शनिवार, नवंबर 27, 2010

भाषा की पूजा

अप्रैल 1967 में डा. राम मनोहर लोहिया और समाजवादी पार्टी से जुड़े बहुत से लेखकों तथा विचारकों ने मिल कर नियमित रूप से देश के विभिन्न प्रश्नों पर विचार विमर्श करने के लिए मासिक गोष्ठियों का आयोजन करने का निर्णय लिया था, और पहली गोष्ठी का विषय था हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के भविष्य के बारे में. इस गोष्ठी के लिए श्री रघुवीर सहाय को आमान्त्रित किया गया था कि वह इस विषय पर लेख लिखें, जिस पर बहस की जाये. यह लेख और उस पर हुई बहस, मई 1967 की "जन" पत्रिका में छपे थे. वही विचारोत्तेजक लेख यहाँ प्रस्तुत है.

अपने पिता के पुराने साथियों में रघुवीर सहाय की याद मेरे मन में बहुत सालों बाद भी ताजा है. उनका सिगार पीना, उनकी मृदुल हँसी और उनका हम बच्चों से गम्भीरता से बात करना, सब याद है. उनके बच्चों में से, उनकी बड़ी बेटी मँजरी जो मेरी उम्र के कुछ करीब थी, की याद है, लेकिन छोटी बेटी और बेटे के नाम भी याद नहीं, पिता की अकस्मात मृत्यु के बाद उनसे सम्बंध नहीं रहे, लेकिन आज रघुवीर जी के इस लेख को प्रस्तुत करते समय सब याद आ गया.

भाषा की पूजा बन्द करो - रघुवीर सहाय

(यह लेख बहस के लिए लिखा गया है. इसमें लेखक ने अन्तिम विश्लेषण करके बहस खत्म कर देने का दावा नहीं किया है. पर वह यह मान कर चलता है कि भाषा पर बहस यह समझने के लिए की जा रही है कि भाषा के मामले में इस वक्त क्या करना है.)

भाषा के मामले पर पिछले 20 वर्षों में जो कुछ हुआ है, उसका जायज़ा एक वाक्य में लिया जा सकता हैः थोड़े से लोगों को, जो भाषा का इस्तेमाल करने की जरूरत से प्रतिश्रुत रहे हैं उन बहुत से लोगों के विरुद्ध संघर्ष करने को मजबूर किया गया है जो भाषा की पूजा करते रहे हैं. इस संघर्ष में वह लेखक - और इस लेखक की भी यही स्थिति है - जो थोड़े लोगों में शामिल रहा अब एक कोने में धकेल दिया गया है जहाँ उसे अपनी आखिरी जी तोड़ कोशिश के साथ छटपटाती हुई एक लड़ाई लड़नी है. बहस के लिए सच पूछिये तो उसके पास वक्त नहीं रह गया हैः बहस पुकार कर शायद कुछ एक अन्य लेखकों को पास बुला सकती है मगर पास खड़े हो जाने वाले अगर खुद छटपटा कर लड़ नहीं सकते तो बहस सिर्फ़ आततायी को और अधिक आक्रमण का मौका देने का साधन बनती है.

एक अच्छे योद्धा की तरह अपनी क्षति स्वीकार कर लेनी चाहिये - भाषा बुरी तरह टूट चुकी है. राजनीतिक दिमाग एक भाषा में वोट माँगता है, दूसरी में वक्तव्य देता है तीसरी में शपथ लेता है. कलाकार दिमाग़ एक भाषा में सोचता है, दूसरी में लिखता है और फ़िर पहली में यश प्राप्त करना चाहता है. बाकी लोग, किसी भाषा में सोच नहीं पाते, किसी भाषा में बोल नहीं पाते. उनके लिए दो व्यक्तियों के मध्य भाषा की एक बड़ी उपलब्धी - मतभेद संभव नहीं रह गया है, अधिक से अधिक वे एक अव्यक्त समझौता कर सकते हैं जो एक दूसरे के भ्रष्ट चरित्र के लिए चुपचाप हामी भरने का समझौता होता है. यह सब इतना जानते हुए कह रहा हूँ कि ये राजनीतिक, कलाकार और लोग कोई आदर्श नहीं हैं.

परन्तु कुछ आदर्श इन तीन वर्गों में कहीं न कहीं हैं. जो भी हैं वे भाषा को पूजा की नहीं इस्तेमाल की चीज़ बनाने के लिए लड़ते रहे हैं. इस लड़ाई में अब अंतिम दौर शुरु हो गया है. एक जगह हम देखते हैं कि सरिहन सरासर झूठ बोल कर अब उसे छिपाने की कोशिश चल भले ही कर जाये, सच्चाई को उजागर किया जा सकता है. दूसरी जगह विद्रोह को भटकाने में भाषा का सहारा लेने की चेष्टा, आकर्षण भले दिख ले, भले दिख ले, भाषा इसमें दग़ा जरूर दे जाती है, तीसरी जगह, कहने का कोई असर न हो और यहाँ तक न हो कि शब्द की जगह पत्थर ही एक रास्ता रह जाये, फिर भी विचार जनमत बन सकता है. ये सब मुक्ति के, विजय के लक्षण हैं. परन्तु लम्बी लड़ाई के दौरान पीछे हटते हुए प्रतिद्वन्द्वी ने इतनी बस्तियाँ उजाड़ दी हैं कि अब सारी दुनिया नये सिरे से बसानी होगी.

सबसे पहले तो राष्ट्रीय एकता को नये सिरे से समझना और बनाना पड़ेगा. यह एक चीज़ है जो सबसे ज़्यादा जलायी फ़ूँकी गयी है. एक से एक सूक्ष्म अस्त्र काम में लाये गये हैं जैसे यह कि सारे देश की एक राजभाषा जिस संविधान द्वारा स्थापित की गयी है उस सम्बन्ध में विहित समता के किसी भी आदेश का पालन नहीं किया गया है. जिस भाषा को राजभाषा बनाने का संकल्प किया गया है, उसके बहुमत का शोषण किया गया है, उसकी भाषा का नहीं. स्वामी शासक के जाने के बाद उसकी जगह उस बहुमत के समृद्ध प्रतिनिधियों ने ले ली है और शासक की भाषा के रूप में उस भाषा को बिठा दिया है जिसे आज़ादी भी नहीं मिल पायी थी. उसे स्वामिभाषा का स्थान दिलाने के लिए लालच दिया गया कि वह दासभाषा बन कर रहे और दासत्व का मुआवजा उपभोग करे. यदि वह भाषा आज़ाद होती तो काफ़ी बड़ा शासक वर्ग अपनी जगह से हटता. इसलिए उसे अधिक से अधिक समय तक मुआवज़ा देने की पेशकश की गयी. उसका विकास करने के लिए बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय धन का व्यय किया गया जिसमें हिस्सा बंटाने वह लोग आये जिन्होंने भाषा का विकास करते रहने का और उसे इस्तेमाल न होने देने का बीड़ा उठाया. राष्ट्रीय खर्च से एक भाषा को जो घूस दी गयी वह दूसरी राष्ट्रभाषाओं का पेट काट कर दी गयी. भाषाओं में एक भाषा के लिए घृणा फैलाने का काफ़ी इन्तज़ाम था. तब भाषा की दासता का मोर्चा यों बँधाः अंग्रेजी शासन की भाषा, हिन्दी प्रमुख दास भाषा और बाकी प्रतिद्वन्द्वी दासभाषाएँ.

यहाँ वह सम्पूर्ण कहानी दोहराना बहुत सी जानी मानी बातें दुहराना होगा जो हिन्दी के इस दास वैभव से उपजी विकृतियों की कहानी है. बहुत बड़े पैमाने पर हिन्दी क्षेत्र की प्रतिभा का विविध विद्याओं से, विविध भाषाओं और परम्पराओं से और अपने क्षेत्र के मनुष्य से अलगाव ही संक्षेप में वह कहानी है. एक प्रश्न अवश्य यहाँ अनुतरित नहीं छोड़ना चाहता हूँ. अक्सर कहा जाता है कि यदि स्वतंत्रता मिलते ही हिन्दी को सीधे राजभाषा घोषित करके स्थापित कर दिया होता तो अनन्तर जो कुछ हुआ, वह न होता - वैसा नहीं किया गया, यह बड़ी भूल हुई. पर ऐसा नहीं किया जा सका तो क्यों? क्यों कि जिन्होंने हिन्दी के नाम पर नेतृत्व सम्भाला था - सचमुच उन अल्प प्रतिशत लोगों के साथ थे जो बाद में अमीर से अमीर बने और इन नेताओं में स्वभावतः नैतिक शक्ति की कमी थी. और भी बहुत से काम हैं जो तब नहीं हुए और बाद में बहुत धीरे धीरे और तकलीफदेह तरीके से गलती सुधारने के प्रयत्न होते रहे. पर वे इतने दिखावटी थे कि उन्होंने न सिर्फ कोई परिवर्तन नहीं किया बल्कि हर बार समस्या को एक नयी उलझी हुई शक्ल दे डाली.

आज़ादी के बाद के पहले वर्षों में जब हिन्दी क्षेत्र में जन्म लेने के कारण हिन्दी भाषी को राजनीतिक सम्मान प्राप्त करने का निर्विवाद अधिकार दे दिया गया तभी उस क्षेत्र के असमपन्न हिन्दीभाषी को अपनी भाषा में अपना सामान्य सामाजिक अधिकार प्राप्त करने से निरन्तर वंचित रखा गया - उसे बताया गया कि कुछ लोग अभी उसकी हिन्दी का विकास करने के लिए अंग्रेज़ी से अनुवाद कर हैं और वह चाहे तो अपनी भाषा का इस्तमाल करने के खतरे और नुक़सान छोड़ कर अनुवाद के अनुष्ठान में शामिल हो सकता है. हिन्दी में अभिव्यक्ति की सामर्थ्य का जीवन में व्यवहार तब इस शकल में हुआ कि विद्याओं का, कौशल का और अन्ततः चरित्र का विकास नहीं, इन सबके अंग्रेज़ी नमूनों का भाषानुवाद ही हिन्दी भाषी का सामाजिक प्रतिष्ठा का माध्यम है. एक नतीजा इसका यह है कि हिन्दी में लिखने वाले लोग दिन ब दिन कम होते गये जो भाषा के अतिरिक्त किसी विद्या में पारंगत हों. सम्पूर्ण समाज रोक कर रखा गया, उस दिन की प्रतीक्षा में जब संविधान के अनुसार रातोंरात हिन्दी राजभाषा हो जायेगी और उस दिन भाषा का अधिकार हर एक को मिल जायेगा. यह दिन हिन्दीतर भाषाओं के सम्पन्न वर्ग को स्वभावतः खतरे का दिन दिखायी देने लगा क्योंकि यह प्रकट हो चुका था कि यह खुद हिन्दी भाषा के उतने ही सम्पन्न वर्ग के लिए खतरे का दिन है जिसे वे टालना चाहते हैं.

जब यह भय हिन्दीतर क्षेत्रों के सम्पन्न नेताओं ने प्रकट किया तो इसकी प्रतिक्रियाएँ हिन्दी क्षेत्र में और हिन्दीतर क्षेत्रों में प्रायः एक सी हुईं. हिन्दी नेताओं ने इसे हिन्दी विरोध का नाम दिया जबकि यह हिन्दी नेताओं का ही समधर्मी अंग्रेज़ी समर्थन था. हिन्दीतर क्षेत्र के वंचित पिछड़े वर्ग को भी अपने नेताओं का यह अंग्रेज़ी समर्थन मातृभाषा की रक्षा के साधन के रूप में दिखायी दिया, या कम से कम दिखाया गया और बहुत समय तक एक झूठी बहस हिन्दी और हिन्दीतर दोनो पक्षों के स्वार्थी नेताओं में चली जिससे वास्तव में दोनो अपने अपने क्षेत्र की भाषा शक्ति को आगे बढ़ने से रोकने के मामले में सहमत थे. हिन्दी नेताओं ने अपनी जनताओं से कहा, चूँकि सरकार और हिन्दीतर भाषी हिन्दी का विरोध कर रहे हैं इसलिए हम हिन्दी में हस्ताक्षर करने, हिन्दी में नामपट लिखवाने और हिन्दी में पुरस्कार दिलाने के कार्यक्रम और आंदोलन चला रहे हैं. हिन्दीतर क्षेत्र की जनता से इन्होंने कहा - हम दूसरी भाषाओँ हम दूसरी भाषाओं के विरोधी नहीं हैं, दूसरी भाषाओं का भी वैसा ही विकास होना चाहिये जैसा हम अपनी भाषा का कर रहे हैं, अर्थात उनके इस्तमाल को रोक रखने वाला विकास. फलतः केन्द्र ने सब भाषाओं के विकास का नारा उठाया, क्योंकि सत्ताधारी नेतृत्व इन दोनो क्षेत्रों के सम्पन्न नेतावर्ग को अपने साथ रखना चाहता था. हिन्दी के इस वर्ग की जो राजनीतिक शक्ति इस बीच बढ़ गयी थी. उसका पलड़ा दूसरी भाषाओं के समानधर्मी वर्ग की राजनीतिक शक्ति के बराबर लाने के लिए बन्दर बाँट का रास्ता केन्द्रीय नेतृत्व ने अपनाया, हिन्दीवालों का घमण्ड चूर करने के लिए सरल और सर्वसुगम हिन्दी का डँडा श्री नेहरू जब तब चलाते रहे. इस दौर की एक छोटी सी घटना का उल्लेख यहाँ किया जा सकता है जो दिखाती है कि हिन्दी का नेता इस काण्ड में किस तरह शामिल था. जब नये रेडियोमंत्री गोपाल रेड्डी से हिन्दी वालों की अक्ल दुरुस्त करने को नेहरू ने कहा तो मंत्री के स्वागत में सेठ गोविनददास के घर पर प्रीतिगोष्ठी का आयोजन हुआ. उसमें सेठ जी ने हिन्दी विरोधी रेड्डी की खूब खबर ली. मंत्री इस सत्कार के लिए तैयार न थे. बहुत नाराज हुए. डा. नगेन्द्र ने उन्हें शान्त होने में सहायता दी. उन्होंने बड़े अबदकायदे से कुछ बहस भी चलायी, पर उन्होंने या किसी बड़े आदमी ने मंत्री से एक बार भी नहीं कहा कि आप अंग्रेज़ी से अनुवाद बंद करा दें और मौलिक हिन्दी में लिखाना शुरु करें तो भाषा सरल हो सकती है. आखिरकार नेताओं और मंत्री के बीच तयतोड़ अनुवाद की जाँच कराने पर हुआ, मौलिक लेखन पर नहीं. भाषा की आज़ादी की बात नहीं उठी, भाषा की गुलामी का फायदा नयी अनुवाद जाँच समिति के रूप में उठाया गया. बन्दर बाँट ने जो टुकड़ा भाषा में से काटा वह भाषा के इस्तेमाल का टुकड़ा था.

फ़िर 1963 में अंग्रेज़ी को सहभाषा के रूप में बनाये रखने का कानून पास होते ही, विकास का ढोंग खत्म हो कर, एक नया ढोंग, पूजा का ढोंग शुरु हुआ, जिसके बीज विकास के ढोंग में पहले से ही थे. अब द्वार पर नामपट पर हिन्दी में नाम लिखाना भी भगवान को दरदर भटकाने का पाप समझा जाने लगा और हिन्दी सम्बंधी छोटे बड़े सराकारी कार्यलय शुद्ध रूप से मन्दिर बन गये जिनमें पूजा पाठ की विधियों पर शास्त्रीय उपदेश करते हुए छोटे बड़े पुजारी आज जय हिन्दी, जय नागरी कर रहे हैं. हिन्दी के विकास के काम में कभी मजबूरन कुछ गतिशीलता का जो बन्धन था वह भी अब आत्महत्या, न्यस्त स्वार्थ की हत्या, माना जाने लगा है. भाषा को कमरे में बैठ कर गढ़ने का काम दिन प्रतिदिन कम होने वाला काम हो तभी वह गतिशील कहला सकता है, पर अब तो प्रश्न उसे अनन्त बनाने का रह गया है, क्योंकि संविधान में हिन्दी के प्रकरण से हिन्दी भाषी को यह जो सामाजिक प्रतिष्ठा उपलब्ध हुई है अब कम से कम इसे बचाये रखने का सवाल हिन्दी नेता के लिए हिन्दी के नाम पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल है.

तो भी कुछ अपनी नेतागिरी जताने के लिए और कुछ सचमुच पदहानि के दुख से हिन्दी नेता जनता के सामने आ कर "हा हिन्दी का दुर्भाग्य" कह कर रोया था. साथ ही उसने कहना शुरु किया था कि दूसरी भारतीय भाषाओं की मदद के बिना हम अंग्रेजी को नहीं हटा सकते. सुनने में यह हृदय परिवर्तन जैसा लगता है पर है यह केवल वेश परिवर्तन. वह अभी भी "अंग्रेजी को हटा नहीं सकते" के बाद "और हिन्दी को नहीं स्थापित कर सकते" जोड़ देता है और अभी भी समझौता उस हिन्दीतर भाषी से करना चाहता है जो अपने क्षेत्र में अपनी भाषा का इस्तेमाल रोक कर उसके विकास के लिए मोहलत और पैसा माँग रहा है और कहता है कि अंग्रेज़ी तभी हटे जब मेरी भाषा भी हिन्दी जितनी रिश्वत खा ले.

यह सब केन्द्रीय नेतृत्व के हित में है. प्रदेशों में वास्तविक जनमत को भटकाने दबाने नहीं तो भटकाने का कितना सीधा नुस्खा है. अंग्रेज़ी और हिन्दी को एक ही कोटि की भाषाएँ बताते रहना और देशी भाषाओं का अंग्रेज़ी विरोध, हिन्दी विरोध की तरफ़ भटकाते रहना. इस सिलसिले की अब वह घड़ी आ गयी है जब पीछे को जाने वाले दो गलत रास्ते बहुत आकर्षक हो उठे हैं. एक यह है कि अंग्रेज़ी को - दो प्रतिशत भारतीयों की जानी भाषा को जिसमें वह किसी तरह लड़खड़ाते हुए ही चल सकते हैं - सत्ता की, सामाजिक प्रतिष्ठा की भाषा हमेशा के लिए बनाये रखा जाये, और इसकी सिद्धी के लिए जो ढोंग, पाखण्ड और चरित्रपतन ज़रूरी हो वह मातृभाषाओं में प्रोतसाहित किया जाये. दूसरा रास्ता है, प्रदेशों को करने दो जो करते हैं, अपनी मातृभाषाओं में पढ़ायें, लिखायें, सरकार चलायें, केन्द्र में हमें अंग्रेज़ी के साथ हिन्दी को ही लगाये रखने दो फ़िर चाहे प्रदेश में आपस में कितनी भी दूरी बढ़े. "सम्पर्क भाषा ही राष्ट्र एकता है, प्रदेशों की परस्पर दूरी कम करने की, सम्पर्क बढ़ाने की ज़रूरत नहीं क्योंकि उससे विदेशी सम्पर्क भाषा की ज़रूरत कम होती है.

परन्तु मेरे विचार में आगे जाने वाले रास्तों की संख्या दो से भी कम है, एक ही रास्ता है और वह भी ऊबड़ खाबड़ ज़मीन पर से हो कर जाता है. वह भाषा की पूजा तुरंत बंद करके उसके इस्तेमाल का रास्ता है. अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करने को संविधान बाध्य नहीं करता, हिन्दी का इस्तेमाल करने की इज़ाज़त देता है. परन्तु सरकारी काम में भी हिन्दी नेता हिन्दी न खुद इस्तेमाल करते हैं न दूसरों को करने देते हैं, क्योंकि उनका तर्क है कि जो हिन्दी नहीं चाहते वे भी केन्द्र की प्रजा हैं और उनके लिए अंग्रेज़ी इस्तेमाल करनी पड़ेगी. इस तरह बिल्कुल स्पष्ट है कि संघ भारतीय भाषाओं को दबाये और 2 प्रतिशत अंग्रेज़ी को बनाये रखने के लिए ही यह किया जा रहा है. अब प्रश्न यह है कि यह सब देखते हुए जो अंग्रेज़ी हटाना चाहते हैं वे लोग क्या पहले आपस में लड़ कर यह बात तय करेंगे कि कौन सी भाषा अंग्रेज़ी की जगह ले तब अंग्रेज़ी जायेगी? अंग्रेज़ों को हटाने के पहले यह निणर्य करने की ज़रूरत बहुत से भारतीय बताते थे और वे वही थे जो अंग्रेज़ों के जाने से सबसे अधिक दुखी होने वाले थे. भारतीय एकता की जो परिकल्पना हमनें अंग्रेज़ी शासनकाल में की थी उसमें भाषा की स्वतंत्रता का मुख्य स्थान था, परन्तु भाषा के प्राधान्य की कल्पना नहीं थी. सब भाषाओं के बोलनेवालों को एक सूत्र में बाँधने के लिए गाँधी ने एक राजनीतिक कार्यक्रम को साधन बनाया था, हिन्दी नामक भाषा के तंत्र मंत्र को नहीं. बाकी उन्होंने कई प्रकार से बार बार कहा था कि मातृभाषा में शिक्षा देना ही स्वाधीन व्यक्ति बनाने का उपाय है और अगर यह काम आज शुरु कर दिया जाये तो पाठ्यपुस्तकें झक मार के बन जायेंगी. भाषावार राज्यों का सिद्धांत भी इसी भावना के अंतर्गत माना गया था. परंतु स्वतंत्रता के बाद भारतीय एकता के सभी प्रतिमान सत्ताधारी पार्टी की एकता के प्रतिमान के साथ जोड़ दिये गये और हम लोगों को कुछ समय के लिए ऐसा समझाया गया कि भाषावार राज्यों में बाँटना तो बहुत अच्छी चीज़ है क्योंकि उससे देश की विविधता को समृद्धि मिलती है और जन समुदाय भावाभिव्यक्ति पाते हैं, परन्तु यदि यह सब भाषाएँ एक जगह एकत्र हो जायें तो देश टूटने लगता है. दरअसल देश नहीं सत्ताधारी दल टूटने लगता है क्योंकि विचार और कर्म के एक होने की प्रक्रिया और तेजी से चलने लगती है.

प्रश्न यह था कि अंग्रेज़ी हटाने के लिए हम ठीक इसी समय क्या करेंगे? जो 1951 में नहीं किया गया, वह क्या था, हिन्दी को निर्णयपूर्वक रातोंरात राजभाषा बना देना या सब भाषाओं को साथ मिला कर प्रयोग करना कि देश अपने लिए रास्ता निकाले. तब सरकार को काम करना था. वह सरकार प्रयोग नहीं कर सकती थी, पर वह सरकार तो निर्णय भी नहीं ले सकी. जो राजनीतिक शक्तियाँ अब देश में उभर रहीं हैं तथा जो परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है उनके सन्दर्भ में अब क्या किया जाना चाहिये जिससे 28 वर्ष की गलतियाँ दूर हों सकें?

ऊबड़खाबड़ रास्ते पर चलने के लिए तैयार होना ही एक उपाय है. रास्ता बनाने की ज़िम्मेदारी जिन पर है उनको भारतीय एकता की एक कहीं अधिक जीवित और स्पंदित परिकल्पना करनी होगी. छत्र के नीचे एक भारत की कल्पना जिसमें न यह भय रहता है कि केन्द्र में सिर्फ़ अंग्रेज़ी या हिन्दी रहने से ही एकता सम्भव है, न यह भ्रम कि दोनो रहने से अंग्रेज़ी जायेगी. आज भाषा के अन्दर के उस खोखल को जो पुजारियों ने उसका ढोल बजाने के लिए किया था, अस्वीकार करने वाली शक्तियाँ उदित हो रहीं हैं. शब्द में सत्य की अवधारण करने के लिए भाषा ने कोई दीप नैवद्य नहीं बरता, उसने असत्य को तोड़ा और वहीं सत्य स्थापित हुआ. 14 भाषाओं के एकत्र इस्तेमाल से देश की एकता टूटेगी इस असत्य को हम तोड़ें तो वास्तविक एकता का सत्य स्थापित होता है. इस सत्य में कोई शास्त्रीयता नहीं है. जीवन की शक्तियों के परस्पर टकराव से एक या दो या तीन बहुमान्य रास्ते निकालना ही इस सत्य की खोज है. भाषाओं की आंतरिक एकता, शब्दों की समानता और संस्कृतियों की समान धर्मिता के बहुत गुणगान करने वाले अंग्रेज़ी समर्थकों को संविधान सम्मत भाषाओं के टकराव से घबराना नहीं चाहिये. यदि प्रत्येक प्रदेश में ऊपर से नीचे तक मातृभाषा और केन्द्र में सभी भाषाओं के इस्तेमाल की व्यवस्था तुरंत की जाये तभी पिछले वर्षों से स्वार्थी नेताओं के हाथों नष्ट हुई राष्ट्रीयता आज सही रास्ते पर चल कर अपनी भारतीयता खोज सकती है, अन्यथा वह अंग्रेज़ी की खिड़की खोल कर बाहर का विश्वदृश्य निहारती रहेगी और भीतर भाषायिक भुखमरी और "श्टारवेशन डेथ" में अर्थभेद करते रहेंगे और शब्दकोश की पूजा होती रहेगी. जो लोग भाषा को मथ कर, कूट कर उसमें से बरतने योग्य कुछ गढ़ते रहे हैं, वे लोग ही आज मातृभाषाओं के इस्तेमाल का मामला आगे बढ़ा सकते हैं. उनकी छटपटाती हुई लड़ाई का यह आखिरी दौर होगा.

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रविवार, नवंबर 07, 2010

गिरगिट

सुबह तौलिये से सिर पौँछ रहा था तो अचानक हाथ में कुछ लिजलिजा सा लगा. घबरा कर देखा तो छोटा सा हरे रंग कर गिरगिट नीचे गिरा. डरा हुआ था बेचारा. जाने कैसे हमारी तीसरी मंजि़ल तक पहुँच गया था. सोचा कि उसे उठा कर बाहर छोड़ा जाये. उसे पकड़ा तो पहले तो उसने भागने की कोशिश नहीं की, पर थोड़ी देर में ही बचने की कोशिश में कसमसाने लगा. मैने पत्नी से कहा कि उसे उँगली से पकड़ कर रखे तो जल्दी से उसकी एक तस्वीर खींची जाये.

Lizard, Italy

यहाँ के गिरगिट भारतीय गिरगिटों से भिन्न लगते हैं. इनसे मिलता जुलता एक छोटा सा जन्तु दिल्ली में भी दिखता था जिसे हम लोग साँप की नानी कहते थे, जो एक जगह रुकता नहीं था, बहुत तेज़ी से निकल जाता था. यहाँ के यह हरे चितकबरे से गिरगिट बाहर बाग में बहुत बार देखे थे पर उनकी तस्वीरे लेने का मौका पहले नहीं मिला था.

गिरगिट की बात से मन में बचपन की एक भूली बिसरी याद उभर आयी. शायद पाँच या छः साल का था, कमरे में चारपाई पर लेटा था कि छत से एक छिपकली मेरे पेट पर गिरी. मैं डर के मारे उठा और काँपता हुआ माँ से लिपट गया था. फ़िर याद आयी बचपन में स्कूल में खेले जाने वाले खेल लँगड़ी टाँग की जिसमें मैं एक टाँग से बहुत तेज़ी से भागता था और लोग मुझे छिपकली कहते थे. तब था भी बहुत दुबला पतला, हड्डियाँ बाहर निकली हुई, छिपकली जैसा.

तब लोगों का मुझे छिपकली कहना अच्छा नहीं लगता था. अब मोटापे को कम करने की चिंता लगी रहती है और लगता है कि अगर पहले जैसा पतला हो सकूँ तो कितना अच्छा हो!

बचपन में मेरा एक और सपना था, पालतू गिरगिट पालने का. एक दो बार गिरगिट को पकड़ कर उसे धागे से बाँध कर पालतू बनाने की कोशिश भी की थी, लेकिन उसे खिलाने के लिए मक्खियाँ या कीड़े पकड़ना बहुत कठिन लगता था. बेचारा मुझे काटने की कोशिश करता, लेकिन छोटे गिरगिट के दाँत इतने तेज़ नहीं होते थे कि ठीक से काट सके. एक दो बार की कोशिश में ही, कुछ घँटों में गिरगिट को पालतू बनाने का भूत सर से उतर गया. लेकिन तब से गिरगिट का डर मन से निकल सा गया.

खैर आज छोटे गिरगिट से मुलाकात की खुशी में विभिन्न देशों से खींची गिरगिटों की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं -

यह पहली तस्वीर कुछ दिन पहले की है, नाईजीरिया की राजधानी अबूजा में जहाँ के गिरगिट, का सिर तो मुझे गिरगिट जैसा लगता है, पर नीचे वाला हिस्सा भारतीय छिपकली जैसा.

Lizard, Abuja Nigeria

यह दूसरी तस्वीर, दिल्ली के महरौली पुरात्तव बाग से एक गिरगिट की है.

Lizard, Mehrauli, Delhi, India

तीसरी तस्वीर में ब्राज़ील के पोर्तो नेस्योनाल शहर में बड़े गिरगिट जैसे गोह की है.

Iguana, Porto Nacional, Brazil

यह आखिरी तस्वीर है इतली के एक चिड़ियाघर में रँग बदलने वाले गिरगिट की जो हरी दीवार पर बिल्कुल हरा हो गया है.

Chameleon, Italy

क्या आप को गिरगिट अच्छे लगते हैं? क्या कभी आप ने किसी पालतू गिरगिट को देखा है? आप को मौका मिले तो क्या आप पालतू गिरगिट रखना चाहेंगे?

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मंगलवार, नवंबर 02, 2010

हिंदी राष्ट्रवाद का इतिहास

हिन्दी पत्रिका हँस के अगस्त, सितंबर और अक्टूबर के अंकों में, तीन हिस्सों में "राष्ट्रवाद और हिन्दी समाज" के शीर्षक से प्रसन्न कुमार चौधरी का लम्बा आलेख छपा है जिसे इन दिनों बहुत रुची से पढ़ा. हिन्दी लेखन और विमर्श जगत की सीमाएँ अक्सर अपनी घरेलू बातों तक ही रुक जाती हैं, या बहुत अधिक हो तो, अंग्रेज़ी बोलने वाले विश्व की कुछ बात कर लेती हैं.

उन घरेलू बातों की भी सीमाएँ संकरी हैं, अधिकतर साहित्य, कविता तक के विषयों पर रुकी हुई, ऐसा कुछ विमर्श मौहल्ला लाईव पर हो रहा है जहाँ पर इन्हीं दिनों में अविनाश ने "भारतीयता" पर ओम थानवी, पवन कुमार वर्मा आदि की बहस के बारे में लिखा, फ़िर उस पर विजय शर्मा का एक आलेख भी निकला.

प्रसन्न चौधरी का आलेख सभ्यता, संस्कृति, भाषा के विषयों पर विहंगम दृष्टि है जिसमें सारे विश्व के विभिन्न क्षेत्रों तथा ऐतिहासिक युगों के अनेक उदाहरण हैं. यह आलेख उन्होंने सुधीर रंजन सिंह की पुस्तक "हिंदी समुदाय और राष्ट्रवाद" की आलोचना के रूप में लिखना शुरु किया था, लेकिन पुस्तक की आलोचना आलेख का छोटा सा हिस्सा है.

वह लेख का प्रारम्भ राष्ट्र, राष्ट्र राज्य और राष्ट्रवाद के आधुनिक यूरोप के देशों के बनने से जुड़े अर्थों के विवेचन से करते हैं, कैसे राष्ट्रवाद के सिद्धांतों को विख्यातित किया गया, इन सिद्धांतों की क्या आलोचनाएँ हुईं, आदि. इस हिस्से में उनका विमर्श कि किस तरह यूरोप ने अपने नागरिकों के लिए सदियों से चले आ रहे शोषण को बदल कर नये आधुनिक समतावादी समाज की संरचना की और साथ ही, उपनिवेशवाद द्वारा, अपने देशों की सीमाओं के बाहर शोषण के नये रास्ते खोले, बहुत अच्छी तरह से किया गया है. इस विमर्श में वह पूर्व में रूस से ले कर पश्चिमी यूरोप तक की बात करते हैं, और साथ साथ, भारत तथा अन्य उपनिवेशित देशों में होने वाले विमर्श की परम्परा का ज़िक्र भी.

आलेख के दूसरे हिस्से में बात है भारत में प्रभाव डालने वाली पश्चिमी विचार परम्परा की और दूसरी ओर, भारत के अपने इतिहास, धर्म और दर्शन से जुड़ी सोच की, और किस तरह से यह दो दृष्टियाँ कभी एक दूसरे से मिलती हैं, और कभी एक दूसरे से अलग हो कर प्रतिद्वंदी बन जाती हैं. इस दूसरी दृष्टि को वह भारत से बाहर के भी विचारकों में खोजते हैं. आलेख का तीसरा भाग, हिंदी समुदाय और आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास से ले कर, हिंदी समुदाय के राष्ट्रवाद का विश्लेषण करता है.

आलेख का पूरा अर्थ समझने के लिए उसे दो बार पढ़ा. उनकी हर बात से सहमत होना संभव नहीं, लेकिन यह मानना पड़ेगा कि उन्होंने अपनी बात को उसके ऐतिहासिक संदर्भ से ले कर, आज तक के विकास तक, बहुत खूबी से व्यक्त किया है. लेख पढ़ते हुए कई बार मन में आया कि काश वह यहीं कहीं आसपास रहते तो उनके साथ बहस करने में कितना आनंद आता!

हँस को इस लम्बे आलेख को पूरा छापने की लिए धन्यवाद.

सोमवार, नवंबर 01, 2010

शाह रुख और महाश्वेता देवी

रोम फ़िल्म फेस्टीवल में कल रात को एक ओर थे कर्ण जौहर और शाहरुख खान, "माई नेम इज़ खान" के साथ. दूसरी ओर थी महाश्वेता देवी जिनकी कहानी पर इतालवी निर्देशक इतालो स्वीनेल्ली (Italo Spinelli) ने फ़िल्म बनायी है, "गँगोर" (Gangor).

शाहरुख रोम आने वाले हैं इसका हल्ला तो इटली के बोलीवुड प्रेमियों में कई हफ्तों से चल रहा था. पहले यही बहस थी कि आयेंगे या नहीं? रोम में बोलीवुड के नृत्य करने वाली लड़कियों से जब पूछा गया कि क्या वह शाहरुख की फ़िल्म से पहले वहाँ रेड कार्पट पर नृत्य करेंगी तो उनके हर्ष की सीमा नहीं थी. उनमें से एक युवती कुछ महीने पहले जब मुंबई में जोन एब्राहम से मिल कर आयी थी, तो फेसबुक पर कई महीनों तक उस एक मिलन की गाथा के किस्से सुने थे. अब जिन युवतियों को शाहरुख के सामने नृत्य दिखाने का मौका मिलेगा, तो उसके किस्से तो अगले बारह महीने तक सुनने को मिलेंगे!



खैर आज सुबह के अखबारों में "माई नेम इज़ खान" की आलोचना ठीक ठाक ही है. सबसे अधिक बिकने वाले अखबार "कोरिएरे देल्ला सेरा" (Corriere della Sera) ने शाहरुख को भारत का टाम क्रूज़ कहा है.

स्पीनेल्ली की फ़िल्म "गँगोर" की आलोचना अधिक दिलचस्प है. फ़िल्म की मुख्य अभिनेत्री प्रियँका बोस की बहुत प्रशँसा की गयी है. फ़िल्म की कहानी है, बच्चे को दूध पिलाती युवती गँगोर की, जिसके नँगे वक्ष की तस्वीर पर हल्ला मच जाता है और पुलिस अत्याचार जिसे शरीर बेचने वाली बना देता है.

"माई नेम इज़ खान" इतालवी सिनेमा हालों में 26 नवम्बर को प्रदर्शित होगी, गँगोर को सिनेमा में निकलने का मौका मिलेगा या नहीं, यह नहीं पता.

शुक्रवार, अक्तूबर 01, 2010

अयोध्या के राम

आज आखिरकार अयोध्या के मुकदमें का फैसला हो ही गया. पिछले कई दिनों से चिन्ता हो रही थी कि क्या होगा, फ़िर से दंगे, मार पीट तो नहीं शुरु हो जायेंगे!

जब बबरी मस्जिद को ढाया गया था तब 1992 में इंटरनेट आदि कुछ नहीं था, इटली में उसका समाचार तक मुझे बहुत दिन के बाद मिला था, लेकिन उसके कुछ वर्ष बाद मैंने उसके कुछ परिणाम बम्बई में देखे थे, जब भिवँडी की झोपड़पट्टी में दंगों में हिंसा के शिकार परिवारों से मिला था. धर्म के नाम पर मासूमों की जान लेना, इससे बड़ा धर्म का अपमान क्या हो सकता है?

अयोध्या में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के विवाद का क्या निवारण हो, इसमें मुझे उन सुझावों से कभी सहमति नहीं हुई जो वहाँ अस्पताल या विद्यालय बनाने की बात करते थे. इसलिए नहीं कि मुझे अस्पतालों या विद्यालयों की उपयोगिता की समझ नहीं. बात मेरे धार्मिक विचारों की भी नहीं है.

भारत के अन्य करोड़ों हिंदूओं की तरह, मेरे लिए भगवान का स्वरूप वो है जो गायत्री मंत्र में व्याख्यित किया जाता है, यानि भगवान जिसका न कोई आदि है न अंत, जो सर्वव्यापा, सर्वज्ञानी है, जिसका कोई रूप या आकार नहीं. इसलिए मेरी समझ उस भगवान को राम, कृष्ण या शिव के रूप में चिन्ह की तरह स्वीकार करती है, पर उसकी प्रार्थना के लिए मुझे किसी मंदिर या मूर्ति की आवश्यकता नहीं. हर धर्म में, चाहे वह ईसाई हो या मुसलमान, सिख या पारसी या बहायी, अंत में मुझे यही आध्यात्मिक सच दिखता है.

लेकिन मेरे विचार में भारत में मुझ जैसे आध्यात्मिक हिंदूओं से कहीं गुणा अधिक वह लोग हैं जिनके लिए राम ही भगवान का रूप हैं, उन्हीं में उनकी आस्था और विश्वास हैं. इस आस्था में सच क्या या झूठ क्या, इतिहास क्या कहता है या पुरातत्व क्या कहता है, उस सबका कुछ अर्थ नहीं. सभी धर्मों को मानने वाले अधिकतर ऐसे ही होते हैं. लोगों को इस बात का कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं चाहिये कि जीसस ने सचमुच समुद्र को चीरा था या नहीं, या फ़िर पैगम्बर मुहम्मद ने सचमुच अल्ला की आवाज़ सुनी थी या नहीं, यह विज्ञान या तर्क का सवाल नहीं, आस्था का है, उनके लिए तो उनका पैगम्बर ही ईश्वर का दूत और पुत्र है.

करोड़ों लोगों के इसी विश्वास के बारे में सोच कर मेरे विचार में अयोध्या में उस जगह पर राम का मन्दिर बनाने देना चाहिये, क्योंकि अगर सोचूँ कि ईसाई जिस जगह पर मानते हैं कि येसू का जन्म हुआ था, या मसलमान मक्का और मदीना में जिन जगहों को अपने पैगम्बर से जुड़ा मानते हैं, उनसे उनके विश्वास को छीन कर, उस पर कुछ बनाने की बात कभी कोई नहीं कर सकता. तो राम को मानने वालों के साथ ही तर्क या विज्ञान और सबूत की बात क्यों की जाये?

बचपन में अपनी दादी से रामायण की बहुत कहानियाँ सुनता था. उन कहानियों के नायक राम न शबरी से भेदभाव करते थे न सरयू पार कराने वाले केवट से, उनके सबसे बड़े भक्त और स्वयं पूजे जाने वाले हनुमान तो वानर जाति के थे. उन कथाओं के राम क्या धर्मी, विधर्मी का भेद करेंगे? मेरे विचार में नहीं, वह तो सबको अपनायेंगे. इसलिए मेरा बस चलेगा तो उस राम के मन्दिर को सब धर्मों को लोग मिल कर बनवायेंगे और विश्व हिंदू परिषद, हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आदि सब राम मन्दिर बनवाना चाहने वाले दल मिल कर उस मन्दिर में बाबरी मस्जिद का कमरा भी बनायेगे, यूसू का गिरजा भी, नानक का गुरुद्वारा भी, यहूदियों का सिनागोग भी. घृणा और भेद भाव के बदले अगर अयोध्या के राम सब धर्मों को मान देंगे तभी सचमुच अयोध्या में वापस आयेंगे.

सोमवार, सितंबर 20, 2010

ज़ंग लगे गुलाब

हल्की हल्की बारिश आ रही है. हवा की ठंडक से झुरझुरी सी आ रही है. ग्रीष्म ऋतु कब गयी और शिशर कब आया, पता ही नहीं चला. पेड़ों के कथ्थई, भूरे, पीले पत्तों की चादर बिछी है बाग में, उन पर चलो तो छपक छपक की गीली आवाज़ आती है और जूतों पर चिपक जाते हैं. लगता है कि बस पलक झपकूँगा तो वर्ष बीत जायेगा, समय इतनी तेज़ी से निकल रहा है. विश्वास नहीं होता कि कल लगभग इसी समय मैं मापूतो शहर में था.

चमकती हरी घास पर पानी की बूँदें. तम्बारा के बूढ़े नवयुवकों के चेहरे सामने आ जाते हैं. बालों में, आँखों में, नाक में धूल भर गयी थी. सात घँटों तक कच्ची सड़क पर जीप के धक्के खाने से कमर दर्द कर रही थी, सुबह सुबह चाय के साथ बस एक केला खाया था, भूख भी लगी थी. वे सब हमारे इन्तज़ार में स्वयंसेवकों की संस्था के दफ़्तर में बैठे थे. आसपास कोई और पक्का घर नहीं था, केवल झोपड़ियाँ. "स्वास्थ्य के अतिरिक्त और क्या समस्याएँ हैं यहाँ की?" मैंने टीबी, कुष्ठ रोग और एड्स की रिपोर्ट पढ़ने वाले नवयुवक से पूछा था. मुझे कुछ देर तक देखता रहा था, फ़िर धीरे से बोला था, "भूख, भूख है हमारी सबसे बड़ी समस्या, कुछ खाने को नहीं मिलता." उसके पिचके गाल और निराश आँखों में दबे गुस्से से हतप्रभ रह गया था, अपने आप पर बहुत शर्म आयी थी.

दस साल बीत गये लड़ाई को खत्म हुए, अब जगह जगह दबे बम जिससे बच्चों की टाँगें उड़ जाती है, बहुत कम हैं. लेकिन बीहड़ जंगल में अब भी कोई चिड़िया पशु आसानी से नहीं दिखते, लड़ाई में सब खत्म हो गया. थोड़ी दूर ही बहती है जम्बेज़ी नदी, जिसका पाट इतना चौड़ा है कि दूसरा सिरा नहीं दिखता, पर गाँव वाले बारिश के पानी के लिए तरस रहे हैं. हथियार मिल जाते हैं इस दुनिया में, बम मिल जाते हैं, सड़क, पानी नहीं मिलते.

"मेरा एक साल का बेटा मरा, पेट खराब हुआ था उसका", "मेरी छः महीने की बेटी मरी, मीसल्स से", "मेरा तीन महीने का बच्चा मरा मलेरिया से", मेरे एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उनके मरे हुए छोटे बच्चों की सूची खत्म होने को नहीं आती थी.

"यह सब सोचने से क्या फ़ायदा", मैं स्वयं से कहता हूँ. यहाँ हरे भरे बाग में कुत्ते को सैर कराते समय, अफ्रीकी गाँव की धूल मिट्टी सपना सा लगती है.

छप छप करते हैं जूते पानी पर. क्यारी में लगे पीले गुलाब को देख कर पोलैंड के कवियत्री मारिया पाउलीकोव्सका की कविता की पंक्तियाँ याद आती हैं
पतझड़ के जंग लगे गुलाब
बारिश के सफेद हाशिये को देखते हैं - बारिश आसमान को धरती से सिल रही है
झुरझुरियों और टाँकों के साथ
कश्मीर में भी गुलाबों को जंग लगा होगा. पत्थर फैंकने वाले किशोरों की लाशों का. उनकी माँओं के आँसुओं से अब तक झील में बाढ़ नहीं आयी क्या?

शनिवार, अगस्त 21, 2010

अंतिम श्रद्धाँजलि - राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

टिप्पणीः यह आलेख स्व. डा. सावित्री सिन्हा के आलेख संग्रह "तुला और तारे", (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, 1966) से है. दद्दा (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त) का देहांत 12 दिसंबर 1964 में हुआ.

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India's national poet Maithili SharanGupt
उस दिन दद्दा की विदा के बाद हम सबका मन भारी हो रहा था. स्टेशन के वेटिंग रूम में थोड़ी देर के लिए उनके गले में जलन सी होने लगी थी, इसलिए हमारी चिन्ता और भी बढ़ गयी थी. रात में दो तीन बार आँखें खुल गयीं. सुबह तड़के ही मुझसे रहा न गया और झाँसी के लिए ट्रंककाल बुक करवायी, न जाने मन में कैसी कैसी दुश्चिताएँ उठती रहीं, परन्तु टेलीफोन एक्सचेंज की कृपा से काल झाँसी नहीं, राँची की मिली, वह भी ग्यारह बजे दिन को. मेरे क्लास का समय हो रहा था इसलिए विवश हो कर उसे कैंसल करवाना पड़ा. पत्र लिखने की सोच रही थी कि ज्वरग्रस्त हो गयी और फ़िर उसी ज्वर में खबर मिली कि दद्दा नहीं रहे. जीवन की कुछ अमूल्य निधियों में मेरे लिए सबसे गौरवपूर्ण निधि दद्दा का अकारण स्नेह था. कहाँ मैं, एक अकिंचन, महत्वहीन तुच्छ व्यक्ति, और कहाँ भारत के महान राष्ट्रकवि के वात्सल्य का अगाध समुद्र. आज लग रहा है जैसे मेरी अपात्रता और अकिंचता ने ही मुझे उस अपार वैभव से वंचित कर दिया है. न जाने कौन सा सूत्र पिछले तीन दिनों से दद्दा के लिए बैचेन कर रहा था. निधन का समाचार कान में पड़ते ही मैं भरे बुखार में रजाई छोड़ कर उठ खड़ी हुई, डा. नगेन्द्र के घर फोन किया, मालूम पड़ा कि जब से चिरगाँव से ट्रंककाल आयी है, डा. साहब कमरा बन्द किये बैठे हैं. डा. विजयेनद्र स्नातक जी के यहाँ फोन किया तो मालूम हुआ उन्हें यह सन्देश डा. साहब के यहाँ से ही मिला था. मेरी अस्वस्थता और रुग्णता के कारण मुझे खबर नहीं दी गयी. मन किया किसी तरह चिरगाँव उड़ जाऊँ. दद्दा के अन्तिम दर्शन तो मिल जायेंगे, परन्तु फोन से पता चला कि उनकी अन्त्येष्टि क्रिया के लिए निर्धारित समय तक पहुंचना सम्भव नहीं है. और फ़िर दद्दा की बातें, उनकी हँसी, उनके लाड़ दुलार, कानों में गूँजते रहे, उनकी तस्वीर आँखों के आँसुओं के साथ उभरती रही.

दद्दा की त्रयोदशी में सम्मिलित होने के लिए दिल्ली से एक स्पेशल बोगी का प्रबन्ध हो गया था. यात्रियों में से अधिक ऐसे थे जिन्हें दद्दा चिरगाँव आने का निमन्त्रण दे गये थे, पर अपने अतिथियों को हाथों हाथ लेने वाला अतिथेय, अपने स्वभाव और संस्कार के विरुद्ध सबको अपने घर बुला कर स्वयं अदृष्य हो गया था. रात को लगभग डेढ़ बजे गाड़ी झाँसी पहुँच गयी, और वहीं हमारा डिब्बा कट गया. झाँसी का स्टेशन फ़िर अपने साथ अनेक स्मृतियाँ ले कर सामने खड़ा हो गया. पिछली दो बार जब हम आये थे, दद्दा स्टेशन पर आतुरता से हमारा इन्तजार करते हुए मिले थे, उनके चेहरे पर उमड़ता हुआ वह आह्लाद, वह स्फटिक सा व्यवहार आज इस लेखनी में कैसे बाँधू -
"छिन्न भी है, भिन्न भी है हाय,
क्यों न रोवे लेखनी निरुपाय?"
जितनी देर हमारे सामान इत्यादि की व्यवस्था होती रही, दद्दा वहीं प्लेटफार्म पर पड़ी हुई लकड़ी की बैंच पर बैठे रहे, और आते जाते लोग उनके सामने सिर झुका झुका कर जाते रहे. जनता का यह नमन किसी खद्दरधारी राजनीतिज्ञ के प्रति नहीं था, उनकी श्रद्धामयी आँखों में और मुग्ध भावाभिव्यक्ति में भक्ति का आह्लाद ही था आतंकजन्य विनय नहीं. एक जीर्ण शीर्ण वस्त्रधारी भिखारी दद्दा के चरणों के पास आ कर साष्टांग प्रणाम करके लेट गया, उनकी दयार्द्र आँखों ने उसे कुछ दिलवा कर विदा किया, एक अर्ध विक्षिप्त सा व्यक्ति बाल बिखराये उनके निकट आ कर प्रलाप करता रहा, और दद्दा बड़ी सहिष्णुता और सुहानुभूति के साथ उसे देखते और उसकी बात सुनते रहे. मैंने कई बार बड़े बड़े मठाधिकारियों और धर्म के संरक्षकों का व्यवहार इस वर्ग के प्रति देख रखा था. पीड़ित दुखी जनता के प्रति उनकी दुरदुराहट की तीव्र प्रतिक्रिया के फ़लस्वरूप ही मेरा मन मिशनों, धर्म संस्थाओं और आध्यात्मिक व्यक्तित्वों से विमुख हो गया है, पर उस दिन स्वच्छता और छूत पाक के वैष्णव विधान पर पूर्ण विश्वास करने वाले दद्दा का वैष्णव नहीं केवल मानव रूप देखा. आज झाँसी के उसी महामानव और हिन्दी संसार के दद्दा के स्नेहपूर्ण स्वागत के बिना स्टेशन भाँय भाँय कर रहा था.

हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार श्रद्धेय वृन्दावनलाल वर्मा के प्रेस में हमारे भोजन की व्यवस्था थी. निःशब्द भोजन चल रहा था जैसे यह कोई यांत्रिक काम था जिसे किसी तरह पूरा करना था. ग्रास थाली से हाथ में आ कर मुँह में जा रहे थे और पिछली बार झाँसी की हवेली में भोजन करते हुए दद्दा के स्नेहपूर्ण आग्रह कान में गूँज रहे थे. श्रुतिपुट से आयी दद्दा की स्मृतियाँ पलकों में न समा सकने के कारण आँसू बन कर बिखर रही थीं.

भोजनोपरान्त, हम बस में बैठ कर चिरगाँव चले. चारों ओर की हरियाली भरी पहाड़ियों का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं था, अतीत के मौन ताने बाने में बस की घरघराहट और आसपास का शोर गुल जैसे लुप्त हो गया था और फ़िर उसके बाद हम बेतवा के बाँध पर आये. यह स्थान दद्दा को बहुत प्रिय था, मेरे मानस चक्षु के सामने दद्दा बोल रहे थे, "पंडित जी (पं. जवाहरलाल नेहरू) को यह स्थान बहुत अच्छा लगा था, वे इसे देख कर भाव विभोर काफ़ी देर तक खड़े रहे, हमारे मना करते करते भागते दौड़ते वहाँ .. वहाँ.. दूर तक पहुँच गये थे." उस दिन दद्दा बेतवा के किनारे खड़े हो कर दिवंगत राष्ट्रनायक को भरे गले से याद कर रहे थे और आज राष्ट्रकवि के अभाव में बेतवा की पछाड़ खाती लहरों के निकट ठहरने का हमें साहस नहीं हुआ. उदास और क्लांत हृदय यात्री बस से उतर पैदल मौन गुप्त बंधुओं की प्रसिद्ध बखरी की ओर चले, "चिरगाँव की शोभा" को झुक झुक प्रणाम करने वाली, हाट की जनता हमारी ओर उदास नेत्रों और म्लान मुख से देख रही थी, जैसे उन्हें यह पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी कि हम वहाँ किस उद्देश्य से गये हैं. बखरी के फाटक पर गम्भीर विषाद से युक्त गिरधारी ने मौन विनयाचार में हाथ जोड़े, उसके होंठ सिहरे और आँखें आँसुओं से भर आयीं. गुप्त बंधुओं की पुश्तैनी बखरी मौन साधे सविषाद पाषाण बनी खड़ी थी, हमारे पहुँचते ही प्रस्तर मूर्तियों की तरह निश्चल खड़े दद्दा के स्वजन यन्त्रवत चल कर निकट आये और फ़िर बखरी में कुहराम मच गया, दद्दा के पुत्र उर्मिल जी डा. नगेन्द्र के अंक में मुँह छिपा कर क्रन्दन कर उठे और फ़िर सारी बखरी में रुदन और विलाप का स्वर छा गया.

हिम्मत नहीं होती थी अंदर जाने की. "गौरवमंण्डित सुहागनी" के करुण वैधव्य का सामना करने का साहस मुझे नहीं हो रहा था, मैं बड़ी हिम्मत करके अन्दर गयी और जिया के वलयशून्य हाथों ने मुझे लपेट लिया, उनकी आँखों से निरन्तर आँसू बहते रहे, साकेत की "मूर्तिमति ममता माया" आज अपना मुँह अवगुण्ठन में लपेटे वटवृक्ष की छाया से छिन्न लता सी क्लांत, शिथिल हो रही थी. शान्ति, दद्दा की पुत्रवधू अपनी गोद में नन्ही सी बिटिया को लिए बिलख रही थी.

श्राद्ध पूरा हुआ. होम का धूँआ सारी बखरी पर छा गया, जिया ने लाल जोड़ा उतार कर श्वेत वस्त्र धारण किया और गु्प्त कुल की बखरी की दीवारें जैसे सिर धुन धुन कर रोने लगीं. उसके इतिहास का उज्जवलतम अध्याय अब नये चरण में प्रवेश कर रहा था, वह माई का लाल जिसने पितृव्यों को भौतिक ऋण से मुक्त किया था, अपने कुल के उपास्यदेव राम की नयी प्रतिष्ठा द्वारा उनका आध्यात्मिक ऋण चुकाया. जिसकी वाणी से सारा राष्ट्र प्रेरणा स्फूर्त हो उठा आज इस बखरी से सदा के लिए विदा ले चुका था. शेष रह गयी थी मस्तिष्क में एक दूसरे को ढकेलती हुई उसकी असंख्य स्मृतियाँ, उसकी दिव्य साधना के भौतिक अवशेष.

दर्शक उनके शयन कक्ष, अध्ययन कक्ष और बैठक के सामने सिर नवा कर अपनी श्रद्धा अर्पित कर रहे थे और मेरे मानस चक्षु के सामने दद्दा बोल रहे थे, "यह देखिए सावित्री जी, इसी कमरे में दोपहरी बिताता हूँ, पीछे का दरवाजा खोल देता हूँ, खूब अच्छी हवा आती है. यह ऊपर वाला कमरा मैंने जब विनोबा जी आने वाले थे तब बनवाया था ..बहुत दिल्ली देखी है, जरा गवंई गाँव भी देखिए."

और फ़िर चिरगाँव की शोकसभा का अविस्मरणीय दृश्य, बूढ़े बच्चे, चिरगाँव की अवगुण्ठनवती स्त्रियाँ और झाँसी की जाग्रत महिलाएँ सब आँसू बरसाते, श्रद्धा के सुमन चढ़ाते हुए. वहाँ का दृश्य देख कर साहित्यिक मनीषियों और कवियों के शब्द चुक गये. सर्वेश्वर दयाल की कविता के पाठ पर बूढ़ों की पुरानी पीढ़ी करुण आर्द्रता से सिर हिलाती रही, अज्ञेय का वक्तव्य भीड़ पर छा गया. एक युग समाप्त हुआ, इतिहास का एक पृष्ठ पलट गया, हिन्दी का सबसे बड़ा स्तम्भ गिर गया. नये और पुराने, बूढ़े और जवान, कृषक और कवि, स्त्री और पुरुष, एक भाव, एक रस में निमग्न हो गये, सब करुणा प्लावित, सब असहाय.
***

मैथिलीशरण गुप्त की मूल तस्वीर कविताकोष के साभार

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