रविवार, मार्च 26, 2006

विधवा जीवन का "जल"

4 या 5 साल पहले जब केनेडा में रहने वाली भारतीय फिल्म निर्देशक दीपा मेहता, पृथ्वी तत्वों पर बनायी फिल्म श्रृखँला की तीसरी फिल्म "जल" की शूटिंग करने वाराणसी पहुँची थीं तो कुछ लोगों ने बहुत हल्ला किया, कहा कि वह भारतीय संस्कृति और हिंदु धर्म का मज़ाक उड़ाना चाहती हैं, विदेशियों के सामने उनकी आलोचना करना चाहती हैं. वाराणसी के कई जाने माने लोगों ने उनका साथ देने की कोशिश की पर हल्ला करने वालों के सामने उनकी एक न चली और अंत में दीपा मेहता को अपना बोरिया बिस्तर ले कर लौट जाना पड़ा.

अभी कुछ समय पहले उन्होने इस फिल्म को श्रीलँका में फिल्माया और प्रदर्शित किया है. जब फिल्म देखने का मौका मिला तो वाराणसी में हुए उस हल्ले का सोच कर ही, मन में उत्सुक्ता थी कि भला क्या कहानी होगी जिससे भारतीय संस्कृति के रक्षक इतना बिगड़ रहे थे ?

फिल्म का कथा सारः भारत 1938, स्वतंत्रता संग्राम में पूरा भारत जाग उठा है. छोटी बच्ची छुईया, विवाह के थोड़े से दिनों के बाद विधवा हो जाती है और उसके पिता उसका सिर मुँडवा कर, एक विधवा आश्रम में छोड़ जाते हैं. आश्रम में शासन चलता है बूढ़ी मधुमति का. छुईया पहले तो सोचती है कि उसकी माँ उसे लेने आयेगी पर फ़िर धीरे धीरे आश्रम के कठोर जीवन में घुलमिल जाती है. पूजा करना, नदी में स्नान करना, एक समय सादा खाना खाना, व्रत रखना, विवाहित औरतों पर अपने छाया न पड़ने देना, शुभ अवसरों पर दूर रहना, आदि नियम हैं आश्रम के. यही विधवा धर्म है, मन को, आशाओं को, उमँगों को मार कर जियो क्योकि पत्नी पति की अर्धाँगिनी है और पति के मरने के बाद वह भी आधी मृत ही है, ऐसा सबक मिलता है छुईया को. और जब वह भोलेपन से प्रश्न पूछती है, "विधवा पुरुषों का आश्रम कहाँ है ?" तो उसे डाँट भी मिलती है.

आश्रम में छुईया को सहारा मिलता है मितभाषणी, गँभीर शकुंतला से और ऊपर के कमरे में, बाकी विधवाओं से अलग रहने वाली लम्बे बालों वाली सुंदर कल्याणी से. केवल भीख से काम नहीं चलता आश्रम का, हिजड़े गुलाबो की मदद से और मधुमति की आज्ञा से रोज़ रात के अँधेरे में कल्याणी बिकती है, भले घरों के पुरुषों के साथ सोने के लिए.

नारायण, जो बाहर से पढ़ लिख कर शहर वापस आया है, गाँधी जी के विचारों से बहुत प्रभावित है. वह कल्याणी को देख कर उससे प्रेम करने लगता है और विवाह करना चाहता है. कल्याणी के विधवा होना उसे नहीं रोकता क्योंकि वह राममोहन राय द्वारा चलाये गये विधवा पुनर्विवाह की बात मानता है. पर कल्याणी का अतीत उसके भविष्य के सामने रुकावट बन जाता है और यही नियती नन्ही छुईया के जीवन को भी डसने वाली है. धर्मभीरु शकुंतला में विद्रोह की आग लग जाती है, तब वह गाँधी जी का प्रवचन सुनती है और उससे प्रभावित हो कर छुईया के भविष्य को वह गाँधी जी को सपुर्द कर देती है.

टिप्पणीः फिल्म देखने में बहुत सुंदर बनी है और पिछली सदी के प्रारम्भ का विधवाओं का जीवन बहुत अच्छे तरीके से दिखाया गया है. अभिनय की दृष्टी से छुईया के रुप में सरला और शकुंतला के रुप में सीमा विश्वास बहुत बढ़ियाँ हैं. विधवा आश्रम की सभी विधवाएँ सचमुच की बूढ़ी विधवाएँ लगती हैं, अभिनेत्रयाँ नहीं. कल्याणी के रुप में लिज़ा राय सुंदर तो बहुत हैं, अभिनय भी ठीक ही है पर वह अभिनेत्री लगती हैं, पात्र के व्यक्तित्व से आत्मसार नहीं कर पातीं. नारायण के रुप में जोह्न अब्राहम भी अच्छे हैं.


मेरे विचार में फिल्म में ऐसी कोई बात नहीं थी कि उसके खिलाफ़ इतना हल्ला किया गया. फिल्म अवश्य हिंदु धर्म द्वारा विधवाओं के प्रति विचारों की आलोचना करती है पर ऐसी आलोचना तो अन्य बहुत सी फिल्मों ने भी की है.

हर धर्म में सही और गलत बातें होती हैं. बहुत सी बाते जो पहले जमाने में मान ली जाती थीं, आज के युग में जब हम मानव अधिकारों, सभी मानवों को आत्मसम्मान से जीने के अधिकारों की बात करते हैं, तो वे पुरानी बातें गलत लग सकती हैं. अच्छा धर्म वही है जो बदलते समय के साथ अपनी गलती मान ले और अपने धर्म में सुधार ला सके, उसे बदल सके. मेरे विचार में इससे धर्म नीचे नहीं जाता, बल्कि उसकी इज्जत बढ़ती है.

जो लोग धर्म का नाम ले कर, या अपने धर्म का बहाना बना कर, यह चाहते हैं कि कोई उनके धर्म से जुड़ी गलत बात की चर्चा न करे तो शायद उनमें अपने धर्म के लिए आत्मविश्वास की कमी है ?

सन 2001 में हुई जनगणना के अनुसार भारत में 3.4 करोड़ विधवाऐँ हैं. मैं जानता हूँ कि आज बहुत सी विधवाऐँ, अपनी मर्जी से अपना जीवन जीती हैं. मेरी दादी ने विधवा हो कर भी पढ़ाई की, पढ़ाने का काम किया और अपने बच्चों को पढ़ाया. मेरी माँ ने भी विधवा हो कर ही हम सब बच्चों को पढ़ाया. पर अगर 3.4 करोड़ में 10 प्रतिशत विधवा औरतें भी पुराने धर्म सम्बंधी विचारों की वजह से घुट घुट कर जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं तो हमारे हिंदू धर्म के गुरुओं को इसके खिलाफ अपनी आवाज़ उठानी चाहिए.

जिस दिन शँकराचार्य जी जैसे धर्मगुरु, विधवाओं के साथ हो रहे या दलितों के साथ धर्म के नाम पर हो रहे अमानवीय व्यावहारों के प्रति बोल पायेंगे, उसी से हमारा धर्म मज़बूत होगा.

शनिवार, मार्च 25, 2006

चाँद और गगन

इस वर्ष सर्दियाँ जाने का नाम ही नहीं ले रहीं. पर दिन तो लम्बे होने शुरु हो गये हैं. शाम को 6 बजे जब काम से निकलता हूँ तो भी रोशनी होती है, इसलिए कुछ दिन पहले फैसला किया कि अगर बारिश वगैरा न हो तो गाड़ी गैराज़ में बंद रहेगी और काम पर साईकल से ही जाऊँगा.

यहाँ लोग साईकल वालों की तरफ़ बहुत सावधान रहते हैं और अधिकतर कार वाले उनका हाथ उठा देखते हैं तो रुक कर या धीमा करके उन्हें सामने मुड़ना या सड़क पार करने देते हैं. जिस रास्ते से मैं घर आता हूँ उस पर बहुत साईकल चलाने वाले नहीं होते, कोई इक्का दुक्का ही होता है.

खैर यह सारी कहानी यह कहने के लिए सुनाई कि कल शाम को साईकल से घर वापस आ रहा तो जाने क्यों मन में एक पुराना गाना आया. गाना था फिल्म "ज्योती" से जिसमें अभिनेता थे संजीव कुमार और निवेदिता, और उनके बेटे का भाग निभाया था उस समय की बाल अभिनेत्री सारिका ने. मेरा ख्याल है कि यह फिल्म रंगीन नहीं श्वेत+श्याम थी, पर यह भी हो सकता है कि क्योंकि फिल्म पुराने रंगहीन टेलीविज़न पर देखी थी, इसलिए ऐसा सोचता हूँ. फिल्म का विषय था भगवान पर से विश्वास या अविश्वास.

अच्छा यादाश्त भी अजीब चीज़ है. जाने कौन से दिमाग के तंतु जुड़ गये अचानक, शायद साईकल को कोई झटका लगा हो जिससे यह हुआ हो, पर ३५ साल पहले की इस फिल्म की इतनी बातें अचानक इतनी साफ़ याद आ गयीं जबकि पूछिये कि रात को सोने से पहले चश्मा कहाँ रखा तो याद नहीं आता.

जो गाना याद आया, उसके शब्द थेः
पुरुष स्वरः
"अभी चाँद निकल आयेगा
झिलमिल चमकेंगे तारे
देखके यह गगन
झूँमें"
स्त्री स्वरः
"चाँद जब निकल आयेगा
देखेगा न कोई गगन को
चाँद को
ही देखेगें सारे
सोचके यह गगन झूँमें"
बात आनेवाले बच्चे की हो रही है और चाँद का निकलने का अर्थ है बच्चे का पैदा होना. माँ का यह सोचना कि बच्चे के पैदा होने के बाद सब बच्चे को ही देखेंगे, माँ की ओर कोई नहीं देखेगा पर माँ इसी में खुश है, बहुत अच्छा लगा.
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आज की तस्वीरों का विषय है बच्चे. सभी तस्वीरें नेपाल से हैं.


शुक्रवार, मार्च 24, 2006

गाँधी और बुश

किसी भी देश से कोई नेता या राजा आदि दिल्ली आयें तो उन्हें राजघाट जो जाना ही पड़ता है, गाँधी जी के स्मारक को फ़ूल चढ़ाने के लिए. केवल साऊदी अरब के राजा को "धार्मिक कारणों" से यह छूट दी गयी कि उन्हें गाँधी जी की समाधी के सामने सिर न झुकाना पड़े (व्यक्तिगत रुप में इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं था)

अमरीकी राष्ट्रपति बुश जी को गाँधी जी की समाधी तो जाना ही था. इस बारे में भारतीय लेखिका अरुँधति राय ने अंग्रेज़ी के अखबार The Hindu में लिखा था, "वह अकेला ही युद्ध अपराधी नहीं होगा जिसे राजघाट पर आने का भारत सरकार से निमंत्रण मिला हो. पर जब बुश उस प्रसिद्ध पत्थर पर फ़ूल रखेगा तो लाखों भारतीय हिल जायेंगे मानो उन्हें चाँटा लगा हो, मानो उसने समाधी पर आधा लिटर खून डाल दिया हो."

बुश जी के राजघाट जाने से लाखों भारत वासियों के दिल दहले या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम. उस दिन मैं दिल्ली में ही था और लगा कि दिल्ली की जनता बुश जी से बहुत प्रसन्न हो.

पर असली हल्ला बुश जी से नहीं उनके कुत्तों की वजह से हुआ. क्योंकि कुत्तों को सुरक्षा जाँच करने के लिए समाधी के पास जाने दिया गया, इस पर बहस शुरु हो गयी. बुश जी के जाने के बाद, लोगों ने समाधी को पवित्र जल से धो कर साफ़ किया, मंत्र पढ़े. मुझे लगा गाँधी जी का बड़ा अनादर इस ढ़कोसले से हुआ.

वह गाँधी जो सभी धर्मों के आदर की बात करते थे, जो मानवता की बात करते थे, जो भगवान के बनाये हुए सभी प्राणियों से प्रेम और अहिंसा की बात करते थे, अगर उनकी समाधी के पास कुत्ता चला गया तो वह अपवित्र हो गयी, क्यों ? और अगर समाधी के ऊपर उड़ते हुए कौआ या चिड़िया बीट कर देती है तो क्या हर रोज़ पवित्र यज्ञ करवाते हैं ?

गुरुवार, मार्च 23, 2006

नागेश कुकुनूर का "इकबाल"

बहुत दिनों से सुना था नागेश कुकुनूर की फिल्म "इकबाल" के बारे में और उसे देखने की मन में उत्सुकता थी. मार्च के प्रारम्भ में नेपाल से वापस आते समय, दिल्ली से फिल्म की डीवीडी ले कर आया था. कल रात को आखिरकार उसे देखने का समय मिल ही गया.

आम हिंदी फिल्मों का सोचें तो यह फिल्म उनसे बहुत अच्छी है. न कोई बेसिर पैर की बेतुकी बातें हैं न बीच में जबरदस्ती घुसाये "आईटम सांग" या कामेडी. सीधी, स्पष्ट कहानी और बहुत सारे कलाकारों के दिल को छू लेने वाला अभिनय. इकबाल के रुप में श्रेयास तालपड़े और उसकी बहन के रुप में श्वेता नाम की बच्ची दोनो ही बहुत अच्छे लगे.

कुछ एक दृष्य भी मन को छू लेते हैं, पर फ़िर भी, कुछ कमी सी लगी. गलत नहीं समझईये मेरी आलोचना को. जैसे पहले कहा, फ़िल्म आम बालीवुड मसाला फि्लमों से बहुत अच्छी है और उसे दोबारा देखना पड़े तो खुशी से देखूँगा. पर कुकुनूर जी से उम्मीद "केवल अच्छी" फ़िल्म की नहीं, कुछ उससे अधिक ही थी.


तो क्या बात है फ़िल्म में जो कुछ पूरी खरी नहीं लगी ?

पहली बात तो यह कि मुझे लगा कि कहानी दिल से नहीं दिमाग से लिखी गयी लगती है, जैसे नागेश जी ने मेज़ पर बैठ कर सोचा हो कि कैसे लड़के का सपना और लड़ाई को अधिक कठिन किया जाये, चलिये गाँव का होने वाला के साथ साथ उसे गूँगा और बहरा बना देते हैं. अच्छा शुरु में टेंशन बनाने के लिए उसे अकादमी में भरती होता दिखा देते हैं फ़िर कुछ सिचुऐशन बना कर उसे वहाँ से बाहर निकाल देंगे. इसी तरह सारी फिल्म मुझे ऐसे ही दिमाग से सोच कर बानयी गयी लगती है और उसमें जीवन के हृदय से छुआ सच कम लगता है.

शायद यही बात है कि गूँगे बहरे लड़के इकबाल की सारी लड़ाई परिस्थितियों और दूसरे खलनायकों के साथ हैं जो कि कहानी को नाटकीय मोड़ देने के लिए कभी अच्छे बनते हैं और कभी बुरे. गिरीश करनाड़ का चरित्र और उसका अंत तक खलनायक बनना और धमकी देना कुछ ऐसा ही नकली सा लगा. वैसा ही अविश्वासनीय सी नाटकीय मोड़ देने की ही लिए लगी इकबाल की अपने पिता से लड़ाई.

पर गाँव से आये लड़के की शहर के "ऐलीट" खेल में घुसने की असली लड़ाई इतनी आसान नहीं होती. जो लोग, गाँव के रहने वालों को "अनपढ़, गँवार और संस्कृति विहीन, निचले स्तर के लोग" सा सोचती है, उस सोच से लड़ाई होती है जिसके बारे में फिल्म कुछ विषेश नहीं कहती.

विकलाँग व्यक्तियों और बच्चों की लड़ाई भी ऐसे ही, लोगों के सोचने के तरीके से होती है, जो उन्हें शारीरिक विकलाँगता के साथ, मानसिक कमजोरी को जोड़ कर देखती है. उसका भी फिल्म में कुछ विषेश जिक्र नहीं है.

अभिनेताओं में से नसीरुद्दीनशाह से कुछ आनंद नहीं आया, लगा मानो वह अपने पात्र के चरित्र से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हैं. हाँ, इतने अच्छे कलाकार हैं कि उनका आधा संतुष्ट हुआ अभिनय भी कम नहीं है, पर उनसे भी मुझे सिर्फ "अच्छा" काम करना कम लगता है.

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सोच रहा था कि डीवीडी का क्या हिंदी में शब्द बना है कोई ? Digital Video Disk को "साँख्यिक छायाचलचित्र तशतरी" यानि स.छ.त. कहें तो कैसा रहेगा ?

यह सिर्फ मज़ाक में ही कह रहा हूँ. मेरे विचार में हर शब्द का हिंदी शब्द ढ़ूँढ़ना जरुरी नहीं है, कुछ शब्द दूसरी भाषाओं से ले कर भी उनका भारतीयकरण हो जाता है.

बुधवार, मार्च 22, 2006

कोयले की दलाली

अमरीकी लेखक अलेक्ज़ांडर स्टिल की नयी पुस्तक निकली है, "नागरिक बरलुस्कोनीः जीवन और कार्य", जिसके कुछ हिस्से इटली की एक पत्रिका में लेख के रुप में प्रकाशित हुए हैं.

पढ़ कर बहुत अचरज हुआ क्योंकि उसमें देश के नियम और कानून को तोड़ मरोड़ कर अपने फायदे के लिए इटली की प्रधानमंत्री श्री बरलुस्कोनी द्वारा किये बहुत से कामों के कच्चे चिट्ठे विस्तार से बतलाये गये हैं. लेख में इन सब कामों को करने के लिए किस पत्रकार, किस उद्योगपति, किस व्यक्ति ने कैसे प्रधानमंत्री का साथ दिया ताकि वह कानून का खेल बना सकें, उनके भी नाम खुले आम लिखें हैं.

अचरज इसलिए हुआ कि अगर इन बातों के सबूत नहीं हों श्री स्टिल के पास तो उन पर करोड़ों की मानहानि का दावा किया जा सकता है. और अगर यह सब बातें सच हों तो बहुत से लोगों को जेल में होना चाहिये था.

उदाहरण के तौर पर उसमें एक जाने माने टेलीविज़न पत्रकार का नाम है और उनकी एक उद्योगपति से टेलीफोन पर की हुई बात का पूरा विवरण है जिसमें वह बताते हैं कि कैसे वह अपने टेलीविज़न के समाचारों द्वारा एक अच्छे मजिस्ट्रेट के बारे में झूठ फैला रहे हैं क्योंकि उसने बरलुस्कोनी के एक मित्र की जाँच का आदेश दिया था.

राजनीति गंदा खेल है जिसमें आदर्श नहीं पैसे और ताकत के लालच की बात होती है, या फ़िर कोयले की दलाली जैसी है, आप जितनी भी कोशिश कीजिये हाथ काले ही जायेंगे, मैं यह सोचता हूँ और शायद बहुत से लोग यही सोचते हैं. पर यह सोच कर की यह कोयले के दलाल हमारे जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय लेते हैं, क्षोभ भी होता है.
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भारतीय पत्रकारों द्वारा "स्ट्रिंग आप्रेशन" में भी कुछ ऐसी ही बात होती है जिसमें छुप कर घूस लेते हुए या फ़िर गैरकानूनी काम करते हुए लोगों के वीडियो खींच कर टेलीविज़न में दिखा दिये जाते हैं.

खुले आम जनता में किसी को इस तरह नंगा करने का विचार मुझे अच्छा नहीं लगता, जंगलीपन लगता है. मेरे विचार से ऐसे सबूत कानून को सौंपने चाहिये ताकि कानून ऐसे लोगों को सजा दे सके. पर मैं लोगों की अधीरता समझ सकझ सकता हूँ क्योंकि कानून इतना वक्त लगा देता है कि बात का मतलब ही नहीं रहता या फ़िर कानून को घुमा कर उल्लू बनाना शायद अधिक आसान है जबकि टेलीविज़न में दिखा कर "तुरंत न्याय" हो जाता है.

पर एक बार टेलीविज़न में दिखाने के बाद, कुछ दिनों के हल्ले के बाद क्या होता है ? क्या कुछ सचमुच बदलता है ?
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कुछ समय पहले पढ़ा था कि राजनीति के पेशेवर लोगों के भ्रष्टाचार को देख कर आई आई टी के कुछ इंजीनियरों ने अपनी एक पार्टी बनाने का फैसला किया था. यह सुन कर अच्छा लगा क्योंकि राजनीति केवल भ्रष्टाचारियों का अखाड़ा न हो, इसके लिए आम नागरिकों को भी राजनीतिक जीवन में घुसने से पीछे नहीं हटना चाहिये.

एक राजनीतिक दल या कुछ पढ़े लिखे लोगों के आने से व्यवस्था नहीं बदलती, वे भी भ्रष्टाचार से प्रभावित हो जाते हैं. उससे लड़ने के लिए सारी जनता का बहुमत और साथ चाहिये.

सोमवार, मार्च 20, 2006

देबाशीष का लेख (२)

आखिरकार, जितेंद्र की सहायता से 12 March का The Asian Age का वह लेख मिल ही गया. लिखा है Genesia Tahilramani ने, शीर्षक है Blog Bytes
प्रस्तुत हैं इस लेख के कुछ अंशः


India Online 2005 reported that there are about 1.2 million Indibloggers. Debashish Chakrabarty, the founder of Indibloggers.org says he would “take that number with a pinch of salt. A thousand odd new blogs may be registered daily and perhaps a similar number are relinquished or languish for want of getting updated. I would put Indian blogs somewhere between thirty to fifty thousand in number.” I ndibloggers.org awards bloggers in different categories.

Chakrabarty is convinced of the medium’s growing strength. “Close to 300 blogs were nominated at the Indibloggies 2005. Of these, 100 blogs made it to the final voting stage. Nine hundred votes were cast to decide the winners across 18 categories ranging from Indiblog of the Year (stand up Amit Varma, IndiaUncut wins!) to best blog in various Indian languages.” Once again, the veracity of the awarding process was placed above question. “While it is difficult to say how definitive these awards are, (blogdom is accustomed to cliques) this year however, we went in for paid hosting to dispel any doubts. The advanced Poll Script used email verification methodology. Internet polls don’t get more credible than this.” Chakrabarty is certain that the stakes are getting higher. “It has been the first and most popular blog award event. We distributed awards close to Rs 70,000 and the fact that companies, authors and bloggers went out of their way to sponsor prizes bears great testimony to the process.” But awards are not the pay-off. Chakrabarty’s site augments the community building. “For two or three months, Indian blogs gain world-wide attention and the list of nominees always introduces one to some very good blogs they haven’t read before. The theme that runs through is one of ‘showcasing’. Indibloggies is not any kind of literary award event. We don’t simply award the best, but also the popular ones.” The blogging community internationally is fascinating, but for a newbie, a daunting body to browse through. At home, the community is growing, but is still fresh, nascent and deliciously naïve in bits. Lines are being drawn, but they haven’t been chalked in yet. ….
It’s quite simple really, this blog ging business. Soon it Debashish Chakrabarty will be lucrative as well. Vernacular blogs are beginning to blossom and they will be the real boom once the Internet grows past the reach of the middleclass.

Marketing researchers have dubbed it social software, and phrases like viral marketing have begun to be bandied about along with talk of using blogs and vlogs (video) to test the pulse of opinion, or create some themselves. It is a researcher’s dream. Take a blogger like Chakrabarty, “The interactivity through comment and instant reach to audience weaves small communities around each blog that helps bloggers stabilise and blog more seriously. When I started, I wanted to be a consistent blogger, now I enjoy the work that surrounds it. I have been involved in shaping Wikipedia, started cliques, awards, localised blog-ware, provided localised templates. That is as interesting as blogging itself.” And telling. Listen. You can just hear the taptaptapping of thought, sometimes random and abstruse, sometimes radical and anarchic, being uploaded into cyberspace, the latest frontier for the pioneers of sociological evolution. The medium is the message. And the message is money in the bank.

GOOGLE THE KEYWORDS FOR LINKS TO THE BLOGS... Recommends: ? Desipundit ? Chugs and Eric’s linkblogs ? Dina Mehta ? Amit Varma ? Blogherald.com ? Micropersuasion ? Hindi Blogs: ? Anup Shukla’s Fursatiya ? Dr Sunil’s JoNaKehSake Sonia Faleiro Recommends: ?? Amitavakumar.com ?? Ashok Banker at epicin dia.com ?? Samit Basu ...

देबाषीश का लेख

१२ मार्च के जिस लेख की बात की थी वह जनसत्ता में नहीं अंग्रेजी के अखबार The Asian Age (sunday supplement) में निकला था. क्योंकि हिंदी के चिट्ठों की बात थी, और मुझे मालूम था कि छोटी बहन का यहाँ "जनसत्ता" आता है, मैंने स्वयं ही तुक लगा लिया था कि लेख जनसत्ता में निकला होगा.

उस लेख को स्केन करके आपको दिखाने में मैं असमर्थ हूँ पर शायद कोई उसे The Asian Age के वेबपृष्ठ से ढ़ुँढ़ सकता है ? मैंने कोशिश की पर सफलता नहीं मिली.

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख