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आँखों ही आँखों में

मेरी पत्नी की बचपन की सखी अपने पति से साथ हमारे यहाँ खाने पर आयीं थीं. मुझे स्वयं यह महिला कुछ अधिक पसंद नहीं क्योंकि जितनी बार भी मिला हूँ, मुझे लगता है कि वह हमेशा कुछ न कुछ रोना या शिकायत ले कर कुढ़ती रहती हैं, जबकि उनके पति मुझे सीधे साधे से लगते हैं. उन दोनों से मेरी अधिक घनिष्टता नहीं, और अगर जब मालूम हो कि वे लोग आ रहे हें तो मैं कुछ न कुछ बहाना बना कर खिसकने की कोशिश करता हूँ. पर इस बार तो खाने के दौरान हद ही हो गयी. शुरुआत हुई शिकायत से "यह बात नहीं करते, बताते नहीं, बस चुप रहते हैं." पहले तो पतिदेव कुछ देर तक चुपचाप सुनते रहे, पर जब वह महिला इस बारे में बोलती ही गयीं, और कई उदाहरण दिये कि कैसे उनके पतिदेव किसी भी बात का सामना नहीं करना चाहते तो आखिर में वह बोल पड़े कि बात करने से क्या फायदा, कि वह सुनती तो हैं नहीं, कि कुछ भी हो गलती तो हमेशा पुरुष की मानी जाती है, आदि. बस फ़िर तो घमासान युद्ध छिड़ गया. मुझे इस झगड़े के बीच में होना बहुत अज़ीब लग रहा था, पर कुछ बोला नहीं. उनके पतिदेव ने खिसिया कर कोशिश की इन सब बातों को इस तरह दूसरों के सामने उठाना ठीक नहीं पर वह

आखिरी बार

अमरीकी लेखिका और कवि जोयस केरोल ओटस् (Joyce Carol Oates) की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ पढ़ी और उनके बारे में देर तक सोचता रहाः आखिरी बार किसी व्यक्ति को देखो, पर तुम्हें मालूम न हो कि वह आखिरी बार है. बस यही सब कुछ मालूम है अब, अगर उस समय यह जानते तो .... पर उस समय नहीं जानते थे, और अब तो बहुत देर हो गयी.

घुमक्कड़ी चटनी

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पिछले साल की तीन छुट्टियाँ बची थीं, उसके साथ सप्ताहअंत के दो दिन, शनिवार और रविवार, को मिला कर छुट्टी के कुल पाँच दिन बनते थे. कभी भी छुट्टियाँ हो तो अक्सर हम लोग उत्तरी इटली में वेनिस से करीब सौ किलोमीटर उत्तर में बिबियोने नाम के शहर में जाते हैं जहाँ समुद्र से सौ मीटर दूर मेरी पत्नी का छोटा सा पारिवारिक घर है. इस बार भी सोचा कि चलो वहीं चलते हैं. इटली में हाईवे पर 130 किलोमीटर की गति से कार चला सकते हैं. इस तरह से, बोलोनिया से बिबियोने की 350 किलोमीटर की दूरी करीब ढाई घँटे में पूरी करके जब हम लोग बिबियोने पहुँचे तो समझ में आया कि यह वहाँ छुट्टियाँ बिताने का समय नहीं था. मैं साथ में एक जैकेट ले कर गया था पर पहले दिन समुद्र के किनारे सैर करते हुए इतनी ठँडी हवा थी कि कँपकपी होने लगी और दाँत बजने लगे. बोलोनिया में भी हवा में कुछ ठँडक थी, विषेशकर सुबह सुबह, लेकिन बिबियोने में तो जैसे अभी भी सर्दी का मौसम चल रहा था. मैं सपने देख रहा था कि समुद्र में नहाऊँगा पर पानी में पैर का अँगूठा भी गीला करने की हिम्मत नहीं हुई. चुपचाप घर में आ कर, खिड़कियाँ दरवाज़े बंद करके, कँबल लपेट कर बैठ गये. सोच

पुरानी फ़िल्में

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कहानी क्या थी, विषय क्या था, यह सब कुछ याद नहीं था. याद थीं बस गाने की दो पक्तियाँ, "मेरे मन के दिये, यूँ ही घुट घुट के जल तू मेरे लाडले, ओ मेरे लाडले" और याद थी अँधेरे में दिया लिए तुलसी के पौधे के सामने पूजा करतीं सीधी सादी अभिनेत्री साधना जो उस समय बहुत अच्छी लगी थी. जहाँ तक याद है, वह फ़िल्म मैंने 1966 या 1967 में टेलीविजन पर देखी थी. वह श्वेत श्याम टीवी का ज़माना था जब शाम को कुछ घँटों के लिए दूरदर्शन का प्रसारण आता था. हमारे घर पर टीवी नहीं था इसलिए जब चित्रहार और रविवार की फ़िल्म प्रसारित होती तो पड़ोस में एक घर में उसे देखने जाते थे. फ़िल्म का यह गाना मन को बहुत भाया था, पर दोबारा उसे कभी सुना नहीं था. पिछले महीने, चालीस साल बाद दिल्ली के पालिका बाज़ार में जब बिमल राय की 1960 की फ़िल्म "परख" की डीवीडी देखी तो तुरंत वही गाना मन में गूँज गया और डीवीडी खरीदी. कुछ दिन पहले जब यह फ़िल्म देखी तो उतना आनंद नहीं आया, जिसकी बिमल राय की फ़िल्मों से अपेक्षा होती थी. शायद इसकी वजह हो कि मुझे गम्भीर फ़ल्में अधिक पसंद हैं जबकि "परख" हल्की फ़ुल्की फ़िल्म है ज