शुक्रवार, जुलाई 06, 2007

अगर आप अविवाहित हैं

अगर आप की शादी नहीं हुई और शादी करने की सोच रहें हैं तो फटाफट कल सात जुलाई को अपनी शादी करिये. यह सलाह दे रहें हैं दुनिया भर के न्यूमोरोलोजिस्ट यानि अँकों के हिसाब से भविष्य बताने वाले. क्यों? क्यों कि कल 07/07/07 तारीख है और सात बहुत शुभ अंक है. सात दुनिया के आश्चर्य हैं, सात तारे हैं सप्तऋषी में, यह कहना है उनका.

शादी का सबसे बढ़िया महूर्त है सुबह सात बजे और शाम को सात बजे. लोगों ने इस दिन विवाह करने के लिए शादी के हाल, गिरजाघर आदि की बुकिंग कई साल पहले से कर रखी थी. लास वेगास में बुकिंग का जोर अन्य जगहों से अधिक है. लिटिल व्हाईट वेडिंग चेपल में सामूहिक विवाह होंगी, जिसमें हर बार में सात युगल एक साथ विवाह बँधन में बधेंगे, शादी की फीस होगी 77 डालर और गिरजाघर इसी फीस में शादी के साथ साथ उन्हें सात फ़ूलों का गुलदस्ता देगा और सात मुफ्त फोटो भी.

खैर अगर आप सो रहे थे और आप इस दिन अपनी शादी पक्की करना भूल गये तो घबराईये नहीं, अगले साल दो विषेश दिन हैं विवाह के लिए 06/07/08 और 08/08/08.

यह उन्होंने नहीं कहा कि 6,7,8 अंक साथ आने का क्या विषेश पवित्र अर्थ है? शायद भगवान को पत्तों का शौक है और इस नम्बर को पाने वाला किस्मत की बाजी जीत जायेगा? यह भी नहीं कहा कि आठ नम्बर का तीन बार आने से क्या विषेश महत्व है? शायद इस लिए कि अष्टमी को देवी का दिन होता है, या फ़िर सप्त ऋषी के साथ ध्रुव तारा मिलने से आठ तारे बन जाते हैं या फ़िर कोई और वजह होगी जिसे आप जैसे मंदबुद्धि वाले लोग नहीं समझ सकते.

अगर आप तारीख को 07/07/2007 लिखते हैं तो आप के लिए यह दिन उतना शुभ नहीं रहेगा क्योंकि आप ने 2 को बीच में डाल कर सात की शुभता पर पत्थर मारा है.

यहाँ हम यूँ ही कोसते रहते हैं कि ज्योतिषियों, अन्धविश्वासियों ने भारत का बुरा हाल किया है, उधर सारी दुनिया में होने वाली धक्का मुक्की देख कर लगता है कि उनके नयूमरोलोजिस्ट किसी ज्योतिषी से कम नहीं. अब किसी भारतीय ज्योतिषी के प्रवचन का इंतजार है जो हमें समझा सके कि भारतीय ज्योतिष किस तरह से इन दो दो चार गिनने वालों से अधिक ऊँचा है और भविष्यवाणी करे कि किस तरह 07/07/07 को शादी करने वालों के सबके तलाक 08/08/08 तक हो जायेंगे.

बुधवार, जुलाई 04, 2007

गुँडागर्दी का इलाज

अँग्रेजी अखबार द फाईनेंशियल टाईमस में एक चिट्ठी छपी जिसमें फिल्मों में बढ़ती हुई मार काट और हिँसा के बारे में चिंता व्यक्त थी. अखबार के एक लेखक श्री टिम हारफोर्ड ने इस पत्र के उत्तर में लिखाः

"यह आवश्यक नहीं कि हिँसक फिल्मों से समाज में हिँसा पैदा होगी. जब गुँडे या मारधाड़ करने वाले लोग हिँसक फिल्म देखने जाते हैं तो न बियर पीते हैं न आपस में मार पिटाई करते हैं. दो अर्थशास्त्री, गोर्डन डाह्ल और स्टेफानो देला वीन्या ने एक शोध में पाया है कि जब मल्टीपलैक्स में हिँसक फिल्में दिखाई जाती हैं, तो आसपास के इलाके में शाम से ले कर सुबह तक के समय में अपराध कम हो जाते हैं. पर अगर कोई रोमानी फिल्म दिखाई जाती है, तो गुँडा टाईप के लोग पब में जा कर अधिक बियर पीते हैं और उनके मार पिटाई करने का अनुपात बढ़ जाता है. डाह्ल और वीन्या के शौध के अनुसार, हिँसक फिल्में अमरीका में प्रति दिन, कम से कम 175 अपराध कम करने में मदद करती हैं."

यानि कि आप के शहर में गुँडागर्दी अधिक हो तो, सिनेमा हाल वाले से कहिये कि जितनी हिँसा से भरी फिल्म दिखा सकता है दिखाये. पर इस शौध से यह पता नहीं चलता कि यह बात केवल अमरीका के गुँडों के लिए सही है या फ़िर भारतीय गुँडों पर भी लागू हो सकती है? आप का क्या विचार है?

दूसरी बात तुरंत प्रभाव और लम्बे प्रभाव की है. यह हो सकता है कि तुरंत प्रभाव में हिँसक फिल्म देख कर गुँडों की हिँसा भावना तृप्त हो जाये पर यह तो नहीं कि बढ़ी हिँसा देखने के बाद जब भी हिँसा का मौका आयेगा, वह अधिक हिँसक हो जायेंगे?
जिस तरह अमरीका सारी दुनिया में यहाँ वहाँ हमले करते रहता है वह भी हिँसक फिल्मों का लम्बा प्रभाव तो नहीं? यानी शौध की जानी चाहिये कि बुश जी और डोनाल्ड रम्सफेल्ड जैसे उनके युद्धप्रेमी साथियों को किस तरह की फिल्में देखना पसंद है, रोमानी या मारधाड़ वाली?

***

चालाक भिखारी

दो सप्ताह पहले की बात है. लिसबन हवाई अड्डे से बाहर निकला और टैक्सी की लाईन की ओर बढ़ रहा था कि एक युवती आयी. हाथ से खींचती सामान की ट्राली, बोलने में हल्की सी हिचकिचाहट, बोली कि उसका पर्स खो गया है और उसे मैट्रो लेने के लिए केवल एक यूरो चाहिये. सोचा कि बेचारी यात्री है जिसका यात्रा में पर्स खो गया होगा, तुरंत उसे पाँच यूरो का नोट दिया. फ़िर जब तक टैक्सी की लाईन में खड़ा रहा, उसे देखता रहा, कि वह वही कहानी हर आने वाले को सुनाती थी, और बहुत से लोगों ने उसे पैसे दिये. उस दस पंद्रह मिनट में ही उसने बहुत पैसे बना लिए थे.

एक बार फ़िर भीख माँगनें वालों ने नये तरीके से मुझे हरा दिया था.

कुछ भी हो भीख नहीं दूँगा, यह सोचता हूँ और किसी नवयुवक तो कभी भी नहीं. जाने क्यों मन में लगता है कि नवयुवक पैसे ले कर नशे का सामान खरीदते हैं. नशे की आदत से मरना अगर उनकी किस्मत है तो उसमें मैं क्या कर सकता हूँ पर कम से कम इतना तो कर सकता हूँ कि मैं उसमें योगदान न दूँ!

इस बात से एक और दुख था कि अगली बार हवाई अड्डे पर कोई मदद माँगेगा तो मन में शक ही होगा कि ड्रामा तो नहीं कर रहा. हर जगह पहले से ही शक होता जब बस या ट्रेन स्टेशन पर कोई इस तरह से टिकट खरीदने के लिए पैसे माँगता है.

फ़िर कल शाम को काम से वापस आ रहा था कि एक नया दृश्य देखा. एक युवक सड़क के किनारे बैठा था. साथ में कुत्ता. सामने उसकी टोपी पैसों के लिए रखी हुई थी और एक कागजं पर साथ में लिखा था, "मेरी मदद कीजिये". और वह युवक एक किताब पढ़ने में मग्न था. आने जाने वालों को नजर उठा कर भी नहीं देख रहा था. मुझे उसकी यह बात पसंद आयी, मन में सोचा कि किताब पढ़ने के प्रेमी भिखारी की मदद की जा सकती है! शायद बेचारे के पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे!

रविवार, जुलाई 01, 2007

टिप्पणियों की धूँआधार बारिश

आज हिंदी अभिनेता आमिर खान का चिट्ठा देखा, द लगान ब्लोग (The Lagaan Blog). 29 जून को उन्होंने चिट्ठा लिखा "घजनी" के शीर्षक से, और इन दो दिनों में इस चिट्ठे को मिली हैं 766 टिप्पणियाँ, वह भी छोटी मोटी टिप्पणियाँ नहीं कि किसी ने एक दो वाक्य लिखे हों, बल्कि कई लोगों की टिप्पणियाँ चिट्ठे से अधिक लम्बी हैं.

यह सच भी है कि जाने पहचाने प्रसिद्ध लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, कैसे वे फ़िल्मे बनती हैं जिनके हम सब दीवाने होते हैं, यह सब बातें बहुत दिलचस्प लगती हैं और सुप्रसिद्ध अभिनेता द्वारा लिखी बात पढ़ना, फ़िल्मी पत्रिकाओं में छपे साक्षात्कारों से अधिक दिलचस्प लगता है.

पर अगर आमिर खान की तरह अन्य जनप्रिय अभिनेता और अभिनेत्रियाँ अगर चिट्ठे लिखने लगेंगे तो फ़िल्मी पत्रिकाँए कौन पढ़ेगा? पर शायद इसका खतरा अधिक नहीं क्योंकि मेरे विचार में ढँग से चिट्ठा लिखने के लिए कुछ दिमाग चाहिये और मुझे जाने क्यों लगता है कि बहुत से प्रसिद्ध अभिनेता फ़िल्में में ही अच्छे लगते हैं, उनकी बातें सुन कर मन में बनी उनकी छवि टूट सकती है. अधिकतर अभिनेताओं का आत्मकेंद्रित जीवन बोर करने वाला लगता है.

और अगर वह लोग परदे के पीछे हो रहे काम के बारे में या अपनी भावनाओं के बारे में सच सच लिखने लगे तो शायद उन्हें काम मिलना ही बंद हो जाये. जैसे कि सोचिये कि कोई अभिनेत्री लिखे कि सुल्लु मियाँ यानि सलमान खान के साथ गाने का सीन बड़ा कष्टदायक था क्योंकि शायद वह सुबह दाँत ब्रश करना भूल गये थे तो क्या आगे से सलमान जी उस अभिनेत्री के साथ काम करेंगे?

पर अगर आमिर जैसे प्रसिद्ध लोग हिंदी में चिट्ठा लिखें तो इससे हिंदी चिट्ठा जगत को बहुत लाभ होगा, सामान्य जनता में हिंदी का मान भी बढ़ेगा और हिंदी चिट्ठा जगत नाम की किस चिड़िया का नाम है, यह मालूम भी चलेगा.

इटली में सबसे प्रसिद्ध चिट्ठा लेखक श्री बेपे ग्रिल्लो (Beppe Grillo) जी भी अभिनेता हैं. अभिनेता के रूप में वह अपनी कामेडी और व्यंग के लिए अधिक प्रसिद्ध थे. पर चिट्ठाकार के रूप में उन्होंने इतालवी जन सामान्य का ध्यान बहुत सी समस्याओं की ओर खींचा है और समाजसुधारक चिट्ठाकार के रूप में जाने जा रहे हैं. उनके चिट्ठों पर भी कई सौ टिप्पणियाँ मिल जाती हैं. उनका नया अभियान है इतालवी संसद में सजा पाये अपराधी संसद सदस्यों की ओर ध्यान खींचना ताकि संसद इन लोगों को कानून से न बचाये.

शनिवार, जून 30, 2007

विभिन्नता का गर्व

हर वर्ष की तरह फ़िर से बहस हो रही है कि वार्षिक समलैंगिक गर्व परेड को शहर में प्रदर्शन की अनुमति दी जाये या नहीं. करीब तीस साल पहले, 1978 में बोलोनिया में पहली समलैंगिक केंद्र खुला था, जो इटली में अपनी तरह का पहला केंद्र था. तब से बोलोनिया ने खुले, सहिष्णु शहर की ख्याती पायी है पर इस सब के बावजूद हर वर्ष वही बहस, यानि कि बहुत से लोगों के मन में बसे विचार जो समलैंगिगता को गलत मानते हैं और उसे स्वीकार नहीं करना चाहते, वह बहुत गहरे हैं और इतनी आसानी से नहीं बदलते.

कुछ लोग कहते हैं कि मान लिया कि समलैंगिक लोग भी हैं, उनके अधिकार भी हैं पर वह चुपचाप अपने आप में क्यों नहीं रहते, उनका इस तरह सड़क पर "गर्व परेड" करने का क्या अर्थ है? यानि अगर रहना ही है तो चुपचाप रहिये, शोर नहीं मचाईये, न ही सबके सामने उछालिये कि आप विभिन्न हैं, कोई आप को कुछ नहीं कहेगा. पर यह सच नहीं है. समाज में बहुत भेदभाव है, जब तक दब कर, चुप रह कर, छुप कर रहो, वह भेदभाव सामान्य माना जाता है, उससे लड़ना संभव नहीं होता. अगर मिलिटरी वाले परेड कर सकते हैं, पुलिस, स्काऊट, सर्कस वाले, कलाकार, विभिन्न श्रेणियों के लोग सबके सामने प्रदर्शन करते हैं, अपनी बात रखते हैं तो समलैंगिक लोगों को यह अधिकार क्यों न हो. बल्कि मैं मानता हूँ कि समलैंगिक गुटों की तरह अन्य अम्पसंख्यक और समाज से दबे सभी गुटों को यह अधिकार होना चाहिये जैसे प्रवासी, विकलाँग, अन्य धर्मों को लोग, इत्यादि.

यह बहस सिर्फ इटली में ही नहीं हो रही. पूर्वी यूरोप के बहुत से देश जो कई दशकों के बाद सोवियत प्रभाव और कम्युनिस्म से बाहर निकले हैं, वहाँ भी यही बहस चल रही हैं और कई देशों में इस तरह के प्रदर्शनों को सख्ती से दबाया जा रहा है. वहाँ यह भी कहा जा रहा है कि "यह समलैंगिकता हमारी सभ्यता में ही नहीं है, यह तो केवल यूरोप की गिरी हुई सभ्यता के सम्पर्क में आने से हो रहा है कि हमारे यहाँ भी इस तरह की बीमारियाँ फ़ैलने लगी हैं.". उनका मानना है कि इस छूत की बीमारी है जो उसके बारे में बात करने से फ़ैलती है. इन वर्षों में रूस, पोलैंड, लेटोनिया, लिथुआनिया जैसे देशों में समलैंगिक गर्व परेड में भाग लेने वालों पर हमले किये गये, कभी पुलिस ने मारा, तो कभी राष्ट्रवादी कट्टरपंथियों ने और पुलिस चुपचाप देखती रही.

बहुत देशों में समलैंगिक सम्पर्क को कानूनन अपराध माना जाता है जैसे कि भारत में, जहाँ कुछ समय से यह कानून बदलने के लिए अभियान चल रहा है. इटली में यह कानून 1887 में हटा दिया गया था और 2003 में नया कानून बना जिससे उनके साथ काम के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जा सकता, पर आज भी इटली में मिलेटरी तथा पुलिस में समलैंगिक लोगों को जगह नहीं मिलती. कुछ दिन पहले ब्रिटेन ने नया कानून बना कर मिलेटरी तथा पुलिस में समलैंगिक लोगों के साथ होने वाले भेदभाव को समाप्त किया है. पोलैंड में यह कानून 1932 में बदला गया, रूस में 1993 में, पर दोनो जगह कानून सही होते हुए भी भेदभाव बहुत है.

अमरीकी रंगभेद से लड़ने वाले अश्वेत लोगों ने संघर्ष का यह तरीका बनाया था कि जिस कारण से भेदभाव होता है उसी को गर्व का विषय बना दो. इस तरह काले-गर्व यानि Black Pride की बात उठी थी. विकलाँग लोगों ने भी, क्रिपल (cripple) जैसे शब्दों को ले कर उन्हें गर्व के शब्द बनाने की कोशिश की है. समलैंगिक गर्व परेड की कहानी 28 जून 1968 में न्यू योर्क के स्टोनवाल बार इन्न (Stonewall Bar Inn) पर पुलिस से हुई लड़ाई से प्रारम्भ हुई थी.

मैं सोचता हूँ हर तरह का भेदभाव चाहे वह हमारे रंग से हो, हमारी यौन प्रवृति से, हमारे शरीर के विकलाँग होने से, या हमारे धर्म से, या सोचने की वजह से, सब भेदभाव मानवता को कमजोर करते हैं और हम सबको मिल कर उनका विरोध करना चाहिये.

आज की तस्वीरों में बोलोनिया की पिछले वर्ष की समलैंगिक गर्व परेड.







शुक्रवार, जून 29, 2007

मैं हिना हूँ

हिना २२ साल की पाकिस्तानी मूल की थी. पिछले वर्ष उसके पिता और चाचा ने मिल कर उसे मार दिया. उस पर आरोप था कि वह अपनी सभ्यता को भूल कर पश्चिमी सभ्यता के जाल में खो गयी थी, क्योंकि वह अपने इतालवी प्रेमी और साथी ज्यूसेप्पे के साथ रहती थी. (तस्वीर में हिना)



कल हिना का मुकदमे की ब्रेशिया शहर की अदालत में पहली पेशी थी. सुबह अदालत के बाहर करीब सौ मुसलमान युवतियाँ एकत्रित हो गयीं, उनके हाथ में बैनर था जिस पर लिखा था, "मैं हिना हूँ". कुछ राजनीतिक पार्टियों के लोग भी थे वहाँ और टुरिन शहर के ईमाम भी थे. उन सब का यही कहना था कि इस्लाम का अर्थ केवल बुर्का या पिछड़ापन नहीं है, हम लोग भी मुसलमान हैं और हमें अपनी तरह से जीने का हक मिलना चाहिये.

उदारवादी प्रशासनों के लिए प्रश्न है कि किस तरह से वह विभिन्न धार्मिक मान्यताओं का मान रखते हुए मानव अधिकारों का भी उतना ही मान रखें? इससे पहले बहुत बार विभिन्न धार्मिक प्रतिबँधियों ने विभिन्न शहरों के प्रशासनों से माँग की हैं कि उन्हें अपने धर्म का पालन करने की और अपनी सभ्यता के अनुसार रहने की पूरी स्वतंत्रता चाहिये, जैसे कि मुसलमान औरतों को बुर्का पहनने की स्वतंत्रता हो, सिख पुरुषों को पगड़ी पहनने की, इत्यादि.

पर कल हिना के मुकदमें के साथ हो रहे प्रदर्शन में स्त्रियों का कहना था कि प्रशासन इस तरह की माँगों को मान कर मुसलमान स्त्रियों को रूढ़ीवादी पुरुष समाज के सामने निर्बल छोड़ देता है, और स्त्रियों को घर में बंद करके रखा जाता है, यह करो यह न करो के, यह पहनो यह न पहनो, जैसे आदेश दिये जाते हैं जो कि उनके मानव अधिकारों का हनन हैं.

बुधवार, जून 27, 2007

तारों का शहर

बिसाऊ तारों का शहर है. रात को सारा आसमान तारों से इस तरह भर जाता है मानो थाली में मोती बिखरे हों. इस तरह का आसमान देखने की आदत ही नहीं रही. बचपन में होता था इस तरह का आसमान. आजकल यूरोप में तो कहीं से आसमान में इतने तारे नहीं दिखते क्योंकि रात को हर तरफ इतनी बिजली की रोशनी रहती है कि उसकी चमक के सामने अधिकतर तारे छुप जाते हैं. बिसाऊ में यह दिक्कत नहीं होती, देश की राजधानी है पर यहाँ बिजली नहीं है. होटल आदि में जहाँ लोग विदेशी मुद्रा में बिल भरते हें, जेनेरेटर लगे हैं और सब सुख हैं. पर सड़कों पर रात को एक भी बत्ती नहीं जलती. घरों में भी सब घरों में बिजली नहीं अगर हो भी, तो भी अधिकतर समय बिजली काम नहीं करती और बिना जेनेरेटर वाले घरों में मिट्टी के तेल की लालटेन ही जलती हैं.

परसों रात को थकान और बियर की वजह से बाहर ध्यान से नहीं देखा था पर कल रात को वापस होटल आ रहे थे तो लगा कि कितना अँधेरा हो सकता है दुनिया में. गाड़ी की हेडलाईट में हर तरफ लोग दिखते थे, अँधेरे में टहलते, आपस में बातें करते, बाँहों में बाँहें डाले, बैंच पर बैठे. विक्टर कहता है कि गृहयुद्ध से पहले देश ने कुछ तरक्की की थी पर इस लड़ाई ने सब कुछ नष्ट कर दिया. युद्ध के बाद लड़ने वाले दो गुटों ने मिल कर सरकार बनाई है पर कोई सरकार अधिक दिन नहीं चलती और कुछ कुछ महीनों में सब मँत्री आदि बदल जाते हें.

कोई उद्योग नहीं हैं. देश का सबसे बड़ा उत्पादन है काजू और मछलियाँ. दक्षिण में कुछ बाक्साईट के खाने हैं. काजू का व्यापार भारतीय मूल के लोगों के हाथ में है. पिछले कुछ वर्षों में बाकि अफ्रीका से यहाँ भारतीय मूल के लोग आये हैं और उन्होने दुकाने खोली हैं. चीनी लोग कम ही हैं. विक्टर कहता है कि भारतीय मूल के लोगों के प्रति आम लोगों मे कुछ रोष है, क्योंकि यूरोपीय लोगों की तरह से वह भी यहाँ सिर्फ पैसा कमाने आये हैं, यहाँ के लोगों से मिलते जुलते नहीं और आपस में ही मिल कर अलग से रहते हैं. पिछले कुछ सालों में यहाँ भारतीय फिल्मों की डिवीडी भी बहुत चल पड़ी हैं.

***
पेट में अभी भी थोड़ा थोड़ा दर्द है पर आज बिस्तर में लेटने का दिन नहीं है. रोज़ की तरह, आज भी नींद सुबह पाँच बजे ही खुल गयी. इस शरीर की आदतों को बदलना आसान नहीं. रात को कम सोया, सुबह कुछ देर और सो लेता तो अच्छा था, मालूम है कि सारा दिन फ़िर नींद आती रहेगी, पर शरीर के भीतर जो घड़ी है वह तर्क नहीं सुनती. कुछ देर बिस्तर में करवटे लेने के बाद उठ गया, सोचा कि डायरी में कुछ जोड़ दिया जाये.

यहाँ की बत्ती फ़िर सुबह चली गयी और तब से जेनेरेटर ही चल रहा है, पर मेरे जैसे पैसे दे सकने वाले आगंतुकों के अलावा यहाँ रहने वाले किस तरह आधा समय बिना बिजली के जीते हैं, यह बात मन में आ रही थी. टेलीविजन पर एक ही अग्रेजी चैनल है, सीएनएन जिससे मुझे अधिक लगाव नहीं है, पर दुनिया में क्या हो रहा इसे मालूम करने के लिए उसे देखने की कोशिश कई बार की पर हर बार टीवी पर आता है "यह सिगनल इस समय उपलब्ध नहीं है, बाद में कोशिश कीजिये". "सीएनएन क्यों नहीं आ रहा, यह चीज़ ठीक काम क्यों नहीं कर रही, ड्राईवर ठीक समय पर क्यों नहीं आया", जैसे अपने विचारों से थोड़ी सी शर्म आती है कि यहाँ एक कमरे का जितना किराया एक दिन का देता हूँ, वह यहाँ बहुत से रहने वालों की दो महीने की पगार है. इस होटल में रहने वाले सभी विदेशी हैं, चाहे उनकी चमड़ी गोरी हो या भूरी या काली. सबको लेने गाड़ियाँ आती हैं, सब काले बैग सम्भाले इधर उधर मीटिंगों में व्यस्त हैं.

पर जैसे यहाँ के लोग रहते हैं वैसे रहना पड़े तो दो दिनों में ही मेरी छुट्टी हो जाये. कल शाम को बाहर इंटरनेट की दुकान खोजते हुए कुछ चलना पड़ा था तो थोड़ी देर में ही गरमी से बाजे बज गये थे. वहाँ अपनी ईमेल देख कर वापस आया तो सारा शरीर पसीने से नहाया था और कमरे में आ कर निढ़ाल हो कर बिस्तर पर लेट गया था.

***
एक विकलाँग पुनर्स्थान कार्यक्रम को देखने गये. उनका भी बुरा हाल था. वहाँ काम करने वाले एक युवक ने दीवार पर लगे युनिसेफ के पोस्टर की ओर इशारा किया, बोला, "देखिये युनिसेफ के इस पोस्टर को, जिस बच्ची की तस्वीर लगी है वह बाहर बैठा है. उनका फोटोग्राफर आया और तस्वीर खींच कर ले गया. उसका पोस्टर बनवाया है, पर हमें और उस बच्ची को क्या मिला? वह बच्ची अभी भी उसी हाल में है." तस्वीर छोटी सी लड़की की थी जिसकी एक टाँग माईन बम्ब से कट गयी थी. वह बच्ची जो कुछ बड़ी हो गयी थी, बाहर बैठी थी अपने पिता के साथ.

क्या भविष्य है ग्विनेया बिसाऊ का, मैंने प्रोफेसर फेरनानदो देलफिन देसिल्वा से पूछा जो इतिहास और दर्शनशास्त्र पढ़ाते हैं. वह बोले सबसे बड़ी कमी है सोचने वाले दिमागों की. जो बचे खुचे लोग थे वह गृह युद्ध के दौरान देश से भाग गये. राजनेतिक नेता हैं, उन्हें लड़ने से फुरसत नहीं, हर छह महीने में सरकार बदल जाती है. सारा देश केवल काजू के उत्पादन पर जीता है पर काजू का मूल्य घटता बढ़ता रहता है. पिछला साल बहुत बुरा निकला, यह साल भी बुरा ही जा रहा है. पैसा कमाते हैं भारतीय व्यापारी, जो सस्ता खरीद कर भारत ले जाते हैं और वहाँ तैयार करके उसे उत्तरी अमरीका में बेचते हैं.

भारतीय व्यापारियों के लिए यह कड़वापन अन्य कई अफ्रीकी देशों में भी देखा है जहाँ भारतीयों को शोषण और भेदभाव करने वाले लोगों की तरह से ही देखा जाता है. भारत के बारे में अच्छा बोलने वाले केवल यक्ष्मा अस्पताल के एक डाक्टर थे जो बोले कि भारत से अच्छी और सस्ती दवाईयाँ मिल जाती हैं वरना मल्टीनेशनल कम्पनियों की दवाईयाँ तो यहाँ कोई नहीं खरीद सकता. यहाँ एड्स की दवा भारत की सिपला कम्पनी द्वारा बनाई गयी ही मिलती हैं.

कल शाम को टीवी खोला तो ब्राजील का टेलीविजन आ रहा था. ब्राज़ील में भी पुर्तगाली ही बोलते हैं. बहुत अजीब लगता है ब्राज़ील का टीवी देखना. लगता है कि जैसे वह गोरों का देश हो, सब समाचार पढ़ने वाले, बात करने वाले, सब गोरे ही होते हैं, हालाँकि गोरो की संख्या ब्राज़ील में लगभग 15 प्रतिशत ही होंगे. सोच रहा था कि भेदभाव में भारत भी किसी से कम नहीं, क्या हमारे टेलीविजन को देख कर भी कोई लोग यही भेदभाव पाते हैं? हमारे फ़िल्मी सितारे तो अधिकतर गोरे ही होते हैं पर क्या हमारा टेलीविजन भी जातपात के भेदभाव पर बना है?

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पश्चिमी अफ्रीका के देश गवीनेया बिसाऊ की यात्रा की मेरी डायरी को पूरा पढ़ना चाहें तो यहाँ कल्पना पर पढ़ सकते हैं.

गुरुवार, जून 14, 2007

कटे हाथ

कल अनूप के चिट्ठे फुरसतिया पर बिटिया रानी वर्मा की कहानी देखी.

"जब उससे पूछा गया कि इंजीनियर ही क्यों और कोई पेशा क्यों नहीं तो उसका जवाब था-इंजीनियर इसलिये बनना चाहती हूं ताकि मैं ऐसी मशीने और औजार बना सकूं जो किसी को अपाहिज न बनायें।"
एक बात मेरे दुस्वपनों में बहुत सालों से आती है और में भी यही प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि ऐसी मशीने और औज़ार जिनसे लोग अपाहिज न हों क्यों नहीं बना सकते हम? शायद इस बात पर पहले भी कुछ लिख चुका हूँ और स्वयं को दोहरा रहा हूँ, तो इसके लिऐ क्षमा चाहता हूँ.

बात है 1977-78 की जब मैं दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में ओर्थोपीडिक्स (orthopaedics) यानी हड्डियों के विभाग में काम कर रहा था. हाऊससर्जन होने का मतलब होता कि 36 घँटों तक लगातार ड्यूटी करो. तब फसल की कटाई के दिनों में कटे हाथों का मौसम आता था. बिजली की कमी की वजह से ग्रामीण क्षत्रों में बिजली केवल रात को दी जाती और चारे को या फसल को मशीन में काटने का काम जवान युवकों का होता. चारे को मशीन में घुसाते समय अगर नींद में होते तो साथ ही उनका हाथ भी भीतर चला जाता. कटे हाथों वाले पहले युवक करीब रात को दस बजे के आसपास आने शुरु होते और सुबह तक आते.

रात की ड्यूटी पर एक वरिष्ठ रेजिडेंट होता, कुछ स्नातकोत्तर छात्र होते और दो हाऊससर्जन. हममें से हाथ जोड़ने का काम, माँसपेशियों को साथ जोड़ कर हाथ को ठीक करना वरिष्ठ रेज़ीडेंट या किसी स्नातकोत्तर छात्र को ही आता था, हम कम अनुभव वाले लोगों को हाथ काटना आता था. हाथ जोड़ने के काम में तीन चार घँटे लगते, हाथ काटना एक घँटे से कम में हो जाता. सुबह हमारी ड्यूटी समाप्त होने से पहले, रात में आये सब मरीजों का काम जाने से पहले समाप्त करना हमारी जिम्मेदारी थी.
इन सब बातों का अर्थ यह होता कि पहले आने वाले एक या दो युवकों को हाथ जोड़ने के लिए रखा जाता, जिसके लिए वरिष्ठ रेज़ीडेंट सारी रात काम करते. उसके बाद में आने वाले अधिकतर लोगों के हाथ काटने पड़ते.

हाथ कटने के बाद, घाव भरने में बहुत दिन नहीं लगते, और कुछ दिन की पट्टी के बाद उन्हें घर भेज दिया जाता. जिनके हाथ जोड़े जाते थे, उनकी हड्डियों और माँसपेशियों को जोड़ कर उसे ढकने के लिए चमड़ी पेट से ली जाती, इसलिए उनका हाथ कुछ सप्ताह के लिए पेट से जोड़ दिया जाता. यह लोग महीनों अस्पताल में दाखिल रहते और रोज़ पट्टी की जाती. कई साल तक फिसियोथेरेपी आदि के बाद भी हाथ बिल्कुल ठीक तो नहीं होते थे, अकड़े, टेढ़े मेढ़े रह जाते थे. रात को ओप्रेशन थियेटर में काम करके, सुबह मेरा काम होता था वार्ड में भरती लोगों की पट्टियाँ करना. दर्द से चिल्लाते लोगों की आवाज़े देर तक मेरे दिमाग में घूमती रहतीं. हर नाईट ड्यूटी में नये लोग भरती होते और आधा वार्ड इन्हीं लोगों से भरा रहता था.

बहुत गुस्सा आता था कि क्या यह मशीने बदली नहीं जा सकतीं? क्या करें यह लोग, जिन्हे रात भर इस तरह का खतरनाक काम करना पड़ता है? कितने सारे तो 13 या 14 साल के बच्चे होते थे. सोचता था कि अखबारें यह बात क्यों नहीं छापतीं? खैर ओर्थोपीडिक में मेरे दिन बीते और मैं उस वातावरण से दूर हो गया. फ़िर 1991 या 1992 की बात है. एक मीटिंग में दिल्ली के एक ओर्थोपीडिक सर्जन से बात हुई. वह बोले कि फसल की कटाई के दिनों में तब भी वही मशीनें, वही कटे हाथों का सिलसिला चलता था. गरीब किसानों की तकलीफ थी, किसी को क्या परवाह होती! मालूम नहीं कि तीस साल के बाद आज क्या हाल है? इतने सारे समाचार चैनल बने हैं जो बेसिर पैर की बातों में समय गवाँते हैं, अगर आज भी यह हो रहा है तो शायद वह इस बात को उठा सकते हैं?

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पिछले कुछ माह से पैर में घूमने के पहिये लगे हैं जो रुकते ही नहीं. एक जगह से आओ और दूसरी जगह जाओ, बीच में रुक कर कुछ सोचने लिखने का भी समय नहीं मिलता. जो लोग पूछते हें कि इन दिनों मैं कम क्यों लिख रहा हूँ, यही कारण है उसका. आज मुझे फ़िर नयी यात्रा पर निकलना है, पश्चिमी अफ्रीका की ओर.

बुधवार, जून 13, 2007

मेरा गाँव, मेरा देश, मेरे लोग, मेरा झँडा

करीब तीस साल पहले की बात है. दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में शल्यचिकित्सा विभाग में हाऊससर्जन था और अस्पताल के परिसर के अंदर होस्टल में रहता था. होस्टल में साथ वाले कमरे में था अजय, जो पूना के आर्मी मेडिकल कोलिज से आया था. उसके पास रिकार्ड प्लेयर था. उसी के कमरे में पहली बार बीटलस (Beatles) का रिकार्ड "सार्जेंट पैपर लोन्ली हार्टस क्लब बैंड" सुना था. "लूसी इन द स्काई विद डायमँडस" (Lucy in the sky with diamonds) बहुत अच्छा लगता था और जब अजय ने बताया था यह गाना अपने शब्दों में एल.एस.डी (LSD) याने नशे की बात छुपाये हुए है तो बड़ा अचरज हुआ था.

बीटलस का नाम सुना था, मालूम था कि वह लोग ऋषीकेश में गुरु महेश योगी से मिलने आये थे और उनके चेले बन गये थे. पर उनके गानों के बारे में कुछ विषेश जानकारी नहीं थी. आकाशवाणी के दिल्ली बी स्टेशन पर सप्ताह में दो बार रात को अँग्रेजी गानो के कार्यक्रम आते थे, "फोर्सेस रिक्वेस्ट" और "ए डेट विद यू", उनमें सुने हुए कलाकारों में से क्लिफ रिचर्ड तथा जिम रीवस जैसे नाम मालूम थे.

जिस दिन पहली बार जोह्न लेनन (John Lennon) का "ईमेजिन" (Imagine) पहली बार सुना वह अभी तक याद है. जोह्न ने यह गीत 1971 में लिखा जब वह बीटलस के गुट से अलग हो चुके थे. गीत के कुछ शब्दों ने मुझे झकझोर दिया था -

Imagine there's no countries
It isn't hard to do
Nothing to kill or die for
And no religion too
Imagine all the people
Living life in peace...

कल्पना करो कि कोई देश नहीं हो
इतना कठिन नहीं है
न किसी के लिए मरना या मारना पड़े
और सोचो की धर्म भी न हो
कल्पना करो कि सभी लोग
शाँति से जीवन बिताते हैं ...
तब तक हमेशा अपना देश, अपना झँडा, "सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा" और "ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम तेरी राहों में जाँ तक लुटा जायेंगे" जैसे गीत ही भाते थे, यह बात कि देश प्रेम और देश भक्ति से ऊपर भी कुछ हो सकता है यह बात पहली बार मन में आयी थी. इस गीत को जोह्न लेनन की आवाज में यूट्यूब पर सुन सकते हैं.

फ़िर इटली में आने के बाद करीब दस वर्ष पहले एक अन्य गाना सुना जिसका भी मुझ पर बहुत असर पड़ा. गीत गाया था स्पेन के गीतकार और गायक मिगेल बोसे (Miguel Bosé) ने. अगर आप ने पेड्रो अलमोदोवार की फिल्म "सब कुछ मेरी माँ के बारे में" (All about my mother) देखी हो तो शायद आप को मिगेल बोसे याद हो, उसमें उन्होंने स्त्री वेष में रहने वाले पुरुष की भाग निभाया था. मिगेल ने यह गीत बोज़निया और कोसोवो की लड़ाई के दिनों में लिखा था.

Sogna una Terra che guerre non ha
che ama la libertà
Sogna un colore che bandiere non ha
che ama la libertà

उस धरती के सपने देखो जहाँ युद्ध न हों
जो आजादी से प्यार करता हो
उस रंग के सपने देखो जो झँडों में न हो
जो आजादी से प्यार करता हो
इस गीत के यह शब्द जोह्न लेनन के देशों के, सीमा रेखाओं के, अपने और दूसरों के भेदों के विरुद्ध सपना देखते हैं. मानवता और भाईचारा का यह सपना मुझे बहुत प्रिय है. एक पत्रिका पढ़ रहा था जिसमें बीटलस के सार्जेंट पैपर वाले रिकोर्ड का चालिसवीं वर्षगाँठ की बात थी. उसी को पढ़ते पढ़ते ही यह सब बातें मन में याद आ गयीं.

मंगलवार, जून 12, 2007

शहर की आत्मा

जर्मन अखबार सुदडोयट्शेज़ाईटुँग (Sud Deutsche Zeitung) में हर सप्ताह एक साहित्यकार को किसी शहर के बारे में लिखा लेख छप रहा है. पिछले सप्ताह का इस श्रँखला का लेख लंदन में रहने वाले भारतीय मूल के लेखक सुखदेव सँधु ने अपने शहर, यानि लंदन पर लिखा था. उन्होंने पूर्वी लंदन की बृक लेन के बारे में लिखा कि, "यह सड़क एक रोमन कब्रिस्तान की जगह पर बनी है और पिछली पाँच शताब्दियों में इसे अपराधियों और आवारा लोगों की जगह समझा जाता था."

उनका लेख बताता है कि कैसे फ्राँस से आने वाले ह्योगनोट सत्ररहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आ कर यहाँ रहे, फ़िर यह जगह फैक्टरी में काम करने वाले मजदूरों की हो गयी, अठारहवीं शताब्दी में पूर्वी यूरोप से यहूदी यहाँ शरणार्थी बन कर आये, आज यहाँ बँगलादेशी लोग अधिक हैं. बृक लेन के जुम्मा मस्जिद के बारे में उन्होंने लिखा है, "1742 में इस भवन को ह्योगनोट लोगों ने अपना केथोलिक गिरजाघर के रूप में बनाया था, अठाहरवीं शताब्दी में यहाँ मेथोडिस्ट गिरजाघर बना, 1898 में यहूदियों का सिनागोग बन गया."

बृक लेन आज पर्यटकों का आकर्षण क्षेत्र माना जाता है और इसे सुंदर बनाया गया है. सँधु जी लिखते हैं, "कभी कभी लगता है कि बृक लेन की आत्मा मर रही है. यहाँ अब कोई बूढ़े नहीं दिखते. वह इन फेशनेबल और महँगे रेस्टोरेंट और कैफे में अपने को अजनबी पाते हैं, नवजवान लड़कों के अपराधी गेंग जो यहाँ घूमते हैं उनसे डरते हैं, अपनी छोटी सी पैंशन ले कर वह इस तरह की जगह पर नहीं रह सकते."

लेख पढ़ा तो सँधु का शहर की आत्मा के मरने वाला वाक्य मन में गूँजता रहा. यहाँ इटली में बोलोनिया में रहते करीब बीस साल हो गये. बीस साल पहले वाले शहर के बारे में सोचो तो कुछ बातों में लगता है कि हाँ शायद इस शहर की आत्मा भी कुछ आहत है, जैसे कि सड़कों पर चलने वाली साईकलें जो अब कम हो गयीं हैं और कारों की गिनती बढ़ी है. शहर में रहने वाले लोग शहर छोड़ कर बाहर की छोटी जगहों में घर लेते हैं जबकि शहर की आबादी प्रवासियों से बढ़ी है. शहर के बीचों बीच, जहाँ कभी फैशनेबल और मँहगी दुकानें होतीं थीं, वहाँ विदेश से आये लोगों के काल सेंटर, खाने और सब्जियों की दुकाने खुल गयी हैं. पर गनीमत है कि साँस्कृतिक दृष्टि से शहर जीवंत है, जिसकी एक वजह यहाँ का विश्वविद्यालय भी है जहाँ दूर दूर से, देश और विदेश से, छात्र आते हैं.

चाहे बीस साल हो गये हों दिल्ली छोड़े हुए पर जब भी मन "अपने शहर" का कोई विचार आता है तो अपने आप ही यादें दिल्ली की ओर चल पड़ती हैं. बचपन की दिल्ली और आज की दिल्ली में बहुत अंतर है.

मेरे लिए दिल्ली की आत्मा उसके रिश्तों में थी. अड़ोस पड़ोस में सिख, मुसलमान, हिंदु, दक्षिण भारतीय, पँजाबी, उत्तरप्रदेश और बिहार वाले, सब लोग मिल कर साथ रह सकते थे. खुली गलियाँ और सड़कें, हल्का यातायात, बहुत सारे बाग, डीसीएम के मैदान में रामलीला, फरवरी में फ़ूले अमलतास और गुलमोहर, क्नाटपलेस में काफी हाऊस या फ़िर कुछ दशक बाद, नरूला में आईस्क्रीम, कामायनी के बाहर बाग में रात भर भीमसेन जोशी और किशोरी आमोनकर का गाना, यार दोस्तों से गप्पबाजी, २६ जनवरी की परेड और 15 अगस्त को लाल किले पर प्रधानमँत्री का भाषण, नेहरु जी और शास्त्री जी की शवयात्रा में भीड़, राम लीला मैदान में जेपी को सुनना ...आज वापस जाओ तो यह सब नहीं दिखता. जिस चौड़ी गली में रहते थे, वहाँ लोहे के गेट लगे हैं जो रात को बंद हो जाते हैं, जहाँ घर के बाहर सोता था, वहाँ इतनी कार खड़ीं है कि जगह ही नहीं बची, सीधे साधे दो मँजिला मकान की जगह चार मँजिला कोठी है, चौड़ी सड़कें और भी चौड़ी हो गयीं हैं पर यातायात उनमें समाता ही नहीं लगता, नयी मैट्रो रेल, दिल्ली हाट, अँसल प्लाजा और उस जैसे कितने नये माल (mall), मल्टीप्लैक्स, बारिस्ता, और जाने क्या क्या.

जहाँ दोस्त रहते थे वहाँ अजनबी रहते हैं और शहर अपना लग कर भी अपना नहीं लगता. लगता है कि जिस छोटे बच्चे को जानता था, बड़े हो कर वह अनजाना सा हो गया है. पर यह नहीं सोचता कि शहर की आत्मा मर रही है. जब हम शरीर पुराने होने पर उन्हें त्याग कर नये शरीर पहन सकते हें तो शहरों को भी तो अपना रूप बदलने का पूरा अधिकार है.

शुक्रवार, जून 08, 2007

चिट्ठों की भाषा

टेक्नोराती के डेविड सिफरिंगस् ने अप्रैल में अपने चिट्ठे "चिट्ठाजगत का हाल" (State of the Live Web) शीर्षक से लेख लिखा जिसमें विश्व में चिट्ठाजगत के फ़ैलाव की विवेचना है. . इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में करीब 7 करोड़ चिट्ठे हैं और प्रतिदिन एक लाख बीस हजार नये चिट्ठे जुड़ रहे हैं. साथ साथ स्पैम यानि झूठे चिट्ठे भी बढ़ रहे हें और हर रोज तीन से सात हजार तक स्पैम चिट्ठे बनते हैं. एक तरफ चिट्ठों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है, दूसरी ओर चिट्ठों में लिखना कुछ कम हो रहा है और हर रोज़ करीब 15 लाख लोग अपने चिट्ठों में लिखते हैं. 6 महीने पहले, अक्टूबर 2006 में कुल चिट्ठों की संख्या थी 3.5 करोड़ और हर रोज़ 13 लाख चिट्ठे लिखे जा रहे थे. अंतर्जाल पर सबसे लोकप्रिय 100 पन्नों में 22 चिट्ठे भी हैं.

चिट्ठों की सबसे लोकप्रिय भाषा है जापानी जिसमें 37 प्रतिशत चिट्ठे लिखे गये. चिट्ठों की प्रमुख भाषाओं में अन्य भाषाएँ हैं अँग्रेजी 36%, चीनी 8%, इतालवी 3%, स्पेनिश 3%, रूसी 2%, फ्रँसिसी 2%, पोर्तगीस 2%, जर्मन 1%, फारसी 1% तथा अन्य 5%. जबकि अँग्रेजी और स्पेनिश में लिखने वाले सारे विश्व में फ़ैले हैं और दिन भर उनके नये चिट्ठे बनते हैं, जापानी, इतालवी और फारसी जैसी भाषाओं वाले लोगों का लिखना अपने भूगोल से जुड़ा है और उनके चिट्ठे सारा दिन नहीं लिखे जाते बल्कि दिन में विषेश समयों पर छपते हैं.

इस रिपोर्ट को पढ़ कर मन में बहुत से प्रश्न उठे. हर रोज़ एक लाख बीस हजार नये चिट्ठे जुड़ रहे हैं चिट्ठाजगत में, यह सोच कर हैरानी भी होती है, थोड़ा सा डर भी लगता है मानो नये डायनोसोर का जन्म हो रहा हो. शायद इस डर के पीछे यह भाव भी है कि सब लोगों से भिन्न कुछ नया करें, और अगर सब लोग अगर चिट्ठा लिखने लगेंगे तो उसमें भिन्नता या नयापन कहाँ से रहेगा? पर इस डर से अधिक रोमाँच सा होता है कि इस क्राँती से दुनिया के संचार जगत में क्या फर्क आयेगा? हमारे सोचने विचारने, मित्र बनाने, लिखने पढ़ने में क्या फर्क आयेगा?

स्पैम चिट्ठों का सोचूँ तो सबसे पहले तो अपने अज्ञान को स्वीकार करना पड़ेगा. यह नहीं समझ पाता कि कोई स्पैम के चिटठे क्यों बनाता है? एक वजह तो यह हो सकती है कि किसी जाने पहचाने चिट्ठाकार से मिलता जुलता स्पैम चिट्ठा बनाया जाये, और वहाँ पर विज्ञापन से कमाई हो. पर इस तरह के स्पैम चिट्ठे में लिखने के लिए कहाँ से आयेगा? क्या उसकी चोरी करनी पड़ेगी? एक अन्य वजह हो सकती है स्पैम चिट्ठे बनाने की जिसमें किसी कम्पनी वाला उपभोक्ता होने का नाटक करे और अपनी कम्पनी की बनायी वस्तुओं की प्रशँसा करे ताकि लोग उसे खरीदें, पर मेरे विचार में यह बात केवल नयी क्मपनियों पर ही लागू हो सकती है. यानि कि मेरी जानकारी स्पैम चिट्ठों के बारे में शून्य है और यह सब अटकलें हैं.

अंतर्जाल में कौन सी भाषा का प्रयोग होता है और क्यों होता है, इस विषय पर "ओसो मोरेनो अबोगादो" नाम के चिट्ठे में यही विवेचना है कि फारसी जैसी भाषा का चिट्ठों में प्रमुख स्थान पाना अँग्रेजी के सामने गुम होती हुई भाषाओं के भविष्य के लिए अच्छा संकेत है. वह लिखते हैं, "भाषा वह गोंद है जो संस्कृति को जोड़ कर रखती है. जब कोई भाषा खो जाती है तो वह संस्कृती भी बिखर जाती है. जैसे कि बिना जर्मन भाषा के, क्या जर्मन संस्कृति हो सकती है? जब भाषा खोती है, जो उस भाषा के सारे मूल मिथक, कथाएँ, साहित्य खो जाते हैं जिनसे उस संस्कृति की नैतिकता और मूल्य बने हैं...भाषा से हमारे रिश्ते बनते हैं, अपने पूर्वजों से हमारा नाता बनता है. अगर हम अपने पूर्वजों की भाषा नहीं बोल पाते तो हमारा उनसा नाता टूट जाता है."

अगर फारसी में चिट्ठा लिखने वाले इतने लोग हैं कि वह अपनी भाषा को चिट्ठा जगत की प्रमुख भाषा बना दें तो एक दिन भारत की सभी भाषाएँ भी अंतर्जाल पर अपनी महता दिखायेंगी, यह मेरी आशा और कामना है. केवल प्रमुख भाषाएँ ही नहीं, बल्कि वह सब भाषाएँ भी जिन्हें आज भारत में छोटी भाषाएँ माना जाता है जैसे कि मैथिली, भोजपुरी, अवधी आदि, इन सब भाषाओं को अंतर्जाल पर लिखने वाले लोग मिलें!


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मैं सोचता हूँ कि सब बच्चों को प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में मिलनी चाहिये जिससे उनके व्यक्तित्व का सही विकास हो सके. इसका यह अर्थ नहीं कि प्राथमिक शिक्षा में अँग्रेजी न पढ़ाई जाये, पर प्राथमिक शिक्षा अँग्रेजी माध्यम से देना मेरे विचार में गलती है. वैसे भी भारतीय शिक्षा परिणाली समझ, मौलिक सोच और सृजनता की बजाय रट्टा लगाने, याद करने पर अधिक जोर देती है. प्राथमिक शक्षा को अँग्रेजी माध्यम में देने से इसी रट्टा लगाओ प्रवृति को ही बल मिलता है.

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