शनिवार, दिसंबर 24, 2005

प्रार्थना ध्वज

कल सुबह की उड़ान से भारत जाना है और इस चिट्ठे की तीन सप्ताह के लिए छुट्टी. हो सकता है कि भारत से चिट्ठे पर तस्वीरें चढ़ाने का मौका मिल जाये पर शादी के शोर शराबे में बैठ कर लिखना तो असंभव ही होगा. इसलिए आज का संदेश इस वर्ष का अंतिम संदेश है.

पुराने वर्ष का अंत, कहने को तो वह भी क्मप्यूटर और अंतरजाल की तरह काल्पनिक सच्चाई (virtual reality) है, यानि सब माया है, सब कुछ हमारी अपनी सोच में है. दिन तो वैसे ही हमेशा की तरह सूरज के उगने और डूबने से बनता है, पर हम लोग उसे केलेण्डर में दिनों, महीनों, वर्षों का नाम दे देते हैं. कुछ भी हो, वर्ष का अंत कहने से, जी करता है कि पीछे मुड़ कर देखें, क्या हुआ, क्या किया, क्या नया हुआ. अंतरजाल पर बहुत सी जगह यही हो रहा है, २००५ के प्रमुख समाचारों को याद करने के लिए.

मैंने अपने चिट्ठे पर एक ट्रेकिंग का प्रोग्राम लगा दिया था, जिससे पता चलता है कि कौन, कहाँ से मेरे लिखे चिट्ठे को पढ़ने आता है. उससे देखा कि पिछले महीने करीब २५० लोग इस चिट्ठे को पढ़ने आये. यह देख कर लगा कि वाह, कितने पाठक हैं जो मेरे लिखे को पढ़ने आये. फिर और गहराई में देखा तो पाया कि बहुत से लोग गूगल के माध्यम से कोई तस्वीर ढ़ूँढ़ते हुए आते हैं और चिट्ठे पर कुछ क्षण ही रुकते हैं, यानि उन्हें यह पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है कि मैंने क्या लिखा. इस प्रोग्राम से यह भी मालूम चलता है कि किस दिन, कितने बजे, कौन से शहर और देश से पाठक यहाँ आये, कहाँ से आये, इत्यादि.

कुछ दिन तो इन सब बातों को ध्यान से देखा, किसी बात को पढ़ कर मन गर्व से फ़ूलता फिर दूसरी किसी बात से वापस आसमान से धरती पर आ जाता. फिर सोचा कि मुझे इससे क्या फर्क पड़ता है कि मेरे लिखे को पंद्रह लोग पढ़े या पचास ? क्यों मानव मन ऐसा है कि उसके पास जो है, उससे संतोष नहीं होता, उससे अधिक ही अधिक चाहता है ?

२००५ का वर्ष मेरे लिए हमेशा विशेष अर्थ रखेगा. इस साल मैंने अपनी खोयी भाषा को पाया है. कुछ महीने पहले अपना लिखा हुआ, फिर से पढ़ कर देख सकता हूँ कि प्रतिदिन खोये शब्द वापस आ रहे हैं, लिखने का तरीका बदल रहा है. मन में यह भी आता है कि चिट्ठे से बढ़ कर कुछ और लिखूँ.

बौद्ध विहारों में त्रिकोणाकार प्रार्थना ध्वज होते हैं, जिन पर प्रार्थना लिखी होती है, जिसे हवा की तरंगे आसपास फैलाती हैं. जितनी बार ध्वजा हवा में लहराये, उतनी बार आप की प्रार्थना सफल होगी. वैसे ही बौद्ध प्रार्थना चक्र भी होते हैं. मंदिर जाईये तो हाथ से छू कर उन्हें घुमा दीजिये और जितना घूमेंगे, उन पर लिखी प्रार्थनाँए भगवान की ओर जायेंगी. सोचता हूँ कि ब्लाग वैसे ही एक नये धर्म के प्रार्थना ध्वज हैं. उन पर लिखे शब्द किसी के आने की हवा का इंतजार करते हैं. चाहे कोई गलती से आये या कुछ पढ़ने के लिए, क्या फर्क पड़ता है उससे!

कहते हैं कि कोई मरता नहीं तब तक, जब तक उसे कोई याद रखता है. मैंने अपने बहुत से प्रियजनों को इस चिट्ठे के माध्यम से याद किया है. कभी उनके बारे में बहुत कुछ बता कर, क्योंकि मुझे लगा कि वह बात मैं बता सकता था. कभी किसी का नाम तो लिखा है पर उसके साथ की सारी बात छुपा गया क्योंकि वह बात कहना मुझे ठीक नहीं लगा. वे सब हैं इन मेरे प्रार्थना ध्वजों पर, जब तक कोई उनके बारे में पढ़ सकता है, वे जीवित रहेंगे.


आप सब को क्रिसमस और नववर्ष की शुभकामनाँए, गुरु बिरजू के कत्थक नृत्य कार्यक्रम की तस्वीरों के साथ. अगले वर्ष, कुछ सप्ताह के बाद मिलेंगे.



शुक्रवार, दिसंबर 23, 2005

इंडियाना जोनस् बोलिविया में

मेरी न भूल पाने वाली यात्राओं में एक बोलिविया यात्रा भी है. बोलिविया की राजधानी "ला पाज़" साढ़े तीन हज़ार मीटर की ऊँचाई पर है. हवाई अड्डे पर उतरते ही आप को डाक्टर और नर्सें दिखती हैं, यह देखने के लिए कि कोई बेहोश तो नहीं हो गया और कई बोर्ड दिखते हैं जिन पर लिखा है कि अगर आप को चक्कर आ रहे हैं या सिर घूम रहा है तो तुरंत बैठ जाईये और सिर को घुटनों के बीच में रख लीजिये. तस्वीर में ला पाज़ में एक जलूस.

वहाँ शहरों से बहुत दूर त्रिनीदाद राज्य में एक गाँव में गये. वहाँ होटल नहीं थे, हमें सोने की जगह मिली एक अधूरे घर में जहाँ खिड़की दरवाज़े नहीं थे. घर में बत्ती भी नहीं थी. मोमबत्ती बुझाई तो बिल्कुल अँधेरे में डूब गये. पाखाना घर से बहुत दूर पीछे खेतों में था. रात को घर में बिस्तर के पास मुर्गियाँ, सूअर, बिल्ली आदि घूमते थे. असली मज़ा तो तब आया जब वहाँ से वापस जाने का समय आया. हमारा छोटा सा जहाज़ था, दो सीटों वाला. एक सीट पर पाइलेट जी बैठे और दूसरी पर मेरे साथी. मैं पीछे स्टूल पर बैठा. तेज़ बारिश हो रही थी और जहाज़ एक खेत में रुका था, जहाँ बच्चे, गधे, कुत्ते आदि थे. पहले तो खेत से सबको हटाने में देर लगी. फिर जब जहाज़ चला तो उठ नहीं पाया और खेत के किनारे पेड़ों के पास धक्के से रुक गया. मेरा स्टूल मेरे नीचे से निकल गया और मैं नीचे जा गिरा. खैर पाइलट जी ने हिम्मत नहीं खपयी और दोबारा उड़ाने के लिए जहाज़ को घुमाया. डर के मारे मुझे मतली आ रही थी. इस बार जहाज़ उठा और पेड़ों के पत्तों को छूते हुए ऊपर आ गया.

इसी यात्रा के दौरान एक और रोमांचक अनुभव हुआ. हम लोग ब्राजील की सीमा के पास, नाव में बैठ कर मदेइरा नदी पर एक द्वीप में बने कुष्ठ रोगियों के अस्पताल को देखने गये. जब वहाँ से वापस आने लगे तो कुछ अँधेरा होने लगा था, तो हमारे नाव की बत्ती खराब हो गयी, या फिर उसमें बैटरी नहीं थी. साथ ही नाव में थोड़ा पानी आ रहा था. हम सबको कहा गया कि गिलास या मग ले कर पानी नाव से बाहर फैंकें. पानी में जौंक थीं जो मेरे भी टाँगों पर चिपक कर खून चूस कर मोटी हो गयीं.
मदेइरा नदी का प्रवाह बहुत तेज़ है. इस नदी पर कई जगह लोग सोना ढ़ूँढ़ते हैं पर नदी का असली प्रयोग लकड़ी भेजने के लिए है. बोलिविया और ब्राजील में जँगलों से लकड़ी काट कर नदी के द्वारा दूर दूर भेजी जाती है. मदेइरा शब्द का अर्थ ही पोर्तुगीस भाषा में लकड़ी है. हलके अँधेरे में हमारी नाव जा रही थी, जिसमें बड़े कटे हुए पेड़ तैर रहे थे. पानी में मगरमच्छ भी थे और माँसभक्क्षी पेरानिया मच्छियाँ भी. अगर किसी पेड़ से टकरा कर नाव उलट जाये तो क्या होगा, यह सोच सोच कर मेरी जान सूखी जा रही थी. जब रात को सांताक्रूस पँहुचे तो नाव वाले ने जलती सिगरेट से जौंकों को छू कर हटाया.
तस्वीर में मदेइरा नदी के किनारे बोलिविया के डा. अलवारेज़ और नाव में हमारे गाईड फादर फिलिप्पो.


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अनूप जी, कुणाल सिंह की कहानी के बारे में बताने के लिए धन्यवाद, मुझे बहुत अच्छी लगी. इस दिनों में बहुत भागमभाग है, मुश्किल से लिख पाता हूँ. पढ़ने, टिप्पणी लिखना और टिप्पणियों का जबाव देना सब बहुत सीमित कर पाता हूँ, पर आप सब को धन्यवाद.

गुरुवार, दिसंबर 22, 2005

श्वेत पुष्प

पश्चिम बंगाल में एक छोटा सा शहर था अलीपुर द्वार जहाँ हम लोग बचपन में कई बार मौसी के पास गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने जाते थे. कुंदू बाबू का घर मौसी के घर के करीब ही था और पड़ोसी होने के अलावा वे मौसी के परिवार के डाक्टर भी थे. अक्सर उनके घर आना जाना होता.

मृदु और मितभाषी कुंदू बाबू का धैर्य अंतहीन था, मुझ जैसे बच्चे के अनेके प्रश्नों के उत्तर वह सोच समझ कर धीरे धीरे, बहुत गम्भीरता से देते. ठीक से इसके बारे में कभी नहीं सोचा पर हो सकता है कि मेरे अचेतन मन को उनके व्यक्तित्व से ही प्रेरणा मिली डाक्टर बनने की!

कुंदूबाबू का एक बेटा था जिसकी घर के पास ही फोटोग्राफर की दुकान थी, और पाँच बेटियाँ थीं. उनकी दो बेटियों की शादी हो चुकी थी और तीन घर में रहती थीं, कनकन, आभा और शिवानी.

कुंदू बाबू की पत्नी को सब लोग बड़ी माँ कहते. उनकी जो याद है उसमें वह आंगन में कूँए के पास गीले, खुले बाल ले कर खड़ीं हैं, माथे पर बड़ी सी गोल बिंदी, चौड़े लाल किनारे वाली सफेद साड़ी, अपनी मैना को मिर्ची खिलाते हुए. वह मैना हमारे लिए बहुत अचरज की चीज़ थी, क्योंकि वह बोलती थी, मां मां चिल्ला कर मिर्ची मांगती. तब अंग्रेजी लेखिका एनिड ब्लाईटन के फेमस फाईव उपन्यासों में बोलने वाले तोते पौली के बारे में कहानियाँ पढ़ते थे, तो मैं मन ही मन उस मैना को पौली पुकारता और स्वयं को फैमस फाईव बनने के सपने देखता.

कुंदू बाबू के पास पालतू बिल्ली भी थी, उससे भी हमें बहुत अचरज होता. पालतू बिल्लियों के बारे में अंग्रेज़ी किताबों मे तो पढ़ा था पर कुंदू बाबू की बिल्ली जैसी कोई बिल्ली नहीं देखी थी. "काली बिल्ली, सारे दिन आस पास घूमती है, जाने कितनी बार रास्ता काटती है, क्या बुरा नहीं होता ?", हम सोचते. जब कुंदू बाबू खाना खाते तो बिल्ली पास में आ कर बैठ जाती और इंतज़ार करती कि कुंदू बाबू उसे कुछ खाने के लिए दें.

जिस साल की बात कर रहा हूँ उस साल बारह साल का हुआ था और शरीर में किशोरावस्था की नयी अनूभूतियाँ प्रारम्भ हो रहीं थीं. एक दिन उनके बाग में बैठे थे तो कनकन दीदी के चेहरे पर नज़र गयी तो वहाँ से हटे ही नहीं, इतनी सुंदर लगीं उस दिन वह. शायद उन्होंने भाँप लिया कि मैं उनकी तरफ कुछ ज़्यादा ही घूर रहा हूँ तो आभा दीदी मुझसे बोलीं, "कौन अधिक अच्छी लगती है तुम्हें ? मुझसे शादी करोगे या कनकन से ?". शर्म से मेरे कान लाल हो गये थे. पर जी किया था कि वहाँ बाग में लगे श्वेत रजनीगँधा के फ़ूल ले कर उन्हें कनकन दीदी को दे दूँ. इस बात को सोचते ही उन सफेद फ़ूलों की छवि मन के सामने आ जाती है.

उस साल सारी छुट्टियाँ भर कनकन दीदी मेरे ख्यालों में रहीं. दो साल बाद जब अलीपुर द्वार लौटे तो कनकन दीदी की शादी हो चुकी थी. उसके बाद कभी अलीपर द्वार जाने का मौका नहीं मिला. बहुत सालों बाद मौसी के यहाँ एक विवाह में आभा दीदी मिलीं थीं. अब तो बहुत सालों से उनकी कोई खबर नहीं. कुंदू बाबू और बड़ी माँ को गुज़रे ज़माने बीत गये. पर आज भी उन गर्मियों की वह मीठी अनुभूति और उन सफेद रजनीगँधा के फ़ूलों की याद नहीं गयी.

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बात सफेद फ़ूलों की है तो आज वही प्रस्तुत हैं



बुधवार, दिसंबर 21, 2005

शुद्ध पृथ्वीवासी

शायद हर जगह लोग ऐसे ही प्रश्न पूछते हैं, कि आप कहाँ से हैं?

इटली में लोग, कोई नया मिले तो यह प्रश्न अवश्य पूछते हैं. जब परिवार सारा जीवन एक ही जगह पर बिताते थे तो इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं था. आप कहाँ रहते पूछने का अर्थ यह जानना भी है कि आप विश्वासनीय हैं या नहीं. लोगों में रहने की जगह के साथ जुड़ी बातों की वजह से छोटा बड़ा सोचने की भी आदत होती है. जैसे कि उत्तरी इटली वाले अपने आप को दक्षिणी इटली वालों से ऊँचा समझते हैं. जब शुरु शुरु में इटली आया था और यहाँ अधिक प्रवासी नहीं थे, तो जो घर किराये पर मिला उसकी मकान मालकिन मुझसे यही बोली थी, "मैं तो अपना घर किराये पर या तो उत्तरी इटली वालों को दूँगी या विदेशियों को. "मेरिद्योनालि" लोगों (दक्षिण इटली के लोगों) को नहीं दूँगी."

पर आजकल सब कुछ बदल रहा है. बहुत से लोग उत्तर देते हैं, "मेरी माँ एक जगह से हैं, पिता दूसरी जगह से और हम बच्चे लोग तीसरी जगह में बड़े हुए, पर आजकल हम चौथी जगह रहते हैं." यानि यह किसी को यह बताना कि आप कहाँ से हैं, धीरे धीरे कठिन होता जा रहा है.

मुझसे लोग अक्सर जब मुझसे पूछते हैं कि मैं भारत में कहाँ से हूँ, तो मुझे भी उत्तर देने में ऐसी ही परेशानी होती है. ननिहाल तो अब पाकिस्तान में है, जबकि पिता का परिवार उत्तरप्रदेश में था, और हम सब बच्चे अलग अलग शहरों में पैदा हुए. लम्बा उत्तर न देने के लिए कहता हूँ दिल्ली से हूँ क्योंकि जीवन के बहुत से साल दिल्ली में ही कटे हैं.

हमारे परिवार के बड़े भाई बहनों ने विभिन्न दिशाओं में और भी मिलावट करनी शुरु कर दी. किसी की बहू बंगाली थी, किसी की मराठी तो किसी का पति कोंकणी. जब मैंने विवाह किया तो इस मिलावट की होली में धर्म का रंग भी जोड़ दिया, क्योंकि मेरी पत्नी कैथोलिक है. हिंदू व कैथोलिक परिवार में बड़े हुए हमारे बेटे की होनी वाली पत्नी सिख है. जब उसके बच्चे होंगे और कोई उनसे यह सवाल करेगा, तो सोचिये कि वे क्या जवाब देंगे कि वे कहाँ से हैं?

हम मिलावटी भारतीय हैं, या मिलावटी इतालवी? या फ़िर हम लोग मिलावटी हिंदू, सिख और कैथोलिक होंगे? पर सच में तो मेरे विचार में हम लोग शुद्ध पृथ्वीवासी हैं.

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ब्राजील मेरे विचार में मानव जाति की मिलावट का दुनिया में सबसे बड़ा उदाहरण है. यहाँ की मूल जनजाति के लोग इंडियोस, और अन्य देशों से आये यूरोपीय, अफ्रीकी, जापानी, चीनी, आदि जातियों के लोगों के मिलने से बना है यह देश. आज की तस्वीरें ब्राजील से ही हैं.

Belem, Brazil - images by Sunil Deepak

Belem, Brazil - images by Sunil Deepak

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सोमवार, दिसंबर 19, 2005

जरुरत से ज़्यादा समझदार माँ बाप

मेरी परेशानियाँ मेरे सब साथियों की परेशानियों से भिन्न थीं. आधुनिक और स्वतंत्र विचार रखनेवाले माता पिता मिलने का यही झंझट था. किशोरावस्था में सब साथियों के झगड़े होते अपने घरों में, बालों की लम्बाई पर, बैलबोटोम पैंट की चौड़ाई पर, रात को कितनी देर तक बाहर रह सकते हैं, जैसी बातों पर. हम थे कि तरसते ही रह जाते कि हमें कोई रोके या टोके, पूछे कि हमने ऐसा क्यों पहना है या वैसा क्यों किया है ?

उस जमाने में कान, नाक, माथे, होंठ आदि पर पिन घुसवाने या बालों को रंग बिरंगा बनवाने के फैशन नहीं आये थे, पर अगर आये होते तो हमने अवश्य उन्हें अपनाया होता और पक्का विश्वास है कि कोई हमसे नहीं पूछता कि हमने ऐसी बेहूदा हरकत क्यों की थी. हमारे साथी अपने माता पिता से प्रतिदिन लड़ते झगड़ते, और हम थे कि कोई हमें लड़ने का मौका ही नहीं देता था. क्या मालूम इससे हमारे व्यक्तित्व पर क्या गलत असर पड़ा हो ?

मेरा ख्याल है कि किशोरावस्था में हर बच्चे को माता पिता से लड़ने का अधिकार है, उसे अधिकार है कि उसके विचार माता पिता से न मिलें, और वह अपने विचारों के लिए लड़ कर अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाये. अगर ऐसा न हो तो बच्चों के मन में लड़ाई करने की आकांक्षा दबी रह जाती है.

माता पिता को कभी कभी बच्चे का व्यक्तित्व ठीक बनाने के लिए कभी कभी तानाशाह बन कर कहना चाहिये, "नहीं, तुम यह नहीं कर सकते. क्यों का क्या मतलब है ? बस मैंने कह दिया, इसीलिए नहीं कर सकते. अब मैं इसके बारे में कोई बहस नहीं करना चाहता!"

आप सोच सकते हैं कि कितना कष्ट पहुँचता है बच्चों को जब उत्तर मिलता है, "बेटा, तुम अपने आप सोच कर निर्णय लो. तुम बड़े हो गये हो, अपने सभी निर्णयों की जिम्मेदारी भी तुम्हारी ही है." ऐसा उत्तर मिलने के बाद बेचारे बच्चों को गलती करने का मौका तक नहीं मिलता, जो कि हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिये.

खुशकिस्मती से मेरी पत्नी ऐसे परिवार से नहीं है. मैं तो आदत के मारे और अपने बचपन के अनुभव के मारे, समझदार और स्वतंत्र विचारों वाला पिता हूँ, पर मेरी पत्नी साधारण माँ है जिसे इन नये विचारों में खास दिलचस्पी नहीं है. जब माँ बेटे में लड़ाई होती है तो मुझे बहुत खुशी होती है कि मेरे बेटे को कम से कम माँ से लड़ने का मौका तो मिला!

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आज दो तस्वीरें दिल्ली की सड़कों सेः



रविवार, दिसंबर 18, 2005

बीत गये कितने दिन!

लगता है कि कल की बात है जब वह पैदा होने वाला था. डाक्टर ने तारीख दी थी १० जुलाई की. १० जुलाई आयी और चली गयी, पर उसके आने के लक्षण नहीं दिखाई दे रहे थे. मैं पत्नी के साथ उसके चेकअप के लिए अस्पताल गया. यह वही अस्पताल था जहाँ हमने इक्ट्ठे काम किया था इसलिए वहाँ के सब डाक्टरों और नर्सों को जानते थे.

"कुछ नहीं है, सब ठीक है. पर बच्चा अभी ऊपर है, बच्चेदानी में नीचे नहीं आया. तुम खूब चलो, भागो, सीढ़ियाँ चढ़ो, उतरो", डाक्टर बोले, "उससे बच्चा नीचे आ जायेगा."

इस बात को हम दोनो ने बहुत गम्भीरता से लिया. सारा दिन घूमते. पूर्वी इटली में स्कियो नाम के शहर में रहते थे, जो पहाड़ों के बीच बसा है. वहाँ चढ़ने, उतरने के लिए सीढ़ियों की कमी नहीं थी. पत्नी के फ़ूले हुए पेट को छू कर, उसका हिलना, लात मारना महसूस करना, मुझे बहुत अच्छा लगता. क्या नाम रखेंगे, इस पर लम्बी बहस होती. यह तो पहले से तय था कि बच्चे के दो नाम होंगे, एक इतालवी और एक भारतीय. यह भी तय था कि अगर बेटी होगी तो उसका पहला नाम भारतीय होगा और दूसरा इतालवी, बेटा होगा तो इसका उलटा.

दस दिन बीत गये इसी तरह. फिर अस्पताल चेकअप के लिए गये. "बच्चा अभी भी नीचे नहीं आया, पर सब कुछ ठीक ठाक है", डाक्टर बोले और पत्नी को और चलने, भागने की सलाह दी. आखिर 23 तारीख को शाम को पत्नी को हलका हलका प्रसव दर्द शुरु हुआ तो उसे ले कर अस्पताल वापस पहुँचे. "सब ठीक ठाक है, पर अभी समय लगेगा. कल सुबह से पहले कुछ नहीं होने वाला, आप अभी घर जा कर सोईये, कल सुबह आईये", उन्होंने मुझसे कहा.

अपनी सास के पास ठहरा था, वहाँ आ कर रात को सो गया. रात को अचानक नींद खुली, लगा कहीं टेलीफोन बज रहा था, थोड़ी देर यूँ ही लेटा सुनता रहा, पर जब टेलीफोन रुक कर फिर से बजने लगा तो उठ कर देखने की सोची. पहली मंजिल पर सोया था, टेलीफोन नीचे बज रहा था. नीचे आया तो देखा हमारा ही टेलीफोन था और हमारी साली साहिबा हमें आधे घँटे से टेलीफोन कर कर के परेशान हो गयीं थीं. "जल्दी अस्पताल जाओ, वहाँ से टेलीफोन आया था कि कुछ ठीक नहीं है और अभी ओपरेश्न करना होगा." रात को कार स्टार्ट होने में कुछ परेशानी हो रही थी इसलिए उसे अस्पताल के बाहर ही छोड़ आया था. जब टेलीफोन आया तो भागाभागी में कपड़े पहने और टैक्सी को बुलाया. अस्पताल पहुँचा तो करीब दो बज चुके थे.

पहले पत्नी को देखा, जिसे ओपरेश्न थियेटर से बाहर लाया जा रहा था, बेहोश सी थी पर फिर भी मुझे देख कर रोने लगी. दिल काँप सा गया. "लड़का हुआ है, पर उसकी हालत ठीक नहीं है. बच्चा इंटेन्सिव कैयर में है, नाल उसके गले को घेरे थी, इसलिए वह साँस ठीक से नहीं ले पा रहा था, इसलिए एमरजैंसी में ओपरेश्न करना पड़ा", मुझे बताया गया.

इंटेंसिव कैयर के बाहर शीशे से उसे देखा. इंक्यूबेटर में रखा छोटा सा वह, मुँह पर साँस लेने की नली लगी हुई. उसे वह पहली बार देखना अभी भी ऐसे याद है जैसे कल की बात हो. दो सप्ताह में उसकी शादी होने वाली है. बीत गये कितने दिन, कितनी जल्दी, पता ही नहीं चला.

Deepak family

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शनिवार, दिसंबर 17, 2005

इज्जत के लिए

हमारी संस्कृति में "इज्जत" का स्थान सर्वप्रथम है, कुछ भी हो जाये, इज्जत को बचा रखना चाहिये. इस इज्जत के बहुत से पक्ष हो सकते हैं, जिनमें से स्त्री के शरीर से जुड़े परिवार की इज्जत के प्रश्न सबसे प्रमुख हैं. बचपन में सुनी रानी पद्मनी की कहानी यही सिखाती है कि स्त्री की इज्जत उसके पति, उसके परिवार में है और बाहर का पुरुष उसके शरीर को छू ले तो उसकी इज्जत चली जायेगी. पराये मर्द के हाथ पड़ने से अच्छा है कि वह मर जाये. इसलिए जौहर या सती उसे पूजनीय बनाते हैं.

मानव के लिए जीवन का महत्व सबसे अधिक है, पैसे, इज्जत, खेल तमाशा, सबसे अधिक. पर यह नियम केवल पुरुष पर लागू होता है, क्योंकि इज्जत उसके शरीर में नहीं रहती. उसके शरीर को कोई भी देख ले, वह कितनी औरतों के साथ सहवास करे, उससे इसकी इज्जत बढ़ती है. उसकी पत्नी मरे तो और वह सती होने के सोचे, उसे सब पागल कहेंगे.

औरत और मर्द शरीरों के लिए इस तरह भिन्न सामाजिक नियम बना कर, हर समाज और तबका, अपनी इज्जत के मापदंड तैयार करता है. मुस्लिम समाज में इसका अर्थ बुरका बन जाता है, पाकिस्तान की उत्तर पश्चिमी प्रदेश में बेटियों और बहनों को "इज्जत बचाने" के लिए मारना, खून का जुर्म नहीं माना जाता. यानि परिवार की मर्जी के विरुद्ध किसी अन्य युवक से प्यार करने वाली लड़की को जान से मारना जुर्म नहीं है. भारत में बहुत से हिंदू परिवारों में इसका अर्थ है, लम्बा घूँघट रखो, सिर ढ़को, शरीर को ठीक से ढ़को, वगैरा. डिग्री का फर्क है, पर भीतर बात एक ही है.

कल पाकिस्तानी फिल्म निर्देशिका सबीहा सुमर की फिल्म "खामोश पानी" देखी तो यही सोच रहा था. फिल्म को देख कर विभिन्न बातें मन में आ रही थीं और बहुत सी बातों के बारे में मेरे अपने विचार कुछ स्पष्ट नहीं हैं. जैसे यह औरत शरीर की इज्जत की बात. आज तर्क के बूते पर सोच कर सोचता हूँ कि शरीर की इज्जत, जीवन के मूल्य से बड़ी नहीं हो सकती पर बचपन से सीखे सांस्कृतिक विचार इतनी आसानी से नहीं दबते या बदलते. बहुत बार पढ़ा था कि भारत विभाजन के समय बहुत से हिंदू और सिख परिवारों ने "इज्जत बचाने" के लिए बेटियों, बहनों, पत्नियों को कूँए में जान देना या जहर खा कर मरना बेहतर समझा, तो कभी यह गलत नहीं लगा, कभी यह नहीं सोचा, औरत की ही इज्जत क्यों खतरे में होती है और कौन निर्धारित करता है कि उसका मर जाना ही बेहतर है ?

"खामोश पानी" यही सवाल पूछती है. उसकी नायिका आयेशा सिख लड़की थी, जो कूँए में नहीं कूदी, जो पाकिस्तान मैं ही रह गयी और मुसलमान परिवार में मुसलमान बन कर जियी. सालों बाद जब उसका भारत में रहने वाला भाई उससे मिलने की कोशिश करता है और उसे पिता के बीमार होने की बात कहता है, वह यही पूछती है, इज्जत के नाम पर घर की सभी औरतों को कूँए में मरवा देने के बाद, क्यों उसे अपने ऐसे पिता या भाई की परवाह हो ?

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख