गुरुवार, अगस्त 02, 2007

नया संगीत और धोबी का कुत्ता

कई बार कुछ भारतीय संगीतकारों से बात करने का मौका मिला और फ्यूजन संगीत की बात चली तो उनमें से अधिकाँश का कहना था कि भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिमी संगीत से मिलाना बेकार है क्योंकि जो संगीत बनता है वह धोबी के कुत्ते की तरह होता है, न घर का न घाट का.

वैसे तो मुझे यह धोबी के कुत्ते वाली कहावत ही समझ नहीं आती. बचपन में घर के पास ही सड़क के कोने में धोबी का घर था जिसके पास एक कुत्ता भी था और उस कुत्ते की हालत में मुझे अन्य आसपास के कुत्तों से कोई भी बात भिन्न नहीं दिखी.

खैर बात संगीत की हो रही थी. कुछ दिन पहले हम लोग फ्राँस के एक संगीत ग्रुप "ओल्ली और बोलिवुड ओर्केस्ट्रा" (Olli & Bollywood Orchestra) को सुनने गये. ग्रुप के अधिकाँश सदस्य फ्राँस के ही है. ओल्ली ग्रुप के गायक और प्रमुख संगीतकार भी हैं और भारतीय और पश्चिमी संगीतों की शैलियों को मिला कर अपना संगीत बनाते हैं, पर केवल शास्त्रीय संगीत से नहीं, मुंबई के फ़िल्मी संगीत से भी.




जब ओल्ली गाते हैं तो उनके गीतों के शब्द हिंदी के होते हैं और उच्चारण फ्राँस का, कभी कभी शब्द आपस में यूँ ही जोड़ देते हैं जिनमें कर्णप्रियता तो होती है पर अर्थ नहीं पर सुनते समय अर्थ की कमी नहीं महसूस होती बल्कि शब्दों के अर्थों के बारे में भूल कर आप केवल संगीत का आनंद ले सकते हैं. अपने संगीत की धुनें भी वह स्वयं ही बनाते हैं जो जाने पहचाने गानों से नहीं ली गयीं बल्कि जिनमें हिदी फ़िल्म संगीत और पश्चिमी ओपेरा संगीत का सम्मिश्रण सा है.

संगीत के साथ साथ पीछे पर्दे पर वीडियो छवियाँ भी दिखाते हैं जो अपने आप में कला का संपूर्ण रूप हैं. वीडियो के इन छवियों में पुरानी हिंदी फिल्मों के दृष्यों का अनौखा प्रयोग होता है, कभी एक ही दृष्य को बार बार दिखा कर, कभी उनमें दूसरी छवियाँ मिला कर, कभी उन पर रंग बिखेर कर, अपने संगीत की धुन से छवियाँ के घूमने को मिला कर, अजीब सा अहसास देते हैं. शुरु शुरु में जब उन्होंने गाना प्रारम्भ किया तो शब्दों के अर्थ ने होने, या अर्थ हो कर भी उनका उच्चारण विभिन्न होने के बारे में सोच रहा था पर थोड़ी देर में ही इन सब बातों को भूळ कर केवल ध्वनि, संगीत और छवियों के मायाजाल में खो सा गया.




"सुन मामा", "मेरी तेरी दोस्ती" गीत सबसे अच्छे लगे. कंसर्ट के अंत में गाँधी जी का भजन "रघुपति राघव राजा राम" भी बहुत अच्छा लगा, जो ओल्ली जी तीन विभिन्न सुरों में प्रस्तुत करते हैं पहले सामान्य भजन के रूप में शुरु करते हैं पर जिसमें अंतिम सुर ओपेरा संगीत से लिया गया है.

इस दल में दो भारतीय सदस्य भी है, कलकत्ता की सुदेशना भट्टाचार्य जो सरोद बजाती हैं और पाँडेचेरी के प्रभु एडुआर्ड जो तबला और ढोलक बजाते हैं. दोनो ही बहुत अच्छे कलाकार हैं. कंसर्ट के बीच का हिस्सा, इन दोनो की जुगलबंदी का था और बहुत सुंदर था.




इस ग्रुप ने हिंदी फ़िल्मी संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत, पश्चिमी पोप संगीत और पश्चिमी ओपेरा को मिला कर जो फ्यूजन संगीत बनाया है वह अपने आप में संदर भी है और नया भी है इसलिए शायद नयी कहावत होनी चाहिये, "धोबी का कुत्ता घर का भी और घाट का भी".

प्रस्तुत हैं इस कंसर्ट की कुछ तस्वीरें.



बाँसुरी पर सिल्वान बारो


लाल कमीज में ओल्ली (शायद उनके नाम का सही उच्चारण है ओई?)






बायें से, गिटार बजाने वाले एरवान, बाँसुरी वाले सिल्वान और तबला बजाने वाले प्रभु

बुधवार, अगस्त 01, 2007

आप बीती कहने का साहस

हिंदी की पत्रिका "हँस" कई वर्षों से दलित लेखकों को प्रोत्साहन दे रही है, शायद एक दलित विषेशाँक भी निकल चुका है. मैं इस बात से सहमत हूँ कि किसी भी बात के बारे में लिखना हो, अगर उसे वह लिखे जो स्वयं उस बात का अनुभव कर चुका है और उसके लेखन में एक अन्य ही सच्चाई आ सकती है.

कहानी लिखना या उपन्यास लिखना, आप बीती लिखना नहीं है बल्कि लेखक द्वारा कल्पना की दुनिया से विभिन्न व्यक्तित्व बनाना है. इसलिए शायद यह आवश्यक नहीं कि दलित जीवन के बारे में केवल दलित ही लिख सकते हैं, पर यह अवश्य है कि अगर दलित अपने जीवन के बारे में लिखेंगे तो वे उस जीवन के बारे में नये पहलू रख सकते हैं जिनके बारे में गैरदलित लेखकों ने सोचा भी नहीं हो. यह नहीं कि हर दलित लेखक अपने लेखन में अपने जीवन को समझने के लिए नये पहलू उठा पायेगा, पर उनके बीच में भी कुछ लोग ऐसे अवश्य होंगे जिनमें यह क्षमता हो.

मुझे इस सच्चाई का एहसास तब हुआ जब विकलाँग लेखकों के सम्पर्क में आया. विकलाँगता शरीर में किसी अंग के सामान्य न होने सा या उसके सामान्य तरीके से काम न करने पाने से होती है, यह मेरा विश्वास था पहले. विकलाँग विचारकों के सम्पर्क में आया तो समझने का मौका मिला कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में देखना केवल एक तरीका है विकलाँगता विर्मश का. विकलाँगता को समाज के सोचने और काम करने की तरीके में भी देखा जा सकता है, जब व्यक्ति के आसपास रुकावटें बना कर समाज व्यक्तियों को विकलाँग बना सकते हैं.

समाज के हाशिये से बाहर हर गुट में, चाहे वह विकलाँग हों, चाहे दलित हो, या शोषित स्त्रियाँ हों, या अल्पसँख्यक भाषी या अल्पसँख्यक धर्म के लोग, कुछ सत्य छुपे हैं जिन्हें वह स्वयं ही प्रस्तुत कर सकते हैं और बृहत संसार को समझा सकते हैं.

तो बात "हँस" के दलित लेखन की कर रहा था. अधिकतर दलित लेखक मुझसे पढ़े नहीं जाते, उनके लेखन में मुझे वह सत्य नहीं दिखता जिसे गैरदलित नहीं दिखा सकते और लेखन शैली विषेश नहीं होती, पर हँस के जुलाई अंक में श्यौराज सिंह बैचेन की आत्मकथा "यहां एक मोची रहता था" ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला. एक बार पहले भी हँस में उनका लिखा पढ़ा था जो मुझे बहुत अच्छा लगा था. इस बार भी उनका लेख पढ़ने लगा तो बीच में छोड़ा नहीं गया, पूरा पढ़ कर ही दम लिया और बाद में उसके बारे में सोचता रहा. दलित जीवन क्या होता है इसकी समझ भी देते हैं पर साथ ही उनके लिखने की शैली भी ऐसी है कि पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. जलते अँगारों जैसे शब्द हैं और उन्हें पढ़ कर आधुनिक जातपात के नाम पर होने वाले भेदभाव की अमानवीयता की समझ बनती है.

अपनी आप बीती कहना कभी आसान नहीं होता. श्यौराज जी के अपने बचपन में मोची के काम करने के दिनों के वर्णन में कोई रुमानियत नहीं बस साफ सीधे शब्दों में बात कहते हैं. मैं मानता हूँ कि अपने आप बीते को इस तरह बता सकना ही मन को शोषण की ग्रथियों से और बीते जीवन के अनुभवों की यादों की जंज़ीरों मु्क्ति दे सकता है.

इसी अंक में अभय कुमार दुबे का "कंडोम के साथ चलते हुए यौन शिक्षा का विरोध" लेख भी बहुत अच्छा लगा जिसमें उन्होंने यौन विषय की ओर हमारे समाज में व्यापित दौगली मानसिकता पर प्रश्न उठाये हैं.

दोनो लेख इंटरनेट पर भी पढ़े जा सकते हैं, अगर अब तक नहीं पढ़े हों तो इन्हें अवश्य पढ़ियेगा.

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कभी कभी कोई छोटी सी पढ़ी हुई बात मन में ठहर सी जाती है.

कुछ यूँ ही हुआ जब "हँस" के जून अंक में वंदावन के स्वामी नित्यानंद का पत्र पढ़ा. उन्होने लिखा कि



"जैसे साहित्यकार उदास हैं कि पाठक नहीं मिलते, वैसे ही वेदांत के प्रवक्ताओं के लिए श्रोताओं का अभाव है. अंत यहां करूँगा कि -
दिल खुश हुआ है मस्जिदे वीरान देख कर
मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है"

वेदांत के श्रोताओं की कमी की बात करते हुए स्वामी जी ने बहुत सहजता से मस्जिद और खुदा की बात कर दी, बहुत अच्छी लगी. ऐसे वेदांत दर्शन की बात करने वाले स्वामी की बात को अवश्य सुनना चाहूँगा.

हँस के इसी अंक में एक और पत्र था आजकल के बहुत से धर्मगुरुओं के विषय पर, इंदौर से डा. ओमप्रकाश शर्मा भारद्वाज का यह पत्र, वह भी मुझे बहुत सटीक लगा. बहुत देर तक उनके शब्द मन में गूँजते रहे. आधुनिक धर्म गुरुओं के बारे में उन्होंने लिखा है,



"जो आज नित्य गगन विहार कर रहा है, वही मंच से कारुणिक स्वर में श्रीराम जी के वनगमन के समय उनके तलुओं में पड़े छालों का वर्णन कर रहा है. जो आज श्रीमंतों ही आतिथ्य स्वीकार करते हुए वातानुकूलित कक्षों में डनलप के गद्दों पर जाम लेता है, वही श्रीरामसीता की पंचवटि में भूमि शयन का वर्णन कर रहा है. जो आज काजू बादाम पिस्ता केसर कस्तूरी मेवा व शुद्ध घृत का भोजन करता है वही मंच से शबरी के बेरों का, सुदामा के तंदुल का व दिदुर के सागपात के आलौकिक स्वाद का वर्णन कर रहा है. जो शरीर की क्षणभंगुरता पर दार्शनिक रूप से व्याख्यान देता है, वही अपना जन्मदिन धूमधाम से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाता है. अपनी शोभा यात्राएँ निकलवाता है. अपना पाद पूजन कराता है. जो माया मोहव धन संग्रह की आसक्ति को त्यागने का उपदेश दे रहा है, वही अपने कथा स्थल के बाहर अपने चित्र,कैसेट, ओडियो, वीडियो, पुस्तकें, पूजा का सामान, यहाँ तक मंजन, तेल, शैम्पू, साबुन, चाय, पेन, कापी, आदि बेच रहा है..."
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जीमेल को लकवा मारा?

कुछ दिनों से हमारे गूगल देवता जी नाराज हैं. जीमेल खोलो तो बिना किसी दिक्कत के खुल जाता है पर सिवाय संदेशों को कूड़े में फैंकने के कुछ और नहीं करने देता. संदेश खोल कर पढ़ने नहीं देता, न ही नया संदेश लिखने देता है. कोई भी लिंक काम नहीं करती. क्या कोई मेरी सहायता करेगा कि उनकी यह बिमारी ठीक की जा सके?

सोमवार, जुलाई 30, 2007

शाहरुख का कमाल

इटली में हिंदी सिनेमा के बारे में बहुत कम जानकारी है. एक तरफ है समानान्तर सिनेमा जो हमेशा से ही फिल्म फेस्टिवलों के माध्यम से जाना जाता है, इसकी जानकारी इटली में भी है. नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी जैसे कलाकारों को इन समाराहों में जाने वाले लोग जानते हैं, पर आम व्यक्ति को इसकी जानकारी न के बराबर है. फिल्म समारोहों में आने वाली फिल्में विभिन्न शहरों में "सिनेमा द एसाई" यानि प्रायोगिक सिनेमा नाम के कुछ सिनेमाघर होते हैं जहाँ दिखाई जाती हैं. इस तरह के सिनेमाघरों में नारी भ्रूण हत्या के विषय पर बनी "मातृभूमि" पिछले वर्ष बहुत देखी तथा सराही गयी. पर बात वहीं तक आ कर रुक जाती है, यानि थोड़े से लोग जिन्हें गम्भीर सिनेमा पसंद है वह वहाँ यह फिल्में देखते हैं.

आम लोग जो सिनेमाहाल में फिल्म देखने जाते हैं उन्हें भारतीय फिल्मों के बारे में कुछ नहीं मालूम.

इस बारे में पिछले कुछ वर्षों में कुछ बदलाव आने लगा है. कुछ वर्ष पहले शाहरुख कान की फिल्म "अशोक" वेनिस फिल्म फेस्टिवल के समय दिखायी गयी हालाँकि वह पुरस्कार प्रतियोगिता में नहीं थी. पर वेनिस फिल्म फेस्टिवल ने लोकप्रिय हि्दी फिल्मों को अभी तक नहीं अपनाया है जैसे कि फ्राँस के कान फेस्टिवल में होने लगा है. फ्राँस में हिंदी फिल्म समारोह होने लगे हैं, कुछ हिंदी फिल्में प्रदर्शित भी हुई हैं. मेरी एक फ्रँसिसी मित्र ने कुछ दिन पहले मुझे लिखा था कि उसने डीवीडी पर "कभी खुशी कभी गम" देखी जो उसे बहुत अच्छी लगी, पर इस तरह की डीवीडी यहाँ इटली में नहीं मिलती. कुछ वर्ष पहले आमिर खान की फिल्म "लगान" अव्श्य डीवीडी पर आई थी पर न ही इसका ठीक से विज्ञपन दिये गये, न ही कोई चर्चा हुई.



बोलोनिया भारतीय एसोसियेशन के माष्यम से हम लोग भी भारतीय फिल्मों को लोकप्रिय करने का प्रयास कर रहे हैं, पर यह आसान नहीं, क्योंकि फिल्मों में इतालवी के सबटाईटल नहीं होते, होते भी हैं तो शायद कम्पयूटर से भाषा का अनुवाद किया जाता है जो समझ में नहीं आते या फ़िर कई बार गलत अर्थ बना देते हैं.

कल रात को बोलोनिया में पहली बार एक लोकप्रिय हिंदी सिनेमा की फिल्म दिखाई गयी, यश चोपड़ा की "वीर ज़ारा". शहर के पुराने हिस्से में नगरपालिका भवन के सामने बहुत बड़ा खुला चौबारा है, वहाँ खुले में सिनेमा का पर्दा लगाया गया है और करीब चार हज़ार दर्शकों के बैठने की जगह है. पिछले दिनों वहाँ अमरीकी फ़िल्में दिखा रहे थे और कल रात को इस समारोह के अंतिम दिन में भारतीय फ़िल्म दिखाने का सोचा गया था. हम लोग सोच रहे थे कि इतने लोग कहाँ आयेंगे और बोलोनिया फि्लम सँग्रहालय की तरफ से हमने सब लोगों को ईमेल भेजे, टेलीफोन किये और कहा कि भारत की इज़्ज़त का सवाल है और सब लोगों को आना चाहिये.



फ़िल्म शुरु होने से दो घँटे पहले ही लोग आने शुरु हो गये. बोलोनिया में भारतीय तो कम ही हैं पर बँगलादेश और पाकिस्तान के बहुत लोग हैं, अधिकतर उनके ही परिवार थे, बाल बच्चों समेत, सब लोग सजधज कर यूँ आ रहे थे मानो किसी की शादी पर आये हों. जब फिल्म प्रारम्भ होने का समय आया तो हर जगह लोग ही लोग थे, कुर्सियाँ भर गयीं तो लोग आसपास जहाँ जगह मिली वहीं बैठ गये. अंत में करीब सात आठ हज़ार लोग थे. समारोह वाले बोले कि इतनी भीड़ तो किसी अन्य फ़िल्म में नहीं हुई थी.

भीड़ से भी अधिक उत्साहमय था लोगों का फिल्म में भाग लेना. गाना होता तो लोग सीटियाँ बजाते, हीरो हिरोईन गले लगे तो लोगों ने खूब तालियाँ बजायीं. बहुत से इतालवी लोगों में मुझसे शाहरुख खान के बारे में पूछा, बोले कि बहुत ही एक्सप्रेसिव चेहरा है, कुछ भी बात हो उसके चेहरे से भाव समझ में आ जाता है नीचे सबटाईटल पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती. कई लोग बोले कि शाहरुख खान की कोई अन्य फ़िल्म दिखाईये!

अब हम लोग सोच रहे हैं कि अप्रैल में एक और भारतीय फ़िल्म समारोह का आयोजन किया जाये.

गुरुवार, जुलाई 26, 2007

बाहर से बुढ़ऊ, भीतर से हृतिक रोशन

मन में चाहे आप अपने आप को जैसा भी सोचें, लोग तो आप की उम्र ही देखते हैं. और फ़िर सच भी है कि बाल सफ़ेद होने के साथ साथ शरीर याद दिलाने लगता है कि इस संसार की चीज़ो से बहुत अधिक मोह बनाना ठीक नहीं. कभी बैठने लगो तो अचानक कमर में दर्द होने लगता है, कभी बैठ कर उठो तो हाथ कोई सहारा खोजते हैं, नीचे ज़मीन पर बैठना पड़े तो कामेडी फ़िल्म का दृश्य लगता है. कभी टाँगे इधर रखो, कभी उधर, कहीं चैन नहीं आता और पीठ किसी दीवार के सहारे के सपने देखती है.

कुछ तो सफ़ेद बालों ही का विचार करके गम्भीर दिखने की कोशिश करनी पड़ती है वरना लोग कहे कि यह बूढ़ा तो बहुत मस्त है. कुछ काम का तकाजा भी है, जो तभी प्रारम्भ हो गया था जब डाक्टरी की पढ़ाई चल रही थी. मेडिकल कोलिज में आपस में जितना भी दँगा फसाद कर लीजिये, बाहर वालों के सामने तो शराफत और गम्भीरता ही दिखानी पढ़ती है. जैसे जैसे साल बीतते जाते हैं, यह गम्भीरता का चश्मा और मोटा बनता जाता है.

बचपन से मुझे गाने का बहुत शौक था. वैसे तो परिवार में मुझसे अच्छा गाने वाले कई लोग थे और शायद इसीलिए घर परिवार में शादी या पार्टी के मौके पर मुझे गाने के निमत्रण नहीं मिलते थे पर स्कूल और कालेज में अवश्य मित्र और अध्यापक कुछ गानों की फरमाइश करते रहते थे. कुछ गानों के लिए मित्र कहते कि "वाह यह तुम्हारा गाया हुआ तो किशोर कुमार या मुहम्मद रफी के मूल गाने से भी बढ़िया है" तो दिल खुशी से फ़ूल जाता.

नाचने का भी बहुत शौक था. दिल्ली में जानकी देवी कन्या कालेज के परिसर में एक मँच है. उस मँच पर शाम को जब कालेज की छात्राएँ घर चली जातीं तो मैं अपने आधुनिक नृत्यों के अभ्यास करता. जबकि गाने के लिए कोई मान भी लेता था कि हाँ मैं गा सकता हूँ, दुर्भाग्यवश मेरे आधुनिक नृत्यों को विषेश सराहना नहीं मिली और इस लिए मेरी यह कला ठीक से विकसित नहीं हो पायी.

पर बूढ़े और गम्भीर डाक्टरों को गाने या नाचने की अनुमति नहीं. वैसे भी यहाँ इटली में कौन सुनेगा मेरा हिंदी का गाना? नाचने के मौके कुछ मिलते हैं पर वह आधुनिक नृत्य के नहीं बल्कि इतालवी बालरूम नृत्य के, जैसे वाल्त्सर, रुम्बा, तारानतोला इत्यादि और उन सब में नियम से नृत्य करना होता है. एक पैर आगे, दूसरा पैर एक तरफ़, अब दायें घूमो, ... और यह अपने बस की बात नहीं. कभी साथ नाच रही पत्नी के पाँव को अपने पाँव से कुचलता हूँ कभी बाजू में नाच रहे अन्य युगलों से टकराता हूँ, लगता है कोई हाथी हूँ. तो जहाँ तक हो सके इस तरह के नाचों से कतराता हूँ.

इतने सालों से न गाने से, गले में जँग सा लग गया है. कभी घर में कोई न हो और खिड़कियाँ दरवाजे बंद करके कुछ गाने की कोशिश करूँ तो अपनी बेसुरी आवाज़ से आहत हो जाता हूँ. जाने कहाँ खो गयी वह मेरी सुरीली आवाज़!

खैर अंत में अपने गाने और नाचने के शौक को पूरा करने का एक बढ़िया तरीका खोजा है. काम पर साइकल से जाओ, कान में एमपी३ प्लेयर के इयरफोन लगाओ और सारे रास्ते धुनों को मन ही मन गुनगुनाओ. बाहर से अपने हाव भाव पर नियंत्रण रखो, चेहरा गम्भीर ही रहता है पर भीतर ही भीतर शरीर थिरकता रहता है. कभी कभी लोग जब मुड़ कर आश्चर्य से मेरी ओर देखते हैं तो समझ आता है कि शायद गम्भीरता का मुखौटा उतर गया हो. या तो गाने की धुन में सचमुच ऊँचे स्वर में गाने लगा हूँ या फ़िर साइकल चलाते चलाते, हाथ हैँडल पर तबले की तरह बजने लगे हैं या हवा में घूम कर तान ले रहे हैं.

और जब आसपास कोई न हो, जैसे शाम को बाग के किसी सुनसान कोने में, या फ़िर गैराज का दरवाजा बंद करके, या घर की सीढ़ियों पर, तो जल्दी से थोड़े से नाच के कुछ ठुमके और झटके भी लगा लेता हूँ.

बुधवार, जुलाई 25, 2007

गर्मियों की एक संगीतमय शाम

काम जल्दी जल्दी समाप्त किया और घर लौट आया क्योंकि रात को एक संगीत कार्यक्रम में भारत से आये त्रीलोक गुर्टू को सुनने जाना था. ऐसे ही एक कार्यक्रम में कुछ दिन पहले भी गया था, इतनी अधिक भीड़ थी कि कुछ दिखाई नहीं दिया, बस दूर से स्टेज पर नृत्य करते लोग रोशनी के बिंदू जैसे दिख रहे थे. बैठने की जगह भी नहीं थी और लोगों के कँधों के पीछे से उचक उचक कर देखने से थोड़ी देर में थक कर कार्यक्रम को छोड़ कर वापस घर आ गया था. इसलिए सोचा कि इस बार कम से कम एक घँटा पहले पहुँच कर कुछ आगे की कुर्सी खोजी जाये.

सँगीत का यह कार्यक्रम शहर के बीचों बीच पुराने भाग में हो रहा है जहाँ करीब 1700 वर्ष पुराना एक गिरजाघर है. वहाँ पर कार में जाना मना है इसलिए बस में जाना था. तैयार हो रहा था कि अचानक टेलिफोन आया. एक युवती की आवाज थी बोली की नगरपालिका के संस्कृति विभाग से बोल रही थी और शाम के समारोह के लिए मुझे मेयर की तरफ से निमत्रँण था. यानि इसबार कोई धक्का मुक्की नहीं बल्कि स्टेज के सामने पहली पँक्ति में शहर के जाने माने लोगों के साथ बैठ कर कार्यक्रम देखने का मौका मिल रहा था. मुश्किल से स्वयं पर काबू करके, मैंने यूँ दिखाया मानो बहुत से काम हों और सँगीत कार्यक्रम पर जाने का मेरे पास समय न हो, फ़िर मेयर साहब पर दया करते हुए बोला, अच्छा अगर इतना कर रहे हैं तो आने की कोशिश करूँगा.

तुरंत कपड़े दोबारा से बदले. अब अगर मेयर के साथ बैठना था तो आधी पैंट और टीशर्ट में काम कैसे चलता. सिल्क का कुर्ता निकाला और आराम से नहा धो कर, कार्यक्रम प्रारम्भ होने के समय वहाँ पहुँचा. नगरपालिका की युवती ने मुस्करा कर स्वागत किया और निमंत्रण स्वीकार करने के लिए धन्यवाद भी किया.



संगीत का कार्यक्रम था त्रीलोक गुर्टू के साथ चार इतालवी संगीतकारों का जिनमे से तीन वायलिन (कार्लो कोनतीनी, वालेंतीनो कोर्वीनो, सांद्रो दी पाओलो) बजाने वाले थे और एक बास यानि बड़ा भारी स्वर वाला वायलिन जैसा वाद्य, बजाने वाला (स्तेफानो देल आरा). गुर्टू जी प्रसिद्ध हिंदुस्तानी शास्त्रीय सँगीत गायिका शोभा गुर्टू के सुपुत्र हैं, तबला बजाते हैं और पिछले दस पँद्रह वर्षों में नवयुग सँगीत (New Age), विश्वसँगीत (World Music) जैसी विधाओं के लिए प्रसिद्ध हैं. तबले के साथ साथ अब उनका सँगीत विश्व के अन्य देशों से विभिन्न तबले या ढोल से मिलते जुलते विभिन्न वाद्यों का प्रयोग भी होता है और साथ ही घुँघरू, सीपियाँ, बाल्टी, इत्यादि चीज़ो से भी सँगीतमय ध्वनियों का प्रयोग भी होता है.



मुझे वायलिन सुनना अच्छा लगता है पर साथ ही लगता है कि वायलन दुखभरा सँगीत बनाता है. यह सोच इस सँगीत कार्यक्रम से बदल गयी. वायलिन को विभिन्न तरीकों से बजाना यह पहले बार देखा कि वायलिन का सँगीत तार खींचने, वायलिन को तबले की तरह बजाने, वायलिन में मुँह डाल कर भीतर गाने जेसे तरीकों से भी हो सकता है.



गुर्टू जी के तबले में भी जादू है और विभिन्न वाद्यों पर उनकी पकड़ बहुत बढ़िया है. सब अलग अलग वाद्यों को मिला कर उनका सँगीत साथ मिलाना और पश्चिमी शास्त्रीय संगीत से तबले का मिलन, बहुत सी बातों में वह निपुण है. सँगीत कार्यक्रम बहुत अच्छा लगा. तालियाँ बजा बजा कर हाथ थक गये पर बहुत सालों के बाद इतनी सुंदर सँगीत की महफ़िल में भाग लेने का मौका मिला.

कलाकारों के बजाये बढ़िया सँगीत को सामने सुनने का अनुभव, घर में कोई सीडी सुनने से बिल्कुल भिन्न है.

बस एक छोटी सी बात ही नहीं जँची, गुर्टू जी के चेहरे का भाव. शायद ज़ाकिर हुसैन जैसे तबला कलाकारों का असर हो, पर मुझे तबला बजाने वाले के चेहरे पर आनंद का भाव देखने की उम्मीद थी, जबकि बजाते हुए गुर्टू जी का चेहरा कुछ यूँ था मानो कब्ज हो या पेट में दर्द हो! यह भी है कि उन्हें कुछ माइक्रोफोन की परेशानी थी जो बार बार तबले से हट जाता था या फ़िर अन्य वाद्यकारों के साथ सुर मिलाने के ध्यान अधिक चाहिये होगा, पर मुझे लगा कि अगर वह कुछ हँस कर बजाते तो और भी अच्छा लगता.

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शाम समाप्त हुई तो करीब बारह बज रहे थे. वापस लौटते समय नेतूनो स्कावयर के पास से गुजरा तो नेतोनू का फुव्वारा अँधेरे में धीमी रोशनी में जुगनू जैसा चमक रहा था, उसके आस पास अँधेरे में नवजवान बैठे थे. करीब ही, वहाँ के खुले चौबारे में अमरीकी अभिनेता वूडी एलन की कोई फिल्म दिखाई जा रही थी और बहुत भीड़ थी.

अगले सप्ताह वहाँ पर हिंदी की फिल्म "वीर ज़ारा" दिखाने वाले हैं, मालूम नहीं कि उसे देखने भी इतनी भीड़ जमा होगी. ३० जुलाई को एक अन्य भारत से सम्बंधित सँगीत कार्यक्रम है, "ओली एंड द बोलीवुड ओर्केस्ट्रा" (Olli and the Bollywood Orchestra). यानि कि अगले सप्ताह भी कुछ शामें अच्छी गुजरेंगी.

गुरुवार, जुलाई 19, 2007

रँग दे, मोहे रँग दे - स्वयं की तलाश

"आप ने तो मेरा दिल ही तोड़ दिया", वह बोली.

मैंने उससे कहा था कि उसे ठीक से जानने से पहले मुझे उससे कुछ डर सा लगता था.

उसका सिर गँजा है, केवल सिर के बीचों बीच बालों की लाल रँग की मुर्गे जैसी झालर है, कानों में, नाक में, होठों के नीचे, जीभ पर रँग बिरँगे पिन हैं, बाहों पर डिज़ाईन गुदे हैं. जब भी कोई भारतीय साँस्कृतिक कार्यक्रम हो, वह अवश्य आती है, साथ में अपना कुत्ता लिये, अपने जैसे साथियों के साथ. जहाँ वे लोग बैठते हैं, आसपास कोई नहीं बैठना चाहता, सब लोग दूसरी ओर हट जाते हैं.

उन्हें देख कर मन में ईण्लैंड और जर्मनी के गँजे सिर वाले स्किन हैडस (skin heads) की छवि बनती थी, जो अक्सर प्रवासियों पर हमले करते थे, उन्हें मार कर अपने देशों में वापस लौट जाने को कहते थे. यहाँ बोलोनिया में उन्हें पँका-आ-बेस्तिया (Punk-a-bestia) कहते हैं, यह शब्द अँग्रेजी के पँक और इतालवी का बेस्तिया यानि जानवर को मिला कर बना है.

उसे भारतीय संस्कृति से बहुत लगाव है. "देखो मेरी पीठ पर मैंने ॐ लिखवाया है", उसने मुझे दिखाया. उसे शिकायत थी कि मैं भी अन्य इतालवी लोगों की तरह उसके बाहरी रूप पर ही रुक गया था, "तुम्हारे यहाँ लोग हाथों पर, पैरों पर, मैंहदी नहीं लगाते क्या? बाहों पर नाम नहीं गुदवाते क्या? यह सब मैंने भारत में ही देखा था और वहाँ से ही मुझे यह प्रेरणा मिली है."

पँका-आ-बेस्तिया अपने आप को समाज के दायरे से बाहर कर लेते हैं, पुराने खाली घरों में या फुटपाथ पर रहते हैं, सँगीत और स्वतँत्रता से प्यार करते हैं, समाज का कोई नियम नहीं मानते.उनके लिए जीवन का ध्येय पैसा कमाना, विवाह करना, घर बसाना आदि नहीं, बल्कि वह करना है जिसको करने को उनका दिल चाहे.

बोडी आर्ट यानि शरीर कला में मानव शरीर ही कलाकार का चित्रपट बन जाता है. शरीर को गुदवाना या शरीर को बोडी आर्ट (body art) के रँगों से सजाना तरीके हैं ध्यान खींचने का, यह दर्शाने का कि हम सबसे भिन्न हैं. इनकी प्रेरणा शायद इन्हें भारत से मिलती हो पर भारत में यह हमारे जीवन के, सँस्कृति के हिस्से हैं, विभिन्नता का माध्यम नहीं.

सब लोग केवल समाज के नियम तोड़ने के लिए ही अजीब गरीब भेस बनाते हों, ऐसा नहीं. आजकल मीडिया और संचार की दुनिया है, आप जितना अजीबोगरीब होंगे, उतना ही लोग आप की तस्वीर खींचेगे, छापेंगे या टीवी पर दिखायेगें. जैसे अमरीकी बास्किटबाल लीग एनबीसी के खिलाड़ी डेनिस रोडमैन जिनके रँग बिरँगे सिर की वजह से उनके लिए टीवी और पत्रिकाओं में जगह की कमी नहीं रहती, चाहे वे जैसा भी खैंले!

इन्हीं विचारों से जुड़ी कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं जिनमें दायरों से बाहर निकल कर अपने स्वयं की तलाश का चित्रण है.



बोडी आर्ट (Body art) का एक भारतीय नमूना हुसैन की फ़िल्म मीनाक्षी से


रोडमैन का रँग बिरँगा सिर


बोलोनिया का एक पँका-आ-बेस्तिया




रँग बिरँगी बोडी आर्ट

आस्ट्रेलिया की कलाकार एम्मा हेक द्वारा भारतीय कला से प्रभावित सजाई गयी मोडल निकोल जेम्स

शनिवार, जुलाई 07, 2007

मैं पिता हूँ या माँ?

यहाँ के स्थानीय समाचार पत्र में दो बातों ने ध्यान खींचा. एक तो था पूरे पृष्ठ का विज्ञापन, जिस पर बड़ा बड़ा लिखा था, "साहसी पिता - पुरुष जो बदलते हैं, दुनिया बदल सकते हैं". विज्ञापन का ध्येय है कि घर के कामों का बोझ केवल स्त्री पर नहीं होना चाहिये बल्कि पुरुष को घर के उन कामों में हाथ बँटाना चाहिये जो अधिकतर लोग "नारी कार्य" के रूप में देखते हैं जैसे कि सफाई करना, कपड़े धोना, बच्चों की देख भाल करना और उनके साथ खेलना.



दूसरी ओर एक समाचार अमरीका से भी था, "थरथराईये, सुपर पिता आ रहे हैं", यानि वे नव पिता जो अपने पिता होने को बहुत गम्भीरता से लेते हैं, इतनी गम्भीरता से कि वह माँ को कुछ नहीं करने देते और बच्चे के सभी काम स्वयं करते हैं. उन्होंने इन पिताओं को "Mom blocker" यानि कि माँ को रोकने वाले बुलाया है. बच्चे के बारे में छोटे बड़े सभी निर्णय वह स्वयं लेते हैं और माँ को बीच में दखलअंदाज़ी की अनुमति नहीं देते. इन पिताओं का ही एक उदाहरण हैं श्री ग्रेग एलन जिनका चिट्ठा है डेडीटाईपस (Daddytypes) और जो स्वयं को सुपरमामो (Supermammo)कहते हैं, यानि माँ से बढ़ कर माँ. समाचार का कहना है कि बहुत से माँए इन पतियों से बहुत परेशान हैं.

सोच रहा था कि क्या पुरुष और नारी का घर में अलग अलग रोल होना कहाँ तक ठीक है और कहाँ गलत? परम्परा कहती है कि पुरुष है नौकरी करने वाला, घर में काम नहीं करेगा, अनुशासन का प्रतीक, बच्चों के काम में घर में वह कुछ नहीं करेगा, आदि और नारियों के लिए इसका उलटा. पर आज के वातावरण में यह सँभव नहीं, शहरों में बहुत सी औरतों के लिए नौकरी करना आज आम बात है, चाहे वह आर्थिक जरुरत हो या व्यक्तिगत निर्णय, तो पुरुष को चाहते या न चाहते हुए भी कुछ तो बदलना ही पड़ता है. ऐसे पुरुष जो हर बात में बराबर काम बटाँयें तो कम ही होंगे, चाहे पत्नी का काम कितना ही कठिन क्यों न हो, घर की अधिकतर जिम्मेदारी उसी पर रहती है. प्रश्न है कि क्या इसको बदलना चाहिये या बदलने की कोशिश करनी चाहिये?

बदलाव तो धीरे धीरे आयेगा ही. यहाँ करीब 40 प्रतिशत विवाह तलाक में समाप्त होते हैं, और अकेला रहने वाला पुरुष, चाहे या न चाहे, उसे बदलना तो पड़ता ही है. तलाक लेने वालों में करीब 20 प्रतिशत पुरुष के बच्चे पिता के साथ रहते हैं, तो उसे माँ और पिता दोनो बनना ही पड़ता है, हाँ इसमें वह कितना सफल होता है या विफल, यह अलग बात है.

बिना विवाह के साथ रहने वाले युगल भी बहुत हैं और तेजी से बढ़ रहे हैं. इस तरह के परिवार जहाँ अविवाहित युगल रहते हैं, शौध ने दिखाया है कि उनमें पुरुष और स्त्री दोनो को बराबर काम बाँट कर करना पड़ता है और स्त्री पर घर के काम का बोझ कम होता है.

पर इन सबसे अलग भी एक बात है. मेरे विचार में हर मानव में पुरुष और नारी के गुण होते हैं पर बचपन से ही हमें "पुरुष ऐसे करते हैं", "नारियाँ वैसे करती हैं" के सामाजिक नियम सिखाये जाते हैं और इन सीखे हुए रोल से बदलना भीतर ही भीतर हमें अच्छा नहीं लगता क्योंकि मन में डर होता कि लोग क्या सोचेगें, क्या वे सोचेंगे कि मैं पूरा पुरुष नहीं या अच्छी स्त्री नहीं. काम करने वाली औरतें अपने अपराध बोध की बात करती हैं कि बच्चों का ध्यान ठीक से नहीं दे पातीं. लेकिन जब चाहे न चाहे, परिस्थितियाँ हमें मजबूर करती हैं कि हम अपने पाराम्परिक रोल की सीमा से बाहर जायें तो हम सचमुच अपने व्यक्तित्व को उसका स्वतंत्र रूप दे सकते हैं, अपने भीतर के नारी और पुरुष भाग को स्वीकार कर सकते हैं. एक बार इस स्वतंत्रता का अहसास हो जाये तो फ़िर हमें लोग क्या कहेंगे इसकी चिंता भी कम होती है.

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