन नामों से अधिक नहीं बता पायेगा. हेब्बार, राम कुमार, बी प्रभा जैसे नाम कितनों को मालूम हैं? काँगड़ा और राजस्थानी मिनिएचर चित्रकला शैलियों की क्या विषेशताएँ हैं, शायद लाखों में एक व्यक्ति भी नहीं बता सकेगा.

भारत के प्रसिद्ध शिल्पकार कौन हैं तो शायद कुछ लोग अनिश कपूर का नाम ले सकते हैं क्योंकि वे लंदन में प्रसिद्ध हैं. कैसे कला में पैसा लगाना आज फायदेमंद है, इस पर फायनेन्शियल टाईमस या बिजनेस टुडे पर लेख मिल जायें, पर आम टीवी कार्यक्रमों में भारतीय कलाकारों की कला को कैसे समझा जाये, इसका कोई कार्यक्रम क्या आप ने कभी देखा है? जब तक किसी कलाकार की बिक्री लाखों करोड़ों में न हो, या उसे विदेश में कुछ सम्मान न मिले, लगता है कि भारत में उसका कुछ मान नहीं.

भारतीय पुरात्तव विभाग की वेबसाईट तो हिन्दी में भी है लेकिन वहाँ पर आप को केवल प्रकाशनों की लिस्ट मिलेगी. इंटरनेट पर पढ़ने वाली किताबों पत्रिकाओं की लिंक अंग्रेज़ी वाले हिस्से में हैं. तस्वीरों की गैलरी है, लेकिन उनमें जगह के नाम के सिवा, उसे जानने समझने के लिए कुछ नहीं. वैसे तो भारत दुनिया भर के क्मप्यूटरों की क्राँती का काम कर रहा है तो आशा है कि भारतीय पुरात्तव विभाग की वेबसाईट को भी अच्छा होने का मौका मिलेगा.

दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय की वेबसाईट केवल अंग्रेज़ी में है और उसपर उपलब्ध जानकारी बहुत सतही है. तस्वीरें छोड़ कर किसी तरह की समझ बढ़ाने वाली जानकारी नहीं मिलती. वेबसाईट पुराने तरीके की है, उसे देख कर नहीं लगता कि यह भारत के सबसे प्रमुख संग्रहालय का परिचय दे सकती है.

दिल्ली के राष्ट्रीय कला संग्रहालय की वेबसाईट देखने में बहुत सुन्दर है, और हिन्दी में भी है. वेबसाईट पर संग्रहालय के विभिन्न संग्रहों की कुछ सतही जानकारी भी है, लेकिन सभी प्रकाशन केवल खरीदने के लिए ही हैं, इंटरनेट से कलाकारों और कला के बारे में जानकारी सीमित है.

अगर हमारी संस्कृति, सभ्यता को जनसामान्य तक पहुँचाना आवश्यक है तो भारतीय संग्रहालय और पुरात्तव विभागों को इंटरनेट के माध्यम से नये कदम उठाने चाहिये, ताकि जनता में अपने इतिहास और कला को जानने समझने की इच्छा जागे.

***

नीचे की मेरी खींची तस्वीरें दुनिया के विभिन्न देशों में संग्रहालयों से हैं.

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

***

शनिवार, जुलाई 09, 2011

मन पसंद गैर फ़िल्मी गीत

सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया "इस तुमुल कोलाहल कलह में". जाने कितने साल पहले सुना था यह गीत, शायद चालिस साल पहले. आशा भौंसले का गाया यह गीत, मन की गहराईयों में जाने कहाँ चुपा था जो इस तरह से अचानक उभर आया था. आसपास बिल्कुल सन्नाटा था, कोई तुमल, कोलाहल, कलह नहीं था, फ़िर क्यों यही गीत मन में आया था?

विदेशों में अधिकतर फ़िल्मों में गीत नहीं होते, जबकि भारतीय फ़िल्मों में गीतों के बिना फ़िल्में नहीं होती. हम लोग अधिकतर फ़िल्मी गीतों से ही अधिक परिचित हैं, पर फ़िर भी कभी कभी आशा भौंसले के "तुमुल कोलाहल" जैसे गीत कुछ प्रसिद्ध हो ही जाते हैं. जब एम टीवी और वी चैनल आने लगे थे तो मैं सोचता था कि अब गैर फ़िल्मी गानो को अपना सही स्थान मिलेगा, पर इस तरह का कुछ हुआ लगता नहीं, हालाँकि नब्बे के दशक के बाद से गैर फ़िल्मी गीतों की कुछ लोकप्रियता बढ़ी है.

फ़िर सोचने लगा कि अगर गैर फ़िल्मी गानों के बारे में सोचूँ तो क्या अपने मन पंसद दस गैर फ़िल्मी गानों की सूची बना पाऊँगा? साथ में ही मेरी शर्त यह भी थी कि एक एँल्बम से एक से अधिक गीत नहीं चुन सकते, और गीत अपने आप याद आना चाहये, गूगल पर खोज कर नहीं निकनला उसे. प्रारम्भ में कुछ ध्यान में नहीं आ रहा था, लेकिन फ़िर धीरे धीरे कुछ गाने याद आने लगे. यह सूची बनायी है, हालाँकि इनमें से यह चुनना कि कौन सा गीत अधिक पसंद है कठिन है. कुछ गायकों के नाम याद आये पर उनका कोई गीत याद नहीं आया.

1. "कृष्णा नीबेगने बरो" जिसे कोलोनियल कज़नस् (Colonial Cousins) ने गाया था. इनकी इसी एल्बम में से मुझे "स नि धा पा गा मा गा रे सा" भी बहुत अच्छा लगता है लेकिन अगर एक ही चुनना पड़े तो मैं "कृष्णा" को ही चुनुँगा.



2. रब्बी का गाया "बुल्ला की जाणा मैं कौण" - इस गाने के बाद मैंने रब्बी की एक और एँल्बम भी खरीदी थी जो मुझे अच्छी भी लगी थी, लेकिन अब सोचने पर भी उसके गीत याद नहीं आते.

3. मुकुल और मितुल का "सावन" यह दोनो गायक अधिक प्रसिद्ध नहीं हुए लेकिन मुझे इनके गाने का अंदाज़ बहुत पसंद है.




4. आशा जी का "इस तुमुल कोलाहल कलह में"

5. जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का "सरकती जाये है रुख से नकाब आहिस्ता आहिस्ता"

6. किशोरी आमोनकर का "सहेला रे"

7. अश्विनी भिडे देशपांडे का "गणपति विघ्नहरण गजानन". इस गीत के पीछे एक छोटी सी कहानी है. कुछ वर्ष पहले डा. देशपांडे हमारे शहर आयीं थीं. उनसे बात करने का भी मौका मिला. उनसे बात करते हुए मैंने उन्हें कहा कि मुझे उनका यह भजन बहुत प्रिय है. उस दिन शाम को जब उनका गायन कार्यक्रम समाप्त होने वाला था, उन्होंने इस गीत को मेरे लिए गाया. तब से यह गीत मेरे मन में और गहरा उतर गया.

8. मोहित चौहान का "सजना" - आज कल के गायकों में से मेरे सबसे प्रिय हैं मोहित चौहान.

9. ग़ुलाम अली का "आवारागी" - चालिस साल पहले यह गीत एक बार दिल्ली की ललित कला अकेदमी की लायब्रेरी में सुना था तो उसने मंत्र मुग्ध कर दिया था.

10. कुमार गंधर्व का "उड़ जायेगा हँस अकेला" - बचपन में कुमार गंधर्व जी के निर्गुणी भजनों से मेरी मुलाकात मेरे छोटे फ़ूफा ने करायी थी. उसके बाद कई बार कुमार गंधर्व जी को गाते हुए सुनने का मौका भी मिला. उनके कबीर भजन मुझे बहुत प्रिय हैं.

यह दस गीत तो मैंने आज चुने हैं लेकिन यह भी है कि समय के साथ मेरी पसंद भी बदलती रहती है. आप के सबसे प्रिय गैर फ़िल्मी गीत कौन से हैं, हमें भी बताईये. शायद आप की पसंद के गीतों में मेरी पसंद के अन्य गीत भी छुपे हों?

***

सोमवार, जून 20, 2011

विचित्र शब्द

हिन्दी के "चंदू की चाची ने, चंदू के चाचा को चाँदी के चम्मच से चाँदनी चौंक में चटनी चटाई" जैसे वाक्यों को, जिन्हें बोलने में थोड़ी कठिनायी हो या बोलने के लिए बहुत अभ्यास करना पड़े, अंग्रेज़ी में "टँग टिविस्टर" (Tongue twister) यानि "जीभ को घुमाने वाले" वाक्य कहते हैं.

Grafic design about strange words by S. Deepak

इस तरह के वाक्य अन्य भाषाओं में भी होते हैं. चेक गणतंत्र की भाषा चेक में ऐसा एक वाक्य हैः "मेला बब्का वू कापसे ब्राबसे, ब्राबसे बाबसे वू कापसे पिप. ज़्मक्ला बबका ब्राबसे वू कापसे, ब्राबसे बाबसे वू कापसे चिप." यानि "नानी की जेब में चिड़िया थी, चिड़िया ने चींचीं की, नानी ने चिड़िया को दबाया, चिड़िया मर गयी."

विभिन्न भाषाओं कई बार छोटे से शब्द मिलते हें, जिनके अर्थ समझाने के लिए पूरा वाक्य भी कम पड़ सकता है. कुछ इस तरह के शब्दों के उदाहरण देखिये.

जापानी लोग कहते हैं "अरिगा मेईवाकू" जिसका अर्थ है, "वह काम जिसे कोई आप के लिए करता है, जो आप नहीं चाहते थे, और आप की पूरी कोशिश के बाद कि वह व्यक्ति वह काम न करे, वह उसे करता है, और आप के लिए इतना झँझट खड़ा कर देता है जिससे आप को बहुत परेशानी होती है, लेकिन फ़िर भी आप को उस व्यक्ति को धन्यवाद कहना पड़ता है". जर्मन शब्द "बेरेनडीन्स्ट" का अर्थ भी इससे मिलता जुलता है.

जापानी का एक अन्य शब्द है, "आजे ओतोरी" जिसका अर्थ है "बड़ा होने के समारोह के लिए अपने बालों का विषेश स्टाईल बनवाना, जिससे बजाय अच्छा लगने के, आप की शक्ल और भी बिगड़ी हुई लगे".

हालैंड निवासी कहते हैं "प्लिमप्लामप्लैटरेन", जब कोई पानी की सतह पर इस तरह से पत्थर फ़ैंके कि वह पत्थर कुछ दूर तक पानी पर उछलता हुआ जाये.

फ्राँसिसी बोली में कहते है, "सिन्योर तेरास", उस व्यक्ति के बारे में जो बार या रेस्टोरेंट में जा कर बहुत सा समय बिताता है, पर खाता पीता बहुत कम है जिससे उसका खर्चा कम होता है.

अलग अलग भाषाओं में बात को कहने के कुछ अजीब अजीब तरीके भी होते हैं, जैसे कि इंदोनेशिया में समय बरबाद को कहते हैं "कुसत सेबे लोकटी", यानि "अपनी कोहनियाँ चाटना". चीनी लोग, जब कोई ज़रूरत से अधिक ध्यान और हिदायत से काम करता है, कहते हैं, "तुओ कूरी फाँग पी" यानि "पाद मारने के लिए पैंट उतारना". कोरिया में जब कोई बिना आवश्यकता के बहुत ताकत लगा कर कुछ काम करता है, तो कहते हैं "मोजी जाबेरियूदाछोगा सामगान दा तायेवोन्दा" यानि "मच्छर पकड़ने के चक्कर में घर गिरा देना".

इस तरह के शब्दों के बारे में विचित्र और दिलचस्प बातें लिखीं हैं होलैंड के आदम जूआको ने अपने चिट्ठे "टिंगो का अर्थ" (The Meaning of Tingo) पर. उनका यह चिट्ठा इतना सफ़ल हुआ कि इसकी उन्होंने किताब छपवायी. किताब छपने के बाद से उन्होंने चिट्ठे पर नयी पोस्ट लिखना बन्द कर दिया, फ़िर भी पढ़ने के लिए वहाँ बहुत सी दिलचस्प बातें मिलती हैं.

हमारी भारतीय भाषाओं में भी जाने इस तरह के कितने शब्द होंगे, विचित्र तरीके होंगे बात को कहने के, ऐसे छोटे छोटे शब्द होंगे जिनके लम्बे अर्थ हों, जो सारी दुनिया से अलग हों. शायद हममें से कोई उस पर चिट्ठा बना सकता है, सफ़लता अवश्य मिलेगी. कुछ उदाहरण हमें भी देने की कोशिश कीजिये.

***

शुक्रवार, जून 17, 2011

अंत का प्रारम्भ

पिछले कुछ सालों में इटली के प्रधानमंत्री श्री सिल्वियो बरलुस्कोनी का नाम विश्व भर में जाना जाने लगा है. जिन्हें इटली के बारे में कोई अन्य जानकारी नहीं है, वे भी बरलुस्कोनी का नाम जानते हैं. इसका कारण यह भी है कि विश्व भर में पत्रकारिता बदल रही है. उदारवाद और वैश्वीकरण से, अखबारों में बिक्री कैसे बढ़ायी जाये की चिन्ता भी बढ़ी है और इस चिन्ता को घटाने में बरलुस्कोनी जी बड़े सहयोगी हैं क्योंकि वह नियमित रूप से सेक्स से जुड़े स्कैंडलों के हीरो हैं जिनकी खबरे दुनिया के समाचार पत्र खुशी से छापते हैं.

उत्तरी इटली के मिलान शहर के उद्योगपति, बरलुस्कोनी ने पहला पैसा ज़मीन और घरों के बनाने और उनकी बिक्री से बनाया, फ़िर टेलीविज़न और अखबारों के व्यवसाय में झँडे गाड़े. आज उनके व्यवसाय विभिन्न क्षेत्रों में फ़ैले हैं और वह दुनिया के सबसे अमीर लोगों में गिने जाते हैं. सत्रह वर्ष पहले, राजनीति में आने से पहले, वह 1980 के दशक में इटली की समाजवादी पार्टी के नेता इटली के प्रधान मंत्री बेत्तिनो क्राक्सी के करीबी मित्र समझे जाते थे. 1990 के दशक के प्रारम्भ में इटली में "साफ़ हाथ" का स्कैंडल हुआ जिसकी चपेट में उस समय के बहुत सारे भ्रष्टाचारी राजनीतिज्ञ आ गये. जेल से बचने के लिए क्राक्सी को इटली छोड़ मोरोक्को भागना पड़ा. उस समय को इटली के "पहले गणतंत्र का अंत" कहा जाता है और तब आशा थी कि इटली में भ्रष्टाचार विहीन नया "दूसरा गणतंत्र" बनेगा. उस समय नये गणतंत्र के दूत के रूप में राजनेता बरलुस्कोनी का जन्म हुआ, उन्होंने "फोर्स्ज़ा इतालिया" (Forza Italia) यानि "मजबूत इटली" नाम का नया राजनीतिक दल बनाया जिसमें राजनीति से बाहर के नये "ईमानदार" लोगों को जगह दी गयी.

Berlusconi posters

लोगों का कहना था कि बरलुस्कोनी राजनीति से बाहर के व्यक्ति हैं, पहले से ही इनके पास पैसा है, उन्हें देश का पैसा खाने की आवश्यकता नहीं, वह ईमानदारी से देश की सेवा करेंगे. उनकी इस स्वच्छ छवि में कुछ कमियाँ थीं, जैसे कि उनके विरुद्ध चल रहे कुछ मुकदमें और राजनीति में उनका पुरानी फासिस्ट पार्टी से गठबँधन, पर इन दोनो बातों को उनके प्रशंसकों ने बहुत गम्भीरता से नहीं लिया. नब्बे के दशक में उन्होंने चुनाव जीते और सरकार बनायी, लेकिन गठबँधन के साथियों ने उनका पूरा साथ नहीं दिया और उनकी सरकार बहुत समय तक नहीं चली. उसी समय में उन पर लगे मुकदमे भी बढ़ने लगे. इससे बरलुस्कोनी ने दो तरह की बातों को बढ़ावा दिया - पहली बात कि मुझसे सत्ता में रहने वाले वामपंथी दल डरते हैं और मुझे राह से हटाने के लिए वामपंथी मजिस्ट्रेटों के सहयोग से झूठे मुकदमे चलाये रहे हैं, और दूसरी बात कि मैं देश को तरक्की की राह पर ले जाना चाहता हूँ लेकिन बाकी के दल आपस में मिल कर मुझे यह मौका नहीं दे रहे.

इन्हीं दो संदेशों को वह विभिन्न रूपों में पिछले दशक में भी दौहराते रहें हैं, हालाँकि इस दशक में वह स्वयं सबसे अधिक समय से सत्ता में हैं. जवान कम उम्र की लड़कियों और युवतियों पर सेक्स सम्बंधी बातें व इशारे करना, अपनी मर्दानगी की डींगे मारना, इन सब बातों के लिए वह शुरु से ही जाने जाते थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद जब विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सभाओं आदि में उन्होंने अन्य देशों की नारी नेताओं के बारे में बिना सोचे समझे टिप्पणियाँ की या इशारे किये, तो विभिन्न देशों की जनता ने उन्हें पहचानना शुरु कर दिया. विरोधी दलों की औरतों के बारे में उनकी टिप्पणियाँ बार बार अखबारों में मुख्यपृष्ठ का मसाला बनती रही हैं.

अपनी इस दृष्टि के समर्थन में उन्होंने यह कहना शुरु कर दिया कि मैं जिस औरत को चाहूँ, उसे राजनीति में नेता बना सकता हूँ, क्योंकि नेता बनने के लिए उनको बस किसी पुरुष नेता का सहारा चाहिये, और कुछ नहीं. जनता में वह बहुत लोकप्रिय थे, और उनकी इस तरह की बातों को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया गया, लोग कहते थे कि वह अच्छे नेता हैं, काम बढ़िया करते हैं, इस तरह की बातें तो वह हँसी मज़ाक में कहते रहते हैं और साथ ही यह भी कि इस तरह की बातें उनकी व्यक्तिगत जीवन की बाते हैं, इन्हें गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये.

पर पिछले दो तीन सालों में उनकी इस तरह की बातें इतनी बढ़ गयीं हैं कि इन बातों के पीछे उनकी सरकार क्या करती है या नहीं करती, इसकी बात होनी बन्द हो गयी है. उन पर चलने वाले मुकदमे हर साल नये जुड़ रहे हैं, लेकिन वह कहते हैं कि सब झूठे हैं, कि मुकदमे कम्युनिस्ट मजिस्ट्रेटों द्वारा उन्हें सत्ता से हटाने के लिए बनाये जा रहे हैं. उनकी सरकार ने कई नये कानून बनाये हैं ताकि वह अपने मुकदमों से छुटकारा पा सकें.

उनके विरुद्ध पैसे दे कर जवान युवतियों से सेक्स सम्बंध करने के बहुत से मामले निकले हैं. पैसा दे कर सेक्स करना, यह इतालवी कानून के विरुद्ध नहीं, लेकिन युवती कम से कम 18 साल की होनी चाहिये. लेकिन अन्य युवतियों की वेश्यावृति से पैसे कमाना, यानि दल्लेबाज़ी गैरकानूनी है.

इसलिए, इन मामलों में यही कहा गया कि उन्होंने कोई गैर कानूनी काम नहीं किया, लेकिन उन युवतियों ने पत्रिकाओं को प्रधान मंत्री के साथ अपने आत्मीय अनुभवों की बातों के साक्षात्कार बेच कर सनसनी फैलायी और दल्लाबाज़ी के अपराध में उनके कुछ सहयोगियों पर मुकदमे चले. ऐसी बातें भी निकलीं कि अच्छे खाते पीते घरों की पढ़ी लिखी युवतियाँ उनसे दोस्ती बनाती हैं ताकि ऊँचे पद की नौकरी या संसद में जगह पा सकें. कहते हैं कि उनके मंत्री मंडल में और देश के विभिन्न शहरों की स्थानीय सरकारों में इस तरह से उन की जान पहचान वाली बहुत सी यवतियाँ हैं जिनमें से कुछ ने स्वीकारा है कि उनके प्रधान मंत्री से प्रेम या सेक्स सम्बंध भी रहे हैं. उनकी संगीत, नृत्य और कम कपड़े पहने हुए युवतियों की पार्टियों में विदेशी राष्ट्रपति, मंत्री, प्रधानमंत्री भी हिस्सा लेते हैं, इसकी बातें भी कई बार निकली.

इन सब बातों में हर बार अखबार में पहले पन्ने पर हेडलाईन निकलती हैं, कुछ दिन हल्ला उठता है, फ़िर बात गुम हो जाती है, यह समझना कठिन होता है कि क्या सच है, क्या झूठ. तीन साल पहले उनकी पत्नी ने उन पर आरोप लगाया कि वह नाबालिग युवतियों से सम्बंध बना रहे थे और उनसे अलग होने का फैसला किया. लेकिन 75 वर्षीय बरलुस्कोनी इससे हताश नहीं हुए हैं और तलाक के बाद उनके चर्चे और भी बढ़ गये हैं. कुछ महीने पहले, मोरोक्को की एक सत्रह साल की नाबालिग लड़की रूबी से सेक्स का स्कैंडल निकला, जिसकी बहुत चर्चा रही, लेकिन यह कहना कठिन है कि इसका कुछ असर पड़ेगा या यह भी भुला दिया जायेगा. इस बात पर कुछ मास पहले सारी इटली में विभिन्न शहरों में उनके विरुद्ध स्त्री समूहों द्वारा आयोजित बड़े प्रदर्शन हुए थे. नीचे की तस्वीरों में, बरलुस्कोनी के विरुद्ध बोलोनिया शहर में हुए प्रदर्शन की कुछ तस्वीरें.

Anti-Berlusconi protests, Bologna, February 2011 - images by S. Deepak

Anti-Berlusconi protests, Bologna, February 2011 - images by S. Deepak

Anti-Berlusconi protests, Bologna, February 2011 - images by S. Deepak

विदेश में लोग बार बार पूछते हैं कि इतने स्कैंडल के बाद भी बरलुस्कोनी कैसे प्रधानमंत्री बने हुए हैं और जनता में इतने लोकप्रिय हैं. ऐसा नहीं कि इटली में उनके विरुद्ध बोलने वाले लोग नहीं, लेकिन यह भी सच है कि 30 या 33 प्रतिशत वोट लेने वाली उनकी पार्टी पिछले राष्ट्रीय चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी थी. यानि, 67 से 70 प्रतिशत लोग उनके विरुद्ध हैं, पर उनके विरोधी अलग अलग गुटों या दलों में बँटे हैं, मिल कर उनका सामना नहीं कर पाते. पिछले दो दशकों में विरोधी दल अगर सत्ता में आये भी हैं, तो आपस में ही लड़ते रहे हैं.

लेकिन शायद अब स्थिति कुछ बदलने लगी है. मई के अंत में देश के कई बड़े शहरों में चुनाव हुए. करीब करीब हर जगह, बरलुस्कोनी की पार्टी को मात मिली. पिछले सप्ताह, सरकार के चार निर्णयों पर विरोधी दलों ने जनमत का आयोजन किया, जिसमें बरलुस्कोनी ने सबसे कहा कि वोट देने नहीं जाईये ताकि जनमत असफ़ल हो जाये. लेकिन लोग वोट देने गये और सरकार के चारों निर्णयों को जनता ने गलत कहा, यानि सरकार को यह निर्णय बदलने पड़ेंगे. इनमें से एक निर्णय बरलुस्कोनी पर चलने वाले मुकदमें से सम्बंधित भी है.

कल तक बरलुस्कोनी जी लगता था कि अपने किले में सुरक्षित हैं, उन्हें कोई हरा नहीं सकता, अब अचानक लोग कहने लगे हैं कि शायद बरलुस्कोनी का समय गया, जनता का उन पर विश्वास नहीं रहा. बहुत से लोग कह रहे हैं कि यह बरलुस्कोनी के अंत का प्रारम्भ है.

उनकी सरकार के पास अभी दो साल और हैं. प्रतीक्षा करनी पड़ेगी यह देखने के लिए कि क्या वह इन दो सालों में अपनी छवि को सुधार सकेंगे? नयी नीतियाँ बना सकेंगे जिनसे उनके प्रशंसक फ़िर से उन पर विश्वास करने लगें? क्या विरोधी दल मिल कर काम कर सकेंगे और सरकार बना सकेंगे? इन सब प्रश्नों के उत्तर तो समय ही देगा.

***

शुक्रवार, जून 10, 2011

ब्राज़ील डायरी (2)

पिछले दिनों मुझे ब्राज़ील के गोयास और परा प्रदेशों में यात्रा का मौका मिला. उसी यात्रा से मेरी डायरी के कुछ पन्ने प्रस्तुत हैं. कल इस डायरी का पहला भाग प्रस्तुत किया था. आज प्रस्तुत है दूसरा और अंतिम भाग.

***

3 जून 2011, अबायतेतूबा (परा)

ब्राज़ील में गोरे, काले, भूरे, हर रंग के लोग मिलते हैं. अफ्रीकी, अमेरंडियन और यूरोपीय लोगों के सम्मिश्रण से एक ही परिवार में तीनो जातियों के चेहरे दिखते हैं. अक्सर लड़के और लड़कियाँ छोटे छोटे कपड़े पहनते हैं और शारीरिक नग्नता पर कोई ध्यान नहीं देता. अमेज़न जँगल में दूर दूर के गाँवों में भी लोग इसी तरह के छोटे छोटे पश्चिमी लिबास पहनते हैं.

यह वस्त्र मेरे मन में समृद्ध यूरोप या अमरीका की छवि बनाते हैं. भारत में इस तरह के कपड़े तो केवल बड़े शहरों में अमीर घर के लोग ही पहनते हैं. इसलिए उन्हें देख कर अक्सर उनकी गरीबी को तार्किक स्तर पर समझता हूँ लेकिन भावनात्मक स्तर पर महसूस नहीं कर पाता हूँ.

(नीचे की तस्वीरों में अबायतेतूबा के ग्रामीण और नदी के किनारे पर रहने वाले गरीब लोग)

Rural area, Abaetetuba, Parà Brazil - Images by S. Deepak

River area, Abaetetuba, Parà Brazil - Images by S. Deepak

मन में कुछ अज़ीब सा लगता है. गोरा चेहरा, सुनहरे बाल, छोटे छोटे आधुनिक कपड़े, ऐसे लोग गरीब कैसे हो सकते हैं?

गरीबी और भूख से भी अधिक चुभती हैं, परिवार में हिँसा की कहानियाँ, विषेशकर यौन हिँसा की कहानियाँ. अमेज़न जँगल में नदियों में हज़ारों द्वीप हैं जिनमें रहने वाले रिबारीन लोग हैं. उनमें छोटी छोटी चौदह पंद्रह साल की गर्भवती लड़कियों को देख कर बहुत दुख होता है. नदी के किनारे घर हैं, एक दूसरे से कटे हुए, जहाँ एक घर से दूसरे घर जाने के लिए नाव से ही जा सकते हैं, जँगल को पार करके जाना बहुत कठिन है. इस तरह से हर परिवार अपने आप में अलग द्वीप सा है. मेरे साथ की सोशल वर्कर ने बताया कि अक्सर नाबालिग लड़कियों से यौन सम्बन्ध बनाने वाले उनके पिता या अन्य पुरुष रिश्तेदार होते हैं.

इस तरह एक परिवार में पति पत्नि, उनके बच्चे और पिता और बेटियों के हुए बच्चे साथ साथ देखने को मिले. इस बात पर नदियों के किनारे पर बसे, बाकि दुनिया से कटे हुए इस समाज में शायद अधिक चेतना भी नहीं है. जब एक युवती से मैंने उसके पति के बारे में पूछा, तो उसने सहजता से कहा कि उसका पति नहीं है, बल्कि उसके बच्चे उसके पिता के साथ हुए हैं. इस तरह के परिवार भी बहुत देखे जहाँ घर में एक स्त्री के तीन चार बच्चे थे, लेकिन हर बच्चे का पिता अलग पुरुष था.

होटल में, स्वास्थ्य केन्द्र में, हर तरफ़ नाबालिग बच्चों से सेक्स सम्बन्ध और उनके यौनिक शोषण के बारे में पोस्टर लगे हैं, चूँकि नाबालिग बच्चों को खोजने वाले पयर्टक भी यहाँ बहुत आते हैं. कुछ सोचते हैं कि एड्स की बीमारी का इलाज, नाबालिग कमसिन बच्ची से सम्भोग करने से होगा. (नीचे की तस्वीर में अबायतेतूबा के एक स्वास्थ्य केन्द्र में बच्चों के यौनिक शोषण के बारे में पोस्टर)

Poster on sexual exploitation of minors, Parà Brazil - Images by S. Deepak

***
बहुत सुन्दर है अमेज़न का जँगल. हर तरफ़ हरियाली और नदियाँ, झीलें, पक्षी. बहुत सुन्दर लोग भी हैं. लेकिन उनकी सुन्दरता में गरीबी, हिँसा और शोषण की इतनी कहानियाँ. पर वहाँ के गरीबों और भारत के गरीबों में एक बड़ा अंतर दिखता है, अपने आत्मसम्मान का. भारत में लगता है कि अगर आप गरीब हैं या मजदूरी का काम करते हैं या वैसा काम करते हें जिसे नीचा समझा जाये, तो वह लोग "जी, जी हज़ूर" करके अपने आप को नीचा दिखाने को मजबूर होते हैं, तथा अपने आप को ऊँचा समझने वाले लोग उनसे मानव जैसा व्यवहार भी नहीं करते.

आनन्द गिरिधरदास की किताब "इंडिया कालिंग"  (India Calling, Anand Giridhardas, Harper Collins India, 2011) में इसका एक वर्णन है जिसे पढ़ कर मन बहुत क्षुब्ध हुआ था. इस किताब में एक जगह वह बताते हैं एक घर का काम करने वाले नौकर के व्यवहार के बारे में:
तब मुझे समझ में आया. उसने मुझे पहचाना नहीं था. उसने सोचा था कि मैं डिलिवरीवाला था, क्योंकि मैंने टी शर्ट और निकर पहनी हुई थी, और इसलिए भी कि इज़्ज़तदार भारतीय गद्दे अपने आप नहीं उठाते. जैसे ही उसने मुँह बनाया और मुझे जाने के लिए कहा, मैंने उसकी आँखों में आँखें डाल कर उसे याद दिलाया कि मैं सुबह उनके घर नाशते पर आया था. उसमें जो बदलाव आया, मैं उसे कभी भूल नहीं पाऊँगाः वह मेरी आँखों के सामने सिकुड़ कर छोटा हो गया, मालिक से नौकर. उसका तना हुआ बदन झुक गया. उसकी आँखों में विनीत भाव आ गया. जो हाथ इधर उधर चला रहा था, झुक कर शरीर से जुड़ गये. "जी सर, क्षमा कीजिये सर, जी सर" करके बात करने लगा. थोड़ी देर पहले वह पुरुष था और मैं बच्चा. अब वह बच्चा बन गया था, मुझे माफ़ी माँग रहा था, डरा हुआ उम्मीद कर रहा कि मैं यह बात किसी से कहूँगा नहीं.
भारत में इस तरह के अनुभव आम हैं. जबकि ब्राज़ील के गरीब लोगों के बात करने में इस तरह से खुद को नीचा समझना नहीं दिखा. हम लोग वहाँ की झोपड़पट्टी में गये, वहाँ चाहे लोग कितने भी गरीब थे, उनके बात करने के ढंग में आत्मविश्वास था, लगा जैसे वह कह रहे हों कि पैसे न हों तो भी हम तुमसे किसी बात में कम मानव नहीं.

***
4 जून 2011, बेलेम

कल शाम को अबायतेतूबा से वापस आये थे. सुबह वहाँ से अंद्रेया का टेलीफ़ोन आया. हमारे जाने के बाद, उस झोपड़पट्टी के पास पुलिस वालों और नशे की सम्गलिंग करने वालों के बीच घमासान युद्ध हुआ था जिसमें दस लोग मारे गये.

किस्मत अच्छी थी कि हमारे वहाँ रहते कुछ नहीं हुआ था. जल्दी से सूटकेस तैयार करना है, यह यात्रा भी स्माप्त होने वाली है.

***

गुरुवार, जून 09, 2011

ब्राज़ील डायरी (1)

पिछले दिनों मुझे ब्राज़ील के गोयास और परा प्रदेशों में यात्रा का मौका मिला. उसी यात्रा से मेरी डायरी के कुछ पन्ने प्रस्तुत हैं.

24 मई 2011, गोयास वेल्यो

बोर्ड पर लिखा था, "ओ कुआरो". मैंने मेक्स से उसका मतलब पूछा तो उसने बताया कि यह ब्राज़ील की ग्वारानी जनजाति के अमेरिंडियन लोगों का आपस में नमस्ते कहने का तरीका है.

मेक्स प्राथमिक स्कूल के बच्चों को प्राचीन अफ्रीकी और अमेरिंडियन सभ्याताओं के बारे में पढ़ाता है. वह बोला, "हम लोगों के खून में, यूरोप से आये लोगों के साथ साथ, अफ्रीका से लाये गुलामों और यहाँ के रहने वाले मूल अमेरिंडियन निवासियों का खून भी मिला है. एक ही ब्राज़ीली परिवार में तुम्हें सुनहरे बालों और नीली आँखों वाले यूरोपी चेहरे, काले अफ्रीकी चेहरे, भूरे अमेरिंडियन चेहरे और इन सबके सम्मिश्रिण से बने हर रंग के चेहरे मिलेंगे. लेकिन आज का ब्राज़ील वासी, अपने आप को यूरोपीय मानना बेहतर समझता है, हमारी सभ्यता पर यूरोपी भाषा, सोच विचार, धर्म हावी हैं."

"अफ्रीकी सभ्यता या अमेरिंडियन सभ्यता की हमारी जड़ों की, किसी को परवाह नहीं, वे तो आजकल नीचे दर्जे की सभ्यताएँ मानी जाती हैं. उनको याद रखना या बना कर रखना बेकार है, ऐसा कहते हैं. अधिकतर लोग उन भाषाओं और सभ्यताओं के बारे में कुछ जानना चाहते ही नहीं. लेकिन अपने खून में मिली सभ्यता, संस्कृति, किस्से कहानियाँ, पाराम्परिक ज्ञान को यूँ फैंक देना गलत है." मेक्स ने कुछ हताश हो कर बताया, "सच तो यह है कि आज चाहो भी तो ग्वारानी भाषा किससे बोलो? जो भाषा मर चुकी है, भुला दी गयी है, उसे मेरे कितना भी चाहने से फ़िर से जीवित नहीं किया जा सकता."

(नीचे की तस्वीरों में विला स्पेरान्ज़ा स्कूल में अफ्रीकी और अमेरिंडियन मुखौटे)

African mask, Goias Velho, Brazil, Images by Sunil Deepak

Amerindian mask, Goias Velho, Brazil, Images by Sunil Deepak

उसकी इस बात से मैं हिन्दी के बारे में सोचने लगा. आज भारत में भी सब माँ पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा अंग्रेजी बोले, अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़े. मैं खुद भी कितना ही "हिन्दी हिन्दी" बोलता सोचता रहूँ, सच तो यही है कि बात थोड़ी सी भी जटिल होने लगे तो मुझसे हिन्दी में बात नहीं की जाती, अंग्रेज़ी में की जाती है. धीरे धीरे क्या हिन्दी भी एक दिन ग्वारानी बन जायेगी?

***

25 मई 2011, गोयास वेल्यो

मैंने एड्रियानो से पूछा कि उसने अपनी बेटी को "विला स्पेरान्सा" के स्कूल में क्यों पढ़ाना चाहा, तो उसने बताया, "मैंने इस स्कूल के बनाने का कुछ काम किया था. तब मुझे बच्चों के लिए इस स्कूल में इतने ध्यान से बनायी गयी बच्चों के खेलने की जगहें, सोचने की जगहें, पढ़ने की जगहें, आदि देख कर बहुत अच्छा लगा. जब मेरी बेटी ओलिन्दा को स्कूल में दाखिल करने का समय आया तो मैंने सोचा कि उसे इसी स्कूल में पढ़ाना चाहिये. मेरे कई मित्रों ने मुझसे कहा कि यह स्कूल बेकार है, यहाँ ठीक से पढ़ायी नहीं होती, बच्चों को खेल खिलाते रहते हैं, होम वर्क भी नहीं देते, किताबें भी कम है, वगैरह. पर वह लोग यह इस लिए कहते हैं क्योंकि यहाँ की पढ़ायी के तरीके को ठीक से नहीं समझते. मैं यहाँ के पढ़ने खेलने के मिले जुले तरीकों से बहुत खुश हूँ."

बाद में मैंने मेक्स से पूछा कि लोग तुम्हारे स्कूल के बारे में इस तरह क्यों सोचते हैं कि यहाँ ठीक से पढ़ायी नहीं होती?

मेक्स इस स्कूल का जन्मदाता है और कर्ता धर्ता भी. पहाड़ी पर, रियो वेरमेलियो नदी के किनारे, एक बहुत सुन्दर जगह पर बना है "विला स्पेरान्सा" यानि "आशा का घर". हर तरफ़ रंग बिरंगी कुर्सिया मेज़, खेलने की चीज़ें और किताबें. बस एक दिक्कत है यहाँ कि एक क्लास से दुसरी में जाने के लिए बहुत सीढ़ियाँ चढ़नी उतरनी पड़ती हैं.

मेक्स ने कहा, "हम लोग पढ़ायी और खेल के साथ साथ सभ्यता की बात भी करते हैं जिसमें पुरानी अफ्रीकी और अमेरिंडियन कहानियाँ, रीति रिवाजों, नृत्य, संगीत और गीत, वस्त्र, पाराम्परिक खाने आदि के बारे में सप्ताह में एक दिन उत्सव मनाया जाता है. इसका ध्येय है कि हम अपनी प्राचीन जड़ों के प्रति शर्मिन्दा न हों. बल्कि अपनी साँस्कृतिक धरौहर को पहचाने, उसे सम्भाल कर रखें और उस पर गर्व करें. लेकिन यहाँ एवान्जलिक और कैथोलिक दो तरह के ईसाई धर्म का बहुमत हैं, उनके कुछ लोगों ने कहना शुरु कर दिया कि हम बच्चों में पुराने अफ्रीकी और अमेरिंडियन धर्म जैसे मुकम्बा या ओरिशा, का बढ़ावा दे रहे हैं, ताकि बच्चे अपना धर्म बदल दें. यह बात ठीक नहीं क्योंकि हम किसी को धर्म बदलने के लिए नहीं कहते, पर फ़िर भी इस बात से बहुत से लोगों ने यह कहना शुरु कर दिया है कि विला स्पेरान्सा में बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहिये. वही लोग हमारे स्कूल के बारे में गलत अफवाहें फैलाते हैं."

(नीचे की तस्वीरों में विला स्पेरान्ज़ा स्कूल से दिखती रियो वेरमेल्यो नदी और स्कूल में अफ्रीकी सभ्यता का कार्यक्रम)

Vila Esperança school view, Goias Velho, Brazil, Images by Sunil Deepak

African living festival in Vila Esperança, Goias Velho, Brazil, Images by Sunil Deepak

मैं भारत में होने वाली विभिन्न धर्मों के बीच होने वाली बहस के बारे में सोचने लगा. देश, परिवेश बदल जाते हैं, लेकिन मानव अपनी भिन्नताओं को ले कर लड़ने झगड़ने का कोई न कोई बहाना खोज ही लेता है! धर्म बदलने बदलवाने को ले कर तो इतनी बहस और लड़ाईयाँ होती हैं. कर्णाटक में गया था तो वहाँ गाँवों में कुष्ठ रोग तथा एडस रोग के लिए काम करने वाली कैथोलिक ननस् पर वहाँ के कुछ हिन्दु दल धर्म बदलने का प्रचार करने का आरोप लगा रहे थे. मेक्स की तरह सिस्टर आइडा ने भी मुझसे कुछ ऐसी ही बात कही थी.

मुझे मेक्स का स्कूल बहुत अच्छा लगा. दिल किया कि काश बचपन में मुझे भी इस तरह के स्कूल में पढ़ने का मौका मिलता, जहाँ कुछ रटना नहीं पढ़ता, हर बात में बच्चों को स्वयं सोचने समझने के लिए प्रेरित किया जाता है.

***

28 मई 2011, गोयानिया

जूनियर मेरे साथ काम करने वाली मेरी ब्राज़लियन मित्र का बेटा है, वह होटल में मुझे लेने आया. करीब पंद्रह साल बाद उससे मिल रहा था. मुझसे गले लग कर मिला. जब अंतिम बार मिले थे, तब वह स्कूल में पढ़ता था, अब वह विवाहित है दो बच्चे हैं और वकील का काम करता है. पर यह जूनियर उस पंद्रह साल पहले वाले खेल कूद और सिनेमा में दिलचस्पी रखने वाले लड़के से बहुत भिन्न था जिससे पिछली बार मिला था. अब उसके चेहरे पर मृदुल मुस्कान थी, और धीरे धीरे सोच समझ के बोलने वाला हो गया था.

करीब दस साल पहले, एक दिन जूनियर कार में कहीं जा रहा था, चौराहे पर लाल बत्ती के हरा होने का इन्तज़ार कर रहा था, जब किसी ने कार की खिड़की से उसे बन्दूक दिखा कर लूटने की कोशिश की थी. जूनियर ने कार चला कर भागने की कोशिश की थी, तो लूटने वाले ने उसके सिर पर गोली मारी थी. किस्मत अच्छी थी, जूनियर मरा नहीं, कई महीनों तक बेहोश पड़ा रहा, जब होश आया तो बोल नहीं पाता था, उसने फ़िर से बोलना सीखा. अब भी बोलते बोलते कई बार अटक सा जाता है, इसलिए धीरे धीरे बोलता है.

स्वास्थ्य मंत्रालय में गया. वहाँ काम करने वाली एक अन्य पुरानी मित्र के बारे में पूछा, तो मालूम चला कि वह कई महीनो से छुट्टी पर चल रही है. मेरी मित्र खरीदारी करने सुपरमार्किट गयी थी. खरीदे सामान की ट्राली को ले कर निचले तल पर कार पार्क में पहुँची तो दो लोगों ने उसे चाकू दिखाया. सब सामान, पैसा, घड़ी, कार, पर्स आदि ले लिया. बेचारी को इतना धक्का लगा कि तब से मनोविज्ञान विशेषज्ञ से चिकित्सा चल रही है.

ब्राज़ील यात्रा में इस तरह की कहानियाँ इतनी सारी सुनने को मिलती हैं कि अकेले बाहर जाने से बहुत डर लगता है. कार में कहीं जाते हैं तो हमेशा दरवाज़ा लोक्क करके खिड़कियाँ बन्द करके जाते हैं. मुझे यह भी सलाह दी गयी कि उँगली से सोने की अँगूठी को उतार देना ही बेहतर है, लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी उसे उँगली से नहीं निकाल पाया, तो मेरी मित्र बोली, "भगवान न करे कि वह अँगूठी लेने के लिए तम्हारी उँगली ही काट लें!"

सभी पैसे वाले लोग यहाँ ऊँचे गगनचुम्बी घरो में रहते हैं, जिनके आसपास ऊँची दीवारें हैं और गेट पर बन्दूक लिये हुए संतरी.

बेलेम विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले प्रोफेसर क्लाउदियो कह रहे थे, "हम लोग शौध कार्य के लिए पिछले दो सालों से शहर के बाहरी हिस्से और आसपास के गाँवों में घूम रहे हैं. वहाँ की हालत कितनी बुरी है, इसका शहर में रहने वालों को पता नहीं. न ठीक से बिजली पानी, न सफ़ायी, न रहने के लिए ठीक से घर. मैंने सोचा भी नहीं था कि हमारे ब्राज़ील में लोग इस तरह भी रह सकते हैं. इसीलिए वहाँ के लोगों में हिँसा है, बहुत गुस्सा है. इस तरह का जीवन होगा तो गरीब नवयुवक तरह तरह के नशे करेंगे ही."

यह सच है कि ब्राज़ील के शहर देखो तो लगता है यूरोप या अमरीका में हो, जबकि शहर के बाहरी हिस्सों तथा गाँवों में रहने वालों की स्थिति पिछड़ी हुई है. लेकिन जिस तरह की भूखी नँगी गरीबी और गन्दगी भारत में दिखती है, उसके हिसाब से तो ब्राज़ील की गरीबी कम ही लगती है. अमीरों और गरीबों के बीच विषमताएँ भारत में कम नहीं, लेकिन भारत में गरीबों में इस तरह की हिँसा क्यों नहीं है, यहाँ क्यों है?

भारत में किसी भी गरीब से गरीब जगह पर भी, किसी भी झोपड़पट्टी में अकेले जाते मुझे कभी डर नहीं लगा, बल्कि मैं सोचता हूँ कि गरीब झोपड़ियों में लोग बहुत प्यार और भोलेपन से मिलते हैं. पर यहाँ की झोपड़पट्टी में अकेले जाने का अर्थ लूट और हिँसा हैं. लेकिन यह भी सच है कि मैं कभी भारत में नक्सलवादी हिँसा क्षेत्र में नहीं गया, शायद वहाँ जा कर इसी तरह का डर लगे?

***

शुक्रवार, मई 20, 2011

मृत्यु के घर में जीवन

अगर आप से कोई पूछे कि आप मत्यु के बारे में क्या सोचते हैं और फ़िर आप से कहे कि आप की तस्वीर खींच कर उसे कब्रिस्तान में आप के मृत्यु के बारे में विचारों के साथ लगायेंगे तो क्या आप मान जायेंगे?

विरजिनिया ने मुझसे पूछा तो मैं तुरंत मान गया. लेकिन मेरे जान पहचान वाले कुछ लोग थोड़े से चकित हो गये. बोले कि क्या डर नहीं लगता कि अपशगुन हो जाये और तुम सचमुच कब्रिस्तान पहुँच जाओ? वहाँ तो तस्वीरें केवल मरने वालों की लगती हैं, तुम जीते जी वहाँ अपनी तस्वीर लगवाओगे, लोग क्या सोचेंगे?

विरजिनया कलाकार है, तस्वीरें खींचती है, पैंटिग बनाती है, कविता लिखती है.

मई के अंतिम सप्ताह में यूरोप कमिशन की तरफ़ से प्राचीन कब्रिस्तानों के बारे में जानकारी बढ़ाने का निर्णय किया गया है. इसी सिलसिले में पुराने कब्रिस्तानों के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए जब यूरोप कमिशन ने बोलोनिया के सबसे प्राचीन कब्रिस्तान चरतोज़ा को भी चुना, तो विरजिनिया को एक प्रदर्शनी बनाने का विचार आया कि विभिन्न देशों सभ्यताओं में लोग मृत्यु के बारे में क्या सोचते हैं इसके साक्षात्कार तैयार किये जायें. उनका यह विचार यूरोपियन कमिशन को पसंद आया. इसके लिए उन्होंने बारह देशों के लोगों से यह बात करने की सोची जिसमें भारत की ओर से मुझे अपने विचार कहने के लिए कहा गया. इसके अतिरिक्त, घुप अँधेरे में एक टार्च की रोशमी में सब लोगों की विशिष्ठ अंदाज़ में तस्वीरें खींची गयीं जिनसे लगे कि हम अँधेरे कूँएँ से बाहर निकल रहे हैं. इसके अतिरिक्त हर व्यक्ति से कहा गया कि अपने देश की भाषा में वहीं बाते कहे और उन्हें रिकार्ड किया गया.

इन सब तस्वीरों, शब्दों, आवाज़ों, विचारों को मिला कर चरतोज़ा के कब्रिस्तान में एक प्रदर्शनी लगायी जायेगी, जिसका उदघाटन 1 जून को होगा. प्रदर्शनी का नाम है "आत्मा की यात्रा" और प्रदर्शनी के पोस्टर से विरजिनया की ली हुई कागज़ की नाव की तस्वीर प्रस्तुत है.

Mostra Trasmigrazione di Virginia Farina, Bologna Certosa, giugno 2011

मैं नहीं मानता कि कब्रिस्तान में तस्वीर लगवाने से या मृत्यु की बात करने से, हम सब 12 लोगों के पीछे कोई भूत प्रेत पड़ जायेगा, या अपशगुनी होगी. बल्कि मैंने सोचा कि कितने लोगों की किस्मत होती है कि कब्रिस्तान में जीते जी अपनी तस्वीर देखें? जब यह मौका मिल रहा है तो उसे छोड़ना नहीं चाहिये. मरना तो सबने है ही एक दिन, इसके डर से हम लोग जीना तो नहीं छोड़ सकते!

चरतोज़ा का कब्रिस्तान मुझे बहुत प्रिय है, सुंदर प्राचीन मूर्तियों से भरा. यहाँ अधिकतर लोग कब्र में दफ़न होना पसंद करते हैं. कोई जो अपने प्रियजन के शरीर को बिजली के क्रेमाटोरियम में जलवा भी ले, उनकी भी राख को मटकी में भर कर, उसकी छोटी सी कब्र बना सकते हैं. लेकिन वहाँ पर एक बहुत सुन्दर खुली जगह भी है, जहाँ जो लोग चाहते हैं उनके परिवार वाले उनकी राख को खुले खेत में मिट्टी में मिला सकते हैं. बहुत सुन्दर जगह है, सामने चीड़ के पेड़ों से भरी पहाड़ी और एक नहर जहाँ छोटे बच्चे अक्सर बतखों को रोटी के टुकड़े खिलाते हैं.

प्रदर्शनी के चित्र तो जब लगेगी, तभी दिखा सकता हूँ. अभी प्रस्तुत हैं चरतोज़ा के कब्रिस्तान की मूर्तियों की कुछ तस्वीरें.

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak


***

गुरुवार, मई 19, 2011

बँटने का दर्द

लम्बी रेल यात्रा का प्रोग्राम हो तो कई दिन पहले सोचने लगता हूँ कि कौन सी किताब रास्ते के लिए साथ ली जाये. यहाँ रेल यात्रा में साथ बैठे लोगों से बातचीत करना लगभग नामुमकिन सा है, सामने कोई बैठा हो तो उससे अधिक नज़र मिलाना भी बद्तमीज़ी समझी जाती है. दुकान से सैंडविच खरीद के खाते लोग, साथ बैठने वाले से नहीं पूछते कि "आप भी कुछ लीजिये न भाईसाहब!"

ऐसे में अच्छी किताब पढ़ने के लिए होना बहुत ज़रूरी है.

हमारे यहाँ से जेनेवा जाने का अर्थ है मिलान में गाड़ी बदलना और करीब सात घँटे की रेल यात्रा. इस बार साथ ले जाने के लिए, मैंने नासिरा शर्मा की "ज़िन्दा मुहावरे" चुनी. इसे दो साल पहले दिल्ली में लगे पुस्तक मेले में खरीदा था, पर अब तक पढ़ने का मौका नहीं मिला था. एक बार पढ़ना शुरु किया तो उसमें इतना खोया कि रास्ते का पता ही नहीं चला.

Zinda Muhaware by Nasira Sharma
किताब का शीर्षक "ज़िन्दा मुहावरे" उन शब्दों की ओर संकेत करता है जिनकी मूल भाषा मर जाती है लेकिन वे शब्द किसी अन्य भाषा का हिस्सा बन कर ज़िन्दा रहते हैं. उपन्यास का विषय है पाकिस्तान के बनने से, उत्तर प्रदेश के पुराने ज़मीन्दार रहमतुल्लाह के परिवार का बँटवारा. आज़ादी रहमतुल्लाह से उनकी कुछ ज़मीन छीन लेती है, और उनका छोटा बेटा निजाम परिवार छोड़ कर पाकिस्तान जाने का फैसला करता है. गाँव में रह जाते हैं रहमतुल्लाह और उनका बड़ा बेटा, इमाम. अपना देश छोड़ कर नया देश चुनने वालों की सजा भारत में रह जाने वाले उनके परिवारों को भी देनी पड़ती है. नये देश में शरर्णार्थी बन कर आये लोगों को नये वातावरण में जीवन तो बनाना ही है, पुरानी यादों को भी भूलना है जिसमें उनके परिवार के हिस्से हैं जो भारत में ही रह गये.
"दोनो तरफ़ एक इल्ज़ाम कटी पतंग बन फड़फड़ाता है कि तुम यहाँ के नहीं हो, परदेसी हो, गैर हो. इसलिए दोनो तरफ़ के बाशिन्दों के दर्द की ज़मीन एक है. खून का रंग वही इन्सानी है, बस ज़रा सा फर्क यह है कि इधर वाले जाने वालों के गुनाह की सलीब पर टांग दिये गये हैं और उधर वाले यादों के तहखाने से गुज़र रहे हैं."
इमाम, रहमातुल्लाह का बड़ा बेटा कहता है, "इस बटवारे के बोझ से हमारी पीढ़ी आजाद नहीं हो सकती. भले ही तुम जैसे लोगों के लिए भूल जाने वाली बात हो, मगर हम जैसों के लिए ऐसी लानत है, जो चाह कर भी हम भुला नहीं सकते. जैसे मैं.. मैं सिर्फ़ मुल्क और समाज से नहीं, बल्कि अपने आप से भी जवाब तलब करता हूँ कि यह सब क्यों और कैसे हुआ? हमने ऐसा क्यों होने दिया? इसी सवाल ने हमारे आगे के रास्ते में कांटे बो दिये हैं."

बटवारे के समय घर, परिवार, देश छोड़ कर जाने वाले शायद ठीक से समझ नहीं पाये थे कि समय, जंग, राजनीति, दुश्मनी की वह खाईयाँ बना देगी, जिसमें उनका वापस लौट कर जाना संभव नहीं होगा. नये देश में अपनी जगह बनाने में लगे निजाम को शर्म आती है परिवार को बताने में कि जिसे आरामदायक इज्जतदार जीवन समझ कर वह आया था, वहाँ रहना उतना आसान नहीं, कुछ बनने के लिए उसे अपनी जान लड़ानी होगी.

उसके पीछे, उसके बूढ़े होते पिता के मन में टीस है, यह न जान पाने की कि उनका छोटा बेटा कहाँ है, किस हाल में है, ज़िन्दा है या नहीं, "कल इस घर में सारे पुरखों की रूह आयेगी. एक एक कर के सारे मुर्दों के नाम पर नज़र होगी. इस सारे इंतज़ाम के बीच ज़िन्दा और मुर्दा अपना संवाद स्थापित करेंगे, मगर उनका वहाँ कहीं ज़िक्र नहीं आयेगा, जो अपनो के बीच से चले गये. जो अब न ज़िन्दा थे न मुर्दा, न गायब थे न अगुआ हुए थे, फ़िर उनकी कब्र कहाँ ढूंढ़ कर उस पर दिया बाती जलायें."

उपन्यास में नासिरा शर्मा नये बने पाकिस्तान में निजाम और भारत में अपने पुराने गाँव में रहने वाले इमाम की जीवन कहानियों को समानान्तर बुनती हैं. यह उनकी व्यक्तिगत कहानियाँ हैं, जिनमें दोनो देशों के बीच होने वाली घटनाएँ, दोनो भाईयों के बीच की दूरी को बढ़ाती जाती है. भारत से गये निजाम जैसे लोग, पाकिस्तान में फ़लने फूलने का मौका पाते हैं और जब किसी को भारत में अपने पुराने गाँव आने का मौका मिलता है तो वे अपनी खुशहाली दिखाते हैं यह जताने के लिए कि हमने पाकिस्तान जा कर अच्छा किया, "लड़कियां इस तरह से सजी धजी सोने से मढ़ी हुई थीं कि सबको धोखा हुआ था कि वह चारों शादीशुदा हैं. बात बात पर वह लाहौर कराची का ज़िक्र कुछ इस चटखारे से करतीं कि गांव की सीधी साधी गरीब औरतें उन्हें अजीब हसरत की नज़र से देखने लगी थीं. उनके लिबास और ज़ेवरों पर उनकी नज़रें ठहरी थीं. उनके दिल व दिमाग में यह बात बिठाने की कोशिश पाचों कर रही थीं कि जो मुसलमान यहां रह गये हैं उनकी किस्मत में सिर्फ ख़ाक फांकना रह गया है."

पर समय के साथ, एक धर्मी हो कर भी, पाकिस्तान के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले लोगों के बीच झगड़े और दंगे शुरु हो जाते हैं. भारत से आये महाज़िरों को नीचा देखा जाता हैं. निजाम का एक दोस्त जो पाकिस्तान छोड़ कर कनाडा जा रहा है, कहता है, "हम बटवारे में बिहार से चटगांव जा कर बसे और वहां से भाग कर कराची आना पड़ा. यहां पर भी बिहारी होने की वजह से मार खायी ..." इधर भारत में इमाम का बेटा गयासुद्दीन पढ़ लिख कर कमिश्नर बन जाता है.

देश छोड़ने के चालिस साल बाद हिन्दुस्तान आने वाला निजाम को समझ में आता कि देश छोड़ कर उसने सच में क्या खोया, लेकिन अब उसके लिए उस रास्ते से वापस लौट आना संभव नहीं. उसके परिवार के लिए उनका वतन पाकिस्तान है, और हिन्दुस्तान की खुली हवा में उन्हें डर सा लगता है.

निजाम अपने बेटे अख्तर के लिए हिन्दुस्तानी बहु चाहता है, पर जब वह रिश्ते की बात उठाता है तो कुछ लोग स्पष्ट कह देते हैं कि वह पाकिस्तान में बेटी नहीं ब्याहेंगे. अख्तर खुद भी समझता है कि हिन्दुस्तान में बड़ी हुई लड़की पाकिस्तान में नहीं रह पायेगी, "खाने के वक्त तक नूरी भी अपने घर वालों के संग आ गई. उसे देख कर अख्तर परेशान हो गया. जीन्स पर मर्दानी शर्ट पहने वह लड़की स्मार्ट और जहीन लगी. बहस में इस तरह के तर्क दे रही थी कि अख्तर सोचने लगा कि यह न लाहौर में खप पायेगी न कराची में...वह हमारे मुल्क में घुट कर रह जायेगी... उस घुटन को जो हमें बुरी लगती है, उसका मैं आदी हो चुका हूँ. मछली को पानी से निकाल दो क्या वह जी पायेगी? उसी तरह मेंढ़क को समन्दर के गहरे पानी में डाल दो तो क्या वह जी पायेगा?"

हिन्दुस्तान में रहने वाले मुसलमानों की समस्याओं के बारे में लेखिका अंत में आशावान हैं. गयासुद्दीन का बेटा मजहर अपना नाम बदलना चाहता है, तो गयास उसे सलाह देता है कि अपना नाम "रोटा कपड़ा और मकान" रख लो. बेटा रोने लगता है तो गयास कहता है, "रोने दो यार! ...दिल हल्का हो जायेगा और आदत भी पड़ जायेगी. इस मुल्क में रहना है तो "शाक प्रूफ़" बन कर रहना पड़ेगा, छुई मुई का पौधा नहीं. यहाँ तरह तरह के लोग हैं. माली मुश्किलात है. मुकाबला है. गन्दी, पस्त सियासत है. निज़ि फायदे हैं. अकाल है, बाढ़ है. ऐसी भीड़ में सबने नार्मल रहने का ठेका तो नहीं ले रखा है?"

हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बटवारें में लाखों जाने गयीं, घर परिवार बँटे. इतिहास की किताबें उस समय के खून खराबे के बारे में कुछ लिख भी दें, उनमें वह जीवन नहीं होगा, जो लोगों की आपबीति में होता है. कला, सिनेमा और साहित्य ही उसमें उलझे मानवों की कहानियाँ सुना कर यह समझ दे सकते हैं कि सचमुच क्या हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ.

उस समय के बारे में कम ही लिखा गया है, कुछ लिखा गया है तो वह भी अधिकतर पाकिस्तान से भारत आने वाले लोगों की दृष्टि से. भारत में रह जाने वाले मुसलमान परिवारों की कहानियाँ और पाकिस्तान जाने का निर्णय लेने वाले लोगों की कहानियाँ न के बराबर ही हैं. साथ्यू की "गर्म हवा" जो कई दशक पहले आयी थी, देखने के बाद इस विषय पर कुछ अधिक नहीं पढ़ा था. इस दृष्टि से नासिरा शर्मा की यह किताब बहुत सुन्दर लगी. किताब पढ़ते पढ़ते कई बार आँखें नम हो गयीं. अगर आप को मौका मिले तो इस किताब को अवश्य पढ़ियेगा (ज़िन्दा मुहावरे, नासिरा शर्मा, अरुणोदय प्रकाशन दिल्ली, 1996)

***

शनिवार, मई 14, 2011

देसी गपशप

एक तरफ़ से तो सोचता हूँ कि दोस्ती तो मन मिलने की बात है, उसमें देसी विदेसी कुछ नहीं होता. लेकिन कुछ महीने बिना अपने देसी मित्रों से मिले निकल जायें तो लगता है कि जीवन कुछ फ़ीका सा रह गया. उनमें से अधिकतर सचमुच के मित्र नहीं, क्योंकि उनसे मन का कोई तार कुछ विषेश नहीं जुड़ता. यह भी नहीं कह सकते कि एक भाषा से जुड़ते हैं क्यों कि उनमें से कई लोग हिन्दी तो जानते ही नहीं थे, यहाँ अंग्रेज़ी भी भूल गये हैं और उनसे सब बात इतालवी भाषा में ही होती है. लेकिन फ़िर भी कुछ होता है जो हम देसी लोगों को जोड़ता है, जिसको समझना समझाना आसान नहीं.

"तो क्या चल रहा है? क्या नयी ताज़ी खबर?", अचानक लायब्रेरी से निकलते हुए वे दोनो मिले तो मन प्रसन्न हो गया.

"यार मन तो था कि इस बार कान्न के फ़िल्म फेस्टिवेल में जा कर अमिताभ की बहू को देख ही आते, पर छुट्टी की बात बनी नहीं. " श्रीमान हैं तो रायबरेली के लेकिन चूँकि पत्नी इलाहाबाद से हैं, इसलिए यूँ बनते हैं कि मानो बच्चन जी इनके साले हों.

"उसकी फोटो देखीं? बहुत सुन्दर लग रही थी. पर यह लड़कियाँ साड़ी या कोई इन्डियन ड्रेस क्यों नहीं पहनती? यह अरमानी या प्रादा के गाउन पहन लेती हैं, बिल्कुल बकवास!"

"अरे एश्वर्या को छोड़ो, यहाँ जो इन्डिया से एक अरबपति वेनिस में अपनी बेटी की शादी करने आये हैं, उनका सुना?" मित्र की पत्नी बोली.

कुछ साल पहले, भारतीय मूल के इग्लैंड में रहने वाले स्टील के व्यवसायी मित्तल ने अपनी बेटी की शादी पर फ्राँस में वरसाई का राजभवन किराये पर लिया था और उस शादी में जाने कितने करोड़ रुपये खर्च किये थे. वैसी ही बात है कुछ. उनका नाम है प्रमोद अग्रवाल, लोहे का बिज़नेस हैं उनका और उनकी बेटी की शादी हो रही है. सुना है कि वह वेनिस में 800 मेहमान, 30 रसोईये, और जाने क्या क्या ले कर आये हैं, पूरे के पूरे द्वीप किराये पर लिये हैं, सबके लिए कार्निवाल की मध्ययुगीन पौशाकें बनायी गयीं हैं, वगैरह वगैरह. कई सौ करोड़ के खर्चे की बात हो रही है. शादी हो भी करण जौहर स्टाईल में, यानि संगीत, मँहदी वगैरह.

Graphic design by S. Deepak

"हमारे घर में आ कर शादी कर रहे हैं, कम से कम हमें न्यौता तो देते", मित्र का कहना था.

"ताकि तुम भी शाम को वहाँ जा कर शकीरा के ठुमके देखते?" पत्नी ने पतिदेव को हलका सा ताना दिया. क्या जाने बालीवुड के सितारे बुलाये हैं या नहीं, बेटी की मँहदी में नचवाने के लिए, पर हालीवुड से शकीरा को बुलाया है.

जब हिन्दी फ़िल्में भारत में आयीं थीं, शुरु शुरु में, तब किसी अच्छे घर की लड़की फ़िल्मों में काम नहीं करना चाहती थी, तो नाचने गाने वाली औरतों को फ़िल्मों में हीरोइन बनाते थे. आज बड़े बड़े घरों की लड़कियाँ लड़के फ़िल्मों में काम करके प्रसिद्धी पाते हैं, और जब नाम और पैसा हो जाये तो शादी ब्याह में नाचने का काम भी कर लेते हैं. यानि दुनिया गोल है, हर बार बात घूम कर वहीं लौट आती है.

तभी हमें देख कर, दो लोग और आ गये. विद्यार्थी हैं, पीएचडी कर रहे हैं.

"अरे अंकल, आजकल इण्डिया तो बहुत तरक्की कर रहा है. न्यू योर्क में जो सट्टेबाजी का बड़ा घोटाला हुआ है, उसमें आधे लोग हिन्दुस्तानी ही हैं. उनका नेता राजरत्नम जो श्री लंका से हैं, और उनके साथी रजत गुप्ता, अनिल कुमार, राजीव गोयल, रूमी खान आदि. हिन्दुस्तानी, पाकिस्तानी, श्रीलंकन और बँगलादेशी, सब लोग भाई भाई की तरह थे, एक दूसरे को खबरे देते थे और करोड़ों डालर बनाते थे. रात को सीएनएन पर बता रहे थे", एक ने समाचार सुनाया.

सोचा कि बस माफिया और गुण्डागर्दी में ही कुछ पीछे रह गये हैं हम लोग. कुछ मुम्बई के भाई लोग बाहर विदेश में बिजनेस बनाये तो उसमें भी कुछ नाम हो अपना, फ़िर तो हर तरफ़ इन्डिया ही इन्डिया होगा, छा जायेंगे अपने लोग.

"अच्छा, जो हमारा इन्डियन लड़का पिछले दिनों यहाँ बाग में मर गया था", मैंने ही बात बदली, "उसकी याद में मीटिंग हुई तो कोई भी नहीं आया, क्या बात थी?"

करीब दो सप्ताह पहले, शहर के बीचों बीच, 21 साल का पँजाबी युवक, रनबीर सिंह, बाग की बैंच पर मरा पाया गया था. इल्लीगल प्रवासी था, यूरोप गैरकानूनी रहने वाला, जाने किस रास्ते से, भटक भटक कर इटली पहुँचा था. काम छूट गया था, तो सरकार ने रहने की अनुमति हटा ली. शराब बहुत पीने लगा था, मेरी एक इतालवी मित्र जो सोशल वर्कर हैं, ने मुझे बताया था. जब सर्दी बहुत थी तो रात को चर्च द्वारा चलाये जाने वाले रैन बसेरे में सोने आ जाता था.

"इतालवी भाषा ठीक नहीं बोलता. तुम उससे कुछ बात करके देखो. बहुत अकेला लगता है बेचारा", मेरी सोशल वर्कर मित्र ने मुझसे आग्रह किया था.

अच्छा मैं मिलने आऊँगा, बात करूँगा उससे, उसे समझाऊँगा, मैंने वादा किया था, पर फ़िर भूल गया था.

इतने बड़े शहर की भीड़ में अकेला रनबीर, जहाँ लोग दया से भीख तो दे देते हैं, पर प्यार से बात करने का समय किसके पास है. पार्क में जहाँ मरा था, वहीं बैंच के पास व्हिस्की की दो बोतलें मिलीं थीं, एक खाली, दूसरी अधखाली. सड़क पर रहने वाले बेघर लोगों की सहायता करने वाली एसोसियेशन ने उसकी याद में सभा आयोजित की थी, थोड़े से बेघर लोग ही आये थे. बैंच पर फ़ूल रखते हुए अपने झूठे शोक पर मन में थोड़ी शर्म महसूस हुई थी.

कुछ उत्तर नहीं दिया किसी ने. मित्र बोले कि बेटी को लेने जाना था.

"चलो, प्रोग्राम बनायेंगे, वीकएँड पर कुछ पिकनिक करते हैं, अब तो मौसम बढ़िया है, बारबेकू बनायेंगे!"

"ज़रूर! अच्छा चलो, फ़िर मिलते हैं!"

***

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

लोकप्रिय आलेख