शुक्रवार, अक्तूबर 21, 2005

भारत से पोस्टकार्ड

लगता है जैसे जीवन फिरकनी की तरह घूम रहा है, एक दिन यहाँ, दूसरे दिन वहाँ, न रुकने की फुरसत, न सोचने की. आठ दिन रहा भारत में, भागते भागते ही निकल गये. घर वापस आया, पर समय केवल अटैची से गंदे कपड़े निकाल कर साफ कपड़े डालने का है. दो या तीन दिनों की छोटी छोटी यात्राँए हैं, एक दूसरे से जुड़ी हुई, रात को कहीं से वापस आओ और सुबह फिर निकल पड़ो. किसी को न कह पाने की अपनी आदत को कोसते समय, २९ अक्टूबर को जब यह भागदौड़ समाप्त होगी तो चार दिन की छुट्टी का सोच कर मन को दिलासा देता हूँ और कहता हूँ कि फिर दोबारा ऐसा नहीं होने दूँगा. यह चिट्ठा लिखना ऐसे में ध्यान करने जैसा लगता है, जँगली घोड़ों की तरह भागते विचारों को ध्यान करने बैठूँ तो शायद थमा नहीं पाँऊ, पर लिखते समय सोचना, लिखे वाक्यों को पढ़ना और ठीक करना, उन विचारों को साध लेता है.

इस बार की भारत यात्रा की यादें, छोटे छोटे पोस्टकार्ड हैं. दुर्गा पूजा के पंडाल में मिष्टी दोई, और दुर्गा माँ के समाने नाचते भक्त्त. दशहरे के जलते रावण के पुतले और पटाखों का शोर. दिल्ली के पुराने किले में देखा बिरजू महाराज और उनके नृत्य विद्यालय के छात्रों का कत्थक नृत्य समारोह, जो स्टेज के पीछे दिख रहे पुराने खँडहरों की वजह से और भी सुंदर हो गया था. बिहार और उत्तर प्रदेश से आये टैक्सी और स्कूटर चलाने वालों से की गयी बातें, उनके दूर गाँवों में रहते परिवारों की और जीवन की. किताबों की दुकान, बुकवोर्म, के बाहर खड़ी भद्र महिला जो अंग्रेजी में कह रहीं थीं कि मुझे कुछ खरीदवा दीजिये, त्योहारों का समय है, सब लोग कुछ खरीद रहें हैं, मुझे भी कुछ ले दीजिये, देखिये मेरे जूते, कैसे फटे हुए हैं.

रावण के पुतले के सामने, उसे जलाने से पहले, उसकी पूजा करने को देख कर चकित हो गया. बचपन में जाने कितनी बार देखा था रावण को जलते पर कभी ध्यान ही नहीं किया था कि उसे जलाने से पहले उसकी पूजा करते हैं. शायद यह अमरीकी फिल्में देखने या बुश जी के आतंकवाद पर दिये गये भाषणों का प्रभाव है, दुनिया को अच्छे और बुरे में बाँट कर सोचना. रावण बुरा है तो उसे जला दो. ऐसा ही कुछ लगा था जब कुछ महीने पहले, जीतेंद्र के भारतदर्शन वाले चिट्ठे में सरसा माता के मंदिर की तस्वीर देखी थी. सोचा था, सरसा तो पिचाशनी थी जिसने लंका जाते हुए हनुमान जी को निगलने की कोशिश की पर वह लघुकाय हो उसके मुख में घुस कर बाहर निकल आये, तो सरसा माता की पूजा क्यों ? सोच कर अच्छा लगा कि यह भिन्न तरह से सोचने का परिणाम है, जिसमें अच्छे या बुरे कर्म से दूर हो कर व्यक्त्ति को देखते हैं.

"जो न कह सके" चिट्ठे में कुछ तकनीकी रुकावटें आ गयीं थीं तो चितिंत हो गया था, सोचा था कि शायद इसे बंद कर नया चिटंठा बनाना पड़ेगा. पर हमेशा की तरह, इस बार भी देवाशीष ने सब ठीक कर दिया, जिसके लिए उन्हें एक बार फिर धन्यवाद.

आज कुछ चित्र भारत यात्रा से.


सोमवार, अक्तूबर 10, 2005

लैला के मँजनू

कल सारा दिन एक पुराना गाना गुनगुनाता रहा. कभी कभी ऐसा होता है कि कोई गाना जीभ से चिपक जाता है सारा दिन बार बार उसे गुनगुनाये बिना रहा नहीं जाता. कल का वह गाना था रुना लैला का, "मेरा बाबू छैल छबीला.." और इसीलिए रुना लैला और उन दिनों के दूरदर्शन के बारे में याद आ गयी. ठीक से साल याद नहीं पर शायद १९७७ के आसपास की बात होगी. रुना लैला को "दमा दम मस्त कलंदर" गाते देखा तो अन्य हजारों की तरह हम भी उनके मँजनू हो गये. उनकी हर अदा पर फिदा थे.

वे दिन थे "हम लोग" और "बुनियाद" के. जाने कहाँ गयीं और आज क्या करतीं होगीं वह ? क्या वह अभी भी गाती हैं ? "हम लोग" में मेडिकल कोलिज का मेरा साथी अश्वनि, डाक्टर का भाग निभा रहा था. उन दिनों हमारी छोटी बहन दूरदर्शन पर एनाउँसर थीं और कुछ छोटे मोटे कार्यक्रम किये थे, उससे समाचार मिलते, "बड़की बम्बई जा रही है, फिल्मों में कोशिश करना चाहती है". बुनियाद की बीजी और बाऊजी, अनीता कँवर और आलोक नाथ, और उनके परिवार की गाथा में क्या हुआ यह जानने की उत्सुकता रहती.

पुराने रंगहीन टेलीविजन पर देखे वे प्रोग्राम आज भी याद हैं, पर पिछले सप्ताह क्या देखा यह याद नहीं आता. आज देखने के इतने कार्यक्रम हैं कि उनके नाम याद नहीं रहते, देखते समय हाथ रिमोट के बटन दबाने को तैयार रहते हैं और देखने के बाद, कुछ देर में ही भूल सा जाता है. जिस समय "हम लोग" या "रामायण" आते, सड़कें खाली हो जाती, हर कोई पड़ोसी ढ़ूँढ़ता जिसके यहाँ जा कर दूरदर्शन देखा जाये.

आज मुझे भारत जाना है, वापस आने पर तुरंत अन्य दो यात्राँए हैं, २९ अक्टूबर तक चिट्ठे लिखने का समय या मौका मिलना कठिन है. इन चिट्ठा उपवास दिनों में अन्य चिट्ठाकारों को पढ़ना अधिक आसान होगा, इसलिए आशा है कि आप लोग खूब लिखेंगे और अच्छा लिखेंगे.

शनिवार, अक्तूबर 08, 2005

बादल गाये राग मल्हार

टेलीविजन पर पश्चिमी (western) फिल्म देख रहा हूँ जिसमें बंदूक वाले भोले भाले गोरे डर के भागते बदमाश रेड इंडियनस् को मक्खियों की तरह मार रहे हैं जैसे भोले भाले बच्चे मजे लेने के लिए तितलियों के पँख खींच खींच कर उन्हें मारते हैं तो रेड इंडियनस् संदेश भेज रहे हैं, पहाड़ों पर आग जला कर उस पर धूँआ बनाते है और धूँए के गोल गोल बादल उठ कर हवा में ऊपर उड़ते हैं, जरुर इन रेड इंडियनस् ने कालिदास की मेघदूत से प्रेरणा पायी होगी जिसमें आकाश में उड़ते बादलों को देख कर उनके हाथ अपना संदेश अपनी प्रेयसी के पास भिजवाने की कामना है यानि ले जईयो बदरा संदेशवा, ले जाईयो बदरा जो दिल पर मत ले यार नाम की फिल्म में था और मुझे यह गीत मुझे बहुत अच्छा लगता है जिसे गाने वाले का नाम है अभियंकर या ऐसा ही कुछ. क्या मतलब हुआ ऐसे नाम का कि वह भयंकर नहीं है या फिर उसे भय नहीं लगता, जाने कैसे कैसे नाम रख देते हैं यह माँ बाप भी, कहीं किताब में कुछ पढ़ लिया और झट से रख दिया बच्चे का नाम, यह भी नहीं सोचा कि बाद में लोग उसका अर्थ सोच कर परेशान हो जायेंगे लेकिन गाना अच्छा है, पर फिल्म बेकार थी और सबसे बुरी बात कि यह गाना फिल्म में नहीं उसके समाप्त होने पर जब टाईटल आते हैं तो आता है, इतना बढ़िया गाने का सत्यानास कर दिया.

मौसम का हाल बता रहे हैं, टेलिविजन पर फिल्म देखने का यही तो मजा है कि बीच बीच में आप को कुछ और सोचने पर मजबूर कर देते हैं, कह रहे हैं कि गरम और ठँडी हवाओं के मिलने से बादल छाने और बारिश होने की सम्भावना है पर मुझे बाथरुम जाना है और वहाँ सोच रहा हूँ कि अगर कार की खिड़की खोल दी जाये और बाहर गरमी हो और अंदर ठँडी एयरकंडीनशीनिंग पूरी चला दी जाये तो क्या गरम और ठँडी हवा के मिलने से कार के भीतर भी बादल बन सकते हैं और फिर ऐसा हो कि कार के बीतर बारिश हो और बाहर सूखा रहे ? और अगर सूखा छाया हो और कई हजार कारें साथ साथ ऐसा करें तो क्या वहाँ इतने बादल छा बन जाये कि बारिश हो सकती है, ऐसे सवाल मुझे याद दिलाते हैं कि भौतिकी या रसायन शास्त्र में कमजोर होने का यही फायदा है कि आप यह सवाल किसी और के सामने रखें और पूँछें.

अपने हिंदी के चिट्ठे लिखने वालों में से कई इन्जीनियर और वैसे ही महानुभाव हैं, वे अवश्य दे सकेंगे मेरे सवाल का उत्तर. उन्हें संदेश भेजूँगा, ले जइयो बदरा संदेशवा, जाने किस राग में गाया है यह गाना, राग मल्हार होगा जिससे बारिश आती है, जिसे मियाँ तानसेन जी अकबर के दरबार में फतहपुर सिकरी में गाते थे, आस पास फुव्वारे और बीच में बैठे हुए तानसेन जी जब राग मल्हार गायेंगे तो बारिश आ जायेगी लेकिन अगर बादल राग मल्हार गा कर बरस जायेंगे तो संदेश कौन ले कर जायेगा, क्योंकि बरसने के बाद तो बादलों का न बाँस रहेगा न बजेगी बाँसुरी ? बाथरुम की यही तो खासियत है, जाने कैसी ऊल जलूल बातें आती हैं दिमाग में.

कैसा लगा आप को मेरा संज्ञा धारा (stream of consciousness) में लिखने का यह प्रयास ? आज की एक तस्वीर जहाज से दिखते एल्पस् पहाड़ों और बादलों की.

ताना तोराजा

तोराजा एक विषेश आदिवासी जन जाति है जिसके लोग इंदोनेसिया में दक्षिण सुलावेसी द्वीप के मध्य में बने ताना तोराजा पहाड़ों में रहते हैं. दक्षिण सुलावेसी की राजधानी है उजुँग पंडांग जिसका पुराना नाम था मक्कासार और प्राचीन समय से यह शहर समुद्री व्यापार के रास्तों में एक प्रमुख केंद्र था. मुझे तोराजा दो बार जाने का मौका मिला. एक बार वहाँ जा कर, उनको भूलना आसान नहीं है. उजुँग पंडांग पहूँचने के लिए जहाज इंदोनेशिया के सभी प्रमुख शहरों और कुछ करीब के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों से उड़ान मिल सकती है. वहाँ से ताना तोराजा की राजधानी रानतेपाँव तक पहूँचने के लिए करीब दस घँटे की कार यात्रा चाहिये. इस यात्रा का पहला भाग जो समुद्र के किनारे से उत्तर में पारे पारे शहर तक जाता है, बहुत मनोरम है. उसके बाद की पहाड़ों की यात्रा सुंदर तो है पर कठिन भी क्योंकि सड़कें बहुत अच्छी नहीं.

तोराजा की सबसे पहली विषेश चीज़ जो आप को दिखेगी, वह है उनके नाव जैसी छतों वाले लकड़ी के मकान. लगता है किसी ने बड़ी बड़ी नाँवें ऊँचे डंडों पर टका कर, उन पर रंगदार नक्काशी की है. इन भव्य छतों के नीचे छोटे छोटे घर हैं, जिनमें रहना खास आरामदायक नहीं होगा. घरों के बाहर लम्बे डंडों पर जानवरों के सींग और अन्य हिस्से टँगे हुए होते हैं जिनका सम्बंध मृत पूर्वजों से जुड़े रीति रिवाजों से हैं. कहते हैं कि तोराजा तीन हजार साल पहले कहीं और से नाँवों में सुलावेजी में आये थे और यह घर उस यात्रा की यादगार हैं. पर तीन हजार साल तक कोई इतनी मेहनत करे घर बनाने के लिए, वह भी केवल दिखावे के लिये क्योंकि रहने की जगह तो छोटी ही रहती है, कुछ अटपटा सा लगता है.

इन घरों की तुलना भारत में बेटी के दहेज से की जा सकती है, यानि बड़ी छत वाला घर बनवाने से परिवार की इज्जत जुड़ी होती है और तोराजा इनको बनवाने के लिए बड़ा कर्ज तक उठा लेते हैं. तोराजा के समाजिक नियम भी बहुत विषेश हैं, जिसमें विभिन्न रिश्तों के साथ लेने देने के कड़े नियम हैं. किसी की मृत्यु पर इतनी रस्में हैं और खर्चे हैं कि भारत की हिंदु रस्में उनके सामने सरल लगती हैं. मरने वालों के शरीर पहाड़ों की गुफाओं में रख दिये जाते हैं और गुफा के मुख पर मरने वाले की लकड़ी की मूर्ती रखी जाती है जिसे ताउ ताउ कहते हैं. जहाँ यह कब्रिस्तान वाली गुफाँए हैं, नीचे वादी में खड़े हो कर वहाँ चारों और धुँध में से दिखती ताउ ताउ की मूर्तियाँ देख कर लगता है मानो पर्वत पर लोग खड़े नीचे देख रहे हैं. ताउ ताउ का काम है कि अपने परिवार की और अपने गाँव की रक्षा करें.

आज की तस्वीरों में (१) तोराजा घर (२) ताउ ताउ बनाने वाला एक कलाकार अपनी मूर्ती के साथ और (३) तोराजा कलाकार द्वारा लकड़ी से बनाये गये भैंस के सिर जिन्हें घर से सामने डँडों पर टाँगा जाता है.



शुक्रवार, अक्तूबर 07, 2005

अपने पराये

गरमियों की छुट्टियों में पश्चिम बंगाल में एक छोटा सा शहर था अलिपुर द्वार, जहाँ हम लोग मौसी की घर जाते. रास्ते में रेलगाड़ी सिलिगुरी में बदलनी पड़ती जहाँ मौसा के बड़े भाई का घर था, वहाँ कुछ दिन रुक जाते. मौसी के बच्चों की तरह से हम भी उन्हें ताऊजी बुलाते. वँही मिले हमे भक्त चाचा. भक्त चाचा सचमुच के चाचा नहीं थे, शायद कोई दूर के रिश्तेदार थे, पर बहुत सालों से वँहा रहते थे और सब बच्चे उन्हें चाचा बुलाते. ताऊ जी का दोमंजिला घर बड़ी हवेली जैसा था. बड़ा मकान और चारों तरफ खुला मैदान. पाखाना घर के अंदर न हो कर, घर से दूर मैदान में बना था. करीब ही तिस्ता नदी बहती थी. घर में एक चीते का सिर और कई बाराहसिगों और हिरन जैसे जानवरों के सिर दिवारों पर लगे थे, जो ताऊजी और मौसा के जवानी के शिकारी दिनों की निशानियाँ थीं.

भक्त चाचा चुड़ैलों की कहानियाँ सुनाते. शादी नहीं हुई थी उनकी शायद इसलिए चुड़ैलें अक्सर श्वेत वस्त्र पहने सुंदर औरतों के रुप में उन्हें नदी के किनारे सुबह मिलती थीं, उन्हें बुलाती पर वह उनके पीछे की ओर घूमे पाँव देख कर समझ जाते, तो वह अपने असली रुप में आ कर, लम्बे दाँत निकाल कर उन्हें काटने को टूटती. कहानी सुन कर डर से दिल धक धक करता. रात के अँधेरे में पाखाने की तरफ जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था, घर के भीतर भी अकेले न रहा जाता. लगता वे जानवरों के सिर पीछे भाग रहे हों.

सोच रहा था, भक्त चाचा जैसे लोगों के बारे में, जो परिवार के हो कर भी नहीं होते, जिनके लिए परिवार में कोई अपना ठीक से स्थान नहीं होता. ऐसे ही एक रिश्ते की कहानी थी बासु चेटर्जी की फिल्म "अपने पराये" में. शरतचंद्र के उपन्यास पर बनी यह फिल्म मुझे बहुत प्रिय है, हर छहः महीने में एक बार तो देख ही लेता हूँ. फिल्म कहानी है वकील बाबू (उत्पल दत्त) और उनकी पत्नी (आशालता), उनके घर में रहने वाले दूर के रिश्ते के गरीब लड़के (अमोल पालेकर) और उसकी पत्नी (शबाना आज़मी) की. उस घर में जब वकील बाबू के छोटे भाई (गिरीश करनाड) अपनी पत्नी (भारती अचरेरकर) के साथ रहने आते हैं तो वर्षों के बने घर के रिश्तों के अंदरुनी संतुलन टूट जाते हैं. अगर आप ने यह फिल्म नहीं देखी हो तो एक बार अवश्य देखिये. फिल्म के सभी कलाकार अच्छे हैं, पर विषेशकर उत्पल दत्त. फिल्म में जेसूदास का गाया एक मधुर गीत है, "श्याम रंग रंगा रे, हर पल मेरा रे".

आज की तस्वीरें फिर एक भारत यात्रा से, जिनका शीर्षक है "क्या सोच रहा रे"



गुरुवार, अक्तूबर 06, 2005

अपने शहर में अजनबी

रविवार को भारत जाना है. कुछ दिनों का काम है और कुछ दिन घर वालों के साथ बीतेंगे. कल की पहचान वाली बात से ही सोच रहा था, कब अपना शहर अपने लिए अजनबी हो जाता है. पहली बार भारत से बाहर आया था तो 26 साल का था. शुरु शुरु में यह दूरी कुछ महीनों की ही होती थी, पर फिर धीरे धीरे लम्बी होती गयी. अब उस पहली यात्रा को 25 साल हो गये हैं और इन 25 सालों कब अपना शहर अपने लिए अजनबी हो गया, मालूम ही नहीं चला.

क्या बाहर रहने से चलने, बोलने में कुछ अंतर आ जाता है ? कनाट प्लेस में चलते हुए जब लोग "चेंज मनी, सर चेंज मनी" पूछते हुए पीछे चलते हैं या रुमाल बेच रहे लड़के अंग्रेजी में कहते हैं रुमाल खरीदने के लिए, तो अचरज सा होता है कि क्या बात दिखायी दी उन्हें मुझमें जिससे वे समझ गये कि मैं बाहर से आया हूँ? ऐसा पहले नहीं होता था, पिछले कुछ सालों से ही होने लगा है और शुरु के दो तीन दिनों में ही होता है. दो तीन के बाद कुछ बदल जाता है, जैसे बाहरपन का संदेश छपा हो शरीर पर, वह धुल जाता है? यह बात कपड़े या चेहरे की नहीं, और हिंदी में उत्तर दो तो बात करने वाला एक क्षण का अचरज दिखाता है, "धत्त साला, धोखा हो गया, यह तो यहीं का है!"

हर बार शहर नया लगता है. नये घर, नये फ्लाई ओवर, नयी दुकाने.

जिस गली में बड़ा हुआ था, उसमें नीचे नीचे घर थे. बच्चे सड़क पर क्रिकेट या गुल्ली डँडा खेलते थे. रात को कभी गरमी अधिक होती थी तो चारपाई गेट से निकाल कर सड़क पर बिछती थी क्योंकि "बाहर हवा अच्छी रहेगी". शोर में भी, रोशनी में भी, नींद जम कर आती. गली में बस एक ही कार थी, डाक्टर आँटी की पुरानी छोटी सी "बेबी हिंदुस्तान", जिसे चलाने के लिए वह उसकी आरती उतारती और मिन्नत मनवाती.

आज उस गली में जा कर भौचक रह जाता हूँ. सभी मकान तीन या चार मंजिले हैं, गली के दोनो ओर कारें लगी हैं. बीच में सड़क बिल्कुल छोटी सी लगती है. गली के बाहर लोहे का बड़ा गेट लगा है जो रात को दस बजे बंद हो जाता है और जिस पर लिखा है कि कुछ बेचने वालों को गली में घुसने की अनुमती नहीं है.

जिस गली में खेला, बड़ा हुआ, वहाँ बीच में खड़ा हो कर फोटो खींचे पर किसी ने नहीं पुकारा. किसी ने नहीं पूछा कुछ. अपने ही शहर में अजनबी हो गया था.

स्वामी ने लिखा है, "मैं खुद अपने आप में जितना भी मैं हो सका उतनी पूरी एक देसी इकाई रहा. अभी भी हूं. उत्सुकताओं के चलते नई चीजें देखने-सीखने, परिवेश मे ढलने की और उससे प्रभावित होने की प्रक्रियाओं मे भी इस इकाई में से कुछ चीजें कभी घटीं नहीं".

मैं भी यही सोचता था कि मेरी इकाई में कुछ चीज़े कभी घटी नहीं, पर यह सोचते हुए भी न जाने क्या बदल गया, बाहर की दुनिया में और अपने अंदर.

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पिछले वर्ष की भारत यात्रा से

बुधवार, अक्तूबर 05, 2005

कुछ यहाँ से, कुछ वहाँ से

कभी कभी लगता है कि समय के साथ साथ, हमारा सब कुछ मिला जुला हो रहा है. भाषा, संस्कृति, संगीत, वस्त्र, नाम, सब कुछ मिला जुला. कितने लोग आज अपने जन्म स्थान, अपने घर से दूर आ जा रहे हैं शायद इतिहास में यह पहली बार, इतने बड़े स्तर पर हो रहा है ? आम बात सी लगती है आज एक जगह पैदा होना, दूसरी जगह पढ़ायी पूरी करना, किसी अन्य प्रांत में काम करना या किसी अन्य प्रांत के पुरुष या स्त्री से विवाह करना.

शायद यह मुझे इस लिए लगता है क्यों कि यही मेरे जीवन का किस्सा है. शायद, हजारों, लाखों लोग, जो छोटे शहरों या गाँवों में रहते हैं, उनके लिए यह बात सत्य नहीं है ? पर अगर आप अपनी जगह से नहीं भी हिलें तो भी, टेलीविजन, फिल्म और अंतर्जाल कुछ न कुछ तो मिलावट डाल ही रहें हैं हमारी अपनी पहचानों में ?

आप लोग कलकत्ता से हैं या कानपुर से, पहले ऐसे सवाल पूछना आसान था और उनके उत्तर देना भी आसान था. पर आज पूछिये तो उत्तर मिल सकता है, पिता जी कलकत्ता से हैं और माँ कानपुर से, मैं पढ़ा तो पटना में और मेरी पत्नी भवनेश्वर से हैं और हम दोनो बँगलौर में काम कर रहे हैं. जो ऐसा उत्तर देगा, उसके बच्चों से पूछिये कि बेटा कहाँ से हैं आप, तो क्या उत्तर देगें ? जैसे हम सब यात्री हों, हमारी पहचाने भी यात्रा के साथ साथ बदलने वाली हो रही हैं. आज ऐसी, कल न जाने कैसी, थोड़ी सी ऐसी और थोड़ी सी कुछ और जैसी.

स्पेन के प्रसिद्ध विचारक, राइमोन पन्निकर एक कैथोलिक पादरी हैं. भारतीय हिंदू पिता और स्पेनिश कैथोलिक माँ की संतान, राइमोन ने सारा जीवन अपने दोनो धर्मों के बीच में मिलने की धारा को खोजा है. उन्हें संस्कृत तथा तिब्बत्ती भाषाँए भी आती हैं. स्पेन में पैदा हुए राइमोन पादरी बनने के बाद भारत गये. उन्होने वेदों का स्पेनिश में अनुवाद किया है और अपनी यात्रा के बारे में उन्होंने लिखा है, "मैं चला तो इसाई था, वहाँ जा कर पाया कि हिंदू भी था और वापस आया तो स्वयं को बुद्ध धर्म का महसूस करता था, पर इसाई भी था.... मुझे माँ से कैथोलिक धर्म की शिक्षा मिली पर माँ में मेरे पिता की तरफ के पूर्वजों के खुले और सहिष्णु धर्म का बहुत आदर था. इसलिये मैं संस्कृति और धर्म में दोनो तरफ से मिला जुला हूँ. जीसस आधा पुरुष और आधा भगवान नहीं था, पूरा पुरुष था और पूरा भगवान था. उसी तरह मैं १०० प्रतिशत हिंदू और भारतीय हूँ, और १०० प्रतिशत कैथोलिक और स्पेनिश भी."

राइमोन की तरह अपनी बदलती हुई, मिली जुली पहचान को इस तरह खुले मन से मान लेना हम सबके बस की बात नहीं. मेरे विचार से चिट्ठे लिखने वाले और पढ़ने वालों में मुझ जैसे मिले जुले लोगों की, जिन्हें अपनी पहचान बदलने से उसे खो देने का डर लगता है, बहुतायत है. हिंदी में चिट्ठा लिख कर जैसे अपने देश की, अपनी भाषा की खूँट से रस्सी बँध जाती है अपने पाँव में. कभी खो जाने का डर लगे कि अपनी पहचान से बहुत दूर आ गये हम, तो उस रस्सी को छू कर दिल को दिलासा दे देते हैं कि हाँ खोये नहीं, मालूम है हमें कि हम कौन हैं.

ब्राज़ील शायद दुनिया का सबसे अधिक "मिला जुला" देश है, जहाँ विभिन्न जातियों, रंगों, संस्कृतियों और विचारों के मिलने से एक नयी पहचान बनी है. मध्य अफ्रीका से लाये गुलामों का ओरिशा धर्म और नयी धरती के इसाई धर्म से मिल कर कंदोम्बले धर्म का जिस तरह विकास हुआ है, उसके लिए तो अलग चिट्ठे की जरुरत है. पर आज केवल कुछ तस्वीरे एक ब्राजील यात्रा से.


मंगलवार, अक्तूबर 04, 2005

उदास मन

पिएत्रो और लूसिया हमारे पड़ोसी हैं. उनका बेटा करीब ही रहता है, बेटा और पोता अकसर दादा दादी के पास आते हैं. पति पत्नी दोनो को अच्छी पेंशन मिलती है और अपना घर है. मतलब कि कोई परेशानी नहीं है. पर पिएत्रो को उदासी यानि डिप्रेशन की बिमारी है. इन दिनो में, सितंबर के अंत और ओक्टूबर के प्रारम्भ में हर साल यह उदासी विषेश गहरी हो जाती है. पिएत्रो बातचीत करना बिल्कुल बंद कर देते हैं, अँधेरे कमरे में सारा दिन बैठे रहते हैं.

बोलोनिया के दक्षिण में पहाड़ हैं, वहीं छोटा सा गाँव है मारजाबोतो, जहाँ पिएत्रो पैदा हुए थे. १९४३ में दूसरे महायुद्ध की लड़ाई मारजाबोतो में भी आ गयी थी. इटली के शासक मुसोलीनी ने जर्मनी के हिटलर से मिल कर यूरोप के अन्य देशों पर हमला बोला था. इटली में जर्मन सिपाही फैले हुए थे क्योंकि देश में मुसोलीनी के खिलाफ बगावत हो रही थी. इस बगावत का बड़ा केंद्र था बोलोनिया, जहाँ के बगावत करने वाले स्वत्रंता सिपाही, जर्मन सिपाहियों पर मौका मिलने पर हमला करते थे.

मारजाबोतो में भी जरमन सिपाहियों का कब्ज़ा था. पिएत्रो तब पढ़ाई समाप्त कर नौकरी पर लगे थे. बगावत करने वालों में से कुछ लोगों को जानते थे, कभी कभार संदेश ले जा कर उनकी मदद करते थे. ४ ओक्टूबर को एक हमले में बगावत करने वालों ने एक जर्मन सिपाही को मार डाला. उसका बदला लेने के लिए जर्मन सिपाहियों ने गाँव के सभी लोगों को जमा करके गोली मार दी. उनमें पिएत्रो की छोटी बहन मरिया भी थी. पिएत्रो जंगल में भाग गये थे. मारिया भी उनके साथ आना चाहती थी पर उन्होंने मारिया को वापस घर भेज दिया, सोचा कि जर्मन लड़कियों को नहीं मारेंगे.

यही बात अब तक भूल नहीं पाये हैं पिएत्रो. कहते हैं "मैंने अपनी बहन को मार डाला, वो मेरे साथ आ रही थी, मैंने उसे वापस भेज दिया. क्यों मरी वह, क्यों मरे मेरे चाचा, उनके बच्चे ? क्यों बच गया मैं, मैं क्यों नहीं मरा ?"

मरने वालों में हम केवल अपनी तरफ के लोग ही गिनते हैं, दूसरी तरफ कौन मरा इससे हमें क्या मतलब ? जर्मनी में भी परिवार होंगे जो उसी लड़ाई में मरे अपने घर वालों के लिए उदास होते होंगे.

लंदन का युद्ध स्मारक केवल अपने सिपाहियों को याद करता है, उन शहरों को याद करता है जहाँ अंग्रेजी सम्राज्य ने सिपाही खोये. स्मारक पर जलंधर, अमृतसर, इम्फाल जैसे नाम देख कर झुरझरी सी आती है.

लंदन का युद्ध स्मारक

सोमवार, अक्तूबर 03, 2005

यह कहाँ आ गये हम

"परिचय" में गुलज़ार जी ने गीत लिखा था, "मुसाफिर हूँ यारों, न घर है न ठिकाना". सुन कर मन में नयी जगहों की छवियाँ बन जाती थीं, अनजानी जगहें, अनजाने चेहरे. खुली आँखों से देखे सपने, दुनिया को देखने के.

वैसी ही थी, हेमंत कुमार की फिल्म "राहगीर" जिसके मुख्य पात्र में, जाने पहचाने संसार से दूर भाग जाने की छटपटाहट थी. बहुत रुमानी लगता था वह जीवन जिसमें न रिश्तों के बंधन हों, न एक ही जगह पर रहने की बोरियत. तब उस नायक का फिल्म के अंत में, इस यायावरी और अपने जीवन के सूनेपन से थक कर हार मान जाना, धोखा लगता था. थके हारे नायक की भावनाओं का वर्णन इस गीत में हैः

मितवा रे, भूल गये थे राहें क्यों मितवा
एक मुसाफिर लाखों रास्ते, जाने कहाँ थी तेरी राहें

एक से एक जुदा थी राहें, साथ थे सारे, संग न कोई
धूप में देखी छाँव की चोंटे छाँव में देखे धूप के छाले
होंठों पर ही रोक ली हमने एक हँसी में सारी आहें

कभी कभी ऐसा ही लगता है, जब जीवन एक यात्रा से दूसरी यात्रा में खो जाने लगता है. कुछ साल पहले लगातार बहुत यात्राँए करनी पड़ी. एक रात को होटल में नींद खुली, पास मेज़ पर रखी बत्ती जलाई. कहाँ हूँ मैं, सोचने की कोशिश की पर याद नहीं आ रहा था कि कौन से देश में था. उठ कर होटल के कागज पर पढ़ा कि वह पश्चिम अफ्रीका में गिनेया बिसाऊ था. वैसा ही हाल इस महीने भी होने का डर है, एक के बाद दूसरी यात्रा, बीच में एक दिन का भी आराम नहीं. बस एक ही अच्छी बात है, कि इनमें से एक यात्रा भारत में भी है. चाहे भागम भाग ही हो, कम से कम वहाँ यह खतरा तो नहीं कि सोचना पड़े, यह कहाँ आ गये हम!



आज की तस्वीरें एक्वाडोर यात्रा सेः १. सब बीमारियों का इलाज यह जड़ी बूटियों वाला जूस पीजिये २. राजधानी कीटो में पर्यटकों की मदद के लिए पुलिसवाली

रविवार, अक्तूबर 02, 2005

ट्यूबालय

इटली में "एरिया" शब्द का अर्थ है "का घर" और इसको मिला कर दुकानों से सम्बंधित शब्द बनते हैं जैसे पित्जेरिया (Pizzeria) यानि जहाँ पित्ज़ा (Pizza) मिलता है. ऐसा ही हमारा हिंदी का शब्द है "आलय", पर क्या आप ने कभी ट्यूबालय का नाम सुना है ? यानि ट्यूब जैसा घर ? यहाँ ट्यूब का अर्थ लंदन की मेट्रो है और इस बार मेट्रो से इतनी यात्रांए कीं, कि लगा मानो ट्यूब में ही घर बन गया हो.

बार बार एक ही शहर जाने से सबसे बुरी बात यह होती है कि आप सोचें, यहाँ कितनी बार आ चुका हूँ, अब तो यह शहर वही जाना पहचाना है और आसपास जो हो रहा है उसे पर्यटक की उत्सुकता से न देखें. लंदन के बारे में मुझे ऐसा ही लगता था. हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही, रेल में या ट्यूब में कोई किताब या पत्रिका खोल कर बैठ जाता, न खिड़की से बाहर देखता न ट्यूब में बैठे अन्य यात्रियों को. हालाँकि भीड़ के समय ट्यूब में लोग आप के शरीर के हर भाग को छूते हों और आप की साँसों से साँसे मिला रहे हों, ट्यूब शिष्टाचार कहता है कि आप किसी से न नजर मिलाईये न, किसी को घूरिये. यानि भीड़ में भी अकेले.
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हेमरस्मिथ के ट्यूब स्टेशन से निकले तो तेज बारिश देख कर थम गये. इतनी तेज कि लंदन की नहीं, दिल्ली की बारिश लग रही थी. साथ में छतरी नहीं थी पर होटल अधिक दूर नहीं था इसलिए बैग से सिर को ढ़का और भागे. किंगस् स्टीर्ट को पार करते समय अचानक सामने एक लड़की आ गयी. ऊँचा कद, काले घुँघराले बाल, लम्बा सुंदर चेहरा. बारिश में एकदम भीगी हुई वह एक पहिये वाली अटैची खींच रही थी. बोली, "मेरी मदद कीजिये." जब कोई भीख माँगता है तो जैसे अकसर होता है, हम लोग रुके नहीं, दुसरी तरफ मुड़ कर उससे कुछ दूर हो कर निकलने की कोशिश की. चिल्ला पड़ी, "चले जाओ, मुझसे दूर चले जाओ." हम लोग रुके नहीं, तेज बारिश में भागे जा रहे थे. पीछे से उस लड़की की आवाज आ रही थी. वह जोर जोर से रोने लगी थी. "हे भगवान, कोई मेरी मदद करो." एक पल के लिए मुड़ कर देखा. चौराहे के पास, वह जमीन पर बैठ गयी थी और जोर जोर से रो रही थी. थोड़ी देर में बारिश और ट्रेफिक के शोर में उसकी आवाज सुनायी देनी बंद हो गयी और हमारा होटल आ गया. मन में लग रहा था कि रुक कर उसकी मदद करनी चाहिये थी. शायद वह आम भिखारन नहीं थी, मुसीबत की मारी कोई थी.

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ट्यूब में यह कविता पढ़ी, कुर्दी लेखिका चमोन हर्दी कीः



मैं उनकी बातें सुन सकती हूँ, अपने बच्चों की
बढ़िया अंग्रेज़ी और टूटी फूटी कुर्दी.

और जब उनकी किसी बात से सहमत नहीं होती
वह एक दुसरे को हौंसला देने के लिए कहते हैं
माँ की चिंता न करो, वह तो कुर्दिस्तानी है.

क्या मैं अपने ही घर में विदेशी बन जाऊँगी ?


आज की तस्वीरों में लंदन में बकिंगम पैलेस के पास की मूर्तियाँ

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