कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की एक अन्य फ़िल्म, "जिस तरह हम बोलते हैं" पर लिख रहा हूँ।
इस फ़िल्म को बनाने में उन्होंने हिंदी भाषा के विकास के प्रख्यात जानकार लोगों का सहयोग लिया, जिनमें प्रो. नामवर सिंह का नाम सबसे पहले आता है, वह इस फ़िल्म के सूत्रधार थे। अन्य विद्वान जिन्होंने फ़िल्म में सहयोग दिया उनमें प्रमुख नाम हैं वाराणसी के प्रो. जुगल किशोर मिश्र तथा प्रो. शुकदेव सिंह, उज्जैन के डॉ. कमलदत्त त्रिपाठी और दिल्ली विश्वविद्यलय के प्रो. अजय तिवारी। नीचे तस्वीर में फ़िल्म से प्रों. नामवर सिंह।
फ़िल्म में संस्कृत से पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश के रास्ते से हो कर आज की भाषाओं और बोलियों के विकास की गाथा चित्रित की गई थी। यह फ़िल्म २००४-०५ के आसपास दूरदर्शन इंटरनेशनल चैनल पर तथा अमरीका में विश्व हिंदी दिवस समारोह में दिखायी गई थी।
जब मैंने यह फ़िल्म पहली बार देखी ती तो मुझे लगा था कि इसमें हमारी भाषाओं और बोलियों के बारे में बहुत सी दिलचस्प जानकारी है, और इस फ़िल्म को जितना महत्व मिलना चाहिये था, वह नहीं मिला था। इसलिए नवम्बर २०२२ में मैंने इसे अरुण के साथ देखा और उससे फ़िल्म में दिखायी बातों पर लम्बी बातचीत को रिकॉर्ड किया। कई महीनों से इसके बारे में लिखने की सोच रहा था, आखिरकार यह काम कर ही दिया।
फ़िल्म में दी गई कुछ जानकारी मुझे गूढ़ तथा कठिन लगी। चूँकि फ़िल्म में सबटाईटल नहीं हैं, हो सकता है कि कुछ बातें मुझे ठीक से समझ नहीं आयी हों, इसके लिए मैं पाठकों से क्षमा मांगता हूँ। मेरे विचार में दूरदर्शन को इस फ़िल्म को इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध करना चाहिये।
"जिस तरह हम बोलते हैं" - फ़िल्म के बारे में निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा से बातचीत
अरुण चढ़्ढ़ा: "हम लोग स्कूल में पढ़ते थे कि भारत की बहुत सारी भाषाएँ हैं, हर प्रदेश की अपनी भाषा है, और हर भाषा की बहुत सी बोलियाँ हैं। कहते हैं कि यात्रा करो तो हर दो कोस पर बोली बदल जाती है। इसी बात से मैं सोच रहा था कि हिंदी कैसे विकसित हुई, और हिंदी से जुड़ी कौन सी प्रमुख बोलियाँ हैं, उनके आपस में क्या सम्बंध हैं, उनके संस्कृत से क्या सम्बंध हैं। एक बार इसके बारे में जानने की कोशिश की तो पता चला कि जिसे हम एक भाषा कहते हैं, उसमें भी कई तरह के भेद हैं। जैसे कि संस्कृत भी दो प्रमुख तरह की है, वैदिक संस्कृत तथा लौकिक संस्कृत। तो मेरे मन में आया कि हमारी भाषाओं के विकास में यह सब अंतर कैसे आये और क्यों आये? (नीचे तस्वीर में अरुण चढ़्ढ़ा)
हमारी हिंदी की जड़े कम से कम चार हज़ार वर्ष पुरानी हैं और आज की भाषा उस प्राचीन भाषा से बहुत भिन्न है, उनमें ज़मीन-आसमान का अंतर है। अगर कोई भाषा जीवित है तो वह समय के साथ बदलेगी। लोग कहते हैं कि हमारी भाषा में मिलावट हो रही है, भाषा की शुचिता को बचा कर रखना चाहिये, लेकिन अगर भाषा जीवित है तो उसका बदलते रहना ही उसका जीवन है। जयशंकर प्रसाद, मैथिलीचरण गुप्त और निराला जैसे साहित्यकारों ने, हर एक अपने समय की भाषा का उपयोग किया है।
यही सब सोच कर मुझे लगा कि प्राचीन समय से ले कर हमारी भाषा कैसे विकसित हुई, कैसे कालांतर में उससे अन्य भाषाएँ और बोलियाँ बनी, इस विषय पर फ़िल्म बनानी चाहिये। सबसे पहले मैंने इसके बारे में नेहरु संग्रहालय के एक लायब्रेरियन से बात की, फ़िर उनके सुझाव पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में बात की, वहाँ प्रोफेसर सब्यसांची ने सलाह दी, इस तरह से इस विषय पर सामग्री एकत्रित करनी शुरु की। तब प्रो. नामवर सिंह से बात हुई, जानकारी के साथ उन्होंने इस फ़िल्म का सूत्रधार बनना स्वीकार कर लिया। फ़िर, उज्जैन की संस्कृत एकादमी के निदेशक के. एम. त्रिपाठी साहब मिले, वाराणसी संस्कृत विद्यापीठ के प्रो. जुगल किशोर मिश्रा और अन्य बहुत से लोग इस काम में साथ चले, उन सबके सहयोग के बिना इस फ़िल्म को नहीं बना सकता था। (नीचे फ़िल्म से प्रो. जुगलकिशोर मिश्रा)
चूँकि भाषा लिखने, पढ़ने और बोलने का माध्यम है, उस पर फ़िल्म कैसे बनाई जाये, यह दुविधा भी थी। मुझे लगा कि हम यह दिखा सकते हैं कि बोली हुई भाषा के उच्चारण कैसे होते हैं। जैसे कि उज्जैन में त्रिपाठी साहब को प्राकृत भाषा के उच्चारण की जो जानकारी थी वह अपने आप में अनूठी थी। वाराणसी में प्रो. मिश्र थे जिनके विद्यार्थयों का संस्कृत थियेटर का दल था, उन लोगों ने संस्कृत नाटकों के मंचन से फ़िल्म में सहयोग दिया था। (नीचे फ़िल्म से डॉ. कमलेश दत्त त्रिवेदी)
इस फ़िल्म की सारी रिकॉर्डिन्ग लोकेशन पर ही की गई, मैं इसकी डबिन्ग नहीं चाहता था। खुली जगहों में, भीड़ में, कैसे लाइव रिकॉर्डिन्ग की जाये, यह हमारी चुनौती थी। यह फ़िल्म बीस-बीस मिनट के पाँच भागों में प्रसारित की गई थी, बाद में उन्हें जोड़ कर मैंने एक घंटे की फ़िल्म भी बनाई थी।
वैदिक तथा लौकिक संस्कृत और उसकी व्याकरण
फ़िल्म का प्रारम्भ जयशंकर प्रसाद की "कामायनी" की एक कविता से होता है। फ़िर नामवर सिंह बताते हैं कि "ऋग्वेद की पहली ऋचा वाक-सूक्त है, जिसमें वाक् यानि भाषा की महिमा गाई गई है। हडप्पा में मूर्तियाँ, चित्र, भवन, सब कुछ हैं लेकिन अभी तक उनकी लिपी नहीं पढ़ी जा सकी। इस तरह से हम उनकी सभ्यता के बारे में बहुत कुछ जानते हैं लेकिन उनके साहित्य के बारे में कुछ नहीं जानते। सभी समाज, संस्कृति, सभ्यता, बिना उसकी भाषा के उसकी पहचान पूरी नहीं होती।"
वैदिक संस्कृत दो हज़ार वर्ष पहले जैसी बोली जाती थी, आज भी वैसी ही लिखी जाती है, इसके शब्दों को आगे-पीछे नहीं कर सकते। इस भाषा के मंत्रो मे उच्चारण को फ़िल्म में छाऊ नृत्य के साथ दिखाया गया है। लेकिन विभिन्न वेदों में मंत्रों के उच्चारण और ताल में अंतर आ जाता है। जैसे कि हिरण्यगर्भ समवर्ताग्रह ऋचा तीन वेद ग्रंथों (ऋग्वेद, कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद) में मिलती है, इसके शब्द नहीं बदल सकते लेकिन उनका उच्चारण और ताल बदल जाते हैं। यह इस लिए होता है क्योंकि यह स्वाराघात-युक्त भाषा है, इसमें सात स्वरों का समावेश है इसलिए उनका उच्चारण भी सप्त स्वर-नियमों के अनुसार होता है। यह सप्त सुर सामवेद में स्फटित रूप में मिलते हैं, जबकि ऋग्वेद, कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल यजुर्वेद में यह सात सुर तीन स्वरों (उदात्त, अनुदात्त और छड़िज) में समाहित हो जाते हैं। उदात्त में निशाद और गंधार मिल जाते हैं, अनुदात्त में ऋषभ और भैवत, और छड़िज में षड़ज, मध्यम और पंचम मिल जाते हैं। इस वजह से हर वेद की उच्चारण शैली में अंतर होता है। (नीचे फ़िल्म से प्रो. शुकदेव सिंह)
वेद ग्रंथ वैदिक संस्कृत में लिखे गये हैं, जबकि रामायण और भगवद्गीता जैसे ग्रंथ लौकिक संस्कृत में लिखे गये हैं, जिनकी भाषा में समय के साथ बदलाव हो सकता है। पाणिनी व कात्यायन जैसे आचार्यों ने व्याकरण के नियमों की व्याख्या करके संस्कृत को व्यवस्था दी, उन्हीं नियमों का प्रयोग हिंदी जैसी भाषाएँ भी करती हैं।
फ़िल्म में बताया गया है कि, "पाणिनी की व्याकरण संस्कृत ही नहीं, किसी भी भाषा की पहली व्याकरण थी, जिसे उन्हों ने १४०० सूत्रों में लिखा था। कहते हैं कि शिव जी ने चौदह बार डमरू बजाया, उस डमरू पर १४ स्वरों वाले "अइउड़ सूत्र" से संस्कृत की उत्पत्ति हुई, उन्हीं सूत्रों पर ही पाणिनी ने अष्टाध्यायी व्याकरण लिखी। उन्होंने संस्कृत की मुख्य धातुओं को निश्चित किया, जिनमें उत्सर्ग, प्रत्येय आदि जोड़ कर शब्द बनाते हैं।"
फ़िल्म में लौकिक संस्कृत के उदाहरण कालीदास के नाटक के माध्यम से दिखाये हैं। उज्जैन के त्रिपाठी जी बताते हैं कि महाकवि कालीदास के समय में लौकिक संस्कृत संचार की भाषा थी और उसकी प्रवृति धीरे-धीरे मुखर हो कर प्राकृत भाषा में मुखरित हो रही थी, क्योंकि आम व्यक्ति जब उसे बोलते थे तो उनकी बोली में उच्चारण और व्याकरण का सरलीकरण होता था।
संस्कृत की परम्परा दक्षिण भारत में भी रही है। जैसे कि केरल के मन्दिरों में संरक्षित संगीत तथा नाट्य पद्धिति कुड़ीयट्टम का इतिहास दो हज़ार वर्ष पुराना है, करीब तीन सौ साल पहले इसका कथ्थकली स्वरूप विकसित हुआ है, जिसमें वैदिक गान को तीन स्वरों (उदात्त, अनुदत्त और छड़िज) में ही गाते हैं, लेकिन कुड़ीयट्टम शैली उनमें भावों को जोड़ देती है।
प्राकृत भाषा
ईसा से करीब छह सौ साल पहले प्राकृत भाषाएँ लौकिक संस्कृत के सरलीकरण से बनने लगीं, समय के साथ प्राकृत के कई रुप बदले, इसलिए प्राकृत कई भाषाएँ थीं। सरलीकरण से संस्कृत के तीन वचन से दो वचन हो गये, कुछ स्वर जैसे ऋ, क्ष, आदि प्राकृत में नहीं मिलते थे। भगवान बुद्ध ने जिस प्राकृत भाषा में अपनी बात कही उसे "पाली" कहते हैं। जैन तीर्थांकर महावीर और सम्राट अशोक ने भी प्राकृत में ही अपने संदेश दिये। समय के साथ इनसे अपभ्रंश तथा आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म हुआ।
भारत के नाट्यशास्त्र में ४२ तरह की भाषाओं की बात की गई है, जबकि कोवल्य वाक्यमाला ग्रंथ में १८ तरह की प्राकृत की बात की गई है, जिनमें तीन प्रमुख मानी जाती थीं - मगधी, महाराष्ट्री और शौरसैनी। महाकवि कालीदास ने तीनों प्राकृत भाषाओं का अपने नाटकों में सुन्दर उपयोग किया था। जैसे कि एक ही नाटक में एक पात्र लौकिक संस्कृत बोलता है, गद्य में बोलने वाले शौरसैनी बोलते हैं और गीत महाराष्ट्री में हैं।
अपभ्रंश, औघड़ी, अवधी, ब्रज, हिन्दवी, खड़ी बोली ...
संस्कृत से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश, अपभ्रंश से औघड़, इस तरह से शताब्दियों के साथ भाषाएँ बदलती रहीं। महाकवि कालीदास ने विक्रमवेशी में अपभ्रंश का उपयोग भी किया और पतांजलि ने अपने महाभाष्य अपभ्रंश में लिखा।