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अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट का घोटाला

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गेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़, युएसएड जैसी संस्थाओं के नाम दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। युनेस्को और युनिसेफ़ तो संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाएँ हैं। ऐसी संस्थाएँ जब कोई रिपोर्ट निकालती हैं तो हम उन पर तुरंत विश्वास कर लेते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रति कुछ संदेह जागे हैं। जैसे कि २०१९ के अंत में चीन में वुहान से कोविड की बीमारी निकली और दुनिया भर में फ़ैली तो विश्व स्वास्थ्य संस्थान ने जब इस महामारी की समय पर चेतावनी नहीं दी तो बहुत से लोगों ने इस संस्था की ओर उंगलियाँ उठायीं कि उन्होंने चीनी सरकार के रुष्ट होने के भय से दुनिया के देशों को समय पर महत्वपूर्ण जानकारी नहीं दी। ऐसी ही कुछ बात शिक्षा से जुड़ी एक नयी अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट के बारे में भी उठायी गयी है जिसका विषय है प्राथमिक विद्यालयों के छात्रों में पढ़ायी की क्षमता। इस रिपोर्ट पर आरोप है कि उन्होंने इस रिपोर्ट में जान बूझ कर गलत आंकणों का प्रयोग किया है। यह आलेख इस रिपोर्ट और उस पर लगे आरोपों के बारे में है। दो तरह की रिपोर्टें कर्मा कोलोनियलिस्म की वेबसाईट पर साशा एलिसन ने प्रसिद्ध

यादों की संध्या

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संध्या की सैर को मैं यादों का समय कहता हूँ। सारा दिन कुछ न कुछ व्यस्तता चलती रहती है, अन्य कुछ काम नहीं हो तो लिखने-पढ़ने की व्यस्तता। सैर का समय अकेले रहने और सोचने का समय बन जाता है। शायद उम्र का असर है कि जिन बातों और लोगों के बारे में ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में दशकों से नहीं सोचा था, अब बुढ़ापे में वह सब यादें अचानक ही उभर आती हैं। यादों को जगाने के लिए "क्यू" यानि संकेत की आवश्यकता होती है, वह क्यू कोई गंध, खाना, दृश्य, कुछ भी हो सकता है, लेकिन मेरे लिए अक्सर वह क्यू कोई पुराना हिंदी फ़िल्म का गीत होता है। बचपन के खेल, स्कूल और कॉलेज के दिन, दोस्तों के साथ मस्ती, पारिवारिक घटनाएँ, जीवन के हर महत्वपूर्ण समय की यादों के साथ उस समय की फ़िल्मों के गाने भी दिमाग के बक्से में बंद हो जाते हैं। इस आलेख में एक शाम की सैर और कुछ छोटी-बड़ी यादों की बातें हैं। आज सुबह से आसमान बादलों से ढका था, सुहावना मौसम हो रहा था, हवा में हल्की ठँडक थी। सारा दिन बादल रहे लेकिन जल की एक बूँद भी नहीं गिरी। शाम को जब मेरा सैर का समय आया तो हल्की बूँदाबाँदी शुरु हुई। पत्नी ने कहा कि जाना है तो छतरी ले कर

लम्बे कोविड के खतरे

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टिप्पणी (२९ अगस्त २०२२) पिछले कुछ महीनों (विषेशकर अप्रैल २०२२ के अंत के बाद से) से यूरोप, अमरीका आदि कुछ देशों में वर्ष के इस समय में होने वाली औसत मृत्यु दर से करीब दस से १२ प्रतिशत अधिक हो रही हैं। ईंग्लैंड और अमरीका दोनों देशों में मृत्यु के आकणें यह बढ़ी मत्यु दर दिखला रही हैं। कल (२८ अगस्त २०२२ को) स्कॉटलैंड की सरकार ने इस बात को स्वीकारा है। यह बढ़ी मृत्यु दर कोविड से होने वाली मृत्यु से अलग है। इनमें विषेशरूप से घर पर अचानक मरने वालों की संख्या अधिक है। चूँकि कोविड के वजह से पिछले दो वर्षों में बूढ़े और अन्य बिमारियों वाले बहुत से लोगों की मृत्यु हुई थी तो इस साल औसत मृत्यु दर में कमी आनी चाहिये थी, उसमें बढ़ौती का होना चिंताजनक है। वैज्ञानिकों को संदेह है कि शायद इन अधिक मृत्यु के पीछे कोचिड वैक्सीन का प्रभाव न हो इसलिए वैज्ञानिक कह रहे हें कि देशों के मृत्यु के आकणों, कारणों तथा आटोप्सी रिपोर्ट पर तुरंत शोध करना चाहिये।  ***** लम्बे कोविड के खतरे कोविड की बीमारी दो साल पहले, 2020 के प्रारम्भ में चीन से सारे विश्व में फ़ैली। चूँकि यह बीमारी चीन में 2019 में शुरु हुई, इसमें मरीज़ों

इटली की वाईन संस्कृति

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मेरे इस आलेख का शीर्षक पढ़ कर शायद आप सोच रहे होगे कि शराब का संस्कृति से क्या लेना देना, शराब तो संस्कृति के विनाश का प्रतीक है? आज के भारत में एक ओर से शहरों में रहने वालों में शराब पीने वालों में वृद्धि हुई है। दूसरी और से "शराब बुरी चीज़ है", शराबबँदी होनी चाहिये जैसी सोच वाले लोग भी हैं और बिहार तथा गुजरात में शराब पीना गैरकानूनी है। खैर, इस आलेख में भारत की बात कम है, बल्कि इटली तथा दक्षिण यूरोप की वाईन पीने की संस्कृति की बात है। कल रात की बात कल रात को हम लोग कुछ मित्रों के साथ तरबूज खाने गये। हमारे घर से करीब तीन किलोमीटर दूर एक छोटा सा गाँव है जहाँ के लोग मिल कर हर साल गर्मियों में तरबूज-समारोह आयोजित करते हैं जिसे "अँगूरियारा" कहते हैं। इस समारोह में आप खेतों के बीच में बैठ कर संगीत सुन सकते हैं, नाच सकते हैं और तरबूज, सैंडविच, तले आलू जैसी चीज़ें खा सकते हैं। इसका सारा काम गाँव वाले लोग स्वयंसेवक की तरह बिना पगार लिये करते हैं। यह दो महीने चलता है, हर सप्ताह में दो या तीन दिन, शाम को आठ बजे से रात के ग्यारह बजे तक। इससे जो भी कमाई होती है, वह सारा पैसा गा

पानी रे पानी

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ब्रह्माँड में जीवन तथा प्रकृति का किस तरह से विकास होता है और कैसे वह समय के साथ बदलते रहते हैं इसे डारविन की इवोल्यूशन की अवधारणा के माध्यम से समझ सकते हैं। इसके अनुसार दुनिया भर में कोई ऐसा मानव समूह नहीं है जिसे हरियाली तथा जल को देखना अच्छा नहीं लगता, क्योंकि जहाँ यह दोनों मिलते हैं वहाँ मानव जीवन को बढ़ने का मौका मिलता है। शाम को जब मैं सैर के लिए निकलता हूँ तो मैं भी वही रास्ते चुनता हूँ जहाँ हरियाली और जल देखने को मिलें। आज आप दुनिया में कहीं भी रहें, अपने आसपास के बदलते हुए पर्यावरण से अनभिज्ञ नहीं रह सकते। इस बदलाव में बढ़ते तापमानों और जल से जुड़ी चिंताओं का विषेश स्थान है। ऊपर वाली तस्वीर का सावन के जल से भरा हुआ तालाब भारत के छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से है। नदी, नहर और खेती उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारा छोटा सा शहर पहाड़ों से घिरा है और इसकी घाटी का नाम है ल्योग्रा। हमारे घर के पीछे, इस घाटी की प्रमुख नदी बहती है जिसका नाम भी ल्योग्रा ही है। इसे बरसाती नदी कहते हैं, क्योंकि अगर दो-तीन महीने बारिश नहीं हो तो इसमें पानी कम हो जाता है या बिल्कुल सूख जाता है। 

डिजिटल तस्वीरों के कूड़ास्थल

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एक इतालवी मित्र, जो एक म्यूज़िक कन्सर्ट में गये थे, ने कहा कि उन्हें समझ नहीं आता था कि इतने सारे लोग जो इतने मँहगे टिकट खरीद कर एक अच्छे कलाकार को सुनने गये थे, वहाँ जा कर उसे सुनने की बजाय स्मार्ट फ़ोन से उसके वीडियो बनाने में क्यों लग गये थे? उनके अनुसार वह ऐसे वीडियो बना रहे थे जिनमें उस कन्सर्ट की न तो बढ़िया छवि थी न ध्वनि। उनका कहना था कि इस तरह के वीडियो को कोई नहीं देखेगा, वह खुद भी नहीं देखेंगे, तो उन्होंने कन्सर्ट का मौका क्यों बेकार किया? उनकी बात सुन कर मैं भी इसके बारे में सोचने लगा। मुझे वीडियो बनाने की बीमारी नहीं है, कभी कभार आधे मिनट के वीडियो खींच भी लूँ, पर अक्सर बाद में उन्हें कैंसल कर देता हूँ। लेकिन मुझे भी फोटो खींचना अच्छा लगता है। तो प्रश्न उठता है कि यह फोटो और वीडियो जो हम हर समय, हर जगह खींचते रहते हैं, यह अंत में कहाँ जाते हैं? क्लाउड पर तस्वीरें कुछ सालों से गूगल, माइक्रोसोफ्ट आदि ने नयी सेवा शुरु की है जिसमें आप अपनी फोटो और वीडियो अपने मोबाईल या क्मप्यूटर में रखने के बजाय, अपनी डिजिटल फाइल की कॉपी "क्लाउड" यानि "बादल" पर रख सकते हैं।

धर्मों की आलोचना व आहत भावनाएँ

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आप के विचार में धर्मों की, उनके देवी देवताओं की और उनके संतों और पैगम्बरों की आलोचना करना सही है या गलत? मेरे विचार में धर्मों से जुड़ी विभिन्न बातों की आलोचना करना सही ही नहीं है, आवश्यक भी है। अगर आप सोचते हैं कि अन्य लोग आप के धर्म का निरादर करते हैं और इसके लिए आप के मन में गुस्सा है तो यह आलेख आप के लिए ही है। इस आलेख में मैं अपनी इस सोच के कारण समझाना चाहता हूँ कि क्यों मैं धर्मों के बारे में खुल कर बात करना, उनकी आलोचना करने को सही मानता हूँ। धर्मों की आलोचना का इतिहास अगर एतिहासिक दृष्टि से देखें तो हमेशा से होता रहा है कि सब लोग अपने प्रचलित धर्मों की हर बात से सहमत नहीं होते और उनकी इस असहमती से उन धर्मों की नयी शाखाएँ बनती रहती हैं। उस असहमती को आलोचना मान कर प्रचलित धर्म उसे दबाने की कोशिश करते हैं, लेकिन फ़िर भी उस आलोचना को रोकना असम्भव होता है। यही कारण है कि दुनिया के हर बड़े धर्म की कई शाखाएँ हैं, और उनमें से आपस में मतभेद होना या यह सोचना सामान्य है कि उनकी शाखा ही सच्चा धर्म है, बाकी शाखाएँ झूठी हैं। कभी कभी एक शाखा के अनुयायी, बाकियों को दबाने, देशनिकाला देने या जान स