रविवार, जून 12, 2022

पौशानाटिका के जलवे

कुछ दिन पहले उत्तरपूर्वी इटली में हमारे शहर स्किओ (Schio) में रंगबिरंगी पौशाकें पहने हुए बहुत से नवयुवक और नवयुवतियाँ वार्षिक कोज़प्ले (Cosplay) प्रतियोगिता के लिए जमा हुए थे। "कोज़प्ले" क्या होता है, यह मुझे कुछ साल पहले ही पता चला था। कोज़प्ले शब्द दो अंग्रेज़ी शब्दों को मिला कर बना है, कोज़ यानि कोस्ट्यूम (Costume) या रंगमंच की पौशाक और प्ले (Play) यानि खेल या नाटक। इस तरह से मैंने कोज़प्ले शब्द का हिंदी अनुवाद किया है पौशानाटिका।



कोज़प्ले यानि पौशानाटिका


कोज़प्ले की शुरुआत जापान में पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में हुई, जब कुछ किशोर रोलप्ले वाले खेलों और माँगा कोमिक किताबों के पात्रों की पौशाकें पहन कर मिलते थे। 1990 के दशक में कमप्यूटर खेलों का प्रचलन हुआ जब गेमबॉय जैसे उपकरण बाज़ार में आये तो कोज़प्ले और लोकप्रिय हुआ। तब से आज तक इस कोज़प्ले या पौशानाटिका का दुनिया में बड़ा विस्तार हुआ है। नये कमप्यूटर खेल, विरच्युल रिएल्टी, एनिमेटिड फ़िल्में आदि के पात्र भी इस परम्परा का हिस्सा बन गये हैं।

हमारे शहर में जो पौशानाटिकी समारोह होते हैं, उनमें सबसे अधिक लोकप्रिय हैं - डनजेन एण्ड ड्रेगनज जैसे रोलप्ले वाले खेल, जापान की माँगा (Manga) कोमिक्स किताबें और आनिमे (Anime) एनेमेशन फ़िल्में और टीवी सीरियल। इन सबमें दिलचस्पी रखने वाले लोग, अपने किसी एक प्रिय पात्र को चुन कर उनके जैसी पौशाकें बनाते हें, उनकी तरह बालों का स्टाईल बनाते हैं, उनके जैसा मेकअप करते हैं। जब यह सब लोग मिल कर कहीं इक्ट्ठा हो जाते हैं तो वहाँ कोज़प्ले के मेले लग जाते हैं।


जापान से धीरे धीरे कोज़प्ले का फैशन सारी दुनिया में फ़ैला है। यूरोप के हर देश में जगह जगह पर वार्षिक कोज़प्ले मेले लगते हैं, जहाँ लाखों लोग एकत्रित होते हैं, उनकी प्रतियोगिता होती हैं कि किसकी पौशाक सबसे सुंदर है, किसका अभिनय अपने पात्र से अधिक मेल खाता है, आदि।

अमरीका में सन दियेगो और लोस एन्जेल्स शहरों के कोज़प्ले बहुत मशहूर हैं। जापान के नागोरो में आयोजित होने वाला कोज़प्ले अपनी तरह का दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। इटली में कई शहर ऐसे आयोजन करते हैं, जिसमें सबसे प्रसिद्ध है लुक्का (Lucca) शहर में होने वाला मेला। हमारे शहर का पौशानाटिकी मेला उन सबके मुकाबले में छोटा सा है, इसमें कोई सौ या दो सौ नवजवान हिस्सा लेते हैं जबकि बड़े समारोहों में लाखों लोग सजधज कर एकत्रित हो जाते हैं।


हमारे शहर का पौशानाटकी मेला नया है, केवल कुछ साल पुराना, लेकिन मैं इसमें शामिल होने वालों की पौशाकें और मेकअप देख कर दंग रह गया। पौशानाटिका के अभिनेता जिस पात्र को चुनते हैं उसके हावभाव, बोलने और चलने का तरीका, सब कुछ उन्हें वैसे ही करना होता है। मुझे इन कमप्यूटर खेलों, माँगा, आनिमे कामिक्स और फ़िल्मों की थोड़ी सी भी जानकारी नहीं है इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि वह लोग अपने पात्रों की नकल करने में कितने सफल थे, लेकिन उन्हें देख कर मुझे लगा कि हमारे बचपन में इस तरह के मेले होते तो मुझे भी ज़ोम्बी या राक्षस बनना अच्छा लगता।

कोज़प्ले में हिस्सा लेने वालों का एक नियम है कि बिना उन्हें बताये उनकी फोटो नहीं खींचे। फोटो खींचनी हो तो आप को उन्हें बताना चाहिये ताकि वह अपने पात्र की अपनी मुद्रा में पोज़ बना कर फोटो खिंचवायें। हमारे कोज़प्ले में मैंने जितने लोगों से फोटो खींचने की अनुमति माँगी, उनमें से केवल एक युवती ने मना किया।

क्या भारत में कोई कोज़प्ले मेले लगते हैं? अगर आप को उनके बारे में मालूम है तो नीचे टिप्पणीं में यह जानकारी दीजिये।

कोज़प्ले जैसे अन्य मेले


उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारे जिले का नाम है वेनेतो (Veneto) और इसका मुख्य स्थान है वेनेत्जिया (Venezia) यानि वेनिस (Venice) का शहर, इसलिए हमारे पूरे जिले में वेनिस की सभ्यता का गहरा प्रभाव है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में इटली एक देश बना, उससे पहले वेनिस एक स्वतंत्र देश माना जाता था, जहाँ के नाविक और जहाज़ दुनिया भर में घूमते थे। वेनिस के मार्कोपोलो की कहानी तो जगप्रसिद्ध है।

वेनिस में फरवरी-मार्च के महीनों में कार्निवाल का त्योहार मनाते हैं जिसे आप पुराने ज़माने का पौशानाटिका मेला कह सकते हैं। आजकल कार्निवाल को ईसाई त्योहार मानते हैं लेकिन लोगों का कहना है कि यह त्योहार बहुत पुराना है, ईसाई धर्म से भी पुराना।


हर वर्ष कार्निवाल के लिए करीब एक महीने तक भिन्न उत्सवों को आयोजित किया जाता है जिनमें लोग विषेश पौशाकें और मुखौटे बनवा कर पहनते हैं। पौशानाटिकी की तरह लोग इसके लिए बहुत पैसा खर्च करते हैं और कई कई महीनों तक इसकी तैयारी करते हैं। कोज़प्ले और कार्निवाल में एक अंतर है कि कोज़प्ले किशोरों और नवजवानों का शौक है, जबकि कार्निवाल में नवजवान, प्रौढ़ और वृद्ध सभी लोग अपनी पौशाकों में हिस्सा लेते हैं।


वेनिस का कार्निवाल दुनिया भर में प्रसिद्ध है, लोग दूर दूर से इसे देखने आते हैं।

हमारे शहर में एक अन्य तरह का पौशानाटकी मेला भी होता है जिसका नाम है स्टीमपँक (Steampunk)। स्टीम यानि भाप और पँक यानि रंगबिरंगे और अजीबोगरीब कपड़ों और बालों का स्टाईल जिसे कुछ रॉकस्टार गायकों से प्रसिद्धी मिली थी। कोज़प्ले की तरह इसकी शुरुआत भी पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक के आसपास हुई थी।


इस परम्परा को शुरु करने वाले लोग फ्राँसिसी लेखक जूल्स वर्न की किताबों से प्रभावित थे। यह लोग प्राद्योगिक युग के प्रारम्भ में भाप से चलने वाली स्टीम इंजन जैसी मशीनों को महत्व देते हैं और इनकी पौशाकों में एक ओर से कीलों, ट्यूबों, नलियों, घड़ी के भीतर के हिस्सों आदि का प्रयोग किया जाता है, दूसरी ओर से यह लोग विक्टोरियन समय के वस्त्रों को प्राथमिकता देते हैं। कार्निवाल तथा कोज़प्ले की तरह, यह लोग भी अपने पौशाकों, मेकअप आदि पर बहुत पैसा और समय लगाते हैं। बहुत से लोग हर वर्ष नयी पौशाकें बनवाते हैं।

मुझे स्टीमपँक की पौशाकें बहुत अच्छी लगती हैं। कई बार देखा कि यह लोग आधुनिक उपकरण जैसे कि मोबाईल फोन, कमप्यूटर और कैमरे आदि को ले कर, उन्हें विभिन्न धातुओं या पदार्थों से ढक कर पुराने ज़माने की वस्तुओं का रूप देते हैं, जैसे कि आप नीचे वाली तस्वीर के सज्जन के कैमरे में देख सकते हैं। उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने अपने नये कैमरे को पुराने बक्से में बँद करके, उन्होंने उस पर भिन्न बटन लगाये, डॉयल फिट किये और धातूओं का लेप लगाया, जिससे कैमरा देखने में किसी म्यूज़ियम से निकला लगता था लेकिन तस्वीरें अच्छी खींचता था।

इसमें हिस्सा लेने वाले अधिकतर लोग प्रौढ़ या वृद्ध होते हें, उनमें नवजवान कम दिखते हैं, शायद इसलिए क्योंकि इस शौक को पूरा करने के लिए काफ़ी पैसा और समय होना चाहिये।


इनके अतिरिक्त, इटली के विभिन्न भागों में एतिहासिक घटनाओं और त्योहारों पर भी पुराने समय की पौशाकें पहनने का प्रचलन है, जैसे कि कुछ लोग अपनी नृत्य मँडली बनाते हैं जिसमें वह लोग मध्ययुगीन पौशाकें पहन कर मध्ययुगीन यूरोपी नृत्य सीखते हैं और करते हैं। आधुनिकता की दौड़ में पुराने रीति रिवाज़ लुप्त हो रहें हैं, तो वह लोग चाहते हैं कि अपने पुराने नृत्यों और पौशाकों को जीवित रखें।

अंत में


गोवा में कार्निवाल मनाया जाता है। मैंने एक बार वहाँ कार्निवाल देखा था लेकिन उसमें वैसा कुछ नहीं था, जिस तरह की पौशाकें और मुखौटे इटली में दिखते हैं। ब्राजील में भी गोवा जैसा कार्निवाल मनाते हैं, हालाँकि उनके नृत्य व पौशाकें कुछ बेहतर होती हैं। गोवा तथा ब्राज़ील के लोग पुर्तगाली सभ्यता से अधिक प्रभावित हैं।

मुझे मालूम नहीं कि भारत में किसी अन्य जगह पर कोज़प्ले या स्टीमपँक जैसे मेले लगते हैं या नहीं। लेकिन भारत में भी कुछ लोग धार्मिक मौकों पर देवी देवता का रूप धारण करते हें, जो कि धार्मिक कारणों से करते हैं या फ़िर श्रधालुओं से पैसा माँगने के लिए। भारत में ऐसे कोई त्योहार या मेले हों जहाँ आम लोग भिन्न पौशाकें पहन कर एकत्रित होते हों, मुझे उसके बारे में जानकारी नहीं। अगर आप को हो तो नीचे टिप्पणी में उसके बारे में बताईये।


मेरे विचार में जापानी और पश्चिमी देशों में अकेलापन अधिक बढ़ा है, यहाँ कम लोग विवाह करते हैं और उनमें से केवल कुछ लोग बच्चे पैदा करते हैं। नौकरी करके कमाने वाले और अकेले रहने वाले लोगों के पास पैसे और समय की कमी नहीं, उन्हें जीवन में कुछ अलग सा चाहिये जिससे उनकी मानवीय रिश्तों की कमी घटे। उन्हें इस तरह के मेलों और त्योहारों में अन्य लोगों से मिलने और आनन्द लेने के मौके मिलते हैं, इसीलिए यहाँ यह सब पौशानाटिकी समारोह लोकप्रिय हो रहे हैं।

शनिवार, जून 11, 2022

फ़िल्मी दुखड़े

एक समय था जब मुझे फिल्म देखना बहुत अच्छा लगता था, लेकिन फ़िर जाने क्या हुआ, मुझे फ़िल्में देखने से कुछ विरक्ति सी हो गयी है। कहते थे कि कोविड में सूंघने की शक्ति चली जाती है, वैसे ही मुझे शक है कि किसी रोग की वजह से मुझे अब फ़िल्म देखना अच्छा नहीं लगता। 


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बचपन में सिनेमाहाल में पहली फ़िल्म देखी थी, दिल्ली के झँडेवालान में स्थित नाज़ सिनेमा पर, वह थी भारत भूषण और मीना कुमारी की "बैजू बावरा"। उस फ़िल्म से कुछ भी याद नहीं है केवल अंतिम दृश्य याद है जिसमें मीना कुमारी नदी में बह जाती है। इस फ़िल्म के बारे में खोजा तो देखा कि यह फ़िल्म 1952 में आयी थी, जब मैं पैदा नहीं हुआ था, जबकि मेरे विचार में मैं अपनी मम्मी और उनकी सहेली के साथ इस फ़िल्म को 1959-60 में देखने गया था।

तब हम लोग झँडेवालान से फिल्मिस्तान जाने वाली सड़क पर बाँयी ओर जहाँ कब्रिस्तान है उसके साथ वाली सड़क पर रहते थे, तो बैजू बावारा के बाद नाज़ पर बहुत सी फ़िल्में देखीं। उन सब फ़िल्मों में सबसे यादगार फ़िल्म थी बासू भट्टाचार्य की "अनुभव", जिसे देखने मैं अपनी मँजू दीदी और उनके बेटे मुकुल के साथ गया था, जो तब दो या तीन साल का था। बड़े हो कर वही मुकुल जाना माना फोटोग्राफर तथा डाक्युमैंटरी फ़िल्मों का निर्देशक बना, लेकिन तब उसे वह फ़िल्म समझ नहीं आयी थी और वह उसके समाप्त होने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। "फ़िल्म कब खत्म होगी" के उसके प्रश्न पर मँजू दीदी ने कहा "जब झँडा आयेगा"। तब फ़िल्मों के अंत में झँडा आता था और राष्ट्रगान होता था, तो मुकुल जी हर पाँच दस मिनट में पूछते, "अन्ना, झँडा कब आयेगा?" उस फ़िल्म का मुझे कुछ और याद नहीं, लेकिन झँडा कब आयेगा वाला प्रश्न नहीं भूलता।

खैर, बचपन की अधिकाँश फ़िल्में तो दिल्ली में दूरदर्शन में देखीं थीं। साठ के दशक में जब टीवी पर बुधवार को चित्राहार, शनिवार रात को हिंदी फ़िल्म और रविवार दोपहर को प्रादेशिक भाषा की फ़िल्में आती थीं तो हमारे घर में टीवी नहीं था, अड़ोस पड़ोस में लोगों के घर जा कर उनके ड्राईंगरूम में सब बच्चे सामने ज़मीन पर बैठ कर यह कार्यक्रम देखते थे। इस तरह से जाने कितने लोगों से, जिनसे अन्य कोई जान पहचान नहीं थी, तब भी हम बच्चे लोग उनके घरों में घुस जाते थे, और वह लोग भी खुशी से हमको घरों में घुसने देते थे। करोल बाग वाले घर में थे तो वहाँ एक नगरपालिका के स्कूल में टीवी था, अक्सर वहाँ भी जा कर फ़िल्में देखते थे। राजेन्द्र नगर वाले घर में रहते थे तब एक दो बार किसी ने अपने घर में टीवी देखने से मना किया था तो लगता था कि कितने वाहियात और स्वार्थी लोग हैं, अगर इनके टीवी को और लोगों ने भी देख लिया तो इनका क्या चला जायेगा?

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जब विदेश आया तो हिंदी फ़िल्मों की कमी, खाने में मिर्च मसालों की कमी से भी अधिक खलती थी। जब फ़िल्मों के वीडियो कैसेट बनने लगे तो लगा कि कोई खजाना मिल गया हो। हर वर्ष जब भारत से लौट कर आता तो सूटकेस फ़िल्मों के वीडियो कैसेटों से भरा होता था, उनसे से पुरानी फ़िल्मों के कैसेट तो अच्छे वाले मिलते थे, लेकिन नयी फ़िल्मों के कैसेट तो अधिकतर पायरेटिड होते थे, जिनमें छवि स्पष्ट नहीं होती थी। कुछ सालों के बाद उनमें जाँघियों-बनियानों की पब्लिसिटी भी आने लगी, तो टीवी स्क्रीन के ऊपर वाले हिस्से में माधुरी दीक्षित या श्रीदेवी अपने कमाल दिखातीं, और नीचे वाले हिस्से में जाँघिये बनियानें इधर से उधर फुदकतीं।

बाद में जब फ़िल्मों की वीसीडी और फ़िर उसके बाद डीवीडी आने लगीं तो फ़िल्में लाना आसान हो गया था, पर पायेरेटिड फ़िल्में देखने की समस्या का हल नहीं हुआ, हालाँकि वीडियों कैसेटों के मुकाबले में फ़िल्मों की छवि बेहतर दिखती थी।

तब यह प्रश्न उठा कि पुराने वीडियो कैसेटों का क्या किया जाये। कुछ तो मित्रों को बाँटीं लेकिन अधिकतर को कूड़े में फ़ैंका। केवल तीन वीडियो कैसेट नहीं फ़ैंके, क्योंकि वह मेरी सबसे प्रिय फ़िल्में थीं जिन्हें बीसियों बार देखा था - बँदिनी, साहिब बीबी और गुलाम और अपने पराये। बहुत सालों बाद जब घर में वीडियो कैसेट प्लैयर ही नहीं रहा तो मन मार कर उनको बेसमैंट के स्टोर रूम की अलमारी में रख दिया, कई सालों के बाद मेरी पत्नी ने उन्हें फ़ैंका, तब तक उन पर फँगस उग आयी थी।

उन दिनों में कुछ सालों के लिए लँडन में एक स्वयंसेवी संस्था का प्रैसिडैंट चुना गया था तो अक्सर वहाँ जाना होता था। तब साऊथहाल जा कर वहाँ से नयी फ़िल्मों की पायरेटेड सीडी ले कर आता था। कुछ सालों में घर में इतनी सीडी हो गयीं थीं तो उनको रखने की जगह नहीं बची थी। जब इंटरनेट से फ़िल्म डाऊनलोड करने का समय आया, तो धीरे धीरे नयी सीडी खरीदना बँद हो गया। घर में जो हज़ारों सीडी रखी थीं, फ़िर से उन्हें कुछ मित्रों में बाँटा, अधिकतर को कूड़े में फ़ैंका, लेकिन अभी भी करीब एक सौ सीडी हमारे घर के ऊपर वाले एटिक में एक बक्से में बँद रखी हैं। कभी कभी वहाँ कुछ सामान खोजते हुए जाता हूँ तो उनके कवर की तस्वीरों को देख कर पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं, बस इसी लिए उन्हें फ़ैंकने का मन नहीं करता।

आजकल फ़िल्में देखना तो और भी आसान हो गया है। अधिकतर पुरानी फ़िल्में, जिनमें तीन चार साल पहले वाली फ़िल्में भी आती हैं, वह सब यूट्यूब पर उपलब्ध हैं। नयी फ़िल्में नेटफ्लिक्स, प्राईम आदि पर मिल जाती हैं। जैसे जैसे नयी फ़िल्में देखना आसान हुआ है, मेरी फ़िल्म देखने की रुचि रास्ते में ही कहीं खो गयी है।

बहुत समय के बाद, कुछ दिन पहले क्रिकेट पर बनी एक फ़िल्म '83 एक बार में ही शुरु से अंत तक पूरी देखी। एक अन्य फ़िल्म देखी आर.आर.आर. (RRR) लेकिन एक बार में नहीं देखी, टुकड़ों में बाँट कर तीन-चार दिनों में देखी, और उसके थोड़े से हिस्सों को ही फास्टफोरवर्ड किया। दो सप्ताह पहले गँगूबाई देखनी शुरु की थी, अभी तक पूरी नहीं देखी।

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फ़िल्मों में कुछ भी टैंशन या हिंसा की बात हो तो मेरा दिल धकधक करने लगता है, मुझसे वह फ़िल्म देखी नहीं जाती। अनिल कपूर की "थार" देखनी शुरु की थी तो बीच में ही रोक दी, लगा कि उसे आगे देखना मेरे बस की बात नहीं है। केवल नयी फ़िल्मों से ही तकलीफ़ नहीं है, पुरानी फ़िल्में देखता हूँ तो जल्दी बोर हो जाता हूँ, उन्हें फास्ट फोरवार्ड करके बीस मिनट-आधे घँटे में पूरी कर देता हूँ। यही हाल रहा तो भविष्य में शायद केवल फैंटेसी यानि काल्पनिक दुनियाँओं में आधारित कुछ फ़िल्मों को ही देख सकूँगा, क्योंकि उनमें टैंशन और हिंसा के दृश्य नकली लगते हैं इसलिए उन्हें देखने में परेशानी कम होती है।

करीब दस-बारह साल पहले, तब बोलोनिया में रहता था, मैं वहाँ होने वाले मानव अधिकार तथा अंतरलैंगिक-समलैंगिक विषयों के फ़िल्मों के फैस्टिवलों से जुड़ा था। तब फ्लोरैंस में होने वाले भारतीय फ़िल्मों के फैस्टिवल, रिवर तू रिवर, में भी जाता था। दो बार मानव अधिकारों के फ़िल्म फैस्टिवल की जूरी का सदस्य भी रहा। लेकिन धीरे धीरे उन सब फ़िल्मों को देखना बँद कर दिया है। अब मुश्किल से शोर्ट फ़िल्म देख पाता हूँ, गम्भीर विषयों बनी लम्बी फ़िल्में जो अधिकतर फैस्टिवलों के लिए चुनी जाती हैं, उनको नहीं देख पाता। इटली में कभी कोई भारत से जुड़ा फ़िल्म फैस्टिवल हो रहा हो और आयोजक मेरे इटालवी ब्लाग पर हिंदी फ़िल्मों के बारे में पढ़ कर मुझसे सम्पर्क करते हैं कि मैं उनकी जूरी का हिस्सा बनूँ या फ़िल्में चुनने में सहायता करूँ तो मैं मना कर देता हूँ, मुझे मालूम है कि यह मुझसे नहीं होगा। 



क्या फ़िल्म न देख पाने वाली कोई बीमारी होती है? क्या किसी अन्य को भी ऐसी कोई बीमारी हुई है? क्या इलाज है इस बीमारी का? शयाद उसके बारे में लिखने से उसका कोई इलाज निकल आये!

मंगलवार, मई 31, 2022

धाय-माँओं की यात्राएँ

इतिहास अधिकतर राजाओं और बादशाहों की और उनके खानदानों, प्रेम सम्बंधों और युद्धों की बातें करते हैं। उन इतिहासों में सामान्य जन क्या कहते थे, सोचते थे, उनका क्या हुआ, यह बातें कम ही दिखती हैं। फ़िर भी, पिछली कुछ शताब्दियों में जब बड़ी संख्या में सामान्य लोगों के जीवनों पर कुछ बड़े प्रभाव पड़ते हैं तो इतिहास बाँचने वालों को उनके बारे में कुछ न कुछ लिखना ही पड़ता है।

ऐसा कुछ अश्वेत लोगों के साथ हुआ जब लाखों लोंगों को भिन्न अफ्रीकी देशों से पकड़ कर यूरोपी जहाजों में भर कर गुलाम बना कर दुनियाँ के विभिन्न कोनों में ले जाया गया। ऐसा कुछ भारतीय गिरमिटियों के साथ भी हुआ जिन्हें काम का लालच दे कर बँधक बना कर मारिशियस, त्रिनिदाद और फिजी जैसे देशों में ले जाया गया। लेकिन हमारे आधुनिक इतिहास की कुछ अन्य कहानियाँ भी हैं जो अभी तक अधिकतर छुपी हुई हैं।



ऐसी छुपी हुई कहानियों में है एक कहानी उन भारतीय औरतों की जिन्हें बड़े साहब लोग अपने बच्चों की देखभाल के लिए आया बना कर विदेशों में, विषेशकर ईंग्लैंड में, साथ ले गये। कुछ महीने पहले एक अंग्रेजी की इतिहास के विषय से जुड़ी पत्रिका हिस्टरी टुडे के जनवरी 2022 के अंक में मैंने सुश्री जो स्टेन्ली का एक आलेख देखा जिसका शीर्षक था "इनविजिबल हैंडज" यानि अदृश्य हाथ, जिसमें 1750 से ले कर 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक के समय में भारतीय आया बना कर ले जाई गयी औरतों की बात बतायी गयी थी।

उनका कहना है कि "आया" शब्द पुर्गालियों की भाषा से आया जिसमें नानी-दादी को "आइआ" (Aia) कहते हैं। भारत में इस काम को करने वाली औरतों को "धाय" या "धाय माँ" कहते थे। जैसे कि पन्ना धाय के बलिदान की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। अंग्रेजी में इसके लिए "बच्चों की गवर्नैस" का प्रयोग भी होता है।

भारत में रहने वाले अंग्रेजों के घरों में हज़ारों औरतें आया या धाय का काम करती थीं। जब वह लोग छुट्टी पर ईंग्लैंड जाते, तो बच्चों की देखभाल के लिए उनकी आया को भी साथ ले जाते। कुछ लोग भारत में काम समाप्त होने पर हमेशा के लिए ईंग्लैंड लौटते हुए भी कई माह लम्बी समुद्री यात्रा में उन्हें तकलीफ न हो, इसलिए इन औरतों को बच्चों की देखभाल और अन्य काम कराने के लिए साथ ले जाते थे। लेकिन एक बार ईंग्लैंड पहुँच कर वह इन्हें घर से निकाल भी सकते थे और घर वापस लौटने का किराया नहीं देते थे।

भारत में अंगरेज़ साहब और मेमसाहिब के पास बड़े आलीशान बँगले होते थे जिनमें नौकरों को रखने में कठिनाई नहीं होती थी, लेकिन ईंग्लैंड में वापस आ कर, उन साहबों को सामान्य घरों में रहना पड़ता था, तो समस्या होती थी कि भारत से लायी गयी आया को कहाँ रखा जाये? उनके लिए ईंग्लैंड में आया-होस्टल में बन गये थे, जहाँ यह औरतें भारत जाने वाले किसी अंग्रेज परिवार के साथ नयी नौकरी की प्रतीक्षा करती थीं।

न्यू योर्क विश्वविद्यालय की प्रोफेसर स्वप्न बैन्नर्जी अन्य शोधकारों के साथ मिल कर सन् 1780 से ले कर 1945 में भारत उपमहाद्वीप से काम करने के लिए दुनिया भर में ले जाये जानी वाली इन प्रवासी महिलाओं पर शोध कर रही हैं जिसके बारे में आया व आमाह के ब्लोग पर आप पढ़ सकते हैं। इसी ब्लाग पर पिछली सदी के प्रारम्भ का एक विज्ञापन है जिसमें लँडन के दक्षिण हेक्नी इलाके में बने "आया होम" के बारे में कहा गया कि अंग्रेज महिलाएँ कुछ पैसा दे कर भारत से लायी आया को यहाँ रखवा कर उनसे छुटकारा पा सकती हैं, साथ यह यहाँ हिंदुस्तानी बोलने की सुविधा भी है। (विज्ञापन नीचे की छवि में)



कुछ औरतों ने अंग्रेज परिवारों की समुद्री यात्रा में बच्चों की देखभाल का काम अच्छे तरीके से आयोजित किया था। 1922 में ईंग्लैंड में अखबार में छपे एक साक्षात्कार में भारत की श्रीमति एन्थनी पारैरा ने बताया वह 54 बार भारत-ईंग्लैंड यात्रा कर चुकी थीं। एक शोध के अनुसार, 1890 से ले कर 1953 तक, हर वर्ष करीब 20-30 औरतें आया बन कर ईंग्लैंड लायी जाती थीं। इनमें से अधिकतर औरतें "नीची" जाति से होती थीं। इसी काम के लिए कुछ चीनी औरतें भी ईंग्लैंड लायी जाती थीं जिन्हें "अमाह" कहते थे, हालाँकि उनकी संख्या भारतीय मूल की "आयाह" के मुकाबले एक चौथाई से भी कम होती थी।

उन औरतों की देखभाल में पले अंग्रेज बच्चों ने उनके बारे में अपनी आत्मकथाओं तथा स्मृतियों में वर्णन किया है कि उनको इन्हीं औरतों से परिवार का प्यार व स्नेह मिला। इन कहानियों से उन औरतों के जीवन की रूमानी छवि बनती है, जब कि जो स्टेन्ली के अनुसार उनकी जीवन की सच्चाई अक्सर रूमानी नहीं थी, बल्कि उसकी उल्टी होती थी। उनमें से कई औरतों के साथ उनके अंग्रेज मालिक बुरा व्यवहार करते थे।

अफ्रीका में जन्मी भारतीय मूल की इतिहासकार, डा. रोज़ीना विसराम ने इस विषय पर शोध करके कुछ पुस्तकें लिखी हैं। ब्रिटिश राष्ट्रीय पुस्तकालय ने इस विषय में सन् 1600 से ले कर 1947 तक के समय के विभिन्न दस्तावेज़ों को एकत्रित किया है। इनके अनुसार, शुरु में पुरुषों को अधिक लाया जाता था, वह परिवारों के नौकर तथा जहाज़ो में नाविक का काम करते थे। आया का काम करने वाली औरतों के अतिरिक्त, उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से बहुत से लोग ईंग्लैंड में पढ़ने के लिए भी आते थे ताकि वापस जा कर भारत में उनको अंग्रेजी सरकार में ऊँचे पदों पर नौकरी मिल सके।


कुछ वर्ष पहले, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की इतिहासकार प्रो. राधिका सिन्घा ने दो विश्व युद्धों में अंग्रेज़ी फौजों के साथ भारत से लाये गये सिपाहियों के जीवन पर शोध करके एक किताब लिखी थी जिसमें मैंने भी कुछ सहयोग किया था। उन भुला दिये गये सिपाहियों के अवशेष यूरोप के विभिन्न हिस्से में बिखरे हुए हैं, उनमें से इटली के फोर्ली शहर के एक स्मारक-कब्रिस्तान के बारे में मैंने एक बार लिखा था। हिस्टरी टुडे के भारत से आयी धाय-माँओं के बारे में आलेख ने सामान्य जनों के छुपे और भुलाए हुए इतिहासों के बारे में वैसी ही जानकारी दी। सोच रहा था कि जिन परिवारों की वह बेटियाँ, बहुएँ या माएँ थीं, गाँवों और शहरों में जब वह भारत छोड़ कर गयीं थीं, उस समय उनकी कहानियाँ भी कहानियाँ बनी होंगी, लोगों ने बातें की होंगी, फ़िर समय के साथ वह कहानियाँ लोग भूल गये होंगे। क्या जाने उनके बच्चे और वँशज उनकी स्मृतियों को सम्भाले होंगे या नहीं?

इतिहास ने और अंग्रेज़ों ने उन औरतों के साथ बुरा व्यवहार किया, उनको शोषित किया, लेकिन क्या स्वतंत्र होने के बाद भारत के नये शासक वर्ग ने वैसा शोषण बन्द कर दिया? भारत से विदेश जाने वाले संभ्रांत घरों के लोग अक्सर भारत से काम करने वाली औरतें बुलाते हैं और उन्हें घर में बन्दी बना कर रखते हैं। भारतीय दूतावासों में काम करने वाले लोगों के इस तरह के व्यवहार के बारे में कई बार ऐसी बातें सामने आयीं हैं। भारत के संभ्रांत घरों में नौकरी करने वाली औरतों के साथ भी कई बार गलत व्यवहार होता है। आज के परिवेश में भारत में ही नहीं, अरब देशों में भारतीय काम करने वालों के शोषण की भी अनगिनत कहानियाँ मिल जायेगी। मेरे विचार में जब हम इतिहास में हुए मानव अधिकारों के विरुद्ध आचरणों को देखते हैं तो हमें आज हो रहे शोषण को भी देखने समझने की दृष्टि मिलती है।

टिप्पणींः इस आलेख की सारी तस्वीरें आयाह और आमाह ब्लाग से ली गयीं हैं।

बुधवार, मई 25, 2022

अरे ओ साम्बा, कित्ती छोरियाँ थीं?

भारत में कितनी औरतें हैं यह प्रश्न गब्बर सिंह ने नहीं पूछा था, लेकिन यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है।

कुछ माह पहले भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने 2019 से 2021 के बीच में किये गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नतीजों की रिपोर्ट निकाली थी। इस रिपोर्ट के अनुसार आधुनिक भारत के इतिहास में पहली बार देश में लड़कियों तथा औरतों की कुल जनसंख्या लड़कों तथा पुरुषों की कुल जनसंख्या से अधिक हुई है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है जिससे देश की सामाजिक, आर्थिक व स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। यह भारत के लिए गर्व की बात है। अपने इस आलेख में मैंने इस बदलाव की राष्ट्रीय तथा राज्यीय स्तर पर कुछ विषलेशण करने की कोशिश की है।



नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात

कुल जनसंख्या में लड़कियों तथा औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक होनी चाहिए। अगर गर्भ में भ्रूण के बनते समय उसका नर या मादा होने के मौके एक बराबर ही होते हैं, तो समाज में नर और नारियों की संख्या भी एक बराबर होनी चाहिये। तो पुरुषों की संख्या औरतों से कम क्यों होती है? इसके कई कारण होते हैं। सबसे पहले हम नर तथा नारी जनसंख्या पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों को देख सकते हैं। 

नर भ्रूणों को स्वभाविक गर्भपात का खतरा अधिक होता है, इस लिए पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियाँ अधिक होती हैं। 

पैदा होने के बाद भी लड़के कई बीमारियों का सामना करने में लड़कियों से कमजोर होते हैं। समूचे जीवन काल में, बचपन से ले कर बुढ़ापे तक, चाहे एक्सीडैंट हों या आत्महत्या, चाहे शराब अधिक पीना हो या नशे की वजह हो, चाहे लड़ाईयाँ हों या सामान्य हिँसा, लड़के व पुरुष ही अधिक मरते हैं। लड़कों व पुरुषों की हड्डियाँ व माँस पेशियाँ अधिक मजबूत होती हैं, वह अधिक ऊँचे और शक्तिशाली होते हैं, लेकिन वह मजबूत शरीर बीमारियों से लड़ने तथा मानसिक दृष्टि से कम शक्तिशाली होते हैं। 

जबकि औरतों के जीवन में सबसे बड़ा स्वास्थ्य से जुड़ा खतरा होता है उनका गर्भवति होना और बच्चे को जन्म देना। पिछड़े व गरीब समाजों में औरतों की उर्वरता दर अधिक होती है, यानि बच्चों की संख्या अधिक होती है। कृषि से जुड़े गरीब समाजों को बच्चों के बाहुबल की आवश्यकता होती है। गरीब देशों की स्वास्थ्य सेवाएँ भी निम्न स्तर की होती हैं, तो बच्चों को टीके नहीं लगाये जाते या बीमार होने पर उनका सही उपचार नहीं हो पाता। इन सब वजहों से गरीब समाजों में बच्चे अधिक होते हैं। इसलिए गर्भवति होने वाली उम्र में गरीब समाजों में नवयुतियों के मरने का खतरा अधिक होता है। जबकि विकसित समाजों में, विषेशकर अगर लड़कियाँ पढ़ी लिखी हों, तो उनके बच्चे देर से पैदा होते हैं और उनकी संख्या कम हो जाती है। 

नारी शरीर की दूसरी कमजोरी का कारण है मासिक माहवारी। अगर उन्हें सही खाना मिलता रहे तो सामान्य माहवारी का उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं पड़ता, वरना इससे उनके रक्त में लोहे की कमी से अनीमिया होने का खतरा रहता है। लेकिन अगर प्रसव तथा माहवारी से जुड़े खतरों को छोड़ दें तो नारी शरीर में बीमारियों से लड़ने की अधिक शक्ति होती है। नारी शरीर के हारमोन उनकी बहुत सारी बिमारियों से, जैसे कि बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर तथा हृद्यरोग आदि से जब तक माहवारी चलती है, तब तक उनकी रक्षा करते हैं, उन बीमारियों से पुरुष अधिक मरते हैं। बुढ़ापे में भी नारी हारमोन उनकी कुछ हद तक रक्षा करते हैं जिससे कि औरतों की औसत जीवन अपेक्षा पुरुषों से अधिक होती है। 

प्राकृतिक स्वास्थ्य संबंधी कारणों के अतिरिक्त नर-नारी जनसंख्या पर सामाजिक सोच का असर पड़ता है। बहुत से समाजों में लड़कियों को पैदा होने से पहले ही गर्भपात करवा कर मरवा देते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि लड़कों से परिवार और संस्कृतियाँ चलती हैं। पैदा होने के बाद बेटों के तुलना में उन्हें खाना कम दिया जाता है, खेलकूद और पढ़ायी के अवसर कम मिलते हैं। और जब वह बीमार होती हैं तो उनका इलाज देर से करवाया जाता है और कम करवाया जाता है।



देशों में कुल जनसंख्या में नर अधिक होंगे या नारियाँ, उस आकंणे पर ऊपर बताये गये सब भिन्न प्रभावों के नतीजों को जोड़ कर देखना पड़ेगा। विश्व स्तर पर उन आकंणों को देखें तो हम पाते हैं कि विकसित देशों में जनसंख्या में नारियाँ अधिक होती हैं, जबकि कम विकसित तथा गरीब देशों में पुरुषों की संख्या अधिक होती है। जैसे जैसे समाज विकसित होने लगते हैं, औरतें अधिक पढ़ती लिखती हैं, नौकरी करके स्वंतत्र रहने के काबिल बन जाती हैं और आवश्यकता पड़ने पर माता पिता की देखभाल भी कर सकती हैं, तो जनसंख्या में उनका अनुपात बढ़ने लगता है। 

अन्य देशों से नर-नारी अनुपात के कुछ आकंणे

नये भारतीय सर्वेषण के नतीजों को देखने से पहले आईये पहले हम कुछ अन्य देशों में नर-नारी अनुपात की क्या स्थिति है उसको देखते हैं।

इस दृष्टि से पहले दुनिया के कुछ विकसित देशों की स्थिति कैसी है, पहले उसके आकणें देखते हैं। 1000 पुरुषों के अनुपात में देखें तो फ्राँस में 1054 औरतें हैं, जर्मनी में 1039, ईंग्लैंड और स्पेन में 1024, इटली में 1035, अमरीका में 1030, तथा जापान में 1057। यानि हर विकसित देश में लड़कियों व औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक है। 

आईये अब भारत के आसपास के देशों की स्थिति देखें। यहाँ पर 1000 पुरुषों के अनुपात में पाकिस्तान में 986 औरतें हैं, बँगलादेश में 976, नेपाल में 1016, और चीन में 953। यानि नेपाल में स्थिति बेहतर हैं जबकि चीन, पाकिस्तान व बँगलादेश में खराब है। हाँलाकि पिछले दो दशकों में चीन बहुत अधिक विकसित हुआ है लेकिन चीन में अभी कुछ समय पहले तक नियम था कि परिवार में एक से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिये, और वहाँ की सामाजिक सोच इस तरह की है जिसमें वह सोचते हैं कि लड़के ही पैदा होंने चाहिए, इसके दुष्प्रभाव पड़े हैं।

विभिन्न देशों के आंकणें देखते समय वहाँ की अन्य परिस्थितयों के असर के बारे में सोचना चाहिये। जहाँ युद्ध हो रहे हैं वहाँ पुरुषों की संख्या और भी कम हो सकती है। कुछ जगहों में पुरुषों को घर-गाँव छोड़ कर पैसा कमाने के लिए दूर कहीं जाना पड़ता है, तो वहाँ भी जनसंख्या में पुरुषों की संख्या कम हो जायेगी, जबकि जिन जगहों पर पुरुष प्रवासी काम खोजने आते हैं, वहाँ पर उनका अनुपात बढ़ जाता है। जब आंकणों में किसी जगह पर बहुत अधिक पुरुष या नारियाँ दिखें तो वहाँ की सामाजिक स्थिति के बारे में अन्य कारणों को समझना आवश्यक हो जाता है।

भारत के राष्ट्रीय स्तर के आंकणे

राष्ट्रीय स्तर पर यह आकंणे सन् 1901 के बाद से जमा किये जाते रहे हैं। चूँकि सौ वर्ष पहले के भारत में आज के पाकिस्तान, बँगलादेश तथा कुछ हद तक मयनमार भी शामिल थे तो उनके आंकणों की आधुनिक भारत के आंकणों से पूरी तरह तुलना नहीं की जा सकती लेकिन उनसे हमारी स्थिति के बारे में कुछ जानकारी तो मिलती है।

1901 में भारत में हर 1000 पुरुषों से सामने 972 औरतें थीं, जबकि 1970 में उनकी संख्या 930 रह गयी थी। 2005-06 में जब तृतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेषण में यह जानकारी जमा की गयी तो भी स्थिति में बदलाव नहीं आया था, 1000 पुरुषों के सामने 939 औरतें थीं। 2015-16 में जब चौथा सर्वेषण किया गया तो पहली बार महत्वपूर्ण बदलाव दिखा जब औरतों की संख्या बढ़ कर 991 हो गयी थी। इस वर्ष आये परिणामों में स्थिति और मजबूत हुई है, इस बार 1000 पुरुषों के मुकाबले में 1020 औरतें हैं।

इन आकंणो से हम क्या निष्कर्श निकाल सकते हैं? मेरे विचार में सौ साल पहले औरतों की संख्या कम होने का कारण था उन्हें खाना अच्छा न मिलना, बच्चे अधिक होना, और प्रसव के समय स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। यह सभी बातें 1970 के सर्वेषण तक अधिक नहीं बदली थीं। 1990 के दशक में भारत में विकास बढ़ा, साथ में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बेहतर हुई लेकिन साथ ही गर्भवति औरतों के लिए अल्ट्रासाँऊड टेस्ट कराने की सुविधाएँ भी तेजी सी बढ़ी जिनसे परिवारों के लिए होने वाले बच्चे का लिंग जानना बहुत आसान हो गया, जिससे बच्चियों की भ्रूण बहुत अधिक संख्या में गिरवाये जाने लगे। इसका असर 2005-06 के सर्वेषण पर पड़ा और बच्चे कम होने, भोजन बेहतर होने व स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर होने के बावजूद औरतों की संख्या कम ही रही।

भारत में बच्चियों का गर्भपात

हालाँकि भारत सरकार ने गर्भवति औरतों में अल्ट्रासाऊँड टेस्ट से लिंग ज्ञात करने की रोकथाम के लिए 1994 से कानून बनाया था, इसे 2005-06 के सर्वेषण के बाद सही तरह से लागू किया गया जब डाक्टरों पर सजा को बढ़ाया गया। लेकिन सामाजिक स्तर पर भारत में बेटियों की स्थिति अधिक नहीं बदली, इस कानून का भी कुछ विषेश असर नहीं पड़ा है।

भारत में बच्ची होने पर गर्भपात कराने की परम्परा अभी महत्वपूर्ण तरीके से नहीं बदली, यह हम एक अन्य आंकणे से समझ सकते हैं - छः वर्ष से छोटे बच्चों में लड़कों और लड़कियों के अनुपात को देखा जाये। 2001 में छः वर्ष से छोटे बच्चों की जनसंख्या में हर 1000 लड़कों के सामने 927 लड़कियाँ थीं। 2005-06 में यह संख्या घट कर 918 हो गयी। 2015-16 में यह संख्या बदली नहीं थी, 919 थी। और, 2019-21 के नये सर्वेषण में भी यह अधिक नहीं बदली, 924 है।

इसका अर्थ है कि औरतों की संख्या में बढ़ोतरी का बदलाव जो 2019-21 के सर्वेषण में दिखता है वह अन्य वजहों से हुआ है जैसे कि उन्हें पोषण बेहतर मिलना, छोटी उम्र में विवाह कम होना, विवाह के बाद बच्चे कम होना और प्रसव के समय बेहतर स्वास्थ्य सेवा मिलना।

ग्रामीण तथा शहरी क्षत्रों में अंतर

राष्ट्रीय स्तर पर और बहुत से प्रदेशों में ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की स्थिति शहरों से बेहतर है। राष्ट्रीय स्तर पर 1998-99 में 1000 पुरुषों के अनुपात में शहरी क्षेत्रों में 928 औरतें थीं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी संख्या 957 थी। बाईस साल बाद, 2019-21 के सर्वेषण में राष्ट्रीय स्तर के आंकणों में दोनों क्षेत्रों में स्थिति सुधरी है, शहरों में उनकी संख्या 985 हो गयी है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में संख्या 1037 हो गयी है।

लेकिन यह बदलाव बड़े शहरों से जुड़े ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं आया। दिल्ली, चंदीगढ़, पुड्डूचेरी जैसे शहरों के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की संख्या शहरों से कम है। यह आंकणे देख कर मुझे लगा कि इन क्षेत्रों में स्थिति को समझने के लिए विषेश शोध किये जाने चाहिये। एक कारण हो सकता है कि यहाँ बच्चियों का गर्भपात अधिक होता हो? शायद उससे भी बड़ा कारण है कि देश के अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी युवक इन गाँवों में सस्ती रहने की जगह पाते हैं जिसकी वजह से यहाँ पुरुषों की संख्या अधिक हो जाती है?

अन्य कुछ बातें भी हैं। जैसे कि सामान्य सोच है कि गाँवों में समाज अधिक पाराम्परिक या रूढ़िवादी होते हैं, वहाँ सामाजिक सोच को बदलने में समय लगता है। वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं को पाना भी कठिन हो सकता है, हालाँकि प्राथमिक सेवा केंद्रों तथा आशा कर्मियों से बहुत जगहों पर स्थिति में बहुत सुधार आया है। लेकिन इन सबको ठीक से समझने के लिए विषेश शोध होने चाहिये।

राज्य स्तर के आंकणे

अंत में राज्य स्तर के आंकणों के बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत है। जैसा कि मैंने ऊपर बताया है, इन आंकणों पर अन्य बहुत सी बातों का असर पड़ता है इसलिए उनके महत्व को ठीक से समझने के लिए सावधानी बरतनी चाहिये।

मेरे विचार में राज्यों की स्थिति को देश के विभिन्न भागों में बाँट कर देखना अधिक आसान है। मैंने राज्यों को चार भागों में बाँटा है - पहले भाग में हैं उत्तरपूर्व को छोड़ कर उत्तरी व मध्य भारत की सभी राज्य; दूसरे भाग में मैंने दक्षिण भारत के राज्यों को रखा है, जिनमें गोवा भी है; तीसरा भाग है उत्तरपूर्व के राज्य जिनमें सिक्किम भी है; और चौथा भाग है केन्द्रीय प्रशासित क्षेत्र जैसे कि अँडमान या चँदी गढ़, इनमें दिल्ली भी है।

उत्तर तथा मध्य भारत के राज्य

2015-16 के आंकणों के अनुसार, उत्तर व मध्य भारत में सात राज्यों में औरतों की संख्या की स्थिति नकरात्मक थी - हरियाणा 876, राजस्थान 887, पँजाब 905, गुजरात 950, महाराष्ट्र 952, एवं जम्मु कश्मीर में 971। उत्तरप्रदेश में स्थिति बाकियों के मुकाबले में कुछ ठीक थी, 995। बाकी के सभी प्रदेशों में (झारखँड, पश्चिम बँगाल, उत्तरखँड, छत्तीसगढ़, ओडीशा, बिहार व हिमाचल प्रदेश) में औरतों की संख्या पुरुष अनुपात में 1000 से अधिक थी, उनमें से सबसे उच्चस्थान पर थे बिहार 1062 तथा हिमाचल प्रदेश 1087।

2019-21 के आंकणें देखें तो कुछ बदलाव दिखते हैं। जम्मू कश्मीर को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में स्थिति में कुछ सुधार आया है, हालाँकि पँजाब व राजस्थान में सुधार की मात्रा थोड़ी सी ही है। इन परिवर्तनों के बाद सबसे अधिक नकारात्मक स्थितियाँ इन राज्यों में हैं - राजस्थान 891, हरियाणा 926, पँजाब 938, जम्मू कश्मीर 948, गुजरात 965, महाराष्ट्र 966, और मध्यप्रदेश 970। बाकी सभी राज्यों में औरतों का अनुपात 1000 से ऊपर है। सबसे बेहतर स्थिति है ओडीशा में 1063 तथा बिहार में 1090। मेरे विचार में जिन राज्यों में स्थिति सकारात्मक दिखती है वहाँ के आंकणों पर अधिक पुरुषों के प्रवासी होने का भी प्रभाव है।

दक्षिण भारत के राज्य

गोवा सहित दक्षिण भारत के राज्यों में 2015-16 में स्थिति केवल कर्णाटक में नकारात्मक थी, 979, बाकी सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक थी।

2019-21 के सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक हो गयी थी।

उत्तरपूर्वी भारत के राज्य

उत्तरपूर्वी भारत के आठ राज्यों में से 2015-16 में 3 राज्यों में स्थिति नकारात्मक थी - सिक्किम 942, अरुणाचल 958 तथा नागालैंड 968। दो राज्यों में स्थिति थोड़ी सी नकारात्मक थी, असम में 993 और त्रिपुरा में 998, जबकि मेघालय, मिजोरम तथा मणीपुर में स्थिति सकारात्मक थी।

इस बार के 2019-21 सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सुधरी है, हालाँकि अभी भी सिक्किम में 990 तथा अरुणाचल में 997 होने से थोड़ी सी नकारात्मक है।

दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भाग

अंत में दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भागों में देखें तो 2015-16 में चार क्षेत्रों में स्थिति गम्भीर थी - दादरा, नगर हवेली, दमन, दीव 813, दिल्ली 854, चंदीगढ़ 934 तथा अँडमान 977। सभी जगहों पर इन क्षेत्रों के ग्रामीण हिस्सों की स्थिति और भी गम्भीर थी, जिसका एक कारण अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी पुरुष हो सकता है।

2019-21 में स्थिति में कुछ सुधार हुआ और कुछ स्थिति और भी नकारात्मक हुई - दादरा, नगर हवेली आदि 827, दिल्ली 913, चंदीगढ़ 917, अँडमान 963, लदाख 971। अँडमान में कितने प्रवासी है, वहाँ क्या कारण हो सकते हैं, उसके आंकणों से मुझे थोड़ी हैरानी हुई।


अंत में

अगर हम पूरे भारत के स्तर पर विभिन्न राज्यों में नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात में आये परिवर्तनों को देखें तो पाते हैं कि बहुत राज्यों में स्थिति सुधरी है, विषेशकर लक्षद्वीप, केरल, कर्णाटक, तमिलनाडू, हरियाणा, सिक्किम, झारखँड, नागालैंड तथा अरुणाचल में। कुछ जगहों पर अनुपात कुछ घटा है जैसे कि हिमाचल प्रदेश, हालाँकि कुछ स्थिति अभी भी सकारात्मक है।

राज्य स्तर के आंकणों में आने वाले बदलावों को ठीक से समझना आसान नहीं है क्योंकि उस पर अन्य कारणों के साथ साथ पुरुषों के काम की खोज में अन्य राज्यों में जाने से भी बहुत असर पड़ता है। इसकी वजह से समृद्ध राज्य जहाँ प्रवासी आते हैं उनकी पुरुष संख्या बढ़ी दिखती है और पिछड़े राज्य, जहाँ से पुरुष प्रवासी बन कर निकलते हैं, उनके आंकड़े सच्चाई से बेहतर दिखते हैं।

राज्यों की स्थिति चाहे जो भी हो, राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जनसंख्या में औरतों के अनुपात में इस तरह से बढ़ौती बहुत सकारात्मक बदलाव है। केवल एक आंकणे पर अधिक बातें कहना सही बात नहीं होगी, उसके लिए हमें स्वास्थ्य से संबंधित अन्य आंकणों को देखना पड़ेगा। लेकिन यह स्थिति भारत को विकास की ओर बढ़ाने में यह सही राह पर होने का आभास देती है।

बुधवार, मई 18, 2022

स्वास्थ्य विषय पर फ़िल्मों का समारोह

विश्व स्वास्थ्य संस्थान (विस्स) यानि वर्ल्ड हैल्थ ओरग्नाईज़ेशन (World Health Organisation - WHO) हर वर्ष स्वास्थ्य सम्बंधी विषयों पर बनी फ़िल्मों का समारोह आयोजित करता है, जिनमें से सर्व श्रेष्ठ फ़िल्मों को मई में वार्षिक विश्व स्वास्थ्य सभा के दौरान पुरस्कृत किया जाता है। विस्स की ओर से जनसामान्य को आमंत्रित किया जाता है कि वह इन फ़िल्मों को देखे और अपनी मनपसंद फ़िल्मों पर अपनी राय अभिव्यक्त करे। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चुनने वाली उनकी जूरी इस जन-वोट को भी ध्यान में रखती है। आजकल इस वर्ष की फ़िल्मों को विस्स की यूट्यूब चैनल पर देखा जा सकता है। कुछ दिन पहले मैंने इस फैस्टिवल में तीन श्रेणियों में सम्मिलित की गयी लघु फ़िल्मों को देखा। वह श्रेणियाँ थीं - स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष (Innovation), पुनर्क्षमताप्राप्ति (Rehabilitation) तथा अतिलघु फ़िल्में। यह आलेख उनमें से मेरी मनपसंद फ़िल्मों के बारे में हैं।


स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष विषय की फ़िल्में

स्वास्थ्य के बारे में सोचें कि उससे जुड़े नये उन्मेष (innovation) या नयी खोजें किस किस तरह की हो सकती हैं तो मेरे विचार में हम उनमें नयी तरह की दवाएँ या नयी चिकित्सा पद्धतियों को ले सकते हैं, नये तकनीकों तथा नये तकनीकी उपकरणों को भी ले सकते हैं, जनता को नये तरीकों से जानकारी दी जाये या किसी विषय के बारे में अनूठे तरीके से चेतना जगायी जाये जैसी बातें भी हो सकती हैं। इस दृष्टि से देखें तो मेरे विचार में इस श्रेणी की सम्मिलित फ़िल्मों में सचमुच का नयापन अधिक नहीं दिखा। इन सभी फ़िल्मों की लम्बाई पाँच से आठ मिनट के लगभग है।

एक फ़िल्म में आस्ट्रेलिया के एक भारतीय मूल के डॉक्टर की कहानी है (Equal Access) जिनका कार दुर्घटना में मेरूदँड (रीड़ की हड्डी) में चोट लगने से शरीर का निचले हिस्से को लकवा मार गया था। वह कुछ वैज्ञानिकों के साथ मिल कर विकलाँगों द्वारा उपयोग होने वाले नये उपकरणों के बारे में होने वाले प्रयोगों के बारे में बताते हैं जैसे कि साइबर जीवसत्य (virtual reality) का प्रयोग। इसमें नयी बात थी कि वैज्ञानिक यह प्रयोग प्रारम्भ से ही विकलाँग व्यक्तियों के साथ मिल कर रहे हैं जिससे वह उनके उपयोग से जुड़ी रुकावटों तथा कठिनाईयों को तुरंत समझ कर उसके उपाय खोज सकते हैं।

एक अन्य फ़िल्म (Malakit) में दक्षिण अमरीकी देश फ्राँसिसी ग्याना में सोने की खानों में काम करने वाले ब्राज़ीली मजदूरों में मलेरिया रोग की समस्या है। जँगल में जहाँ वह लोग सोना खोजते हैं, वहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं हैं। वह मजदूर जब भी उन्हें बुखार हो, अपने आप ही बिना कुछ जाँच किये मलेरिया की दवा ले कर खा लेते हैं जिससे खतरा है कि मलेरिया की दवाएँ काम करना बन्द कर देंगी। इसलिए सरकार ने किट बनाये हैं जिससे लोग अपने आप यह टेस्ट करके देख सकते हैं कि उन्हें मलेरिया है या नहीं, और अगर टेस्ट पोसिटिव निकले तो उसमें मलेरिया का पूरा इलाज करने की दवा भी है। मजदूरों को यह किट मुफ्त बाँटे जाते हैं और मलेरिया का टेस्ट कैसे करें, तथा दवा कैसे लें, इसकी जानकारी भी उन्हें दी जाती है।

पश्चिमी अफ्रीकी देश आईवरी कोस्ट की एक फ़िल्म (A simple test for Cervical cancer) में वहाँ की डॉक्टर मेलानी का काम दिखाया गया है जिसमें वह एक आसान टेस्ट से औरतों में उनके गर्भाश्य के प्रारम्भिक भाग में होने वाले सर्वाईक्ल कैंसर (Cervical cancer) की जाँच करती हैं, और अगर यह टेस्ट पोसिटिव निकले तो उस स्त्री की और जाँच की जा सकती है।

मिस्र यानि इजिप्ट की एक फ़िल्म में विकलाँग बच्चों को कला के माध्यम से उनके विकास को प्रोत्साहन देने की बात है, तो फ्राँस की एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों को पहाड़ पर चढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। नेपाल में एक सामुदायिक कार्यक्रम स्कूल जाने वाले किशोरों को मासिक माहवारी की जानकारी देता है, जबकि पश्चिमी अफ्रीकी देश सिएरा लिओने में पैर कटे हुए विकलाँग लोगों के लिए त्रिभुज छपाई (3D printing) से कृत्रिम पैर बनाने की बात है, जबकि तन्ज़ानिया में बच्चियों तथा लड़कियों को यौन अंगों की कटाई की प्रथा से बचाने की बात है।


मुझे लगा कि इन फ़िल्मों में सचमुच का नवोन्मेष थोड़ा सीमित था या पुरानी बातें ही थीं। नेपाल में मासिक माहवारी की जानकारी देना या तन्ज़ानियाँ में यौन कटाई की समस्या पर काम करना महत्वपूर्ण अवश्य हैं लेकिन यह कितने नये हैं इसमें मुझे संदेह है। सिएरा लिओने का कृत्रिम पैर नयी तकनीकी की बात है लेकिन उसमें भी उपकरण के एक हिस्से को बनाने की बात है, उसका बाकी का हिस्सा पुरानी तकनीकी से बनाया जा रहा है।

पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा

पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा(rehabilitation) के लिए अधिकतर लोग पुनर्निवासन शब्द का प्रयोग करते हैं जोकि मुझे गलत लगता है। पुनर्निवासन की बात उस समय से आती है जब विकलाँग व्यक्ति को रहने की जगह नहीं मिलती थी और उनके रहने के लिए विषेश संस्थान बनाये जाते थे। आजकल जब हम रिहेबिलिटेशन की बात करते हैं तो हम उन चिकित्सा, व्यायाम तथा उपकरणों की बात करते हैं जिनसे व्यक्ति अपने शरीर के कमजोर या भग्न कार्यक्षमता को दोबारा पाते हैं। इस चिकित्सा में फिजीयोथैरेपी (physiotherapy) यानि शारीरिक अंगों की चिकित्सा, आकूपेशनल थैरेपी (occupational therapy) यानि कार्यशक्ति को पाने की चिकित्सा जैसी बातें भी आती हैं। इसलिए मैं यहाँ पर पुनर्निवासन की जगह पर पूर्वक्षमताप्राप्ति शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। अगर किसी पाठक को इससे बेहतर कोई शब्द मालूम हो तो मुझे अवश्य बतायें।

पुनर्क्षमताप्राप्ति विषय की कुछ फ़िल्में मुझे अधिक अच्छी लगीं। यह फ़िल्में भी अधिकतर पाँच से आठ मिनट लम्बी थीं।

जैसे कि एक फ़िल्म (Pacing the Pool) में आस्ट्रेलिया के एक ६४ वर्षीय पुरुष बताते हैं कि बचपन से विकलाँगता से जूझने के बाद कैसे नियमित तैरने से वह अपनी विकलाँगता की कुछ चुनौतियों का सामना कर सके। दुनिया में वृद्ध लोगों की जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और मुझे उस सबके लिए तैरना या चलना या अन्य तरह के व्यायाम नियमित रूप से करना बहुत महत्वपूर्ण लगता है।

इसके अतिरिक्त दो फ़िल्में कोविड से प्रभावित लोगों की बीमारी से ठीक होने के बाद लम्बे समय तक अन्य शारीरिक कठिनाईयों का समाना करने की बात है। नेपाल की एक फिल्म में (A Model One Stop) उन कठिनाईयों का अस्पताल में विभिन्न स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सहायता से चिकित्सा करना दिखाया गया जबकि एक अमरीकी फ़िल्म (Long Haul) में पीड़ित व्यक्तियों का कमप्यूटर या मोबाइल फोन के माध्यम से नियमित मिलना, आपस में आपबीती सुनाना, एक दूसरे को सहारा देना जैसी बातें हैं। यह अमरीकी फ़िल्म मुझे बहुत अच्छी लगी और कोविड के शरीर पर किस तरह से लम्बे समय के लिए असर रह सकते हें इसकी कुछ नयी समझ भी मिली।

इंग्लैंड की एक फ़िल्म (Move Dance Feel) में कैसर से पीड़ित महिलाओं का हर सप्ताह दो घँटे के लिए मिलना और साथ में स्वतंत्र नृत्य करने का अनुभव है। ऐसा ही एक कार्यक्रम उत्तरी इटली में हमारे शहर में भी होता है, जिसमें महिला और पुरुष दोनों भाग लेते हैं। यह बूढ़े लोग, बीमार लोग, मानसिक रोग से पीड़ित लोग, आदि सबके लिए होता है, और सब लोग सप्ताह में एक बार मिल कर साथ में नृत्य का अभ्यास करते हैं।


इनके साथ कुछ अन्य फ़िल्में थीं जिनमें मुझे कुछ नया नहीं दिखा जैसे कि बँगलादेश की एक फ़िल्म में एक नवयुवती की कृत्रिम टाँग पाने से उसके जीवन में आये सुधार की कहानी है। ब्राजील की एक फिल्म में टेढ़े पाँव के साथ पैदा हुए एक बच्चे के इलाज की बात है। मिस्र से विकलाँग बच्चों का कला, संगीत आदि से उनके विकास को सशक्त करने की बात है।

अतिलघु फ़िल्में

यह फ़िल्में दो मिनट से छोटी हैं, इसलिए इनके विषय समझने में सरल हैं। एक फिल्म से कोविड से बचने के लिए मास्क तथा वेक्सीन का मह्तव दिखाया गया है तो कामेरून की एक फ़िल्म में एक स्थानीय अंतरलैंगिक संस्था की कोविड की वजह से एडस कार्यक्रम में होने वाली कठिनाईयों की बात है। दो फ़िल्मों में, एक मिस्र से और दूसरी किसी अफ्रीकी देश से, घरेलू पुरुष हिँसा के बारे में हैं। एक फ़िल्म में स्वस्थ्य रहने के लिए सही भोजन करने के बारे में बताया गया है, तो एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से उबरने में व्यायाम के महत्व को दिखाया गया है।

मुझे इन सबमें से एक इजराईली फ़िल्म (Creating Connections) सबसे अच्छी लगी जिसमें मानसिक रोगियों को विवाह करने वाले मँगेतरों के लिए हस्तकला से अँगूठी बनाना सिखाते हैं जिससे रोगियों को प्रेमी युगलों से बातचीत करने का मौका मिलता है।


अंत में

अगर आप को लघु फिल्में देखना अच्छा लगता है और स्वास्थ्य विषय में दिलचस्पी है, तो मेरी सलाह है कि आप विस्स के फैस्टिवल में सम्मिलित फ़िल्मों को अवश्य देखें। सभी फ़िल्मों में अंग्रेजी के सबटाईटल हैं और फ़िल्म देखना निशुल्क हैं। सबटाइटल में फ़िल्म में लोग जो भी बोल रहे हों वह लिखा दिखता है, इसलिए शायद उन्हें हम हिंदी में "बोलीलिपि" कह सकते हैं। इसके बारे में अगर आप को इससे बेहतर शब्द मालूम हो मुझे बताइये।

अभी तक ऐसे सोफ्तवेयर जिनसे अंग्रेजी के सबटाईटल अपने आप हिंदी में अनुवाद हो कर दिखायी दें, यह सुविधा नहीं हुई है, जब वह हो जायेगी तो हम लोग किसी भी भाषा की फ़िल्म को देख कर अधिक आसानी से समझ सकेंगे। शायद कोई भारतीय नवयुवक या नवयुवती ही ऐसा कुछ आविष्कार करेगें जिससे अंग्रेजी न जानने वाले भी इन फ़िल्मों को ठीक से देख सकेंगे।

बुधवार, अप्रैल 27, 2022

बिमल मित्र - दायरे से बाहर

बहुत समय के बाद बिमल मित्र की कोई किताब पढ़ी। बचपन में उनके कई धारावाहिक उपन्यास पत्रिकाओं, विषेशकर साप्ताहिक हिंदुस्तान पत्रिका, में छपते थे, वे मुझे बहुत अच्छे लगते थे। फ़िर घर के करीब ही दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी से ले कर भी उनकी बहुत सी किताबें पढ़ीं थीं। उनकी पुस्तक "खरीदी कौड़ियों के मोल" मेरी सबसे प्रिय किताबों में से थी।

वह बँगला में लिखते थे, लेकिन हिंदी के साहित्य पढ़ने वालों में भी बहुत लोकप्रिय थे, इसलिए उनके सभी उपन्यास हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किये जाते थे। बिमल मित्र का जन्म 18 मार्च 1912 को हुआ था। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. की शिक्षा पायी और लगभग साठ  किताबें लिखीं। उनका देहांत 2 दिसम्बर 1991 को हुआ।

Bimal Mitra
बिमल मित्र की बहुत सी किताबों पर बँगाली में फ़िल्में बनी थीं जैसे कि उनकी एक किताब पर पहले १९५६ में सुमित्रा देवी और उत्तम कुमार की फ़िल्म थी "साहेब बीबी गोलाम", जिस पर कुछ वर्षों के बाद १९६२ में मीना कुमारी और गुरुदत्त की हिंदी फ़िल्म "साहब बीबी और गुलाम" भी बनी थी जिसे आज तक हिंदी की उच्च फ़िल्मों में गिना जाता है। उनकी किताबों पर बनी अन्य बँगाली फ़िल्मों में हैं - नीलाचले महाप्रभु (१९५७), बनारसी (१९६२) और स्त्री (१९७२)। उनकी पुस्तक "आसामी हाजिर" पर १९८८ में हिंदी धारावाहिक सीरियल "मुजरिम हाजिर" दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ था जिसमें नूतन, उत्पल दत्त, रीता भादुड़ी और मोहन भँडारी जैसे जाने माने कलाकारों ने काम किया था।

पिछली बार दिल्ली गया था तो उनकी किताब "दायरे के बाहर" को दरियागँज के फुटपाथ से खरीदा था। ला कर अल्मारी में रख दिया था कि एक दिन पढ़ूँगा। कोविड महामारी की वजह से घर में बँद रहने के कारण बहुत सी पुरानी खरीदी किताबों को पढ़ने का मौका मिला तो उनमें "दायरे के बाहर" का नम्बर भी आ गया। यह उपन्यास दिल्ली के सन्मार्ग प्रकाशन द्वारा 1996 में छापा गया लेकिन उसमें यह नहीं लिखा कि उसका मूल बँगला नाम क्या था या वह पहली बार कब छपा और उसके कितने संस्करण छप चुके थे। पुस्तक का बँगला से हिंदी अनुवाद श्री हंसकुमार तिवारी ने किया था।

"दायरे के बाहर" का अनोखा प्रारम्भ

"दायरे के बाहर" कुछ अजीब तरह से शुरु होती है। वैसे तो यह बिमल मित्र के लिखने की शैली ही थी कि उनकी बहुत सी किताबों के शुरु में कुछ एक या दो पृष्ठ लम्बा दर्शनात्मक विवेचन होता था। पर "दायरे के बाहर" के प्रारम्भ में यह विवेचन बहुत लम्बा है। उसमें यह भी लिखा है कि यह उनका पहला उपन्यास था जो उन्होंने द्वितीय महायुद्ध के बाद के समय में लिखा था और तब इसका नाम था "राख"। फ़िर लिखा है कि पहली बार लिखा उपन्यास जिस बात पर समाप्त किया गया था, उसके बाद उनके पात्रों के जीवन कुछ अन्य बातें हुईं जिन्हें उन्होंने इस नये संस्करण में जोड़ दिया है। वह कहते हैं कि इसे पहले जब लिखा था तो वह नये लेखक थे और इसकी भाषा में भी कुछ कमियाँ थीं जिन्हें उन्होंने नये संस्करण में कुछ सीमा तक सुधारा था।

इस टिप्पणी से लगता है कि यह उपन्यास पूरी तरह से काल्पनिक नहीं था, बल्कि वह सचमुच के लोगों के जीवन पर आधारित था। इन सब बातों में कितना सच था, यह तो कोई उनके साहित्य को मुझसे बेहतर जानने वाला ही बता सकता है कि यह सचमुच की बात थी या फ़िर कहानी को नाटकीय बनाने का एक तरीका।

"दायरे से बाहर" का कथा सार

उपन्यास की नायिका हैं सुरुचि जोकि द्वितीय महायुद्ध के पहले के दिनों में कलकत्ता में अपने अध्यापक पिता सदानंद और माँ मृण्मयी के साथ रहती है। उनके घर में रहने एक युवक आता है जिसका नाम है शेखर और जिसे सदानंद के पुराने मित्र गौरदास ने भेजा है। शेखर और सुरुचि एक दूसरे को चाहने लगते हैं और सुरुचि गर्भवति हो जाती है। यह बात जान कर शेखर सुरुचि से कहता है कि वह उससे विवाह करेगा लेकिन एक दिन वह अचानक वहाँ से बिना कुछ कहे गुम हो जाता है। सुरुचि को ले कर उसकी माँ एक दूर गाँव में रिश्ते की एक बुआ के पास रहने चली जाती है, सबको कहा जाता है कि मृण्मयी गर्भवति है। उस समय द्वितीय महायुद्ध छिड़ चुका है और कलकत्ता में भी बम गिरने की आशंका है, इसलिए बहुत से लोग शहर में अपने घर छोड़ कर गाँव जा रहे है।

गाँव में सुरुचि के बेटा होता है और उसके थोड़े दिनों के बाद मृण्मयी का देहांत हो जाता है। सुरुचि अपने बेटे राहुल को अपना छोटा भाई कहने को मजबूर है, उसे ले कर वह शहर वापस लौट आती है, जहाँ सदानन्द को पक्षाघात हो जाता है। शहर में उसे नौकरी देते हैं एक प्रौढ़ विधुर उद्योगपति विलास चौधरी, जो नौकरी देने के साथ साथ उसके बीमार पिता की देखभाल का इन्तजाम भी करवाते हैं। जब वह सुरुचि से विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तो एहसानों से दबी सुरुचि उन्हें न नहीं कह पाती। विवाह के बाद वह अपने पति की पहली संतान से मिलती है, जो कि जेल से छूटा शेखर है, तो हैरान हो जाती है लेकिन अब तो उनके रिश्ते को बहुत देर हो चुकी है। अपने पिता की नयी पत्नी को देख कर शेखर घर छोड़ कर दोबारा गुम हो जाता है।

साल बीत जाते हैं और विलास चौधरी का देहांत हो जाता है। तब सुरुचि की मुलाकात गौरदास से होती है जोकि अनाथ बच्चों के लिए आश्रम चला रहे हैं। विधवा सुरुचि जानती है कि शेखर गौरदास के लिए ही काम करता है, तो वह गौरदास पर दबाव डालती है कि शेखर को कलकत्ता बुलाया जाये ताकि वह उससे बात कर पाये।

कथानक से जुड़ी कुछ बातें

बिमल मित्र की अन्य किताबों की तरह यह भी बहुत दिलचस्प है, एक बार पढ़ना शुरु किया जो बीच में छोड़ी नहीं गयी। नायिका की दुविधा कि जिस पुरुष के बच्चे की माँ थी, वह उसे बेटा बुलाने को बाध्य है, में जो ड्रामा छुपा है उसे बिमल मित्र बहुत सुंदर तरीके से अभिव्यक्त करते हैं।

यह किताब पढ़ते हुए मेरे मन में दो फ़िल्मों की कहानियाँ याद आ रही थीं। एक तो जरासंध के १९५८ के बँगला उपन्यास "तामसी" पर बनी बिमल राय द्वारा निर्देशित फ़िल्म "बन्दिनी" (१९६३) थी। मैंने "तामसी" का हिंदी अनुवाद बचपन में पढ़ा था। जैसे "दायरे के बाहर" में गाँव से आया क्राँतीकारी शेखर मेहमान बन कर सदानंद के यहाँ आ कर रहता है और उसे उनकी बेटी सुरुचि से प्रेम हो जाता है, यही कहानी "बन्दिनी" की पृष्ठभूमि में भी थी जिसमें क्राँतीकारी शेखर (अशोक कुमार) को ब्रिटिश सरकार गाँव में गृहकैद के लिए एक गाँव में भेज देती है जहाँ उसे गाँव के पोस्टमास्टर बाबू की बेटी कल्याणी (नूतन) से प्रेम हो जाता है।

दूसरी फ़िल्म जिससे इस उपन्यास की कहानी मिलती थी वह थी १९५७ की एल वी प्रसाद द्वारा निर्देशित फ़िल्म "शारदा" जिसकी नायिका शारदा (मीना कुमारी) को एक नवयुवक शेखर (राज कपूर) से प्रेम है। विदेश गये शेखर की अनुपस्थिति में पिता की बीमारी का इलाज कराने के लिए शारदा को सेठ जी की सहायता लेनी पड़ती है और जब वह उसे विवाह के लिए कहते हैं तो एहसानों तले दबी शारदा न नहीं कह पाती। विवाह के बाद जब वह जान पाती है कि शेखर उन्हीं सेठ जी का बेटा है, तब तक बहुत देर हो चुकी है। "शारदा" १९५४ की तमिल फ़िल्म "एधीर पराधनु" पर बनी थी।

बिमल मित्र के उपन्यास का नायक शेखर, तामसी/बन्दिनी में भी था और शारदा में भी। चूँकि बिमल मित्र ने इस उपन्यास को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लिखा था, मुझे लगता है जरासंध की तामसी कहानी की समानता संयोगवश हो सकती है लेकिन शारदा की कहानी शायद "राख" से प्रेरित थी?  

"दायरे के बाहर" किताब पढ़ते समय स्पष्ट लगता है कि इसका अंतिम भाग बाद में लिखा गया था। जैसे कि किताब के पहले भाग में गौरदास और शेखर को क्राँतीकारी दिखाया गया है, वह हिंसा और बम की बात भी करते हैं, और सुभाषचँद्र बोस की आजाद हिंद फौज का हिस्सा बन कर अँग्रेजों से लड़ने की बात भी करते हैं। जबकि अंत के हिस्से में गौरदास अहिँसावादी बन जाते हैं, शेखर समाजसुधारक बन जाता है। शायद यह बदलाव लेखक के अपने विचार बदलने का सूचक था?

उपन्यास के अंतिम भाग में लेखक ने एक पात्र गौरदास के माध्यम से अपनी आध्यात्मिक सोच को भी अभिव्यक्त किया है। जैसे कि यह सुरुचि से बात करते हुए गौरदास कहते हैं (पृष्ठ २५२):

"पुरुष कहता है, कर्म जो पदार्थ है, वह स्थूल है, आत्मा के लिए बँधन है। लेकिन आदमी में जो नारी है, वह कहती है काम चाहिये, और काम चाहिये। इसलिए कि काम में ही आत्मा की मुक्ति है. वैराग्य भी मुक्ति नहीं है, अंधकार भी मुक्ति नहीं है, आलस्य भी मुक्ति नहीं है। ये सब भयंकर बंधन हैं। इन बंधनों को काटने का एक ही हथियार है, वह है कर्म। कर्म ही आत्मा को मुक्ति देता है और यह संसार ही कर्म का स्थल है. संसार को छोड़ने से तुम्हारा कैसे चल सकता है बिटिया! यदि मुक्ति चाहती हो तो तुम्हें इस संसार में ही रहना होगा।"

इस तरह से सुरुचि और शेखर की कहानी के साथ साथ, इस पुस्तक में बिमल मित्र ने अपने जीवन तथा धार्मिक दर्शन को बहुत गहराई के साथ अभिव्यक्त किया है। यह दर्शन वाले हिस्से भी मेरे विचार में उन्होंने बाद में जोड़े थे, जो शायद उनकी बढ़ती आयु के साथ जुड़ी समझ का नतीजा थे।

बुधवार, अगस्त 23, 2017

उत्तरप्रदेश में लड़कियाँ क्या सोचती हैं?

हिन्दी फ़िल्में देखिये तो लगता है कि छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों के जीवन बदल गये हैं. "बरेली की बरफ़ी", "शुद्ध देसी रोमान्स", और "तनु वेड्स मनु" जैसी फ़िल्मों में, छोटे शहरों की लड़कियों को न सड़कों पर डर लगता हैं, न वह लड़कों से वे स्वयं को किसी दृष्टि से पीछे समझती हैं. जाने क्यों, अक्सर पिछले कुछ सालों से हमारी फ़िल्मों में छोटे शहरों की लड़कियों की आधुनिकता को सिगरेट पीने से दिखाया जाता है (शायद इन फ़िल्मों को सिगरेट कम्पनियों से पैसे मिलते होंगे, क्योंकि अब भारत में सिगरेट के अन्य विज्ञापन दिखाना सम्भव नहीं)

हिन्दी फ़िल्मों की लड़कियों और सचमुच की लड़कियों के जीवनों में कोई अन्तर हैं, तो कौन से हैं? पिछले दशकों में छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों और युवतियों की सोच बदली है, तो कैसे बदली है? और अगर बदली है तो उसका उन सामाजिक समस्याओं पर क्या असर पड़ा है जो कि लड़कियों के जीवनों से जुड़ी हुई हैं? इस आलेख में इसी बात से सम्बंधित सर्वे की बात करना चाहता हूँ.

गाँव कनक्शन का सर्वे

इन दिनों में गाँव कनक्शन पर उत्तरप्रदेश की 15 से 45 वर्षीय महिलाओं के साथ हुए एक सर्वे के बारे में छपा है. इस सर्वे में पाँच हज़ार औरतों ने भाग लिया.

सर्वे में 56 प्रतिशत महिलाओं कहा कि वह नौकरी करना चाहती हैं. इसमें से सबसे अधिक महिलाएँ स्कूल में अध्यापिका बनना चाहती हैं.  14 प्रतिशत महिलाएँ डॉक्टर बनना चाहती हैं और 6 प्रतिशत पुलिस में जाना चाहती हैं.

67 प्रतिशत ने कहा कि अगर मौका मिले तो वह और पढ़ना चाहेंगी. 50 प्रतिशत महिलाओं-लड़कियों ने कहा कि उन्हें साइकिल चलाना पसंद है, लेकिन ससुराल में साइकिल चलाने की अनुमति कम ही मिलती है. 67 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें घर से बाहर निकलने के लिए पति या पिता से अनुमति लेनी पड़ती है, जबकि 15 प्रतिशत ने बताया कि वह घर से बाहर किसी के साथ ही जा सकती हैं.

81 प्रतिशत लड़कियों ने कहा कि वह जानती हैं कि उनकी शादी के समय उनके माता-पिता को दहेज देना पड़ेगा।

उत्तरप्रदेश में मेरा सर्वे

गाँव कनक्शन के इस सर्वे की लड़कियों-महिलाओं के जीवन, उनकी आशाएँ, और उनके सपने, फ़िल्मी छोटे शहरों की लड़कियों के जीवनों से बहुत भिन्न लगती हैं.

इस सर्वे के बारे में पढ़ कर मुझे अपना एक सर्वे याद आ गया. 2014 में, मैं उत्तरप्रदेश में कुछ दिन अपनी एक मित्र के पास ठहरा था जिनका एक प्राईवेट अस्पताल था और साथ में नर्सिंग ट्रेनिन्ग कॉलिज भी था जहाँ तीन वर्ष का नर्सिन्ग कोर्स होता था. वहाँ पढ़ने वालों को उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से छात्रवृत्ति मिल रही थी. मैंने इस सर्वे में द्वितीय वर्ष के छात्र-छात्राओं से स्वास्थ्य सम्बंधी तथा सामाजिक विषयों के प्रश्न पूछे थे.

सर्वे करने से पहले उसके प्रश्नों को तीसरे वर्ष के तीन छात्राओं में जाँचा गया और जाँच के अनुसार, जो प्रश्न अस्पष्ट थे या जिनके सही अर्थ समझने में छात्रों को कठिनाई हो रही थी, उन्हें सुधारा गया. किसी छात्र या छात्रा ने सर्वे में भाग लेने से मना नहीं किया, लेकिन करीब 20 प्रतिशत छात्राओं ने कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये.

सर्वे में भाग लेने वाले

कुल 35 छात्रों ने सर्वे में हिस्सा लिया जिनमें 31 छात्राएँ (89%) थीं और 4 छात्र थे. चूँकि सर्वे में पुरुष छात्र केवल चार थे, उनके उत्तरों का अलग से विश्लेषण नहीं किया गया है.


छात्रों की औसत आयू 21.7 वर्ष थी. उनमें से 33 लोग (94%) उत्तरप्रदेश से थे और 2 लोग अन्य करीबी राज्यों (बिहार तथा उत्तराखँड) से थे.

उत्तरप्रदेश के 33 लोगों में से 9 लोग (27%) लखनऊ से थे. बाकी के 24 लोग (73%) राज्य के 8 जिलों से थे (सीतापुर, बलिया, माउ, बस्ती, अकबरपुर, एटा, लक्खिमपुर तथा बाराबँकी). जिलों से आने वाले लोग जिला शहरों, उपजिलों के छोटे शहरों तथा गाँवों के रहने वाले थे. यानि सर्वे में प्रदेश की राजधानी से ले कर, गाँवों तक के, हर तरह की जगहों के लोग थे.

उनमें से 33 लोग (94%) हिन्दू थे, केवल 1 व्यक्ति मुसलमान परिवार से था और 1 ईसाई परिवार से. हिन्दू छात्रों में 20 लोग (60%) शिड्यूल कास्ट जातियों से थे और 6 लोग (18%) जनजातियों से थे.

छात्रों में से 19 लोग (54%) संयुक्त परिवारों में रहते थे, जबकि 16 लोग (46%) ईकाई (nuclear) परिवारों से थे.

छात्र परिवारों की आर्थिक स्थिति

उनमें से 32 लोगों (91%) ने खुद को मध्यम वर्गीय बताया, केवल 2 लोगों ने खुद को निम्न मध्यम वर्गीय कहा और 1 ने खुद को उच्च मध्यम वर्गीय कहा. उनमें से 18 लोगों (51%) के घर में स्कूटर, मोटरसाईकल या ट्रेक्टर थे जबकि बाकी के 17 लोगों (49%) के घर बैलगाड़ी या साईकल थी या कोई व्यक्तिगत यात्रा साधन नहीं था.

उनमें से अधिकाँश के घर में टीवी था, जबकि करीब 50% लोगों के घर में फ्रिज था.

इसका अर्थ है कि हालाँकि अधिकाँश लोग अपने आप को मध्यम वर्ग को कह रहे थे, उनमें से करीब पचास प्रतिशत लोगों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी.

पढ़ायी और अंग्रेज़ी ज्ञान

नर्सिंग कॉलिज में आने से पहले 34 छात्रों ने 12 कक्षा तक पढ़ाई की थी, केवल एक छात्रा के पास बीए की डिग्री थी.

छात्रों की माओं ने औसत 6 वर्ष की स्कूली पढ़ायी की थी, उनमें से 34% अनपढ़ थीं  और 11% के पास कॉलिज की डिग्री थीं. उनके पिताओं की औसत पढ़ायी 11 वर्ष की थी, उनमें से 11% अनपढ़ थे और 42% कॉलिज में पढ़े थे.

सब छात्रों ने स्वीकारा कि उनके माता पिता की पीढ़ी में पढ़ने के क्षेत्र में पुरुषों तथा महिलाओं के बीच में अधिक विषमताएँ थीं जो उनकी पीढ़ी में कम हो गयीं थीं. कई छात्राएँ जिनकी माएँ अनपढ़ थीं, बोलीं कि उनको अपनी माँ से पढ़ाई करने का बहुत प्रोत्साहन मिला था. एक छात्रा ने कहा, "मेरी माँ बचपन से मुझे कहती थी कि तुमको पढ़ना है, मेरी तरह अनपढ़ नहीं रहना."

छात्रों में से 19 लोगों (54%) ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी कमज़ोर थी जिससे उन्हें नर्सिंग की किताबों को पढ़ने व समझने में दिक्कत होती थी. उन्होंने बताया कि कुछ शिक्षकाएँ अक्सर अपनी बात को समझाने के लिए उसे हिन्दी में भी समझाती थी, जिससे उन्हें आसानी हो जाती थी.

बाकी के 16 लोगों ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी थी और उन्हें नर्सिन्ग की किताबें पढ़ने समझने में दिक्कत नहीं होती थी. लेकिन उनसे जब सर्वे के दौरान अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछे गये तो केवल एक छात्रा ही उसका सही अंग्रेज़ी में पूरा उत्तर दे पायी. बाकी लोगों को अंग्रेज़ी बोलने में कठिनाई थी. यानि जब छात्र अंग्रेज़ी की किताबों को पढ़ तथा समझ सकते हैं, तब भी उन्हें अंग्रेज़ी बोलने में हिचक या कठिनाई हो सकती है. इसका यह भी अर्थ है कि अंग्रेज़ी में उनकी अभिव्यक्ति कमज़ोर रहती है.

नर्सिंग पढ़ने का निर्णय किसने लिया

19 लोगों (54%) ने नर्सिंग की पढ़ायी करने का निर्णय स्वयं लिया था, जबकि बाकी 16 (46%) लोगों में यह निर्णय परिवार या अन्य लोगों ने लिया.

अधिकाँश लोगो ने माना कि उनके मन में कुछ अन्य पढ़ने की कामनाएँ थीं लेकिन उन्होंने अंत में नर्सिन्ग को चुना क्योंकि इसमें छात्रवृत्ति मिलती है, वरना उनके परिवार के लिए उनकी पढ़ायी का खर्चा पूरा कठिन होता. नर्सिन्ग पढ़ने का एक कारण यह भी था कि इस काम में नौकरी आसानी से मिल जाती है.

केवल दो लोगों ने कहा कि वह सचमुच नर्सिन्ग की पढ़ायी ही करना चाहते थे. 15 लोगों (43%) का कहना था कि वह शिक्षक बनना चाहते थे. 4 लोगों (11%) ने कहा कि वह पुलिस में काम करना चाहते थे. बाकी के लोगों की अलग अलग राय थी, कोई फेशन डिज़ाईनर बनना चाहता था, कोई ब्यूटी पार्लर चलाना चाहता था, कोई कम्पयूटर कोर्स तो कोई वकील या एकाऊँटेन्ट. उनमें से एक छात्रा ने कहा कि नर्सिन्ग की पढ़ायी पूरी करके वह आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलिज में पढ़ने की कोशिश करेगी.

विवाह और जीवन साथी का चुनाव

छात्रों में से 5 लोग विवाहित थे, वह पाँचों छात्राएँ थीं और पाँचों के पति परिवार ने चुने थे.

बाकी 30 लोगों में से 24 (80%) ने कहा कि उनका जीवन साथी परिवार चुनेगा. केवल 6 लोगों ने कहा कि वह अपना जीवन साथी स्वयं चुनना चाहेंगे, पर उनकी भी चाह थी कि उनका चुना जीवनसाथी उनके परिवार को पसंद आना चाहिये और वे परिवार की मर्ज़ी के विरुद्ध जा कर विवाह नहीं करना चाहेंगे. केवल एक छात्रा ने कहा कि चाहे उसका परिवार कुछ भी कहे, वह तो उसी से विवाह करेगी जो उसे पसंद होगा, और इसके लिए वह परिवार के विरुद्ध भी जा सकती है.

जाति और भेदभाव के अनुभव

केवल 6 लोगों (17%) ने कहा कि उनको जाति सम्बंधित भेदभाव के व्यक्तिगत अनुभव हुए थे। अन्य 9 लोगों (26%) ने कहा कि उनको स्वयं ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ लेकिन उनके परिवार में अन्य लोगों को ऐसे अनुभव हुए.

33 लोगों (95%) ने स्वीकारा कि समाज में जाति से सम्बंधित भेदभाव होता है.

भेदभाव के विषय पर बात करते समय कई छात्रों ने कहा कि नर्सिन्ग होस्टल में रहने की वजह से उनके जाति सम्बंधी विचार बदल गये थे. एक छात्रा ने कहा, "घर में कुछ भी कहते थे तो हम मान लेते थे. लेकिन होस्टल में हम लोग जात पात की बात नहीं सोचते, साथ बैठते, साथ खाना खाते हैं. अलग जाति की लड़कियाँ मेरी मित्र हैं, इससे जाति के बारे में मेरी सोच बदल गयी है."

साथ ही अधिकाँश लोगों का कहना था कि चाहे उनकी अपनी सोच बदल गयी है लेकिन जब वह घर जाते हैं और घर में बड़े बूढ़े लोग जाति का भेदभाव करते हैं तो वह उसका विरोध नहीं कर पाते. एक विवाहित छात्रा ने कहा, "मेरी सास जात-पात को बहुत मानती हैं, मैं अपने घर में किसी अन्य जाति के मित्र को नहीं बुला सकती. जब तक उनके साथ रहूँगी तो उनकी बात ही माननी पड़ेगी. मैं उनसे झगड़ा नहीं कर सकती."

उनसे कहा गया कि मान लीजिये की आप की सहेली या दोस्त अपनी जाति से भिन्न जाति या धर्म के व्यक्ति से प्रेम करता है और उससे विवाह करना चाहता है, लेकिन उसका परिवार इसके विरुद्ध है. आप किसकी तरफ़ होंगे, अपनी सहेली या दोस्त की ओर या उसके परिवार की ओर?

3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 21 (66%) ने कहा कि परिवार ठीक कहता है, जाति या धर्म से बाहर के व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं होगा, बाकी के 11 (34%) लोगों ने कहा कि जो जिससे प्रेम करता है उसे उसी से विवाह करना चाहिये.

घरेलू हिँसा

छात्रों से कहा गया कि मान लीजिये कि एक महिला का पति शाम को थका हुआ घर लौटा. देखा कि पत्नी की सहेली आयी थी, वह उससे बातें कर रही थी और उसने खाना नहीं बनाया था. अगर इस स्थिति में वह अपनी पत्नी को मारे तो क्या आप की राय में वह ठीक है?

10 लोगों (29%) का कहना था कि इस स्थिति में पति का पत्नी को मारना ठीक था. 25 (71%) लोगों ने कहा कि पति का मारना गलत था.

उन 25 में से 11 लोगों (44%) ने कहा कि पति को पहले पत्नी से बात करनी चाहिये थी. अगर ऐसा पहली बार हुआ हो या फ़िर अगर वह पत्नी की विषेश सहेली थी जिससे बहुत सालों से नहीं मिली थी, तो पति को इस बात को समझना चाहिये था कि कभी कभी पत्नी से भूल हो सकती है और उसे मारने की बजाय प्यार से समझाना चाहिये था. लेकिन अगर समझाने के बावज़ूद पत्नी बार बार ऐसा करती है तो उन्होंने कहा कि तब पति का उसे मारना सही है. यानि कुल 70% लोग यह मान रहे थे कि कई परिस्थितियों में पति का पत्नी को मारने को सही समझा जा सकता है.

केवल 7 लोगों (20%) ने कहा कि किसी भी हालत में पति को पत्नी को मारने का अधिकार नहीं है.

इस विषय पर बात करते हुए उनसे पूछा गया कि क्या पत्नी हिँसा करे तो वह सही मानी जा सकती है? मान लीजिये कि पत्नी काम पर गयी है, शाम को थकी हुई घर लौटी है. पति को उस दिन काम पर नहीं जाना था, वह सारा दिन घर पर ही था. पत्नी देखती है कि सारा घर गन्दा पड़ा है, खाना भी नहीं बना. पति के मित्र आये हैं, उनकी ताश और शराब चल रही है और पति ने जूए में बहुत पैसा खो दिया है. क्या ऐसी हालत में पत्नी पति से झगड़ा कर सकती है या उसे मार सकती है?

4 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी 31 में से 26 लोगों (84%) ने कहा कि नहीं पत्नी को लड़ना या हिँसा नहीं करनी चाहिये. उनमें से अधिकतर का कहना था कि पति तो भगवान बराबर होता है, पत्नी को उसका सम्मान करना होता है, वह उस पर किसी भी हालत में हाथ नहीं उठा सकती.

तो ऐसी हालत में पत्नी को क्या करना चाहिये? अधिकतर लोगों का कहना था कि अगर पति अक्सर ऐसा करता हो कि हर महीने घर का पैसा जूए और नशे में गँवा देता हो तो ऐसे पति को सुधारने के लिए घर के बड़े बूढ़ों को कहना चाहिये, उन्हें ही कुछ करना पड़ेगा.

5 लोगों (16%) ने कहा कि इस हालत में पत्नी का पति से लड़ना सही है और अगर यह बार बार हो तो ऐसे पति से तलाक भी ले सकते हैं.

परिवार में लड़कियों के प्रति भेदभाव

12 लोगों (34%) ने कहा कि उन्हें अपने परिवार में उन्होंने लड़को तथा लड़कियों के प्रति व्यवहार में भेदभाव का व्यक्तिगत अनुभव था.

32 लोगों ने माना कि समाज में लड़के तथा लड़कियों के प्रति  भेदभाव आम होता है. 10 लोगों (29%) ने, वह सभी लड़कियाँ थीं, इस भेदभाव को सही बताया.

उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि एक घर में शाम को लड़का बाहर जाना चाहता है, परिवार में उसे कोई मना नहीं करता. लेकिन जब उस लड़के की हमउम्र बहन शाम को बाहर जाना चाहती है तो परिवार उसे मना करता है, कहता है कि लड़कियों को घर से बाहर जाने में खतरा है. क्या आपकी राय में यह सही है या गलत?

3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 24 (75%) ने कहा कि परिवार सही करता है क्योंकि लड़कियों के लिए शाम को बाहर जाने में खतरा है. केवल 8 लोगों (25%) ने कहा कि लड़कियों पर इस तरह रोक लगाना सही बात नहीं हैं.

फ़िर उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि आप की सहेली का विवाह हो चुका है, उसकी एक बेटी है और वह फ़िर से गर्भवति हैं. उसका अल्ट्रासाउँड टेस्ट बताता है कि अगली भी बेटी होगी. उसकी सास कहती है कि गर्भपात करा दो. आप उसे क्या राय देंगी?

11 लोगों (31%) ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. बाकी के 24 लोगों में से 12 लोगों (50%) ने कहा कि सास की बात माननी पड़ेगी. 12 लोगों ने कहा कि उनकी सलाह होगी कि गर्भपात नहीं कराया जाये. दो छात्राओं ने कहा कि वह अपनी सहेली की सास  को समझाने की कोशिश करेंगी.

सरकारी व प्राईवेट अस्पताल

छात्रों के अनुसार सरकारी अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ कोई फीस नहीं होती, दवा भी निशुल्क होती है, स्पेशेलिस्ट डाक्टर अधिक होते हैं और सुविधाएँ अधिक होती हैं. उनकी बुरी बाते हैं कि वहाँ देखभाल अच्छी नहीं होती, अक्सर दवाईयाँ नहीं मिलती, सुविधाएँ नाम की होती हैं पर काम नहीं करती, कर्मचारी लापरवाह होते हैं, सफाई की कमी होती है, डाक्टर काम पर नहीं आते और बहुत भीड़ होती है.

प्राईवेट अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ देखभाल बेहतर होती है, कर्मचारी ज़्यादा ध्यान से काम करते हैं, सफाई बेहतर होती है, भीड़ कम होती है और जो भी सुविधाएँ होती हैं वह ठीक से काम करती हैं. उनकी बुरी बातें हैं कि वहाँ पैसे बहुत लगते हैं, अक्सर बिना जरूरत के टेस्ट किये जाते हैं, बिना ज़रूरत की दवाएँ दी जाती हैं, और अगर आप गरीब हैं तो आप को कोई नहीं पूछता.

उनसे पूछा गया कि अगर आप बीमार हों तो आप कहाँ जाना चाहेंगे, सरकारी अस्पताल में या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि अगर वह बीमार होंगे तो वह प्राईवेट अस्पताल में जाना चाहेंगे.

उनसे पूछा गया कि नर्सिंग की ट्रेनिन्ग पूरी होने के बाद आप सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि वे सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे. इसके कारण थे कि सरकारी काम में रहने के लिए घर मिलना, सेवा निवृति पर पैंशन मिलना, काम से छुट्टी लेना अधिक आसान है, काम करना भी अधिक आसान है और नौकरी से निकलना बहुत कठिन है.

यानि अपनी बीमारी हो या परिवार की तो लोग प्राईवेट अस्पताल में जाना पसंद करते हैं जबकि नौकरी सरकारी अस्पताल में करना चाहते हैं. पर इस बात में उत्तरप्रदेश के नवजवान लोग बाकी भारत जैसे ही है. अप्रैल 2017 में सी.एस.डी.एस. ने भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाले नवजवानों का सर्वे किया था, उस में भी केवल 7 प्रतिशत लोगों ने प्राईवेट सेक्टर में नौकरी को प्राथमिकता दी थी.

सर्वे में मिले उत्तरों पर विमर्श

जनसंख्या की दृष्टि से देखें तो अगर उत्तरप्रदेश स्वतंत्र देश होता तो दुनिया में पाँचवें स्थान पर होता. विश्व स्तर पर मानव विकास मापदँड की दृष्टि से देखें तो भारत काफ़ी नीचे है, स्वास्थ्य के कुछ आकणों में हमारी स्थिति बँगलादेश से भी पीछे है.

भारत के विभिन्न राज्यों के मानव विकास मापदँडों को देखें तो उत्तरप्रदेश का स्थान अन्य राज्यों की तुलना में बहुत नीचे है. चाहे वह बच्चियों के भ्रूणों की हत्या हो या वार्षिक बाल मृत्यू दर, उत्तरप्रदेश में इनकी स्थिति दयनीय है. स्वास्थ्य के कई आँकणों में उत्तरप्रदेश की स्थिति अफ्रीका के गरीब और पिछड़े देशों जैसी है या उनसे भी बदतर है.

ऐसी हालत में यह जानना कि उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी क्या सोचती है, महत्वपूर्ण है. आज की नर्सिन्ग छात्राएँ कल यहाँ की स्वास्थ्य सेवाओं में हिस्सा लेंगी, परिवारों को सलाह देंगी. उनकी सोच तथा आचरण से समाज के अन्य लोग भी प्रभावित होंगे.

तो आप के विचार में नर्सों से की मेरी बातचीत उत्तरप्रदेश के भविष्य के बारे में हमें क्या बताती है? कुछ दिन पहले गोरखपुर के अस्पताल में 60 बच्चों की मृत्यू से भारत के समाचार पत्रों में हल्ला मचा था, पर उत्तरप्रदेश के लिए यह कोई नयी बात नहीं है. वहाँ के पिछले दस वर्षों के आँकणे देखिये, हर साल वहाँ दस्त, न्योमोनिया, एन्सेफलाईटस, मलेरिया आदि बीमारियों से लाखों बच्चे मरते हैं, जिनका सही समय पर इलाज किया जाये तो वह बच्चे बच सकते हैं.

यही है भारत की अपने भीतर की विषमताएँ - भारत के दक्षिण के कुछ राज्यों के स्वास्थ्य आँकणे अमरीका जैसे हैं, और उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखँड जैसे राज्यों के अफ्रीका जैसे.

हमारी कथनी और करनी में भी अंतर है. पाराम्परिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. अगर हम पूछें कि क्या आप नारी पुरुष में बराबरी में विश्वास करते हैं, तो सब लोग हाँ कह देते हैं. अगर आप पूछते हैं कि घर और परिवार में नारी के साथ होने वाली हिँसा गलत है, तो भी सब लोग हाँ कह देते हैं. लेकिन इन विचारों की कहनी और प्रतिदिन के जीवन की करनी में विरोधाभास है. हम लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ और.

इसका यह अर्थ नहीं कि सकारात्मक बदलाव नहीं हुए है. माता और पिता की पढ़ायी के आँकणे दिखाते हैं कि शिक्षा के स्तर में पिछली पीढ़ी में बहुत भेदभाव था. सर्वे में भाग लेने वाले की करीब एक तिहाई माएँ अनपढ़ थीं. इस दृष्टि से सर्वे की युवतियाँ उन घरों में पढ़ने लिखने वाली युवतियों की पहली पीढ़ी हैं. शायद उनकी बेटियों में कथनी और करनी के यह विरोधाभास कम होंगे, वह लोग पारिवारिक हिँसा और भेदभाव के विरुद्ध आवाज़ उठायेंगी.

अंत में

इस सर्वे से मुझे लगा कि सामाजिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. हम जितने स्लोगन बना लें, पोस्टर बना लें, लोगों कों जानकारी हो जाती है लेकिन इससे उनके विचार या आचरण नहीं बदलते. ऊपर से दिखावे के लिए हम कुछ भी कह दें लेकिन हमारी भीतरी सोच क्या है, यह कहना समझना कठिन है.

मैं उम्र में उन नर्सिंग के छात्रों से बहुत बड़ा था, बाहर से आया था और पुरुष था. इसलिए यह नहीं कह सकते कि उन्होंने हर बात का जो सोचते हैं वही सच सच उत्तर दिया होगा. फ़िर भी इस सर्वे से उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी, विषेशकर नवयुवतियाँ क्या सोचती हैं, इसकी कुछ जानकारी मिलती है.

आप बताईये कि आप के अनुभव इस सर्वे में पायी जाने वाली स्थिति से कितने मिलते हैं और कितने भिन्न हैं? और अगर आप को इस तरह के प्रश्न पूछने का मौका मिलता तो बदलते उत्तरप्रदेश को समझने के लिए आप कौन से प्रश्न पूछते?

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