शुक्रवार, सितंबर 30, 2022

रोमाँचक यात्राएँ

मेरा सारा जीवन यात्राओं में बीत गया लेकिन अब लगता है कि जैसे इन पिछले ढ़ाई-तीन सालों में यात्रा करना ही भूल गया हूँ। जब आखिरी बार दिल्ली से इटली वापस लौटा था,  उस समय कोविड के वायरस के बारे में बातें शुरु हो रहीं थीं। उसके बाद ढाई साल तक इटली ही नहीं, अपने छोटे से शहर से भी बाहर नहीं निकला। पिछले कुछ महीनों में यहाँ आसपास कुछ यात्राएँ की हैं और अब पहली अंतर्राष्ट्रीय यात्रा की तैयारी कर रहा हूँ - अक्टूबर के प्रारम्भ में कुछ सप्ताह के लिए भारत वापस लौटूँगा, तो लम्बी यात्रा की सोच कर मन में कुछ घबराहट सी हो रही है।

सोचा कि आज अपने जीवन की कुछ न भूल पाने वाली रोमाँचकारी यात्राओं को याद करना चाहिये, जब सचमुच में डर और घबराहट का सामना करना पड़ा था (नीचे की तस्वीर में रूमझटार-नेपाल में एक रोमाँचक यात्रा में मेरे साथ हमारे गाईड कृष्णा जी हैं।)।



रोमाँचकारी बोलिविया यात्रा

अगर रोमाँचकारी यात्राओं की बात हो तो मेरे मन में सबसे पहला नाम दक्षिण अमरीकी देश बोलिविया का उभरता है। बोलिविया की राजधानी ला'पाज़ ऊँचे पहाड़ों पर बसी है। 1991 में जब वहाँ हवाई जहाज़ से उतरे तो हवाई अड्डे पर जगह-जगह लिखा था कि अगर चक्कर आयें या साँस लेने में दिक्कत हो या बेहोशी सी लगे तो तुरंत बैठ जायें और सिर को घुटनों के बीच में कर लें। तभी हमारे साथ का एक यात्री "चक्कर आ रहे हैं" कह कर वहीं ज़मीन पर लेट गया तो जी और भी घबराया। खैर मुझे ला'पाज़ में कुछ परेशानी नहीं हुई।

कुछ दिन बाद हम लोग छोटे से तीन सीट वाले हवाई जहाज़ से त्रिनीदाद शहर गये। वहाँ का हवाई अड्डा एक घास वाला मैदान था जहाँ पर गायें चर रही थीं। पायलेट साहब ने मैदान पर जहाज़ के चक्कर लगाये जब तक नीचे से कर्मचारियों ने गायों को हटाया। दो दिन बाद हम लोग वहाँ से ला'क्रूस जाने के लिए उसी मैदान में लौटे तो मूसलाधार बारिश हो रही थी। इस जहाज़ में दो ही सीटें थीं, तो मैं स्टूल पर पायलेट के पीछे बैठा। पायलट ने जहाज़ का इंजन चालू किया और चलने लगे, लेकिन बारिश इतनी थी कि जहाज़ हवा में उठ नहीं पाया। तब पायलेट ने जहाज़ को रोकने के लिए ब्रेक लगायी, तो भी एक पेड़ से टक्कर होते होते बची। उस ब्रेक में मेरा स्टूल भी नीचे से खिसक गया तो मैं नीचे गिर गया। चोट तो कुछ नहीं लगी लेकिन मन में डर बैठ गया कि शायद यहाँ से बच कर नहीं लौटेंगे। खैर पायलेट ने जहाज़ को घुमाया और फ़िर से उसको चलाने की कोशिश की, इस बात जहाज़ उठ गया। एक क्षण के लिए लगा कि वह पेड़ों से ऊपर नहीं जा पायेगा, लेकिन उनको छूते हुए ऊपर आ गया, तब जान में जान आयी (नीचे की तस्वीर में त्रिनिदाद शहर की बारिश में हमारा हवाई जहाज़)।



ला'क्रूस में हम लोगों को रिओ मादेएरा नाम की नदी के बीच में एक द्वीप पर बने स्वास्थ्य केन्द्र में जाना था। जाते हुए तो कुछ कठिनाई नहीं हुई। जब वापस चलने का समय आया तो अँधेरा होने लगा था। नदी का पानी बहुत वेग में था और बीच-बीच में पानी में तैरते हुए बड़े वृक्ष आ रहे थे। तब मालूम चला कि नाव की बत्ती खराब थी, अँधेरे में ही यात्रा करनी होगी। फ़िर नाव वाले ने बताया कि वहाँ नदी में पिरानिया मछलियाँ थीं जो माँस खाती हैं, इसलिए वहाँ पानी में हाथ नहीं डालना था। अँधेरे में नाव की उस आधे घँटे की यात्रा में दिल इतना धकधक किया कि पूछिये मत। डर था कि नाव किसी तैरते वृक्ष से टकरायेगी तो पानी में गिर जाऊँगा और अगर उसके वेग में न भी बहा तो पिरानिया मछलियाँ मेरे हाथों-पैरों के माँस को खा जायेंगी। मन में हनुमान चलीसा याद करते हुए वह यात्रा पूरी हुई।

उसके बाद में मैं बोलिविया दोबारा नहीं लौटा! तीस सालों के बाद भी मेरी यादों में वही यात्रा मेरे जीवन का सबसे रोमाँचकारी अनुभव है।

रोमाँचकारी नेपाल यात्रा

मैं नेपाल कई बार जा चुका था लेकिन 2006 की एक यात्रा विषेश रोमाँचकारी थी। उस यात्रा में हम लोग ऊँचे पहाड़ों के बीच ओखलढ़ुंगा जिले में गये थे, जहाँ से एवरेस्ट पहाड़ की चढ़ाई की लिए बेस कैम्प की ओर जाते हैं। रुमझाटार के हवाई अड्डे से ओखलढ़ुंगा शहर तक पैदल गये, तो पहाड़ की चढ़ाई में मेरा बुरा हाल हो गया। लेकिन असली दिक्कत तो लौटते समय समय हुई जब रुमझाटार में इतनी तेज़ हवा चल रही थी कि हमारा हवाई जहाज़ वहाँ उतर ही नहीं पाया। हमसे कहा गया कि हम अगले दिन लौटें, इसलिए रात को वहीं रुमझाटार के एक होटल में ठहरे (नीचे की तस्वीर में रूमझटार का एक रास्ता)।



वह इलाका माओवादियों के कब्ज़े में था। हालाँकि हम लोग जिस प्रोजेक्ट के लिए वहाँ गये थे, उसके लिए माओवादियों से अनुमति ली गयी थी, फ़िर भी कुछ डर था कि रात में माओवादी नवयुवक होटल पर हमला कर सकते थे। वैसा ही हुआ। लड़कों ने रात को मेरे दरवाज़े पर खूब हल्ला किया, लेकिन मैंने दरवाज़ा नहीं खोला। डर के मारे बिस्तर में दुबक कर बैठा रहा, सोच रहा था कि वह लोग दरवाज़ा तोड़ देंगे, लेकिन उन्होंने वह नहीं किया। करीब एक घँटे तक उनका हल्ला चलता रहा, फ़िर वे चले गये।

दूसरे दिन भी वह तेज़ हवा कम नहीं हुई थी तो हमारी उड़ान को एक दिन की देरी और हो गयी। दूसरी रात को कुछ परेशानी नहीं हुई। तीसरे दिन भी जब हवा कम नहीं हो रही थी तो मैं घबरा गया, क्योंकि मेरी काठमाँडू से वापस जाने वाली फ्लाईट के छूटने का डर था।

तो हमने एक हेलीकोप्टर बुलवाया। उस तेज़ हवा में जब वह हेलीकोप्टर ऊपर उठने लगा तो मुझे बोलिविया वाली उड़ान याद आ गयी। वह मेरी पहली हेलीकोप्टर यात्रा थी। खैर हम लोग सही सलामत वापस काठमाँडू वापस पहुँच गये।

रोमाँचकारी लंडन यात्रा

नब्बे के दशक में मैं अक्सर लंडन जाता था। हमारा आफिस हैमरस्मिथ में था, हमेशा वहीं के एक होटल में ठहरता था। वहाँ मेरी कोशिश रहती थी कि सुबह जल्दी उठ कर नाश्ते से पहले थेम्स नदी के आसपास सैर करके आऊँ, शहर का वह हिस्सा मुझे बहुत मनोरम लगता था (नीचे की तस्वीर में)।



वैसे ही एक बार मैं वहाँ गया तो शाम को पहुँचा। अगले दिन सुबह मेरी मीटिंग थी, मैं खाना खा कर सो गया। अगले दिन सुबह जल्दी नींद खुल गयी। तो मैंने टेबल लैम्प जलाया, सोचा कि नदी किनारे सैर के लिए जाऊँगा, इसलिए उठ कर बिजली की केतली में कॉफ़ी बनाने के लिए पानी गर्म करने के लिए लगाया और खिड़की खोली।

खिड़की खोलते ही बाहर देखा तो सन्न रह गया। बाहर चारों तरफ़ होटल की ओर बँदूके ताने हुए पुलिस के सिपाही खड़े थे। झट से मैंने खिड़की बन्द की, बत्ती बन्द की और वापस बिस्तर में घुस गया। एक क्षण के लिए सोचा कि बिस्तर के नीचे घुस जाऊँ, फ़िर सोचा कि अगर किस्मत में मरना ही लिखा है तो बिस्तर में मरना बेहतर है। करीब आधे घँटे के बाद कमरे के बाहर से लोगों की आवाज़ें आने लगीं, लोग आपस में बातें कर रहे थे। मैंने कमरे का दरवाज़ा हल्का सा खोला और बाहर झाँका तो हॉल पुलिस के आदमियों से भरा था, लेकिन अब उनके हाथों में बँदूकें नहीं थीं।

नहा-धो कर नीचे रेस्टोरैंट में गया तो वहाँ पुलिस वाले भी बैठ कर चाय-नाश्ता कर रहे थे। तब मालूम चला कि हमारे होटल में एक आतंकवादी ठहरा था, उसे पकड़ने के लिए वह पुलिसवाले आये थे। खुशकिस्मती से उस आतंकवादी ने पुलिस को आत्मसमर्पण कर दिया और बँदूक चलाने का मौका नहीं आया।

लंडन में ही एक और अन्य तरह की सुखद रोमाँचकारी याद भी जुड़ी है। मेरा ख्याल है कि वह बात 1995 या 96 की थी, जब वहाँ एक समारोह में मुझे प्रिन्सेज़ डयाना से मिलने का और बात करने का मौका मिला (नीचे की तस्वीर में)।



उनके अतिरिक्त, कई देशों में प्रधान मंत्री या राजघराने के लोगों से पहले भी मिला था और उनके बाद भी ऐसे कुछ मौके मिले, लेकिन उनसे मिल कर जो रोमाँच महसूस किया था, वह किसी अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति से मिल कर नहीं हुआ। उस मुलाकात के कुछ महीनों बाद जब सुना कि उनकी एक एक्सीडैंट में मृत्यु हो गयी है तो मुझे बहुत धक्का लगा था।

रोमाँचकारी चीन यात्रा

यह बात 1989 की है। तब चीन में विदेशियों का आना बहुत कम होता था। उस समय मेरे चीनी मित्र सरकारी दमन के विरुद्ध दबे स्वर में तभी बोलते थे जब हम खेतों के बीच किसी खुली जगह पर होते थे और आसपास कोई सुनने वाला नहीं होता था। वह कहते थे कि सरकारी जासूस हर जगह होते हैं। एक डॉक्टर मित्र, जिनके पिता माओ के समय में प्रोफेसर थे और जिन्हें खेतों में काम करने भेजा गया था, ने कैम्प में बीते अपने जीवन की ऐसी बातें बतायीं थीं जिनको सुन कर बहुत डर लगा था।

28 मई को हम लोग कुनमिंग से बेजिंग आ रहे थे तो रास्ते में हमारे हवाई जहाज़ का एक इँजिन खराब हो गया। उस समय जहाज़ पहाड़ों के ऊपर से जा रहा था, जब नीचे जाने लगा तो लोग डर के मारे चिल्लाये। खैर, पायलेट उस जहाज़ की करीब के हवाई अड्डे पर एमरजैंसी लैंडिग कराने में सफल हुए। तब चीन में अंग्रेज़ी बोलने वाले कम थे। जहाज़ की एयर होस्टेज़ और हवाई अड्डे के कर्मचारी किसी को इतनी अंग्रेज़ी नहीं आती थी कि हमें बता सके कि हम लोग किस जगह पर उतरे थे और हमारी आगे की बेजिंग यात्रा का क्या होगा।

जब हम लोगों को बस में बिठा कर होटल ले जाया जा रहा था तो सड़कों को बहुत से लोग प्रदर्शन करते हुए और नारे लगाते हुए दिखे, लेकिन वह भी हम लोग समझ नहीं पाये कि क्या हुआ था। वहाँ लोगों को खुलेआम सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करते देखना बहुत अद्भुत लगा था। (नीचे की तस्वीर सियान शहर में बस की खिड़की से खींची थी जिसमें सड़क के किनारे बैठा एक परिवार है)



होटल पहुँच कर एक ताईवानी चीनी ने हमको सब कुछ बताया। उस शहर का नाम सियान था, वहाँ कुछ वर्ष पहले  दो हज़ार वर्ष पुराने चीनी सम्राट की कब्र मिली थीं जिसमें उनके साथ हज़ारों टेराकोटा मिट्टी के बने सैनिकों, पशुओं आदि को भी दफ़नाया गया था। हम लोग उस टेराकोटा की फौज के खुदाई स्थल को देखने गये तो रास्ते में और प्रदर्शन करने वाले दिखे। मालूम चला कि एक उदारवादी नेता हू याओबाँग की मृत्यु हो गयी थी और लोग, विषेशकर विद्यार्थी, जनताँत्रिक सुधारों के लिए प्रदर्शन कर रहे थे।

दूसरे दिन दोपहर को जब हमारे हवाई जहाज़ के इँजिन की मरम्मत हुई तो हम लोग शाम को बेजिंग पहुँचे। अगले दिन, एक जून को सुबह हमारी स्वास्थ्य मंत्रालय में मीटिंग थी, उस समय बारिश आ रही थी। मंत्रालय से हमें लेने कार आयी तो रास्ते में तिआन-आँ-मेन स्कावर्य के पास से गुज़रे। तब मंत्रालय के सज्जन ने हमे बताया कि वहाँ भी विद्यार्थी हड़ताल कर रहे थे। उस समय बारिश तेज़ थी, इसलिए हम लोग कार से नहीं उतरे, वहीं कार की खिड़की से ही मैंने कुछ विद्यार्थियों की एक-दो तस्वीरें खींची। बारिश में भीगते, ठँडी में ठिठुरते उन युवकों को देख कर वह प्रदर्शन कुछ विषेश महत्वपूर्ण नहीं लग रहा था।

उसी दिन रात को हम लोग बेजिंग से वापस इटली लौटे। मेरे पास केवल एक दिन का कपड़े और सूटकेस बदलने का समय था, तीन जून को मुझे अमरीका में फ्लोरिडा जाना था। चार तारीख को शाम को जब फ्लोरिडा के होटल में पहुँचा तो वहाँ टीवी पर बेजिंग के तिआन-आँ-मेन स्कावर्य में टैंकों की कतारों और मिलेट्री के प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों पर हमले को देख कर सन्न रह गया। तब सोचा कि दुनिया ने बेजिंग में जो हो रहा था, केवल उसे देखा था, क्या जाने सियान जैसे शहरों में प्रदर्शन करने वाले नवजवानों पर क्या गुज़री होगी।

मैं उसके बाद भी चीन बहुत बार लौटा और उस देश को काया बदलते देखा है। मेरे बहुत से चीनी मित्र भी हैं, लेकिन उस पुराने चीन के डँडाराज को कभी नहीं भुला पाया।

अंत में

काम के लिए तीस-पैंतीस सालों तक मैंने इतनी यात्राएँ की हैं, कि अब यात्रा करने का मन नहीं करता। आजकल मेरी यात्राएँ अधिकतर भारत और इटली, इन दो देशों तक ही सीमित रहती हैं। बहुत से देशों की यात्राओं के बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं, क्यों कि होटल और मीटिंग की जगह के अलावा वहाँ कुछ अन्य नहीं देख पाया था।

उन निरंतर यात्राओं से मैं पगला सा गया था। जैसे कि, नब्बे के दशक में एक बार मुझे भारत हो कर मँगोलिया जाना था। मैं दिल्ली पहुँचा तो हवाई अड्डे से सीधा आई.टी.ओ. के पास मीटिंग में गया और उसके समाप्त होने के बाद सीधा वहाँ से हवाई अड्डा लौटा और बेजिंग की उड़ान पकड़ी। दिल्ली में घर पर माँ को भी नहीं मालूम था कि मैं उस दिन दिल्ली में था और उनसे बिना मिले ही चला आया था। इसी तरह से एक बार मैं पश्चिमी अफ्रीका के देश ग्विनेआ बिसाऊ में था। रात को नींद खुली तो सोचने लगा कि मैं कौन से देश में था? बहुत सोचने के बाद भी मुझे जब याद नहीं आया कि वह कौन सा देश था तो होटल के कागज़ पर शहर का नाम खोजा। (नीचे की तस्वीर दक्षिण अमरीकी देश ग्याना की एक यात्रा से है।)

Sunil in Rupununi, near the Brazilian border, in Guyana


इसीलिए उन दिनों में जब कोई मुझे कहता कि कितने किस्मत वाले हो कि इतने सारे देश देख रहे हो, तो मन में थोड़ा सा गुस्सा आता था, लेकिन चुप रह जाता था। शायद यही वजह है कि कोविड की वजह से कहीं बाहर न निकल पाने, कोई लम्बी यात्रा न कर पाने का मुझे ज़रा भी दुख नहीं हुआ। अब ढाई साल के गृहवास के बाद भारत लौटने का सोच कर अच्छा लगता है क्योंकि परिवार व मित्रों से मिलने की इच्छा है।

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मंगलवार, सितंबर 27, 2022

भारत के सबसे सुन्दर संग्रहालय

कुछ समय पहले भारत के अंग्रेज़ी अखबार फर्स्टपोस्ट पर रश्मि दासगुप्ता का एक आलेख पढ़ा था जिसका शीर्षक था "राष्ट्रीय संग्रहालय को बदलाव की आवश्यकता है"। इस आलेख की पृष्ठभूमि में मोदी सरकार का दिल्ली के "राजपथ" पर नये भवनों का निर्माण है जिनमें राष्ट्रीय संग्रहालय भवन भी आता है। कुछ दिन पहले ही प्रधान मंत्री ने नये राजपथ का उद्घाटन किया था और इसे नया नाम दिया गया है, "कर्तव्यपथ"।

इस नवनिर्माण में आज जहाँ राष्ट्रीय संग्रहालय है वहाँ कोई अन्य भवन बनेगा और कर्तव्यपथ के उत्तर में जहाँ अभी नॉर्थ तथा साउथ ब्लाक में मंत्रालय हैं वहाँ पर यह नया संग्रहालय बनाया जायेगा। चूँकि दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय मेरे मनपसंद संग्रहालयों में से है, मैंने सोचा कि भारत के अपने मनपसंद संग्रहालयों के बारे में एक आलेख लिखना चाहिये। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से उन्नीसवीं शताब्दी की धनुराशि का एक शिल्प दक्षिण भारत से है।

National Museum, Delhi

संग्रहालयों की उपयोगिता

सतरहवीं से बीसवीं शताब्दियों में युरोप के कुछ देशों ने एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका महाद्वीपों के विभिन्न देशों पर कब्ज़ा कर लिया। क्योंकि उन देशों की भाषाएँ, वेषभूषाएँ, परम्पराएँ यूरोप से भिन्न थीं, इसलिए उनकी संस्कृतियों को नीचा माना जाता था। उन "पिछड़ी" सभ्यताओं के बारे में ज्ञान एकत्रित करने के लिए "मानव सभ्यता विज्ञान" यानि एन्थ्रोपोलोजी के विषेशज्ञ तैयार किये गये जो उन उपनिवेशित देशों में जा कर वहाँ के "जँगली" लोगों के बीच में रह कर उनके रहने, खाने, रीति रिवाज़, आदि विषयों का अध्ययन करते थे। उन देशों से लायी कीमती वस्तुएँ, जिनमें सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि के गहने थे, वह सब भी यूरोप पहुँच गये। उनकी कला व साँस्कृतिक धरौहरों के लिए संग्रहालय बनाये गये, जिनमें विभिन्न देशों से लायी वस्तुओं को रखा गया।

आज भी एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों की बहुत सी साँस्कृतिक धरौहरें लँदन, पैरिस और एमस्टरडैम के संग्रहालयों में मिलती हैं। समय के साथ, नये स्वतंत्र हुए विकासशील देशों ने धीरे धीरे अपने संग्रहालय बनाने शुरु किये हैं। पहले जहाँ संग्रहालयों में वस्तुओं को अधिकतर कौतुहल का विषय मान कर रखा जाता था, उसमें बदलाव आया। धीरे-धीरे यह समझ बनी कि हर वस्तु को उसके साँस्कृतिक तथा सामाजिक अर्थ, इतिहास व परिवेश की पृष्ठभूमि के साथ ही समझा जा सकता है। डिजिटल तकनीकी के विकास ने संग्रहालयों को इंटरएक्टिव बना दिया जिससे दर्शकों को हर प्रदर्शित वस्तु के बारे में जानकारी पाने का एक नया माध्यम मिला।

स्वतंत्रता के बाद धीरे धीरे भारत के लोगों में अपनी प्राचीन सभ्यता के विषय में जानने की इच्छा बनी है, और पुरात्तव विभाग ने कई जगहों पर काम किये हैं। हमारे अधिकतर संग्रहालय पुरानी, धूल से भरी जगहें हैं, जो बिना समझ वाले बाबू लोगों द्वारा संचालित हैं, लेकिन साथ ही सुन्दर संग्रहालय बनाने के कुछ प्रयास हुए हैं। जैसे जैसे भारत विकसित देश बनेगा, देश की पुरातत्व संस्थाओं को और संग्रहालयों के बजट बढ़ेंगेतो इनमें और भी सुधार आयेगा। 

दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय

भारत की स्वतंत्रता के उपलक्ष्य में लँदन में सन् 1947-48 में एक भारतीय कला प्रदर्शनी लगायी गयी थी, उस कला प्रदर्शनी के समाप्त होने के बाद उस प्रर्दशनी के लिए एकत्रित वस्तुओं से हमारे राष्ट्रीय संग्रहालय की शुरुआत की गयी थी। जब तक राष्ट्रीय संग्रहालय का भवन बन कर तैयार नहीं हुआ था, तब तक सब सामान राष्ट्रपति भवन में रखा गया था।

मुझे हमारा राष्ट्रीय संग्रहालय बहुत अच्छा लगता है। मैंने यूरोप में कई संग्रहालय देखे हैं, मुझे यहाँ की प्रदर्शनी विदेशों के किसी भी संग्रहालय से कम नहीं लगती। दिल्ली में जब भी मौका मिलता है मैं राष्ट्रीय संग्रहालय में अवश्य एक चक्कर लगा लेता हूँ। संग्रहालय की गैलरियों में प्रदर्शित शिल्प, कला तथा आम जीवन की वस्तुओं में भारत के दो हज़ार वर्षों से अधिक इतिहास को देखा जा सकता है। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से बाहरवीं शताब्दी की काकातीय शैली का त्रिदेव का शिल्प हैदराबाद के पास वारांगल से है।

National museum, Delhi

उत्तरी, पूर्वी, पक्षिमी, और दक्षिण भारत के भिन्न हिस्सों के विभिन्न युगों के इतिहासों को एक जगह पर ठीक से दिखाना चाहें तो आज के राष्ट्रीय संग्रहालय से दस गुना जगह भी शायद कम पड़ेगी। उसकी प्रदर्शित वस्तुएँ इतनी सुन्दर हैं कि मैं हर बार वहाँ कई घँटों तक घूमता रहता हूँ। सुना है कि नये भवन में संग्रहालय को अपनी प्रर्दशनियों के लिए अधिक और बेहतर जगह मिलेगी।

मेरे विचार में हर सप्ताह-अंत में, राष्ट्रीय संग्रहालय में जन सामान्य के लिए इतिहास, संगीत, धर्म, संस्कृति आदि के विषेशज्ञयों द्वारा संचालित गाईडिड टूर होने चाहिये ताकि लोगों को हमारे इतिहास के बारे में रुचि बढ़े और उन्हें किताबी समझ के दायरे से बाहर का ज्ञान मिले। उन्हें जनता के लिए फ़िल्मों तथा वार्ताओं के कार्यक्रम भी नियमित रूप से आयोजित करने चाहिये, जिनमें संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं के बारे में गहराई से जाना जा सके।

सहपीडिया का डिजिटल संग्रहालय

इंटरनेट तथा डिजिटल तकनीकी ने साईबरलोक में नई तरह के संग्रहालय बनाने का मौका दिया है। भारत में इसका सबसे बढ़िया नमूना है सहपीडिया में जिनके आरकाईव में भारत के राज्यों, लोगों के जीवन, धर्म, रीति रिवाज़ों, और साँस्कृतिक धरौहरों के बारे में आप को घर बैठे या खाली समय में बहुत सी जानकारी मिल सकती है जिसे किसी एक संग्रहालय में एकत्रित करना असंभव है।

मैंने उनके दिल्ली के दफ्तर में कई दिलचस्प वार्ताओं व सम्मेलनों में हिस्सा लिया है। इस सब के साथ वह वर्कशॉप, तथा देश के विभिन्न शहरों में साँस्कृतिक महत्व की जगहों पर "हेरीटेज वॉक" का आयोजन भी करते रहते हैं।

उनके कुछ पृष्ठ हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में हैं, लेकिन बहुत सी सामग्री केवल अंग्रेज़ी में है। यही सहपीडिया की सबसे बड़ी कमज़ोरी है।

गुरुग्राम का संस्कृति संग्रहालय

दिल्ली के पास गुरुग्राम में, दिल्ली मैट्रो के अंजनगढ़ स्टेशन के पास आनन्दग्राम में एक अन्य सुन्दर संग्रहालय है, संस्कृति संग्रहालय। यह छोटा सा है लेकिन यहाँ भारत के विभिन्न राज्यों से आयी हुई जनजातियों द्वारा बनाई गयी मिट्टी की कला वस्तुओं का संग्रह मुझे बहुत अच्छा लगा। यह एक निजि संग्रहालय है जिसे श्री ओमप्रकाश जैन द्वारा बनवाया गया था।

संग्रहालय के तीन भाग हैं - आम जीवन में प्रयोग आने वाली वस्तुएँ, मिट्टी की कला यानि टेराकोटा (Terracotta) कला तथा बुनकर कला जिसमें भिन्न तरह के करघे पर बुने कपड़े (टेक्टाईल)हैं। नीचे की तस्वीर में गुरुग्राम के संस्कृति संग्रहालय से तामिलनाडू से कुप्पास्वामी का टेराकोटा शिल्प है जोकि भगवान आइनार की सेना के अधिपति हैं।

Sanskriti museum, Gurugram

संग्रहालय पहुँचने के लिए मैट्रोस्टेशन से कुछ किलोमीटर चलना पड़ता है। यह कठिनाई केवल इस संग्रहालय की नहीं बल्कि बहुत से संग्रहालयों की है - मेरी दृष्टि में कुछ जगहों पर जनपरिवहन का न होना इनके प्रबँधकों की लापरवाही भी दर्शाता है, जो शायद सोचते हैं कि अगर आप के पास अपनी कार या स्कूटर नहीं तो आप को संग्रहालय में दिलचस्पी नहीं होगी। कुछ कमी स्थानीय प्रशासन की भी है जिसे मैट्रो स्टेशनों पर वहाँ के आसपास के संग्रहालय व साँस्कृतिक संस्थानों के बारे में सूचना देनी चाहिये तथा वहाँ पहुँचने के लिए जनसाधनों का प्रबंध करना चाहिये।

केरल में कोची का जनजाति संग्रहालय

केरल में कोची का जनजाति संग्रहालय भी एक निजि संग्रहालय है जोकि वहाँ के वास्तुशिल्प, कला, सभ्यता व संस्कृति से आप का परिचय कराता है। यह संग्रहालय लकड़ी के एक पारम्पिक तरीके के बने भवन में बनाया गया है। इस संग्रहालय में धार्मिक कला शिल्प के बहुत सुन्दर नमूने देखने को मिलते हैं। नीचे की तस्वीर में कोची के जनजाति संग्रहालय में तमिलनाडू से सतरहवीं शताब्दी की लकड़ी की गरुण की मूर्ति का शिल्प है।

Folklore Museum, Kochi

इसी संग्रहालय में मैंने पहली बार उत्तरी केरल के कन्नूर जिले के आसपास की प्रचलित थैयम परम्परा के नमूने देखे जिनमें कुछ जनजातियों के लोग पाराम्परिक श्रृंगार और वस्त्र पहन कर देवी देवताओं को अपने शरीर में उतारते हैं। इनको देखने के बाद ही मुझमें कन्नूर जा कर वहाँ के गाँवों में थैयम पूजा को देखने की जिज्ञासा जागी, जोकि मेरे जीवन का बहुत रोमांचक अनुभव था।

नागालैंड में किसामा का हेरीटेज गाँव

नागालैंड के गाँवों में अधिकाँश जगहों पर ईसाई धर्म और आधुनिकता के साथ पाराम्परिक सँस्कृति, पुराने तरीके का रहन सहन, रीति रिवाज़ आदि लुप्त से हो रहे हैं। प्राचीन समय में विभिन्न नागा जातियों की अपनी विशिष्ठ परम्पराएँ, वास्तुशिल्प, पौशाकें होती थीं। नागालैंड की राजधानी कोहिमा से थोड़ी दूर किसामा साँस्कृतिक धरौहर गाँव है जहाँ नागा जनजातियों के घरों, पौशाकों तथा कलाओं को दिखाया गया है (नीचे की तस्वीर में)।


एक स्तर पर लगता है कि किसामा गाँव विभिन्न नागा जनजातियों के पाराम्परिक जीवन को दिखाने वाला खोखला ढाँचा सा है जिसमें सचमुच का जीवन नहीं है, लेकिन मेरे विचार में आने वाली नागा पीढ़ियों के यह महत्वपूर्ण है कि उनकी पश्चिमी सभ्यता की नयी पहचान के बीच में उनके सदियों के पुराने जीवन की कुछ यादें भी बची रहें।

हर वर्ष दिसम्बर में इस गाँव में एक संगीत तथा साँस्कृतिक समारोह होता है, जो होर्नबिल फेस्टीवल (Hornbill festival) के नाम से जाना जाता है और जिसमें नागा युवक व युवतियाँ अपने प्राचीन वस्त्र, रीति रिवाज़ों तथा परम्पराओं को याद करते हैं। इस समारोह के लिए दूर दूर से पर्यटक नागालैंड आते हैं।

गुवाहाटी का श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र संग्रहालय

गुवाहाटी के "छह मील" नाम के क्षेत्र के पास पँजाबाड़ी में असमिया संगीतकार व कलाप्रेमी भूपेन हज़ारिका द्वारा स्थापित "कलाक्षेत्र संग्रहालय" में असम की साहित्य, नृत्य, कला, नाटक तथा जनजातियों से जुड़ी परम्पराओं को प्रदर्शित किया गया है। इस तरह कलाक्षेत्र केवल संग्रहालय नहीं है, यह कला, नृत्य और नाटकों से असम की जीवंत सँस्कृति से जुड़ा है। यहाँ केवल प्रदर्शनी देखने की जगह नहीं है, बल्कि वहाँ आप असम की सभ्यता को जी सकते हैं।

मेरा सौभाग्य था कि कुछ वर्ष पहले मुझे कलाक्षेत्र से थोड़ी दूर ही रहने का मौका मिला, जिससे कलाक्षेत्र जाने के बहुत मौके मिले। कलाक्षेत्र का जनजाति सभ्यता संग्रहालय छोटा सा है लेकिन बहुत सुन्दर है।

भक्तीकाल में असम में श्रीमंत शंकरदेव तथा अन्य संतो के द्वारा एक जातिविहीन, कृष्ण भक्ति पर आधारित एक नये तरह के हिन्दु धर्म की परिकल्पना की गयी थी, जिसकी नींव सादे जीवन पर टिकी थी। हिंदू धर्म के इस रूप का केन्द्र नामघर तथा सत्रिया होते हैं। कलाक्षेत्र में आप को इस नामघर संस्कृति को जानने और समझने का मौका भी मिलता है (नीचे की तस्वीर में)।

Namghar, Kalakshetra, Guwahati

कलाक्षेत्र के साथ ही शिल्पग्राम भी है जहाँ विभिन्न असमियाँ जनजातियों के घरों और गाँवों को दिखाया गया है जोकि किसामा के नागा गाँवों से मिलता है। यहाँ अक्सर प्रदर्शनियाँ लगती रहती हैं जहाँ आप गृहउद्योग तथा पराम्परिक हस्तकला को देख व खरीद सकते हैं।

भोपाल के राष्ट्रीय मानस संग्रहालय व जनजाति संग्रहालय

भोपाल का मानस संग्रहालय व जनजाति संग्रहालय मुझे बहुत प्रिय हैं। दो बार वहाँ जा चुका हूँ लेकिन अगर मौका मिले तो वहाँ अन्य दस बार लौटना चाहूँगा। मैंने बहुत दुनिया घूमी है और मेरे विचार में जनजातियों की सभ्यता व संस्कृतियों के बारे में यह दुनिया का सबसे सुंदर संग्रहालय है। नीचे की तस्वीर में छत्तीसगढ़ से राजवर जनजाति के जीवन को दिखाती एक कृति भोपाल के मानस संग्रहालय से।

Manas Sangrahalaya museum, Bhopal

मध्यप्रदेश की विभिन्न जनजातियों के आम जीवन की वस्तुएँ, उनके घर, वस्त्र, रीति रिवाज़, विभिन्न कलाओं, आदि से जुड़ी इन संग्रहालयों में इतनी वस्तुएँ हैं कि उनको देखने और समझने के लिए कई महीने चाहिये। सब कुछ इतने सुन्दर तरीके से प्रदर्शित किया गया है कि यहाँ घूम कर महीनों तक यहाँ के सपने आते रहते हैं।

अगर आप को भोपाल जाने का मौका मिले तो आप को इन दोनों संग्रहालय को अवश्य देखने जाना चाहिये।

अंत में

रश्मि दासगुप्ता नें अपने आलेख में लिखा है कि भारत में संग्रहालयों में जाने की परम्परा नहीं है। शायद यह बात सच है लेकिन मेरी राय में अगर लोगों को संग्रहालय में आकर्षित करने के लिए वस्तुओं को शीशे के डिब्बे से बाहर निकाल कर रखा जाये और लोगों को वहाँ सैल्फ़ी खींचने आदि से नहीं रोका जाये, तो धीरे धीरे अपनी संस्कृति को जानने समझने के बारे में जिज्ञासा बनायी जा सकती है। अगर संग्रहालय केवल वस्तुओं को दिखाने तक सीमित न रहें, उनमें पारम्परिक कला सीखने, फिल्म, नाटक व नृत्य देखने की सुविधाएँ हों, वहाँ के बारे में दिलचस्प तरीके से समझाने बताने वाले गाईड हों, वहाँ बैठने की जगहें हों जहाँ लोग चाय-कॉफ़ी पी सकें, जहाँ लोग छोटे बच्चों को ले कर आ सकें और जो जनपरिवहन सेवाओं से जुड़े हों, तो नयी पीढ़ी में संग्रहालय जाने की तथा देश की संस्कृति का महत्व समझने की परम्परा भी बन सकती है।

अधिकतर संग्रहालय सरकारी बाबू लोगों की निजी रियासतें जैसी होती हैं, जहाँ फोटो खींचना मना होता है और न ही उन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से कैसे दर्शकों को संग्रहालय से जोड़ा जाये की कोई जानकारी होती है। आज का युग मोबाईल फ़ोन का व सैल्फ़ी का युग है, अगर आप दर्शकों को संग्रहालयों में टिवटर, टिकटॉक, फेसबुक आदि पर सैल्फ़ी नहीं दिखाने देंगे तो बहुत से लोग वहाँ नहीं आयेंगे, विषेशकर नवजवान लोग। यह समझ निज़ी संग्रहालयों में अधिक है, इसलिए वह वस्तुओं को ऐसे रखते हैं ताकि लोग वहाँ फोटो खींचे और संग्रहालय के बारे में अपने मित्रों व जानकारों को दिखा सकें कि संग्रहालय में उन्होंने क्या क्या दिलचस्प चीज़ें देखीं, जिससे अन्य लोग भी वहाँ आना चाहें।

दूसरी बात है कि भारत में पुराने मन्दिर, मस्जिद, किले, राजमहल, भग्नावषेश, बहुत हैं जो कि खुले संग्रहालय जैसे हैं, उनके सामने कमरों में बन्द सँग्रहालय कम दिलचस्प लगते हैं। जैसे कि एक बार हम्पी या महाबलिपुरम के भग्नावषेशों के बीच घूम लें तो उनके संग्रहालयों में वह आनन्द नहीं मिलता। इसलिए यह कहना की लोगों में संग्रहालय जाने की परम्परा नहीं है, शायद संग्रहालयों की कमियों को न देख पाना है।

आशा है कि आप को मेरे प्रिय भारतीय संग्रहालयों का यह टूर अच्छा लगा होगा। क्या आप की दृष्टि में भारत के किसी अन्य राज्य में कोई अन्य संग्रहालय है जो आप को बहुत अच्छा लगता है और जिसे इस सूची का हिस्सा होना चाहिये था? मुझे इसके बारे बताईयेगा, ताकि मैं अगर उस तरफ़ जाऊँ तो उसे अवश्य देखने जाऊँ।


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रविवार, अगस्त 21, 2022

अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट का घोटाला

गेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़, युएसएड जैसी संस्थाओं के नाम दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। युनेस्को और युनिसेफ़ तो संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाएँ हैं। ऐसी संस्थाएँ जब कोई रिपोर्ट निकालती हैं तो हम उन पर तुरंत विश्वास कर लेते हैं।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रति कुछ संदेह जागे हैं। जैसे कि २०१९ के अंत में चीन में वुहान से कोविड की बीमारी निकली और दुनिया भर में फ़ैली तो विश्व स्वास्थ्य संस्थान ने जब इस महामारी की समय पर चेतावनी नहीं दी तो बहुत से लोगों ने इस संस्था की ओर उंगलियाँ उठायीं कि उन्होंने चीनी सरकार के रुष्ट होने के भय से दुनिया के देशों को समय पर महत्वपूर्ण जानकारी नहीं दी। ऐसी ही कुछ बात शिक्षा से जुड़ी एक नयी अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट के बारे में भी उठायी गयी है जिसका विषय है प्राथमिक विद्यालयों के छात्रों में पढ़ायी की क्षमता। इस रिपोर्ट पर आरोप है कि उन्होंने इस रिपोर्ट में जान बूझ कर गलत आंकणों का प्रयोग किया है। यह आलेख इस रिपोर्ट और उस पर लगे आरोपों के बारे में है।


दो तरह की रिपोर्टें

कर्मा कोलोनियलिस्म की वेबसाईट पर साशा एलिसन ने प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा छापी २०२२ की एक नयी रिपोर्ट "सीखने की गरीबी" (Global Learning Poverty Report, 2022) के बारे में लिखा है, जिसमें विभिन्न देशों में शिक्षा की स्थिति के बारे में चर्चा है। इन देशों में भारत भी है। इस रिपोर्ट को छापने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ हैं वर्ल्ड बैंक, युनिसेफ, युनेस्को, बिल गेटस फाऊन्डेशन तथा कुछ विकसित देशों की सहायता एजेन्सियाँ।

एलिसन ने अपने आलेख में दिखाया है कि यह संस्थाएँ दो तरह की रिपोर्टें छापती हैं। जब यह दिखाना हो कि इन संस्थाओं के कार्यक्रमों से लाभ पाने बच्चों का शिक्षा स्तर कितना सुधरा है तो यह सकारात्मक जानकारी देती हैं। जब जनता से और सरकारों से अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे माँगने का समय आता है तो अचानक उन्हीं बच्चों के शिक्षा स्तर गिर जाते हैं। इसके लिए यह रिपोर्टें आंकणों को अपनी मनमर्ज़ी से गलत ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर दिखाती हैं।

जैसे कि २०१५ में जब संयुक्त राष्ट्र के लिए मिल्लेनियम डेवेलेपमैंट गोलस् (सहस्राब्दी विकास लक्ष्य) में मिली सफलताओं की रिपोर्ट तैयार की गयी तो युनेस्को की रिपोर्ट में बच्चों की शिक्षा की रिपोर्ट बहुत सकरात्मक थी, क्योंकि उसमें दिखाना था कि सन् २००० से २०१५ तक के किये खर्चे से चलाये जाने वाले कार्यक्रमों से दुनिया में बच्चों को कितना लाभ हुआ।

एक साल बाद संयुक्त राष्ट्र ने सस्टेनेबल डेवलेपमैंट गोलस् के तहत २०३० तक के नये लक्ष्य निर्धारित किये, तो सभी संस्थाएँ अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे जमा करने के लिए अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों की शिक्षा स्थिति के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट दिखाने लगीं।

२०२२ की अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट

एलिसन स्वयं लाओस में शिक्षा के क्षेत्र में काम करते थे और जब उन्होंने "सीखने की गरीबी" रिपोर्ट में पढ़ा कि लाओस में स्कूल जाने वाले पाँचवीं कक्षा के ९७.६ प्रतिशत बच्चे ठीक से नहीं पढ़ सकते तो उन्हें शक हुआ कि यह गलत आंकणे लिये गये हैं। उन्होंने इस रिपोर्ट में शिक्षा के बारे में छपे आंकणों का विशलेषण किया है और दिखाया है कि इसमें अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों के बारें में जानबूझ कर गलत आंकणे लिए गये हैं। उदाहरण के लिए इस रिपोर्ट के हिसाब से एशिया के छः देशों में केवल ३७ प्रतिशत बच्चे सरल भाषा की किताब को पढ़ सकते हैं जबकि इसका सही आंकणा ८४ प्रतिशत होना चाहिये था।

रिपोर्ट के लिए गलत जानकारी देने के अतिरिक्त इस रिपोर्ट में आंकणों की एक अन्य समस्या है, कि अगर किसी देश से आंकणे न मिलें तो उसके आसपास के देशों के आंकणे ले कर उन सब देशों के औसत आंकणे बना लीजिये। जैसे कि रिपोर्ट में नाईजीरिया के आंकणे नहीं थे। जनसंख्या की दृष्टि से नाईजीरिया अफ्रीका का सबसे बड़ा देश है। इसलिए एलिसन कहते हैं कि आसपास के उससे दस गुना छोटे देशों की स्थिति के आधार पर इतने बड़े देश की स्थिति के बारे में "औसत आंकणे" दिखाना गलत है। लेकिन इस औसत आंकणों की बात को रिपोर्ट में स्पष्ट रूप में नहीं बताया गया है।

भारत में शिक्षा की स्थिति

भारत में बच्चों की शिक्षा से पायी समझ को मापने के लिए "आसेर" (Annual State of Education - ASER) के टेस्ट किये जाते हैं, इसमें देखा जाता कि पाँचवीं कक्षा के कितने प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ सकते हैं। भारत की स्वयंसेवी संस्था "प्रथम" इसको जाँचने के लिए देश के विभिन्न राज्यों में समय-समय पर सर्वे करती है। इसका आखिरी "आसेर" सर्वे २०१८ में किया गया, जिसकी रिपोर्ट २०१९ में निकली थी।

इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में राष्ट्रीय स्तर पर करीब ४५ प्रतिशत पाँचवीं कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को आसानी से पढ़ सकते थे, जबकि बाकी के ५५ प्रतिशत बच्चों को वह किताबें पढ़ने में कठिनाई थी। विभिन्न राज्यों के स्थिति में बहुत अंतर था - एक ओर हिमाचल प्रदेश में ७५ प्रतिशत, केरल में ७३ प्रतिशत बच्चे पढ़ाई में सक्षम थे जबकि, दूसरी ओर झारखँड में केवल २९ प्रतिशत और असम में ३३ प्रतिशत बच्चे सक्षम थे। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस वर्षों में बच्चों की पढ़ने की सक्षमता बेहतर होने के बजाय कुछ कमज़ोर हुई है, जो चिंता की बात है। शिक्षा व्यवस्था राज्य सरकारों के आधीन है, इसलिए जिन राज्यों में स्थिति कमज़ोर है उन्हें इसे सुधारने में प्रयत्न करना चाहिये और "प्रथम" की रिपोर्ट पर ध्यान देना चाहिये।

२०२२ की "पढ़ाई की गरीबी" रिपोर्ट में भारत के बारे में कहा गया है कि ५६ प्रतिशत पाँचवीं के बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ने में असमर्थ थे,जोकि ऊपर दी गयी "प्रथम" की सर्वे की रिपोर्ट के आंकणे से मिलता है।

अंत में

जब कोई अंतर्राष्टीय रिपोर्ट, विषेशकर जब उससे गेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़ युएसएड जैसे बड़े और प्रतिष्ठित नाम जुड़े हों तो हम उस पर तुरंत भरोसा कर लेता हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि इतनी बड़ी संस्थाएँ अवश्य अच्छा काम ही करेंगी।

साशा एलिसन का आलेख दिखाता है कि कभी कभी ऊँची दुकान, फ़ीका पकवान वाली बात हो सकती है। यानि बड़े नामों पर भरोसा नहीं कर सकते और उनकी रिपोर्टों को आलोचनात्मक दृष्टि से परखना चाहिये।

अक्सर ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में भारतीय विशेषज्ञ जुड़े होते हैं और भारत का राष्ट्रीय सर्वे संस्थान विभिन्न विषयों पर सर्वे करता रहता हैं इसलिए उनमें भारत सम्बंधी गलत जानकारी या आंकणें नहीं मिलने चाहिये, लेकिन फ़िर भी सावधानी बरतना आवश्यक है।


शनिवार, अगस्त 13, 2022

यादों की संध्या

संध्या की सैर को मैं यादों का समय कहता हूँ। सारा दिन कुछ न कुछ व्यस्तता चलती रहती है, अन्य कुछ काम नहीं हो तो लिखने-पढ़ने की व्यस्तता। सैर का समय अकेले रहने और सोचने का समय बन जाता है। शायद उम्र का असर है कि जिन बातों और लोगों के बारे में ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में दशकों से नहीं सोचा था, अब बुढ़ापे में वह सब यादें अचानक ही उभर आती हैं।

यादों को जगाने के लिए "क्यू" यानि संकेत की आवश्यकता होती है, वह क्यू कोई गंध, खाना, दृश्य, कुछ भी हो सकता है, लेकिन मेरे लिए अक्सर वह क्यू कोई पुराना हिंदी फ़िल्म का गीत होता है। बचपन के खेल, स्कूल और कॉलेज के दिन, दोस्तों के साथ मस्ती, पारिवारिक घटनाएँ, जीवन के हर महत्वपूर्ण समय की यादों के साथ उस समय की फ़िल्मों के गाने भी दिमाग के बक्से में बंद हो जाते हैं। इस आलेख में एक शाम की सैर और कुछ छोटी-बड़ी यादों की बातें हैं।


आज सुबह से आसमान बादलों से ढका था, सुहावना मौसम हो रहा था, हवा में हल्की ठँडक थी। सारा दिन बादल रहे लेकिन जल की एक बूँद भी नहीं गिरी। शाम को जब मेरा सैर का समय आया तो हल्की बूँदाबाँदी शुरु हुई। पत्नी ने कहा कि जाना है तो छतरी ले कर जाओ, लेकिन मैंने सोचा कि थोड़ी देर प्रतीक्षा करके देखते हैं, अगर यह बूँदाबाँदी नहीं रुकेगी तो छतरी ले कर ही जाऊँगा। पंद्रह मिनट प्रतीक्षा के बाद बाहर झाँका तो बादलों के बीच में से नीला आसमान झाँकने लगा था। इस वर्ष अक्सर यही हो रहा है कि बादल कम आते हैं और अक्सर बिना बरसे ही लौट जाते हैं। हमारे शहर का इतिहास जानने वाले लोग कहते हैं कि ऐसा पहली बार हुआ कि हमारे घर के पीछे बहने वाली नदी में करीब आठ महीनों से पानी नहीं है। पूरे पश्चिमी यूरोप में यही हाल है।

खैर मैंने देखा कि बारिश नहीं हो रही तो तुरंत जूते पहने और हेडफ़ोन लगा लिया। शाम की सैर का समय कुछ न कुछ सुनने का समय है। कभी डाऊनलोड किये हुए हिंदी, अंग्रेज़ी या इतालवी गाने सुनता हूँ, कभी हिंदी के रेडियो स्टेशन तो कभी क्लब हाऊस पर कोई बातचीत या गाने के कार्यक्रम। आज मन किया विविध भारती सुनने का। यहाँ शाम के साढ़े सात बजे थे, तो मुम्बई से प्रसारित होने वाले विविध भारती के लिए रात के ग्यारह बजे थे और चूँकि आज गुरुवार है, मुझे मालूम था कि इस समय सप्ताहिक "विविधा" कार्यक्रम आ रहा होगा, जिसमें अक्सर हिंदी फ़िल्मों से जुड़ी हस्तियों के साक्षात्कारों की पुरानी रिकोर्डिंग सुनायी जाती हैं।

मोबाईल पर विविध भारती का एप्प खोला तो कार्यक्रम शुरु हो चुका हो चुका था और पुराने फ़िल्म निर्देशक, लेखक तथा अभिनेता किशोर साहू की बात हो रही थी। उनका नाम सुनते ही मन में "गाईड" फ़िल्म की बचपन एक याद उभर आयी। तब हम लोग पुरानी दिल्ली में फ़िल्मिस्तान सिनेमा के पास रहते थे। वह घर हमने १९६६ में छोड़ा था, इसका मतलब है कि वह याद इससे पहले की थी। मन में उभरी तस्वीर में एक दोपहर थी, नानी चारपाई पर चद्दर बिछा कर, उस पर दाल की वणियाँ बना कर सुखाने के लिए रख रही थी। बारामदे के पीछे खिड़की पर ट्राँज़िस्टर बज रहा था जिस पर उस दिन पहली बार किशोर कुमार और लता मँगेशकर का गाया गीत, "काँटों से खींच के यह आँचल, तोड़ के बँधन बाँधी पायल" सुना था। एक पल के लिए मैं उस आंगन में नानी को देखता हुआ सात-आठ साल का बच्चा बन गया था, यह याद इतनी जीवंत थी।

बचपन में पापा हैदराबाद में थे और माँ अध्यापिका-प्रशिक्षण का कोर्स कर रही थी और उसके बाद उन्हें नवादा गाँव के नगरपालिका के प्राथमिक स्कूल में नौकरी मिली थी, तो मैं और मेरी बहन, हम दोनों नानी के पास ही रहते थे। नानी और माँ में केवल अठारह या उन्निस साल का अंतर था, इसलिए मेरी सबसे छोटी मौसी उम्र में मेरी बड़ी बहन से छोटी थी।

नानी जब पैदा हुई थी तो उनकी माँ चल बसी थीं, इसलिए नानी अपनी मौसी के पास बड़ी हुईं थीं और उनके मौसेरे भाई, इन्द्रसेन जौहर, अपने समय के प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता और निर्देशक बने थे। नानी की शादी करवाने के बाद उनके विधुर पिता ने नानी की उम्र की लड़की से शादी की थी, इस तरह से नानी की पहली संतानें भी उनके पिता की अन्य संतानों से उम्र में बड़ी थीं, और नानी के सबसे छोटे भाई मेरे हमउम्र थे।

नानी सुबह उठ कर अंगीठी जलाती थी। घर में एक कोठरी थी, जिसमें कच्चा और पक्का कोयला रखा होता था। अंगीठी की जाली पर नानी पहले थोड़ा सा कच्चा कोयला रखती, और उसके ऊपर पक्का कोयला। फ़िर नीचे राख वाली जगह पर कागज़ जलाती जिससे कच्चे कोयले आग पकड़ लेते। वह राख भी जमा की जाती थी, उससे बर्तन धोये जाते थे और उसे गाय या भैंस के गोबर में मिला कर उपले बनाये जाते थे।

उपलों को नानी अपनी पश्चिमी पंजाब के झेलम जिले की भाषा में "गोया" कहती थी। लेकिन उस घर में उपले कम ही बनते थे शायद क्योंकि शहर में गोबर आसानी से नहीं मिलता था। नानी का गाँव वाला घर जिस पर नाना ने "दीवान फार्म" का बोर्ड लगा रखा था, नवादा और नजफ़ गढ़ के बीच में ककरौला मोड़ नाम की जगह से थोड़ा पहले था। जहाँ नानी की रसोई थी, वहाँ अब "द्वारका मोड़" नाम के दिल्ली मेट्रो स्टेशन की दायीं सीढ़ियाँ हैं और जहाँ उनका बड़ा वाला कूँआ था वहाँ अब मेरे मामा के बनाया एक स्कूल चलता है। बचपन में वहाँ मैं अपनी छोटी मौसियों के साथ तसला ले कर गोबर उठाने जाता था। अगर आप ने कभी गोबर नहीं उठाया तो शायद आप को उसे हाथ से छूने या उठाने का सोच कर अज़ीब लगे, लेकिन बचपन में मुझे ताज़े गोबर की गर्मी को हाथ से छूना बहुत अच्छा लगता था। गाँव वाले उस घर में, दूध, दाल, सब्जी, हर चीज़ में उपलों की गंध आती थी।

आज उत्तरपूर्वी इटली में, दिल्ली से हज़ारों मील दूर, किशोर साहू के नाम और उनकी बातों से, साठ वर्ष पहले की यह सब यादें एक पल के लिए मन में कौंध गयीं, एक क्षण के लिए उपलों की गंध वाले उस खाने की वह सुगंध भी जीवित हो उठी।

किशोर साहू के बाद बात हुई पुरानी फ़िल्म अभिनेत्री मनोरमा की। उनका मुँह बना कर और आँखें मटका कर अभिनय करना मुझे अच्छा नहीं लगता था। उनकी बातें सुन रहा था तो मन में हमारे करोल बाग वाले घर की यादें उभर आयीं। तब दिल्ली में नियमित दूरदर्शन के कार्यक्रम आते थे, जिनमें मेरे सबसे प्रिय कार्यक्रम थे चित्रहार और फ़िल्में। छयासठ से अड़सठ तक हम उस घर में तीन साल रहे और उन तीन सालों में दूरदर्शन पर बहुत फ़िल्में देखीं। तब रंगीन टीवी नहीं होता था और टीवी कम ही घरों में थे। बिना जान पहचान के हम बच्चे मोहल्ले के आसपास के किसी भी टीवी वाले घर में घुस जाते थे, कभी किसी ने मना नहीं किया। हम लोग टीवी के सामने ज़मीन पर पालथी मार कर बैठ जाते।

तब रामजस रोड पर एक स्कूल में भी शाम को फ़िल्म आती तो वहाँ की एक अध्यापिका आ कर टीवी वाला कमरा खोल देती थीं, वहाँ खूब भीड़ जमती। उन सालों की दूरदर्शन पर देखी मेरी प्रिय फ़िल्मों में से वैजयंतीमाला की "मधुमति", मधुबाला की "महल", नूतन की "सीमा" और राजकपूर की "जागते रहो" थीं।

उन फ़िल्मों के बारे में सोचते हुए, उस समय सैर करते करते मैं हमारी सूखी हुई नदी के पुल पर पहुँच गया। वहाँ खड़े हो कर पहाड़ों के पीछे डूबते सूरज को देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि उस जगह पर पहाड़ों से घाटी में नीचे आती हुई बढ़िया हवा आती है। इस साल पानी न होने से पहले तो नदी के पत्थरों के बीच में लम्बी घास उग आयी थी, शायद उसे नदी के तल के नीचे की धरती में छुपी उमस मिल गयी थी। फ़िर भी जब पानी नहीं बरसा तो वह घास बहुत सी जगह पर सूख कर पीली सी हो गयी है, इस तरह से पुल से देखो तो संध्या के डूबते सूरज की रोशनी में नदी के तल पर बिछी घास के हरे और पीले रंग बहुत सुंदर लगते हैं। नदी के किनारे लगे पेड़ों के पत्ते जब सर्दी शुरु होती है तो सितम्बर के अंत में पीले और लाल रंग के हो कर गिर जाते हैं, लेकिन इस साल सूखे की वजह से अभी अगस्त के महीने में ही वह पत्ते पीले पड़ रहे हैं। बादलों से ढके आकश में प्रकृति के यह सारे रंग बहुत मनोरम लगते हैं।



पुल पर ही खड़ा था, जब विविध भारती पर आ रहे कार्यक्रम में शम्मी कपूर की बात होने लगी। उनकी एक पुराने साक्षात्कार की रिकार्डिंग सुनवायी जा रही थी। थोड़ा सा आश्चर्य हुआ यह जान कर कि वह अच्छा गाते थे। उस साक्षात्कार में उन्होंने "तीसरी मंजिल", "एन ईवनिंग इन पैरिस" जैसी फ़िल्मों के कुछ गाने गा कर सुनाये।

शम्मी कपूर के नाम से उनकी फ़िल्म "कश्मीर की कली" और फ़िर नानी के घर की याद आ गयी। घर के पास, ईदगाह को जाने वाली सड़क के पार एक फायर ब्रिगेड का स्टेशन होता था, जिसके सामने मैं सुबह स्कूल की बस की प्रतीक्षा करता था। वहीं पर फायरब्रिगेड में काम करने वाले एक सरदार जी से जानपहचान हो गयी थी। उनके पास एक छोटा सा पॉकेट साईज़ का ट्राँज़िस्टर था जिसमें इयरफ़ोन लगा कर सुनते थे। उन्होंने एक दिन मुझे वह इयरफ़ोन लगा कर रेडियो सुनवाया तो उस समय उसमें "कश्मीर की कली" फ़िल्म का गीत आ रहा था, "यह चाँद सा रोशन चेहरा, ज़ुल्फ़ों का रंग सुनहरा"। आज शम्मी कपूर जी की आवाज़ सुनी तो अचानक उस गीत को सुनने की वह याद आ गयी।

जब हम लोग करोल बाग में रहने आये, उन दिनों में मैं रेडियो पर नयी फ़िल्मों के गाने सुनने का दीवाना था, कोई भी गाना एक बार सुनता था तो उसकी धुन, शब्द, फ़िल्म का नाम, गाने वाले, लेखक, सब कुछ याद हो जाता था, इसलिए जब अंताक्षरी खेलते तो मैं उसमें चैम्पियन था। उन्हीं दिनों में दूरदर्शन पर पुरानी फ़िल्में देखने लगे थे तो सपने देखता कि जब बड़ा होऊँगा और पास में पैसा होगा तो सब फ़िल्मों को देखूँगा। आज तकनीकी ने इतनी तरक्की कर ली कि वह सारी फ़िल्में जो बचपन में देखना चाहता था और नहीं देख पाया था, अब जब चाहूँ तो यूट्यूब पर उनको देख सकता हूँ, तो क्यों नहीं देखता?

सैर से वापस घर लौटते समय सोच रहा था कि इन पचास-साठ सालों में दुनिया कितनी बदल गयी। बचपन का वह मैं, अगर उसे मालूम होता कि एक समय ऐसा भी आयेगा कि दुनिया में कहीं भी, किसी से बात करलो, जो मन आये वह संगीत सुन लो या फ़िल्म देख लो, तो उसे कितनी खुशी होती, और वह क्या क्या ख्याली पुलाव पकाता। 

अन्य दिनों में इस तरह की यादें, घर लौटने के दस मिनट में रात को देखे सपनों की तरह गुम हो जाती हैं, लेकिन आज सोचा है कि अपने ब्लाग के लिए इन्हें शब्दों में बाँध लूँगा।

शनिवार, अगस्त 06, 2022

लम्बे कोविड के खतरे

टिप्पणी (२९ अगस्त २०२२)


पिछले कुछ महीनों (विषेशकर अप्रैल २०२२ के अंत के बाद से) से यूरोप, अमरीका आदि कुछ देशों में वर्ष के इस समय में होने वाली औसत मृत्यु दर से करीब दस से १२ प्रतिशत अधिक हो रही हैं। ईंग्लैंड और अमरीका दोनों देशों में मृत्यु के आकणें यह बढ़ी मत्यु दर दिखला रही हैं। कल (२८ अगस्त २०२२ को) स्कॉटलैंड की सरकार ने इस बात को स्वीकारा है। यह बढ़ी मृत्यु दर कोविड से होने वाली मृत्यु से अलग है। इनमें विषेशरूप से घर पर अचानक मरने वालों की संख्या अधिक है। चूँकि कोविड के वजह से पिछले दो वर्षों में बूढ़े और अन्य बिमारियों वाले बहुत से लोगों की मृत्यु हुई थी तो इस साल औसत मृत्यु दर में कमी आनी चाहिये थी, उसमें बढ़ौती का होना चिंताजनक है। वैज्ञानिकों को संदेह है कि शायद इन अधिक मृत्यु के पीछे कोचिड वैक्सीन का प्रभाव न हो इसलिए वैज्ञानिक कह रहे हें कि देशों के मृत्यु के आकणों, कारणों तथा आटोप्सी रिपोर्ट पर तुरंत शोध करना चाहिये। 

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लम्बे कोविड के खतरे


कोविड की बीमारी दो साल पहले, 2020 के प्रारम्भ में चीन से सारे विश्व में फ़ैली। चूँकि यह बीमारी चीन में 2019 में शुरु हुई, इसमें मरीज़ों को साँस लेने में कठिनाई होती थी और यह कोरोना वायरस से इन्फेक्शन से हुई थी इसे सार्स-कोविड-19 (Severe Acute Respiratory Syndrome - Corona Virus Disease) का नाम दिया गया। अब तक इस बीमारी से दुनियाँ में करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं और लाखों लोगों की मृत्यु हुई है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो जहाँ यह बीमारी न पहुँची हो।



अधिकाँश लोगों को जब यह बीमारी हुई तो उन्हें अधिक परेशानी नहीं हुई और वह जल्दी ठीक हो गये। करीब 2 प्रतिशत लोगों की तबियत अधिक बिगड़ी और उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा। अस्पताल में भर्ती होने वाले लोगों में से करीब एक प्रतिशत लोग नहीं बचे, बाकी के लोग धीरे धीरे ठीक हो गये। बीमारी के प्रारम्भ में, जब इससे लड़ने के लिए वैक्सीन का आविष्कार नहीं हुआ था, बीमार होने वाले और मरने वाले अधिक थे। बहुत से देशों में इस बीमारी के लिए विषेश अस्पताल खोले गये। अधिकाँश देशों में 2020-21 में महीनों तक लॉक-डाउन रहे जिससे दुकानदारों, फैक्टरी वालों, स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों, उद्योग चलाने वालों, रैस्टोरेंट वालों, कलाकारों, फ़िल्म वालों आदि सब पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ा।

जिन लोगों को यह कोविड की बीमारी हुई उनमें से कुछ लोगों में इस बीमारी का लम्बा प्रभाव पड़ा है, यानि वह इस बीमारी के बाद, कई महीनों या सालों तक ठीक नहीं हो पाये। इन लोगों की बीमारी को "लम्बे कोविड" (Long Covid) का नाम दिया गया है। कुछ दिन पहले, 28 जुलाई 2022 को, लम्बे कोविड के बारे में एक नया और महत्वपूर्ण शोध के परिणाम आये हैं जिनसे इस लम्बे कोविड की बीमारी और उसके शरीर पर होने वाले प्रभावों को समझने में मदद मिलती है। इस आलेख में कोविड का वायरस कैसे शरीर पर प्रभाव करता है और लम्बे कोविड की बीमारी से जुड़े इस शोध के परिणामों की चर्चा हैं।

लम्बे कोविड का शोध

इस शोध के लिए ईंग्लैंड में उन लोगों को चुना गया जिन्हें गम्भीर स्तर का कोविड का इन्फेक्शन हुआ था और बीमारी शुरु होने के २८ दिनों के बाद भी जिनकी तबियत पूरी तरह से नहीं सुधरी थी। इसमें कुल मिला कर तीन लाख छत्तीस हजार लोगों को लिया गया। इन लोगों को स्मार्ट फोन का एक एप्प दिया गया और उनसे नियमित रूप से स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारी इकट्ठी की गयी। इसके अधिकतर शोधकर्ता लँडन के किन्गस कॉलेज से जुड़े थे।

कोविड का वायरस जो चीन में निकला, वह समय के साथ बदलता रहा है और उन बदलते हुए वायरसों को अलग अलग नाम दिये जाते हैं जैसे कि अल्फा, डेल्टा, आदि। इस शोध में उन सभी विभिन्न तरह से वायरसों से बीमार व्यक्तियों ने हिस्सा लिया।

जिन तीन लाख छत्तीस हज़ार रोगियों ने इसमें हिस्सा लिया, उनमें से एक हज़ार चार सौ उनसठ (1,459) रोगियों को "लम्बा कोविड" हुआ यानि उनकी बीमारी होने के तीन महीने बाद भी उनकी तबियत ठीक नहीं हुई थी। इसका अर्थ है कि इस शोध में हिस्सा लेने वाले हर 230 रोगियों में से एक व्यक्ति को लम्बा कोविड हुआ, जिससे मालूम चलता है कि गम्भीर कोविड होने वाले लोगों में से तकरीबन 0.4 प्रतिशत लोगों को लम्बा कोविड होने का खतरा हो सकता है।।

कोविड का शरीर पर असर

कोविड की बीमारी हमारे शरीर पर किस तरह से असर करती है, इसको जानने के लिए हमारे शरीर की आत्मरक्षा व्यवस्था (immunological system) को समझना ज़रूरी है।

जब हमारे शरीर में कोई भी बीमारी वाला किटाणु घुसता है तो हमारा शरीर उससे लड़ने की कोशिश करता है। बीमारी फैलाने वाले किटाणुओं से लड़ने वाली आत्मरक्षा की क्षमता को शरीर की इम्यूनुलोजिकल सिस्टम या शरीर-आत्मरक्षा व्यवस्था कहते हैं। हमारी यह आत्मरक्षा क्षमता मुख्यतः दो तरह की होती है - रक्त में घूमने वाली एँटीबॉडी (antobodies) और सुरक्षा-कोष (cellular immunity)।

एँटीबॉडी को शरीर की रक्त धमनियों में घूमने वाला सिपाही समझिये, जैसे ही किसी अनजाने किटाणु को देखता है, उसको पकड़ कर उससे लिपट जाता है और मदद के लिए चिल्लाता है, जिससे की मेक्रोफेज (macrophage) नाम के कोष वहाँ आ कर उन किटाणुओं को निगल जाते हैं और मार कर पचा लेते हैं।

अगर आप के शरीर ने उस किटाणु को पहले नहीं देखा, जब यह नया किटाणु शरीर में घुसता है तो एँटीबॉडी उनको पहचान नहीं पाती और इन किटाणुओं को शरीर में फ़ैलने का मौका मिल जाता है। तो इन्हें रोकने की ज़िम्मेदारी सुरक्षा कोषों पर आती है, इनका काम है नये किटाणुओं को पहचानना, लड़ना और उनसे लड़ने के लिए नये तरीके की एँटीबॉडी बनवाना। इस काम में थोड़ी देर लगती है और तब तक बीमारी शरीर में फैलती रहती है।

वैज्ञानिक कुछ घातक किटाणुओं जिनसे जानलेवा या गम्भीर बीमारी हो सकती है, उनसे बचने के लिए वैक्सीन बनाते हैं। वैक्सीन में मरे या अधमरे किटाणु, जिनसे बीमारी होने का खतरा नहीं हो, शरीर में टीके से या ड्रापस से भेजे जाते हैं, ताकि शरीर उनको पहचान कर उनसे लड़ने वाली एँटीबॉडी बनाने लगे। इस तरह से जब वह किटाणु आप के शरीर में घुसते हैं तो वे आप की आत्मरक्षा व्यव्स्था के लिए नये नहीं हैं और उनसे लड़ने वाली एँटीबोडी पहले से ही तैयार उनकी घात में बैठी हैं।

जब शरीर किसी किटाणु से लड़ता है, तो कई बार उस लड़ाई की वजह से भी शरीर पर कुछ दुष्प्रभाव हो सकते हैं, जैसे कि शरीर का तापमान बढ़ना। इसलिए जब शरीर में कोई भी इन्फेक्शन हो, बुखार आ जाता है।

कोविड के वायरस शरीर में साँस के साथ घुसते हैं और सबसे पहले फेफड़ों में फ़ैलते हैं। अगर शरीर में इन्हें तुरंत रोकने की शक्ति नहीं हो, तो इनकी संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होती है। जब तक शरीर इन किटाणुओं से लड़ने के लिए एँटीबॉडी बनाता है तब तक कुछ लोगों के फेफड़ों में इतने किटाणु बन गये होते हैं कि जब एँटीबॉडी उन पर हमला करती हैं तो वहाँ पानी जमा हो सकता है या फेफड़ों की संकरी धमनियाँ उन किटाणु-एँटीबॉडी के गट्ठरों से बंद हो जाती हैं, जिनसे मरीजों को साँस लेने में कठिनाई होती है, उनके शरीर की आक्सीजन कम होने लगती है। इसके अतिरिक्त, फेफड़ों से किटाणु शरीर के अन्य भागों में जाते हैं और वायरस विभिन्न अंगों के कोषों को नुक्सान दे सकता है। यही सब बीमारी के लक्षण बन कर प्रकट होते हैं।

लम्बे कोविड के कारण

कोविड का वायरस फेफड़ों से घुस कर शरीर के विभिन्न हिस्सों में फ़ैल जाता है, और शरीर के महत्वपूर्ण अंगों के कोषों को नुकसान हो सकता है। अगर कोषों को नुकसान टेम्परेरी है जैसे कि उनमें स्वैलिंग आ जाती है, तो धीरे धीरे यह ठीक हो जाता है। लेकिन अगर महत्वपूर्ण अंगों के कोष बीमारी की वजह से मर जाते हैं तो अक्सर वह दोबारा ठीक नहीं होते।

जैसे कि हमारे दिमाग में विभिन्न गँधों को पहचानने वाले कोष होते हैं, जो अक्सर कोविड से प्रभावित होते हैं। अगर वह कोष बीमारी में मर जाते हैं तो हो सकता है कि उस व्यक्ति की सूँघने की शक्ति पूरी तरह से कभी नहीं लौटे। लम्बे कोविड से प्रभावित लोगों में पाया गया है कि उनके विभिन्न शरीर के हिस्सों में जैसे कि दिमाग में, दिल में, फेफड़ों मे, शरीर के कोषों को परमानैंट डेमेज हो गया है जिसकी वजह से वह ठीक नहीं हो पा रहे।

लम्बे कोविड के प्रभाव

इस शोध में लम्बे कोविड बीमारी होने वाले व्यक्तियों में तीन तरह के लक्षण पाये गये हैंः

(१) दिमाग और नसों से जुड़े लक्षण - जैसे कि सूँघने की क्षमता खोना, थकान होना, सोचने की शक्ति कमज़ोर होना, डिप्रेशन होना, सिरदर्द होना, आदि।

(२) हृदय और फेफड़ों से जुड़े लक्षण - जैसे कि साँस लेने में कठिनाई, हाँफना, जल्दी थक जाना, दिल की धड़कन बढ़ना, आदि।

(३) शरीर के अन्य अंगों से जुड़े लक्षण - जैसे कि बुखार रहना, गुर्दों की तकलीफ़ होना, जोड़ों में तकलीफ़ होना, आदि।

इस शोध में शामिल लम्बे कोविड से पीड़ित व्यक्तियों में उपर बताये लक्षणों में से सबसे अधिक लोगों को दिमाग तथा नसों से जुड़ी तकलीफ़ें पायी गयीं।

अंत में

कोविड की वैक्सीन के दुष्प्रभावों के बारे में भी बहुत चर्चा हुई हैं और यह दुष्प्रभाव अनेक शोधों में दिखाये गये हैं, लेकिन यह थोड़े ही लोगों में हुए हैं। कोविड की वैक्सीन की एक कमी यह भी है कि इसका असर थोड़े समय के लिए लगता है और वैक्सीन लगवाये कई लोगों को भी कोविड हुआ है। लेकिन विभिन्न शोध यह भी दिखाते हैं कि वैक्सीन लगवाये हुए लोगों को बीमारी कम गम्भीर हुई, उनमें से बहुत कम लोगों को अस्पताल में भर्ती होनी की ज़रूरत हुई और उनमें से इस बीमारी से बहुत कम लोग मरे।

मेरी राय में अगर आप को अभी तक कोविड नहीं हुआ है, या आप को मालूम नहीं कि आप को लक्षणविहीन कोविड हुआ या नहीं हुआ, तो कोविड की वैक्सीन लगवाना बेहतर है। अब हर दूसरे महीने इसके नये वेरिएन्ट वायरस निकल रहे हैं जिनसे यह बीमारी तेज़ी से फ़ैलती है लेकिन बहुत कम लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है, इसलिए सरकारों ने अब इसकी चिंता करना कम कर दिया है। इसका मतलब है कि अगले महीनों और वर्षों में यह बीमारी आम हो जायेगी, तो कोई भी इससे बच नहीं सकता। अगर आप ने अभी तक वैक्सीन नहीं लगवायी, तो हो सकता है कि आप खुशकिस्मत हो और कोविड होगा भी तो आप को नुक्सान नहीं पहुँचायेगा, लेकिन ऐसा कोई टेस्ट नहीं जो यह बता सके। बाकी तो अगर आप इस आलेख को पढ़ रहे हैं तो जाहिर है कि आप समझदार हैं।


शुक्रवार, जुलाई 29, 2022

इटली की वाईन संस्कृति

मेरे इस आलेख का शीर्षक पढ़ कर शायद आप सोच रहे होगे कि शराब का संस्कृति से क्या लेना देना, शराब तो संस्कृति के विनाश का प्रतीक है? आज के भारत में एक ओर से शहरों में रहने वालों में शराब पीने वालों में वृद्धि हुई है। दूसरी और से "शराब बुरी चीज़ है", शराबबँदी होनी चाहिये जैसी सोच वाले लोग भी हैं और बिहार तथा गुजरात में शराब पीना गैरकानूनी है।



खैर, इस आलेख में भारत की बात कम है, बल्कि इटली तथा दक्षिण यूरोप की वाईन पीने की संस्कृति की बात है।

कल रात की बात

कल रात को हम लोग कुछ मित्रों के साथ तरबूज खाने गये। हमारे घर से करीब तीन किलोमीटर दूर एक छोटा सा गाँव है जहाँ के लोग मिल कर हर साल गर्मियों में तरबूज-समारोह आयोजित करते हैं जिसे "अँगूरियारा" कहते हैं। इस समारोह में आप खेतों के बीच में बैठ कर संगीत सुन सकते हैं, नाच सकते हैं और तरबूज, सैंडविच, तले आलू जैसी चीज़ें खा सकते हैं।

इसका सारा काम गाँव वाले लोग स्वयंसेवक की तरह बिना पगार लिये करते हैं। यह दो महीने चलता है, हर सप्ताह में दो या तीन दिन, शाम को आठ बजे से रात के ग्यारह बजे तक। इससे जो भी कमाई होती है, वह सारा पैसा गाँव के स्कूल, स्वास्थ्य क्लिनिक आदि के लिए सामान खरीदने के काम आता है। इस फेस्टिवल को उस गाँव के चर्च के पादरी ने शुरु करवाया था और अभी भी वह स्वयं अन्य स्वंयसेवकों के साथ बीच में काम करते दिख जाते हैं।  

कल रात वहाँ करीब पाँच सौ आदमी जमा थे, उनमें बच्चे, जवान, प्रौढ़, बूढ़े, सभी तरह के लोग थे। बहुत से लोग साथ में वाईन या बियर भी पी रहे थे। हम लोग वहाँ रात को देर तक रुके लेकिन उनमें से एक भी व्यक्ति नहीं दिखा जो शराब के नशे में लड़खड़ा रहा हो या किसी ने किसी लड़की या युवती से बद्तमीज़ी की हो। अधिकतर लोगों ने एक गिलास वाईन या बियर ली थी।

तब सोचा कि ऐसा समारोह अगर भारत में हो तो वहाँ गाँव में खेत में बैठ कर खुलेआम वाईन या बियर पीने ही नहीं दिया जायेगा। भारत में जिन समारोहों में शराब चलती है, जैसे कि विवाह या कोई पार्टी, तो वहाँ विभिन्न उम्र के बच्चे, लड़कियाँ, युवतियाँ नहीं मिलेंगी। साथ ही, अक्सर ऐसे मौकों पर कुछ लोग इतनी पी लेते हैं कि उनके होश काबू में नहीं रहते। कुछ लोग नशे में लड़कियों-युवतियों से छेड़खानी करने लगते हैं और कुछ लोगों को आसानी से गुस्सा आ जाता है, वह आपस में लड़ने लगते हैं।

यह सब सोच कर इटली की वाईन और शराब से जुड़ी संस्कृति की बात मेरे दिमाग में आयी।

प्राचीन समाजों में नशे की परम्पराएँ

एन्थ्रोपोलोजिस्ट (मानव समूहों के विशेषज्ञ) कहते हैं कि लाखों साल पहले से आदिमानवों के पुरखों ने नशा देने वाले पदार्थों को पहचाना और अपनी संस्कृतियों में इनको विषेश महत्व दिये।

वैज्ञानिकों के शोध ने दिखाया है कि मानव ही नहीं, पशु, पक्षी और यहाँ तक कि कीड़े मकोड़ों को भी नशा देने वाले पदार्थ अच्छे लगते हैं। अधिक पके और गले हुए फ़लों में प्राकृतिक शराब बन जाती है, जिनको खा कर पशु और पक्षी ही नहीं, उन फ़लों पर बैठने वाली मक्खियाँ और कीड़े भी नशे में लड़खड़ाने लगते हैं।

मध्य व दक्षिण अमरीकी जनजातियों के पाराम्परिक पुजारी और चिकित्सक शराब के साथ साथ, आयाहुआस्का, कोका तथा अन्य नशीले पदार्थों वाले पौधों को पहचानते थे और उनका नियमित उपयोग करते थे। दक्षिण अफ्रीका में एक शोध ने तीन सौ से अधिक पौधों के बारे में जानकारी एकत्रित की जिन्हें उनके पाराम्परिक चिकित्सक बीमारियों के इलाज में उपयोग करते थे और पाया कि उनमें बहुत से पौधे नशीले पदार्थ वाले थे।

भारत के प्राचीन ग्रंथों वेदों में सोम रस के उपयोग की बातें थीं जबकि सदियों से हमारे ऋषियों और साधुओं ने भाँग तथा चरस जैसे पदार्थों का भगवान की खोज या समझ बढ़ाने के लिए उपयोग किया है। समकालीन भारत के छोटे शहरों और गाँवों में पान मसाला, सुर्ती, पान, ज़र्दा, भाँग, चरस, ताड़ी, देसी शराब जैसे नशीले पदार्थों का सेवन आम बात है।

पाराम्परिक तथा आदिवासी जन समूहों में इन नशीले पदार्थों में शराब का विषेश स्थान रहा है। लगभग हर देश व प्राँत में अपने विषेश तरीके से शराब बनाने की परम्पराएँ रहीं हैं।

यूरोप की वाईन परम्परा

दक्षिण-पश्चिमी यूरोप के देशों में अँगूरों से वाईन बनाने की परम्परा बहुत पुरानी है। यह परम्परा में इटली और फ्राँस में विशेष रूप से विकसित हुई। दुनिया के जिन कोनों में इटली और फ्राँस के प्रवासी गये, वह इस परम्परा को अपने साथ ले गये। इन में हर देश की अपनी वाईन संस्कृति है।

मध्य इटली में दो हज़ार साल पहले रोमन समय का जीवन पोम्पेई में एक ज्वालामुखी के फटने से राख में कैद हो गया था। वहाँ के घरों में और होटलों में वाईन पीने के दृश्य उनकी दीवारों पर बनी तस्वीरों में दिखते हैं और वाईन रखने के बड़े मर्तबानों से इसका महत्व समझ में आता है।

ईसाई धर्म का प्रारम्भ मध्य एशिया में जेरूसल्म में हुआ लेकिन उनके पैगम्बर ईसा मसीह की मृत्यु के बाद उनके सबसे महत्वपूर्ण अनुयायी, जैसे कि सैंट पीटर और सैंट पॉल, इटली में रोमन साम्राज्य में रहने आये और उनका धर्म रोम से पूरे यूरोप में फैला। उनके धार्मिक अनुष्ठानों में वाईन को विषेश स्थान दिया गया और आज भी कैथोलिक गिरजाघरों में पादरी पूजा के समय वाईन पीते हैं।

इटली की वाईन संस्कृति

इटली और फ्राँस, इन दोनों देशों में कोई ऐसा जिला, उपजिला और गाँव मिलना कठिन है जहाँ अपने स्थानीय अंगूरों से वाईन बनाने की परम्परा न हो।

उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारे छोटे से शहर में, जिसमें आप किसी भी दिशा में निकल जाईये, तीन या चार किलोमीटर से कम दूरी में आप शहर की सीमा के बाहर निकल आयेंगे और वहाँ खेत शुरु हो जायेगे जिनमें हर तरफ़ अंगूरों की खेती होती है। यहाँ लोगों में "हमारे अंगूर, हमारी वाईन" के प्रति बहुत गर्व होता है और अक्सर लोग आपस में बहस करते कि इस साल किसकी वाईन बेहतर हुई है।

हमारे शहर के आसपास कम से सात या आठ किस्म की वाईन बनती हैं। बहुत सारे लोगों के घरों में अपनी वाईन को बनाया जाता है। सबके घरों में बेसमैंट में वाईन की बोतलों को सही तापमान और उमस के साथ संभाल कर रखा जाता है और अधिकाँश लोग एक या दो गिलास वाईन को खाने के साथ पीते हैं।

उत्तरपूर्वी इटली में दो तरह की अंगूर की शराब बनती है। पहली तो है वाईन जिसमें शराब यानि इथोनोल की मात्रा सात से ग्यारह प्रतिशत की होती है। फ्रागोलीनो यानि कच्ची वाईन में फ़लों का स्वाद अधिक महसूस होता है, उनमें इथोनोल की मात्रा कम (तीन या चार प्रतिशत) होती है, लेकिन फ्रागोलीनो वाईन केवल अक्टूबर या नवम्बर में मिलती है, जब अंगूर इकट्ठे किये जाते हैं और वाइन बनाना शुरु करते हैं।

यहाँ की दूसरी शराब को ग्रापा कहते हैं जिसमें इथोनोल की मात्रा अठारह से तीस प्रतिशत के आसपास होती है। ग्रापा को अक्सर बूढ़े लोग अधिक पीते हैं या लोग पार्टियों में पीते हैं। ग्रापा में चैरी, स्ट्राबेरी, शहतूत जैसे फ़लों को डाल कर या उनमें जड़ी-बूटियाँ भिगो कर रखते हैं, इस तरह के विषेश ग्रापा को "डाईजेस्टिव" (पचाने वाले) कहते हैं और अक्सर जब मेहमान हों तो उन्हें खाना समाप्त करने के बाद इसे छोटे गिलासों में पीया जाता है।

हमारा पहाड़ी इलाका है। आज से तीस-चालीस साल पहले तक पहाड़ी गाँवों में वाईन में डुबो कर रोटी को खाना या छोटे बच्चों को थोड़ी सी वाईन पिला कर शांत करवाना, सामान्य माना जाता था। आजकल ऐसा नहीं होता। पहले गाँव वाले लोग समझते थे कि लाल वाईन पीने से  खून बनता है और छोटे बच्चों को एक या दो घूँट लाल वाईन पिलाने को अच्छा माना जाता था। जबकि आजकल लोग जानते हैं कि वाईन के इथोनोल को जिगर में पचाया जाता है और पंद्रह-सोलह साल की आयु तक बच्चों के जिगर में यह पचायन शक्ति नहीं होती इसलिए उनको शराब देने से उनके जिगर खराब हो सकते हैं। इटली के कानून के अनुसार, अठारह साल से छोटे बच्चों को शराब नहीं बेची जा सकती, लेकिन घरों में अक्सर सोलह-सतरह साल के होते होते, बच्चों को थोड़ी बहुत बियर या वाईन को पीने से मना नहीं किया जाता। 

इटली तथा भारत की शराब संस्कृति में अंतर


यहाँ अमीर, मध्यमवर्गी, गरीब, सभी वाईन पीते हैं, वाईन को बिल्कुल न पीने वाले लोग कम ही देखे हैं। यहाँ के अधिकतर लोग खाने के साथ आधा या एक या बहुत हो गया तो दो गिलास वाईन पी लेते हैं, लेकिन नशे में धुत व्यक्ति कोई विरले ही होते हैं।

एक जमाने में यहाँ अंगूर का ग्रापा अधिक पीया जाता था, लेकिन आजकल ग्रापा पीने वाले बहुत कम हो गये हैं, अधिकतर लोग ग्रापा को विशेष अवसरों पर ही पीते हैं। पहले यहाँ बियर पीने वाले बहुत कम होते थे, जबकि पिछले दशकों में यहाँ बियर पीने वाले बढ़े हैं।

अगर आप मुझसे पूछें कि इटली तथा भारत की शराब संस्कृति में क्या अंतर है तो मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा अंतर है शराब की मात्रा और उसको पीने का तरीका।

इटली में आप बच्चे होते हैं जब आप परिवार के लोगों को खाने के समय वाईन पीता देखते हैं। लोग अक्सर बच्चों को उँगली से या चम्मच से वाईन का टेस्ट करा देते हैं और कहते हैं कि जब तुम बड़े होगे तो तुम इसे पी सकते हो। थोड़ी सी वाईन पी कर लोग खुल जाते हैं, आसानी से बातें करते हैं, अधिक हँसते हैं या नृत्य करते हैं। इस तरह बच्चे बचपन से देखते हैं और सीखते हैं कि वाईन या बियर किस तरह से सीमित मात्रा में आनन्द के लिए पी जाती हैं, नशे में आने के लिए नहीं। बच्चों को वाईन या बियर चखने से रोका नहीं जाता, ताकि उनमें भीतर वह जिज्ञासा नहीं हो कि यह क्या चीज़ है जिसे घर वालों से छुपा कर करना है।

वाईन हर सुपरमार्किट में खुले आम मिलती है और सस्ती है, घर पर आम पीने वाली डिब्बे में बिकने वाली वाईन एक यूरो की भी मिलती है, जबकि दो या तीन यूरो में आप को अच्छी वाईन की बोतल मिल सकती है। इसे वह बच्चों को नहीं बेचते पर वाईन खरीदना, सब्जी या डबलरोटी खरीदने से भिन्न नहीं है। हर रेस्टोरैंट में, ढाबे में, सड़क के किनारे, लोग वाईन या बियर खरीद या पी सकते हैं, जहाँ लोग एक या दो गिलासों से ऊपर कम ही जाते हैं।

यहाँ पर ज्यादा पीने वालों में और नशे में धुत होने वालों में अधिकतर गरीब लोग, विषेशकर प्रवासी अधिक होते हैं। यह लोग अधिकतर अँधेरा होने के बाद बागों के कोनों में या बैंचों पर बैठे मिलते हैं।

जबकि भारत के मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग के घरों में विह्स्की जैसी अधिक नशे वाली शराब अधिक पी जाती हैं। वहाँ लोग खाने से पहले पीते हैं और कई पैग पीते हैं जिनमें व्हिस्की में पानी या सोडा मिलाते हैं। और वहाँ पीने का मतलब है कि पक्का नशा चढ़ना चाहिये। आधा या एक गिलास केवल आनन्द के लिए पीना जिससे नशा नहीं हो, यह भारत में कम होता है। भारत में लोग बियर भी पीते हैं तो कई बोतलें पी जाते हैं क्योंकि लोग सोचते हैं कि शराब पी और पूरा नशा नहीं हो तो क्या फायदा।

अंत में


मेरे विचार में इटली व फ्राँस में दो या तीन हज़ार सालों से वाईन पीने की परम्परा की वजह से यहाँ के लोग उसे जीवन का हिस्सा समझते हैं, अधिकाँश लोग पीते हैं लेकिन सीमित मात्रा में पीने को सामाजिक मान्यता मिली है। यहाँ शराब पीना आम है, नशे में धुत होने वाले कम हैं।



जबकि भारत की व्हिस्की की परम्परा अंग्रेज़ों से आयी है, उनकी संस्कृति प्रोटेस्टैंट ईसाई धर्म से प्रभावित है जिसमें शराब या वाईन पीने को पाप या बुरा काम माना गया है और इसे सामाजिक व पारिवारिक मान्यता नहीं मिली है, बल्कि यह छुप कर करने वाली चीज़ है। वहाँ वाईन और शराब सामान्य जीवन के अंग की तरह नहीं है और वहाँ का समाज इन्हें गंदी बातों की तरह से देखता है। शायद इसी लिए शुक्रवार और शनिवार की रात को लँडन में पबों तथा नाईटकल्बों के बाहर नशे में धुत, जिस तरह के उल्टियाँ करते हुए नवयुवक व नवयुवतियाँ दिखते हैं, वैसे इटली में कभी नहीं देखे। हालाँकि इटली के नाईटक्लबों में अन्य तरह के नशे करने वाले लोग लँडन जितने ही होंगे।

मुझे मालूम है कि पिछले दशकों में महाराष्ट्र तथा कर्णाटक में लोगों ने अंगूरों की खेती तथा वाईन बनाना शुरु किया है। भारत की वाईन पीने की संस्कृति कैसी है? भारत के ग्रामीण समाजों में या आदिवासी समाजों में जो स्थानीय शराबें बनायी जाती हैं, उनके साथ जुड़ी संस्कृति कैसी है और वह इटली या फ्राँस की वाईन संस्कृति से किस तरह से भिन्न है?

सोमवार, जुलाई 18, 2022

पानी रे पानी


ब्रह्माँड में जीवन तथा प्रकृति का किस तरह से विकास होता है और कैसे वह समय के साथ बदलते रहते हैं इसे डारविन की इवोल्यूशन की अवधारणा के माध्यम से समझ सकते हैं। इसके अनुसार दुनिया भर में कोई ऐसा मानव समूह नहीं है जिसे हरियाली तथा जल को देखना अच्छा नहीं लगता, क्योंकि जहाँ यह दोनों मिलते हैं वहाँ मानव जीवन को बढ़ने का मौका मिलता है।

शाम को जब मैं सैर के लिए निकलता हूँ तो मैं भी वही रास्ते चुनता हूँ जहाँ हरियाली और जल देखने को मिलें। आज आप दुनिया में कहीं भी रहें, अपने आसपास के बदलते हुए पर्यावरण से अनभिज्ञ नहीं रह सकते। इस बदलाव में बढ़ते तापमानों और जल से जुड़ी चिंताओं का विषेश स्थान है।


ऊपर वाली तस्वीर का सावन के जल से भरा हुआ तालाब भारत के छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से है।

नदी, नहर और खेती

उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारा छोटा सा शहर पहाड़ों से घिरा है और इसकी घाटी का नाम है ल्योग्रा। हमारे घर के पीछे, इस घाटी की प्रमुख नदी बहती है जिसका नाम भी ल्योग्रा ही है। इसे बरसाती नदी कहते हैं, क्योंकि अगर दो-तीन महीने बारिश नहीं हो तो इसमें पानी कम हो जाता है या बिल्कुल सूख जाता है। 

ल्योग्रा नदी के किनारे पेड़ों के नीचे बनी एक पगडँडी मेरी शाम की सैर करने की सबसे प्रिय जगह है। पहाड़ों से नीचे आती नदी पत्थरों से टकराती है और बीच-बीच में झरनों पर छलाँगे लगाती है, इसलिए किनारे पर चलते समय, नदी का गायन चलता रहता है, कभी द्रुत में, तो कभी मध्यम में।

इस साल पहली बार हुआ है कि हमारी नदी पिछले छह-सात महीनों से सूखी है। सर्दियों में बारिश कम हुई, जनवरी से मार्च के बीच में बिल्कुल नहीं हुई। उसके बाद, हर दस-पंद्रह दिनों में छिटपुट बारिश होती रही है, पर केवल दो-तीन बार ही खुल कर पानी बरसा है। जब बारिश आती है उस समय नदी में पानी आता है, जब रुकती है तो दो-तीन घँटों में वह पानी बह जाता है या सूख जाता है। नीचे की तस्वीर कुछ दिन पहले आयी बारिश के बाद की है जिसे मैंने अपनी शाम की सैर के दौरान खींचा था।



शहर में घुसने से पहले इस नदी से एक नहर निकलती है। जब बिजली नहीं थी, यहाँ की लकड़ी और आटे की मिलें, ऊन और कपड़े बुनने की फैक्टरियाँ सब कुछ इसी नहर के पानी से चलती थीं। आजकल नहर के पानी का अधिकतर उपयोग यहाँ के आसपास के किसान करते हैं।

घाटी के आसपास के पहाड़ों से छोटे नाले पानी को नदी की ओर लाते हैं। हर नाले पर छोटे छोटे बँद बने हैं, जिसमें लोहे के दरवाज़े हैं, जिन्हें नीचे कर दो तो वह पानी का बहाव रोक लेते हैं। पिछले महीनों की बारिशों से जो पानी आया है उसे नालों पर बने बँदों की सहायता से जमा किया जाता है, ताकि नहर से किसानों को खेती के लिए पानी मिलता रहे।

इटली के कई हिस्सों में इस साल बारिश कम होने से किसानों को बहुत नुक्सान हुआ है। बहुत सी जगहों पर पहले तो महीनों बारिश नहीं आयी, फ़िर अचानक एक दिन ऐसी बारिश आयी मानों कोई आकाश से बाल्टियाँ उड़ेल रहा हो, या साथ में मोटे ओले गिरे, तो जो बची खुची फसलें थी वह भी नष्ट हो गयीं।

मौसम बदल रहे हैं, यहाँ पहाड़ों के बीच भी गर्मी आने लगी है। आज से दस-बारह साल पहले तक यहाँ घरों में पँखे नहीं होते थे, अब कुछ घरों में एयरकन्डीशनर भी लग गये हैं। सबको डर है कि अगले दशक में यह सूखे और ऊँचे तापमान और भी बढ़ेंगे, स्थिति बिगड़ेगी।

प्रकृति का चक्र

शाम को जब सैर के लिए निकलता हूँ तो सूखी हुई नदी को देख कर दिल में धक्का सा लगता है। सोचता हूँ कि मछलियों के अलावा जो बतखें, सारस और अन्य पक्षी यहाँ नदी में रहते थे, वह कहाँ गये होंगे। अंत में सोचा कि अब इसकी जगह सैर की कोई अन्य जगह खोजी जाये।

इस तरह से इस साल, सूखे के बहाने, मैंने आसपास की बहुत सी नयी जगहें देखीं। इन नयी जगहों को देख कर समझ में आया कि मानव धरती के भूगोल को बदल रहा है, लेकिन प्रकृति धैर्य से वहीं ताक में बैठी रहती है और जैसे ही मानव विकास नयी ओर मुड़ता है, प्रकृति उस बदले भूगोल को फ़िर से दबोच कर अपने दामन में छुपा लेती है। कुछ दिन पहले ऐसा ही एक अनुभव हुआ।

नदी के दूसरी ओर के सबसे ऊँचे पहाड़ का नाम है मग्रे, जो कि करीब सात सौ मीटर ऊँचा है। उसकी चोटी हमारे यहाँ से करीब पाँच किलोमीटर दूर है, लेकिन इतनी चढ़ाई करना मेरे बस की बात नहीं, मैं आसपास की छोटी पहाड़ियों की ही सैर करने जाता हूँ।

कुछ दिन पहले मैं सैर को निकला तो बहुत सुंदर रास्ता था। कहीं खेतों में सूरजमुखी के बड़े बड़े फ़ूल लगे थे तो कहीं खेतों में किसानों ने सर्दियों में जानवरों को चारा देने के लिए भूसे को गोलाकार गट्ठों में बाँधा था। बीच में एक पहाड़ी नाला था जिसमें आसपास की पहाड़ियों से छोटी छोटी जल धाराएँ आ कर मिल जाती थीं, जिन पर बँद बने थे, पूरे इलाके में पानी को सँभाल कर नियमित किया गया था।

एक जगह बँद को देख रहा था तो अचानक एक सज्जन आ गये, मुझसे पूछा कि क्या देख रहा था, तो मैंने बँद की ओर इशारा किया और पूछा कि उसकी देखभाल कौन करता था। वह हँसे, बोले कि, "हम लोग, यहाँ के किसान, इन सभी नालों, नालियों की देखभाल करते हैं। पत्ते जमा हो रहे हों तो उनको साफ़ कर देते हैं, कही से नाली की दीवार टूट रही हो तो उसे ठीक करते हैं। इस पानी से हमारी खेती होती है, यह पानी नहीं हो तो हम भी नहीं रहेंगे।"

नीचे की तस्वीर में पहाड़ी नाले पर बना वही बंद है जहाँ मेरी उस व्यक्ति से मुलाकात हुई थी।



उन्होंने बताया कि वह सड़क कभी वहाँ की प्रमुख सड़क होती थी, बोले, "जब वह बड़ी वाली नयी सड़क नहीं बनी थी, तब ऊपर पहाड़ पर जाने वाले ट्रक, बसें, सब कुछ यहीं से जाता था। यह पानी, यह नाले, सब कुछ खत्म हो गये थे। फ़िर जब वह नयी सड़क बनी तो लोगों ने इधर आना बंद कर दिया, अब यह जगह फ़िर से शांत और सुंदर बन गयी है, हमारे खेत, खलिहान, नाले, पेड़, सब को नया जीवन मिला है।"

कान्हा के भिक्षुकों का जल

मुम्बई में पूर्वी बोरिविली लोकल ट्रेन स्टेशन के पास संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान है जिसके बीच में दो हज़ार साल पुरानी कन्हेरी की बौद्ध गुफ़ायें हैं, जोकि काली बाज़ाल्टिक चट्टानों में बनी हैं। "कन्हेरी" नाम उन्हीं काली चट्टानों की वजह से हैं। प्रणय लाल की अंग्रेज़ी पुस्तक "इन्डिका" में इन चट्टानों के बनने के बारे बहुत अच्छी तरह से बताया गया है।

ईसा से दो सौ या तीन सौ साल पहले पूरे भारत में इस तरह की बौद्ध गुफ़ाएँ विभिन्न स्थानों पर बनायी गयीं। औरंगाबाद के पास में अजँता की गुफ़ाएँ तो सारे विश्व में प्रसिद्ध हैं। यह गुफ़ाएँ बौद्ध भिक्षुओं के विहार थे, जहाँ चट्टानों में उनके रहने, प्रार्थना व पूजा करने, सभा करने, खाने, आदि सब जीवनकार्यों के लिए छोटे और बड़े कमरे बनाये गये थे। उसके साथ ही यह गुफ़ाएँ यात्रियों के रहने की सराय का काम भी करती थीं और भारत का व्यवसायिक जाल इन गुफ़ाओं से जुड़ा था।

यानि उन बोद्ध भिक्षुओं को चट्टानों के कठोर पत्थरों को कैसे काटा और तराशा जाये, इस सब की तकनीकी जानकारी थी। इन्हीं तकनीकों से एलौरा की गुफ़ाओं में एक महाकाय चट्टान के पहाड़ को काट कर पूरा कैलाश मन्दिर बनाया गया था। इन्हीं तकनीकों से दक्षिण भारत में भी बादामी तथा महाबलीपुरम के मन्दिर बनाये गये थे।

कान्हा की गुफ़ाओं में चट्टानें पहाड़ियों के ऊपर ऊँचाई में बनी हैं जबकि पानी नीचे घाटी में मिलता है जहाँ विभिन्न जल धाराएँ और नाले बहते हैं। उन गुफ़ाओं और चट्टानों में भी भिक्षुकों नें जल की एक-एक बूँद को इक्ट्ठा करने के लिए प्रयोजन किया था, जो दो हज़ार के बाद आज भी बढ़िया काम कर रहे हैं।

चट्टानों के ऊपर हर ढलान पर नालियाँ काटी गयीं थीं जिनमें बरसात का पानी इक्ट्ठा हो कर चट्टानों में बने जलाशयों में जमा होता था। नीचे की तस्वीर में कान्हा की चट्टानों में बनी गुफ़ाएँ हैं, ध्यान से देखेंगे तो हर सतह पर पानी जमा करने के लिए बनी हुई संकरी नालियों का जाल दिखाई देगा।



अगर आप मुम्बई जाते हैं तो कान्हा की गुफ़ाओं को अवश्य देखने जाईये, बहुत सुंदर जगह है, और वहाँ चट्टानों में काट कर बनी नालियों के जाल को भी अवश्य देखियेगा कि कैसे प्राचीन भारत ने जल संचय की तकनीकी का विकास किया था।

खरे हैं तालाब

अनुपम मिश्र की किताब "आज भी खरे हैं तालाब" हमारे गाँवों के ताल-तालाबों-बावड़ियों की बातें करती है, जोकि एक ज़माने में हर गाँव के जीवन का अभिन्न हिस्सा होते थे और जिनकी पूरी व्यवस्था तथा तकनीकी ज्ञान व कौशल पिछली दो सदियों में धीरे धीरे खोते गये हैं। इस किताब में मिश्र जी ने लिखा हैः

सैंकड़ों, हज़ारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिल कर सैकड़ों, हज़ार बनाती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गये समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया। ...

पाँचवीं सदी से पंद्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आये थे। कोई एक हज़ार वर्ष तक अबाध चलती हुई इस परम्परा में पद्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएँ आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से नहीं रुक पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लम्बे समय तक इतने व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से नहीं मिटा सका। अठाहरवीं तथा उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह जगह तालाब बन रहे थे। ...

देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैसे राजस्थान और उसमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हज़ारों गावों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते हैं। गावों के नाम के साथ ही जुड़ा है "सर"। सर यानि तालाब। सर नहीं तो गाँव कहां? ... एक समय की दिल्ली में करीब ३५० छोटे-बड़े तालाबों का ज़िक्र मिलता है। ...

आखिरी बार डुगडुगी पिट रही है। काम तो पूरा हो गया है पर आज फ़िर सभी लोग इकट्ठे होंगे, तालाब की पाल पर। अनपूछी ग्यारस को जो संकल्प लिया था, वह आज पूरा हुआ है। बस आगौर में स्तंभ लगना और पाल पर घटोइया देवता की प्राण प्रतिष्ठा होना बाकी है। आगर के स्तम्भ पर गणेश जी बिराजे हैं और नीचे हें सर्पराज। घटोइया बाबा घाट पर बैठ कर पूरे तालाब की रक्षा करेंगे। ...

आज जो अनाम हो गए, उनका एक समय में बड़ा नाम था। पूरे देश में तालाब बनते थे और बनाने वाले भी पूरे देश में थे। कहीं यह विद्या जाति के विद्यालय में सिखाई जाती थी तो कहीं यह जात से हट कर एक विषेश पांत भी बन जाती थी। बनाने वाले लोग कहीं एक जगह बसे मिलते थे तो कहीं ये घूम घूम कर इस काम को करते थे। ...

अनुपम मिश्र जी इस किताब में तालाबों, बावड़ियों के बारे में जो विवरण हैं, वह उस खोये हुए समय का क्रंदन है जिसे संजोरने और सम्भालने की हममे क्षमता नहीं थी। ट्यूबवैल और हैंडपम्प लगा कर धरती के गर्भ में छुपे जल को मशीन से बाहर निकालने की आसानी ने उस ज्ञान और कौशल को बेमानी बना दिया। अब जब मानसून और बारिशें अपने रास्ते भूल रहे हैं, जब धरती के गर्भ में छुपे जल का स्तर घटता जा रहा है, तो लोग बारिश का पानी कैसे बचाया जाये, इसकी बातें करते हैं। लेकिन उन तालाबों से जुड़े संसार को क्या हम लोग समय पर सहेज पायेंगे?

इस आलेख की अंतिम तस्वीर में छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से एक तालाब का पुराना मंदिर है। आप बताईये क्या यह तालाब और मंदिर हम भविष्य के लिए समय रहते बचा पायेंगे या नहीं?



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पानी और तालाबों पर गीत

इस आलेख को पढ़ कर, हमारे शहर से करीब बीस किलोमीटर दूर रहने वाली श्यामा जी ने, जो वेनिस विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग से जुड़ी हैं, फेसबुक पर अपनी टिप्पणी में मनोज कुमार की "शोर" फ़िल्म से "पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा" गीत को याद कराया, तो मन में प्रश्न उठा कि इस विषय पर, यानि पानी, जल और तालाब के विषय पर, और कौन कौन से प्रसिद्ध गीत हैं?

सबसे पहले तो कुछ-कुछ ऐसे ही अर्थ वाला "विक्की डोनर" से आयुष्मान खुराना का "पाणी दा रंग वेख के" याद आया। फ़िर एक अन्य पुरानी फ़िल्म से "ओह रे ताल मिले नदी के जल से" याद आया जिसे पर्दे पर संजीव कुमार ने गाया था। एक अन्य पुरानी फ़िल्म याद आयी, ख्वाजा अहमद अब्बास की "दो बूँद पानी" लेकिन गीत याद नहीं आया।

क्या आप को इस तरह का कोई अन्य गीत याद है? बस मेरी एक बिनती है कि अपनी याद वाला गीत बताईयेगा, गूगल करके खोजा हुआ नहीं।


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