रविवार, मार्च 12, 2017

लेखकों के कुछ पुराने पत्र

परिवार के पुराने कागजों में कुछ खोज रहा था, तो उनके बीच में कुछ पत्र भी दिखे. इन पत्रों में हिन्दी साहित्य के जाने माने लेखक भी थे. उनमें से कुछ पत्र प्रस्तुत हैं।

यह पत्र मेरे पिता स्व. श्री ओमप्रकाश दीपक के नाम थे, जो कि १९५०-६० की कुछ समाजवादी पत्रिकाओं, जैसे कल्पना, चौखम्बा तथा जन, से जुड़े थे, तथा स्वयं लेखक, पत्रकार, अनुवादक व आलोचक भी थे. पत्रों को लिखने वाले थे राजकमल चौधरी, उपेन्द्रनाथ अश्क तथा शरद जोशी।



पहला पत्र, लेखक राजकमल चौधरी

वर्ष १९६१
राजकलम चौधरी, पोस्ट आफिस पुटिआरी पूर्व, कलकत्ता

प्रिय भाई,

आप का पत्र पा कर प्रसन्नता हुई, जोकि इस बात से जाहिर है कि मैं दूसरे ही दिन उसका उत्तर भेज रहा हूँ। आपने अपने पत्र में पता नहीं लिखा, खैर "जनमुख कार्यालय" से पता लगा लूँगा।

"जनमुख" में प्रकाशित मेरा लेख आपके विचारों से मतभेद रखता है। आप राजनीति में सक्रिय भाग लेते हैं, मैं लेखन कार्य (गैर राजनीतिक) में अधिक व्यस्त रहता हूँ। इसलिए ज़रूर आप ही ज़्यादा सही हैं। लेकिन मेरी रचनाओं या मेरी समीक्षाओं या मेरे साहित्यक लेखों से आपको असहमती है, तो मैं यहाँ हमेशा यही कहूँगा कि मैं ही ज़्यादा सही हूँ, और हमेशा सबसे ज़्यादा सही होने की कोशिश करता रहता हूँ - क्योंकि साहित्य मेरा पेशा है, साथ ही मेरी ज़िन्दगी भी है।

आपने "मानवी" के बारे में लिखा है। मैंने पुस्तक पढ़ी थी और जहाँ तक याद है, जगदीश भाई की "इकाई" में उसकी समीक्षा भी लिखी थी। मैं अपनी उस समीक्षा तथा आप की बात से सहमत हूँ कि "मानवी" दूसरे दर्जे का उपन्यास है। और "मानवी" की कहानी से ज़्याद, बहुत ज़्यादा बेहतर कहानियाँ आपने १९५५-५६-५७ में "ज्ञानोदय" पत्रिका में लिखी थीं।

आप क्या हमेशा दिल्ली में ही रहते हैं? मैं समझता था कि आपका स्थायी निवास हैदराबाद में है और आप वहीं रह कर "चौखम्बा" संपादित करते हैं।

आप ने "मानवी" लिखी। जबकि मुझे पूरा विश्वास है, "मानवी" के कथा विषय तथा चरित्रों से आप का अधिक परिचय नहीं है। आप का संघर्ष आप को उस जीवन क्षेत्र से दूर ही रखता होगा। "मानवी" के विषय से उर्दू में सदाअत हसन मन्तो का परिचय था, हिन्दी में राजकमल चौधरी को परिचय है ("ये कोठेवालियाँ" में अमृतलाल नागर तक रिपोर्टर बन कर रह गये हैं।) आपको राजनीतिक उपन्यास लिखने चाहिये, नहीं तो चतुरसेन (आचार्य), गुरुदत्त, सीताराम गोयल, जैनेन्द्र ("जयवर्धन" तो आपने पढ़ा ही होगा), लक्षमी नारायण लाल ("रूपजीवा" की समीक्षा आपने ही "कल्पना" में लिखी थी), आदि की गलतियाँ स्थायी ही रह जायेंगी। और हिन्दी को अपने एक अपटन सिन्क्लेयर की बड़ी ज़रूरत है। कृपया इसे आप advice unwanted नहीं मानेगे, brotherly request ही स्वीकार करेंगे।

इधर मेरी एक मामूली सी किताब "नदी बहती थी" आयी है। अगले पत्र के साथ सेवा में भेजूँगा।

इन दिनों एक प्रकाशक के लिए अंग्रेज़ी में पूर्वीय सौन्दर्यशात्र (मेरा शिक्षा का प्रधान विषय यही रहा है) पर एक बड़ी किताब लिख रहा हूँ। वैसे पत्र पत्रिकाओं में तो लिखते रहना ही पड़ता है। कलकत्ते में स्थायी (१९५८ से, और इसी साल से मैंने हिन्दी में लिखना भी शुरु किया है) रहता हूँ। पत्नी है, दो साल की एक बच्ची भी है। कहीं नौकरी नहीं करता हूँ, करने का इरादा अब तक नहीं है।

आप क्या लिख पढ़ रहे हैं, सूचित करेंगे। अनुगत,

कमल, १५.१२.६१

दूसरा पत्र, लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क

वर्षः १९६२
उपेन्द्रनाथ अश्क, ५ खुसरो बाग रोड, इलाहाबाद

प्रिय दीपक,

आशा है तुम सपरिवार स्वस्थ और सानन्द हो।

तुम्हारा एक पत्र आया था, पर उस पर तुमने कोई पता नहीं लिखा, जिस कारण मैं उसका उत्तर नहीं दे सका। पित्ती साहब से तुम्हारा पता मिल गया है तो यह चन्द पंक्तियाँ लिख रहा हूँ।

पत्र तो तुम्हारा अब कहीं ढूँढ़े से नहीं मिल रहा। याद से ही उत्तर दे रहा हूँ।

पहली बात तो भाई यह है कि पत्र जो "कल्पना" में छपा, छपने के ख्याल से नहीं लिखा गया था। मेरा ख्याल था कि तुम कहीं राजा दुबे के पास रहते हो, मेरी बात वह तुम तक मज़ाक मज़ाक में पहुँचा देगा। छपने के लिए जो पत्र लिखे जाते हैं, वे दूसरी तरह के होते हैं। यदि उसे छापना अभीष्ट था तो उसमें कुछ पंक्तियाँ काट देनी चाहिये थीं। बहरहाल मुझे तुम्हारी आलोचनाएँ अच्छी लगी थीं। नया नाम होने के कारण तुम्हारा एक नोट पढ़ कर मैं दूसरा भी पढ़ गया था और तब जो impression था, मैंने राजा दुबे को लिख दिया था।

मेरी कहानियों के बारे में तुम जो सोचते हो, हो सकता है वह ठीक हो। गत पैंतिस वर्षों से लिखते लिखते मेरी कुछ निश्चित धारणाएँ बन गई हैं और मैं उन्हीं के अनुसार लिखता हूँ। एक आध बार सरसरी नज़र से पढ़ कर जो लोग फतवे दे देते हैं, वे प्रायः गलत सिद्ध हो जाते हैं। इधर "पलंग" की कहानियों को ले कर पत्र पत्रिकाओं में बड़ी चर्चा है। कभी कोई कहानी की गहराई को पकड़ लेता है, तब खुशी होती है, नहीं पकड़ पाता तो दुख नहीं होता, क्योंकि यह हर किसी के बस की बात नहीं है।

"सड़कों पे ढ़ले साये" की भूमिका मैंने व्यंग विनोद की शैली में ही लिखी थी। कुछ लोगों ने समझ लिया कि सचमुच में इस बात पर परेशान हुआ कि "आचार्य जी" ने मुझे "नया कवि" नहीं सकझा और मैं परेशान हुआ। हालाँकि यह लिखने का और गहरी बातों को मनोरंजक ढ़ंग से कहने का एक स्टाइल है। मैंने जो बातें अपनी भूमिका में उठायीं - इतनी आलोचनाओं में किसी लेखक ने भी उन पर बहस नहीं की। सवाल सही या गलत का नहीं है, नयी कविता के क्राइसिस का है। क्या यह सही नहीं है कि नयी कविता महज़ form पर ज़ोर दे रही है, या पश्चिम की स्थितियों और मनोभावों को अपने ऊपर नये कवि टूटन की निराशा की कविताएँ कर रहे हैं, या नया कवि शब्दों को अप्रयास समझ रहा हो, वगैरह वगैरह ... चूँकि ऐसी सभी बातें मैंने कहानी के ढ़ंग से कहीं, लोगों ने समझ लिया कि सचमुच कहीं मेरा अपमान हुआ है और मैं अपने आपको नया कवि मनवाने के लिए हाथ पैर पटक रहा हूँ।

कुछ ऐसी ही बात कहानियों के सम्बन्ध में भी है। कहानियों के माध्यम से जो मैं कहना चाहता हूँ, उसे जानने के लिए दो एक बार कहानियों को ध्यान से तो पढ़ना पड़ेगा ही। इस पर भी हर लेख की अपनी सीमाएँ होती हैं और उन्हें पार करना कई बार कठिन होता है।

पता नहीं तुमने मेरा नया कथा संग्रह "पलंग" या कविता संग्रह "सड़कों पे ढले साये" पढ़ा कि नहीं। न पढ़ा हो तो लिखना.

इधर नीलाभ से मेरी ५९वीं वर्षगाँठ पर एक बड़ी मनोरंजक पुस्तक निकली है। उसकी एक प्रति तुम्हें भेजने के लिए मैंने दफ्तर में फोन किया है, मिले तो पहुँच और राय कौशल्या को भेजना.

स. उपेन्द्र

दो पत्र, लेखक शरद जोशी

वर्षः १९६३
नवलेखन, हनुमानगंज, भोपाल

प्रिय भाई,

बहुत दिनों से नवलेखन को रचना भेजने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया है। पर ऐसा वोट आफ नो विश्वास पास न करें। नवलेखन का सातवाँ अंक निकल रहा है, आठवां प्रेस में जा रहा है। अब से हम कहानियों की संख्या बढ़ाएगे और थोड़ा बहुत पारिश्रमिक भी देंगे। बहुत अधिक तो नहीं होगा, पर कुछ अवश्य की शुरुआत हो। नवलेखन के लिए यह साहसी कदम है। दाद दीजिये और शीघ्र वैसी ही एक घाटी कहानी भेजें कि आइना देखूँ तो जिस्म अपना ही ...

मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि कुछ शीघ्र भेजेंगे। नवलेखन का विषेशाँक भी निकाला जाना है, उसके लिए कुछ सुझाव भेजो। आशा है प्रसन्न हो।

कथा संकलन उत्तर की प्रतीक्षा में,

तुम्हारा

शरद जोशी

वर्षः १९६३
भोपाल से

डीअर दीपक,

लेख दुरस्त कर दिया है, जैसा तुम चाहते थे। पत्र नहीं लिख पाया क्योंकि बुरा फँसा हूँ. इस कार्ड को भी पत्र न मानना और गालियाँ देना ही। दिवाली बाद लिखूँगा। संपादक की खसलत नहीं यह दोस्त की खसलत है कि जवाब नहीं देता। संपादक तो साले तुरंत उत्तर देते हैं "आपकी रचना प्राप्त हुई ... यों ... यों ... कृपा बनाए रखे वगैरा" + मैं अभी कहाँ हुआ संपादक। महेन्द्र कुलश्रेष्ठ के नाम कुल तीन गाली नामें अब तक प्राप्त हो चुके हैं, दो इस बार छाप रहा है। "जन" कब निकल रहा है? ओमप्रकाश निर्मल यहाँ आये थे, चर्चा कर रहे थे। प्रसन्न है न।

तु. शरद जोशी

एक आमन्त्रण कार्ड
वर्षः १९६५, दिल्ली

"कृतिकार और उसका संसार" विषय पर रविवार १९ दिसम्बर १९६५ को प्रातः साढ़े नौ बजे श्री शामलाल की अध्यक्षता में दिल्ली के सृजनात्मक कलाकारों की एक गोष्ठी आयोजित की गयी है।

आप सादर आमन्त्रित हैं।

स्थानः विट्ठल भाई पटेल भवन, रफी मार्ग, नयी दिल्ली

भवदीयः मकबूल फ़िदा हुसेन, राम कुमार, मोहन राकेश, रिचर्ड बार्थोलोम्यु, रघुबीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, ओमप्रकाश दीपक, जितेन्द्र सिंह, अम्बा दास, जे. स्वामीनाथन, श्रीकांत वर्मा

कार्यक्रम

उद्घाटन भाषणः आक्टेवियो पाँज
विषय प्रस्तावनाः अज्ञेय
प्रमुख वक्ताः देवीशंकर अवस्थी, जे. स्वामीनाथन, रिचर्ड बार्थोलोम्यु, मोहन राकेश, ओमप्रकाश दीपक, रभुवीर सहाय, कृष्ण खन्ना, इब्राहीम अलकाज़ी, सुरेश अवस्थी तथा श्रीकांत वर्मा

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मंगलवार, फ़रवरी 21, 2017

झाँकियों का अनूठा गाँव

यह दुनियाँ तेज़ी से बदल रही है और इस बदलती दुनियाँ में तकनीकी तथा अन्य विकासों की वजह से जीवनयापन के नये तरीके निकालना आवश्यक हो गया है. आज मैं उतरी इटली के एक गाँव की बात लिख रहा हूँ, जहाँ पर्यटकों को आकर्षित करने तथा स्थानीय व्यवसाय को बढ़ावा देने का एक नया तरीका अपनाया गया है. इस गाँव का नाम है संत अंतोनियो (Sant'Antonio) और यह उत्तरी पूर्व इटली में एल्पस की पर्वतश्रृख्ला के पाज़ूबियो पहाड़ के साये में बना एक गाँव है.

कुछ वर्ष पहले संत अंतोनियो के निवासियों ने पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए मोम की मूर्तियाँ बनाने की सोची. नीचे की तस्वीर में आप इन मूर्तियों का एक नमूना देख सकते हैं जिससे आप उनकी जीवंत कला का अन्दाज़ लगा सकते हैं.


स्कियो का बदलता जीवन

संत अंतोनियों का गाँव स्कियो (Schio) शहर की नगरपालिका का हिस्सा है. इसी स्कियो शहर में हमारा घर है जहाँ मैं रहता हूँ.

पाज़ूबियो (Pasubio) की पर्वत की छाया में बसे छोटे से शहर स्कियो में उन्नीसवीं शताब्दी में बड़े पैमाने पर उद्योगीकरण हुआ. यहाँ का सबसे बड़ा उद्योग था ऊन बनाने की फैक्टरियाँ. आसपास के पहाड़ों पर भेड़े तथा पहाड़ी बकरियाँ पालीं जाती जिनका फर कट कर स्कियो की फैक्टरियों में पहुँचता जहां उसकी रंगबिरंगी ऊन बनती. ऊनी कपड़े बुनने की भी फैक्टरियाँ थीं. इस सब की वजह से यह क्षेत्र बहुत समृद्ध था.

उस समय इटली की राष्ट्रसीमा स्कियो में पाज़ूबियो पर्वत पर थी, पहाड़ के उत्तर की ओर आस्ट्रिया था, दक्षिण में इटली. 1914 में यह क्षेत्र प्रथम विश्वयुद्ध की लपेट में आ गया, जब इटली तथा आस्ट्रिया (Austria) के बीच में भी लड़ाई छिड़ी. अमरीकी फौज की छावनी स्कियो में थी. विश्वयुद्ध के दौरान कुछ समय तक अमरीकी सिपाही अरनेस्ट हेमिगवे, स्कियो की एक ऊन की फैक्टरी में बने अस्पताल में एम्बूलैंस चालक थे, और युद्ध के बाद में प्रसिद्ध लेखक बने.

युद्ध का शहर पर तथा आसपास के गाँवों पर बहुत असर पड़ा लेकिन फ़िर धीरे धीरे, ऊन की फैक्टरियों का काम दोबारा से निकल पड़ा. युद्ध में आस्ट्रिया की हार हुई थी, इसलिए पाजूबियो पर्वत के उत्तर का हिस्सा भी इटली में जुड़ गया.

लेकिन पिछले बीस-तीस वर्षों में वैश्वीकरण की वजह से नयी समस्याएँ खड़ी हो गयीं थीं. चीन से आने वाली सस्ती ऊन तथा स्वेटरों की वजह से यहाँ बनने वाली स्थानीय ऊन का बाज़ार नहीं रहा और एक एक करके सारी ऊन की फैक्टरियाँ बन्द हो गयीं. नये तकनीकी विकास से जुड़े कुछ उद्योग उभर कर आये पर पहाड़ी गाँवों में भेड़ों बकरियों से जुड़े जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए कुछ नया खोजना आवश्यक था.

विभिन्न देशों में छोटे पहाड़ी गाँवों में पर्यटन से जुड़े विकास की कई कहानियाँ हैं. कहीं पर मेले आयोजित किये जाते हैं, कहीं पर नये खेल तो कहीं पर गाँवों को रंगबिरंगा बनाया जाता है. इस सब में आवश्यक है कि कुछ ऐसा किया जाये तो अन्य जगह न हो, जिससे गाँव की अपनी, अनूठी पहचान बने और पर्यटक वहाँ आने के लिए आकर्षित हों. संत अंतोनियो के गाँव ने भी ऐसा ही कुछ करने का सोचा.

संत अंतोनियो का खुली हवा में बना क्रिसमस की मूर्तियों का संग्रहालय

जैसे भारत में कृष्ण जन्माष्टमी पर अक्सर लोग घरों के बाहर झाँकियाँ बनाते हैं, इटली में क्रिसमस के अवसर में घर घर में छोटी छोटी झाँकियाँ बनायी जाती हैं.

संत अंतोनियों के लोगों ने सोचा कि इसी प्रथा को बड़े पैमाने पर तथा उसमें कुछ नया जोड़ कर बनाया जाये. चूँकि गाँव में कुछ मूर्तिकार रहते थे, उन्होंने कहा कि मानव आकार की ऐसी मूर्तियाँ बनायी जायें जो देखने में जीती जागती लगें.



उनका दूसरा निर्णय था कि सदियों से जिस तरह गाँव में परिवार रहते आये थे, वे जीवन शैलियाँ लुप्त होने लगी थीं, तो उनकी याद को जीवित रखा जाये जिससे आजकल के बच्चे यह जान सकें कि उनके दादा परदादा किस तरह रहते थे, किस तरह काम करते थे. यह भी निर्णय लिया गया कि उन मूर्तियों में वहां के रहने वालों की छवि दिखनी चाहिये, यानी उनके चेहरे तथा वस्त्र वहाँ के निवासियों पर आधारित होने चाहिये.

नीचे की छवियों में आप इस संग्रहालय की कुछ मूर्तियों को देख सकते हैं. मानव आकार की इन मूर्तियाँ को देख कर अक्सर धोखा हो जाता है कि यह सचमुच के व्यक्ति तो नहीं. पर असली आश्चर्य तो तब होता है जब अब मूर्ति के पास उस व्यक्ति को देखते हैं जिसकी प्रेरणा ले कर वह बनायी गयी थी, लगता है कि दो जुड़वा लोग कहीं से निकल आये हैं.



हर वर्ष यह संग्रहालय करीब 20 दिसम्बर से ले कर जनवरी के अन्त तक सजता है. यहाँ आने का, मूर्तियाँ देखने का, कार पार्किन्ग आदि का, फोटो या वीडियो खींचने का, किसी का कोई शुल्क नहीं है. शायद इसी लिए दूर दूर से बसों में तथा कारों में भर के लोग यहाँ आते हैं. इससे इस क्षेत्र के होटल, रेस्टोरेंट, हस्तकला तथा कला के दुकान वालों के काम तथा आय दोनो बढ़ जाते हैं और गाँव का नाम आसपास सब जगह प्रसिद्ध हो गया है.



यहाँ के रहने वाले इसका एक अन्य फायदा बताते हैं. इस मूर्तियाँ बनाने के कार्य में छोटे बड़े सभी लोग मिल कर काम करते हैं. एक पुरानी कला को जीवित करने का मौका मिला है जिसे वहाँ के नवयुवकों ने सीखा है. आपस में मित्रता तथा जानपहचान के भी नये मौके मिले हैं जिनसे उनका समुदाय सुदृढ़ हुआ है.

वैसे तो यहाँ की मूर्तियों में कई मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे कि घर की बालकनी में कपड़े सुखाने डालने वाली युवती की या फ़िर एक नवयुवती की खिड़की के नीचे खड़े उपर निहारते उसके प्रेम में पागल युवक की मूर्ति.


आइये आलेख के अंत में यहाँ की वह दो मूर्तियाँ दिखाऊँ जो मुझे सबसे अच्छी लगती हैं.

इन मूर्तियों में मध्यकालीन जीवन की वह छवि बनी है जब घरों में टायलट नहीं होते थे. तब लोग रात को कमरे में पिशाब करने का बर्तन रखते थे और सुबह उठ कर वह मूत्र सड़क पर फ़ैंक देते थे.


इन दो मूर्तियों में एक वृद्ध व्यक्ति हैं जो घर की बालकनी से रात का मूत्र फ़ैंकने को तैयार हैं. दूसरा व्यक्ति एक छोटा शैतान सा लड़का है, जिसके हाथ में गुलेल है जो वहाँ बालकनी के नीचे से गुज़र रहा है. इस दृश्य को देख कर सहसा हँसी आ जाती है. लगता है कि अभी बच्चा कदम आगे बढ़ायेगा और उसके सिर पर मूत्र की बरखा होगी.



तो बताना नहीं भूलियेगा कि संत अन्तोनियो की मोम की मूर्तियों का खुली हवा का यह संग्रहालय आप को कैसा लगा.

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बुधवार, सितंबर 14, 2016

डागधर बाबू कहाँ तक पढ़े हैं?

कुछ दिन पहले विश्व स्वास्थ्य संस्थान की भारत में स्वास्थ्य कर्मियों की स्थिति के बारे में एक दिलचस्प रिपोर्ट को पढ़ा. अक्सर इस तरह की रिपोर्टों में समाचार पत्रों या पत्रिकाओं को दिलचस्पी नहीं होती. इनके बारे में अंग्रेज़ी प्रेस में शायद कुछ मिल भी जाये, हिन्दी के समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में इसकी चर्चा कम ही होती है. इसलिए सोचा कि इसकी बात ब्लाग के माध्यम से करनी चाहिये.



भारत में स्वास्थ्य सेवा कर्मी

हर वर्ष, संयुक्त राष्ट्र की विश्व स्वास्थ्य संस्था दुनिया के विभिन्न देशों के बारे में स्वास्थ्य-कर्मी सँबधी आँकणे प्रकाशित करती है, जो उन्हें देश की सरकारें देती हैं. पर इसमें भारतीय आँकणे अक्सर अधूरे रहते हैं. आँकणे हों भी तो राष्ट्रीय स्तर के औसत आँकणे होते हैं जिनमें विभिन्न राज्यों की स्थिति को समझना आसान नहीं. इन आँकणों की विश्वासनीयता भी संदिग्ध होती है.

उदाहरण के लिए अगर हम विश्व स्वास्थ्य सँस्था द्वारा प्रकाशित सन् 2011 के आँकणे देखें तो उनके अनुसार सन 2000 से 2010 के अंतराल के समय में भारत में हर 10,000 जनसंख्या के लिए 6 डाक्टर, 13 नर्से व दाईयाँ तथा 0.7 दाँतों के डाक्टर थे.

इन आँकणों को विश्वासनीय माना जाये तो हम कह सकते हैं कि विकसित देशों के मुकाबले में भारत बहुत पीछे था. जैसे कि 2011 की रिपोर्ट के अनुसार फ्राँस में हर 10,000 जनसंख्या में 35 डाक्टर, 90 नर्सें व दाईयाँ तथा 7 दाँतों के डाक्टर थे. लेकिन अपने आसपास के देशों के मुकाबले हमारी स्थिति उतनी बुरी नहीं है. जैसे कि बँगलादेश में हर 10,000 जनसंख्या में 3 डाक्टर, 2.7 नर्सें व दाईयाँ तथा 0.2 दाँतों के डाक्टर थे. हाँ इस रिपोर्ट में पड़ोसी देशों में चीन के मुकाबले में हम थोड़ा पीछे थे, जहाँ हर 10,000 जनसंख्या में 14 डाक्टर, 14 नर्सें व दाईयाँ तथा 0.4 दाँतों के डाक्टर थे.

विश्व स्वास्थ्य संस्था की वार्षिक रिपोर्ट में सरकारें अपने नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कितना खर्चा करती हैं, इसकी जानकारी भी होती है. 2011 की इस रिपोर्ट के अनुसार सन 2008 में देशों के द्वारा कुल राष्ट्रीय आय का कितना हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं में गया उसकी स्थिति ऐसी थी - फ्राँस ने 11.2 प्रतिशत, बँगलादेश ने 3.3 प्रतिशत, चीन ने 4.4 प्रतिशत और भारत ने 4.2 प्रतिशत. यानि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर किये जाने वाले खर्च की स्थिति बुरी नहीं थी.

लेकिन अगर यह देखें कि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे में कितना प्रतिशत सरकार ने किया और कितना प्रतिशत लोगों नें अपनी जेब से उस खर्चे को उठाया तो स्थिति कुछ बदल जाती है. सन 2008 में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में सरकारी खर्च के हिस्से की स्थिति कुछ इस तरह की थी - फ्राँस में 76 प्रतिशत, चीन में 47 प्रतिशत और भारत में 32 प्रतिशत. यानि भारत में बीमारी का इलाज कराने के लिए दो तिहायी से अधिक खर्चा लोग स्वयं उठाते हैं.

भारत में हुए एक अन्य शोध ने दिखाया था कि गरीब लोगों में कर्ज़ा लेने के सबसे पहला कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चा है. स्वास्थ्य तथा शिक्षा दोनो ही क्षेत्रों में सरकारी सेवाओं पर लोगों का भरोसा कम है. दूसरी ओर, भारत में प्राईवेट स्कूल तथा अस्पताल, दोनों ही बड़े बिज़नेस हैं.

भारत में स्वास्थ्यकर्मियों पर विश्व स्वास्थ्य संस्था की 2016 की नयी रिपोर्ट

यह रिपोर्ट कहने के लिए नयी है और भारत में इस तरह की जानकारी पहली बार उपलब्ध हुई है, इसलिए महत्वपूर्ण है. पर यह कहना आवश्यक है कि यह शोध सन 2001 में की गयी राष्ट्रीय जनगणना की जानकारी पर आधारित है. यानि इसकी जानकारी आज की स्थिति की जानकारी नहीं देती, बल्कि 16 वर्ष पहले की स्थिति की जानकारी देती है. इस रिपोर्ट को प्रो. सुधीर आनन्द तथा डा. विक्टोरिया फान ने एक शौध पर तैयार किया है.

जनगणना में "आप क्या काम करते हैं?" का प्रश्न होता है. प्रो. आनन्द तथा डा. फान ने इस प्रश्न के उत्तर देने वालों में कितने स्वास्थ्य कर्मी थे, उन उत्तरों को निकाल कर उसका विशलेषण किया है. चूँकि यह जानकारी हर जनगणना में एकत्रित की जाती है, मेरी आशा है कि भारतीय जनगणना संस्थान तथा स्टेसस्टिक विभाग 2011 की जनगणना की जानकारी पर भी इस तरह का विशलेषण करेगा और उसके लिए हमें सोलह साल की प्रतीक्षा नहीं करायेगा.

2001 की जनगणना पर किये शोध में एलोपेथिक, होम्योपेथिक, आयुर्वेदिक तथा युनानी सभी स्वास्थ्य प्रणालियों में काम करने वाले कर्मियों के बारे में जानकारी मिलती है. इनमें से कुछ प्रमुख जानकारियाँ हैं:

- हर 10,000 जनसंख्या में 8 डाक्टर थे, जिनमें से 77 प्रतिशत एलोपेथिक थे.

- 80 प्रतिशत डाक्टर शहरों में थे, 20 प्रतिशत डाक्टर ग्रामीण शेत्रों में.

- अपने आप को एलोपेथिक डाक्टर कहने वालों में से 57 प्रतिशत के पास कोई मेडिकल डिग्री नहीं थी, उनमें से 31 प्रतिशत ने केवल हाई स्कूल तक पढ़ायी की थी. इनमें से अधिकतर तथाकथित डाक्टर गाँवों में काम कर रहे थे. गाँवों में काम करने वाले एलोपेथिक डाक्टरों में से केवल 19 प्रतिशत के पास मेडिकल डिग्री थी. गाँवों में मेडिकल कॉलेज में शिक्षित डाक्टरों में महिलाएँ अधिक थीं.

- हर 10,000 जनसंख्या में 6 नर्सें या मिडवाइफ थीं, जिनमें से केवल 12 प्रतिशत महिलाओं तथा 3 प्रतिशत पुरुषों के पास नर्सिंग की डिग्री थी.

- ऊपर के सभी आँकणे राष्ट्रीय स्तर की औसत स्थिति को बताते हैं. राज्य स्तर पर जानकारी इस औसत स्थिति से बहुत भिन्न हो सकती है.

  • जैसे कि, पश्चिम बँगाल में देश की 8 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के कुल 31 प्रतिशत होम्योंपेथी के डाक्टर वहाँ काम करते थे. उत्तर प्रदेश में देश की 16 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के 37 प्रतिशत युनानी डाक्टर. महाराष्ट्र में देश की 9 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के 23 प्रतिशत आयुर्वेदिक डाक्टर.
  • केरल में देश की 3 प्रतिशत जनसंख्या थी और वहाँ की 38 प्रतिशत नर्सों के पास नर्सिंग डिग्री थी.
  • त्रिपुरा, ओडिशा तथा केरल में एलोपेथिक डाक्टर राष्ट्रीय औसत से कम थे, वह करीब 60 प्रतिशत थे और अन्य चिकित्सा पद्धितियों के डाक्टर करीब 40 प्रतिशत.
  • केरल तथा मेघालय में महिला स्वास्थ्य कर्मचारी करीब 64 प्रतिशत थीं, जबकि उत्तरप्रदेश तथा बिहार में 20 प्रतिशत से भी कम.
इस रिपोर्ट में अन्य भी दिलचस्प जानकारियाँ हैं. अगर आप चाहें तो अंग्रेज़ी में पूरी रिपोर्ट को निशुल्क डाउनलोड कर सकते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संस्थान की रिपोर्ट का महत्व

भारत में कितने स्वास्थ्य कर्मी हैं, उनमें कितनी महिलाएँ कितने पुरुष हैं, उनमें कितनो के पास मेडिकल प्रशिक्षण की डिग्री है, किस राज्य में क्या स्थिति है, शहरों तथा गाँवों में क्या अंतर है, आदि प्रश्नों के भारत सरकार से इस से पहले कुछ उत्तर नहीं मिलते थे. इस रिपोर्ट में इन प्रश्नों के पहली बार कुछ उत्तर मिले हैं, इस दृष्टि से यह रिपोर्ट बहुत महत्वपूर्ण है.

इस रिपोर्ट का दूसरा महत्व है यह जानना कि यह जानकारी हमारे जनगणना कार्यक्रम से मिल सकती है, इसके लिए कोई विषेश शौध नहीं किया गया, बल्कि केवल 2001 की जनगणना के आँकणों को नयी दृष्टि से देखा व समझा गया. यानि अगर भारत सरकार चाहे तो इसी तरीके से यह जानकारी 2011 की जनगणना के आँकणों से भी मिल सकती है.

जनगणना से मिलने वाली जानकारी इस शौध की दृष्टि से कितनी विश्वासनीय है, यह सोचना भी आवश्यक है. कोई आप से पूछे कि आप कहाँ तक पढ़े हैं, फ़िर पूछे की क्या काम करते हैं, तो क्या आप सच बोलेंगे कि आपकी पढ़ायी हाई स्कूल की है और काम डाक्टर का करते हैं? यह हो सकता है कि कुछ लोग इन प्रश्नों के उत्तर ठीक से न दें. यानि रिपोर्ट की जानकारी की शत प्रतिशत विश्वस्नीय नहीं कहा जा सकता.

यह जानकारी कुछ अधूरी भी है. जैसे कि यह नहीं बताती कि जो लोग गाँवों में बिना डिग्री के "डाक्टर" का काम करते हैं उनमें से कितने लोगों ने इससे पहले कितने सालों तक किसी अस्पताल या डाक्टर के साथ काम किया था?

स्वास्थ्य सेवा कर्मियों से जुड़े कुछ अन्य प्रश्न

एक ओर से आप इस रिपोर्ट से मिलने वाली जानकारी के बारे में सोचिये और दूसरी ओर से सोचिये कि राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर की भारतीय मेडिकल एसोशियनें, कोशिश करती रहती हैं कि बिना डिग्री वाले डाक्टरों पर पुलिस कार्यवाही करे और उनके क्लिनिक बन्द किये जायें. इन्होंने इस तरह के कानून बनायें हैं कि विदेश से पढ़े डाक्टरों की मेडिकल डिग्रियाँ भारत में न मानी जायें औेर उन्हें भारतीय मेडिकल रजिस्ट्रेशन न मिले, उन्हें कठिन इम्तहान पास करने के लिए कहा जाये.

भारतीय सरकारी अस्पतालों में काम करने होम्योपेथी, युनानी तथा आयुर्वेदिक चिकित्सकों को तन्खवाह तथा सुविधाएँ कम मिलती हैं, और सामाजिक स्तर पर उनको एलोपेथिक डाक्टरों से नीचा माना जाता है. ऐसे भी कानून हैं कि बिना डाक्टर के नर्स क्लिनिक नहीं चला सकतीं न ही इलाज कर सकती हैं.

यानि कानून क्या कहता है और देश की सच्चाई क्या है, कथनी व करनी में बहुत बड़ा अंतर है. दिल्ली, मुम्बई में कानून लागू किये जा सकते हैं, गाँवों में उन्हें कौन लागू करेगा?

यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि अगर स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने के लिए मेडिकल कॉलेज या नर्सिन्ग की डिग्री आवश्यक है तो वह ग्रामीण क्षेत्रों वाले क्या करें जहाँ देश के केवल 20 प्रतिशत डाक्टर हैं और उनमें से अधिकाँश के पास ऐसी कोई डिग्री नहीं है? कुछ माह पहले मुझे महाराष्ट्र में कुछ गाँवों में घूमने का मौका मिला. वहाँ मैंने देखा कि कई बार प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (प्रा.स्वा.के.) तथा गाँवों के बीच तीस पैंतीस किलोमीटर की दूरी होती है, और प्रा.स्वा.के. पहुँचने के लिए यातायात मिलना कठिन होता है. लोग दो तीन घँटे की यात्रा के बाद प्रा.स्वा.के. पहुँचते हैं तो डाक्टर मिलेगा या नहीं, यह कहना आसान नहीं. डाक्टर हो भी तो दवा होंगी, यह कठिन है. कभी उन्हें कहा जाता है कि उन्हें जिला अस्पताल जाना पड़ेगा, जिसके लिए और दो चार घँटे की यात्रा करनी पड़े. इस स्थिति में लोग किससे इलाज करायें?

यह स्थिति केवल महाराष्ट्र में है, ऐसी बात नहीं, बल्कि शायद महाराष्ट्र में स्थिति बाकी देश से कुछ बेहतर है. छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले में गणियारी में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था "जन स्वास्थ्य सहयोग" ने अपनी नयी पुस्तिका "ग्रामीण स्वास्थ्य एटलस" (An Atlas of Rural Health) में मलेरिया से मरने वालों की स्थिति का जो विवरण दिया है, उससे प्रा.स्वा.के. में इलाज करवाने की कठिनाईयों के साथ साथ राज्य स्तर पर आँकणों की विश्वस्नीयता के बारे में जानकारी मिलती है:

रिगबार गाँव के छः वर्षीय श्यामलाल यादव को तीन दिन से बुखार व सिरदर्द था. जब उसका शरीर पीला पढ़ने लगा तो उसके परिवार ने झाड़ फ़ूँक करने वाले ओझा को बुलाया, फ़िर वहाँ के स्थानीय बिना डिग्री वाले डाक्टर के पास ले गये जिसने एक इन्जेक्शन लगाया, जिससे बच्चे का बुखार एक दिन के लिए उतरा.
अगले दिन जब बच्चे के पिता आनन्द राम ने देखा कि बच्चे को तेज़ बुखार था और साँस लेने में कठिनाई हो रही थी तो उसे रतनपुर में 25 कि.मी. दूर प्रा.स्वा.के. में ले जाने की सोची, पर समस्या थी कि कैसे ले कर जाये. सरपंच साहब ने मोटरसाईकल का इन्तज़ाम किया. प्रा.स्वा.के. ने जाँच करके बताया कि मलेरिया है और इलाज के लिए 30 कि.मी. दूर बिलासपुर ले जाने के लिए कहा. उस दिन अंतिम बस पकड़ कर आनन्द राम रात को 8 बजे गाँव वापस पहुँचा. अपनी एक एकड़ ज़मीन को फसल के साथ गिरवी रख कर 8000 रुपये लिए और सुबह की इन्तज़ार की. सुबह चार बजे, बच्चे ने अंतिम साँस ली...
सरकारी आँकणों के अनुसार, भारत में वर्ष में 20 लाख लोगों को मलेरिया होता है और उससे 700 व्यक्तियों की मृत्यू होती है. विश्व स्वास्थ्य संघ ने अनुमान लगाया है कि भारत में वर्ष में असल में करीब एक करोड़ पचास लाख लोगों को मलेरिया होता है और करीब 20 हज़ार व्यक्ति मरते हैं. एक अन्य शौध ने अनुमान लगाया है मलेरिया से हर वर्ष कम से कम डेड़ से सवा दो लाख लोगों की मृत्यू होती हैं...
सरकारी आँकणों के हिसाब से 2010 में पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में मलेरिया से केवल 42 व्यक्ति मरे, जबकि उसी वर्ष "जन स्वास्थ्य सहयोग" के एक शौध के अनुसार राज्य के बिलासपुर जिले के एक ब्लॉक में कम से कम 200 व्यक्ति मलेरिया से मरे ...

सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में काम करने वालों पर बहुत दबाव होता है कि स्वास्थ्य समस्याओं की स्थिति बुरी न दिखायी जाये ताकि राज्य की छवि को नुकसान न हो. भारत में कुष्ठ रोग से सम्बन्धित मेरे एक शौध में स्वास्थ्य कर्मियों ने माना कि अगर उनके इलाके में अधिक कुष्ठ रोगी पाये जायेंगे तो अफसर कहेंगे कि वहाँ स्थिति खराब है और काम ठीक से नहीं हो रहा. यानि अगर आप अच्छा काम करेंगे तो आप के काम को बुरा माना जायेगा. इसलिए वह रोगियों को कम करके दिखाते हैं, ताकि अफसर कहें कि वहाँ काम अच्छा हो रहा है.

अंत में

स्वास्थ्य कर्मियों की कमी के साथ साथ, सरकारी स्वास्थ्य सेवा की कमियाँ और हर ओर बढ़ते निजिकरण की कठिनाईयों जैसे विषय भी जुड़े हैं. जब स्वास्थ्य सेवा के साथ पैसा कमाने की बात जुड़ी हो तो कितने डाक्टर इलाज की निर्पेक्ष सलाह दे पाते हैं? एक ओर छोटे शहरों तथा गाँवों में डाक्टर, नर्स, फिसियोथेरापिस्ट, साइकोलोजिस्ट जैसे सेवाकर्मी नहीं मिलते, दूसरी ओर बड़े शहरों में प्राईवेट अस्पतालों में स्पेशलिस्टों की भरमार तथा अधिक से अधिक पैसा कैसे बनाया जाये के चक्कर हैं.

भारत के फ़र्ज़ी बिना डिग्री के डाक्टरों की बात तो बहुत लोग करते हैं लेकिन इस बारे में कोई शौध नहीं हुआ कि उनका लोगों तक स्वास्थ्य सेवा पहूँचाने में क्या सहयोग है? कई बार देखा कि गाँवों में डिग्री वाले और बिना डिग्री वाले कम्पाउँडर-डाक्टर दोनो हैं, और गाँव में सबको मालूम था कि उस "डाक्टर" के पास डिग्री नहीं थी, तो मेरा प्रश्न था कि सब कुछ जान कर भी और प्रशिक्षत डाक्टर का विकल्प होने के बावज़ूद लोग ऐसे फ़र्ज़ी डाक्टर पर क्यों जाते थे? क्या मिलता था उन्हें इन डाक्टरों से जिसकी वजह से उनके क्लिनिक में इतनी भीड़ होती थी?

पर मेरा अनुभव है कि मेडिकल एसोशियेशनों में लोग सख्त कानून बनवाने की बातें करते हैं, उन्हें यह जानने में दिलचस्पी नहीं कि बने कानून क्यों काम नहीं कर रहे और लोग सब कुछ जान समझ कर भी, ऐसी जगहों पर इलाज कराने क्यों जाते हैं.

भारत सरकार ने ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन तथा आशा (ऍक्रेडिटिट सोशल हेल्थ एक्टीविस्ट - ASHA) कार्यक्रमों के माध्यम से गाँवों तथा जिला स्तरों के छोटे शहरों में स्वास्थ्य आवश्यकताओं का उत्तर देने की कोशिश की है. मेरे विचार में जहाँ इस व्यवस्था ने काम किया है, उसका अच्छा प्रभाव पड़ा है. इसके बारे में पिछले एक दो वर्षों में मुझे उत्तरप्रदेश, असम तथा महाराष्ट्र में स्थिति समझने का कुछ मौका मिला है, पर उनके बारे में बात फ़िर कभी होगी.

तकनीकी विकास के साथ आज दुनिया तेज़ी से बदल रही है. मोबाइल फ़ोन और कम्प्यूटरों के माध्यम से चिकित्सा क्षेत्र में बहुत से बदलाव हो रहे हैं. गाँवों में काम करने वाले स्वास्थ्य सेवा कर्मियों के काम में इन तकनीकी विकासों से नये बदलाव आयेंगे. पश्चिमी देशों में कोई भी तकनीकी विकास हो, भारत में उसके सस्ते और सुलभ तरीके खोज लिये जाते हैं. इसलिए मेरे विचार में अगले दशक में भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में भी तकनीकी विकास आयेंगे, पर इसकी बात भी फ़िर कभी होगी.

अंत में आप से कुछ पूछना चाहूँगा - आप बिना डिग्री के डाक्टर नर्सों के बारे में क्या सोचते हैं? क्या आप कभी ऐसे लोगों के पास इलाज कराने गये? आप के अपने क्या अनुभव हैं? आप के विचार में लोग ऐसे स्वास्थ्य कर्मियों के पास क्यों जाते हैं?

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मंगलवार, मार्च 01, 2016

डा. राममनोहर लोहियाः आखिरी साल

सुश्री रमा मित्र का यह आलेख समाजवादी पत्रिका "जन" के मार्च-अप्रैल १९६८ के अंक से लिया गया है।‌ इस अंक के सम्पादक मेरे पिता श्री ओमप्रकाश दीपक थे। डा. राम मनोहर लोहिया की अक्टबर १९६७ में मृत्यु के बाद यह उनका पहला "स्मृति अंक" था जिसमें उन्हें जानने वालों के उनके बारे में आलेख थे.

रमा जी का यह आलेख उसमें ४२ से ५० तक पृष्ठों में छपा था. रमा जी और डा. लोहिया ने विवाह नहीं किया था, वे जीवनसाथी थे, करीब बीस वर्ष तक साथ रहे. जब १९६७ में डा. लोहिया की मृत्यु हुई उस समय रमा जी समाजवादी दल की अंग्रेज़ी पत्रिका "मैनकाइन्ड" की सम्पादक थीं और दिल्ली विश्वविद्यालय के मिराण्डा कॉलेज में इतिहास की प्रोफेसर भी थीं.

१९७५ में मेरे पिता की मृत्यु के बाद, कई वर्षों तक रमा जी का हमारे घर आना मुझे याद है. उनके इस आलेख में डा. लोहिया के व्यक्तित्व का व्यक्तिगत रूप दिखता है.

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रमा मित्र

चौथे आम चुनाव से पहले कुछ दिन वह पूरे निखार पर थे। उन्होंने गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत का निरूपण कर दिया था। उनका नारा था - कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ। पर इसकी कल्पना चुनाव के मौके पर ही उन्होने नहीं की थी. काफ़ी पहले तीसरे आम चुनाव के वक्त जनवरी १९६२ में उन्होंने बताया था कि समाजवादी, राष्ट्रीयतावाद और भाषा जैसे प्रश्नों पर जनसंघ के और सम्पत्ति तथा समता जैसे प्रश्नों पर साम्यवादियों के किस तरह निकट हैं? राष्ट्रीयतावाद और भाषा के मामलों में वे जनसंघ के ज़्यादा निकट थे और सम्पत्ति और भाषा के मामलों के बारे में साम्यवादियों के, ज़्यादा। पर ऐसा कोई भी सवाल नहीं था और न ही हो सकता था कि जिस पर समाजवादी कांग्रेस के निकट हो सकते।

"कांग्रेस हटाओ" का नारा बुलंद करते हुए वह देश का अनवरत दौरा करते रहे। उनका ख्याल था कांग्रेस के हटने से हालांकि विभिन्न राज्यों में तरह तरह के मेल की खट्मिट्ठी गंगाजमुनी सरकारें बनेंगी पर बदलाव की प्रक्रिया चल पड़ेगी। वह बदलाव चाहते थे। बदलाव के लिए वह इतना व्यग्र थे कि उन्हें धीरज न था - ऐसा बदलाव जो स्थिरता के नाम पर देश में चलने वाली जड़ता को खत्म करे। आंकड़ों तथा तथ्यों से वह लैस थे। देहाती जलसों में आंकड़ों तथा अर्थशास्त्र की पेचीदगियों को एक दम आसान, सहज और बोधगम्य ढंग से रखने की उनकी प्रतिभा पर हैरत होती थी। देहाती लोग अत्याधुनिक शहरी बुद्धजीवियों के अपेक्षा उनकी बातें ज़्यादा आसानी और स्पष्टता से समझ पाते थे। कार्यक्रम को तफसील से बताते - कृषि, उद्योग, खरच, भाषा, जाति, विदेशी नीति जैसे मामलों पर। हर प्रश्न पर कांग्रेस ने देश और जनता का कैसे बंटाधार किया है, साबित करते।

Dr Ram Manohar Lohia - Jan March-April 1968 cover

पर गैरकांग्रेसवाद का उनका मार्ग आसान नहीं था। कभी कभी वह हताश और दुखी हो जाया करते थे। चुनाव समझौतों व तालमेल का उनका कार्यक्रम इस तरह अमल नहीं आ रहा था जिससे कि गैरकांग्रेसवाद को पूरा फायदा मिलता। कांग्रेस के खिलाफ एकजुट लड़ाई में कुछ पार्टियों का घमण्ड और दम्भ कि वे अकेले कांग्रेस को हरा सकती हैं और साम्प्रदायिक व जातीय विद्वेष और पूर्वाग्रह अटकाव थे। उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र से जो खबरें आ रहीं थीं वे भी उत्साहजनक नहीं थीं - यही नहीं कि जनसंघ ने एक खास जाति के वोट जीतने की उम्मीद में उनके खिलाफ़ उम्मीदवार खड़ा किया था, जिससे कांग्रेस को मदद मिलने वाली थी और मिली भी - इसलिए भी कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में विधान सभा के लिए जो संगी उम्मीदवार चुने गये थे उनका चयन भी काफी दुखद था। मुझे अभी भी याद है कि वह अक्सर हँसी में , जिसमें उनकी आँखें चमक उठती थीं मुझे कहा करते, "तुम जानती हो रमा, हिन्दुस्तान की राजनीति में मैं बेठीक आदमी हूँ, कोई भी चीज़ तो मेरी ठीक नहीं - मेरा कोई राज्य (प्रांत) नहीं और मेरी जाति गलत है। मैं क्या करूँ। सारे देश को आधार बना कर खुद अपने क्षेत्र का चुनाव लड़ना कितना मुश्किल है।" मैंने कहा यह सही है, आपके साथ जो हैं वे भी गलत आदमी हैं। मुझे ही लो, मध्यवर्ग की बंगालन हूँ और यही नहीं कायस्थ भी हूँ और यहाँ पर हम सब जो बाकी लोग हैं वे भी बड़ी जातियों के हैं।" "इसीलिए तो मैं तुम्हें कहता रहता हूँ कि कुछ हरिजन होने चाहिए जो हर महीने हमारे साथ कुछ दिन रहें।" उनके निर्वाचन क्षेत्र की खबरें खराब आ रही थीं और वह अपने निर्वाचन क्षेत्र को समय नहीं दे पा रहे थे। जब उन दौरों के बीच एक दिन दिल्ली में रुके तो मैंने बड़े अनुनय से कहा कि बाकी के दस दिन वह अपने निर्वाचन क्षेत्र में लगायें। इस पर वह तैश खा कर बोले, "तुम इस उम्र में मुझे राजनीति सिखा रही हो। क्या तुम इस बात को समझती हो कि मैं अपना नहीं अपनी पार्टी और विरोधपक्ष का चुनाव भी लड़ रहा हूँ।" मेरा मुँह बन्द हो गया।

चुनावों से उन पर जबरदस्त बोझ पड़ रहा था - शारीरिक और मानसिक दोनों। बिना किसी केन्द्रीय कोष के चुनाव लड़ना अतिमानवीय कार्य था. पार्टी ने एक साल पहले केन्द्रीय कोष के लिए पैसा जमा करना का शानदार कार्यक्रम बनाया था - ऐसा कोष जिसमें विभिन्न राज्यों तथा दलित उम्मीदवारों - महिलाओं, पिछड़ा वर्ग, मुसलमान तथा अन्य अल्पसंख्यक, आदिवासियों, हरिजनों, आदि - को चुनाव लड़ने का पैसा दिया जा सके। पर हुआ कुछ नहीं। फैसला करने और उस पर अमल न करने से उन्हें सबसे ज़्यादा दुख होता था। वही एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने केन्द्रीय कोष के लिए पैसा इक्ट्ठा किया। वह मुझे संदेशे भेजते रहे कि उनके कोष से फलां फलां उम्मीदवार को पैसे भेजूँ। उन उम्मीदवारों में से अधिकतर पिछड़े वर्गों को होते। कुछ ऊँची जातियों के भी होते पर ऐसे जो बिना किसी कोष, गाड़ी व जीप और इश्तहार व साहित्य के चुनाव लड़ रहे थे। अपने निर्वाचन क्षेत्र के बारे में उनका कड़ा निर्देश था कि जब तक वह स्पष्ट आदेश न दें तब तक कोई पैसा न भेजा जाये। एक बार उन्होंने मुझे तार दिया कि कहीं से एक टेपरिकार्डर खरीदो और मेरे निर्वाचन क्षेत्र को भेजो ताकि मेरे भाषण उन इलाकों में सुनाये जा सकें, जहाँ मैं नहीं पहुँच पाया। चुनाव दौरों में वह थक जाते थे पर हमेशा उत्सुकता और आशा बनी रहती थी। उनकी गाड़ी बिगड़ जाती, माइक्रोफोन खराब हो जाता, वह साइकल या बैलगाड़ियों पर चल पड़ते। पर रिक्शा पर कभी नहीं, उसका सवाल ही नहीं उठता था, क्योंकि नीम जवानी के दिनों में उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वह कभी रिक्शा पर नहीं चढ़ेंगे, किसी दूसरे आदमी पर सवार नहीं होंगे। रिक्शे का खयाल ही उनमें जुगुप्सा भर देता था। उन्होंने रिक्शा चलाने वाले को आधा इन्सान आधा जानवर कहा था, भारत के पतन का प्रतीक।

अपने निर्वाचन क्षेत्र में मतदान से चार दिन पहले वह दिल्ली आये। अपने निर्वाचन क्षेत्र से निकलने की वजह थी कि वह किसी न किसी तरह सुदूर उड़ीसा जाना चाहते थे कि अन्तिम घड़ी के प्रयत्नों से कुछ हजार मतों को किशन पटनायक के पक्ष में मोड़ सकें। दीवार पर टँगे नक्शे, हवाई यात्रा और रेलवे की पंजिकाओं को उन्होंने देखा, किराए पर विषेश विमान लेने के सिवाय समय पर उड़ीसा पहुँचने का कोई और रास्ता नहीं था। किशन उनके बहुत नज़दीक थे। वह संसद में बहुत तेज़ी से उभर रहे थे और वे चाहते थे कि किशन जरूर जीतें।

जब चुनाव के नतीजे आने लगे तो उन्हें काफ़ी आशा थी। दिल्ली आने पर उन्होंने मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराया और १९ फरवरी को रविवार था, ऐसा ही मुझे याद है, वह पहली मरतबा अपना मत देने गये. किसने उस समय सोचा था कि यह उनका अंतिम मतदान भी होगा। उनके कुछ दोस्त भी साथ थे। अपना मत देने के बाद मैं भी आ गयी। काफी हँसी मजाक और छींटाकसी चल रही थी। उनके कुछ दोस्त एक उम्मीदवार के पक्ष में मत देने को उनकी मनौवल कर रहे थे। वह उम्मीदवार कांग्रेसी नहीं था। मतदान के बाद हमने पूछा कि किसको मत दिया, पर वह बताने वाले नहीं थे। हंसी में उन्होंने हमें मत की गोपनीयता की याद दिलायी और हम भी हंसी में शामिल हो गये। चुनाव नतीजे तेजी से आने लगे तो आनन्दित और निराश होने का क्रम बंध गया - सारे वक्त रेडियो चलता रहता। फ़िर नतीजा सुन पड़ता, एक बड़ा कांग्रसी नेता धराशायी हो गया है या उनका कोई ऐसा साथी जिसके जीतने की पूरी उम्मीद थी, हार गया है। मुझे उनकी वह खिलखिलाहट अभी भी याद है, आधी रात बीत गयी थी कि उनके एक जवान दोस्त ने, जो अखबार में काम करता था, मुझे टेलीफोन किया। "इतनी रात बीते टेलीफोन कर आपको परेशान करने के लिए माफ़ी चाहता हूँ, पर एक मज़ेदार चीज़ हुई है - कामराज हार गये हैं।" मैं उनके कमरे में गयी - वह अभी भी पढ़ रहे थे, खबर सुनायी। उनका सारा चेहरा हंसी से भर गया, बोले "बढ़िया, बहुत बढ़िया।"

उनके खुद के चुनाव का नतीजा नहीं आ रहा था। अखबारों में कोई खबर नहीं थी, आगे हैं या पीछे। चुनाव क्षेत्र से एकदम चुप्पी थी। फ़िर उस शाम को जब हम लोग सब खाने के कमरे में बैठे चुनाव नतीजे की खबरें सुन रहे थे, उन दिनों हमारा चलन यही था, केन्द्रीय दफ्तर से फोन आया कि वह विधुना में कुछ हज़ार वोटों से आगे हैं. विधुना का विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र उनके निर्वाचन क्षेत्र में हाल में ही जोड़ा गया था। यह भी खबर आयी कि दो और जगहों में उनके मतों की गणना हो रही है। इस टेलीफोन के आधे घँटे बाद एक और टेलीफोन आया कि वह पीछे हो गये हैं। अपनी स्वाभाविक परिपूर्णता के साथ उन्होंने कागज़ और पेंसिल ली और अपने निर्वाचन क्षेत्र के सभी संसदीय उम्मीदवारों के मतों का जोड़ करने लगे। नतीजा एकदम निराशाजनक था। एक एक करके सब लोग अपने अपने घर चले गये थे और मैं ही उनके साथ अलेके रह गयी थी। मैंने कहा कि वह थोड़ी देर आराम कर लें तब तक मैं उनके लिए खाना परस दूँ। खाते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा, "मेरे हारने से तुम्हें बहुत दुख होगा। होगा न?" उस वक्त भी जब हार जीत के बीच लगभग फर्क नहीं रहा था वह अपने बारे में नहीं दूसरों की बाबत सोच रहे थे। यह उनका स्वभाव था, उनकी बात थी। बीस साल के सान्निध्य में मैंने कभी उन्हें अपने बारे में सोचते नहीं पाया। मैंने कहा, "कोई आसमान नहीं फट रहा है यह सोचो कि आप हार गये हो। अब जा कर सो जाओ।" मैंने उन्हें दवा की गोलियाँ दीं और खुद लगभग सारी रात टेलीफोन के पास बैठी रही। आखिरकार अगले दिन दोपहर को हमारे पास खबर आयी कि वह बहुत कम वोटों से जीत गये हैं। "तुम इसे जीतना कहती हो।" मैं क्या कहती।

उनकी भविष्यवाणी कि कांग्रस कुछ राज्यों में हार जायेगी सही साबित हुई, पर कुल नतीजे से वह प्रसन्न नही हुए. नतीजों का उन्होंने विश्लेषण शुरु किया - उत्तरप्रदेश में उनके खुद के इलाके में नतीजा अच्छा रहा नहीं कहा जा सकता। बिहार काफ़ी अच्छा रहा। जैसा कि उन्होंने कहा था द्रमुक को छोड़ कर कोई भी दल उन जगहों पर जहाँ कांग्रेस हार गयी अकेला खड़ा नहीं हुआ। इस बात से वह परेशान हुए कि कुछ राज्यों में जहां जनता ने कांग्रेस को विधान सभा में अल्पसंख्यक बना दिया था, वहां उसने केन्द्र में कांग्रेस को विजयी बनाया। यह रोग का मुख्य लक्षण था। चुनावों के बाद वह हिन्दुस्तानी राजनीति के रोग - राज्यीय गैरकांग्रेसवाद और केन्द्रीय कांग्रेसवाद - के बारे में मुखर हुए। रूपक उपस्थिक करने में वह माहिर थे। उन्होंने हिन्दुस्तान की राजनीति को उच्च रक्तचाप का मरीज बताया - डायस्टोल और सायसटोल का तुलनात्मक फरक जिससे अंततः रोगी के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है और वह खत्म हो जाता है। केन्द्र को उन्होंने कलक्टर और गैरकांग्रेसी राज्य को पटवारी की भी उपमाएँ प्रदान कीं। इसलिए चुनावों के बाद इस रोग को दूर करने के लिए उनकी मुख्य चाल यह थी कि केन्द्र में गैरकांग्रेसी सरकार हो। इस चाल का पहला दाँव राष्ट्रपति का चुनाव था।

उस वक्त वह कुछ दिनों राज्यों में गैर कांग्रेसी मिली जुली सरकारों का कार्यक्रम बनाने में व्यस्त रहे। राष्ट्रीय समिति की भोपाल में बैठक हो रही थी। उन्होंने कार्यक्रम का मस्विदा बनाया जिसमें खास तौर पर यह बताया कि सत्तारूढ़ होने के पहले ६ महीनों के भीतर यह सरकारें क्या करें और ऐसा न कर पाने पर उनकी पार्टी बेहिचक सरकार से बाहर आ जाये। लोग कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी सरकार के बीच फरक आँक सकें। इस तरह के कार्यक्रम में एक सर्वोपरि बात थी ६॥ एकड़ भूमि पर से लगाना हटाना।

भोपाल से हम उन्हें कुछ दिनों के वास्ते कन्याकुमारी ले गये। कन्याकुमारी उनका प्रिय रमणीक स्थान था। एक बार वहां से उन्होंने मुझे लिखा था कि उन्हें यह बात रह रह कर कोंचती है कि कन्याकुमारी पर जहाँ भूमि समाप्त होती है वहाँ चट्टान पर जब विवेकानन्द ने समाधी लगायी थी तो उनका मुख भारत की ओर था या समुद्र की ओर। इस बारे में उन्होंने विवेकानन्द सोसाइटी के लोगों से पूछताछ की लेकिन कोई उन्हें उत्तर नहीं दे सका। इस प्रस्न का उन्होंने खुद अपना उत्तर प्राप्त किया। विवेकानन्द जेसे थे उसे देखते हुए वह निश्चित ही भारत की ओर उन्मुख रहे होंगे। कन्याकुमारी में ही उन्हें खबर मिली कि हमारे एक सदस्य विंध्येश्वरी मण्डल जो लोकसभा के लिए चुन लिये गये थे, बिहार सरकार में मंत्री बन गये हैं। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया, अपनी पार्टी के लोगों से इतनी जल्दी पदलोलुपता की उन्होंने उम्मीद नहीं की थी। दिल्ली पहुँचने पर प्रेस बयान दे कर इस घोर सिद्धांतहीनता पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की।

उन दिनों वह बहुत अनुत्साहित थे, स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। रक्तचाप की अक्सर शिकायत रहती। आँखें काफ़ी दिनों से परेशान कर रही थीं. यह भी सुझाया गया कि ग्लोकोमा के वास्ते उनकी आँखों का आपरेशन किया जाये पर यह सुझाव टाल दिया गया और आँखों में रोज दवा डालते रहने से हालत और बिगड़ी नहीं। लगातार थकान और उनींदेपन की शिकायत करते रहे। अक्सर मुझे कहा करते कि उन्हें भी वही शिकायत है जो अश्वनी को थी। अश्वनी उनके बहुत अज़ीज़ दोस्त थे जिनकी डेढ़ साल पहले मृत्यू हो गयी थी। मैं उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश करती कि यह केवल थकान की वजह से है, उन्हें गुर्दे की कोई शिकायत नहीं जैसी कि उनके दोस्त को थी। उनके सारे बदन में दर्द होता रहता। पर शारीरिक पीड़ा से अधिक मानसिक चिन्ता व परेशानी थी।

वह कहते "क्या तुम सोचती हो कि इस देश में कभी कुछ होगा। क्या मेरी सारी कोशिशे बेकार जायेंगी?" थोड़ी देर में उनकी आशा लौट आती, "क्या पता कुछ आश्चर्यजनक हो जाये।" इसके बाद थोड़ा रुक कर अपने तईं बोलने लगते, "जनता उठेगी, इसमें मुझे कोई शक नहीं पर वह क्या हिंसा का रास्ता अख्तियार करेगी?" यह द्वन्द, यह शँका और भय कि जनता हिंसा का रास्ता अख्तियार करेगी उन्हें लगातार चिंतित करता रहता। एक पल के लिए घोर निराशा में वह अहिंसा को मानने से इंकार करते पर अन्तिम दिन तक अहिंसा में उनकी आस्था बनी रही। राष्ट्रपति चुनाव पर उनका पूरा जोर था और इसमें वह पूरी तरह जुटे हुए थे। भारतीय राजनीति की अलगाव व विघटनकारी बुराई व रोग को दूर करना ही होगा। इस कार्य का पहला कदम था कांग्रेस के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को हराना। यह ध्यान देने की बात है कि उनका प्रचार अभियान ही एकमात्र ऐसा प्रचार था जो परदे के पौछे नहीं वरन् खुल्लमखुल्ला जनता के बीच चला। सार्वजनिक प्रश्नों पर सार्वजनीन बहस-मुबाहिसा होना चाहिए - राजनीतिक अन्दोलन के लिए यही उनका नुस्खा था। चुनाव अभियान में उन्होंने सभाएँ की, अखबारों को भेंट दी और अंत में मतदाताओं से अपील की, कुछ भी उठा न रखा। यही नहीं वही एकमात्र नेता थे जिसने विरोधपक्ष के उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार के लिए भी प्रचार किया। विरोधी पक्ष उम्मीदवार चुनने के बाद मौन साध गया। विरोध पक्ष हारा और बड़ी संख्या से हारा। इस हार से चौकन्ने हो कर कारणों का विश्लेषण करने बैठे। सूक्ष्म विश्लेषण की अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से उन्होंने नतीजे के कारणों का रेशा रेशा उघाड़ लिया। गैर कांग्रेसवाद को केन्द्र में लाने का उनका पहला निशाना खाली गया - सभी विरोधी सदस्यों ने साथ जो नहीं दिया।

अप्रैल में हमने उन्हें विलिंगडन अस्पताल डाक्टरी जाँच के लिए भेजा। नवम्बर में भी जाँच के लिए वहाँ गये थे। अब डाक्टरों ने पौरुष ग्रंथि के आपरेशन की बात कही. आपरेशन की बात उन्हें नहीं भायी। वह खिन्न हो गये। मैंने उनसे कहा कि हम इसके बारे में दुबारा राय मालूम करेंगे और शल्य क्रिया के प्राध्यापक द्वारा जाँच कराने के लिए अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान ले गयी जिसकी राय थी कि आपरेशन की तात्कालिक ज़रूरत नहीं थी और इन्जेक्शनों वह दुरुस्त होने लगेंगे। वह काफी खुश हो गये और मैंने राहत महसूस की। जब वह विलिंगडन अस्पताल में थे तब भी राजनीति में एकदम बँधे हुए थे। इस बीच दिल्ली में पुलिस आन्दोलन भड़क उठा था। वह लगातार सलाह मशविरा और परामर्श देते रहते थे, अपने साथियों को भेजते और क्या कदम उठाये जायें सोचते। प्रेस वक्तव्य देते और अस्पताल के मैदान में उन्होंने एक सभा की जिसकी खबर एक दैनिक में भी छपी जिससे अस्पताल अधिकारी काफ़ी परेशान दीखे। अस्पताल से जा कर दिल्ली के मजदूर संघों की एक सभा में वह भाषण भी दे आये। दिल्ली के अधिकाँश मजदूरसंघों पर दक्षिणपंथी साम्यवादियों का नियंत्रण है। सभा में उन्होंने हड़ताली पुलिस सिपाहियों की सहानुभूति में आम हड़ताल की अपील की। उनको लगा कि यह एक ऐसा स्वर्णिम अवसर है जबकि जनता और पुलिस के बीच एका बैठाया जा सकता है। इस एक्य से दिल्ली में स्वयंमेव एक क्रांतिकारी स्थिति पैदा हो जायेगी जिसका असर देश भर पर पड़ेगा।

पर १८ नवम्बर १९६६ की छात्र कूच की तरह इस बार भी साम्यवादी यूनियन आगे नहीं बढ़े। उनके आगे बढ़ने से स्थिति बदल जाती। डा. साहब का तरीका यह नहीं था कि क्राति की बात को बहुत ज्यादा की जायेपर कोई आन्दोलन या उस पर अमल नहीं किया जाये। उनके लिए कार्य का असफल होना या उसका एकदम ही निष्प्रभाव होना कार्य न होने से बेहतर था। उन्होंने दिल्ली भर में कई सभाओं में भाषण दिये और जनता को आम पुलिस सिपाही के हाल के बारे में बताया - अफसरों और सिपाहियों के बीच की गहरी खाई और किस तरह सिपाहियों को मानवीय गुणों से च्युत कर पशु बनाया जा रहा है, बताया। साथ ही उन्होंने इन सभाओं में पुलिस जनता दोस्ती की कसम दिलवायी। वही एकमात्र नेता थे जिसने स्थिति की विस्भोटक संभावना को आंका था - केन्द्र पर प्रहार करने का एक बेहतरीन और अद्भुत मौका था. इस मौके के जाने से वह दुखी और निराश हुए थे।

मई की शुरुआत में मेरे एक आत्मीय की मृत्यू हो गयी। वह कितने कोमल और संवेदनशील थे। सार्वजनिक सभाओं में वह अक्सर भारतीय नारी की दुर्गति की चर्चा करते, भारतीय नारी जो हजारों साल से दबायी गयी। वह सभा में उपस्थित पुरुषों से कहते आप स्त्रियों की अधोगति जानने के लिए अर्धनारीश्वर बनो (उसी तरह जिस तरह वह आधा हिन्दू आधा मुसलमान होने की बात कहते), वह खुद इसी तरह थे। मैंने बार बार उनमें यह बात पायी है, ऐसी कोमलता पायी जो केवल माँ में ही मिलती है। जब भी मैं बीमार पड़ी हूँ या दुखी हुई हूँ, माँ की तरह उन्होंने मेरा जतन किया।

मई में पार्टी शिविर में वह त्रवेन्द्रम गये। वहाँ उन्होंने विभिन्न विषयों पर, जिनमें विदेश नीति भी थी, भाषण किये। व्यवहारिकता, प्रचार और दक्षिण भारतीय श्रोताओं के शोर मचा कर बैठा दिये जाने के भय जैसे कारणों ने उन्हें कभी अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में बोलने को विचलित नहीं किया। दूसरी भाषा में बोलने के बजाय उन्हें मौन मंजूर था। जून के मध्य में मैं वाराणसी उनके साथ हो ली। रात वह गंगा में नाव पर बिताना चाहते थे। हम सभी नाव में थे। नौका ने मणिकर्णिका घाट के सामने सीध पर लंगर डाला. मणिकर्णिका घाट पर हमेशा कोई न कोई चिता जलती रहती है. मैंने पहली बार शमशान देखा। वह सोचमग्न हो गये, "मृत देह को ले कर इतना झमेला क्यों किया जाता है? प्राणों के बिना देह क्या है। मृत देह को नष्ट करने के वास्ते इतना ज्यादा खरच क्यों? मृतक के धनी होने पर कितना खरच होता होगा, यह सोचो। मृतदेह को जल्दी, आसान, स्वस्थ ढंग और कम खरच में नष्ट करना चाहिये।" मुझे याद आता है एक बार जब हम दिल्ली में रिंग रोड से गुजर रहे थे तो मैंने उनसे कहा था जब मैं मर जाऊँ आप मुझे बिजली के शमशान में ले जाइयेगा। इस पर वह हँसे, "देखो कौन किसको लाता है। मैं तुमसे बड़ा हूँ।"

वाराणसी से पार्टी विधायकों और कार्यकर्ताओं की सभा में भाषण देने लखनउ गये। अब वह गैर कांग्रेस सरकारों, कम से कम उत्तर प्रदेश की सरकार से उम्मीद हारने लगे थे। मार्च में जब उन्होंने चरणसिंह के संयुक्त विधायक दल में सामिल होने की बात सुनी तो उनके उत्साह और खुशी का कोई ठिकाना नहीं था और अपने स्वाभाविक अतिरेक में उन्होंने चरणसिंह की तारीफ के पुल बाँध दिये। उन्होंने उम्मीद की थी कि चरणसिंह जैसा पिछड़े वर्ग का आदमी जमीन पर लगाना हटाने, हिन्दी में कामकाज शुरु करने आदि जैसे कार्यक्रमों से राज्य में तुरंत बदलाव की ताकतों को बढ़ावा देगा। पर उन्हें अपनी पार्टी के विधायकों से कम निराशा नहीं थी। मेरे ख्याल में उनसे वह ज्यादा ही निराश थे। उस सभा में उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि वह अपनी पार्टी के विधायकों से क्या उम्मीद करते हैं, क्या कदम पार्टी के विधायक उठायें। उन्होंने कहा था कि आगे देखूँ कानून के मामले में वे कांग्रेस के साथ भी मत देने तक जा सकते हैं। अगर उदाहरण के लिए कांग्रेस लगान का खात्मा करने के लिए संशोधन रखे तो उसका सर्मथन करने में कोई हिचक या क्लेश नहीं होना चाहिये।

एक बार उन्होंने कहा था कि वह अच्छे काम के लिए शैतान के साथ भी मत देंगे। हालाँकि शैतान का इरादा उसके स्वाभाव के कारण शैतानियत का ही होगा। वह काम और नतीजे को महत्व देते थे। वह कभी इरादे ढूँढ़ निकालने की कोशिश न करते। काम और काम ही उनकी राजनीति की आधारशिला था।

हम दिल्ली लौट आये, अब काफी गरमी पड़ने लगी थी। वह बहुत मेहनत कर रहे थे और उनकी तबियत भी अच्छी नहीं रहती थी, पर भाषण देना, लिखना और असंख्य मुलाकातियों से मिलना और बातचीत करना जारी था। मेरे जानते वही अकेले नेता थे जो एक साथ ही जीवन का आन्नद भी लेते रहते थे - हँसते हुए, चिढ़ाते हुए, तरह तरह के काम करते हुए, ऐसे काम जो राजनीति के दायरे में नहीं आते।

गरमियों के उन दिनों में मैंने बहुत हिचकिचाते हुए कहा कि मैं एक रूम कूलर लेना चाहती हूँ। "माफ करो, मेरे कमरे के लिए नहीं। यह सुख सुविधाएँ मेरे लिए नहीं हैं हालाँकि इससे मुझे काम करने में ज्यादा मदद मिलेगी। नहीं, कतई नहीं।"

इससे काफी पहले जब वह पहली बार संसद के सदस्य चुने गये तो उनके कुछ दोस्तों ने उन्हें मोटर खरीद देने की बात रही। मोटर का आर्डर भी दे दिया गया। मैं मोटर देख कर आई और उन्हें बताया। उस बार वह नाराज नहीं हुए थे। उन्होंने मुझे बिठाया और मोटर के खर्च का अन्दाज लगाने लगे औेर फ़िर विजयोल्लास में कहा "टेक्सी सस्ती रहेगी"। उन्होंने इस संभावना की भी गवेषणा की कि ऐसे ६-७ दोस्त हो सकते हैं जो उन्हें एक महीने में चार बार मोटर देंगे, इस तरह २८ दिन मोटर वाले हो जायेंगे। पर वह एक दोस्त ही जुटा पाये और उसकी मोटर भी नियमित नहीं आ पायी। पैसों की बरबादी के बारे में वह बहुत ज्यादा आगाह रहते थे। जनता के बीच जो कहते उसी को हमेशा सबसे पहले अपने उपर लागू करते।

जुलाई के आरम्भ में इंजेक्शनों का कोर्स खत्म करने के बाद अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान में सर्जन ने उनकी फ़िर जाँच की। इस बार सर्जन की राय थी कि आपरेशन के सिवाय कोई चारा नहीं। यही नहीं, जितना जल्दी किया जाये उतना अच्छा। नहीं तो जिस तरह की ज़िन्दगी वह जीते हैं, जिसने देहातों में जाना होता है, उसमें नाना प्रकार की पेचदगियाँ पैदा हो सकती हैं, और काफ़ी पीड़ा और असुविधा हो सकती है। आपरेशन का ख्याल उन्हें खराब लगता था, वह सिद्धांततः इसके खिलाफ़ थे। आपरेशन के खयाल से ही उन्हें अरुचि थी। मैंने उनसे पूछा क्या वह छुरे से डरते हैं? यह सवाल मैंने ऐसे आदमी से किया था जिसे ज़िन्दगी में किसी तरह के डर का अहसास नहीं था. उन्होंने कहा कि "ऐसा नहीं है"।

वह चुप हो गये तो मैंने कहा क्या इसका हिंसा अहिँसा से तालुक है। उनका मुख स्नेह की अपूर्व मुस्कान में खिल गया। "तुमने बात ठीक पकड़ी। यह चीरने फाड़ने की बात मुझे पसन्द नहीं आती। मुझे समझ में नहीं आता तुम लोग किस तरह मुर्गी, मछली और जीवित जानवर खाते हो और फ़िर चटखारे भी भरते हो।" उन्हें पेड़ों की शाखाएँ काटना भी कभी नहीं भाया। बहुत दफ़े उन्होंने मुझसे शिकायत की कि माली डालें काट देता है। मैं उनसे कहा करती कि यह पेड़ों के भले के वास्ते है, काँट छाँट से वे बढ़ते हैं। "अगर तुम्हारे हाथ पाँव काट दिये जायें तो तुम्हें कैसा लगे।" आप की यह तुलना सही नहीं है, मैं कहती। जीवित प्राणी के प्रति किसी भी तरह की निर्ममता उनके स्वाभाव के प्रतिकूल थी। वही अकेले आदमी थे, जिन्होंने हिँसा को ले कर जान और माल के बीच फरक किया। माल इस देश में ज़्याद रक्षणीय रहा है, वह व्यंग में कहते, मनुष्य तो मक्खियों की तरह है सो उसके मरने की किसी को क्यों परवाह हो।

एक रात शायद अगस्त का महीना था, उन्होंने अपना हाथ मेरे आगे फैला दिया और कहा हाथ देखो। मैंने हाथ देखते हुए कहा, "आप प्रधान मंत्री नहीं बनोगे"। "तुम क्या सोचती हो मैं प्रधानमंत्रित्व की कामना करता हूँ, बस यह बताओ कि मैं क्या देश का भला, सही मायने में भला कर सकता हूँ। क्या लोग मेरी बात सुनेंगे और काम करेंगे?" इसके बाद फ़िर, "क्या जो होगा वह हिँसक होगा?", मैंने कहा, "कुछ न कुछ हो कर रहेगा। आप का आयुष्य दीर्घ है और सत्तर बरस तक जीयेंगे।" "केवल सत्तर, कुछ और बरस तो दो।"

विरोधी दलों और अपनी पार्टी पर से विश्वास उठने पर भी जनता में उनका विश्वास कभी नहीं डिगा। किस तरह जनता को, जो दो हज़ार साल से भी अधिक पशुओं जैसा जीवन जीती आ रही है, उठाया जाये, जगाया जाये। किस तरह जाति व्यवस्था का घृण्य प्रभाव दूर किया जाये. "तुम इतिहास की कैसी विद्यार्थी हो। क्या तुम्हें हमारे इतिहास की इस सचाई की पड़ताल करने की इच्छा नहीं होती। क्या हमारे प्रसिद्ध इतिहासकारों में एक भी आदमी ऐसा नहीं है जो हमारे इतिहास के बारे में वास्तविक अनुसंधान करे। एक नहीं तो इतिहासकारों की टीम ही सही। क्यों विदेशी शासन के आगे हमने बार बार आत्मसमर्पण किया। विश्व के इतिहास में इस तरह की कोई मिसाल नहीं।"

उन दिनों वह पूर्व जर्मनी के हाले स्थित मारटिन लूथर विश्वविद्यालय से मारटिन लूथर की ४५०वीं बरसी पर पूर्व जर्मनी आने का निमंत्रण पा कर उत्साहित थे। उनका उत्साह बढ़ रहा था। निमंत्रण पत्र अगस्त में उस दिन आया जिस दिन वह दिल्ली से कहीं दौरे पर जा रहे थे। "तुम क्या समझती हो, मुझे क्यों निमत्रित किया गया है। क्यों हमेशा निमंत्रण पूर्व जर्मनी से आता है, पश्चिमी जर्मनी से नहीं। तुम्हें पता है छात्रावस्था में मैंने एक बार हाले की एक सभा में भाषण दिया था. पौन घँटे के भाषण में २० बार तालियाँ बजी थीं। यूरोप के लोग तालियाँ बजाना जानते हैं। हम एशियाइयों की तरह मरी मरी ताली नहीं बजाते। अरे हमें तो ताली बजाना भी नहीं आता।" निमंत्रण से उनकी तबियत रंग पकड़ रही थी। "पूर्वी जर्मन साम्यवादियों से प्रोटेस्टैंट वाद पर बात करने में गजब का मजा आयेगा। आखिर मुझसे बड़ा प्रोटेस्टैंट है कौन। यहाँ पर मैं उस दिन कृष्ण पर बोला, वहाँ मैं लूथर पर बोलूँगा।"

दौरे से लौटने पर उन्होंने सबसे पहले पूछा कोई और उत्तर आया? "शायद वह नहीं चाहते कि मैं बोलूँ। मैं निमंत्रित अतिथि की हैसियत से वहाँ नहीं जाना चाहता। मैं बहस में भाग लेने ही जाउँगा।"

पटना, दंगाग्रस्त रांची और अन्य स्थानों का दौरा करने के बाद वह लौटे थे। वह जयप्रकाश से भी मिले थे। मैंने पूछा जे.पी. से क्या बातचीत हुई? "इस तरह की बातचीतों से कुछ होता है, हमारे देश में कुछ भी होता है क्या?" पर आखिर आप उनके साथ कई घँटे थे, आप दोनो ने एक दूसरे के चेहरे को ही तो नहीं देखा होगा और केवल मौसम के बारे में ही बातचीत नहीं की होगी। "हाँ हमने बातचीत की। जयप्रकाश ने एक लम्बा कार्यक्रम बनाया है जिसे बिहार सरकार को अमल में लाना चाहिये।" मैंने उनसे कहा बिखरे कार्यक्रम के बजाय सरकार को एक एक मामला, जैसे लगान का, लेना चाहिये और उस पर पूरी दृढ़ता से काम करना चाहिये। इसके बाद उन्होंने आन्दोलन की बात तिरस्कार व अवहेलनात्मक ढंग से कही, मुझे इस पर गुस्सा आया और मैंने उन्हें कहा, "देखो जयप्रकाश, मुझे भी आन्दोलन की खातिर आन्दोलन करना पसन्द नहीं और न ही जेल जाना पर ऐसी मजबूरियाँ होती हैं कि आन्दोलन जरूरी हो जाता है। उनके सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं रहता। तुम कभी जेल नहीं गये हो", इस पर उन्होंने मेरी ओर आँखें चढ़ा कर देखा तो मैंने जोड़ा, "आजादी के बाद"! जयप्रकाश से यही मेरी बातचीत हुई। इस निकम्मे देश में कुछ भी नहीं होता।"

उन दिनों उनसे मिलने तरह तरह के बहुत से व्यक्ति, कांग्रेसी, साम्यवादी, स्वतंत्र, सब आया करते थे। एक बार वह लोकसभा के अध्यक्ष श्री संजीव रेड्डी के यहाँ रात दावत पर गये थे. दावत में वही अकेले मेहमान थे. मैंने दावत के बारे में और क्या बातचीत हुई, पूछा तो अनूत्साहित स्वर में उन्होंने कहा।

"एक गैर कांग्रेसी केन्द्र हो सकता था। दोनो किस्म के साम्यवादियों, जनसंघी और स्वतंत्र दल जैसे हैं, उन्हें देखते हुए मैं संजीव रेड्डी को क्या आश्वासन दे सकता था था कि मैं एक गैर कांग्रसी मिली जुली सरकार बना सकूँगा।"

अब उन्हें आपरेशन की जल्दी पड़ी थी क्योंकि डाक्टरों की यही सलाह थी। एक बार किसी बात को मान लेने पर उन्हें देर बरदाश्त नहीं होती थी। वह मुझे बार बार आपरेशन की तारीख तय करने को कहते। उनकी तबियत ठीक नहीं थी और वह जल्द चंगा होना चाहते थे, उन्हें बहुत कुछ करना था, विदेश जाना था और न जाने क्या क्या करना था। इस बात पर काफी बहस होती रही कि आपरेशन कहाँ हो और उसे कौन करे। जब वह कलकत्ता जा रहे थे तब मैंने कहा कि आप वहाँ किसी सरजन से जाँच कराना। "तुम जानती हो यह डाक्टर और सरजन कैसे एक दूसरे की बात को काटते हैं, और अपनी काटवाली बातों से आदमी को घपले में डाल देते हैं।" उनकी राय थी कि आपरेशन दिल्ली में हो या लखनऊ में। लखनऊ पर उनका मन ज्यादा था, क्योंकि उनका ख्याल था कि वहाँ आराम ज्यादा होगा। आखिर में उन्होंने विलिंगडन अस्पताल चुना। क्रूर नियति ही की बात है कि उन्हें विलिन्घडन अस्पताल के सुपरिन्टेडेंट ब्रिगेडियर लाल पर जबरदस्त भरोसा था। इससे पहले उन्होंने ब्रिगेडियर लाल को चाय पर बुलाया था और मुझे चेतावनी दी थी मैं उनसे उनके स्वास्थ्य की बात न करूँ। वह लाल को बहुत बड़ा डाक्टर मानते थे क्योंकि लाल ने एक बार हमारे एक कार्यकर्ता की जान बचायी थी। डा. साहब का स्वभाव अत्यंत उदार था और तारीफ़ व निन्दा दोनो में ही वह कंजूस न थे।

२८ सितम्बर को वह अस्पताल में दाखिल हुए, ३० को आपरेशन हुआ और ११ अक्टूबर को मध्य रात्री के थोड़ी देर बाद मृत्यू। वह हमेशा सफाई, सुथराई के कायल थे। अस्पताल आने पर उन्होंने बिस्तर की चादर देखी कि वह साफ़ है या नहीं। उन्होंने कहा कि मैं घर से तौलिये ले आऊँ पर हमें लगा कि घर के तौलिये स्वच्छता की दृष्टि से निर्दोष और निरापद नहीं रहेंगे, शायद उनसे छूत लगे। पर हुआ यह कि उनकी मृत्यू एक ऐसे घातक दोष से हुई जो ओज़ारों को निर्दोष करने की कमी के कारण छूत से पैदा हुआ। आपरेशन के मौके पर उन्होंने आपरेशन के बारे में फ़िर से पूछताछ की कि वह किस तरह होगा और कैसे होगा। जीवन में हर बात में उनका आग्रह तह तक जाने का था। इसके बाद उन्होंने कहा, "हंसी की बात है कि इस उमर में भी मुझे पता नहीं मेरा खून किस वर्ग का है।" जब मैंने कहा कि यह जानना कोई जरूरी नहीं, तो उन्होंने झिड़कते हुए कहा, "तुम्हारा पक्का एशियाई दिमाग है। हर यूरोप अमरीका वाला अपने रक्त का वर्ग जानता है।" मुझे इस पर एक घटना याद हो आयी। एक बार हमारे रसोईये ने माली को यह कह कर रसोई में नहीं घुसने दिया कि वह छोटी जात का है। जब उन्होंने यह बात सुनी तो रसोईये को बुलाया और इनसाइक्लोपीडिया की जिल्द निकाली और चित्रों के माध्यम से बड़े धीरज से रक्त रहस्य बताया - रक्त जाति से निर्धारित नहीं होता वरन उसके अंतर्निहित तत्वों से. इसके बाद रसोई बनाने वाले इस लड़के ने फिर कभी जाति की बात नहीं उठायी।

अपनी सक्षिप्त बीमारी के दौरान जब वह मौत से जूझ रहे थे मैंने देखा कि उनके दिमाग पर दो बोझ थे। इनमें अव्वल देश की हालत थी। बार बार भयानक पीड़ा और कराह में वह लगान के खात्मे, हिन्दु मुसलिम एकता, गरीब किसानों की दुर्दशा, भाषा तथा अन्य मामलों के बारे में बोलने लगते। मेरे खयाल में वह कभी भी पूरी तरह बड़बड़ाने या संज्ञाशून्य होने की स्थिति में नहीं थे। अपने आसपास के प्रति वह जागरूक दीखते थे। हममें से कुछ को उन्होंने हमेशा पहचाना - स्पर्श से या आवाज़ सुन कर या आँखें खोल कर। एक बार उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और कहा, "बताओ, तुम मुझसे कभी झूठ नहीं बोलोगी - क्या हमारे देश में कोई बड़ी चीज़ हो रही है?" "यह पहला रिहर्सल है" - इसके बाद वह भारत पाक महासंघ की बात कहने लगे। हालांकि जब वे अस्पताल में दाखिल हुए तब उनको आसन्न मृत्यु का कोई आभास नहीं था पर शायद जब उनकी हालत खतरनाक हो गयी तो उन्हें लगा कि समय बीता जा रहा है। लिहाजा देश के भवितव्य को ले कर उनकी चिंता व क्लेश मुखर हो उठा। दूसरी बात यह दीख पड़ी कि उन्हें ऐसा लगा कि उनके शरीर में कहीं कोई भारी गड़बड़ हो गयी है। इतने ज्यादा डाक्टरों का जमा होना उन्हें जताता रहा कि वह कितने ज्यादा बीमार हैं। बार बार वह इतने ज्यादा डाक्टरों की मौजूदगी की चर्चा करते रहे, "इतने डाक्टरों का होना अच्छा नहीं"।

वह इतनी पीड़ा पा रहे थे और जबरदस्त बेचैनी थी, पर इसके बावजूद कभी पीड़ा में चिल्लाते हुए मैंने उन्हें नहीं देखा। बीमारी के दौरान मैं लगभग सारे समय उनके साथ थी। हमें इस बात का कभी पता नहीं लगेगा कि वह किस तरह और क्यों मरे? केवल मृत्यु के वक्त उनके चेहरे पर शांति विराज रही थी हालांकि भौंहें तनी थीं. उनके प्रिय चेहरे की यह परीचित भृकुटि थी।

क्या यह महज संयोग है कि जब वह बीमार पड़े थे और मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे तभी गैरकांग्रेसवाद पर जबरदस्त प्रहार शुरु हुआ? कौन जानता है? गैरकांग्रेसवाद के जनक की मृत्यु के बाद एक एक कर गैरकांग्रेसी राज्य ढहने लगे। दिल्ली में मार्च अप्रैल के दौरान जब गैरकांग्रेसी सरकारें बन रहीं थीं एक चुटकला चालू था. इस चुटकले पर वह बाग बाग हो उठते - अमृतसर से हावड़ा तक गैरकांग्रेस राज्यों का बोलबाला है, बीच में कहीं कांग्रेसी इलाका नहीं आता। अब यह बात नहीं रही।

इस साल जाड़ा बड़ा सख्त था और बेहद लम्बा चला। दिल्ली की सरदी उन्हें बरदाश्त नहीं होती थी। अक्सर मुझे कहा करते "जाड़े में मुझे दिल्ली मत रहने दिया करो।" आग के आगे बैठने में उन्हें आनन्द आता। बिजली का हीटर भी रहता था, पर अपनी वैज्ञानिक भंगिमा में वह बतलाते कि किस प्रकार जलता हुआ काठ सारे घर को गरमा देता है। उन्हें उष्णता प्यारी थी, शायद भारतीय राजनीति में उन जितना कोई स्नेही नहीं था। अब डाक्टर साहब नहीं रह गये, अपने साथ वह सारा स्नेह और ममत्व ले गये हैं, और मेरी दुनिया निस्तेज, उदास और खोखली रह गयी है।

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टिप्पणी: मुझे रमा मित्र की कोई तस्वीर नहीं मिली. नीचे वाली तस्वीर १९४९-५० की है, इसमें नीचे मेरी माँ जो उस समय कमला दीवान होती थीं, वह बैठी हैं. उनके पीछे शायद रमा जी हैं, पर पक्का नहीं कह सकता. बीच में खड़े डा. लोहिया भी हैं.

Dr Ram Manohar Lohia, Rama Mitra and Kamala Deepak, 1949


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रविवार, दिसंबर 27, 2015

सिँधू घाटी से यूरोप तक भाषा की यात्रा

सँस्कृत तथा उससे जुड़ी विभिन्न भारतीय भाषाओं को इँडोयूरोपी (Indo-European) भाषाओं में गिना जाता है. यह सब भाषाएँ एक ही भाषा-परिवार का हिस्सा है जो पूर्व में भारत से ले कर पश्चिम में यूरोप तक जाता है. विश्व में चार सौ से अधिक इँडोयूरोपी भाषाओं को पहचाना गया है. इन इँडोयूरोपी भाषाओं की मूल स्रोत भाषा कहाँ से उपजी और शुरु हुई, विश्व में कैसे फ़ैली तथा भारत में कैसे आयी, इस विषय पर कैनेडा के एक लेखक श्री विम बोर्सबूम (Wim Borsboom) ने एक नया विचार रखा है. उनके अनुसार इँडोयूरोपी भाषाओं का स्रोत उत्तर पश्चिमी भारत में सिँधू घाटी में था और यह वहाँ से यूरोप तक फ़ैली. इस आलेख में उन्हीं के कुछ विचारों की चर्चा है.

विम बोर्सबूम से मेरा परिचय कुछ माह पहले मेरी एक इतालवी मित्र, क्रिस्टीना ने कराया. उसने मुझे कहा कि विम ने इँडोयुरोपी भाषाओं के बारे में एक किताब लिखी है और इस किताब के सिलसिले में वह भारत में दौरे का कार्यक्रम बना रहे हैं, और उन्हें कुछ सहायता की आवश्यकता है. विम चाहते थे कि विभिन्न भारतीय शहरों में विश्वविद्यालयों, संग्रहालयों तथा साँस्कृतिक संस्थानों आदि के साथ जुड़ कर उनकी किताब के विषय पर चर्चाएँ आयोजित की जायें. मैंने विम को बताया कि मैं गुवाहाटी में रहता हूँ, वह यहाँ आना चाहें तो मैं यहाँ के विश्वविद्यालय तथा साँस्कृतिक कार्यों से जुड़े व्यक्तियों से बात कर सकता हूँ. लेकिन विम ने कहा कि उनके कार्यक्रम में गुवाहाटी आना नहीं था.

आजकल विम भारत में हैं. कई शहरों में उनकी किताब से सम्बँधित कार्यक्रम भी आयोजित हुए हैं. फेसबुक के माध्यम से मिले समाचारों से लगता है कि उन्हें सफलता भी मिली है. तो मुझे लगा कि उनके विचारों के बारे में लिखना चाहिये.

इँडोयूरोपी भाषाओं पर भारत में बहसें

संस्कृत कहाँ से आयी तथा संस्कृत भाषी कहाँ से भारत आये, इस विषय पर भारत में बहुत से विवाद तथा बहसे हैं. यह बहसें आजकल के राजनीतिक वातावरण से जुड़ी बहसों का हिस्सा बन गयी हैं इसलिए उनमें किसी एक का पक्ष लेना खतरे से खाली नहीं. भाषा की बात से अन्य कई प्रश्न जुड़ गये हैं जैसे कि मूल भारतीय कौन हैं और कहाँ से आये. इसकी बहस में लोग सरलता से उत्तेजित हो जाते हैं.

संस्कृत तथा उससे जुड़ी अन्य भारतीय भाषाओं, ईरान की फारसी भाषा तथा युरोप की विभिन्न भाषाओं के शब्दों के बीच बहुत सी समानताएँ हैं. इन समानताओं के बारे में सोलहवीं शताब्दी से ही लिखा जा रहा था और कई लोगों ने इन भाषाओं के एक ही मूल स्रोत से प्रारम्भ होने की बात सोची थी. सन् 1813 में ब्रिटन के थोमस यँग ने पहली बार इन सभी भाषाओं के लिए "इँडोयूरोपी भाषाएँ" शब्द का प्रयोग किया. उनके कुछ दशक बाद जर्मनी के भाषाविद्वान फ्रैंज बोप्प ने अपनी पुस्तक "तुलनात्मक व्याकरण" में विभिन्न इँडोयूरोपी भाषाओं के शब्दों की गहराई से तुलना कर के इस विचार को वैज्ञानिक मान्यता दिलवायी. इस तरह से उन्नीसवीं शताब्दी में भाषाविज्ञान पढ़ने वालों में  "एक ही स्रोत से निकलने वाली इँडोयूरोपी भाषाओं" के सिद्धांत को स्वीकृति मिली.

एक बार इस बात को मान लिया गया कि पश्चिमी युरोप से ले कर, ईरान होते हुए भारत तक, वहाँ के रहने वालों की भाषाओं में समानताएँ थीं तो इससे "मूल स्थान" की बहसे शुरु हुईं. इन भाषाओं को बोलने वाले लोग पूर्वातिहासिक काल में कभी एक ही स्थान पर रहने वाले लोग थे जो वहाँ से विभिन्न दिशाओं में फ़ैले, तो प्रश्न था कि वह मूल स्थान कहाँ हो सकता था?

बीसवीं शताब्दी में इँडोयूरोपी भाषाओं की इस बहस में सिँधु घाटी की सभ्यता (Indus valley civilisation) की एक अन्य बहस जुड़ गयी. 1920-21 में भारतीय पुरात्तव सर्वे सोसाइटी ने हड़प्पा तथा मोहन‍जो‍दड़ो के ईसा से तीन-चार हजार वर्ष पूर्व के भग्नावषेशों की खोज की. इन्हें "सिँधु घाटी सभ्यता" का नाम दिया गया.  भग्नावशेषों की पुरातत्व जाँच से विषशेषज्ञों का विचार था कि ईसा से सत्रह-अठारह सौ वर्ष पहले थोड़े समय में यह सभ्यता कमज़ोर होने लगी और फ़िर लुप्त हो गयी.

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1953 में ब्रिटेन के पुरातत्व विशेषज्ञ मोर्टिमर व्हीलर ने मोहन‍जो‍दड़ो-हड़प्पा की अपने शौध के आधार पर यह विचार रखा कि सिँधु घाटी की सभ्यता के कमज़ोर व लुप्त होने का कारण उत्तर पश्चिम दिशा से आने वाले लोग थे जिन्होंने सिधु घाटी के निवासियों पर आक्रमण किया, तथा उनके शहरों को नष्ट किया. इस हमले का प्रमाण था वहाँ से मिले कुछ मानव कँकाल जिन पर व्हीलर के अनुसार चोट के निशान थे, यानि वह युद्ध में मरे थे. उनका यह भी विचार था कि उत्तर पश्चिम से आने वाले लोग "आर्य" थे, जो कि सिँधू घाटी की सभ्यता को नष्ट करके आर्य सभ्यता को उत्तरी भारत में लाये.

सिँधु घाटी की सभ्यता के नष्ट होने तथा आर्यों के भारत में आ कर बसने के विचारों से, इँडोयुरोपी भाषाएँ कैसे बनी व फ़ैलीं, के प्रश्नों के उत्तर भी स्वाभाविक लगे. यह माना जाने लगा कि इँडोयूरोपी मूल भाषा बोलने वाले लोग ईरान की तरफ़ से सिँधू घाटी में आये, फ़िर वहाँ से स्वयं को आर्य कहने वाले यह लोग उत्तर पश्चिमी भारत बस गये. इस तरह से संस्कृत तथा उससे निकली भाषाएँ पूरे भारत महाद्वीप में फ़ैलीं.

1956 में लिथुआनिया में जन्मी, अमरीकी पुरात्तववैज्ञानिक सुश्री मारिया गिमबूटाज़ ने मध्य यूरोप के अपने शौध में पुरात्तवविज्ञान तथा भाषाविज्ञान की विधियों को साथ जोड़ कर "क्रूगन विचारधारा" की धारणा रखी, जिसके अनुसार इँडोयूरोपी भाषा बोलने वालों का मूल स्थान पूर्वी तुर्की के अनातोलिया तथा काले सागर के युक्रेन, ज्रोजिया जैसे देशों के हिस्से वाले मध्य यूरोप में था. उनका कहना था कि मध्य यूरोप से, ईसा से 4000 से 1000 वर्ष पहले के समय में, यह लोग पहले ईरान और फ़िर बाद में पश्चिमी भारत की ओर फ़ैले.

इस तरह से इस प्रश्न का उत्तर मिला कि संस्कृत तथा इन्डोयूरोपी भाषाएँ कहाँ से उपजी और कैसे फ़ैलीं तथा इन धारणाओं को विश्व भर में मान्याएँ मिलीं. लेकिन भारत में राष्ट्रवादियों ने इस धारणा पर कई प्रश्न उठाये. यह कहना कि आर्य मध्य यूरोप या ईरान से भारत आये थे, वेद पुराणों की संस्कृति को "विदेशी संस्कृति" बना देता था.

जब पुरात्तवविज्ञान की तकनीकी में तरक्की हुई तो व्हीलर के आर्य आक्रमण के विचारों को गलत माना गया क्योंकि जाँच से मालूम चला कि उन कँकालों पर चोट के निशान नहीं थे बल्कि वह केवल समय बीतने के कारण ऐसा लग रहा था. सिंधु घाटी की सभ्यता के समाप्त होने का कारण अब वहाँ सूखा पड़ना तथा पानी की कमी होना माना जाता है. आज अधिकतर पुरातत्वविद "आर्यों के आक्रमण" के बदले "सूखे तथा पानी की कमी" को सिँधू घाटी की सभ्यता के लुप्त होने का कारण स्वीकारते हैं.

क्रूगर विचारधारा तथा उससे मिलती जुलती विचारधाराओं की सोच को बहुत से लोगों ने स्वीकारा है, लेकिन कई लोग इस बात से सहमत नहीं. इन विचारों से सहमत या असहमत होने वाली बहस को "वामपँथी इतिहासकार" और "रूढ़िवादी विचारों वाले" लोगों की बहस  का रूप मिला है. इस बहस का केन्द्र है यह साबित करना कि आर्य बाहर से आये थे या पहले से भारत में रहते थे, क्योंकि इससे साबित किया जायेगा कि आर्य असली भारतीय हैं या नहीं.

भारत की स्वतंत्रता के बाद, पिछले पचास साठ सालों में सिँधु घाटी सभ्यता के बहुत से अन्य भग्नावषेश मिले हैं, जो कि पूर्व में हरियाणा से ले कर पश्चिम में अफगानिस्तान तक फ़ैले हैं. इन में कुछ भग्नावषेश ईसा से सात-आठ हज़ार वर्ष पहले के हैं. इसके साथ साथ पुरात्तव तथा जीवविज्ञान सम्बँधी नयी वैज्ञानिक तकनीकें खोजी गयीं हैं जिनसे सिँधू घाटी से जुड़े प्रश्नों के नये उत्तर मिलने की सम्भावना बढ़ी है.

उदाहरण के लिए, 2013 में भारतीय जीनोम शौध के बारे में समाचार आया जिसमें हैदराबाद के सैंटर फॉर सेलूलर एँड मोलिक्यूलर बायोलोजी (Centre for Cellular and Molecular Biology - CCMB) में भारत के विभिन्न हिस्सों से 25,000 लोगों के खून में माइटोकोन्ड्रियल डीएनए (Mitochondrial DNA) की जाँच की गयी. इसके अनुसार ईसा से करीब चार हज़ार वर्ष पहले भारत में यूरोपीय मूल तथा पहले से भारत में रहने वालों लोगों के बीच सम्मश्रिण हुआ, जबकि भारतीय समाज का विभिन्न जातियों तथा वर्णों में विभाजन बहुत बाद में हुआ. इस शौध का यह अर्थ नहीं कि यूरोपी मूल के लोग चाह हज़ार वर्ष पहले भारत आये, क्योंकि उनके डीएनए की जाँच से मालूम चलता है कि वह अन्य यूरोपी लोगों से करीब बारह हज़ार वर्ष पहले अलग हुए थे. लेकिन यह तो इस तरह के शौधों का केवल एक उदाहरण है. पिछले वर्षों में जिनोम (Genome) से जुड़े बहुत से शौधों के नतीजे आये हैं जिनसे स्पष्ट एक दिशा में उत्तर नहीं मिलते, इसलिए किसी एक शौध पर विचार आधारित करना सही नहीं.

विम बोर्सबूम के आलेख तथा विचारधारा

विम का विचार है कि ईसा से नौ हज़ार साल पहले से ले कर तीन हज़ार साल पहले के समय में सिँधु घाटी में कई प्राकृतिक दुर्घटनाएँ घटीं जिनसे वहाँ के लोगों में कुष्ठ रोग तथा यक्ष्मा जैसी बीमारियाँ फ़ैलीं. इस सब की वजह से वहाँ के लोग धीरे धीरे सिँधू घाटी को छोड़ कर विभिन्न दिशाओं में निकल पड़े. सिँधु घाटी के लोगों के इस तरह अलग अलग जगहों पर जाने से तथा वहाँ के लोगों के मिलने से, उनकी भाषा भी विभिन्न दिशाओं में समुद्री नावों तथा जहाज़ों के माध्यम से फैली, इस तरह से दुनिया में इँडोयूरोपी भाषाओं की नीव पड़ी.

इस विचार को उन्होंने अपने 2013 के आलेख, "नवपाषाण तथा मध्यपाषाण युग में सिँधु घाटी से उत्तर व दक्षिण भारत तथा अन्य दिशाओं में प्रस्थान" में व्याखित किया था.

जैसा कि उपर भारतीय जीनोम शौध के बारे में लिखा है, पिछले दशक में मानव डीएनए तथा जिनोम से जुड़ी तकनीकी के प्रयोग से आदिमानव कहाँ से निकल कर कहाँ गया, वैज्ञानिकों की यह समझने की शक्ति बढ़ी है. इस शौध में माइटोकोन्ड्रियल डीएनए की जाँच की जाती है जोकि केवल बेटी को माँ से मिलता है, और उसमें प्राचीन डीएनए का इतिहास खोजना अधिक आसान होता है. इस तरह से हम यह जान सकते हैं कि वह डीएनए लोगों में किस तरह से फ़ैला तथा उसमें कितनी भिन्नता आयीं, और किस एतिहासिक समय में आयीं. इन जीव वैज्ञानिक शौध तकनीकों को पुरातत्व की नयी तकनीकों से जोड़ कर, हम इतिहास को एक नये दृष्टिकोण से देखने व समझने की कोशिश कर सकते हैं.

अपनी नयी किताब "अल्फाबेट टू आबराकाडबरा" (Alphabet to Abracadabra)  में, विम अपने 2013 के आलेख में व्याखित बातों में, भाषाविज्ञान शौध की नयी समझ को जोड़ कर देखते हैं. इस पुस्तक में उनका विचार हैं कि अंग्रजी के अल्फाबेट (A, B, C, D ...) यानि वर्णमाला की संरचना, पाणिनी की संस्कृत की वर्णमाला से बहुत मिलती है, यानि जब सिँधू घाटी से लोग पश्चिमी यूरोप में विभिन्न जगहों पर पहुँचे तो अपने साथ आदि-संस्कृत वर्णमाला को भी साथ ले कर गये.

विम की बात में कितनी विश्वासनीयता है?

विम ने अपना कार्यजीवन फाउँडरी में मेकेनिक के रूप में शुरु किया. फ़िर उन्होंने अपनी पढ़ाई शिक्षण के क्षेत्र में की और विद्यालय स्तर पर पढ़ाया. पच्चीस साल पहले, वहाँ से वह कम्प्यूटर तथा तकनीकी के क्षेत्र में गये और कम्प्यूटर शिक्षा में काम किया. साथ ही भारत की आध्यात्मिक सोच, योग आदि से भी वह प्रभावित रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में सेवानिवृत होने के बाद, वह भारतीय पुरात्तव तथा सिँधु घाटी सभ्यता से जुड़े विषयों की शौध में रुचि ले रहे हैं. इस तरह से उन्हें बहुमुखी प्रतिभा भी कह सकते हैं.

साथ ही मन में कुछ दुविधा उठना स्वाभाविक है कि वह न तो पुरातत्व विशेषज्ञ हैं न ही भाषाविद्, तो यह शौध उन्होंने किस तरह किया और उनकी समझ में वैज्ञानिक दृष्टि किस हद तक है?

2013 का उनका आलेख माइटोकोन्ड्रियल डीएनए में एक हेप्लोग्रुप का संदर्भ देता है जोकि भारतीय मूल के लोगों में 13 से 16 प्रतिशत मिलता है, और जिसे वह उन सभी लोगों में खोजते हैं जहाँ नवपाषाण तथा मध्यपाषाण युग में 9000 से 3000 वर्ष पहले सिँधु घाटी से लोग गये होंगे. उनके आलेख में इन प्रमाणों का विवरण और उनका विशलेषण मुझे कुछ सतही सा लगा. छोटे से आलेख में शायद गहराई में जाना संभव नहीं था. यह नहीं समझ पाया कि क्या उनका यह आलेख किसी वैज्ञानिक जर्नल में छपा या नहीं? वह इसका संदर्भ नहीं देते. हालाँकि यह बात भी सच है कि वैज्ञानिक दायरों में कोई सही डिग्री न हो तो आप की बात को गम्भीरता से नहीं लिया जाता, चाहे आप सही कह रहे हों!

उनकी किताब पढ़ने का अभी मौका नहीं मिला है इसलिए कह नहीं सकता कि  उसमें उन्होंने अपने विचारों को कितना अधिक प्रभावशाली तरीके से व्याखित किया है और अपने विचारों के बारे में किस तरह के सबूत दिये हैं.

एक अन्य बात है उनके इन विचारों से जो मुझे स्पष्ट नहीं है. सिँधु घाटी की भाषा को भिन्न भाषा माना गया है, वहाँ मिली मौहरों की भाषा को अभी भी ठीक से नहीं समझा गया है. जहाँ तक मुझे मालूम है, सिँधु घाटी में संस्कृत से जुड़ा कोई प्रमाण भी नहीं मिला. तो यह कैसे मानें कि सिँधु घाटी में नवपाषाण युग में रहने वाले लोग ही संस्कृत की मूल भाषा को दुनिया के अन्य हिस्सों में ले कर गये? यह सच है कि मौहरों पर बने निशानों को भाषा मानना शायद सही नहीं और अगर प्राचीन ज्ञान बोलने वाली संस्कृति में स्मृति के रूप में सहेजा गया, तो इसके प्रमाण मिलना आसान नहीं.

मुझे व्यक्तिगत स्तर पर आर्य थे या नहीं थे, कहाँ से आये या नहीं आये, जैसी बातों में कोई भावनात्मक दिलचस्पी नहीं है. हाँ कोई तर्क से, सबूत दे कर ठीक से कुछ समझाये, यह अच्छा लगता है. इसलिए विम की बातें दिलचस्प तो लगती हैं, लेकिन उनसे मुझे अपने सारे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते! मेरे विचार में केवल यह सोचना कि बस इसकी या उसकी बात सही है, बाकी सब झूठ, गलत होगा. हमें हर नये शौध और विचार को खुले मन से जानना चाहिये तथा उसका विशलेषण करना चाहिये. कल नयी तकनीकें व नयी शौध विधियों से कछ अलग सोच मिलेगी तो शायद इन पुराने प्रश्नों को भी उत्तर मिलेगा.

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गुरुवार, अगस्त 06, 2015

एक अकेला बूढ़ा

भारत की जनसंख्या में बदलाव आ रहा है, बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है. अधिक व्यक्ति, अधिक उम्र तक जी रहे हैं. दूसरी ओर परिवारों का ध्रुविकरण हो रहा है. आधुनिक परिवार छोटे हैं और वह परिवार गाँवों तथा छोटे शहरों से अपने घरों को छोड़ कर दूसरे शहरों की ओर जा रहे हैं. जहाँ पहले विवाह के बाद माता पिता के साथ रहना सामान्य होता था, अब बहुत से नये दम्पत्ती अलग अपने घर में रहना चाहते हैं.

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कैसा जीवन होता है भारतीय वृद्धों का?

पिछले वर्ष मैं साठ का पूरा हुआ और सरकारी योजनाओं के लिए "वरिष्ठ नागरिक" हो गया. अपनी साठवीं वर्षगाँठ पर मैंने इटली में अपने परिवार से दूर, कुछ सालों के लिए भारत वापस आ कर अकेला रहने का निर्णय लिया.

मेरे अकेले रहने के निर्णय और भारत के आम वृद्ध व्यक्ति की स्थिति में बहुत दूरी है. यह आलेख बूढ़े होने, अकेलेपन, निस्सहाय महसूस करना, इन्हीं बातों पर मेरे व्यक्तिगत अनुभव को समाजिक परिवर्तन के साथ जोड़ कर देखने की कोशिश है.

इस आलेख की तस्वीरें गुवाहाटी के इस वर्ष के अम्बाबाशी मेले से बूढ़े साधू, साध्वियों और तीर्थ यात्रियों की हैं.

विवाह की वर्षगाँठ

पिछले रविवार को मेरे विवाह की तेंतिसवीं सालगिरह थी. उस दिन नींद सुबह के साढ़े तीन बजे ही खुल गयी. वैसे तो जल्दी उठने की आदत है मुझे, पर इतनी जल्दी नहीं. अधिकतर चार-साढ़े चार बजे के आसपास उठता हूँ. एक दिन पहले सोचा था कि इस बार की विवाह एनीवर्सरी को रोटी बना कर मनाऊँगा. काम से बाद घर वापस आते समय बाज़ार से आटा और बेलन दोनो खरीद कर ले आया था. शायद रोटी बनाने की चिन्ता या उत्सुकता ने ही जल्दी जगा दिया था?

मेरी पत्नी का फोन आया. "तुम विवाह की वर्षगाँठ मनाने के लिए क्या करोगो?", उसने पूछा. "रोटी बनाऊँगा", मैंने कहा तो वह हँसने लगी.

गुवाहाटी में रहते हुए करीब आठ महीने हो चुके हैं. सुबह क्या करना है, इसकी भी नियमित दिनचर्या सी बन गयी है. उठते ही, सबसे पहले शरीर के खुले हिस्सों पर मच्छरों से बचने वाली क्रीम लगाओ. फ़िर बल्ड प्रेशर की गोली खाओ. उसके बाद कॉफ़ी तथा नाश्ते का सीरियल बनाओ. जब तक कॉफ़ी पीने लायक ठँडी हो और कम्यूटर ओन हो तब तक थोड़ी वर्जिश करो.

सुबह उठ कर ध्यान करूँगा, यह कई महीनों से सोच रहा हूँ. लेकिन आँखें बन्द करके पाँच मिनट भी नहीं बैठ पाता हूँ. कहने को अकेला हूँ, समय की कमी नहीं होनी चाहिये, लेकिन ठीक से ध्यान करने के लिए समय निकालना अभी तक नहीं हो पाया. और भी बहुत सी बातें हैं जिनको करने के सपने देखे थे, पर जिन्हें करने का अभी तक समय नहीं खोज पाया - असमी बोलना सीखना, संगीत की शिक्षा लेना, चित्रकारी करना, नियमित रूप से लिखना, आदि.

सारा दिन तो काम में निकल जाता है. मैं यहाँ गुवाहाटी में एक गैर सरकारी संस्था "मोबिलिटी इँडिया" के लिए काम कर रहा हूँ.ऊपर से घर के काम अलग. कितनी भी कोशिश कर लूँ, उन्हें पूरा करना कठिन है. झाड़ू, पोचा, कपड़े धोना, बाज़ार जाना, खाना बनाना, बर्तन साफ़ करना, कपड़े प्रेस करना, मकड़ी के जाले हटाना, खिड़कियों के शीशे साफ़ करना, बिखरे कागज़ सम्भालना, कूड़ा फैंकना, और जाने क्या क्या! यह सब काम एक दिन में पूरे नहीं हो सकते. इसीलिए अभी तक टीवी भी नहीं खरीदा. सोचा कि वैसे ही समय नहीं मिलता, अगर टीवी देखने में लग गया तो बाकी के सब कामों को कौन करेगा?

भारत आने के बाद अकेला रहते रहते, धीरे धीरे सब खाना बनाना सीख चुका हूँ. बस अब तक कभी रोटी नहीं बनायी थी. मार्किट में बनी बनायी रोटियाँ मिलती हैं जिन्हें फ्रिज़र में रख सकते हैं और आवश्यकतानुसार गर्म कर सकते हैं. पर इधर दो-तीन बार मार्किट गया था लेकिन बनी बनायी रोटी नहीं मिली. दुकान में केवल पराँठे थे जो मुझसे ठीक से हज़म नहीं होते. फ़िर सोचा कि जिस तरह से बाकी सब खाना बनाना आ गया है तो रोटी बनाने में क्या मुश्किल होगी? बस इस शुरुआत के लिए किसी शुभ दिन की प्रतीक्षा थी. और विवाह की वर्षगाँठ से अच्छा शुभदिन कौन सा मिलता!

रविवार की सारी सुबह रसोई में गुज़री. रेडियो से गाने सुनता रहा और साथ साथ खाना बनाता रहा. जब थोड़ी गर्मी लगी, तो फ्रिज में ठँडी बियर इसीलिए रखी थी. शायद बियर का ही असर था कि जब कोई पुराना मनपसंद गाना आता तो खाना बनाते बनाते थोड़े नाच के ठुमके भी लगा लिए. जब कोई देख कर हँसने वाला न हो, तो जो मन में आये उसे करने से कौन रोकेगा?

तीन घँटों की मेहनत के बाद, उस दिन के खाने में केवल दाल ही सही बनी. रोटियाँ भी कुछ सूखी सूखी सी बनी थीं और आकार में ठीक से गोल भी नहीं थीं. पर अपनी मेहनत का बनाया खाना था, उसे बहुत आनन्द से खाया. मन को दिलासा दिया कि अगली बार रोटी भी अच्छी बनेगी!

यही सपना देखा था मैंने, भारत आ कर ऐसे ही रहने का. जहाँ तक हो सके, अपना हर छोटा बड़ा काम अपने आप करने का. जितना हो सके पैदल चलने का या सामान्य लोगों की तरह बस में यात्रा करने का.

वैसे सच में मेरा एक सपना यह भी था कि एक साल तक भगवा पहन कर, दाढ़ी बढ़ा कर, बिना पैसे के, भारत में इधर उधर भटकूँ. अगर कोई खाने को दे या सोने की जगह दे दे, तो ठीक, नहीं मिले तो भूखा ही रहूँ, सड़क के किनारे सो जाऊँ. पर जोगी बन कर जीने के उस सपने को जी पाने का साहस अभी तक नहीं जुटा पाया हूँ.

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यूरोप में रह कर आराम से जीना, काम के लिए विभिन्न देशों में घूमना, बड़े होटलों में तरह तरह के खाने खाना, सारा जीवन वैसे ही जिया था. इसीलिए मेरा सपना था कि भारत आ कर उस सब से भिन्न जीवन जियूँ. सपने देखना तो आसान है, सच में उन्हें जीना कठिन. सपनों में न मच्छर होते हैं, न गर्मी और उमस. पर मैंने जो सोचा था उसे मैं कर पाया. अब भी कभी कभी विश्वास नहीं होता कि मैं अपना सपना जी रहा हूँ.

वैसे गुवाहाटी में जिस तरह रहने का निर्णय लिया है, वह उतना कठिन नहीं है. यहाँ अम्बुबाशी के मेले में बहुत से बूढ़े साधू दिखे. सोचा कि खुले में रहने वाले यह वृद्ध लोग जब तबियत खराब हो तो क्या करते होंगे? शायद अन्य साधू ही उनका ख्याल करते होंगे? और बुखार हो या जोड़ों में दर्द हो तो खुले में गर्मी, सर्दी में बाहर रहना कितना कठिन होता होगा!

अकेला निस्सहाय बूढ़ा

रविवार को ही सुबह इंटरनेट पर एक नयी तमिल फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी थी, जिसका अकेला वृद्ध नायक अपने अकेलेपन से बचने के लिए दिल का दौरा पड़ने का बहाना करता है ताकि एम्बूलैंस के चिकित्साकर्मियों से ही कुछ बात कर सके. उसे पढ़ कर सोच रहा था कि मैं भी तो एक अकेला बूढ़ा हूँ, तो मुझमें और उन अन्य बूढ़ों में क्या अन्तर है जो जीवन के आखिरी पड़ाव में खुद को अकेला तथा निस्सहाय पाते हैं? मैं स्वयं को क्यों अकेला तथा निस्सहाय नहीं महसूस करता?

शायद सबसे बड़ा अन्तर है कि मैंने यह जीवन स्वयं चुना है. अगर मेरा गुवाहाटी में ट्राँसफर हो गया होता, मुझे यहाँ अकेले रहने आना पड़ता, तो मुझे भी यहाँ रहना भारी लगता. जब परिवार से दूर रहना पड़े, करीब में न कोई बात करने वाला हो, न कोई मित्र, तो वह अकेलापन सहन करना कठिन हो सकता है. पर जब इस तरह जीने का सपना देखा हो और सोच समझ कर यह निर्णय लिया हो कि मैं कुछ वर्षों तक ऐसे ही रहूँगा, तो जीवन की हर बात देखने की दृष्टि बदल जाती है. खाना बनाना, सफाई करना, बस की भीड़ में धक्के खाना, सब कुछ एक सपने का हिस्सा हैं, अपने आप से स्पर्धा हैं कि मैं यह कर सकता हूँ या नहीं. इसमें किसी की जबरदस्ती नहीं है.

यह भी सच है कि मैं यह जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं हूँ. जिस दिन चाहूँ, इसे छोड़ कर अपने पुराने जीवन में वापस जा सकता हूँ. बीच बीच कुछ दिनों के लिए यूरोप गया भी हूँ. अगर सामने कोई विकल्प न हो, केवल ऐसा ही जीने की मजबूरी हो तो शायद मुझे भी इससे डिप्रेशन हो जाये?

रिटायर होने में "अब समय का क्या करें" का भाव भी होता है. अचानक दिन लम्बे, निर्रथक और खाली हो जाते हैं. मेरे साथ यह बात भी नहीं. काम, किताबें पढ़ना, लिखना, इन्टरनेट, फोटोग्राफ़ी, जो सब कुछ मैं करना चाहता हूँ उसके लिए दिन थोड़े छोटे पड़ते हैं. लेकिन अगर आप ने अपना सारा जीवन अपने काम के आसपास लपेटा हो, और एक दिन अचानक वह काम न रहे, तो जीवन की धुरी ही नहीं रहती. लगता है कि हम किसी काम के नहीं रहे. औरतों पर तो फ़िर भी घर की ज़िम्मेदारी होती है, रिटायर हो कर भी वह उन्हीं की ज़िम्मेदारी रहती है. लेकिन मेरे विचार में सेवानिवृत पुरुषों को नया जीवन बनाना अधिक कठिन लगता है.

शायद बूढ़े होने में, निस्सहायता के भाव के पीछे सबसे बड़ी मजबूरी गरीबी या पैसा कम होने की है. और एक अन्य बड़ी बात शरीर के कमज़ोर होने तथा बीमारी की है. अगर अचानक कुछ बीमारी हो जाये, या शरीर के किसी हिस्से में दर्द होने लगे, या केवल बुखार ही आ जाये, तो शायद मैं भी वैसा ही निस्सहाय महसूस करूँगा!

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हमारे जीवन का अंत कैसे होना है, यह किसी को नहीं मालूम. कुछ दिन पहले जब भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम साहब का देहाँत हुआ तो मन में आया कि मृत्यू हो तो ऐसी, जीवन के अंतिम क्षण तक काम करते करते आने वाली. वह भी तो अकेले ही थे, क्या उन्होंने अपने आप को कभी निस्सहाय बूढ़ा महसूस किया होगा?

हम लोग बढ़ापे को जीवन से भर कर जीयें या निस्सहाय बूढ़ा बन कर अकेलेपन और उदासी में रहें, क्या यह सब केवल नियती पर निर्भर करता है? अधिकतर लोगों के पास मेरी तरह से अपना जीवन चुनने का रास्ता नहीं होता. पैसा न हो, पैंशन न हो, स्वतंत्र जीने के माध्यम न हों तो चुनने के लिए कुछ विकल्प नहीं होते. और अगर बीमारी या दर्द ने शरीर को मजबूर कर दिया हो तो अकेले रहना कठिन है.

दुनिया के विभिन्न देशों में पिछले कुछ दशकों में जीवन आशा की आयू बढ़ी है. भारत में भी यही हो रहा है. इसलिए आज समय रहते स्वयं से यह प्रश्न पूछना कि बूढ़ा होने पर कैसे रहना चाहूँगा तथा इसकी तैयारी करना, बहुत आवश्यक हो गये हैं.

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1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ था, आम औसत भारतीय केवल 31 वर्ष तक जीने की आशा करता था, आज औसत जीवन की आयू करीब 68 वर्ष है. हर वर्ष हमारे देश में 75 वर्ष से अधिक आयू वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. पर हमारा सामाजिक ढाँचा नहीं बदला. जब थोड़े से लोग वृद्ध होते थे और परिवार बड़े होते थे, उनको आदर देना और ऐसी सामाजिक सोच बनाना जिसमें परिवार अपने वृद्ध लोगों की देखभाल खुद करे, आसान थे. आज परिवार छोटे हो रहे हैं और वृद्ध लोग अधिक, तो बूढ़े माता पिता की उपेक्षा, उनके प्रति हिँसा या उदासीनता, सब बातें बढ़ रही हैं.

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अगले दशकों में बूढ़ों की संख्या और बढ़ेगी. दसियों गुना बढ़ेगी. हमारे परिवेश में लोग अपने बुढ़ापे की किस तरह से देख भाल करें, इसके लिए सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को सोचना पड़ेगा. लेकिन सबसे अधिक आवश्यक होगा कि हम लोग स्वयं सोचे कि उस उम्र में आ कर किस तरह हम अधिक आत्मनिर्भर बनें, किस तरह से अपने जीवन के निर्णय लें जिससे अपना बुढ़ापा हम अपनी इच्छा से बिता सकें, और जीवन के इस अंतिम पड़ाव में वह सब कुछ कर सकें जो हमारे मन चाहे.

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सबके पास ऐसे साधन नहीं होते कि वह जीवन के अंतिम चरण में जैसा रहना चाहते हैं इसका चुनाव कर सकें. पर हमारे समाज को इस बारे में सोचना पड़ेगा.

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बूढ़ा होने पर दिखना सुनना कम होना, जोड़ों में दर्द होना, ब्लड प्रेशर या मधुमेह जैसी बीमारियाँ होना, सब कुछ अधिक होता है. इनका सामना करने के लिए कई दशक पहल पहले तैयारी करनी पड़ेगी. कहते हैं कि भारत जवान देश है, हमारे यहाँ जितने युवा हैं उतने किसी अन्य देश के पास नहीं. लेकिन साथ साथ, हमारे यहाँ जितने वृद्ध होंगे, वह भी किसी अन्य देश के पास कठिनाई से होंगे.

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आप ने क्या कभी बूढ़े होने के बारे में सोचा है? कैसे रहने का सोचा आपने और कितनी सफलता मिली आप को? स्वयं को आप खुशनसीब बूढ़ा मानते हैं या निस्साह बेचारा बूढ़ा? या शायद आप सोचते हें कि अभी तो बुढ़ापा बहुत दूर है और फ़िर कभी सोचेंगे इसके बारे में?

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शुक्रवार, जुलाई 17, 2015

चमकीले फीतों का जहर

बहुत साल पहले एक पत्रिका होती थी "सारिका", उसमें किशन चन्दर की एक कहानी छपी थी "नीले फीते का जहर". क्या था उस कहानी में यह याद नहीं, बस यही याद है कि कुछ ब्लू फ़िल्म की बात थी. पर दुकानों पर लटकती चमकीली थैलियों के फीते देख कर मुझे हमेशा उसके शीर्षक की याद आ जाती है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

हवा में लटकते फीते किसी बुद्ध मन्दिर में फहराते प्रार्थना के झँडों की तरह सुन्दर लगते हैं. इन थैलियों में शैम्पू, काफी, मक्खन, आदि विभिन्न चीज़ें बिकती हैं, जिनमें कोई जहर नहीं होता. इन झँडों में आम भारतीय उपभोगता की स्वाभाविक चालाकी की कहानी भी है जोकि बड़े बहुदेशीय कम्पनियों के बिक्री मैनेजरों को ठैंगा दिखाती है. तो फ़िर क्यों यह थैलियाँ हमारे जीवन में जहर घोल रही हैं?

थैलियों से जान पहचान

छोटी छोटी यह चमकीली थैलियाँ देखीं तो पहले भी थीं, लेकिन पहली बार उनके बारे में सोचा जब पिछले साल स्मिता के पास केसला (मध्य प्रदेश) में ठहरा था.

थैलियों को कूड़े में देख कर मैंने स्मिता की साथी शाँतीबाई से पूछा था, इस कूड़े का क्या करती हो? यह भी क्या सवाल हुआ, उसने अवश्य अपने मन में सोचा होगा, यहाँ क्या गाँव में कोई कूड़ा उठाने आता है? नींबू या फल सब्जी का छिलका हो तो रसोई के दरवाज़े से पीछे खेत में फैंक दो. और प्लास्टिक या एलूमिनियम की थैली हो तो जमा करके जला दो, और क्या करेंगे इस कूड़े का?

इसीलिए यह थैलियाँ दूर दूर के गाँवों की हवा में रंग बिरंगी तितलियों की तरह उड़ती हैं. लाखों, करोड़ों, अरबों थैलियाँ. भारत इन चमकीली थैलियों की दुनिया भर की राजधानी है.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

एक ओर यह थैलियाँ भारत में अरबों रुपयों की बिक्री करने वाली कम्पनियों के लिए सिरदर्द बनी हैं. वह कम्पनियाँ भी कोशिश करके हार गयीं लेकिन इसका हल नहीं खोज पायीं कि कैसे थैलियों में बेचना कम किया जाये, ताकि मुनाफ़ा बढ़े. उनको हवा में तितलियों की तरह उड़ने वाली थैलियों की चिन्ता नहीं, उनको चिन्ता है कि इन थैलियों से छुटकारा पा कर कैसे अपनी कम्पनी के लाभ को अधिक बढ़ायें.

आज जब "स्वच्छ भारत" की बात हो रही है, तो इन थैलियों की कथा को समझना भी आवश्यक है.

थैंलियाँ कैसे आयीं भारत में?

छोटी थैलियों में चीज़ बेचना यह एक भारतीय दिमाग का आविष्कार था - श्री सी के रंगानाथन का.

तमिलनाडू के कुडालूर शहर के वासी श्री रंगानाथन ने 1983 में चिक इन्डिया (Chik India) नाम की कम्पनी बनायी, जो चिक शैम्पू बनाती थी. उन्होंने चिक शैम्पू को छोटी एलूमिनियम की थैलियों में बेचने का सोचा. उनका सोचना था कि गाँव तथा छोटे शहरों के लोग एक बार में शैम्पू की बड़ी बोतल नहीं खरीद सकते, लेकिन वह भी शैम्पू जैसी उपभोगत्ता वस्तुओं का प्रयोग करना चाहते हैं, तो कम दाम वाली एक रुपये की थैली खरीदना उनके लिए अधिक आसान होगा. उनकी सोच सही निकली और चिक इन्डिया को बड़ी व्यवसायिक सफलता मिली.

1990 में चिक इन्डिया का नाम बदल कर ब्यूटी कोस्मेटिक प्र. लि. रखा गया और 1998 इसके नाम का अन्तर्राष्ट्रीयकरण हुआ तथा यह "केविन केयर प्र. लि." (CavinKare Pvt. Ltd.) कर दिया गया. श्री रंगनाथन को कई पुरस्कार मिल चुके हैं तथा उन्होंने विकलाँग मानवों के साथ काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था "एबिलिटी फाउँनडेशन" भी स्थापित की है.

1991 में जब नरसिम्हाराव सरकार ने भारत के द्वार उदारीकरण की राह पर खोले तो दुनियाभर की बड़ी बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों ने सोचा कि करोड़ों लोगों की आबादी वाले भारत के बाज़ार में उनकी कमाई के लिए जनता उनकी प्रतीक्षा में बैठी थी. इन कम्पनियों के कुछ उत्पादनों को FMCG (Fast Moving Consumer Goods) यानि "अधिक बिक्री होने वाली उपभोगत्ता वस्तुएँ" के नाम से जाना जाता है, छोटी थैलियाँ उन्हीं उत्पादनों से जुड़ी हैं.

इन कम्पनियों ने जोर शोर से भारत में अपने उद्योग लगाये और वितरण प्लेन बनाये, लेकिन जिस तरह की बिक्री की आशा ले कर यह कम्पनियाँ भारत आयी थीं, वह उन्हें नहीं मिली. कुछ ही वर्षों में लगातार घाटों के बाद सबमें हड़बड़ी सी मच गयी.

जब बहुदेशीय कम्पनियों को भारत के बाज़ार में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने भी छोटी थैलियों की राह पकड़ी. उनका सोचना था कि सस्ती थैलियों के माध्यम से एक बार लोगों को उनकी ब्रैंड की चीज़ खरीदने की आदत पड़ जायेगी तो वह बार बार दुकान में जा कर सामान खरीदने के बजाय उनकी बड़ी बोतल खरीदेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उनकी छोटी थैलियाँ खूब बिकने लगीं, लेकिन उनकी बड़ी बोतलों की बिक्री जितनी बढ़ने की उन्हें आशा थी, वैसा नहीं हुआ.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

भारत में लोग हर चीज़ को माप तौल कर यह देखते हैं कि कहाँ अधिक फायदा है, और लोगों ने छोटी थैलियों के साथ भी यही किया. अगर आप बड़ी बोतल के बदले उतनी ही चीज़ छोटी पचास या सौ थैलियों में खरीदें तो आप को उसकी कीमत बोतल के मुकाबले कम पड़ती है. इसलिए अधिकतर लोग सालों साल तक छोटी थैलियाँ ही खरीदते रहते हैं, कभी बड़ी बोतल की ओर नहीं जाते. जैसा विदेशों में होता कि हफ्ते में एक दिन जा कर इकट्ठा सामान खरीद लो, वैसा भारत के छोटे शहरों व गावों में नहीं होता. अधिक सामान को खरीद कर कहाँ रखा जाये, यह परेशानी बन जाती है. लोग करीब की दुकान से हर दिन जितनी ज़रूरत हो उतना खरीदना बेहतर समझते हैं, और जिस दिन पैसे कम हों, उस दिन नहीं खरीदते. बड़ी बड़ी कम्पनियों को आखिरकार हार माननी पड़ी. अब उनसे न छोटी थैलियाँ का उत्पादन बन्द करते बनता है और जिस तरह की बिक्री की वह सोचती थीं वह भी उनके हाथ नहीं आयी.

आज छोटे गाँव हों या छोटे बड़े शहर, हर जगह आप को नुक्कड़ की दुकानों में भारतीय तथा बहुदेशीय कम्पनियों की यह छोटी थैलियाँ रंग बिरंगी चमकीली झालरों की तरह लटकी दिखेंगी. इन थैलियों को तकनीकी भाषा में सेशे (sachet) कहते हैं.

कैसे बनती हैं सेशे की छोटी थैलियाँ?

छोटी थैलियों को बनाने में एलुमिनियम, प्लास्टिक तथा सेलूलोज़ लगता है. इनमें एलूमिनियम की एक महीन परत को सेलूलोज़ की या प्लास्टिक की दो महीन परतों के बीच में रख कर उन्हें जोड़ा जाता है. यह बहुत हल्की होती है और इनके भीतर के खाद्य पदार्थ, चिप्स, नमकीन या शैम्पू आदि न खराब होते हैं, न आसानी से फटते हैं. इस तकनीक से थैलियों के अतिरक्त ट्यूब, डिब्बा आदि भी बनाये जाते हैं.

उपयोग के बाद, खाली थैलियों से, माइक्रोवेव की सहायता से एलूमिनियम तथा हाइड्रोकारबन गैस बनाये जा सकते हैं. एलुमिनियम विभिन्न उद्योगों में लग जाता है जबकि हाईड्रोकार्बन गैस उर्जा बनाने में काम आती है. लेकिन अगर इन्हें जलाया जाये तो उससे हानिकारक पदार्थ हवा में चले जाते हैं तथा पर्यावरण प्रदूषित होता है.

एलूमिनयम की जानकारी सोलहवीं शताब्दी में आयी थी लेकिन इस धातू की वस्तुएँ बनाने में सफलता मिली सन् 1855 में. उस समय इसे "मिट्टी की चाँदी" कहते थे, क्योंकि तब यह बहुत मँहगी धातू थी और इससे केवल राजा महाराजाओं के प्याले-प्लेटें या गहने बनाये जाते थे.

एलुमिनियम को सस्ते या टिकाऊ तरीके से बनाने की विधि 1911 में खोजी गयी और धीरे धीरे इसका उत्पादन बढ़ा और साथ ही इसकी कीमत गिरी. आज एलूमिनियम के बरतन अन्य धातुओं के बरतनों से अधिक सस्ते मिलते हैं और अक्सर गरीब घरों में प्रयोग किये जाते हैं. हर वर्ष दुनिया में लाखों टन एलूमिनयम का उत्पादन होता है जिन्हें बोक्साइट की खानों से निकाल कर बनाया जाता है. खानों की खुदाई से पर्यावरण तथा जनजातियों के जीवन की कुछ समस्याएँ जुड़ी हैं जैसा कि ओडिशा में वेदाँत कम्पनी की बोक्साइट की खानों के विरुद्ध जनजातियों के अभियान में देखा जा रहा है.

इस स्थिति में बजाय छोटी थैलियों को कूड़े की तरह फैंक कर पर्यावरण की समस्याएँ बढ़ाने से बेहतर होगा कि उन थैलियों के भीतर के एलूमिनियम को दोबारा प्रयोग के लिए निकाला जाये. इससे कूड़ा भी कम होगा. विकसित देशों में एलुमिनियम के पुनर्पयोग के कार्यक्रम आम है.

भारत में भी कुछ जगह एलुमिनयम के पुनर्पयोग के उदाहरण मिलते हैं लेकिन यह बहुत कम हैं. हमारे देश में अधिकतर जगह इन थैलियों में छुपी सम्पदा को नहीं पहचाना जाता, बल्कि उन्हें कूड़ा बना कर जलाया जाता है या जमीन में गाड़ा जाता है, जिससे नयी समस्याएँ बन जाती हैं.

गुवाहाटी का उदाहरण

यहाँ एक ओर तो जोर शोर से स्वच्छता अभियान की बात होती है, बड़े बड़े पोस्टर लगते हैं कि शहर में सफ़ाई रखिये. दूसरी ओर, हमारे शहरों में कूड़ा इक्ट्ठा करने का आयोजन ठीक से नहीं होता. गुवाहाटी (असम) में भी यही हाल है. शहर में कूड़े के डिब्बे खोजने लगेंगे तो खोजते ही रह जायेंगे. प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों या मन्दिरों के आस पास भी कूड़े के डिब्बे नहीं मिलते. खुली जगह पर पिकनिक हो, कोई विवाह समारोह या पार्टी हो, या मन्दिरों में त्योहार की भीड़, लोग आसपास कूड़े के ढ़ेर लगा कर छोड़ जाते हैं.

कूड़े के डिब्बों की जगह पर, शहर में कई कई किलोमीटर की दूरी पर बड़े कूड़ा एकत्रित करने वाले कन्टेनर मिलते हैं. यानि आप पिकनिक पर जायें या मन्दिर जायें, तो उसके बाद कूड़े के थैले ले कर इन कन्टेनरों को खोजिये. अक्सर लोग दूर रखे कम्टेनर तक जाने की बजाय कूड़े को वहीं फैंक देते हैं. पिकनिक स्थलों पर प्लास्टिक की थैलियाँ, चमकीली कागज़ की प्लेटें, मुर्गियों के पँख, इधर उधर उड़ते रहते हैं. (तस्वीर में गुवाहाटी के उमानन्द मन्दिर के पीछे फैंका हुआ कूड़ा)

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

गुवाहाटी में छोटी थैलियों का क्या किया जाता है, मैं यह समझना चाहता था. इसी की खोज में मैं एक दिन, शहर के करीब ही, हाईवे से जुड़े "बोड़ो गाँवो" गया, जहाँ ट्रकों से गुवाहाटी शहर का सारा कूड़ा जमा होता है. उस जगह पर, बहुत दूर से ही कूड़े की मीठी गँध गाँव के हवा में बादलों की तरह सुँघाई देती है. इस कूड़े से कई सौ परिवारों की रोज़ी रोटी चलती है. वह लोग झोपड़ियों में कूड़े के आसपास ही रहते हैं. झोपड़ियों के आसपास भी कूड़े के ढ़ेर लगे होते हैं जहाँ उसकी छटाई होती है और जो वस्तुएँ बेची जा सकती हैं, वह निकाल ली जाती हैं. वहाँ कोई विरला ही लिखना पढ़ना जानता है, तथा बच्चे भी स्कूल नहीं जाते.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

आज की दुनिया में हमारे शहरों में व्यवसाय तथा लोग कूड़ा बनाने में माहिर हैं. हर दिन हमारे यहां लाखों टन कूड़ा बनता है. लेकिन सभी कूड़ा बनाने वाले, अपने कूड़े से और उसकी गन्ध से नफरत करते हैं. ऐसी स्थिति में शिव की तरह विष पीने वाले, कूड़े में रह कर काम करने वाले लोग जो उस कूड़े से पुनर्पयोग की वस्तुएँ निकालते हैं, उन्हें तो संतों का स्थान मिलना चाहिये. पर हमारा समाज उनके इस काम की सराहना नहीं करता बल्कि उन्हें समाज से क्या मिलता है, इसकी आप स्वयं कल्पना कर सकते हैं.

उन कूड़े के ढेरों पर बहुत से पशु पक्षी भी घूमते दिखते हैं, जिनमें असम के प्रसिद्ध ग्रेटर एडजूटैंट पक्षी भी हैं.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

कूड़े में अधिकतर स्त्रियाँ तथा बच्चे काम करते हैं. कई बच्चे तीन चार साल के भी दिखे, जो कूड़े की थैलियाँ सिर पर उठा कर ले जा रहे थे. जब भी नगरपालिका का कोई ट्रक आता, वह लोग उसके पीछे भागते ताकि कूड़े को चुनने का उन्हें पहले अवसर मिले.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

कूड़े में काम करने वालों का क्या जीवन है, उनकी समस्याएँ क्या है, यह जानने नहीं गया था. उसके बारे में फ़िर कभी लिखूँगा. बल्कि मेरा ध्येय था यह जानना कि खाली थैलियों का क्या होता है?

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

संयोग से, वहाँ पहुँचते ही एक टेम्पो दिखा जिस पर कई हज़ार खाली थैलियाँ प्लास्टिक में बँधी थीं. मैंने उस टेम्पो को देख कर सोचा कि इसका अर्थ था कि खाली थैलियों को अलग कर के रखा जाता है, यानि इन्हे बेचने का तथा इनके पुनर्पयोग का कुछ कार्यक्रम चल रहा है.

पर ऐसा नहीं था. थोड़ी देर बाद वह टेम्पो भी कूड़े के ढेर की ओर बढ़ा जहाँ अन्य ट्रक अपना कूड़ा फैंक रहे थे. टेम्पो वाले युवकों ने प्लास्टिक को खोल कर उन खाली थैलियों को अन्य कूड़े के बीच में फैंक दिया.

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

स्वच्छ भारत

जब तक शहरों में कूड़ा फैंकने की उपयुक्त जगहें नहीं होंगी, लोगों को यह कहने का क्या फायदा है कि सफाई रखिये? शहरों में जगह जगह पर डिब्बे होना जिसमें लोग कूड़ा डाल सके, आवश्यक हैं. मन्दिर तथा पिकनिक स्थलों पर भी कूड़ा जमा करने के डिब्बे रखना ज़रूरी है.

हम से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो यह कहे कि वह स्वच्छ भारत नहीं चाहता. लेकिन क्या सड़कों पर झाड़ू लगाने या डिब्बों में कूड़ा फैंकने से भारत स्वच्छ हो जायेगा? झाड़ू लगा कर कूड़ा हटाना तथा डिब्बों में कूड़ा डालना तो केवल पहला कदम है. इससे शहरों में रहने वाले लोगों के सामने की गन्दगी हटती है. लेकिन वही गन्दगी हमारे शहरों के बाहर अगर जमा होती रहती है, तो क्या सच में हमारा वातावरण स्वच्छ हो गया?

देश में हर दिन लाखों करोड़ों टन नया कूड़ा बनता है, उसका क्या करेंगे हम? उसे जला कर वातावरण का प्रदूषण करेंगे या जितना हो सकेगा उसका पुनर्पयोग होना चाहिये?

Sachet pollution in India - Images by Sunil Deepak

चमकीली थैलियों में छुपे लाखों टन एलूमिनियम को निकाल कर उसका दोबारा उपयोग करना बेहतर है या नयी खानें बनाना?

फल सब्जी आदि खाद्य पदार्थों के कूड़े को जमा करके उनसे खाद बनाने से बेरोजगार लोगों को जीवनयापन के माध्यम मिल सकते हैं. वैसे ही थैलियों में छुपे एलुमिनियम के पुनर्पयोग से भी उद्योगों तथा बेरोजगार युवकों को फायदा हो सकता है. बोड़ा गाँव जैसी जगहों में कूड़ा जमा करने वाले लोगों को भी इससे जीवनयापन का एक अन्य सहारा मिलेगा. साथ ही कूड़ा जलाने से जो प्रदुषण होता है वह कम होगा.

जब तक ऐसे प्रश्नों के बारे में नहीं सोचेगें, भारत स्वच्छ हो, यह सपना सपना ही रहेगा और चमकीली थैलियाँ समृद्धी का रास्ता बनने के बजाय, जहर बन कर किसी शिव की प्रतीक्षा करती रहेंगी.

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