शुक्रवार, जुलाई 17, 2015

चमकीले फीतों का जहर

बहुत साल पहले एक पत्रिका होती थी "सारिका", उसमें किशन चन्दर की एक कहानी छपी थी "नीले फीते का जहर". क्या था उस कहानी में यह याद नहीं, बस यही याद है कि कुछ ब्लू फ़िल्म की बात थी. पर दुकानों पर लटकती चमकीली थैलियों के फीते देख कर मुझे हमेशा उसके शीर्षक की याद आ जाती है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

हवा में लटकते फीते किसी बुद्ध मन्दिर में फहराते प्रार्थना के झँडों की तरह सुन्दर लगते हैं. इन थैलियों में शैम्पू, काफी, मक्खन, आदि विभिन्न चीज़ें बिकती हैं, जिनमें कोई जहर नहीं होता. इन झँडों में आम भारतीय उपभोगता की स्वाभाविक चालाकी की कहानी भी है जोकि बड़े बहुदेशीय कम्पनियों के बिक्री मैनेजरों को ठैंगा दिखाती है. तो फ़िर क्यों यह थैलियाँ हमारे जीवन में जहर घोल रही हैं?

थैलियों से जान पहचान

छोटी छोटी यह चमकीली थैलियाँ देखीं तो पहले भी थीं, लेकिन पहली बार उनके बारे में सोचा जब पिछले साल स्मिता के पास केसला (मध्य प्रदेश) में ठहरा था.

थैलियों को कूड़े में देख कर मैंने स्मिता की साथी शाँतीबाई से पूछा था, इस कूड़े का क्या करती हो? यह भी क्या सवाल हुआ, उसने अवश्य अपने मन में सोचा होगा, यहाँ क्या गाँव में कोई कूड़ा उठाने आता है? नींबू या फल सब्जी का छिलका हो तो रसोई के दरवाज़े से पीछे खेत में फैंक दो. और प्लास्टिक या एलूमिनियम की थैली हो तो जमा करके जला दो, और क्या करेंगे इस कूड़े का?

इसीलिए यह थैलियाँ दूर दूर के गाँवों की हवा में रंग बिरंगी तितलियों की तरह उड़ती हैं. लाखों, करोड़ों, अरबों थैलियाँ. भारत इन चमकीली थैलियों की दुनिया भर की राजधानी है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

एक ओर यह थैलियाँ भारत में अरबों रुपयों की बिक्री करने वाली कम्पनियों के लिए सिरदर्द बनी हैं. वह कम्पनियाँ भी कोशिश करके हार गयीं लेकिन इसका हल नहीं खोज पायीं कि कैसे थैलियों में बेचना कम किया जाये, ताकि मुनाफ़ा बढ़े. उनको हवा में तितलियों की तरह उड़ने वाली थैलियों की चिन्ता नहीं, उनको चिन्ता है कि इन थैलियों से छुटकारा पा कर कैसे अपनी कम्पनी के लाभ को अधिक बढ़ायें.

आज जब "स्वच्छ भारत" की बात हो रही है, तो इन थैलियों की कथा को समझना भी आवश्यक है.

थैंलियाँ कैसे आयीं भारत में?

छोटी थैलियों में चीज़ बेचना यह एक भारतीय दिमाग का आविष्कार था - श्री सी के रंगानाथन का.

तमिलनाडू के कुडालूर शहर के वासी श्री रंगानाथन ने 1983 में चिक इन्डिया (Chik India) नाम की कम्पनी बनायी, जो चिक शैम्पू बनाती थी. उन्होंने चिक शैम्पू को छोटी एलूमिनियम की थैलियों में बेचने का सोचा. उनका सोचना था कि गाँव तथा छोटे शहरों के लोग एक बार में शैम्पू की बड़ी बोतल नहीं खरीद सकते, लेकिन वह भी शैम्पू जैसी उपभोगत्ता वस्तुओं का प्रयोग करना चाहते हैं, तो कम दाम वाली एक रुपये की थैली खरीदना उनके लिए अधिक आसान होगा. उनकी सोच सही निकली और चिक इन्डिया को बड़ी व्यवसायिक सफलता मिली.

1990 में चिक इन्डिया का नाम बदल कर ब्यूटी कोस्मेटिक प्र. लि. रखा गया और 1998 इसके नाम का अन्तर्राष्ट्रीयकरण हुआ तथा यह "केविन केयर प्र. लि." (CavinKare Pvt. Ltd.) कर दिया गया. श्री रंगनाथन को कई पुरस्कार मिल चुके हैं तथा उन्होंने विकलाँग मानवों के साथ काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था "एबिलिटी फाउँनडेशन" भी स्थापित की है.

1991 में जब नरसिम्हाराव सरकार ने भारत के द्वार उदारीकरण की राह पर खोले तो दुनियाभर की बड़ी बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों ने सोचा कि करोड़ों लोगों की आबादी वाले भारत के बाज़ार में उनकी कमाई के लिए जनता उनकी प्रतीक्षा में बैठी थी. इन कम्पनियों के कुछ उत्पादनों को FMCG (Fast Moving Consumer Goods) यानि "अधिक बिक्री होने वाली उपभोगत्ता वस्तुएँ" के नाम से जाना जाता है, छोटी थैलियाँ उन्हीं उत्पादनों से जुड़ी हैं.

इन कम्पनियों ने जोर शोर से भारत में अपने उद्योग लगाये और वितरण प्लेन बनाये, लेकिन जिस तरह की बिक्री की आशा ले कर यह कम्पनियाँ भारत आयी थीं, वह उन्हें नहीं मिली. कुछ ही वर्षों में लगातार घाटों के बाद सबमें हड़बड़ी सी मच गयी.

जब बहुदेशीय कम्पनियों को भारत के बाज़ार में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने भी छोटी थैलियों की राह पकड़ी. उनका सोचना था कि सस्ती थैलियों के माध्यम से एक बार लोगों को उनकी ब्रैंड की चीज़ खरीदने की आदत पड़ जायेगी तो वह बार बार दुकान में जा कर सामान खरीदने के बजाय उनकी बड़ी बोतल खरीदेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उनकी छोटी थैलियाँ खूब बिकने लगीं, लेकिन उनकी बड़ी बोतलों की बिक्री जितनी बढ़ने की उन्हें आशा थी, वैसा नहीं हुआ.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

भारत में लोग हर चीज़ को माप तौल कर यह देखते हैं कि कहाँ अधिक फायदा है, और लोगों ने छोटी थैलियों के साथ भी यही किया. अगर आप बड़ी बोतल के बदले उतनी ही चीज़ छोटी पचास या सौ थैलियों में खरीदें तो आप को उसकी कीमत बोतल के मुकाबले कम पड़ती है. इसलिए अधिकतर लोग सालों साल तक छोटी थैलियाँ ही खरीदते रहते हैं, कभी बड़ी बोतल की ओर नहीं जाते. जैसा विदेशों में होता कि हफ्ते में एक दिन जा कर इकट्ठा सामान खरीद लो, वैसा भारत के छोटे शहरों व गावों में नहीं होता. अधिक सामान को खरीद कर कहाँ रखा जाये, यह परेशानी बन जाती है. लोग करीब की दुकान से हर दिन जितनी ज़रूरत हो उतना खरीदना बेहतर समझते हैं, और जिस दिन पैसे कम हों, उस दिन नहीं खरीदते. बड़ी बड़ी कम्पनियों को आखिरकार हार माननी पड़ी. अब उनसे न छोटी थैलियाँ का उत्पादन बन्द करते बनता है और जिस तरह की बिक्री की वह सोचती थीं वह भी उनके हाथ नहीं आयी.

आज छोटे गाँव हों या छोटे बड़े शहर, हर जगह आप को नुक्कड़ की दुकानों में भारतीय तथा बहुदेशीय कम्पनियों की यह छोटी थैलियाँ रंग बिरंगी चमकीली झालरों की तरह लटकी दिखेंगी. इन थैलियों को तकनीकी भाषा में सेशे (sachet) कहते हैं.

कैसे बनती हैं सेशे की छोटी थैलियाँ?

छोटी थैलियों को बनाने में एलुमिनियम, प्लास्टिक तथा सेलूलोज़ लगता है. इनमें एलूमिनियम की एक महीन परत को सेलूलोज़ की या प्लास्टिक की दो महीन परतों के बीच में रख कर उन्हें जोड़ा जाता है. यह बहुत हल्की होती है और इनके भीतर के खाद्य पदार्थ, चिप्स, नमकीन या शैम्पू आदि न खराब होते हैं, न आसानी से फटते हैं. इस तकनीक से थैलियों के अतिरक्त ट्यूब, डिब्बा आदि भी बनाये जाते हैं.

उपयोग के बाद, खाली थैलियों से, माइक्रोवेव की सहायता से एलूमिनियम तथा हाइड्रोकारबन गैस बनाये जा सकते हैं. एलुमिनियम विभिन्न उद्योगों में लग जाता है जबकि हाईड्रोकार्बन गैस उर्जा बनाने में काम आती है. लेकिन अगर इन्हें जलाया जाये तो उससे हानिकारक पदार्थ हवा में चले जाते हैं तथा पर्यावरण प्रदूषित होता है.

एलूमिनयम की जानकारी सोलहवीं शताब्दी में आयी थी लेकिन इस धातू की वस्तुएँ बनाने में सफलता मिली सन् 1855 में. उस समय इसे "मिट्टी की चाँदी" कहते थे, क्योंकि तब यह बहुत मँहगी धातू थी और इससे केवल राजा महाराजाओं के प्याले-प्लेटें या गहने बनाये जाते थे.

एलुमिनियम को सस्ते या टिकाऊ तरीके से बनाने की विधि 1911 में खोजी गयी और धीरे धीरे इसका उत्पादन बढ़ा और साथ ही इसकी कीमत गिरी. आज एलूमिनियम के बरतन अन्य धातुओं के बरतनों से अधिक सस्ते मिलते हैं और अक्सर गरीब घरों में प्रयोग किये जाते हैं. हर वर्ष दुनिया में लाखों टन एलूमिनयम का उत्पादन होता है जिन्हें बोक्साइट की खानों से निकाल कर बनाया जाता है. खानों की खुदाई से पर्यावरण तथा जनजातियों के जीवन की कुछ समस्याएँ जुड़ी हैं जैसा कि ओडिशा में वेदाँत कम्पनी की बोक्साइट की खानों के विरुद्ध जनजातियों के अभियान में देखा जा रहा है.

इस स्थिति में बजाय छोटी थैलियों को कूड़े की तरह फैंक कर पर्यावरण की समस्याएँ बढ़ाने से बेहतर होगा कि उन थैलियों के भीतर के एलूमिनियम को दोबारा प्रयोग के लिए निकाला जाये. इससे कूड़ा भी कम होगा. विकसित देशों में एलुमिनियम के पुनर्पयोग के कार्यक्रम आम है.

भारत में भी कुछ जगह एलुमिनयम के पुनर्पयोग के उदाहरण मिलते हैं लेकिन यह बहुत कम हैं. हमारे देश में अधिकतर जगह इन थैलियों में छुपी सम्पदा को नहीं पहचाना जाता, बल्कि उन्हें कूड़ा बना कर जलाया जाता है या जमीन में गाड़ा जाता है, जिससे नयी समस्याएँ बन जाती हैं.

गुवाहाटी का उदाहरण

यहाँ एक ओर तो जोर शोर से स्वच्छता अभियान की बात होती है, बड़े बड़े पोस्टर लगते हैं कि शहर में सफ़ाई रखिये. दूसरी ओर, हमारे शहरों में कूड़ा इक्ट्ठा करने का आयोजन ठीक से नहीं होता. गुवाहाटी (असम) में भी यही हाल है. शहर में कूड़े के डिब्बे खोजने लगेंगे तो खोजते ही रह जायेंगे. प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों या मन्दिरों के आस पास भी कूड़े के डिब्बे नहीं मिलते. खुली जगह पर पिकनिक हो, कोई विवाह समारोह या पार्टी हो, या मन्दिरों में त्योहार की भीड़, लोग आसपास कूड़े के ढ़ेर लगा कर छोड़ जाते हैं.

कूड़े के डिब्बों की जगह पर, शहर में कई कई किलोमीटर की दूरी पर बड़े कूड़ा एकत्रित करने वाले कन्टेनर मिलते हैं. यानि आप पिकनिक पर जायें या मन्दिर जायें, तो उसके बाद कूड़े के थैले ले कर इन कन्टेनरों को खोजिये. अक्सर लोग दूर रखे कम्टेनर तक जाने की बजाय कूड़े को वहीं फैंक देते हैं. पिकनिक स्थलों पर प्लास्टिक की थैलियाँ, चमकीली कागज़ की प्लेटें, मुर्गियों के पँख, इधर उधर उड़ते रहते हैं. (तस्वीर में गुवाहाटी के उमानन्द मन्दिर के पीछे फैंका हुआ कूड़ा)

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

गुवाहाटी में छोटी थैलियों का क्या किया जाता है, मैं यह समझना चाहता था. इसी की खोज में मैं एक दिन, शहर के करीब ही, हाईवे से जुड़े "बोड़ो गाँवो" गया, जहाँ ट्रकों से गुवाहाटी शहर का सारा कूड़ा जमा होता है. उस जगह पर, बहुत दूर से ही कूड़े की मीठी गँध गाँव के हवा में बादलों की तरह सुँघाई देती है. इस कूड़े से कई सौ परिवारों की रोज़ी रोटी चलती है. वह लोग झोपड़ियों में कूड़े के आसपास ही रहते हैं. झोपड़ियों के आसपास भी कूड़े के ढ़ेर लगे होते हैं जहाँ उसकी छटाई होती है और जो वस्तुएँ बेची जा सकती हैं, वह निकाल ली जाती हैं. वहाँ कोई विरला ही लिखना पढ़ना जानता है, तथा बच्चे भी स्कूल नहीं जाते.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

आज की दुनिया में हमारे शहरों में व्यवसाय तथा लोग कूड़ा बनाने में माहिर हैं. हर दिन हमारे यहां लाखों टन कूड़ा बनता है. लेकिन सभी कूड़ा बनाने वाले, अपने कूड़े से और उसकी गन्ध से नफरत करते हैं. ऐसी स्थिति में शिव की तरह विष पीने वाले, कूड़े में रह कर काम करने वाले लोग जो उस कूड़े से पुनर्पयोग की वस्तुएँ निकालते हैं, उन्हें तो संतों का स्थान मिलना चाहिये. पर हमारा समाज उनके इस काम की सराहना नहीं करता बल्कि उन्हें समाज से क्या मिलता है, इसकी आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं.

उन कूड़े के ढेरों पर बहुत से पशु पक्षी भी घूमते दिखते हैं, जिनमें असम के प्रसिद्ध ग्रेटर एडजूटैंट पक्षी भी हैं.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

कूड़े में अधिकतर स्त्रियाँ तथा बच्चे काम करते हैं. कई बच्चे तीन चार साल के भी दिखे, जो कूड़े की थैलियाँ सिर पर उठा कर ले जा रहे थे. जब भी नगरपालिका का कोई ट्रक आता, वह लोग उसके पीछे भागते ताकि कूड़े को चुनने का उन्हें पहले अवसर मिले.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

कूड़े में काम करने वालों का क्या जीवन है, उनकी समस्याएँ क्या है, यह जानने नहीं गया था. उसके बारे में फ़िर कभी लिखूँगा. बल्कि मेरा ध्येय था यह जानना कि खाली थैलियों का क्या होता है?

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

संयोग से, वहाँ पहुँचते ही एक टेम्पो दिखा जिस पर कई हज़ार खाली थैलियाँ प्लास्टिक में बँधी थीं. मैंने उस टेम्पो को देख कर सोचा कि इसका अर्थ था कि खाली थैलियों को अलग कर के रखा जाता है, यानि इन्हे बेचने का तथा इनके पुनर्पयोग का कुछ कार्यक्रम चल रहा है.

पर ऐसा नहीं था. थोड़ी देर बाद वह टेम्पो भी कूड़े के ढेर की ओर बढ़ा जहाँ अन्य ट्रक अपना कूड़ा फैंक रहे थे. टेम्पो वाले युवकों ने प्लास्टिक को खोल कर उन खाली थैलियों को अन्य कूड़े के बीच में फैंक दिया.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

स्वच्छ भारत

जब तक शहरों में कूड़ा फैंकने की उपयुक्त जगहें नहीं होंगी, लोगों को यह कहने का क्या फायदा है कि सफाई रखिये? शहरों में जगह जगह पर डिब्बे होना जिसमें लोग कूड़ा डाल सके, आवश्यक हैं. मन्दिर तथा पिकनिक स्थलों पर भी कूड़ा जमा करने के डिब्बे रखना ज़रूरी है.

हम से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो यह कहे कि वह स्वच्छ भारत नहीं चाहता. लेकिन क्या सड़कों पर झाड़ू लगाने या डिब्बों में कूड़ा फैंकने से भारत स्वच्छ हो जायेगा? झाड़ू लगा कर कूड़ा हटाना तथा डिब्बों में कूड़ा डालना तो केवल पहला कदम है. इससे शहरों में रहने वाले लोगों के सामने की गन्दगी हटती है. लेकिन वही गन्दगी हमारे शहरों के बाहर अगर जमा होती रहती है, तो क्या सच में हमारा वातावरण स्वच्छ हो गया?

देश में हर दिन लाखों करोड़ों टन नया कूड़ा बनता है, उसका क्या करेंगे हम? उसे जला कर वातावरण का प्रदूषण करेंगे या जितना हो सकेगा उसका पुनर्पयोग होना चाहिये?

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

चमकीली थैलियों में छुपे लाखों टन एलूमिनियम को निकाल कर उसका दोबारा उपयोग करना बेहतर है या नयी खानें बनाना?

फल सब्जी आदि खाद्य पदार्थों के कूड़े को जमा करके उनसे खाद बनाने से बेरोजगार लोगों को जीवनयापन के माध्यम मिल सकते हैं. वैसे ही थैलियों में छुपे एलुमिनियम के पुनर्पयोग से भी उद्योगों तथा बेरोजगार युवकों को फायदा हो सकता है. बोड़ा गाँव जैसी जगहों में कूड़ा जमा करने वाले लोगों को भी इससे जीवनयापन का एक अन्य सहारा मिलेगा. साथ ही कूड़ा जलाने से जो प्रदुषण होता है वह कम होगा.

जब तक ऐसे प्रश्नों के बारे में नहीं सोचेगें, भारत स्वच्छ हो, यह सपना सपना ही रहेगा और चमकीली थैलियाँ समृद्धी का रास्ता बनने के बजाय, जहर बन कर किसी शिव की प्रतीक्षा करती रहेंगी.

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शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

एक चायवाले का विद्रोह

आजकल मोदी जी ने चायवालों को प्रसिद्ध कर दिया है, लेकिन यह आलेख उनके बारे में नहीं है. वैसे चाय की बातें मोदी जी के पहले भी महत्वपूर्ण होती थीं जैसा कि अमरीकी इतिहास बताता है, जहाँ अमरीका की ब्रिटेन से स्वतंत्रता की लड़ाई भी सन् 1733 के चाय लाने वाले पानी के जहाज़ से जुड़ी थी जिसे बोस्टन की "चाय पार्टी के विद्रोह" के नाम से जानते हैं. पर आज की मेरी बात भारत में सन् 1857 के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह से जुड़े असम के एक चाय बागान वाले व्यक्ति के बारे में है जिनका नाम था मणिराम दत्ता बरुआ जिन्हें लोग मणिराम दीवान के नाम से भी जानते हैं. उन्हें उत्तर पूर्व के भारत के स्तंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद सैनानी के नाम से जाना जाता है.

क्या आप ने पहले कभी उनका नाम सुना है? असम से बाहर रहने वाले लोग अक्सर उनके नाम से अपरिचित होते हैं. मैं भी उन्हें नहीं जानता था. उनसे "पहली मुलाकात" गुवाहाटी में नदी किनारे हुई थी. 

उत्तर पूर्व के स्वंत्रता सैनानी

असम की राजधानी गुवाहाटी में आये कुछ दिन ही हुए थे जब मछखोवा में ब्रह्मपु्त्र नदी के किनारे एक बाग में एक स्मारक देखा जिसमें आठ लोगों की मूर्तियाँ बनी हैं. स्मारक के नीचे लिखा था कि देश की स्वाधीनता के लिए इन वीर व वीरांगनाओं ने त्याग व बलिदान दिया. मुझे वह स्मारक देख कर कुछ आश्चर्य हुआ क्यों कि उन आठों में से एक का भी नाम मैंने पहले नहीं सुना था. वह आठ व्यक्ति थे कनकलता बरुआ, कुशल कोंवर, मणिराम दीवान, पियाली बरुआ, कमला मीरी, भोगेश्वरी फूकननी, पियाली फूकन तथा गँधर कोंवर.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

कुछ दिन बाद नेहरु पार्क में घूम रहा था तो वहाँ फ़िर से शहीद कुशल कोंवर की मूर्ति दिखी, तो मछखोवा के स्मारक की बात याद आ गयी. 

सोचा कि भारत में रहने वालों में अपने उत्तर पूर्वी भाग के इतिहास के बारे में तथा यहाँ रहने वाले लोगों के बारे में कितनी काम जानकारी है. जिन लोगों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए जान दी, उनके नाम भी बाकी भारत में अनजाने हैं. तो सोचा कि इसके बारे में अधिक जानने की कोशिश करूँगा और इसके बारे में लिखूँगा. पर सोचने तथा करने में कुछ अंतर होता है. बात सोची थी, वहीं रह गयी, और मैं इसके बारे में भूल गया.

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

फ़िर पिछले माह काम के सिलसिले में उत्तरी असम में जोरहाट गया तो उनमें से एक स्वतंत्रता सैनानी के जीवन से अचानक परिचय हुआ.

मैं जोरहाट शहर से थोड़ा बाहर, मरियानी रेल्वे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क पर सिन्नामारा में विकलाँगों के लिए काम करने वाली एक संस्था "प्रेरणा" की अध्यक्ष सुश्री सायरा रहमान से मिलने गया था. उनकी संस्था गाँव में रहने वाले विकलाँग लोगों के साथ कैसे काम करती है, यह देखने के लिए सायरा जी ने अपने एक कार्यकर्ता मोनोजित के साथ, मुझे वहीं करीब ही एक चाय बागान से जुड़े गाँव में भेजा.

वहीं बातों बातों में मालूम चला कि यह सिन्नामारा के चाय बागान, स्वतंत्रता सैनानी मणिराम दीवान ने प्रारम्भ किये थे. इस बार संयोग से उनकी कर्मभूमि से परिचय हुआ था तो मुझे लगा कि उनके बारे में अवश्य अधिक जानना चाहिये.

उस दिन शाम को वापस जोरहाट में अपने होटल में पँहुचा तो मालूम चला कि वह चौराहा जिसके करीब मैं ठहरा था, उसे मणिराम दत्ता बरुआ चौक  (बरुआ चारिआली) ही कहते हैं. वहाँ सन् 2000 में असम सरकार की ओर से "मिल्लेनियम स्मारक" बनाया गया है जिसमें उनकी कहानी भी चित्रित है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

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तो कौन थे मणिराम दीवान और क्या किया था उन्होंने, जिसके लिए अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें विद्रोही मान लिया था?

मणिराम दत्ता बरुआ या मणिराम दीवान

मणिराम का जन्म 17 अप्रेल 1806 को चारिन्ग में हुआ जब उनके पिता श्री राम दत्ता को, उस समय के असम के अहोम राजा कमलेश्वर सिंह से, "डोलाकशारिया बरुआ" का खिताब मिला था. मणिराम को पढ़ाई के लिए बँगाल में नबद्वीप भेजा गया जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी तथा फारसी भाषाएँ भी पढ़ी. 1817 से 1823 के बीच अँग्रेज़ों ने असम पर काबू करने की कोशिश शुरु की, उसी के संदर्भ में मणिराम ने अंग्रेज़ी अफसर डेविड स्कोट तथा उनकी फौज को उत्तरी असम जाने में मार्गदर्शन दिया. वफ़ादार काम करने पर, बीस वर्ष की आयू में मणिराम को डेविड स्काट ने अंग्रेज़ी शासन की ओर से तहसीलदार व शेरिस्तदार का पद दिया.

1833 से 1838 तक, मणिराम अंग्रज़ो द्वारा स्वीकृत असम राजा पुरेन्द्र सिह के "बोरबन्दर बरुआ" यानि प्रधान मंत्री नियुक्त हुए. 1839 में असम में चाय उत्पादन के लिए लँदन में असम कम्पनी बनायी गयी. तभी असम की अंग्रेज़ी सरकार में डेविड स्काट की जगह कर्नल जेनकिन्स ने ली, जिन्होंने मणिराम को दीवान का खिताब दिया तथा वह असम कम्पनी के अफसर बन गये.

1843 में मणिराम ने असम कम्पनी की नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह अपना चायबागान लगाना चाहते थे. असम कम्पनी के अंग्रेज़ इस बात से खुश नहीं थे.

1845 में मणिराम ने जोरहाट के पास अपना पहला चायबागान लगाया जहां कलकत्ता में रहने वाले चीनी चाय विषेशज्ञ लाये गये, जोकि उनके सलाहकार बने. उनकी वजह से उस चायबागान को लोग चिन्नामारा (चीनी बाग) कहने लगे. इस जगह को अब सिन्नामारा के नाम से लोग जानते हैं.

मणिराम उद्योगपति बन गये, केवल चाय उत्पादन में नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी - जैसे कि नमक बनाने व इस्पात बनाने का कारकाना भी लगाया, ईँटें तथा सिरेमिक बनाने की भट्टियाँ लगायीं.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

उनकी उन्नति से असम कम्पनी के अंग्रेज़ अफसर चितिंत हुए क्योंकि उनकी दृष्टि में भारतीयों का चाय कारोबार में पड़ने का अर्थ, अंग्रेज़ी कम्पनी का नुकसान था. 1851 में अंग्रेज़ सरकार ने उनके चायबागान तथा सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया. असम पर काबू रखने के लिए अंग्रेज़ों ने बंगाल तथा मारवाड़ से लोगों को बुला कर उन्हें अफसर बनाया. मणिराम ने कलकत्ता की अदालत में न्याय के लिए अर्ज़ी दी तथा अंग्रेज़ टेक्सों की आालोचना की कि उनसे स्थानीय अर्थव्यवस्था को कमज़ोर किया जा रहा है. लेकिन अदालत ने उनकी यह अर्ज़ी नामँजूर कर दी, तथा उनके चाय बागान अंग्रेजों को दे दिये गये.

1857 की अंगरेज़ों के विरुद्ध सिपाही क्राँती से मणिराम ने प्रेरणा पायी और उत्तरपूर्व में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध काम प्रारम्भ किया. अंग्रेज़ी शासन के विद्रोह के आरोप में मणिराम को गिरफ्तार किया गया और 26 फरवरी 1858 को उन्हें फाँसी दी गयी.

आज का सिन्नामारा

सिन्नामारा में आज भी चायबागान हैं, जहाँ बहुत से लोग संथाल जनजाति के हैं. चायबागानों में काम करने के लिए अंग्रेज़ केन्द्रीय भारत से संथाल जाति के लोगों को ले कर आये थे. स्थानीय भाषा न जानने वाले लोगों को रखने का फायदा था कि उन्हें आसानी से दबाया जा सकता था और उनमें विद्रोह कठिन था. इस तरह से आज असम में लाखों संथाली रहते हैं जिनके पूर्वज यहाँ एक सौ पचास वर्ष पहले मजदूर की तरह लाये गये थे.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

असम में होने वाले जाति-प्रजाति सम्बँधित झगड़ों-विवादों में एक यह विवाद भी है जिसमें "विदेशी" और "भूमिपुत्रों" की बात की जाती है. आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ापन, संचार तथा यातायात की कठिनाईयाँ आदि की वजह से इतने सालों में असम के समुदायों में जो एकापन आना या समन्वय आना चाहिये था, वह नहीं आया. बल्कि आज उस पर धर्म सम्बँधी भेद भी जुड़ गये हैं.

चायबागान चलाने वालों का कहना है कि चाय के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर निर्भर करते हैं, इस लिए चायबागानों में काम करने के लिए न्यूनतम पगार जैसी बातों को नहीं लागू किया जा सकता. इस तरह से प्रतिदिन आठ घँटे काम करने वाले यहाँ के चायबागान के काम करने वालों को, सप्ताह के 400 रुपये के आसपास की तनख्वाह तथा कुछ खाने का सामान दिया जाता है.

सिन्नामारा में अंग्रेज़ों के समय का पुराना अस्पताल भी है, जिसे असम चाय उद्योग चालाता था लेकिन जो कई वर्षों से बन्द पड़ा है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

अंगरेज़ों के समय और आज का समय देखें तो, बहुत सी बातों में आज दुनिया बहुत बदल गयी है. आज हम स्वतंत्र हैं, जो काम करना चाहें, जिस राह पर बढ़ना चाहें, उसे स्वयं चुन सकते हैं. लेकिन गरीबी, अशिक्षा तथा भ्रष्टाचार, आज भी जँज़ीरें है जो हमें बाँधे रखती हैं.

मेरी चायबागान में काम करने वाले पढ़े लिखे कुछ नवयुवकों से बात हुई, बोले कि पढ़ायी करके भी वही मजदूरी करनी पड़ती है क्योंकि "बिना घूस दिये कुछ काम नहीं मिलता, और घूस देने लायक पैसा हमारे पास नहीं".

आज के भारत की दुनिया बदली है लेकिन चायबागानों में काम करने वाले मजदूरों की दृष्टि से देखे तो जितनी बदलनी चाहिये थी उतनी नहीं बदली.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

मणिराम दीवान ने अपना जीवन अंग्रेजों के साथी की तरह प्रारम्भ किया, पर उनमें चाकरी की भावना कम थी, वह स्वयं को उनसे कम नहीं मानते थे, स्वयं उद्योगपति बनने का सपना देखते थे! इन सब बातों की वजह से उन्हें विद्रोह की राह चुननी पड़ी. स्वतंत्रता की राह में उन जैसे कुर्बानी करने वाले अन्य बहुत लोग होंगे लेकिन उनकी अपेक्षा मणिराम दीवान की याद को अधिक प्रमुखता मिली, जोकि स्वाभाविक है क्योंकि इतिहास ऐसे ही बनना है,

कुछ लोग अपने व्यक्तित्व या सामाजिक स्थिति की वजह से लोगों में प्रतीक बन कर रास्ता दिखाते हैं, प्रेरणा देते हैं. पर उस स्वतंत्रता का जितना लाभ यहाँ के गरीब लोगों को मिलना चाहिये था, उसमें हमारे देश में कुछ कमी आ गयी!

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सोमवार, मार्च 30, 2015

भारत की बेटियाँ

पिछले कई दिनों से बीबीसी की डाकूमैंटरी फ़िल्म "इंडियाज़ डाटर" (India's daughter) के बैन करने के बारे में बहस हो रही थी. आजकल कुछ भी बहस हो उसके बारे में उसके विभिन्न पहलुओं का विषलेशण करना, अन्य शोर में सुनाई नहीं देता. शोर होता है कि या तो आप इधर के हैं या उधर के हैं. अगर आप प्रतिबन्ध लगाने के समर्थक हैं तो रूढ़िवादी, प्रतिबन्ध के विरोधी है तो उदारवादी, या फ़िर इसका उल्टा.

किसी बात के क्या विभिन्न पहलू हो सकते हैं, किस बात का समर्थन हो सकता है, किसका नहीं, जैसी जटिलताओं के लिए इन बहसों में जगह नहीं होती.

कुछ लोग कह रहे थे कि यह डाकूमैंटरी पश्चिमी देशों की चाल है, भारत को नीचा दिखाने की. एक बेलजियन प्रोफेसर जेकब दे रूवर ने एक आलेख में लिखा कि भिन्न यूरोपीय देशों में अधिक बलात्कार होते हैं, उनके मुकाबले में भारत में कम होते हैं. इसलिए वह भी सोचती है कि इस तरह की डाकूमैंटरी बनाना उस यूरोपीय सोच का प्रमाण है जो भारत जैसे विकसित देशों को असभ्य और पिछड़ा हुआ मानती है तथा इस तरह के समाचारों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाती है.

Rapes in India graphic by Sunil Deepak

तो क्या सचमुच भारत एक बलात्कारी देश है‌ ?

मेरे विचार में दंगों जैसी स्थितियों को छोड़ दिया जाये तो बलात्कारों के विषय में भारत की स्थिति अन्य देशों की तरह है, उनसे न बहुत कम न बहुत अधिक. इसलिए अगर आँकणों के हिसाब से भारत में बलात्कार कम होते हैं तो इसकी वजह यह नहीं कि हमारे पुरुष कम बलात्कारी हैं, इसकी वजह है कि गरीबों, शोषितों और औरतों के साथ होने वाले अपराधों के बारे में हमारे आँकणे अधूरे रहते हैं. हमारे यहाँ पुलिस के पास जाना अक्सर अपराध का समाधान नहीं करता, बल्कि उस पर अन्य तकलीफ़ें बढ़ा देता है. सामान्य जन के लिए, कुछ अपवाद छोड़ कर, पुलिस का नाम न्याय या सहायता से नहीं जुड़ा, बल्कि अत्याचार, उसका ताकतवरों का साथ देना व दुख से पीड़ित लगों से घूसखोरी की माँगें करना, जैसी बातों से जुड़ा है.

बलात्कार जैसी बात हो तो उसकी शिकार औरतों के प्रति समाजिक क्रूरता को सभी जानते हैं.  जैसी हमारी सामाजिक सोच है, हमारी पुलिस की भी वही सोच है. यानि बलात्कार हुआ हो तो इसका कारण उस युवती के चरित्र, काम, पौशाक में खोजो. तो अचरज क्यों कि हमारे बलात्कारों के आँकणे विकसित देशों के सामने कम है ?

विदेशों में भारत की बलात्कारी छवि

यह सच है कि यूरोप में वहाँ प्रतिदिन होने वाले बलात्कारों के समाचारों को इतनी जगह नहीं मिलती जितनी भारत से आने वाले इस तरह के समाचारों को मिलती है. इससे पिछले दो वर्षों में विदेशों में भारत की बलात्कार समस्या को बहुत प्रमुखता मिली है. पर इसके कई कारण हैं. हर देश, हर गुट के बारे में कुछ प्रचलित छवियाँ होती हैं. इन्हें स्टिरियोटाइप भी कहते हैं. इन स्टिरियोटाइप छवियों का फायदा है कि कुछ भी बात हो उसे लोग तुरंत समझ जाते हैं, कुछ समझाने की आवश्यकता नहीं पड़ती. विदेशों में भारत की स्टिरियोटाइप छवि है जिसमें गाँधी जी, शाकाहारी होना, अहिँसा, ताज महल, आध्यात्म, ध्यान, योग, जैसी बातें जुड़ी हैं, जिन्हें हम सामान्यतह सकारात्मक मानते हैं. इसी स्टिरियोटाइप छवि के कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं जैसे कि भारत की छवि गरीबी, गन्दगी, बीमारियाँ, जातिप्रथा जैसी बातों से भी जुड़ी है.

यह स्टिरियोटाइप छवियाँ स्थिर नहीं होती, इसमें नयी बातें जुड़ती रहती है, पुरानी बातें धीरे धीरे लुप्त हो जाती है. पहले भारत की छवि थी सपेरों और जादूगरों की. आज दुनिया में भारत को सपेरों का देश देखने वाले लोग कम हैं, जबकि कम्पयूटर तकनीकी, गणित में अव्वल स्थान पाने वाले या अंग्रेज़ी में अच्छा लिखने वाले लेखकों की बातें इस छवि से जुड़ गयी हैं.

भारत की प्रचलित छवियाँ औरतों के बारे में कुछ सकारत्मक है, कुछ नकारात्मक. एक ओर गरिमामय, सुन्दर, साड़ी पहनी युवतियों की छवियाँ हैं, हर क्षेत्र में अपनी धाक जमाने वाली औरतों की छवियाँ हैं, तो दूसरी ओर दहेजप्रथा, सामाजिक शोषण, भ्रूणहत्या से जुड़ी बातें भी हैं. उन्हीं नकारात्मक बातों में पिछले कुछ वर्षों में बलात्कार भी बात जुड़ गयी है.

यह छवियाँ सकारात्मक हों या नकारात्मक, स्टिरियोटाइप से लड़ना तथा उन्हें बदलना आसान नहीं. बल्कि खतरा है कि उनके विरुद्ध जितना लड़ोगे, वह उतना ही अधिक मज़बूत जायेंगी. मुझे नहीं मालूम कि इस तरह की स्टिरियोटाइप छवियों के बनने को किस तरह से रोका या कम किया जा सकता है. इससे भारत को अवश्य नुकसान होता है. कितने ही मेरे यूरोपीय मित्र, विषेशकर, महिला मित्र, जो पहले यहाँ नहीं आये और जिन्हें भारत के व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं, भारत आने का सोच कर डरते हैं.

क्या भारत में दिल्ली में हुए निर्भया के बलात्कार से पहले ऐसी घटनाएँ नहीं होती थीं? होती थीं लेकिन राजधानी में जनसाधारण, विषेशकर युवाओं का इस तरह बड़ी संख्या में विरोध में निकल कर आना शायद पहली बार हुआ. टेलिविज़न पर समाचार चैनलों की बढ़ोती तथा उनमें आपस में दर्शक बढ़ाने की स्पर्धा ने उस विरोध को समाचार पत्रों में व चैनलों पर प्रमुख जगह दी. इस समाचार को और उस बलात्कार की बर्बता ने सारी दुनिया में समाचारों में जगह पायी.

यूरोप में भारत के बारे में समाचार अक्सर तभी दिखते हैं जब किसी दुर्घटना में बहुत लोग मर जाते हैं. यह हर देश में होता है, आप सोचिये कि क्या भारत में टीवी समाचारों में यूरोप के बारे में किस तरह के समाचार दिखाये जाते हैं? लेकिन जब निर्भया काँड के बाद भारत के युवा सड़कों पर निकल आये थे, इसके समाचारों को यूरोप के टीवी समाचारों में बहुत दिनों तक प्रमुखता मिली थी.

उस घटना के बाद से, दिल्ली या मुम्बई जैसे शहरों में जब भी मध्यम या उच्च वर्ग की युवती के साथ बलात्कार होता है तो हमारे टीवी समाचार चैनल हल्ला कर देते हैं. ब्रेकिन्ग न्यूज़ बन कर सारा दिन उसकी बात होती है, शाम को हर चैनल उसी पर बहस करती है. अगर बलात्कार विषेश बर्बर हो या भारत की पहले से प्रचलित नकारात्मक छवि से जुड़ा हो, जैसे कि जातिभेद या महिलाओं को शोषण से, तो उसे विदेशों में भी समाचारों में जगह मिलती है. जब हमारे राजनेता बलात्कार के बारे में कुछ वाहियात सी बात करते हैं तो उसे भी विदेशी समाचारों में भरपूर जगह मिलती है. मसलन, जब मुलायम सिंह यादव ने कहा कि "लड़कों से गलती हो जाती है" तो बहुत से यूरोपीय समाचार पत्रों ने उसका समाचार पहले पृष्ठ पर दिया था.

भारतीय समाचार पत्रों तथा चैनलों का भाग

कुछ सप्ताह पहले जब एक सुबह कोलकता से निकलने वाले अंगरेज़ी अखबार टेलीग्राफ़ में मुख्य पृष्ठ पर दिल्ली बलात्कार काँड के बस ड्राइवर मुकेश सिंह का साक्षात्कार छपा देखा था तो बहुत हैरानी हुई थी. सोचा था कि क्यों अखबार वालों ने इस तरह की व्यक्ति की इन वाहियात बातों को इस तरह से बढ़ा चढ़ा कर कहने का मुख्य पृष्ठ पर मौका देने का निर्णय लिया ? मुझे लगा कि इस तरह की सोच वाले लोग भारत में कम नहीं और उस साक्षात्कार को इस तरह प्रमुखता पाते देख कर, उन्हें यह लगेगा कि उनकी यह सोच शर्म की नहीं, गर्व की बात है. मैंने उस समय सोचा था कि बिक्री बढ़ाने के लिए समाचार वाले कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं.

मेरा विचार था कि यह आलेख समाचार पत्र में नहीं छपना चाहिये था. मेरे एक मित्र बोले कि न छापना तो मानव अभिव्यक्ति अधिकार के विरुद्ध होगा. मेरा कहना था कि जब कोई अगर अन्य लोगों के प्रति हिंसा करने, बलात्कार करने, जान से मारने की बात की बात करे तो वह मानव अभिव्यक्ति अधिकार नहीं हो सकता क्योंकि उससे अन्य लोगों के जीवन व सुरक्षा के अधिकारों पर हमला होता है.

यह कुछ दिन बाद समझ में आया कि वह "समाचार" नहीं था, एक डाकूमैंटरी से लिया गया हिस्सा था जिसे डाकूमैंटरी का परिपेक्ष्य समझाये बिना ही समाचार पत्र में छापा गया था. डाकूमैंटरी के बारे में जहाँ तक पढ़ा है, मुकेश सिंह का साक्षात्कार उसका छोटा सा हिस्सा है, उसमें अन्य भी बहुत सी बाते हैं. उसे देखने वालों ने कहा है कि यह फ़िल्म बलात्कारी सोच के विरुद्ध उठायी आवाज़ है. अगर डाकूमैंटरी में यह सब कुछ है तो क्यों समाचार पत्रों ने मुकेश सिंह के साक्षात्कार को इस तरह से बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया जिससे यह लगे कि यह आम भारतीय पुरुषों की सोच है? यानि जनसाधारण में इस फ़िल्म के प्रति प्रारम्भिक उत्तेजना बढ़ाने में समाचार पत्रों तथा टेलिविज़न चैनलों ने क्या हिस्सा निभाया ?

क्या समाचार पत्रों ने मुकेश सिंह के कथन को इतनी प्रमुखता दी थी या फ़िर डाकूमैंटरी बनाने वालों ने अपनी प्रेस रिलीज़ में मुकेश सिंह वाले हिस्से को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया था ?

निर्भया के बलात्कार के बाद, भारत में बलात्कार होने कम नहीं हुए हैं. लेकिन शायद बढ़े भी नहीं हैं, केवल इन समाचारों का छुपना कम हो गया है ? प्रतिदिन हर शहर में बलात्कार होते हैं, जैसे पहले भी होते थे. पर अब समाचार चैनलों में बलात्कारों को जगह मिलने लगी है. पर शायद यह भी सोचना चाहिये कि किस तरह की जगह मिल रही है, इस तरह के समाचारों को?

पिछले वर्ष जुलाई में कुछ सप्ताह के लिए लखनऊ में था, एक स्थानीय चैनल पर आधे घँटे के समाचारों में बीस-पच्चीस मिनट तक  यहाँ बलात्कार, वहाँ बलात्कार की बात होती रही. मुझे थोड़ा अचरज हुआ कि उस समाचार बुलेटिन में इतनी जगह इस तरह के समाचारों को मिली, जैसे कि 20 करोड़ की जनसंख्या वाले उत्तरप्रदेश में अन्य अपराध या अन्य समाचार नहीं हों ? क्या यही तरीका है इस बात के बारे में जनचेतना जगाने का या जनता को जानकारी देने का ?

असली बात

लेकिन क्या यही बात सबसे महत्वपूर्ण है कि विदेशों में हमारे बारे में क्या सोचते हैं? कोई अन्य क्या सोचता है, यह तो बाद की बात है, पहली बात है कि हम इस बारे में स्वयं क्या सोचते है? उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है यह सोचना कि जिन अपराधों के बारे में हम बात कर रहे हैं क्या उनसे पीड़ित लोगों को न्याय मिल रहा है या नहीं, समाज की विचारधारा बदल रही है या नहीं.

सच तो यह है कि हमारे देश में आज भी हर दिन हज़ारों भ्रूणहत्याएँ होती हैं, लड़कियों से, "छोटी" जाति के लोगों से, गरीबों के साथ जब अपराध होते हैं तो कितने समाचार पत्र उन्हें छापते हैं? उनमें से कितनों की रपट पुलिस में लिखी जाती है? उनके बारे में टीवी पर कौन बात करता है? क्या इस सब के बारे में हमारे देश में सन्नाटा नहीं रहता? भारत के छोटे बड़े शहरों में लड़कियों व औरतों जब बाहर जाती है तो सड़कों पर, बसों में, काम की जगहों पर, "छेड़खानी" आम बात हैं और लोग चुपचाप देखते हैं.

हमारी पुलिस तथा न्याय व्यवस्था दोनों में कितनी सड़न है. इस स्थिति में मुकेश सिंह व उनके वकीलों की बलात्कारी सोच अपवाद नहीं, सामान्यता है. क्या हमारे राजनेता, धर्मगुरु, क्या यही नहीं कहते कि लड़कियों को रात को काम नहीं करना चाहिये, जीन्स नहीं पहननी चाहिये, आदि ? यानि उनकी सोच है कि इस सब की वजह से उनका बलात्कार हुआ. यानि गलती उन्हीं की है, समाधान भी उन्हें ही करना है. हमारे युवाओं तथा पुरुषों की सोच बदलने की बात नहीं होती. उनकी सोच मुकेश सिंह की सोच से अधिक भिन्न नहीं. शायद इसीलिए उस डाकूमैंटरी की बात हमें इतनी बुरी लगी क्योंकि उसमें हमारी सोच का सच है ?

कल टाईमस ऑफ़ इन्डिया के विनीत जैन के बारे में पढ़ा कि उन्होंने कहा हम समाचार पत्रों के धँधे में नहीं, विज्ञापन बेचने के धँधे में हैं. यानि समाचार पत्रों को बिक्री का सोचना है, नीति, या समाज का नहीं.

क्या हमारी टीवी चैनल भी टीआरपी के चक्कर में चिल्लाने वाली बहसों, हर बात को ब्राकिन्ग न्यूज़ बनाना, स्केन्डल बनाना जैसी बातों में नहीं व्यस्त रहतीं ? और समाचार पत्रों या चैनलों को दोष देना आसान है पर लाखों करोड़ों लोग उन्हीं चैनलों को देख कर चटकारे लेते हैं. जहाँ गम्भीरता से बात हो रही हो, तथा जटिल समस्याओं के समाधान सोचे खोजे जायें, तो उन्हें कितने लोग देखते हैं ?

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बुधवार, मार्च 04, 2015

जीवन का अंत

चिकित्सा विज्ञान तथा तकनीकी के विकास ने "जीवन का अंत" क्या होता है, इसकी परिभाषा ही बदल डाली है. जिन परिस्थितियों में दस बीस वर्ष पहले तक मृत्यू को मान लिया जाता था, आज तकनीकी विकास से यह सम्भव है कि उनके शरीरों को मशीनों की सहायता से "जीवित" रखा जाये. लेकिन जीवन का अंतिम समय कैसा हो यह केवल चिकित्सा के क्षेत्र में हुए तकनीकी विकास और मानव शरीर की बढ़ी समझ से ही नहीं बदला है, इस पर चिकित्सा के बढ़ते व्यापारीकरण का भी प्रभाव पड़ा है. तकनीकी विकास व व्यापारीकरण के सामने कई बार हम स्वयं क्या चाहते हैं, यह बात अनसुनी सी हो जाती है.

तो जब हमारा अंतिम समय आये उस समय हम किस तरह का जीवन और किस तरह की मृत्यू चुनते हैं? किस तरह का "जीवन" मिलता है जब हम अंतिम दिन अस्पताल के बिस्तर में गुज़ारते हैं? इस बात का सम्बन्ध जीवन की मानवीय गरिमा से है. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी कीमत केवल पैसों में नहीं मापी जा सकती है, बल्कि इसकी एक भावनात्मक कीमत भी है जो हमारे परिवारों व प्रियजनों को उठानी पड़ती है. आज मैं इसी विषय पर अपने कुछ विचार आप के सामने रखना चाहता हूँ.

ICU in an Indian hospital - Image by Sunil Deepak

चिकित्सा क्षेत्र में तकनीकी विकास

पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की की है. आज कई तरह के कैंसर रोगों का इलाज हो सकता है. कुछ जोड़ों की तकलीफ़ हो तो शरीर में कृत्रिम जोड़ लग सकते हैं. हृदय रोग की तकलीफ हो तो आपरेशन से हृदय की रक्त धमनियाँ खोली जा सकती हैं. कई मानसिक रोगों का आज इलाज हो सकता है. नये नये टेस्ट बने हैं. घर में अपना रक्तचाप मापना या खून में चीनी की मात्रा को जाँचना जैसे टेस्ट मरीज स्वयं करना सीख जाते हैं. नयी तरह के अल्ट्रासाउँड, केटस्केन, डीएनए की जाँच जैसे टेस्ट छोटे शहरों में भी उपलब्ध होने लगी हैं.

इन सब नयी तकनीकों से हमारी सोच में अन्तर आया है. आज हमें कोई भी रोग हो, हम यह अपेक्षा करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान इसका कोई न कोई इलाज अवश्य खोजेगा. कोई रोग बेइलाज हों, यह मानने के लिए हम तैयार नहीं होते.

कुछ दशक पहले तक, अधिकतर लोग घरों में ही अपने अंतिम क्षण गुज़ारते थे. उन अंतिम क्षणों के साथ मुख में गंगाजल देना, या बिस्तर के पास रामायण का पाठ करना जैसी रीतियाँ जुड़ी हुईं थीं. लेकिन शहरों में धीरे धीरे, घर में अंतिम क्षण बिताना कम हो रहा है. अगर अचानक मृत्यू न हो तो आज शहरों में अधिकतर लोग अपने अंतिम क्षण अस्पताल के बिस्तर पर बिताते हैं, अक्सर आईसीयू के शीशों के पीछे. जब डाक्टर कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता तब भी अंतिम क्षणों तक नसों में ग्लूकोज़ या सैलाइन की बोतल लगी रहती है, नाक में नलकी डाल कर खाना देते रहते हैं. अगर साँस लेने में कठिनाई हो तो साँस के रास्ते पर नली लगा कर तब तक वैंन्टिलेटर से साँस देते हैं जब तक एक एक कर के दिल, गुर्दे व जिगर काम करना बन्द नहीं कर देते. जब तक हृदय की धड़कन मापने वाली ईसीजी मशीन में दिल का चलना आये और ईईजी की मशीन से मस्तिष्क की लहरें दिखती रहीं, आप को मृत नहीं मानते और आप को ज़िन्दा रखने का तामझाम चलता रहता है.

वैन्टिलेटर बन्द किया जाये या नहीं, ग्लूकोज़ की बोतल हटायी जाये या नहीं, दिल को डिफ्रिब्रिलेटर से बिजली के झटके दे कर दोबारा से धड़कने की कोशिश की जाये या नहीं, यह सब निर्णय डाक्टर नहीं लेते. अगर केवल डाक्टर लें तो उन पर "मरीज़ को मारने" का आरोप लग सकता है. यह निर्णय तो डाक्टर के साथ मरीज़ के करीबी परिवारजन ही ले सकते हैं. पर परिवार वाले कैसे इतना कठोर निर्णय लें कि उनके प्रियजन को मरने दिया जाये? चाहे कितना भी बूढ़ा व्यक्ति हो या स्थिति कितनी भी निराशजनक क्यों न हो, जब तक कुछ चल रहा है, चलने दिया जाता है. बहुत कम लोगों में हिम्मत होती है कि यह कह सकें कि हमारे प्रियजन को शाँति से मरने दिया जाये.

अपने प्रियजन के बदले में स्वयं को रख कर सोचिये कि अगर आप उस परिस्थिति में हों तो आप क्या चाहेंगे? क्या आप चाहेंगे कि उन अंतिम क्षणों में आप की पीड़ा को लम्बा खींचा जाये, जबरदस्ती वैन्टिलेटर से, नाक में डली नलकी से, ग्लूकोज़ की बोतल और इन्जेक्शनों से आप के अंतिम दिनों को जितना हो सके लम्बा खीचा जाये?

चिकित्सा का व्यापारीकरण

लोगों की इन बदलती अपेक्षाओं से "चिकित्सा व्यापार" को फायदा हुआ है. कुछ भी बीमारी हो, वह लोग उसके लिए दबा कर तरह तरह के टेस्ट करवाते हैं. महीनों इधर उधर भटक कर, पैसा गँवा कर, लोग थक कर हार मान लेते हैं. भारत में प्राइवेट अस्पतालों में क्या हो रहा है,  किसी से छुपा नहीं है. उनके कमरे किसी पाँच सितारा होटल से कम मँहगे नहीं होते. लेकिन सब कुछ जान कर भी आज की सोच ऐसी बन गयी है कि कुछ भी हो बड़े अस्पताल में स्पेशालिस्ट को दिखाओ, दसियों टेस्ट कराओ, क्योंकि इससे हमारा अच्छा इलाज होगा.

गत वर्ष में आस्ट्रेलिया के एक नवयुवक डाक्टर डेविड बर्गर ने चिकित्सा विज्ञान की विख्यात वैज्ञानिक पत्रिका "द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में भारत के चिकित्सा संस्थानों के बारे में अपने अनुभवों पर आधारित एक आलेख लिखा था जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. वह भारत में छह महीनों के लिए एक गैरसरकारी संस्था के साथ वोलैंटियर का काम करने आये थे.

डा. बर्गर ने लिखा था कि "भारत में हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार कैसर की तरह फ़ैला है. इस भ्रष्टाचार की जड़े चिकित्सा की दुनिया में हर ओर गहरी फ़ैली हैं जिसका प्रभाव डाक्टर तथा मरीज़ के सम्न्धों पर भी पड़ता है. स्वास्थ्य सेवाएँ भी विषमताओं से भरी हैं, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण दुनिया में सबसे अधिक है. भारत में बीमारी पर होने वाला सत्तर प्रतिशत से भी अधिक खर्चा, लोग स्वयं उठाते हैं. यानि स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण अमरीका से भी अधिक है. जिनके पास पैसा है उन्हें आधुनिक तकनीकों की स्वास्थ्य सेवा मिल सकती है, हालाँकि इसकी कीमत उन्हें उँची देनी पड़ती है. पर भारत के अस्सी करोड़ लोगों को यह सुविधा नहीं, उनके लिए केवल घटिया स्तर के सरकारी अस्पताल या नीम हकीम हैं जिनको किसी का डर नहीं. लेकिन अमीर हों या गरीब, भ्रष्टाचार सबके लिए बराबर है."

हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था "साथी" (Support for Advocacy and Training to Health Initiatives) ने भारतीय चिकित्सा सेवा में लगी सड़न की रिपोर्ट निकाली है, जिसमें बहुत से डाक्टरों ने साक्षात्कार दिये हैं और किस तरह से भ्रष्टाचार से चिकित्सा क्षेत्र प्रभावित है इसका खुलासा किया है. इस रिपोर्ट में 78 डाक्टरों के साक्षात्कार हैं कि किस तरह भारतीय चिकित्सा सेवाएँ लालच तथा भ्रष्टाचार से जकड़ी हुई हैं. प्राइवेट अस्पतालों में व्यापारिता इतनी बढ़ी है कि किस तरह से अधिक फायदा हो इस बात का उनके हर कार्य पर प्रभाव है.

एक सर्जन ने बताया कि अस्पताल के डायरेक्टर ने उनसे शिकायत की कि उनके देखे हुए केवल दस प्रतिशत लोग ही क्यों आपरेशन करवाते हैं, यह बहुत कम है और इसे चालिस प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ेगा, नहीं तो आप कहीं अन्य जगह काम खोजिये.

अगर डाक्टर किसी को हृद्य सर्जरी एँजियोप्लास्टी के लिए रेफ़र करते हें तो उन्हें इसकी कमीशन मिलती है. एमआरआई, ईसीजी जैसे टेस्ट भी कमीशन पाने के लिए करवाये जाते हैं.

कुछ दिन पहले मुम्बई की मेडिएँजलस नामक संस्था ने भी अपने एक शोध के बारे में बताया था जिसमें बारह हज़ार मरीजों के, जिनके आपरेशन हुए थे, उनके कागज़ों की जाँच की गयी. इस शोध से निकला कि हृदय में स्टेन्ट लगाना, घुटने में कृत्रिम जोड़ लगाना, कैसर का इलाज या बच्चा न होने का इलाज जैसे आपरेशनों में 44 प्रतिशत लोगों के बिना ज़रूरत के आपरेशन किये गये थे.

डाक्टरों ने किस तरह से कई सौ औरतों को गर्भालय के बिना ज़रूरत आपरेशन किये, इसकी खबर भी कुछ वर्ष पहले अखबारों में छपी थी.

इन समाचारों व रिपोर्टों के बावजूद, क्या स्थिति कुछ सुधरी है? आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में सोचिये और बताईये कि क्या चिकित्सा क्षेत्र में भ्रष्टाचार कम हुआ है या बढ़ा है?

विभिन्न जटिल स्थितियाँ

पर इस वातावरण में ईमानदार डाक्टर होना भी आसान नहीं. आप को कुछ भी रोग हो या तकलीफ़, चिकित्सक यह कहने से हिचकिचाते हैं कि उस तकलीफ़ का इलाज नहीं हो सकता. अगर वह ऐसा कहें भी तो मरीज़ इसे नहीं मानना चाहते हैं तथा सोचते हैं कि किसी अन्य जगह में किसी अन्य चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये. यानि अगर कोई चिकित्सक ईमानदारी से समझाना चाहे कि उस बीमारी का कुछ इलाज नहीं हो सकता तो लोग कहते हें कि वह चिकित्सक अच्छा नहीं, उसे सही जानकारी नहीं.

अगर बिना ज़रूरत के एन्टीबायटिक, इन्जेक्शन आदि के दुर्पयोग की बात हो तो देखा गया है कि लोग यह मानते हैं कि मँहगी दवाएँ, इन्जेक्शन देने वाला डाक्टर बेहतर है. लोग माँग करते हैं कि उन्हें ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ायी जाये या इन्जेक्शन दिया जाये क्योंकि उनके मन में यह बात है कि केवल इनसे ही इलाज ठीक होता है.

ऐसी एक घटना के बारे में कुछ दिन पहले असम के जोरहाट शहर के पास एक चाय बागान में सुना. बागान में काम करने वाले मजदूर के चौदह वर्षीय बेटे को दीमागी बुखार हुआ और बुखार के बाद वह दोनों कानों से बहरा हो गया. मेडिकल कालेज में उन्हें कहा गया कि दिमाग के अन्दर के कोषों को हानि पहुँच चुकी है जिसकी वजह से बहरा होने का कुछ इलाज नहीं हो सकता. उन्होंने सलाह दी कि लड़के को बहरों की इशारों की भाषा सिखायी जानी चाहिये. पर वह नहीं माने, बेटे को ले कर कई अन्य अस्पतालों में भटके. अंत में डिब्रूगढ़ के एक अस्पताल में बच्चे को भरती भी किया गया. कई जगह उसके एक्सरे, अल्ट्रसाउँड, केट स्केन जैसे टेस्ट हुए. इसी इलाज के चक्कर में उन्होंने अपनी ज़मीन बेच दी, कर्जा भी लिया, जिसे चुकाने में उन्हें कई साल लगेंगे, पर बेटे की श्रवण शक्ति वापस नहीं आयी. घर में सन्नाटे में बन्द बेटा अब मानसिक रोग से भी पीड़ित हो गया है. यह कथा सुनाते हुए उसके पिता रोने लगे कि बेटे की बीमारी में सारे परिवार के भविष्य का नाश हो गया.

इसमें किसको दोष दिया जाये? शायद भारत की सरकार को जो स्वतंत्रता के साठ वर्ष बाद भी नागरिकों को सरकारी चिकित्सा संस्थानों में स्तर की चिकित्सा नहीं दे सकती? उन चिकित्सा संस्थानों को जो जानते थे कि बहुत से टेस्ट ऐसे थे जिनसे उस लड़के को कोई फायदा नहीं हो सकता था लेकिन फ़िर भी उन्होंने करवाये? या उन माता पिता का, जो हार नहीं मानना चाहते थे और जिन्होंने बेटे को ठीक करवाने के चक्कर में सब कुछ दाँव पर लगा दिया?

जीवन के अंत की दुविधाएँ

शहरों में रहने वाले हों तो परिवार में किसी की स्थिति गम्भीर होते ही सभी अस्पताल ले जाने की सोचते हैं. लेकिन जब बात वृद्ध व्यक्ति की हो या फ़िर गम्भीर बीमारी के अंतिम चरण की, तो ऐसे में अस्पताल से हमारी क्या अपेक्षाएँ होती हैं कि वह क्या करेंगे? जो खुशकिस्मत होते हैं वह अस्पताल जाने से पहले ही मर जाते हैं. पर अगर उस स्थिति में अस्पताल पहुँच जायें,  तो उस अंतिम समय में क्या करना चाहये, यह निर्णय लेना आसान नहीं. कैंसर का अंतिम चरण हो या अन्य गम्भीर बीमारी जिससे ठीक हो कर घर वापस लौटना सम्भव नहीं तो मशीनों के सहारे जीवन लम्बा करना क्या सचमुच का जीवन है या फ़िर शरीर को बेवजह यातना देना है?

कोमा में हो बेहोश हो कर, मशीनों के सहारे कई बार लोग हफ्तों तक या महीनों तक अस्पतालों में आईसीयू पड़े रहते हैं. परिवार वालों के लिए यह कहना कि मशीन बन्द कर दीजिये आसान नहीं. उन्हें लगता है कि उन्होंने पैसा बचाने के लिए अपने प्रियजन को जबरदस्ती मारा है. व्यापारी मानसिकता के डाक्टर हों तो उनका इसी में फायदा है, वह उस अंतिम समय का लम्बा बिल बनायेंगे.

ईमानदार डाक्टर भी यह निर्णय नहीं लेना चाहते. वह कैसे कहें कि कोई उम्मीद नहीं और शरीर को यातना देने को लम्बा नहीं खींचना चाहिये? वह सोचते हैं कि यह निर्णय तो परिवार वाले ही ले सकते हैं. इस विषय में बात करना बहुत कठिन है क्योंकि मन में डर होता है कि उस परिस्थिति में कुछ भी कहा जायेगा तो उसका कोई उल्टा अर्थ न निकाल ले या फ़िर भी मरीज़ की हत्या करने का आरोप न लगा दिया जाये.

अपना बच्चा हो या अपने माता पिता, कहाँ तक लड़ाई लड़ना ठीक है और कब हार मान लेनी चाहिये, इस प्रश्न के उत्तर आसान नहीं. हर स्थिति के लिए एक जैसा उत्तर हो भी नहीं सकता. जब तक ठीक होने की आशा हो, तो अंतिम क्षण तक लड़ने की कोशिश करना स्वाभाविक है. लेकिन जब वृद्ध हों या ऐसी बीमारी हो जिससे बिल्कुल ठीक होना सम्भव नहीं हो या फ़िर जीवन तो कुछ माह लम्बा हो जाये पर वह वेदना से भरा हो तो क्या करना चाहिये? कौन ले यह निर्णय कि ओर कोशिश की जाये या नहीं?

अपने अंतिम समय का निर्णय

भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक अतुल गवँडे ने अपनी पुस्तक "बिइन्ग मोर्टल" (Being Mortal) में इस विषय पर, अपने पिता के बारे में तथा अपने कुछ मरीजों के अनुभवों के बारे में बहुत अच्छा लिखा है. मालूम नहीं कि यह पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध है या नहीं, पर हो सके तो इसे अवश्य पढ़िये. उनका कहना है कि हमें अपने होश हवास रहते हुए अपने परिवार वालों से इस विषय में अपने विचार स्पष्ट रखने चाहिये कि जब हम ऐसी अवस्था में पहुँचें, जब हमारी अंत स्थिति आयी हो, तो हमें मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये या नहीं. किस तरह की मृत्यू चाहते हैं हम, इसका निर्णय केवल हम ही ले सकते हैं. ताकि जब हमारा अंत समय आये तो हमारी इच्छा के अनुसार ही हमारा इलाज हो.

जब हमें होश न रहे, जब हम अपने आप खाना खाने लायक नहीं रहें या जब हमारी साँस चलनी बन्द हो जाये, तो कितने समय तक हमें मशीनों के सहारे "ज़िन्दा" रखा जाये? इसका निर्णय हमारी परिस्थितियों पर निर्भर करेगा और हमारे विचारों पर. अगर मैं सोचता हूँ कि महीनों या सालों, इस तरह स्वयं के लिए "जीवित" रहना नहीं चाहता तो आवश्यक नहीं कि बाकी लोग भी यही चाहते हैं. यह निर्णय हर एक को अपने विचारों के अनुसार लेने का अधिकार है. और आवश्यक है कि हम अपने प्रियजनों से इस विषय में खुल कर बात करें तथा अपनी इच्छाओं के बारे में स्पष्ट रूप से कहें.

अपने बारे में मेरी अंतिम इच्छा मेरे दिमाग में स्पष्ट है. मुझे लगता है कि मैंने अपना सारा जीवन पूरी तरह जिया है, अपने हर सपने को जीने का मौका मिला है मुझे. जहाँ तक हो सके, मैं अपने घर में मरना चाहूँगा. अगर मेरी स्थिति गम्भीर हो तो मैं चाहूँगा कि मुझे अपने पारिवार का सामिप्य मिले, लेकिन मुझे मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखने की कोई कोशिश न की जाये!

मैंने इस विषय में कई बार अपनी पत्नी, अपने बेटे से बात भी की है और अपने विचार स्पष्ट किये हैं. आप ने क्या सोचा है अपने अंतिम समय के बारे में?

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सोमवार, दिसंबर 01, 2014

जातिवाद को बदलना

हम लोग यात्रा में मिले थे. वह मुझसे करीब चालिस वर्ष छोटा था. बातों बातों में जाति की बात उठी तो वह बोला कि भारत में जातिवाद बहुत उपयोगी है, इससे समाज के हर व्यक्ति को मालूम रहता है कि समाज में उसका क्या स्थान है और उसे क्या काम करना चाहिये.

Castes in India - collage on Ambedkar and Mayawati by Sunil Deepak

मुझे पहले तो कुछ हँसी आयी, सोचा कि शायद वह मज़ाक कर रहा है. मैंने कहा, "तो तुम्हारा मतलब है कि सबको अपनी जाति के अनुसार ही काम करना चाहिये? यानि अगर कोई झाड़ू सफ़ाई का काम करता है तो उसके बच्चों को भी केवल यही काम करना चाहिये?"

वह बोला, "हाँ. अगर वह नहीं करेंगे तो यह सब काम कौन करेगा?"

इस तरह की सोच वाले पढ़े लिखे लोग आज की दुनिया में होंगे, यह नहीं सोचा था. मालूम है कि भारत में जातिवाद की जड़े बहुत गहरी हैं और यह जातिवाद बहुत क्रूर तथा मानवताविहीन भी हैं. समाचार पत्रों में इसके बारे में अक्सर दिल दहलाने वाले समाचार छपते हैं. यह भी मालूम है कि बहुत से पढ़े लिखे लोग सोचते हैं कि विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाई में या नौकरी में दलित तथा पिछड़ी जाति के लोगों के लिए रिर्ज़वेश्न गलत है या कम होना चाहिये. लेकिन आज की दुनिया में शहर में रहने वाला पढ़ा लिखा व्यक्ति यह भी सोच सकता है कि लोगों को जाति के अनुसार काम करना चाहिये, इसकी अपेक्षा नहीं थी.

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कुछ माह पहले मध्यप्रदेश में राजीव से मुलाकात हुई थी. वह ब्लाक स्तर के एक उच्च विद्यालय में "मेहमान शिक्षक" है और जन समाजवादी परिषद का कार्यकर्ता भी है. राजीव ने बताया कि वह चमार जाति से है.

"तुम्हें विद्यालय में क्या जातिवादियों से कोई कठिनाई नहीं होती?", मैंने उससे पूछा था. उसने बताया था कि प्रत्यक्ष रूप से भेदभाव कम होता है, पर विभिन्न छोटी छोटी बातों में भेदभाव हो सकता है, विषेशकर खाने पीने से जुड़ी बातों में.

राजीव के साथ एक दिन मोटरगाड़ी में घूमने गये तो हमारी गाड़ी के ड्राईवर थे ब्राहम्ण और उनका नाम था दुबे जी. सारे रास्ते में दुबे जी सारा समय राजीव से बातें करते रहे. बीच में जब खाने के लिए रुके तो दुबे जी अपना खाना घर से ले कर आये थे, उन्होंने अपनी कुछ पूरियाँ और सब्जियाँ मुझे भी दी और राजीव को भी. हमारे खाने से उन्होंने कुछ नहीं लिया, पर चूँकि उनके पास खाना बहुत था और हमारे खाने से अच्छा भी, यह नहीं कह सकता कि उसके पीछे कोई जातिवाद की बात थी या नहीं. पर मुझे राजीव व दुबे जी सरल मित्रतापूर्ण बातचीत और व्यवहार देख कर अच्छा लगा.

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क्या हमारे समाज से कभी जातिवाद का जहर जड़ से मिटे सकेगा, मेरे मन में यह प्रश्न उठा. एक अन्य प्रश्न भी है - जो लोग जातिवाद के विरुद्ध लड़ रहे हैं, क्या हम चाहते हें कि हमारे जीवन के हर पहलू से जातिवाद मिटे या हम केवल जातिवाद के कुछ नकारात्मक अंशों को मिटाना चाहते हैं लेकिन पूरी जाति व्यवस्था को चुनौती नहीं देना चाहते?

कुछ माह पहले मैंने उत्तरप्रदेश में स्वास्थ्य कर्मचारी के कोर्स में पढ़ने वाले  तृतीय वर्ष के 36 छात्र - छात्राओं से एक शोध के लिए कुछ प्रश्न पूछे. उत्तर देने वालों में से 90 प्रतिशत युवतियाँ थीं और 10 प्रतिशत युवक. अधिकतर लोग मध्यम वर्ग या निम्न मध्यम वर्ग से थे. बहुत से लोगों के माता पिता अधिक पढ़े लिखे नहीं थे, हालाँकि कुछ लोगों के पिता ने विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई की थी. उनमें से करीब 80 प्रतिशत लोग दलित या पिछड़ी जातियों से थे.

मेरे प्रश्नों ने उत्तर में 98 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे अपने परिवार द्वारा चुने अपनी जाति के युवक या युवती से ही विवाह करेंगे. करीब 75 प्रतिशत का कहना था कि अगर कोई युवक युवती विभिन्न जातियों के हैं और उनके माता पिता उनके विवाह के विरुद्ध हैं तो उन्हें अपने परिवार की राय माननी चाहिये और जाति से बाहर विवाह नहीं करना चाहिये. पर उनमें से 90 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वह खाने पीने, मित्रता बनाने, आदि में भेदभाव के विरुद्ध थे.

करीब 10 प्रतिशत लोगों ने यह भी माना कि उनके परिवारों में बड़े बूढ़े लोग समान्य जीवन में, खाने पीने में, एक दूसरे के घर जाने में, आदि में भेदभाव वाली बातों को ठीक मानते हैं लेकिन वह स्वयं इन बातों में विश्वास नहीं रखते.

इस शोध से यह स्पष्ट है कि जातिवाद भारतीय सामाजिक जीवन में विभिन्न स्तरों पर बहुत गहरा फ़ैला है - हम किससे विवाह करें, किससे मित्रता, किसके साथ घूमें, किसके साथ बैठें, किसके साथ खाना खायें, इन सब बातों में आज भी जाति की बातें जुड़ी है. जहाँ किसी स्तर पर भेदभाव को सही नहीं भी मानते, अन्य स्तरों पर, उसे स्वीकृत करते हैं. चूँकि उत्तर देने वाले अधिकांश लोग स्वयं दलित या पिछड़ी जातियों से थे, जातिवाद से वह भी प्रभावित हैं.

तो क्या हमारी लड़ाई केवल जातिवाद के कुछ नकारात्मक पहलुओं तक सीमित रहनी चाहिये या जीवन के हर पहलू से जाति को निकालने की कोशिश होनी चाहिये? आप का क्या विचार है?

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बुधवार, सितंबर 17, 2014

जीवन बदलने वाली शिक्षा

शिक्षा को जीवन की व्यवाहरिक आवश्यकताओं को पाने के माध्यम, विषेशकर नौकरी पाने के रास्ते के रूप मे देखा जाता है. यानि शिक्षा का उद्देश्य है लिखना, पढ़ना सीखना, जानकारी पाना, काम सीखना और जीवन यापन के लिए नौकरी पाना.

शिक्षा के कुछ अन्य उद्देश्य भी हैं जैसे अनुशासन सीखना, नैतिक मू्ल्य समझना, चरित्रवान व परिपक्व व्यक्तित्व बनाना आदि, लेकिन इन सब उद्देश्यों को आज शायद कम महत्वपूर्ण माना जाता है.

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

ब्राज़ील के शिक्षाविद् पाउलो फ्रेइरे (Paulo Freire) ने शिक्षा को पिछड़े व शोषित जन द्वारा सामाजिक विषमताओं से लड़ने तथा स्वतंत्रता प्राप्त करने के माध्यम की दृष्टि से देखा. इस आलेख में पाउले फ्रेइरे के विचारों के बारे में और उनसे जुड़े अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभवों की बात करना चाहता हूँ.

पाउलो फ्रेइरे के विचारों से मेरा पहला परिचय 1988 के आसपास हुआ जब मैं पहली बार ब्राज़ील गया था. उस समय मेरा काम स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण से जुड़ा था, तब शिक्षण का मेरा सारा अनुभव लोगों को लैक्चर या भाषण देने का था, जिस तरह से मैंने स्वयं स्कूल और मेडिकल कोलिज में अपने शिक्षकों तथा प्रोफेसरों को पढ़ाते देखा था. ब्राज़ील में लोगों ने मुझे फ्रेइरे की व्यस्कों के लिए बनायी शिक्षा पद्धिति की बात बतायी जिसका सार था कि व्यस्कों की शिक्षा तभी सफल होती है जब वह उन लोगों के जीवन के अनुभवों से जुड़ी हो, जिसमें वे स्वयं निणर्य लें कि वह पढ़ना सीखना चाहते हैं, उनको भाषण देने से शिक्षा नहीं मिलती.

उन्हीं वर्षों में मुझे उत्तर पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी बिसाउ में कुछ काम करने का मौका भी मिला, जहाँ पर पाउलो फ्रेइरे ने भी कुछ वर्षों तक काम किया था. वहाँ भी उनके शिक्षा सम्बंधी विचारों को समझने का मौका मिला. तब से मैंने अपनी कार्यशैली में, स्वास्थ्य कर्मचारियों के प्रशिक्षण से ले कर सामाजिक शोध में फ्रेइरे के विचारों का उपयोग करना सीखा है.

पाउलो फ्रेइरे की क्राँतीकारी शिक्षा

फ्रेइरे ब्राज़ील में 1950-60 के दशक में पिछड़े वर्ग के गरीब अनपढ़ व्यस्कों को पढ़ना लिखना सिखाने के ब्राज़ील के राष्ट्रीय कार्यक्रम में काम करते थे. ब्राज़ील में तानाशाही सरकार आने से उनके काम को उस सरकार ने अपने अपने विरुद्ध एक खतरे की तरह देखा और उन्हें देशनिकाला दिया.

इस वजह से फ्रेइरे ने 1960-70 के दशक में बहुत वर्ष ब्राज़ील के बाहर स्विटज़रलैंड में जेनेवा शहर में बिताये. उन्होंने व्यस्क शिक्षा के अपने अनुभवों पर कई पुस्तकें लिखीं, जिन्होंने दुनिया भर के शिक्षाविषेशज्ञों को प्रभावित किया. फ्रेइरे का कहना था कि अपनी शिक्षा में व्यस्कों को सक्रिय हिस्सा लेना चाहिये और शिक्षा उनके परिवेश में उनकी समस्याओं से पूरी तरह जुड़ी होनी चाहिये.

Paulo Freiere & Brazilian experiences

उनका विचार था कि व्यस्क शिक्षा का उद्देश्य लिखना पढ़ना सीखने के साथ साथ समाज का आलोचनात्मक संज्ञाकरण है जिसमें गरीब व शोषित व्यक्तियों को अपने समाजों, परिवेशों, परिस्थितियों और उनके कारणों को समझने की शक्ति मिले ताकि वे अपने पिछड़ेपन और गरीबी के कारण समझे और उन कारणों से लड़ने के लिए सशक्त हों. इसके लिए उन्होंने कहा कि किसी भी समुदाय में पढ़ाने से पहले, शिक्षक को पहले वहाँ अनुशोध करना चाहिये और समझना चाहिये कि वहाँ के लोग किन शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनकी क्या चिँताएँ हैं, वे क्या सोचते हैं, आदि. फ़िर शिक्षक को कोशिश करनी चाहिये कि उसकी शिक्षा उन्हीं शब्दों, चिताँओं आदि से जुड़ी हुई हो.

फ्रेइरे की शिक्षा पद्धति को सरल रूप में समझने के लिए हम एक उदाहरण देख सकते हैं. वर्णमाला का "क, ख, ग" पढ़ाते समय "स" से "सेब" नहीं बल्कि "सरकार" या "साहूकार" या "समाज" भी हो सकता है. इस तरह से "स" से बने शब्द को समझाने के लिए शिक्षक इस विषय से जुड़ी विभिन्न बातों पर वार्तालाप व बहस प्रारम्भ करता है जिसमें पढ़ने वालों को वर्णमाला सीखने के साथ साथ, अपनी सामाजिक परिस्थिति को समझने में भी मदद मिलती है - सरकार कैसे बनती है, कौन चुनाव में खड़ा होता है, क्यों हम वोट देते हैं, सरकार किस तरह से काम करती है, क्यों गरीब लोगों के लिए सरकार काम नहीं करती, इत्यादि. या फ़िर, क्यों साहूकार के पास जाना पड़ता है, किस तरह की ज़रूरते हैं हमारे जीवन में, किस तरह के ऋण की सुविधा होनी चाहिये, इत्यादि.

इस तरह वर्णमाला का हर वर्ण, पढ़ने वालों के लिए नये शब्द सीखने के साथ साथ, लिखना पढ़ना सीखने के साथ साथ, उनको अपनी परिस्थिति समझने का अवसर बन जाता है. फ्रेइरे मानते थे कि व्यस्क गरीबों का पढ़ना लिखना व्यक्तिगत कार्य नहीं सामुदायिक कार्य है, जिससे वह जल्दी सीखते हैं और साथ साथ उनकी आलोचनक संज्ञा का विकास होता है, ताकि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ सकें.

फ्रेइरे के विचारों को दुनिया में बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है, केवल व्यस्कों की शिक्षा पर नहीं बल्कि अन्य बहुत सी दिशाओं में भी. मैं इस सिलसिले में ब्राज़ील से सम्बंधित तीन छोटे छोटे अनुभवों के बारे में कहना चाहुँगा, जहाँ उनके कुछ विचारों को प्रतिदिन अभ्यास में लाया जाता है.

आशाघर की साँस्कृतिक लड़ाई

गोयास वेल्यो शहर, ब्राज़ील के मध्य भाग में गोयास राज्य की पुरानी राजधानी था. पुर्तगाली शासकों ने यहाँ रहने वाले मूल निवासियों को मार दिया या भगा दिया, और उनकी जगह अफ्रीका से लोगों को खेतों में काम करने के लिए दास बना कर लाया गया. इस तरह से गोयास वेल्यो में आज ब्राज़ील के मूल निवासियों, अफ्रीकी दासों की संतानों तथा यूरोपीय परिवारों के सम्मिश्रण से बने विभिन्न रंगों व जातियों के लोग मिलते हैं.

जैसे भारत में गोरे रंग के प्रति आदर व प्रेम की भावनाएँ तथा त्वचा के काले रंग के प्रति हीन भावना मिलती हैं, ब्राज़ील में भी कुछ वैसा ही है ‍‌- वहाँ का समाज यूरोपीय मूल के सुनहरे बालों और गोरे चेहरों को अधिक महत्व देता है तथा अफ्रीकी या ब्राज़ील की जनजातियों को हीन मानता है.

इस तरह की सोच का विरोध करने के लिए तथा बच्चों को अफ्रीकी व मूल ब्राज़ीली जनजाति सभ्यता के प्रति गर्व सिखाने के लिए, मेक्स और उसके कुछ साथियों ने मिल कर "विल्ला स्पेरान्सा" (Vila Esperanca) यानि आशाघर नाम का संस्थान बनाया. आशाघर में स्थानीय प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों के बच्चों को पौशाकें, संगीत, नृत्य, गीत, कहानियाँ, भोजन, आदि के माध्यम से अफ्रीकी व मूल ब्राज़ीली संस्कृतियों के बारे में बताया जाता है और इस साँस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने के प्रति प्रेरित किया जाता है.

आशाघर में काम करने वाले आरोल्दो ने मुझे बताया कि "मैं यहीं पर खेल कर बड़ा हुआ हूँ और आशाघर की सोच अच्छी तरह समझता हूँ. मेरे मन में भी अपने रंग और अफ्रीकी मूल के नाक नक्क्षे के प्रति हीन भावना थी. यह तो बहुत से स्कूल सिखाते हैं कि सब मानव बराबर हैं, ऊँच नीच की सोच ठीक नहीं है, लेकिन वे केवल बाते हैं, लोग कहते हैं लेकिन उससे हमारी सोच नहीं बदलती. यहाँ आशाघर में हम कहते नहीं करते हैं, जब अन्य संस्कृतियों का व्यक्तिगत अनुभव होगा, उनके नृत्य व संगीत सीख कर, उनके वस्त्र पहन कर, उनकी कथाएँ सुन कर, वह भीतर से हमारी सोच बदल देता है."

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

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प्रश्नों का विद्यालय

आशाघर के पास ही एक प्राथमिक विद्यालय भी है जहाँ पर बच्चों को पाउलो फ्रेइरे के विचारों पर आधारित शिक्षा दी जाती है. इस शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है कि बच्चों को हर बात को प्रश्न पूछ कर अपने आप समझने की शिक्षा दी जाये. इस विद्यालय की कक्षाओं में बच्चों को कुछ भी रटने की आवश्यकता नहीं, बल्कि सभी विषय प्रश्न-उत्तर के माध्यम से बच्चे स्वयं पढ़ें व समझें.

बच्चा कुछ भी सोचे और कहे, उसे बहुत गम्भीरता से लिया जाता है. बच्चे केवल स्कूल की कक्षा में नहीं पढ़ते बल्कि उन्हें प्रकृति के माध्यम से भी पढ़ने सीखने का मौका मिलता है. स्कूल की कक्षाओं में एक शिक्षक के साथ बच्चे अधिक नहीं होते हैं, केवल आठ या दस, ताकि हर बच्चे को शिक्षक ध्यान दे सके.

सुश्री रोज़आँजेला जो इस प्राथमिक विद्यालय की मुख्याध्यापिका हैं ने मुझे कहा कि, "हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे दुनिया बदल दें, उनमें इतना आत्मविश्वास हो कि किसी भी बात के बारे में पूछने समझने से वे नहीं झिकझिकाएँ. जब माध्यमिक स्कूल के शिक्षक मुझे कहते हैं कि हमारे स्कूल से निकले बच्चे बहस करते हैं और प्रश्न बहुत पूछते हैं और हर बात के बारे में अपनी राय बताते हैं, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है."

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

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कृषि विद्यालय का अनुभव

शिक्षा का तीसरा अनुभव ब्राज़ील के तोकान्चिन राज्य के "पोर्तो नास्योनाल" (Porto Nacional) नाम के शहर से है. पाउलो फ्रेइरे के पुराने साथी डा. एडूआर्दो मानज़ानो (Dr Eduardo Manzano) ने यहाँ 1980 के दशक में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करना शुरु किया. फ़िर समय के साथ उनके इस काम में एक कृषि विद्यालय भी जुड़ गया.

यह कृषि विद्यालय सामान्य विद्यालयों जैसा है और प्राथमिक से ले कर हाई स्कूल तक की शिक्षा देता है. लेकिन इसकी एक खासयित यह भी है कि यहाँ के बच्चे अन्य विषयों के साथ साथ यह भी पढ़ते हैं कि कृषि कैसे करते हैं, मवेशियों का कैसे ख्याल किया जाना चाहिये, इत्यादि.

डा. मानज़ानो ने मुझे बताया कि, "हमारी शिक्षा पद्धिति ऐसी बन गयी है कि हमारे विद्यार्थी कृषि व किसानों को अनपढ़, गवाँर समझते हैं. किसान परिवारों से आने वाले बच्चे भी हमारे विद्यालयों में यही सीखते हैं कि अच्छा काम आफिस में होता है जबकि कृषि का काम घटिया है, उसमें सम्मान नहीं है. हम चाहते हैं कि किसान परिवारों से आने वाले बच्चे कृषि के महत्व को समझें, अच्छे किसान बने, किसान संस्कृति और सोच का सम्मान करें. हमारा स्कूल इस तरह से काम करता है कि बच्चों के मन में कृषि व कृषकों के प्रति समझ व सम्मान हों, वे अपने परिवारों व अपनी पारिवारिक संस्कृति से जुड़े रहें."

Paulo Freiere & Brazilian experiences - Images by Sunil Deepak, 2014

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निष्कर्श

पाउले फ्रेइरे के विचारों का दुनिया भर में ग्रामीण विकास, शिक्षा, मानव अधिकारों के लिए लड़ाईयाँ जैसे अनेक क्षेत्रों में बहुत गहरा असर पड़ा है. उनके विचार केवल तर्कों पर नहीं बने थे, उनका आधार रोज़मर्रा के जीवन के ठोस अनुभव थे.

भारत में भी शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से सुन्दर व प्रशँसनीय अनुभव हैं जिनके बारे में मैंने पढ़ा है. पर भारत में सामान्य सरकारी विद्यालयों में और गाँवों के स्कूलों में शिक्षा की स्थिति अक्सर दयनीय ही रहती है. इस स्थिति को कैसे बदला जाये यह भारत के भविष्य के लिए चुनौती है.

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सोमवार, अगस्त 18, 2014

भाषा, स्वास्थ्य अनुसंधान और वैज्ञानिक पत्रिकाएँ

पिछली सदी में दुनिया में स्वास्थ्य सम्बंधी तकनीकों के विकास के साथ, बीमारियों के बारे में हमारी समझ बढ़ी है जितनी मानव इतिहास में पहले कभी नहीं थी. पैनिसिलिन का उपयोग द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान प्रारम्भ हुआ. पहली डायलाईसिस की मशीन का उपयोग भी द्वितीय विश्व महायुद्ध के दौरान 1943 में हुआ. डा. क्रिस्चियन बर्नारड ने पहली बार 1967 में मानव में दिल का पहला ट्राँस्प्लाँट किया.

स्वास्थ्य सम्बंधी तकनीकों के विकास का असर भारत पर भी पड़ा. जब भारत स्वतंत्र हुआ था उस समय भारत में औसत जीवन की आशा थी केवल 32 वर्ष, आज वह 65 वर्ष है. यानि भारत में भी स्थिति बदली है हालाँकि विकसित देशों के मुकाबले जहाँ औसत जीवन आशा 80 से 85 वर्ष तक है, हम अभी कुछ पीछे हैं. बहुत सी बीमारियों के लिए जैसे कि गर्भवति माँओं की मृत्यू, बचपन में बच्चों की मृत्यू, पौष्ठिक खाना न होने से बच्चों में कमज़ोरी, मधुमेह, कुष्ठ रोग और टीबी, भारत दुनिया में ऊँचे स्थान पर है.

विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में नयी खोजों व अनुसंधानों को वैज्ञानिक पत्रिकाओं या जर्नल (journals) में छापा जाता है. इस तरह की दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ अधिकतर अंग्रेज़ी भाषा में हैं. चीन, फ्राँस, इटली, स्पेन, ब्राज़ील आदि जहाँ अंग्रेज़ी बोलने वाले कम हैं, यह देश दुनिया में होने वाले महत्वपूर्ण शौधकार्यों को अपनी भाषाओं में अनुवाद करके छापते हैं, ताकि उनके देश में काम करने वाले लोग भी नयी तकनीकों व जानकारी को समझ सकें. लेकिन यह बात हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं पर लागू नहीं होती, क्योंकि यह सोचा जाता है कि हमारे यहाँ के वैज्ञानिक अंग़्रज़ी जानते हैं.

अगर किसी भाषा में हर दिन की सामान्य बातचीत नहीं होगी तो उसका प्राकृतिक विकास रुक जायेगा. अगर उसमें नया लेखन, कविता, साँस्कृतिक व कला अभिव्यक्ति नहीं होगी तो उसका कुछ हिस्सा बेजान हो जायेगा. अगर वह विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली नयी खोजों और शौध से कटी रहेगी तो उस भाषा को जीवित रहने के लिए जिस ऑक्सीज़न की आवश्यकता है वह उसे नहीं मिलेगी. इसलिए हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को बोलने वालों को किस तरह से यह जानकारी मिले यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है.

Health, research and scientific journals graphic by Sunil Deepak, 2014

लेकिन भाषा के अतिरिक्त, वैज्ञानिक शौध, विषेशकर स्वास्थ्य सम्बंधी शौध के साथ अन्य भी कुछ प्रश्न जुड़े हैं जिनके बारे में जानना व समझना महत्वपूर्ण है. अपनी इस पोस्ट में मैं उन्हीं प्रश्नों की चर्चा करना चाहता हूँ. 

हिन्दी में विज्ञान व स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारी

अगर विज्ञान व तकनीकी के विभिन्न पहलुओं को आँकें तो उनमें हिन्दी न के बराबर है. कुछ विज्ञान पत्रिकाओं या इंटरनेट पर गिने चुने चिट्ठों को छोड़ दें तो अन्य कुछ नहीं दिखता. स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी नये अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय अनुसंधान क्या बता रहे हैं इसकी निष्पक्ष जानकारी हिन्दी में मिलना कठिन है.

देश के विभिन्न शहरों में पाँच सितारा मल्टी स्पैलिटी अस्पताल खुल रहे हैं जो आधुनिक तकनीकों से हर बीमारी का नया व बढ़िया इलाज करने का आश्वासन देते हैं. दवा कम्पनियों वाले अपनी हर दवा को बेचने के लिए मार्किटिन्ग तकनीकों व जानी मानी ब्राँड के सहारे से यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी दवा बेहतर है इसलिए उसका मँहगा होना स्वभाविक है. पर उन सबकी विश्वासनीयता को किस कसौटी से मापा जाना चाहिये?

जीवन के अन्य पहलुओं की तरह, आज स्वास्थ्य के क्षेत्र पर भी व्यवसायी दृष्टिकोण ही हावी हो रहा है, इसलिए कोई भी जानकारी हो, उसकी विश्वासनीयता परखना आवश्यक हो गया है. अगर लोग मार्कटिन्ग की तकनीकों से आप को विषेश ब्राँड के कपड़े, जूते, टीवी या वाशिन्ग मशीन बेचें तो शायद नुकसान नहीं. लेकिन जब उन तकनीकों का आप के मन में अपने स्वास्थ्य के बारे में डर जगाने व पैसा कमाने के लिए प्रयोग किया जाये तो क्या आप इसे उचित मानेंगे?

इस बात के विभिन्न पहलू हैं, जिनके बारे में मैं आज बात करना चाहता हूँ. बात शुरु करते हैं प्रोस्टेट के कैन्सर से. प्रोस्टेट एक ग्रँथि होती है जो पुरुषों में पिशाब के रास्ते के पास, लिंग की जड़ के करीब पायी जाती है. यह सामान्य रूप में छोटे अखरोट सी होती है. जब यह ग्रँथि बढ़ जाती है, कैन्सर से या बिना कैन्सर वाले ट्यूमर से, तो इससे पिशाब के रास्ते में रुकावट होने लगती है और पुरुष को पिशाब करने में दिक्कत होती है. यह तकलीफ़ अक्सर पचास पचपन वर्ष के पुरुषों को शुरु होती है और उम्र के साथ बढ़ती है.

प्रोस्टेट कैन्सर को जानने का टेस्ट 

कुछ दिन पहले मैंने मेडस्केप पर अमरीका के डा. रिचर्ड ऐ एबलिन का साक्षात्कार पढ़ा. डा. एबलिन ने 1970 में एक प्रोस्टेट ट्यूमर के एँटिजन की खोज की थी. सन 1990 से उस एँटिजन पर आधारित एक टेस्ट बनाया गया था जिसका प्रयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि किसी व्यक्ति को प्रस्टेट का ट्यूमर है या नहीं. अगर यह टेस्ट यह बताये कि शरीर में यह एँटिजन है यानि टेस्ट पोस्टिव निकले तो प्रोस्टेट के छोटे टुकड़े को निकाल कर, उसकी बायप्सी करके, उसकी माइक्रोस्कोप में जाँच करनी चाहिये. माइक्रोस्कोप में अगर कैन्सर के कोष दिखें तो तो उसका तुरंत इलाज करना चाहिये, अक्सर उनका प्रोस्टेट का ऑपरेशन करना पड़ता है. यह टेस्ट पचास वर्ष से अधिक उम्र वाले पुरुषों को हर दो तीन साल में कराने की सलाह देते हैं ताकि अगर उन्हें प्रोस्टेट कैन्सर हो तो उसका जल्दी इलाज किया जा सके.

अपने साक्षात्कार में डा. एबलिन ने बताया है कि उनका खोज किया हुआ "प्रोस्टेट एँटिजन", एक ट्यूमर का एँटिजन है, कैन्सर का नहीं. अगर ट्यूमर कैन्सर नहीं हो तो सभी को उसका ऑपरेशन कराने की आवश्यकता नहीं होती. अगर ट्यूमर कैंन्सर नहीं हो तो उसका ऑपरेशन तभी करते हैं जब उसकी वजह से पिशाब करने में दिक्कत होने लगे.

लेकिन अगर टेस्ट पोस्टिव आये तो लोगों के मन में कैन्सर का डर बैठ जाता हैं हालाँकि यह टेस्ट बहुत भरोसेमन्द नहीं और 70 प्रतिशत लोगों बिना किसी ट्यूमर के झूठा पोस्टिव नतीजा देता है. कई डाक्टर उन सभी लोगों को ऑपरेशन कराने की सलाह देते हैं, यह नहीं बताते कि 70 प्रतिशत पोस्टिव टेस्ट में न कोई कैन्सर होता है न कोई ट्यूमर. बहुत से सामान्य डाक्टर भी इस बात को नहीं समझते. इस टेस्ट के साथ दुनिया के विभिन्न देशों में टेस्ट कराने का और ऑपरेशनों का करोड़ों रुपयों का व्यापार जुड़ा है.

कुछ इसी तरह की बातें, बड़ी आँतों में कैन्सर को जल्दी पकड़ने के लिए पाखाने में खून के होने की जाँच कराने वाले स्क्रीनिंग टेस्ट तथा स्त्री वक्ष में कैन्सर को जल्दी पकड़ने के लिए मैमोग्राफ़ी के स्क्रीनिंग टेस्ट कराने की भी है. उनके बारे में भी कहा गया है कि यह स्क्रीनिंग टेस्ट केवल अस्पतालों के पैसा बनाने के लिए किये जाते हैं और इनका प्रभाव इन बीमारियों को जल्दी पकड़ने या नागरिकों के जीवन बचाने पर नगण्य है.

विदेशों में जहाँ सभी नागरिकों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा की सुविधा है, इन टेस्टों को स्क्रीनिन्ग के लिए उपयोग करते हैं, यानि आप के घर में चिट्ठी आती है कि फलाँ दिन को निकट के स्वास्थ्य केन्द्र में यह टेस्ट मुफ्त कराईये. भारत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा नहीं के बराबर है और सरकार की ओर से नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए बजट दुनिया में बहुत कम स्तर पर है, जिसके बहुत से नुक्सान हैं, लेकिन कुछ फायदा भी है क्योंकि इस तरह के स्क्रीनिंग टेस्टों में सरकारी पैसा बरबाद नहीं किया जाता. दूसरी ओर स्वास्थ्य सेवाओं के निजिकरण में भारत दुनिया के अग्रणी देशों में से है, जिससे शहरों में रहने वाले लोग पैसा कमाने के चक्कर में लगे लोगों के शिकार बन जाते हैं, विषेशकर नये पाँच सितारा मल्टी स्पैशेलिटी अस्पतालों में.

बात केवल पैसे की नहीं. अधिक असर पड़ता है लोगों के मन में बैठाये डर का कि आप को कैन्सर है या हो सकता है. अगर टेस्ट के 70 प्रतिशत परिणाम गलत होते हैं, और जिन 30 प्रतिशत लोगों में परिणाम ठीक होते हैं, उनमें से कुछ को ही कैन्सर होता है, बाकियों को केवल कैन्सर विहीन ट्यूमर होता है तो क्या यह उचित है कि लोगों के मन में यह डर बिठाया जाये कि उन्हें कैन्सर हो सकता है?

अन्तर्राष्ट्रीय शौध पत्रिकाएँ

विज्ञान के हर क्षेत्र में कुछ भी नया महत्वपूर्ण शौध हो तो उसके बारे में जानने के लिए प्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल या पत्रिकाएँ होती हैं, जिनमें छपना आसान नहीं और जिनमें छपने वाली हर रिपोर्ट व आलेख को पहले अन्य वैज्ञानिकों द्वारा जाँचा परखा जाता है. स्वास्थ्य की बात करें तो भारत में भी कुछ इस तरह की पत्रिकाएँ अंग्रेज़ी में छपती हैं लेकिन इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अधिक मान्यता नहीं मिली है. स्वास्थ्य के सर्वप्रसिद्ध जर्नल अधिकतर अमरीकी या यूरोपीय हैं और अंग्रेज़ी में हैं. अन्य यूरोपीय भाषाओं में छपने वाली पत्रिकाओं को अंग्रेज़ी जर्नल जितनी मान्यता नहीं मिलती. विकासशील देशों से प्रसिद्ध अंग्रेज़ी के जर्नल में छपने पाली शौध-आलेख बहुत कम होते हैं, हालाँकि विकासशील देशों में से भारतीय शौध‍-आलेखों का स्थान ऊँचा है.

अधिकतर अंग्रेज़ी की प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिकाएँ मँहगी भी होती हैं इसलिए उन्हें खरीदना विकासशील देशों में आसान नहीं. पिछले कुछ सालों में इंटरनेट के माध्यम से, कुछ प्रयास हुए हैं कि शौध को पढ़ने वालों को मुफ्त उपलब्ध कराया जाये, इनमें प्लोस पत्रिकाओं (PLOS - Public Library of Science) को सबसे अधिक महत्व मिला है.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से लोग नये शौध अनुसंधान के महत्व को नहीं समझते. बहुत से डाक्टर अंग़ेज़ी जानते हुए भी, इंटरनेट के होते हुए भी, वह इस विषय में नहीं पढ़ते. बहुत से डाक्टरों के लिए दवा कम्पनियों के लोग जो उनके क्लिनिक में दवा के सेम्पल के कर आते हैं, वही नयी जानकारी का सोत्र होते हैं. पर क्या कोई दवा बेचने वाला निष्पक्ष जानकारी देता है या अपनी दवा की पक्षधर जानकारी देता है?

दूसरी ओर वह लोग हैं जिन्हें जर्नल में छपने वाली अंग्रेज़ी समझ नहीं आती, क्योंकि इस तरह की वैज्ञानिक पत्रिकाओं में कठिन भाषा का प्रयोग किया जाता है. भारत में सामान्य अंग्रेज़ी बोलने समझने वाले बहुत से लोग, चाहे वह डाक्टर हो या नर्स या फिज़ियोथैरापिस्ट, वह भी इस तरह से नये शौधों के बारे में चाह कर भी नहीं जान पाते.

कौन लिखता है अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में शौध-आलेख?

शौध पत्रिकाओं का क्षेत्र भी समाज के व्यवसायीकरण से अछूता नहीं रह पाया है. और अगर कोई पत्रिका व्यवसाय को सबसे ऊँचा मानेगी तो उसका शौधो-विषयों व शौध-आलेखों के छपने पर क्या असर पड़ेगा, यह समझना आवश्यक है.

अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता संगठन "क्ज़ूमर इंटरनेशनल" की 2007 की रिपोर्ट "ड्रगस, डाक्टर एँड डिन्नरस" (Drugs, doctors and dinners - दवाएँ, चिकित्सक व दावतें) में इस बात की चर्चा थी कि बहुदेशीय दवा कम्पनियाँ किस तरह डाक्टरों पर प्रभाव डालती हैं कि वे उनकी मँहगी दवाएँ अधिक से अधिक लिखें. साथ ही, जेनेरिक दवाईयों जो सस्ती होती है, के विरुद्ध प्रचार किया जाता है कि अगर दवा का अच्छा ब्राँड नाम नहीं हो तो वह नकली हो सकती हैं या उनका प्रभाव कम पड़ता है.

एक अन्य समस्या है कि स्वास्थ्य के विषय पर छपने वाले प्रतीष्ठित अंतर्राष्ट्रीय जर्नल-पत्रिकाओं पर दवा कम्पनियों का प्रभाव. 2011 में अंग्रेज़ी समाचार पत्र "द गार्डियन" में एलियट रोस्स ने अपने आलेख में बताया कि किस पत्रिका में क्या छपेगा और क्या नहीं यह दवा कम्पनियों के हाथ में है. यह कम्पनियाँ चूँकि इन पत्रिकाओं में अपने विज्ञापन छपवाती हैं, पत्रिकाओं के मालिक उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहते और किसी प्रसिद्ध दवा कम्पनी की किसी दवा के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट हो तो उसे नहीं छापते. यही कम्पनियाँ नये शौधकार्य में पैसा लगाती हैं और अगर शौध के नतीजे उन्हें अच्छे न लगें तो उसकी रिपोर्ट को नहीं छपवाती. वह अपनी दवाओं के बारे में उनके असर को बढ़ा चढ़ा कर दिखलाने वाले आलेख लिखवा कर प्रतिष्ठित डाक्टरों के नामों से छपवाती हैं, जिससे डाक्टरों को अपना नाम देने का पैसा या अन्य फायदा मिलता है - इसे भूतलेखन (Ghost-writing) कहते हैं. किस वैज्ञानिक पत्रिका में क्या छपवाया जाये इस पर काम करने वाली दवा कम्पनियों से सम्बंधित 250 से अधिक एजेन्सियाँ हैं जो इस काम को पैशेवर तरीके से करती हैं.

अमरीकी समाचार पत्र वाशिन्गटन पोस्ट में छपी 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार, सन् 2000 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका "न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसन" में नयी दवाओं के शौध के बारे में 73 आलेख छपे जिनमें से 60 आलेख दवा कम्पनियों द्वारा प्रयोजित थे. इस विषय पर छान बीन करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले दशक में स्थिति और भी अधिक बिगड़ी है.

इस स्थिति के जन स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे असर के कई उदाहरण मिल सकते हैं, जैसे कि मेरक्क कम्पनी के दो शौधकर्ताओं ने जोड़ों के दर्द की दवा वियोक्स के अच्छे असर के बारे में बढ़ा चढ़ा कर आलेख लिखा. वयोक्स की बिक्री बहुत हुई. पाँच साल बाद मालूम चला कि इन दोनो शौधकर्ताओं ने अपने आलेख में दवा के साइड इफेक्ट यानि बुरे प्रभावों को छुपा लिया था क्योंकि इस दवा से लोगों को दिल की बीमारियाँ हो रहीं थीं. जब अमरीका में हल्ला मचा तो इस दवा को बाज़ार से हटा दिया गया.

विकसित देशों में जब किसी दवा के बुरे असर की समाचार आते हैं तो सरकार उसकी जाँच करवाती है और उस दवा को बाज़ार से हटाना पड़ता है. लेकिन यह कम्पनियाँ अक्सर सब कुछ जान कर भी विकासशील देशों में उन दवाओं को बेचना बन्द नहीं करती, जब तक वहाँ की सरकारें इसके बारे में ठोस कदम नहीं उठातीं. कई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बैन की हुई दवाईयाँ हैं जो विकासशील देशों में खुले आम बिकती हैं.

शौध को समझने की दिक्कतें

जहाँ एक ओर शौध के बारे में निष्पक्ष जानकारी मिलना कठिन है, वहाँ दूसरी समस्या है शौधों के नतीजो़ को समझना. वैज्ञानिक पत्रिकाओं में नयी दवाओं के असर को अधिकतर इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है जिससे लोगों को स्पष्ट समझ न आये. इस समस्या को समझने के लिए मैं आप को सरल किया हुआ एक उदाहरण देता हूँ.

मान लीजिये कि एक दवा "क" किसी बीमारी से पीड़ित केवल 5 प्रतिशत लोगों को ठीक करती है, पर बाकी 95 प्रतिशत बीमार लोगों पर उसका कुछ असर नहीं होता. आपने एक नयी दवा "ख" बनाई है, जिसको लेने से उस बीमारी से पीड़ित 10 प्रतिशत लोग ठीक होते हैं और 90 प्रतिशत पर उसका असर नहीं हो. अब आप अपने शौध के बारे में इस तरह से आलेख लिखवाईये और इसके विज्ञापन प्रसारित कीजिये कि "नयी ख दवाई पुरानी दवा के मुकाबले में 100 प्रतिशत अधिक शक्तिशाली है". इस तरह के प्रचार से बहुत से लोग, यहाँ तक कि बहुत से डाक्टर भी, सोचने लगते हैं कि "ख" दवा सचमुच बहुत असरकारक है हालाँकि उसका 90 प्रतिशत बीमार लोगों पर कुछ असर नहीं है.

यही वजह है कि दवा कम्पनियों के प्रतिनिधियों द्वारा दिये जाने वाली विज्ञापन सामग्री पर विश्वास करने वाले डाक्टर भी अक्सर धोखा खा जाते हैं.

आज की दुनियाँ में जहाँ लोग सोचते हें कि इंटरनेट पर सब जानकारी मिल सकती है, सामान्य लोग कैसे समझ सकते हैं कि जिस नयी जादू की दवा के बारे में वह इंटरनेट पर पढ़ रहे हैं, वह सब दवा कम्पनियों द्वारा बिक्री बढ़ाने के तरीके हैं. चाहे दवा हो या चमत्कारी तावीज़ या कोई मन्त्र, लोगों के विश्वास का गलत फ़ायदा उया कर, सबको उल्लू बना कर पैसा कमाने के तरीके हैं. लेकिन इंटरनेट का फायदा यह है कि अगर आप खोजेंगे तो आप को उन उल्लू बनाये गये लोगों की कहानियाँ भी पढ़ने को मिल सकती हैं जिसमें में वह उस चमात्कारी दवा की सच्चाई बताते हैं.

निष्कर्ष

एक ओर भारत में समस्या है कि दुनियाँ में होने वाले मौलिक शौध की जानकारी हिन्दी या अन्य भाषाओं में मिलना कठिन है.

दूसरी ओर, अंग्रेज़ी की अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिकाएँ किस तरह के शौध के विषय में जानकारी देती हैं और उन पत्रिकाओं पर व्यवसायिक मूल्यों का कितना असर पड़ता है, इसके विषय वैज्ञानिक समाज में आज बहुत से प्रश्न उठ रहे हैं. मैंने इस विषय के कुछ हिस्सों को ही चुना है और उनका सरलीकरण किया है, पर इससे जुड़ी बहुत सी बातें जटिल हैं और जनसाधारण की समझ से बाहर भी.

इनसे आम जनता को तो दिक्कत है ही, स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वालों के लिए भी आज यह चुनौती है. प्लोस जैसी वैज्ञानिक पत्रिकाओं के माध्यम से शायद भविष्य में कौन सी शौध छपती है इस पर अच्छा प्रभाव पड़े लेकिन आलेखों को पढ़ने व समझने की चुनौतियों के हल निकालना आसान नहीं. इस सब जानकारी को सरल भाषा में हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में कैसे उपलब्ध कराया जाया यह चुनौती भी आसान नहीं.

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