सोमवार, दिसंबर 26, 2011

श्रीमान छू मन्तर


Special body art of Liu Bolin
चीन के शिल्पकार, चित्रकार और फोटोग्राफ़र श्री ल्यू बोलिन (Mr. Liu Bolin) अपनी "बोडी आर्ट" यानि "शरीर को रँगने की कला" के लिए जग प्रसिद्ध हैं.

36 वर्षीय ल्यू का जन्म शानडोंग शहर में हुआ और 1995 में उन्होंने शिल्पकला में डिग्री पायी. उन्हें प्रसिद्ध मिली 2008 में उन्होंने "इन्विसिबल इन द सिटी" (Invisible in the city) यानि "शहर में अदृश्य" नाम की अपनी प्रदर्शनी लगायी जिसमें उन्होंने अपने शरीर को विभिन्न पृष्ठभूमियों के हिसाब से इस तरह रंग कर तस्वीर खिंचवाई कि तस्वीर में उनको देख पाना बहुत कठिन था.

इस प्रदर्शनी ने सारी दुनिया में तहलका मचा कर उनका नाम प्रसिद्ध कर दिया. तब से उनकी विभिन्न प्रदर्शनियाँ दुनिया के विभिन्न देशों में लग चुकी हैं, और अलग अलग देशों में जा कर वह वहाँ के प्रसिद्ध स्थानों पर स्वयं को अदृश्य करके तस्वीरें खिंचवाते हैं. उनकी हर एक तस्वीर की तैयारी बहुत मेहनत का काम है, जिसमें दस बारह घँटे भी लग जाते हैं.

ल्यू को "अदृश्य पुरुष" या "श्रीमान गिरगिट" के नाम से भी जाना जाता है. जैसे कि नीचे की तस्वीर में देखिये, क्या आप को बिल्लियों के बीच छिपे हुए ल्यू दिखायी दिये?

Special body art of Liu Bolin

इटली में भी ल्यू अपनी दो प्रदर्शनियाँ लगा चुके हैं. पिछले वर्ष उनकी एक प्रदर्शनी को देखने का मौका मिला था, तब से मैं भी उनका प्रशंसक हो गया.

पहले प्रस्तुत हैं ल्यू की कुछ छू मन्तर होने की तैयारी और उसके परिणाम की तस्वीरें.

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin


कुछ अन्य ऐसी तस्वीरें प्रस्तुत हैं जिनमें वह बहुत कठिनाई से दिखते हैं.

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

 कहिये क्या आप को ल्यू की यह अनूठी कला पसंद आयी या नहीं?

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बुधवार, दिसंबर 07, 2011

छोटी सी याद

1973-74. हम लोग दिल्ली से मध्य प्रदेश में नरसिंहपुर जा रहे थे. मेरे साथ मेरी एक मौसी और नानी थे. रेलगाड़ी रात को इटारसी स्टेशन पर पहुँची थी, जहाँ हम लोगों ने कुछ घँटे बिताये थे, अगली रेलगाड़ी के आने के इन्तज़ार में.

उस रात मुझे मिली थी ज़रीना वहाब और पहली मुलाकात में ही प्यार हो गया था. ज़रीना वहाब की तस्वीरें "नयी आने वाली अभिनेत्री" के शीर्षक से फ़िल्मफेयर पत्रिका में छपी थीं और उन तस्वीरों को देख कर मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गयी थी.

उन दिनों में मुझे ज़रीना वहाब की तस्वीरें खोजने का भूत सवार हुआ था. किसी पत्रिका में उनकी तस्वीर दिखती तो उसे खरीदने में ही जेबखर्च के सब पैसे चले जाते. तस्वीर को पत्रिका से काट कर संभाल कर रखता. उन तस्वीरों से बातें करता और सपने देखता उनसे मिलने के.

जब सुना था कि वह देवआनन्द साहब की फ़िल्म "इश्क इश्क इश्क" में आ रही हैं तो उस दिन मेडिकल कॉलिज की क्लास छोड़ कर उस फ़िल्म का पहले दिन का पहला शो देखने गया था. फ़िल्म में छोटा सा भाग था उनका लेकिन आज भी अगर उस फ़िल्म के बारे में सोचूँ, तो बस केवल उनका वही भाग याद हैं मुझे.

उनकी उस पहली फ़िल्म के बाद, बहुत समय तक उनकी कोई अन्य फ़िल्म नहीं आयी थी. फ़िर एक-दो सालों के बाद आयी थी बासू चैटर्जी की "चितचोर". जिस दिन वह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी, उस दिन मेरा जन्मदिन था और अपने सब मित्रों के साथ दिल्ली के शीला सिनेमा हाल में पहले दिन का पहला शो देखने गया था.

Zarina Wahab Amol Palekar in Chitchor


फ़िर समय बीता और धीरे धीरे पर्दे पर या तस्वीरों में देखी ज़रीना वहाब का जादू अपने आप ही कम होता गया. उनकी जगह दूसरी छवियाँ बसीं मन में, दूसरे सपने आने लगे. फ़िर भी उनकी वे तस्वीरें मेरी डायरी में जाने कितने बरसों तक जमा रहीं थीं.

देवानन्द साहब की मृत्यु पर पिछले दिनों में बहुत आलेख निकले. उन्हीं में कहीं "इश्क इश्क इश्क" के बारे में पढ़ा तो अपने उस पहले नशे की यह बात याद आ गयी.

कैसा होता है मानव मन! भूली बिसरी बातें मन के कोनों में कहाँ छुपी बैठी रहती हैं और जैसे किसी ने बटन दबाया हो, तुरंत उठ कर यूँ सामने आती हैं मानो कल की ही बात हो.

इस बात के बारे में लिखते हुए पाया कि मैं गुनगुना रहा हूँ "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले"!

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रविवार, दिसंबर 04, 2011

मनीला में एक घँटा


केवल एक सप्ताह के लिए मनीला आया था और सारे दिन कोन्फ्रैंस की भाग-दौड़ में ही गुज़र गये थे. उस पर से यूरोप से सात घँटे के समय के अंतर की वजह से शाम होते होते नींद के मारे पलकें खुली रखना असम्भव सा लगता था, बस एक दिन रात को थोड़ी देर के लिए बाहर सैर करने को बाहर गया था, तो करीब के एक बाग में रंग बिरंगी रोशनी वाले संगीतमय फुव्वारे देखे थे, जिसमें संगीत की ताल पर पानी की धाराएँ इधर उधर डोलती हुई नृत्य करती हुई लगती थीं.

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


आखिर जिस दिन वहाँ से वापस आना था, उसी दिन सुबह जल्दी उठने का कार्यक्रम बनाया कि कम से कम मनीला छोड़ने से पहले, एक घँटे में कुछ आसपास घूम कर देखूँ. हमारा होटल शहर के मध्य में यूनाईटिट नेशन के मैट्रो स्टेशन के पास था. नक्शे में देखा कि जहाँ मैंने संगीतमय फुव्वारे देखे थे उसके करीब ही कुछ संग्रहालय और अन्य देखने वाली जगहें थी.

सुबह साढ़े पाँच बजे का अलार्म लगाया था. जब अलार्म बजा तो एक पल के लिए मन में आया कि करीब 24 घँटे की यात्रा की थकान का सामना करना था, कुछ और सोना ही बेहतर होगा. लेकिन फ़िर सोचा कि जाने कब दोबारा मनीला आने का मौका मिले, इसे खोना नहीं चाहिये. यही सोच कर मन कड़ा करके उठा और जल्दी से नहाया और सामान तैयार किया. जाने की सब तैयारी करके छः बजे होटल से सैर को निकला.

फिलीपीन्स देश करीब सात हज़ार द्वीपों से बना है जिसमें सबसे बड़े द्वीप हैं लूज़ोन, विसायास और मिन्डानाव. देश की राजधानी मनीला लूज़ोन द्वीप के दक्षिण में सागरतट पर है. इस देश का इतिहास स्पेनी साम्राज्यवाद से जुड़ा है. स्पेनी साम्राज्यवाद का प्रारम्भ हुआ 1565 में और स्पेनी शासकों ने ही इसे अपने राजा फिलिप द्वितीय के नाम से फिलिपीन्स का नाम दिया. स्पेनी शासन से पहले यह द्वीप अनेक राज्यों में बँटे थे जहाँ विभिन्न दातू, राजा और सुल्तान शासन करते थे. स्पेनी साम्राज्यवादियों के आने से पहले इन द्वीपों की सभ्यता पर हिन्दू, बुद्ध तथा इस्लाम धर्मों का प्रभाव था जबकि स्पेनी शासन में यहाँ के अधिकाँश लोगों ने ईसाई कैथोलिक धर्म को अपना लिया. स्पेनी साम्राज्य 1898 तक चला जब फिलिपीन्स गणतंत्र की स्थापना हुई. लेकिन स्पेनी शासकों ने फिलीपीन्स देश को अमरीका को बेच दिया और अमरीकी फिलीपीनो युद्ध के बाद, अमरीका ने इस देश पर कब्ज़ा कर लिया. द्वितीय महायुद्ध में जापानी फौज ने फिलीपीन्स पर कब्ज़ा किया और देश के बहुत से हिस्से इस युद्ध में बमबारी से नष्ट हो गये. द्वितीय महायुद्ध में करीब दस लाख फिलीपीन निवासियों की मृत्यु हुई. अंत में 1946 में फिलीपिन्स स्वतंत्र हुआ.

होटल से निकला तो बाहर मैट्रो स्टेशन पर काम पर जाने आने वालों की भीड़ दिखी. अभी सूरज नहीं निकला था इसलिए हवा में कुछ ठँडक थी. सड़क के किनारे खाने पीने का सामान बेचने वालों के खेमचे, सड़क पर झाड़ू लगाते सफ़ाई कर्मचारी, बैंचों और रिक्शे में सोये लोग आदि देख कर लगा मानो भारत में हों. यहाँ के रिक्शे भारत से भिन्न हैं. रिक्शा खींचने वाली साईकल रिक्शे के आगे नहीं बल्कि बाजु में लगी होती है और किसी किसी रिक्शे में साईकल के बदले मोटर साईकल भी लगी होती है. यहाँ पर अधिकतर लोग अंग्रेज़ी बोलते हैं. एक रिक्शे वाले ने बताया कि रिक्शा चलाने का लायसैंस लेना पड़ता है जिससे उस रिक्शे को केवल शहर के एक हिस्से में चलाने की अनुमति मिलती है और वह शहर के बाकी हिस्सों में नहीं जा सकते. मुझे लगा कि उनका अधिकतर काम मैट्रो से आने जाने वाले लोगों को आसपास की जगहों पर ले जाना होता है.

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


सबसे पहले तो मैं लापू लापू स्वतंत्रता सैनानी स्मारक पर रुका. श्री लापू लापू ने स्पेनी शासन के विरुद्ध लड़ायी की थी. इस स्मारक की विशालकाय मूर्ति देख कर मुझे भारत के विभिन्न शहरों में लगी विशालकाय देवी देवताओं की मूर्तियों की याद आ गयी. स्मारक के पास बाग में रात भर काम करके, मुँह हाथ धो कर मेकअप उतारते हुए कुछ युवक दिखे. मुझे देख कर मुस्कुरा कर "गुड मार्निंग" करके अभिवादन किया. फिलीपीन्स में समलैंगिक और अंतरलैंगिक लोगों के लिए कानूनी स्वतंत्रता भी है और सामाजिक मान्यता भी. दो दिन पहले हमारी कौन्फ्रैन्स में भी देश के राष्ट्रपति के सामने, टीवी पर काम करने वाले एक प्रसिद्ध फिलीपीनी अभिनेता ने सहजता से अपने समलैंगिक होने की बात को कहा था. मैंने उनके अभिवादन का मुस्करा कर उत्तर दिया और पूछा कि क्या मैं उनकी तस्वीर ले सकता हूँ. लिपस्टिक और मेकअप लगाये एक युवक ने सिर हिला कर नहीं कहा, लेकिन उसके दो अन्य साथी जो हाथ मुँह धो कर वस्त्र बदल चुके थे, तुरंत मान गये.

Lapu Lapu monument, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


युवकों से विदा ले कर मैं ओर्किड फ़ूलों के बाग को देखने गया. हालाँकि अभी उस बाग के खुलने का समय नहीं हुआ था फ़िर भी जब मैंने बताया कि मेरे पास समय कम था और मुझे थोड़ी देर में हवाई अड्डा जाना था तो बाहर बैठे सिपाही ने मुझे बिना टिकट ही अन्दर जाने दिया. बाग में ओर्किड के फ़ूल कुछ विषेश नहीं दिखे लेकिन जगह सुन्दर लगी.

Orchid garden, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Orchid garden, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Orchid garden, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


इसी बाग के बाहर दक्षिण कोरिया और फिलीपीनी सैनिकों की जापानी सैना से लड़ाई से जुड़े कुछ स्मारक बने हैं.

Philippine-Korea memorial, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Philippine-Korea memorial, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


बाग से थोड़ी दूर एक कृत्रिम झील में संगीतमय फुव्वारों का कार्यक्रम चल रहा था, जिसमें रात की रंगबिरंगी बत्तियाँ आदि नहीं थीं लेकिन सुन्दर लग रहा था. झील के किनारे स्पेनी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने वाली स्वतंत्रता सैनानियों की मूर्तियों की कतार लगी थी.

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Martyrs statues, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


झील के पास संगीतमय फुव्वारे के संगीत की ताल पर चीनी ताई छी व्यायाम करने वाले लोग दिखे. ताई छी की धीमी धीमी बदलती मुद्रायें नृत्य जैसी लगती हैं. अन्य लोगों के साथ मिल कर सुबह सुबह ताई छी का व्यायाम करना चीन में भी बहुत शहरों में देखा था.

Tai chi, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Tai chi, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


तब तक सूरज निकला आया था और गर्मी भी बढ़ने लगी थी. मैंने घड़ी देखी सात बज चुके थे. मैं वापस होटल की ओर मुड़ा. झील के किनारे बने जापानी और चीनी बागों को देखने का मेरे पास समय नहीं था, लेकिन होटल वापस आते समय मैं केवल एक अन्य छोटे से कृत्रिम तालाब में बने फिलीपीन्स के नक्शे को देखने के लिए रुका.

Philippines relief map, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


वापस होटल पहुँचा तो बस जल्दी से नाशता करके सामान उठाने का समय बचा था. हवाई अड्डा जाने की प्रतीक्षा में कुछ साथी तैयार खड़े थे. थोड़ी देर को ही सही, कम से कम मनीला शहर के एक छोटे से भाग को देखने में सफ़ल हुआ था.

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बुधवार, नवंबर 16, 2011

फ़िल्मी रोग और उनके डागधर बाबू


रोग, ओपरेशन, जन्म, मृत्यु, अस्पताल, डाक्टर और वैद्य, यह सभी मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं. अधिकतर फ़िल्मों में कोई न कोई दृश्य ऐसा होता ही है जिसमें कोई डाक्टर या अस्पताल दिखे. पर कुछ फ़िल्मों का प्रमुख विषय बीमारी या अस्पताल में काम करने वाले लोग होते हैं. आज मैं कुछ ऐसी ही फ़िल्मों की बात करना चाहता हूँ. अक्सर इन फ़िल्मों को रोने धोने वाली फ़िल्में कहा जाता है, लेकिन कभी कभी गम्भीर विषय पर बनी यह फ़िल्में अपनी बात को मुस्कान के साथ कहने में सक्षम होती हैं.

सबसे पहले मेरे कुछ मन पंसद दृष्यों की बात की जाये, उन फ़िल्मों से जिनकी कहानी में डाक्टर या बीमारियों की बात थी तो छोटी सी, लेकिन फ़िर भी मेरे लिए वे यादगार दृष्य हैं.

सबसे पहला न भूलने वाला दृष्य है मनमोहन देसाई की फ़िल्म अमर अकबर एन्थनी से. वह दृष्य था जिस में तीनो भाई, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना और ऋषी कपूर, अस्पताल में अपनी बचपन की खोयी माँ निरूपा राय को खून देते हैं. तीनों की बाहों से खून निकल कर माँ के शरीर में सीधा पहुँच रहा था, इस दृष्य ने मुझे बहुत रोमाँचित किया था, हालाँकि मालूम था कि इस तरह से खून नहीं देते. इसी फ़िल्म में एक अन्य दृष्य था जिस पर मुझे बहुत हँसी आयी थी, जिसमें विवाह के वस्त्र पहने हुए परवीन बाबी जी चक्कर खा कर गिर जाती हैं और नीतू सिंह जो डाक्टर हैं, उनकी कलाई को उठा कर कान से लगाती हैं और कहती हैं, "बधाई हो, यह तो माँ बनने वाली है". यह सच्ची बम्बईया मसाला फ़िल्म थी.

दूसरा दृष्य जो मुझे न भूलने वाला लगता है वह गम्भीर था, गुलज़ार की फ़िल्म परिचय से. इस दृष्य में अपनी बीमारी को छुपाने वाले संजीव कुमार अपने रुमाल पर लगे खून के छीटों को अपनी बेटी जया भादुड़ी से नहीं छुपा पाते तो उनकी आँखों में जो कातरता, मजबूरी और दुख की झलक दिखायी दी थी उसने मन को छू लिया था. बिल्कुल इसी से मिलता जुलता एक अन्य दृष्य था ऋषीकेश मुखर्जी की सत्यकाम में जिसमें शर्मीला टैगोर जब अस्पताल में बीमार पति धर्मेन्द्र की खाँसी में खून के छीटें देख लेती हैं तो धर्मेन्द्र की आँखों में आयी हताशा, पीड़ा और दुख बहुत सुन्दर लगे थे.

अस्पताल या बीमारी से जुड़ा कोई दृष्य है जो आपके मन को छू गया और जिसे आप कभी नहीं भुला पाये? उसके बारे में हमें भी बताईये.

Collage hindi films - S. Deepak, 2011


खैर अब न भूलने वाले दृष्यों की बात छोड़ कर, उन फ़िल्मों की बात की जाये जिनकी कहानी में बीमारी और अस्पतालों का स्थान महत्वपूर्ण था.

दिल एक मन्दिर : अगर अस्पतालों और बीमारियों से जुड़ी फ़िल्मों के बारे में सोचूँ तो सबसे पहला नाम जो मन में उभरता है वह है श्रीधर की 1963 की फ़िल्म दिल एक मन्दिर. राम (राजकुमार) को कैन्सर है, वह अस्पताल में अपनी पत्नी सीता (मीना कुमारी) के साथ आते हैं, जहाँ उनकी मुलाकात होती है डा धर्मेश (राजेन्द्र कुमार) से. धर्मेश सीता को देख कर हैरान हो जाते हैं, वही तो उनका पहला प्यार थी. राम को जब अपनी पत्नी और डाक्टर के पुराने प्रेम सम्बन्ध का पता चलता है, वह अपनी पत्नी से कहते हैं कि तुम मेरी मृत्यु के बाद डाक्टर से विवाह कर लेना.

जैसी उस ज़माने की फ़िल्में होती थीं, उस हिसाब से यह नाटकीय और ज़बरदस्त रुलाने वाली फ़िल्म है, जिससे रो रो कर डीहाईड्रेशन का खतरा हो जाये. बचपन में जब पहली बार देखी थी तो पति पत्नी के रिश्ते में पुराने प्रेमी के आने की बात को ठीक नहीं समझ पाया था लेकिन तब भी एक कैन्सर ग्रस्त छोटी बच्ची के लिए मीना कुमारी द्वारा गाया गीत "जूही की कली मेरी लाडली" दिल को छू गया था. फ़िल्म में अन्य भी कई सुन्दर गीत थे जैसे - "याद न जाये बीते दिनों की", "रुक जा रात ठहर जा रे चन्दा", "हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे हैं".

आनन्द : अस्पतालों और बीमारियों से जुड़ी मनपसंद फ़िल्मों में मेरे दूसरे नम्बर पर है हृषिकेश मुखर्जी की 1971 की फ़िल्म आनन्द, जिसमें तब के उभरते अभिनेता राजेश खन्ना के साथ अमिताभ बच्चन नये आये थे. आँतड़ियों के कैंन्सर "लिम्फ़ोसारकोमा आफ इन्टस्टाईनस" से पीड़ित आनन्द (राजेश खन्ना) बम्बई में डा. भास्कर (अमिताभ बच्चन) के पास कुछ दिन रहने आते हैं. उसे मालूम है कि उसके जीवन के चन्द महीने ही शेष बचे हैं लेकिन जीवन से भरे आनन्द को इसकी कुछ चिन्ता नहीं लगती, बल्कि वह खुशियाँ बाँटने में मग्न लगता है. भास्कर, उसका "बाबू मोशाय", अपने आसपास की गरीबी और विषमताओं से हताश है, उसे लगता है कि उसके चिकित्सक होने का क्या फायदा जब लोग भूख से मरते हैं. आनन्द उसे प्रेम, दोस्ती और जीवन का पाठ सिखाता है.

गुलज़ार के लिखे इस फ़िल्म के डायलाग बोलने वाले आज भी मिल जाते हैं. "कहीं दूर जब दिन ढल जाये", "मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने",  "न जिया लागे न" और "ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय" जैसे गानों में आज भी मिठास लगती है.

इसी फ़िल्म से प्रेरित थी करण जौहर की 1998 की फ़िल्म कल हो न हो जिसमें अमन (शाहरुख खान) अपनी बीमारी को छुपाते हुए न्यू योर्क आते हैं और नैना (प्रीति ज़िन्टा) तथा रोहित (सैफ़ अली ख़ान) के जीवन में सुख घोलने की कोशिश करते हैं. यूँ तो यह फ़िल्म भी बुरी नहीं थी लेकिन आनन्द की तुलना में अमन के पात्र की बीमारी का चित्रण सतही और अविश्वस्नीय सा था और फ़िल्म में उसकी बीमारी वाला भाग भी सीमित था.

इस सूची में मेरी तीसरी मनपंसद फ़िल्म है 1963 की बिमल राय की फ़िल्म बन्दिनी, जिसकी नायिका कल्याणी (नूतन) जेल में खून की सजा काट रही है. स्त्री जेल में एक तपेदिक की मरीज का इलाज करने डा देवेन (धर्मेन्द्र) आते हैं और कहते हैं कि रोगी की देखभाल के लिए उन्हें एक स्वयंसेवी-कैदी की आवश्यकता है. बाकी कैदी डरती हैं केवल कल्याणी ही इस काम के लिए आगे बढ़ती है. तपेदिक का इलाज करते करते स्वयं देवेन को कल्याणी से प्यार हो जाता है.

इस फ़िल्म में अस्पताल का हिस्सा सारी फ़िल्म में नहीं था, अधिकतर प्रारम्भ के हिस्से में था लेकिन बहुत सशक्त था. धारी वाले वस्त्रों में कैदी औरतें, नूतन का अभिनय और धर्मेन्द्र का शर्मीलापन, यह सब उस समय बहुत पसन्द किये गये थे और फ़िल्म को कई फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी मिले थे. "ओ पंछी प्यारे, साँझ सखारे", "मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे", "अब के बरस भेज भईया को बाबुल", "मोरा गोरा रंग लैईले", "ओरे माँझी, मेरे साजन हैं उस पार" जैसे गीतों से सजी यह फ़िल्म आसानी से नहीं भुलाई जा सकती.

गुलज़ार की प्रारम्भ की फ़िल्मों में से 1973 की बनी अचानक ने मुझे बहुत प्रभावित किया था. थोड़े से फ्लैशबैक के दृष्य छोड़ कर बाकी की यह सारी फ़िल्म एक अस्पताल में ही केन्द्रित थी. कहानी थी मेजर रन्जीत (विनोद खन्ना) की जिन्हें गोली लगी है और जिनका इलाज हो रहा है. उनकी देखभाल करने वाली है नर्स राधा (फरीदा जलाल). रन्जीत के साथ उसकी यादें हैं, जिनमें पत्नी पुष्पा का प्यार भी है और उन्हीं के मित्र के साथ बेवफ़ाई भी. रन्जीत ने अपनी पत्नी का खून किया है और ठीक होने पर उन्हें फाँसी लगनी है.

फ़िल्म का ध्येय था कानून की दृष्टि पर और मृत्युदंड पर प्रश्न उठाना. गोली लगने पर पहले  मरीज़ की जान बचाने के लिए डाक्टर मेहनत करते हैं, लेकिन जब डाक्टर उस व्यक्ति की जान बचा लेने में सफल होते हैं तो उसे फाँसी की सजा में मार दिया जाता है. इस फ़िल्म में फ़रीदा जलाल बहुत अच्छी लगी थीं. इस फ़िल्म में गाने नहीं थे.

ख़ामोशी : असित सेन की 1969 की यह फ़िल्म प्रेम में निराशा से जुड़े मानसिक रोग की कहानी थी जिसकी नायिका थी नर्स राधा के रूप में वहीदा रहमान. प्रेम की हताशा को मानसिक रोग के रूप में पालने वाले नवयुवकों के इलाज के लिए मानसिक रोग के डाक्टर कर्नल साहब (नासिर हुसैन) एक नये इलाज की कोशिश करना चाहते हैं और राधा को देव (धर्मेन्द्र) से प्रेम का नाटक करने को कहते हैं. नाटक करते करते राधा को सचमुच देव से प्यार हो जाता है लेकिन देव ठीक हो कर, राधा को भूल कर अस्पताल से चला जाता है. फ़िर कर्नल साहब राधा से एक अन्य रोगी अरुण (राजेश खन्ना) से प्रेम का नाटक करने को कहते हैं. राधा इस काम को स्वीकार नहीं करना चाहती लेकिन कर्नल साहब को मना नहीं कर पाती. अरुण से प्रेम का नाटक करती है तो भी उसकी यादों में देव लौट आता है, और अरुण ठीक हो कर चला जायेगा और उसे भूल जायेगा, इसके डर से वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है.

वहीदा रहमान, धर्मेन्दर और राजेश खन्ना का सशक्त अभिनय और "तुम पुकार लो", "वो शाम कुछ अज़ीब थी" जैसे गाने, यह फ़िल्म भी बहुत सुन्दर थी.

1970 की असित सेन की फ़िल्म सफ़र में एक बार फ़िर से राजेश खन्ना थे मैडिकल कोलेज में पढ़ने वाले कैंन्सर के रोगी जो सबसे अपना रोग छुपाते हैं. "ज़िन्दगी का सफ़र यह है कैसा सफ़र कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं" इस फ़िल्म का गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ था.

तेरे मेरे सपने : क्रोनिन के प्रसिद्ध उपन्यास "द सिटाडेल" पर बनी नवकेतन की फ़िल्म "तेरे मेरे सपने" के निर्देशक थे विजय आनन्द. 1971 की इस फ़िल्म की कहानी थी एक आदर्शवादी डाक्टर आनन्द (देव आनन्द) की, जो कोयले की खान से जुड़े एक छोटे से शहर में काम करने आता है. वहाँ आनन्द को गाँव की मास्टरनी निशा (मुम्ताज़) से प्यार हो जाता है और दोनो विवाह कर लेते हैं. एक गलतफ़हमी की वजह से आनन्द को वह शहर छोड़ना पड़ता है और आनन्द बम्बई में जा कर पैसा कमाने की सोचता है. बम्बई में प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेत्री माल्तीमाला (हेमा मालिनी) से आनन्द के सम्बन्ध बनते है.

पैसे और नाम की चाह में ऊपर उठता आनन्द, छोटे शहर और प्रारम्भिक जीवन के आदर्शों को भूल जाता है. उसे होश आता है जब गर्भवती निशा उसे छोड़ कर चली जाती है. सचिन देव बर्मन के संगीत में बने इस फ़िल्म के कुछ गीत जैसे "जीवन की बगिया महकेगी", "मेरा अंतर इक मन्दिर है तेरा" और "जैसे राधा ने माला जपी श्याम की" मुझे बहुत पसन्द आये थे.

अनुराधा : 1960 की ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फ़िल्म "अनुराधा" की कहानी बहुत सीधी साधी थी. आदर्शवादी डा. निर्मल (बलराज साहनी) गाँव में रह कर लोगों की सेवा करते हैं. छोटा सा संसार है उनका, पत्नि अनुराधा और बेटी रानू. काम में व्यस्त निर्मल, अपनी पत्नी का अकेलापन और त्याग नहीं देख पाते जो प्रसिद्ध गायिका हो कर भी, गाँव में दिन भर घर में रह कर संगीत के दूर चली गयी है. पैसा कमाने में व्यस्त पति हो या शराबी पति हो, कम से कम अकेली पड़ी पत्नी को लोगों की सुहानूभूति तो मिल सकती है लेकिन अगर पति जग भलाई में व्यस्त हो और उसके पास पत्नि और घर के लिए समय न हो तो उसमें पत्नी के अकेलापन सुहानूभूति कठिनाई से मिलती है.

इस फ़िल्म में संगीत दिया था प्रसिद्ध सितारवादक रवि शंकर ने. उनके बनाये गीत जैसे "हाय रे वह दिन क्यों न आयें", "कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियाँ", और "जाने कैसे सपनों में खो गयी अँखियाँ" जैसे गाने आज भी उतने ही ताज़े लगते हैं.

दिल अपना और प्रीत परायी : किशोर साहू द्वारा निर्देशित 1960 की इस फ़िल्म में डाक्टर सुशील (राजकुमार) और उनकी नर्स करुणा (मीना कुमारी) का प्यार दिखाया गया था. पुराने अहसान का बदला चुकाने के लिए सुशील को कुसुम (नादिरा) से विवाह करना पड़ता है.

शंकर जयकिशन के मधुर संगीत से इस फ़िल्म में कई उम्दा गीत थे जैसे कि "मेरा दिल अब तेरा ओ साजना", "अज़ीब दास्ताँ है यह", "दिल अपना और प्रीत परायी". इसी फ़िल्म से प्रेरित थी हनी ईरानी द्वारा निर्देशित 2003 की फ़िल्म अरमान जिसने डाक्टर आकाश (अनिल कपूर) और डाक्टर नेहा (ग्रेसी सिंह) के प्यार के बीच में अमीर बाप की बेटी सोनिया कपूर (प्रीति ज़िन्टा) आ जाती है.

मौसम : गुलज़ार द्वारा 1975 में निर्देशित इस फ़िल्म की कहानी भी क्रोनिन के एक उपन्यास "द जूडास ट्री" पर आधारित थी. इस फ़िल्म में वैसे तो बीमारी का बड़ा हिस्सा नहीं था लेकिन कहानी के नाटकीय मोड़ बनाने में इसमें एक वैद्य जी का बड़ा हिस्सा था जिनकी बेटी चन्दा (शर्मीला टैगोर) से शहर से आये डाक्टर अमरनाथ (संजीव कुमार) को प्यार हो जाता है.

इस फ़िल्म की बात से यह भी मेरे ध्यान में आता है कि भारत में बहुत से लोग देसी या आयुर्वेदिक दवा में विश्वास रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर सबसे पहले वैद्य के पास ही जाते हैं लेकिन हमारी फ़िल्मों को वैद्य के ज्ञान को पश्चिमी ज्ञान से पढ़े डाक्टरों से नीचा माना जाता है और मेरे विचार में कभी कोई ऐसी फ़िल्म नहीं बनी जिसमें वैद्य का प्रमुख भाग हो या उसे हीरो दिखाया गया हो या उनके ज्ञान को सही गौरव से प्रस्तुत किया गया हो.

ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म खूबसूरत में अशोक कुमार को होम्योपैथी का इलाज करने वाला दिखाया गया था, जोकि वह अपने असली जीवन में भी थे. हाल में ही एक पाकिस्तानी फ़िल्म बोल में पिता के रूप में वैद्य का भाग था जिनका काम शहर में पश्चिमी पढ़ायी किये डाक्टरों के आने से ढप्प सा हो जाता है. पिछले दो दशकों में भूमण्डलिकरण से इस तरह की सोच को और भी ज़ोर मिला है और हिन्दी में गाँवों के विषयों पर बनने वाली फ़िल्में और भी कम हो गयीं हैं, इस तरह वैद्यों के काम पर आधारित कहानी पर फ़िल्म बने यह और भी कठिन होगा.

1975 की ही गुलज़ार की एक अन्य फ़िल्म थी खुशबू जो शरतचन्दर के उपन्यास पर बनी थी और जिसमें जितेन्द्र ने गाँव के डाक्टर बृन्दावन का भाग निभाया था, हालाँकि फ़िल्म में बीमारियों या अस्पालों की बात कम ही थी. इसमें शर्मीला टैगोर का एक छोटा सा हिस्सा था जिसमें उनका नाम था लक्खी लेकिन उनका पात्र मौसम की चन्दा से प्रेरित था.

मिली : 1975 की ऋषीकेश मुखर्जी की इस फ़िल्म में जया भादुड़ी को हीमोफिलिया नाम की रक्त की बीमारी थी. उनके पड़ोसी शेखर के रूप में अपने परिवार के स्कैंडल को शराब में डुबा कर भुलाने की कोशिश करने वाले अमिताभ बच्चन को मिली से प्यार हो जाता है लेकिन जब उसे मिली की बीमारी के बारे में मालूम चलता है तो उसे लगता है कि वह इस तरह के दुख का सामना नहीं कर सकता.

ऊपर जितनी फ़िल्मों की बात की गयी है वे सब साठ और सत्तर के दशक में बनी. इसके बाद, अस्सी और नब्बे के दशकों में बनी फ़िल्मों के बारे में, मुझे सोच कर भी याद नहीं आया कि अस्पताल या डाक्टरी विषय पर कौन सी फ़िल्में बनी थीं. केवल पिछले दशक की इस विषय पर बनी कुछ फ़िल्में याद आती हैं, जिनमें से प्रमुख हैं:

दिल ने जिसे अपना कहा : 2004 की इस फ़िल्म के निर्देशक थे अतुल अग्निहोत्री और फ़िल्म की कहानी थी ऋषभ (सलमान खान) और परिणीता (प्रीति ज़िन्टा) की. परिणीता बच्चों की डाक्टर है, बच्चों का अस्पताल बनाना चाहती है, गर्भवती भी है जब दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो जाती है. उसका दिल मिलता है धनि (भूमिका चावला) को जो ऋषभ के बच्चों के अस्पताल बनाने के काम में उसके साथ जुड़ती है.

मुन्ना भाई एमबीबीएस : राजकुमार हिरानी की 2003 की इस फ़िल्म ने भी अस्पतालों, डाक्टरों और डाक्टरी पढ़ने वाले छात्रों की बातें हँसी मज़ाक के साथ साथ बड़ी गम्भीरता से दिखायीं थीं. डाक्टरों, नर्सों के साथ साथ, अस्पताल में और भी कितने लोग काम करते हैं जिनकी बात कभी किसी फ़िल्म में नहीं देखी थी, जैसे कि अस्पताल में सफ़ाई करने वाले. पहली बार मुन्ना भाई में उन्हें भी इन्सान के रूप में दिखाया गया था.

इसके अतिरिक्त 2003 की ही एक मराठी फ़िल्म श्वास जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया था. इसके निर्देशक थे संदीप सावंत और इसकी कहानी थी एक बच्चे की जिसकी आँख में ट्यूमर है और जिसका ईलाज कराने उसके दादा जी उसे बम्बई ले कर आये हैं. यह फ़िल्म मुझे बहुत बहुत अच्छी लगी थी और इस मैंने पहले भी लिखा था.

क्यों कि : 2005 में प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में मानिसक रोगी (सलमान खान) और उसका इलाज करनी वाली डाक्टर (करीना कपूर) की कहानी थी. यह फ़िल्म चीखने चिल्लाने वाली अतिनाटकीयता से भरी थी.

इसके अतिरिक्त, 2009 की फ़िल्म पा जिसमें अमिताभ बच्चन ने प्रोजेरिया नाम की बीमारी से पीड़ित बच्चे का भाग निभाया था, इस दशक की अच्छी फ़िल्मों में से गिनी जा सकती है. अच्छी कहानी, विश्वस्नीय मुख्य पात्र, फ़िल्म भावपूर्ण थीं.

अंत में 2010 की करण जौहर की फ़िल्म वी आर फ़ेमिली में काजोल और करीना कपूर जैसी अभिनेत्रियों के साथ भी कैन्सर से पीड़ित माँ का अपने बच्चों के लिए नयी माँ खोज करने का विषय था. पर इस फ़िल्म में मुझे सब कुछ नकली सा लगा था. सुन्दर कपड़े, बढ़िया लोकेशन थीं फ़िल्म में लेकिन कहानी और पात्र बहुत सतही थे.

मुझे लगता है कि जिस तरह की भावनात्मक फ़िल्में तीस-चालिस साल पहले बनती थीं वह फ़िर उसके बाद नहीं बनी. अस्सी के दशक के बाद फ़िल्मों में तकनीकी सुधार हुआ, फ़िल्में रंगीन हो गयीं, लेकिन जिस तरह की भावनाएँ उनमें होती थीं वह "मुन्ना भाई" और "पा" जैसे अपवादों को छोड़ कर, बाद में बहुत सतही हो गयी. तीस-चालिस पहले कोई फ़िल्म करोड़ों के धँधे की बात नहीं कर सकती थी, न ही उस समय मल्टीप्लेक्स थे, पर उस समय उनमें जो भावनाओं की गहरायी थी उसे पुराना कह कर भूल जाने में शायद हमारा ही नुक्सान है.

अगर मेरी इस सूची में इस विषय पर बनी कोई अन्य अच्छी हिन्दी फ़िल्म छूट गयी है तो उसके बारे में मुझे बताईये. आप का क्या विचार है, क्या आज भावनात्मक फ़िल्में बने तो चलेंगी? डाक्टरी और चिकित्सा विषयों पर बनी फ़िल्मों में आप की सबसे पसन्दीदा फ़िल्म कौन सी होगी?

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रविवार, नवंबर 13, 2011

फोटो डायरीः लंदन में एक दिन


पिछले पच्चीस सालों में हर वर्ष, किसी न किसी मीटिंग आदि के लिए दो तीन बार लंदन जाना हो ही जाता था. शहर में कई बार घूम चुका था लेकिन शहर कैसा बना है इसकी जानकारी बहुत कम थी, क्योंकि हर जगह मैट्रो से ही जाता. लंदन में मैट्रो की दस-पंद्रह लाईनों का जाल बिछा है, कहीं भी जाना हो, उसके करीब में कोई न कोई मैट्रो स्टेशन मिल ही जाता है इसलिए मुझे सुविधाजनक लगता था कि दिन भर का टिकट खरीदो और जहाँ मन हो वहाँ घूमो. लंदन मैट्रो मँहगा है, इसलिए भी दिन भर का टिकट खरीदना बेहतर लगता था.

पर दिक्कत यह थी कि मैट्रो के सारे रास्ते अधिकतर धरातल से निचले स्तर पर अँधेरी सुरंगों में गुज़रते हैं. इसकी वजह से बहुत से मैट्रो स्टेशनों के आसपास की जगहें मेरी पहचानी हुई थीं लेकिन लंदन शहर के रास्ते कैसे हैं, इसकी जानकारी कम थी. केवल पिछले दो तीन सालों में ही मैंने शहर की सड़कों को कुछ जानने की कोशिश शुरु की थी.

पिछले सप्ताह एक दिन के लिए लंदन जाना था, तो सोचा कि क्यों न इस बार रेलवे स्टेशन से मीटिंग स्थल का रास्ता पैदल ही चलने की कोशिश करूँ. गूगल मैप पर देख कर रास्ता बनाया (नीचे नक्शे में लाल रंग का निशान), तो लगा कि पैदल जाने में एक घँटे से कम समय लगना चाहिये. उसी नक्शे को छाप कर साथ रख लिया.

Central London - S. Deepak, 2011


सुबह 6.30 की उड़ान थी. लंदन के गेटविक हवाई अड्डा पहुँचा. वहाँ पहुँच कर तुरंत रेलगाड़ी से लंदन शहर के विक्टोरिया स्टेशन पहुँचा, तब समय था सुबह के आठ बज कर चालिस मिनट. बाहर विक्टोरिया स्ट्रीट खोजने में दिक्कत नहीं हुई. चलना शुरु किया ही था कि दृष्टि दायीं ओर के एक सुन्दर गिरजाघर पर पड़ी. पूर्वी बाइज़ेन्टाईन शैली से प्रभावित गुम्बजों वाले गिरजाघर का नाम है "अति पवित्र रक्त कैथेड्रल". उस समय हल्की हल्की बूँदा बाँदी हो रही थी लेकिन इतनी भी नहीं कि छतरी खोली जाये.

Central London - S. Deepak, 2011


सड़क की दूसरी ओर एक विशाल शीशे का भवन है जिसमें दुकाने और दफ़्तर हैं, उस समय वह बन्द ही दिख रहा था. आगे बढ़ा तो एक अन्य सुन्दर गिरजाघर दिखने लगा. पीछे से थेम्स नदी के किनारे बना "लंदन आई" यानि "लंदन की आँख" नाम का विशालकाय गोल झूला दिख रहा था. "अरे यह तो वेस्टमिनस्टर गिरजाघर है", मैंने आश्चर्य से सोचा. पहले वेस्टमिनस्टर कई बार देखा था पर तब यह समझ नहीं पाया था कि वह विक्टोरिया स्टेशन के इतने करीब है.

Central London - S. Deepak, 2011


पार्लियामैंट स्क्वायर पहुँचा तो आसपास बहुत सी मूर्तियाँ दिखीं लेकिन सड़क पर बसों, कारों का इतना यातायात था कि सबकी तस्वीरें लेना संभव नहीं था. सड़क के किनारे पर बनी अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की तस्वीर खींची और पार्लियामैंट स्ट्रीट पर मुड़ा.

Central London - S. Deepak, 2011


सड़क पर बहुत से लोग से मेरी तरह ही पैदल चलते हुए, या फ़िर शायद काम में देरी के डर से कुछ कुछ भागते हुए दिख रहे थे. वहीं सड़क के बीच में काले पत्थर का बना कुछ अलग सा स्मारक दिखा, जिसमें स्त्रियों के कोट और पर्स आदि टँगे बनाये गये थे. यह द्वितीय विश्वयुद्ध में स्त्रियों के योगदान का स्मारक है.

Central London - S. Deepak, 2011


कुछ और आगे बढ़ा तो सामने से धुँध के बीच में आसमान की पृष्ठभूमि पर एक जानी पहचानी मूर्ति दिखी, ट्रफाल्गर स्क्वायर पर नेलसन के खम्बे पर बनी जनरल नेलसन की मूर्ति जिनका नाव जैसा टोप दूर से ही पहचाना जाता है.

Central London - S. Deepak, 2011


घड़ी देखी, स्टेशन से चले करीब आधा घँटा हुआ था. सोचा कि अब आस पास देखने और फोटो खींचने का समय नहीं था. कम से कम आधे घँटे का रास्ता अभी बाकी था और मीटिंग में मेरा प्रेसेन्टेशन शुरु में ही था. इसलिए कैमरे को बैग में बन्द किया और तेज़ी से चैरिंग क्रास रोड की ओर कदम बढ़ाये. यूस्टन के पास लंदन स्कूल ओफ़ हाईजीन पहुँचना था, उसमें आधा घँटा लगा, और पूरे रास्ते में  बस एक बार ही किसी से दिशा पूछने की आवश्यकता पड़ी.

दोपहर को तीन बजे काम समाप्त करके मैंने मित्रों से विदा ली और वापस जाने के लिए निकला. मेरा विचार था कि पाँच बजे तक वापस विक्टोरिया स्टेशन पहुँचना चाहिये जिससे शाम के 6 बजे तक गैटविक हवाईअड्डा पहुँच जाऊँ क्योंकि वापस जाने की उड़ान 7.30 की थी. लगा कि बहुत समय है और आराम से इधर उधर देखता घूमता हुआ वापस पहुँच जाऊँगा.

टोटनहैम कोर्ट रोड से लेस्टर रोड के बीच बहुत से थियेटर हैं जहाँ नाटक, नृत्यकार्यक्रम, म्यूजि़कल आदि होते हैं. सबसे पहले दिखी एक थियेटर के बाहर "क्वीन" के प्रसिद्ध गायक फ्रेड्डी मर्करी की मूर्ति जहाँ "वी विल रोक इट" नाम का म्यूज़िकल दिखाया जा रहा था. फ्रैडी मर्करी यानि भारत में जन्मे फारुख बलसारा अपने संगीत के लिए सारी दुनिया में प्रसिद्ध हैं.

Central London - S. Deepak, 2011


फ़िर लगा कि समय है तो बजाय मुख्य सड़क पर चलने के क्यों न साथ की छोटी सड़कों और गलियों में चला जाये? यह सोच कर सैंट मार्टन स्ट्रीट पर मुड़ा तो वहाँ वह थियेटर दिखा जहाँ पिछले 59 सालों से, यानि मेरे पैदा होने से भी पहले से, अगाथा क्रिस्टी के उपन्यास माउस ट्रेप (चूहेदानी) पर आधारित नाटक को निरन्तर किया जाता है. तीस चालिस साल पहले भारत में सुना था इस बारे में, देख कर कुछ अचरज हुआ. सोचा कि यह भी एक तरह का स्मारक सा बन गया है जहाँ पर्यटक लोग बस सिर्फ़ इसीलिए आते होंगे कि चलो इसे भी देख लो, कहने को हो जायेगा कि लंदन गये तो इसे भी देखा.

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फ़िर मुझे आकर्षित किया दुकानो़ पर क्रिसमस की तैयारी में लगायी गई रंग बिरंगी रोशनियों ने. सोचा कि क्यों न उस और जा कर भी देखा जाये?

Central London - S. Deepak, 2011


रंगबिरंगी रोशनियों और दुकानों को देखते देखते मैं कोवेन्ट गार्डन पहुँच गया, जहाँ बाज़ार की छत पर लाल, चाँदी और सुनहरे रंग के बड़े बड़े गेंद से गोले लटक रहे थे. एक ओर रेस्टोरेंट थे, संगीतकार थे, तो दूसरी ओर दुकानें और भीड़ भाड़.

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कुछ देर तक वहीं दुकानों में घूमा, फ़िर बाहर निकला तो क्रिसमस के लिए बने हरे रंग के भीमकाय रैंनडियर ने ध्यान आकर्षित किया.

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फ़िर लगा कि अब देर हो रही है, वापस चलना चाहिये. तेज़ी से कदम बढ़ाये वापस चैरिंग क्रास जाने के लिए. आधा घँटा चल कर लगा कि कुछ गड़बड़ है. कोई जानी पहचानी सड़क नहीं दिख रही थी. वहाँ बैठी युवती की सुन्दर मूर्ति दिखी.

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रुक कर कुछ लड़कों से पूछा तो वह मेरी ओर हैरानी से देखने लगे, बोले कि यह तो अल्डविच है, चेरिंग क्रास तो बिल्कुल दूसरी ओर है और मुझे वापस जाना चाहिये. तब समझ में आया कि गलियों में घूमते हुए मेरी दिशा गलत हो गयी थी और मैं अपने रास्ते से बहुत दूर आ गया था. एक क्षण के लिए मन में आया कि इतनी झँझट करने से क्या फ़ायदा, वहीं से मैट्रो ले कर वापस विक्टोरिया जा सकता हूँ. लेकिन यह भी लगा कि वह मेरी हार होगी. हार न मानने की सोच कर, जिस रास्ते से आया थे, उसी पर वापस गया और जहाँ से सड़क छोड़ी थी, वहीं वापस पहुँचा.

चलना तो बहुत पड़ा लेकिन अंत में मुझे मेरी खोयी सड़क मिल गयी. अंत में जब ट्रैफ़ाल्गर स्क्वायर पहुँचा तो सोचा कि कुछ सुस्ता लिया जाये. चलते चलते टाँगे दुखने लगी थीं. उस समय दोपहर के 4.30 ही बजे थे लेकिन अँधेरा होने लगा था और बत्तियाँ जल चुकीं थीं. ट्रैफ़ाल्गर स्क्वायर में बड़ी घड़ी लगी दिखी जिस पर अगले वर्ष के ओलिम्पिक खेलों के प्रारम्भ होने में कितना समय बाकी है इसे दिखाया गया है.

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कुछ देर सुस्ता कर पार्लियामैंट स्ट्रीट की ओर बढ़ा तो एक सड़क के कोने पर नाम देख कर ठिठक गया, "डाउनिंग स्ट्रीट", यानि जहाँ ब्रिटिश प्रधान मंत्री का घर है. टेलीविज़न पर बहुत बार देखा था पर टीवी पर यह नहीं पता चलता कि उस सड़क पर सब लोग नहीं जा सकते क्योंकि सड़क के किनारे ग्रिल लगी है जिसके पीछे पुलिस वाले चेक करते हें कि कौन अन्दर जा सकता है, जैसा कि दिल्ली में रेसकोर्स रोड पर होता हैं जहाँ पहले इन्दिरा गाँधी रहती थी और अब सोनिया गाँधी रहती है.

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वेस्टमिन्सटर पहुँचा तो पुल की ओर जा कर नीली रोशनी में चमकते गोल झूले की तस्वीर लेने के लालच से खुद को नहीं रोक पाया.

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पुल के किनारे पर बनी बिग बैन की घड़ी और ब्रिटिश संसद का भवन रोशनी में चमक रहे थे.

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संसद भवन के साथ ही वैस्टमिन्स्टर के गिरजाघर में 11 नवम्बर के प्रथम विश्व युद्ध में मरने वाले सिपाहियों के स्मृति दिवस की तैयारी में पौपी यानि पोस्त के फ़ूलों से सजे क्रौस क्यारियों में लगाये गये थे, जैसा छोटा सा कब्रिस्तान बना हो.

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अंत में विक्टोरिया स्टेशन पहुँचा तो सामने शीशे का विशाल भवन रोशनी में जगमगा रहा था. उसके भीतर दफ़्तरों में काम करने वाले लोग किसी नाटक में काम करने वाले अभिनेता लग रहे जो सड़क पर जाने वाले लोगों को रियाल्टी शो दिखा रहे हों.

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आखिरकार ठीक समय पर विक्टोरिया स्टेशन पहुँच ही गया था. पैर दर्द कर रहे थे लेकिन मन में अपने पर गर्व हो रहा था कि लंदन की सारी यात्रा पैदल ही की और इस तरह से अपने जाने पहचाने शहर की बहुत सी नयी जगहों को देखने का मौका भी मिला.

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