बुधवार, अप्रैल 17, 2024

ब्रह्मी से देवनागरी की लिपि यात्रा

उत्तर भारत की सबसे प्राचीन भाषा जिसके आज लिखित प्रमाण हैं, वह वैदिक संस्कृत थी और इसका प्रमाण है ऋग्वेद जो ईसा से करीब १५०० वर्ष पहले लिखा गया। विशेषज्ञ कहते हैं कि इसे सबसे पहले ब्रह्मी लिपि में लिखा गया। नीचे की तस्वीर में ओडिशा में धौलागिरि की वह चट्टान है जिस पर सम्राट अशोक के संदेश ब्रह्मी लिपि में लिखे हैं। 

धौलागिरि चट्टान जिसपर सम्राट अशोक का संदेश ब्रह्मी लिपि में अंकित है

फ़िर समय के साथ ब्रह्मी से देवनागरी लिपि विकसित हुई। ब्रह्मी से ही मराठी, गुजराती, बंगाली और गुरुमुखी जैसी भारतीय भाषाओं की लिपियाँ बनीं जो देवनागरी से मिलती जुलती है, लेकिन उनमें भिन्नताएँ भी हैं। मैं सोचता था कि भाषाएँ तो यूरोप की भी बहुत भिन्न हैं, जैसे कि अंग्रेज़ी, स्पेनी, फ्राँसिसी, इतालवी, आइरिश, आदि, लेकिन उन सबकी लिपि एक जैसी है, जिसे रोमन वर्णमाला कहते हैं जो लेटिन पर आधारित है।

इसलिए मेरे मन में प्रश्न उठता था कि हमने भारत की भिन्न भाषाओ के लिए एक जैसी देवनागरी लिपि या कोई और लिपि क्यों नहीं अपनाई, उससे हमारी भाषाओं को सीखना शायद कुछ अधिक आसान हो जाता। 

कुछ दिनों से मैं आचार्य चतुर सेन की १९४६ में प्रकाशित हुई किताब "हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास" पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने अठाहरवीं शताब्दी में भारत में प्रिन्टिन्ग प्रैस के आने के बाद की भारतीय भाषाओं को लिपिबद्ध करने के बारे में जानकारी दी है, जिसमें मेरे प्रश्न का उत्तर था कि हमारी भाषाओं की लिपिया भिन्न क्यों हैं? यह आलेख इसी विषय पर है।

ब्रह्मी और देवनागरी लिपियों की वर्णमाला

सबसे पहले अगर हम स्वरों को देखें तो देवनागरी तथा ब्रह्मी भाषा की लिपि के अंतर देख सकते हैं - 

अ आ - 𑀅 𑀆    इ ई - 𑀇 𑀈    उ ऊ - 𑀉 𑀊   ए ऐ - 𑀏 𑀐    ओ औ - 𑀑 𑀒

अं अः - 𑀅𑀁 𑀅𑀂    ऋ -𑀋

और अब आप इन दो लिपियों में व्यंजनों के स्वरूप तथा अंतर देख सकते हैं -

क ख ग घ ङ  -  𑀓 𑀔 𑀕 𑀖 𑀗       च छ ज झ ञ - 𑀘 𑀙 𑀚 𑀛 𑀜    ट ठ ड ढ ण - 𑀝 𑀞 𑀟 𑀠 𑀡          

त थ द ध न - 𑀢 𑀣 𑀤 𑀥 𑀦          प फ ब भ म - 𑀧 𑀨 𑀩 𑀪 𑀫        य र ल व - 𑀬 𑀭 𑀮 𑀯

श ष स ह - 𑀰 𑀱 𑀲 𑀳

प्रारम्भ में अंग्रेज़ ब्रह्मी लिपि को पिन-मैन (Pin-man) लिपि कहते थे क्योंकि यह माचिस की तीलियों या छोटी डंडियों से बनी आकृतियों जैसी लगती थी। समय के साथ इस लिपी के स्वरूप भी कुछ बदले लेकिन पांचवीं शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य काल तक इसे ब्रह्मी लिपि ही कहते है। नीचे तस्वीर में दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय से वह चट्टान जिसपर सम्राट अशोक का संदेश ब्रह्मी लिपि में लिखा है।

दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सम्राट अशोक का ब्रह्मी लिपि में लिखा संदेश
छठी शताब्दी के बाद से ब्रह्मी लिपि के बदलाव अधिक मुखर हुए और उन्हें नये नाम दिये गये। उत्तर भारत में ब्रह्मी से नागरी, सिद्धम तथा शारदा लिपियाँ बनी जबकि दक्षिण भारत में कदम्ब, पल्लव, आदि लिपियाँ बनी।

चूंकि दक्षिण भारत में ग्रंथों को नुकीली कलम से ताड़ के पत्तों पर खरोंच कर लिखने की परम्परा थी, उन पर नागरी की सीधी रेखाओं वाली लिपि से पत्ते कट जाते थे, इसलिए वहाँ गोलाकार लिपियाँ विकसित हुईं जिनमें शब्दों को देवनागरी की तरह ऊपरी रेखा से जोड़ा नहीं जाता था।

बोलचाल की बोली में बदलाव

एक ओर लिपि में बदलाव हो रहे थे, तो दूसरी ओर बोलने वाली भाषा भी बदल रही थी, क्योंकि जन सामान्य को बोलचाल की भाषा में सरलता चाहिये, वह भाषा की कठिन ध्वनियों को और जटिल व्याकरण नियमों की जगह आसान ध्वनियों और सरल व्याकरण को प्राथमिकता देते हैं। इस तरह से उत्तर भारत में समय के साथ, संस्कृत से लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंष, खड़ी बोली और अन्य बोलियाँ बनी।
 
जब समाज बदलते हैं, और नये ज्ञान से नयी समझ और तकनीकी बदलती है, तो नये औज़ार, अस्त्र, कार्यक्षेत्र, कार्यकौशल, आदि बनते हैं, जिनके लिए भाषाओं को नये शब्द चाहिये। दूसरी ओर, जब सड़कें नहीं हों और यातायात के साधन सीमित हों तो कुछ लोग ही लम्बी यात्राएँ कर पाते हैं। इन दोनों बातों की वजह से, समय के साथ, एक ही भाषा विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न स्वरूप बदल-बदल कर विकसित होती है।
 
इस तरह से उत्तरभारत में प्राकृत भाषा, देश के विभिन्न क्षेत्रों में डिन्गल, पिन्गल, ब्रज, खड़ी बोली, अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि लोकभाषाओं में विकसित हुई। यही नहीं, इनमें से हर लोकभाषा में कुछ-कुछ कोस की दूरी पर कुछ शब्दों में अंतर आ जाते थे और स्थानीय बोलियाँ बन जाती थीं, जैसे कि आज़मगढ़, जौनपुर और सुल्तानपुर, सभी में अवधी बोलते थे लेकिन उनकी अवधी एक जैसी नहीं थी, उसमें कुछ अंतर थे।
 
बीसवीं सदी में दुनिया के बदलने की गति और तेज़ हो गयी। सड़कों और यातायात के साधनों की वृद्धि से लोग अधिक यात्रा करने लगे हैं, और फ़िर, रेडियो-टीवी-फ़िल्म-इंटरनेट-यूट्यूब आदि नये संचार माध्यमों के आविष्कार से, लोगों के बीच दूरियाँ कम होने लगीं, इस वजह भाषाओं की छोटी-मोटी स्थानीय भिन्नताएँ भी लुप्त होने लगीं। आज के बच्चे स्कूल में, उपन्यासों में, फ़िल्मों और टीवी पर जो भाषा सुनते हैं, वही बोलने लगते हैं और अपने घर-परिवार-गांव की बोली को भूलने लगते हैं।
 
भाषा के कुछ बदलाव दो उल्टी दिशाओं में जा रहे हैं। एक ओर भविष्य में नौकरी अच्छी मिले, यह सोच कर हम अपने बच्चों को अंग्रेज़ी बुलवाने में गौरव महसूस करते हैं इसलिए शहरों के समृ्द्ध परिवारों में बच्चे केवल अंग्रेज़ी पढ़ते-बोलते हैं।
 
दूसरी ओर, यूट्यूब, टिक-टॉक आदि एप्प से छोटे शहरों और गावों में स्थानीय बोलियों के गीत-संगीत-नाटक-शिक्षा-ज्ञान से आय के नये साधन निर्मित हो रहे हैं, जिनसे उन बोलियों के उपयोग को बढ़ावा मिल रहा है।
 
कृत्रिम बुद्धि के अनुवादक की सहायता से आप किसी भी भाषा के लेखन, फ़िल्म, नाटक आदि को आसानी से समझ सकते हैं। गूगल के आटोमेटिक अनुवादक से आप केवल हिंदी, इतालवी, फ्रांसिसी या स्पेनी भाषाओं में ही नहीं, असमिया, भोजपुरी, मैथिली जैसी भाषाओं में अनुवाद कर सकते हैं। आने वाली सदियों में इन सब बदलावों का हमारी बोलियों और भाषाओं पर क्या असर पड़ेगा, यह कहना मुझे कठिन लगता है। 

छपाईखानों की तकनीकी से जुड़े लिपि के बदलाव

आचार्य चतुरसेन अपनी पुस्तक "हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास" में इस विषय पर दिलचस्प जानकारी देते हैं।
 
छापेखाने यानि प्रिन्टिन्ग प्रैस का प्रारम्भिक विकास चीन में हुआ था, लेकिन इसे बड़े पैमाने पर विकसित किया जर्मनी के जोहान गूटनबर्ग ने जिन्होंने १४४८ ई. में पहली बाईबल की किताब छापी। इससे पहले किताबें हस्तलिपि से ही लिखी जाती थीं और केवल एक-दो पन्नों के इश्तहार आदि छापने के लिए आप लकड़ी पर उल्टे शब्द काट कर उस पर स्याही लगा कर उन्हें छाप सकते थे। हस्तलिपि से किताब लिखना और पूरे पन्ने को लकड़ी में काट कर छापना, दोनों मेहनत के काम थे और बहुत मंहगे थे।
 
गूटनबर्ग ने वर्णमाला के हर अक्षर को धातू में बनाया, फ़िर इन अक्षरों को लोहे की प्लेट पर चिपका कर आप एक पृष्ठ की हज़ारों प्रतियाँ छाप सकते थे। उस पृष्ठ को छापने के बाद, उन्हीं अक्षरों को उसी लोहे की प्लेट पर उनकी जगह बदल कर आप दोबारा प्रयोग कर सकते थे और नया पृष्ठ छाप सकते थे। छपाई प्रेस के जगह-बदलने वाले अक्षरों से किताबों की छपाई में क्रांति आ गई।
 
इसी तकनीक की प्रेरणा से बाद में टाईप-राईटर का भी आविष्कार हुआ। एक बार यह छपाई वाले अक्षर बने तो यूरोप के भिन्न देशों ने उन्हें अपना लिया और सबने रोमन वर्णमाला में अपनी भाषाओं के ग्रंथों को छापना शुरु किया। सबसे पहले और सबसे अधिक छपाई बाईबल ग्रंथ की हुई। इस तरह से सबकी भाषाएँ अलग रहीं लेकिन लिपि एक जैसी हो गयी।
 
भारत में हर क्षेत्र में अलग बोलियाँ थीं जिन्हें लोग हस्तलिपि से लिखते थे। इनकी लिपि जो नागरी पर आधारित थी, समय के साथ हर क्षेत्र में कुछ भिन्न तरीके से विकसित हुई। अठाहरवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत में ईसाई मिशनरी बाईबल को स्थानीय भाषाओं में छापना चाहते थे। उन्होंने पहले सोचा कि हर भारतीय भाषा को रोमन वर्णमाला में ही छापा जाये, ताकि नये अक्षर न बनाने पड़ें, लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली, क्योंकि भारतीय भाषाओं में ध्वनियाँ अधिक थीं जिनके लिए रोमन वर्णमाला में लिखे शब्दों के अर्थ समझना कठिन था। तब उन्होंने हर क्षेत्र में स्थानीय हस्तलिपि को ले कर उसके लिए अक्षर बनाये, इस तरह से उनकी किताबें स्थानीय भाषाओं में छपीं। भारत की विभिन्न भाषाओं में अक्षर बनाने का काम कठिन था और इसमें करीब सौ/डेढ़ सौ साल लगे। इसका यह नतीजा हुआ कि हमारे हर क्षेत्र की हस्तलिपियों पर आधारित भिन्न लिपियाँ विकसित हुईं।
 
बाद में जब विभिन्न लिपियों की कठिनाईयाँ समझ में आयीं तब उनके एकीकरण, यानि भारत की हर भाषा को एक लिपि में लिखा जाये, की कई कोशिशें हुईं लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। लोगों को एक बार जिस लिपि में अपनी भाषा पढ़ने की आदत पड़ी, वह उसे बदलना नहीं चाहते थे।

आचार्य चतुर सेन देवनागरी लिपि की छपाई की कुछ अन्य कठिनाईयों पर भी विस्तार से बताते हैं, विषेशकर मात्राओं और संयुक्ताक्षरों की छपाई से जुड़ी कठिनाईयाँ, जिनके लिए विभिन्न उपाय खोजे गये लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली या सीमित सफलता मिली। उनकी यह किताब पीडीएफ में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

अंत में

आचार्य चतुरसेन का भाषा और साहित्य का इतिहास भारत की स्वतंत्रता से कुछ पहले तक की कहानी कहता है। उसे पढ़ते समय मुझे पिछले तीस वर्ष की इंटरनेट पर देवनागरी और अन्य भारतीय भाषाएँ लिखने से जुड़ी बातों की याद आ रही थी।
 
१९९० के दशक में जब इंटरनेट फ़ैलने लगा तो प्रारम्भ में हर वेबसाईट के अपने फोन्ट होते थे। मैंने १९९४ में अमरीका में बोस्टन के संग्रहालय में इंटरनेट क्या होता है वह देखा, तो इटली में घर लौट कर तुरंत इंटरनेट का कनेक्शन ले लिया। तब इंटरनेट में देवनागरी में कुछ नहीं मिलता था।
 
सन् २००० के आसपास कम्पयूटर पर इक्का-दुक्का देवनागरी दिखने लगी लेकिन तब देवनागरी के लिए कृतिदेव, मंगल आदि फोन्ट का प्रयोग होता था। उनकी कठिनाई थी कि अगर आप के कम्पयूटर पर वह वाला फोन्ट नहीं है तो आप उसे नहीं पढ़ सकते थे, आप को हर जगह केवल चकौर डिब्बे दिखते थे।
 
तब रोमन वर्णमाला के युनिकोड के फोन्ट ऐसे बनाये गये थे कि उन्हें कोई भी कम्पयूटर समझ सकता था। हम पूछते थे कि हिंदी का युनीकोड कब आयेगा। सबसे पहले हिंदी को युनीकोड में लिखने के लिए ASCII कोड आया लेकिन एक-एक अक्षर के लिए कोड नम्बर लिखना बहुत कठिन काम था।

जहाँ तक मुझे याद है, मैं २००३ तक शूशा फोंट से लिखता था। उस समय सुनते थे कि युनिकोड के हिंदी फोन्ट बन रहे थे। शायद यह काम २००४-०५ के आसपास पूरा हुआ। शुरु में जब यनिकोड के फोन्ट बन गये तब भी यह दिक्कत थी कि अंग्रेज़ी कीबोर्ड से उन्हें कैसे लिखा जाये, इसके सोफ्टवेयर को प्रयोग करना आसान नहीं था।
 
मैंने युनिकोड के रघू फोन्ट का उपयोग जून २००५ में अपना ब्लाग बना कर शुरु किया। आप चाहें तो २००५ की मेरी उस ब्लोगपोस्ट में युनीकोड उपलब्धी के बारे में मेरी खुशी के बारे में पढ़ सकते हैं। उन दिनों में युनीकोड में लिखना भी आसान नहीं था, उन प्रारम्भिक कठिनाईयों के बारे में पढ़ सकते हैं।
 
जब भारत से मेरे इंटरनेट के मित्र पंकज ने मुझे "तख्ती" प्रोग्राम के बारे में बताया। उन दिनों में हिंदी में ब्लाग लिखने वालों का हमारा गुट था जिसमें कई इन्फोरमेशन तकनीकी के विशेषज्ञ थे, जो हम सब को सलाह देते थे। अगस्त २००५ में अनूप शुक्ला ने अनुगूँज नाम का ब्लाग बनाया था जिसमें हम सब चिट्ठा लेखक उनकी दी गयी थीम पर आलेख लिखते थे। मार्च २००६ में हमारे ब्लाग साथी देवाषीश ने "द एशियन एज" अखबार में आलेख में हिंदी और भारतीय चिट्ठाजगत के बारे में आलेख लिखा था।
 
करीब दो साल पहले तक, मैं अपना सारा हिंदी लेखन उसी "तख्ती" पर करता था, और वहाँ से कॉपी-पेस्ट करके हर जगह चेप देता था। इतने साल तक बहुत कोशिश करने के बाद भी विन्डोज पर हिंदी लेखन का कीबोर्ड याद करना मुझे कठिन लगता था। बहुत सालों तक मैंने भारत में हिंदी का कम्पयूटर कीबोर्ड खरीदने की कोशिश की लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। क्या मालूम अब वह आसान हुआ है नहीं?
 
दो साल पहले, २०२१ में पुराने ब्लागर साथी रवि रतलामी, जो अब नहीं रहे, उनकी सलाह से मुझे लीनक्स पर हिंदी लिखने के लिए "का-पा-गा" सोफ्टवेयर मिला जिसे मैंने अंग्रेज़ी कीबोर्ड पर लिखना आसानी से सीख लिया, तब जा कर मेरा जीवन आसान हुआ।
 
लेकिन आज भी अगर विन्डोज़ वाला कम्पयूटर हो, जैसे कि यात्राओं में लैपटॉप का प्रयोग करना हो, तो अभी भी "तख्ती" पर ही लिखता हूँ, क्योंकि उनका हिंदी कीबोर्ड मुझे कठिन लगता है। अगर आज कोई हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास लिखे तो उसे इन सब बदलावों के बारे में भी जानकारी होनी चाहिये।

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सोमवार, अप्रैल 15, 2024

कौन बनेगी जूलियट

मई २०२४ में लंदन की एक प्रसिद्ध नाटक कम्पनी का नया म्यूज़िकल आ रहा है, "रोमियो और जूलियट", जिसकी आजकल कुछ नकारात्मक चर्चा हो रही है क्योंकि इसमें जूलियट का भाग निभा रहीं हैं अफ्रीकी मूल की अभिनेत्री फ्राँसेसका अमेवूडाह-रिवर।

इस बहस के दो पक्ष हैं। पहली बात है कि दुनिया में जातिभेद, नस्लभेद, रंगभेद के संकीर्ण विचार रखने वालों की कमी नहीं, अक्सर इनका काम गाली दे कर या खिल्ली उड़ा कर लोगों को अपमानित करना है। सोशल मीडिया में ऐसे सज्जनों की बहुतायत है, एक खोजिये, तो हज़ार मिलते हैं। यह लोग आजकल सुश्री अमेवूडाह-रिवर को गालियाँ देने में व्यस्त हैं।

दूसरी बात है वोक-संस्कृति की, जो जातिभेद, नस्लभेद व रंगभेद आदि से लड़ने के नाम पर स्वयं को सबसे अधिक पीड़ित दिखा कर उसके बदले में अपना अधिपत्य जमाने के चक्कर में है।

रोमियो-जूलियट नाटक की बहस

रोमियो और जूलियट की कहानी, अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपियर ने तेहरवीं शताब्दी की उत्तर-पूर्वी इटली के वेरोना शहर में दिखायी थी। आलोचक कह रहे हैं कि उस समय इटली में अफ्रीकी प्रवासी नहीं रहते थे, इसलिए इस भाग के लिए अफ्रीकी युवती को लेना गलत है। मेरे विचार में यह बहस त्वचा के रंग की है, अगर यह भाग दक्षिण अफ्रीका की कोई गोरी त्वचा वाली युवती निभाती तो यह चर्चा नहीं होती।

रोमियो और जूलियट, शिल्पकला, न्यू योर्क, अमरीका, तस्वीरकार डॉ. सुनील दीपक

अमरीका तथा यूरोप में फ़िल्मों तथा नाटकों की दुनिया में कुछ लोगों ने ऐसी नीति बनायी है जिसे "क्लर-ब्लाइंड" (रंग-न देखो) कहते हैं, यानि त्वचा के रंग को नहीं देखते हुए पात्रों के लिए अभिनेता और अभिनेत्रियों को चुना जाये। इसका ध्येय है कि हर तरह के लोगों को नाटकों और फ़िल्मों में काम करने का मौका मिले, चाहे वह एतिहासिक दृष्टि से और नाटक/कहानी के लेखन की दृष्टि से गलत हो।

इटली के प्रमुख अखबार "कोरिएरे दैल्ला सेरा" में जाने-माने इतालवी लेखक मासिमो ग्रैम्लीनी ने इस बात पर "जूलियट की ओर से एक पत्र" लिखा है जिसमें कहा हैः 

"यह भाग श्याम-वर्ण की अभिनेत्री को दिया गया है क्योंकि हम चाहते हैं कि हम सब तरह के लोगों को स्वीकार करें, किसी को उसकी त्वचा के रंग की वजह से अस्वीकृति नहीं मिलनी चाहिये, किसी को बुरा नहीं लगना चाहिये कि हमारी नस्ल या वर्ण की वजह से हमें सबके बराबर नहीं समझा जाता। यह भावना सही है।

लेकिन जब आप यह करते हो आप मुझे, यानि वेरोना की जूलियट को, अस्वीकार कर रहे हो। मैं वैसी नहीं थी और चौदहवीं शताब्दी के वेरोना शहर में श्याम वर्ण की युवतियाँ नहीं थीं। क्या इस बहस में मेरी भावनाओं की बात भी की जायेगी?

मुझे भी अच्छा लगेगा कि एक प्रेम कहानी में श्याम वर्ण की युवती नायिका हो, लेकिन उसके लिए आप एक नयी कहानी लिखिये, इसके लिए आप को मेरी पुरानी कहानी ही क्यों चाहिये?"

इतिहास को झुठलाना?

जब रोमियो-जूलियट नाटक की यह चर्चा सुनी तो मुझे एक अन्य बात याद आ गयी। पिछले वर्ष, २०२२-२३ में, नेटफ्लिक्स पर एक सीरियल आया था "ब्रिजर्टन", उसमें मध्ययुगीन ईंग्लैंड के नवाबी परिवारों की प्रेमकहानियाँ थीं, जिनमें ईंग्लैंड की रानी और एक नवाब के भाग अफ्रीकी मूल के अभिनेताओं ने और राजकुमारी का भाग एक भारतीय मूल की युवती ने निभाये थे। यह सीरियल बहुत हिट हुआ था और उसके लिए भी यही बात कही गयी थी कि नस्ल भेद और वर्ण भेद से ऊपर उठने के लिए इस तरह के अभिनेता-अभिनेत्रियाँ चुनना आवश्यक है।

उस ब्रिजर्टन सीरियल को देखते समय मेरे मन में एक विचार आया था, कि उसमें जिस समय के ईंग्लैंड में यह श्याम वर्ण वाले पात्र - रानी, राजकुमार और राजकुमारियाँ दिखा रहे हैं, सचमुच के ईंग्लैंड में उनके साथ उस समय क्या होता था? तब ऐसे लोगों को जहाज़ों में पशुओं की तरह भर कर भारत और अफ्रीका के विभिन्न देशों से गुलाम बना कर दूर देशों में ले जाते थे, और उस समय के अंग्रेजी क्ल्बों के गेट पर लिखा होता था कि कुत्तों और कुलियों को भीतर आने से मनाही है। अगर आज हम उस इतिहास को उलट कर नई काल्पनिक दुनिया बना रहे हैं जिसमें उस ज़माने में कोई भेदभाव नहीं था, विभिन्न देशों, जातियों, वर्णों के लोग एक साथ प्रेम से रहते थे, तो क्या हम अपने इतिहास पर सफेदी पोत कर उसे झूठा नहीं बना रहे हैं? जिन लोगों से उनके घर और देश छुड़ा कर, दूर देशों में ले जा कर, यूरोप के साम्राज्यवादी मालिकों ने उनसे दिन-रात खेतो और फैक्टरियों में जानवरों से भी बदतर व्यवहार किये, क्या यह सीरियल उनके शोषण को झुठला नहीं रहे हैं?

वोक जगत यानि ज़रूरत से अधिक "जागृत" जगत

भेदभाव से लड़ने वाले अतिजागृत योद्धा "शोषण करने वालों" को और उनके समाज को बदलने के लिए नयी रणनीतियाँ बना रहे हैं। अमरीकी व यूरोपी फ़िल्मों और नाटकों आदि में श्याम वर्ण या गैर-यूरोपी लोगों को प्रमुख भाग मिलने चाहिये की मांग इस रणनीति का एक हिस्सा है। ऐसे लोगों के लिए अंग्रेज़ी में "वोक" (woke) शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।

इसके अन्य भी बहुत से उदाहरण हैं। जैसे कि यह वोक-रणनीति कहती है कि अगर आप का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है तो आप को फ़िल्म या नाटक में ऐसे व्यक्तियों के भाग नहीं मिलने चाहिये। यानि अगर कोई भाग अंतरलैंगिक या समलैंगिक व्यक्ति का है तो उसे अंतरलैंगिक या समलैंगिक अभिनेता/अभिनेत्री ही करे, अगर दलित का रोल है तो उसे दलित व्यक्ति ही करे।

इसका यह अर्थ भी है कि लेखक या कवि के रूप में आप को उस विषय पर नहीं लिखना चाहिये, जिसमें आप का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। अगर आप किसी सभ्यता/संस्कृति में नहीं जन्में तो आप को वहाँ के वस्त्र नहीं पहनने चाहिये, वहाँ का खाना बनाने की बात नहीं करनी चाहिये, आदि। यानि अगर आप अफ्रीकी नहीं हैं तो आप को अफ्रीकी नायक या नायिका वाला उपन्यास नहीं लिखना चाहिये। अगर आप दलित नहीं तो दलित विषय पर नहीं लिखिये, अगर आप वंचित वर्ग से नहीं तो वंचितों पर मत लिखिये। वोक-धर्म में शब्दों की भी पाबंदी है, कुछ शब्द जायज़ हैं, कुछ वर्जित।

मानव अधिकारों की बात करने वाले "वोक योद्धा", लोगों की सामूहिक पहचान को प्राथमिकता देते हैं, वह लोग व्यक्तिगत स्तर पर क्या हैं, इसको नहीं देखना चाहते। यानि अगर आप अफ्रीकी मूल के हैं या तथाकथित निम्न जाति से हैं या श्याम वर्णी हैं तो आप शोषित ही माने जायेंगे चाहे आप अपने देश के राष्ट्रपति या करोड़पति भी बन जाईये। इसका अर्थ यह भी है कि अगर आप गौरवर्ण के या उच्च जाति के हैं, तो आप सड़क पर भीख भी मांग लो फ़िर भी आप ही शोषणकर्ता हो और रहोगे।

आप के पासपोर्ट पर भी निर्भर करता है कि आप शोषित हैं या नहीं। मैं एक नाईजीरिया की लेखिका का साक्षात्कार पढ़ रहा था, वह अपने अमरीकावास के बारे में कह रहीं थीं कि अगर आप अभी अफ्रीका से आयें हैं तो अमरीकी वोक-बौद्धिकों के लिए आप कम शोषित हैं जबकि अमरीका में पैदा होनॆ वाले अफ्रीकी मूल के लोग सच्चे शोषित हैं क्योंकि उनके पूर्वजों को गुलाम बना कर लाया गया था।

"मैं शोषित वर्ग का हूँ" कह कर अमरीका और यूरोप में "वोक" संगठनों में नेता बने हुए कुछ लोग हैं, जो अपने दुखभरे जीवनों के कष्टों की दर्दभरी कहानियाँ बढ़ा-चढ़ा कर सुनाने में माहिर हैं। वे उन लोगों के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं जो भारत, अफ्रीका के देशों और अन्य अविकसित क्षेत्रों में रहने वाले असली शोषित हैं। एक ओर वंचित वर्ग के लोग अपनी मेहनत और श्रम से अपनी और अपने समाजों की परिस्थियाँ बदल रहे हैं, दूसरी ओर अमरीका और यूरोप के एकादमी में अच्छी नौकरियाँ करने वाले या पढ़ने वाले वोक-यौद्धा उनके सच्चे प्रतिनिधि होने का दावा करके उसके लाभ पाना चाहते हैं।

मुझे लगता है कि हमारी सामूहिक पहचान को सर्वोपरी मानने का अर्थ है स्वयं को केवल पीड़ित और सताया हुआ देखना, इससे हमें समाज की गलतियों से लड़ने और उसे बदलने की शक्ति नहीं मिलती। वोक-विचारधारा हमसे हमारी मानवता को छीन कर कमज़ोर करती है, यह हमारी सोचने-समझने-कोशिश करने की हमारी शक्ति छीनती है।

सोमवार, अप्रैल 01, 2024

अच्छी पगार, घटिया काम

अगर काम आई.टी. प्रोफेशनल, या मार्किटिन्ग, या आफिस का हो, और साथ में पगार बढ़िया हो, इतनी बढ़िया की अन्य कामों से पाँच गुणा ज्यादा, तो आप ऐसी कम्पनी में काम करना स्वीकार कर लेंगे जो ओनलाईन जूआ चलाती हो, या अश्लील वीडियो दिखाती हो? 

इस काम में कुछ भी गैरकानूनी नहीं हो, तो क्या यह काम करने में बदनामी का डर हो सकता है? प्रश्न है कि आप हाँ कहेंगे या न?

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कोयले की दलाली में हाथ काले होते है, इसे सब जानते हैं। लेकिन अगर आप को कोयले की दुकान के बैक-आफिस में क्लर्क या एकाऊँटैंट की नौकरी मिले, तो क्या उसमें भी हाथ काले होने का डर है? क्या आप यह नौकरी स्वीकार करेंगे, विषेशकर जब कोयले की दुकान के मालिक आप को चलते रेट से चार-पाँच गुणा अधिक पगार देने के लिए तैयार हों

कुछ ऐसा ही प्रश्न उठाया गया था कुछ दिन पहले के अमरीकी अखबार "द वॉल स्ट्रीट जर्नल" में, जिसमें काल्लुम बेर्चर के लिखे एक आलेख में कम्पयूटर टैकनोलोजी से जुड़े कुछ ऐसे कामों की बात थी, जिनके लिए पगार बहुत बढ़िया मिलती है लेकिन लोग जिन्हें करना नहीं चाहते या उसके बारे में किसी को बताना नहीं चाहते। यह काम अश्लील या सैक्स फ़िल्मों वाली पोर्न वेबसाईट तथा जूआ खेलने वाली वेबसाईट से जुड़े हुए हैं।

उदाहरण के लिए आलेख में एक युवती कहती है कि वह एक पोर्न कम्पनी के लिए काम करती थी, उसकी पगार बहुत अच्छी थी, अन्य जगहों से छह गुणा अधिक थी। उनकी वेबसाईट पर लोग अपने सैक्सी वीडियो लगाते थे और उसका काम था कि लोगों को प्रोत्साहित करें ताकि अधिक लोग उन्हें अपने ऐसे वीडियो भेजें। जब उन्होंने शहर बदला और नया काम खोजने के लिए लोगों को अपना परिचय-अनुभव का सी.वी.भेजा तो जितने लोग उन्हें साक्षात्कार के लिए बुलाते थे वह सबसे पहले यही जाना चाहते कि पोर्न-फिल्में आदि से उनके काम का क्या सम्बंध था? कोई उन्हें काम नहीं देता था। अंत में तंग आ कर उन्होंने अपने सी.वी. उस काम की बात को हटा दिया, लिखा कि वह उस समय बेरोजगार थीं और एक कोर्स कर रहीं थीं।

वेबसाईट कोई भी हो, किसी भी तरह की हो, उसे बनाने और चलाने के लिए इन्फोरमेशन टैनोलोजी के विशेषज्ञ चाहिये। और धँधा कुछ भी हो, नशीली ड्रगस का, जूए का या माफिया और गुंडा-गर्दी का, पैसे सम्भालने और काले धन की धुलाई के लिए एकाऊँटैंट, वकील, क्लर्क, ड्राईवर, सब तरह के काम करने वालों की आवश्यकता होती है। अगर आप को ऐसा मौका मिले और तन्खवाह बहुत बढ़िया हो फ़िर भी ऐसा काम स्वीकार करने में कई तरह की दिक्कते हैं।

पहली दिक्कत है कि आप को परिवार वालों और अन्य लोगों को अपनी कम्पनी के काम के बारे में बताने में शर्म आयेगी। दूसरी दिक्कत है कि अगर उस काम की कुछ जड़े कानून की सीमा से बाहर हैं, तो हो सकता है कि कुछ को जेल जाने की नौबत आ सकती है।

अगर आप के बॉस गुंडा टाईप के हैं (ऐसे धँधों को चलाने वाले अधिकतर लोग शायद गुंडा टाईप के ही होते हैं) तो जान से मरने या कम से कम, हड्डियाँ तुड़वाने का खतरा भी हो सकता है।

और यह सब कुछ भी नहीं हो, जैसे इस आलेख में बताया गया है, जब तक यह काम चले तब तक ठीक है, लेकिन अगर उसे बदलना पड़े तो दिक्कतें आ सकती है। लेकिन शायद कुछ लोग ऐसे कामों से आकर्षित होते हैं और उन्हें इन दिक्कतों से डर नहीं लगे।

मैंने इस बारे में सोचा, मुझे लगा कि मैं ऐसी नौकरी नहीं कर पाऊँगा। आप बताईये, क्या आप ऐसी किसी कम्पनी में काम करना चाहेंगे? अगर हाँ तो क्यों? और नहीं तो क्यों? लेकिन जिसकी नौकरी चली गयी हो या जो बेरोजगार हो और परिवार पालने हों, अक्सर ऐसी हालत में कोई भी नौकरी स्वीकार की जा सकती है।

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मंगलवार, मार्च 26, 2024

एक बार फ़िर २५ मार्च की होली

२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था।

उन दिनों वह एंडियन एक्सप्रेस की अंग्रेज़ी की साप्ताहिक पत्रिका एवरीमैन के लिए काम कर रहे थे, और सुबह जब ड्राईवर उन्हें हवाई अड्डे ले जाने आया था तब तक वह अपनी लम्बी अंतिम यात्रा के लिए निकल चुके थे। उस समय वह ४७ साल के थे।

कल, एक बार फ़िर, २५ मार्च की होली थी। कल जब होली की बात हो रही थी तब मुझे वह रात याद आई थी, उनकी उखड़ती हुई साँस की आवाज़ और साथ में बैठी माँ, उन्हें पुकारती हुईं, उनकी छाती को मलती हुई।

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परिवार की तस्वीर - यह एक तस्वीर है जिसमें हम सब लोग हैं, दादी, पापा, मम्मी और हम तीनों। कुछ माह पहले मेरे बेटे ने किसी सोफ्टवैर से इसमें रंग भर दिये थे। यह उस साल की है जब नेहरू जी की मृत्यु हुई थी, और इसे मेरठ में छिपीटैंक के एक स्टूडियो में खींचा गया था।

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पापा अगर अब होते तो ९७ साल के होते। मन ही मन में उनसे मेरी बातचीत चलती रहती है। बहुत दुनिया घूमी और भिन्न विचारधाराएँ देशों को कहाँ ले जाती है, करीब से देखने का मौका मिला। जीवन में अलग-अलग सोच वाले लोगों के साथ काम करने का मौका भी मिला, उनके आदर्शों और सोच के बारे में मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच भी बनी।

जब इसके बारे में सोचता हूँ तो उनकी कमी महसूस होती है - मैं मन में उनसे अपनी सोच की बात कहता हूँ लेकिन उनका उत्तर नहीं मिलता। मैं सत्तर साल का हो रहा हूँ लेकिन स्मृतियों वाले पापा अभी भी ४७ साल पर ही रुके हैं, तो मैं उन्हें कहता हूँ कि पापा मेरे जीवन का अनुभव आप से अधिक हो गया। 

अक्सर जब कोई अच्छी किताब पढ़ता हूँ तब भी मन में उनसे बात होती है, सोचता हूँ कि उन्हें वह किताब अच्छी लगती या नहीं? शायद सभी बच्चे ऐसा ही करते हैं, हमारी उम्र चाहे कितनी भी हो जाये, मन ही मन अपने माता-पिता से बातें करना जीवन भर चलता रहता है?

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पापा की २३वीं बरसी पर, १९९८ में माँ ने अपनी डायरी में लिखा था -

आज सचमुच जीवन का सफ़र जहाँ से शुरु किया था उसकी बहुत याद आ रही है। कश्यप भार्गव तुम्हारा प्रिय मित्र। हमारी शादी में उसकी माँ और बहने दोनो थीं। एक बार जानकीदेवी कॉलेज से निकल रही थी तो सविता मिली थी। तुम्हारे जाने के साल भर बाद ही, उसी तिथि और उसी समय में ही, कश्यप भी नहीं रहा था। वैसे ही दिल के दौरे में वही 25 मार्च को, वह भी नहीं रहा। क्या कहती उससे। अकेले ही बच्चों का पालन पोषण किया होगा उसने। कई बार मन में आया कि उसके स्कूल, बाल भारती में , जा कर पता लगाऊँ, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी उससे मिलने की।

ज़िन्दगी में दूसरे लोग ही नहीं खुद अपनी नज़रें, अपना दिल और अपने अहसास भी धोखा दे जाते हैं तो इसका कुछ हो भी तो नहीं सकता। ज़िन्दगी को बेहद गम्भीरता से लेने वाले और उस पर लम्बी बहसें करने वाला कश्पी जो मुझे लखनऊ छोड़ने गया था और लखनऊ में साथ भी रहा था। फ़ैज़ाबाद में भी हमारी शादी में भी उसने मेरे भाई की भूमिका निभाई थी। मुझे ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद दिया था उसने। जीवन के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय तुमने और कश्यपी ने कैसे लिये थे? आज भी मुझे इस पर हैरानी होती है।

तुम्हारी मृत्यु के बाद सविता को ले कर आया था और जाते हुए कहने लगा कि अब मेरी ही बारी है, सूरजप्रकाश और दीपक तो नहीं रहे, मैं अकेला क्या करूँगा। और ठीक एक वर्ष बाद तुम्हारे जैसा वही समय, वही दिन, वह भी चला गया। सचमुच उसकी बारी आ गयी थी. इस पर हैरान हूँ।

पापा के उस मित्र कश्पी (कश्यप भार्गव) और दिल्ली के बालभारती स्कूल में पढ़ाने वाली उनकी पत्नी सविता भार्गव से कभी कहीं मिलने की मुझे कोई याद नहीं, न ही कभी उनके बच्चों से कभी कोई परिचय हुआ। जब भी माँ कश्पी की बात करती थी तो मन में यही प्रश्न उठता था कि वह पापा के इतने अच्छे दोस्त थे तो हमारी कभी उनसे मुलाकात या जान पहचान कैसे नहीं हुई?

उनके बच्चे कहाँ होंगे? मन में आता है कि उनसे मिलना अच्छा लगेगा।

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जब पापा गुज़रे थे तब मैं मेडिकल कॉलेज के तीसरे वर्ष में पढ़ रहा था। उन दिनों में पापा जयप्रकाश नारायण जी के साथ बिहार में बहुत समय बिता रहे थे, वे बिहार छात्र आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रांति वाले दिन थे। जे.पी. के कहने से ही इंडियन एक्सप्रेस के गुएनका जी ने मेरी मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई के लिए छात्रवृति स्वीकार कर ली थी, वरना शायद डॉक्टर बनने का सपना कठिनाई से पूरा होता।

शायद इसीलिए सारा जीवन मन में लगता रहा है कि इंडियन एक्सप्रेस "हमारा अपना" अखबार है। यादें कहाँ से शुरु होती हैं और कहाँ चली जाती हैं!


शुक्रवार, मार्च 22, 2024

ऋग्वेद कथा

गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि गाथिन आये थे। गृत्समद ऋषि अपने मित्र की आवभगत करने गये, उनसे गले मिले और उन्हें आदर से अपने शिक्षाकक्ष में ले आये, विद्यार्थियों से उनका परिचय कराया, उन्हें बैठने का स्थान दिया, जल और भोजन दिया।

"प्रिय भाई गाथिन, तुम कितने समय के बाद आये, आशा है कि तुम्हारे समुदाय में सब कुशल है", उन्होंने मेहमान से कहा। कुशल-मंगल पूछने और औपचारिकता की बातों के बाद उन्होंने मित्र से पूछा, "इतनी लम्बी यात्रा करके यहाँ आने का क्या कोई विषेश कारण है?"

गाथिन बोले, "पिछली सदियों में आर्यावर्त बहुत बढ़ गया है और बदल गया है। वह समय जब सब राजन मिल कर एक मनु, एक इन्द्र और सप्तऋषियों का चुनाव करते थे, लोग उस समय के बारे में भूलते जा रहे हैं। आर्यावर्त इतना फैल गया है कि इसके बाहर वाले हिस्सों के जनपदों के आश्रमों में कौन से ऋषि हैं और वह कौन से मंत्र पढ़ा रहे हैं, यह सब हमें पता ही नहीं हैं। जब प्रथम मनु का मनवन्तर था और पहले सप्तऋषि मण्डल में वाशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वानदेव तथा शौनक जैसे ऋषि थे, तब ऐसा नहीं था। लेकिन उसके बाद, पिछली सदियों में मनु बदले, मनवन्तर बदले और उनके सप्तऋषि भी बदलते रहे, तो उनका इतिहास कहीं पर संजोया नहीं गया।"

गृत्समद ऋषि बोले, "इतिहास की इन सब बातों से तुम क्यों परेशान हो रहे हो?"

विश्वामित्र बोले, "कुछ समय पहले मेरे कुछ शिष्य दूर देश की यात्रा से लौटे, उन्होंने बताया कि आर्यावर्त के सुदूर राज्यों में ऐसे नये ऋषि हैं जो अपने शिष्यों को नया पढ़ा रहे हैं, उनके कुछ ऐसे मंत्र और ऋचाएँ भी हैं, जो उन्होंने पहले कभी नहीं सुनी थीं। तबसे मैं इसके बारे में सोच रहा हूँ और तुम्हारी राय जानना चाहता था।"

गृत्समद ऋषि बोले, "यह तो प्रकृति का नियम है, इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं, फ़िर बदलाव से कैसा भय?"

विश्वामित्र ऋषि बोले, "लेकिन अगर भविष्य के हमारे ऋषि भूल जायेंगे कि हमारी संस्कृति और सभ्यता की नींव किस मूल दर्शन तथा किन विचारों पर खड़ी हुई थी, क्या वह भय की बात नहीं?"

गृत्समद ऋषि मुस्कराये बोले, "कैसे भूल जायेंगे? हमारे शिष्य, हमारे मंत्रों और ऋचाओं के केवल शब्द कंठस्थ नहीं करते, उनके हर सुर के नियम हैं, हर ध्वनि को याद किया जाता है। हमारे शिष्य और हमारी व्यवस्था इतनी सक्षम हैं कि हम अपने मंत्रों को सदियों के बाद भी इस तरह से दोहरा सकते हैं कि उनकी लाखों ध्वनियों में से एक ध्वनि भी नहीं बदलती। हमने पूर्वैतिहासिक आदिकाल के अपने पूर्वजों की उन ऋचाओं को भी सम्भाल कर संजोया है, जिनकी ध्वनियों के अर्थ भी आज कोई नहीं जानता या समझता। अगर हमने उस परम्परा को भी लुप्त नहीं होने दिया, तो फ़िर कैसा भय?"

विश्वामित्र ऋषि भी मुस्कराये, बोले, "मुझे हमारे शिष्यों की क्षमता कम होने का भय नहीं है, बल्कि आर्यावर्त के फैलने का और उस परिधी पर नये की उत्पत्ति की चिंता है, कि कल यही आर्यावर्त इतना बड़ा हो जायेगा कि उसके एक छोर के व्यक्ति, उसके दूसरी छोर के व्यक्ति को नहीं पहचानेंगे और उन्हें नये-पुराने का भेद नहीं मालूम होगा।"

गृत्समद ऋषि के माथे पर बल पड़ गये, बोले, "इसका क्या उपाय है?"

"मेरे विचार में इसका उपाय है कि हम लोग अपने प्रमुख ऋषियों को और आश्रमों के प्रतिनिधियों को एक जगह पर एकत्रित करें", विश्वामित्र ऋषि ने कहा, "और सर्वसम्मत राय से उन मंत्रों तथा ऋचाओं की सूची बनायें जो हमारे पूर्वजों की निधि हैं और भविष्य के लिए जिनकी रक्षा करना महत्वपृ्र्ण है। आजकल हमारे आश्रमों में शब्दों को लिपीबद्ध करने की नयी तकनीक बनी है, कुछ लोग इसे ब्राह्मी लिपी कहते हैं। हमारे जिन मंत्रों तथा ऋचाओं को सर्वसम्मति से स्वीकारा जायेगा, हम उन्हें लिपीबद्ध कर देंगे ताकि भविष्य में उनका निशान रहे। कालांतर में जब नये ऋषि, अपने ध्यान और अंतर्दृष्टि से अगर नये मंत्र और ऋचाओं का ज्ञान जोड़ेंगे, तो भविष्य में उनके लिए नये ग्रंथ बन सकते हैं लेकिन उससे पहले हम अपने पित्रों के पूर्व-ज्ञान को भी सम्भाल कर रखें।"

गृृत्समद ऋषि सोच कर बोले, "बात तो तुम ठीक कह रहे हो। मैंने कृष्णद्वैपायन नाम के एक ऋषि के बारे में सुना है जिन्होंने ब्राह्मी लिपि में कुछ मंत्र लिपिबद्ध किये हैं, हमारे प्राचीन मंत्रों को लिपीबद्ध करने का काम उनके आश्रम को सौंपा जा सकता है।"

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गृत्समद और विश्वामित्र आश्रम के ऋषियों की इस बातचीत के सात माह के बाद वह सभा आयोजित हुई जिसमें दूर-करीब के सभी आश्रमों के ऋषियों को आमंत्रित किया गया।

सभा में सबसे पहले उन मंत्रों और ऋचाओं पर विचार किया गया जो कि पित्रों की परम्परा से चले आ रहे थे। इन सभी १,९७६ मंत्रों को जो १९१ सूक्तों में विभाजित थे, इन्हें प्राथमिकता देने का निर्णय लिया गया। फ़िर सात प्राचीन आश्रमों के ऋषियों को अपनी-अपनी परम्परा के अन्य महत्वपूर्ण मंत्र और सूक्त बताने के लिए कहा गया। उन सबके योगदानों को विभिन्न मण्डलों में जोड़ा गया। गृत्समद ने दूसरे, गाथिन विश्वामित्र ने तीसरे, वामदेव गौतम ने चौथे, अत्रि ने पाँचवें, वासर्पत्य भारद्वाज ने छठे, वशिष्ठ ने सातवें, एवं अंगीरस व कण्व ने आठवें मण्डल के मंत्र दिये।

अंत में बाकी के ऋषियों से योगदान माँगा गया ताकि तब तक हुए विमर्श में अगर कोई महत्वपूर्ण मंत्र छूट गये थे तो उन्हें भी जोड़ा जा सके। 

सभा के अंत तक, ऋग्वेद तैयार था, जिसमें कुल १०,५७९ मंत्र जोड़े गये, जो १०२८ सूक्तों में विभाजित थे, पूरा ऋग्वेद दस मण्डलों में विभाजित था।

इस सारे विचार-विमर्श से जो मंत्र, सूक्त तथा ऋचाएँ चुनी गयीं थीं, कृष्णद्वैपायन ने अपने शिष्यों की सहायता से उन्हें लिपिबद्ध किया। इस तरह से ऋषियों के पहले ग्रंथ का संकलन पूरा हुआ जिसे ऋग्वेद संहिता का नाम दिया गया। इस महत्वपूर्ण कार्य में योगदान देने वाले ऋषि कृष्णद्वैपायन को वेद-व्यास का नाम मिला।

एक बार प्राचीन ज्ञान, कथाओं और परम्पराओं को लिपिबद्ध करने का काम शुरु हुआ तो वह फ़िर नहीं रुका।

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टिप्पणियाँ

१. यह काल्पनिक कहानी है, हमारे किसी ग्रंथ में ऐसा वर्णन नहीं है। मैंने बहुत वर्षों तक अंतर्राष्ट्रीय सभाओं की रिपोर्टें तैयार की हैं, ऋग्वेद के ढांचे को देख कर मुझे लगा कि वह भी किसी ऐसी ही सभा में हुए विमर्श का नतीजा लगता है। यह कथा इसी विचार का स्वरूप है।

२. इस कहानी को लिखने के लिए मैंने ऋग्वेद से जुड़े कुछ ग्रंथों को पढ़ा और उनसे जानकारी ली, जिनमें प्रमुख था "ऋग्वेद संहिता भाषाभाष्य", जिसके भाष्यकार पंडित जयदेवशर्मा थे, संशोधनकर्ता आचार्य भद्रसेन थे, प्रकाशक आर्य साहित्य मण्डल, अजमेर, २००८ विक्रम संवत (१९५२ ई.) द्वारा छपा ग्रंथ का तीसरा संस्करण था। इसके अनुसार "वेदों को अनादि काल का ईश्वरीय ज्ञान मानने वालों ऋषियों को वेदमंत्रों के कर्ता नहीं माना, प्रत्युत मंत्रों का दृष्टा स्वीकार किया है ... अग्नि, वायु और आदित्य, तपस्यायुक्त इन तीनों से ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद, यह तीनों प्रकट हुए, इसी का मनु ने अनुवाद किया है ... शांखायन स्रोत सूत्र में ऋग्वेद के प्रथम प्रवक्ता के रूप में अग्नि को स्वीकारा गया है ... इस संकल्प में अग्नि को उपदेष्टा, वायु को उपश्रोता और आदित्य को अनुख्याता स्वीकार किया है ... वैदिक साहित्य में 'ऋषि' शब्द का प्रयोग 'आचार्य' के अर्थ में किया जाता है, यानि इसका अर्थ 'विद्वान-गुरु' है"।

३. हिंदी लेखक और संस्कृत विद्वान डॉ. रांगेय राघव की पुस्तक "प्राचीन ब्राह्मण कहानियाँ" (सन् १९५९ में "किताब महल" द्वारा प्रकाशित) में दी गयी जानकारी के अनुसार - 

"मानव समूहों के अधिनायकों को मनु कहते थे और हर मनु के कार्यकाल को मन्वंतर कहते थे। प्रथम मनु, यानि स्वयंभू मनु का जन्म ब्रह्मा से हुआ। स्वयंभू से पहले ब्रह्मा ने नौ अन्य मानस पुत्रों को जन्म दिया, जो नौ-ब्रह्मा बने, उनके नाम थे - भृगु, पुलस्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वशिष्ठ। राजा उत्तम के पुत्र औतम तीसरे मनु बने थे, स्वरोचिष आठवें मनु थे, सावर्णि नवें मनु थे, ब्रह्मसावर्णि दसें मनु थे, आदि।

हर मन्वंतर में मनु के साथ एक इन्द्र और कुछ देवगण-गुट भी नियुक्त होते थे। इन्द्र की पदवी पाने के लिए यज्ञ और तपस्या आवश्यक होती थी। हर देवगण गुट में १०-१५ व्यक्ति होते थे, जोकि यज्ञयोगी होते थे। जैसे कि औतम मनु के समय सुशान्ति नाम के इन्द्र हुए और उनके साथ पाँच देवगण-गुट थे - स्वधामा, सत्य, शिव, पतर्दन, और वशवर्ती। जबकि रैवत मनु के मन्वंतर में चार देवगण-गुट थे - सुमेधा, भूपति, वेकुंठ और अमिताभ, और हर गुट में चौदह व्यक्ति थे।

हर मन्वंतर में सात ऋषि भी होते थे, जैसे कि औतम मनु के समय गुरु वष्शिठ के सात पुत्रों को सप्तऋषि की पदवी मिली थी।

समाज से दूर वन में रहने वालों में मुनि भी होते थे। यह विवाह नहीं करते थे और तपस्या, पूजा जैसे कामों में जीवन बिताते थे।"

उपरोक्त विवरण से लगता है कि प्राचीन काल में यज्ञों यानि अग्नि पूजा को बहुत महत्व दिया जाता था, और यज्ञ करने वाले को इन्द्र तथा देवगण जैसी पदवी मिलती थी। यानि इन्द्र व देवगण पुजारी होते थे, उनका काम यज्ञ करना था। जबकि ऋषि ज्ञानी व्यक्ति होते थे, वनों में रहते थे, उनका काम आश्रम में शिक्षा देने से जुड़ा था।

मनु, इन्द्र, देवगण, ऋषि, आदि की नियुक्ति एक मन्वंतर के अंतर्गत होती थी, यानि जब मनु बदलते थे तो उनके साथ इन सब अन्य पदों पर नये व्यक्ति नियुक्त होते थे।

जबकि मुनि ऋषियों से भिन्न थे, उनका काम अकेले रहना, तपस्या तथा यज्ञ करना आदि थे (शायद मुनि शब्द मौन से बना है?)। लेकिन नये मनु के साथ नये मुनियों की नियुक्ति नहीं होती थी, मुनि बनने का निर्णय व्यक्तिगत स्तर लिया जाता था।

दूसरी बाद समझ में आती है कि राजा और मनु के पद में अंतर था, और मनु का पद राजा से ऊँचा था। शायद मनु के आधीन बहुत से राजा आते थे, जैसे कि केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकार? मनु की क्या ज़िम्मेदारी होती थी, यह बात इस किताब में दिये हुए विवरण से समझ नहीं आती।

तीसरी बात जो इससे समझ आती है, वह है कि मनु, इन्द्र, देवगण और ऋषि, इसी धरती के व्यक्ति होते थे, जिन्हें चुना जाता था या नियुक्त किया जाता था। इस किताब के विवरण में मनु बनने के लिए या इन्द्र बनने के लिए युद्ध करने या जीतने की कोई बात नहीं लिखी है। 

इसमें जिस तरह के प्रशासनिक आयोजन की बातें की गई हैं उनसे यह यायावर समूह का वर्णन नहीं लगता, बल्कि एक जगह पर स्थायी रहने वाला शहरी जनसमूह लगता है। यानि अगर आर्य लोग मध्य एशिया से यात्रा करके भारत में आये थे, तो जब ऋग्वेद लिपिवद्ध किया गया, तब तक यह लोग उनके वंशज थे जो पीढ़ियों से एक स्थान पर रहते थॆे, जहाँ इन्होंने राज्य और शहर बनाये थे।

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सोमवार, मार्च 18, 2024

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने भारत के जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की एक अन्य फ़िल्म, "जिस तरह हम बोलते हैं" पर लिख रहा हूँ।

इस फ़िल्म को बनाने में उन्होंने हिंदी भाषा के विकास के प्रख्यात जानकार लोगों का सहयोग लिया, जिनमें प्रो. नामवर सिंह का नाम सबसे पहले आता है, वह इस फ़िल्म के सूत्रधार थे। अन्य विद्वान जिन्होंने फ़िल्म में सहयोग दिया उनमें प्रमुख नाम हैं वाराणसी के प्रो. जुगल किशोर मिश्र तथा प्रो. शुकदेव सिंह, उज्जैन के डॉ. कमलदत्त त्रिपाठी और दिल्ली विश्वविद्यलय के प्रो. अजय तिवारी

नीचे फ़िल्म के पहले वीडियो क्लिप में प्रो. नामवर सिंह

फ़िल्म में संस्कृत से पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश के रास्ते से हो कर आज की भाषाओं और बोलियों के विकास की गाथा चित्रित की गई थी। यह फ़िल्म २००४-०५ के आसपास दूरदर्शन इंटरनेशनल चैनल पर तथा अमरीका में विश्व हिंदी दिवस समारोह में दिखायी गई थी।

जब मैंने यह फ़िल्म पहली बार देखी थी तो मुझे लगा था कि इसमें हमारी भाषाओं और बोलियों के बारे में बहुत सी दिलचस्प जानकारी है, और इस फ़िल्म को जितना महत्व मिलना चाहिये था, वह नहीं मिला था। इसलिए नवम्बर २०२२ में मैंने इसे अरुण के साथ दोबारा देखा और उससे फ़िल्म में दिखायी बातों पर लम्बी बातचीत को रिकॉर्ड किया। कई महीनों से इसके बारे में लिखने की सोच रहा था, आखिरकार यह काम कर ही दिया।

फ़िल्म में दी गई कुछ जानकारी मुझे गूढ़ तथा कठिन लगी। चूँकि फ़िल्म में सबटाईटल नहीं हैं, हो सकता है कि कुछ बातें मुझे ठीक से समझ नहीं आयी हों, इसके लिए मैं पाठकों से क्षमा मांगता हूँ। मेरे विचार में दूरदर्शन को इस फ़िल्म को इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध कराना चाहिये।

"जिस तरह हम बोलते हैं" - फ़िल्म के बारे में निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा से बातचीत

अरुण चढ़्ढ़ा: "हम लोग स्कूल में पढ़ते थे कि भारत की बहुत सी भाषाएँ हैं, हर प्रदेश की अपनी भाषा है, और हर भाषा की बहुत सी बोलियाँ हैं। कहते हैं कि यात्रा करो तो हर दो कोस पर बोली बदल जाती है। इसी बात से मैं सोच रहा था कि हिंदी कैसे विकसित हुई, और हिंदी से जुड़ी कौन सी प्रमुख बोलियाँ हैं, उनके आपस में क्या सम्बंध हैं, उनके संस्कृत से क्या सम्बंध हैं। एक बार इसके बारे में जानने की कोशिश की तो पता चला कि जिसे हम एक भाषा कहते हैं, उसमें कई तरह के भेद हैं। जैसे कि संस्कृत भी दो प्रमुख तरह की है, वैदिक संस्कृत तथा लौकिक संस्कृत। तो मेरे मन में आया कि हमारी भाषाओं के विकास में यह सब अंतर कैसे आये और क्यों आये? (नीचे तस्वीर में फ़िल्म-निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा)

हमारी हिंदी की जड़े कम से कम चार हज़ार वर्ष पुरानी हैं और आज की भाषा उस प्राचीन भाषा से बहुत भिन्न है, उनमें ज़मीन-आसमान का अंतर है। अगर कोई भाषा जीवित है तो वह समय के साथ बदलेगी। लोग कहते हैं कि हमारी भाषा में मिलावट हो रही है, भाषा की शुचिता को बचा कर रखना चाहिये, लेकिन अगर भाषा जीवित है तो उसका बदलते रहना ही उसका जीवन है। जयशंकर प्रसाद, मैथिलीचरण गुप्त और निराला जैसे साहित्यकारों ने, हर एक ने अपने साहित्य में अपने समय की भाषा का उपयोग किया है। 

यही सब सोच कर मुझे लगा कि इस विषय पर फ़िल्म बनानी चाहिये कि प्राचीन समय से ले कर हमारी भाषा कैसे विकसित हुई, कैसे कालांतर में उससे अन्य भाषाएँ और बोलियाँ बनी। सबसे पहले मैंने इसके बारे में नेहरु संग्रहालय के एक लायब्रेरियन से बात की, फ़िर उनके सुझाव पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में बात की, वहाँ प्रोफेसर सब्यसांची ने सलाह दी, इस तरह से इस विषय पर सामग्री एकत्रित करनी शुरु की। तब प्रो. नामवर सिंह से बात हुई, जानकारी देने के साथ-साथ उन्होंने इस फ़िल्म का सूत्रधार बनना स्वीकार कर लिया। फ़िर, उज्जैन की संस्कृत एकादमी के निदेशक के. एम. त्रिपाठी साहब मिले, वाराणसी संस्कृत विद्यापीठ के प्रो. जुगल किशोर मिश्रा और अन्य बहुत से लोग इस काम में साथ चले, उन सबके सहयोग के बिना इस फ़िल्म को नहीं बना सकता था। (नीचे फ़िल्म के वीडियो-क्लिप में प्रो. युगलकिशोर मिश्रा लौकिक संस्कृत से प्राकृत के बारे में बताते हैं)

चूँकि भाषा लिखने, पढ़ने और बोलने का माध्यम है, यह दुविधा थी कि उस पर फ़िल्म कैसे बनाई जाये। मुझे लगा कि फ़िल्म के माध्यम से हम यह दिखा सकते हैं कि बोली हुई भाषा के उच्चारण कैसे होते हैं। जैसे कि उज्जैन में त्रिपाठी साहब को प्राकृत भाषा के उच्चारण की जो जानकारी थी वह अपने आप में अनूठी थी। वाराणसी में प्रो. मिश्र थे जिनके विद्यार्थयों का संस्कृत थियेटर का दल था, उन लोगों ने संस्कृत नाटकों के मंचन से फ़िल्म में सहयोग दिया था।

इस फ़िल्म की सारी रिकॉर्डिन्ग लोकेशन पर ही की गई, मैं इसकी डबिन्ग नहीं चाहता था। खुली जगहों में, भीड़ में, कैसे लाइव रिकॉर्डिन्ग की जाये, यह हमारी चुनौती थी। यह फ़िल्म बीस-बीस मिनट के पाँच भागों में प्रसारित की गई थी, बाद में उन्हें जोड़ कर मैंने एक घंटे की फ़िल्म भी बनाई थी। (टिप्पणी सुनील - इस आलेख के लिए मैंने वह एक घंटे वाली फ़िल्म देखी थी)

वैदिक तथा लौकिक संस्कृत और उसकी व्याकरण

फ़िल्म का प्रारम्भ जयशंकर प्रसाद की "कामायनी" की एक कविता से होता है। फ़िर नामवर सिंह बताते हैं कि "ऋग्वेद की पहली ऋचा वाक-सूक्त है, जिसमें वाक् यानि भाषा की महिमा गाई गई है। हडप्पा में मूर्तियाँ, चित्र, भवन, सब कुछ मिलते हैं लेकिन अभी तक उनकी लिपी नहीं पढ़ी जा सकी। इस तरह से हम उनकी सभ्यता के बारे में बहुत कुछ जानते हैं लेकिन उनके साहित्य के बारे में कुछ नहीं जानते। किसी भी समाज, संस्कृति, सभ्यता की, बिना उसकी भाषा जाने, उसकी पहचान पूरी नहीं होती।"

वैदिक संस्कृत दो हज़ार वर्ष पहले जैसी बोली जाती थी, आज भी वैसी ही बोली और लिखी जाती है, इसके शब्दों को आगे-पीछे नहीं कर सकते। फ़िल्म में वैदिक संस्कृत के मंत्रो के उच्चारण को छाऊ नृत्य के साथ दिखाया गया है।

लेकिन विभिन्न वेदों में मंत्रों के उच्चारण और ताल में अंतर आ जाता है। जैसे कि हिरण्यगर्भ समवर्ताग्रह ऋचा है जो तीन वेद ग्रंथों (ऋग्वेद, कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद) में मिलती है, इसके शब्द नहीं बदल सकते, लेकिन हर वेद के साथ उसका उच्चारण और ताल बदल जाते हैं। यह इस लिए होता है क्योंकि यह स्वाराघात-युक्त भाषा है, इसमें सात स्वरों का समावेश है, इसलिए उनका उच्चारण भी सप्त स्वर-नियमों के अनुसार होता है। यह सप्त सुर सामवेद में स्फटित रूप में मिलते हैं, जबकि ऋग्वेद, कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद में यह सात सुर तीन स्वरों (उदात्त, अनुदात्त और छड़िज) में समाहित हो जाते हैं। उदात्त में निशाद और गंधार मिल जाते हैं, अनुदात्त में ऋषभ और भैवत, और छड़िज में षड़ज, मध्यम और पंचम मिल जाते हैं। इस वजह से हर वेद की उच्चारण शैली में अंतर होता है।

वेद ग्रंथ वैदिक संस्कृत में लिखे गये हैं, जबकि रामायण और भगवद्गीता जैसे ग्रंथ लौकिक संस्कृत में लिखे गये हैं, जिनकी भाषा में समय के साथ बदलाव हो सकता है। पाणिनी व कात्यायन जैसे आचार्यों ने व्याकरण के नियमों की व्याख्या करके संस्कृत को व्यवस्था दी, उन्हीं नियमों का प्रयोग हिंदी जैसी भाषाएँ भी करती हैं।

फ़िल्म में बताया गया है कि, "पाणिनी की व्याकरण संस्कृत ही नहीं, किसी भी भाषा की पहली व्याकरण थी, जिसे उन्होंने १४०० सूत्रों में लिखा था। कहते हैं कि शिव जी ने चौदह बार डमरू बजाया, उस डमरू पर १४ स्वरों वाले "अइउड़ सूत्र" से संस्कृत की उत्पत्ति हुई, उन्हीं सूत्रों पर ही पाणिनी ने अष्टाध्यायी व्याकरण लिखी। उन्होंने संस्कृत की मुख्य धातुओं को निश्चित किया, जिनमें उत्सर्ग, प्रत्येय आदि जोड़ कर भाषा के शब्द बनाते हैं।"

फ़िल्म में लौकिक संस्कृत के उदाहरण कालीदास के नाटक के माध्यम से दिखाये गये हैं। उज्जैन के त्रिपाठी जी बताते हैं कि महाकवि कालीदास के समय में लौकिक संस्कृत संचार की भाषा थी और उसकी प्रवृति धीरे-धीरे प्राकृत भाषा में मुखरित हो रही थी, क्योंकि आम व्यक्ति जब उसे बोलते थे तो उनकी बोली में उच्चारण और व्याकरण का सरलीकरण हो जाता था। (नीचे फ़िल्म से वीडियो-क्लिप में डॉ. कमलेश दत्त त्रिवेदी)


 संस्कृत की परम्परा दक्षिण भारत में भी रही है। जैसे कि केरल के मन्दिरों में संरक्षित संगीत तथा नाट्य पद्धिति कुड़ीयट्टम का इतिहास दो हज़ार वर्ष पुराना है। करीब तीन सौ साल पहले इसका कथ्थकली स्वरूप विकसित हुआ है। इन पद्धतियों में वैदिक गान को तीन स्वरों (उदात्त, अनुदत्त और छड़िज) में ही गाते हैं, लेकिन कुड़ीयट्टम शैली में उनमें भावों को भी जोड़ देते हैं।

प्राकृत भाषा

ईसा से करीब छह सौ साल पहले, प्राकृत भाषाएँ लौकिक संस्कृत के सरलीकरण से बनने लगीं। समय के साथ प्राकृत के कई रुप बदले, इसलिए प्राकृत कई भाषाएँ थीं। सरलीकरण से संस्कृत के तीन वचन से दो वचन हो गये, कुछ स्वर जैसे ऋ, क्ष, आदि प्राकृत में नहीं मिलते थे। भगवान बुद्ध ने जिस प्राकृत भाषा में अपनी बात कही उसे "पालि" कहते हैं। जैन तीर्थांकर महावीर और सम्राट अशोक ने भी प्राकृत में ही अपने संदेश दिये। समय के साथ इनसे अपभ्रंश तथा आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म हुआ।

भारत के नाट्यशास्त्र में ४२ तरह की भाषाओं की बात की गई है, जबकि कोवल्य वाक्यमाला ग्रंथ में १८ तरह की प्राकृत की बात की गई है, जिनमें तीन प्रमुख मानी जाती थीं - मगधी, महाराष्ट्री और शौरसैनी। महाकवि कालीदास ने तीनों प्राकृत भाषाओं का अपने नाटकों में सुन्दर उपयोग किया था। जैसे कि उनके रचे एक नाटक में एक पात्र लौकिक संस्कृत बोलता है, गद्य में बोलने वाले पात्र शौरसैनी बोलते हैं और इसके गीत महाराष्ट्री में हैं। 

अपभ्रंश, औघड़ी, अवधी, ब्रज, हिन्दवी, खड़ी बोली ...

संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश, अपभ्रंश से औघड़, इस तरह से शताब्दियों के साथ भाषाएँ बदलती रहीं। महाकवि कालीदास ने विक्रमवेशी में अपभ्रंश का उपयोग भी किया और पतांजलि ने अपना महाभाष्य अपभ्रंश में लिखा।

अपभ्रंश से पश्चिम में गुजरात तथा राजस्थान में पुरानी हिंदी और ब्रज भाषाएँ निकलीं जिनका वीर रस की रचनाओं के सृजन में प्रयोग किया गया। दलपत राय ने खुमान रासो, चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो, आदि ने अपनी रचनाओ के लिए इन्हीं भाषाओं का उपयोग किया। राजस्थान में इन रचनाओं को डिन्गल तथा पिन्गल भाषाओं में गाने की परम्पराएँ बनी। डिन्गल भाषा में शक्ति, ओज, और उत्साह अधिक होता है, जबकि पिन्गल में अधिक कोमलता है, वह ब्रज भाषा के अधिक करीब है। डिन्गल भाषा में युद्ध से पहले राजा और योद्धाओ को उत्साहित करने के लिए गाते थे। (नीचे वीडियो में श्री शक्तिदान कवि डिन्गल और पिन्गल के बेद के बारे में बताते हैं)

मैथिल कवि विद्यापति ने अवहट भाषा में लिखा, जैसे कि - "कुसमित कानन कुंज वसि, नयनक काजर घोरि मसि। नखसौ लिखल नलिनि दल पात, लिखि पठाओल आखर सात।" (नीचे के वीडियो-क्लिप में फ़िल्म से प्रो. शुकदेव सिंह विद्यापति की अवहट के बारे में)



बाहरवीं-तेहरवीं शताब्दी में हिंदी का स्वरूप सामने आने लगा। निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य अमीर खुसरो ने बहुत सी रचनाएँ इसी हिन्दवी भाषा में लिखीं, जैसे कि उनका यह गीत, "छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके, प्रेम भटी का मदवा पिलाइके, मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके। गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ, बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके", बहुत प्रसिद्ध हुआ। खुसरो ने एक नया प्रयोग भी किया जिसे "दो सुखने" कहते हैं, कविताएँ जिनका एक हिस्सा फारसी में था और दूसरा हिंदी में।

मौलाना दाउद ने अवधी भाषा में "चांदायन" महाकाव्य की रचना की जिसमें उन्होंने चौपाई और दोहों को लिखा, यह ग्रंथ तुलसीदास के मानस से करीब दो-ढाई सौ साल पहले था। उन्होंने जिस तरह से चांदायन में रूप और प्रेम की पीड़ा का वर्णन किया, वह अनोखा था। इस तरह से हिंदी में सूफी काव्यधारा की परम्परा का प्रारम्भ हुआ।

अवधी लेखन की परम्परा में आगे चल कर मालिक मुहम्मद जायसी ने "पद्मावत" को रचा। अवधी भाषा का क्षेत्र बहुत बड़ा था और उसमें एक जगह से दूसरी जगह में कुछ अंतर थे। जायसी की अवधी, जौनपुर और सुल्तानपुर की अवधी थी, वह बहुत लोकप्रिय हुई लेकिन सबसे समझी नहीं गई।

तुलसीदास जी बहुत घूमे थे, उन्होंने अपनी अवधी को अखिल भारतीय रूप दिया, अपनी बात को सरल भाषा में कहा जिसे आम लोग, हलवाई, हज्जाम भी बोलते-समझते थे। उनके काव्य में इतनी उक्तियाँ हैं जिन्हें गाँव के अनपढ़ लोग भी याद रखते हैं और आम जीवन में बोलते हैं। (नीचे के वीडियो-क्लिप में फ़िल्म से प्रो. अजय तिवारी जायसी और तुलसीदास की अवधी के बारे में बताते हैं)




१४वीं - १७वीं शताब्दियों में "खड़ी बोली" सामने आई। कबीर जैसे संत-कवियों ने खड़ी बोली में अंधविश्वास, कर्मकाँड, छूआ-छूत के विरुद्ध कविताएँ गाईं, जो आज तक लोकप्रिय हैं।
 
हिंदी का सारा साहित्य ब्रज भाषा और अवधी में लिखा गया। जो मिठास ब्रज भाषा में मिलती है, वह अवधी में नहीं है। इस मिठास का सारा श्रेय महाकवि सूरदास को जाता है जिन्होंने ब्रज भाषा में लिखा, उसे विकसित किया और लोकप्रिय बनाया।
 
अठाहरवीं शताब्दी में हैदराबाद में ख्वाज़ा बंदानवाज़ ने मिली-जुली भाषा की बुनियाद रखी जिसमें हिंदी, उर्दू और फारसी मिली-जुली थीं। इसकी लिपी हिंदी थी और यह दखिनी हिंदी या दखिनी उर्दू कहलाती है।
 
१८७३ में भारतेन्दू हरीशचन्द्र ने ऐसी कविताएँ लिखीं जिनसे हिंदी नयी चाल में ढली। उनकी कविताएँ ब्रज भाषा में थीं, लेकिन उन्होंने अपना सारा गद्य-लेखन और नाटक खड़ी-बोली में लिखे। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में देवकीनन्दन खत्री, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, यशवंत, निराला, दिनकर, महादेवी वर्मा जैसे लेखकों ने भारत के विभिन्न वर्गों, स्तरों, क्षेत्रों, समाजों से, स्थानीय शब्दों को ले कर अपनी लेखनी से जोड़ा जिससे खड़ी-बोली समृद्ध हुई और हिंदी का विकास व विस्तार हुआ।

निराला ने एक ओर जटिल विचारों की अभिव्यक्ति, "नव गति, नव लय, ताल छंद नव, नवल कंठ नव जलद मंद्र रव। नव नभ के नव विहग वृंद को नव पर नव स्वर दे" जैसे शब्दों में की, जबकि "जीवन संग्राम" जैसी कविता में उसी निराला ने सामान्य बोलचाल की भाषा का उपयोग किया। 

पिछले पचास वर्षों में हिंदी तेज़ी से बदली है। सामाजिक गतिशीलता, आर्थिक बदलावों, बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्कों तथा प्रवासी संस्कृति का प्रभाव हमारी भाषा पर दिखता है। मीडिया ने इसे फैलाने में मदद की है। यह वह हिंदी है जिसमें अंग्रेज़ी, उर्दू आदि के साथ, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के शब्द भी मिल रहे हैं।

अंत में

इस आलेख में हिंदी और उत्तर भारत की भाषाओं के बारे में जो जानकारी है, वह भाषा और इतिहास पढ़ने वालों के लिए नयी नहीं होगी, लेकिन मेरे लिए नयी थी। आज एक ओर भाषा की शुद्धता को बचाने और उसे संस्कृत से जोड़ने की कोशिशें हैं, और दूसरी ओर, उसके सरलीकरण तथा उसमें अन्य भाषाओ से शब्दों को जोड़ने का क्रम भी है।
 
सौ साल बाद हिंदी होगी या नहीं, और होगी तो कैसी होगी? कत्रिम बुद्धि का जिस तरह से विकास हो रहा है उससे भाषाओं की विविधता बनी रहेगी या लुप्त हो जायेगी? इन प्रश्नों के उत्तर मेरे पास नहीं हैं, लेकिन पिछले दो-तीन हज़ार वर्षों का इतिहास यही सिखाता है कि समय के साथ बदले बिना भाषा जीवित नहीं रह पाती।

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मंगलवार, मार्च 05, 2024

१८५७ एवं भारत के लोकगीत

अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जब तक भारत के अधिकांश लोग अनपढ़ थे, तब तक लोकगीतों के माध्यम से ही धर्म और इतिहास की बातें जनसाधारण तक पहुँचती थीं। पिछले कुछ दशकों में, नई तकनीकी व नये संचार माध्यमों के साथ-साथ साक्षरता भी बढ़ी है, इसलिए लोकगीतों के महत्व में बदलाव आया है।

इस आलेख में उत्तरी भारत की लुप्त होती हुई लोक-गीत परम्परा की कुछ चर्चा है, विषेशकर १८५७ के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध हुए विद्रोह-युद्ध से जुड़े हुए लोकगीतों की बातें हैं।

यह आलेख राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा की सन् १९९७ की फिल्म "१८५७ के लोकगीत" पर आधारित है। अरुण ने इस फिल्म को भारत की स्वतंत्रता की पच्चासवीं वर्षगांठ के संदर्भ में बनाया था। इस फिल्म की अधिकतर शूटिन्ग राजस्थान, उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश के बुंदेलखंडी क्षेत्रों तथा बिहार में की गई थी और इसे दूरदर्शन पर दिखाया गया था। 

इस फिल्म को बनाने में बुंदेलखंडी लोक संस्कृति के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त (१९३१-२००३) और राजस्थानी लोगसंगीत के विशेषज्ञ पद्मश्री कोमल कोठारी (१९२९-२००४) ने विषेश योगदान दिया था - नीचे के इस पहले वीडियो में कोमल कोठारी जी फिल्म के महत्व के बारे में बताते हैं:

यह लोकगीत खड़ी बोली, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, मगही, भोजपुरी, उर्दू तथा अन्य स्थानीय भाषाओं में गाये जाते थे। इस तरह की कुछ कविताएँ और १८५७ के लोकगीतों से सम्बंधित अन्य जानकारी, आप को डॉ. सुरेन्द्र सिंह पोखरण की वैबसाईट "क्रांति १८५७", सुनील कुमार यादव का आलेख,  समालोचन पर मैनेजर पाण्डेय का आलेख, डॉ. महिपाल सिंह राठौड़ का आलेख, आदि में भी मिल सकती है।

मेरा यह आलेख उपरोक्त आलेखों से थोड़ा सा भिन्न है क्योंकि इसमें आप अरुण चढ़्ढ़ा की फिल्म से ऐसे ही कुछ गीतों के अंशों को सुन भी सकते हैं और पुराने लोकगीतों की भाषा का अनुभव कर सकते हैं। (इसके अतिरिक्त अरुण की एक अन्य फ़िल्म है जिसमें उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, हिंदी और अन्य उत्तर भारतीय भाषाओं की बात की थी, आप उसके बारे में भी पढ़ सकते हैं )

फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा से बातचीत

नवम्बर २०२२ में मैंने यह फिल्म देखी और अरुण से इसके बारे में जानकारी पूछी थी (नीचे तस्वीर में २०१२ में भारत के उपराष्ट्रपति से फिल्मकार श्री अरुण चढ़्ढ़ा को राष्ट्र पुरस्कार)।

अरुण चढ़्ढ़ा: "उत्तरी भारत में लोकगीत गाने की विभिन्न परम्पराएँ हैं, जिनमें १८५७ के समय पर गाये जाने वाले कुछ गीत आज से कुछ दशक पहले तक सुनने को मिल जाते थे। लेकिन तब भी गाँवों में रेडियो-टीवी-सिनेमा के आने से धीरे-धीरे लोकगायकी के मौके कम होने लगे थे और इनके गायक दूसरे काम खोजने लगे थे। मुझे लगा कि उनकी विभिन्न गायन शैलियों की जानकारी को सिनेमा के माध्यम से बचा कर रखना महत्वपूर्ण है। 

हमने एक बार खोज करनी शुरु की तो बहुत सी जानकारी मिली। जैसे कि बिहार में जगदीशपुर नाम की जगह पर राजा कुँवर सिंह थे, उनकी अंग्रेज़ों से लड़ाई के बारे में बहुत से गीत सुनने को मिले थे। हम लोग उनके गाँव में उनके परिवार के घर पर गये, वहाँ उनके पड़पोते ने अपने पूर्वज कुँवर सिंह की गाथा से जुड़े बहुत से गीतों को एक किताब में जमा किया था।

जैसा कि लोकगीतों में अक्सर होता है, यह कहना कठिन है कि इन लोकगीतों को कब लिखा गया और इन्हें किसने लिखा। अंग्रेज़ों को यह समझ नहीं आये कि इन गीतों में स्वतंत्रता तथा क्रांति की बाते हैं, उसके लिए भी तरीके खोजे गये, जैसे कि इन्हें फाग शैली में होली के समय गाना या बीच में "हर हर बम" जैसी पंक्ति जोड़ देना ताकि सुनने वाले को लगे कि यह शिव जी का भजन है।

मेरी फिल्म में पाराम्परिक लोकगायकों तथा उनके पाराम्परिक वाद्यों को देखा जा सकता है, जोकि धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं, क्योंकि अब वाद्य बनाने वाले और बजाने वाले, दोनों के पास आजकल टीवी और सिनेमा आदि की वजह से काम कम है। दिल्ली हाट और सूरजकुंड मेला जैसी जगहों से उन्हें कुछ काम मिल जाता है लेकिन जब उनके लोक संगीत का आज के जीवित लोक-जीवन से सम्पर्क टूट जाता है, तब उनके पुराने गीतों के शब्द भी खोने लगते हैं, क्योंकि यह गीत मौखिक याद किये जाते हैं, किसी कॉपी-किताब में नहीं लिखे जाते।"

फिल्म में राजस्थान के लोकगीत

फिल्म का पहला भाग राजस्थान के लोकगीतों पर केन्द्रित है। इस भाग में राजस्थान के प्रसिद्ध लोकसंगीत विशेषज्ञ पद्मभूषण-सम्मानित, श्री कोमल कोठारी (१९२९-२००४) ने सूत्रधार के रूप में इन लोकगीतों का परिचय दिया था। शास्त्रीय संगीत की तरह लोकगीतों की गायकी के भी विशिष्ठ शैलियाँ होती हैं और हर शैली के लिए सही लोक-गायक खोजना कठिन था, इस काम में श्री कमल कोठारी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था।

१८५७ में अंग्रेज़ों से विद्रोह करने वालों में राजस्थान के पाली जिले के आउवा गाँव के शासक ठाकुर कुशाल सिंह भी थे। उन्होंने सितम्बर १८५७ में दो बार अंग्रेज़ी फौज को हराया। जनवरी १८५८ में जब अंग्रेज़ों ने तीसरा हमला किया तब अपनी पराजय होती देख कर कुशाल सिंह अपने राज्य को अपने छोटे भाई को दे कर आउवा से चले गये। आउवा गाँव भिलवाड़ा और जोधपुर के बीच में पड़ता है।  फिल्म में दिखाये गये आउवा के गीत की कुछ शूटिन्ग आउवा गाँव में ठाकुर कुशाल सिंह की हवेली में की गई थी।

इस आउवा विद्रोह से जुड़े कई गीत अरुण की फिल्म के पहले भाग में मिलते हैं। इसी क्षेत्र में १८०८ में अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक ठाकुर का एक अन्य विद्रोह हो चुका था, कुछ गीतों में उस पहले विद्रोह का ज़िक्र भी है।

फिल्म में आउवा के बारे में एक फाग-गीत है जिसे लंगा घुम्मकड़ जाति के लोकगायकों ने लंगा शैली में गाया है (फाग केवल पुरुष गाते हैं लेकिन घुम्मकड़ जातियों में इन्हें औरतें भी गाती हैं।) यह गीत फरवरी-मार्च यानि फल्गुन के महीने में गाते हैं। नीचे के वीडियो में इस फिल्म से लंगा गायकी का छोटा सा नमूना प्रस्तुत है।


राजस्थान की पड़-गायकी में दो गायक बारी-बारी से प्रश्नोत्तर के अंदाज़ में गाते हैं और इनके पराम्परिक वाद्य को रावणहत्था कहते हैं (यानि उनके अनुसार यह वाद्य रावण के कटे हुए हाथ से बना है और रामायण काल से चला आ रहा है)। आजकल इस तरह के पाराम्परिक वाद्यों को बनाने तथा बजाने वाले दोनों कठिनाई से मिलते है। नीचे के वीडियो में पड़-गायकी का छोटा सा नमूना जिसे घुम्मकड़ जाति के गायक गा रहे हैं, इस गीत में किसी अंग्रेज़ छावनी पर हमले की बात है। इस वीडियो में आप रावणहत्था वाद्य को भी सुन सकते हैं।

१८५७ से जुड़े  कुछ लोकगीत राजस्थान की पाराम्परिक डिन्गल तथा पिन्गल शैली में थे, जिन्हें बाँकेदास जी और सूर्य बनवाले जैसे चारण कवियों ने लिखा था और इस फिल्म में डॉ. शक्तिदान कविया ने गाया था। डिन्गल भाषा व गायन शैली पश्चिमी राजस्थान में प्रचलित थी जबकि पिन्गल शैली पूर्वी राजस्थान में थी। नीचे वीडियो में शक्तिदान कविया की डिन्गल गायकी का छोटा सा नमूना है।

ऐसी ही एक अन्य शैली भरतपुर क्षेत्र में भी प्रचलित थी जिसमें चारण कवियों द्वारा लिखे फगुवा गीत होली के मौके पर गाये जाते थे। इन सभी गीतों और गाथाओं में कविताएँ और दोहों का प्रयोग होता है।

बुंदेलखंड और बिहार के लोकगीत

अरुण की फिल्म का दूसरा भाग अधिकतर बुंदेलखंड तथा बिहार में केन्द्रित है। इन गीतों में एक प्रमुख नाम था कुँवर सिंह का। इस फिल्म का कुँवर सिंह से जुड़ा एक हिस्सा बिहार में उनके गाँव जगदीशपुर में उनके घर में भी शूट किया गया था, जहाँ आज उनके वंशज रहते हैं।

बुंदेलखंड वाला हिस्सा झाँसी, टीकमगढ़, छत्तरपुर, बाँदा आदि क्षेत्रों में था लेकिन कानपुर तक जाता था। टीकमगढ़ में इस फिल्म में प्रसिद्ध ध्रुपद गायिका पद्मश्री असगरी बाई (१९१८-२००६), जो अपने समय में ओरछा की राजगायिका रह चुकी थीं, ने भी हिस्सा लिया था। फिल्म में वह लेद शैली में गाती हैं, लेद शैली की खासियत थी कि इसे शास्त्रीय तथा लोकगीत दोनों तरीकों से गा सकते हैं, जिसे वह जानती थीं। नीचे वाले वीडियो में इस फिल्म से सुश्री असगरी बाई की गायकी का छोटा सा नमूना।

इन लोकगीतों में १९४२ के बुंदेला विद्रोह से ले कर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानियाँ थीं।

मराठा राज्य के बाद जब बुंदेलखंड पर अंग्रेज़ों का राज हुआ तो उन्होंने राजस्व कर को बढ़ा दिया। १९३६ के बुढ़वा मंगल मेले में विद्रोह की बात शुरु हुई जिसमें जैतपुर के राजा परिछत (पारिछित या परीक्षित) द्वारा सागर की अंग्रेज़ छावनी पर हमला करने का निर्णय लिया गया था, जिसे बुंदेला विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इन लोकगीतों में उसी छावनी पर हमले की बात की गई है।

इन गीतों में हरबोलों द्वारा गाया राजा परिछित द्वारा छावनी पर हमले के गीत भी हैं जिनमें हर पंक्ति के बाद "हर हर बम" जोड दिया जाता है। बुंदेलखंड में लोकगीत गायकों ने यह "हर हर बम" जोड़ने का तरीका अपनाया था जिसकी वजह से लोग उन्हें "बुंदेली हरबोले" के नाम से जानने लगे थे। सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता "बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी", इन्हीं लोकगायकों की बात करती थी।

राजा परिछित की कहानी पर अरुण की फिल्म में एक गीत राजस्थानी पड़-गायकी से मिलती-जुलती बुंदेलखंड की सैर-गायकी शैली में भी है जिसमें दो लोग मिल कर गाते हैं। इस लोकगीत के लिए गायकों की खोज बहुत कठिन थी क्योंकि काम न होने से वे गायक अन्य कामों में लग गये थे। आखिरकार, एक गाँव से एक रंगरेज मिले थे, जिनके परिवार में यह गायकी होती थी जिसे वह भूले नहीं थे और वह इसे गाने के लिए तैयार हो गये थे। आज सैर-गायकी के गायक खोजना और भी कठिन होगा।

फिल्म में मूंज, लेघ, आदि शैलियों में भी लोकगीत हैं, शायद स्थानीय लोग इनकी बारीकियों को समझ सकते हैं। जैसे कि एक गीत में मसोबा की आल्हा शैली में रानी लक्ष्मीबाई के बारे में गाया गया है। 

अंत में

अरुण की इस फिल्म के दोनों भागों में उत्तर भारत की लोकगीत-शैलियों के इतने सारे नमूने मिलते हैं कि उनकी विविधता पर अचरज होता है, लेकिन सोचूँ तो लगता है कि यह फिल्म भारत के कुछ छोटे से हिस्सों की परम्पराओं को ही दिखाती हैं, बाकी भारत में जाने कितनी अन्य शैलियाँ थीं, जो लुप्त हो गईं या लुप्त हो रहीं होंगी। शायद सहपीडिया जैसी कोई संस्थाएँ हमारी इस सांस्कृतिक धरोहर को भविष्य के लिए संभाल कर रख रही हों, लेकिन वह संभाल भी संग्रहालय जैसी होगी, वे जीते-जागते लोक-जीवन और लोक-संस्कृति का हिस्सा नहीं होगीं।

नीचे के आखिरी वीडियो में कुँवर सिंह के बारे में एक भोजपुरी गीत का छोटा सा अंश है, जो मुझे बहुत अच्छा लगता है।


आज इंटरनेट पर नर्मदा प्रसाद गुप्त, कोमल कोठारी, शक्तिदान कविया, असगरी बाई जैसे लोगों की कोई रिकोर्डिन्ग नहीं उपलब्ध, कम से कम उस दृष्टि से अरुण की फिल्म में उनका कुछ परिचय मिलता है। मेरे विचार में ऐसी फिल्मों में भारत की सांस्कृतिक धरोहर का इतिहास है इसलिए दूरदर्शन को ऐसी फिल्मों को इंटरनेट पर उपलब्ध करना चाहिये।

इसके अतिरिक्त अरुण की एक अन्य फ़िल्म है जिसमें संस्कृत, पालि, पाकृत, हिंदी, और उत्तर भारतीय भाषओ-बोलियों के जन्म की बात की गई है, आप उसके बारे में भी इसी ब्लॉग में एक अन्य आलेख में पढ़ सकते हैं - जिस तरह हम बोलते हैं (इसमें भी फ़िल्म के कुछ वीडियो-क्लिप देख भी सकते हैं)।

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