शनिवार, फ़रवरी 22, 2014

हमारे शरीर, सामाजिक विद्रोह व कलात्मक अभिव्यक्ति

सदियों से पैसे वाले व ताकतवर लोग अपनी तस्वीरें बनवाते आये हैं. पिछली सदी में फोटोग्राफ़ी के विस्तार से हर कोई अपनी तस्वीरें खिचवाने लगा. पिछले दशक में डिजिटल कैमरों के प्रचार से और फेसबुक, टिविटर जैसी वेबसाइट के वजह से तस्वीर खीचना और उस पर बातें करना इतना फैला है कि कुछ लोग मानते हैं कि यह सदी शब्दों की नहीं तस्वीरों की सदी कहलायेगी और इससे मानव सभ्यता में बड़ा बदलाव आयेगा. इन सब की वजह से लोगों का अपनी असहमती दिखाना, विद्रोह प्रदर्शित करना या अपनी बात को कलात्मक तरीकों से अभिव्यक्त करना, इस सब में भी नये प्रयोग हो रहे हैं.

शायद फेमेन (Femen) की विद्रोही युवतियों के बारे में आप ने सुना होगा जो कि अपने वस्त्रहीन शरीर के माध्यम से अपनी बात कहती हैं?

फेमेन का नारा है "मेरा शरीर, मेरा घोषणापत्र". फेमेन में हिस्सा लेने वाली युवतियाँ कहती हैं कि वे लोग नारी का यौनिक शोषण, तानाशाही व धर्म के माध्यम से नारी शरीर पर अधिपत्य कायम करने के विरुद्ध हैं. अक्सर फेमेन की युवतियों पर विभिन्न देशों की सरकार व पुलिस बहुत सख्ती से पेश आती हैं, शायद क्योंकि उनके इस वस्त्रहीन विद्रोह में पृतसत्ता पर आधारित समाज की नींव हिलाने वाली बात है जोकि नारी शरीर को नैतिकता से ढकने पर टिका है.

नारी का शरीर ढकना, लज्जा करना, कौमार्य बचाना आदि को विभिन्न समाजों ने इतना महत्वपूर्ण माना है कि उसे धार्मिक ग्रंथों की सहायता से भगवान के दिये आदेशों की मान्यता दी है. बचपन से ही कन्याओं को यह सिखाया जाता है कि यही नारी का जन्मजात स्वभाव है, और पुरुषों को सीख दी जाती है कि माँ, पत्नी व बहनों के इस लक्ष्मणरेखा में बाँध कर रखने में उनकी व उनके पूर्वजों की इज्जत व आत्मसम्मान निहित हैं.

फेमेन का जन्म यूक्रेन में 2008 में हुआ और जल्दी ही पूर्वी व पश्चिमी यूरोप से होता हुआ उत्तरी अफ्रीका व मध्यपूर्व के देशों तक फ़ैल गया. कुछ समय पहले, मिस्र की आलिया अलमाहदी ने जब फेसबुक के माध्यम से अपनी वस्त्रहीन तस्वीर लगा कर अपने परिवार व समाज के प्रति अपना विद्रोह अभिव्यक्त किया तो कुछ लोगों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी और उन्हें मिस्र छोड़ कर स्वीडन में शरण लेनी पड़ी. लेकिन आलिया ने देशनिकाला ले कर भी अपना विद्रोह नहीं छोड़ा, स्वीडन में मिस्री दूतावास के सामने उन्होंने वस्त्रहीन हो कर, हाथ में कुरान को ले कर अपना विद्रोह जताया (आलिया का वीडियो). इससे उनकी जान लेने वाले और बढ़ गये हैं और उन्हें कुछ कुछ दिनो में घर बदल कर, भेष बदल कर रहना पड़ रहा है.

दूसरी ओर शारीरिक नग्नता को कला के माध्यम से सामाजिक संदेश पहुँचाने का माध्यम भी बनाया गया है. अमरीकी फोटोग्राफर स्पैन्सर ट्यूनिक अपनी अमूर्त कला तस्वीरों के लिए बड़ी संख्या में लोगों की वस्त्रहीन तस्वीर खींचने के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं, उनके बारे में मैंने कई वर्ष पहले लिखा था.

मैं अपने शरीर के माध्यम से दुनिया को संदेश देने वाले लोगों के साहस की दाद देता हूँ. इसलिए जब मेरे ब्राज़ीली मित्र मारसेलो ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके "शरीर के माध्यम से संदेश देने" के फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना चाहुँगा तो मैंने तुरंत हाँ कर दी. मारसेलो के इस फोटोप्रोजेक्ट का नाम है "आ फ्लोर दा पेले" यानि "त्वचा के फ़ूल".

मारसेलो ने एडस् रोग से पीड़ित बच्चों के साथ काम किया है और वह इस फोटोप्रोजेक्ट से सामाजिक व पर्यावरण सरंक्षण का संदेश देना चाहते हैं. उनकी तस्वीरों में शरीर का कमर से ऊपर का हिस्सा वस्त्रहीन होता है जिसपर रंगों से चित्र बनाये जाते हैं. अप्रैल के महीने में मारसेलो इटली आयेगा तो इसके लिए मेरी भी तस्वीर खिंचेगी. आधे धड़ की तस्वीर खिंचवाने में कोई साहस नहीं चाहिये, इसलिए मैं चितित भी नहीं हूँ!

मैं सोच रहा हूँ कि मारसेलो की तस्वीर के लिए शरीर पर कौन सा डिजाइन बनवाना चाहिये? कुछ ऐसा होना चाहिये जिसमें भारत भी हो और प्रकृति व पर्यावरण की बात भी हो. अगर आप के पास कोई सुझाव हों तो अवश्य बताईयेगा.

जब मारसेलो मेंरी तस्वीर खीचेगा तो उसके बारे में आपको बताऊँगा. लेकिन मैं पहले भी कुछ फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा ले चुका हूँ जिनकी कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं:

(1) पहली तस्वीर मेरा कार्टून है जो मारसेलो ने सन 1997-98 के आसपास एक ब्राज़ील यात्रा के दौरान बनाया था.

Sunil Deepak by Marcelo Mendonça

(2) दूसरी तस्वीर वह है जो कुष्ठ रोग दिवस के अवसर पर एक इतालवी पोस्टर के लिए 2003 में खींची गयी थी. इस पोस्टर से कुछ दिनों के लिए मुझे कुछ प्रसिद्ध मिली थी, क्योंकि यह तस्वीर बहुत सी पत्रिकाओं में छपी थी. जहाँ जाता कुछ लोग पहचान जाते , उँगली उठा कर मेरी ओर इशारा करते.

Sunil Deepak for world leprosy day campaign 2003

(3) तीसरी तस्वीर है सन् 2011 से जब मैंने इतालवी कलाकार विर्जिनया फरीना के मृत्यू के बारे में विभिन्न संस्कृतियों में क्या विचार हैं जो कि इस विषय पर आधारित फोटोप्रोजेक्ट के लिए खिचवायी थी. इस तस्वीर को खींचने के लिए उन्होंने अँधेरे कमरे में एक टोर्च व एक गोल नली का उपयोग किया था जिससे वह मृत्यू का आभास देना चाहती थीं.

Sunil Deepak by Virginia farina

इस प्रोजेक्ट की प्रदर्शनी बोलोनिया शहर के कब्रिस्तान में सात सौ वर्ष पुरानी कब्रों के कक्ष में लगी थी. मुझे कई लोगो ने कहा था कि इसमें हिस्सा न लो, जीते जी मरने की तस्वीर खिंचवाना ठीक नहीं होगा. पर मुझे इस फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगा था.

Exhibition of Virginia farina at Certosa cemetery of Bologna

(4) चौथी तस्वीर है पिछले वर्ष से जब लाउरा फ्रास्का व लाउरा बासेगा नाम की दो युवतियों ने इटली में रहने वाले विभिन्न देशों के प्रवासियों के बारे में फोटोप्रदर्शनी बनायी थी. इसमें मुझे एक किताब की दुकान में बैठ कर किताब पढ़ते हुए दिखाया गया था.

Sunil Deepak by Laura Frasca & Laura Bassega

(5) यह अंतिम तस्वीर है इसी वर्ष यानि 2014 की. विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के बारे में चित्रकथा की किताब में मैं भी एक पात्र हूँ. इसको बनाने वाले कलाकार का नाम है कनजानो.

Sunil Deepak by Kanjano

मेरे विचार में एक विषय को ले कर तस्वीरें खीचने का प्रोजेक्ट बनाना कला की नयी विधि है जिससे सामाजिक संचेतना लाना कुछ आसान हो जाता है क्योंकि जितने अधिक लोग इसमें हिस्सा लेते हैं, उनमें से हर कोई फेसबुक, टिविटर, ब्लाग, आदि के माध्यम से अपने परिवार, मित्रों आदि में इसका विज्ञापन करता है और अधिक लोगों को इसके बारे में जानकारी मिलती है.

जिस तरह से मारसेलो ने अपना प्रोजेक्ट बनाया है, उसमें सभी तस्वीरें ब्लाग पर लगायी जा रही हैं इसलिए प्रदर्शनी लगाने का खर्चा नहीं है और यह प्रोजेक्ट वह धीरे धीरे कई सालों तक बना सकते हैं.

मुझे आशा है कि आप को इनसे अपना कोई फोटोप्रोजेक्ट बनाने की प्रेरणा मिलेगी! अगर   ऐसा हो तो मुझे इस बारे में अवश्य बताईयेगा.

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सोमवार, फ़रवरी 03, 2014

रेखाचित्र और स्मृतियाँ - अंतिम भाग (भाग 3)

1980 में में इटली घूमते हुए एक डिज़ाईन पुस्तिका में मैं रेखाचित्र बनाता था. उन्हीं रेखाचित्रों पर आधारित यह एक स्मृति यात्रा के विवरण का तीसरा व अंतिम भाग है. ( पहला भाग - दूसरा भाग)

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अस्पताल में कुछ मित्रों ने एक एल्पस् के पहाड़ पर चढ़ाई का कार्यक्रम बनाया था. उन्होंने मुझे भी अपने साथ चलने को कहा तो मैं तुरंत तैयार हो गया. यह निर्णय मैंने बिना सोचे समझे लिया था क्योंकि इससे पहले कभी पहाड़ पर चढ़ाई पर नहीं गया था. मित्रों ने कहा कि पहाड़ पर चढ़ने के लिए कील वाले जूते होने चाहिये, जो मेरे पास नहीं थे, तो एक मित्र से उसके जूते ले लिये.

कार यात्रा से बर्फ़ से ढके पहाड़ों के पास पहुँचे तो मन में कुछ संदेह हुआ और थोड़ा डर भी लगा कि शायद यह काम उतना आसान नहीं था जितना मैंने सोचा था. सुबह छः बजे के करीब चढ़ाई शुरु हुई. थोड़ी देर में मैं हाँफने लगा, पर कोशिश की कि अन्य लोगों को मालूम नहीं चले. दोपहर तक मेरा बुरा हाल हो चुका था. थकान व टाँगों में दर्द के अतिरिक्त एक अन्य दिक्कत भी थी - मित्र से लिए उधार के जूते मेरे पाँवों पर ठीक से नहीं बैठे थे, और जूतों की रगड़ से पैरों पर छाले पड़ने लगे थे. इसे अपने साथियों से छुपाना असंभव था. मेरे साथी मेरे पैरों को देख कर चिन्तित हो रहे थे लेकिन मैंने कहा कि आधे रास्ते से वापस नहीं जाऊँगा. शाम को करीब पाँच बजे "करेगा" (Carega) नाम के पर्वत की चोटी पर पहुँचे तो जान में जान आयी.

पर्वत की चोटी से आसपास का विहँगम दृश्य बहुत सुन्दर था. वहाँ चोटी के पास ही चढ़ाई करने वालों के लिए एक पर्यटक होस्टल था जिसमें एक डारमेटरी थी. कुछ देर आराम किया तो पैरों को राहत मिली. गर्मियाँ थीं और सूरज रात को दस बजे के करीब अस्त होता था. उस शाम को वहीं पर्वत की चोटी पर बैठ कर मैंने उस होस्टल का चित्र बनाया.

Vicenza 1980

अगले दिन सुबह नाश्ता करने के लिए होस्टल के रेस्टोरेंट में गये तो भारत में परिवार को भेजने के लिए तस्वीर वाले पोस्टकार्ड खरीदे. उस समय ईमेल, फेसबुक जैसी कोई चीज़ नहीं थी, लोग यही पोस्टकार्ड भेजते और उन पर अपने सब लोगों से दस्तखत कराते. मैं अपने पोस्टकार्डों पर हिन्दी में लिख रहा था, तो मेरे आसपास स्काउट के किशोरों का झुँड एकत्रित हो गया, सब लोग मेरी हिन्दी की लिखायी देख कर चकित हो रहे थे. फ़िर सब मुझसे कहने लगे कि मैं उनके पोस्टकार्डों पर हिन्दी में अपना नाम लिखूँ ताकि उनके पोस्टकार्ड पाने वाले उनके परिवार व मित्रगण हिन्दी में लिखे शब्द देख कर चकित हो जायें. मुझे लगा जैसे मैं कोई प्रसिद्ध नेता या अभिनेता बन गया हूँ जिससे सब लोग आटोग्राफ़ ले रहे हों!

Vicenza 1980

नाश्ता करके हम लोग वापस नीचे की ओर चले. फ़िर से जूतों की रगड़ से और नीचे जाते हुए रास्ते की कठिनाई से मेरा बुरा हाल हो गया.

उस पहाड़ यात्रा के बाद कई दिनों तक मुझे पाँवों की पट्टी करवानी पड़ी और उसके बाद दोबारा कभी ऊँचे पहाड़ों की चढ़ाई की मैंने कोशिश नहीं की. थोड़ी बहुत चढ़ाई हो या पहाड़ों के बीच में सैर हो, बस वहीं तक किया. लेकिन उस यात्रा से मन में पर्वतों के प्रति जो प्रेम जागा वह कभी कम नहीं हुआ.

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जब दिल्ली में रहते थे तो फ्राँस में मेरी एक पत्रमित्र बनी थी, मेरीक्रिस्टीन. करीब पंद्रह सालों से एक दूसरे को जानते थे और पत्रों में जीवन के न जाने कितने सुख दुख आपस में बाँट चुके थे. मेरे लिए मेरीक्रिस्टीन बहन जैसी थी. मेरे विचार में इस तरह का रिश्ता आजकल के फेसबुक, ईमेल से नहीं बन सकता, इसके लिए तो कागज़ के पन्नों पर हाथों से लिखी दिल की बातें ही चाहियें जिन्हें हम दूर देश में रहने वाले मित्र से बाँटते हैं.

मेरीक्रिस्टीन फ्राँस से मुझसे मिलने विचेन्ज़ा आयी. मैं उसके साथ आसपास के शहरों में घूमने गया.

जिस दिन उसे वापस फ्राँस जाना था, उसकी रेलगाड़ी की वेनिस से बुकिन्ग थी, तो उस दिन हम लोग सुबह वेनिस के ओर निकले. स्टेशन पर उसने अपना सूटकेस रखा और हम लोग वेनिस घूमने लगे.

एक जगह वह एक चर्च को देखने भीतर गयी तो मैं वहीं बाहर नहर के किनारे सीढ़ियों पर बैठ कर वेनिस की एक तस्वीर बनाने लगा.

Vicenza 1980

मेरीक्रिस्टीन चर्च से निकली तो उसने मुझे तस्वीर बनाते देखा और उसने पास के पुल पर जा कर मेरी तस्वीर खींच ली.

Vicenza 1980

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मेरीक्रिस्टीन की फ्राँस जाने वाली रेलगाड़ी रात को थी. जब उसकी रेलगाड़ी चली गयी तो मैंने अपनी रेलगाड़ी की खोज की. तो मालूम चला कि विचेन्ज़ा वापस जाने के लिए आखिरी रेल जा चुकी थी और अगले दिन की सुबह तक कोई अन्य गाड़ी नहीं थी.

होटल में जा कर सोने के लिए तो पास मैं पैसे नहीं थे, बाहर जा कर रेलवे स्टेशन की सीढ़ियों पर बैठ गया.

आसपास सीढ़ियों पर बहुत से लोग बैठे थे. रात कैसे बीती पता ही नहीं चला. रात भर वहाँ कुछ न कुछ चलता रहा. कभी कोई गिटार बजाता, कभी कुछ लोग उठ कर नाचने लगते, कभी कोई आपस में झगड़ा करते. मेरी डिज़ाईन पुस्तिका सारी भर चुकी थी, बस एक अन्तिम पृष्ठ बाकी थी. वहीं सीढ़ियों पर बैठ कर मैंने उन सीढ़ियों का चित्र बनाया.

Vicenza 1980

वेनिस की मेरी यादों में उस रात भर का सीढ़ियों पर बैठना और अनजाने लोगों के साथ की मस्ती की याद सबसे अनूठी है. उस पहली वेनिस यात्रा के बाद जाने कितनी बार वेनिस गया. जब भी वेनिस लौटता हूँ, उन सीढ़ियों पर पैर रखते ही, उस जादुवी रात की याद आ जाती है!

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तैंतीस वर्ष पुराने अपने रेखाचित्रों को दोबारा देख कर और उनसे जुड़ी बातों को व लोगों को याद करके बहुत अच्छा लगा. पर साथ ही कुछ दुख भी हुआ कि मैंने उसके बाद कभी रेखाचित्र नहीं बनाये. आज के डिजिटल कैमरे से तस्वीरें खींचने में आनन्द कम है, यह बात नहीं. बल्कि आज की डिजिटल तस्वीरों में जितनी स्मृतियाँ जुड़ जाती हैं वह रेखाचित्रों में सम्भव नहीं था. फ़िर भी दुख होता होता है कि रेखाचित्रों की आदत नहीं बनायी, उसे भूल गया! 

( पहला भाग - दूसरा भाग)

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बुधवार, जनवरी 22, 2014

रेखाचित्रों में स्मृतियाँ (भाग 2)

1980 में जब छात्रवृति ले कर इटली आया था तो वेनिस के पास विचेन्ज़ा नाम के शहर में रहता था. तब मेरे पास कैमरा नहीं था लेकिन एक डिज़ाईन पुस्तिका थी, जिसमें मैं रेखाचित्र बनाता था. कुछ दिन पहले तैंतीस साल पुरानी वह डिज़ाईन पुस्तिका हाथ में आ गयी. उसे देख कर, बहुत सी पुरानी बातें याद आ गयीं. दिसम्बर में एक दिन मैं विचेन्ज़ा वापस लौटा और उन सब जगहों को देखने गया जहाँ मैं प्रारम्भ के दिनों में घूमा था और  चित्र बनाये थे. यह उसी स्मृति यात्रा के विवरण का दूसरा भाग है. ( पहला भाग)

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विचेन्ज़ा शहर के पास एक पहाड़ी है, जिसका नाम है मोन्ते बेरिको (Monte Berico), यानि बेरिको की पहाड़ी. वहाँ एक मध्ययुगीन गिरज़ाघर बना हुआ है. ऊपर पहाड़ी से शहर का विहँगम दृश्य दिखता है और शहर की पृष्ठभूमि में बर्फ़ से ढके एल्पस पहाड़ भी दिखते हैं. मुझे पहाड़ी पर जाना बहुत अच्छा लगता था. अक्सर अँधेरे मुँह सुबह उठ कर ऊपर तक जाता और सूर्योदय की प्रतीक्षा करता जब उगते सूर्य की लालिमा से एल्पस पर्वत बहुत सुन्दर लगते. सुबह जाने का यह फायदा भी था कि अन्य लोगों की भीड़ नहीं होती थी.

भारत में गर्मी की वजह से सुबह घूमने जाना बहुत प्रचलित है. जहाँ बाग हो वहाँ सुबह सुबह सैर करने वालों की भीड़ लग जाती है. मुझे भी सुबह ही घूमने की आदत थी. लेकिन यहाँ ऐसा बहुत कम होता है. अधिकतर लोग सैर करने दिन में या शाम को जाते हैं.

मुझे उस पहाड़ी की ओर अँधेरा होने पर, शाम को जाना भी अच्छा लगता था. ऊपर जाने वाला रास्ता कुछ सुनसान सा होता था तो शाम को वहाँ इधर उधर युवा जोड़ों की भीड़ लग जाती थी. भारत में खुले आम चुम्बन तक नहीं देखे थे, जबकि बेरिको पहाड़ी पर युवा जोड़े एक दूसरे में इतना गुत्थम गुत्था हो रहे रहे होते थे कि उनको देखने का मन में बहुत कौतूहल होता था, जिसे जाने में कई वर्ष लगे.

एक रविवार को बेरिको पहाड़ी पर बैठ कर मैंने नीचे फ़ैले हुए शहर का चित्र बनाया. उस दिन धूप निकली थी, मौसम सुन्दर था और पहाड़ी पर बहुत से लोग घूमने आये थे. रेखाचित्र बनाने के बहाने से अन्य लोगों से मुलाकात और बातें करने का अवसर मिलता था. लोग मुझे रेखाचित्र बनाता देख कर, उसे देखने आते तो बातें शुरु हो जातीं.

उपर से दिखने वाले अधिकतर शहर को मैं नहीं पहचानता था. शहर का वह हिस्सा जहाँ मैं रहता था, केवल उसे पहनता था. शहर के उस हिस्से के बड़े स्मारक, चर्च और भवन जैसे कि प्रसिद्ध इतालवी वास्तूशास्त्र विषेशज्ञ अँद्रेया पाल्लादियो (Andrea Palladio) की बनायी गोलाकार हरी छत वाली बजिलिका (Basilica), वहाँ पहाड़ी से स्पष्ट दिखते थे.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

दिसम्बर में तैतीस सालों के बाद विचेन्ज़ा लौटा तो सबसे पहले, बेरिको की पहाड़ी की ओर ही बढ़ा. चढ़ाई से साँस फ़ूलने लगी और टाँगें दुखने लगी, यानि इतने सालों के गुज़रने की तकलीफ़ होना स्वभाविक ही था.

वहाँ गया जिस जगह पर बैठ कर ऊपर वाली तस्वीर बनायी थी. वहाँ बैठा तो नीचे शहर स्पष्ट नहीं दिख रहा था, बीच में पेड़ पौधे आ रहे थे. पर अन्य जगहों से नीचे का नज़ारा अब भी पहले जितने सुन्दर था, लगता था कि शहर बिलकुल नहीं बदला. शहर की पृष्ठभूमि में बर्फ़ से ढके पहाड़ भी पहले जैसे मेरी स्मृतियों में थे, वैसे ही सुन्दर लग रह थे.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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होस्टल के पास शहर का सबसे महत्वपूर्ण स्कवायर था, "पियात्ज़ा देल्ला सिनोरिया" (Piazza della Signoria) यानि "राजघरानों का स्कवायर". इस स्कवायर में विभिन्न प्रसिद्ध भवन बने हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण है पाल्लादियो का हरी छत वाला बजिलिका. बीच में एक ऊँचा घँटाघर है और उसके सामने दो ऊँचे खम्बे बने हैं, एक पर वेनिस गणतंत्र का चिन्ह शेर है और दूसरे पर एक पुरुष मूर्ति बनी है. वहाँ बैठ कर मुझे लगता मानो बेनहुर या टेन कमान्डमैंटस जैसी किसी फ़िल्म के सेट पर आ गया हूँ.

एक दिन में वहाँ बैठ कर खम्बे पर बनी पुरुष मूर्ति की तस्वीर बना रहा था तो तीन इतालवी युवकों से बातचीत हुई.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

वे तीनो युवक मिलेटरी की ट्रेनिंग के लिए विचेन्ज़ा आये थे. उस समय इटली में हर नवयुवक को अठारह वर्ष पूरे करने पर, एक साल के लिए मिलेटरी में बिताना लेना अनिवार्य होता था. युवा लोगों को हाई स्कूल पास करने के बाद और कोलिज की पढ़ाई पूरी करने से पहले, जीवन का एक साल पढ़ाई को छोड़ कर, देश के नाम देना पड़ता था. बहुत से युवा मन्नत माँगते थे कि उनके मेडिकल चेकअप में कोई कमी निकल आये जिससे उन्हें मिलेटरी सर्विस के उस एक साल से छुट्टी मिल जाये. जो लोग मिलेटरी में हिस्सा नहीं लेना चाहते थे, उन्हें एक साल के बजाय, दो सालों के लिए समाज सेवा का कोई काम करना होता था. इसलिए एक साल बचाने के लिए लोग मिलेटरी की सर्विस न चाहते हुए भी कर लेते थे.

उन तीन युवकों के नाम थे एत्ज़िओ, फ्राँचेस्को और मारिउत्ज़ो. फ्राँचेस्को को मिलेटरी में वह वर्ष बिता कर "बेकार करने" का बहुत गुस्सा था. जबकि एत्ज़िओ को कविता लिखने का शौक था. उस दिन एत्ज़ओ ने मेरी डिज़ाइन पुस्तिका पर दो कविताएँ लिखी. तब कुछ बात करने लायक इतालवी तो आ गयी थी लेकिन एत्ज़िओ की कविता मुझसे समझ नहीं आयी थी. अब समझ में आती है. उसमें एत्ज़िओ ने लिखा थाः

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014
"... मैं आसपास देखता हूँ
अपनी छोटी सी खिड़की से
एक बिन पेड़ों की दुनिया
घर, और अन्य घर
और कुछ नहीं.
प्रिय दूर के मित्र
तुम्हें लिखना चाहता हूँ
लेकिन मेरे हाथ एक खालीपन में सिमट जाते हैं ..."
इस बार, तैंतीस साल बाद जब उस स्कवायर में लौटा तो लगा कि कुछ भी नहीं बदला था. वहीं अपनी पुरानी सीढ़ियों पर बैठ कर मैंने आइसक्रीम खाई, जहाँ उस दोपहर को बैठा था जब एत्ज़िओ, फ्राँचेस्को और मारिउत्ज़ो मिले थे. क्या जाने वह तीनो अब कहाँ होंगे और जीवन के रास्ते उन्हें किन दिशाओं में ले गये होंगे!

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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नदी के किनारे पर बना क्वेरीनी पार्क (Parco Querini) मुझे बहुत अच्छा लगता था. बाग की हरियाली के बीच में नदी से ली हुई एक छोटी सी नहर बनी थी जिसमें बतखें तैरती थीं और बच्चे उन्हें रोटी के टुकड़े डालते थे. नहर के एक गोल घुमाव के बीच में एक छोटी सी पहाड़ी थी जिस पर एक गुम्बज वाली छतरी बनी थी. तभी कुछ दिन पहले समाचार सुना था कि उस गुम्बज पर बिजली गिरी थी और उसके नीचे बैठे एक पंद्रह वर्ष के लड़के की मृत्यू हो गयी थी. इस वजह से मुझे उस गुम्बज से डर भी लगता था और उसकी ओर आकर्षित भी होता था.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

एक दिन में वहाँ बाग में लगी मूर्तियों की तस्वीर बना रहा था तो एक अमरीकी लड़का मेरे पास आया था. कोट, टाई पहने हुए, वह लड़का किसी एवान्जेलिक चर्च का प्रचारक था जिससे कई घँटे तक मैंने धर्म के विषय पर बहस की थी. इस बात को बिल्कुल भूल गया था लेकिन बाग की वह बैन्च देखी जहाँ मैं उस दिन बैठा था तो यह सारी बात याद आ गयी. पार्क में भी कोई विषेश अन्तर नहीं दिखा.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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क्रमशः  -  पहला भाग

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रविवार, जनवरी 19, 2014

रेखाचित्रों में स्मृतियाँ - भाग 1

1980 में जब छात्रवृति ले कर इटली आया था तो वेनिस के पास विचेन्ज़ा नाम के शहर में रहता था. वहाँ के अस्पताल में आईसीयू में प्रोफेसर रित्ज़ी के शाथ काम कर रहा था. तब मेरे पास कोई कैमरा नहीं था. हाँ तस्वीरें बनाने का शौक था और पास में डिज़ाईन पुस्तिका थी. हर जगह अपनी डिज़ाईन पुस्तिका व पैन्सिल ले कर जाता और मित्रों की, उनके बच्चों की, जगहों की, तस्वीरें बनाता. कभी कभी उन तस्वीरें के पीछे डायरी की तरह कुछ लिख भी देता. करीब छः महीनों में वह डिज़ाईन पस्तिका पूरी भर गयी थी.

फ़िर समय बीता, शहर बदले और विचेन्ज़ा की बातें भूल गया. दोबारा फ़िर कोई डिज़ाईन पुस्तिका नहीं खरीदी, क्योंकि तब मेरे पास कैमरा आ गया था. उसके बाद कुछ बार विचेन्ज़ा से गुज़रा, लेकिन वहाँ रुका नहीं. कुछ दिन पहले तैंतीस साल पुरानी वह डिज़ाईन पुस्तिका हाथ में आ गयी. उसे देख कर, बहुत सी पुरानी बातें याद आ गयीं. दिसम्बर में एक दिन मैं विचेन्ज़ा वापस लौटा और उन सब जगहों को देखने गया जहाँ मैं प्रारम्भ के दिनों में घूमा था और  चित्र बनाये थे. इस पोस्ट में उन पुराने रेखाचित्रों की और उनके पीछे लिखी बातों की, और ३३ साल लौट कर उन पुरानी जगहों को देखने के अनुभव की चर्चा है.

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विचेन्ज़ा की प्रमुख सड़क कोर्सो पाल्लादियो पर फिलीप्पीनी चर्च है जिसके ऊपर एक विद्यार्थी होस्टल था जहाँ अस्पताल वालों ने मेरे रहने का इन्तज़ाम किया था. उस होस्टल की दूसरी और तीसरी मन्ज़िल पर हाई स्कूल के लड़कों की डोरमेटरी थी, जबकि मुझे पादरियों के साथ पहली मन्ज़िल पर एक अलग कमरा मिला था. मेरे सामने वाले कमरे में फादर लुईजी रहते थे, बहुत शान्त, विनम्र व शर्मीले थे वह और हाई स्कूल में पढ़ाते थे. उन्होंने मुझे अपना रिकार्ड प्लेयर दिया था जिस पर में भारत से लाये कुछ रिकार्ड सुनता था. मेरे कमरे की खिड़की छोटी सी सड़क पर खुलती थी जहाँ पर एक सिनेमाघर था. शुरु शुरु में सारी शाम उसी खिड़की पर बैठा रहता, कोई किताब पढ़ता रहता और सिनेमा देखने वाले आते जाते लोगों को देखता.

होस्टल में मेरा पहला मित्र बना था मनार, जो जोर्डन से आया था. उसे थोड़ी अंग्रेज़ी आती थी इसलिए उससे बात कर सकता था. अस्पताल में कुछ अंग्रेज़ी बोलने वाले लोग थे, पर शाम को वापस होस्टल आने पर मनार के अतिरिक्त कोई अन्य अंग्रेज़ी बोलने वाला नहीं था. मनार गरीब परिवार का था, उसके पास होस्टल की फ़ीस देने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए वह होस्टल की रसोई में बर्तन धोने का काम भी करता था. शाम को वह बर्तन धोता तो मैं वहीं उसके पास ही बैठा रहता, उससे बातें करने के लिए.

होस्टल के सामने थोड़ी सी खुली जगह थी, वहाँ रविवार को लड़के फुटबाल खेलते. मनार भी बर्तन धो कर उनके साथ खेलने में लग जाता. वहीं पर एक दिन मैंने अपना पहला रेखाचित्र बनाया था, सामने वाली दीवार का, जिसपर एक पुरानी मूर्ति लगी थी और आसपास खिड़कियाँ थीं. नीचे फुटबाल का द्वार बना था.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

फ़िर एक दिन मनार की तस्वीर भी बनायी. मुझे वहाँ रहते करीब एक महीना हुआ था जब मनार ने बताया कि उसे मिलान में इन्जीनियरिन्ग कालेज में दाखिला मिल गया. मुझे बहुत दुख हुआ जब वह मिलान चला गया.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

लेकिन मनार के जाने के बाद, मेरी इतालवी भाषा की पढ़ाई आसान हो गयी थी. सोमवार से गुरुवार तक तो फ़िर भी अस्पताल में किसी न किसी से अंग्रेज़ी में बात कर सकता था लेकिन शाम को और सप्ताहान्त में, आसपास सब केवल इतालवी भाषी थे, तो इतालवी बोले बिना काम नहीं चलता था. इस तरह से सही गलत बोलने का डर मिट गया, शब्दों, इशारों से बोलना ही पड़ता. पहले महीने में मनार के रहते इतालवी बोलना नहीं सीख पाया था, उसके जाने के बाद, कुछ दिन में ही नये नये शब्द सीखने लगा. उन्हीं दिनो अस्पताल के हमारे डिपार्टमैंट वाले एक अन्तर्राष्ट्रीय कोनफ्रैन्स का आयोजन करने वाले थे जिस के लिए मुझे कुछ आलेखों को इतलावी से अँग्रेज़ी में अनुवाद करने के लिए कहा गया. उसके लिए मैं प्रतिदिन कई घँटे इतालवी-अंग्रेज़ी शब्दकोष के साथ बिताता. इतालवी भाषा बोलने का ऐसा अभ्यास हुआ कि अंग्रेज़ी में बात करना बन्द ही हो गया. एक दो महीने के बाद मनार एक दिन वापस आया तो मुझे फर्राटे से सबसे इतालवी भाषा बोलते देख कर हैरान हो गया.

तैंतीस सालों के बाद इस दिसम्बर में वहां लौट के गया तो पहले फिलीप्पीनी चर्च में घुसा. जब ऊपर होस्टल में रहता था तो एक दो बार उस चर्च में सिम्फोनिक संगीत की कन्सर्ट सुनने गया था, पर कभी उसे ठीक से नहीं देखा था. पहले दिल्ली में करोल बाग में जहाँ रहते थे, वहाँ सामने मेथोडिस्ट चर्च था, जहाँ मैं पादरी के बेटे के साथ खेलता था. तो सोचता था कि चर्च केवल प्रार्थना की जगह है, वहाँ देखने को कुछ नहीं होता. इस बार उस छोटे से चर्च को ठीक से देखा. इस चर्च में बहुत सुन्दर ऑरगन है जिसकी वजह से यहाँ संगीत कन्सर्ट का आयोजन होता रहता है. जिन दिनों में वहाँ रहता था, तब मेरे कमरे में भी उस ऑरगन की आवाज़ गूँजती थी.

चर्च के साथ गली में गया तो पुराने सिनेमा हाल को देख कर पुरानी बातें याद आ गयीं. ऊपर उस खिड़की को देखा जहाँ घँटों बैठा रहता था.

फ़िर पीछे होस्टल की ओर गया तो कुछ पहचान नहीं पाया. वह जगह बिल्कुल बदल गयी लग रही थी. जहाँ लड़कों के खेलने की जगह थी, वहाँ कारों की पार्किन्ग बन गयी थी. दीवार से वह मूर्ति हटा दी गयी थी उसके पीछे वाले घर नये बने थे. बीच में कुछ पेड़ लग गये थे. सब कुछ बिल्कुल सुनसान. नीचे रसोई के बाहर जहाँ मैं बैठता था, वहाँ गया तो भीतर कुछ लोग दिखे. उन्हें बताया कि मैं वहाँ तैंतीस साल पहले रहता था, उनसे पूछा कि क्या कोई पुराना है, बोले इतना पुराना तो कोई भी नहीं है.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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सन लोरेन्ज़ो स्कवायर से हो कर हर रोज़ मैं अस्पताल पैदल ही जाता था. तैहरवीं शताब्दी के सन लौरेन्ज़ो चर्च में भीतर कभी नहीं गया था. एक दिन चर्च के बाहर वहाँ लगी एक मूर्ति को बना रहा था तो चर्च से एक पादरी निकल कर आया था और मुझसे पूछने लगा था कि उस मूर्ति में या उसके पीछे वाले बैंक के भवन में  ऐसा क्या था जो मैं उसकी तस्वीर बना रहा था? उसके विचार में मुझे प्राचीन गिरज़ाघर की तस्वीर बनानी चाहिये थी. मैंने उस पादरी की बात हँस कर टाल दी थी.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

तब मुझे "तैहरवीं शताब्दी का प्राचीन गिरजाघर" का क्या अर्थ या महत्व होता है, यह नहीं मालूम था. तब उस जगह का क्या इतिहास था, उसके भीतर क्या था, यह सब जानने की कोई उत्सुकता नहीं थी.

कुछ मास बाद, सर्दियाँ आ गयीं थी जब एक दिन शाम को अस्पताल से वापस आते हुए मुझे देर हो गयी थी, अँधेरा हो गया था. सन लोरेन्ज़ो स्कवायर से गुजर रहा था तो एक लड़के ने मुझे पुकारा था. बैंक के सामने एक खम्बे से किसी ने उसके हाथ पीछे करके बाँध दिये थे. किसने किया यह, मैंने पूछा था. उसने कहा था कि उसके कुछ मित्रों ने मज़ाक में ऐसा किया था, और वह वहाँ आधे घँटे से खड़ा था लेकिन कोई उस ओर से गुज़रा ही नहीं था. मुझे बहुत अज़ीब लगा, लेकिन मैंने उसके हाथ खोल दिये थे. बाद में बहुत देर तक सोचता रहा था कि यह कैसा मज़ाक था और कैसे मित्र थे जो ऐसा मज़ाक करते थे? थोड़ी देर के लिए, बस बाँधा और चले गये? और अगर मैं वहाँ से न गुज़रता तो क्या वह वहीं बँधा रहता? शायद बीयर या वाइन के नशे में उनकी सोच समझ गुम हो गयी थी?

एक अन्य बार होस्टल के अपने एक मित्र के साथ, उस स्कवायर में बैठ कर रात को देर तक बातें करना भी याद है. किस बारे में वे बातें थीं, यह नहीं याद.

इस बार दिसम्बर में जब विचेन्ज़ा गया तो घूमते घूमते जब सन लोरेन्ज़ो स्कवायर पहुँचा तो बहुत देर तक उस जगह को पहचान नहीं पाया था. मूर्ति के सामने नये फुव्वारे बन गये थे इसलिए वह जगह भिन्न लग रही थी. वहाँ फिलीप्पीनी होस्टल से जाने वाले रास्ते से नहीं गया था, शायद इसलिए भी तुरंत समझ नहीं पाया था कि कहाँ पहुँच गया था. जब पीछे होस्टल की ओर जाने वाली सड़क देखी तभी समझ आया था कि वह कौन सी जगह थी. एक पल के लिए अचरज हुआ कि इतनी जानी पहचानी जगह को इस तरह कैसे भूल गया था!

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

इस बार पहली बार उस प्राचीन सन लोरेन्ज़ो चर्च में भी घुसा, जिसके बाहर से इतनी बार गुजर कर भी उसे भीतर से पहले देखने का नहीं सोचा था. नेपोलियन के इटली पर शासन के समय में यहाँ एक मिलेटरी अस्पताल बनाया गया था. प्रथम विश्व युद्ध के समय यहाँ मिलेटरी का गोदाम बनाया गया था. 1228 में गौथिक शैली में बने गिरजाघर में कुछ खम्बें व दीवारें पुरानी हैं और कुछ हिस्से नये हैं. उस चर्च कुछ प्रसिद्ध प्राचीन कलाकृतियाँ भीं हैं.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

(क्रमशः)

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बुधवार, जनवरी 15, 2014

घड़ी की टिकटिक और सपने

स्वीडन के आविष्कारक फ्रेडरिक कोल्टिन्ग ने क्राउडसोर्सिन्ग के माध्यम से पैसा इक्टठा किया और एक नयी तरह की घड़ी बनायी है जिसमें आप देख सकते हैं कि आप के जीवन के कितने वर्ष, दिन, घँटे व मिनट बचे हैं. इसका यह अर्थ नहीं कि आप उस निर्धारित समय से पहले नहीं मर सकते या आप की आयु घड़ी की बतायी आयू से लम्बी नहीं हो सकती. जिस तरह जीवन बीमा करने वाली कम्पनियाँ आप के परिवार में बीमारियों का इतिहास देख कर, आप को रक्तचाप या मधुमेह जैसी बीमारियाँ तो नहीं हैं जाँच कर, खून के टेस्ट करके, इत्यादि तरीकों से अन्दाज़ा लगा सकती हैं कि आप जैसे व्यक्ति की औसत जीवन की लम्बाई कितनी हो सकती है, इस घड़ी की भी वही बात है. यानि घड़ी आप के औसत जीवन की लम्बाई देख कर आप को बतायेगी कि आप के जीवन का कितना समय बाकी बचा है.

एक साक्षात्कार में कोल्टिन्ग ने बताया कि उनका इस आविष्कार को बनाने का ध्येय था कि लोग अपने जीवन की कीमत को पहचाने, हर दिन को पूरा जियें. वह कहते हैं, "इस घड़ी ने मुझे स्वयं भी सोचने को मजबूर किया. मैंने निर्णय किया कि मैं ठँडे व अँधेरे स्वीडन में जीवन नहीं बिताना चाहता और इस तरह मैं स्वीडन छोड़ कर अमरीका में लोस एँजल्स में आ कर बस गया. अब मैं वह करने की कोशिश करता हूँ जिससे मुझे सचमुच की खुशी मिले."

मेरे पास कोल्टिन्ग की घड़ी नहीं, न ही मैं उस घड़ी को पाना या पहनना चाहता हूँ. मुझे नहीं लगता कि उस घड़ी के पहनने भर से मैं आज और अभी के पल में जीने लगूँगा, और वही करूँगा जिससे मुझे सचमुच खुशी मिले. लेकिन आजकल मैं भी अपने जीवन की घड़ी की टिकटिक को ध्यान से सुन रहा हूँ और बदलते हुए जीवन के बचे हुए क्षण गिन रहा हूँ.

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करीब तीस वर्ष हो गये इटली में रहते. जब माँ थी तो उसने एक बार मुझसे पूछा था कि क्या तू भारत कभी वापस लौट कर आयेगा, तो मैंने कहा था कि हर साल तो आता हूँ. तो माँ ने कहा था कि इस तरह नहीं, यहाँ आ कर, यहीं रह कर, यहाँ के लोगों के लिए काम करने? तो मैंने कहा था कि जब सठियाने लगूँगा, यानि साठ साल का हो जाऊँगा तो वापस आ जाऊँगा. इस बात पर बहुत सोचा था और फ़िर इस विषय पर अपनी छोटी बहनों से भी बातें की थीं. चार साल पहले जब माँ गुज़री तो यह सब बातें अचानक मन में गूँजने लगीं.

अब भारत वापस लौटने का वह सपना पूरा होने वाला है. भारत वापस जाने की तैयारी प्रारम्भ हो चुकी है. कुछ ही महीनो में साठ साल का हो जाऊँगा. उसके बाद मैं चाहता हूँ कि मेरा बाकी का बचा जीवन भारत में गाँव में या किसी छोटे शहर में सामुदायिक स्तर पर डाक्टर के काम में निकले, साथ साथ कुछ सामाजिक स्तर पर शोध कार्य कर सकूँ.

पिछले चार वर्षों में इस विषय पर पत्नी, बेटे, बहनों और कुछ मित्रों से घँटों बातें की है, जिनसे मैं जीवन के इस अंतिम पड़ाव में मैं सचमुच क्या चाहता हूँ, इसकी समझ स्पष्ट हुई है. एक जुलाई 2014 से जहाँ काम करता हूँ वहाँ से मेरी एक वर्ष की छुट्टी मँज़ूर हो गयी है, इसलिए मानसिक रूप से कोई तनाव भी नहीं है. पर साथ ही मन में यह निश्चय भी है कि एक साल की छुट्टी समाप्त होने पर वापस नहीं आऊँगा, यहाँ के काम से इस्तीफ़ा दे दूँगा (इटली में रिटायर होने के लिए पुरुषों को कम से कम 68 वर्ष का होना चाहिये).

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भारत में क्या करेगा, कहाँ काम करेगा? बहुत से लोग जो करीब से जानते हैं वह मुझसे यह सवाल पूछते हैं, तो मैं उत्तर देता हूँ कि अभी कुछ तय नहीं किया है. अभी तक केवल सोचा है और सपने देखे हैं. सोचा है कि भारत वापस जा कर कुछ जगह घूमूँगा और नियती अपने आप रास्ता दिखायेगी कि मुझे कौन सा काम करना चाहिये.

सपने भी बहुत सारे हैं. जैसे कि ऐसा काम हो, जिससे मैं गरीब या जनजाति के लोगों के लिए काम भी करूँ पर साथ ही सामुदायिक स्तर पर काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारियों को पढ़ाने का अवसर भी मिले, सामुदायिक स्तर पर शोध का भी मौका मिले. पिछले तीस वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विकलाँगता, कुष्ठ रोग, यौनिकता, हिँसा, सामाजिक समशक्तिकरण जैसे विषयों पर काम करने का अनुभव है, तो यह आशा भी है कि उस अनुभव को उपयोग करने का मौका भी मिले.

यह भी सोचता हूँ कि किसी नयी जगह पर अकेला कुछ नया प्रारम्भ करना ठीक नहीं होगा, बल्कि कोई आदर्शवादी लोग मिलें जो पहले से ही जनविकास क्षेत्र में मन और आदर्शों से काम कर रहे हों तो उनके साथ जुड़ कर काम करूँ. इनमें से कौन सा सपना पूरा होगा, उसका निर्णय समय और नियती ही करेंगे.

भविष्य क्या होगा, इसकी चिन्ता नहीं है, बल्कि मन भारत जा कर रहने के विचार से, केवल काम के ही नहीं, अन्य भी तरह तरह के सपने देखने लगा है. खूब  और नया लिखूँगा. भारतीय शास्त्रीय संगीत विषेशकर गायन सीखूँगा. उर्दू, बँगाली, कन्नड़, या कोई अन्य भारतीय भाषा सीखूँगा.  गोवा से पश्चिम में मालाबार सागर तट पर घूमूँगा. पश्चिम बँगाल में, राजस्थान में,गुजरात में भी घूमूँगा. मित्रों से चाय के प्यालों पर बहसें होगी. फ़िर सोचता हूँ कि क्या साधू बन कर, जगह जगह घूमते हुए भी डाक्टरी का काम कर सकते हैं? अगर अपने झोले से कोई साधू स्टेथोस्कोप निकाल कर कहे कि आईये आप की जाँच कर दूँ तो क्या आप उस पर भरोसा करेंगे?

हर दिन एक नया सपना मन में आता है, लगता है कि फ़िर से लड़कपन के द्वार पर आ कर खड़ा हो गया हूँ जब लगता था कि सब कुछ कर सकता हूँ. फ़िर लगता है कि यह सब ख्याली पुलाव पूरे करने का समय कहाँ मिलेगा, अगर एक बार डाक्टरी के काम में जुटा तो कुछ और करने का समय नहीं मिलेगा.

जाने की तैयारी में अपनी सारी हिन्दी की किताबें यहाँ के एक पुस्तकालय को दे दी हैं, जहाँ भारतीय प्रवासियों के लिए, वह नया हिन्दी सेक्शन बनायेंगे. पिछले दशकों में जोड़ी हर अपनी वस्तू के लिए सोच रहा हूँ कि इसको किसको दूँ.

क्या होगा, यह तो समय ही बतायेगा. तब तक घड़ी की टिक टिक सुनते हुए, हर दिन कैलेण्डर से एक दिन काट देता हूँ. वापसी और करीब आ जाती है. और नये सपने देखने लगता हूँ.

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शनिवार, जनवरी 11, 2014

आप की कौन सी बीमारी? जनस्वास्थ्य और बाज़ार

मेरे विचार में आधुनिक समाज में विज्ञान व तकनीकी के बेलगाम बाज़ारीकरण से हमारे जीवन पर अनेक दिशाओं से गलत असर पड़ा है. जब इस तरह के विषयों पर बहस होती है तो मेरे कुछ मित्र कहते हैं कि मैं व्यर्थ की आदर्शवादिता के चक्कर में जीवन की सच्चाईयों का सामना नहीं करना चाहता. पर मैं सोचता हूँ कि मेरी सोच अत्याधिक आदर्शवादिता की नहीं है बल्कि मानव जीवन के संतुलित भविष्य की है.

Developing Delhi - images by Sunil Deepak, 2012

मैं यह मानता हूँ कि बाज़ार मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं, लेकिन यह नहीं मानता कि बाज़ार का अर्थ केवल बड़े कोर्पोरेशन और बहुदेशीय कम्पनियों का अधिपत्य है. मैं यह भी सोचता हूँ कि अगर हम विकास को केवल जी.डी.पी. (Gross domestic product) से तोलेंगे तो इसमें हम जीवन के कुछ अमूल्य हिस्सों को खो बैठेंगे. सुश्री वन्दना शिव ने कुछ समय पहले अँग्रेज़ी समाचार पत्र "द गार्जियन" में अपने एक आलेख में लिखा था कि  आज के अर्थशास्त्री, व्यापारी तथा राजनीतिज्ञ केवल सीमाहीन विकास की कल्पना करते हैं . इसकी वजह से किसी भी देश के विकास का सबसे महत्वपूर्ण मापदँड जी.डी.पी. बन गया है, लेकिन यह विकास का मापदँड क्या मापता है, यह समझना आवश्यक है. इसके बारे में वह कहती हैं -
"एक जीवित जँगल से जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, वह बढ़ता है जब पेड़ काटे जाते हैं और लकड़ी बना कर बेचे जाते हैं. समाज स्वस्थ्य हो तो जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, वह बढ़ता है बीमारी से और दवाओं की बिक्री से. अगर जल को सामूहिक धन माना जाये, सब उसकी रक्षा करें और अपने उपयोग के लिए बाँटें तो जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, लेकिन अगर कोका कोला की फैक्टरी लगायी जाये, पानी को प्लास्टिक बोतलों में भर कर बेचा जाये तो विकास होता है. इस विकास में प्रकृति को और स्थानीय समुदायों को नुकसान हो, तो उसे इस मापदँड में अनदेखा कर दिया जाता है."
सोचिये क्या फायदा है कि विकास को केवल इस आँकणे से मापा जाये और देश की निति के निर्णय इसी सोच से लिये जायें?

स्वास्थ्य क्षेत्र में बाज़ारीकरण

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के बाज़ारीकरण के परिणामों पर मैं पहले भी लिख चुका हूँ, लेकिन इस बारे में नयी सूचनाएँ मिलती रहती हैं तो आश्चर्य भी होता है और उदासी भी.  जब भी भारत लौटता हूँ तो नये पाँच सितारा अस्पतालों के गुणगान सुनने को मिलते हैं कि देखिये कितने बढ़िया अस्पताल हैं हमारे और तकनीकी दृष्टि से अब भारत ने कितनी तरक्की कर ली है! दूसरी ओर वहाँ इलाज करवाने वाले मित्र व परिवारजन जब अपने मेडिकल के कागज़ पत्र दिखा कर सलाह माँगते हैं तो कई बार बहुत हैरानी होती है कि कितने बेज़रूरत टेस्ट कराये जाते हैं, बेतुकी दवाएँ दी जाती हैं और अनावश्यक आपरेशन किये जाते हैं. स्टीरायड जैसी दवाएँ जिनसे तबियत बेहतर लगती है लेकिन शरीर के अन्दर लम्बा असर बुरा होता है, कितनी आसानी और लापरवाही से दे दी जाती हैं.

एक मित्र ने बताया कि उसकी बेटी को कुछ दिनों से बुखार था और उसका प्रिस्कृपशन दिखाया, जिसे पढ़ कर मैं दंग रह गया कि डाक्टर ने मलेरिया व टाइफाइड की दवा के साथ एक अन्य एन्टीबायटिक भी जोड़ दिया था, यानि हमें मालूम नहीं कि मरीज को क्या बीमारी है तो उसे एक साथ हर तरह की दवा दे दो!

एक डाक्टर मित्र जो पाँच सितारा अस्पताल में काम करते थे, उसने बताया कि उनके यहाँ हर एक को महीने का कोटा पूरा करना होता है, कितने लेबोरेटरी टेस्ट, कितने स्केन, कितने अल्ट्रासाउँड, तो कुछ अनावश्यक टेस्ट करवाने ही पड़ते हैं. पर वह यह भी बोले कि बात केवल कोटे की नहीं, अगर बहुत से टेस्ट व दवाएँ न हों तो लोग मानते नहीं कि डाक्टर अच्छे हैं.

एक ओर जहाँ स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण है, दूसरी ओर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की कठिनाईयाँ हैं. विश्व स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण की दृष्टि से भारत दुनिया के अग्रिम देशों में से है, जहाँ राष्ट्रीय बजट का बहुत छोटा सा हिस्सा सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं मे जाता है. दूसरी ओर विभिन्न सामूदायिक शोधों नें दिखाया है कि भारत में स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चा गरीब परिवारों के  लिए कर्ज़ा लेने का प्रमुख कारण है.

स्वास्थ्य क्षेत्र में "अच्छा इलाज और बीमारियों से बचिये" के नाम पर दवा, वेक्सीन तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी उपकरण बेचने वाली कम्पनियों ने अपने अभियान चलाये हैं, जिनका जन स्वास्थ्य पर असर महत्वपूर्ण नहीं होता, लेकिन देशों के स्वास्थ्य बजट के पैसे इन अभियानों की ओर जाते हैं बजाय उन समस्याओं की ओर जिनसे सचमुच खतरा है. इस तरह के अभियानो को प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिकाओं में छपे शोध परिणामों को दिखा कर आवश्यक कहा जाता है. हाल में ही अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिका "ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में डा. स्पेन्स ने लिखा कि (BMJ, 3 January 2014):
"हमें कहा जाता है कि आप ऐसा या वैसा इलाज कीजिये क्योंकि यह शोध ने साबित किया है लेकिन इस बात को अनदेखा कर देते हैं कि अधिकतर शोध कार्य, दवा बनाने वाली कम्पनियों के पैसे से किया जाता है, निष्पक्ष शोध नहीं होता. हर बात के लिए नयी बीमारियों और नयी दवाओं को बनाया जा रहा है. दवा की कम्पनियाँ चाहती है कि हम सब लोग अपने आप को किसी न किसी बीमारी का मरीज़ माने और रोज़ कुछ न कुछ दवा खायें. अगर बीमारी न हो तो उसे रोकने या उसका जल्दी इलाज़ करने के नाम पर खायें. आप इस बीमारी से बचने के समय समय पर यह टेस्ट कराइये, वह टेस्ट कराइये, के बहाने से पैसा खर्च करवाया जाता है. शोध तथा डाक्टरों की ट्रेनिन्ग के नाम पर अपनी बिक्री व प्रभाव बढ़ाने के लिए दवा कम्पनियाँ हर साल करोड़ों डालर लगाती हैं."
पिछले वर्ष कई अन्तर्राष्टीय विज्ञान पत्रिकाओं ने भी इस मुद्दे को उठाया था कि दवा कम्पनियाँ शोध तो कराती हैं लेकिन अगर शोध के परिणाम उनकी कम्पनी की दवा का अच्छा असर नहीं दिखाते तो उनकी रिपोर्ट को दबा दिया जाता है. उनका अनुमान है कि इस तरह से दवाओं पर होने वाले 60 प्रतिशत से अधिक शोध के परिणामों को दबा दिया जाता है. दूसरी ओर दवा कम्पनियाँ प्रसिद्ध डाक्टरों को पैसा देती है ताकि उनके नाम से अपनी दवाओं के अनुकूल असर दिखाने वाले शोध को छपवायें. इससे स्पष्ट है कि केवल यह कहने से कि "इस या उस शोध में यह प्रमाणित किया गया है" के बूते पर महत्वपूर्ण निणर्य नहीं लिये जा सकते.

जीवन के बाज़ारीकरण का स्वास्थ्य पर प्रभाव

स्वास्थ्य का सम्बन्ध केवल दवा या अस्पतालों से नहीं बल्कि सारे जीवन से है. पिछले बीस सालों में इंटरनेट या तकनीकी विकास से जीवन इतनी तेज़ी से बदले हैं जैसे शायद पूरे मानव इतिहास में नहीं हुआ था. दूसरी ओर जीवन के हर पहलू पर बहुदेशीय कम्नियों और बड़े कोर्परेशनो ने दुनिया में अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है. विज्ञापन तथा संचार के सभी माध्यमों पर कब्ज़ा करके जीवन के बाज़ारीकरण का अर्थ है कि सागर, जँगल, पर्वत, खाने, हर स्तर पर प्रकृति पर बेलगाम हमला बोला गया है जिसका असर स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है. एन्टीबायटिक और हारमोन खिला कर पाले गये चिकन या मटन में, चारे में होरमोन पानी वाली गायों के दूध से, कीटनाशकों से उपजी फसलों से, इन सबका शरीर पर क्या प्रभाव होगा यह धीरे धीरे सामने आ रहा है. विकास के नाम पर विकसित देशों से इन "नयी तकनीकों" का आयात करके क्या सचमुच देश आधुनिक हो रहा है?

Developing Delhi - images by Sunil Deepak, 2012

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भारत में जर्मन डाय्टश बैंक के भूतपूर्व अध्यक्ष पवन सुखदेव ने हाल में जर्मन पत्रिका डी ज़ाइट (Die Zeit) में छपे एक साक्षात्कार में कहा कि "नये तकनीकी उत्पादनों के साथ कठिनाई यह है कि उनको बेचते समय उनकी कीमत में यह नहीं गिना जाता कि उनको बनाने में प्रकृति का कितना विनाश हुआ, कितना प्रदूषण हुआ, और जब उन्हें फ़ैकने का समय आयेगा उससे प्रकृति पर क्या असर पड़ेगा. उपर से नयी तकनीकी उपकरण बनाये ही इस तरह जाते हैं कि थोड़े समय में बेकार हो जाये. दो महीने बाद उससे बढ़िया उपकरण बाज़ार में आयेगा, ताकि आप पुरानी चीज़ फ़ैंक कर नयी खरीदें. चाहे वह पुरानी वस्तु बिल्कुल ठीक काम कर रही हो, फ़िर भी उसे फैंक दिया जाता है." सुखदेव कहते हैं कि यह प्रकृति की सम्पदा का दुर्रोपयोग है और इस तरह की बिक्री पर टिका पूँजीवाद गलत है.

इससे एक ओर अमीरों तथा गरीबों में अन्तर बढ़ता जा रहा है, तनाव बढ़ने से मानसिक रोग बढ़ रहे हैं, साथ ही, वातावरण और प्रकृति पर इसके असर से नयी बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं. बाज़ार का स्वास्थ्य पर क्या असर होता है, इसका एक अन्य उदाहरण है दुनिया में मधुमेह यानि डायबीटीज़ की बीमारी के बढ़ते मरीज़.

पिछले पचास सालों में दुनिया के हर देश में मधुमेह की बीमारी कई गुणा बढ़ी है. इस बढ़ोतरी में भारत दुनिया में सबसे आगे निकल गया है - दुनिया में मधुमेह की बीमारी के मरीज़ों की कुल संख्या में भारत सबसे पहले स्थान पर है. मधुमेह की बीमारी , मूलतः दो तरह की होती है और दोनो तरह की मधुमेह के बढ़ने के कारणों में लोगों में खाने की आदतों का बदलना, अधिक माँस और अधिक केलोरी वाला खाना, मोटापा व खाने में सफ़ेद चीनी की बढ़ोतरी है.

सफ़ेद चीनी को कुछ खाद्य वैज्ञानिकों ने बहुत हानिकारक माना है. वह कहते हैं कि चीनी तीन तरह के अणुओं की होती है - डेक्सट्रोज़, फ्रक्टोज़ और ग्लूकोज़. डेक्श्ट्रोज़ और ग्लूकोज़ एक जैसे होते हैं, जबकि आम उपयोग की जानी वाली चीनी डेक्ट्रोज़ व फ्रक्ट्रोज़ का मिश्रण होती है. खाने की चीज़ों में व मीठे पेय बोतलों में कोर्न सिरप होता है जिसमें फ्रक्टोज़ होता है और जो शरीर को नुक्सान पहुँचाता है. इससे शरीर में यूरिक एसिड बढ़ता है, मोटापा आता है, कैन्सर का खतरा बढ़ता है. 2009 में अमरीका के डा. रोबर्ट लस्टिग ने यूट्यूब (Sugar the bitter truth ) पर अपने भाषण में फ्रक्टोज़ के शरीर पर गलत प्रभावों के बारे में बताया, यह वीडियो बहुत प्रसिद्ध हुआ इसे लाखों लोगों ने देखा. इस वीडियो में डा लस्टिग चीनी की तुलना ज़हर से करते हैं. हालाँकि बहुत से लोगों ने बाद में माना कि डा. लस्टिग चीनी को जितने दोष देते हैं वे वैज्ञानिक शोध पर आधारित नहीं हैं लेकिन फ़िर भी अधिक खाना, गलत खाना, कोला या नीम्बू के स्वाद वाली सोडा वाली मीठी ड्रिंक अधिक पीना, खाने में चीनी के उपयोग का बढ़ना, इन सब का सम्बन्ध है मधुमेह के बढ़ने से. लेकिन इन सबको बेचने वाली कम्पनियाँ विज्ञापनो पर करोड़ों रुपये खर्च करती हैं, विषेशकर नवयुवकों व बच्चों में बिक्री बढ़ाने के लिए और उन पर किसी तरह से काबू पाना कठिन है.

दूसरी ओर हमारी परानी खाद्य सोच जिसमें शहद, गुड़, काँजी, शिकँजबी, जलजीरा जैसी चीज़ों का उपयोग होता था, उन्हें पुराना सोच कर हीन माना जाता है.

बाज़ार पर स्वास्थ्य के प्रभाव का एक अन्य उदाहरण है जेनेटिकली मोडीफाईड आरगेनिसम (GMO) की बायोटेक तकनीकी से बने बीज व फसलें जिनके बारे में कहते हैं कि उनमें कीटनाशक पदार्थों की आवश्यकता कम होती है और फसलें भी बढ़िया होती हैं. जो इनके विरुद्ध कुछ कहे तो कहते हैं कि वे व्यक्ति तरक्की और विकास के विरुद्ध है. लेकिन इन बदले हुए गुणत्व वाली फसलों के लम्बे समय में मानव शरीर पर क्या प्रभाव पड़ते हैं उसके बारे में जानकारी बहुत कम है या बिल्कुल नहीं है.

कुछ वर्ष पहले इस विषय पर बात करते हुए डा. वन्दना शिव ने कहा था कि "यह भविष्य के लिए महत्वपूर्ण विषय हैं, इनसे मानव विकास की आशाएँ हैं, इसलिए यह नहीं कहती कि इस पर शोध नहीं होना चाहिये. लेकिन बिना उनका मानव जीवन पर असर ठीक से समझे, इन फसलों को खुला उगाने का अर्थ है कि इनसे बाकी की फसलें भी प्रभावित होंगी और सदियों में कृषकों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी संजोये गये बीजों की नस्लें नष्ट हो जायेंगी, उन्हें हम हमेशा के लिए खो देंगे."

नयी तकनीकी बायोटेक कम्पनियों का कहना है डा. वन्दना शिव जैसे लोग प्रगति के विरुद्ध हैं. लेकिन हाल में ही मैने लास एन्जेलस की कम्पनी बायोसिक्योरिटीज़ के अध्यक्ष सानो शिमोदा का भाषण देखा. शोमोदा स्वयं कृषि बायोटेक की दुनिया में पैसे लगाने वालो की दृष्टि से काम करने वाले हैं इसलिए उनकी बात को "प्रगति के विरुद्ध" कह कर नहीं टाला जा सकता. वह भी अपने भाषण में मानते हैं कि बायोटेक बीजो व फसलों के मानव व प्रकृति पर लम्बे समय में क्या असर होता है इस पर शोध आवश्यक है. वह कहते हैं कि जिन बीजों के लिए पहले कीटनाशक कम लगता था, उनमें नयी दिक्कते पैदा हो रही हैं और कीटनाशक पदार्थों की आवश्यकता होने लगी है. वह मानते हें कि बायोटेक फसलों से क्या फायदा हो हो रहा है, यह स्पष्ट नहीं है.

मैंने इस आलेख में अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों की बात नहीं की, लेकिन वह भी महत्वपूर्ण विषय है. विश्व व्यापार संस्थान के माध्यम से उन्होंने भारतीय दवा बनाने वालों पर कई बार हमले किये हैं. अभी तक भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने उन हमलों को सफ़ल नहीं होने दिया है. पिछले दशकों में भारत के दवा बनाने वालों ने विकासशील देशों में एडस जैसी बीमारियों के लिए महत्वपूर्ण काम किया है. दवाओं व बाज़ारवाद विषय पर तो नया आलेख लिखा जा सकता है, इसलिए इस विषय में यहाँ अधिक नहीं कहूँगा.

निष्कर्श

आधुनिक बाज़ारवाद व पूँजीवाद से हमारे स्वास्थ्य तथा स्वास्थ्य सेवाओं पर विभिन्न तरह से प्रभाव पड़ रहे हैं. एक ओर तकनीकी तरक्की है तो दूसरी ओर निजिकरण, प्रदूषण, प्रकृति विनाश और नयी बीमारियाँ भी हैं. व्यक्तिगत रूप से मैं यह नहीं सोचता कि सब कुछ सरकार के हाथ में होना चाहिये या हर तरह का निजिकरण गलत है. बल्कि मैं मानता हूँ कि बाज़ार का अपना महत्व है और बिना बाज़ार के जीवन नहीं हो सकता. लेकिन सरकार स्वास्थ्य विषय को केवल बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ सकती. जिनको पैसा कमाना है उनको बीमारियाँ कम करने या लोगों के अधिक स्वस्थ्य होने में दिलचस्पी नहीं. उन्हें बीमारियों को बढ़ाने तथा उनके मँहगे इलाज व टेस्ट कराने में फायदा है. इसलिए सरकारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं का देश के नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण भाग होना चाहिये. सरकार यह सोच कर कि प्राइवेट संस्थान है, अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती.

साथ ही अन्धाधुँध आर्थिक विकास और जी.डी.पी बढ़ाने की चाह में देश की व समुदायों की प्राकृतिक और साँस्कृतिक सम्पदा को नहीं भूला जा सकता. इसके लिए आवश्यक है कि आर्थिक विकास संतुलित रूप में होना चाहिये, और बहुदेशीय कम्पनियों तथा बड़े कोर्पेरशन वाली कम्पनियों को बेलगाम जो चाहे वह करने का मौका नहीं देना चाहिये.

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शुक्रवार, जुलाई 05, 2013

यह कैसी पत्रकारिता?

पिछले दो दशकों में भारत में टीवी चैनलों और इंटरनेट के माध्यम से पत्रकारिता के नये रास्ते खुले हैं. शायद पत्रकारिता के इतने सारे रास्ते होने के कारण ही पिछले कुछ सालों में किसी भी बात को बढ़ा चढ़ा कर उसे "ब्रेकिन्ग न्यूज़", कुछ जाने माने नाम हों उनके आसपास स्केन्डल बनाना और बातों को बिल्कुल न समझ कर या सतही तौर से समझ कर उन पर लिखना बढ़ता जा रहा है. यह सच है कि आज की दुनिया में पैसा कमाना ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है पर क्या मीडिया में किसी बात को ठीक से बताने समझाने की बिल्कुल कोई जगह नहीं है?

यह बातें मेरे मन में आयीं जब मैंने शाहरुख खान के बच्चे के पैदा होने से पहले उसके "सेक्स जानने के टेस्ट" कराने के "स्केन्डल" के बारे में पढ़ा. इस पर कुछ दिनों से लगातार समाचार छप रहे हैं और मुम्बई की रेडियोलोजिस्ट एसोसियेशन ने इस बात पर शाहरुख पर मुकदमा दायर किया है. क्या आप ने इस विषय पर एक भी समाचार या रिपोर्ट देखी जो बात को ठीक से समझने की कोशिश करे?

बच्चे का सेक्स टेस्ट कैसे होता है?

पहली बात जिसे समझने की आवश्यकता है वह है कि होने वाले बच्चे के सेक्स जानने का टेस्ट क्या होता है? यह टेस्ट कैसे किया जाता है? होने वाले बच्चे के लिँग को जानने का सबसे आसान तरीका है अल्ट्रासाउन्ड (Ultrasound) का टेस्ट. लेकिन क्या कानून कहता है कि अल्ट्रासाउन्ड न किया जाये?

अल्ट्रासाउन्ड एक तरह का एक्सरे होता है जिसमें ध्वनि की लहरों का प्रयोग किया जाता है और जिससे शरीर के भीतर के अंगों को देखा जा सकता है. गर्भवति औरतों की समय समय पर अल्ट्रासाउन्ड टेस्ट से जाँच की जाती है जिससे अगर माँ के गर्भ में पल रहे बच्चा ठीक से पनप रहा है, उसे कुछ तकलीफ़ तो नहीं, यह सब देखा जा सकता है. जब अल्ट्रासाउन्ड से बच्चे को देखते हैं तो उसके यौन अंगो के विकास से, आप यह भी देख सकते हैं कि होने वाला बच्चा लड़की होगी या लड़का.

कानून ने अल्ट्रासाउन्ड टेस्ट को मना नहीं किया है, क्योंकि यह टेस्ट करना माँ और होने वाले बच्चे की सेहत की रक्षा के लिए अमूल्य है. कानून ने केवल यह कहा है कि अल्ट्रासाउन्ड का टेस्ट करने वाले डाक्टरों को बच्चे के परिवार वालों को यह नहीं बताना चाहिये कि बच्चा लड़का है या लड़की. यह कानून इस लिए बनाया गया क्योंकि भारत में लड़कियों के भ्रूण गिराने की बीमारी हर प्रदेश, और समाज के हर स्तर के लोगों के बीच बुरी तरह से फ़ैली है और बढ़ती जा रही है.

सेक्स जाँच के टेस्ट

हर वर्ष भारत में लाखों लड़कियों की भ्रूण हत्या होती है और इसका सबसे बड़ा कारण भारत की सामाजिक सोच है. कानून के मना करने के बावज़ूद यह होता है क्योंकि परिवार वाले अधिक पैसा दे कर भी यह जानना चाहते हैं. टेस्ट करने वाले डाक्टर, चाहे वे पुरुष हों या नारी डाक्टर, परिवार को यह बात बताते हैं, और कानून तोड़ते हैं. कुछ इसलिए कि वह इस बात को मानते हैं कि बेटी होना अभिशाप है और बेटी का गर्भ गिराना ही बेहतर है पर मेरे विचार में अधिकतर डाक्टर यह पैसे के लालच में करते हैं.

भारतीय कानून नारी को गर्भ गिराने की पूरी छूट देता है, इसलिए नारी रोग विषेशज्ञ डाक्टरों को यह पूछने का अधिकार नहीं कि कोई औरत क्यों गर्भपात कराना चाहती है. लेकिन अगर डाक्टर यह जानता हो कि कोई यह जान कर कि बेटी होगी, इसलिए गर्भपात कराना चाहता है तो उन्हें यह नहीं करना चाहुये बल्कि कानून को रिपोर्ट करनी चाहिये. पर प्राइवेट नर्सिन्ग होम या अस्पताल वाले अगर पैसे कमा सकते हों तो क्या आप की राय में वह गर्भपात करने से मना करेंगे?

यानि लड़कियों की भ्रूण हत्या के लिए बेटियों के प्रति हमारी सामाजिक सोच और हर स्तर पर पैसा कमाने का लालच ज़िम्मेदार हैं. शहरों के पढ़े लिखे लोगों में और पैसे वाले लोगों में यह सोच अधिक गहरी है. पिछले वर्ष आमिर खान के कार्यक्रम "सत्यमेव जयते" में इस विषय में दिखाया गया था.

शाहरुख खान का बच्चा

समाचारों मे पढ़ा कि उनका बेटा सर्रोगेट मातृत्व से पैदा हुआ है. सार्रोगेट मातृत्व का सहारा तब लेते हैं जब प्राकृतिक माँ को गर्भ को पूरा करने में कोई कठिनाई हो. इसके लिए लेबोरेटरी में बच्चे की माँ की ओवरी यानि अण्डकोष से अण्डे को लिया जाता है और पिता के वीर्य से मिलाया जाता है. इस तरह से प्राप्त भ्रूण को, जिस स्त्री ने मातृत्व पूरा करने का काम लिया हो, उसके गर्भ में स्थापित किया जाता है. लेबोरेटरी में अण्डे तथा वीर्य को मिलाने से बीमारी वाला बच्चा न पैदा हो, इसके लिए कई तरह के टेस्ट किये जाते हैं जिनसे बच्चे को गर्भ में स्थापित करने से पहले ही या मालूम हो सकता है कि लड़का होगा या लड़की.

अगर माता या पिता में कोई इस तरह की बीमारी हो जो बच्चे को हो सकती है तो, उन बीमारियों को पहचानने, रोकने और स्वस्थ्य बच्चा पैदा करने लिए भी सर्रोगेट मातृत्व का सहारा लिया जाता है.  इस तरह के बच्चों के लिए, भ्रूण लड़का है या लड़की, यह जानना आवश्यक हो जाता है. भारतीय कानून इस बात की भी अनुमति देता है. भारतीय कानून का ध्येय है छोटे बड़े शहरों में अल्ट्रासाउन्ड क्लिनिकों का गलत उपयोग करने से रोकना ताकि लड़कियों की भ्रूण हत्या न हो.

इसलिए मेरे विचार में अगर शाहरुख खान को यह जानना ही था कि उनका होने वाला बच्चा बेटा होगा या बेटी तो उन्हें अल्ट्रासाउन्ड की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उन्होंने कानून नहीं तोड़ा. पर आप अपने दिल पर हाथ रखिये और कहिये कि यह हँगामा करने से पहले क्या मुम्बई की रेडियोलिजिस्ट एसोसियेशन ने और पत्रकारों ने यह सोचा कि यह कानून क्यों बनाया गया? और क्या सचमुच शाहरुख खान की बेटी होती तो वह बच्चे का गर्भपात कराते, क्या यह सोच कर इन लोगों ने सारा हँगामा किया है?

दिखावे के पीछे की सड़न

सच तो यह है कि हमारे देश के क्लिनिकों और अस्पतालों में हर दिन हज़ारों अल्ट्रासाउन्ड होते हैं, और लड़कियों के भ्रूण गिराये जाते हैं, पर कोई उन पर मुकदमें नहीं करता. मुम्बई की या देश की अन्य रेडियोलिस्ट एसोसियेशनो ने कितने डाक्टरों को इस कानून को तोड़ने के लिए एसियेशन से बाहर निकाला है या उन पर मुकदमा किया है? कितने पत्रकारों ने इस बात को ठीक से समझने की कोशिश की है और उस पर रिपोर्ट लिखी हैं कि भारत के कौन से क्लिनिक इस धँधे में लगे हैं?

यह सब तमाशा है, खबर बनाने का, चटखारे ले कर जाने माने लोगों के माँस को नोचने का, क्योंकि जितना मशहूर नाम होगा खबर उतनी ही बड़ी होगी, उतने अधिक पैसे बनेंगे. "सत्यमेव जयते" में दिखाया गया था कि जिन डाक्टरों को इसके बारे में कहते और करते हुए वीडियो पर तस्वीर ले ली गयी थी, वे भी बेधड़क धँधे में जारी थे, क्या प्रोग्राम के बाद उनके विरुद्ध कुछ हुआ?

अगर 2011 तथा 2001 में हुई जनगणना से मिली जानकारी देखें तो इन दस सालों में भारत के बहुत से राज्यों में लड़कियों की भ्रूण हत्या में कुछ कमी आयी है लेकिन सब कुछ मिला कर देखें तो राष्ट्रीय स्तर पर पैदा होने वाली लड़कियों की संख्या और कम हुई है.

2011 की जनगणना के अनुसार हर एक हजार पैदा होने वाले लड़कों के मुकाबले में लड़कियाँ 914 थीं. यानि करीब 8 प्रतिशत लड़कियाँ कम थीं.

केवल गर्भ में नहीं मरती लड़कियाँ, किसी भी बात में देखिये, चाहे स्वास्थ्य हो या शिक्षा, हर बात में लड़कियाँ लड़कों से पीछे हैं, बस मरने में ही उनका नम्बर सबसे आगे हैं. पर यह सब तो हमेशा होते ही रहते हैं, इससे क्या समाचार बनेगा? समाचार तो शाहरुख के नाम से बनता है. समाचारों की नैतिकता की बात करने का किसके पास समय है?

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सोमवार, मई 27, 2013

मिथकों में जीवन

बात कहीं से शुरु होती है और फ़िर किसी अन्य दिशा से कोई तार उससे आ मिलते हैं, और बातों में बातें जुड़ जाती हैं.

Mithak - Myths
कुछ यूँ ही हुआ जब मैंने अपने फोटो ब्लाग "छायाचित्रकार" पर तीन महाद्वीपों से विभिन्न तरह की गिलहरियों की तस्वीरें लगाने की सोची. दिल्ली में कुतुब मीनार के पास खींची गिलहरी की तस्वीर देख रहा था तो उसकी पीठ पर कथई रंग की धारियों से याद आया कि उसके बारे में बचपन में कहानी सुनी थी. उस कथा के अनुसार, जब राम अपनी सैना को ले कर लँका जाने के लिए सागर पर पुल बना रहे थे तो गिलहरी ने पत्थर लाने में बहुत मेहनत की और गिलहरी को धन्यवाद देने के लिए उन्होंने जब उसकी पीठ को सराहा तो उनकी उँगलियों के निशान उसकी पीठ पर रह गये.

फ़िर सोचा कि मानव ने क्यों इस तरह के मिथक रचे? मिथकों का जीवन में क्या लाभ है?

केवल भारत में नहीं, हर देश, हर संस्कति ने पूर्वेतिहासिक काल में अपने मिथक रचे, तो मानव समाज में अवश्य उनका कुछ महत्व और उपयोग होता था, जिसकी वजह से सभी सभ्यताओं में मिथक रचे गये. अक्सर सभ्यताओं से जुड़े मिथक, उन सभ्यताओं के प्रचलित धर्मों से जुड़ जाते हैं, जिसकी वजह से अंग्रेज़ी में धार्मिक कथाओं को माइथोलोजी (mythology) कहते हैं, यानि "मिथकों की कहानियाँ".

यह सोच रहा था तो जानी मानी भारतीय विचारक, पारम्परिक जनजातियों के ज्ञान की रक्षा की पक्षधर और भूमण्डलीकरण की विरोधी सुश्री वन्दना शिव की एक बात याद आयी. वन्दना मेरी मित्र डा. मीरा शिव की बहन हैं. कुछ वर्ष पहले वह इटली के फ्लोरैंस शहर में एक समारोह में आमन्त्रित थीं. मीरा ने उनके हाथ मेरे लिए कुछ सामान भेजा था, जिसके लिए मैं वन्दना से मिलने फ्लोरैंस गया था और उनका भाषण सुनने का मौका मिला. अपने भाषण में उन्होंने बात की थी, नयी तकनीकों से बीजों के डीएनए (DNA) को बदल कर नयी तरह की वनस्पतियों को बनाने के प्रयोगों से प्राकृति के संरक्षण की. उन्होंने कहा कि भारत में हिन्दू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवता माने जाते हैं, और हर देवी देवता के साथ किसी न किसी पशु या पक्षी या वनस्पति का नाम भी जुड़ा होता है, जिनकी वजह से धर्म में विश्वास रखने वाले उन सब की रक्षा करते हैं. इस तरह से यह पौराणिक मिथक, मानव व प्राकृति के साथ साथ सामन्जस्य से रहने का संदेश देते हैं.

यानि, प्राचीन काल में जब विज्ञान नहीं था, किताबें नहीं थीं, तब मिथकों के द्वारा मानव जीवन के अनुभवों से अर्जित ज्ञान को याद रखा जाता था. इस तरह से देवी देवताओं की कहानियाँ एक माध्यम बन गयीं जिनसे मानव और प्राकृति में सामन्जस्य की आवश्यकता को नैतिक रूप दिया गया.

कुछ इसी तरह की बात एक बार मिस्र में एक मित्र ने मुसलमानों द्वारा सूअर के माँस को अपवित्र मानने के बारे में कही थी. वह कहते थे कि मध्य-पूर्व के देशों में सूअरों में सिस्टोसरकोसिस का रोग होता था और सूअर का माँस खाने से वह मानव शरीर में, विषेशकर दिमाग के तंतुओं में फैल जाता था. इसलिए सूअर के माँस की वर्जना की बात, वहाँ रहने वाली मानव जाति की सुरक्षा से जुड़ी थी.

मिथक क्यों बने, यह समझना हमेशा आसान नहीं होता. बहुत सी सभ्यताओं में नमक का गिरना या बिखरना अशुभ माना गया है. शायद इस मिथक के पीछे, पुराने समय में नमक को पाने की कठिनाई थी क्योंकि यह केवल सागर तटवर्ती क्षेत्रों में मिलता था. पर बहुत सी सभ्यताओं में काली बिल्ली को क्यों अशुभ माना गया, इसका कारण क्या हो सकता है?

जब लिखाई नहीं थी, किताबें नहीं थीं, तब इतिहास की महत्वपूर्ण बातों को न भूलने के लिए भी मिथक काम आते थे. जैसे कि अमरीकी जनजातियों के मिथकों में पृथ्वी पर मानव जीवन कैसे बना इसकी कहानियाँ हैं. इन मिथकों में आकाश से या चाँद से धरती तक एक पुल का बनना और उसे पार करके धरती पर आने की बातें हैं. इन कहानियों में कुछ इतिहासकारों ने करीब दस हज़ार वर्ष पहले के हिमयुग में उत्तरी सागर के बर्फ से जमने और उसे पार कर के एशियाई मूल के लोगों के अमरीका महाद्वीप पहुँचने की यात्रा के संकेत पाये हैं.

मिथक सामाजिक विचारों को भी शक्ति देते हैं. चाहे समाज में पुरुष के मुकाबले में नारी का नीचा स्थान हो या विकलाँग व्यक्तियों को समाज से बाहर देखने के प्रवृति, इनको प्राचीन मिथकों का सहारा मिलता है, जिनकी जड़ें समाज में बहुत गहरी होती हैं और जिन्हें बदलना आसान नहीं होता. दिल्ली में विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत मेरी मित्र डा. अनीता घई, रामायण में सूर्पनखा की कहानी का उदाहरण देती हैं कि सुन्दर सूर्पनखा स्वतंत्र हैं, उसकी यौनकिता भी स्वच्छंद है जोकि पितृसत्तावादी समाज में स्वीकार नहीं की जाती थी और इस अपराध के लिए उसकी नाक काट कर उसे विकलाँग बनाया जाता है, जिससे उसकी यौनकिता अस्वीकृत हो जाती है. इस तरह से मिथकों से जुड़े विचार, समाजिक रूढ़ीवाद का हिस्सा भी हो सकते हैं.

अपनी संस्कृति के मिथकों को जानना, हमें अपनी संस्कृति को गहराई से समझने का मौका देता है. भारतीय पारम्परिक मिथकों के बारे में डा. उषा पुरी विद्यावाचस्पति ने एक जानकारी से भरपूर किताब लिखी है, "भारतीय मिथकों में प्रतीकात्मकता" (सार्थक प्रकाशन, दिल्ली, 1997).  उदाहरण के लिए इसमें वह पूजा में उपयोग किये जाने वाली वस्तुओं तथा रीतियों के बारे में बताती हैं कि "ऊँ", शंख और स्वस्तिक में सृष्टि के आरम्भ का नाद है, जलयुक्त कलश को जल, वायू तथा सूर्य का प्रतीक मानते हैं, तथा कलश की गर्दन में बँधा कलावा मंगलमय आयोजन में समाज को स्नेहसूत्र में बाँधने का द्योतक है. रूद्राक्ष, शिव के आँसू या पसीने से बना है इसलिए मनुष्य को आधि व्याधि से मुक्त करता है. हल्दी में रोग निवारण शक्ति हैं और स्वर्ण का प्रतीक है, चावल दीर्घायुदायी हैं, जबकि दीपक प्रकाश तथा ज्ञान का प्रतीक है.

Cover of Bhartiya mithakon mein pratikatamkta by Dr Usha Puri Vidyavachaspati

यह बात नहीं कि मिथक केवल प्राचीन ही होते थे और आजकल नये मिथक नहीं बनते. पिछले वर्ष अमरीकी माया सभ्यता के कैंलेण्डर की भविष्यवाणी बता कर "20.12.2012 को दुनिया का अंत होगा" की बात को बहुत से लोगों ने सच मान लिया था. यानि आज "मिथक" का अर्थ धर्म से जुड़ी बातों से हट कर, झूठ या काल्पनिक बातों की तरह से होने लगा है. लोग फेसबुक और टिव्टर जैसे सोशल मीडिया की सहायता से नये मिथक बनाते हैं जो विभिन्न भाषाओं में अनुवादित हो कर एक देश या सभ्यता में सीमित नहीं रहते बल्कि सारी दुनिया में फ़ैलते हैं. इन नये मिथकों को "शहरी मिथक" भी कहते हैं जिनसे लोगों को डराते हैं. "अगर आप के पास इस तरह का ईमेल आये तो उसे नहीं खोलिये" या "अगर आप ने इस ईमेल को कम से कम दस लोगों को नहीं भेजा तो आप का विनष्ट होगा" या "इस ईमेल को दस लोगों को भेजेंगे तो लाटरी जीतेगें" जैसी बातें शहरी मिथक के दायरे में आती हैं. (नीचे की तस्वीर में "12 दिसम्बर को दुनिया का अंत होगा" के विषय पर बनी एक कलाकृति)

2012 Maya calendar myth sculpture by Joe Venturi and Matteo Varsellona

देखा आपने, एक गिलहरी की तस्वीर से शुरु हुआ विचार कहाँ तक पहुँच गया! मेरे विचार में प्राचीन मिथकों में छुपे प्राचीन ज्ञान को केवल अँधविश्वास कह कर भूल जाना या अस्वीकार करना गलती है. बहुत से मिथकों में सामाजिक बुराईयों के अँधविश्वास बने हैं, जो केवल मिथकों के शब्दिक अर्थ से जुड़े विचारों की कट्टरता का नतीजा हैं. पर जैसे वन्दना शिव के दिये उदाहरण से स्पष्ट होता है, इनमें छिपे सभी ज्ञान अवैज्ञानिक नहीं है. चाहे हम मिथकों में छुपे ज्ञान को संजोने की सोचे या उनसे जुड़ी गलत सामाजिक परम्पराओं को बदलने की बदलने की कोशिश करें, उनके महत्व को नहीं नकार सकते. आधुनिक मिथकों को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये, पर अपनी सोच समझ से उनके सच और झूठ को परखना चाहिये.

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शनिवार, मई 18, 2013

सपनों की दुनिया


"मिलान में इतालवी वोग (Vogue) पत्रिका की नयी फोटो-प्रदर्शनी लगाने की तैयारी हो रही है" के समाचार के साथ अंग्रेज़ी फोटोग्राफर किर्स्टी मिशेल (Kirsty Mitchell) की एक तस्वीर देखी तो देखता रह गया.

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

आजकल क्मप्यूटर की मदद से तस्वीरें बना कर कलाकार कई तरह की पूरी काल्पनिक दुनियाँ बना सकते हैं, जिन पर "अवतार" (Avatar) जैसी पूरी फ़िल्में बनती हैं. इन फ़िल्मों को देख कर यह कहना कठिन होता है कि उनमें कितना असली है और कितना क्मप्यूटर पर बना हुआ है.

इसलिए जब किर्स्टी की तस्वीर देखीं तो यही सोचा कि उन्होंने भी इसे क्मप्यूटर की मदद से ही बनाया होगा. जैसे कि पिछले कुछ वर्षों में एच.डी.आर. (HDR) यानि हाई डायनेमिक रेन्ज की फोटो तकनीक आयी है जिसमें कई तस्वीरों को मिला कर उनसे एक तस्वीर बनाते हैं, जिसमें रंग बहुत निखर कर आते हैं. मैंने सोचा कि किर्स्टी की तस्वीरें एच.डी.आर से बनी होंगी. लेकिन जब पढ़ा कि किर्स्टी ने यह तस्वीर क्मप्यूटर पर नहीं बनायी, बल्कि उन्होंने सचमुच के वस्त्र, विग, मेकअप आदि बना कर, सचमुच के फ़ूलों के सामने वह तस्वीर खीँची है, तो बहुत आश्चर्य हुआ और अच्छा भी लगा.

आज आप को फोटोग्राफ़ी का शौक हो तो उसे पूरा करने के बहुत तरीके हैं. डिजिटल फोटोग्राफ़ी के कैमरे सस्ते भी मिलते हैं. फोटोग्राफ़ी कैसे करें, फोटो को कैसे सुधारें, उनकी कमियों को कैसे छुपायें, उनके रंगो को कैसे निखारें - इस सब को समझने के पाठ इंटरनेट पर मुफ्त भरे पड़े हैं, हालाँकि अधिकाँश अंग्रेज़ी में ही है, हिन्दी में इस तरह की अच्छे स्तर की सुविधाएँ न के बराबर हैं. उदाहरण के लिए, दुनिया के जाने माने फोटोग्राफ़र किस तरह की तस्वीरें खींचते हैं इसे देखने के लिए, उनसे प्रेरणा पाने के लिए और फोटोग्राफी के ट्यूटोरियल पढ़ने के लिए, मुझे 121 क्लिकस की वेबसाइट अच्छी लगती है. जबकि फोटो कैसे खींचने चाहिये इस पर मुझे यूट्यूब पर एडोरामा के वीडियो पाठ भी अच्छे लगते हैं (इन्हें सही समझने के लिए पहले सबसे पुराने वाले पाठ शुरु से देखिये), पर इनके जैसी वेबसाइट और वीडियो अन्य भी बहुत हैं, आप खोजेंगे तो बहुत से मिल जायेंगे.

यानि कि तकनीकी दृष्टि से आज हर कोई बढ़िया फोटोग्राफर बनना सीख सकता है. पर हर कोई बढ़िया तकनीक वाला फोटोग्राफर, बढ़िया कलाकार नहीं होता. आप किसकी फोटो खीँचते हैं, किस एँगल से खीँचते हैं, उसमें किसको महत्व देते हैं, आप की तस्वीरों में आप का व्यक्तिगत दृष्टिकोण क्या है, आप का अपना अन्दाज़ क्या है - आप को कलाकार माना जाये यह उन सब बातों पर निर्भर करता है. इस दृष्टि से देखें तो किर्स्टी की तस्वीरें अन्य फोटोग्राफरों से भिन्न, फोटोग्राफी के कलाजगत में अपनी विशिष्ठ जगह बनाती हैं.

किर्स्टी का जन्म 1976 में इँग्लैंड के कैन्ट जिले में हुआ. उन्होंने फोटोग्राफ़ी 2007 में करनी शुरु की. उनकी माँ बच्चों के लिए किताबें लिखती थीं. सन 2008 में माँ की कैन्सर रोग से मृत्यू के बाद, माँ की याद में ही किर्स्टी ने "वन्डरलैंड" (Wonderland) श्रृँखला की तस्वीरें खीँचना शुरु किया, जिसमें वह अपनी माँ कि किताबों के कल्पना जगतों को मूर्त रूप देना चाहती थीं.

सबसे पहले वह हर तस्वीर की मानसिक तस्वीर बनाती हैं, रंगो का चयन करती हैं, अपने हाथों से उसकी पौशाक, विग, और फोटो में प्रयोग की जाने वाली हर वस्तु को बनाती हैं. तस्वीरों को खीँचने के लिए वह सही मौसम की, जैसे कि बर्फ़ हो या किसी विषेश रंग के फ़ूल खिले हों, इसकी प्रतीक्षा करती हैं. जब सब कुछ उन्हें उनकी कल्पना के अनुसार मिल जाता है तो वह तस्वीर खीँचती हैं. इस तरह उनकी हर एक तस्वीर के पीछे, कई महीनो की मेहनत लगती है.

किर्स्टी की तस्वीरों को दुनिया भर में प्रदर्शनियों के आमँत्रण और पुरस्कार मिले हैं. वह पहले फैशन और कोसट्यूम की एक कम्पनी में काम करती थीं, वहाँ से सन 2011 में उन्होंने इस्तीफ़ा दे कर अपना फ्रीलाँस काम खोला है. वह कहती हैं, "चार साल पहले कोई मुझे कहता कि बड़ी प्रदर्शिनों में मेरी तस्वीरें लगेंगी, हार्पर बाज़ार जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं के मुख्यपृष्ठ पर छपेगीं तो कौन विश्वास करता? इतालवी वोग पत्रिका की मिलान में लगने वाली प्रदर्शनी के लिए मुझे कई हज़ार फोटोग्राफरों में से चुना गया है. मुझे यह सब सपना सा लगता है."

आप किर्स्टी के काम के कुछ नमूने देखिये, सचमुच उनका काम प्रशंसनीय है, इसलिए भी क्योंकि यह क्मप्यूटर पर नहीं बना और इसे उन्होंने अपनी मेहनत से बना कर अपनी कल्पना को साकार किया है.

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

आप किर्स्टी मिशेल की और तस्वीरें उनकी वेबसाइट पर देख सकते हैं. क्या मालूम, आप में से किसी पाठक को इससे प्रेरणा मिले, किर्स्टी की नकल करने की नहीं, बल्कि, अपनी कल्पना से अपनी नयी दृष्टि बनाने की और उसे सच में बदलने की, ताकि एक दिन हम आप के काम को भी इसी तरह अचरज से देखें और आप को वाह-वाह कहें.!

मंगलवार, मई 14, 2013

मेरी कहानी, हमारी कहानी


"हैलो, मेरा नाम लाउरा है, क्या आप के पास अभी कुछ समय होगा, कुछ बात करनी है?"

मुझे लगा कि वह किसी काल सैन्टर से होगी और पानी या बिजली या टेलीफ़ोन कम्पनी को बदलने के नये ओफर के बारे में बतायेगी. इस तरह के टेलीफ़ोन आयें तो इच्छा तो होती है कि तुरन्त कह दूँ कि हमें कुछ नहीं बदलना, पर अगर काल सैन्टर में काम करने वालों का सोचूँ तो उन पर बहुत दया आती है. बेचारे कितनी कोशिश करते हैं और उन्हें कितना भला बुरा सुनना पड़ता है. बिन बुलाये मेहमानों की तरह, काल सैन्टर वालों की कोई पूछ नहीं.

पर वह काल सैन्टर से नहीं थी. उसे मेरा टेलीफ़ोन नम्बर बोलोनिया में मानव अधिकारों पर वार्षिक फ़िल्म फैस्टिवल का आयोजन करने वाली जूलिया ने दिया था. "हम लोग एक फोटो प्रदर्शनी का प्रोजक्ट कर रहे हैं, प्रवासियों के बारे में. उसका नाम है "मेरी कहानी, हमारी कहानी". क्या आप उसमें भाग लेना चाहेंगे?"

मैंने सोचा कि शायद मेरे बढ़िया फोटोग्राफ़र होने का समाचार इनके पास पहुँच भी गया है, और यह लोग मेरी तस्वीरें चाहते हैं, तो खुश हो कर बोला, "अवश्य. मेरी किस तरह की तस्वीरें लेना चाहेंगी, प्रदर्शनी के लिए?"

"नहीं, आप की खींची तस्वीरें नहीं चाहिये हमें, हम आप की तस्वीरें खींचना चाहते हैं, बोलोनिया में रहने वाले भारतीय समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में. आप को हमें दो तीन घँटे देने होंगे, हमारा माडल बन कर और हम आप की तस्वीरें खीँचेगे", उसने समझाया.

"क्या उदेश्य है इस फोटो प्रदर्शनी का?" मैंने जानना चाहा तो लाउरा ने विस्तार से बताया. इटली के कुछ राजनीतिक दल हैं जैसे कि "लेगा नोर्द" जो इटली में बसे प्रवासियों के विरुद्ध अभियान चलाते हैं. उनका कहना है कि प्रवासी अपराधी, आतन्कवादी, गन्दगी वाले, असभ्य, इत्यादि होते हैं और यहाँ आ कर यहाँ की सभ्यता को बिगाड़ रहे हैं, इसलिए प्रवासियों को इटली में नहीं आने देना चाहिये. इस फोटो प्रदर्शनी का उदेश्य यह दिखाना है कि रूढ़िवादी राजनीतिक दलों का यह प्रचार गलत है, क्योंकि प्रवासी यहाँ नये विचार, सभ्यता, नये काम, ले कर आते हैं और शहर के जीवन को नया रंग देते हैं. इस तरह से इस प्रदर्शनी में विभिन्न देशों से आने वाले प्रवासियों के जीवन के बारे में जानकारी दी जायेगी.

मैंने यह सब जान कर, फोटो खिंचवाने के लिए तुरन्त हाँ कह दी. एक बार पहले भी एक प्रदर्शनी के लिए मैं अपनी तस्वीरें खिँचवा चुका था. तब बात थी मृत्यू के बारे में विभिन्न सभ्यताओं में क्या सोच है, उसके बारे में. उस बार अँधेरे में विषेश तरीके से तस्वीरें खीँची गयी थीं जिनमें लगता था कि मैं मर चुका हूँ. उन तस्वीरों की प्रदर्शनी भी यहाँ के कब्रिस्तान में लगी थी. पर तब तो तस्वीरें खिँचवाने में दस पंद्रह मिनट ही लगे थे.

इस बार तस्वीरें खिँचवाना कुछ अधिक कठिन था. फरवरी में फोटो खीचनें के लिए उन्होंने मुझे बुलाया और शहर की कुछ प्रसिद्ध जगहों पर ले जा कर मेरी तस्वीरें खींची गयीं.

"इस तरफ़ घूमिये, इधर देखिये, सिर को थोड़ा उठाईये, नहीं इतना नहीं, थोड़ा सा कम, अब हाथ कमर पर रखिये ...", करीब तीन घँटों तक उन्होंने मुझसे तरह तरह के पोज़ बनवा कर इतनी तस्वीरें खींची कि थक गया. वहाँ से गुज़र रहे लोग मेरी ओर हैरानी से देखते कि कौन है, शायद कोई एक्टर या लेखक या प्रसिद्ध व्यक्ति होगा जिसकी तस्वीरें खीँच रहे हैं? इसलिए पोज़ बनाने में थोड़ी सी शर्म भी आ रही थी. अगर आप ने झूठ मूठ की मुस्कान को तीन घँटे तक बना कर अपनी फोटो खिँचवायीं हों तभी समझ सकते हैं कि फोटो खिँचवाना भी खाला जी का घर नहीं.

"अच्छा, आप ऐनक उतार दीजिये, उससे फोटो ठीक नहीं आ रही", वे बोलीं तो मैंने कहा कि हाथ में किताब दे दीजिये, तो उसे पढ़ते हुए मैं ऐनक उतार कर हाथ में थाम लूँगा, और यह स्वभाविक भी लगेगा. तो अमिताव घोष की किताब "द सी ओफ़ पोप्पीज़" को हाथ में ले कर भी, एक किताबों की दुकान में कुछ तस्वीरें खीँची गयीं. खैर, जब उन्होंने कहा कि बस हो गया, तो लगा कि चलो काम पूरा हुआ, जान छूटी.

19 अप्रैल 2013 को इस प्रदर्शनी का शहर के नगरपालिका भवन के प्राँगण में उद्घाटन हुआ. पैँतालिस देशों के प्रवासियों ने इस प्रदर्शनी में हिस्सा लिया है. प्रदर्शनी में भारत के प्रतिनिधि होने का गर्व भी हुआ. वहाँ देखा कि वही किताबों की दुकान में खींची तस्वीर ही प्रदर्शनी में लगायी गयी थी. प्रदर्शनी के उद्घाटन समारोह में ब्राज़ील और रोमानिया के युवा कलाकारों ने साँस्कृतिक कार्यक्रम किया. इस प्रदर्शनी की और उद्घाटन समारोह के साँस्कृतिक कार्यक्रम की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


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