बुधवार, जुलाई 02, 2025

यौन दुराचरण और हमारी चुप्पियाँ

पिछले कुछ दिनों में फेसबुक पर साहित्यकारों से जुड़ी यौन दुराचरण की एक बहस चल रही है। मैं फेसबुक पर कम ही जाता हूँ और कोशिश करता हूँ कि नकारात्मक बातें न पढ़ू, फ़िर भी इस बहस के कुछ हिस्सों पर मेरी नज़र पड़ी। उस बहस में जिन व्यक्तियों की और जिस घटना की बात हो रही है, मैं दोनों से अपरिचित हूँ, इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं लिखना चाहता।

लेकिन इस बात से मुझे अपने कार्य-जीवन से जुड़ीं यौन दुराचरण की बातें याद आ गईं। यह आलेख मेरी उन यादों, अनुभवों, तथा विचारों के बारे में है।


आप क्या करेंगे?  

अगर आप को पता चले कि आप का मित्र या ऐसा व्यक्ति जिसे आप बहुत मानते हैं वह यौन-दुराचरण कर रहा है तो आप क्या करेंगे? यह बातें फ़िल्मों में देख कर या दैनिक या पत्रिका में पढ़ कर आसान लगती है, और हम सोचते हैं कि इसके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए। 

जैसे कि मीरा नायर की फ़िल्म "मॉनसून वेडिन्ग" में यह प्रश्न उठता है, जब पता चलता है कि परिवार का एक सम्मानित आदमी जिसने परिवार की कई अवसरों पर मदद की है, घर की बच्ची के साथ जबरदस्ती यौन सम्बंध करता था। उस फ़िल्म में परिवार के वरिष्ठ लोग उस आदमी को वहाँ से चले जाने के लिए कहते हैं। लेकिन फ़िल्मों के बाहर की दुनिया में क्या होता है? वहाँ अक्सर इस विषय पर चुप्पियाँ मिलती हैं, और लोग इस बारे में बात करने में असहज हो जाते हैं।

मेरे व्यक्तिगत अनुभव भी यही बताते है कि सामान्य जीवन में इस तरह के निर्णय लेना कभी-कभी बहुत कठिन हो सकता है। अगर आप को यौन विषय पर पढ़ने-सुनने से परेशानी होती है, तो मेरी सलाह है कि आप इस आलेख को आगे नहीं पढ़िये।

दो जाने-माने नाम

एब्बे पिएर फ्राँस में १९१२ में पैदा हुए थे और उनकी मृत्यु सन् २००७ में हुई थी। उन्हें लोग संत मानते-बुलाते थे। सन् १९४९ में एब्बे पिएर ने यूरोप में एम्माउस नाम की संस्था बनाई थी जो गरीबों, विकलांगों, कुष्ठ रोगियों, शरणार्थियों आदि के साथ सक्रिय थीं। उनकी संस्था से प्रभावित हो कर बहुत सी अन्य एम्माउस एसोसियेशन भी बनीं। चूँकि मैं भी कुष्ठ रोग और विकलांगता के क्षेत्र में सक्रिय था, उनमें से कई संस्थाओं के साथ मेरे सम्पर्क बने और उनके साथ बहुत बार काम भी किया।

करीब तीस-पैंतीस साल पहले, नब्बे के दशक में मैं एब्बे पिएर से एक बार मिला था और उनकी बातों और सोच से बहुत प्रभावित हुआ था। इसलिए जब पिछले वर्ष (२०२४ में), एब्बे पिएर के बारे में खबरें आईं कि उन्होंने बहुत सी बच्चियों के साथ यौन दुराचार किया था, तो मुझे बहुत धक्का लगा था। इस विषय पर एक नई किताब आई है जिसकी लेखिकाओं ने इस विषय पर छानबीन की है जिससे स्पष्ट होता है कि उनके यौन दुराचार की बातें लोगों को बहुत पहले से मालूम थीं लेकिन इसके बारे में कोई खुल कर नहीं बोलता था। ३३ स्त्रियों ने बचपन में उनके इस तरह के व्यवहार के व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में गवाही दी है।

जब इस तरह की बातें पता चलती हैं तो पहला प्रश्न जो मेरे मन में उठता है वह है - उस व्यक्ति के अच्छे कामों के बारे में क्या किया जाये? उन्हें भुला दिया जाना चाहिये? किसी व्यक्ति की बात करते हुए  उसके अच्छे और बुरे कर्मों को किस तराजू में कैसे तोला जाये?

दूसरी बात है समय की। एब्बे पिएर को गुज़रे हुए सतरह साल हो चुके हैं तो अब यह बातें कहने का क्या लाभ है? मेरे विचार में सच्ची बात को अभिव्यक्त करना भी आवश्यक है। इस समाचार के बाद कुछ एम्माउस संस्थाओं ने अपनी वेबसाईट आदि से एब्बे पिएर का नाम हटा दिया है। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि इतने सालों के बाद की उन औरतों की स्मृति पर भरोसा नहीं किया जा सकता, या फ़िर किसी को मानसिक रोग हो तो वह गलत सम्बंध की बात की कल्पना भी कर सकता है, इसलिए इन बातों पर पूरा विश्वास करना कठिन है। लेकिन मुझे लगता है कि इतनी सारी औरतों की शिकायतों को मानसिक रोग कहना सच्चाई से मुँह छुपाना है।

दूसरी बात डेविड वर्नर की है। पिछड़े और विकासशील देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले बहुत सारे लोग डेविड वर्नर की दो किताबों को जानते हैं, "जहाँ कोई डॉक्टर नहीं है" और "गाँव के विकलांग बच्चे"। १९८०-९० के समय में यह दोनों किताबें बहुत प्रसिद्ध थीं और इनसे प्रेरणा पा कर इस तरह की अन्य कई किताबें भी लिखी गईं जैसे कि "जहाँ कोई डैंटिस्ट नहीं है", "जहाँ कोई मनोरोग विषेशज्ञ नहीं है", आदि।

मैंं डेविड से पहली बार १९८८ में मिला था और विकलांगता से सम्बंधित विषयों पर उसकी सोच-समझ को प्रेरणादायक पाया था।

२००३-४ के आसपास मैंने सुना कि उस पर आरोप लगा है कि मैक्सिको के जिस गाँव में रहता और काम करता था, वहाँ के कई बच्चों के साथ उसके यौन सम्बंध भी थे। मुझे विश्वास नहीं हुआ, लेकिन मेरी एक अंग्रेज़ी मित्र ने मुझे उसकी एक चिट्ठी दिखायी जिसमें वह इस तरह के "प्रेम सम्बंधों" को वह बच्चों के मानसिक विकास के लिए सही बता रहा था। हमारे मित्रों के गुट ने उस समय उससे सब सम्बंध तोड़ लिए थे। बाद में मैंने सुना कि वह अपनी बात से पलट गया है, वह इंकार करता है कि उसने ऐसा कुछ किया था।

डेविड मुझसे करीब बीस साल बड़ा था, अगर वह आज जीवित है तो नब्बे साल का होगा। बहुत सालों से मेरा उससे सम्पर्क नहीं है। लेकिन इसके बारे में मेरे मन में दुविधा है। उसकी जिन किताबों की वजह से लाखों लोगों को लाभ भी हुआ था और आज भी होता होगा, उनके लिए उसके योगदान को कैसे देखा जाये? मैं कई विकलांग लोगों को जानता हूँ जो कहते हैं कि उसकी किताबों में उन्होंने अपना जीवन जीने की राह पाई है।

मी टू - व्यस्कों में सम्बंधों की जटिलताएँ

कुछ वर्ष पहले "मी टू" (मुझे भी) के नाम से यौन दुराचार की बहुत सी बातें बाहर निकलीं, कई लोगों पर आरोप लगे जिसमें बड़ी उम्र के जाने-पहचाने या प्रसिद्ध या उच्चे पद के अफसरों-अधिकारियों ने अपने नीचे काम करने वाली युवतियों को सैक्स के लिए मजबूर किया था। कानूनी जाँच में बहुत से ऐसे आरोप सही निकले और कुछ में आरोपितों को सजा मिली या नौकरी से निकाला गया। कुछ ऐसे आरोप झूठे भी निकले। 

कुछ स्त्रियों का कहना है कि जिस समय यह हादसा हुआ था, यह इतना अप्रत्याशित था कि उस समय वह कुछ नहीं कह पायीं। अगर महिला ने रोका नहीं या स्पष्ट मना नहीं किया तो क्या इसे गलतफहमी का नतीजा भी माना जा सकता है?

यह भी सच है कि नीचे काम करने वाले को दबाव महसूस होता है कि अगर वह ऐसे सम्बंधों को नहीं स्वीकारेंगे तो उनके केरियर पर बुरा असर पड़ेगा। इसलिए कुछ लोग कहते हैं कि इस तरह के सम्बंध हमेशा गलत होते हैं। लेकिन ऐसे कई दम्पत्ति हैं जिनकी जानपहचान और प्रेम साथ में काम करने की वजह से हुए, जब उनमें से एक ऊँचे पदवे पर था और दूसरा नीचे। इसलिए यह सोचना कि ऊँचे और नीचे पद वालों के बीच किसी तरह के सम्बंध नहीं बने, को लागू करना कठिन होगा।

यह भी हो सकता है कि कैरियर में आगे बढ़ने के लिए या किसी लाभ की आशा से कुछ व्यक्ति इस तरह के सम्बंध सोच-समझ कर बनायें, लेकिन बाद में प्रमोशन या लाभ न मिलने पर गुस्सा हो जायें और बदला लेने के लिए कहें कि उनके साथ जबरदस्ती हुई है। यह बात सोच कर मुझे व्यस्क व्यक्तियों के बीच हुए सम्बंधों का मामला अधिक कठिन लगता है। 

समलैंगिक यौन दुराचरण की जटिलतायें

नब्बे के दशक में एक अधेड़ उम्र की नर्स हमारे एक प्रोजेक्ट में काम करने तीन महीने के लिए विदेश गईं। उन्होंने लौट कर मुझसे शिकायत की वहाँ काम करने वाली, उनसे दस वर्ष बड़ी हमारे प्रोजेक्ट की प्रमुख ने उनसे यौन सम्बंध बनाने की कोशिश की। वह चाहती थीं कि हम उस प्रोजेक्ट प्रमुख को नौकरी से निकाल दें। जहाँ तक मुझे समझ में आया शिकायत करने वाली महिला के साथ किसी तरह की कोई जबरदस्ती नहीं हुई थी, बल्कि वह सोचती थीं कि लेसबियन होना गलत है और ऐसी औरतों को प्रोजक्ट में ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं रखना चाहिए। जबकि मुझे लगा कि लेसबियन होना और व्यस्क महिला से सम्बंध के लिए कहना या पूछना कोई जुर्म नहीं है। अंत में मैंने इस शिकायत के बारे में कुछ नहीं किया।

एक बार भारत में एक कुष्ठआश्रम के काम करने वाली यूरोपीय मूल की नर्स-नन के बारे में भी मुझे यही शिकायत मिली कि वह लेसबियन है। मैं उन्हें बहुत सालों से जानता था और मुझे लगा कि वह बहुत मेहनत तथा प्यार से रोगियों की सेवा करती थीं। मैंने सोचा कि लेसबियन होना अपराध नहीं है, और अगर वह किसी से जबरदस्ती नहीं कर रहीं तो यह उनका निजि मामला है। बाद में मुझे खबर मिली कि उनकी संस्था (कोनग्रेगशन) ने उन्हें संस्था से निकाल दिया है और वह यूरोप वापस लौट आईं।

कुछ साल पहले अमरीकी अभिनेता केविन स्पेसी पर भी कुछ पुरुषों ने आरोप लगाये थे कि कुछ दशक पहले जब वह नाबालिग थे तब स्पेसी ने उनके साथ जबरदस्ती सम्बंध बनाये थे। इन आरोपों की वजह से स्पेसी को कई फिल्मों और सीरियल से निकाल दिया गया, लेकिन बाद में न्यायालय ने उन आरोपों को सही नहीं माना। एक ओर से यह हो सकता है कि इतने पुराने ज़ुर्म को अदालत में साबित करना आसान नहीं है, लेकिन दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि प्रसिद्ध और पैसे वाले व्यक्ति पर झूठा आरोप लगाने का कारण व्यक्तिगत लाभ की आशा हो। 

एक और अनुभव

मेरा तीसरा अनुभव एक यूरोपी पुरुष से जुड़ा है जो करीब बीस साल से अफ्रीका में काम करते थे। उन्होंने वहाँ की महिला से विवाह किया था और उनके बच्चे भी थे, जिनमें वहाँ के कुछ गोद लिए हुए बच्चे भी थे। उन्होंने बहुत से बच्चों को छात्रवृति दिलवा कर यूरोप पढ़ने भेजा था। एक दिन उनके विरुद्ध शिकायत आई कि वह वहाँ अनाथाश्रम के बच्चों से यौन सम्बंध बनाते हैं। इस बात की जाँच के लिए वहाँ एक व्यक्ति को भेजा गया। तीन सप्ताह तक उस व्यक्ति ने वहाँ के बच्चों से, वहाँ काम करने वालों से, आदि से साक्षात्कार किये, और इस बारे में प्रश्न पूछे। पता चला कि आरोप लगाने वालों में कुछ लोगों का उनसे झगड़ा हुआ था, लेकिन किसी बच्चे से इसके बारे में बातचीत से कोई संदेहजनक बात नहीं निकली। आखिर में कुछ सबूत नहीं मिलने से यह जाँच बंद कर दी गयी और उनके विरुद्ध कुछ कार्यवाही नहीं की गई।

इस बात के चार-पाँच साल के बाद उस देश की सरकार ने उन्हें अपने देशवासियों की सेवा के लिए विषेश पुरस्कार दिया। इस बात को बीस-पच्चीस साल हो गये हैं और वह सज्जन, जो अब वृद्ध हैं, आज भी उसी देश में रहते हैं और उसी अनाथाश्रम में स्वयंसेवक की तरह काम करते हैं।

सच कहूँ तो आज भी मेरे मन में इस घटना के बारे में दुविधाएँ हैं, हालाँकि उनके अपने गोद लिए हुए बच्चे, जो अब व्यस्क हैं, कहते हैं कि उनके पिता पर लगे आरोप झूठे थे। आप बताईये कि आप इस मामले में क्या करते?

अंत में

मेरे लिए, व्यक्तिगत स्तर पर, इस विषय पर सबसे बड़ी दुविधा का कारण है कि जहाँ बलात्कार जैसे सबूत नहीं हों, किसी पर लगे आरोपों को कैसे जाँचा जाये? बाद में मन में संदेह रह जाता है, उसे निकालना असम्भव होता है, तो यह लगता है कि आरोप लगाना बहुत आसान है, लोग कुछ भी कह सकते हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू है कि जब कोई औरत, अतीत में हुई किसी बात को बताती है, तो उसके लिए यह कहना आसान नहीं होता, उसे कैसे गम्भीरता से न लिया जाये?

अंत में बात घूम-फ़िर कर वहीं आ जाती है कि उपन्यासों, फ़िल्मों या अखबारों या फेसबुक में यह बातें आसान लग सकती हैं, कि यह हुआ, ऐसा या वैसा करना चाहिए था। फेसबुक जैसे सोशल मीडिया में कुछ भी लिखना आसान है। लेकिन जब आप को निर्णय लेना पड़े तो यह कभी-कभी बहुत कठिन हो सकता है। 

पटना की घटना से जुड़ी बहस पर साहित्यकारों और साहित्य की बात करते हुए, मित्र ओम थानवी ने लिखा है, "अच्छा या बड़ा लेखक जाति, विचार, चरित्र, आचरण के बावजूद अच्छा या बड़ा होता है। कम-से-कम इस तरह के आधारों पर उसे त्याज्य या उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता।" कुछ यही बात अन्य क्षेत्रों में काम करने वालों के लिए भी कही जा सकती है।

आप बताईये आप इस विषय के बारे में क्या सोचते हैं? 

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शुक्रवार, जून 20, 2025

राशन की चीनी

आज सुबह चाय बना रहा था तो अचानक मन में बचपन की एक याद कौंधी। 

यह बात १९६३-६४ की है। मैं और मेरी छोटी बहन, हम दोनों अपनी छोटी बुआ के पास मेरठ में गर्मियों की छुट्टियों पर गये थे। १०१ नम्बर का उनका घर साकेत में था। साथ में और सामने बहुत सी खुली जगह थी। बुआ के घर में पीछे पपीते का पेड़ लगा था और साथ वाले घर में अंगूर लगे थे। एक बार दोपहर में जब अन्य लोग सो रहे थे, पड़ोसी घर से अंगूर चुरा कर खाने की सजा भी मिली थी। बुआ के यहाँ अजीत नाम के गढ़वाली सज्जन रसोईये का काम करते थे।

तब मैं नौ-दस साल का था और सुबह दूध पीता था। दिल्ली में घर पर दूध में चीनी मिला कर पीते थे। उन दिनों में चीनी राशन से मिलती थी और शायद मेरठ में उसकी कमी चल रही थी, इसलिए वहाँ दूध फीका पीना पड़ता था। ऐसी आदत पड़ी थी कि बिना चीनी का दूध पीया ही नहीं जाता था, मतली आने लगती थी। तब अजीत कहता कि गुड़ का टुकड़ा मुँह में रख लो और साथ में दूध का घूँट पीयो, चीनी की कमी महसूस नहीं होगी।

पिछले दस-पंद्रह सालों से मैं दूध, चाय और कॉफी बिना चीनी के पीता हूँ। मसूढ़ों में तकलीफ रहती थी तब डैन्टिस्ट ने कहा कि शायद मेरे मसूढ़ों को चीनी और कॉफी का सम्मिश्रिण सूट नहीं करता, इसलिए मुझे कुछ दिन तक बिना चीनी की कॉफी पी कर देखना चाहिए। एक बार कॉफी से शुरु किया तो चाय और दूध में भी चीनी डालना छोड़ दिया।

तब से फीका पीने की ऐसी आदत पड़ी है कि अगर चाय में चीनी हो तो मुझसे पी नहीं जाती, मतली आने लगती है। भारत में छोटे-बड़े शहरों में घूमते हुए कई बार ऐसा होता है कि वह लोग चाय बना कर रख लेते हैं जिसमें चीनी मिली होती है और आप उनसे बिना चीनी की चाय माँगिये तो वह मना कर देते हैं। रेल में भी यही होता है।

कर्णटक में एक पशु मेले में चाय बेचने वाली - Image by Sunil Deepak

तब सोचता हूँ कि जीवन भी कितना विचित्र है। कभी चीनी न होने पर उसके लिए तरसते थे और आज चीनी होने पर तरसते हैं।

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साठ-सत्तर के दशक के बारे में सोचो तो मन में प्रश्न उठता है कि अगर गुड़ मिलने में कोई कठिनाई नहीं होती थी तो चीनी क्यों नहीं मिलती थी? गुड़ से चीनी बनाना ऐसा कठिन नहीं है। शायद तब बात गन्ने या गुड़ की कमी की नहीं थी बल्कि फैक्टरियों को चीनी बनाने के कोटा मिलना की थी, क्योंकि कोई फैक्टरी वाला, जितनी अनुमति मिली हो उससे अधिक चीनी का उत्पादन नहीं कर सकता था। अगर वह कोटे से अधिक उत्पादन करते थे तो सरकारी बाबू उन पर जुर्माना लगा देते थे।

यह कोटे वाली बात आज की पीढ़ी के लिए समझना आसान नहीं है। एक बार मैंने विक्स बनाने वाली कम्पनी के अधीक्षक का एक साक्षात्कार सुना था जिसमें उन्होंने बताया कि इंदिरा गाँधी की सरकार के समय में एक साल फ्लू का बुखार बहुत फ़ैला। इसलिए विक्स की माँग बहुत थी तो कम्पनी ने उत्पादन बढ़ा दिया। इस बात के कुछ महीने बाद उन्हें दिल्ली के एक अफसर ने बुलाया, वह अपने वकील के साथ गये। उन्हें कहा गया कि तुमने कोटे से अधिक विक्स बना कर अपराध किया है, उसका जुर्माना देना पड़ेगा।

आज का हिन्दुस्तान में बहुत सी बातें बदली हैं, अब फैक्टरियों को कोटे से अधिक बनाने का जुर्माना नहीं लगता, क्योकि अब कोटे नहीं होते। लेकिन कई क्षेत्रों में कुछ सरकारी बाबूओं की सोच में बहुत बदलाव नहीं हुआ है। उनका ध्येय जनसेवा नहीं, जब तक आप उनके हाथ गर्म नहीं करें तब तक उनका काम आप के काम में अड़चने डालना है।

आप की क्या राय है, हिन्दुस्तान में क्या बदलना चाहिए जो अभी भी नहीं बदला?

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बुधवार, जून 11, 2025

लेखक की दुविधाएँ

बारह ड्राफ्ट के बाद, मेरा दूसरा उपन्यास लगभग तैयार है। इसे आज से इक्कीस साल पहले अंग्रेज़ी में लिखना शुरु किया था और तब इसमें कहानी थी एक नवयुवक की जो दिल्ली में अपनी नानी के पास बड़ा हुआ है और जिसने बचपन से सुना है कि उसके माता-पिता की विदेश में मृत्यु हो गई थी। 

समय के साथ, बार-बार लिखने से इसके कथानक में कुछ बदलाव आये हैं। जैसे कि नवयुवक के बदले, यह बीसवीं सदी के प्रारम्भ की उसकी नानी की कहानी बन गई है, जिसकी पृष्ठभूमि में आसाम के चाय बागान में काम करने वाली एक गिरमिटिया युवती की कहानी भी है। इस उपन्यास की कहानी सुन कर नीचे वाला कवर मेरी मित्र विमला दीपक ने बना कर दिया है।

इस आलेख के माध्यम से मैं आप से सलाह माँगना चाहता हूँ कि अगर मुझे लेखन से पैसा कमाने की आवश्यकता न हो, तो क्या उपन्यास को किसी प्रकाशक से छपवाना महत्वपूर्ण है या उसे अमेज़न जैसे आनलाईन पोर्टल से छपवाना भी चल सकता है?

मेरे फेसबुक मित्रों में बहुत से अनुभवी लेखक हैं, मैंने पहले सोचा कि उन्हें सीधा लिख कर सलाह माँगनी चाहिये, फ़िर मुझे लगा कि ऐसा करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि कोई जब मेरे साथ ऐसा करता है तो मुझे अच्छा नहीं लगता, जबरदस्ती सी लगती है।  इसलिए सोचा कि इसके बारे में ब्लाग पर लिखूँ।

उपन्यास लिखने की यात्रा

इक्कीस साल पहले लिखा उपन्यास अधूरा था। उसके बाद, कई बार इस उपन्यास को लिखने की कोशिशें कीं लेकिन हर बार यह अधूरा ही रह जाता था।

तब मैं अपने आप से कहता था कि जब रिटायर होऊँगा, तब इसे लिखूँगा। रिटायर हुए भी सात-आठ साल बीत गये, लेकिन मेरा काम और यात्राएँ समाप्त नहीं हुईं। दो-ढाई साल पहले दो ऐसी बातें हुईं जिनसे मुझे लगा कि अगर सचमुच मैं अपने उपन्यास को लिखना चाहता हूँ तो मुझे बाकी के सब काम छोड़ने पड़ेंगे।

पहली बात काम से जुड़ी थी। मुझे एक देश में विकलांगों के लिए नई स्वास्थ्य सेवाओं को लागू करने का बड़ा काँट्रेक्ट मिला था, जिसके लिए तीन साल तक मैंने बहुत मेहनत की। मेरा काम पूरा हुआ लेकिन उस देश में चुनावों के बाद नयी सरकार आयी, तो उन्होंने हमारे सारे काम को रोक दिया क्योंकि उनकी दृष्टि में वह काम महत्वपूर्ण नहीं था। मुझे लगा कि मैंने जीवन के तीन साल बेकार कर दिये, मैंने पैसा कमाया पर मेहनत का कुछ फायदा नहीं हुआ।

दूसरी बात मेरे अपने स्वास्थ्य से जुड़ी थी। मेरी आँखों में रेटिना में घाव हो गये जिनसे दिखना कम हो गया और डर था कि वह घाव बढ़ेंगे तो लिखना-पढ़ना पूरा बन्द हो जायेगा। सौभाग्य से अभी तक वह घाव जैसे थे वैसे ही हैं, बढ़े नहीं हैं, इसलिए दिखता कुछ कम है लेकिन मेरा लिखना-पढ़ना जारी है।

इसलिए मैंने फैसला किया कि अब उपन्यास पूरे करने पर ही ध्यान दूँगा और हिन्दी में लिखूँगा। इस तरह से मैंने २०२३ में अपना पहला उपन्यास पूरा किया था। मित्र अरविंद मोहन जी की सहायता से दिल्ली के एक प्रकाशक ने दो साल पहले उसे छापने के लिए स्वीकार भी किया था, लेकिन पता नहीं कब छपेगा। अब मेरा दूसरा उपन्यास भी लगभग तैयार है।

मन की दुविधाएँ

मैं चाहता हूँ कि अधिक से अधिक लोग मेरे लिखे को पढ़ें, लेकिन मैं इन किताबों से कुछ कमाना नहीं चाहता। तो क्या मुझे अपने उपन्यास को प्रकाशकों के पास भेजना चाहिए? मुझे चिंता है कि प्रकाशक निर्णय लेने में कई महीने लगायेंगे और फ़िर छापने में न जाने कितने साल निकाल देंगे।

क्या इसे सीधा अमेज़न या उसके जैसे किसे भारतीय पोर्टल पर मुफ्त देना बेहतर नहीं होगा, ताकि जो इसे ईबुक रूप में पढ़ना चाहते हैं वह इसे मुफ्त डाउनलोड करें और अगर कोई छपी हुई किताब पढ़ना चाहे तो वह इसकी छपाई की कीमत दे कर छपवा ले? जिन्हें अनुभव है वह बतायें कि किस पोर्टल पर डालना बेहतर होगा?

उपन्यास पढ़ना चाहने वाले

अगर आप मेरे उपन्यास को ई-बुक या पीडीएफ रूप में पढ़ना चाहते हैं तो मुझे ईमेल भेजिये, मेरा पता है sunil(at)kalpana.it (ईमेल भेजते समय '(at)' के बदले में '@' लगा दीजिये)। अगर आप उसे पढ़ कर उसके बारे में अपनी आलोचना या सुझाव देंगे तो मुझे और भी अच्छा लगेगा। 

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शनिवार, जून 07, 2025

झाड़ू-पौंछे का रोबोट

बचपन से देखा था कि माँ सुबह स्कूल में पढ़ाने जाने से पहले घर में झाड़ू लगा कर जाती थी, अक्सर झाड़ू के बाद गीला पौंछा भी लगता था। जब मेरी छोटी बहनें बड़ी हुईं तो कभी-कभी वह भी माँ का हाथ बँटाती थीं। जब से इटली में आया तो हमेशा पत्नी को यही काम करते देखा। यह हमारी झाड़ू-पौंछे की पुरानी दुनिया थी।

चीन में सड़क की सफाई करने वाले कर्मचारी

पहले गर्मियों की छुट्टियों में जब बेटे को ले कर पत्नी महीने-दो महीने के लिए समुद्र तट वाले घर में रहने चली जाती, तो मैं उनसे मिलने जाने के लिए सप्ताह-अंत की प्रतीक्षा करता था। लेकिन उन दिनों में घर की सफाई की ज़िम्मेदारी मेरी होती थी। तब मैं हफ्ते में एक बार झाड़ू लगाता था, और कभी-कभी पौंछा भी लगाता था। साथ में यह ध्यान रखता था कि जिस दिन पत्नी को घर लौटना है, उससे पहले घर की सफाई ठीक से की जाये। लेकिन कई बार ऐसा हुआ कि वह लोग छुट्टियों से एक-दो दिन पहले घर लौट आये और मुझे ठीक से सफाई करने का मौका नहीं मिला। तब पत्नी के माथे पर बल पड़ जाते कि "अरे, घर कितना गंदा हो रहा है"।

करीब दस साल पहले, मैं दो साल के लिए गौहाटी में काम करने गया तो वहाँ किराये के घर में अकेला रहता था। वहाँ घर में एक झाड़ू-पौंछा लगाने वाली आती थी। पिछले तीस-चालीस सालों में मुझे यहाँ पर एकदम साफ-सुथरे में रहने की ऐसी आदत हो गई थी कि मुझे लगता कि गौहाटी की झाड़ू-पौंछा लगाने वाली ठीक से काम नहीं करती थी, जल्दी-जल्दी दो हाथ चलाती और चली जाती। मैं एक-दो बार तो उसे ठीक से सफाई करने को कहा, जब देखा कि उनका काम तो उसे हटा कर एक अन्य महिला को रखा। जब समझ में आया कि काम तो वैसे ही होगा तो उन्हें काम पर आने से मना कर दिया। तब मैं खुद ही सुबह घर में अच्छी तरह से झाड़ू-पौंछा लगा कर ही काम पर जाता था।

नयी दुनिया की नयी सफाई

कुछ साल पहले हमने सफाई करने वाला रोबोट खरीदा। यह घर की धूल, मिट्टी, कूड़ा जमा करने में बढ़िया काम करता है, हालाँकि मेरी पत्नी को उससे संतोष नहीं होता, वह कई बार, इसकी सफाई के बाद, अलग से वेक्यूम क्लीनर ले कर उससे दोबारा सफाई करती है। लेकिन अब जब पत्नी गर्मियों में एक-दो महीने के लिए समुद्र तट पर रहने चली जाती है (और मैं वहाँ नहीं जाता क्योंकि मैं वहाँ तीन-चार दिन में ऊब जाता हूँ), तो घर में मेरे मित्र रोबोट जी ही सफाई करते हैं।

रोबोट से कालीन की सफाई

घर के पिछवाड़े में इस रोबोट का बिस्तर लगा है, वहाँ रख दो तो पूरा चार्ज हो जाते हैं। हर दूसरे-तीसरे दिन इन्हें काम पर लगा देता हूँ। गोल-गोल घूम कर यह कमरे के कोने-कोने में जाते हैं। इनके भीतर कम्पयूटर लगा है, इनके पास घर का पूरा नक्शा है कि कहाँ  क्या रखा है, सोफे और मेज़ आदि के चक्कर लगाना आता है, और यह सीढ़ियों से नीचे नहीं गिरते। ऊँचाई कम है इसलिए यह अलमारियों, बिस्तरों आदि के नीचे घुस कर सफाई कर सकते हैं। इन्हें चलाने से पहले, मैं कमरे की जो चीज़ें आसानी से हट सकती हैं, उन्हें वहाँ से हटा लेता हूँ ताकि यह खुले घूमें।

रोबोट अलमारियों, बिस्तर आदि के नीचे भी घुस जाता है

छोटे-मोटे कालीन आदि भी झाड़ कर हटा देता हूँ, जबकि मोटे कालीन को वहीं अपनी जगह पर छोड़ देता हूँ ताकि उसके  ऊपर से भी अच्छी तरह से सफाई हो जाये। 

जब यह काम कर लेता है तो वापस अपने बिस्तर की ओर लौट जाता है और अपने आप को रिचार्ज के लिए लगा लेता है। चूँकि हमारे पिछवाड़े में बारिश के समय पानी जमा हो जाता है, इसलिए हमने इनका बिस्तर ज़मीन से उठा कर चबूतरे पर बनाया है, तो जब रिचार्ज करना हो बेचारा चबूतरे के पास जा कर थोड़ी देर तक तड़पता है, फ़िर वहीं बत्ती बुझा कर बैठा रहता है कि हम इसे उठा कर इसके रिचार्ज-पोर्ट पर रखें।

सफाई वाले रोबोट का रिचार्ज

हमारे मॉडल में केवल वैक्यूम से कूड़ा खींचने वाला झाड़ू है, लेकिन बाज़ार में दूसरे मॉडल मिलते हैं जिनमें पौंछा लगाने की सुविधा भी है। हमने अपना सस्ता सफाई का रोबोट मॉडल, दो-तीन साल पहले, करीब दो सौ यूरो (पंद्रह-सोलह हज़ार रुपये) का खरीदा था। आजकल यहाँ इटली में घर में सफाई का काम करने वाले लोग एक घंटे का करीब दस यूरो (आठ-नौ सौ रुपये) लेते हैं, उस हिसाब इन्हें खरीदना कम खर्चीला है। इसका बटन है, जिसे दबाओ तो कूड़े वाला हिस्सा बाहर निकल आता है और उसे साफ करना आसान है। 

बटन दबा कर रोबोट से कूड़ा बाहर निकालना

 जब यह रोबोट जी मेरे आस-पास घुर-घुर करके घूम रहे होते हैं, तो मैं कभी-कभी इनसे बातें भी करता हूँ। कल जब मानव-शरीर जैसे रोबोट बनेंगे तो शायद उनसे पूछूँगा, "भाई साहब, आप चाय पीयेंगे?"

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शनिवार, मई 31, 2025

महाबुद्धिमानों के वंशज

इटली के सबसे प्रसिद्ध कलाकारों में दो नाम सबसे ऊपर हैं, लेयोनार्दो द विंची और माईकलएँजेलो। लेयोनार्दो को उनकी चित्रकला और माईकलएँजेलो को उनकी शिल्पकला के लिए जाना जाता है। पैरिस के लूव्र संग्रहालय में रखी लेयोनार्दो की कलाकृति "मोनालिज़ा" शायद दुनिया की सबसे प्रसिद्ध कलाकृति है।

इस पहली तस्वीर में लेयोनार्दो के गाँव विंची में उनकी एक कलाकृति पर आधारित स्मारक दिखाया गया है। विंची का गाँव, रोम से करीब दो सौ किलोमीटर उत्तर में इटली के तस्कनी प्रदेश में अपेनीनी पहाड़ों में स्थित है।

Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak

चित्रकला के साथ-साथ, लेयोनार्दो को विभिन्न आविष्कारों के लिए भी जाना जाता है। अपनी डायरी में उन्होंने विभिन्न आविष्कारों के चित्र और उन्हें कैसे बनाया जाये, इसकी विधियाँ लिखीं थीं। उन आविष्कारों में हवाई जहाज़, हैलीकोप्टर, टैंक, पानी का पम्प आदि शामिल हैं, जिन्हें कई सौ सालों के बाद मानव ने बनाया। इनकी वजह से लेयोनार्दो को जीनियस यानि महाबुद्धिमान मानते हैं।

यह आलेख उनके वंशजों से ले कर उनके गाँव विंची से होता हुआ उनके बनाये शेर के खिलौने तक जाता है। 

लेयोनार्दो के महाबुद्धिमान वशंज

लेयोनार्दो का जन्म विंची नाम के पहाड़ी गाँव में सन् १४५२ में हुआ और उनकी मृत्यु ६८ साल की उम्र में फ्राँस में हुई। कुछ समय पहले उनके वंशज-पुरुषों में उनकी डी.एन.ए. की जाँच की गई ताकि यह पता चले कि उनमें से कितनो को लेयोनार्दो के जीन्स मिले हैं, जिनसे वह भी जीनियस हो सकते हैं।

मानव शरीर के कोषों में डी.एन.ए. के २३ धागों के जोड़े होते हैं जिन्हें क्रोमोज़ोम कहते हैं, हर क्रोमोज़ोम पर जीन्स होते हैं। मनुष्यों में लिंग के हिसाब से एक क्रोमोज़ोम के जोड़े को सैक्स क्रोमोज़ोम कहते हैं, जो बच्चियों में एक जैसे होते हैं, एक्स और एक्स, जबकि लड़कों में इस सैक्स क्रोमोज़ोम के जोड़े में दो विभिन्न धागे होते हैं, एक्स और वाई। वाई क्रोमोज़ोम केवल उनके पिता से मिलता है, जबकि एक्स क्रोमोज़ोम पिता या माता किसी से भी मिल सकता है।

लियोनार्दो के वंशजों को खोजने के लिए उनके परिवार के लड़कों के डी.एन.ए. की जाँच की गई। उनके वंशजों की छह शाखाएँ मिलीं, उनमें से ३९ पुरुषों में से छह पुरुषों में पाया गया कि उनका वाई क्रोमोज़ोम बिल्कुल लेयोनार्दो जैसा था। नीचे की इस तस्वीर में, जो एक इतालवी अखबार से ली गई है, आप उनमें से पाँच लोगों को देख सकते हैं।

Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak

हालाँकि उनका वाई जीन्स लेयोनार्दो जैसा है, लेकिन वह सभी सामान्य सफलता वाले लोग हैं, उनमें से कोई भी जीनियस और जगप्रसिद्ध कलाकार नहीं है। उनमें से एक कुर्सियों पर कपड़ा चढ़ाने का काम करते हैं, एक बैंक में लगे हैं, एक नगरपालिका में काम करते हैं, एक अन्य दफ्तर में। लेकिन नम्बर दो पर ८९ साल के दलमाज़िओ ने कुछ छोटे-मोटे आविष्कार अवश्य किये हैं, जबकि माउरो के कुर्सियों, सोफों आदि के कपड़ा चढ़ाने के हुनर को बड़े-बड़े लोग मानते हैं, उन्होंने दुनिया के कई प्रसिद्ध नेताओं-अभिनेताओं के लिए फर्नीचर तैयार करने का काम किया है। 

इनके परिवारों की कहानियों में इनके लक्कड़दादा के लक्कड़दादा लेयोनार्दो को छोड़ कर, ऐसे किसी व्यक्ति की बात नहीं सुनने को मिलती जिससे लगे कि वह महाबुद्धिमान थे।

लेयोनार्दो का घर

Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak

करीब पंद्रह साल पहले, एक दिन घूमते हुए हम लोग लियोनार्दो के गाँव विंची में पहुँच गये। यह गाँव फ्लोरैंस शहर के करीब के पहाड़ों पर बसा है। उनके घर को संग्रहालय की तरह रखा गया है लेकिन वहाँ लियोनार्दो की कोई कलाकृति आदि नहीं है, क्योंकि उनकी हर कृति की कीमत करोड़ों में आँकी जाती है और उन्हें छोटी-मोटी जगहों पर नहीं रखते। ऊपर वाली तस्वीर में लेयोनार्दो के घर का एक हिस्सा है और नीचे वाली तस्वीर में, उनके घर के बाहर का रास्ता है।

Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak
 

लेयोनार्दो का शेर

लेयोनार्दो को चाभी से चलने वाले खिलौने बनाने का बहुत शौक था। उनके बनाये खिलौनों को उस समय के राजा-महाराजों को उपहार के लिए दिया जाता था। मुझे एक बार बोलोनिया में एक प्रदर्शनी में उनके बनाये चाभी से चलने वाले छोटा सा लकड़ी का शेर को देखने का मौका मिला, जिसमें चाभी भरते थे तो वह पिछले पैरों पर खड़ा हो कर अपनी छाती खोल देता था, जहाँ फ़ूलों का गुलदस्ता लगा होता था। कहते हैं कि इस शेर को खतरनाक माना गया क्योंकि वह अपने भीतर फ़ूलों की जगह पर बम भी छुपा सकता था, जिससे राजा को मार सकते थे।

Leonardo's lion - Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak

ऐसा ही एक चाभी से चलने वाला चीता हिन्दुस्तान में टीपू सुल्तान के पास भी था, जिसे अब लंदन के विक्टोरिआ-एल्बर्ट संग्रहालय में देखा जा सकता है। यह लकड़ी का चीता आकार में बहुत बड़ा था और किसी यूरोप के सिपाही को मार कर खाता दिखता था। इसकी चाभी चलाओ यह चीता मुँह चलाता और मरे सिपाही की बाजू हिलती थी। चीता और सिपाही भारत के किसी कारीगर ने बनाये लेकिन उनके भीतर के मशीनी हिस्से यूरोप से लाये गये थे। 

Tipu's tiger in Victoria and Albert Museum, London, UK - Image by Sunil Deepak

 

अंत में

बात शुरु हुई अखबार के समाचार से जिसमें लियोनार्दो के वंशजों की बात थी, वहाँ से गई लियोनार्दो के गाँव विंची में और फ़िर वहाँ से लेयोनार्दो के शेर से होते हुए, टीपू सुल्तान की चीते तक पहुँची। आशा है कि आप को यह यात्रा मज़ेदार लगी। नीचे की आखिरी तस्वीर में लेयोनार्दो के घर से पहाड़ का विहंगम दृष्य है, सोचिये कि जब वह बच्चे थे और सुबह उठ कर बाहर देखते थे तो उन्हें यह दृष्य दिखता था।

Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak

 

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बुधवार, फ़रवरी 26, 2025

इतिहास और मानव समाज के बदलते मूल्य

इअन मौरिस (Ian Morris) इंग्लैंड में जन्में लेखक, इतिहासकार तथा पुरातत्व विशेषज्ञ हैं जो आजकल अमरीका में स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। मेरा यह आलेख उनकी २०१५ में लिखी एक पुस्तक (Forager, farmers and Fossil Fuels) से प्रेरित है जिसमें वह आदि मानव से ले कर आज के बदलते समाजों की सरंचना और उनके बदलते मूल्यों की बात करते हैं।

भीमबेटका, भोपाल, भारत क हाथी पर शिकार करने का पाषाणचित्र, तस्वीरकार सुनील दीपक

मैंने यह पुस्तक कुछ दिन पहले पढ़ी और मुझे इसके मूलभूत विचार दिलचस्प लगे। इसे पढ़ते हुए, मेरे मन में भारतीय पौराणिक कथाओं से जुड़ी कुछ बातें भी मन में उठीं, इसलिए इस आलेख को लिखने की सोची। ऊपर के चित्र में मध्यप्रदेश में भीमबेटका से हाथी पर चढ़ कर शिकार करने का पाषाणचित्र है (चित्र पर क्लिक करके बड़ा करके देख सकते हैं)।

इअन मौरिस की किताब का सार

मौरिस का मूलभूत विचार है कि जैसे-जैसे मानव समाज विकसित हुए, उनके ऊर्जा खोजने के साधन और उस ऊर्जा का उपयोग करने की शक्ति बदली, इस बदलाव से उनके समाजों की सरंचना और उनके मूल्य भी बदले।

इसमें ऊर्जा का अर्थ बहुमुखी है, यानि वह शारीरिक ऊर्जा (भोजन) से ले कर मानव के सब कामों में खर्च होने वाली ऊर्जा (यात्रा, तरह-तरह की मशीनें, संचार, रोशनी, इत्यादि) सबकी बात कर रहे हैं।

इस दृष्टि से वह आदि मानव से ले कर आज तक के समाजों को तीन प्रमुख हिस्सों में बाँटते हैं:

(१) आदिमानव के प्रारम्भिक हज़ारों सालों का समय जब मानव की ऊर्जा का स्रोत प्रकृति से भोजन इकट्ठा करना था, जैसे की जंगलों में होने वाले फ़ल, कंद, मूल, बीज, तथा पशु-पक्षियों के शिकार से मिला माँस-मछली आदि। इस समय में ऊर्जा का स्तर बहुत कम था, मानव छोटे गुटों में रहते थे और हर गुट को भोजन खोजने के लिए विस्तृत क्षेत्र की आवश्यकता होती थी, इसलिए दूसरों गुटों का आप के क्षेत्र में अतिक्रमण स्वीकार नहीं किया जा सकता था, जिसकी वजह से गुटों के बीच में हिँसा आम थी।

छिनहम्पेरे, मोज़ाम्बीक में शिकार करने का पाषाणचित्र, तस्वीरकार सुनील दीपक

चूँकि ज़मीन-जँगल किसी एक की निजि जयदाद नहीं होते थे, सामाजिक व आर्थिक स्तर पर गुटों के बीच समानता अधिक थी और विषमताएँ कम। चूँकि गुट एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते थे, इसलिए अधिक सामान को ले कर घूमना कठिन था, और निजि सम्पत्ति नहीं होती थी। छोटे बच्चों को खिलाना-पिलाना और उन्हें साथ ले कर घूमना भी कठिन होता था इसलिए बच्चे कम होते थे। अधिकांश लोग लम्बा नहीं जीते थे और चूँकि पुरुष अपने वारिस बच्चों के लिए कुछ विषेश नहीं छोड सकते थे, अपने बच्चे होना उतना महत्वपूर्ण नहीं था, इसलिए स्त्री-पुरुष दोनों में एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान होना ज़रूरी नहीं था, दोनों अपने साथी बदल सकते थे। ऊपर के चित्र में मोज़ाम्बीक में छिनहम्पेरे से शिकारियों का आदिकाल का पाषाणचित्र है (चित्र पर क्लिक करके बड़ा करके देख सकते हैं)।

(२) दस से सात हज़ार पहले का समय जब कृषि का विकास हुआ, तो समाज में बदलाव आये। एक ओर मानव ने पौधों को उगाना और उनके बीज चुन कर विषेश तरह के पौधों को बढ़ावा देना सीखा और दूसरी ओर, पशुओं को पालतू बनाना और विभिन्न कामों के लिए विषेश तरह के पशुओं को चुन कर उन्हें बढ़ावा देना सीखा। इससे दो तरह के समाज निकले - एक कृषि-प्रधान और दूसरे पशु-पालन प्रधान। कृषि प्रधान को ज़मीन की सीमाएँ निर्धारित करनी थीं ताकि उसकी उपज को कोई नष्ट न करे, और पशु-पालन प्रधान लोगों को खुली जमीन चाहिये थी ताकि पशु जहाँ चाहें वहाँ चर सकें, इसलिए दोनों गुटों में संघर्ष भी हुए। बहुत जगहों पर, समय के साथ अक्सर यह दोनों गुट मिल कर एक ही हो गये, जो कृषि करते थे, वही सीमित मात्रा में पशु भी पालते थे।

इस बदलाव के साथ समाज में ऊर्जा का स्तर बढ़ा, लोग एक जगह पर रहने लगे और समाज बदले। मानव गुटों के लिए भोजन की मात्रा बढ़ी, जनसंख्या बढ़ी, नये कार्यक्षेत्र बने जैसे पशुओं को चराने वाले, खुरों में नाल लगाने वाले, अनाज बेचने वाले, आदि। समय के साथ, नये शहर बने, राज्य बने, उनके राजा, अधिकारी बने।

खेतों में काम करने के लिए अधिक लोग चाहिये थे, इसलिए औरतों से घर में रहने, बच्चे पैदा करने और घर के काम करने के लिए कहा गया। ज़मीन और सम्पत्ति हुई, तो वारिस छोड़ना और अपने खून वाले वारिस होने का महत्व बढ़ा तो स्त्री-पुरुष के विवाह होना, एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान होने का महत्व बढ़ा। समाज में विषमताएँ बढ़ीं और हिंसा के नई मौके बने। सैना रखना, युद्ध करना, साम्राज्य बनाना जैसी बातें होने लगीं। 

(३) पिछले कुछ सौ सालों में ज़मीन में दबे ऊर्जा स्रोतों को निकालने और मशीनी युग के साथ मानवता का ऊर्जा स्तर बहुत अधिक बढ़ गया है और बढ़ता ही जा रहा है। आने वाले समय में कृत्रिम बुद्धि, अतिसूक्ष्म नैनो-तकनीकी, रोबोट-तकनीकी, स्वचलित वाहन, हाइड्रोजन शक्ति, परमाणू शक्ति, सूर्य-शक्ति, पवन शक्ति, आदि से ऊर्जा के स्तर जब इतने बढ़ जायेंगे तो उनका मानव समाजों पर क्या असर होगा?

इस वजह से अमरीका, यूरोप आदि के विकसित देशों में कई दशकों से सामाजिक बदलाव आये हैं, जैसे कि पुरुषों और औरतों दोनों का नौकरी करना, शादी देर से करना या नहीं करना, बच्चे नहीं पैदा करना, युद्ध और हिंसा में कमी, भुखमरी और बीमारियों में कमी, मानव-अधिकारों के साथ जीव-अधिकारों की बातें, आदि। वैसे ही बदलाव अब चीन, भारत, वियतनाम, कोरिया आदि में भी आ रहे हैं, विषेशकर बड़े और मध्यम स्तर के शहरों में। इन बदलावों की वजह से विषमताएँ कम हो रही हैं, स्त्री-पुरुष के बीच भी विषमताएँ कम हो रहीं हैं, युद्ध से जुड़ी हिँसा कम हो रही है। साथ ही आज व्यक्ति अधिक अकेले रह रहे हैं लेकिन साईबर जगत के माध्यम से उनकी वरच्यूअल बातचीत-सम्पर्क भी बढ़ रहे हैं।

यह बदलाव अभी चल रहा है, पूरा नहीं हुआ है। कृषि-प्रधान जीवन से आधुनिक जीवन का बदलाव भिन्न परिस्थितों में पारम्परिक तथा आधुनिक के बीच में टैन्शन बना रहा है।  यह बदलाव भविष्य में हमें किन नयी दिशाओं की ओर ले कर जायेंगे?

भारत की पौराणिक कहानियों में यह बदलाव

कुछ दिन पहले मनु पिल्लाई (Manu Pillai) की नयी किताब (Gods, Guns and Missionaries) के बारे में एक पॉडकास्ट सुन रहा था। उन्होंने कहा कि हमारे पौराणों में वेदों-उपनिषदों के विचारों का सारे भारत में फ़ैलने का दो हज़ार साल पहले  का इतिहास लिखा है। यानि, भारत के विभिन्न स्थानों पर वेदों-उपनिषदों के विचार, किस तरह से लोगों के स्थानीय विचारों से मिले और उनमें समन्वित हो कर वह धर्म बना जिसे आज लोग हिंदु धर्म कहते हैं।

यह सुन कर मेरे मन में प्रश्न उठा कि वेद-उपनिषद के ज्ञान को सबसे पहले सोचने वाले लोग कौन थे? क्या हमारे ऋषी-मुनि, वह जंगलों में फ़ल-कंद-मूल-बीज खोजने और शिकार करने वाले छोटे गुट में रहने वाले लोग थे? या वह पशु-पालक प्रधान लोगों का हिस्सा थे? या वे कृषि प्रधान लोगों से जुड़े थे? इन ग्रंथों को लिखा बाद में गया, क्योंकि लिखाई का आविष्कार बहुत बाद में हुआ लेकिन इनकी सोच बनाने के समय किस तरह का समाज था? आप की क्या राय है?

फ़िर मन में देवदत्त पटनायक का एक आलेख याद आया जिसमें उन्होंने परशुराम की कहानी लिखी थी। इस कथानुसार, परशुराम ने सभी क्षत्रियों को मार दिया, केवल माँओं के गर्भों में बचे क्षत्रिय बालक बच गये। बाद में इन बचे हुए क्षत्रियों की विभिन्न जातियों ने शस्त्र त्याग कर दूसरे काम अपनाये। खत्री वाणिज्य में चले गये, जाट गौ पालन और पशु पालन में, कायस्थ लेखन में, आदि।

इसे पढ़ कर मुझे लगा कि शायद कहानी प्राचीन जंगलों में रहने वाले लोगों से, जिनमें अधिकतर पुरुष शिकारी और कुछ पुरोहित होते थे जब पशु-पालन और कृषि विकास के बाद शहर बने, उन पहले शहरों के जीवन के बदलाव की बात कर रही है, जहाँ जीवन यापन के नये-नये व्यवसाय निकलने लगे थे, और पहले जो शिकारी थे, उन्हें नये काम सीखने पड़े।    

अंत में

अधिकतर इतिहासकार पिछले हज़ार-दो हज़ार सालों के साम्राज्यों, युद्धों के इतिहास लिखते हैं और पुरातत्व विशेषज्ञ इतिहास पूर्व के आदिमानव की बात करते हैं।

लेकिन कुछ इतिहासकार मानवता के प्रारम्भ से आज तक की विहंगम स्थिति को समझने की कोशिश करते हैं, उन्हें पढ़ना मुझे अच्छा लगता है। इअन मौरिस की तरह मुझे जारेड डायमण्ड (Jared Diamond) और युवाल नोह हरारी (Yuval Noah Harari) जैसे इतिहासकारों की किताबें भी अच्छी लगती हैं।

उनकी हर बात से सहमत होना आवश्यक नहीं, लेकिन उनसे सोचने की नयी दिशाएँ खुल जाती हैं। 

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सोमवार, दिसंबर 30, 2024

इंदो-अमरीकी लेखिका सोमा वीरा

कभी-कभी जीवन आप को बरसों पुरानी, एक पुरानी भूली-बिसरी याद के सामने ला कर खड़ा देता है, और आप चकित रह जाते हैं। मुझे कुछ ऐसा ही लगा जब अचानक एक दिन, एक पुरानी पत्रिका में कुछ खोजते हुए मेरी हिन्दी लेखिका सोमा वीरा से मुलाकात हो गई।

नीचे की इस तस्वीर में उन्नीस सौ पचास और नब्बे के दशकों की सोमा वीरा जी की तस्वीरें हैं (तस्वीरों को बड़ा करके देखने के लिए, उन पर क्लिक करें)।

इंदो-अमरीकी लेखिका सोमा वीरा

सोमा जी की हिन्दी कहानियों का संग्रह, "धरती की बेटी", आत्माराम एण्ड सन्स ने १९६२ में प्रकाशित की थी। यह किताब मुझे बहुत प्रिय थी और मैंने इसे बचपन में पढ़ा था।

आज से करीब बीस साल पहले, २००६ में, मैंने अपने मन-पसंद हिन्दी लेखकों की बात करते हुए सोमा वीरा जी की इस किताब के बारे में लिखा था। उस आलेख के कुछ साल बाद, हिन्दी पत्रिका अभिव्यक्ति निकालने वाली लेखिका पूर्णिमा वर्मन जी ने मुझे ईमेल भेजा कि क्या उस किताब के कवर पर सोमा वीरा की कोई तस्वीर है? उन्होंने ही मुझे बताया था कि सोमा वीरा अमरीका चली गईं थीं, जहाँ उनकी २००४ में मृत्यु हुई थी, लेकिन उनकी कोई तस्वीर नहीं मिल रही थी। इस किताब के पीछे भी सोमा वीरा जी की तस्वीर नहीं थी, मैंने पूर्णिमा जी को लिखा था। लेकिन इतने वर्षों पहले की यह बात मैं भूला नहीं था, जब भी मेरी दृष्टि मेरी अलमारी में रखी "धरती की बेटी" की ओर जाती थी तो यह बात मुझे याद आ जाती थी।

फ़िर अचानक कुछ दिन पहले जब एक पुरानी पत्रिका में उनकी एक कहानी दिखी और साथ में उनकी तस्वीर भी दिखी, तो लगा कि कोई दुर्लभ वस्तु मिल गई हो। आज के मेरे इस आलेख में उसी पुरानी सोमा वीरा की कुछ बातें हैं। लेकिन सबसे पहले देखते हैं कि इंटरनेट पर उनके बारे में क्या जानकारी मिलती है।

सोमा वीरा का परिचय

इंटरनेट पर खोजें तो अभिव्यक्ति की वेबसाईट पर उनके बारे में एक पृष्ठ मिलता है, जिसके अनुसार उन्होंने अमरीका में विश्वविद्यालय स्तर पर कार्य किया, उन्हें अमरीकी लेखक के रूप में भी जाना और सम्मानित किया गया था।
 
ई-पुस्तकालय पर उनकी एक किताब "साथी हाथ बढ़ाना" पीडीएफ में पढ़ सकते हैं। लेकिन उनकी कहानियों की किताब "धरती की बेेटी" कहीं नहीं दिखी। (यह किताब मेरे पास है, मेरे विचार में अब इसका कॉपीराईट नहीं होगा। अगर इसे पीडीएफ में इंटरनेट पर डालना चाहें तो क्या करना चाहिये, इसके लिए सुझाव दीजिये)।
इंदो-अमरीकी लेखिका सोमा वीरा / अंग्रेज़ी किताब का कवर

अमरीका के साईन्स फिक्शन डाटाबेस के अनुसार उनका जन्म २० नवम्बर १९३२ को लखनऊ में हुआ था। इस डाटाबेस में उनके कुछ अंग्रेज़ी उपन्यासों के नाम भी हैं और वहीं से, एक किताब के पीछे लगी, मुझे उनकी नब्बे की दशक वाली तस्वीर भी मिली (साथ में बायें)।
 
नब्बे के दशक में उन्होंने साईन्स फिक्शन विधा पर अंग्रेज़ी के बहुत से उपन्यास लिखे जो अमेज़न पर उपलब्ध हैं। अमेज़न पर ही उनके एक उपन्यास के पीछे उनके परिचय में लिखा है कि उन्होंने अमरीका में कोलोराडो विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिग्री ली और उसके बाद न्यू योर्क विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय सम्बंध तथा आर्थिक विकास विषय में पी.एच.डी. की। वह न्यू योर्क में रहती थीं और वहीं पर, संयुक्त राष्ट्र संस्थान के साथ लेकचर्र का काम करती थीं। वह अमरीका के प्रवासी भारतीय एसोसिएशन से भी जुड़ी थीं। (नीचे उनकी एक अंग्रेज़ी किताब का कवर, अमेजोन की वेबसाईट से)

इंदो-अमरीकी लेखिका सोमा वीरा/ अंग्रेज़ी किताब का कवर
 

पचास के दशक की सोमा वीरा से मेरी मुलाकात

मैं अपनी वेबसाईट कल्पना पर हर साल अपने पिता ओमप्रकाश दीपक के कुछ पुराने लेख व कहानियाँ टाईप करके जोड़ता रहता हूँ। गुड़गाँव में मेरी छोटी बहन ने एक अलमारी में उनके कुछ कागज़ सम्भाल कर रखे हैं। कुछ सप्ताह पहले कुछ दिनों के लिए गुड़गाँव गया था तो उसी अलमारी में पापा के कागज़ देख रहा था कि अब किस आलेख को इंटरनेट पर डालना चाहिये।

तब हाथ में हिन्दी पत्रिका "सरिता" का एक अंक आया जिसमें पापा की एक कहानी छपी थी। उसके पन्ने पलट रहा था कि देखा कि उस अंक में सोमा वीरा की एक कहानी भी छपी थी, "ढहती कगारें" जो उनके कथा-संग्रह "धरती की बेटी" में भी थी। जुलाई १९५८ की सरिता के उस अंक के शुरु में "सरिता के लेखक" पृष्ठ पर सोमा वीरा जी की तस्वीर और उनका परिचय भी था। उस परिचय में लिखा था:

"पच्चीस वर्षीय सोमा वीर शाहजहांपुर में अपने परिवार के कामधंधों के बीच भी कहानियाँ लिखने के लिए भी कैसे समय निकाल लेती हैं इसके पीछे एक मनोरंजक घटना छिपी है। सातवीं क्लास में एक प्रसिद्ध लेखक की कहानी पढ़ने के बाद जब आप ने कहा कि ऐसी कहानी तो मैं भी लिख सकती हूँ तो आप के भाई ने व्यंग किया था: "पुस्तकें पढ़-पढ़ कर यदि दो-चार विचार मस्तिष्क में उभर भी आयें तो क्या! तुम्हें कहानी लिखने का सिर-पैर भी नहीं आता।"

तभी से सोमा वीर ने उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने की ठान ली और प्रेमचंद व शरत जैसे महान लेखकों की कृतियों का अध्ययन करने लगीं। शिक्षा तो दसवीं से ज़्यादा न प्राप्त कर सकीं - विवाह हो गया - पर उच्चतम हिंदी साहित्य का अध्ययन चलता रहा। कुछ कहानियाँ लिखीं जो प्रकाशित न हुईं। उन्हें फाड़ कर फैंक दिया। निराशा हुई पर साहस नहीं छोड़ा। सरिता के नये अंकुर स्तम्भ में जब पहली बार कहानी छपी तो साहस बढ़ा। एक-दो कहानियाँ और भी छपीं, पाठकों ने उनका स्वागत किया। भाषा मंजती गई, विचार परिपक्व होते गये। आगे भी लिखते रहने का साहस बढ़ गया। इसी अंक में एक कहानी "ढहती कगारें" प्रकाशित हुई है। शीघ्र ही एक कहानी संग्रह भी प्रकाशित होने वाला है।"

सोमा वीरा की जीवन यात्रा

आत्माराम एण्ड संस द्वारा १९६२ में प्रकाशित "धरती की बेटी" की भूमिका प्रसिद्ध हिंदी लेखक विष्णु प्रभाकर ने लिखी थी और यह किताब वीरा जी ने अपने पिता को समर्पित करते हुए लिखा था - "महामना पिता श्री श्यामलाल को, जिनके युगान्तकारी विचारों ने मेरे व्यक्तित्व के 'अहम्' को जन्म दिया"।

अपनी भूमिका में प्रभाकर जी ने लिखा था, "सोमा बहन हार मानने में विश्वास नहीं करतीं। वह चुनौती को स्वीकार करती हैं। उनकी लेखनी में जीने की तीव्र आकांक्षा है। इसलिए वह प्रहार करती हैं ... वह कई वर्षों से अमरीका में अध्ययन कर रही हैं। उनका जीवन संघर्षों के बीच से गुज़रा है। अपने पैरों पर खड़े हो कर उन्होंने अंधकार के बीच से राह बनाई है।"

उनकी जीवन-यात्रा क्या थी, मुझे नहीं मालूम, मैं अटकलें ही लगा सकता हूँ। जुलाई १९५८ में जब सरिता में उनकी कहानी छपी थी, तब वह शाहजहांपुर में रहती थीं और १९६२ में जब उनका कहानी-संग्रह छपा तब वह "कुछ वर्षों से" अमरीका में पढ़ रही थीं। १९५८ में वह "दसवीं पास" ग्रहणी थीं तो अमरीका में पढ़ने कैसे गईं?

शायद उनके पति अमरीका में पढ़ने गये थे और वहाँ जा कर उन्होंने हाई स्कूल पूरा किया, फ़िर विश्वविद्यालय में पढ़ीं? और साईन्स फिक्शन के विषय पर लेखन की ओर वह कब व कैसे गईं?

अंत में

अपने प्रिय लेखकों के बारे में जानना-समझना सभी को अच्छा लगता है। जब खोई हुई जानकारी मिल जाये तो और भी खुशी होती है। बहुत साल पहले पूर्णिमा जी की ईमेल ने मेरे मन में जो जिज्ञासा जगाई थी, संयोगवश अब उसके कुछ उत्तर मिल गये। क्या जाने कि उनके परिवार का कोई सदस्य इस आलेख को पढ़ कर उनके बारे में और जानकारी साझा करे!


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