मेरी पत्नी की बचपन की सखी अपने पति से साथ हमारे यहाँ खाने पर आयीं थीं. मुझे स्वयं यह महिला कुछ अधिक पसंद नहीं क्योंकि जितनी बार भी मिला हूँ, मुझे लगता है कि वह हमेशा कुछ न कुछ रोना या शिकायत ले कर कुढ़ती रहती हैं, जबकि उनके पति मुझे सीधे साधे से लगते हैं. उन दोनों से मेरी अधिक घनिष्टता नहीं, और अगर जब मालूम हो कि वे लोग आ रहे हें तो मैं कुछ न कुछ बहाना बना कर खिसकने की कोशिश करता हूँ.
पर इस बार तो खाने के दौरान हद ही हो गयी. शुरुआत हुई शिकायत से "यह बात नहीं करते, बताते नहीं, बस चुप रहते हैं." पहले तो पतिदेव कुछ देर तक चुपचाप सुनते रहे, पर जब वह महिला इस बारे में बोलती ही गयीं, और कई उदाहरण दिये कि कैसे उनके पतिदेव किसी भी बात का सामना नहीं करना चाहते तो आखिर में वह बोल पड़े कि बात करने से क्या फायदा, कि वह सुनती तो हैं नहीं, कि कुछ भी हो गलती तो हमेशा पुरुष की मानी जाती है, आदि.
बस फ़िर तो घमासान युद्ध छिड़ गया. मुझे इस झगड़े के बीच में होना बहुत अज़ीब लग रहा था, पर कुछ बोला नहीं. उनके पतिदेव ने खिसिया कर कोशिश की इन सब बातों को इस तरह दूसरों के सामने उठाना ठीक नहीं पर वह बोलीं कि अपनी सखी से वह कुछ नहीं छुपाना चाहती थीं.
खैर जैसे तैसे करके वह खाना स्माप्त हुआ और वो लोग चले गये तो मेरी अपनी पत्नी से इस झगड़े के बारे में बात हुई. कुछ साल पहले, एक बार पहले भी कुछ कुछ इसी तरह हुआ था जब हमारे एक अन्य मित्र की पत्नी ने सबके सामने अपने पति के साथ सँभोग में उनके यौन व्यवहार की बाते बतानी शुरु कर दी थीं. मुझे तो बहुत अजीब लगा था, लगा था कि इस तरह की बातें तो किसी भी दम्पति की इतनी निजि होती हैं जिन्हें किसी बाहर वाले के सामने कहना ठीक नहीं समझा जा सकता, और न ही किया जाना चाहिये.
पर इस तरह की बातों से हमारे मित्र को कुछ विषेश अपत्ति नहीं हो रही थी क्यों कि वह अपनी पत्नी की बातें आराम से सुनते रहे थे. मुझे लग रहा था कि भारत में पत्नी इस तरह की बात बाहर वालों के सामने कभी नहीं करेगी. उस बार मेरी पत्नी मेरी बात से सहमत थीं, उसका कहना था कि इस तरह की बात को विषेश सहेली से अकेले में किया जा सकता है पर पति के सामने या अन्य लोगों के सामने नहीं. तब भी मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ था, मेरे विचार में अपने पति पत्नी के यौन सम्बंधों के विषय में अधिकतर पुरुष अपने मित्रों से भी बात नहीं करते.
पर इस बार के झगड़े में मेरे और मेरी पत्नी के विचारों में मतभेद था. मैं उनकी सखी के पति की तरफ़दारी कर रहा था कि झगड़े के समय चुप रहना ही बेहतर है, बजाय कि उस समय अपनी बात समझाने की कोशिश की जाये. तो मेरी पत्नी बोली कि मैं भी सभी पुरुषों जैसा ही हूँ जो बात करने के बजाय चुप रहना बेहतर समझता है या फ़िर अपनी बात को मन में ही दबाये रखता है. थोड़ी देर में ही बात उनकी सखी और उसके पति से हट कर हमारे अपने बारे में होने लगी.
मेरी पत्नी बोली,"तुम ही मेरी बात कहाँ सुनते हो, बस हाँ हूँ करते रहते हो, लेकिन बात एक कान से घुस कर दूसरे से निकल जाती है." चूँकि इस बात में अवश्य कुछ सच था तो मैंने बात बदलने की कोशिश की. "प्रेम हो तो कुछ कहना नहीं पड़ता, बिना कहे, आँखों आँखों मे ही प्रेमी समझ जाते हैं." और इसको समझाने के लिए "जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बन ही गयी" के गीत का उदाहरण दिया.
"अवश्य यह गीत किसी पुरुष ने ही लिखा होगा", मेरी पत्नी बोली.
क्या सचमुच अधिकतर पुरुष इसी तरह के होते हैं, कि बात कम करते हैं, जबकि स्त्रियाँ बात करने को तरसती रहती हैं, आप का इसके बारे में क्या विचार है? यहाँ इटली में यह बात मैं कई बार सुन चुका हूँ. सुना है कि तलाक के कारणों में से यह भी अक्सर एक कारण होता है.
शब्दों के बारे में पोलैंड की नोबल पुरुस्कार पाने वाली कवयत्रि विसलावा स्ज़िमबोर्स्का (Wislawa Szymborska) की एक कविता की पक्तियाँ प्रस्तुत हैं (हिंदी अनुवाद मेरा है)
जैसे ही भविष्य शब्द का स्वर निकलता है, तब तक शब्द का पहला वर्ण अतीत में जा चुका होता है,जब सन्नाटा शब्द को बोलता हूँ, उसी का विनाश करता हूँजब कहता हूँ कुछ नहीं, कुछ नया बनता है जो किसी खालीपन में नहीं घुसता