शुक्रवार, अप्रैल 04, 2014

यह जीवन किसका?

पाराम्परिक भारतीय सोच के अनुसार अक्सर बच्चों को क्या पढ़ना चाहिये और क्या काम करना चाहिये से ले कर किससे शादी करनी चाहिये, सब बातों के लिए माता पिता, भैया भाभी, दादा जी आदि की आज्ञा का पालन करना चाहिये. कुछ उससे मिलती जुलती सोच हमारे नेताओं और समाजसेवकों की है जो हर बात में नियम बनाते हैं कि कौन सी फ़िल्म को या किताब को बैन किया जाये, फैसबुक पर क्या लिखा जाये, साड़ी पहनी जाये, जीन्स पहनी जाये या स्कर्ट, बाल कितने लम्बे रखे जाये, आदि.

अपने बच्चों को अपने निर्णय अपने आप करने देने के विषय पर मुझे लेबानीज़ लेखक ख़लील गिब्रान की एक कविता बहुत अच्छी लगती है (अनुवाद मेरा ही है):
तुम्हारे बच्चे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं
वह तो जीवन की अपनी आकाँक्षा के बेटे बेटियाँ हैं
वह तुम्हारे द्वारा आते हैं लेकिन तुमसे नहीं
वह तुम्हारे पास रहते हैं लेकिन तुम्हारे नहीं.
तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो लेकिन अपनी सोच नहीं
क्योंकि उनकी अपनी सोच होती है
तुम उनके शरीरों को घर दे सकते हो, आत्माओं को नहीं
क्योंकि उनकी आत्माएँ आने वाले कल के घरों में रहती हैं
जहाँ तुम नहीं जा सकते, सपनों में भी नहीं.
तुम उनके जैसा बनने की कोशिश कर सकते हो,
पर उन्हें अपने जैसा नहीं बना सकते,
क्योंकि जिन्दगी पीछे नहीं जाती, न ही बीते कल से मिलती है.
तुम वह कमान हो जिससे तुम्हारे बच्चे
जीवित तीरों की तरह छूट कर निकलते हैं
तीर चलाने वाला निशाना साधता है एक असीमित राह पर
और अपनी शक्ति से तुम्हें जहाँ चाहे उधर मोड़ देता है
ताकि उसका तीर तेज़ी से दूर जाये.
स्वयं को उस तीरन्दाज़ की मर्ज़ी पर खुशी से मुड़ने दो,
क्योंकि वह उड़ने वाले तीर से प्यार करता है
और स्थिर कमान को भी चाहता है.
***
इसी तरह की सोच हमारे जीवन के हर पहलू में होती है. डाक्टर बनो तो कुछ आदत सी हो जाती है कि लोगों को सलाहें दो कि उन्हें क्या करना चाहिये, क्या खाना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये. लोगों को भी यह अपेक्षा सी होती है कि डाक्टर साहब या साहिबा उन्हें कुछ नसीहत देंगे. मेडिकल कोलिज में मोटी मोटी किताबें पढ़ कर इम्तहान पास करने से मन में अपने आप ही यह सोच आ जाती है कि हम सब कुछ जानते हैं और लोगों को हमारी बात सुननी व माननी चाहिये. डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैं भी बहुत सालों तक यही सोचता था. फ़िर दो अनुभवों ने मुझे अपनी इस सोच पर विचार करने को बध्य किया. आप को उन्हीं अनुभवों के बारे में बताना चाहता हूँ.

Doctor lives grafic by Sunil Deepak, 2014

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पहला अनुभव हुआ सन् 1989 में मुझे मोरिशयस द्वीप में, जब वहाँ एक विकलाँग जन पुनरस्थापन यानि रिहेबिलेटेशन कार्यक्रम (Disability rehabilitation programme) का निरीक्षण करने गया. चँकि मोरिशियस में बहुत से लोग भारतीय मूल के हैं, तुरंत वहाँ मुझे अपनापन सा लगा. पोर्ट लुईस के अस्पताल में फिजिकल थैरपी विभाग के अध्यक्ष डा. झँडू ने मुझे घुमाने के सारे इन्तज़ाम किये थे. एक फिज़ियोथैरेपिस्ट मेरे साथ थे और हम लोग एक गाँव में गये थे. वहीं एक घर में हम लोग एक स्त्री से मिलने गये जिनकी उम्र करीब चालिस पैतालिस के आसपास थी. बहुत छोटी उम्र से ही उस स्त्री के रीढ़ की हड्डी के जोड़ों में बीमारी थी जिससे उसके जोड़ अकड़े अकड़े से थे. वह सीधा नहीं खड़ा हो पाती थी, घुटनों के बल पर चलती थी. वैसे तो मोरिशयस में करीब करीब हर कोई अंग्रेज़ी, फ्रैंच व क्रियोल भाषाएँ बोलता है लेकिन वह स्त्री केवल भोजपुरी भाषा बोलती थी.

मेरे साथ जो फिज़ियोथैरेपिस्ट थे उन्होंने बताया कि पुनरस्थापन कार्यक्रम ने उस स्त्री के लिए एक लकड़ी का स्टैंड बनाया था, जिसे पकड़ कर वह उसके ऊपर तक पहुँच कर वहाँ लटक सी जाती थी और फ़िर स्टैंड की सहायता से चल भी सकती थी. जब उस स्त्री ने मुझे उस स्टैंड पर चढ़ कर दिखाया कि यह कैसे होता था, तो मुझे लगा कि उन लोगों ने यह ठीक नहीं किया था. उस घर का फर्श कच्चा था, ऊबड़ खाबड़ सा. उस फर्श पर लकड़ी के स्टैंड को झटके दे दे कर चलना कठिन तो था ही, खतरनाक भी था. मेरे विचार में इस तरह का स्टैंड बनाने से बेहतर होता कि तीन या चार पहियों वाला कुछ नीचा तख्त जैसे स्टैंड होता जिस पर वह अधिक आसानी से बैठ पाती और जिसमें गिरने का खतरा भी नहीं होता.

मेरी बात को जब उस स्त्री को बताया गया तो वह गुस्सा हो गयी. मुझसे बोली कि "सारा जीवन घुटनों पर रैंगा है मैंने. लोगों को सिर उठा कर देखना पड़ता है, मानो कोई कुत्ता हूँ. इस स्टैंड की मदद से मैं भी इन्सानों की तरह सीधा खड़ा हो सकती हूँ, लोगों की आँखों में देख सकती हूँ. जीवन में पहली बार मुझे लगता है कि मैं भी इन्सान हूँ. मुझे यही स्टैंड ही चाहिये, मुझे छोटी पटरी नहीं चाहिये!"

मैं भौचक्का सा रह गया. उसकी बात मेरे दिल को लगी. सोचा कि लाभ नुक्सान देखने के भी बहुत तरीके हो सकते हैं. मेरे तकनीकी दृष्टि ने जो समझा था वह उसकी भावनात्मक दृष्टि से और उसके जीवन के अनुभव से, बिल्कुल भिन्न था. पर वह जीवन उसका था और उसे का यह अधिकार था कि वही यह निर्णय ले कि उसके लिए कौन सी दृष्टि बेहतर थी.

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दूसरा अनुभव ब्राज़ील से एक शोध कार्यक्रम का है, जिसके लिए मैं एक विकलाँग युवती से साक्षात्कार कर रहा था. वह तीस बत्तीस साल की थी. दुबली पतली सी थी, और उसके चेहरे पर रेखाओं का महीन जाल सा बिछा था जो अक्सर उनके चेहरों पर दिखता है जिन्होंने बहुत यातना सही हो. हम लोग पुर्तगाली भाषा में बात कर रहे थे. उस युवती नें मुझे अपनी कहानी सुनायी.

वह पैदा हुई तो उसकी रीढ़ की हड्डी टेढ़ी थी, जिसे चिकित्सक "स्कोलिओसिस" कहते हैं. उसका परिवार एक छोटे से शहर के पास गाँव में रहता था जहाँ वे लोग खेती करते थे. छोटी सी थी जब उसे घर से बहुत दूर एक बड़े शहर में रीढ़ की हड्डी के ओपरेशन के लिए लाया गया. करीब पंद्रह वर्ष उसने अस्पतालों के चक्कर काटे, और उसके चार या पाँच ओपरेशन भी हुए.

वह बोली, "मेरा जीवन डाक्टरों ने छीन लिया. जब मुझे पहली बार अस्पताल ले कर गये तो ओर्थोपेडिक डाक्टर ने कहा कि ओपरेशन से मेरी विकलाँगता ठीक हो जायेगी. पर मेरे परिवार के पास इतने पैसे नहीं थे. फ़िर घर से दूर मेरे माता या पिता को मेरे साथ रहना पड़ता तो घर में काम कैसे होता? पर डाक्टर ने बहुत ज़ोर दिया, कि बच्ची ठीक हो सकती है और उसका ओपरेशन न करवाना उसका जीवन बरबाद करना है. अंत में मेरे पिता ने अपनी ज़मीन बेची दी, सारा परिवार यहीं पर शहर में रहने आ गया. पर उस डाक्टर ने सही नहीं कहा था. यह सच है कि ओपरेशनों की वजह से, अब मेरी रीढ़ की हड्डी कम टेढ़ी है. इससे मेरे दिल पर व फेफड़ों पर दबाव कम है, और मैं साँस बेहतर ले सकती हूँ. शायद मेरी उम्र भी कुछ बढ़ी है, नहीं तो शायद अब तक मर चुकी होती. पर इस सब के लिए मैंने व मेरे परिवार ने कितनी बड़ी कीमत चुकायी, उस डाक्टर ने इस कीमत के बारे में हमसे कुछ नहीं कहा था! जिस उम्र में मैं स्कूल जाती, पढ़ती, मित्र बनाती, खेलती, वह सारी उम्र मैंने अस्पतालों में काटी है. पंद्रह वर्ष मैंने अस्पताल के बिस्तर पर दर्द सहते हुए काटे हैं. हमने अपना गाँव, अपनी ज़मीन खो दी. मेरे भाई बहनों, माता पिता, सबने इसकी कीमत चुकायी है. कितने सालों तक माँ मेरे साथ अस्पताल में रही, मेरे भाई बहन बिना माँ के बड़े हुए हैं. डाक्टर ने हमें यह सब क्यों नहीं बताया था, क्यों नहीं हमें मौका दिया कि हम यह निर्णय लेते कि हम यह कीमत चुकाना चाहते हैं या नहीं? क्या फायदा है लम्बा जीवन होने का, अगर वह जीवन दर्द से भरा हो? क्या यह सचमुच जीवन है? क्या केवल साँस लेना और खाना खाना जीवन है? अगर घड़ी को पीछे ले जा सकते तो मैं अपना कोई ओपरेशन न करवाती. मैं स्कूल, मित्र, खेल को चुनती, अस्पतालों और ओपरेशनों को नहीं."

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इन दोनो अनुभवों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा. बहुत सोचा है मैंने उनके बारे में. मैं अब मानता हूँ कि कुछ भी बात हो, जिसके जीवन के बारे में हो, उसे अपने जीवन के बारे में हर निर्णय में अपना फैसला लेने का अधिकार होना चाहिये. अक्सर हम सोचते हैं कि हम किसी की बीमारी या जीवन की समस्या के बारे में अधिक जानते हैं क्योंकि हम उस विषय में "विषेशज्ञ" हैं, लेकिन अधिक जानना हमें यह अधिकार नहीं देता कि हम उनके जीवन के निर्णय अपने हाथ में ले लें.

मेरे विचार में मेडिकल कालेज की पढ़ाई में "चिकित्सा व नैतिकता" के विषय पर भी विचार होना चाहिये. यानि हम सोचें कि जीवन किसका है, और इसके निर्णय किस तरह से लिये जाने चाहिये! अक्सर डाक्टरों की सोच भी "माई बाप" वाली होती है, जिसमें गरीब मरीज़ को कुछ समझाने की जगह कम होती है. सरकारी अस्पतालों में भीड़ भी इतनी होती है कि कुछ कहने समझाने का समय नहीं मिलता.

चिकित्सा की बात हो तो भाषा का प्रश्न भी उठता है. लोगों को अपने जीवन के निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिये, पर हम लोग अपना सारा काम अंग्रेज़ी में करते हैं, दवा, चिकित्सा, ओपरेशन, सब बातें अंग्रेज़ी में ही लिखी जाती हैं. जिन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती, वह उन कागज़ों से क्या समझते हैं? और अगर समझते नहीं तो कैसे निर्णय लेते हैं अपने जीवन के?

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चाहे बात हमारे बच्चों के जीवन की हो या अन्य, मेरे विचार में हम सबको अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार है. मैं यह नहीं कहता कि यह माता पिता या घर के बुज़ुर्गों के लिए यह हमेशा आसान है, विषेशकर जब हमें लगे कि हमारे जीवन के अनुभवों से बच्चों को फायदा हो सकता है. पर बच्चों को अपने जीवन की गलतियाँ करने का भी अधिकार भी होना चाहिये, हमने भी अपने जीवन में कितनी गलतियों से सीखा है!

दूसरी बात है डाक्टर या शिक्षक जैसे ज़िम्मेदारी का काम जिसमें लोगों को अपने जीवन के निर्णय लेने के लिए तैयार करना व सहारा देना आवश्यक है. लोगों को गरीब या अनपढ़ कह कर, उनसे यह अधिकार छीनना भी गलत है. यह भी आसान नहीं है लेकिन मेरे अनुभवों ने सिखाया है कि यह भी उतना ही आवश्यक है.

आप बताईये कि आप इस विषय में क्या सोचते हैं? आप के व्यक्तिगत अनुभव क्या हैं?

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शुक्रवार, मार्च 07, 2014

हिन्दी फ़िल्में और धूँए के छल्ले

इस वर्ष की ऑस्कर पुरस्कार समारोह में जब इतालवी फ़िल्म "द ग्राँदे बेलेत्ज़ा" (La grande Bellezza - एक बड़ी सुन्दरता) को विदेशी फ़िल्मों के श्रेणी का प्रथम पुरस्कार मिला है तो बहुत खुशी हुई. फ़िल्म के नायक हैं जीवन की सच्चाईयों से थके हुए साठ साल के पत्रकार जेप गाम्बेरदेल्ला, जो अपने जीवन के सूनेपन को रात भर चलने वाली पार्टियों, शराब और अपने से बीस साल छोटी औरतों के साथ रातें बिता कर भरने की कोशिश करते हैं. फ़िल्म की पृष्ठभूमि में है रोम शहर की इतिहास से भरी सुन्दर दुनिया, होटल और स्मारक.

फ़िर सोचा कि अगर यह फ़िल्म भारत में बनती तो सारी फ़िल्म में "धुम्रपान करना शरीर को नुकसान देता है" का संदेश सिनेमा हाल के पर्दे पर चिपका रहता क्योंकि शायद ही इस फ़िल्म में कोई दृश्य हो जिसमें इस फ़िल्म के नायक के हाथ में सिगरेट नहीं होती.

मुझे यह फ़िल्म बहुत अच्छी लगी थी, हालाँकि इटली में बहुत से लोगों ने इस फ़िल्म की निन्दा की है. बात कुछ वैसी ही है जैसे अगर किसी भारतीय फ़िल्म में गरीबी, गन्दगी, झोपड़पट्टी को दिखाया जाये और उसे विदेशों में प्रशँसा मिले तो भारत में लोग खुश नहीं होते, बल्कि कहते हैं कि विदेशियों को भारत में केवल यही दिखता है, अन्य कुछ नहीं दिखता. वैसे ही इतालवी जनता कहती है कि विदेशियों को इटली में केवल सुन्दर स्मारक और हर समय खाने, घूमने, पार्टी करने, शराब पीने वाले और सेक्स के बारे में सोचने वाले लोग दिखते हैं, अन्य कुछ नहीं दिखता!

"द ग्राँदे बेलेत्ज़ा" देखते हुए, मुझे भारत के धुम्रपान निषेध कार्यक्रम की फ़िल्मों में धुम्रपान दिखाने वाली बात का ध्यान आया. इसी बारे में कुछ दिन पहले के टाईमस ऑफ़ इन्डिया के अंग्रेज़ी समाचार पत्र में फ़िल्म निर्देशक अनुराग कश्यप व टाटा मेमोरियल होस्पिटक के डा. पंकज चतुर्वेदी के बीच हुई बहस  का समाचार था. अनुराग ने न्यायालय में सिगरेट व तम्बाकू उत्पादनों के विषय में बने कानून को कलात्मक अभिव्यक्ति के विरुद्ध बताया है और इस कानून को बदलने की माँग की है.

जबकि डा. चतुर्वेदी ने इस अपील के विरुद्ध याचना की है. उनका कहना है कि भारत में तम्बाकू उत्पादनों से मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है, इसलिए धुम्रपान व तम्बाकू उत्पादनों के विरुद्ध चलाये जाने वाले अभियान बन्द नहीं किये जाने चाहिये.

Anti-tabacco campaign, WHO, Geneva, Switzerland - images by Sunil Deepak, 2011

फ़िल्मों की कलात्मक अभिव्यक्ति

मैं अनुराग कश्यप तथा उन फ़िल्म निर्माताओं से सहमत हूँ जो कहते हैं कि फ़िल्में कला का माध्यम हैं, जैसे कि पुस्तकें, चित्रकला, संगीतकला, नाटक, शिल्प, इत्यादि. कला का ध्येय जीवन को दिखाना है, चाहे वह जीवन के अच्छे रूप हों या कड़वे व गलत रूप. कला के उपर कोई भी संदेश ज़बरदस्ती चिपकाना उस कला का रूप बिगाड़ना है. जब कोई आप के घर की दीवार पर बिना अनुमति के पोस्टर चिपका दे, या कुछ लिख दे, तो बुरा लगना स्वाभाविक है. सरकार द्वारा इस तरह का नियम बनाना कि फ़िल्म में किसी दृश्य में कोई सिगरेट बीड़ी पीते हुए दिखाया जाये तो धुम्रपान के खतरों के बारे में संदेश दिखाया जाये, सरकारी ताकत का गलत प्रयोग है.

पर सरकार के लिए अपने नागरिकों की जान व स्वास्थ्य की रक्षा करना भी महत्वपूर्ण है. इसलिए असली बहस इस विषय पर होनी चाहिये कि सरकार क्या कर सकती है कि लोगों में सिगरेट व तम्बाकू उत्पादनों का प्रयोग कम हो?

कोई भी फ़िल्म निर्माता या कलाकार इस बात से मना नहीं कर सकता कि सरकार जनसंचार के माध्यमों का प्रयोग करे जिससे जनता में सही जानकारी पहुँचे और जिस बात से जनता का अहित होता हो, उसके बारे में जानकारी फ़ैले. इसलिए फ़िल्म के प्रारम्भ से पहले, या इन्टरवल में, या टीवी, पत्रिकाओं व समाचार पत्रों आदि में, जनहित की जानकारी का प्रसार किया जाये, इसे सबको मानना चाहिये.

पर मेरा सोचना है कि धुम्रपान या गुटके जैसी वस्तुओं के प्रयोग को कम करने के लिए फ़िल्मों से जुड़ी कुछ अन्य बाते भी हैं जिनपर पूरा विचार नहीं किया गया है, और जिनके बारे में कुछ कहना चाहूँगा.

नशे से लड़ना

सिगरेट व तम्बाकू सेवन नशे हैं जिनकी आदत पड़ती है. यानि एक बार उनके उपयोग की आदत पड़ जाये तो शरीर को उनकी तलब होने लगती है और नशे से निकलना कठिन हो जाता है. कई बार दिल का दौरा पड़ने या तम्बाकू की वजह से पैर की नसों के बन्द होने से पैर काटने के ऑपरेशन के बाद भी, अपनी जान का खतरा होने पर भी, जिन्हें आदत पड़ी हो वह इनको छोड़ नहीं पाते. इसलिए इन अभियानों को सबसे अधिक कोशिश करनी चाहिये कि किशोर व नवजवान पीढ़ियाँ इस आदत के खतरों को समझें व इनसे दूर रहें. जो एक बार इनके झमेले में आ गया, उसे इस आदत से बाहर निकलने के लिए अभियान करने से सफलता कम मिलती है. उसके लिए फ़िल्मों में संदेश देना अभियान के लिए शायद सही तरीका भी नहीं है.

इस दृष्टि से देख कर सोचिये कि फ़िल्मों में क्या होता है जिनसे किशोरों व नवजवानों को सिगरेट पीने या गुटका खाने की प्रेरणा मिलती है? अगर फ़िल्मों में खलनायक, गुँडे, गरीब लोग, प्रौढ़ या बूढ़ों को धुम्रपान करते दिखाया जायेगा तो क्या किशोर व नवजवान उससे प्रेरणा लेंगे? मेरे विचार में किशोरों व नवजवानों को यह प्रेरणा तब मिलती है जब फ़िल्मों में नायक, नायिका, उनके मित्र, सखियाँ और नवयुवकों को धुम्रपान करते हुए दिखाया जाता है. जब सुन्दर जगह पर, सुन्दर घरों में, सुन्दर वस्त्र पहने सुन्दर लोग, यह संदेश देंगे कि धुम्रपान, शराब आदि से ही जीवन का असली मज़ा है, कि नवजवानों में सिगरेट पीना आम बात है, कि सब नवजवान ऐसा करते हैं, कि धुम्रपान करना या शराब पीना समाज से विरोध के या अपनी स्वतंत्रता दिखाने के या आधुनिकता दिखाने के अच्छे रास्ते हैं, तो इससे समाज की नयी पीढ़ी को यह प्रेरणा मिलती है.

मेरा सोचना है कि अगर सारी फ़िल्म में खलनायक सिगरेट पीता हो तो उसका कम असर होता है, लेकिन हीरो या हीरोइन बस एक दृष्य में दो पल के लिए भी सिगरेट पीते दिखा दियें जायें तो उसका छोटी उम्र व किशोरों पर बहुत असर होता है.

यानि, जीवन दिखाने के लिए फ़िल्मों में धुम्रपान के दृश्य हों तो कोई बात नहीं, लेकिन असली प्रश्न है कि क्या फ़िल्मों में हीरो-हीरोइन को धुम्रपान करते दिखाना क्या सचमुच आवश्यक है? अगर फ़िल्म दिखाना चाहती है कि कैसे हीरो हीरोइन को नशे की आदत पड़ी, तो इसे स्वीकारा जा सकता है लेकिन अगर इन दृश्यों का कहानी में कोई महत्व नहीं है तो क्यों आजकल की फ़िल्में इस तरह के दृश्य रखती हैं? क्या सिगरेट बनाने वाली कम्पनियाँ फ़िल्मों में पैसा लगा रही हैं कि हीरो व हीरोइन या उनके मित्रों वाला ऐसा एक दृश्य फ़िल्म में जबरदस्ती रखना चाहिये? उसके ऊपर जितने भी संदेश चिपका दीजिये, उनका किशोरों के दिमाग पर अवश्य असर पड़ेगा?

सिगरेट कम्पनियों का फ़िल्मों में पैसा

होलीवुड की फ़िल्मों में 1940-1960 के समय में सिगरेट कम्पनियों ने फ़िल्मों में पैसे लगाये ताकि फ़िल्मों में हीरो व हीरोइन दोनो को सिगरेट पीता दिखाया जाये. इस तरह से सिगरेट पीने से  "यह सामान्य है", "यह प्रचलित है, सब पीते हैं" व "इससे सेक्सी लगते हैं, मित्र बनते हैं" जैसे संदेश दिये गये. होलिवुड के अभिनेताओं को फ़िल्मों में और सामाजिक अवसरों पर विषेश ब्राँड की सिगरेट पीने के लाखों डालर दिये जाते थे क्योंकि सिगरेट कम्पनियाँ जानती थीं कि उन सितारों के चाहने वाले उनकी नकल करेंगे. फ़िल्मी सितारों का सबसे अधिक असर 10 से 19 वर्ष के किशोरों, युवकों व युवतियों पर पड़ता है, यह शोध ने दिखाया है फि़ल्मों में अपने प्रिय अभिनेताओं को धुम्रपान करते देख कर इस उम्र में सिगरेट पीना बढ़ता है यह भी शोध ने दिखाया है.

हालीवुड में यह सब कैसे किया गया, आज इसके विषय पर बहुत सी रिपोर्टें हैं, डाकूमैंटरी फ़िल्में भी बनी हैं. पिछले कुछ सालों में कुछ हिन्दी फ़िल्मों को देख कर लगता है कि भारत में भी बिल्कुल वैसे ही प्रयास किये जा रहे हैं, जिसपर धुम्रपान निषेध करनाने वाले फ़िल्मी अभियानों को कुछ असर नहीं हो रहा.

भारत में युवतियों में सिगरेट पीना बढ़ाने के लिए, फ़िल्मों के माध्यम से यह दिखाया जाये कि हीरोइन सिगरेट पीने से अधिक स्वतंत्र या आधुनिक है तो उसका किशोरो व किशोरियों पर असर पड़ सकता है. पिछले कुछ वर्षों में दीपिका पादूकोण (ब्रेकअप के बाद), कँगना रानावत (तनु वेडस मनु), परिणिति चौपड़ा (शुद्ध देसी रोमाँस) जैसी अभिनेत्रियों ने अपनी फ़िल्मों में इस तरह के दृश्य किये हैं जिनका उद्देश्य यह दिखाना है कि वह आधुनिक युवतियाँ हैं. आजकल फ़िल्मों में हर तरह की कम्पनियाँ पैसा लगाती हैं ताकि फ़िल्म के किसी दृश्य में उनकी ब्रैंड को दिखाया जाये. तो क्या सिगरेट कम्पनियाँ भी भारतीय फ़िल्मों में पैसा लगा रही हैं जिससे जवान हीरो हीरोइनों को एक दो दृश्यों में सिगरेट पीते दिखाया जाये?

यानि मेरे विचार में अगर "फैशन" जैसी फ़िल्म में प्रियँका चौपड़ा, या "हीरोइन" में करीना कपूर या "गैन्गस ऑफ़ वास्सेयपुर" में नवाजुद्दीन को धुम्रपान करते दिखाया जाये तो इन दृश्यों को फ़िल्म के कथानक की आवश्यकता माना जा सकता है और इनका किशोरों व नवयुवकों पर उतना प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि इन फ़िल्मों में धुम्रपान की नेगेटिव छवि बनती है, क्योंकि इनमें धुम्रपान के साथ असफलता, बुरे दिन, नशे जैसी बातें जुड़ जाती है, जिसे धुम्रपान निषेध अभियान का हिस्सा माना जा सकता है.

यह कुछ वैसा ही है जैसे कि हालीवुड की केविन कोस्टनर की फ़िल्म "वाटरवर्ल्ड" (Waterworld) में था. उस फ़िल्म में खलनायकों को सिगरेट पीने वाला व अच्छे लोगों को धुम्रपान विरोधी दिखाया गया था, जो एक तरह से सिगरेट न पीने का विज्ञापन था.

दूसरी ओर नवजवान प्रेमकथाओं में, स्कूल व कोलिज की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्मों में, बच्चों की कहानियों में अगर तीस पैंतीस साल से छोटी आयू के लोगों का  धुम्रपान का दृश्य हो जिससे किशोरों व नवयुवकों को धुम्रपान की प्रेरणा मिल सकती है, तो उन फ़िल्मों को "केवल व्यस्कों के लिए" कर देना चाहिये. फ़िल्म निर्माताओं के लिए यह बताना कि उन्होंने सिगरेट बनानी वाली कम्पनियों से सिगरेट पीने के दृश्य दिखाने का पैसा लिया है भी आवश्यक किया जा सकता है.

स्वास्थ्य मंत्रालय, धुम्रपान विरोधी अभियान वाले, फ़िल्म निर्माता व फ़िल्म अभिनेता सभी को साथ ला कर इस दिशा में विचार होना चाहिये कि कैसे नयी पीढ़ी पर धुम्रपान कम कराने के अभियान का काम आगे बढ़ाना चाहिये तथा फ़िल्में इस दिशा में क्या सहयोग दे सकती हैं? छोटी मोटी फ़िल्मों में छोटे मोटे अभिनेता क्या करते हें, उससे कम प्रभाव पड़ता हैं. जाने माने प्रसिद्ध अभिनेता क्या करते हैं, असली बात तो उसकी है, और उनको बदलने के लिए उनकी राय लेना आवश्यक है.

फ़िल्मों के बाहर

पर यह सोचना की धुम्रपान केवल फ़िल्मों की वजह से है, गलत है. आज जीवन के हर पहलू पर बाज़ार व व्यापारियों का बोलबाला है. सरकार एक ओर से धुम्रपान कम करने की बात करती है, दूसरी ओर सिगरेट शराब पर लगे टेक्स की आमदनी भी चाहती है.

सिगरेट बनाने वाली कम्पनियाँ अन्य कई धँधों में लग गयी हैं जिससे उनके पास अपनी ब्राँड का विज्ञापन करना आसान हो गया है. ऑस्ट्रेलिया सरकार ने यह कोशिश की सभी सिगरेट की डिब्बियों को एक जैसा कर दिया जाये जिससे ब्राँड का दबाव कम हो जाये पर इसके लिए ऑस्ट्रेलिया सरकार पर मुकदमा किया गया है और विकासशील देशों की सरकारों के लिए इस तरह के निर्णय लेना कठिन है. बहुदेशीय कम्पनियों की लड़ाई केवल सिगरेट बेचने की नहीं, बल्कि शराब, सोडा वाले पेय जैसे कोका कोला, और भी बहुत सी दिशाओं में है. इनके बारे में प्रश्न उठाने का अर्थ है कि आधुनिक विकास की परिभाषा पर प्रश्न उठाना, जिन्हें कोई नहीं उठाना चाहता.

Anti-tabacco campaign, WHO, Geneva, Switzerland - images by Sunil Deepak, 2011

मार्च 2014 के विश्व स्वास्थ्य संस्थान के बुलेटिन में प्रिसिवेल करेरा का आलेख है जिसमें उनका कहना है कि स्वास्थ्य को केवल स्वास्थ्य मंत्रालय की बात कह कर सोचना ठीक नहीं, बल्कि हर नीति से, चाहे वह व्यापार की हो या शिक्षा की, उसका स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है, यह सोचने की बात है. अभी कुछ मास पहले अखबारों में रिपोर्ट थी कि दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर है और बहस इस बात पर थी कि क्या यह श्रेय दिल्ली को मिलना चाहिये या चीन की राजधानी बेजिन्ग को. पर अगर दिल्ली दूसरे स्थान पर हो तो भी, उस प्रदूषण का लोगों के फेफड़ों पर क्या असर हो रहा है? अगर लोग धुम्रपान से नहीं प्रदूषण से मरेंगे तो क्या बदला?

सिगरेट पीना, शराब पीना, आदि को व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बातें कहा जाता है, और बालिग लोगों के लिए इस तर्क को सही कह सकते हैं. लेकिन यह कम्पनियाँ जानती हैं कि इसकी आदत किशोरावस्था में डाल दी जाये तो लत पड़ जायेगी, फ़िर अधिकतर लोग उससे बाहर नहीं निकल पायेंगे, उसके बाद वह स्वयं ही उसे नशे या आदत को पूरा करने के लिए अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए लड़ेंगे. अगर स्वास्थ्य मंत्रालय को धुम्रपान को रोकना है तो कैसे किशोरों की सोच को बदला जाये, कैसे वे लोग धुम्रपान से बचें, उस पर सबसे अधिक ज़ोर देना चाहिये. फ़िल्मों में धुम्रपान के दृश्यों पर भी इसी सोच से विचार होना चाहिये.

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शनिवार, फ़रवरी 22, 2014

हमारे शरीर, सामाजिक विद्रोह व कलात्मक अभिव्यक्ति

सदियों से पैसे वाले व ताकतवर लोग अपनी तस्वीरें बनवाते आये हैं. पिछली सदी में फोटोग्राफ़ी के विस्तार से हर कोई अपनी तस्वीरें खिचवाने लगा. पिछले दशक में डिजिटल कैमरों के प्रचार से और फेसबुक, टिविटर जैसी वेबसाइट के वजह से तस्वीर खीचना और उस पर बातें करना इतना फैला है कि कुछ लोग मानते हैं कि यह सदी शब्दों की नहीं तस्वीरों की सदी कहलायेगी और इससे मानव सभ्यता में बड़ा बदलाव आयेगा. इन सब की वजह से लोगों का अपनी असहमती दिखाना, विद्रोह प्रदर्शित करना या अपनी बात को कलात्मक तरीकों से अभिव्यक्त करना, इस सब में भी नये प्रयोग हो रहे हैं.

शायद फेमेन (Femen) की विद्रोही युवतियों के बारे में आप ने सुना होगा जो कि अपने वस्त्रहीन शरीर के माध्यम से अपनी बात कहती हैं?

फेमेन का नारा है "मेरा शरीर, मेरा घोषणापत्र". फेमेन में हिस्सा लेने वाली युवतियाँ कहती हैं कि वे लोग नारी का यौनिक शोषण, तानाशाही व धर्म के माध्यम से नारी शरीर पर अधिपत्य कायम करने के विरुद्ध हैं. अक्सर फेमेन की युवतियों पर विभिन्न देशों की सरकार व पुलिस बहुत सख्ती से पेश आती हैं, शायद क्योंकि उनके इस वस्त्रहीन विद्रोह में पृतसत्ता पर आधारित समाज की नींव हिलाने वाली बात है जोकि नारी शरीर को नैतिकता से ढकने पर टिका है.

नारी का शरीर ढकना, लज्जा करना, कौमार्य बचाना आदि को विभिन्न समाजों ने इतना महत्वपूर्ण माना है कि उसे धार्मिक ग्रंथों की सहायता से भगवान के दिये आदेशों की मान्यता दी है. बचपन से ही कन्याओं को यह सिखाया जाता है कि यही नारी का जन्मजात स्वभाव है, और पुरुषों को सीख दी जाती है कि माँ, पत्नी व बहनों के इस लक्ष्मणरेखा में बाँध कर रखने में उनकी व उनके पूर्वजों की इज्जत व आत्मसम्मान निहित हैं.

फेमेन का जन्म यूक्रेन में 2008 में हुआ और जल्दी ही पूर्वी व पश्चिमी यूरोप से होता हुआ उत्तरी अफ्रीका व मध्यपूर्व के देशों तक फ़ैल गया. कुछ समय पहले, मिस्र की आलिया अलमाहदी ने जब फेसबुक के माध्यम से अपनी वस्त्रहीन तस्वीर लगा कर अपने परिवार व समाज के प्रति अपना विद्रोह अभिव्यक्त किया तो कुछ लोगों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी और उन्हें मिस्र छोड़ कर स्वीडन में शरण लेनी पड़ी. लेकिन आलिया ने देशनिकाला ले कर भी अपना विद्रोह नहीं छोड़ा, स्वीडन में मिस्री दूतावास के सामने उन्होंने वस्त्रहीन हो कर, हाथ में कुरान को ले कर अपना विद्रोह जताया (आलिया का वीडियो). इससे उनकी जान लेने वाले और बढ़ गये हैं और उन्हें कुछ कुछ दिनो में घर बदल कर, भेष बदल कर रहना पड़ रहा है.

दूसरी ओर शारीरिक नग्नता को कला के माध्यम से सामाजिक संदेश पहुँचाने का माध्यम भी बनाया गया है. अमरीकी फोटोग्राफर स्पैन्सर ट्यूनिक अपनी अमूर्त कला तस्वीरों के लिए बड़ी संख्या में लोगों की वस्त्रहीन तस्वीर खींचने के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं, उनके बारे में मैंने कई वर्ष पहले लिखा था.

मैं अपने शरीर के माध्यम से दुनिया को संदेश देने वाले लोगों के साहस की दाद देता हूँ. इसलिए जब मेरे ब्राज़ीली मित्र मारसेलो ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके "शरीर के माध्यम से संदेश देने" के फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना चाहुँगा तो मैंने तुरंत हाँ कर दी. मारसेलो के इस फोटोप्रोजेक्ट का नाम है "आ फ्लोर दा पेले" यानि "त्वचा के फ़ूल".

मारसेलो ने एडस् रोग से पीड़ित बच्चों के साथ काम किया है और वह इस फोटोप्रोजेक्ट से सामाजिक व पर्यावरण सरंक्षण का संदेश देना चाहते हैं. उनकी तस्वीरों में शरीर का कमर से ऊपर का हिस्सा वस्त्रहीन होता है जिसपर रंगों से चित्र बनाये जाते हैं. अप्रैल के महीने में मारसेलो इटली आयेगा तो इसके लिए मेरी भी तस्वीर खिंचेगी. आधे धड़ की तस्वीर खिंचवाने में कोई साहस नहीं चाहिये, इसलिए मैं चितित भी नहीं हूँ!

मैं सोच रहा हूँ कि मारसेलो की तस्वीर के लिए शरीर पर कौन सा डिजाइन बनवाना चाहिये? कुछ ऐसा होना चाहिये जिसमें भारत भी हो और प्रकृति व पर्यावरण की बात भी हो. अगर आप के पास कोई सुझाव हों तो अवश्य बताईयेगा.

जब मारसेलो मेंरी तस्वीर खीचेगा तो उसके बारे में आपको बताऊँगा. लेकिन मैं पहले भी कुछ फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा ले चुका हूँ जिनकी कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं:

(1) पहली तस्वीर मेरा कार्टून है जो मारसेलो ने सन 1997-98 के आसपास एक ब्राज़ील यात्रा के दौरान बनाया था.

Sunil Deepak by Marcelo Mendonça

(2) दूसरी तस्वीर वह है जो कुष्ठ रोग दिवस के अवसर पर एक इतालवी पोस्टर के लिए 2003 में खींची गयी थी. इस पोस्टर से कुछ दिनों के लिए मुझे कुछ प्रसिद्ध मिली थी, क्योंकि यह तस्वीर बहुत सी पत्रिकाओं में छपी थी. जहाँ जाता कुछ लोग पहचान जाते , उँगली उठा कर मेरी ओर इशारा करते.

Sunil Deepak for world leprosy day campaign 2003

(3) तीसरी तस्वीर है सन् 2011 से जब मैंने इतालवी कलाकार विर्जिनया फरीना के मृत्यू के बारे में विभिन्न संस्कृतियों में क्या विचार हैं जो कि इस विषय पर आधारित फोटोप्रोजेक्ट के लिए खिचवायी थी. इस तस्वीर को खींचने के लिए उन्होंने अँधेरे कमरे में एक टोर्च व एक गोल नली का उपयोग किया था जिससे वह मृत्यू का आभास देना चाहती थीं.

Sunil Deepak by Virginia farina

इस प्रोजेक्ट की प्रदर्शनी बोलोनिया शहर के कब्रिस्तान में सात सौ वर्ष पुरानी कब्रों के कक्ष में लगी थी. मुझे कई लोगो ने कहा था कि इसमें हिस्सा न लो, जीते जी मरने की तस्वीर खिंचवाना ठीक नहीं होगा. पर मुझे इस फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगा था.

Exhibition of Virginia farina at Certosa cemetery of Bologna

(4) चौथी तस्वीर है पिछले वर्ष से जब लाउरा फ्रास्का व लाउरा बासेगा नाम की दो युवतियों ने इटली में रहने वाले विभिन्न देशों के प्रवासियों के बारे में फोटोप्रदर्शनी बनायी थी. इसमें मुझे एक किताब की दुकान में बैठ कर किताब पढ़ते हुए दिखाया गया था.

Sunil Deepak by Laura Frasca & Laura Bassega

(5) यह अंतिम तस्वीर है इसी वर्ष यानि 2014 की. विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के बारे में चित्रकथा की किताब में मैं भी एक पात्र हूँ. इसको बनाने वाले कलाकार का नाम है कनजानो.

Sunil Deepak by Kanjano

मेरे विचार में एक विषय को ले कर तस्वीरें खीचने का प्रोजेक्ट बनाना कला की नयी विधि है जिससे सामाजिक संचेतना लाना कुछ आसान हो जाता है क्योंकि जितने अधिक लोग इसमें हिस्सा लेते हैं, उनमें से हर कोई फेसबुक, टिविटर, ब्लाग, आदि के माध्यम से अपने परिवार, मित्रों आदि में इसका विज्ञापन करता है और अधिक लोगों को इसके बारे में जानकारी मिलती है.

जिस तरह से मारसेलो ने अपना प्रोजेक्ट बनाया है, उसमें सभी तस्वीरें ब्लाग पर लगायी जा रही हैं इसलिए प्रदर्शनी लगाने का खर्चा नहीं है और यह प्रोजेक्ट वह धीरे धीरे कई सालों तक बना सकते हैं.

मुझे आशा है कि आप को इनसे अपना कोई फोटोप्रोजेक्ट बनाने की प्रेरणा मिलेगी! अगर   ऐसा हो तो मुझे इस बारे में अवश्य बताईयेगा.

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सोमवार, फ़रवरी 03, 2014

रेखाचित्र और स्मृतियाँ - अंतिम भाग (भाग 3)

1980 में में इटली घूमते हुए एक डिज़ाईन पुस्तिका में मैं रेखाचित्र बनाता था. उन्हीं रेखाचित्रों पर आधारित यह एक स्मृति यात्रा के विवरण का तीसरा व अंतिम भाग है. ( पहला भाग - दूसरा भाग)

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अस्पताल में कुछ मित्रों ने एक एल्पस् के पहाड़ पर चढ़ाई का कार्यक्रम बनाया था. उन्होंने मुझे भी अपने साथ चलने को कहा तो मैं तुरंत तैयार हो गया. यह निर्णय मैंने बिना सोचे समझे लिया था क्योंकि इससे पहले कभी पहाड़ पर चढ़ाई पर नहीं गया था. मित्रों ने कहा कि पहाड़ पर चढ़ने के लिए कील वाले जूते होने चाहिये, जो मेरे पास नहीं थे, तो एक मित्र से उसके जूते ले लिये.

कार यात्रा से बर्फ़ से ढके पहाड़ों के पास पहुँचे तो मन में कुछ संदेह हुआ और थोड़ा डर भी लगा कि शायद यह काम उतना आसान नहीं था जितना मैंने सोचा था. सुबह छः बजे के करीब चढ़ाई शुरु हुई. थोड़ी देर में मैं हाँफने लगा, पर कोशिश की कि अन्य लोगों को मालूम नहीं चले. दोपहर तक मेरा बुरा हाल हो चुका था. थकान व टाँगों में दर्द के अतिरिक्त एक अन्य दिक्कत भी थी - मित्र से लिए उधार के जूते मेरे पाँवों पर ठीक से नहीं बैठे थे, और जूतों की रगड़ से पैरों पर छाले पड़ने लगे थे. इसे अपने साथियों से छुपाना असंभव था. मेरे साथी मेरे पैरों को देख कर चिन्तित हो रहे थे लेकिन मैंने कहा कि आधे रास्ते से वापस नहीं जाऊँगा. शाम को करीब पाँच बजे "करेगा" (Carega) नाम के पर्वत की चोटी पर पहुँचे तो जान में जान आयी.

पर्वत की चोटी से आसपास का विहँगम दृश्य बहुत सुन्दर था. वहाँ चोटी के पास ही चढ़ाई करने वालों के लिए एक पर्यटक होस्टल था जिसमें एक डारमेटरी थी. कुछ देर आराम किया तो पैरों को राहत मिली. गर्मियाँ थीं और सूरज रात को दस बजे के करीब अस्त होता था. उस शाम को वहीं पर्वत की चोटी पर बैठ कर मैंने उस होस्टल का चित्र बनाया.

Vicenza 1980

अगले दिन सुबह नाश्ता करने के लिए होस्टल के रेस्टोरेंट में गये तो भारत में परिवार को भेजने के लिए तस्वीर वाले पोस्टकार्ड खरीदे. उस समय ईमेल, फेसबुक जैसी कोई चीज़ नहीं थी, लोग यही पोस्टकार्ड भेजते और उन पर अपने सब लोगों से दस्तखत कराते. मैं अपने पोस्टकार्डों पर हिन्दी में लिख रहा था, तो मेरे आसपास स्काउट के किशोरों का झुँड एकत्रित हो गया, सब लोग मेरी हिन्दी की लिखायी देख कर चकित हो रहे थे. फ़िर सब मुझसे कहने लगे कि मैं उनके पोस्टकार्डों पर हिन्दी में अपना नाम लिखूँ ताकि उनके पोस्टकार्ड पाने वाले उनके परिवार व मित्रगण हिन्दी में लिखे शब्द देख कर चकित हो जायें. मुझे लगा जैसे मैं कोई प्रसिद्ध नेता या अभिनेता बन गया हूँ जिससे सब लोग आटोग्राफ़ ले रहे हों!

Vicenza 1980

नाश्ता करके हम लोग वापस नीचे की ओर चले. फ़िर से जूतों की रगड़ से और नीचे जाते हुए रास्ते की कठिनाई से मेरा बुरा हाल हो गया.

उस पहाड़ यात्रा के बाद कई दिनों तक मुझे पाँवों की पट्टी करवानी पड़ी और उसके बाद दोबारा कभी ऊँचे पहाड़ों की चढ़ाई की मैंने कोशिश नहीं की. थोड़ी बहुत चढ़ाई हो या पहाड़ों के बीच में सैर हो, बस वहीं तक किया. लेकिन उस यात्रा से मन में पर्वतों के प्रति जो प्रेम जागा वह कभी कम नहीं हुआ.

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जब दिल्ली में रहते थे तो फ्राँस में मेरी एक पत्रमित्र बनी थी, मेरीक्रिस्टीन. करीब पंद्रह सालों से एक दूसरे को जानते थे और पत्रों में जीवन के न जाने कितने सुख दुख आपस में बाँट चुके थे. मेरे लिए मेरीक्रिस्टीन बहन जैसी थी. मेरे विचार में इस तरह का रिश्ता आजकल के फेसबुक, ईमेल से नहीं बन सकता, इसके लिए तो कागज़ के पन्नों पर हाथों से लिखी दिल की बातें ही चाहियें जिन्हें हम दूर देश में रहने वाले मित्र से बाँटते हैं.

मेरीक्रिस्टीन फ्राँस से मुझसे मिलने विचेन्ज़ा आयी. मैं उसके साथ आसपास के शहरों में घूमने गया.

जिस दिन उसे वापस फ्राँस जाना था, उसकी रेलगाड़ी की वेनिस से बुकिन्ग थी, तो उस दिन हम लोग सुबह वेनिस के ओर निकले. स्टेशन पर उसने अपना सूटकेस रखा और हम लोग वेनिस घूमने लगे.

एक जगह वह एक चर्च को देखने भीतर गयी तो मैं वहीं बाहर नहर के किनारे सीढ़ियों पर बैठ कर वेनिस की एक तस्वीर बनाने लगा.

Vicenza 1980

मेरीक्रिस्टीन चर्च से निकली तो उसने मुझे तस्वीर बनाते देखा और उसने पास के पुल पर जा कर मेरी तस्वीर खींच ली.

Vicenza 1980

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मेरीक्रिस्टीन की फ्राँस जाने वाली रेलगाड़ी रात को थी. जब उसकी रेलगाड़ी चली गयी तो मैंने अपनी रेलगाड़ी की खोज की. तो मालूम चला कि विचेन्ज़ा वापस जाने के लिए आखिरी रेल जा चुकी थी और अगले दिन की सुबह तक कोई अन्य गाड़ी नहीं थी.

होटल में जा कर सोने के लिए तो पास मैं पैसे नहीं थे, बाहर जा कर रेलवे स्टेशन की सीढ़ियों पर बैठ गया.

आसपास सीढ़ियों पर बहुत से लोग बैठे थे. रात कैसे बीती पता ही नहीं चला. रात भर वहाँ कुछ न कुछ चलता रहा. कभी कोई गिटार बजाता, कभी कुछ लोग उठ कर नाचने लगते, कभी कोई आपस में झगड़ा करते. मेरी डिज़ाईन पुस्तिका सारी भर चुकी थी, बस एक अन्तिम पृष्ठ बाकी थी. वहीं सीढ़ियों पर बैठ कर मैंने उन सीढ़ियों का चित्र बनाया.

Vicenza 1980

वेनिस की मेरी यादों में उस रात भर का सीढ़ियों पर बैठना और अनजाने लोगों के साथ की मस्ती की याद सबसे अनूठी है. उस पहली वेनिस यात्रा के बाद जाने कितनी बार वेनिस गया. जब भी वेनिस लौटता हूँ, उन सीढ़ियों पर पैर रखते ही, उस जादुवी रात की याद आ जाती है!

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तैंतीस वर्ष पुराने अपने रेखाचित्रों को दोबारा देख कर और उनसे जुड़ी बातों को व लोगों को याद करके बहुत अच्छा लगा. पर साथ ही कुछ दुख भी हुआ कि मैंने उसके बाद कभी रेखाचित्र नहीं बनाये. आज के डिजिटल कैमरे से तस्वीरें खींचने में आनन्द कम है, यह बात नहीं. बल्कि आज की डिजिटल तस्वीरों में जितनी स्मृतियाँ जुड़ जाती हैं वह रेखाचित्रों में सम्भव नहीं था. फ़िर भी दुख होता होता है कि रेखाचित्रों की आदत नहीं बनायी, उसे भूल गया! 

( पहला भाग - दूसरा भाग)

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बुधवार, जनवरी 22, 2014

रेखाचित्रों में स्मृतियाँ (भाग 2)

1980 में जब छात्रवृति ले कर इटली आया था तो वेनिस के पास विचेन्ज़ा नाम के शहर में रहता था. तब मेरे पास कैमरा नहीं था लेकिन एक डिज़ाईन पुस्तिका थी, जिसमें मैं रेखाचित्र बनाता था. कुछ दिन पहले तैंतीस साल पुरानी वह डिज़ाईन पुस्तिका हाथ में आ गयी. उसे देख कर, बहुत सी पुरानी बातें याद आ गयीं. दिसम्बर में एक दिन मैं विचेन्ज़ा वापस लौटा और उन सब जगहों को देखने गया जहाँ मैं प्रारम्भ के दिनों में घूमा था और  चित्र बनाये थे. यह उसी स्मृति यात्रा के विवरण का दूसरा भाग है. ( पहला भाग)

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विचेन्ज़ा शहर के पास एक पहाड़ी है, जिसका नाम है मोन्ते बेरिको (Monte Berico), यानि बेरिको की पहाड़ी. वहाँ एक मध्ययुगीन गिरज़ाघर बना हुआ है. ऊपर पहाड़ी से शहर का विहँगम दृश्य दिखता है और शहर की पृष्ठभूमि में बर्फ़ से ढके एल्पस पहाड़ भी दिखते हैं. मुझे पहाड़ी पर जाना बहुत अच्छा लगता था. अक्सर अँधेरे मुँह सुबह उठ कर ऊपर तक जाता और सूर्योदय की प्रतीक्षा करता जब उगते सूर्य की लालिमा से एल्पस पर्वत बहुत सुन्दर लगते. सुबह जाने का यह फायदा भी था कि अन्य लोगों की भीड़ नहीं होती थी.

भारत में गर्मी की वजह से सुबह घूमने जाना बहुत प्रचलित है. जहाँ बाग हो वहाँ सुबह सुबह सैर करने वालों की भीड़ लग जाती है. मुझे भी सुबह ही घूमने की आदत थी. लेकिन यहाँ ऐसा बहुत कम होता है. अधिकतर लोग सैर करने दिन में या शाम को जाते हैं.

मुझे उस पहाड़ी की ओर अँधेरा होने पर, शाम को जाना भी अच्छा लगता था. ऊपर जाने वाला रास्ता कुछ सुनसान सा होता था तो शाम को वहाँ इधर उधर युवा जोड़ों की भीड़ लग जाती थी. भारत में खुले आम चुम्बन तक नहीं देखे थे, जबकि बेरिको पहाड़ी पर युवा जोड़े एक दूसरे में इतना गुत्थम गुत्था हो रहे रहे होते थे कि उनको देखने का मन में बहुत कौतूहल होता था, जिसे जाने में कई वर्ष लगे.

एक रविवार को बेरिको पहाड़ी पर बैठ कर मैंने नीचे फ़ैले हुए शहर का चित्र बनाया. उस दिन धूप निकली थी, मौसम सुन्दर था और पहाड़ी पर बहुत से लोग घूमने आये थे. रेखाचित्र बनाने के बहाने से अन्य लोगों से मुलाकात और बातें करने का अवसर मिलता था. लोग मुझे रेखाचित्र बनाता देख कर, उसे देखने आते तो बातें शुरु हो जातीं.

उपर से दिखने वाले अधिकतर शहर को मैं नहीं पहचानता था. शहर का वह हिस्सा जहाँ मैं रहता था, केवल उसे पहनता था. शहर के उस हिस्से के बड़े स्मारक, चर्च और भवन जैसे कि प्रसिद्ध इतालवी वास्तूशास्त्र विषेशज्ञ अँद्रेया पाल्लादियो (Andrea Palladio) की बनायी गोलाकार हरी छत वाली बजिलिका (Basilica), वहाँ पहाड़ी से स्पष्ट दिखते थे.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

दिसम्बर में तैतीस सालों के बाद विचेन्ज़ा लौटा तो सबसे पहले, बेरिको की पहाड़ी की ओर ही बढ़ा. चढ़ाई से साँस फ़ूलने लगी और टाँगें दुखने लगी, यानि इतने सालों के गुज़रने की तकलीफ़ होना स्वभाविक ही था.

वहाँ गया जिस जगह पर बैठ कर ऊपर वाली तस्वीर बनायी थी. वहाँ बैठा तो नीचे शहर स्पष्ट नहीं दिख रहा था, बीच में पेड़ पौधे आ रहे थे. पर अन्य जगहों से नीचे का नज़ारा अब भी पहले जितने सुन्दर था, लगता था कि शहर बिलकुल नहीं बदला. शहर की पृष्ठभूमि में बर्फ़ से ढके पहाड़ भी पहले जैसे मेरी स्मृतियों में थे, वैसे ही सुन्दर लग रह थे.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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होस्टल के पास शहर का सबसे महत्वपूर्ण स्कवायर था, "पियात्ज़ा देल्ला सिनोरिया" (Piazza della Signoria) यानि "राजघरानों का स्कवायर". इस स्कवायर में विभिन्न प्रसिद्ध भवन बने हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण है पाल्लादियो का हरी छत वाला बजिलिका. बीच में एक ऊँचा घँटाघर है और उसके सामने दो ऊँचे खम्बे बने हैं, एक पर वेनिस गणतंत्र का चिन्ह शेर है और दूसरे पर एक पुरुष मूर्ति बनी है. वहाँ बैठ कर मुझे लगता मानो बेनहुर या टेन कमान्डमैंटस जैसी किसी फ़िल्म के सेट पर आ गया हूँ.

एक दिन में वहाँ बैठ कर खम्बे पर बनी पुरुष मूर्ति की तस्वीर बना रहा था तो तीन इतालवी युवकों से बातचीत हुई.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

वे तीनो युवक मिलेटरी की ट्रेनिंग के लिए विचेन्ज़ा आये थे. उस समय इटली में हर नवयुवक को अठारह वर्ष पूरे करने पर, एक साल के लिए मिलेटरी में बिताना लेना अनिवार्य होता था. युवा लोगों को हाई स्कूल पास करने के बाद और कोलिज की पढ़ाई पूरी करने से पहले, जीवन का एक साल पढ़ाई को छोड़ कर, देश के नाम देना पड़ता था. बहुत से युवा मन्नत माँगते थे कि उनके मेडिकल चेकअप में कोई कमी निकल आये जिससे उन्हें मिलेटरी सर्विस के उस एक साल से छुट्टी मिल जाये. जो लोग मिलेटरी में हिस्सा नहीं लेना चाहते थे, उन्हें एक साल के बजाय, दो सालों के लिए समाज सेवा का कोई काम करना होता था. इसलिए एक साल बचाने के लिए लोग मिलेटरी की सर्विस न चाहते हुए भी कर लेते थे.

उन तीन युवकों के नाम थे एत्ज़िओ, फ्राँचेस्को और मारिउत्ज़ो. फ्राँचेस्को को मिलेटरी में वह वर्ष बिता कर "बेकार करने" का बहुत गुस्सा था. जबकि एत्ज़िओ को कविता लिखने का शौक था. उस दिन एत्ज़ओ ने मेरी डिज़ाइन पुस्तिका पर दो कविताएँ लिखी. तब कुछ बात करने लायक इतालवी तो आ गयी थी लेकिन एत्ज़िओ की कविता मुझसे समझ नहीं आयी थी. अब समझ में आती है. उसमें एत्ज़िओ ने लिखा थाः

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014
"... मैं आसपास देखता हूँ
अपनी छोटी सी खिड़की से
एक बिन पेड़ों की दुनिया
घर, और अन्य घर
और कुछ नहीं.
प्रिय दूर के मित्र
तुम्हें लिखना चाहता हूँ
लेकिन मेरे हाथ एक खालीपन में सिमट जाते हैं ..."
इस बार, तैंतीस साल बाद जब उस स्कवायर में लौटा तो लगा कि कुछ भी नहीं बदला था. वहीं अपनी पुरानी सीढ़ियों पर बैठ कर मैंने आइसक्रीम खाई, जहाँ उस दोपहर को बैठा था जब एत्ज़िओ, फ्राँचेस्को और मारिउत्ज़ो मिले थे. क्या जाने वह तीनो अब कहाँ होंगे और जीवन के रास्ते उन्हें किन दिशाओं में ले गये होंगे!

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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नदी के किनारे पर बना क्वेरीनी पार्क (Parco Querini) मुझे बहुत अच्छा लगता था. बाग की हरियाली के बीच में नदी से ली हुई एक छोटी सी नहर बनी थी जिसमें बतखें तैरती थीं और बच्चे उन्हें रोटी के टुकड़े डालते थे. नहर के एक गोल घुमाव के बीच में एक छोटी सी पहाड़ी थी जिस पर एक गुम्बज वाली छतरी बनी थी. तभी कुछ दिन पहले समाचार सुना था कि उस गुम्बज पर बिजली गिरी थी और उसके नीचे बैठे एक पंद्रह वर्ष के लड़के की मृत्यू हो गयी थी. इस वजह से मुझे उस गुम्बज से डर भी लगता था और उसकी ओर आकर्षित भी होता था.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

एक दिन में वहाँ बाग में लगी मूर्तियों की तस्वीर बना रहा था तो एक अमरीकी लड़का मेरे पास आया था. कोट, टाई पहने हुए, वह लड़का किसी एवान्जेलिक चर्च का प्रचारक था जिससे कई घँटे तक मैंने धर्म के विषय पर बहस की थी. इस बात को बिल्कुल भूल गया था लेकिन बाग की वह बैन्च देखी जहाँ मैं उस दिन बैठा था तो यह सारी बात याद आ गयी. पार्क में भी कोई विषेश अन्तर नहीं दिखा.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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क्रमशः  -  पहला भाग

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रविवार, जनवरी 19, 2014

रेखाचित्रों में स्मृतियाँ - भाग 1

1980 में जब छात्रवृति ले कर इटली आया था तो वेनिस के पास विचेन्ज़ा नाम के शहर में रहता था. वहाँ के अस्पताल में आईसीयू में प्रोफेसर रित्ज़ी के शाथ काम कर रहा था. तब मेरे पास कोई कैमरा नहीं था. हाँ तस्वीरें बनाने का शौक था और पास में डिज़ाईन पुस्तिका थी. हर जगह अपनी डिज़ाईन पुस्तिका व पैन्सिल ले कर जाता और मित्रों की, उनके बच्चों की, जगहों की, तस्वीरें बनाता. कभी कभी उन तस्वीरें के पीछे डायरी की तरह कुछ लिख भी देता. करीब छः महीनों में वह डिज़ाईन पस्तिका पूरी भर गयी थी.

फ़िर समय बीता, शहर बदले और विचेन्ज़ा की बातें भूल गया. दोबारा फ़िर कोई डिज़ाईन पुस्तिका नहीं खरीदी, क्योंकि तब मेरे पास कैमरा आ गया था. उसके बाद कुछ बार विचेन्ज़ा से गुज़रा, लेकिन वहाँ रुका नहीं. कुछ दिन पहले तैंतीस साल पुरानी वह डिज़ाईन पुस्तिका हाथ में आ गयी. उसे देख कर, बहुत सी पुरानी बातें याद आ गयीं. दिसम्बर में एक दिन मैं विचेन्ज़ा वापस लौटा और उन सब जगहों को देखने गया जहाँ मैं प्रारम्भ के दिनों में घूमा था और  चित्र बनाये थे. इस पोस्ट में उन पुराने रेखाचित्रों की और उनके पीछे लिखी बातों की, और ३३ साल लौट कर उन पुरानी जगहों को देखने के अनुभव की चर्चा है.

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विचेन्ज़ा की प्रमुख सड़क कोर्सो पाल्लादियो पर फिलीप्पीनी चर्च है जिसके ऊपर एक विद्यार्थी होस्टल था जहाँ अस्पताल वालों ने मेरे रहने का इन्तज़ाम किया था. उस होस्टल की दूसरी और तीसरी मन्ज़िल पर हाई स्कूल के लड़कों की डोरमेटरी थी, जबकि मुझे पादरियों के साथ पहली मन्ज़िल पर एक अलग कमरा मिला था. मेरे सामने वाले कमरे में फादर लुईजी रहते थे, बहुत शान्त, विनम्र व शर्मीले थे वह और हाई स्कूल में पढ़ाते थे. उन्होंने मुझे अपना रिकार्ड प्लेयर दिया था जिस पर में भारत से लाये कुछ रिकार्ड सुनता था. मेरे कमरे की खिड़की छोटी सी सड़क पर खुलती थी जहाँ पर एक सिनेमाघर था. शुरु शुरु में सारी शाम उसी खिड़की पर बैठा रहता, कोई किताब पढ़ता रहता और सिनेमा देखने वाले आते जाते लोगों को देखता.

होस्टल में मेरा पहला मित्र बना था मनार, जो जोर्डन से आया था. उसे थोड़ी अंग्रेज़ी आती थी इसलिए उससे बात कर सकता था. अस्पताल में कुछ अंग्रेज़ी बोलने वाले लोग थे, पर शाम को वापस होस्टल आने पर मनार के अतिरिक्त कोई अन्य अंग्रेज़ी बोलने वाला नहीं था. मनार गरीब परिवार का था, उसके पास होस्टल की फ़ीस देने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए वह होस्टल की रसोई में बर्तन धोने का काम भी करता था. शाम को वह बर्तन धोता तो मैं वहीं उसके पास ही बैठा रहता, उससे बातें करने के लिए.

होस्टल के सामने थोड़ी सी खुली जगह थी, वहाँ रविवार को लड़के फुटबाल खेलते. मनार भी बर्तन धो कर उनके साथ खेलने में लग जाता. वहीं पर एक दिन मैंने अपना पहला रेखाचित्र बनाया था, सामने वाली दीवार का, जिसपर एक पुरानी मूर्ति लगी थी और आसपास खिड़कियाँ थीं. नीचे फुटबाल का द्वार बना था.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

फ़िर एक दिन मनार की तस्वीर भी बनायी. मुझे वहाँ रहते करीब एक महीना हुआ था जब मनार ने बताया कि उसे मिलान में इन्जीनियरिन्ग कालेज में दाखिला मिल गया. मुझे बहुत दुख हुआ जब वह मिलान चला गया.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

लेकिन मनार के जाने के बाद, मेरी इतालवी भाषा की पढ़ाई आसान हो गयी थी. सोमवार से गुरुवार तक तो फ़िर भी अस्पताल में किसी न किसी से अंग्रेज़ी में बात कर सकता था लेकिन शाम को और सप्ताहान्त में, आसपास सब केवल इतालवी भाषी थे, तो इतालवी बोले बिना काम नहीं चलता था. इस तरह से सही गलत बोलने का डर मिट गया, शब्दों, इशारों से बोलना ही पड़ता. पहले महीने में मनार के रहते इतालवी बोलना नहीं सीख पाया था, उसके जाने के बाद, कुछ दिन में ही नये नये शब्द सीखने लगा. उन्हीं दिनो अस्पताल के हमारे डिपार्टमैंट वाले एक अन्तर्राष्ट्रीय कोनफ्रैन्स का आयोजन करने वाले थे जिस के लिए मुझे कुछ आलेखों को इतलावी से अँग्रेज़ी में अनुवाद करने के लिए कहा गया. उसके लिए मैं प्रतिदिन कई घँटे इतालवी-अंग्रेज़ी शब्दकोष के साथ बिताता. इतालवी भाषा बोलने का ऐसा अभ्यास हुआ कि अंग्रेज़ी में बात करना बन्द ही हो गया. एक दो महीने के बाद मनार एक दिन वापस आया तो मुझे फर्राटे से सबसे इतालवी भाषा बोलते देख कर हैरान हो गया.

तैंतीस सालों के बाद इस दिसम्बर में वहां लौट के गया तो पहले फिलीप्पीनी चर्च में घुसा. जब ऊपर होस्टल में रहता था तो एक दो बार उस चर्च में सिम्फोनिक संगीत की कन्सर्ट सुनने गया था, पर कभी उसे ठीक से नहीं देखा था. पहले दिल्ली में करोल बाग में जहाँ रहते थे, वहाँ सामने मेथोडिस्ट चर्च था, जहाँ मैं पादरी के बेटे के साथ खेलता था. तो सोचता था कि चर्च केवल प्रार्थना की जगह है, वहाँ देखने को कुछ नहीं होता. इस बार उस छोटे से चर्च को ठीक से देखा. इस चर्च में बहुत सुन्दर ऑरगन है जिसकी वजह से यहाँ संगीत कन्सर्ट का आयोजन होता रहता है. जिन दिनों में वहाँ रहता था, तब मेरे कमरे में भी उस ऑरगन की आवाज़ गूँजती थी.

चर्च के साथ गली में गया तो पुराने सिनेमा हाल को देख कर पुरानी बातें याद आ गयीं. ऊपर उस खिड़की को देखा जहाँ घँटों बैठा रहता था.

फ़िर पीछे होस्टल की ओर गया तो कुछ पहचान नहीं पाया. वह जगह बिल्कुल बदल गयी लग रही थी. जहाँ लड़कों के खेलने की जगह थी, वहाँ कारों की पार्किन्ग बन गयी थी. दीवार से वह मूर्ति हटा दी गयी थी उसके पीछे वाले घर नये बने थे. बीच में कुछ पेड़ लग गये थे. सब कुछ बिल्कुल सुनसान. नीचे रसोई के बाहर जहाँ मैं बैठता था, वहाँ गया तो भीतर कुछ लोग दिखे. उन्हें बताया कि मैं वहाँ तैंतीस साल पहले रहता था, उनसे पूछा कि क्या कोई पुराना है, बोले इतना पुराना तो कोई भी नहीं है.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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सन लोरेन्ज़ो स्कवायर से हो कर हर रोज़ मैं अस्पताल पैदल ही जाता था. तैहरवीं शताब्दी के सन लौरेन्ज़ो चर्च में भीतर कभी नहीं गया था. एक दिन चर्च के बाहर वहाँ लगी एक मूर्ति को बना रहा था तो चर्च से एक पादरी निकल कर आया था और मुझसे पूछने लगा था कि उस मूर्ति में या उसके पीछे वाले बैंक के भवन में  ऐसा क्या था जो मैं उसकी तस्वीर बना रहा था? उसके विचार में मुझे प्राचीन गिरज़ाघर की तस्वीर बनानी चाहिये थी. मैंने उस पादरी की बात हँस कर टाल दी थी.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

तब मुझे "तैहरवीं शताब्दी का प्राचीन गिरजाघर" का क्या अर्थ या महत्व होता है, यह नहीं मालूम था. तब उस जगह का क्या इतिहास था, उसके भीतर क्या था, यह सब जानने की कोई उत्सुकता नहीं थी.

कुछ मास बाद, सर्दियाँ आ गयीं थी जब एक दिन शाम को अस्पताल से वापस आते हुए मुझे देर हो गयी थी, अँधेरा हो गया था. सन लोरेन्ज़ो स्कवायर से गुजर रहा था तो एक लड़के ने मुझे पुकारा था. बैंक के सामने एक खम्बे से किसी ने उसके हाथ पीछे करके बाँध दिये थे. किसने किया यह, मैंने पूछा था. उसने कहा था कि उसके कुछ मित्रों ने मज़ाक में ऐसा किया था, और वह वहाँ आधे घँटे से खड़ा था लेकिन कोई उस ओर से गुज़रा ही नहीं था. मुझे बहुत अज़ीब लगा, लेकिन मैंने उसके हाथ खोल दिये थे. बाद में बहुत देर तक सोचता रहा था कि यह कैसा मज़ाक था और कैसे मित्र थे जो ऐसा मज़ाक करते थे? थोड़ी देर के लिए, बस बाँधा और चले गये? और अगर मैं वहाँ से न गुज़रता तो क्या वह वहीं बँधा रहता? शायद बीयर या वाइन के नशे में उनकी सोच समझ गुम हो गयी थी?

एक अन्य बार होस्टल के अपने एक मित्र के साथ, उस स्कवायर में बैठ कर रात को देर तक बातें करना भी याद है. किस बारे में वे बातें थीं, यह नहीं याद.

इस बार दिसम्बर में जब विचेन्ज़ा गया तो घूमते घूमते जब सन लोरेन्ज़ो स्कवायर पहुँचा तो बहुत देर तक उस जगह को पहचान नहीं पाया था. मूर्ति के सामने नये फुव्वारे बन गये थे इसलिए वह जगह भिन्न लग रही थी. वहाँ फिलीप्पीनी होस्टल से जाने वाले रास्ते से नहीं गया था, शायद इसलिए भी तुरंत समझ नहीं पाया था कि कहाँ पहुँच गया था. जब पीछे होस्टल की ओर जाने वाली सड़क देखी तभी समझ आया था कि वह कौन सी जगह थी. एक पल के लिए अचरज हुआ कि इतनी जानी पहचानी जगह को इस तरह कैसे भूल गया था!

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

इस बार पहली बार उस प्राचीन सन लोरेन्ज़ो चर्च में भी घुसा, जिसके बाहर से इतनी बार गुजर कर भी उसे भीतर से पहले देखने का नहीं सोचा था. नेपोलियन के इटली पर शासन के समय में यहाँ एक मिलेटरी अस्पताल बनाया गया था. प्रथम विश्व युद्ध के समय यहाँ मिलेटरी का गोदाम बनाया गया था. 1228 में गौथिक शैली में बने गिरजाघर में कुछ खम्बें व दीवारें पुरानी हैं और कुछ हिस्से नये हैं. उस चर्च कुछ प्रसिद्ध प्राचीन कलाकृतियाँ भीं हैं.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

(क्रमशः)

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बुधवार, जनवरी 15, 2014

घड़ी की टिकटिक और सपने

स्वीडन के आविष्कारक फ्रेडरिक कोल्टिन्ग ने क्राउडसोर्सिन्ग के माध्यम से पैसा इक्टठा किया और एक नयी तरह की घड़ी बनायी है जिसमें आप देख सकते हैं कि आप के जीवन के कितने वर्ष, दिन, घँटे व मिनट बचे हैं. इसका यह अर्थ नहीं कि आप उस निर्धारित समय से पहले नहीं मर सकते या आप की आयु घड़ी की बतायी आयू से लम्बी नहीं हो सकती. जिस तरह जीवन बीमा करने वाली कम्पनियाँ आप के परिवार में बीमारियों का इतिहास देख कर, आप को रक्तचाप या मधुमेह जैसी बीमारियाँ तो नहीं हैं जाँच कर, खून के टेस्ट करके, इत्यादि तरीकों से अन्दाज़ा लगा सकती हैं कि आप जैसे व्यक्ति की औसत जीवन की लम्बाई कितनी हो सकती है, इस घड़ी की भी वही बात है. यानि घड़ी आप के औसत जीवन की लम्बाई देख कर आप को बतायेगी कि आप के जीवन का कितना समय बाकी बचा है.

एक साक्षात्कार में कोल्टिन्ग ने बताया कि उनका इस आविष्कार को बनाने का ध्येय था कि लोग अपने जीवन की कीमत को पहचाने, हर दिन को पूरा जियें. वह कहते हैं, "इस घड़ी ने मुझे स्वयं भी सोचने को मजबूर किया. मैंने निर्णय किया कि मैं ठँडे व अँधेरे स्वीडन में जीवन नहीं बिताना चाहता और इस तरह मैं स्वीडन छोड़ कर अमरीका में लोस एँजल्स में आ कर बस गया. अब मैं वह करने की कोशिश करता हूँ जिससे मुझे सचमुच की खुशी मिले."

मेरे पास कोल्टिन्ग की घड़ी नहीं, न ही मैं उस घड़ी को पाना या पहनना चाहता हूँ. मुझे नहीं लगता कि उस घड़ी के पहनने भर से मैं आज और अभी के पल में जीने लगूँगा, और वही करूँगा जिससे मुझे सचमुच खुशी मिले. लेकिन आजकल मैं भी अपने जीवन की घड़ी की टिकटिक को ध्यान से सुन रहा हूँ और बदलते हुए जीवन के बचे हुए क्षण गिन रहा हूँ.

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करीब तीस वर्ष हो गये इटली में रहते. जब माँ थी तो उसने एक बार मुझसे पूछा था कि क्या तू भारत कभी वापस लौट कर आयेगा, तो मैंने कहा था कि हर साल तो आता हूँ. तो माँ ने कहा था कि इस तरह नहीं, यहाँ आ कर, यहीं रह कर, यहाँ के लोगों के लिए काम करने? तो मैंने कहा था कि जब सठियाने लगूँगा, यानि साठ साल का हो जाऊँगा तो वापस आ जाऊँगा. इस बात पर बहुत सोचा था और फ़िर इस विषय पर अपनी छोटी बहनों से भी बातें की थीं. चार साल पहले जब माँ गुज़री तो यह सब बातें अचानक मन में गूँजने लगीं.

अब भारत वापस लौटने का वह सपना पूरा होने वाला है. भारत वापस जाने की तैयारी प्रारम्भ हो चुकी है. कुछ ही महीनो में साठ साल का हो जाऊँगा. उसके बाद मैं चाहता हूँ कि मेरा बाकी का बचा जीवन भारत में गाँव में या किसी छोटे शहर में सामुदायिक स्तर पर डाक्टर के काम में निकले, साथ साथ कुछ सामाजिक स्तर पर शोध कार्य कर सकूँ.

पिछले चार वर्षों में इस विषय पर पत्नी, बेटे, बहनों और कुछ मित्रों से घँटों बातें की है, जिनसे मैं जीवन के इस अंतिम पड़ाव में मैं सचमुच क्या चाहता हूँ, इसकी समझ स्पष्ट हुई है. एक जुलाई 2014 से जहाँ काम करता हूँ वहाँ से मेरी एक वर्ष की छुट्टी मँज़ूर हो गयी है, इसलिए मानसिक रूप से कोई तनाव भी नहीं है. पर साथ ही मन में यह निश्चय भी है कि एक साल की छुट्टी समाप्त होने पर वापस नहीं आऊँगा, यहाँ के काम से इस्तीफ़ा दे दूँगा (इटली में रिटायर होने के लिए पुरुषों को कम से कम 68 वर्ष का होना चाहिये).

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भारत में क्या करेगा, कहाँ काम करेगा? बहुत से लोग जो करीब से जानते हैं वह मुझसे यह सवाल पूछते हैं, तो मैं उत्तर देता हूँ कि अभी कुछ तय नहीं किया है. अभी तक केवल सोचा है और सपने देखे हैं. सोचा है कि भारत वापस जा कर कुछ जगह घूमूँगा और नियती अपने आप रास्ता दिखायेगी कि मुझे कौन सा काम करना चाहिये.

सपने भी बहुत सारे हैं. जैसे कि ऐसा काम हो, जिससे मैं गरीब या जनजाति के लोगों के लिए काम भी करूँ पर साथ ही सामुदायिक स्तर पर काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारियों को पढ़ाने का अवसर भी मिले, सामुदायिक स्तर पर शोध का भी मौका मिले. पिछले तीस वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विकलाँगता, कुष्ठ रोग, यौनिकता, हिँसा, सामाजिक समशक्तिकरण जैसे विषयों पर काम करने का अनुभव है, तो यह आशा भी है कि उस अनुभव को उपयोग करने का मौका भी मिले.

यह भी सोचता हूँ कि किसी नयी जगह पर अकेला कुछ नया प्रारम्भ करना ठीक नहीं होगा, बल्कि कोई आदर्शवादी लोग मिलें जो पहले से ही जनविकास क्षेत्र में मन और आदर्शों से काम कर रहे हों तो उनके साथ जुड़ कर काम करूँ. इनमें से कौन सा सपना पूरा होगा, उसका निर्णय समय और नियती ही करेंगे.

भविष्य क्या होगा, इसकी चिन्ता नहीं है, बल्कि मन भारत जा कर रहने के विचार से, केवल काम के ही नहीं, अन्य भी तरह तरह के सपने देखने लगा है. खूब  और नया लिखूँगा. भारतीय शास्त्रीय संगीत विषेशकर गायन सीखूँगा. उर्दू, बँगाली, कन्नड़, या कोई अन्य भारतीय भाषा सीखूँगा.  गोवा से पश्चिम में मालाबार सागर तट पर घूमूँगा. पश्चिम बँगाल में, राजस्थान में,गुजरात में भी घूमूँगा. मित्रों से चाय के प्यालों पर बहसें होगी. फ़िर सोचता हूँ कि क्या साधू बन कर, जगह जगह घूमते हुए भी डाक्टरी का काम कर सकते हैं? अगर अपने झोले से कोई साधू स्टेथोस्कोप निकाल कर कहे कि आईये आप की जाँच कर दूँ तो क्या आप उस पर भरोसा करेंगे?

हर दिन एक नया सपना मन में आता है, लगता है कि फ़िर से लड़कपन के द्वार पर आ कर खड़ा हो गया हूँ जब लगता था कि सब कुछ कर सकता हूँ. फ़िर लगता है कि यह सब ख्याली पुलाव पूरे करने का समय कहाँ मिलेगा, अगर एक बार डाक्टरी के काम में जुटा तो कुछ और करने का समय नहीं मिलेगा.

जाने की तैयारी में अपनी सारी हिन्दी की किताबें यहाँ के एक पुस्तकालय को दे दी हैं, जहाँ भारतीय प्रवासियों के लिए, वह नया हिन्दी सेक्शन बनायेंगे. पिछले दशकों में जोड़ी हर अपनी वस्तू के लिए सोच रहा हूँ कि इसको किसको दूँ.

क्या होगा, यह तो समय ही बतायेगा. तब तक घड़ी की टिक टिक सुनते हुए, हर दिन कैलेण्डर से एक दिन काट देता हूँ. वापसी और करीब आ जाती है. और नये सपने देखने लगता हूँ.

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