शुक्रवार, मई 28, 2010

कविता के शब्द

कुछ दिन पहले लाल्टू की कविताओं की नयी किताब मिली. कविताएँ मुझे धीरे धीरे पढ़ना अच्छा लगता है, जैसे शाम को सैर से पहले दो एक कविता पढ़ कर जाओ तो सैर के दौरान उन पर सोचने का समय मिल जाता है और इस तरह से यह भी समझ में आता है कि कविता में दम था या नहीं. अगर थोड़ी देर में ही कविता भूल जाये तो लगता है कि कुछ विषेश दम नहीं था. कभी किसी कविता से कुछ और याद आ जाता है.

लाल्टू की किताब का शीर्षक है "लोग ही चुनेंगे रंग", और शीर्षक वाली कविता बहुत सुंदर हैः

चुप्पी के खिलाफ़
किसी विषेश रंग का झंडा नहीं चाहिए

खड़े या बैठे भीड़ में जब कोई हाथ लहराता है
लाल या सफ़ेद
आँखें ढूँढ़ती हैं रंगो के अर्थ

लगातार खुलना चाहते बन्द दरवाज़े
कि थरथराने लगे चुप्पी
फ़िर रंगों की धक्कलपेल में
अचानक ही खुले दरवाज़े वापस बंद होने लगते हैं

कुछ ऐसी ही बात स्पेनी गीतकार और गायक मिगेल बोज़े (Miguel Bosé) ने अपने एक गीत में कही थी जिसमें वह ऐसे रंग के सपने की बात करते थे जो किसी झँडे में न हो. राष्ट्रीयता के नाम पर होने वाले भूतपूर्व युगोस्लोविया में होने वाले युद्ध के बारे में लिखा यह गीत मेरे पसंदीदा गीतों में से है.

कुछ दिन पहले सुप्रसिद्ध ईज़राइली कवि येहुदा अमिछाई (Yehuda Amichai), जिन्हें ईज़राइल के सर्वश्रेष्ठ आधुनिक कवियों में गिना जाता है, की एक कविता भी पढ़ीः

तुम्हारे मुझे छोड़ने के बाद
गंध को परखने वाले कुत्ते से मैंने सुंघवाया
अपनी छाती, अपने पेट को, भर ले
नाक में गंध, और तुम्हे खोजने जाये
आशा है कि तुम्हें खोज ले, और उखाड़ ले
तुम्हारे प्रेमी की गोलियाँ और काट ले
उसका लिंग, या कम से कम
अपने दाँतों में तुम्हारी एक जुराब ले आये

पढ़ कर पहला विचार आया कि यह कविता है कि विशाल भारद्वाज की किसी फ़िल्म का डायलाग? ऐसी बातें सोच तो सकते हैं लेकिन कविता में कहना क्या साहित्य है? आप का क्या विचार है?

फ़िर कल एक अन्य अच्छी कविता पढ़ी, यह कविता बच्चों के लिए है और एक विज्ञान सम्बंधित चिट्ठे पर लिखी है, कविता का विषय है एक गायिका की छोटी उँगली. हिंदी में लिखने से उसमें वह बात नहीं आ रही जो कविता में है, इसे मूल अंग्रेज़ी में ही पढ़िये.

मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

वेदों की मूल दुनिया

हर नयी यात्रा में मेरा प्रयत्न होता है कि कुछ नया पढ़ा जाये जिसे पढ़ने का घर पर आम व्यस्तता में समय नहीं मिलता. इस बार बँगलौर गया तो पढ़ने के लिए श्री राजेश कोच्चड़ की लिखी पुस्तक "वेदिक पीपल", यानि "वेदों के समय के लोग" पढ़ी. चूँकि आईसलैंड के ज्वालामुखी की वजह से अभी बँगलौर में रुका हुआ हूँ तो इस पुस्तक के बारे में लिखने का समय भी मिल गया. दरअस्ल, यह पुस्तक सभी वेदों को लिखने वाले लोगों की बात नहीं करती, इसका मुख्य ध्येय सबसे पहले वेद, ऋगवेद को लिखने वाले लोगों के बारे में है. साथ ही, यह पुस्तक रामायण तथा महाभारत की कुछ मुख्य घटनाओं की इतिहासिक जाँच करती है. (The vedic people - Their history and geography, by Rajesh Kocchar, Orient Blackswan 2009 - first ediation, 2000 by Orient Longman).

Vedic People by Rajesh Kocchar
राजेश जी सामान्य व्यक्ति नहीं, नक्षत्रशा्स्त्र से जुड़ी भौतिकी के विषेशज्ञ हैं, बँगलौर में स्थित भारतीय नक्षत्रीय भौतिकी राष्ट्रीय संस्थान के डायरेक्टर रह चुके हैं तथा तथा आजकल दिल्ली में भारतीय विज्ञान, तकनीकी तथा विकास राष्ट्रीय संस्थान के डायरेक्टर हैं.

वेदों को लिखने वाले कौन लोग थे, वह कहाँ से आये थे, उनका क्या इतिहास था, इस सबके बारे में लिखने के लिए राजेश जी भाषा विज्ञान, साहित्य, प्राकृतिक इतिहास, पुरात्तवशास्त्र, नक्षत्रशास्त्र आदि विभिन्न दृष्टिकोणों से इस विषय की छानबीन करते हैं. उनके शौध के निष्कर्श चौंका देते हैं लेकिन उनके तर्क को नकारना कठिन है. जिस वैज्ञानिक तरीके से विभिन्न दृष्टिकोणों से उपलब्ध जानकारी को वह प्रस्तुत करते हैं, उससे यह लगता है कि किसी अन्य निष्कर्श पर पहुँचना संभव भी नहीं. इस पुस्तक को पढ़ कर, भारत की प्रचीन संस्कृति और धर्म के बारे में जो धारणाएँ थी, उनको नये सिरे से सोचने का अँकुश सा चुभता है.

पुस्तक का प्रमुख निष्कर्श है कि इंडोयूरोपी मूल के लोग एशिया के मध्य भाग में बसे थे, जहाँ इन्होंने घोड़े को पालतु बनाया, पहिये, रथों तथा घोड़ेगाड़ियों का आविष्कार किया. इन्हीं का एक गुट, पश्चिम की ओर निकला जिससे यूरोप के विभिन्न लोग बने. इन लोगों का फिनलैंड और हँगरी के मूल लोगों से सम्पर्क था जिससे दोनों की भाषाओं में आपसी प्रभाव पड़ा, जिसकी वजह से फिनिश तथा हँगेरियन इंडोयूरोपी भाषाएँ न होते हुए भी, इन भाषाओं के कुछ शब्द मिलते हैं. इन लोगों के दल विभिन्न समय पर जहाँ आज अफगानिस्तान है उस तरफ़ से हो कर ईरान भी गये और भारत की ओर भी बढ़े, जहाँ वह लोग हड़प्पा के जनगुटों से मिलजुल गये. इसी वजह से प्राचीन ईरानी धर्म जोरस्थत्रा के धर्मग्रंथ अवेस्ता में कुछ वही देवता मिलते हैं जो कि ऋगवेद में मिलते हैं जैसे कि इंद्र, मित्र, वरुण आदि. अग्नि पूजा का मूल भी दोनों लोगों को मिला.

राजेश जी के अनुसार ईसा से 1400 वर्ष पहले वहीं दक्षिण अफगानिस्तान में इसी भारतीय ईरानी मूल के कुछ लोगों ने ऋगवेद के श्लोक लिखना प्रारम्भ किया. यह श्लोक लिखने का कार्य करीब पाँच सौ वर्ष तक चला इसलिए ऋगवेद का मूल प्राचीन भाग ईसा से 900 वर्ष पहले के आसपास पूर्ण हुआ, तब तक यह लोग भारत के पश्चिमी भाग में पहुँच चुके थे. उनका कहना है कि जिस सरस्वती नदी जिसे "नदियों की माँ" कहा गया, वह दक्षिण अफगानिस्तान में बहने वाली नदी थी. उनके अनुसार रामायण की घटनाओं का समय भी ईसा से 1480 वर्ष पूर्व का है, वह सब दक्षिण अफगानिस्तान में ही घटित हुआ. महाभारत का युद्ध जो ईसा से करीब 900 वर्ष पहले हुआ, उसकी कर्मभूमि भी पश्चिम का वह हिस्सा है जहाँ आज पाकिस्तान है.

उनका कहना है पूर्व को बढ़ते यह मानव गुट, हड़प्पा के लोगों से मिल कर यायावर जीवन छोड़ कर कृषि में लगे. यह लोग अपने साथ साथ नदियों तथा जगहों के पुराने नाम भी ले कर आये और नये देश में कुछ जगहों तथा नदियों को यह पुराने नाम दिये, कुछ वैसे ही जैसे इटली, फ्राँस, ईग्लैंड से अमरीका जाने वाले प्रवासी अपने साथ अपने शहरों के नाम ले गये और नये अमरीकी शहरों को न्यू योर्क, न्यू ओरलियोन, रोम, वेनिस जैसे नाम दिये. यानि कुरुक्षेत्र, अयोध्या आदि मूल जगह दक्षिण अफगानिस्तान में थीं जिनके नामों को भारत में लाया गया. इसी वजह से ऋगवेद में गँगा नदी का नाम नहीं मिलता.

इन सब बातों के बारे में वह साहित्य, भाषाविज्ञान, पुरात्तव, गणिकी, नक्षत्रज्ञान आदि विभिन्न सूत्रों से जानकारी देते हैं, और उनके तर्कों के सामने अचरज सा होता है और लगता है कि हाँ यह हो सकता है.

किताब को पढ़ने के बाद सोच रहा था कि अगर अफगानिस्तान में पुरात्तव की खुदाई हो सके और राजेश जी कि विचारों को पक्का करने के लिए अन्य सबूत मिलने लगें तो इसका क्या असर पड़ेगा? शायद इस तरह की बातें भारत विभाजन के समय अगर मालूम होतीं तो क्या असर पड़ता?

मन में यह बात भी उठी कि पश्चिम से आने वाले यह लोग, अपने पहले आ कर बस जाने वाले लोगों से किस तरह मिले, किस तरह उनके धर्मों का समन्वय हुआ? जैसे कि हिंदू धर्म के तीन सबसे अधिक पूजे जाने वाले भगवान, राम, कृष्ण तथा शिव, तीनों ही श्याम वर्ण के कैसे हुए जबकि ऋगवेद को लिखने वाले तो गोरे रंग के थे? कैसे भारत के एक हिस्से में महोबा का पूजा होती है, दूसरे हिस्से में उसे महिषासुर कह कर मारा जाता है? कैसे पुरुष देवताओं की पूजा करने वाले आर्य भारत में बस कर शक्ति, लक्षमी और ज्ञान की देवियों को मानने लगे?

इन प्रश्नों के उत्तर कहाँ से मिलेंगे, अगर आप किसी बढ़िया किताब के बारे में जानते हों तो मुझे अवश्य बताईयेगा. आप को मिले तो राजेश कोच्चड़ की इस किताब को अवश्य पढ़ियेगा. और अगर आप इस किताब को पढ़ चुके हैं तो यह भी बतलाईयेगा कि उनके तर्क आप को कैसे लगे?

रविवार, मार्च 21, 2010

स्मृति शेष

18 फरवरी 2010 को सुबह सात बज कर दस मिनट पर माँ ने अंतिम साँस ली. कुछ दिन पहले ही मालूम हो गया था कि उनके जाने का समय आ रहा था. एक तरफ़ मन चाहता था कि वह हमेशा हमारे साथ रहें, दूसरी ओर सारे जीवन की उनकी शिक्षा थी कि तड़प तड़प कर जीना, कोई जीना नहीं और यह भी जानते थे अगर वह स्वयं निर्णय ले पाती तो शायद इससे बहुत पहले ही चली गयीं होतीं.

Mrs. Kamala Deepak
पिछले दस सालों से धीरे धीरे उनकी यादाश्त जा रही थी. पिछले वर्ष जून में दिल्ली में उनके पास रहा था अपनी छोटी बहन के घर जहाँ वह पिछले कई सालों से रह रही थीं. उन्हें घर के कम्पाऊँड में घूमाने ले गया था. अचानक वह मेरी ओर मुड़ कर बोली थीं, "भाई साहब, आप मेरे इतना साथ साथ क्यों चल रहे हैं?" यानि बीच बीच मुझे भी नहीं पहचान पाती थीं. पिछले चार पांच महीनों से उनका बोलना अधिकतर समझ में नहीं आता है, शब्द, वा्कय, अर्थ सब गुड़मुड़ हो गये थे.

उन दिनों रात को उनके साथ ही बिस्तर पर सोता था, उनका हाथ पकड़ कर सहलाता रहता या छोटे बच्चे की तरह उनसे लिपट जाता. सारी उम्र कठिनाईयों से लड़ने वाली माँ चमड़ी में लिपटी हड्डियों का ढाँचा रह गयी थी, लगता कि ज़ोर से दबाओ तो चटख जायेंगी.

रात को वह कई बार उठती और मुझे भी जगा देतीं. एक रात को उन्होंने चार पाँच बार जगाया. समझा बुझा कर हर बार उन्हें दोबारा सुला देता. सुबह चार बजे के करीब जब उन्होंने फ़िर जगाया तो मैंने नींद में ही उनसे कुछ गुस्से से कहा कि माँ बहुत नींद आ रही है, मुझे सोने दो, तो रोने लगीं. अचानक उनकी समझ कुछ देर के लिए लौट आयी थी, कातर हो कर बोलीं कि इस तरह का जीना मरने से बदतर है. फ़िर कहा, "तू तो डाक्टर है, मुझे कुछ दवा दे कर सुला नहीं सकता कि इस नर्क से छुटकारा मिले?" उनके साथ साथ मैं भी रो पड़ा था. कुछ देर में ही वह सब कुछ भूल कर फ़िर से सो गयीं थीं.

8 फरवरी को चीन में था, जब रात को माँ के बारे में बुरा सपना देखा. दिल घबराया तो रात को उठ कर छोटी बहन को ईमेल लिखी और माँ का हाल पूछा. बहन का उत्तर थोड़ी देर में ही आ गया, माँ होश में नहीं थीं और उन्हें अस्पताल में इनटेंसिव केयर में रखा गया था. अगले दिन ही भारत आने की उड़ान खोजी. दिल्ली पहुँचा तो अस्पताल में डाक्टर बोले कि कुछ और नहीं हो सकता था तो सोचा कि अगर कुछ नहीं हो सकता तो माँ को घर ले जा कर स्वयं ही उनके आखिरी दिनों की देखभाल करूँ. कम से कम घर के सब लोग साथ तो रह सकेंगे, अस्पताल में तो किसी को पास नहीं जाने देते.

करीब तीस साल पहले कुछ समय इनटेंसिव केयर में काम किया था, सोचा जितनी देखभाल करनी चाहिये, वह करनी तो मुझे आती है. घर ला कर सब इंतज़ाम किया. नाक से पेट में ट्यूब जिससे खाना दिया जाये, इंट्रावीनस ड्रिप दवाई देने के लिए, पिशाब के लिए केथेटर. माँ की पीठ पर घाव बन गया था, बाँहें और टाँगें दर्द से जुड़ी अकड़ गयी थीं जिन पर खून के गट्ठे बन गये थे, बेहोशी में भी दिन रात पीड़ा से कराह रही थीं. बार बार माँ के शब्द मन में आते कि मुझे तड़प तड़प कर मत मरने देना, ऐसी दवा देना कि आराम से चली जाऊँ. मेरे अंदर का डाक्टर कैसे क्या दवाई दी जाये, कैसे करवट बदलायी जाये, कब क्या खाने को दिया जाये सोचता था. अंदर का बेटा माँ के जाने का सोच कर द्रवित हो उठता. कई बार मन में आता कि इस तरह के इलाज से माँ की तड़प को और भी लम्बा कर रहा था. लगता कि माँ मुझसे चिरनिंद्रा की दवा माँग रही हों, दर्द से मुक्ति मांग रही हो, पर मुझमें इतनी ताकत नहीं थी कि माँ की यह इच्छा पूरी कर पाता.

माँ के जाने के बाद उनकी डायरियाँ पढ़ रहा हूँ. डायरी वाली माँ, मेरी यादों वाली माँ से अलग लगती है. बाहर से बहादुर, निडर दिखने वाली माँ, अपने डरों को सिर्फ़ डायरी को ही कह पाती थी. डायरी में अतीत के बहुत से लोगों की कहानियाँ और बातें हैं, लोहिया की समाजवादी पार्टी की बातें, भारत के पहले प्रधान मंत्री नेहरू की बातें, भारत पाकिस्तान विभाजन की बातें, पिता के मित्रों लेखकों कवियों की बातें, अपने अकेलेपन की बातें -

... पाकिस्तान से आये तो दिल्ली में माडलबस्ती शीदीपुरा में एक मुसलमान के खाली घर में हमें शरण मिली, घर आधा जला हुआ था. मैं मृदुला साराभाई के शान्ती दल में काम करने लगी, घूम घूम कर मुसलमान लड़कियों को खोजते और उन्हें बचा कर उनके परिवारों में भेजते. तब अरुणा आसिफ़ अली, सुभद्रा जोशी आदि से भी भेंट हुई. कमला देवी चट्टोपाध्याय से रिफ्यूज़ी सेंटर में मिली. शाम को गाँधी जी की प्रार्थना सभा में जाते.

पहले मुझे तीन महीने सोशलिस्ट पार्टी के केंद्रीय दफ्तर में बाड़ा हिंदुराव में हिंदी टाईपिंग का काम मिला, वहाँ जे. स्वामीनाथन, सूरजप्रकाश, कश्यप भार्गव और दीपक जी से मिली. चमनलाल भी मित्र थे जिन्होंने फैज़रोड पर एक मुसलमान के खाली घर में स्कूल खोला तो मैं, कश्पी, दीपक और विमला जो बाद में चमन की पत्नी बनी, वहाँ स्कूल में काम करते और मेरे तीन भाई और एक बहन वहाँ पढ़ने लगे. मुझे 40 रुपये तन्ख्वाह मिलती जिसमें से 20 रुपये अपने भाई बहन की फ़ीस में दे देती. छः मास वहाँ काम किया...

.. 1949 में जब लोहिया नेपाल आंदोलन के संदर्भ में जेल से छूटे तो औखला में एक पार्टी दी गयी. मैं भी वहाँ थी. और मेरे साथ एक युगोस्लाविया की लड़की मलाडा कलाबावा भी थी जो लोहिया के यहां ही रह रही थी, बारहखम्बा रोड में पदमसिंह के यहां. आयु उसकी उस समय 23-24 की होगी. लड़की बहुत ही अच्छी थी. लोहिया की दोस्त थी. हम दोनो नहर के किनारे बैठे बात कर रहे थे. वह हिंदी जानती थी.

तभी एक टोकरी में पांच छः आम लिए लोहिया हमारे पास आ कर बैठ गये कि अरे तुम लोग यहां बैठी हो और सब आम खत्म हो गये हैं. इतने स्नेह से वह दे रहे थे कि मेरी आँखों में पानी भर आया. तो बोले, पीठ थपथपा कर, जल्दी से खालो. मुझे आम अधिक अच्छा नहीं लगता था फ़िर भी मैंने हाथ में लिया. तभी कश्पी, सूरज और दीपक तीनो आ गये, बोले कि यह तो बहुत ज्यादती है कि तुम दोनो सब आम खाओगी और हम देखते रहेंगे. मैंने मलाडा से कहा कि तुम ले लो और बाकी उन्हें दे दो और अपने हाथ वाला आम भी उन्हें दे दिया. मलाडा ने मेरी शिकायत लोहिया से की तो वह बहुत नाराज़ हुए कि मैंने तुम्हें बाँटने को नहीं दिये थे. मैंने माफ़ी माँग ली तो खिलखिला कर हँस पड़े. साथ ही कहा कि बहादुर तो तुम हो लेकिन समझदार नहीं हो...

..जब नेहरू की सरकार बनी तो लेजेस्लेटिव असेम्बली में संसद भवन में काम करना शुरु किया. तब सिद्धवा, दादा धर्माधिकारी, शाहनवाज़, पूर्णिमा बैनर्जी, मदनमोहन चतुर्वेदी आदि से पहचान हुई. मौलाना आज़ाद तब शिक्षा मंत्री थे, मसूद उनका पी.ए. था, मुझे उनके साथ काम मिलता. काम बहुत था और देर तक रुकना पड़ता था. मैं साईकल से आती जाती थी, रात को लौटती तो बिल्कुल सुनसान होता, रात के ग्यारह बारह भी बज जाते थे. वहाँ एक दक्षिण भारतीय अफसर था जिसने मुझे तंग करना शुरु कर दिया, उल्टी सीधी अटपट बातें करने लगा. तो मैं पंडित नेहरु के पास गयी जो मुझे मृदुला बहन के समय से जानते थे और मुझे बहादुर बेटी के नाम से पुकारते थे क्योंकि मैंने एक बार शान्ति दल में एक मुसलमान लड़की को भीड़ से बचाया था. तब मैं कभी भी तीन मूर्ती भवन के अंदर आ जा सकती थी.

मैंने पंडित जी को कहा कि मुझे असेम्बली से घर जाने में बहुत देर हो जाती है और अकेले घर जाने में डर लगता है. तो वह बोले तुम बहादुर लड़की हो, डर कैसा. मैंने कहा कि मुझे दरियागंज में नयी खुली टीचर्स इंस्टिट्यूट में भेज दीजिये, अभी तो ट्रेनिंग शुरु हुए दो महीने ही हुए हैं, मैं वह पूरा कर लूँगी. मौलाना आज़ाद के पी.ए. मसूद साहब मुझे फार्म दे गये, बस मैं संसद का काम छोड़ कर बेसिक टीचर्स ट्रैंनिग में चली गयी, जहाँ तीस रुपये महीने का वज़ीफ़ा मिलता था. एक साल बाद ट्रेनिंग पूरी हुई, मुझे दिल्ली के नवादा गाँव के स्कूल में नौकरी मिल गयी...

कितनी बातें जीवन की, कुछ भी नहीं रहता. बस यही लिखे कागज़ बचे हैं और यादें.

गुरुवार, जनवरी 21, 2010

मनप्रिय लेखक

क्रोएशिया की लेखिका मिलाना रुँजिच का एक लेख पढ़ रहा था. उन्हें किसी पाठक ने लिखा था कि उसे मिलाना का लेखन पढ़ कर उससे प्यार होने लगा था. मिलाना ने उत्तर में लिखा, "मेरे विचार में मुझे ऐसे पुरुष से प्यार होने में कोई दिक्कत नहीं होगी जो मेरे लिखे हुए को पढ़ कर मुझसे प्रेम करने लगा हो. सचमुच कहूँ तो मुझे लगता है कि तुम्हारा पत्र पढ़ कर मुझे भी तुमसे कुछ कुछ प्रेम सा हो ही गया है. मुझे हमेशा ही वह पुरुष अच्छे लगे हैं जो मेरी किताबों को पढ़ते हों. अगर उन्हें मेरा लिखा अच्छा लगता है तो इसका मतलब है कि उन्हें मैं भी अच्छी लगती हूँ क्योंकि मेरे लेखन में भी तो मैं ही होती हूँ. अगर कोई पुरुष कहे कि उसे मेरी कविताएँ अच्छी लगीं तो उसका मुझ पर और भी अधिक असर होता है. और अगर किसी को मेरे लेख भी अच्छे लगते हैं तो मैं उससे तुरंत विवाह करने को तैयार हूँ."

यानि लेखक भी सभी मानवों की तरह, अपने को चाहने वाले और पसंद करने वालों की तलाश में रहता है. पर किताब पढ़ कर लेखक की एक छवि मन में बना लेना और उसके प्रेम के सपने देखना या फ़िल्म देख कर अभिनेता या अभिनेत्री के सपने देखना, शायद यह कम उम्र में ही संभव होता है. सचमुच के जीवन में कितनी बार पाया कि जो लेखक या अभिनेता, किताब में या पर्दे पर इतना भाता है, सामान्य जीवन में सामान्य ही होता है, किसी बात में अच्छा लगता है और किसी बात में बिल्कुल अच्छा नहीं लगता.

कभी कभी ऐसा भी हुआ है कि किताबों कहानियों में बहुत अच्छा लगने वाले लेखक से जब मिलने का मौका मिला तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा. तब दुख भी होता है कि क्यों ऐसे व्यक्ति से मिला और बाद में उसकी लिखी किताब या कहानियाँ भी पढ़ने का मन नहीं करता.

अधिक प्रसिद्ध होने वाले व्यक्तियों से यह खतरा कुछ अधिक है, क्योंकि प्रसिद्ध के साथ साथ उनके सामान्य आचरण में निरंकुषता सी आ सकती है.

***

हिंदी की पत्रिका हँस को नियमित पढ़ते जाने कितने साल हो गये. पत्रिका का मेरा सबसे प्रिय हिस्सा है "मेरी तेरी उसकी बात", नयी पत्रिका आये तो सबसे पहले उसी को पढ़ता हूँ, कई बार दोबारा भी पढ़ता हूँ.

"मेरी तेरी उसकी बात" हँस के संपादक श्री राजेंद्र यादव लिखते हैं. जनवरी 2010 का हँस का नया अंक आया तो भी सबसे पहले इसी को पढ़ा. इस बार यादव जी ने "धर्मयुग" के संपादक श्री धर्मवीर भारती की पत्नी श्रीमति पुष्पा भारती से होने वाले झगड़े की बात की है. पुष्पा जी ने यादव जी की पत्नी मन्नू भँडारी से कहा कि वह अपनी पुस्तक में भारती जी बारे में लिखी किसी बात को हटा दें, क्योंकि वह गलत है. यादव जी अपने संपादकीय में अपनी पत्नी और पुष्पा जी बीच होने वाले इसी झगड़े की बात का विस्तार से सारा इतिहास बताते हैं. आरोप है भारती जी के सत्ता में होने वाले लोगों की चापलूसी का, इमरजैंसी के दौरान चुप्पी का और पहले इंदिरा-संजय वंदना का, फ़िर सत्ता पलटने पर अटल बिहारी वाजपेयी वंदना का.

आलेख को बहुत मज़े ले कर पढ़ा. किसी की बुराई हो रही हो तो चटकारे ले कर पढ़ना, मसालेदार चाट खाने से कम नहीं. आलेख में यादव जी और मन्नू भँडारी जी हैं कहानी के नायक, साथ में कुछ अन्य लोग हैं जैसे कि पंकज विष्ट. यह नायक लोग अपने आदर्शों पर बने रहे, सत्ताधारियों के आगे नहीं झुके, उनके पैसे और पुरस्कार ठुकरा दिये. दूसरी ओर सत्ता के सामने झुकने वाले, समझौता करने वालों कमज़ोर लोग हैं जिनके सरताज थे धर्मवीर भारती. इस झुकने समझौता करने वालों की लिस्ट में और भी बहुत से नाम हैं. साथ में अपने आदर्शों पर डटने के कुछ गवाहों के नाम भी हैं.

अधिक मसालेदार चाट खायी हो तो बाद में पेट में दर्द भी उठ सकता है, कुछ ऐसा ही लगा आलेख पढ़ कर.

यादव जी की लिस्ट में रघुवीर सहाय और अनीता औलक के भी नाम हैं. अनीता जी का ज़िक्र तो कुछ दिन पहले ही किया था जब मोहन राकेश जी के बारे में लिखा था. सोचा कि मोहन राकेश की मृत्यु तो 1972 में हुई थी फ़िर अनीता जी को क्यों इमरजेंसी के चक्कर में खींचा गया जिससे उन्हें सत्ता से समझौता करना पड़ा?

रघुवीर सहाय जी को बहुत सालों तक पिता के मित्र के रुप में जाना था, उनका नाम देख कर मन में अन्य बातें उठीं, अगर 1978 में इमरजैंसी के दौरान मेरे पिता जीवत होते तो क्या वह भी सत्ता से समझौता कर लेते? समझौता क्या होता है और क्यों करते हैं? आदर्शों को बना कर रखना इतना कठिन क्यों होता है? कौन करते हैं समझौता?

आलेख में धर्मवीर भारती की तो इतनी धूँआदार धुलाई की गयी है कि उनकी आत्मा छुपने की जगह खोज रही होगी. बची खुची कसर निकाली है तीस साल पहले "माया" पत्रिका में छपे आलेखों से, जिनमें भारती जी के बारे में अन्य विवरण हैं. इन सब पुराने आलेखों को हँस में दोबारा से छापा गया है. ऐसा सबूत सहित जूता मारा है कि दोबारा सिर उठाने की कोशिश ही न करें.

कहते हैं तिब्बत में कोई मरता है तो उसके शरीर को काट कर चील गिद्धों को खिलाते हैं, भारती जी का वही क्रिया कर्म हो गया लगता है. हँस के अगले अंक में यादव जी की बहादुरी की सराहना करने वाले बहुत से पत्रों को पढ़ने का इंतज़ार रहेगा. शायद आलेख की अगली किश्त भी छपे, जिसमें अन्य बातें जानने को मिलेंगी. और चाट खायेंगे, और पेट दुखेगा.

क्या करते बेचारे यादव जी, उनका कुछ दोष नहीं, पुष्पा भारती की धमकी का उत्तर तो देना ही था.

रविवार, जनवरी 10, 2010

मोहन राकेश

अंग्रेज़ी की अखबार हिंदुस्तान टाईमस में मोहन राकेश जी के बारे में छोटा से लेख देखा तो उन दिनों की याद आ गयी जब वह दिल्ली के राजेंद्र नगर के आर ब्लाक में रहते थे. तालकटोरा बाग से शंकर रोड की तरफ़ आईये तो जहाँ राजंद्र नगर प्रारम्भ होता है वहाँ बायें कोने पर पम्पोश की दुकान थी जिसकी वजह से उस सारी जगह को पम्पोश ही कहते थे. पम्पोश से आने वाली सड़क जहां आर ब्लाक के बड़े बाग से मिलती, वहीं बायें कोने वाले तीन मज़िला घर में बरसाती पर रहते थे.

उनके घर से थोड़ी दूर पर ही जंगल के सामने वाली सड़क पर मेरी बुआ का घर था. 1966-67 के आस पास ही बुआ के यहाँ छुट्टियों में गया था जब दीदी के साथ मोहन जी के घर जाने का एक दो बार मौका मिला था. तब तक उनकी कुछ कहानियाँ नाटक पढ़े थे, लेकिन इतनी समझ नहीं थी कि वह कितने बड़े लेखक हैं. मैं तब बारह या तेरह साल का था पर जब उन्हें पहली बार देखा था उसके बारे में सोचूँ तो सबसे पहली बात जो मन में आती है वह उनका कद छोटा होने की है. उनकी पत्नी अनीता, जो उम्र में उनसे बहुत छोटी लगती थीं, उनसे थोड़ी ऊँची थी. दूसरी बात याद आती है उनकी गूँजती आवाज़ में पँजाबी भाषा का पुट. तीसरी बात याद है उनका छोटा और मोटा सा सिगार पीना.

तब उनकी बेटी पुरुवा का मुँडन हुआ था और उसके बारे में सोचूं तो उसके गँजे सिर पर हाथ फ़ैरना याद आता है. दीदी, अनीता जी और मोहन जी में क्या बातें हुईं, यह सब कुछ याद नहीं क्योंकि तब अपना ध्यान खेलने की ओर अधिक होता था. हां उनके कमरे के बीच में रखी गोल नीची मेज़ याद है जिसके आसपास ज़मीन पर बैठ कर कुछ खाया था.

जब उनकी मृत्यु का सुना था तो मुझे अनीता जी और उनकी बेटी पुरुवा का ही ध्यान आया था. अनीता जी से पहले वह अन्य विवाह कर चुके थे और शायद अनीता जी उनकी धरौहर की कानूनी मालिक नहीं थीं. बच्चे छोटे हों और अचानक पिता न रहे का क्या अर्थ होता है, इसका अपना अनुभव मुझे कुछ वर्ष बाद हुआ था जब मेरे पिता भी कम उम्र में अचानक गुज़र गये थे.

पर समय सब कुछ भुला देता है. अनीता जी कहाँ गयीं, उनकी बेटी का क्या हुआ, यह कुछ भी मुझे मालूम नहीं शायद दीदी को मालूम हो.

शनिवार, जनवरी 02, 2010

टाँग कहाँ, हाथ कहाँ?

जब से फोटोशोप जैसे प्रोग्राम बने है, मानव शरीर को तोड़ने या जोड़ने के नये अवसर मिलने लगे हैं, जिनसे डा. फ्रेंकेस्टाईन की कहानियों की याद आ जाती है. फोटोशोप डिज़ास्टर के चिट्ठे पर उन तस्वीरों को जगह मिलती है जिनमें शरीर के अंगों को तोड़ने जोड़ने का काम कुछ विषेश सफ़ाई से किया जाता है. इस चिट्ठे से कुछ ऐसी तस्वीरों के नमूने प्रस्तुत हैं जिनमें शरीर के अंगो को तोड़ने जोड़ने में प्लास्टिक सर्जरी बहुत बढ़िया की गयी है.

इस पहली तस्वीर में देखिये और सोचिये कि इस बालिका की बायीं टांग कहाँ गयी? शायद उसे बिल्ली ले गयी?


इस दूसरी तस्वीर वाली कन्या के शरीर के ऊपरी हिस्से के वस्त्र चुरा लिये गये हैं लेकिन शायद वस्त्र उतारते समय शरीर के कुछ भाग भी साथ ही चोरी हो गये थे या शायद, यह कन्या असल में कन्या का पति है?


इस तीसरी कन्या के बायें हाथ में गलती से शायद उसका पैर लगा दिया गया था?


कितनी ज़ालिम है यह माँ जिसने अपनी बड़ी बेटी को टब और दीवार के बीच में दबा कर उसकी टाँगें ही काट दीं.


इन अगले साहब की तस्वीर वैसे तो बहुत बढ़िया है लेकिन कार के दरवाज़े का हैंडल अगर किसी अन्य जगह होता तो शायद बेहतर नहीं होता?


आप सब को नववर्ष की शुभकामनाएँ.

शनिवार, दिसंबर 19, 2009

अनोखी झाँकियाँ

इस सप्ताह में तीन बार बर्फ़ गिरी. कल रात से लगातार गिर रही है, खिड़की की सिल पर करीब बीस सैंटीमीटर बर्फ जमी है. लोग कह रहे हैं कि शायद इस साल श्वेत क्रिसमस की बात बने, श्वेत क्रिसमस यानि बर्फ़ से ढका क्रिसमस.

जैसे सुनहरे बालों नीली आँखों वाले गोरे चिट्टे जीसस की मूर्ती को देख कर कुछ अज़ीब सा लगता है वैसे ही क्रिसमस के बर्फ़ से ढके होने की बात पर भी कुछ अज़ीब सा लगता है. जेरुसल्म में जहाँ येसू पैदा हुए थे, वहाँ शायद न तो ऐसे लोग होते थे और न ही बर्फ़ गिरती थी. लेकिन अपने भगवान के रूप रंग बदलना यह केवल यूरोप में नहीं होता. अपने राम और कृष्ण भी, अब बस किताबों कविताओं में ही श्याम वर्ण के होते हैं, कैलेण्डरों मूर्तियों में तो आज कल वे भी गोरे चिट्टे ही बिकते हैं.

जेरुसल्म जो कि येसूभूमि कही जा सकती है, फ़िलिस्तीनियों से बचने का बहाना करके खुद ही ऊँची दीवार के घेरे में कैद है. इस दीवार के कैदखाने पर क्रिसमस के शाँती संदेश लगाने से क्या कैदखाने बदल जाते हैं?
Christmas float (Presepe), Bologna, Italy


खैर गम्भीर बातें छोड़ें, आज आप का परिचय करायें क्रिसमस के मौके पर इटली की झाँकी बनाने की परम्परा से, कुछ तस्वीरों के माध्यम से. कुछ तस्वीरें ज़रा सी शरारती हैं, आशा है कि आप बुरा नहीं मानेंगे.

जब मैं छोटा था तो मुझे याद है कि दिल्ली में कृष्णाष्टमी पर लोग घरों के सामने झाँकिया बनाते थे, जिसमें कृष्ण के जीवन के सभी प्रमुख क्षणों को दिखाया जाता था. एक तरफ़ नदी में बहता पानी और उसमें टोकरी में नन्हें कृष्ण को ले कर वासुदेव, पीछे जेल के खुले द्वार और सोते हुए प्रहरी, कहीं कृष्ण कालिया नाग के सर पर नाचते, कहीं गोपियों को बाँसुरी सुनाते.

कुछ कुछ वैसा ही होता है यहाँ क्रिसमस पर, जब बाल येसू की जन्मकथा को मूर्तियों के द्वारा दिखलाया जाता है. बहुत से लोग अपने घरों में छोटी छोटी झाँकिया बनाते हैं. शहर के क्रेंद्र में या किसी गिरजाघर में बड़ी भव्य झाँकियाँ भी बनती हैं, कभी कभी वह मशीनों से चलती भी हैं और उन्हें देखने दूर दूर से लोग आते हैं. इन झाँकियों को प्रेज़ेपे कहते हैं. इस पहली तस्वीर में आप इसी तरह की एक झाँकी को देख सकते हैं.
Christmas float (Presepe), Bologna, Italy


कभी विषेश जीवित झाँकियाँ भी बनायी जाती हैं, जिसमें लोग तैयार हो कर कथा के पात्र बन जाते हैं. दूसरी तस्वीर में एक जीवित झाँकी है.
Christmas float (Presepe), Italy


तीसरे नम्बर एक अन्य प्रसिद्ध जीवित झाँकी है जो कि हमारे शहर बोलोनिया के पूर्व में सागर के किनारे बसे शहर में पानी में तैरती नावों पर बनायी जाती है.
Christmas float (Presepe), Italy


इटली के नेपल्स शहर में झाँकियों में जाने माने लोग या घटनाओं की मूर्तियाँ लगाने का विषेश चलन है. अगली तस्वीर में आप नेपल्स के प्रसिद्ध मूर्तिकार मारको फैरान्यो को देख सकते हैं जो कि सुश्री दाद्दारियो की मूर्ति बना रहे हैं जिन्होंने यह बता कर कि पैसे के लिए वह प्रधानमंत्री के साथ रात बितायी थी, कुछ दिन प्रसिद्ध पायी थी.


इन मूर्तियों में टीवी तथा फ़िल्मों के प्रसिद्ध कलाकारों को भी जगह मिलती है. अगली तस्वीर में यहाँ के एक रियेल्टी शो में अपने बड़े वक्ष के लिए प्रसिद्ध पाने वाली सुश्री क्रिसतीना देल बास्सो को देख सकते हैं.


दुनिया के जाने माने राज नेताओं को भी इन झाँकियों में जगह मिलती है. अगली झाँकी में है ओबामा और उनकी पत्नी.


अगर कोई बड़ी बीमारी फ़ैले तो क्रिसमस की झाँकियों को उनकी खबर तो होनी चाहिये, शायद यही सोच कर अगली झाँकी में स्वाइन फ्लू के असर को देख सकते हैं.


इटली के प्रधानमंत्री श्री बरलुस्कोनी, अपने समाचारों की चर्चा की वजह से झाँकियों में बहुत जगह पाते हैं. अगली तस्वीर में वह उस नाबालिग युवती के साथ हैं जिनसे उनके सम्बंध बताये जाते थे. कुछ दिन पहले किसी ने उनके मुँह पर कुछ मार दिया और उनकी नाक से खून बहने लगा, तुरंत अगले ही दिन, झाँकियों की मूर्तियों की दुकानों पर उनकी बहते खून वाली मूर्ति बिकने लगी थी.


इस वर्ष माइकल जेक्सन का भी देहांत हुआ, उनके चाहने वालों के लिए इस वर्ष बाज़ार में उनकी मूर्ति भी है.


अंत में क्रिसमस की झाँकियों की दो विषेश तस्वीरें जो कि स्पेन में बनती हैं, जहाँ कातालोनिया प्रांत में इन्हे शुभ माना जाना है, कहते हैं इस तरह की मूर्तियों को अपनी झाँकी में लगाने से आने वाले वर्ष में आप को सम्पत्ति मिलती है. इनको कहते हें, "कान्येर" या "कागनेर", यानि "पाखाना करते", जिनमें बड़े प्रसिद्ध लोगों को विषेश मुद्रा में बनाया जाता है.

नये वर्ष में आप की किस्मत बढ़िया हो, सम्पत्ति मिले आदि इसके लिए यूरोप में अन्य भी कई तरह के विश्वास हैं जैसे कि स्पेन में कहते हैं कि नव वर्ष की पूर्व सध्या पर लाल वस्त्र पहनो और किशमिश के बारह दाने खाओ, फ्राँस में कहते हैं कि तेरह तरह की मिठाईयाँ खाईये, स्कोटलैंड वाले कहते हैं कि प्रेमी या प्रेयसी का ठीक रात को बारह बजे चुम्बन लीजिये और "ओल्ड लांग साइन" का लोकगीत गाईये, जर्मनी में कहा जाता है कि चम्मच में पानी और सीसे को साथ गर्म करके मिलाईये.

आप नये वर्ष में सौभाग्य के लिए किसका अनुसरण करना चाहेंगे? और अगर आप को मौका मिले कि आप झाँकी में भारत के किसी व्यक्ति की या किसी विषेश घटना की मूर्ती जोड़िये, तो आप किसकी मूर्ती जोड़ना चाहेंगे, और क्यों?

गुरुवार, दिसंबर 17, 2009

शीबा को गुस्सा क्यों आता है?

"हँस" का नवंबर अंक स्त्री विषशांक था, इसमें शीबा असलम फाहमी का लेख "... खाने के और, दिखाने के और" पढ़ा. शीबा जी दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में डोक्टरेट के लिए शौध कर रहीं हैं और मुसलमान समाज या इस्लाम धर्म से जुड़े उनके लेख कई बार "हँस" पर पढ़े हैं. उनके किसी लेख के बारे में कुछ लिखा भी था, जिस पर उनसे ईमेल से कुछ बात भी हुई.

पिछले माह दो तीन दिन के लिए दिल्ली में था, तभी सैंट स्टीफन कोलिज में "भारत में धर्म, राजनीति और लैंगिकता" विषय पर सेमीनार में शीबा जी को देखा, उन्हें सुनने का मौका भी मिला और कुछ बातचीत भी हुई.

उन्होंने पूछा कि क्या मैंने उनका "हँस" के नवंबर अंक वाला लेख पढ़ा या नहीं और कैसा लगा? मैंने कहा कि अभी नहीं पढ़ा, क्योंकि पत्रिका इटली आने में कुछ देर लगाती है और मेरे घर से यात्रा के लिए चलने तक नवंबर अंक नहीं पहुँचा था. इसलिए उनसे वायदा किया कि जब पढ़ूँगा तो उसके बारे में अपनी राय अवश्य दूँगा.

भारत से घर वापस लौटे दस दिन हो गये, तो उनका एक अन्य संदेश मिला कि लेख पढ़ा या नहीं? तो रात को सोने से पहले, सोचा कि लेख को पढ़ने की कोशिश की जाये. पढ़ा तो नींद छू मंतर हो गयी, बहुत देर तक सोचता रहा, शीबा जी के गुस्से के बारे में.

***
शीबा जी ने बात उठायी है धर्मग्रंथ में लिखे आदर्शों की और समाज में होने वाली असलियत की, और मुसलमान औरतों के लिए इन दोनो की बीच की दूरी की. एक तरफ़ कुरान शरीफ़ में बाते हैं नारी की बराबरी की, उसके अधिकारों की, उसकी अस्मिता की, दूसरी ओर है मुसलमान समाज में नारी की हकीकत. उन्होंने मुसलमान समाज के बारे में छपने वाली किताबों का अध्ययन किया है, जिनमें नारी के लिए क्या जायज़ है और क्या नाजायज़ बताया गया है. इन किताबों में नारी को क्या सलाह दी जाती है, उसके बारे में उन्होंने लिखा हैः

एक अल्लाह-एक इस्लाम के नारे के नीचे यह नीच साहित्य औरत को न सिर्फ कामपिपासू बताता है बल्कि, शिकार करने वाली, चुग़लखोर, ग़ीबत (परनिंदा) करने वाली, झगड़ालू, पैसे की भूखी, काहिल, बहानेबाज़, और खानदान परिवार तोड़ने वाली भी बताता है और "यही वजह है कि औरतें जन्नत में कम होंगी". ... जन्नत के "आठों दरवाज़ों" से दाखिल होने का रास्ता शौहर को ख़ुश रखना, उसकी इज़्ज़त रखना भर है. शौहर की मर्ज़ी के बगैर नफली नमाज़ रोज़ा भी न करे औरत. शौहर को "मना" करने वाली पर फ़रिश्ते लानत भेजते हैं आदि आदि. इसमें सब्र, कनात, ज़ब्त, ख़ामोशी, घर से बाहर न निकलना, मायके में शिकायत न करना, शौहर से अपना कोई काम न लेना, माँ बाप से ज़्यादा बड़ा दर्जा शौहर को. ... दूसरी औरतों के साथ भी सफ़र नहीं. रेल के ज़नाना डिब्बे में भी नहीं. कुछ घंटों का हवाई जहाज़ का तन्हा सफ़र भी जायज़ नहीं. दिर्फ़ शरई सफ़र करो. घर में रहो. पर्दे की पाबंदी इसी में है. घर में आने वाली औरतों से भी बेवजह न बोलो बतियाओ. घरों के झरोखे खिड़कियाँ बंद रखो. ... औरत को नेकी करने और शौहर को "ख़ाविंद", "हाकिम" समझने से जिस जन्नत के आठों दरवाज़े खुलेंगे वहां उनके मर्द कुंवारी हूरों के साथ होंगे. यह नेक बीबियाँ करेंगी क्या यह नहीं मालूम.

उनका कहना है कि कुरान शरीफ़ में औरत की बराबरी और अधिकारों की बात करने वाले, अपने समाज की इस असलियत को नहीं बदलना चाहते. मर्द नहीं बदलना चाहते क्योंकि उनका इसी में फ़ायदा है, और शायद औरतों के मन में यही बात बिठा दी गयी हैः

मुसलमान औरत खुद को कमज़ोर चरित्र, चरित्रहीन, बहु पुरुष गामिनी, कामपिपासु और निरंतर अवसर की तलाश में रहने वाली अपराधी मान ले इसके लिए इन मुल्लों ने इतने कागज़ काले किये हैं कि एक पूरा प्रकाशक वर्ग इस प्रकार के साहित्य से रोज़ी कमा रहा है. लेकिन मेरे लिए यह एक छोटी मक्कारी है क्योंकि बड़ी मक्कारी यह है कि इन्हीं गुणों को मुल्ला वर्ग "मर्द की कुदरती प्रवृति" की संज्ञा दे कर उसमें "सुधार" नहीं बल्कि उसको "आत्मसात कर" जीने के तरीके और रणनीति भी मुसलमान औरत को सिखाता है.

जहाँ वह एक तरफ़ रूढ़िवादि मुल्ला की ओर उँगली उठाती हैं, दूसरी ओर मुस्लिम मीडिया और मुसलमान समाज के "प्रोगेसिव एक्टिविस्ट" कहलाने वाले लोगों की बात भी करती हैं:

"घर" पर बीवी और दिल्ली में गर्लफ्रेंड (रखेल) और पावरफुल माईबाप के आगे बैचलर बने इस मुसलिम एक्टिविस्ट, उर्दू एक्टिविस्ट, जर्नलिस्ट, राइटर आदि आदि की बहस यूं तो अल्लामा इकबाल से सीधे मार्क्स-नीत्शे-देरीदा पर गिरती है लेकिन मुसलमान औरत के चरित्रहनन और इस्लाम के नाम पर पनपाए जा रहे घोर स्त्री विरोधी समाजी रुझान पर वह कभी मुंह खोल ही नहीं सकता. बल्कि वह तो इस पर बहस आमादा होगा कि मीडिया ने ही मुसलमान समाज को "स्टीरियोटाइप" कर डाला है. इस मुद्दे पर बहस, सेमीनार, वर्कशाप, सिम्पोज़ियम आदि संस्थागत खर्चे से करेगा ... मुसलमान और उर्दू तुष्टीकरण के इस आत्मकेंद्रित खेल में मुसलमान महिलाएं बहुत कम हैं. उनका रास्ता कठिन है और विश्वविद्यालय के उर्दू विभागों के इज़्ज़तदार रास्ते से ही वे अपनी मंज़िल तक पहुँच सकती हैं. वहां भी अपने (उर्दू विभाग के) मर्दों का शिकार हो कर वामपंथी शिक्षक गुट में सुरक्षा तलाशती घूमती हैं.

***
शीबा के शब्दों में क्रोध भी है, कड़वाहट भी. इसके उत्तर में क्या कहा जायेगा उसे समझने के लिए किसी विषेश कल्पना शक्ति की आवश्यकता नहीं. "वह तो छिछरी, चरित्रहीन, किस्म की एम्बीशय औरत हैं, आगे आना चाहती है, नयी तस्लीमा बनना चाहती है, यूँ ही उछाल रही हैं" जैसी बातें कही जायेंगी, विषेशकर उन एक्टिविस्ट किस्म के लोगों के द्वारा. कुछ शुभचिंतक कहेंगे, कि बात तो तुम्हारी ठीक है पर इस तरह घर की गंदगी को दूसरों के सामने बाज़ार में धोना गलत बात है, इसको हमें आपस में भीतर से बदलना की कोशिश करनी चाहिये.

दुखती रग पर हाथ रख कर, "राजा के बढ़िया वस्त्र नहीं, राजा तो नंगा है" की बात कहने वाले को ही दोषी समझा जाता है, उसे ही मारने डराने की धमकी देते हैं. ढ़क कर रखो, देख कर भी न देखो, यही नियम है शांति से जीने का.

शीबा अपने समाज की बात कर रहीं हैं, पर बाकी धर्मों वाले भी खेल तो वहीं खेलते हैं. बुर्का पहनाने की ज़िद नहीं करते लेकिन सिर ढ़को, गैर मर्द से बात न करो, जीन्स न पहनो, शर्म नारी का गहना है, पति परमेश्वर है और भारतीय सभ्यता और संस्कृति यही चाहती है, जैसी बातें भारत के किस समाज में नहीं करते? फर्क इतना है कि बाकी समाजों में शायद इस बारे में बोलने वाले कुछ अधिक हो रहे हैं, भारत के मुसलमान समाज में इस तरह की खुली बात कहने वाले कम हैं!

मंगलवार, दिसंबर 15, 2009

हिंदी, अवधी, मैथिली ... ओचितानो

नियती टेढ़े मेढ़े रास्तों से जाने कब किससे मिला देती है. ईमेल, ईंटरनेट आदि के आविष्कार से, नियती को टेढ़े मेढ़े बैलगाड़ी वाले रास्तों की जगह नये हाईवे मिल गये हैं .

कुर्बान अली से मेरी मुलाकात ईमेल के द्वारा हुई थी. स्वत्रंता संग्राम में नेता सुभाष चंद्र बोस के साथी, और बाद में समाजवादी पार्टी के डा. लोहिया जी के साथ जुड़े श्री अब्बास अली के पुत्र कुर्बान अली दिल्ली में पत्रकार हैं. कुर्बान की ईमेल के ही माध्यम से मेरी मुलाकात प्रोफेसर सत्यामित्र दुबे से हुई.

डा. राम मनोहर लोहिया पर लिखा प्रोफेसर दुबे का आलेख पढ़ा तो मैंने उन्हें ईमेल लिखा, उत्तर में उन्होंने बताया कि वह मेरे पिता को जानते थे, 1950 के दशक में वह मेरे पिता के साथ लखनऊ में समाजवादी पार्टी के अखबार "संघर्ष" के दफ्तर में साथ रहते थे. अरे, तभी तो मैं पैदा हुआ था, मैंने उन्हे लिखा. हाँ, मुझे याद है, उन्होंने उन दिनों के बारे में बताया. यह था नियती का खेल, पचपन सालों के बाद इस तरह हमें मिलवाना.

प्रफेसर दुबे के आलेख के साथ साथ, नवंबर 2009 के "इकोनोमिक और पोलिटकल वीकली" पर छपे डा. लोहिया के बारे में दो अन्य आलेख भी पढ़ने को मिले. यह आलेख लिखे हैं सुधँवा देशपाँडे तथा योगेंद्र यादव ने, और इनका विषय है डा. लोहिया का हिंदी को भारत राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन. देशपाँडे जी का आलेख यादव जी के किसी आलेख के उत्तर में लिखा गया है, और यादव जी ने देशपाँडे की टिप्पणियों का उत्तर दिया है. इस बहस का विषय है भाषा के मामले में समाजवादी लोहिया की और वामपंथी विचारकों की सोचों में अंतर.

1950 तथा 1960 के दशकों में होने वाले "हिंदी लाओ" और "अँग्रेजी हटाओ" आंदलनों में अधिकतर सोच अँग्रेजी, हिंदी और दक्षिण भारतीय भाषाओं के बारे में थी. शायद हिंदी से अधिक मिलने वाली भाषाओं जैसे गुजराती, मराठी, बँगाली पर उतना विचार नहीं किया गया था? शायद इस बात पर अधिक विचार नहीं किया गया था कि "हिंदी लाने" का उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषाओं, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, आदि पर क्या असर होगा? इस बहस में लोहिया पर आरोप लगाया गया है कि उनकी सोच में अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में वही उपनिवेशवाद था जिसका आरोप अँग्रेज़ी पर लगाया जाता है, यानि नये बने देश भारत को एक बनाने के लिए अलग अलग भाषाओं की भिन्नता का बलिदान कर दिया जाये.

हिंदी या अंग्रेजी, कौन सी भाषा हो, इस विषय पर मैंने कुछ माह पूर्व ही, "अपनी भाषा" के शीर्षक से लिखी पोस्ट पर भी लिखा था.

***
इटली के विभिन्न प्राँतों में अलग अलग बोलियाँ बोली जाती हैं, और साथ ही एक राष्ट्रभाषा है इतालवी जो इटली के तोस्काना प्राँत की बोली थी और जिसे पूरे देश की भाषा बनाने का निर्णय लिया गया था. हम लोग पिछले दस सालों से बोलोनिया शहर में रहते हैं पर यहाँ की स्थानीय बोलोनियेज़ बोली मुझे समझ नहीं आती, हाँ अपनी पत्नी के उत्तरी इटली के प्राँत वेनेतो की बोली मुझे बोलनी तथा समझनी आती है.

बोलोनिया से बीस किलोमीटर दूर, ईमोला शहर है, जहाँ के लोग कहते हैं कि उनकी बोली बोलोनिया की बोली से भिन्न है. बोलोनिया में आने से पहले, दस साल तक हम लोग ईमोला भी रहे थे, पर मुझे उनकी ईमोला बोली भी समझ नहीं आती, और न ही मैं ईमोला तथा बोलोनिया की भाषा के अंतर को समझ पाता हूँ, मेरे कच्चे कानों को दोनों एक जैसी ही लगती हैं.

बोलोनिया और ईमोला, दोनो शहरों में अपनी स्थानीय बोलियों में किताबें छपती हैं, कवि सम्मेलन होते हैं, नाटक होते हैं, अपनी टीवी चेनल है जो स्थानीय भाषा में समाचार आदि देती है. लेकिन, विद्यालय या विश्वविद्यालय स्तर पर इन स्थानीय भाषाओं में कुछ नहीं पढ़ाया जाता, किसी सरकारी काम में इनका प्रयोग नहीं होता. अगर पिछले बीस सालों के बारे में सोचूँ तो मेरे विचार में इन स्थानीय भाषाओं को बोलने वाले कम होते जा रहे हैं, आज के कुछ बच्चे इन भाषाओं को समझते हैं क्योंकि उनके नाना‍ नानी या दादा दादी इन भाषाओं को घर में बोलते हैं, लेकिन वह स्वयं इन भाषाओं में बात नहीं करते. शायद गाँवों में रहने वाले बच्चे इन भाषओं को अधिक जानते हों? हाँ शहर में इन भाषाओं में बोलना अधिकाँश पिछड़ापन समझा जाता है.

एक तरफ़ से लोग चिंता कर रहे हैं कि इतालवी भाषा में अँग्रेज़ी के शब्द बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर, प्राथमिक विद्यालयों ने भी पहली कक्षा से ही अँग्रेज़ी पढ़ाने का निणर्य लिया है इसलिए नयी पीढ़ी के लोग अधिक अंग्रेज़ी जानते हैं और इंटरनेट के माध्यम से दुनिया से बात करने में सक्षम भी हैं. अखबारों में नौकरी के विज्ञापन अक्सर अँग्रेज़ी भाषा को जानने को महत्व देते हैं. साथ ही लोग घर में बोली जाने वाली बोली को कैसे बचायें, यह भी बहस चलती रहती है.

कुछ महीने पहले मेरा सम्पर्क श्री क्लाऊदियो सल्वान्यो (Claudio Salvagno) से हुआ. उन्होंने कहा कि वह ओचितानो (Ocitano) भाषा में कविता लिखते हैं और अपनी कुछ कविताओं को हिंदी में अनुवाद करके किताब में छपवाना चाहते हैं.

"ओचितानो", यह कौन सी भाषा है? मैंने तो इसका नाम भी नहीं सुना था. तब मालूम चला कि यह भाषा उत्तरी इटली और दक्षिण फ्राँस के पहाड़ी भाग में बोली जाती थी. क्लाउदियो का कहना था हिंदी, इतालवी और ओचितानो में छपी इस पुस्तिका की केवल 30 प्रतियाँ छापी जायेंगी, हर पुस्तिका में वहाँ के स्थानीय कलाकार की एक पेंटिंग होगी और हर पुस्तिका की कीमत होगी 250 यूरो, यानि करीब पंद्रह हज़ार रुपये, और इस पुस्तिका की बिक्री से प्राप्त धन को भारत में एक ग्रामीण स्त्री संश्क्तिकरण प्रोजेक्ट को दिया जायेगा.

मैं तुरंत मान गया. कविताओं का अनुवाद आसान नहीं था. जैसे कि क्लाउदियो ने मूल कविता में बर्फ के मुलायम फ़ोहों की तुलना एक इतालवी पकवान, आलुओं से बने मुलायम गोल पास्ता जिसे न्योक्की कहते हैं, से की थी, तो मैं कई दिन तक सोचता रहा था कि हिंदी में किस भारतीय पकवान से यह तुलना की जा सकती है, चावल के गोलों से, या गीले सत्तु से बनी गोलियों से? उनकी कविता में नाम इटली के पहाड़ों मे पायी जानी वाली चिड़िया का होता तो मुझे खोजना पड़ता कि यह चिड़िया क्या भारत में होती है और भारत में उसका क्या नाम होता है?

खैर, आखिरकार अनुवाद पूरा हुआ और मैंने हिंदी में लिखी फाईल क्लाउदियो को भेजी. पुस्तिका छपी तो उसे प्रस्तुत करने के लिए बड़ा समारोह आयोजित किया गया. पुस्तिका का शीर्षक है "शीत के चुम्बन" (Poton d'Unvern). हर पुस्तिका का आकार बहुत बड़ा था, कीमते बक्से में पैंटिंग के साथ बंद की गयी थी. खोल कर देखा तो दिल बैठ गया, छपाई में हिदीं की फाईल बदल गयी थी, और सभी मात्राएँ अपनी जगह से हट कर दूसरी जगह चली गयीं थीं, यानि "दिल" का "दलि", "बिना" का "बनिा".

इतनी मँहगी किताब, प्रसिद्ध कलाकारों की सुंदर कलाकृतियों से सजी, और सारी हिंदी गलत! सोचा कि क्लाउदियो को बताऊँ या नहीं, लेकिन अंत में निर्णय किया कि कुछ न कहना ही उचित होगा. क्लाउदियो के साथ हाथ में वह किताब लिये तस्वीर खिंचाते समय मुझे शर्म आ रही थी, लेकिन मैं कुछ नहीं बोला.


शायद एक दिन, कोई भारतीय मेहमान उस किताब को खोलेगा और कहेगा कि सारी हिंदी गलत लिखी गयी है, तो मेरा भाँडा फ़ूट जायेगा, लेकिन तब तक उन सब को गलतफहमी में छोड़ना ही मुझे उचित लगा.

***
डा. लोहिया के हिंदी तथा अन्य भाषाओं से जुड़ी बहस से ओचितानो भाषा में लिखी कविताओं की बात में क्या सम्बंध है, यह तो मुझे भी स्पष्ट समझ नहीं आया, पर लगता है कि दोनो बातें किसी तरह से जुड़ी हुई हैं.

आप का क्या विचार है, हमारी छोटी बड़ी भाषाओं के भविष्य के बारे में?

रविवार, दिसंबर 13, 2009

नये सुपर मानव

मेरी एक डाक्टर मित्र कियारा अफ्रीका में कोंगो में शल्य चिकित्सक यानि सर्जन का काम करती थी. 1992 में एक कार दुर्घटना में उसका दाँया हाथ बुरी तरह ज़ख्मी हुआ और अंत में उसे कोहनी से ऊपर से काटना पड़ा. बहुत महीनों तक कियारा अस्पतालों में चक्कर काटती रही, शुरु में बहुत हताश थी कि अफ्रीका में अपने काम करने का सपना अधूरा रह गया. फ़िर धीरे धीरे, कियारा ने बाँयें हाथ से लिखना सीखा. हमारे शहर बोलोनिया के पास छोटी सी जगह है बुद्रियो जहाँ कृत्रिम हाथ और पैर बनाने वाला एक ओर्थोपेडिक केंद्र है जो इस कार्य में अपनी तकनीकी दक्षता के लिए यूरोप में प्रसिद्ध है. कई बार मैं कियारा के साथ वहाँ गया.

प्रारम्भ में तो कियारा को एक कृत्रिम बाजू मिली, जिसे लगाने से, अगर गौर से न देखें तो पता नहीं चलता था कि कियारा का दाँया हाथ नहीं है, पर उस कृत्रिम हाथ से कियारा कुछ काम नहीं कर पाती थी. लेकिन फ़िर भी वह वापस कोंगो लौट गयी, जहाँ वह नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों को पढ़ाने के काम में लग गयी.

हर एक‍ दो सालों में जब भी कियारा वापस इटली आती है, बुद्रियो के ओर्थोपेडिक केंद्र में अपने कृत्रिम हाथ की जाँच कराने जाती है. समय के साथ उसका कृत्रिम हाथ भी बदल गया है, और अब वह अपनी बाजु की बची माँस पेशियों से अपने हाथ से कुछ काम कर सकती है.

कियारा की वजह से शरीर के कृत्रिम अंगों के विषय में मेरी दिलचस्पी बनी और इस क्षेत्र में कोई नयी खोज तो मैं उसके बारे में पढ़ने जानने की कोशिश करता हूँ. इसीलिए जब मैंने टच बायोनिक्स नाम की कम्पनी द्वारा प्रोडिजिट उँगलियों के बनाये जाने के बारे में सुना तो उसके बारे में अधिक जानने की कोशिश की.


अगर किसी की हथेली या उँगलियाँ कट गयी हों तो प्रोडिजिट उँगलियों से वह अपने हाथ का पूरा उपयोग कर सकते हैं. कृत्रिम उँगलियों को बनाने में अब तक सबसे कठिन बात थी उनके हिलने, पकड़ने आदि कामों ऐसा नियंत्रण लाना जिससे बारीक काम जैसे कि उँगली और अँगूठे के बीच में बारीक चीज़ को पकड़ना.

अभी तक कृत्रिम हाथ इस तरह का बारीक काम नहीं कर सकते थे, लेकिन अब प्रोडिजिट से यह भी संभव हो गया है.



यह तकनीकी प्रगति किसके लिए?

एक तरफ़ विज्ञान इतनी तेज़ी से प्रगति कर रहा है, जो बात कल तक असंभव लगती थी, वह आज संभव हो रही है, पर मेरे विचार में एक प्रश्न हम शायद अक्सर भूल जाते हैं, कि यह प्रगति किसके लिए है? हम सोचते हें कि कोई भी नया आविष्कार होगा तो समय के साथ उसकी कीमत कम हो जायेगी और वह आविष्कार सब जन साधारण तक पहुँचेगा. शायद यह बात उन सब तकनीकी प्रगतियों के लिए सच हो जिनका बाज़ार है, जिनको उपयोग करने वाले लाखों करोड़ों लोग हैं, तो बेचने के लिए वह वस्तु देर सवेर सस्ती हो सकती है, जैसे कि मोबाइल टेलीफोन.

लेकिन कृत्रिम अंग जिनका उपयोग कुछ ही लोगों को करना होगा, क्या कभी वह गरीब लोगों या फ़िर मध्यम वर्ग के बस की बात होंगे?

कियारा तो इटली आ कर नया हाथ बनवा सकती है लेकिन जिन गरीब लोगों के लिए काम करती है, उनमें से कितने अफ्रीका के लोग इस तरह का हाथ खरीद सकते हैं? प्रोडिजिट की उँगलियाँ कितनों के काम आयेंगी?

और भारत जैसा देश, जहाँ अमीरी गरीबी की विषमताएँ शायद दुनिया में सबसे अधिक हैं, वहाँ तकनीकी प्रगति किसके काम आयेगी? एक तरफ़ भारत के चिकित्सक और अपोलो जैसे अस्पताल दुनिया में प्रसिद्ध हैं, विदेशों से लोग अपना इलाज करवाने भारत आते हैं, दूसरी ओर दुनिया में दस्त या न्योमोनिया जैसे सामान्य एवं आसानी से इलाज हो सकने वाली बीमारियों से मरने वाले पाँच साल से कम आयु के बच्चों में से 25 प्रतिशत भारत में मरते हैं. तेज़ी से तरक्की करता विकासरत भारत, भुखमरी और अनपढ़ता में भी दुनिया में सबसे पहले स्थान पर है, और विषमताएँ घटने की बजाय बढ़ रही हैं. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार ब्राज़ील में पिछले दशक में आर्थिक विकास के साथ साथ विषमताएँ भी कम हुई हैं जबकि भारत में विषमताएँ बढ़ी हैं.

मेरे एक केनेडा के मित्र ग्रेगोर वोलब्रिंग का कार्यक्षेत्र नेनोटेकनोलोजी जैसी नयी तकनीकें है. ग्रेगोर कहते हैं कि तकनीकी इतनी तेज़ी से बढ़ रही है, नये नये आविष्कार हो रहे हैं, लेकिन उनके लिए जिनके पास इसकी कीमत चुकाने की क्षमता है. अगर पिछले दो सौ सालों दुनिया में उद्यौगिक विषमताएँ बनी, फ़िर डिजिटल विषमताओं का दौर आया, तो अब नयी तकनीकों की विषमताओं का दौर आ रहा है. पहले विषमताएँ दुनिया के उत्तर में अमरीका, यूरोप आदि देश और दक्षिण में विकासशील देशों के बीच में थी, यह नयी विषमताएँ देशों के बीच में नहीं, अमीरों और गरीबों के बीच होंगी. जिनके पास सामर्थ्य है, वह जीन थैरेपी से तंदरुस्त पैदा होंगे, लम्बा जीवन जीयेंगे, शरीर का कोई अंग कष्ट देगा तो उसे बदल पायेंगे, वे नये सुपर मानव होंगे. जिनके पास सामर्थ्य नहीं, वह दस्तों, बुखारों से वैसे ही मरते रहेंगे जैसे आज मरते हैं.

इस बार कर्नाटक के गाँवों में घूम रहा था तो लोग सरकारी साक्षरता, रोजगार, विकलाँगता आदि विषयों से सम्बधित कार्यक्रमों के बारे में बताते थे, पर साथ ही कहते कि घूसखोरी से कुछ भी करवा लो उसे  बदलना कठिन है, जातपात का दबाव कम नहीं होता, कागज़ पर कुछ लिखते हैं पर सच्चाई कुछ और होती है.

कुछ बदलाव आया है पर जितना आना चाहिये था, उतना नहीं. क्या उपाय होगा इसका?

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