सोमवार, सितंबर 26, 2011

दिल लुभाने वाली मूर्तियाँ


बोलोनिया शहर संग्रहालयों का शहर है. गाइड पुस्तिका के हिसाब से शहर में सौ से भी अधिक संग्रहालय हैं. इन्हीं में से एक है दीवारदरियों (Tapestry) का संग्रहालय. दीवारदरियाँ यानि दीवार पर सजावट के लिए टाँगने वाले कपड़े जिनके चित्र जुलाहा करघे पर कपड़ा बुनते हुए, उस पर बुन देता है.

बहुत दिनों से मन में इस संग्रहालय को देखने की इच्छा थी. कल रविवार को सुबह देखा कि मौसम बढ़िया था, हल्की हल्की ठंडक थी हवा में. पत्नि को भी अपनी सहेली के यहाँ जाना था जहाँ जाने का मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था, तो सोचा क्यों न आज सुबह साइकल पर सैर को निकलूँ और उस संग्रहालय को देख कर आऊँ.

यह संग्रहालय हमारे घर से करीब आठ या नौ किलोमीटर दूर, शहर के दक्षिण में जहाँ पहाड़ शुरु होते हैं, उनके आरम्भिक भाग में अठाहरवीं शताब्दी के एक प्राचीन भवन में बना है. इस प्राचीन भवन का नाम है "विल्ला स्पादा" (Villa Spada) जो कि रोम के स्पादा परिवार का घर था. सोचा कि पहाड़ी के ऊपर से शहर का विहंगम दृश्य भी अच्छा दिखेगा. यह सब सोच कर सुबह नौ बजे घर से निकला और करीब आधे घँटे में वहाँ पहुँच गया.

संग्रहालय के आसपास प्राचीन घर का जो बाग था उसे अब जनसाधारण के लिए खोल दिया गया है. बाग में अंदर घुसते ही सामने एक मध्ययुगीन बुर्ज बना है, जबकि बायीं ओर एक पहाड़ी के निचले हिस्से पर विल्ला स्पादा का भवन है. संग्रहालय में देश विदेश से करघे पर बुने कपड़ों के नमूने हैं.  इन कपड़ों के नमूनों में से कुछ बहुत पुराने हैं, यहाँ तक कि दो हज़ार साल से भी अधिक पुराने, यानि उस समय के कपड़े जब भारत में सम्राट अशोक तथा गौतम बुद्ध थे. कपड़ों के अतिरिक्त संग्रहालय में प्राचीन चरखे और कपड़ा बुनने वाले करघे भी हैं जैसे कि एक सात सौ साल पुराना करघा.

संग्रहालय में घूमते हुए लगा कि शायद यूरोप में कपड़ा बुनने वालों को नीचा नहीं समझा जाता था बल्कि उनको कलाकार का मान दिया जाता था. तभी उनके बनाये कढ़ाई के काम को, डिज़ाईन के काम को इतने मान के साथ सहेज कर रखा गया है. उनमें से कुछ लोगों के नाम तक लिखे हुए हैं. सोचा कि अपने भारत में हाथ से काम करने वाले को हीन माना जाता है, उनकी कला को कौन इतना मान देता है कि उनके नाम याद रखे जायें या उनके डिज़ाईनों को संभाल कर रखा जाये? पहले ज़माने की बात तो छोड़ भी दें, आज तक पाराम्परिक जुलाहे जो चंदेरी या चिकन का काम करते हैं, क्या उनमें से किसी को कलाकार माना जाता है? धीरे धीरे सब काम औद्योगिक स्तर पर मिलें और मशीने करने लगी हैं, जबकि हाथ से काम करने वाले कारीगर गरीबी और अपमान से तंग कर यह काम अपने बच्चों को नहीं सिखाना चाहते. कहते थे कि ढ़ाका की इतनी महीन मलमल होती थी कि अँगूठी से निकल जाये, पर क्या किसी मलमल बनाने बनाने का नाम हमारे इतिहास ने याद रखा?

संग्रहालय में रखे कपड़ों, करघों के अतिरिक्त घर की दीवारों तथा छत पर बनी कलाकृतियाँ भी बहुत सुन्दर हैं.

संग्रहालय देख कर बाहर निकला तो भवन के प्रसिद्ध इतालवी बाग को देखने गया. इतालवी बाग बनाने की विषेश पद्धति हुआ करती थी जिसमें पेड़ पौधों को अपने प्राकृतिक रूप में नहीं बल्कि "मानव की इच्छा शक्ति के सामने सारी प्रकृति बदल सकती है" के सिद्धांत को दिखाने के लिए लगाया जाता था. इन इतालवी बागों में केवल वही पेड़ पौधे लगाये जाते थे जो हमेशा हरे रहें ताकि मौसम बदलने पर भी बाग अपना रूप न बदले. इन पौधों को इस तरह लगाया जाता था जिससे भिन्न भिन्न आकृतियाँ बन जायें, जो प्रकृति की नहीं बल्कि मानव इच्छा की सुन्दरता को दिखाये. इस तरह के बाग बनाने की शैली फ़िर इटली से फ्राँस पहुँची जहाँ इसे और भी विकसित किया गया.

विल्ला स्पादा के इतालवी बाग में पौधों की आकृतियों को ठीक से देखने के लिए एक "मन्दिर" बनाया गया था जिसकी छत पर खड़े हो कर पौधों को ऊपर से देख सकते हैं. बाग के बीचों बीच ग्रीस मिथकों पर आधारित कहानी से हरक्यूलिस की विशाल मूर्ति बनी है. पर बाग की सबसे सुन्दर चीज़ है मिट्टी की बनी नारी मूर्तियाँ.

एक कतार में खड़ीं इन मूर्तियों में हर नारी के भाव, वस्त्र, मुद्रा भिन्न है, कोई मचलती इठलाती नवयुवती है तो कोई काम में व्यस्त प्रौढ़ा, कोई धीर गम्भीर वृद्धा. मुझे यह मूर्तियाँ बहुत सुन्दर लगी. बहुत देर तक उन्हें एक एक करके निहारता रहा. लगा कि मानो उन मूर्तियों में मुझ पर जादू कर दिया हो. दो सदियों से अधिक समय से खुले बाग में धूप, बर्फ़, बारिश ने हर मूर्ति पर अपने निशान छोड़े हैं, कुछ पर छोटे छोटे पौधे उग आये हैं. इन निशानों की वजह से वे और भी जीवंत हो गयी हैं. उनके वस्त्र इस तरह बने हैं मानो सचमुच के हों.

इस दिन को इन मूर्तियों की वजह से कभी भुला नहीं पाऊँगा, और दोबारा उन्हें देखने अवश्य जाऊँगा. प्रस्तुत हैं विल्ला स्पादा के संग्रहालय तथा बाग की कुछ तस्वीरें.


पहली तस्वीरें हैं संग्रहालय की.

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy


इन तस्वीरों में है इतालवी बाग और हरक्यूलिस की मूर्ती.

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy


और अंत में यह नारी मूर्तियाँ जो मुझे बहुत अच्छी लगीं.

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

हैं न सुन्दर यह नारी मूर्तियाँ?

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शुक्रवार, सितंबर 16, 2011

धँधा है, सब धँधा है


अखबार में पढ़ा कि इंफोसिस कम्पनी ने अपने व्यापार को विभिन्न दिशाओं में विकसित करने का फैसला किया है, इसलिए कम्पनी अब प्राईवेट बैंक के अतिरिक्त चिकित्सा क्षेत्र में भी काम खोलेगी. चिकित्सा क्षेत्र को नया "सूर्योदय उद्योग" यानि Sunrise industry कहते हैं क्योंकि इसमें बहुत कमाई है, जो धीरे धीरे उगते सूरज की तरह बढ़ेगी.

सोचा कि दुनिया कितनी बदल गयी है. पहले बड़े उद्योगपति बहुत पैसा कमाने के बाद खैराती अस्पताल और डिस्पैंसरियाँ खोल देते थे ताकि थोड़ा पुण्य कमा सकें, अब के उद्योगपति सोचते हैं कि लोगों की बीमारी और दुख को क्यों न निचोड़ा जाये ताकि और पैसा बने.

पिछले वर्ष फरवरी में चीन में काम से गया था जब छोटी बहन ने खबर दी थी कि माँ बेहोश हो गयी है और वह उसे अस्पताल में ले जा रही है. माँ का यह समय भी आना ही था यह तो कई महीनो से मालूम हो चुका था. पिछले दस सालों में एल्सहाईमर की यादाश्त खोने की बीमारी धीरे धीरे उनके दिमाग के कोषों को खा रही थी, जिसकी वजह से कई महीनों से उनका उठना, बैठना, चलना,सब कुछ बहुत कठिन हो गया था. मन में बस एक ही बात थी कि माँ के अंतिम दिन शान्ती से निकलें. मैं खबर मिलने के दूसरे ही दिन दिल्ली पहुँच गया. अस्पताल पहुँचा तो माँ के कागजों में उन पर हुए टेस्ट देख कर दिमाग भन्ना गया. जाने कितने खून के टेस्ट, केट स्कैन आदि किये जा चुके थे, पर मुझे दुख हुआ जब देखा कि माँ की रीढ़ की हड्डी से जाँच के लिए पानी निकाला गया था.

करीब सत्ततर वर्ष की होने वाली थी माँ. इतने सालों से लाइलाज बिमारी का कुछ कुछ इलाज उसी अस्पताल के डाक्टर कर रहे थे. यही इन्सान की कोशिश होती है कि मालूम भी हो कि कुछ विषेश लाभ नहीं हो रहा तब भी लगता है कि बिना कुछ किये कैसे छोड़ दें. मरीज़ कुछ गोली खाता रहे, तो मन को लगेगा कि हम बिल्कुल लाचार नहीं हैं, कुछ कोशिश कर रहे हैं.

कोमा में पड़ी माँ के अंतिम दिन थे, यह सब जानते थे. किसी टेस्ट से उन्हें कुछ होने वाला नहीं था. उस हाल में खून के टेस्ट, ईसीजी, ईईजी, केट स्कैन आदि सब बेकार थे, पर उन्हें स्वीकारा जा सकता था, यह सोच कर कि इतना बड़ा प्राईवेट अस्पताल चलाना है तो वह लोग कुछ न कुछ कमाने की सोचेंगे ही. पर रीढ़ की हड्डी से पानी निकालना? यानि उनकी इस हालत में जब हाथ, पैर घुटने अकड़े और जुड़े हुए थे, उन्हें खींच तान कर, इस तरह से तकलीफ़ देना, यह तो अपराध हुआ.

मुझे बहुत गुस्सा आया. छोटी बहन को बोला कि तुमने उन्हें यह रीढ़ की हड्दी से पानी निकालने का टेस्ट करने क्यों दिया? वह बोली मैं उन्हें क्या कहती, वह डाक्टर हैं वही ठीक समझते हैं कि क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये! डाक्टर आये तो मन में आया कि पूछूँ कि रीढ़ की हड्दी से पानी वाले टेस्ट में क्या देखना चाहते थे, लेकिन कुछ कहा नहीं. मैंने उन्हें यही कहा कि मैं माँ को घर ले जाना चाहूँगा. तो बोले कि हाँ ले जाईये, यही बेहतर है, इनकी हालत ऐसी है कि यहाँ हम तो कुछ कर नहीं सकते.

मैं माँ को घर ला सका था क्योंकि मेरे मन में था कि मैं स्वयं माँ का अंतिम दिनो में उपचार करूँगा. कुछ समय तक मैंने आई.सी.यू. में काम किया था, मालूम था कि उनकी देखभाल जिस तरह मैं कर सकता हूँ, उस तरह अन्य लोग नहीं कर सकते. क्योंकि मेरे उपचार में अपना लाभ नहीं छुपा था, केवल माँ के अंतिम दिनों में उनको शान्ति मिले इसका विचार था. लेकिन जिनके अपनों में कोई डाक्टर न हो जो उनका ध्यान कर सके, क्या उसके अच्छा इलाज का अर्थ यही है कि पैसे कमाने वाले "सूर्योदय उद्योग" से उसे निचोड़ सकें?


Graphic on doctor and money

भारत के डाक्टर, नर्स, फिज़योथेरापिस्ट आदि अपने काम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं. मेरे विचार में अगर कोई चिकित्सा क्षेत्र में काम करने की सोचता है तो उसे धँधा समझ कर यह सोचे, ऐसे लोग कम ही होंगे. इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर लोग अपने मन में स्वयं को भले आदमी के रूप में ही देखते सोचते हैं कि वह लोगों की भलाई का काम कर रहे हैं. लेकिन जब अपने काम से अपनी रोटी चलनी हो और मासिक पागार नहीं बल्कि कौन मरीज़ कितना देगा की भावना हो तो धीरे धीरे लालच मन में आ ही जाता है. बिना जरूरत के आपरेशन से बच्चा करना, बिना बात के ओपरेशन करना या दवाईयाँ खिलाना, नयी बिमारियाँ बनाना, बेवजह के टेस्ट और एक्सरे कराना, जैसी बातें इसी लालच का नतीजा हैं.

हर क्षेत्र की तरह इस क्षेत्र में भी अच्छे और बुरे दोनो तरह के लोग होते हैं. भारत में चिकित्सा क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ जो आदर्शवादी हैं और इसे सेवा के रूप में देखते हैं. भारत के चिकित्सा से जुड़े कुछ उद्योगों ने भी दुनिया में अपनी धाक आदर्शों के बल पर ही बनायी है, जैसे कि जेनेरिक दवा बनाने वाले तथा सिपला जैसी दवा बनाने की कम्पनियाँ जिन्होंने एडस, मलेरिया, टीबी जैसी बीमारियों की सस्ती दवाईयाँ बना कर विकासशील देशों में रहने वाले गरीब लोगों को इलाज कराने का मौका दिया है.

पर बड़े शहरों में पैसे वालों के लिए सरकारी अस्पतालों की तुलना में पाँच सितारा अस्पतालों में या नर्सिंग होम में लोगों को सही इलाज मिल सकेगा, इसके बारे में मेरे मन में कुछ दुविधा उठती है. वहाँ सरकारी अस्पताल सी भीड़ और गन्दगी शायद न हो, लेकिन क्या चिकित्सा की दृष्टि से वह इलाज मिलेगा जिसकी आप को सच में आवश्यकता है?

अहमदाबाद की संस्था "सेवा" के एक शौध में निकला था कि भारत में गरीब परिवारों में ऋण लेने का सबसे पहला कारण बीमारी का इलाज है. प्राईवेट चिकित्सा संस्थाओं को बीमारी कैसी कम की जाये, इसमें दिलचस्पी नहीं, बल्कि पैसा कैसे बनाया जाये, इसकी चिन्ता उससे अधिक होती है. वहाँ काम करने वाले लोग कितने भी आदर्शवादी क्यों न हों, क्या वह निष्पक्ष रूप से अपने निर्णय ले पाते हैं और वह सलाह देते हैं जिसमें मरीज़ का भला पहला ध्येय हो, न कि पैसा कमाना?

इसीलिए जब सुनता हूँ कि भारत में अब अमरीका जैसे बड़े स्पेशालिटी अस्पताल खुले हैं जहाँ पाँच सितारा होटल के सब सुख है, जहाँ सब नयी तकनीकें उपलब्ध हैं, विदेशों से भी लोग इलाज करवाने आते हैं, तो मुझे लगता है कि अगर मुझे कुछ तकलीफ़ हो तो वहाँ नहीं जाना चाहूँगा, कोई सीधा साधा डाक्टर ही खोजूँगा.

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शनिवार, अगस्त 13, 2011

राखी का वचन

कल शाम को काम से घर लौटा तो अपनी दोनो बहनों की ईमेल देखी जिसमें राखी बाँधने की बात थी. एक भारत में रहती है, दूसरी अमरीका में. पहले कई सालों तक दोनो बहनें लिफ़ाफ़े में राखी भेजती थीं जो अक्सर त्योहार के कुछ दिनों बाद मिलती थीं और मैं अपनी पत्नी या बेटे से कहता था कि बाँध दो.

अब कल्पना की राखी से ही काम चल जाता है. वह कहती हैं कि हम प्यार से भेज रहे हैं, और हम प्यार से कहते हैं कि मिल गयी तुम्हारी राखी. आज की दुनिया में वैसे ही इतना प्रदूषण हैं, इस तरह से राखी मनाना पर्यावरण के लिए भी अच्छा है.

आज सुबह फेसबुक के द्वारा कुछ इतालवी "मित्रों" के संदेश भी मिले, पुरुषों के भी और स्त्रियों के भी, "हैप्पी रक्षाबँधन". यहाँ बहुत से मित्र भारत प्रेमी हैं, जो देखते रहते हैं कि भारत में क्या हो रहा है और होली, दीवाली तथा अन्य त्योहारों पर याद दिला देते हैं कि वे भी हैं, जो हमारे बारे में सोचते हैं. क्या इस तरह के संदेश मिलने को भी राखी बाँधना समझा जाये? तो अन्य पुरुषों से राखी मिलने को क्या समझा जाये?

बचपन में सोचते थे कि राखी तो भाई बहन के पवित्र बँधन का त्योहार है. कुछ बड़े हुए तो मालूम चला कि लड़के लड़कियाँ दोस्ती को छिपाने के लिए भी राखी बाँध कर भाई बहन बन सकते हैं. अब यह फेसबुकिया नये राखी वाले भाई बहन की एक नयी श्रेणी बन जायेगी. जिस इतालवी "फेसबुक मित्र" ने भी मुझे रक्षाबँधन के संदेश भेजे, सबको मैंने यही उत्तर दिया कि मेरा भाई या बहन बनने के लिए बहुत धन्यवाद. बस यह नहीं लिखा उन्हें कि रक्षाबँधन पर वचन क्या दे रहा हूँ.

फ़िर इसी बात से सोचना शुरु किया कि आज की दुनिया में राखी जैसे त्योहार का क्या अर्थ है? युद्ध में जाते हुए भाई को राखी बाँधने वाली बहन उसकी मँगल कामना करती थी और भाई यह वचन देता था कि ज़रूरत पड़ने पर वह बहन की सहायता के लिए आयेगा. राखी भाई की रक्षा करेगी, और भाई बहन की रक्षा करेगा.

Graphics on Rakhi designed by Sunil Deepak, 2011

पर आज भाई युद्ध पर नहीं नौकरी पर जाते हैं, और बहने भी घर में नहीं बैठती, वे भी पढ़ने स्कूल व कोलिज जाती हैं, नौकरी करती हैं.

भारतीय समाज में बहन की रक्षा करने का अर्थ पितृपंथी समाज ने कई तरह से लगाया है जिसमें जाति और धर्म की रक्षा तथा नारी की शारीरिक पवित्रता की रक्षा की बाते जुड़ी हैं. बहन की रक्षा यानि परधर्मी उसकी इज़्ज़त न लूटें, वह परधर्मियों या जाति से बाहर लोगों से प्रेम या विवाह न करे, अगर वह ऐसा करती है तो उसे और उसके प्रेमी/पति को मार दिया जाये, शारीरिक इज़्ज़त खोने से तो मरना अच्छा है, पति न रहे तो सति होना अच्छा है, जैसी बहुत सी बातें "बहन की रक्षा" करने की बात से भी जुड़ी हैं.

नारी या परिवार की इज़्ज़त बचाने लिए औरतों को मारने को "अस्मिता बचाने के खून" (Honour Killing) जैसे नाम दिये गये हैं. इसी वजह से बलात्कार की शिकार औरतों और लड़कियों को कहा जाता है कि अब तुमने अपनी इज़्ज़त खो दी, अब तुममें खोट हो गया, अब तुम बेकार हो गयी, अब तुम से कौन विवाह करेगा? यहाँ तक कि उस लड़की से कहा जाता है कि वह अपने बलात्कारी से ही विवाह कर ले.

शायद बड़े शहरों में रहने वाले सोचें कि यह सब तो पुरानी बाते हैं लेकिन मेरे विचार में गाँवों और पिछड़ी जगहों में ही नहीं, आज भी हमारे शहरों में इस तरह के विचार ज़िन्दा हैं, और इनमें अगर बदलाव आ रहा है तो बहुत धीरे धीरे.

पाकिस्तानी फ़िल्म "खामोश पानी" में ऐसी ही एक सिख नारी की कहानी थी जिसका पात्र भारतीय अभिनेत्री किरण खेर ने निभाया था, जिसे उसका परिवार पाकिस्तान में ही पीछे छोड़ आया थे. अमृता प्रीतम की कहानी पर बनी चन्द्र प्रकाश द्विवेदी की फ़िल्म "पिंजर" में भी कुछ इसी तरह की बात थी, जिसमें हिन्दु परिवार द्वारा त्यागी पूरो का पात्र अभिनेत्री उर्मिला मटोँडकर ने निभाया था. दोनो फ़िल्में भारत के विभाजन के समय की कहानी सुना रही थीं, लेकिन क्या इन साठ सालों में हमारे समाज की मानसिकता बदली है?

फ़िल्मों ही नहीं, अखबारों में भी इस तरह के समाचार आते ही रहते हैं.

मेरे विचार में आज रक्षाबँधन पर भाईयों को विचार करना चाहिये कि अपनी बहनों का क्या वचन दें जिससे यह समाज, और समाज में नारियों की यह परिस्थिति बदल सके?

जैसे किः "मेरी बहन, मैं वचन देता हूँ कि तुम्हे पढ़ने का, नौकरी करने का, मन पसंद साथी से प्यार और विवाह करने का मौका मिलेगा. वचन देता हूँ कि अगर तुम किसी वजह से पति के घर में सतायी जाओ तो तुम्हारा साथ दूँगा, संरक्षण दूँगा. कोई तुम पर ज़ोर लगाये कि बेटी पैदा करने के बजाया गर्भपात करो तो उसका विरोध करूँगा."

अगर आप से पूछा जाये कि आज के वातावरण में भाईयों को रक्षाबँधन पर बहनो को क्या वचन देना चाहिये, तो आप क्या वचन देना चाहेंगे?

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शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

अधिकारों का आरक्षण


जब एक मानव अधिकार, किसी दूसरे के मानव अधिकार को प्रभावित करे, तो किस मानव अधिकार को महत्व और सरंक्षण मिलना चाहिये? श्री प्रकाश झा की नयी फ़िल्म "आरक्षण" पर हो रही बहसों के बारे में पढ़ कर मैं यही बात सोच रहा था.

इस बहस में है एक ओर फ़िल्म बनाने वालों की कलात्मक अभिव्यक्ति का अधिकार, अपनी बात कहने का अधिकार, और दूसरी ओर है, दलित शोषित मानव वर्ग की चिन्ता कि सवर्णों की कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर उन्हें फ़िर से नीचा दिखाने और संघर्षों से अर्ज़ित अधिकारों के विरुद्ध बात की जायेगी.

Poster of film - Aarakshan

कौन सा अधिकार सर्वोच्च माना जाया उसकी यह बहस नयी नहीं है और अन्य मानव गुट बहुत समय से इसका समाधान खोज रहे हैं.

जैसे कि विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों तथा नारी अधिकारों की बात करने वाले गुटों की बहस.

नारी अधिकारों में गर्भपात का अधिकार भी है, जिसे कुछ देशों में बहुत कठिनायी से जीता गया है. इस अधिकार का अर्थ है कि गर्भ के पहले 18 से 20 सप्ताह में, अगर नारी किसी वजह से उस गर्भ को नहीं चाहती तो वह गर्भपात करवा सकती है. बहुत से देशों में यह अधिकार नहीं है. कैथोलिक धर्म नेताओं ने इस अधिकार का हमेशा विरोध किया है क्योंकि वह मानते हैं कि जीवन उसी क्षण से प्रारम्भ हो जाता है जब नर और नारी के अंश मिल कर गर्भ की शुरुआत करते हैं, इसलिए उनका मानना है कि नारी का गर्भपात का अधिकार, होने वाले बच्चे के जीवन के अधिकार के विरुद्ध है, और जीवन का अधिकार सर्वोच्च है. चाहे होने वाला बच्चा बलात्कार का परिणाम हो या यह मालूम हो कि बच्चा विकलाँग होगा, कैथोलिक धर्म नेता यही कहते हैं कि उसका जीवन अधिकार नहीं छीना जा सकता.

विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों का कहना है कि यह मानना कि विकलाँग होने से किसी व्यक्ति को जीने का अधिकार नहीं, और उसे गर्भपात से मारने की अनुमति देना गलत है, विकलाँग बच्चों को भी पैदा होने का अधिकार है. वह नारियों के गर्भपात के अधिकार के विरुद्ध नहीं लेकिन कहते हैं कि यह गलत है कि केवल इस लिए गर्भपात किया जाये क्योंकि होने वाला बच्चा विकलाँग होगा.

विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले गुट भी टीवी, फ़िल्म आदि में विकलाँग व्यक्तियों के चित्रण के विरुद्ध लड़ते आये हैं. उनका कहना है कि अक्सर सिनेमा में विकलाँग व्यक्तियों को हास्यप्रद व्यक्ति बनाया जाता है जिसमें लोग उनकी विकलाँगता का मज़ाक उड़ाते हैं, उनके बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनके पुरुष होने या स्त्री होने के मानव अधिकारों को नकारते हैं.

तो प्रकाश झा की "आरक्षण" के बारे में हो रही बहस का क्या समाधान है? मेरे विचार में इसका समाधान बहस ही है, यानि फ़िल्म क्या कहती है, कैसे कहती है, हम उससे सहमत हैं या असहमत, इस पर सभ्यता से बहस करना.

यह कहना कि उसकी कहानी बदल दी जाये या उसके डायलाग बदल दिये जायें, यह नकारना है कि दुनिया में ऐसे व्यक्ति होते हें जो उस तरह का सोचते या बोलते हैं, और फ़िल्मकार की स्वतंत्रता पर रोक लगायी जाये कि कौन से पात्र चुने, कौन सी कहानी कहे.

यह कहना कि फ़िल्में, कहानियाँ, उपन्यास, दलितों के विरुद्ध कुछ भी कहने से पहले इस व्यक्ति या उस कमिशन या इस दल की अनुमति लें का अर्थ हर नागरिक के अधिकारों का हनन है.

चाहे सवर्ण हो या दलित, मराठी हों या गुजराती या बँगाली, नर हो या नारी, अमीर हो या गरीब, हर समाज में कुछ लोग होते हैं जो बात चीत में नहीं बल्कि हिँसा में और तानाशाही में विश्वास रखते हैं. मुम्बई में जब शिवसैना के लोग किसी फ़िल्म को या किताब को या चित्रकला को बैन करने या नष्ट करने के लिए धमकी देते हैं वह लोग उन दलित नेताओं से किस तरह भिन्न हैं जो किसी फ़िल्म को या किताब को बैन करने की माँग करते हैं? किसी भी बात पर, लोगों को अपनी सहमती असहमती को न जताने देना, यह कहना कि बस मेरी बात मानिये, गणतंत्र का हिस्सा नहीं, तानाशाही का हिस्सा है.

जिन राज्यों ने फ़िल्म को प्रदर्शित होने से रोका है, मालूम है कि रोकने से केवल सिनेमा हाल में फ़िल्म रोकी जायेगी. इस रोक से बहुत से लोगों में फ़िल्म देखने की उत्सुकता बढ़ेगी और दूसरे तीसरे दिन ही पायरेटिक डीवीडी बाज़ार में मिल जायेंगी. जो लोग देखना चाहते हैं वह फ़िल्म तो देखेंगे, हाँ निर्माता निर्देशक को अवश्य आर्थिक नुकसान होगा, और डँडाराज की मानसिकता इसी से प्रसन्न होगी, कि कैसा पाठ पढ़ाया, अगली बार कोई हमारे सामने सिर नहीं उठायेगा. सवर्णों ने सदियों से यही किया है, डँडाराज के सहारे दलितों को दबाया है, जब मौका मिलता है तो दलित क्यों न वही हथियार उठायें?

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बुधवार, अगस्त 10, 2011

दुनिया का स्वाद

एक ही वस्तु से विभिन्न लोगों के अनुभव भिन्न भिन्न होते हैं. जिस वस्तु से हमें आनन्द मिलता है, किसी अन्य को उसी से भय लग सकता है. किस वस्तु का कैसा अनुभव होगा, यह हमारी मनस्थति पर निर्भर करता है.

मान लीजिये कि आप एक सड़क पर जा रहे हैं, सड़क के दोनो ओर बहुत से वृक्ष लगे हैं. शीतल हवा चल रही है, पक्षी चहचहा रहे हैं. उस सड़क से गुज़रते हुए आप को क्या अनुभव होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप की मनस्थिति कैसी होगी. अगर आप सैर को निकले हैं तो प्रसन्न हो कर शायद आप गीत गुनगुनाने लगें. अगर लम्बी यात्रा से चल कर आ रहे हैं, थके हुए हैं तो आप किसी बात पर ध्यान न दें, बस अपने टाँगों के दर्द और थकान के बारे में सोचें. अगर आप ने नया जूता पहना जो पाँव को काट रहा है तो आप का सारा ध्यान अपने पैरों की ओर हो सकता है. अगर आप को नया नया प्यार हुआ है और आप के आगे आप की प्रेयसी अपनी सहेलियों के साथ जा रही है, तो शायद आप यही सोच रहे हों कि कैसे उससे अकेले में बात कर सकें, उस सड़क का अन्य कुछ आप को नहीं दिखता. अगर किसी प्रियजन के शव के पीछे पीछे शमशान घाट जा रहे हों, तो हृदय दुख से भरा होगा. अगर किसी को मिलने का समय दिया हो और देर हो गयी हो, तो जल्दी जल्दी में होंगे. यानि इन सब मनोस्थितियों में उसी सड़क का अनुभव आप को अलग अलग तरह से होगा.

मनस्थिति के हिसाब से हमारे देखने, सुनने, छूने, सूँघने या स्वाद में फ़र्क आये, इस बात को समझना आसान है. लेकिन क्या हमारी इन्द्रियों पर हमारी सभ्यता, पढ़ायी, सामाजिक स्थिति आदि का भी प्रभाव पड़ता है?

फ्राँस के सामाजिक शास्त्री, मानव व्यवहार शास्त्र के विषशज्ञ तथा लेखक श्री दाविद ल ब्रेतों (David Le Breton) ने अपनी किताब "दुनिया का स्वाद" (La saveur du Monde - une anthropologie des sens, 2006) में इसी प्रश्न पर लिखा है.

उनका कहना है कि पहले श्रवण यानि सुनने को ऊँचा स्थान दिया जाता था लेकिन आज की पश्चिमी दुनिया में दृष्टि का स्थान सर्वोच्च हो गया है, जिसके सामने बाकी सब इन्द्रियों का महत्व कम हो गया है. यानि कि हम जो भी अनुभव करते हें उसमें हमारा दिमाग दृष्टि से मिलने वाली सूचनाओं को अधिक ध्यान देता है, बाकी सब सूचनाओं को उतना ध्यान नहीं देता.

अपनी किताब में उन्होंने इसका एक उदाहरण धरती के उत्तरी ध्रुव के पास बर्फ़ में रहने वाली जातियों के जीवन से दिया है. वह कहते हैं कि जहाँ सब कुछ बर्फ़ से ढका हो, यूरोप से आने वाले आगुंतक के लिए यह समझना बहुत कठिन है कि कौन सी दिशा से जाना चाहिये, क्योंकि वह दृष्टि पर अधिक निर्भर है, जबकि वहाँ के रहने वाले, दृष्टि पर बहुत कम निर्भर करते हैं बल्कि बाकी इन्द्रियों पर अधिक ध्यान देते हैं. इस तरह से जब वहाँ के रहने वाले, बर्फ़ में, या अँधेरे में भी, जानते हैं कि किस दिशा में जाना चाहिये तो यूरोप से आये लोग हैरान रह जाते हैं.


श्री ल ब्रेतों का यह भी कहना है कि टेलीविजन, इंटरनेट आदि की वजह से आधुनिक मानव के जीवन में दृष्टि का महत्व और भी बढ़ता जा रहा है. दृष्टि के बाद स्थान आता है सुनने का, पर शहरों में रहने वाले अधिकाँश लोग आसपास में वातावरण में होने वाली ध्वनियों को नहीं सुन पाते, यानि सुनते हैं लेकिन बता नहीं पाते कि क्या सुना. दृष्टि के बाद स्थान आता है स्वाद का, पर यह भी कम हो रहा है. आधुनिक मानव में छूना यानि स्पर्श और सूँघने की शक्ति में सबसे अधिक कमज़ोरी आयी है.

वह मानते हैं कि इन्द्रियाँ दिमाग के काबू में हैं और जिस तरह से दिमाग का विकास होता है, वही तय करता है कि उस मानस में कौन सी इन्द्री का महत्व अधिक होगा.

श्री ल ब्रेतों भारत या पूर्वी देशों की बात नहीं करते लेकिन भारतीय दर्शन में "विश्व माया है" का विचार महत्वपूर्ण जिसमें इन्द्रियों की तुलना घोड़ों से की गयी है जिन्हें मस्तिष्क के सारथी द्वारा काबू में रखने की बात होती है.

कैनोपानिषद में इन्द्रियों की बात करते हुए एक एक इन्द्री के काम का वर्णन है और हर एक के बारे में यही प्रश्न उठता है कि ध्वनि, दृष्टि, स्वाद, स्पर्श आदि जो अनुभव कराते हैं उसे अनुभव करने वाला मानव शरीर के अन्दर कौन है? इसका हर बार एक ही उत्तर है कि वही आत्मा ही ब्राह्मण यानि जगत संज्ञा है, वही परमेश्वर है न कि वे देवी देवता जिनकी पूजा की जाती है. कैनोपानिषद के इस हिस्से की पहली ऋचा ध्वनि पर हैः
यदाचानुभ्युदितं येन वागभ्युद्यते !
तदेव ब्रह्मा त्वं नेदं यदिदमुपासते ॥
तो क्या इसका यह अर्थ लगाया जाये कि प्राचीन भारत में स्वर को यानि श्रवण इन्द्री को सबसे अधिक महत्व दिया जाता था? कैनोपानिषद में दिमाग को भी इन्द्रियों का हिस्सा माना गया है, यानि जिस दिमाग से हम सोचते हैं, कि हमारी इन्द्रियों ने हमें क्या अनुभव दिया, वह भी एक इन्द्री है, तथा हमारे प्राण यानि श्वास भी एक इन्द्री हैं.

इस तरह से प्राचीन भारतीय दर्शन श्री ल ब्रेतों की सोच से भिन्न है. लेकिन अगर भारतीय दर्शन की बात को छोड़ कर श्री ल ब्रेतों की दृष्टि से देखने की कोशिश करें तो क्या भारतीय मानस के इन्द्रियों द्वारा जगत अनुभव करने में कौन सी इन्द्री का अधिक महत्व है?

क्या भारत के लोग, सभी इन्द्रियों को एक सा महत्व देते हैं और उनका समन्वय करके जगत को समझते हैं?

क्या टेलीविज़न, फ़िल्मों, इंटरनेट के साथ साथ, भारतीय जगत अनुभव भी दृष्टि को ही सबसे अधिक महत्व दे रहा है? आप का क्या विचार है?

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सोमवार, अगस्त 08, 2011

चालिस साल बाद

1965 में आयी थी राजेन्द्र कुमार, साधना, फिरोज़ खान और नाज़िमा की फ़िल्म "आरज़ू", जिसके निर्देशक थे रामानन्द सागर. तब दिल्ली के इंडिया गेट पर अमर जीवन ज्योति का सैनिक स्मारक नहीं बना था और रानी विक्टोरिया की मूर्ति भी वहीं पर स्थापित थी. तब दिल्ली में कारें भी बहुत कम थीं, साइकल पर बाहर घूमने जाना न तो नीचा माना जाता था, और न ही उससे दिल्ली की सड़कों पर आप की जान को खतरा होता था.

तब जँगली, कश्मीर की कली, जब प्यार किसी से होता है, जैसी फ़िल्मों में गाने कश्मीर में फ़िल्माये जाते थे, जहाँ हीरो हीरोइन का प्रेम मिलन दो फ़ूलों को एक दूसरे से टकरा कर दिखाते थे. उन दिनों में इंडियन एयरलाईंस की एयर होस्टेस हल्के नीले रंग के बोर्डर वाली साड़ी पहनती थीं और हवाई अड्डे खुले मैदान जैसे होते हैं बस उसकी बाऊँडरी के आसपास काँटों वाला तार लगा होता था. तब चित्रकार बड़े बड़े बोर्डों पर फ़िल्म के दृश्य बनाते थे.

ऐसे ही किसी बोर्ड पर हमने भी "आरज़ू" फ़िल्म का दृश्य बना देखा था जिसमें राजेन्द्र कुमार जी पहाड़ पर बर्फ़ में स्कीइंग कर रहे थे, और जिसने हमारा मन मोह लिया था. खूब ज़िद की हमने घर में कि हम यह फ़िल्म अवश्य देखेंगे. खैर जब तक फ़िल्म देखने का कार्यक्रम बना, फ़िल्म को आये छः सात महीने अवश्य हो चुके थे, उसकी गोल्डन जुबली मनायी जा चुकी थी, और उसे देखने हम लोग तीस हज़ारी के पास एक सिनेमा हाल में गये थे जिसका नाम शायद नोवल्टी था.

रंगीन फ़िल्म, बर्फ़ के सुन्दर नज़ारे, राजेन्द्र कुमार की स्कीइंग और त्याग, फ़िरोज़ खान की दोस्ती, साधना का रोना और अपना पाँव काटने की कोशिश करना, नाज़िमा की चीखें, नज़ीर हुसैन का रोते हुए कहना "बेटी, अपने खानदान की इज़्ज़त अब तुम्हारे हाथ में है", वाह! फ़िल्म की कहानी, डायलाग, गाने सब कुछ बहुत अच्छा लगा था.

चालिस साल बीतने के बाद भी "आरज़ू" फ़िल्म की याद मन में थी, इसलिए पिछली भारत यात्रा में जब एक दुकान में फ़िल्म की डीवीडी देखी तो रुका नहीं गया, सोचा कि पुरानी यादों को ताज़ा करने के लिए फ़िल्म को दोबारा देखना चाहिये.

फ़िल्म के पहले ही दृश्य में राजेन्द्र कमार को साइकल पर इंडियागेट में जहाँ अब अमर जवान ज़्योति है, वहाँ से बीच में से गुज़रते देखा, तो दिल्ली के भूले हुए दिन याद आ गये, पर साथ ही लगा कि चालिस साल के बाद भी हिन्दी फ़िल्मों में एक बात नहीं बदली. यानि कि चाहे आप एयरपोर्ट से आ रहे हों, वैसे ही बाहर घूम रहे हों, या काम पर जा रहे हों, कुछ भी हो, फ़िल्म में वह सड़क इन्डिया गेट, लाल किला और कुतुब मिनार के सामने से अवश्य गुज़रती है.

राजेन्द्र कुमार को कालिज का परिणाम पाने वाला दृष्य देखा और जब उनकी माँ बोली कि बेटा तुमने मेडिकल कोलिज में फर्स्ट कलास में सबसे अव्वल नम्बर पाये हैं तो भी यही ख्याल आया कि चालिस साल बाद यह भी नहीं बदला कि हमारे 35 या 40 साल के हीरो अभी भी कोलिज में पढ़ते हैं और कालिज के अन्य लड़के लड़कियों के बाप जैसे लगते हैं.

हीरो हीरोइन कई दिनों तक मिलते हैं, उनमें प्रेम होता जाता है लेकिन हीरोइन को न हीरो का नाम मालूम होता है न उसका पता. फ़िर संयोग से हीरोइन की सगाई हीरो के करीबी मित्र से हो जाती है और संयोग से ही हीरोइन हीरो की बहन से साथ पढ़ती है. इस तरह की संयोग वाली अविश्वस्नीय बातें भी इन चालिस सालों में हिन्दी सिनेमा में नहीं बदलीं.

लेकिन किसी किसी बात में बदलाव आया है. जैसे कि राजेन्द्र कुमार की स्कीइंग का दृश्य देखा तो हँसी आ गयी कि चालिस साल पहले यह किस तरह से ग्लेमरस लगा था! कश्मीर में इस तरह की फ़िल्म बनाना तो कई दशकों से बन्द हो गया है और अब कश्मीर में केवल आतंकवाद या मिलेट्री वाली फ़िल्में ही बनती हैं.

राजेन्द्र कुमार का अपनी प्रेमिका की सहेली सलमा के पिता हकीम साहब बन कर उसके घर जाने के दृष्य को देख कर लगा कि पहले उर्दू शेरो-शायरी की बात जितनी सहजता से कहानी में जोड़ दी जाती थी, वह अब नहीं होती. उससे एक साल पहले 1964 में राजेन्द्र कुमार और साधना की फ़िल्म "मेरे महबूब" बहुत हिट हुई थी, शायद आरज़ू फ़िल्म का यह सारा हिस्सा उसी की प्रेरणा से इस फ़िल्म में जोड़ दिया गया था.

लेकिन इतने सालों के बाद भी फ़िल्म के गानो को सुन कर लगा मानो मैं अभी वही लड़का हूँ जो इस फ़िल्म को देखने गया था -
  • अजी रूठ कर अब कहाँ जाईयेगा, जहाँ जाईयेगा हमें पाईयेगा
  • ऐ नरगिसे मस्ताना बस इतनी शिकायत है
  • छलके तेरी आँखों से शराब और भी ज़्यादा
  • ऐ फ़ूलों की रानी, बहारों की मल्लिका, तेरा मुस्कुराना गज़ब ढा गया
  • बेदर्दी बाल्मा तुझको मेरा मन याद करता है
शंकर जयकिशन के संगीत से सजे गानों में आज भी वही नशा है जो चालिस साल पहले होता था.

पुरानी यादों को ताज़ा करते हुए, "आरज़ू" के कुछ दृष्य प्रस्तुत हैं:

श्रीनगर हवाईअड्डा और एयर इंडिया की एयर होस्टेस
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

हीरो का भेष बदल कर हीरोइन के घर आना
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

संयोग से हीरोइन की बहन ने देखा कि उसकी सहेली के पास उसके भाई की तस्वीर थी
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

धूमल और महमूद की कामेडी
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

हीरोइन का अपना पैर काटने का बलिदान
(अगर वह लकड़ी काटने वाली मशीन के करीब ही बैठ जाती तो आप के दिल की धड़कन कैसे बढ़ती?)
Arzoo by Ramanand Sagar, India, 1965

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रविवार, जुलाई 17, 2011

संदेश किसके लिए है?

"तो कैसी लगी फ़िल्म?"

फ़िल्म समाप्त होने पर मैंने अपनी मित्र से पूछा तो उसने मुँह बना दिया था. फ़िर कुछ देर सोच कर बोली थी, "यह फ़िल्म शायद विदेशियों के लिए बनायी गयी है, विदेशों में दिखाने के लिए. यहाँ भारत में इसे शहरों में रहने वाले पैसे वाले लोग देखें जिन्हें अपने देश में गाँव में कैसे रहते हैं यह मालूम नहीं. सचमुच की समस्याएँ क्या हैं गरीबों की, किस तरह इस व्यवस्था में शोषित होते हैं लोग, यह नहीं दिखाना चाहते इस फ़िल्मवाले. गरीबी की पोर्नोग्राफ़ी है, उसे रूमानी बना कर बेचने का ध्येय है उनका. ताकि दया दान देने वाले विदेशी और पैसे वाले मन ही मन खुश हो सकें कि उनकी दया से किसी बच्चे की ज़िन्दगी सुधर गयी, पर इससे व्यवस्था को बदलने के लिए कोई नहीं कहे."

फ़िल्म का नाम था "आई एम कलाम" (I am Kalam) जिसे बँगलौर की स्माईल फाउँडेशन ने निर्मित किया है. मेरी मित्र की आलोचना बिल्कुल गलत तो नहीं थी, पर शायद पूरी भी नहीं थी.

I am Kalam by Smile Foundation

इस फ़िल्म की कहानी सचमुच की गरीबी या सच की कहानी नहीं है, बल्कि बच्चों के लिए लिखी परियों की कथा जैसी है. फ़िल्म में एक राजकुँवर और ढ़ाबे में काम करने वाले गरीब बच्चे में बराबर की दोस्ती की है, और अंत में पुराने विचारों वाले राजा साहब द्वारा गरीब बच्चे को मान देने का सपना है. कुछ दृष्यों को छोड़ कर जिनमें बचपन में ढ़ाबे और रेस्टोरेंटों में काम करने वाले बच्चों के कड़वे सच दिखते हैं, बाकी सारी फ़िल्म में रेगिस्तान के मनोरम दृष्य, रंगीन पौशाकें, समझदार विदेशी लड़कियाँ, दयावान प्रेमी ढ़ाबेवाला, ऊँठ पर बैठ कर चाय बाँटनेवाला और मन लुभाने वाला गरीब लेकिन सुंदर बच्चा दिखता है. यानि मेरी मित्र की दृष्टि में "रुमानी गरीबी".

लेकिन मेरी मित्र की आलोचना मुझे कुछ अधिक कठोर लगी. मैंने सोचा कि सच को इस तरह कहना कि उसे अधिक लोग देख सकें, क्या गलत बात है? अगर सचमुच की गरीबी दिखानी वाली डाकूमैंटरी या कला फ़िल्म होती तो कितने लोग देखते और क्या गरीबी दिखाने वाली डाकूमैंटरियों की कमी है भारत में? जिन लोगों को गरीब बच्चों के जीवन के कड़वे सच मालूम हैं वे इस बारे में लिखते हैं, सेमीनार करते हैं, डाकूमैंट्री फ़िल्में बनाते हैं और देखते हैं. जिन्हें नहीं मालूम या जिनके पास अपने जीवन से बाहर देखने के फुरसत ही नहीं हैं, उनके पास यह सेमीनार, आलेख और डाकूमैंट्री कहाँ पहुँचती हैं?

कुछ इसी तरह की बात उठी थी जब अमोल पालेकर की फ़िल्म "पहेली" देखी थी. उसमें बात थी नारी के अधिकारों की, लेकिन इस तरह से कही गयी थी कि रानी मुखर्जी के रंगों और शाहरुख जैसे प्रेमी भूत की परतों के नीचे दबी हुई, वह भी शायद "रुमानी नारी अधिकारों" की बात थी. पर कम से कम उसे उन लोगों ने देखा तो था जिनको नारी अधिकारों के बारे में जानने और सोचने की आवश्यकता थी. वैसे तो "पहेली" को भी बहुत अधिक व्यवसायिक सफ़लता नहीं मिली थी, लेकिन उसी कहानी पर बनी मणि कौल की "दुविधा" को कितने लोगों ने देखा था?

अक्सर मेरे विचार में बहुत से बुद्धिजीवियों को विश्वास नहीं होता कि अगर कोई बात बिना चीख चिल्ला कर या भाषण की तरह नहीं कही जाये तो लोग उसे समझेंगे. अगर बात को भाषण की तरह बार बार न दोहराया जाये और कहानी का हिस्सा बना कर इस तरह रखा जाये कि तुरंत स्पष्ट न हो लेकिन धीरे धीरे मन को सोचने के लिए प्रेरित करे तो उसे वह प्रभावशाली नहीं मानते. ऐसे लोगों से दुनिया भरी हुई है जो "क्मप्रोमाईज़" नहीं करना चाहते हैं, कहते हैं कि जीवन के कड़वे सचों को उनकी पूरी कड़वाहट के साथ ही दिखाना चाहिये. पर जब सच इतने कड़वे होते हें कि कोई उन्हें देख ही नहीं पाये तो उसे कौन देखता है? वही लोग देखते हैं जिन्हें इस सब के बारे में पहले से मालूम है, पर जिन्हें इस चेतना की आवश्यकता है वे लोग क्या देखते हैं?

मुझे "आई एम कलाम" बहुत अच्छी लगी, आप को भी मौका मिले तो अवश्य देखियेगा. देख कर आप को सचमुच की गरीबी क्या होती है शायद उसकी समझ नहीं आयेगी, लेकिन देख कर अगर आप एक दिन के लिए भी अपने घर में काम करने वाले नाबालिग नौकर या ढाबे रेंस्टोरेंट में वेटर या बर्तन धोने का काम करने वाले बच्चे के कठोर जीवन के बारे में सोचेंगे तो क्या यह कम है?

I am Kalam by Smile Foundation

एक अन्य बात भी है, वह है देखने वाले को बुद्धिमान और व्यस्क समझने की. मुझे लगता है कि "कड़वा सच" दिखाने की ज़िद करने वाले लोगों में अक्सर यह सोच होती है कि जिस तरह हममें इस सच की समझ है, वह अन्य लोगों में नहीं और जब तक उसे बार बार कह कर, दिखा कर, जबरदस्ती कड़वी दवा की तरह लोगों को पिलाया नहीं जायेगा, तब तक उनकी समझ में नहीं आयेगा. जबकि मैं मानता हूँ कि कभी कभी कड़वे सच को सांकेतिक रूप में दिखाने से, बुद्धीमान दर्शक को मौका मिलता है कि वह उसे अपनी दृष्टि से अपने आप समझ सके.

रही बात उन लोगों की जिन्हें सांकेतिक बात समझ नहीं आती, उन्हें कड़वे सच को जिस तरह भी कह लीजिये, वह उसे देखने से या समझने से इन्कार कर देंगे, तो उनकी चिंता करना शायद व्यर्थ ही है.

मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि सामाजिक समस्याओं और कड़वे सचों पर सभी कला अभिव्यक्ति केवल रंगीन, रूमानी तरीके से ही हो सकती है या होनी चाहिये. मणि कौल के सिनेमा अभिव्यक्ति के अंदाज़ में अपनी सुन्दरता थी, जो अमोल पालेकर की "पहेली" की सुन्दरता से भिन्न थी. कलात्मक अभिव्यक्ति के हर क्षेत्र में विभिन्नता आवश्यक है. लेकिन मेरा सोचना है कि अगर किसी कला का उद्देश्य जन सामान्य तक पहुँच कर उनको समझाना या जानकारी देना हैं, तो संदेश को उस भाषा में कहना बेहतर है जो जन सामान्य को समझ आ सके.

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दो महीने पहले विश्व स्वास्थ्य संस्थान (World Health Organisation) की वार्षिक एसेम्बली में जेनेवा गया था तो वहाँ एक हाल में तम्बाकू और सिगरेट प्रयोग के बारे में बड़े बड़े विज्ञापन लगे थे, जिसमें इन पदार्थों के प्रयोग से शरीर पर होने वाले प्रभावों को इस खूबी से दिखाया गया था कि उन तस्वीरों की ओर ठीक से देखने पर जी मिचलाने लगा था.

WHO poster on tobacco use

WHO poster on tobacco use

तब भी मेरे मन में यही बात आयी थी कि तम्बाकू और सिगरेट बेचने वाली कम्पनियाँ अपना प्रचार करने के लिए जाने माने सुन्दर लोगों और जगहों का उपयोग करती हैं. उससे लड़ने के लिए, यह तो ठीक है कि इन पदार्थों के डिब्बों पर इस तरह की फोटो लगाई लगाई जानी चाहिये जिनसे इनका उपयोग करने वाले लोगों में वितृष्णा हो.

लेकिन अगर जन सामान्य को संदेश देना हो, या नवजवानों और किशोरों को संदेश देना है, और उसके लिए इस तरह की वीभत्स तस्वीरों का प्रयोग होगा तो मुझे लगता है कि अधिकतर लोग उन्हें ध्यान से नहीं देखना चाहेंगे न ही इस तरह की तस्वीरों के पास क्या लिखा है उसे पढ़ना चाहेंगे.

सिगरेट और तम्बाकू का प्रयोग शरीर के लिए हानिकारक है और जन सामान्य में उसके खतरों की जानकारी देना आवश्यक है. पर यह संदेश किस तरह की भाषा में, किस तरह की तस्वीरों के साथ, किस तरह से दिया जाना चाहिये, ताकि नवयुवकों और किशोरों पर असरकारी हो सके? रुमानी बनाके, ताकि अधिक लोग उसे देखें या फ़िर कड़वे सच को उसकी सच्चाई के साथ?

और जन सामान्य में गरीब बच्चों के साथ होने वाले अमानवीय वर्ताव के बारे में सँचेतना जगानी हो, तो उसमें "आई एम कलाम" या "चिल्लर पार्टी" जैसी हँसी खुशी वाली फ़िल्मों का कोई स्थान है या गम्भीर विषयों पर केवल गम्भीर फ़िल्में ही बननी चाहिये?

आप क्या सोचते हैं?

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सोमवार, जुलाई 11, 2011

सभ्यता का मूल्य

"संग्रहालय के मूल्य को केवल खर्चे और फायदे में मापना गलत है, उसकी कीमत को मापने के लिए उसके उद्देश्य को मापिये. उसका उद्देश्य है जनता को नागरिक बनाना." यह बात कह रहे थे रोम के वेटीकेन संग्रहालय के निर्देशक श्री अन्तोनियो पाउलूच्ची (Antonio Paolucci).

श्री पाउलूच्ची इन दो शब्दों, जनता और नागरिक, को विषेश अर्थ देते हैं. "जनता" यानि एक जगह पर रहने वाले लोग और "नागरिक" यानि वह लोग जो अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझते हैं, जिनके लिए जीवन में सभ्य होने का महत्व हो, जिनमें अपनी कला, संगीत, लेखन, शिल्प को जानने की समझ हो. लेकिन आज के भूमण्डलिकृत जगत में जहाँ पूँजीवाद के आदर्शों से स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि जनकल्याण सेवाओं को मापते हैं, सभ्यता के मापदँड भी अधिकतर खर्चे और फायदे में गिने जाते हैं. उसे नागरिक अधिकार मानना कोई कोई विरला शहर ही कर पाता है, जैसे कि लंदन जहाँ सभी संग्रहालय मुफ्त हैं, अपनी कला और सभ्यता को जानने के लिए आप को कोई टिकट नहीं खरीदना पड़ता.

मैं श्री पाउलूच्ची की बात से सहमत हूँ कि अपनी कला, संस्कृति को बाज़ार के मापदँड से नहीं, सभ्यता के मादँड से तौलना चाहिये. पर यही काफ़ी नहीं. साथ ही, मुझे यह भी लगता है कि कला और सभ्यता की बातों को विषेशज्ञों के बनाये पिँजरों से बाहर निकाल कर जनसामान्य के लिए समझने लायक बनाया जाये. वह कहते हैं कि कला सँग्रहालयों को मैनेजरों की नहीं, कला को समझने वाले निर्देशकों की आवश्यकता है, जो नफ़े नुक्सान की बातों से ऊपर उठ सकें.

बदलते परिवेश में पर्यटक बदल गये हैं जिसके बारे में पाउलूच्ची कहते हैं, "आज कल चार्टर उड़ानों से अलग अलग देशों के बहुत से पर्यटकों के गुट आते हैं. उनके पास रोम घूमने के लिए एक ही दिन होता है, जिसमें से वह लोग एक डेढ़ घँटा वेटीकेन संग्रहालय को देखने के लिए रखते हैं. उनके पास संग्रहालय के अमूल्य चित्रों या शिल्पों की कोई कीमत नहीं, क्योंकि उनके पास कुछ देखने का समय नहीं है. उन्हें देखना होता है केवल सिस्टीन चेपल में माईकल एँजेलो की कलाकृति को. वह लोग संग्रहालय में भागते हुए घुसते हैं, सिस्टीन चेपल देख कर, सेंट पीटर के गिरजाघर की ओर भागते है. फ़िर कोलोसियम देखो, त्रेवी का फुव्वारा देखो, स्पेनी सीढ़ियाँ देखो, बस रोम हो गया. अब बारी है अगले शहर जाने की."

यह सच है कि विदेश घूमते हुए थोड़े दिनों की छुट्टियाँ होती हैं, रहने घूमने के खर्चे भी भारी होते हैं. तो बस यही चिन्ता रहती है कि कैसे जानी मानी प्रसिद्ध चीज़ें देखीं जायें. बाकी सबको देखना समझना मुमकिन नहीं होता. मेरे विचार में असली प्रश्न है कि जिन शहरों में हम रहते हैं क्या वहाँ के इतिहास को जानते समझते हैं, वहाँ के कला संग्रहालयों को देखने का समय होता है हमारे पास?

जब बात संग्रहालयों की हो रही हो तो कला और शिल्प को कैसे जाना और समझा जाये, इसकी बात करना उतना ही आवश्यक है. और मेरे विचार में इस बात को खर्चे और फायदे की बात करने वाले मैनेजरों ने भी समझा है, चाहे वह अपने स्वार्थवश ही समझा हो. यानि पैसे बनाने के लिए, कला और सभ्यता का भला करने के लिए नहीं.

बचपन में स्कूल के साथ कभी दिल्ली के कुछ संग्रहालयों को देखने का मौका मिला था, लेकिन सामने गुज़रने भर से क्या समझ में आता? कोई बताने समझाने वाला नहीं था. कुछ साल पहले एक बार इंडियागेट के पास पुरात्तव संग्रहालय में गया था लेकिन तब भी वहाँ संग्रहालय की विभिन्न कलाकृतियों को समझने के लिए कोई गाइड या किताब आदि नहीं थे. वहाँ जो कुछ देखा उसका हमारे समाज और संस्कृति के लिए क्या अर्थ था? हमारी संस्कृति में क्या स्थान था उस पुरात्तव इतिहास का, यह सब समझने की कोई जगह नहीं थी.

जब विभिन्न देशों में घूमने का मौका मिला तो भी शुरु शुरु में समझ नहीं थी कि कला, इतिहास या पुरात्तव को उसकी सन्दरता देखने के अतिरिक्त, और गहराई से जानना और समझना भी दिलचस्प हो सकता था. वाशिंगटन का आधुनिक कला का संग्रहालय, अमस्टरडाम का वान गोग संग्रहालय, लंदन की टेट गेलरी, जैसे जगहें देखीं पर तब बात वहीं तक जा कर रुक जाती थी कि कौन सी कलाकृति देखने में अच्छी लगती है.

फ़िर एक बार मेरे मन में कुछ आया और मैंने "खुले विश्वविद्यालय" के "कला को कैसे समझा जाये" के कोर्स में अपना नाम लिखवा लिया. इस कोर्स की कक्षाएँ रात को होती थी. दिन भर काम के बाद रात को कक्षा जाने में नींद बहुत आती थी. कई बार मैं कक्षा में ही सो गया. फिर भी, उस कोर्स का कुछ फ़ायदा हुआ. यह समझ आने लगी कि कला को समझने के लिए उसके कलाकार को और जिस परिवेश में उस कलाकार ने जिया और वह कृति बनायी, उसे समझना उतना ही आवश्यक है. समझ आने लगा कि संग्राहलय में जो देखो, उसकी सुन्दरता के साथ साथ, उसके बारे में भी जानो और समझो, तो संग्रहालयों से किताबे खरीदना प्रारम्भ किया.

पिछले दस वर्षों में इंटरनेट के माध्यम से संग्रहालय, कला और शिल्प को समझने के अन्य बहुत से रास्ते खुल गये हैं. जब भी किसी नये संग्रहालय में जाने का मौका मिलता है तो पहले उसके बारे में, वहाँ की प्रसिद्ध कलाकृतियों के बारे में पढ़ने की कोशिश करता हूँ. वहाँ जा कर जो कुछ अच्छा लगता है उसकी बहुत सी तस्वीरें खींचता हूँ. घर वापस आ कर, उन तस्वीरों के माध्यम से कलाकृतियों और कलाकारों के बारे में जानने की कोशिश करता हूँ. कई बार इस तरह से उन कलाकृतियों के बारे में मन में और जानने समझने की इच्छा जागती है तो वापस संग्रहालय जा कर उन्हें दोबारा देखने जाता हूँ.

शायद यही वजह है कि आजकल दुनिया के बहुत से आधुनिक संग्रहालयों में तस्वीर खींचने से कोई मना नहीं करता, बस फ्लैश का उपयोग निषेध होता है. पहले लोग सोचते थे कि संग्रहालय की हर वस्तु को गुप्त रखना चाहिये, तभी लोग आयेंगे. संग्रहालय चलाने वाले लोग सोचते थे कि अगर लोग तस्वीर खींच लेंगे तो उनके मित्र तस्वीरें देख कर ही खुश हो जायेंगे, संग्रहालय नहीं आयेंगे. इसलिए वहाँ फोटो खींचने की मनाई होती थी. तस्वीरें, कार्ड आदि कुछ भी हो, उसे आप केवल संग्रहालय की दुकान से मँहगा खरीद सकते थे.

आज के संग्रहालयों को समझ आ गया है कि जो लोग वहाँ घूमते हुए तस्वीरें खींचते हैं, वही लोग बाद में उन्हें फेसबुक, फिल्क्र, चिट्ठों आदि के द्वारा अपने मित्रों व अन्य लोगों में उस संग्रहालय का मुफ्त में विज्ञापन करते हैं. जितनी तस्वीरें अधिक खींची जाती हैं, उतना विज्ञापन अधिक होता है, और अधिक लोग वहाँ जाने लगते हैं.

पैसा कमाने के लिए संग्रहालयों को नये तरीके समझ में आये हैं, जैसे कि विभिन्न कलाकारों की कला को समझने के लिए उसके बारे में किताबें, पोस्टर, प्रिंट आदि और संग्रहालय में बने काफ़ी हाउस, बियर घर और रेस्टोरेंट.

यह सच है कि ग्रुप यात्रा में निकले लोगों के पास समय कम होता है, बस कुछ महत्वपूर्ण चीज़ों को ही देख सकते हैं. लेकिन मेरे विचार में ग्रुप यात्रा के बढ़ने के साथ साथ, दुनिया में कला को अधिक गहराई से समझने वाले भी बढ़ रहे हैं, जो अब इंटरनेट के माध्यम से कला और इतिहास को इस तरह समझ सकते हैं जैसे पहले मानव इतिहास में कभी संभव नहीं था.

इसका एक उदाहरण है दिल्ली के पुरात्तव संग्रहालय में मोहनजोदारो और हड़प्पा से मिली प्राचीन मुद्राएँ. जब उन्हें देखा था तो वह मुद्राएँ केवल छोटे मिट्टी के टुकड़े जैसी दिखी थीं, उनमें कुछ दिलचस्प भी हो सकता है, यह समझ नहीं आया था. आज टेड वीडियो पर प्रोफेसर राजेश राव का यह वीडियो देखिये. उन मुद्राओं को देख कर उन्हें समझने की उत्सुकता अपने आप बन जाती है.
 
कलाकार और उसके परिवेश को जानने से, उसकी कला को समझने की नयी दृष्टि मिलती है, इसका एक उदाहरण है श्री ओम थानवी द्वारा लिखा वान गोग की एक कलाकृति "तारों भरी रात" का विवरण. किसी संग्रहालय में वान गोग के चित्र देखने का मौका मिल रहा हो, तो पहले इसे पढ़ कर देखिये, कला को समझने की नयी दृष्टि मिल जायेगी.

पर इस तरह कला को देखने, समझने का जिस तरह का मौका आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बन गया है वैसा पहले कभी नहीं था, जिसका एक उदाहरण है गूगल द्वारा संग्रहालयों की प्रसिद्ध कलाकृतियों को देख पाना.

भारत में कला के बारे में, संग्रहालयों के बारे में कैसे जानकारी मिलेगी, यह अभी आसान नहीं हुआ है. भारत के कौन से प्रसिद्ध चित्रकार हैं, किसी अच्छे भले, पढ़े लिखे व्यक्ति से पूछिये तो भी आप को अमृता शेरगिल, मकबूल फिदा हुसैन आदि दो तीन नामों से अधिक नहीं बता पायेगा. हेब्बार, राम कुमार, बी प्रभा जैसे नाम कितनों को मालूम हैं? काँगड़ा और राजस्थानी मिनिएचर चित्रकला शैलियों की क्या विषेशताएँ हैं, शायद लाखों में एक व्यक्ति भी नहीं बता सकेगा.

भारत के प्रसिद्ध शिल्पकार कौन हैं तो शायद कुछ लोग अनिश कपूर का नाम ले सकते हैं क्योंकि वे लंदन में प्रसिद्ध हैं. कैसे कला में पैसा लगाना आज फायदेमंद है, इस पर फायनेन्शियल टाईमस या बिजनेस टुडे पर लेख मिल जायें, पर आम टीवी कार्यक्रमों में भारतीय कलाकारों की कला को कैसे समझा जाये, इसका कोई कार्यक्रम क्या आप ने कभी देखा है? जब तक किसी कलाकार की बिक्री लाखों करोड़ों में न हो, या उसे विदेश में कुछ सम्मान न मिले, लगता है कि भारत में उसका कुछ मान नहीं.

भारतीय पुरात्तव विभाग की वेबसाईट तो हिन्दी में भी है लेकिन वहाँ पर आप को केवल प्रकाशनों की लिस्ट मिलेगी. इंटरनेट पर पढ़ने वाली किताबों पत्रिकाओं की लिंक अंग्रेज़ी वाले हिस्से में हैं. तस्वीरों की गैलरी है, लेकिन उनमें जगह के नाम के सिवा, उसे जानने समझने के लिए कुछ नहीं. वैसे तो भारत दुनिया भर के क्मप्यूटरों की क्राँती का काम कर रहा है तो आशा है कि भारतीय पुरात्तव विभाग की वेबसाईट को भी अच्छा होने का मौका मिलेगा.

दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय की वेबसाईट केवल अंग्रेज़ी में है और उसपर उपलब्ध जानकारी बहुत सतही है. तस्वीरें छोड़ कर किसी तरह की समझ बढ़ाने वाली जानकारी नहीं मिलती. वेबसाईट पुराने तरीके की है, उसे देख कर नहीं लगता कि यह भारत के सबसे प्रमुख संग्रहालय का परिचय दे सकती है.

दिल्ली के राष्ट्रीय कला संग्रहालय की वेबसाईट देखने में बहुत सुन्दर है, और हिन्दी में भी है. वेबसाईट पर संग्रहालय के विभिन्न संग्रहों की कुछ सतही जानकारी भी है, लेकिन सभी प्रकाशन केवल खरीदने के लिए ही हैं, इंटरनेट से कलाकारों और कला के बारे में जानकारी सीमित है.

अगर हमारी संस्कृति, सभ्यता को जनसामान्य तक पहुँचाना आवश्यक है तो भारतीय संग्रहालय और पुरात्तव विभागों को इंटरनेट के माध्यम से नये कदम उठाने चाहिये, ताकि जनता में अपने इतिहास और कला को जानने समझने की इच्छा जागे.

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नीचे की मेरी खींची तस्वीरें दुनिया के विभिन्न देशों में संग्रहालयों से हैं.

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

Museums - images by S. Deepak

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शनिवार, जुलाई 09, 2011

मन पसंद गैर फ़िल्मी गीत

सुबह साइकल पर जा रहा था. कुछ देर पहले ही बारिश रुकी थी. आसपास के पत्ते, घास सबकी धुली हुई हरयाली अधिक हरी लग रही थी. अचानक मन में गाना आया "इस तुमुल कोलाहल कलह में". जाने कितने साल पहले सुना था यह गीत, शायद चालिस साल पहले. आशा भौंसले का गाया यह गीत, मन की गहराईयों में जाने कहाँ चुपा था जो इस तरह से अचानक उभर आया था. आसपास बिल्कुल सन्नाटा था, कोई तुमल, कोलाहल, कलह नहीं था, फ़िर क्यों यही गीत मन में आया था?

विदेशों में अधिकतर फ़िल्मों में गीत नहीं होते, जबकि भारतीय फ़िल्मों में गीतों के बिना फ़िल्में नहीं होती. हम लोग अधिकतर फ़िल्मी गीतों से ही अधिक परिचित हैं, पर फ़िर भी कभी कभी आशा भौंसले के "तुमुल कोलाहल" जैसे गीत कुछ प्रसिद्ध हो ही जाते हैं. जब एम टीवी और वी चैनल आने लगे थे तो मैं सोचता था कि अब गैर फ़िल्मी गानो को अपना सही स्थान मिलेगा, पर इस तरह का कुछ हुआ लगता नहीं, हालाँकि नब्बे के दशक के बाद से गैर फ़िल्मी गीतों की कुछ लोकप्रियता बढ़ी है.

फ़िर सोचने लगा कि अगर गैर फ़िल्मी गानों के बारे में सोचूँ तो क्या अपने मन पंसद दस गैर फ़िल्मी गानों की सूची बना पाऊँगा? साथ में ही मेरी शर्त यह भी थी कि एक एँल्बम से एक से अधिक गीत नहीं चुन सकते, और गीत अपने आप याद आना चाहये, गूगल पर खोज कर नहीं निकनला उसे. प्रारम्भ में कुछ ध्यान में नहीं आ रहा था, लेकिन फ़िर धीरे धीरे कुछ गाने याद आने लगे. यह सूची बनायी है, हालाँकि इनमें से यह चुनना कि कौन सा गीत अधिक पसंद है कठिन है. कुछ गायकों के नाम याद आये पर उनका कोई गीत याद नहीं आया.

1. "कृष्णा नीबेगने बरो" जिसे कोलोनियल कज़नस् (Colonial Cousins) ने गाया था. इनकी इसी एल्बम में से मुझे "स नि धा पा गा मा गा रे सा" भी बहुत अच्छा लगता है लेकिन अगर एक ही चुनना पड़े तो मैं "कृष्णा" को ही चुनुँगा.



2. रब्बी का गाया "बुल्ला की जाणा मैं कौण" - इस गाने के बाद मैंने रब्बी की एक और एँल्बम भी खरीदी थी जो मुझे अच्छी भी लगी थी, लेकिन अब सोचने पर भी उसके गीत याद नहीं आते.

3. मुकुल और मितुल का "सावन" यह दोनो गायक अधिक प्रसिद्ध नहीं हुए लेकिन मुझे इनके गाने का अंदाज़ बहुत पसंद है.




4. आशा जी का "इस तुमुल कोलाहल कलह में"

5. जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का "सरकती जाये है रुख से नकाब आहिस्ता आहिस्ता"

6. किशोरी आमोनकर का "सहेला रे"

7. अश्विनी भिडे देशपांडे का "गणपति विघ्नहरण गजानन". इस गीत के पीछे एक छोटी सी कहानी है. कुछ वर्ष पहले डा. देशपांडे हमारे शहर आयीं थीं. उनसे बात करने का भी मौका मिला. उनसे बात करते हुए मैंने उन्हें कहा कि मुझे उनका यह भजन बहुत प्रिय है. उस दिन शाम को जब उनका गायन कार्यक्रम समाप्त होने वाला था, उन्होंने इस गीत को मेरे लिए गाया. तब से यह गीत मेरे मन में और गहरा उतर गया.

8. मोहित चौहान का "सजना" - आज कल के गायकों में से मेरे सबसे प्रिय हैं मोहित चौहान.

9. ग़ुलाम अली का "आवारागी" - चालिस साल पहले यह गीत एक बार दिल्ली की ललित कला अकेदमी की लायब्रेरी में सुना था तो उसने मंत्र मुग्ध कर दिया था.

10. कुमार गंधर्व का "उड़ जायेगा हँस अकेला" - बचपन में कुमार गंधर्व जी के निर्गुणी भजनों से मेरी मुलाकात मेरे छोटे फ़ूफा ने करायी थी. उसके बाद कई बार कुमार गंधर्व जी को गाते हुए सुनने का मौका भी मिला. उनके कबीर भजन मुझे बहुत प्रिय हैं.

यह दस गीत तो मैंने आज चुने हैं लेकिन यह भी है कि समय के साथ मेरी पसंद भी बदलती रहती है. आप के सबसे प्रिय गैर फ़िल्मी गीत कौन से हैं, हमें भी बताईये. शायद आप की पसंद के गीतों में मेरी पसंद के अन्य गीत भी छुपे हों?

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सोमवार, जून 20, 2011

विचित्र शब्द

हिन्दी के "चंदू की चाची ने, चंदू के चाचा को चाँदी के चम्मच से चाँदनी चौंक में चटनी चटाई" जैसे वाक्यों को, जिन्हें बोलने में थोड़ी कठिनायी हो या बोलने के लिए बहुत अभ्यास करना पड़े, अंग्रेज़ी में "टँग टिविस्टर" (Tongue twister) यानि "जीभ को घुमाने वाले" वाक्य कहते हैं.

Grafic design about strange words by S. Deepak

इस तरह के वाक्य अन्य भाषाओं में भी होते हैं. चेक गणतंत्र की भाषा चेक में ऐसा एक वाक्य हैः "मेला बब्का वू कापसे ब्राबसे, ब्राबसे बाबसे वू कापसे पिप. ज़्मक्ला बबका ब्राबसे वू कापसे, ब्राबसे बाबसे वू कापसे चिप." यानि "नानी की जेब में चिड़िया थी, चिड़िया ने चींचीं की, नानी ने चिड़िया को दबाया, चिड़िया मर गयी."

विभिन्न भाषाओं कई बार छोटे से शब्द मिलते हें, जिनके अर्थ समझाने के लिए पूरा वाक्य भी कम पड़ सकता है. कुछ इस तरह के शब्दों के उदाहरण देखिये.

जापानी लोग कहते हैं "अरिगा मेईवाकू" जिसका अर्थ है, "वह काम जिसे कोई आप के लिए करता है, जो आप नहीं चाहते थे, और आप की पूरी कोशिश के बाद कि वह व्यक्ति वह काम न करे, वह उसे करता है, और आप के लिए इतना झँझट खड़ा कर देता है जिससे आप को बहुत परेशानी होती है, लेकिन फ़िर भी आप को उस व्यक्ति को धन्यवाद कहना पड़ता है". जर्मन शब्द "बेरेनडीन्स्ट" का अर्थ भी इससे मिलता जुलता है.

जापानी का एक अन्य शब्द है, "आजे ओतोरी" जिसका अर्थ है "बड़ा होने के समारोह के लिए अपने बालों का विषेश स्टाईल बनवाना, जिससे बजाय अच्छा लगने के, आप की शक्ल और भी बिगड़ी हुई लगे".

हालैंड निवासी कहते हैं "प्लिमप्लामप्लैटरेन", जब कोई पानी की सतह पर इस तरह से पत्थर फ़ैंके कि वह पत्थर कुछ दूर तक पानी पर उछलता हुआ जाये.

फ्राँसिसी बोली में कहते है, "सिन्योर तेरास", उस व्यक्ति के बारे में जो बार या रेस्टोरेंट में जा कर बहुत सा समय बिताता है, पर खाता पीता बहुत कम है जिससे उसका खर्चा कम होता है.

अलग अलग भाषाओं में बात को कहने के कुछ अजीब अजीब तरीके भी होते हैं, जैसे कि इंदोनेशिया में समय बरबाद को कहते हैं "कुसत सेबे लोकटी", यानि "अपनी कोहनियाँ चाटना". चीनी लोग, जब कोई ज़रूरत से अधिक ध्यान और हिदायत से काम करता है, कहते हैं, "तुओ कूरी फाँग पी" यानि "पाद मारने के लिए पैंट उतारना". कोरिया में जब कोई बिना आवश्यकता के बहुत ताकत लगा कर कुछ काम करता है, तो कहते हैं "मोजी जाबेरियूदाछोगा सामगान दा तायेवोन्दा" यानि "मच्छर पकड़ने के चक्कर में घर गिरा देना".

इस तरह के शब्दों के बारे में विचित्र और दिलचस्प बातें लिखीं हैं होलैंड के आदम जूआको ने अपने चिट्ठे "टिंगो का अर्थ" (The Meaning of Tingo) पर. उनका यह चिट्ठा इतना सफ़ल हुआ कि इसकी उन्होंने किताब छपवायी. किताब छपने के बाद से उन्होंने चिट्ठे पर नयी पोस्ट लिखना बन्द कर दिया, फ़िर भी पढ़ने के लिए वहाँ बहुत सी दिलचस्प बातें मिलती हैं.

हमारी भारतीय भाषाओं में भी जाने इस तरह के कितने शब्द होंगे, विचित्र तरीके होंगे बात को कहने के, ऐसे छोटे छोटे शब्द होंगे जिनके लम्बे अर्थ हों, जो सारी दुनिया से अलग हों. शायद हममें से कोई उस पर चिट्ठा बना सकता है, सफ़लता अवश्य मिलेगी. कुछ उदाहरण हमें भी देने की कोशिश कीजिये.

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