पिछले कुछ दिनों में फेसबुक पर साहित्यकारों से जुड़ी यौन दुराचरण की एक बहस चल रही है। मैं फेसबुक पर कम ही जाता हूँ और कोशिश करता हूँ कि नकारात्मक बातें न पढ़ू, फ़िर भी इस बहस के कुछ हिस्सों पर मेरी नज़र पड़ी। उस बहस में जिन व्यक्तियों की और जिस घटना की बात हो रही है, मैं दोनों से अपरिचित हूँ, इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं लिखना चाहता।
लेकिन इस बात से मुझे अपने कार्य-जीवन से जुड़ीं यौन दुराचरण की बातें याद आ गईं। यह आलेख मेरी उन यादों, अनुभवों, तथा विचारों के बारे में है।
आप क्या करेंगे?
अगर आप को पता चले कि आप का मित्र या ऐसा व्यक्ति जिसे आप बहुत मानते हैं वह यौन-दुराचरण कर रहा है तो आप क्या करेंगे? यह बातें फ़िल्मों में देख कर या दैनिक या पत्रिका में पढ़ कर आसान लगती है, और हम सोचते हैं कि इसके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए।
जैसे कि मीरा नायर की फ़िल्म "मॉनसून वेडिन्ग" में यह प्रश्न उठता है, जब पता चलता है कि परिवार का एक सम्मानित आदमी जिसने परिवार की कई अवसरों पर मदद की है, घर की बच्ची के साथ जबरदस्ती यौन सम्बंध करता था। उस फ़िल्म में परिवार के वरिष्ठ लोग उस आदमी को वहाँ से चले जाने के लिए कहते हैं। लेकिन फ़िल्मों के बाहर की दुनिया में क्या होता है? वहाँ अक्सर इस विषय पर चुप्पियाँ मिलती हैं, और लोग इस बारे में बात करने में असहज हो जाते हैं।
मेरे व्यक्तिगत अनुभव भी यही बताते है कि सामान्य जीवन में इस तरह के निर्णय लेना कभी-कभी बहुत कठिन हो सकता है। अगर आप को यौन विषय पर पढ़ने-सुनने से परेशानी होती है, तो मेरी सलाह है कि आप इस आलेख को आगे नहीं पढ़िये।
दो जाने-माने नाम
एब्बे पिएर फ्राँस में १९१२ में पैदा हुए थे और उनकी मृत्यु सन् २००७ में हुई थी। उन्हें लोग संत मानते-बुलाते थे। सन् १९४९ में एब्बे पिएर ने यूरोप में एम्माउस नाम की संस्था बनाई थी जो गरीबों, विकलांगों, कुष्ठ रोगियों, शरणार्थियों आदि के साथ सक्रिय थीं। उनकी संस्था से प्रभावित हो कर बहुत सी अन्य एम्माउस एसोसियेशन भी बनीं। चूँकि मैं भी कुष्ठ रोग और विकलांगता के क्षेत्र में सक्रिय था, उनमें से कई संस्थाओं के साथ मेरे सम्पर्क बने और उनके साथ बहुत बार काम भी किया।
करीब तीस-पैंतीस साल पहले, नब्बे के दशक में मैं एब्बे पिएर से एक बार मिला था और उनकी बातों और सोच से बहुत प्रभावित हुआ था। इसलिए जब पिछले वर्ष (२०२४ में), एब्बे पिएर के बारे में खबरें आईं कि उन्होंने बहुत सी बच्चियों के साथ यौन दुराचार किया था, तो मुझे बहुत धक्का लगा था। इस विषय पर एक नई किताब आई है जिसकी लेखिकाओं ने इस विषय पर छानबीन की है जिससे स्पष्ट होता है कि उनके यौन दुराचार की बातें लोगों को बहुत पहले से मालूम थीं लेकिन इसके बारे में कोई खुल कर नहीं बोलता था। ३३ स्त्रियों ने बचपन में उनके इस तरह के व्यवहार के व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में गवाही दी है।
जब इस तरह की बातें पता चलती हैं तो पहला प्रश्न जो मेरे मन में उठता है वह है - उस व्यक्ति के अच्छे कामों के बारे में क्या किया जाये? उन्हें भुला दिया जाना चाहिये? किसी व्यक्ति की बात करते हुए उसके अच्छे और बुरे कर्मों को किस तराजू में कैसे तोला जाये?
दूसरी बात है समय की। एब्बे पिएर को गुज़रे हुए सतरह साल हो चुके हैं तो अब यह बातें कहने का क्या लाभ है? मेरे विचार में सच्ची बात को अभिव्यक्त करना भी आवश्यक है। इस समाचार के बाद कुछ एम्माउस संस्थाओं ने अपनी वेबसाईट आदि से एब्बे पिएर का नाम हटा दिया है। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि इतने सालों के बाद की उन औरतों की स्मृति पर भरोसा नहीं किया जा सकता, या फ़िर किसी को मानसिक रोग हो तो वह गलत सम्बंध की बात की कल्पना भी कर सकता है, इसलिए इन बातों पर पूरा विश्वास करना कठिन है। लेकिन मुझे लगता है कि इतनी सारी औरतों की शिकायतों को मानसिक रोग कहना सच्चाई से मुँह छुपाना है।
दूसरी बात डेविड वर्नर की है। पिछड़े और विकासशील देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले बहुत सारे लोग डेविड वर्नर की दो किताबों को जानते हैं, "जहाँ कोई डॉक्टर नहीं है" और "गाँव के विकलांग बच्चे"। १९८०-९० के समय में यह दोनों किताबें बहुत प्रसिद्ध थीं और इनसे प्रेरणा पा कर इस तरह की अन्य कई किताबें भी लिखी गईं जैसे कि "जहाँ कोई डैंटिस्ट नहीं है", "जहाँ कोई मनोरोग विषेशज्ञ नहीं है", आदि।
मैंं डेविड से पहली बार १९८८ में मिला था और विकलांगता से सम्बंधित विषयों पर उसकी सोच-समझ को प्रेरणादायक पाया था।
२००३-४ के आसपास मैंने सुना कि उस पर आरोप लगा है कि मैक्सिको के जिस गाँव में रहता और काम करता था, वहाँ के कई बच्चों के साथ उसके यौन सम्बंध भी थे। मुझे विश्वास नहीं हुआ, लेकिन मेरी एक अंग्रेज़ी मित्र ने मुझे उसकी एक चिट्ठी दिखायी जिसमें वह इस तरह के "प्रेम सम्बंधों" को वह बच्चों के मानसिक विकास के लिए सही बता रहा था। हमारे मित्रों के गुट ने उस समय उससे सब सम्बंध तोड़ लिए थे। बाद में मैंने सुना कि वह अपनी बात से पलट गया है, वह इंकार करता है कि उसने ऐसा कुछ किया था।
डेविड मुझसे करीब बीस साल बड़ा था, अगर वह आज जीवित है तो नब्बे साल का होगा। बहुत सालों से मेरा उससे सम्पर्क नहीं है। लेकिन इसके बारे में मेरे मन में दुविधा है। उसकी जिन किताबों की वजह से लाखों लोगों को लाभ भी हुआ था और आज भी होता होगा, उनके लिए उसके योगदान को कैसे देखा जाये? मैं कई विकलांग लोगों को जानता हूँ जो कहते हैं कि उसकी किताबों में उन्होंने अपना जीवन जीने की राह पाई है।
मी टू - व्यस्कों में सम्बंधों की जटिलताएँ
कुछ वर्ष पहले "मी टू" (मुझे भी) के नाम से यौन दुराचार की बहुत सी बातें बाहर निकलीं, कई लोगों पर आरोप लगे जिसमें
बड़ी उम्र के जाने-पहचाने या प्रसिद्ध या उच्चे पद के अफसरों-अधिकारियों ने
अपने नीचे काम करने वाली युवतियों को सैक्स के लिए मजबूर किया था। कानूनी जाँच में बहुत से ऐसे आरोप सही निकले और कुछ में
आरोपितों को सजा मिली या नौकरी से निकाला गया। कुछ ऐसे आरोप झूठे भी निकले।
कुछ स्त्रियों का कहना है कि जिस समय यह हादसा हुआ था, यह इतना अप्रत्याशित था कि उस समय वह कुछ नहीं कह पायीं। अगर महिला ने रोका नहीं या स्पष्ट मना नहीं किया तो क्या इसे गलतफहमी का नतीजा भी माना जा सकता है?
यह भी सच है कि नीचे काम करने वाले को दबाव महसूस होता है कि अगर वह ऐसे सम्बंधों को नहीं स्वीकारेंगे तो उनके केरियर पर बुरा असर पड़ेगा। इसलिए कुछ लोग कहते हैं कि इस तरह के सम्बंध हमेशा गलत होते हैं। लेकिन ऐसे कई दम्पत्ति हैं जिनकी जानपहचान और प्रेम साथ में काम करने की वजह से हुए, जब उनमें से एक ऊँचे पदवे पर था और दूसरा नीचे। इसलिए यह सोचना कि ऊँचे और नीचे पद वालों के बीच किसी तरह के सम्बंध नहीं बने, को लागू करना कठिन होगा।
यह भी हो सकता है कि कैरियर में आगे बढ़ने के लिए या किसी लाभ की आशा से कुछ व्यक्ति इस तरह के सम्बंध सोच-समझ कर बनायें, लेकिन बाद में प्रमोशन या लाभ न मिलने पर गुस्सा हो जायें और बदला लेने के लिए कहें कि उनके साथ जबरदस्ती हुई है। यह बात सोच कर मुझे व्यस्क व्यक्तियों के बीच हुए सम्बंधों का मामला अधिक कठिन लगता है।
समलैंगिक यौन दुराचरण की जटिलतायें
नब्बे के दशक में एक अधेड़ उम्र की नर्स हमारे एक प्रोजेक्ट में काम करने तीन महीने के लिए विदेश गईं। उन्होंने लौट कर मुझसे शिकायत की वहाँ काम करने वाली, उनसे दस वर्ष बड़ी हमारे प्रोजेक्ट की प्रमुख ने उनसे यौन सम्बंध बनाने की कोशिश की। वह चाहती थीं कि हम उस प्रोजेक्ट प्रमुख को नौकरी से निकाल दें। जहाँ तक मुझे समझ में आया शिकायत करने वाली महिला के साथ किसी तरह की कोई जबरदस्ती नहीं हुई थी, बल्कि वह सोचती थीं कि लेसबियन होना गलत है और ऐसी औरतों को प्रोजक्ट में ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं रखना चाहिए। जबकि मुझे लगा कि लेसबियन होना और व्यस्क महिला से सम्बंध के लिए कहना या पूछना कोई जुर्म नहीं है। अंत में मैंने इस शिकायत के बारे में कुछ नहीं किया।
एक बार भारत में एक कुष्ठआश्रम के काम करने वाली यूरोपीय मूल की नर्स-नन के बारे में भी मुझे यही शिकायत मिली कि वह लेसबियन है। मैं उन्हें बहुत सालों से जानता था और मुझे लगा कि वह बहुत मेहनत तथा प्यार से रोगियों की सेवा करती थीं। मैंने सोचा कि लेसबियन होना अपराध नहीं है, और अगर वह किसी से जबरदस्ती नहीं कर रहीं तो यह उनका निजि मामला है। बाद में मुझे खबर मिली कि उनकी संस्था (कोनग्रेगशन) ने उन्हें संस्था से निकाल दिया है और वह यूरोप वापस लौट आईं।
कुछ साल पहले अमरीकी अभिनेता केविन स्पेसी पर भी कुछ पुरुषों ने आरोप लगाये थे कि कुछ दशक पहले जब वह नाबालिग थे तब स्पेसी ने उनके साथ जबरदस्ती सम्बंध बनाये थे। इन आरोपों की वजह से स्पेसी को कई फिल्मों और सीरियल से निकाल दिया गया, लेकिन बाद में न्यायालय ने उन आरोपों को सही नहीं माना। एक ओर से यह हो सकता है कि इतने पुराने ज़ुर्म को अदालत में साबित करना आसान नहीं है, लेकिन दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि प्रसिद्ध और पैसे वाले व्यक्ति पर झूठा आरोप लगाने का कारण व्यक्तिगत लाभ की आशा हो।
एक और अनुभव
मेरा तीसरा अनुभव एक यूरोपी पुरुष से जुड़ा है जो करीब बीस साल से अफ्रीका में काम करते थे। उन्होंने वहाँ की महिला से विवाह किया था और उनके बच्चे भी थे, जिनमें वहाँ के कुछ गोद लिए हुए बच्चे भी थे। उन्होंने बहुत से बच्चों को छात्रवृति दिलवा कर यूरोप पढ़ने भेजा था। एक दिन उनके विरुद्ध शिकायत आई कि वह वहाँ अनाथाश्रम के बच्चों से यौन सम्बंध बनाते हैं। इस बात की जाँच के लिए वहाँ एक व्यक्ति को भेजा गया। तीन सप्ताह तक उस व्यक्ति ने वहाँ के बच्चों से, वहाँ काम करने वालों से, आदि से साक्षात्कार किये, और इस बारे में प्रश्न पूछे। पता चला कि आरोप लगाने वालों में कुछ लोगों का उनसे झगड़ा हुआ था, लेकिन किसी बच्चे से इसके बारे में बातचीत से कोई संदेहजनक बात नहीं निकली। आखिर में कुछ सबूत नहीं मिलने से यह जाँच बंद कर दी गयी और उनके विरुद्ध कुछ कार्यवाही नहीं की गई।
इस बात के चार-पाँच साल के बाद उस देश की सरकार ने उन्हें अपने देशवासियों की सेवा के लिए विषेश पुरस्कार दिया। इस बात को बीस-पच्चीस साल हो गये हैं और वह सज्जन, जो अब वृद्ध हैं, आज भी उसी देश में रहते हैं और उसी अनाथाश्रम में स्वयंसेवक की तरह काम करते हैं।
सच कहूँ तो आज भी मेरे मन में इस घटना के बारे में दुविधाएँ हैं, हालाँकि उनके अपने गोद लिए हुए बच्चे, जो अब व्यस्क हैं, कहते हैं कि उनके पिता पर लगे आरोप झूठे थे। आप बताईये कि आप इस मामले में क्या करते?
अंत में
मेरे लिए, व्यक्तिगत स्तर पर, इस विषय पर सबसे बड़ी दुविधा का कारण है कि जहाँ बलात्कार जैसे सबूत नहीं हों, किसी पर लगे आरोपों को कैसे जाँचा जाये? बाद में मन में संदेह रह जाता है, उसे निकालना असम्भव होता है, तो यह लगता है कि आरोप लगाना बहुत आसान है, लोग कुछ भी कह सकते हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू है कि जब कोई औरत, अतीत में हुई किसी बात को बताती है, तो उसके लिए यह कहना आसान नहीं होता, उसे कैसे गम्भीरता से न लिया जाये?
अंत में बात घूम-फ़िर कर वहीं आ जाती है कि उपन्यासों, फ़िल्मों या अखबारों या फेसबुक में यह बातें आसान लग सकती हैं, कि यह हुआ, ऐसा या वैसा करना चाहिए था। फेसबुक जैसे सोशल मीडिया में कुछ भी लिखना आसान है। लेकिन जब आप को निर्णय लेना पड़े तो यह कभी-कभी बहुत कठिन हो सकता है।
पटना की घटना से जुड़ी बहस पर साहित्यकारों और साहित्य की बात करते हुए, मित्र ओम थानवी ने लिखा है, "अच्छा या बड़ा लेखक जाति, विचार, चरित्र, आचरण के बावजूद अच्छा या बड़ा होता है। कम-से-कम इस तरह के आधारों पर उसे त्याज्य या उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता।" कुछ यही बात अन्य क्षेत्रों में काम करने वालों के लिए भी कही जा सकती है।
आप बताईये आप इस विषय के बारे में क्या सोचते हैं?
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