शनिवार, दिसंबर 02, 2006

एक नयी बीमारी

इस बार बात यौन विषय से सम्बंधित है इसलिए सोच समझ कर ही पढ़ियेगा.

जब भी किसी नयी बीमारी की बात सुनने को मिलती है तो मन में पहला विचार आता है कि दवा बनाने वाली कम्पनियों ने पैसे कमाने के लिए कुछ और नया सोचा होगा! नई दवाओं की खोज में बहुत से आदर्शवादी वैज्ञानिक सारा जीवन लगा देते हैं पर वह मुश्किल से करोड़पति बनते हैं, पैसे कमाती हैं दवा बनाने वाली अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ. अगर आप को शेयर बाज़ार की जानकारी हो तो अवश्य जानते होंगे कि हथियार बेचने वाली कम्पनियों की तरह, दवाईयाँ बेचने वाली कम्पनियों के शेयर खूब फायदा देते हैं.

जब यह मालूम पड़े कि नयी बीमारी यौन विषय से सम्बंधित है तो शक और भी बढ़ जाते हैं. जिस बीमारी का इलाज करने के लिए वियाग्रा की गोली बनाई गयी, वह बीमारी हमारे जमाने में चिकित्सा शात्र की पढ़ाई में होती ही नहीं थी. दवा बेचने वालों का पहला काम होता है कि पहले आप को यकीन कराया जाये कि आप को कुछ बीमारी है, उसके बाद उस बीमारी का उपचार भी बाज़ार में मिल जायेगा. वियाग्रा की बिक्री इतनी हुई कि बनाने वाली कम्पनियों ने करोड़ों बटोरे. पिछले वर्ष सुना था कि वे कम्पनियाँ परेशान हैं कि वियाग्रा की गोली केवल पुरुषों के काम आती है, और सोच रही हैं कि कैसे ऐसी बीमारी औरतों के लिए भी बनाई जाये, ताकि उसके लिए भी गोली बेची जा सके.

खैर आज जिस नयी बीमारी की बात कर रहा हूँ वह यौन विषय से ही सम्बंधित है और उसका समाचार अँग्रेजी की प्रतीष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका न्यू साईंटिस्ट (New Scientist) पर निकला है. यह बीमारी कुछ कुछ नींद में चलने की बीमारी से मिलती जुलती है. इसका नाम रखा गया है सेक्सोमनिया, यानि सोते सोते नींद में अपने साथ सोये साथी के साथ यौन सम्पर्क बनाना. जब व्यक्ति जागता है तो उसे मालूम नहीं चलता कि उसने नींद में क्या किया.

केनेडा में पश्चिमी टोरोंटो में एक शौधकर्ता निक त्राजनोविच ने पिछले वर्ष एक सर्वे किया और उनका कहना है कि यह बीमारी बहुत फैली हुई है पर लोग शर्म के मारे इसके बारे में बात नहीं करना चाहते. एक महिला को यह तब मालूम चला कि उसके पति को यह बीमारी है जब उसने देखा कि बीच रात में यौन सम्बंध करने वाला उसका पति, साथ साथ खुर्राटे लेता रहता था. इस बीमारी का शिकार पुरुष और स्त्रियाँ दोनो ही होती हैं.

न्यू हेम्पशायर के मनोवैज्ञानिक माईकल मनगन नें इस विषय पर शौध और बीमारी से ग्रस्त लोगों को सहारा देने के लिए एक अंतर्जाल पृष्ठ बनाया है स्लीपसेक्स डाट ओरग, दूसरी ओर कुछ लोग जिन पर बलात्कार और स्त्रियों से जबरदस्ती यौन सम्बंध बनाने की कोशिश करने का आरोप था, उन्होंने कहा कि दरअसल यह उन्होंने जानबूझ कर नहीं किया, यह तो उनकी सेक्ससोमनिया बीमारी का नतीजा है.

आप ही बताई कि कहाँ तक इसमे सच है? साथ साथ ही सोच रहा था कि हमारे आयुर्वेद के प्राचीन ग्रँथों में क्या इस बीमारी का वर्णन है?

बुधवार, नवंबर 29, 2006

आलोचना का अधिकार

फ़्योरेल्लो इटली के बहुत लोकप्रिय कलाकार हैं जिन्हें किसी एक श्रेणी में बाँधना कठिन है. गाना गाने, अभिनय करने, नृत्य करने, दूसरों की नकल उतारने, हँसने हँसाने, सबमें वह माहिर हैं. वह टेलीविजन पर कम ही आते हैं और पिछले दो सालों से प्रतिदिन रेडियो पर एक कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं, पर जब भी वह टेलीविजन पर आते हैं, वह कार्यक्रम सफ़ल हो जाता है.



कुछ दिन पहले फ़्योरेल्लो ने टेलीविजन पर एक कार्यक्रम में पोप बेनेदेत्तो की नकल उतारी. अगले दिन वेटिकेन के समाचारपत्र ने और स्वयं पोप के प्रेस सम्पर्क अधिकारी ने इसकी आलोचना की, कि फ़योरेल्लो को पोप, जो कि कैथोलिक धर्म के सबसे उच्च पादरी हैं, उनके बारे में इस तरह की घटिया बातें नहीं करनी चाहिए थीं. एक सप्ताह बाद फ़्योरेल्लो दोबारा टेलीविजन पर आये और इस बार वेटीकेन द्वारा की गयी आलोचना की नकल करके उसका मजाक उड़ाया. वेटीकेन की तरफ़ से इस बार आलोचना और भी कड़ी हुई.

इस घटना पर यहाँ की पत्रिका "इंतरनात्सोनाले" ने सम्पादकीय लिखा है जो मुझे विचारनीय लगा. ज्योवान्नी दे माउरो, इस पत्रिका के सम्पादक लिखते हैं, "इस बात पर चिंता होती है कि यह प्रवृति बढ़ती जा रही है कि किसी भी बात पर मतभेद हो तो चर्च अपना दृष्टिकोण हर हाल में जबदस्ती मनवाना चाहता है, बिना यह सोचे की लोगों को सोचने की स्वतंत्रता है और विभिन्न विचार रख कर भी हम शाँति से साथ रह सकते हैं. अगर आप को वह नकल नहीं अच्छी लगी, तो चैनल बदल लीजिये, या फ़िर टीवी बंद करके कोई किताब पढ़िये. यह जिद करना कि उसे कोई भी न देखे, यह कहाँ तक ठीक है?"

कुछ ऐसा ही झगड़ा इन्ही दिनों में एक अन्य इतालवी टीवी फ़िल्म के बारे में हुआ है जिसमें एक इतालवी लेसबियन युवती अपनी स्पेनिश प्रेमिका से स्पेन में विवाह करती है, क्योंकि स्पेन में अब यह नया कानून है जो समलैंगिक युगलों को विवाह की अनुमति देता है. इस बात पर कुछ दिनों तक समाचार पत्रों पर बहुत बहस हुई कि इस तरह का कार्यक्रम शाम को ऐसे समय नहीं दिखाया जाना चाहिये था जब बच्चे भी टेलीविजन देखते हैं या फ़िर, ऐसी फ़िल्में क्या सरकारी चैनल पर दिखाई जानी चाहिये जो कि देश की संस्कृति के विरुद्ध हैं?

मुझे लगा कि यह बहस बेकार की थी. यहाँ टीवी पर शाम को "केवल व्यस्कों के लिए" वाली फ़िल्में आम दिखाई जाती हैं, बस कोने में लाल बिंदू लगा दिया जाता है ताकि माता पिता को मालूम रहे कि यह फ़िल्म उन्हें छोटे बच्चों को नहीं दिखानी चाहिए. अगर नग्नता, सेक्स और हिंसा के दृष्यों को दिखाया जा सकता है तो दो लेसबियन युवतियों के प्यार को दिखाने में क्या परेशानी है? बहस इस लिए भी बेकार लगी क्योंकि लेसबियन युवतियों के बारे में इस फ़िल्म में सेक्स या चुम्बन जैसी कोई बात नहीं थी, फ़िल्म की कथा थी कि कैसे उनमें से एक युवती अपने पिता को बताये कि वह शादी करने वाली है और किससे शादी करने वाली है, यानि परिवारिक कथा थी.

भारत में इस तरह के विषयों पर कुछ भी बात करना कितना कठिन है और किसी भी धर्म या जाति के लोगों को तोड़ फोड़ करके, डराना धमका कर किताब या कला या फ़िल्म पर रोक लगवाना कितना आम हो रहा है, और पुलिस या कानून कुछ नहीं करते, चुपचाप तमाशा देखते हैं! साथ साथ, बात साँस्कृतिक भेदों की भी है. भारतीय सभ्यता में अपने से बड़ों के बारे में, संत माने जाने वाले लोगों के बारे में, सत्ता में होने वाले राजनीतिक नेताओं के बारे में, धार्मिक नेताओं के बारे में, इत्यादि बहुत से ऐसे सामाजिक बँधन से बने हुए हैं जिनके बारे में आम व्यक्तियों की तरह से बात कर पाना बहुत कठिन है. मुझे इतालवी सभ्यता की यह बात कि कोई कितना ही बड़ा क्यों न हो, या कितना भी जाना पहचाना नेता या धर्मगुरु हो, उसके बारे में भी बात करना या किसी विषेश बात की आलोचना करना अपराध न माना जाये. हाँ, इस वैचारिक स्वाधीनता का यह अर्थ नहीं हो सकता कि किसी के व्यक्तिगत जीवन के प्रश्न उछाले जायें या फ़िर हिंसा और नफ़रत के लिए भड़काया जाये.

रविवार, नवंबर 26, 2006

सोचने वाले विज्ञापन?

इतालवी कम्पनी बेनेटोन ने ओलिवियेरो तोसकानी तथा डेविड सिम जैसे फोटोग्राफर और नये तरीके से विज्ञापनों को बनाने के लिए प्रसिद्धि पाई है, जिसकी वजह से उनके बहुत सारे विज्ञापन आज आप आधुनिक कला सँग्रहालयों में देख सकते हैं. जर्मनी में फ्रैंकफर्ट के आधुनिक कला सँग्रहालय ने तो एक पूरा हाल ही इन विज्ञापनों को दिया है.

इनमें से बहुत से विज्ञापनों का मुख्य ध्येय जनता को चौंका कर धक्का देना लगता है और इसके लिए इटली में उनकी बहुत आलोचना भी हुई है. यह भी सच है कि इनमें से बहुत से कुछ विज्ञापन इटली या यूरोप के बाहर कोई अन्य देश आम जनता के लिए प्रयोग नहीं करने देता, क्योंकि वहाँ लोग जल्दी भड़क उठते हैं.

जैसे कि कुछ वर्ष पहले के एक विज्ञापन में एक कैथोलिक पादरी एक नन (साध्वी) को चूम रहा है. चूँकि कैथोलिक धर्म के अनुसार पादरी और नन को ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है, इस विज्ञापन को धर्म विरोधी माना गया और बहुत आलोचना हुई और कुछ ही दिनों में इसे हटा दिया गया. पर कोई दँगे फसाद या मार काट नहीं हुई. अगर इस तरह का विज्ञापन कोई हिंदू या इस्लाम या किसी अन्य धर्म के लिए बनाता तो आप सोच सकते हैं कि उसका क्या असर होता?





पर बेनेटोन का कहना है कि सामाजिक समस्याओं को छुपाने से समाज में बदलाव नहीं आता और उनका ध्येय है कि विज्ञापनों के माध्यम से वे समाज का ध्यान बदलते युग की बदलती समस्याओं की ओर खींचें. अपने कपड़ों और फैशन का विज्ञापन करने के साथ साथ उनकी तस्वीरें माफिया का शिकार व्यक्ति, विकलाँग युवक का अकेलापन,एडस से मरणहीन युवक, समलैंगिक युगल, रँगभेद, जैसी समस्याओं पर भी सोचने को मजबूर करती हैं.

बेनेटोन की चालिसवीं वर्षगाँठ पर उनके विज्ञापनों की एक प्रदर्शनी आयोजित की गयी है, उन्हीं विज्ञापनों में से कुछ नमूने यहाँ प्रस्तुत हैं.




























अगर आप चाहें तो यह पूरी प्रदर्शनी अंतर्जाल पर बेनेटोन के पृष्ठ पर देख सकते हैं.

शुक्रवार, नवंबर 17, 2006

अचानक

गुयाना से वापस आ कर थकान हो गयी थी, पर वैसे सब कुछ ठीक था. उस दिन सुबह साईकल पर दूर तक पहाड़ी पर सैर करने गया. फ़िर दोपहर को सोया और शाम को परिवार के साथ बाहर खाना भी खाया और फ़िर पार्क में सैर भी की. अचानक रात को दर्द से नींद खुली, दाहिने कूल्हे में पीड़ा हो रही थी और करवट बदलने में तकलीफ़ होती थी. सुबह होते होते बुरा हाल था. बिस्तर से ठीक से उठा नहीं जाता, न ही कुर्सी पर बैठा जाता. थोड़ी सी हैरानी हुई कि रात तक तो सब ठीक था अचानक कैसे, क्या हो गया. खैर दवा खाई, सोचा अनजाने में कुछ चोट या धक्का लग गया हो जिस पर उस समय बातों में खोये होने से ध्यान न किया हो. दूसरी रात तो और भी कठिन बीती, दर्द घटने के बजाय बढ़ गया था.

मन में विचार आया फ्राँचेस्को का. हम दोनो इकट्ठे दक्षिण भारत में वैलूर के पास कारीगिरी में एक कोर्स में मिले थे और जल्दी ही दोस्ती हो गयी थी. कुछ वर्षों के बाद उससे अफ्रीका में गिनिया बिसाऊ में मुलाकात हुई जहाँ वह अस्पताल में काम करता था और मैं विश्व स्वास्थ्य संस्थान के लिए एक काम से वहाँ गया था. वह मुझे होटल से अपने घर ले गया, बोला मेरे साथ ही रहो. दक्षिण इटली का रहने वाला था और प्यार हुआ आल्बा से जो बोलोनिया की रहने वाली थी, अफ्रीका से लौटा तो कुछ दिन दोनो बोलोनिया रहे. तब बीच में कभी कभी मिलते रहते थे. फ़िर वे दोनो उत्तरी इटली में आउस्ट्रिया के पास एक अस्पताल में काम करने चले गये तो मिलना कम हो गया. दो साल पहले अचानक सुना कि फ्राँचेस्को की हालत बहुत खराब है, हड्डी का कैंसर हुआ है तो दिल धक्क से रह गया. मैं उससे मिलने गया तो उसका चेहरा देख कर समझ नहीं पाया कि क्या कहूँ. बड़ा बेटा नौ साल का छोटी बेटी दो साल की. छः महीने बाद मृत्यु हो गयी.

जब मन में फ्राँचेस्को का विचार आया तो बची खुची नींद भी गयी और दर्द भी बढ़ गया. कुछ कुछ याद था कि उसका कैंसर कुछ इसी तरह दर्द के साथ प्रकट हुआ था. सुबह सुबह अँधेरे में अस्पताल के एमरजैंसी विभाग में जा कर दिखाने का फैसला किया. जब तक एक्सरे वगैरा होते तीन घँटे बीते और उन तीन घँटों में बहुत सी बातें मन में आईं. जाने पोते या पोती का मुख देखने को मिलगा मरने से पहले? अगले सप्ताह एक जगह रोम में बोलने जाना है और दूसरी जगह फ्लोरैंस में, वहाँ कौन जायेगा? दिसंबर में जो भारत में प्राकृतिक चिकित्सा की अंतर्राष्ट्रीय सभा आयोजित कर रहा हूँ, उसे कौन सँभालेगा? जो उपन्यास लिखने का सपना था वह अधूरा रह जायेगा?

रोज की भागादौड़ी में यह तो कभी याद ही नहीं आता कि अचानक एक दिन सब कुछ समाप्त भी हो सकता है. लगता है कि अभी तो बहुत जीवन बाकी है, बहुत कुछ करना है.

जब एक्सरे की रिपोर्ट आई तो देखा कि हड्डी तो ठीक ही दिख रही थी, यानि कि फ्राँचेस्को को जो कैंसर हुआ था, वह तो नहीं दिख रहा था. फ़िर एमरजैंसी के डाक्टर से बात हुई. वह बोला कि कुछ माँसपेशियों की मोच सी लगती है. नहीं, न ही मुझे कोई मोच आई है और न ही कोई चोट लगी है, अवश्य इसमें कोई अन्य वजह है, मैंने कहा, आप अल्ट्रासाऊँड या कुछ और टेस्ट नहीं कर सकते? मुस्कुराने लगा डाक्टर, बोला पाँच दिन तक दवा ले कर देखिये, अगर न ठीक हो तो बाकी टेस्ट भी करवा लेंगे.

दो दिनों में दर्द बहुत कम हो गया है. अब दोबारा अस्पताल में लौट कर जाने और अन्य टेस्ट करवाने का विचार छोड़ दिया है. हाँ, मृत्यु के करीब होने के बारे में जो सोचा था, वह अभी भी मन को कटोचता है. समय बेकार की बातों में नहीं बिताना, जाने कब अचानक सब कुछ अधूरा छोड़ कर जाना पड़ेगा! पर फ़िर मालूम है कि थोड़े से ही दिनों में यह सब बातें भूल जाऊँगा, और वापस रोज रोज की भागदौड़ में यह याद रखने की फुरसत ही नहीं होगी कि एक दिन मरना भी है.

गुरुवार, नवंबर 16, 2006

नदियों का देश

मैं यहाँ विकलाँग व्यक्तियों के लिए हो रहे समुदाय पर आधारित पुनर्स्थापन कायर्क्रम (community based rehabilitation programme) के सिलसिले में आया हूँ. गुयाना में यह मेरी चौथी या पाँचवी यात्रा है. पहले तो हर बार किसी न किसी के साथ आया था और देश बहुत घूमा था पर यहाँ के भूगोल को ठीक से नहीं समझ पाया था, सारा समय हमारी आपस की बातचीत में निकल जाता था. इस बार अकेला होने के कारण, सोचने और समझने का समय अधिक मिला है, इसलिए सड़कों, रास्तों, शहरों के भूगोल को समझना भी अधिक आसान है.

गुयाना का इतिहास भी अनोखा है. दो सौ साल पहले तक यह देश घने जँगलों से भरा था जिसमें यहाँ के आदिम लोग रहते थे, जिन्हें आजकल अमेरंडियन (american Indians) कहते हैं, कोलोम्बस की याद में जो दक्षिण अमरीका की तरफ़ भारत को खोजते आये थे. फ़िर यूरोप की उपनिवेशी ताकतों ने यहाँ अपना सम्राज्य बनाने की लड़ाईयाँ शुरु कर दीं, कभी फ्राँस वाले जीतते, कभी होलैंड वाले तो कभी अंग्रेज़. होलैंड वालों का यहाँ बहुत दिन तक राज रहा जिसके निशान आज भी यहाँ के लकड़ी के मकानों में, नहरों के जाल में, समुद्री दीवारों और शहरों के नामों में मिलते हैं. होलैंड की तरह ही यहाँ की भूमि का स्तर समुद्र के स्तर से नीचा है इसलिए वे लोग अपने देश की सभी तकनीकों को यहाँ पर लागू कर सके. खैर लड़ाईयों से बचने का उपनिवेशी ताकतों ने फैसला किया और देश को तीन हिस्सों में बाँट दिया, एक बना फ्राँससी गुयाना जो आज भी फ्राँस का हिस्सा माना जाता है, दूसरा बना डच गुयाना जिसे आज सूरीनाम के नाम से जानते हैं तीसरा बना अँग्रेज़ी गुयाना जहाँ मैं इन दिनों में आया हूँ.

यहाँ काम करने के लिए उपनिवेशी ताकतें पहले तो अफ्रीका से गुलाम ले कर आयीं, पर धीरे धीरे अफ्रीका से आये लोगों ने विद्रोह करना शुरु कर दिया और आदेश मानने से इन्कार करने लगे. तब गन्ने के खेतों में काम करने के लिए यहाँ भारत से लोग लाये गये. वैसे तो यहाँ भारत के उत्तर और दक्षिण दोनों ही हिस्सों के विभिन्न प्राँतों से लोग लाये गये पर उनमें पश्चिमी उत्तरप्रदेश और दक्षिणी बिहार के भोजपुरी बोलने वाले लोग सबसे अधिक थे. उन्हें पाँच साल के लिए लाया जाता था और कहा जाता था कि पाँच साल बाद उन्हें वापस भारत ले जाया जायेगा, कुछ वैसा ही था जैसा आज कल गल्फ के देशों में लोगों को काम के लिए ले जाया जाता है. यहाँ आने वाले अधिकतर लोग पुरुष थे जबकि महिलाओं को अधिक नहीं लाया गया था क्योकि उनसे खेतों में उतना काम नहीं ले सकते थे. 1838 में यहाँ भारत से पहला जहाज़ आया, और उसके बाद तो जहाजों की कड़ी ही लग गयी जो बीसवीं शताब्दी के पहले भाग तक चलता रहा. करीब दो लाख चालिस हजार भारतीय यहाँ लाये गये.

कहते हैं कि गुयाना शब्द किसी अमेरिंडियन भाषा से है और इसका अर्थ है नदियों का देश. सच में देश नदियों के जाल से घिरा है, पर उत्तर में अटलाँटिक महासागर की ओर आते आते उन छोटी नदियों से तीन प्रमुख नदियाँ बनती हैं - बरबीस, डेमेरारा और एसेकीबो. नदियों के इलावा सारे उत्तरी भाग में नहरों के जाल बिछा है जिनसे गन्ने के खेतों की ओर पानी ले जाया जाता था. बहुत सुंदर और मनोरम लगती हैं यह नहरें पर अगर सोचिये कि किन हालातों में अफ्रीकी और भारतीय गुलामों ने अपने खून पसीने से, बिना किसी मशीनों के धरती का सीना चीर कर इन्हें बनाया होगा तो मन कड़वा हो जाता है.

(गुयाना यात्रा की डायरी से - चाहें तो पूरी डायरी कल्पना पर पढ़ सकते हैं.)






रविवार, अक्तूबर 22, 2006

टिप्पणी चर्चा

कभी कभी मन में आता है कि टिप्पणियों ने क्या बिगाड़ा किसी का जो उनकी कहीं कोई पूछ नहीं है? रो धो कर चिट्ठा चर्चा के बाद अगर जगह बचे तो कभी कभी लिख देते हैं, "आज की टिप्पणी". यानि चिट्ठे में कुछ भी लिखिये, गरिमामय माना जायेगा और टिप्पणी में भगवद् गीता भी दीजिये तो लोग पूछेंगे नहीं.

यानि कि टिप्पणियाँ चिट्ठा जगत का अफ्रीका हैं, किसी कमज़ोर देवता के बच्चे हैं, समाज के हाशिये से बाहर निकाले विकलाँग हैं या फ़िर अनचाही भारतीय बेटियाँ हैं या देवदास की चँद्रमुखी हैं, जो किसी को उनकी भावना की परवाह ही नहीं है?

आज मेरी तरफ़ से बेचारी टिप्पणियों के शोषण के विरुद्ध उठाये आँदोलन में छोटा सा सहयोग, अपने चिट्ठे पर आई कुछ टिप्पणियों की प्रस्तुती से.

मेरे सबसे प्रिय टिप्पणी लिखने वाले हैं श्री सँजय बेंगाणी जी. उनकी टिप्पणियों में सरलता होती है पर खाली चिट्ठे को देख कर जब मायूसी हो रही हो हो तो उनकी टिप्पणियाँ मन को सहारा देती है. प्रस्तुत है उनकी एक सरल टिप्पणी, "शीर्षक से लगा आप किसी जंगल से सचमुच की नील गाय की तस्वीर उतार लाए हैं. हरी घास पर नीली गाय बहुत भली लग रही हैं. कम से कम यातायात को बाधित तो नहीं करती."

धाँसू डायलाग खोजने के मेरे निमंत्रण पर बहुत सी सुंदर टिप्पणियाँ मिली जैसे अमित का मुगलेआज़म फिल्म का डायलाग, "काँटों को मुरझाने का ख़ौफ़ नहीं होता" और अनुराग श्रीवास्तव का लिखना, "यह पता नही किस फ़िल्म का संवाद है लेकिन सोचने पर मजबूर करता है "हम एक लमहे में सारी ज़िंदगी जी लेते हैं।" पक्का गुलज़ार साहब का लिखा हुआ होगा।"

पर पिछले दिनों में मेरी सबसे प्रिय टिप्पणी मिली प्रियँकर से, 'मेघे ढाका तारा' फिल्म की समीक्षा वाले मेरे चिट्ठे के साथ, "ऋत्विक घटक बहुत बेचैन करने वाले फ़िल्मकार हैं. उनकी फ़िल्मों की पृष्ठभूमि में बार-बार ध्वनित होने वाला विस्थापन, मात्र भौतिक विस्थापन नहीं है . वह ऐसा विस्थापन है जो मन के भीतर भी भावनात्मक स्तर पर घटित हो रहा है . बस इसी जगह मुझे वे बहुत बेचैन करते हैं . पीड़ा से एकमेक एक ऐसा कलात्मक आनंद सृजित करते है ऋत्विक घटक कि हम स्तब्ध रह जाते हैं . इसकी तुलना सिर्फ़ बच्चे के जन्म के समय मां को होने वाली प्रसव पीड़ा और बच्चे के जन्म से उपजी चरम आनन्द और आह्लाद की मिलीजुली अनुभूति से ही की जा सकती है"

छूती है न मन को प्रियँकर की बात? अंत में बात बड़ा लम्बा लिखने या छोटा लिखने की नहीं, कभी कभी टिप्पणी के दो वाक्यों में भी मोती छुपे मिलते हैं.
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कल सुबह करीब दो सप्ताह के लिए दक्षिण अमरीका जाना है, वापस आने पर ही फ़िर मुलाकात होगी.

बुधवार, अक्तूबर 18, 2006

धाँसू डायलाग

चीन की राजधानी बेजिंग में एक कुष्ठ रोग का अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन था जहाँ मैं विषेश अतिथि के लिए निमंत्रित था और भाषण देना था. सोच रहा था कि नयी क्या बात कहूँ. वैसे तो भाषण पहले से लिख कर भिजवाया था पर मैं उससे संतुष्ट नहीं था. खैर भाषण का समय आया और लिखा हुआ भाषण देने के अंत में कुछ नया जोड़ कहने का विचार अचानक ही आया. बोला, "कुष्ठ रोग से हुई विकलांगता वाले लोग आसमान के तारों की तरह हैं, हैं पर दिन की रोशनी में किसी को दिखते नहीं और हमें इंतज़ार है उस रात के अँधेरे का जब हम भी दिखाई देंगे और कोई हमारे बारे में भी सोचेगा."

भाषण समाप्त हुआ तो बहुत तालियाँ बजीं. उन दिनों मैं एक बहुत बड़ी अंतर्राष्ट्रीय संस्था का अध्यक्ष था और जैसा ऐसे पद पर होने से होता है, बहुत लोग भँवरों की तरह आस पास मँडरा रहे थे. उनमें से अनेक लोगों ने भाषण की तारीफ की, पर उस तरह की तारीफ को एक कान से सुन कर दूसरे से निकल करना ही बेहतर होता है. मैं वह वाक्य कैसा लगा, यह सुनना चाहता था. कुछ समय बाद ब्राजील के एक मित्र ने कहा कि हाँ उसे भाषण के अंत में कही वह बात बहुत पसंद आयी तो बहुत अच्छा लगा. सम्मेलन के कुछ दिन बाद इंदोनेशिया की एक जान पहचान की डाक्टर ने मुझे ईमेल भेजा कि मैं उसे वह अंत में कहा गया वाक्य ठीक से लिख कर भेजूँ क्योंकि वह उसे भी बहुत अच्छा लगा था. यानि कि डायलाग में दम था.

यह तो मैं ही जानता था कि वह वाक्य कहाँ से आया था. मेरा नहीं था, चुराया हुआ था. वह वाक्य था हिंदी की फ़िल्म "ज़िंदगी ज़िदंगी" से जिसमें वहीदा रहमान ने सुनील दत्त से कहा था, "हम वो तारे हें जो दिन की रोशनी में दिखाई नहीं देते पर हम हैं, हम हैं!"

यह अभिप्राय है मेरा एक डायलाग को धाँसू डायलाग कहने का, वह वाक्य जिसका गहरा अर्थ हो और जो सोचने पर मजबूर करे. वैसे तो बहुत से फ़िल्मों के डायलाग होते हैं जो जनता को बहुत भाते हैं जैसे "दीवार" में शशि कपूर का कहना, "मेरे पास माँ है", या शोले में संजीव कुमार, अमजद खान और धरमेंद्र के कई डायलाग, जैसे "अब तेरा क्या होगा कालिया?", पर मुझे वह सही मायनो में धाँसू डायलाग नहीं लगते क्योंकि फ़िल्म के संदर्भ से बाहर उनका कोई विषेश अर्थ नहीं बनता.

क्या आप बता सकते हैं अपना कोई ऐसा प्रिय डायलाग जिसे भूल नहीं पाये या जिसका आप के लिए कोई विषेश अर्थ हो?

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