शनिवार, जनवरी 11, 2014

आप की कौन सी बीमारी? जनस्वास्थ्य और बाज़ार

मेरे विचार में आधुनिक समाज में विज्ञान व तकनीकी के बेलगाम बाज़ारीकरण से हमारे जीवन पर अनेक दिशाओं से गलत असर पड़ा है. जब इस तरह के विषयों पर बहस होती है तो मेरे कुछ मित्र कहते हैं कि मैं व्यर्थ की आदर्शवादिता के चक्कर में जीवन की सच्चाईयों का सामना नहीं करना चाहता. पर मैं सोचता हूँ कि मेरी सोच अत्याधिक आदर्शवादिता की नहीं है बल्कि मानव जीवन के संतुलित भविष्य की है.

Developing Delhi - images by Sunil Deepak, 2012

मैं यह मानता हूँ कि बाज़ार मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं, लेकिन यह नहीं मानता कि बाज़ार का अर्थ केवल बड़े कोर्पोरेशन और बहुदेशीय कम्पनियों का अधिपत्य है. मैं यह भी सोचता हूँ कि अगर हम विकास को केवल जी.डी.पी. (Gross domestic product) से तोलेंगे तो इसमें हम जीवन के कुछ अमूल्य हिस्सों को खो बैठेंगे. सुश्री वन्दना शिव ने कुछ समय पहले अँग्रेज़ी समाचार पत्र "द गार्जियन" में अपने एक आलेख में लिखा था कि  आज के अर्थशास्त्री, व्यापारी तथा राजनीतिज्ञ केवल सीमाहीन विकास की कल्पना करते हैं . इसकी वजह से किसी भी देश के विकास का सबसे महत्वपूर्ण मापदँड जी.डी.पी. बन गया है, लेकिन यह विकास का मापदँड क्या मापता है, यह समझना आवश्यक है. इसके बारे में वह कहती हैं -
"एक जीवित जँगल से जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, वह बढ़ता है जब पेड़ काटे जाते हैं और लकड़ी बना कर बेचे जाते हैं. समाज स्वस्थ्य हो तो जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, वह बढ़ता है बीमारी से और दवाओं की बिक्री से. अगर जल को सामूहिक धन माना जाये, सब उसकी रक्षा करें और अपने उपयोग के लिए बाँटें तो जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, लेकिन अगर कोका कोला की फैक्टरी लगायी जाये, पानी को प्लास्टिक बोतलों में भर कर बेचा जाये तो विकास होता है. इस विकास में प्रकृति को और स्थानीय समुदायों को नुकसान हो, तो उसे इस मापदँड में अनदेखा कर दिया जाता है."
सोचिये क्या फायदा है कि विकास को केवल इस आँकणे से मापा जाये और देश की निति के निर्णय इसी सोच से लिये जायें?

स्वास्थ्य क्षेत्र में बाज़ारीकरण

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के बाज़ारीकरण के परिणामों पर मैं पहले भी लिख चुका हूँ, लेकिन इस बारे में नयी सूचनाएँ मिलती रहती हैं तो आश्चर्य भी होता है और उदासी भी.  जब भी भारत लौटता हूँ तो नये पाँच सितारा अस्पतालों के गुणगान सुनने को मिलते हैं कि देखिये कितने बढ़िया अस्पताल हैं हमारे और तकनीकी दृष्टि से अब भारत ने कितनी तरक्की कर ली है! दूसरी ओर वहाँ इलाज करवाने वाले मित्र व परिवारजन जब अपने मेडिकल के कागज़ पत्र दिखा कर सलाह माँगते हैं तो कई बार बहुत हैरानी होती है कि कितने बेज़रूरत टेस्ट कराये जाते हैं, बेतुकी दवाएँ दी जाती हैं और अनावश्यक आपरेशन किये जाते हैं. स्टीरायड जैसी दवाएँ जिनसे तबियत बेहतर लगती है लेकिन शरीर के अन्दर लम्बा असर बुरा होता है, कितनी आसानी और लापरवाही से दे दी जाती हैं.

एक मित्र ने बताया कि उसकी बेटी को कुछ दिनों से बुखार था और उसका प्रिस्कृपशन दिखाया, जिसे पढ़ कर मैं दंग रह गया कि डाक्टर ने मलेरिया व टाइफाइड की दवा के साथ एक अन्य एन्टीबायटिक भी जोड़ दिया था, यानि हमें मालूम नहीं कि मरीज को क्या बीमारी है तो उसे एक साथ हर तरह की दवा दे दो!

एक डाक्टर मित्र जो पाँच सितारा अस्पताल में काम करते थे, उसने बताया कि उनके यहाँ हर एक को महीने का कोटा पूरा करना होता है, कितने लेबोरेटरी टेस्ट, कितने स्केन, कितने अल्ट्रासाउँड, तो कुछ अनावश्यक टेस्ट करवाने ही पड़ते हैं. पर वह यह भी बोले कि बात केवल कोटे की नहीं, अगर बहुत से टेस्ट व दवाएँ न हों तो लोग मानते नहीं कि डाक्टर अच्छे हैं.

एक ओर जहाँ स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण है, दूसरी ओर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की कठिनाईयाँ हैं. विश्व स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण की दृष्टि से भारत दुनिया के अग्रिम देशों में से है, जहाँ राष्ट्रीय बजट का बहुत छोटा सा हिस्सा सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं मे जाता है. दूसरी ओर विभिन्न सामूदायिक शोधों नें दिखाया है कि भारत में स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चा गरीब परिवारों के  लिए कर्ज़ा लेने का प्रमुख कारण है.

स्वास्थ्य क्षेत्र में "अच्छा इलाज और बीमारियों से बचिये" के नाम पर दवा, वेक्सीन तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी उपकरण बेचने वाली कम्पनियों ने अपने अभियान चलाये हैं, जिनका जन स्वास्थ्य पर असर महत्वपूर्ण नहीं होता, लेकिन देशों के स्वास्थ्य बजट के पैसे इन अभियानों की ओर जाते हैं बजाय उन समस्याओं की ओर जिनसे सचमुच खतरा है. इस तरह के अभियानो को प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिकाओं में छपे शोध परिणामों को दिखा कर आवश्यक कहा जाता है. हाल में ही अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिका "ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में डा. स्पेन्स ने लिखा कि (BMJ, 3 January 2014):
"हमें कहा जाता है कि आप ऐसा या वैसा इलाज कीजिये क्योंकि यह शोध ने साबित किया है लेकिन इस बात को अनदेखा कर देते हैं कि अधिकतर शोध कार्य, दवा बनाने वाली कम्पनियों के पैसे से किया जाता है, निष्पक्ष शोध नहीं होता. हर बात के लिए नयी बीमारियों और नयी दवाओं को बनाया जा रहा है. दवा की कम्पनियाँ चाहती है कि हम सब लोग अपने आप को किसी न किसी बीमारी का मरीज़ माने और रोज़ कुछ न कुछ दवा खायें. अगर बीमारी न हो तो उसे रोकने या उसका जल्दी इलाज़ करने के नाम पर खायें. आप इस बीमारी से बचने के समय समय पर यह टेस्ट कराइये, वह टेस्ट कराइये, के बहाने से पैसा खर्च करवाया जाता है. शोध तथा डाक्टरों की ट्रेनिन्ग के नाम पर अपनी बिक्री व प्रभाव बढ़ाने के लिए दवा कम्पनियाँ हर साल करोड़ों डालर लगाती हैं."
पिछले वर्ष कई अन्तर्राष्टीय विज्ञान पत्रिकाओं ने भी इस मुद्दे को उठाया था कि दवा कम्पनियाँ शोध तो कराती हैं लेकिन अगर शोध के परिणाम उनकी कम्पनी की दवा का अच्छा असर नहीं दिखाते तो उनकी रिपोर्ट को दबा दिया जाता है. उनका अनुमान है कि इस तरह से दवाओं पर होने वाले 60 प्रतिशत से अधिक शोध के परिणामों को दबा दिया जाता है. दूसरी ओर दवा कम्पनियाँ प्रसिद्ध डाक्टरों को पैसा देती है ताकि उनके नाम से अपनी दवाओं के अनुकूल असर दिखाने वाले शोध को छपवायें. इससे स्पष्ट है कि केवल यह कहने से कि "इस या उस शोध में यह प्रमाणित किया गया है" के बूते पर महत्वपूर्ण निणर्य नहीं लिये जा सकते.

जीवन के बाज़ारीकरण का स्वास्थ्य पर प्रभाव

स्वास्थ्य का सम्बन्ध केवल दवा या अस्पतालों से नहीं बल्कि सारे जीवन से है. पिछले बीस सालों में इंटरनेट या तकनीकी विकास से जीवन इतनी तेज़ी से बदले हैं जैसे शायद पूरे मानव इतिहास में नहीं हुआ था. दूसरी ओर जीवन के हर पहलू पर बहुदेशीय कम्नियों और बड़े कोर्परेशनो ने दुनिया में अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है. विज्ञापन तथा संचार के सभी माध्यमों पर कब्ज़ा करके जीवन के बाज़ारीकरण का अर्थ है कि सागर, जँगल, पर्वत, खाने, हर स्तर पर प्रकृति पर बेलगाम हमला बोला गया है जिसका असर स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है. एन्टीबायटिक और हारमोन खिला कर पाले गये चिकन या मटन में, चारे में होरमोन पानी वाली गायों के दूध से, कीटनाशकों से उपजी फसलों से, इन सबका शरीर पर क्या प्रभाव होगा यह धीरे धीरे सामने आ रहा है. विकास के नाम पर विकसित देशों से इन "नयी तकनीकों" का आयात करके क्या सचमुच देश आधुनिक हो रहा है?

Developing Delhi - images by Sunil Deepak, 2012

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भारत में जर्मन डाय्टश बैंक के भूतपूर्व अध्यक्ष पवन सुखदेव ने हाल में जर्मन पत्रिका डी ज़ाइट (Die Zeit) में छपे एक साक्षात्कार में कहा कि "नये तकनीकी उत्पादनों के साथ कठिनाई यह है कि उनको बेचते समय उनकी कीमत में यह नहीं गिना जाता कि उनको बनाने में प्रकृति का कितना विनाश हुआ, कितना प्रदूषण हुआ, और जब उन्हें फ़ैकने का समय आयेगा उससे प्रकृति पर क्या असर पड़ेगा. उपर से नयी तकनीकी उपकरण बनाये ही इस तरह जाते हैं कि थोड़े समय में बेकार हो जाये. दो महीने बाद उससे बढ़िया उपकरण बाज़ार में आयेगा, ताकि आप पुरानी चीज़ फ़ैंक कर नयी खरीदें. चाहे वह पुरानी वस्तु बिल्कुल ठीक काम कर रही हो, फ़िर भी उसे फैंक दिया जाता है." सुखदेव कहते हैं कि यह प्रकृति की सम्पदा का दुर्रोपयोग है और इस तरह की बिक्री पर टिका पूँजीवाद गलत है.

इससे एक ओर अमीरों तथा गरीबों में अन्तर बढ़ता जा रहा है, तनाव बढ़ने से मानसिक रोग बढ़ रहे हैं, साथ ही, वातावरण और प्रकृति पर इसके असर से नयी बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं. बाज़ार का स्वास्थ्य पर क्या असर होता है, इसका एक अन्य उदाहरण है दुनिया में मधुमेह यानि डायबीटीज़ की बीमारी के बढ़ते मरीज़.

पिछले पचास सालों में दुनिया के हर देश में मधुमेह की बीमारी कई गुणा बढ़ी है. इस बढ़ोतरी में भारत दुनिया में सबसे आगे निकल गया है - दुनिया में मधुमेह की बीमारी के मरीज़ों की कुल संख्या में भारत सबसे पहले स्थान पर है. मधुमेह की बीमारी , मूलतः दो तरह की होती है और दोनो तरह की मधुमेह के बढ़ने के कारणों में लोगों में खाने की आदतों का बदलना, अधिक माँस और अधिक केलोरी वाला खाना, मोटापा व खाने में सफ़ेद चीनी की बढ़ोतरी है.

सफ़ेद चीनी को कुछ खाद्य वैज्ञानिकों ने बहुत हानिकारक माना है. वह कहते हैं कि चीनी तीन तरह के अणुओं की होती है - डेक्सट्रोज़, फ्रक्टोज़ और ग्लूकोज़. डेक्श्ट्रोज़ और ग्लूकोज़ एक जैसे होते हैं, जबकि आम उपयोग की जानी वाली चीनी डेक्ट्रोज़ व फ्रक्ट्रोज़ का मिश्रण होती है. खाने की चीज़ों में व मीठे पेय बोतलों में कोर्न सिरप होता है जिसमें फ्रक्टोज़ होता है और जो शरीर को नुक्सान पहुँचाता है. इससे शरीर में यूरिक एसिड बढ़ता है, मोटापा आता है, कैन्सर का खतरा बढ़ता है. 2009 में अमरीका के डा. रोबर्ट लस्टिग ने यूट्यूब (Sugar the bitter truth ) पर अपने भाषण में फ्रक्टोज़ के शरीर पर गलत प्रभावों के बारे में बताया, यह वीडियो बहुत प्रसिद्ध हुआ इसे लाखों लोगों ने देखा. इस वीडियो में डा लस्टिग चीनी की तुलना ज़हर से करते हैं. हालाँकि बहुत से लोगों ने बाद में माना कि डा. लस्टिग चीनी को जितने दोष देते हैं वे वैज्ञानिक शोध पर आधारित नहीं हैं लेकिन फ़िर भी अधिक खाना, गलत खाना, कोला या नीम्बू के स्वाद वाली सोडा वाली मीठी ड्रिंक अधिक पीना, खाने में चीनी के उपयोग का बढ़ना, इन सब का सम्बन्ध है मधुमेह के बढ़ने से. लेकिन इन सबको बेचने वाली कम्पनियाँ विज्ञापनो पर करोड़ों रुपये खर्च करती हैं, विषेशकर नवयुवकों व बच्चों में बिक्री बढ़ाने के लिए और उन पर किसी तरह से काबू पाना कठिन है.

दूसरी ओर हमारी परानी खाद्य सोच जिसमें शहद, गुड़, काँजी, शिकँजबी, जलजीरा जैसी चीज़ों का उपयोग होता था, उन्हें पुराना सोच कर हीन माना जाता है.

बाज़ार पर स्वास्थ्य के प्रभाव का एक अन्य उदाहरण है जेनेटिकली मोडीफाईड आरगेनिसम (GMO) की बायोटेक तकनीकी से बने बीज व फसलें जिनके बारे में कहते हैं कि उनमें कीटनाशक पदार्थों की आवश्यकता कम होती है और फसलें भी बढ़िया होती हैं. जो इनके विरुद्ध कुछ कहे तो कहते हैं कि वे व्यक्ति तरक्की और विकास के विरुद्ध है. लेकिन इन बदले हुए गुणत्व वाली फसलों के लम्बे समय में मानव शरीर पर क्या प्रभाव पड़ते हैं उसके बारे में जानकारी बहुत कम है या बिल्कुल नहीं है.

कुछ वर्ष पहले इस विषय पर बात करते हुए डा. वन्दना शिव ने कहा था कि "यह भविष्य के लिए महत्वपूर्ण विषय हैं, इनसे मानव विकास की आशाएँ हैं, इसलिए यह नहीं कहती कि इस पर शोध नहीं होना चाहिये. लेकिन बिना उनका मानव जीवन पर असर ठीक से समझे, इन फसलों को खुला उगाने का अर्थ है कि इनसे बाकी की फसलें भी प्रभावित होंगी और सदियों में कृषकों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी संजोये गये बीजों की नस्लें नष्ट हो जायेंगी, उन्हें हम हमेशा के लिए खो देंगे."

नयी तकनीकी बायोटेक कम्पनियों का कहना है डा. वन्दना शिव जैसे लोग प्रगति के विरुद्ध हैं. लेकिन हाल में ही मैने लास एन्जेलस की कम्पनी बायोसिक्योरिटीज़ के अध्यक्ष सानो शिमोदा का भाषण देखा. शोमोदा स्वयं कृषि बायोटेक की दुनिया में पैसे लगाने वालो की दृष्टि से काम करने वाले हैं इसलिए उनकी बात को "प्रगति के विरुद्ध" कह कर नहीं टाला जा सकता. वह भी अपने भाषण में मानते हैं कि बायोटेक बीजो व फसलों के मानव व प्रकृति पर लम्बे समय में क्या असर होता है इस पर शोध आवश्यक है. वह कहते हैं कि जिन बीजों के लिए पहले कीटनाशक कम लगता था, उनमें नयी दिक्कते पैदा हो रही हैं और कीटनाशक पदार्थों की आवश्यकता होने लगी है. वह मानते हें कि बायोटेक फसलों से क्या फायदा हो हो रहा है, यह स्पष्ट नहीं है.

मैंने इस आलेख में अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों की बात नहीं की, लेकिन वह भी महत्वपूर्ण विषय है. विश्व व्यापार संस्थान के माध्यम से उन्होंने भारतीय दवा बनाने वालों पर कई बार हमले किये हैं. अभी तक भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने उन हमलों को सफ़ल नहीं होने दिया है. पिछले दशकों में भारत के दवा बनाने वालों ने विकासशील देशों में एडस जैसी बीमारियों के लिए महत्वपूर्ण काम किया है. दवाओं व बाज़ारवाद विषय पर तो नया आलेख लिखा जा सकता है, इसलिए इस विषय में यहाँ अधिक नहीं कहूँगा.

निष्कर्श

आधुनिक बाज़ारवाद व पूँजीवाद से हमारे स्वास्थ्य तथा स्वास्थ्य सेवाओं पर विभिन्न तरह से प्रभाव पड़ रहे हैं. एक ओर तकनीकी तरक्की है तो दूसरी ओर निजिकरण, प्रदूषण, प्रकृति विनाश और नयी बीमारियाँ भी हैं. व्यक्तिगत रूप से मैं यह नहीं सोचता कि सब कुछ सरकार के हाथ में होना चाहिये या हर तरह का निजिकरण गलत है. बल्कि मैं मानता हूँ कि बाज़ार का अपना महत्व है और बिना बाज़ार के जीवन नहीं हो सकता. लेकिन सरकार स्वास्थ्य विषय को केवल बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ सकती. जिनको पैसा कमाना है उनको बीमारियाँ कम करने या लोगों के अधिक स्वस्थ्य होने में दिलचस्पी नहीं. उन्हें बीमारियों को बढ़ाने तथा उनके मँहगे इलाज व टेस्ट कराने में फायदा है. इसलिए सरकारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं का देश के नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण भाग होना चाहिये. सरकार यह सोच कर कि प्राइवेट संस्थान है, अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती.

साथ ही अन्धाधुँध आर्थिक विकास और जी.डी.पी बढ़ाने की चाह में देश की व समुदायों की प्राकृतिक और साँस्कृतिक सम्पदा को नहीं भूला जा सकता. इसके लिए आवश्यक है कि आर्थिक विकास संतुलित रूप में होना चाहिये, और बहुदेशीय कम्पनियों तथा बड़े कोर्पेरशन वाली कम्पनियों को बेलगाम जो चाहे वह करने का मौका नहीं देना चाहिये.

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शुक्रवार, जुलाई 05, 2013

यह कैसी पत्रकारिता?

पिछले दो दशकों में भारत में टीवी चैनलों और इंटरनेट के माध्यम से पत्रकारिता के नये रास्ते खुले हैं. शायद पत्रकारिता के इतने सारे रास्ते होने के कारण ही पिछले कुछ सालों में किसी भी बात को बढ़ा चढ़ा कर उसे "ब्रेकिन्ग न्यूज़", कुछ जाने माने नाम हों उनके आसपास स्केन्डल बनाना और बातों को बिल्कुल न समझ कर या सतही तौर से समझ कर उन पर लिखना बढ़ता जा रहा है. यह सच है कि आज की दुनिया में पैसा कमाना ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है पर क्या मीडिया में किसी बात को ठीक से बताने समझाने की बिल्कुल कोई जगह नहीं है?

यह बातें मेरे मन में आयीं जब मैंने शाहरुख खान के बच्चे के पैदा होने से पहले उसके "सेक्स जानने के टेस्ट" कराने के "स्केन्डल" के बारे में पढ़ा. इस पर कुछ दिनों से लगातार समाचार छप रहे हैं और मुम्बई की रेडियोलोजिस्ट एसोसियेशन ने इस बात पर शाहरुख पर मुकदमा दायर किया है. क्या आप ने इस विषय पर एक भी समाचार या रिपोर्ट देखी जो बात को ठीक से समझने की कोशिश करे?

बच्चे का सेक्स टेस्ट कैसे होता है?

पहली बात जिसे समझने की आवश्यकता है वह है कि होने वाले बच्चे के सेक्स जानने का टेस्ट क्या होता है? यह टेस्ट कैसे किया जाता है? होने वाले बच्चे के लिँग को जानने का सबसे आसान तरीका है अल्ट्रासाउन्ड (Ultrasound) का टेस्ट. लेकिन क्या कानून कहता है कि अल्ट्रासाउन्ड न किया जाये?

अल्ट्रासाउन्ड एक तरह का एक्सरे होता है जिसमें ध्वनि की लहरों का प्रयोग किया जाता है और जिससे शरीर के भीतर के अंगों को देखा जा सकता है. गर्भवति औरतों की समय समय पर अल्ट्रासाउन्ड टेस्ट से जाँच की जाती है जिससे अगर माँ के गर्भ में पल रहे बच्चा ठीक से पनप रहा है, उसे कुछ तकलीफ़ तो नहीं, यह सब देखा जा सकता है. जब अल्ट्रासाउन्ड से बच्चे को देखते हैं तो उसके यौन अंगो के विकास से, आप यह भी देख सकते हैं कि होने वाला बच्चा लड़की होगी या लड़का.

कानून ने अल्ट्रासाउन्ड टेस्ट को मना नहीं किया है, क्योंकि यह टेस्ट करना माँ और होने वाले बच्चे की सेहत की रक्षा के लिए अमूल्य है. कानून ने केवल यह कहा है कि अल्ट्रासाउन्ड का टेस्ट करने वाले डाक्टरों को बच्चे के परिवार वालों को यह नहीं बताना चाहिये कि बच्चा लड़का है या लड़की. यह कानून इस लिए बनाया गया क्योंकि भारत में लड़कियों के भ्रूण गिराने की बीमारी हर प्रदेश, और समाज के हर स्तर के लोगों के बीच बुरी तरह से फ़ैली है और बढ़ती जा रही है.

सेक्स जाँच के टेस्ट

हर वर्ष भारत में लाखों लड़कियों की भ्रूण हत्या होती है और इसका सबसे बड़ा कारण भारत की सामाजिक सोच है. कानून के मना करने के बावज़ूद यह होता है क्योंकि परिवार वाले अधिक पैसा दे कर भी यह जानना चाहते हैं. टेस्ट करने वाले डाक्टर, चाहे वे पुरुष हों या नारी डाक्टर, परिवार को यह बात बताते हैं, और कानून तोड़ते हैं. कुछ इसलिए कि वह इस बात को मानते हैं कि बेटी होना अभिशाप है और बेटी का गर्भ गिराना ही बेहतर है पर मेरे विचार में अधिकतर डाक्टर यह पैसे के लालच में करते हैं.

भारतीय कानून नारी को गर्भ गिराने की पूरी छूट देता है, इसलिए नारी रोग विषेशज्ञ डाक्टरों को यह पूछने का अधिकार नहीं कि कोई औरत क्यों गर्भपात कराना चाहती है. लेकिन अगर डाक्टर यह जानता हो कि कोई यह जान कर कि बेटी होगी, इसलिए गर्भपात कराना चाहता है तो उन्हें यह नहीं करना चाहुये बल्कि कानून को रिपोर्ट करनी चाहिये. पर प्राइवेट नर्सिन्ग होम या अस्पताल वाले अगर पैसे कमा सकते हों तो क्या आप की राय में वह गर्भपात करने से मना करेंगे?

यानि लड़कियों की भ्रूण हत्या के लिए बेटियों के प्रति हमारी सामाजिक सोच और हर स्तर पर पैसा कमाने का लालच ज़िम्मेदार हैं. शहरों के पढ़े लिखे लोगों में और पैसे वाले लोगों में यह सोच अधिक गहरी है. पिछले वर्ष आमिर खान के कार्यक्रम "सत्यमेव जयते" में इस विषय में दिखाया गया था.

शाहरुख खान का बच्चा

समाचारों मे पढ़ा कि उनका बेटा सर्रोगेट मातृत्व से पैदा हुआ है. सार्रोगेट मातृत्व का सहारा तब लेते हैं जब प्राकृतिक माँ को गर्भ को पूरा करने में कोई कठिनाई हो. इसके लिए लेबोरेटरी में बच्चे की माँ की ओवरी यानि अण्डकोष से अण्डे को लिया जाता है और पिता के वीर्य से मिलाया जाता है. इस तरह से प्राप्त भ्रूण को, जिस स्त्री ने मातृत्व पूरा करने का काम लिया हो, उसके गर्भ में स्थापित किया जाता है. लेबोरेटरी में अण्डे तथा वीर्य को मिलाने से बीमारी वाला बच्चा न पैदा हो, इसके लिए कई तरह के टेस्ट किये जाते हैं जिनसे बच्चे को गर्भ में स्थापित करने से पहले ही या मालूम हो सकता है कि लड़का होगा या लड़की.

अगर माता या पिता में कोई इस तरह की बीमारी हो जो बच्चे को हो सकती है तो, उन बीमारियों को पहचानने, रोकने और स्वस्थ्य बच्चा पैदा करने लिए भी सर्रोगेट मातृत्व का सहारा लिया जाता है.  इस तरह के बच्चों के लिए, भ्रूण लड़का है या लड़की, यह जानना आवश्यक हो जाता है. भारतीय कानून इस बात की भी अनुमति देता है. भारतीय कानून का ध्येय है छोटे बड़े शहरों में अल्ट्रासाउन्ड क्लिनिकों का गलत उपयोग करने से रोकना ताकि लड़कियों की भ्रूण हत्या न हो.

इसलिए मेरे विचार में अगर शाहरुख खान को यह जानना ही था कि उनका होने वाला बच्चा बेटा होगा या बेटी तो उन्हें अल्ट्रासाउन्ड की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उन्होंने कानून नहीं तोड़ा. पर आप अपने दिल पर हाथ रखिये और कहिये कि यह हँगामा करने से पहले क्या मुम्बई की रेडियोलिजिस्ट एसोसियेशन ने और पत्रकारों ने यह सोचा कि यह कानून क्यों बनाया गया? और क्या सचमुच शाहरुख खान की बेटी होती तो वह बच्चे का गर्भपात कराते, क्या यह सोच कर इन लोगों ने सारा हँगामा किया है?

दिखावे के पीछे की सड़न

सच तो यह है कि हमारे देश के क्लिनिकों और अस्पतालों में हर दिन हज़ारों अल्ट्रासाउन्ड होते हैं, और लड़कियों के भ्रूण गिराये जाते हैं, पर कोई उन पर मुकदमें नहीं करता. मुम्बई की या देश की अन्य रेडियोलिस्ट एसोसियेशनो ने कितने डाक्टरों को इस कानून को तोड़ने के लिए एसियेशन से बाहर निकाला है या उन पर मुकदमा किया है? कितने पत्रकारों ने इस बात को ठीक से समझने की कोशिश की है और उस पर रिपोर्ट लिखी हैं कि भारत के कौन से क्लिनिक इस धँधे में लगे हैं?

यह सब तमाशा है, खबर बनाने का, चटखारे ले कर जाने माने लोगों के माँस को नोचने का, क्योंकि जितना मशहूर नाम होगा खबर उतनी ही बड़ी होगी, उतने अधिक पैसे बनेंगे. "सत्यमेव जयते" में दिखाया गया था कि जिन डाक्टरों को इसके बारे में कहते और करते हुए वीडियो पर तस्वीर ले ली गयी थी, वे भी बेधड़क धँधे में जारी थे, क्या प्रोग्राम के बाद उनके विरुद्ध कुछ हुआ?

अगर 2011 तथा 2001 में हुई जनगणना से मिली जानकारी देखें तो इन दस सालों में भारत के बहुत से राज्यों में लड़कियों की भ्रूण हत्या में कुछ कमी आयी है लेकिन सब कुछ मिला कर देखें तो राष्ट्रीय स्तर पर पैदा होने वाली लड़कियों की संख्या और कम हुई है.

2011 की जनगणना के अनुसार हर एक हजार पैदा होने वाले लड़कों के मुकाबले में लड़कियाँ 914 थीं. यानि करीब 8 प्रतिशत लड़कियाँ कम थीं.

केवल गर्भ में नहीं मरती लड़कियाँ, किसी भी बात में देखिये, चाहे स्वास्थ्य हो या शिक्षा, हर बात में लड़कियाँ लड़कों से पीछे हैं, बस मरने में ही उनका नम्बर सबसे आगे हैं. पर यह सब तो हमेशा होते ही रहते हैं, इससे क्या समाचार बनेगा? समाचार तो शाहरुख के नाम से बनता है. समाचारों की नैतिकता की बात करने का किसके पास समय है?

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सोमवार, मई 27, 2013

मिथकों में जीवन

बात कहीं से शुरु होती है और फ़िर किसी अन्य दिशा से कोई तार उससे आ मिलते हैं, और बातों में बातें जुड़ जाती हैं.

Mithak - Myths
कुछ यूँ ही हुआ जब मैंने अपने फोटो ब्लाग "छायाचित्रकार" पर तीन महाद्वीपों से विभिन्न तरह की गिलहरियों की तस्वीरें लगाने की सोची. दिल्ली में कुतुब मीनार के पास खींची गिलहरी की तस्वीर देख रहा था तो उसकी पीठ पर कथई रंग की धारियों से याद आया कि उसके बारे में बचपन में कहानी सुनी थी. उस कथा के अनुसार, जब राम अपनी सैना को ले कर लँका जाने के लिए सागर पर पुल बना रहे थे तो गिलहरी ने पत्थर लाने में बहुत मेहनत की और गिलहरी को धन्यवाद देने के लिए उन्होंने जब उसकी पीठ को सराहा तो उनकी उँगलियों के निशान उसकी पीठ पर रह गये.

फ़िर सोचा कि मानव ने क्यों इस तरह के मिथक रचे? मिथकों का जीवन में क्या लाभ है?

केवल भारत में नहीं, हर देश, हर संस्कति ने पूर्वेतिहासिक काल में अपने मिथक रचे, तो मानव समाज में अवश्य उनका कुछ महत्व और उपयोग होता था, जिसकी वजह से सभी सभ्यताओं में मिथक रचे गये. अक्सर सभ्यताओं से जुड़े मिथक, उन सभ्यताओं के प्रचलित धर्मों से जुड़ जाते हैं, जिसकी वजह से अंग्रेज़ी में धार्मिक कथाओं को माइथोलोजी (mythology) कहते हैं, यानि "मिथकों की कहानियाँ".

यह सोच रहा था तो जानी मानी भारतीय विचारक, पारम्परिक जनजातियों के ज्ञान की रक्षा की पक्षधर और भूमण्डलीकरण की विरोधी सुश्री वन्दना शिव की एक बात याद आयी. वन्दना मेरी मित्र डा. मीरा शिव की बहन हैं. कुछ वर्ष पहले वह इटली के फ्लोरैंस शहर में एक समारोह में आमन्त्रित थीं. मीरा ने उनके हाथ मेरे लिए कुछ सामान भेजा था, जिसके लिए मैं वन्दना से मिलने फ्लोरैंस गया था और उनका भाषण सुनने का मौका मिला. अपने भाषण में उन्होंने बात की थी, नयी तकनीकों से बीजों के डीएनए (DNA) को बदल कर नयी तरह की वनस्पतियों को बनाने के प्रयोगों से प्राकृति के संरक्षण की. उन्होंने कहा कि भारत में हिन्दू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवता माने जाते हैं, और हर देवी देवता के साथ किसी न किसी पशु या पक्षी या वनस्पति का नाम भी जुड़ा होता है, जिनकी वजह से धर्म में विश्वास रखने वाले उन सब की रक्षा करते हैं. इस तरह से यह पौराणिक मिथक, मानव व प्राकृति के साथ साथ सामन्जस्य से रहने का संदेश देते हैं.

यानि, प्राचीन काल में जब विज्ञान नहीं था, किताबें नहीं थीं, तब मिथकों के द्वारा मानव जीवन के अनुभवों से अर्जित ज्ञान को याद रखा जाता था. इस तरह से देवी देवताओं की कहानियाँ एक माध्यम बन गयीं जिनसे मानव और प्राकृति में सामन्जस्य की आवश्यकता को नैतिक रूप दिया गया.

कुछ इसी तरह की बात एक बार मिस्र में एक मित्र ने मुसलमानों द्वारा सूअर के माँस को अपवित्र मानने के बारे में कही थी. वह कहते थे कि मध्य-पूर्व के देशों में सूअरों में सिस्टोसरकोसिस का रोग होता था और सूअर का माँस खाने से वह मानव शरीर में, विषेशकर दिमाग के तंतुओं में फैल जाता था. इसलिए सूअर के माँस की वर्जना की बात, वहाँ रहने वाली मानव जाति की सुरक्षा से जुड़ी थी.

मिथक क्यों बने, यह समझना हमेशा आसान नहीं होता. बहुत सी सभ्यताओं में नमक का गिरना या बिखरना अशुभ माना गया है. शायद इस मिथक के पीछे, पुराने समय में नमक को पाने की कठिनाई थी क्योंकि यह केवल सागर तटवर्ती क्षेत्रों में मिलता था. पर बहुत सी सभ्यताओं में काली बिल्ली को क्यों अशुभ माना गया, इसका कारण क्या हो सकता है?

जब लिखाई नहीं थी, किताबें नहीं थीं, तब इतिहास की महत्वपूर्ण बातों को न भूलने के लिए भी मिथक काम आते थे. जैसे कि अमरीकी जनजातियों के मिथकों में पृथ्वी पर मानव जीवन कैसे बना इसकी कहानियाँ हैं. इन मिथकों में आकाश से या चाँद से धरती तक एक पुल का बनना और उसे पार करके धरती पर आने की बातें हैं. इन कहानियों में कुछ इतिहासकारों ने करीब दस हज़ार वर्ष पहले के हिमयुग में उत्तरी सागर के बर्फ से जमने और उसे पार कर के एशियाई मूल के लोगों के अमरीका महाद्वीप पहुँचने की यात्रा के संकेत पाये हैं.

मिथक सामाजिक विचारों को भी शक्ति देते हैं. चाहे समाज में पुरुष के मुकाबले में नारी का नीचा स्थान हो या विकलाँग व्यक्तियों को समाज से बाहर देखने के प्रवृति, इनको प्राचीन मिथकों का सहारा मिलता है, जिनकी जड़ें समाज में बहुत गहरी होती हैं और जिन्हें बदलना आसान नहीं होता. दिल्ली में विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत मेरी मित्र डा. अनीता घई, रामायण में सूर्पनखा की कहानी का उदाहरण देती हैं कि सुन्दर सूर्पनखा स्वतंत्र हैं, उसकी यौनकिता भी स्वच्छंद है जोकि पितृसत्तावादी समाज में स्वीकार नहीं की जाती थी और इस अपराध के लिए उसकी नाक काट कर उसे विकलाँग बनाया जाता है, जिससे उसकी यौनकिता अस्वीकृत हो जाती है. इस तरह से मिथकों से जुड़े विचार, समाजिक रूढ़ीवाद का हिस्सा भी हो सकते हैं.

अपनी संस्कृति के मिथकों को जानना, हमें अपनी संस्कृति को गहराई से समझने का मौका देता है. भारतीय पारम्परिक मिथकों के बारे में डा. उषा पुरी विद्यावाचस्पति ने एक जानकारी से भरपूर किताब लिखी है, "भारतीय मिथकों में प्रतीकात्मकता" (सार्थक प्रकाशन, दिल्ली, 1997).  उदाहरण के लिए इसमें वह पूजा में उपयोग किये जाने वाली वस्तुओं तथा रीतियों के बारे में बताती हैं कि "ऊँ", शंख और स्वस्तिक में सृष्टि के आरम्भ का नाद है, जलयुक्त कलश को जल, वायू तथा सूर्य का प्रतीक मानते हैं, तथा कलश की गर्दन में बँधा कलावा मंगलमय आयोजन में समाज को स्नेहसूत्र में बाँधने का द्योतक है. रूद्राक्ष, शिव के आँसू या पसीने से बना है इसलिए मनुष्य को आधि व्याधि से मुक्त करता है. हल्दी में रोग निवारण शक्ति हैं और स्वर्ण का प्रतीक है, चावल दीर्घायुदायी हैं, जबकि दीपक प्रकाश तथा ज्ञान का प्रतीक है.

Cover of Bhartiya mithakon mein pratikatamkta by Dr Usha Puri Vidyavachaspati

यह बात नहीं कि मिथक केवल प्राचीन ही होते थे और आजकल नये मिथक नहीं बनते. पिछले वर्ष अमरीकी माया सभ्यता के कैंलेण्डर की भविष्यवाणी बता कर "20.12.2012 को दुनिया का अंत होगा" की बात को बहुत से लोगों ने सच मान लिया था. यानि आज "मिथक" का अर्थ धर्म से जुड़ी बातों से हट कर, झूठ या काल्पनिक बातों की तरह से होने लगा है. लोग फेसबुक और टिव्टर जैसे सोशल मीडिया की सहायता से नये मिथक बनाते हैं जो विभिन्न भाषाओं में अनुवादित हो कर एक देश या सभ्यता में सीमित नहीं रहते बल्कि सारी दुनिया में फ़ैलते हैं. इन नये मिथकों को "शहरी मिथक" भी कहते हैं जिनसे लोगों को डराते हैं. "अगर आप के पास इस तरह का ईमेल आये तो उसे नहीं खोलिये" या "अगर आप ने इस ईमेल को कम से कम दस लोगों को नहीं भेजा तो आप का विनष्ट होगा" या "इस ईमेल को दस लोगों को भेजेंगे तो लाटरी जीतेगें" जैसी बातें शहरी मिथक के दायरे में आती हैं. (नीचे की तस्वीर में "12 दिसम्बर को दुनिया का अंत होगा" के विषय पर बनी एक कलाकृति)

2012 Maya calendar myth sculpture by Joe Venturi and Matteo Varsellona

देखा आपने, एक गिलहरी की तस्वीर से शुरु हुआ विचार कहाँ तक पहुँच गया! मेरे विचार में प्राचीन मिथकों में छुपे प्राचीन ज्ञान को केवल अँधविश्वास कह कर भूल जाना या अस्वीकार करना गलती है. बहुत से मिथकों में सामाजिक बुराईयों के अँधविश्वास बने हैं, जो केवल मिथकों के शब्दिक अर्थ से जुड़े विचारों की कट्टरता का नतीजा हैं. पर जैसे वन्दना शिव के दिये उदाहरण से स्पष्ट होता है, इनमें छिपे सभी ज्ञान अवैज्ञानिक नहीं है. चाहे हम मिथकों में छुपे ज्ञान को संजोने की सोचे या उनसे जुड़ी गलत सामाजिक परम्पराओं को बदलने की बदलने की कोशिश करें, उनके महत्व को नहीं नकार सकते. आधुनिक मिथकों को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये, पर अपनी सोच समझ से उनके सच और झूठ को परखना चाहिये.

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शनिवार, मई 18, 2013

सपनों की दुनिया


"मिलान में इतालवी वोग (Vogue) पत्रिका की नयी फोटो-प्रदर्शनी लगाने की तैयारी हो रही है" के समाचार के साथ अंग्रेज़ी फोटोग्राफर किर्स्टी मिशेल (Kirsty Mitchell) की एक तस्वीर देखी तो देखता रह गया.

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

आजकल क्मप्यूटर की मदद से तस्वीरें बना कर कलाकार कई तरह की पूरी काल्पनिक दुनियाँ बना सकते हैं, जिन पर "अवतार" (Avatar) जैसी पूरी फ़िल्में बनती हैं. इन फ़िल्मों को देख कर यह कहना कठिन होता है कि उनमें कितना असली है और कितना क्मप्यूटर पर बना हुआ है.

इसलिए जब किर्स्टी की तस्वीर देखीं तो यही सोचा कि उन्होंने भी इसे क्मप्यूटर की मदद से ही बनाया होगा. जैसे कि पिछले कुछ वर्षों में एच.डी.आर. (HDR) यानि हाई डायनेमिक रेन्ज की फोटो तकनीक आयी है जिसमें कई तस्वीरों को मिला कर उनसे एक तस्वीर बनाते हैं, जिसमें रंग बहुत निखर कर आते हैं. मैंने सोचा कि किर्स्टी की तस्वीरें एच.डी.आर से बनी होंगी. लेकिन जब पढ़ा कि किर्स्टी ने यह तस्वीर क्मप्यूटर पर नहीं बनायी, बल्कि उन्होंने सचमुच के वस्त्र, विग, मेकअप आदि बना कर, सचमुच के फ़ूलों के सामने वह तस्वीर खीँची है, तो बहुत आश्चर्य हुआ और अच्छा भी लगा.

आज आप को फोटोग्राफ़ी का शौक हो तो उसे पूरा करने के बहुत तरीके हैं. डिजिटल फोटोग्राफ़ी के कैमरे सस्ते भी मिलते हैं. फोटोग्राफ़ी कैसे करें, फोटो को कैसे सुधारें, उनकी कमियों को कैसे छुपायें, उनके रंगो को कैसे निखारें - इस सब को समझने के पाठ इंटरनेट पर मुफ्त भरे पड़े हैं, हालाँकि अधिकाँश अंग्रेज़ी में ही है, हिन्दी में इस तरह की अच्छे स्तर की सुविधाएँ न के बराबर हैं. उदाहरण के लिए, दुनिया के जाने माने फोटोग्राफ़र किस तरह की तस्वीरें खींचते हैं इसे देखने के लिए, उनसे प्रेरणा पाने के लिए और फोटोग्राफी के ट्यूटोरियल पढ़ने के लिए, मुझे 121 क्लिकस की वेबसाइट अच्छी लगती है. जबकि फोटो कैसे खींचने चाहिये इस पर मुझे यूट्यूब पर एडोरामा के वीडियो पाठ भी अच्छे लगते हैं (इन्हें सही समझने के लिए पहले सबसे पुराने वाले पाठ शुरु से देखिये), पर इनके जैसी वेबसाइट और वीडियो अन्य भी बहुत हैं, आप खोजेंगे तो बहुत से मिल जायेंगे.

यानि कि तकनीकी दृष्टि से आज हर कोई बढ़िया फोटोग्राफर बनना सीख सकता है. पर हर कोई बढ़िया तकनीक वाला फोटोग्राफर, बढ़िया कलाकार नहीं होता. आप किसकी फोटो खीँचते हैं, किस एँगल से खीँचते हैं, उसमें किसको महत्व देते हैं, आप की तस्वीरों में आप का व्यक्तिगत दृष्टिकोण क्या है, आप का अपना अन्दाज़ क्या है - आप को कलाकार माना जाये यह उन सब बातों पर निर्भर करता है. इस दृष्टि से देखें तो किर्स्टी की तस्वीरें अन्य फोटोग्राफरों से भिन्न, फोटोग्राफी के कलाजगत में अपनी विशिष्ठ जगह बनाती हैं.

किर्स्टी का जन्म 1976 में इँग्लैंड के कैन्ट जिले में हुआ. उन्होंने फोटोग्राफ़ी 2007 में करनी शुरु की. उनकी माँ बच्चों के लिए किताबें लिखती थीं. सन 2008 में माँ की कैन्सर रोग से मृत्यू के बाद, माँ की याद में ही किर्स्टी ने "वन्डरलैंड" (Wonderland) श्रृँखला की तस्वीरें खीँचना शुरु किया, जिसमें वह अपनी माँ कि किताबों के कल्पना जगतों को मूर्त रूप देना चाहती थीं.

सबसे पहले वह हर तस्वीर की मानसिक तस्वीर बनाती हैं, रंगो का चयन करती हैं, अपने हाथों से उसकी पौशाक, विग, और फोटो में प्रयोग की जाने वाली हर वस्तु को बनाती हैं. तस्वीरों को खीँचने के लिए वह सही मौसम की, जैसे कि बर्फ़ हो या किसी विषेश रंग के फ़ूल खिले हों, इसकी प्रतीक्षा करती हैं. जब सब कुछ उन्हें उनकी कल्पना के अनुसार मिल जाता है तो वह तस्वीर खीँचती हैं. इस तरह उनकी हर एक तस्वीर के पीछे, कई महीनो की मेहनत लगती है.

किर्स्टी की तस्वीरों को दुनिया भर में प्रदर्शनियों के आमँत्रण और पुरस्कार मिले हैं. वह पहले फैशन और कोसट्यूम की एक कम्पनी में काम करती थीं, वहाँ से सन 2011 में उन्होंने इस्तीफ़ा दे कर अपना फ्रीलाँस काम खोला है. वह कहती हैं, "चार साल पहले कोई मुझे कहता कि बड़ी प्रदर्शिनों में मेरी तस्वीरें लगेंगी, हार्पर बाज़ार जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं के मुख्यपृष्ठ पर छपेगीं तो कौन विश्वास करता? इतालवी वोग पत्रिका की मिलान में लगने वाली प्रदर्शनी के लिए मुझे कई हज़ार फोटोग्राफरों में से चुना गया है. मुझे यह सब सपना सा लगता है."

आप किर्स्टी के काम के कुछ नमूने देखिये, सचमुच उनका काम प्रशंसनीय है, इसलिए भी क्योंकि यह क्मप्यूटर पर नहीं बना और इसे उन्होंने अपनी मेहनत से बना कर अपनी कल्पना को साकार किया है.

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

आप किर्स्टी मिशेल की और तस्वीरें उनकी वेबसाइट पर देख सकते हैं. क्या मालूम, आप में से किसी पाठक को इससे प्रेरणा मिले, किर्स्टी की नकल करने की नहीं, बल्कि, अपनी कल्पना से अपनी नयी दृष्टि बनाने की और उसे सच में बदलने की, ताकि एक दिन हम आप के काम को भी इसी तरह अचरज से देखें और आप को वाह-वाह कहें.!

मंगलवार, मई 14, 2013

मेरी कहानी, हमारी कहानी


"हैलो, मेरा नाम लाउरा है, क्या आप के पास अभी कुछ समय होगा, कुछ बात करनी है?"

मुझे लगा कि वह किसी काल सैन्टर से होगी और पानी या बिजली या टेलीफ़ोन कम्पनी को बदलने के नये ओफर के बारे में बतायेगी. इस तरह के टेलीफ़ोन आयें तो इच्छा तो होती है कि तुरन्त कह दूँ कि हमें कुछ नहीं बदलना, पर अगर काल सैन्टर में काम करने वालों का सोचूँ तो उन पर बहुत दया आती है. बेचारे कितनी कोशिश करते हैं और उन्हें कितना भला बुरा सुनना पड़ता है. बिन बुलाये मेहमानों की तरह, काल सैन्टर वालों की कोई पूछ नहीं.

पर वह काल सैन्टर से नहीं थी. उसे मेरा टेलीफ़ोन नम्बर बोलोनिया में मानव अधिकारों पर वार्षिक फ़िल्म फैस्टिवल का आयोजन करने वाली जूलिया ने दिया था. "हम लोग एक फोटो प्रदर्शनी का प्रोजक्ट कर रहे हैं, प्रवासियों के बारे में. उसका नाम है "मेरी कहानी, हमारी कहानी". क्या आप उसमें भाग लेना चाहेंगे?"

मैंने सोचा कि शायद मेरे बढ़िया फोटोग्राफ़र होने का समाचार इनके पास पहुँच भी गया है, और यह लोग मेरी तस्वीरें चाहते हैं, तो खुश हो कर बोला, "अवश्य. मेरी किस तरह की तस्वीरें लेना चाहेंगी, प्रदर्शनी के लिए?"

"नहीं, आप की खींची तस्वीरें नहीं चाहिये हमें, हम आप की तस्वीरें खींचना चाहते हैं, बोलोनिया में रहने वाले भारतीय समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में. आप को हमें दो तीन घँटे देने होंगे, हमारा माडल बन कर और हम आप की तस्वीरें खीँचेगे", उसने समझाया.

"क्या उदेश्य है इस फोटो प्रदर्शनी का?" मैंने जानना चाहा तो लाउरा ने विस्तार से बताया. इटली के कुछ राजनीतिक दल हैं जैसे कि "लेगा नोर्द" जो इटली में बसे प्रवासियों के विरुद्ध अभियान चलाते हैं. उनका कहना है कि प्रवासी अपराधी, आतन्कवादी, गन्दगी वाले, असभ्य, इत्यादि होते हैं और यहाँ आ कर यहाँ की सभ्यता को बिगाड़ रहे हैं, इसलिए प्रवासियों को इटली में नहीं आने देना चाहिये. इस फोटो प्रदर्शनी का उदेश्य यह दिखाना है कि रूढ़िवादी राजनीतिक दलों का यह प्रचार गलत है, क्योंकि प्रवासी यहाँ नये विचार, सभ्यता, नये काम, ले कर आते हैं और शहर के जीवन को नया रंग देते हैं. इस तरह से इस प्रदर्शनी में विभिन्न देशों से आने वाले प्रवासियों के जीवन के बारे में जानकारी दी जायेगी.

मैंने यह सब जान कर, फोटो खिंचवाने के लिए तुरन्त हाँ कह दी. एक बार पहले भी एक प्रदर्शनी के लिए मैं अपनी तस्वीरें खिँचवा चुका था. तब बात थी मृत्यू के बारे में विभिन्न सभ्यताओं में क्या सोच है, उसके बारे में. उस बार अँधेरे में विषेश तरीके से तस्वीरें खीँची गयी थीं जिनमें लगता था कि मैं मर चुका हूँ. उन तस्वीरों की प्रदर्शनी भी यहाँ के कब्रिस्तान में लगी थी. पर तब तो तस्वीरें खिँचवाने में दस पंद्रह मिनट ही लगे थे.

इस बार तस्वीरें खिँचवाना कुछ अधिक कठिन था. फरवरी में फोटो खीचनें के लिए उन्होंने मुझे बुलाया और शहर की कुछ प्रसिद्ध जगहों पर ले जा कर मेरी तस्वीरें खींची गयीं.

"इस तरफ़ घूमिये, इधर देखिये, सिर को थोड़ा उठाईये, नहीं इतना नहीं, थोड़ा सा कम, अब हाथ कमर पर रखिये ...", करीब तीन घँटों तक उन्होंने मुझसे तरह तरह के पोज़ बनवा कर इतनी तस्वीरें खींची कि थक गया. वहाँ से गुज़र रहे लोग मेरी ओर हैरानी से देखते कि कौन है, शायद कोई एक्टर या लेखक या प्रसिद्ध व्यक्ति होगा जिसकी तस्वीरें खीँच रहे हैं? इसलिए पोज़ बनाने में थोड़ी सी शर्म भी आ रही थी. अगर आप ने झूठ मूठ की मुस्कान को तीन घँटे तक बना कर अपनी फोटो खिँचवायीं हों तभी समझ सकते हैं कि फोटो खिँचवाना भी खाला जी का घर नहीं.

"अच्छा, आप ऐनक उतार दीजिये, उससे फोटो ठीक नहीं आ रही", वे बोलीं तो मैंने कहा कि हाथ में किताब दे दीजिये, तो उसे पढ़ते हुए मैं ऐनक उतार कर हाथ में थाम लूँगा, और यह स्वभाविक भी लगेगा. तो अमिताव घोष की किताब "द सी ओफ़ पोप्पीज़" को हाथ में ले कर भी, एक किताबों की दुकान में कुछ तस्वीरें खीँची गयीं. खैर, जब उन्होंने कहा कि बस हो गया, तो लगा कि चलो काम पूरा हुआ, जान छूटी.

19 अप्रैल 2013 को इस प्रदर्शनी का शहर के नगरपालिका भवन के प्राँगण में उद्घाटन हुआ. पैँतालिस देशों के प्रवासियों ने इस प्रदर्शनी में हिस्सा लिया है. प्रदर्शनी में भारत के प्रतिनिधि होने का गर्व भी हुआ. वहाँ देखा कि वही किताबों की दुकान में खींची तस्वीर ही प्रदर्शनी में लगायी गयी थी. प्रदर्शनी के उद्घाटन समारोह में ब्राज़ील और रोमानिया के युवा कलाकारों ने साँस्कृतिक कार्यक्रम किया. इस प्रदर्शनी की और उद्घाटन समारोह के साँस्कृतिक कार्यक्रम की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013

तो कहिये, आप को यह प्रदर्शनी कैसी लगी?

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सोमवार, अप्रैल 29, 2013

एक प्रेमकथा का किस्सा


कुछ दिन पहले "जूलियट की चिठ्ठियाँ" (Letters to Juliet, 2010) नाम की फ़िल्म देखी जिसमें एक वृद्ध अंग्रेज़ी महिला (वेनेसा रेडग्रेव) इटली के वेरोना शहर में अपनी जवानी के पुराने प्रेमी को खोजने आती है. इस फ़िल्म में रोमियो और जूलियट की प्रेम कहानी से प्रेरित हो कर दुनिया भर से उनके नाम से पत्र लिख कर भेजने वाले लोगों की बात बतायी गयी है. यह सारी चिठ्ठियाँ वेरोना शहर में जूलियट के घर पहुँचती हैं, जहाँ काम करने वाली युवतियाँ उन चिठ्ठियों को लिखने वालों को प्रेम में सफल कैसे हों, इसकी सलाह देती हैं.

रोमियो और जूलियट (Romeo and Juliet) की कहानी को अधिकतर लोग अंग्रेज़ी नाटककार और लेखक विलियम शेक्सपियर (William Shakespeare) की रचना के रूप में जानते हैं, जिसे उन्होंने 1594-96 के आसपास लिखा था. शरतचन्द्र की "देवदास" की तरह, "रोमियो और जूलियट" की कहानी पर भी बहुत सारी फ़िल्में बनी हैं, जिनमें से मेरी सबसे प्रिय फ़िल्म इतालवी निर्देशक फ्राँको ज़ाफीरेल्ली (Franco Zeffirelli, 1968) ने बनायी थी.

शेक्सपियर की यह कहानी उत्तरी इटली के शहर वेरोना में घटती है. कथा की नायिका है जूलियट मोनटाग (Juliet Montague) , जोकि एक रईस परिवार की नवयुवती हैं. दूसरी ओर रोमियो कापूलेट (Romeo Capulet) भी अमीर परिवार के हैं. दोनो परिवारों के बीच में पुरानी खानदानी दुश्मनी है, फ़िर भी रोमियो को जूलियट से प्रेम हो जाता है. नवयुवकों के एक झगड़े में, रोमियो की लड़ाई जूलियट के परिवार के युवक (Tybelt) से होती है और लड़ाई में वह युवक मारा जाता है. इसकी वजह से जूलियट के परिवार में रोमियो के प्रति नफरत और भी बढ़ जाती है. जूलियट को उसका एक पादरी मित्र भागने की चाल बताता है. जूलियट एक दवा खा कर सो जाती है, जिससे लगता है कि जूलियट मर गयी. चर्च में उसके शरीर को छोड़ कर मोनटाग परिवार चला जाता है. अचानक रोमियो वापस आता है तो समाचार सुनता है कि जूलियट मर गयी, वहीं चर्च में सोयी जूलियट के पास वह दुख से आत्महत्या कर लेता है. दवा का असर समाप्त होने पर जूलियट जागती है, मृत रोमियो को देख कर वह भी आत्महत्या कर लेती है.

जिस समय शेक्सपियर ने यह नाटक लिखा, उस समय पूरे यूरोप में रईस और राजकीय परिवारों के युवकों, तथा कवियों, लेखकों तथा चित्रकारों, सभी के लिए इटली की यात्रा करना और कुछ वर्ष वहाँ रहना, पढ़ाई का आवश्यक हिस्सा माना जाता था. जैसे आज के नवयुवकों के लिए पैसा कमाना और अमरीका से एमबीए जैसी डिग्री लेने का सपना होता है, वैसा ही मध्ययुगीन यूरोप में इटली में रह कर सभ्यता को समझने के सपना होता था. उस समय विभिन्न यूरोपीय देशों के बीच बातचीत की भाषा लेटिन थी जिसकी पढ़ाई इटली में होती थी. कला के बड़े विद्यालय, शिक्षा के विश्वविद्यालय, सभी इटली में थे. शेक्सपियर स्वयं कभी इटली नहीं आये. लेकिन "रोमियो जूलियट" के अतिरिक्त, उन्होंने कई अन्य नाटक कहानियाँ इटली की पृष्ठभूमि पर लिखीं जैसे कि - बाहरवीं रात, ओथेल्लो तथा वेनिस का सौदागर.

शेक्सपियर की रोमियो और जूलियट की दुखभरी प्रेमकथा, यूरोप में प्रसिद्ध हो गयी और लोग उनकी कहानी को खोजते हुए दूर दूर से वेरोना शहर आने लगे.

वेरोना शहर का इतिहास बहुत पुराना है. यहाँ एक दो हज़ार वर्ष पुराना गोलाकार रोमन थियेटर बना है. मध्ययुग में यह शहर वेनिस साम्राज्य का हिस्सा था, जिसकी वजह से शहर यह सुन्दर भवनों और मूर्तियों से भरा है. नीचे की कुछ तस्वीरों में आप मध्ययुगीन वेरोना शहर की एक झलक देख सकते हैं.

Medieval town of Verona, Italy - S. Deepak, 2011

Medieval town of Verona, Italy - S. Deepak, 2011

Medieval town of Verona, Italy - S. Deepak, 2011

Medieval town of Verona, Italy - S. Deepak, 2011

दूर दूर से आने वाले पर्यटकों के लिए शहर की नगरपालिका ने एक सुन्दर मध्ययुगीन घर खोज कर उसे "जूलियट का घर" बना दिया. इस घर की एक सुन्दर बालकनी है जहाँ आप शेक्सपियर के नाटक के उस दृश्य की कल्पना कर सकते हैं जिसमें बालकनी के नीचे खड़ा हो कर रोमियो अपनी प्रेमिका को अपना प्रणयगान सुनाता है. वहाँ जूलियट का क्लब भी है और उसकी दीवारों पर प्रेमी अपने प्रेम के सँदेश लिख कर छोड़ जाते हैं, जैसे कि भारत में पीर या सूफ़ी संत की दरगाहों में होता है, जहाँ लोग मन्नत का धागा बाँधते हैं. नीचे की तस्वीरों में आप वेरोना में बना "जूलियट का घर" देख सकते हैं.

Juliet's house in Verona, Italy - S. Deepak, 2011

Juliet's house in Verona, Italy - S. Deepak, 2011

Juliet's house in Verona, Italy - S. Deepak, 2011

Juliet's house in Verona, Italy - S. Deepak, 2011

लेकिन रोमियो और जूलियट की मूल कथा शेक्सपियर की नहीं थी, बल्कि यह एक पुरानी इतालवी कथा थी. सबसे पहले इसे तेहरवीं शताब्दी में एक इतालवी लेखक बार्तोलोमेओ देल्ला स्काला (Bartolomeo della Scala) ने लिखा. फ़िर 1524 में लुईजी द पोर्तो (Luigi da Porto) नाम के उपन्यासकार ने लिखा. 1539 में "ला जूलियेत्ता" नाम से  कुछ सँशोधन करके इसे एक नये रूप में छापा गया. 1550 के आसपास मातेओ बान्देल्लो (Matteo Bandello) नाम के उपन्यासकार ने "दो दुखी प्रेमियों की दर्दभरी दास्तान" के नाम से इसी कहानी को फ़िर से लिखा. 1559 में बान्देल्लो की किताब को फ्राँस के अनुवादक तथा लेखक पिएर बोइस्तो (Pier Boisteau) ने फ्राँसिसी भाषा में छपवाया. फ्राँससी अनुवाद से प्रेरित हो कर अंग्रेज़ी कवि आर्थर ब्रूक ने 1562 में "रोमियो और जूलियट की दुखभरी कथा" नाम की कविता लिखी. शेक्सपियर ने भी इस कहानी को फ्राँसिसी भाषा में पढ़ कर उस पर नाटक 1594-96 में लिखा.

मूल कथा के अनुसार, रोमियो और जूलियट की कहानी वेरोना में नहीं, बल्कि वेरोना शहर से करीब बीस किलोमीटर दूर मोनतेक्कियो नाम के छोटे से शहर में घटी थी. मूल कथा के अनुसार जूलियट के पिता मोनतेक्कियो के राजा थे. रोमियो का कापूलेत्ती परिवार वहीं के रईस थे. मोनतेक्कियो की पहाड़ी पर एक ओर जूलियट के परिवार का किला है और दूसरी ओर रोमियो के परिवार का किला है.

इतालवी भाषा में "रोमियो" को "रोमेओ" कहते हैं और "जूलियट" को "जूलिएत्ता" (Giulietta). जूलिएत्ता का अर्थ है "छोटी जूलिया", यानि उस लड़की का नाम था जूलिया पर प्यार से उनके परिवार वाले उन्हें "छोटी जूलिया" कहते थे. मोनतेक्कियो को शेक्सपियर ने मोनटाग बना दिया, और कपूलेत्ती को कपूलेट.

इस तरह से पुराने इतालवी उपन्यासों की दृष्टि से देखें तो रोमियो और जूलियट की असली प्रेम कथा मोनतेक्कियो नाम के शहर में है. नीचे की तस्वीरों में आप मोनतेक्कियो के आमने सामने बने दो किलों को देख सकते हैं जिन्हें वहाँ के लोग रोमियो और जूलियट के घर मानते हैं.

Romeo & Juliet castles in Montecchio Maggiore, Italy - S. Deepak, 2013

Romeo & Juliet castles in Montecchio Maggiore, Italy - S. Deepak, 2013

Romeo & Juliet castles in Montecchio Maggiore, Italy - S. Deepak, 2013

Romeo & Juliet castles in Montecchio Maggiore, Italy - S. Deepak, 2013

Romeo & Juliet castles in Montecchio Maggiore, Italy - S. Deepak, 2013

पर इतिहासकारों और पुरातत्व विषेशज्ञों के अनुसार, मोनतेक्कियों शहर के यह दो किले भी बाद के बने हैं. शोधकर्ताओं के अनुसार रोमियो और जूलियट की कहानी किलों के बनने से पुरानी है. वे मानते हैं कि यह किसी उपन्यासकार की कल्पना का नतीजा है, सचमुच की कहानी नहीं है. यानि यह रोमियो और जूलियट के किले भी बाद में बनाये गये.

सारी दुनिया में प्रेमियों की दुखभरी दास्ताने हमेशा से ही बहुत लोकप्रिय रही हैं - लैला मजनू, शीरीं फरहाद, मिर्ज़ा साहिबाँ, हीर राँझा आदि. रोमियो जूलियट की कहानी भी उसी परम्परा का हिस्सा है. रोमियो जूलियट की कहानी में बाकी कथाओं से फर्क केवल इतना है कि लोगों ने इस कहानी को इतिहास का हिस्सा मान कर, उससे वेरोना या मोनतेक्कियो जैसे शहरों के नाम जोड़ दिये हैं.

अगर आप का प्रेम असफ़ल रहा हो, आप अपने प्रेमी या प्रेमिका के विरह में परेशान हों तो आप भी जुलियट के घर पर अपना संदेश भेज सकते हैं. क्या जाने रोमियो और जूलियट की आत्माएँ आप को अपना प्रेम पाने में सफल कर सकें!

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गुरुवार, अप्रैल 11, 2013

इतिहास के धागे


आन्यो (Agno) नदी के किनारे एक छोटा सा शहर बसा था, वल्दान्यो (Valdagno). वल्दान्यो माने "आन्यो की घाटी". वल्दान्यो से करीब पाँच किलोमीटर दूर, दक्षिण पूर्व में, जहाँ पहाड़ शुरु होते हैं, वहीं के एक छोटे से गाँव कोरनेदो (Cornedo) में सन् 1880 के आसपास एउजेनियो को जन्म हुआ था.

तब कोरनेदो गाँव के बीच में एक गिरजाघर, एक पानी लेने और कपड़े धोने की जगह, कुछ दुकाने और दो चार घर थे, बस. गाँव के बाकी लोग अपने अपने "कोन्त्रा" (contrà) में रहते थे. कोन्त्रा यानि कुछ घरों के झुरमुट. एक कोन्त्रा में एक परिवार का सारा खानदान साथ रहता, और उसके आसपास उस परिवार के खेत और जानवरों को चराने की जगहें होती. किसान परिवारों के आठ-दस-बारह बच्चे होते, जो जब बड़े होते तो उनके घर वहीं आसपास बन जाते, कुछ बच्चे बड़े हो कर जीवनी खोजने शहरों की ओर निकल जाते.

आज कोरनेदो छोटा शहर है. आसपास के पहाड़ों में, शहर से दूर, कुछ पुराने कोन्त्रा अब भी बचे हुए हैं. लेकिन अब छोटे परिवार होते हैं इसलिए अब एक कोन्त्रा में एक खानदान नहीं रहता, घरों में अलग अलग परिवार रहते हैं.

जहाँ एउजेनियो का परिवार रहता था उसका नाम था "कोन्त्रा ज़ारानतोनेल्लो". एउजेनियो का एक बड़ा भाई था, ज्योवानी और एक बहन, एम्मा. उनके पारिवारिक नाम ज़ारानतोनेल्लो के "ज़ारा" शब्द के अर्थ पर कुछ विवाद था. कोई कहता कि यह नाम किसी पूर्वी यूरोप से आने वाले पूर्वज़ की वजह से था. कोई कहता कि रूस के राजपरिवार ज़ार की वजह से यह नाम मिला था. इतिहास कुछ भी था, उसे जाँचने का कोई तरीका नहीं था. लेकिन इतिहासकारों के अनुसार, उत्तरी इटली के इस इलाके में पहले परिवार सन 900-1000 ईस्वी के आसपास बसे जब दक्षिण जर्मनी से परिवार यहाँ रहने आये.

1894 के आसपास एउजेनियो ने अपना गाँव छोड़ा और 16 किलोमीटर दूर लेओग्रा (Leogra) नदी पर बसे छोटे से शहर स्कियो (Schio) में आ गया. जहाँ ऊन बनाने की एक फैक्टरी में कारीगरों की आवश्यकता थी. तब वल्दान्यो तथा स्कियो के बीच पक्की सड़क नहीं थी. दोनो शहरों के बीच में ऊँचा पहाड़ था, मग्रे (Magré). एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए घोड़े या टट्टू की आवश्यकता होती, पर अधिकतर लोग पैदल ही जाते. पहाड़ पार करने में पूरा दिन लग जाता था.

ऊन की फैक्टरी में काम करने वालों के लिए लेओग्रा नदी के किनारे घर बनवाये गये थे. वहीं एक घर एउजेनियो को भी मिला. मासिक पगार में से कुछ पैसे घर के लिए कट जाते, इस तरह से कुछ दशकों में वह घर एउजेनियो ने खरीद लिया. फैक्टरी में विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले लोगों के अलग अलग तरह के घर थे - मजदूरों के लिए छोटे घर, और मशीनों को चलाने वाले या सुपरवाइज़रों के लिए, कुछ बड़े घर. फैक्टरी का नाम था लानेरोस्सी (Lanerossi) यानि "रोस्सी की ऊन", जिसका मालिक रोस्सी परिवार था.

पर लानेरोस्सी ऊन फैक्टरी के मालिक सोचते थे कि सब लोगों को मिल जुल कर रहना चाहिये, पगार या काम की वजह से, लोगों के बीच में ऊँच नीच नहीं होनी चाहिये. इसलिए छोटे और बड़े घर साथ साथ बने मिलजुल कर बनाये गये थे. यानि घरों की एक कतार में, एक दो घर बहुत बड़े बनाये गये थे, बीच में कुछ घर मध्यम बड़े बने थे, जबकि मजदूरों वाले घर छोटे थे.

एउजेनियो को मज़दूरी का काम मिला था, इसलिए उसका घर छोटा था. दो कमरे थे, एक कमरा नीचे और एक ऊपर. घर के आगे पीछे कुछ फ़ल सब्ज़ी लगाने की जगह थी. पीछे आँगन में टीन की छत का कच्चा पाखाना बना था. नीचे वाले कमरे में एक दीवार में आग जलाने की जगह थी जहाँ खाना बनता. नहाने की कोई अलग जगह नहीं थी, बस आँगन में पानी का पम्प था. सर्दी में जब बर्फ़ जमती और तापमान शून्य से नीचे जाता तो लोग गीले कपड़े से बदन पोछ लेते, नहाना तो सम्भव नहीं था.

एउजेनियो ने अपने गाँव की लड़की एम्मा से विवाह किया, पर बहुत देर से. शायद पहले किसी युवती से प्रेम था, जो सफ़ल नहीं हुआ था. तीन बच्चे हुए, एक बेटा मारियो, और दो बेटियाँ -  लीना और एम्मा. इस तरह घर में तीन एम्मा थीं, एउजेनियो की बहन एम्मा, पत्नी एम्मा और छोटी बेटी भी एम्मा.

उस समय घर में दस बारह लोग रहते थे. रिश्तेदारों में किसी को भी आवश्यकता होती तो यहीं आ कर रहता. एक कमरे में चार पाँच लोग सो जाते, एक दो लोग बाहर से आते तो बाकी लोग उनके लिए जगह बना देते.

1914-18 में प्रथम विश्व युद्ध हुआ तो उसका एक मोर्चा शहर से थोड़ी दूर, उत्तर में पासूबियो पहाड़ पर था. मारियो छोटा था, युद्ध में जाने से बच गया. घर के पास ही युद्ध में घायल सिपाहियों का अस्पताल बना था, जहाँ अमरीका से आये सिपाहियों में से अर्नेस्ट हेमिंगवे (Ernest Hemingway) नाम का एक नवयुवक भी था, जो अस्पताल की एमबुलेन्स में काम करता था, और बाद में प्रसिद्ध अमरीकी लेखक बना. उस पुराने अस्पताल की दीवार पर हेमिंगवे का नाम लिखा गया है.

49 वर्ष के थे एउजेनियो, जब दाँत निकलवाने गये और वहीं डैंटिस्ट की कुर्सी पर ही दम तोड़ दिया. तब तक छोटी बेटी एम्मा की मृत्यू हो चुकी थी. उस समय तक स्कियो के ऊन उद्योग इतना सफ़ल हुआ था कि शहर में कई ऊन की फैक्टरियाँ बन चुकी थीं. स्कियो की बढ़िया ऊन की चर्चा देश विदेश में होती.

एउजेनियो के बेटे मारियो को मोटरसाइकल का बहुत शौक था, उन्होंने मेकेनिक की नौकरी कर ली, जबकि बेटी लीना प्राथमिक स्कूल में पढ़ाने लगी.

मारियो मेरे ससुर थे. मैं उनसे कभी नहीं मिला, क्योंकि हमारे विवाह के कुछ वर्ष पहले ही उनका देहाँत हो गया था. उनकी पत्नी, यानि मेरी सास मारिया, स्कियो शहर के उत्तर में एक अन्य छोटे से गाँव से थीं, लेकिन उनका जन्म जर्मनी में हुआ था, जहाँ उनके पिता एक कोयले की खान में मज़दूर थे.

जिस घर में एउजेनियो 120 साल पहले रहने आये थे, उसी घर में बैठ कर मैं यह आलेख लिख रहा हूँ. जिस कमरे में मैं बैठा हूँ, यहाँ द्वितीय विश्व युद्ध में दो जर्मन सिपाही रहते थे. इन सभी घरों को जर्मन फौज ने ले लिया था, और रहने वाले परिवारों को छत के नीचे या बेसमैंट में रहना पड़ता.

समय के साथ, घर में और कमरे जुड़े, पानी आया, बिजली आयी, गैस आयी. इसी घर में मेरे ससुर पैदा हुए थे. मेरी पत्नी भी इसी घर में पैदा हुई थी. करीब ही वह घर है जहाँ मेरी पत्नी को पैदा करवाने वाली दायी रहती थी, अब वहाँ उस दायी का पोता रहता है. हमारा बेटा अस्पताल में पैदा हुआ था, पर दो दिन के बाद उसे भी इसी घर में ले कर आये थे. पिछले कुछ सालों से यहाँ मेरी पत्नी के सबसे बड़े भाई अकेले रहते थे. उनकी मृत्यू के बाद यह घर हमारा हो गया है, और हम लोग यहाँ छुट्टियों में रहने आते हैं.

यह शहर पहाड़ों से घिरा है. पहले कुछ छोटे पहाड़ हैं जैसे सुम्मानो, नवेन्यो, वेलो, मग्रे और रागा. उनके पीछे ऊँचे पहाड़ हैं जो सारा वर्ष बर्फ़ से ढके रहते हैं, जैसे कोर्नेत्तो, बाफेलान, करेगा, पासूबियो, आदि. घर से बाहर निकलते ही लोगों से नमस्ते शुरु हो जाती है. हालाँकि पिछले दशकों में यहाँ रहने वाले बहुत लोग बदले हैं, पर बहुत से पुराने परिवार अब भी वही हैं, जो एक दूसरे की पुश्तों को जानते हैं. पत्नी साथ न हो तो मैं उन्हें नहीं पहचान पाता लेकिन वे मुझे पहचानते हैं.

मेरी पत्नी के मौसेरे, चचेरे, ममेरे परिवारों के रिश्तों का जाल फ़ैला है हमारे घर के चारों ओर, हालाँकि उनमें से किसी के घरों में आने जाने का रिवाज़ नहीं है. मेरी पत्नी से कभी कभी किसी रिश्तेदार की टेलीफ़ोन पर बात होती है, पर उसके अतिरिक्त शादी ब्याह पर भी नहीं बुलाये जाते. पहले ऐसा नहीं था. मेरे बड़े साले बताते थे कि जब वह छोटे थे तो परिवार के लोगों के यहाँ आना जाना नियमित होता था, विवाह या त्योहारों पर सब लोग मिलते थे. बदलाव 1950-60 के दशकों में आया जब समृद्धी बढ़ी, परिवार छोटे होने लगे. अब अपने विवाह में बच्चे कभी कभी अपने माता पिता तक को नहीं बुलाते. जब मेरी सास जीवित थीं तब उनकी बहनों, तथा उनके परिवारों से कुछ मुलाकात हुई थी.

हमारे इन पुराने फैक्टरी के घरों को स्कियो शहर के उद्योगिक इतिहास का हिस्सा मान कर शहर की  "साँस्कृतिक धरौहर" कहते हैं. इसलिए इन घरों को बाहर से बदला नहीं जा सकता, न ही बाहर कुछ नया बना सकते हैं, न ही घरों के रंग बदल सकते हैं. जिस तरह के यह घर बने थे, बाहर से आज भी वैसे ही दिखते हैं. उस समय के हिसाब से इन घरों के सामने की सड़क चौड़ी रही होगी, हालाँकि आजकल कारों के खड़े रहने थे, छोटी लगती है.

"वह खिड़की देखो", मेरी पत्नी ने मुझसे कहा. हम लोग शाम को सैर को निकले थे. पुरानी गिरती हुई इमारत थी, जहाँ किसी ज़माने में ऊन की फैक्टरी होती थी. वह फैक्टरी तो अब कुछ दशकों से बन्द पड़ी है. "वहाँ काम करती थी मेरी माँ", मेरी पत्नी ने मुझे इशारा करके बताया, "मैं स्कूल से आती तो माँ को उस खिड़की पर देखती थी, कुछ कहना होता तो माँ मुझे इशारा कर देती थी."

हम दोनो जब भी सैर को निकलते हैं तो हर बार मेरी पत्नी बीते कल की बातें बताती रहती है. जब वह कहती है कि "यहाँ हम साइकल से आते थे" तो कभी कभी विश्वास नहीं होता, इतनी दूर ऊँचे पहाड़ पर साइकल चला कर आना कैसे हो सकता था? आजकल के बच्चे बड़े तो ऐसा नहीं करते!

इक्का दुक्का छोड़ कर, यहाँ की ऊन की सभी फैक्टरियाँ कब की बन्द हो चुकी हैं. अब यहाँ ऊन चीन या भारत आदि देशों से आयात करते हैं. कार से जाओ तो, हमारे घर से, मेरे ससुर के पिता एउजेनियो के गाँव कोरनेदो जाने में करीब आधा घँटा लगता है. पिछले कुछ दशकों तक यहाँ विभिन्न तरह के नये उद्योग बने थे. लुक्सओटिका और बेनेटोन जैसी फैक्टरियों ने विश्व भर में सफलता पायी थी. लेकिन थोड़े ही समय में वैश्वीकरण से वह सब बदलने लगा है. उद्योगपति यहाँ की फैक्टरियाँ बन्द करके विकासशील देशों में फैक्टरियाँ लगा रहे हैं. लोग यह छोटा शहर छोड़ कर, बड़े शहरों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं.

अब यहाँ शहर में पिछले बीस वर्षों में उत्तरी अफ्रीका, मध्यपूर्व और एशिया से बहुत से प्रवासी आ गये हैं. बँगलादेशी दुकान में सब मिर्च मसाला मिल जाते हैं. आसपास के पहाड़ी गाँवों में भी कभी कभी बुर्का पहने या शाल से सिर को ढकने वाली औरतें दिख जाती हैं. दुनिया बदल रही है, यह शहर भी बदलने को मजबूर हैं.

Agno river, Valdagno, family story - S. Deepak, 2011-13
Schio, family story - S. Deepak, 2011-13
Schio, family story - S. Deepak, 2011-13
Schio, family story - S. Deepak, 2011-13
Schio evening - S. Deepak, 2011-13

ऐसे ही सदियों से एक धारा में चलने वाले जीवन बदल रहे हैं. पुरानी जीवन धारा बदल कर नयी धाराएँ बन रही हैं. समय के साथ बदलते शहर और घर, और बदलते हम, हमारे इतिहास और शहरों के इतिहास. सारे धागे आपस में जुड़े, मिले हुए हैं. जब तक हम हैं तो सब कुछ महत्वपूर्ण लगता है, पर जाने के बाद कुछ साल दशक बीत जाते हैं और धीरे धीरे सब गुम हो जाता है.

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सोमवार, मार्च 04, 2013

हिन्दी में समलैंगिकता विषय पर लेखन


प्रोफेसर अलेसाँद्रा कोनसोलारो उत्तरी इटली में तोरीनो (Turin) शहर में विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी की प्रोफेसर हैं. उन्होंने बात उठायी मेरे एक 2007 में लिखे आलेख की जिसमें मैंने हिन्दी पत्रिका हँस में तीन हिस्सों में छपी हिन्दी के जाने माने लेखक पँकज बिष्ट की कहानी "पँखोंवाली नाव" की बात की थी. अलेसाँद्रा ने मुझसे पूछा कि क्या यह कहानी कहीं से मिल सकती है? इस कहानी में दो मित्र थे, जिनमें से एक समलैंगिक था. मैंने अपने आलेख में एक ओर तो बिष्ट जी द्वारा समलैंगिकता के विषय को छूने का साहस करने की सराहना की थी, वहीं मुझे यह भी लगा था कि इस कहानी में समलैंगिकता को "बाहर" या "विषमलैंगिक" दृष्टि से देखा सुनाया गया है, उसमें कथा के समलैंगिक पात्र के प्रति आत्मीयता कम है.

जहाँ तक मुझे मालूम है, बीच में कुछ समय तक हँस में छपी सामग्री इंटरनेट पर भी मिल जाती थी, लेकिन बहुत समय यह बन्द है. मेरे पास 2007 के हँस के कुछ अंक हैं लेकिन यह कहानी पूरी नहीं है, उसका बीच का भाग जो सितम्बर 2007 के हँस में छपा था, वह नहीं है. क्या आप में कोई सहायता कर सकता है या कोई तरीका है सितम्बर 2007 अंक से इस कहानी को पाने का? अगर किसी के पास हँस का वह अंक हो तो उसे स्कैन करके मुझे भेज सकता है.

अलेसाँद्रा के कुछ अन्य प्रश्न भी थे - हिन्दी में समलैंगिकता-अंतरलैंगिकता के विषय पर कौन सी महत्वपूर्ण कहानियाँ और उपन्यास हैं? हिन्दी में समलैंगिक या अंतरलैंगिक लेखक या लेखिकाएँ हैं? अगर हाँ तो वह इस विषय पर क्या लिख रहे हैं?

अलेसाँद्रा के इन प्रश्नों का मेरे पास कोई उत्तर नहीं. इंटरनेट पर खोजने से कुछ नहीं मिला. क्या आप में कोई इस विषय में हमारी सहायता कर सकता है यह जानकारी एकत्रित करने के लिए कि इस विषय पर किस तरह का लेखन हिन्दी में है और हो सके तो उनके लेखकों से सम्पर्क कराने के लिए?

Queer writing - graphic by S. Deepak, 2013

पिछले दशकों में लेखन और साहित्य विधाओं में सच्चेपन (authenticity) और "जिसकी आपबीती हो वही अपने बारे में लिखे" की बातें उठी हैं. इस तरह से साहित्य में नारी लेखन, शोषित जनजातियों के लोगों के लेखन, दलित समाज के लोगों के लेखन, जैसी विधाएँ बन कर मज़बूत हुई हैं. इन्हीं दबे और हाशिये से बाहर किये गये जन समूहों में समलैंगिक तथा अंतरलैंगिक व्यक्ति समूह भी हैं, जिनके लेखन की अलग साहित्यिक विधा बनी गयी है जिसे अंग्रेज़ी में क्वीयर लेखन (Queer writings) कहते हैं. शब्दकोश के अनुसार "क्वीयर" का अर्थ है विचित्र, अनोखा, सनकी या भिन्न. यानि अगर बात लोगों के बारे में हो रहे हो तो इसका अर्थ हुआ आम लोगों से भिन्न. लेकिन अँग्रेज़ी में "क्वीयर" का आधुनिक उपयोग "यौनिक भिन्नता" की दृष्टि से किया जाता है. तो इस तरह के लेखन को बजाय "समलैंगिक-अंतरलैंगिक लेखन" कहने के बजाय हम "यौनिक भिन्न लेखन" भी कह सकते हैं. पश्चिमी देशों में विश्वविद्यालय स्तर पर जहाँ साहित्य की पढ़ायी होती है, तो उसमें साहित्य के साथ साथ, नारी लेखन, जनजाति लेखन, यौनिक भिन्न लेखन, विकलाँग लेखन, जैसे विषयों की पढ़ायी भी होती है.

नारी लेखन, दलित या जन जाति लेखन जैसे विषयों पर मैंने हँस जैसी पत्रिकाओं में या कुछ गिने चुने ब्लाग में पढ़ा है. लेकिन हिन्दी में विकलाँगता लेखन या समलैंगिक लेखन, इसके बारे में नहीं पढ़ा.

बहुत से लोग, लेखकों और लेखन को इस तरह हिस्सों में बाँटने से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि लेखन केवल आपबीती नहीं होता, कल्पना भी होती है. अगर हम यह कहने लगें कि लेखक केवल अपनी आपबीती पर ही लिखे तो दुनिया के सभी प्रसिद्ध लेखकों का लिखना बन्द जाये. खुले समाज में जहाँ जन समान्य निर्धारित करे कि जो आप ने लिखा है वह पढ़ने लायक है या नहीं, उसे लोग खरीद कर पढ़ना चाहते हें या नहीं, यही लेखन की सार्थकता की सच्ची कसौटी है.

दूसरी ओर यह भी सच है कि समाज के हाशिये से बाहर किये और शोषित लोगों की आवाज़ों को शुरु से ही इतना दबाया जाता है कि वह आवाज़ें मन में ही घुट कर रह जाती हैं, कभी निकलती भी हैं तो इतनी हल्की कि कोई नहीं सुनता. आधा सच जैसे प्रयास भी अक्सर हर ओर से चारदीवारियों में घेर कर बाँध दिये जाते हैं जिन पर उन चारदीवारों से बाहर चर्चा न के बराबर होती है. इस स्थिति में यौनिक भिन्न लेखन की बात करके उन आवाज़ों को पनपने और बढ़ने का मौका देना आवश्यक है. जब उन आवाज़ों में आत्मविश्वास आ जाता है तो वह खुले समाज में अन्य लेखकों की तरह सबसे खुला मुकाबला कर सकती हैं.

रुथ वनिता तथा सलीम किदवाई द्वारा सम्पादित अँग्रेज़ी पुस्तक "भारत में समलैंगिक प्रेम - एक साहित्यिक इतिहास" ("Same sex love in India - a literary history" edited by Ruth Vanita and Saleem Kidwai, Penguin India, 2008) कुछ आधुनिक लेखकों की रचनाओं की बात करती है.

रुथ से मैंने पूछा कि अगर कोई लेखक जो स्वयं को समलैंगिक/द्विलैंगिक/अंतरलैंगिक न घोषित करते हुए भी यौनिक भिन्नता के बारे में लिखें तो क्या उसे "यौनिक भिन्न साहित्य" माना जायेगा?

तो रुथ ने कहा कि "यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि आप "क्वीयर" को किस तरह परिभाषित करते हैं? मेरे विचार में इस विषय पर कोई भी लिखे, चाहे वह स्वयं को यौनिक रूप से भिन्न परिभाषित करे या न करे, वह स्वीकृत होगा. किसकी यौनता क्या है, यह हम कैसे जान सकते हैं? इस विषय पर बहुत से हिन्दी लेखकों ने लिखा है जैसे कि राजेन्द्र यादव,निराला, उग्र तथा विषेशकर, विजयदान देथा जिन्होंने राजस्थानी में लिखा, उस सब को "समलैंगिक साहित्य" कह सकते हैं. चुगताई का लिखा जैसे कि "तेरही लकीर" के हिस्से और "लिहाफ़" भी इसी श्रेणी में आता है, हालाँकि यह उर्दू में लिखे गये. हरिवँश राय बच्चन की आत्मकथा, "क्या भूलूँ क्या याद करूँ" में वह भाग है जिसके बारे में नामवर सिंह ने कहा था कि वह एक पुरुष का दूसरे पुरुष के लिए प्रेम की स्पष्ट घोषणा थी."

यह जान कर अच्छा लगा कि हिन्दी-उर्दू जगत में जाने माने लेखकों ने इस विषय को छूने का साहस किया है, आज से नहीं, बल्कि कई दशकों से यह हो रहा है. लेकिन मैंने सोचा कि रूथ के दिये सभी उदाहरण कम से कम 1960-70 के दशक से पहले के हैं. जबकि मुझे अपने प्रश्न का उत्तर नहीं मिला कि, पिछले तीस चालिस सालों में यौनिक भिन्नता की दृष्टि से, पँकज बिष्ट की हँस में छपी कहानी "पँखवाली नाव" के अतिरिक्त क्या कुछ अन्य लिखा गया?

इस बहस में एक अन्य दिक्कत है जो कि साँस्कृतिक है और मूल सोच के अन्तरों से जुड़ी हुई है. पश्चिमी विचारक, कोई भी विषय हो, चाहे विज्ञान या दर्शन, वनस्पति या मानव यौन पहचान, वे हमेशा हर वस्तु, हर सोच को श्रेणियों में बाँटते हैं. जबकि भारतीय परम्परा के विचारक में हर वस्तु, हर सोच में समन्वय की दृष्टि देखते हैं. इस तरह से बहुत से यौनिक मानव व्यवहार हैं जिन्हें भारतीय समाज ने समलैंगिक-अंतरलैंगिक-द्वीलैंगिक श्रेणियों में नहीं बाँटा. जैसे कि महाभारत में चाहे वह शिखण्डी के लिँग बदलाव की कथा हो या अर्जुन का वर्ष भर नारी बन के जँगल घूमना हो, इन कथाओं में परम्परागत भारतीय विचारकों ने यौनिक भिन्नता की परिभाषाएँ नहीं खोजीं. तो सँशय उठता है कि हिन्दी में "क्वीयर साहित्य" की पहचान करना, भारतीय सोच और दर्शन को पश्चिमी सोच के आईने में टेढ़ा मेढ़ा करके बिगाड़ तो नहीं देगा?

इसी भारतीय तथा पश्चिमी सोच के अन्तर के विषय पर एक अन्य उदाहरण श्री अमिताव घोष की अंगरेज़ी में लिखी पुस्तक "सी आफ पोप्पीज़" (Sea of poppies) है जिसमें एक पात्र हैं बाबू नबोकृष्णो घोष जो तारोमयी माँ के भक्त हैं और इसी भक्ति में लीन हो कर स्वयं को माँ तारोमयी का रूप समझते हैं. इस पात्र की कहानी को केवल अंतरलैंगिकता या समलैंगिकता के रूप में देखना, उसकी साँस्कृतिक तथा आध्यात्मिक जटिलता का एकतरफ़ा सरलीकरण होगा जिससे पात्र को केरिकेचर सा बना दिया जायेगा. इसलिए भारतीय भाषाओं में "क्वीयर लेखन" की बहस में इस बात पर ध्यान रखना भी आवश्यक है.

जैसे रुथ ने कहा कि कोई भी इस विषय पर अच्छा लिखे, तो अच्छी बात है और उसे सराहना चाहिये. लेकिन मेरी नज़र में यह उतना ही महत्वपूर्ण कि स्वयं को "यौनिक भिन्न" स्वीकारने वाले लोग भी लिखें. भारतीय समाज ने अक्सर इस दिशा में बहुत संकीर्ण दृष्टिकोण लिया है. इस सारी बहस को अनैतिक, गैरकानूनी व अप्राकृतिक कह कर समाज ने लाखों व्यक्तियों को शर्म और छुप छुप कर जीने, अन्याय सहने, घुट घुट कर मरने के लिए विवश किया है. पिछले दशक में इस बारे में कुछ बात खुल कर होने लगी है. ओनीर की "माई ब्रदर निखिल" और "आई एम" जैसी फ़िल्मों ने इस बहस को अँधेरे से रोशनी में लाने की कोशिश की है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध लेखक विक्रम सेठ ने अपने द्विलैंगिक होने के बारे में लिखा है. इस तरह से अगर यौनिक भिन्न लोग अपनी भिन्नता को स्वीकारते हुए लिखेंगे तो इस विषय को शर्म और अँधेरे में छुपे रहने से बाहर निकलने का रास्ता मिलेगा.

आज की दुनिया में अपने विचार अभिव्यक्त करने के लिए ब्लाग सबसे आसान माध्यम है. बड़े शहरों में और अंग्रेज़ी बोलने वाले युवक युवतियों ने ब्लाग की तकनीक का लाभ उठा कर "भिन्न यौनिक" ब्लाग बनाये हैं, जैसे कि आप इन तीन उदाहरणों में देख सकते हैं -  एक, दो, तीन.

जहाँ तक मुझे मालूम है, हिन्दी का केवल एक चिट्ठा है "आधा सच" जिसपर कुछ किन्नर या अंतरलैंगिक व्यक्ति अपनी बात कहते हैं. क्या इसके अतिरिक्त क्या कोई अन्य हिन्दी, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी आदि में इस तरह के अन्य चिट्ठे हैं? क्या स्थानीय स्तरों पर भारत के छोटे शहरों में, कस्बों में भी इस विषय पर लोगों ने कुछ लिखने की हिम्मत की है? क्या कुछ अंडरग्राइड पत्रिकाएँ या किताबें छपी हैं इस विषय पर?

यह नहीं कि चिट्ठों पर इस विषय पर लिखने मात्र से वह "यौनिक भिन्न" साहित्य हो जायेगा. साहित्य होने के लिए उसे साहित्य के मापदँडों पर भी खरा उतरना होगा, लेकिन शायद उन्हें शुरुआत की तरह से तरह से देखा जा सकता है जहाँ कल के "यौनिक भिन्न" साहित्य जन्म ले सकते हैं.

अगर आप के पास इस बारे में कोई जानकारी है तो कृपया मुझसे ईमेल से सम्पर्क कीजिये या नीचे टिप्पणीं छोड़िये. इस सहायता के लिए आप को पहले से ही मेरा धन्यवाद.

आप मुझसे ईमेल के माध्यम से सम्पर्क कर सकते हैं. मेरा ईमेल पता है sunil.deepak(at)gmail.com (ईमेल भेजते समय "(at)" को हटा कर उसकी जगह "@" को लगा दीजिये)

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मंगलवार, फ़रवरी 12, 2013

मानव और पशु

सुबह बाग में अपने कुत्ते के साथ सैर कर रहा था तो अचानक दूर से कुछ कुत्तों के भौंकने और लोगों के चिल्लाने की आवाज़ सुनायी दी. आगे बढ़ने पर दो आदमी ऊँची आवाज़ में बहस करते दिखे, दोनो के हाथ में उनके कुत्तों की लगाम थी जिसे वह ज़ोर से खींच कर पकड़े थे. दोनो कुत्ते बड़े बुलडाग जैसे थे, और एक दूसरे की ओर खूँखार दाँत निकाल कर गुर्रा रहे थे. हमारा कुत्ता छोटा सा है और बहुत बूढ़ा भी. डर के मारे मैं वापस मुड़ गया, यह सोच कर कि दूसरी ओर सैर करना बेहतर होगा.

मुझे वापस आता देख कर एक सज्जन जिनसे अक्सर बाग में दुआ सलाम होता रहता है और जिनकी छोटी कुत्तिया हमारे कुत्ते से भी छोटी है, मुस्करा कर बोले, "कुत्ते में टेस्टोस्टिरोन का हारमोन होता है, उससे वह अपने आप पर काबू नहीं रख पाते. कुत्तिया देखते हैं तो उस पर तुरंत डोरे डालने की कोशिश करते हैं और दूसरे कुत्तों से लड़ाई करते हैं. अब जब कुत्ता पाला है तो यह तो होगा ही, इसमें लड़ने की क्या बात है? यह तो कुत्तों की प्रकृति है. अगर कुत्तों का आपस में लड़ना पसंद नहीं है तो या तो उनका आपरेशन करके उनके अन्डकोष निकलवा दो, इससे टेस्टोस्टिरोन बनना बन्द हो जायेगा, और वे शाँत हो जायेंगे. कुत्ते का आपरेशन  नहीं कराना तो कुत्ता पालो ही नहीं, कुत्तिया रखो."

मैं उनकी बात पर देर तक सोचता रहा. टेस्टोस्टिरोन हारमोन सभी स्तनधारी जीवों में, विषेशकर हर जीव जाति के नरों में होता है. यह हारमोन माँसपेशियों का विकास करता है, शरीर में बाल उगाता है, आवाज़ को भारी करता है. सम्भोग की इच्छा और सम्भोग क्रिया में नर भाग निभाने की क्षमता भी इसी हारमोन से जुड़ी हैं.

यही सोच कर मन में यह बात आयी कि हमारे समाजों में जब किसी युवती को पुरुष मारता है, या उससे ब्लात्कार करता है तो अक्सर लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्यों कि उस लड़की ने उस पुरुष को कुछ ऐसा किया जिससे वह अपने पर काबू नहीं कर पाया. इसके लिए वे दोष देते हैं लड़की को, कि लड़की रात को अकेली बाहर गयी, या उसने पश्चिमी वस्त्र पहने थे या छोटे वस्त्र पहने या वह ज़ोर से हँस रही थी.  यानि उनका सोचना है कि चूँकि नर में टेस्टोस्टिरोन है इसलिए यह उसकी प्रकृति है कि जब मादा उसे आकर्षित करेगी तो वह अपने आप पर काबू नहीं कर पायेगा और उस पर हमला करेगा. इसलिए हमारे समाज लड़कियों को अपने शरीरों को चूनर, घूँघट या बुर्के में ढकने की सलाह देते हैं, कहते है कि बिना पुरुष के अकेली बाहर न जाओ, आदि.

Graphic - man attacking woman


शायद इसी बात को सोच कर बहुत से देशों में युवा लड़कियों के यौन अंगो को काट कर सिल दिया जाता है, या उन्हें शरीर ढकने, घर से बाहर न जाने की सलाह दी जाती है, ताकि उनके मन में यौन भावनाएँ न उभरें. शायद इसी वजह से हमारे समाजों ने रीति रिवाज़ बनाये जैसे कि विधवा युवती का सर मूँड दो, उसे सफ़ेद वस्त्र पहनाओ, उसे खाने में तीखे स्वाद वाली कोई चीज़ न दो, जिससे उसे न लगे कि वह जीवित है और उसकी भी कोई शारीरिक इच्छा हो सकती है. इस सब से युवती का आकर्षण कम होगा और अपने पर काबू न रख पाने वाले पुरुष उस पर हमला नहीं करेंगे.

यानि हमारे समाजों ने पुरुषों को पशु समान माना और यह माना कि उनमें किसी युवती को देख कर अपने आप को रोक पाने की क्षमता नहीं हो सकती. इस तरह से हमारे समाजों ने एक ओर "पुरुष अपनी प्रकृति पर काबू नहीं कर सकते" वाले नियम बनाये, जिससे स्वीकारा जाता है कि पुरुष शादी से पहले या विवाह के बाहर भी शारीरिक सम्बन्ध बना सकता है या कई औरतों से विवाह कर सकता है. दूसरी ओर नियम बनाये कि "नारी का अपनी प्रकृति को काबू में रखना ही नारी धर्म है", जिससे निष्कर्ष निकलता है कि अगर पुरुष कुछ भी करता है तो इसमें गलती हमेशा नारी की ही मानी जायेगी.

यानि यह समाज पुरुष को अन्य पशुओं की तरह देखता है, यह नहीं मानता कि परिवार की शिक्षा, समाज की सभ्यता और अपने दिमाग से पुरुष अपना व्यवहार स्वयं तय करता है.

पर इस तरह की सोच हमारे ही समाजों में क्यों बनी हुई है? जैसे यूरोप, अमरीका, ब्राज़ील आदि में समय के साथ बदल गयी है, वैसे हमारे समाजों में क्यों नहीं बदली? यूरोप, ब्राज़ील में आप समुद्र तट पर जाईये आप छोटी बिकिनी पहने या खुले वक्ष वाली युवतियाँ देख सकते हैं, उन पर वहाँ के पुरुष हमला क्यों नहीं करते? शायद यहाँ के पुरुषों में टेस्टोस्टिरोन की कमी है? लेकिन इन देशों में भारत, पाकिस्तान, अरब देशों आदि से आने वाले प्रवासी पुरुष क्यों नहीं इन युवतियों पर हमले करते, क्या यहाँ के कानून से डरते हैं या शायद यहाँ आने से उनके टेस्टोस्टिरोन भी कम हो जाते हैं?

आप ही बताईये क्या हम पुरुष पशु समान होते हैं क्योंकि हमे अपने पर काबू करना नहीं आता? मेरे विचार में यह सब बकवास है.

कुछ पुरुष मानसिक रोगी हो सकते हैं जिन्हें सही गलत का अंतर न मालूम हो. पर यह सोचना कि सभी पुरुष पशु होते हैं, उन्हें अपने शरीरों पर, अपने कर्मों पर काबू नहीं, यह मैं नहीं मानता. पुरुष किसी भी युवती पर हमला कर सकते हैं, इसलिए युवतियों को शरीर ढकना चाहिये, घर से अकेले नहीं निकलना चाहियें, शर्मा कर, छिप कर रहना चाहिये, मेरे विचार में यह सब गलत है.

जो लोग इसे स्वीकारते हैं, वह मानव सभ्यता को नकारते हैं, इस बात को नकारते हैं कि भगवान ने हमें दिमाग भी दिया है, केवल हारमोन नहीं दिये. मुझे लगता है कि इस तरह की सोच पुरुषों को बचपन से ही यह सिखाती है कि जो मन में आये कर लो, हमें औरतों को दबा कर रखना है. इसके लिए हमारे समाज धर्म, संस्कृति और परम्पराओं का सहारा लेते हैं इस तरह की सोच को ठीक बताने के लिए.

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शनिवार, फ़रवरी 09, 2013

अनैतिक राजनीति

आजकल रामचन्द्र गुहा की पुस्तक "देशभक्त और अन्धभक्त" (Patriots & Partisans, Allen Lane India, 2012) पढ़ रहा हूँ.

Cover Patriots & Partisans by Ramchandra Guha
मुझे गुहा के लिखने की शैली अच्छी लगती है. उनकी स्पष्ट और सीधी लेखन शैली में जटिल विचारों को सरलता से अभिव्यक्त करने की क्षमता है. यह बात नहीं कि मैं उनकी हर बात से सहमत होऊँ, लेकिन वह मुझे सोचने को विवश करते हैं.

उनकी किताब के शीर्षक में "पार्टीज़ान" (Partisan) शब्द है जिसके कई अर्थ हो सकते हैं. देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वालों को भी पार्टीज़ान कहते हैं, और किसी बात पर एक तरफ़ा सोचने वाले, या अन्धभक्तों को भी पार्टीज़ान कहते हैं. उनकी इस किताब में बातें आज कल के भारत के बारे में हैं, जहाँ कुछ वह लोग भी हैं जो, टीवी स्टूडियो, आत्मप्रचार और प्रसिद्धी से दूर, जन सामान्य के बीच में रह कर काम करने वाले हैं. दूसरी ओर, वह बात करते हैं उनकी जो देश का शोषण करके या धर्म या जाति के नाम पर विभिन्न मुद्दों पर जनता को भड़का कर अपनी जेबें भरने में लगे हैं. पुस्तक में भारत में होने वाले भ्रष्टाचार के इतिहास की भी बात है कि कैसे समय के साथ हमारी राजनीति बेशर्मी से भ्रष्टाचार की दलदल में धँस चुकी है.

गुहा एक ओर से जवाहरलाल नेहरु के प्रशँसक हैं और नेहरू के जीवन के बारे में बहुत बार लिखते हैं. लेकिन साथ ही वह नेहरू के वशंज यानि इन्दिरा गाँधी, उनके बच्चों तथा आधुनिक काँग्रेस नेताओं के प्रति सीधी भाषा में स्पष्ट आलोचना करते हैं. इस तरह की स्पष्ट आलोचना उनके स्तर के अन्य विचारकों की कम ही पढ़ने को मिली है.

उदाहरण के लिए उनकी किताब में एक अध्याय है "काँग्रेस में चमचागिरी का छोटा सा इतिहास", जिसमें उन्होंने सँजय, राजीव, सोनिया और राहुल गाँधी के बारे में दो टूक लिखा है -
"अगर शास्त्री रहते तो पता नहीं इन्दिरा गाँधी लन्दन रहने जाती या नहीं. पर अगर भारत में रहती भी तो उन्हें प्रधान मन्त्री बनने का मौका मिलना बहुत कठिन था. अवश्य ही उनके बेटे को यह पद कभी न मिलता. शास्त्री अन्य पाँच साल प्रधानमन्त्री रह पाते तो गाँधी-नेहरू का राजघराना न बनता. सँजय और राजीव गाँधी अब जीवित होते और अपना निजि जीवन जीते. आज संजय असफल बिज़नेसमेन होते, राजीव एक फोटोग्राफ़ी का शौक रखने वाले सेवानिवृत्त पायलेट. अन्त में अगर शास्त्री कुछ लम्बा जीवन जी पाते तो सोनिया घर सम्भालने वाले पति को प्यार करने वाली ग्रहणी होती और राहुल गाँधी किसी प्राईवेट कम्पनी में मध्य स्तर के मैनेजेर होते."

पर नेहरु गाँधी परिवार के राजघराने बनाये जाने और चापलूसी करने वाले काँग्रेस नेताओं की बात करते हुए भी वह व्यक्तिगत स्तर पर अन्धी आलोचना नहीं करते. जैसे कि सोनिया गाँन्धी के चुनावों में भाग लेने और कांग्रेस की नेता होने के बारे में लिखते हैं -
"अन्तोनिया मेइनो गाँधी" के नेतृत्व में 'रोम राज' के खतरों की बात करने वाले जाति और धर्म के नाम पर नफरत फ़ैलाने वाले लोग भारतीय जनता और विषशकर हिन्दुओं की सँकरी भावनाओं को बढ़ावा देना चाहते थे. लेकिन हिन्दुत्वप्रेमियों के अतरिक्त अन्य लोगों में इस बात को नहीं माना गया. वोटरों ने स्पष्ट कर दिया कि सोनिया गाँधी को जाँचने के मापदँड अन्य होंगे. वह इटली में पैदा हुईं या वह कैथोलिक धर्म की हैं इससे कुछ कुछ फ़र्क नहीं पड़ता. चालिस साल से भारत भूमि में रह कर वह भी भारतीय थीं."

दूसरी ओर उनकी किताब में भाजपा, काम्युनिस्ट, माओवादियों आदि की आलोचनाएँ कम भी नहीं हैं. उदाहरण के लिए माओवादियों के बारे में उन्होंने लिखा है -
"मुझे पहले से मालूम था कि नक्सली लोग गाँधीवादी नहीं है लकिन एक बार मुरिया की जनजाति के एक व्यक्ति ने जो मुझसे कहा, उसने मेरी नक्सलियों को सही समझने में मदद की. वह व्यक्ति अपने परिवार का पहला व्यक्ति था जिसे कालेज से डिग्री मिली थी और एक भूतपूर्व शिक्षक था जो कि माओवादी झगड़ों की वजह से बेघर हो गया था. उसने मुझसे कहा कि उन हिँसक क्राँतीकारियों की छवि के पीछे छुपे व्यक्तियों में नैतिक साहस नहीं था. उस व्यक्ति के शब्द आज भी मेरे कानों में गूँजते हैं, <नक्सलियों को हिम्मत नहीं कि हथियार गाँव के बाहर छोड़ कर हमारे बीच में आ कर बहस करें>. यह बहुत गहरी और विचारनीय दृष्टि थी गणतंत्र के सही अर्थ की समझ की. ऊपरी कठोरता और विचारनिष्ठा के दिखावे के बावजूद, नक्सलियों में अपने आप में डर था और वह जनतंत्रिक बहस में भाग नहीं ले सकते, गरीब और बिना हथियारों वाले ग्रामीण लोगों से नहीं."

एक ओर गुहा बात करते हैं विकास की, प्राइवेट सेक्टर को अधिक मौका देने की, तकनीकी विकास को बढ़ावा देने की. पर साथ ही बात करते हैं ज़िम्मेदारी की और पर्यावरण के संरक्षण की. इस तरह से वह गाँधीवाद या साम्यवाद की दृष्टि से "गाँवों में ही भारत का भविष्य है" और "बिना तकनीकी जीवन अच्छा है" या "प्राइवेट सेक्टर हव्वा है" जैसी बातों से स्वयं को दूर करते हैं. दूसरी ओर वह बात करते हैं कि आर्थिक और सामाजिक विकास ज़िम्मेदारी से हो. इस विषय में इस किताब में उन्होंने समाचारपत्र और टीवी जगत, विषेशकर अग्रेज़ी मीडिया की, कड़ी आलोचना की है. वह कहते हैं कि मीडिया लालची उद्योगपतियों के पास गिरवी है और अधिकतर अपनी स्वतंत्र राय न दे कर, उद्योगपति कैसे देश को नोच विनाश कर सकें, इसका साथ देता है और जो लोग पर्यावरण या गरीब लोगों के अधिकारों की बात करें तो उनका विरोध करता है.

यह सच है कि आज के समाज में वामपंथी या दक्षिणपंथी या परम्परावादी राजनीतिक दलों की बात करना कुछ कठिन हो गया है. जिन दलों को हम वामपंथी सोचते थे वे किसी विषय पर पराम्परावादी बातें भी करते हैं.

गुहा सत्तर के दशक में इन्दिरा गाँधी और बाद के दशकों में उनके परिवार को ही भारत में राजनीतिक नैतिकता के पतन का दोष देते हैं. इस विचार से मैं उनसे पूरी तरह सहमत नहीं हूँ. मेरे विचार में इन्दिरा गाँधी ने अगर भारत की संवैधानिक संस्थाओं का अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति की तरह उपयोग किया, अपने बेटों को राजपाठ के वशंज बनाया और तानाशाही का प्रारम्भ किया तो इसमें उनके आसपास के सारे समाज का भी पूरा योगदान था. उस समाज ने इस सब का कितना विरोध किया? ताकतवर के सामने झुकना, उसके तलुए चाटना, चापलूसी करना और उसकी शह में भ्रष्टाचार करना, यह सब हमारे समाज ने किया, केवल इन्दिरा घाँधी या संजय गाँधी ने अकेले नहीं शुरु किया.

आज भारत के किस राज्य में कौन से राजनीतिक दल अपने बच्चों, परिवार वालों को सत्ता में नहीं ला रहे? कौन से राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिए अनैतिक तरीके नहीं अपना रहे और जातिवाद या धर्मवाद, इससे ऊपर उठ रहे हैं? कितने हैं तो व्यक्तिगत नहीं, भारत के हित की सोचते हैं? सत्ता के शिखर से समाज के सबसे गरीब तबके तक, कितने लोग हैं जो मौका मिलने पर भ्रष्टाचारी नहीं हैं?

भारत की स्वंत्रता मिलने के बाद के दशकों के सीधे साधे नेता, जो सामान्य जीवन जीते थे, जिनमें देशभक्ती का दिखावा कम था और व्यक्तिगत नैतिकता अधिक थी, वैसे राजनीतिक नेता आज कितने हैं? आज हर ओर अनैतिक और भ्रष्ट नेताओं का बोलबाला है जो देशभक्त होना का दिखावा भी ठीक से नहीं करते.

चाहे अन्ना हज़ारे का आँदोलन हो या "आम आदमी पार्टी" का संघर्ष, हर ओर फ़ैले भ्रष्टाचार और अनैतिकता से बाहर ला कर अपने समाज को कैसे बदल सकते हैं? गुहा की किताब इस सब बातों पर सोचने को विवश करती है.

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