गुरुवार, जून 30, 2005

एक दिन अचानक

शाँत आसमान से जैसे अचानक बिना किसी चैतावनी के बिजली गिर जाये. ठंडी हवा हो, सुन्दर मौसम, ख़िले हुए फ़ूल, साथ में मनपसंद साथी, मनोरम संगीत और अचानक बर्फ का तूफान. सुखद यात्रा, हँसी मजाक और नौक झौंक, अचानक टूटे पुल से बस नीचे नदी में जा गिरे. एक दिन अचानक ही, और बस उस एक क्षण में सब कुछ बदल जाये, तो कैसा हो ? कल शाम को काम से घर लौटा तो कुछ यूँ ही हुआ.

सुपुत्र जी क्मप्यूटर के सामने चिंतित बैठे थे, बोले, "पापा, इसकी हार्ड डिस्क तो गयी."

कितने काम, ईमैल के पते, पासवर्ड ... सब कुछ एक पल में ही गये. पिछली बार जब ऐसा हुआ था तो सोचा था, आगे से ऐसी नादानी नहीं करेंगे. सभी महत्वपूर्ण फाइलें दोनो क्मप्यूटरों में रखेंगे ताकि ... पर कुछ दिन, महीने बाद इस सब के बारे में भूल गया था. अब पछताये क्या होत जब क्मप्यूटर के उड़ गयो दिमाग ?

तो मन को शाँत करने के लिये आज की कविता के लिये बच्चन जी की "मधुशाला" की कुछ पंक्तियाँ, यानी की बड़ी बीमारी को इलाज़ भी बड़ा ही चाहियेः

उतर नशा जब इसका जाता,
आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली
नित्य ढ़ला जाती हाला॥

जीवन के संताप, शोक सब
इसको पी कर मिट जाते॥

सुरा सुप्त होते मद लोभी,
जाग्रत रहती मधुशाला.

और आज की तस्वीर है लंदन के रीजैंट स्टीर्ट पर एक पुराने भवन पर लगी ग्रीस की देवी अथेना की मूर्ति की.


मंगलवार, जून 28, 2005

माजरा क्या है?

दुनिया में दो तरह के लोग रहते हैं, एक वह जो तमाशा करते हैं और दूसरे वह जो आस पास से खड़े हो कर पूछते हैं, क्या माजरा है भाई साहब. दूसरी श्रेणी के लोग, यानी माजरा क्या है पूछने वाले, पहली श्रेणी के लोगों से बहुत अधिक हैं. जब से टेलीविज़न का आविष्कार हुआ है तब से तो माजरा देखने वालों की संख्या और भी कई गुना बढ़ गयी है.

"अरे साला, देखो कैसे अपनी जोरु को पीट रहा है?" "अजी, क्या अखबार में मुँह घुसाये बैठे हो, देखो बाहर पुलीस शास्त्री जी के सुपुत्र को ले कर जा रही है." "देखा तुमने कैसे चुन्नु की बीवी ने चौदराईन को दो टूक ज़बाव दिया, बोलती बन्द हो गयी उसकी." "कौन जाने कौन था, बेचारा यूँ सड़क पर ही मर गया."... इत्यादी अन्य बातें हो सकती है जो "माजरा क्या है" जैसे सवाल के बाद, माजरा देखने वालों में अक्सर निकल आती हैं. माजरा देखने वाले, रस ले ले कर खुशी से दूसरों पर आयी मुसीबत का मजा उठाते है.

कभी कभी, माजरा देख कर भी चुपचाप ही रहना पड़ता है. यानी मन में खुशी के लड्डु फूट रहे हों, फिर भी चेहरा गम्भीर बना कर यूँ रहने पर हम मजबूर होते हैं मानो हमें सचमुच बहुत दुख हो रहा हो. घर में अगर पिता जी का झापड़ अगर आप के छोटे या बड़े भाई को पड़े, या फिर जब मास्टर साहब उस लड़के को मुर्गा बनवायें जिससे आप का झगड़ा हुआ था, तो ऐसा भी हो सकता है कि आप माजरा तो देखें, पर छुप छुप कर.

तो क्या, माजरा देखना केवल दूसरों की मुसीबतों में ही हो सकता है. जब दूसरे लोग खुशी मना रहें हो तो क्या वहाँ माजरा देखने वाले नहीं हो सकते? आप का क्या खयाल है?

अरे साहब आप क्या सिर्फ हमारे चिट्ठे को पढ़ कर मन ही मन खुश होते रहेंगे कि कितनी बेवकूफी की बातें लिखी हैं हमने ? माजरा देखना छोड़िये और आप भी अपनी कलम उठाइये, इन माजरा देखने वालों ने तो नाक में दम कर दिया है.

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सोमवार, जून 27, 2005

संस्कृति सभ्यत्ता की रक्षा

घर के पास एक खेत में खिले लाल पौपी के फ़ूल
आज अपने ब्लौग पर पहली टिप्पड़ीं मिली श्री अनूप शुक्ला की जो अनुगूँज नाम के वेब पृष्ठ को चलाते हैं जहाँ हिन्दी में ब्लौग [चिट्ठा] लिखने वाले आपस में बातचीत कर सकते हैं. अनुगूँज का ही एक प्रयत्न है कि चिट्ठा लिखने वाले एक विषय पर कुछ लिखें. शायद इसका उद्देश्य है कि हम लोग फ़िर एक दूसरे के चिट्ठों को पढ़ने के लिये प्रेरित होंगे वरना तो हर कोई सिर्फ अपने अपने चिट्ठों मे लगा रहेगा और हम लोग एक साथ अपना सामूहिक संगठन नहीं कर पायेंगे? इस माह का विषय है "माजरा क्या है". अगला ब्लौग मेरा भी इसी विषय पर होगा.

कल शाम को बाग में एक पाकिस्तानी दम्पती से मुलाकात हुई. अपनी चार पाँच साल की बेटी के साथ सैर कर रहे थे. बात करने लगे तो वह कहने लगे की उनकी पत्नी सिर्फ घर में रहतीं हैं, न तो उन्हें कुछ इतालवी भाषा आती है और न ही वह चाहतें हैं कि पत्नी उसे सीखें या अकेले बाहर जाने की सोचे, काम करने की सोचना तो बहुत दूंर की बात है. थोड़ी देर तो मैने उनके विचार बदलने के लिये बहस शुरु कर दी मगर फ़िर देखा के हम दोनों को ही गुस्सा आने लगा है तो चुप हो गया. उनका ख़्याल है यही तरीका है यहाँ रह कर अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाने का. इस पूरी बहस के दौरान उनकी पत्नी ने एक शब्द भी नहीं कहा न ही उन्होंने अपनी पत्नी की कोई राय इस बारे में जानना आवश्यक समझा.
एक बाद में इस बारे में सोच रहा था तो इलाहाबाद में छोटे फ़ूफा के बड़े भाई की याद आ गयी. वह भी तो कुछ इसी तरह सोचते थे. लड़कियाँ पढ़ सकतीं थीं और इसलिये निन्नी दीदी, किरन, सभी ने बीए मेए करके भी घर में बन्द रहतीं थी, क्यौंकि बेटियों के नौकरी करने से परिवार के आत्म सम्मान को ठेस लगती थी. जाने कितने परिवार होंगे आज भी जहाँ ऐसा ही सोचते हैं लोग और लड़कियाँ घुट घुट कर सारा जीवन गुज़ारने को ही अपना धर्म समझती हें.

आज की कविता मे हैं महादेवी वर्मा की कुछ पंक्त्तियाः

तुम हो विधु के बिम्ब और मैं मुग्धा रश्मि अजान,
जिसे खींच लाते अस्थिर कर कौतूहल के बाण.

स्वरलहरी मैं मधुर स्वप्न की तुम निन्द्रा के तार,
जिसमें होता इस जीवन का उपक्रम उपसंहार.

मुझे बाँधने आते हो लघु सीमा मे चुपचाप,
कर पाओगे भिन्न कभी क्या ज्वाला से उत्ताप?


रविवार, जून 26, 2005

स्टीर्ट रेव फैस्टीवल

बोलोनिया की स्टीर्ट रेव फैस्टीवल के मज़े

हर साल की तरह, इस साल भी गरमियों का मतलब की बोलोनिया मे रोज़ भिन्न भिन्न नाटक, नृत्य, फ़िल्म आदि के प्रोग्राम होते हैं. कल रात को मैं स्टीर्ट रेव फैस्टीवल मे गया. रेव फ़ैस्टीवल का अर्थ है कि सड़कों पर संगीत हो और सब लोग मिल कर नाचें. इस वर्ष यस फैस्टीवल कल २५ जून को शुरु हुआ और आज रात को करीब आधी रात तक स्माप्त होगा. इससे पहले इस रैव फैस्टीवल के बारे में केवल सुना था क्योंकि शहर के बहुत से लोग इसके खिलाफ़ हैं, उनके ख़्याल से यह केवल गन्दगी फ़ैलाने, शोर मचाने और तोड़ फ़ोड़ करने का बहाना है.

जब मारगेरीता बाग पहुँचा जहाँ आस फैस्टीवल का प्रारम्भ होना था, दूर से ही संगीत सुनायी दे रहा था. करीब पहुँच कर तो संगीत इतना तेज़ कि कान के परदे हिल जायें. लोग, अधिकतर जवान लड़के और लड़कियाँ गरमी के मारे कपड़े उतार जोर शोर से नाच रहे थे, बियर पी रहे थे और कहीं कोई मारिजुआना जैसे नशे में मग्न थे. कुछ होली जैसा माहोल लग रहा था. सबसे बड़ी मुसीबत थी तेज़ संगीत का शोर, इसीलिये मैं आधे घंटे में ही पस्त हो कर वहाँ से लौट आया. सच है कि ये सब मज़े तमाशे एक उम्र तक ही शोभा देते हैं.

आज से मेरा ब्लौग ब्लौगर.कौम में शिफ्ट हौ गया है. पहले तो इस बारे में मुझे बहुत डर लग रहा कि कैसे होगा पर फिर हिन्दी वेबरिंग के देबाशीष की मदद से सब कुछ हो गया.

शनिवार, जून 25, 2005

वापस बोलोनिया

आज की तस्वीर में एक बार फ़िर से बिबयोने के घोड़े

छुट्टियाँ खत्म हो गयीं और हम सब वापस बोलोनिया आ गये हैं. घर आ कर अज़ीब लग रहा है. यहाँ गरमी भी है और उमस भी यूँ कि जी घबरा जाये. बिबियोने मे समय का अहसास ही मिट गया था, चाहे जितने बजे उठो, चाहे जितने बजे खाना खाओ, बस सैर, तैरना, सोना और देर तक अखबार पढ़ना. घर वापस आ कर कुछ अज़ीब लगता है, फ़िर से वही घड़ी की तानाशाही और भागम भाग.


घर वापस आ कर टेलीफ़ोन की आनसरिंग मशीन पर अंजोर और मिन्नी दीदी का मैसेज. मिन्नी दीदी आजकल अमरीका में हैं.

बुधवार, जून 22, 2005

श्यौराज सिहं बेचैन


बिबियोने के पास घुड़सवारी सेंटर मे घोड़े

छुट्टियाँ इतनी जल्दी बीत रहीं हैं कि पता ही नहीं चला. परसों घर वापस जाने का दिन होगा. इन दिनों मे युनीकोड की इस रघु लिपि मे लिखने का खूब अभ्यास हो रहा है. हिन्दी लिखने की रफ्तार भी तेज हौ गयी है बस १ ही कठिनाइ है कि जो शब्द इतामवी कीबोर्ड की वजह से नहीं लिख पाता हूँ, उन्हें लिखने का तरीका समझ नहीं आया. शूशा लिपि मे अल्ट का बटन दबा कर कुछ नम्बर दबाओ तो अधिकतर शब्द लिखे जाते हैं पर रघु मे यह मुमकिन नहीं लगता.
आज दिन मे जून के हँस मे श्यौराज सिहं बेचैन की आत्मकथा "राहें बदलीं कि जीवन बदलता गया" पढ़ना शुरु किया तो उसे अधूरा छोड़ने का मन ही नहीं किया. नादिया को कहा था कि आज शाम को हम लोग लाइट हाऊस की तरफ लम्बी सैर करने जायेंगे. दोपहर में कुछ देर आराम करने के बाद वो तैयार हो गयी पर मेरा वह आत्मकथा अधूरा छोड़ने का जरा भी मन नहीं था. जब १ घँटे के बाद पुरा पढ़ कर के हँस को बन्द किया तभी चैन आया. रास्ते में घूमते समय भी मन मे बार बार उस आत्मकथा की ही बातें याद आ रहीं थीं.
आज की कविता है इसी आत्मकथा सेः
मेरे बचपन के नाजुक से नन्हे कदम,
जिस तरफ मुड़ गये रास्ता बन गया.
धूप में,
छांव में, शहर में, गांव में,
भूख ले कर चली और मैं चलता गया,
दुख का येहसास
बेचैन करता गया,
मुक्ति का भाव मानस में बढ़ता गया.
पूरा संसार पुस्तक सा
खुलता गया,
जितना पढ़ पाया मैं उतना पढ़ता गया.
इतनी काली अंधेरी विरासत
मिली,
मेरे भीतर का दीपक था जलता गया.
क्या चला मैं जो लाखौं वहीं रुक
गये,
राहें बदलीं के जीवन बदल सा गया.

सोमवार, जून 20, 2005

मल्लिका शेरावत

समुद्र तट पर सैर करते वृद्ध प्रेमियों का जोड़ा

हिन्दी के सप्ताह के नाम, जैसे सोमवार, बुधवार इत्यादि कब और कैसे बने? क्या हमने अंग्रेजी के सन्डे, मन्डे वगैरह को ले कर उनका हिन्दी में उनुवाद कर लिया या फिर ये तो हमारी भाषा में पहले से ही थे ? अगर इन्हें अंग्रेजी से लिया गया है तो हमारी हिन्दी में अग्रेजों के आने से पहले उन दिनों के क्या नाम होते थे ?

आज हवा चल रही है सुबह से ‌ सुबह तो समुद्र मे नहाने गया था पर आज दुपेहर को घर से निकलने का मन नहीं कर रहा. सुबह समुद्र के पानी मे पीठ पर लेटा आखेँ बन्द करके तैर रहा था, मन मे गाने के शब्द गूँज रहे थे, "मचलती हुई हवा मे छम छम, हमारे संग संग चलें गंगा की लहरें.." आँख खोली तो देखा तट से काफी दूर आ गया था ‌ पाँव नीचे लगाने की कोशिश की तो पाया कि पानी गहरा था और जमीन पर पाँव नहीं लगते थे ‌ १ क्षण के लिये तो डर लगा पर फिर बिना किसी दिक्कत के वापस तट के समीप आ गया ‌ बाद मे सोच रहा था कि कुछ भी मौका हो, यह हमारे मन मे हिन्दी फिल्मों के गाने ही क्यों आ जाते हैं?
जून के हँस मे मिन्नी दीदी की नयी कविता छपी है, "२" जिसमे लिखा हैः
"तुम अगर सुंदर या आजाद न हुई होतीं
तो हादसा न होता,
क्योंकि वह तो होता ही
रहता है
स्त्री की देह के साथ...
लेकिन पूछो तो सही १ बार,
हमलावर की जबान
पर नाम किसका था."
यह कविता मल्लिका शेरावत की देह से उत्तेजित युवक के बारे मे है और उसी युवक की शिकार १ लड़की के बारे मे ‌ यह मान कर भी स्त्रियों पर हमले तो हमेशा होते ही आये हैं और अक्सर उस स्थिति मे लड़की के कपड़ों या व्यवहार को ही दोषी ठहराया जाता है "क्योंकि उनसे वह लड़कियाँ बेचारे भोले लड़कों पर बुरे काम करने पर मजबूर करतीं हैं". यानि कि गलती तो हर हाल मे लड़की या स्त्री की ही होगी. पर मैं यह नही मानता. मेरे ख्याल से मल्लिका शेरावत जैसी लड़कियां ही वह वदलाव लायेंगी जिससे हर लड़की सिर ऊँचा कर के चल पायेगी. लड़कियों पर अकेले मे हमला करने वालों मे कोई दम नहीं होता, डरपोक होते हैं वह और अगर लड़कियाँ हिम्मत से सर ऊँचा कर के चलें और कोई सामने छेड़े तो उसे खुल कर, चिल्ला कर जोर से गाली दे सकें तो शायद उनमे से आधे तो डर से भाग जायें ?

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख