शुक्रवार, जून 28, 2024

आयुर्वेद और वैज्ञानिक शोध

आयुर्वेद में सदियों के अनुभवों से निर्मित भारतीय मानव-चिकित्सा का ज्ञान और समझ संचित है। इस ज्ञान में एक ओर से जड़ी-बूटियों से ले कर हर तरह के प्राकृतिक पदार्थों से जुड़ी जानकारी है। आयुर्वेद में मानव शरीर कैसे बना है, उसके अंगों, क्रियाओं और रोगोत्पत्ति व रोग-उपचार की प्राचीन सोच-समझ भी है। कुछ बातों में आयुर्वेद के विचार आज के वैज्ञानिक विचारों से भिन्न है, इसलिए आधुनिक अनुसंधानों से इस समझ के प्रमाण खोजने की आवश्यकता है।

अगर वैज्ञानिक अनुसंधान के बाद आयुर्वेद की कुछ बातों के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते तो उन्हें बदलना चाहिये या नहीं, और कैसे बदलना चाहिए, यह बहस व निर्णय आयुर्वेद के विशेषज्ञ ही ले सकते हैं।

पिछली कुछ सदियों में आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान की सोच तथा पद्धति विकसित हुई है जिसमें चिकित्सा के विषय पर वैज्ञानिक शोध व अनुसंधान कैसे किया जाना चाहिए की बात भी है। आज दुनिया में कोई भी चिकित्सा परम्परा हो, उसे इसी वैज्ञानिक शोध की कसौटी पर जाँचा जाता है।

यह आलेख आयुर्वेद और वैज्ञानिक अनुसंधान के विषय पर है।

International Meetingon Traditional Medcine in Asia, Bangalore, India, 2006

मैं, आयुर्वेद और शोध

मैं एलोपैथी का डॉक्टर हूँ और मुझे वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में अनुभव है। करीब बीस साल पहले, मैंने "एशिया की पाराम्परिक चिकित्सा पद्धितियों" के विषय पर बंगलौर में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय सभा में हिस्सा लिया था, जिसमें मेरा आयुर्वेद से परिचय हुआ। उस समय मुझे बंगलौर में एक आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज जाने का मौका भी मिला था। इस आलेख की सभी तस्वीरें  २००६ की उसी सभा तथा वहाँ के आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज से हैं।

पिछले कुछ वर्षों में मुझे केरल में आयुर्वेदिक चिकित्सा करवाने का सकारात्मक अनुभव हुए थे। इसके साथ मुझे कुछ अन्य आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेजों में जाने और वहाँ के शिक्षकों से बातचीत का मौका भी मिला। उससे मुझे लगा कि बहुत से आयुर्वेदिक चिकित्सकों तथा प्रोफैसरों में चिकित्सा से जुड़े वैज्ञानिक शोध-पद्धितियों की समझ कुछ सीमित है। मेरे विचार में वैज्ञानिक शोध एक महत्वपूर्ण विषय है और आयुर्वेद के मेडिकल कॉलिजों को इस विषय में पढ़ने व सीखने की बहुत आवश्यकता है।

International Meetingon Traditional Medcine in Asia, Bangalore, India, 2006

जब हमें किसी उपचार से अच्छा अनुभव है, तो वैज्ञानिक शोध क्यों?

मेरे विचार में आयुर्वेदिक उपचारों पर वैज्ञानिक शोध करने के तीन प्रमुख कारण हैं -

(१) जब कोई दवा या उपचार रोगियों को राहत देते हैं, तब शोध से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि वे उपचार कितने प्रतिशत मरीजों को राहत देते हैं? वह राहत कितने समय तक रहती है? वे उपचार किस तरह से या क्यों सफल होते हैं? क्या उस उपचार के रोगियों पर कुछ अवांछनीय या नकारात्मक प्रभाव भी हैं? इस तरह के प्रश्नों के उत्तर खोजने से उन उपचारों को बेहतर किया जा सकता है।

(२) चिकित्सा-शोध ने दिखाया है कि जब रोगियों को डॉक्टर पर और उसके इलाज पर भरोसा होता है तो केवल यह विश्वास ही कुछ प्रतिशत मरीज़ों को ठीक कर देता है, इसे प्लेसेबो प्रभाव (placebo) कहते हैं। प्लेसबो प्रभाव को दवा या उपचार के प्रभाव से अलग समझना आवश्यक है। वैज्ञानिक शोध से हम यह समझ सकते हैं कि कितने लोग आयुर्वेद उपचार से इस तरह के विश्वास-प्रभाव की वजह से ठीक होते हैं, और कितने लोग सचमुच आयुर्वेद की दवाओं या उपचार से।

(३) एलोपैथी वाले कुछ चिकित्सक सोचते हैं कि आयुर्वेद सचमुच का ज्ञान नहीं है, यह जादू-टोना या अंधविश्वास है। आयुर्वेद पर वैज्ञानिक शोध से इस तरह के आरोपों से लड़ा जा सकता है।

International Meetingon Traditional Medcine in Asia, Bangalore, India, 2006

आयुर्वेद चिकित्सा का विकास कई सौ या हजारों वर्षों के अनुभव का नतीजा है, लेकिन विज्ञान कभी रुकता नहीं है, आगे बढ़ता रहता है, इसलिए आयुर्वेद को भविष्य में किस ओर जाना चाहिये, इसे समझने के लिए शोधकार्य चलता रहना चाहिये। आयुर्वेद में प्राचीन ज्ञान को बहुत महत्व दिया जाता है, लेकिन मेरे विचार में प्राचीन ज्ञान के साथ नया ज्ञान जोड़ना भी महत्वपूर्ण है। 

पश्चिमी वैज्ञानिक, चिकित्सक एवं शोधकर्ता स्वीकारते हैं कि आयुर्वेद जैसी प्राचीन परम्पराओं में वनस्पति जगत से जुड़ा गहरा ज्ञान है। जैसे कि किस पत्ते या जड़ आदि से किस रोग का उपचार हो सकता है। इसलिए वे लोग अक्सर इस जानकारी से उन पौधों से दवा खोजने और उसके रसायन पदार्थों को अलग करने के शोध करते हैं, लेकिन इन्हें आयुर्वेद-शोध नहीं कह सकते, क्योंकि वह लोग आयुर्वेद की सोच के अनुसार कुछ नहीं करना चाहते, बल्कि वह केवल अपनी पश्चिमी वैज्ञानिक सोच से नई दवाओं की खोज में लगे हैं।

वैज्ञानिक शोध कैसे करते हैं?

अनुसंधान करने का अर्थ है वैज्ञानिक मापदंडों के साथ निष्पक्ष प्रयोग या परीक्षण करना। इसे वैज्ञानिक शोध तभी माना जा सकता है अगर निम्नलिखित तीनों बातों को पूरा किया जाये - 

(१) शोध-प्रयोगों का लिखित प्रोटोकॉल होना चाहिए, जिसे अनुसंधान से पहले तैयार किया जाना चाहिए, और इसे एक वैज्ञानिक शोध कमेटी से मंजूरी मिलनी चाहिए। वैज्ञानिक शोध कमेटी के सदस्यों तथा शोध करने वाले के बीच में कोई व्यक्तिगत सम्बंध नहीं होना चाहिए, ताकि वह निष्पक्ष निर्णय लें। प्रोटोकॉल की मंजूरी के बाद, पूरे अनुसंधान को उस प्रोटोकॉल के अनुसार किया जाना चाहिए जिसमें उसके हर कदम को निष्पक्ष तरीके से देख कर जाँचा और मापा जाना चाहिये, और इसकी लिखित रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिए।

(२) उस अनुसंधान के सभी सकारात्मक व नकारात्मक नतीजों को सांख्यकी (statistics) के मानदंडों से परखना चाहिए।

(३) उस अनुसंधान के हर चरण के प्रमाणों को सही तरीके से संजो कर रखना चाहिए, ताकि कोई भी वैज्ञानिक उस सारी प्रक्रिया और उसके हर कदम की स्वतंत्र जाँच कर सके।

इन तीनों बातों में से एक भी बात अधूरी हो, तो उस वैज्ञानिक शोध को विश्वास्नीय नहीं माना जा सकता। वैज्ञानिक शोधों की रिपोर्टों को ऐसी पत्रिकाओं में छापते हैं जिनमें छापने से पहले अन्य वैज्ञानिक आप के शोध को जाँच-परख सकते हैं। इन्हें पियर रिव्यू (Peer reviewed) यानि अन्य वैज्ञानिकों द्वारा जाँचे आलेखों की पत्रिकाएँ कहते हैं।

आयुर्वेद की वैज्ञानिक पत्रिकाएँ 

अगर हम आयुर्वेद से जुड़े विषयों पर शोध करना चाहते हैं तो सबसे पहला प्रश्न है कि क्या भारत में ऐसी पियर-रिव्यू वाली आयुर्वेद चिकित्सा की पत्रिकाएँ हैं और अगर हैं तो किस तरह की वैज्ञानिक क्षमता वाले लोग उसके साथ जुड़े हैं जो उसमें छपने वाले आलेखों की जाँच करते हैं?

इस विषय पर इंटरनेट पर खोज करने से मुझे निम्नलिखित आयुर्वेद की वैज्ञानिक पत्रिकाएँ मिलीं:

हिंदी में आयुर्वेदीक-अनुसंधान की भी शायद कुछ पत्रिकाएँ छपती हैं, लेकिन इनके पीडीएफ अंक इंटरनेट पर कठिनाई से मिलते हैं और इनके बारे में जानकारी सुलभ नहीं है। जैसे कि "आयुर्वेद एवं सिद्ध अनुसंधान पत्रिका", जिसकी वेबसाईट पुरानी शैली की है और जिसके कुछ आलेख मुझे अंग्रेजी में दिखे।

आयुर्वेद-अनुसंधान के विषय पर कुछ कार्यशाला आयोजित करने की भी छिटपुट खबरें मिलती हैं लेकिन जिस स्तर पर यह काम होना चाहिये, उससे मुझे यह बहुत कम लगता है।

अगर उपरोक्त जानकारी के अतिरिक्त अगर आयुर्वेद-शोध-अनुसंधान के विषय पर अन्य वैज्ञानिक पत्रिकाएँ छपती हैं हैं तो कृपया नीचे टिप्पणी करके उनकी सूचना दीजिये। इन विषयों पर अगर भारतीय भाषाओं में छपने वाली अन्य पत्रिकाएँ हैं तो उनकी जानकारी भी नीचे टिप्पणियों में दीजिये।

आयुर्वेदिक-शोधों में कमियाँ

मैंने उपरोक्त पत्रिकाओं में छपने वाले शोधों के कुछ आलेख पढ़े। मुझे उनमें कुछ कमियाँ दिखीं, जैसे कि:

  • अक्सर लेखक ऐसे शब्द या परिभाषाएँ उपयोग में लाते हैं जिनके अर्थ स्पष्ट नहीं हैं। जैसे कि एक आलेख में आयुर्वेद के मूलभूत मूल्यों की बात थी लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि वह मूलभूत मूल्य कौन से थे और कैसे निर्धारित किये गये थे? आयुर्वेद में वात, कफ, पित्त आदि शब्दों का भी प्रयोग होता है लेकिन उनके अर्थ भी मुझे स्पष्ट नहीं लगे। जब इस तरह के शब्द या परिभाषाएँ उपयोग करते हैं तो यह समझना आवश्यक है कि आयुर्वेद से जुड़े कितने प्रतिशत लोग उन मूल्यों या अर्थों से सहमत हैं? मुझे यह कमी आयुर्वेद से सम्बंधित बहुत से विचारों, शब्दों, अर्थों और मूल्यों के बारे में महसूस होती है। जब तक हर एक शब्द या विचार की सर्वसम्मत या बहुमत-स्वीकृत स्पष्ट परिभाषा नहीं होगी, तब तक उन पर वैज्ञानिक शोध करना कठिन ही नहीं, असम्भव होगा। आयुर्वेद-विशेषज्ञों को इस दिशा में सबसे पहले निर्णय लेने चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर विशेषज्ञों का डेल्फी सर्वे करके परिभाषाओं को स्पष्ट करना चाहिये।   
  • आयुर्वेद की नींव संस्कृत के ग्रंथों पर टिकी है, अक्सर भाषा बदलने से अंग्रेज़ी में उन संस्कृत शब्दों के सही अर्थ खोजना कठिन काम हो जाता है, इसलिए आयुर्वेद की संस्कृत या भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक पत्रिकाएँ उपलब्ध होना बहुत महत्वपूर्ण और आवश्यक है। बहुत खोजने पर इंटरनेट पर संस्कृत, हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में आयुर्वेदी-शोध की वैज्ञानिक पत्रिका नहीं मिली, यह मुझे बहुत गम्भीर कमी लगती है। मेरे विचार में असली शोध भारतीय भाषाओं में होना चाहिये, उसके बाद उनका अंग्रेज़ी में अनुवाद करना चाहिये ताकि शोध से जुड़े शब्दों को  उनकी सही परिभाषा में समझा जा सके।
  • मैंने ऊपर दी गई पत्रिकाओं में छपे कुछ आलेख देखे, जिन्हें पूर्ण रुप से वैज्ञानिक शोध नहीं कह सकते। जैसा मैंने ऊपर लिखा, चिकित्सा सम्बंधी शोध-प्रोटोकॉल कैसे तैयार किये जाते हैं, लगता है कि इसकी जानकारी कम है और अधिक लोगों तक पहुँचनी चाहिये। इस विषय पर आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलिजों द्वारा प्रोफैसरों, स्नातकों तथा विद्यार्थियों के लिए कार्यशालाओं का आयोजन होना चाहिये।

चीन में उनकी परम्परागत चिकित्सा (एकपंक्चर, आदि) पर बहुत शोध हुआ है। यह सब शोध और वैज्ञानिक शोध वे लोग चीनी भाषा में करते हैं और चीनी भाषा में वैज्ञानिक शोध की बहुत सी पत्रिकाएँ हैं। लेकिन यह बात नहीं है कि वह बाकी दुनिया में होने वाले शोधों से अनभिज्ञय हैं। वहाँ पर अंग्रेजी, फ्राँसिसी, स्पेनी आदि भाषाओ में छपने वाले महत्वपूर्ण शोधों के चीनी अनुवाद किये हुए सार या पूरे आलेख छापने वाली चीनी पत्रिकाएँ भी हैं, ताकि स्थानीय शोधकर्ताओं को खबर रहे कि दुनिया में क्या हो रहा है। आयुर्वेद से जुड़े शोध के लिए भारतीय भाषाओ में ऐसी पत्रिकाओं की आवश्यकता है क्योंकि इस चिकित्सा पद्धिति के मूल विचार संस्कृत में हैं और उन्हें अंग्रेजी में अनुवाद करने से उनकी सही परिभाषाएँ निश्चित करना कठिन हो जाता है।

नये कदम

भारत सरकार ने आयुर्वेदिक विज्ञान-शोध की राष्ट्रीय परिषद (Central Council for Research in Ayurvedic Sciences, CCRAS) स्थापित की है। इनकी सन २००० की अनुसंधान पोलिसी भी है। इनकी सूची भी है कि किस राज्य में कौन से शोध किये जा रहे हैं (लेकिन इसमें यह नहीं लिखा कि यह सूची किस साल की है)। इनका एक अंग्रेजी में शोध-पोर्टल है जिसे बहुत जटिल बनाया गया है और जिसमें कोई आलेख खोजना मुझे आसान नहीं लगा, शायद यह शोध विशेषज्ञों के लिए बना है।

विश्व स्वास्थ्य संस्थान ने भी, भारत सरकार के सहयोग से एक अंतर्राष्ट्रीय पारम्परिक चिकित्सा केन्द्र (Global Traditional Medicine Centre - GTMC) की जामनगर-गुजरात (भारत) में स्थापना की है।

आशा करता हूँ कि इन नये संस्थाओं से आने वाले समय में आयुर्वेद से जुड़े शोध करना पहले से अधिक आसान होगा। 

अंत में

आयुर्वेद की मेरी समझ सतही है। लेकिन मेरे विचार में आयुर्वेद के विषयों पर वैज्ञानिक शोध और उस शोध के परिणामों को वैज्ञानिक पत्रिकाओं में लोगों को लोगों को उपलब्ध कराने में बहुत सा काम बाकी है।
 
अगर आप आयुर्वेद से जुड़े किसी क्षेत्र में अनुसंधान करने की सोच रहे हैं और आप के मन में उसके प्रोटोकॉल से सम्बंधित कुछ प्रश्न हैं तो मुझसे सम्पर्क करें, मैं आयुर्वेद के बारे में नहीं जानता लेकिन चिकित्सा के शोध-प्रोटोकॉल कैसे बनाये इसमें मदद कर सकता हूँ।  आप मेरे शोध-आलेखों की लिन्क इस ब्लाग के दायें हाशिये पर खोज सकते हैं, मेरे शोध क्षेत्र कुष्ठ रोग और विकलांगता से जुड़े हैं।
 
International Meetingon Traditional Medcine in Asia, Bangalore, India, 2006
 
टिप्पणी: इस आलेख के साथ लगी सभी तस्वीरें २००६ की परम्परागत चिकित्सा की बंगलौर कौन्फ्रैंस से हैं।
 
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मंगलवार, मई 21, 2024

किताब, चाय और यादें

हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये, पौधों की क्यारी से लगा हुआ,  जिस पर हरी और सफेद धारियों वाले कुशन हैं, और सामने एक गोल मेज़ और दो कुर्सियाँ हैं, और तीन ओर पौधे लगे हैं। वहीं, एक कुर्सी को करीब खींच कर, उस पर चाय का प्याला रख कर, आज सुबह मैं झूले पर बैठा अपनी किताब पढ़ रहा था।

उपन्यास पढ़ने के लिए यह झूला मेरी सबसे प्रिय जगह है, लेकिन जब नॉन-फिक्शन पढ़ता हूँ तो यहाँ नहीं बैठता। वैसे यहाँ बैठने का मौका कम ही मिलता है, क्योंकि हमारे यहाँ आधा साल सर्दी चलती है, और जब सर्दी नहीं होती तो शायद पहाड़ों की वजह से बारिश बहुत होती है।

जब गर्मी आती है तो बाग में फ़ूल खिल जाते हैं, आसपास के पेड़ों में पक्षी घोंसले बनाते हैं और सुबह से चहचहाने लगते हैं। हमारे सामने वालों के यहाँ चीड़ के दो ऊँचे पेड़ हैं, मुझे उनसे ज़रा सी खुन्दक है क्योंकि उनकी वजह से, मुझे उनके पीछे वाला पहाड़ नहीं दिखता, लेकिन उनमें पक्षियों की पूरी कोलोनी बसती है, जिनके गीत गर्मियों के दिनों का पार्श्वसंगीत बन जाते हैं।

जब गर्मी आती है तो मच्छर भी आ जाते हैं, लेकिन अभी तक सुबह-शाम का तापमान दस-बारह डिग्री के आसपास घूम रहा है इसलिए इस वर्ष अभी तक मच्छर नहीं आये।

खैर, बात बाहर बैठ कर किताब पढ़ते हुए चाय पीने की शुरु थी। पढ़ते-पढ़ते, अपनी किताब को नीचे रख कर मैं सोचने लगा कि अगर कुछ दिन इस तरह से धूप निकलती रहे तो मैं वेनिस में कला-बिएन्नाले प्रदर्शनी को देखने जा सकता हूँ।  

यहीं से शुरु हुई मेरी सोयीं यादों के जगने की शुरुआत, जो कब, कहाँ, और किस बात से जाग जाती हैं, यह कहना कठिन होता है। आज उन यादों को जगाया हुसैन साहब की कला प्रदर्शनी के विचार ने। वेनिस बिएन्नाले की प्रदर्शनियों में इस बार दिल्ली के केएनएम संग्रहालय वालों की मकबूल फिदा हुसैन साहब के चित्रों की प्रदर्शनी भी है, जिसे देखना चाहता हूँ। यही सोचते हुए बचपन की एक बात याद आ आई।

क्नॉट प्लेस का पुराना कॉफी हाऊज़ ...

मेरा ख्याल है कि यह बात १९६३ या ६४ की है। उस समय दिल्ली में क्नॉट प्लेस में, जहाँ आज पालिका बाज़ार है, वहाँ पर प्रसिद्ध कॉफी हाऊज़ होता था, जिसके आसपास अर्ध-चक्र में लकड़ी के खोखे बने थे जिनमें विभिन्न राज्यों के एम्पोरियम थे। मेरे ख्याल में उस समय बाबा खड़गसिंह मार्ग पर नये भवनों के निर्माण का काम चल रहा था। तब मैं नौ-दस साल का था। खैर, जिस शाम की मैं बात कर रहा हूँ, उस शाम मेरे मम्मी-पापा के साथ पिता के कुछ पत्रकार-लेखक मित्र थे और हुसैन साहब भी बैठे थे।

फ़िर सब लोग उठे कि चलो त्रिवेणी कला संगम चलो, वहाँ पर हुसैन साहब की कोई प्रदर्शनी लगी थी जिसका उद्घाटन होना था। हम साथ चल रहे थे तो मुझे हुसैन साहब का नंगे पाँव चलना बहुत अजीब लगा था। हम सब लोग बारहखम्बा रोड से होते हुए पैदल ही त्रिवेणी कला संगम आये। प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए वहाँ पर भारत के उपराष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन आये थे। तब सिक्योरिटी की चिंता नहीं होती थी। मैं भी हुसैन साहब के चित्रों को देख रहा था जब डॉ. ज़ाकिर हुसैन जी ने मुझे रोका, मुझसे पूछा कि मुझे वह चित्र कैसे लग रहे थे? मैं झूठ नहीं बोल पाया, बोला कि पता नहीं यह क्या बनाया है, शायद कोई जेल बनायी है जिसके आसपास यह नुकीले काँटों वाली तारे लगी हैं। हुसैन साहब ने मेरी आलोचना सुनी तो मुस्कराये, डॉ. ज़ाकिर हुसैन साहब भी हँसे।

हालाँकि मुझे हुसैन साहब की उस प्रदर्शनी के चित्र अच्छे नहीं लगे थे लेकिन मैंने उनके कुछ अन्य चित्र देखे थे, जैसे कि हैदराबाद में बदरीविशाल पित्ती जी के घर में, जो मुझे अच्छे लगते थे। रामायण पर बनी उनकी चित्र-श्रिंखला मुझे बहुत अच्छी लगी थी।

रघुवीर जी, अशोक जी, जुगनू जी ...

हुसैन जी की चित्र-प्रदर्शनी से शुरु हुई यादें वहाँ से पापा के मित्रों तक पहुँच गयीं। मुझे पापा के साथ क्नॉट प्लेस के कॉफी हाउज़ जाने का मौका शायद दो-तीन बार ही मिला था, वे मित्र-बैठकें बच्चों के लिए नहीं होती थीं।  पापा के कुछ मित्र लेखकों से मुलाकात ७ रकाबगंज रोड पर हुई थी, जहाँ डॉ. राम मनोहर लोहिया का घर था और शायद उनके सर्वैंट क्वाटर में समाजवादी पार्टी की पत्रिका "जन" का दफ्तर था जिसमें पापा काम करते थे। उस घर में एक बार जब खान अब्दुल गफ्फार साहब आये थे तो उन्हें देखा था। 

अधिकतर लोगों से मुलाकात घर पर होती थी, जब वह पापा से मिलने आते थे। राजेन्द्र नगर में सरवेश्वर दयाल सक्सेना जी हमारे घर के पास रहते थे। कभी-कभी घर आते, एक-दो बार राशन की दुकान पर भी मिले। एक सुबह मुझे उनका मफलर लपेटे, मुख पर बंदर टोपी, सलेटी स्वैटर और धारीवाला पजामे में घर आना याद है। तब मैं उनकी ओर ध्यान नहीं देता था, अब जब उनकी कविताएँ पढ़ता हूँ तो सोचता हूँ कि वह मिलें तो उनसे कितनी बातें करना चाहूँगा।

ऐसी ही बात कुछ रघुवीर सहाय के साथ भी थी, वह भी अक्सर घर आते थे। तब मुझे कुछ नहीं मालूम था कि सर्वेश्वर जी या रघुवीर जी, क्या लिखते थे।

केवल मोहन राकेश जी, जो साठ के दशक में राजेन्द्र नगर में आर-ब्लॉक में रहते थे, केवल उनके लेखन से मेरा कुछ परिचय था, उनके घर जा कर लगता था कि हाँ यह प्रसिद्ध लेखक हैं। उन दिनों में उनकी बेटी पूर्वा का मुडंन हुआ था। जब उनकी अचानक मृत्यु हुई थी तो बहुत धक्का लगा था।

बंगला देश युद्ध के दौरान पापा "दिनमान" के लिए कई बार बंगलादेश गये थे। फ़िर बिहार छात्र आंदोलन के समय वह जेपी के साथ थे। इस वजह से छात्र आंदोलन से जुड़े बिहार के लोग घर आने लगे थे। उनमें से अधिकांश नाम भूल गया हूँ, केवल जुगनू शारदेय और अख्तर भाई के नाम याद हैं। फ़िर १९७५ में अचानक पापा भी चले गये तो बहुत से रिश्ते टूट गये। पहले वाले लोगों में से केवल अशोक सेकसरिया और जुगनू जी से कुछ सम्बंध बने रहे। एक बार मैं कलकत्ता में अशोक जी के १६ लार्ड सिन्हा वाले घर में कुछ दिन तक ठहरा था।

लेकिन वे सब भी क्या लिखते थे, क्या सोचते थे, उस समय मुझे कुछ मालूम नहीं था। उन दिनों में मैं मेडिकल कॉलेज में था, लेखन, साहित्य और राजनीति आदि के बारे में सोचने का शायद समय ही नहीं था?

गौहाटी में ...

जुगनू जी की बात से मुझे मेरा गौहाटी वाला घर याद आ गया। २०१५ में जब मैं गौहाटी में रहता था तो जुगनू जी मेरे पास रहने आये थे। उन दिनों में मैंने निर्णय किया था कि अपने घर के सब काम मैं खुद करूँगा। तीन कमरों का घर था। खाना बनाने के साथ, मैं खुद ही घर के सब काम जैसे कपड़े धोना, सफाई-झाड़ू-पौंछा, आदि भी करता था। सुबह सब काम करके संस्था के दफ्तर गया। शाम को घर लौटा तो सारे घर में सिगरेट की राख और टुकड़े बिखरे थे। मैंने जुगनू जी से कहा, कि सुबह मैंने इतनी मेहनत से झाड़ू लगाया, पौंछा लगाया, और आप से हाथ में अपनी एशट्रे भी नहीं ली जाती कि अपनी सिगरेट की राख को उसमें झाड़ें? बाद में मुझे शर्म भी आयी कि मुझे उनसे इस तरह से नहीं बोलना चाहिये था, तो उनसे क्षमा मांगी। खैर दो दिन के बाद वह किसी अन्य व्यक्ति के पास ठहरने चले गये।
 
जुगनू जी वह मेरी आखिरी मुलाकात थी। कुछ साल पहले फेसबुक से पता चला कि वह नहीं रहे।

लौट कर बुद्धू ...

कहाँ से शुरु हुई मेरी यादों की लड़ी, कहाँ पहुँच गयी। खैर, यादों का एक सुख है, कितनी भी दूर ले जायें, वहाँ से लौटने में समय नहीं लगता और मैं लौट कर वापस अपने रुमाली बाग में अपने उपन्यास पर आ गया।
 
असली बात तो वेनिस में हुसैन जी के चित्रों की प्रदर्शनी है, यह कमब्खत बारिश रुके तो वहाँ जाने का कार्यक्रम बनाना है। 

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बुधवार, अप्रैल 24, 2024

देवों और असुरों का इतिहास

पुरात्तवविज्ञ मानते हैं कि आज से करीब ३-४ हज़ार साल पहले मध्य-एशिया से इन्दो-यूरोपी भाषी लोग भारतीय उपमहाद्वीप में आ कर बसे। उस समय भारत के इस हिस्से में सिंधु घाटी की सभ्यता के लोग रहते थे, लेकिन वह सभ्यता उस समय अपने उतार पर थी। यह लोग कैस्पियन सागर के आसपास से, विषेशकर अनातोलिया (Anatolia) क्षेत्र से आये थे, जो अब तुर्की का हिस्सा है।

भारत में आने वाले समूह के अतिरिक्त, दो अन्य इन्दो-यूरोपी भाषा बोलने वालों के समूहों के भी इतिहास में वर्णन मिले हैं - दक्षिण-पूर्वी सीरिया में मित्तानी या मितन्नी (Mitanni) साम्राज्य और आधुनिक ईरान के क्षेत्र में प्राचीन फारसी (Persian) साम्राज्य। यह तीनों जनसमूह एक जैसी भाषा बोलते थे, और उनका मूल स्थान एक ही था या आसपास था।

मैंने हाल में इतिहास की दो दिलचस्प किताबें पढ़ीं - प्राचीन ईरान के इतिहास पर लायड लेवेल्लिन (Lloyd Llewellyn) की किताब, "Persians - The Age of the Great Kings"  और पश्चिम एशिया के इतिहास पर एरिक क्लाइन (Eric H. Cline) की किताब, "1177 BC - The Year Civilization Collapsed".

एरिक क्लाइन और लायड लेवेल्लिन की इतिहास की किताबें
 

इस आलेख में इन दोनों किताबों से मिली जानकारी और इनसे जुड़ी भारतीय पुराणों की कहानियों की चर्चा है। 

लायड लेवेल्लिन का फारसी इतिहास

यह किताब, ईसा से  करीब ६०० वर्ष पहले के फारसी राजाओं के बारे में है। उस समय के फारसी राजाओं ने यवन-देश (Greece) पर कई हमले किये थे, जिन पर कुछ साल पहले हॉलीवुड की कुछ प्रसिद्ध फ़िल्में भी बनी थीं, विषेशकर "३००" और "३०० - डॉन ओफ द एम्पायर"। इन फ़िल्मों में और पुराने फारसी इतिहास की किताबों में उन राजाओं के नाम डारियस, ज़ेरेक्सिस, आदि दिये जाते हैं। 

लेवेल्लिन अपनी किताब में लिखते हैं कि फारसी राजाओं के यह नाम उन्हें यवनों ने दिये थे और वह स्वयं अपने आप को दूसरे नामों से बुलाते थे, और उनकी भाषा में वहाँ के राजाओं के नाम कुरुष, अर्तसुर, दार्यवौश (Darius), ज़्यश्यार्षा (Xerexes), विदर्न आदि थे। यानि, इतनी सदियों के बाद भी फारस देश राजाओं के नामों में संस्कृत के शब्दों की कुछ प्रतिध्वनि थी।

(क्योंकि यह सब किताबें अंग्रेज़ी में हैं, अक्सर शब्दों के उच्चारण समझना कठिन होता है, जैसे कि समझ नहीं आता कि शब्द में "त" स्वर था या "ट"।)

क्लाइन के इतिहास में मित्तानी साम्राज्य और असुर

क्लाइन की किताब में ईसा से करीब १५०० वर्ष पहले असीरी देश के दक्षिण-पूर्वी में आ कर बसने वाले मित्तानी लोगों के वर्णन हैं। उस समय असीरी लोग अक्केडियन भाषा बोलते थे और, आधुनिक मिस्र, ईराक, लेबनान, साईप्रस तथा सीरिया देशों के क्षेत्रों में विभिन्न साम्राज्य थे, जिनके आपस में सम्बंध समय के साथ बदलते रहते थे। कभी दो राजा मिल कर तीसरे पर हमला करते थे, कभी पुराने दुश्मन, दोस्त बन जाते थे, कभी वह अपने बेटे-बेटियों के विवाह करवा कर रिश्तेदार बन जाते थे। उस समय का यह इतिहास मिस्र, इराक, सीरिया आदि देशों में मिले विभिन्न दस्तावेज़ों की जानकारी से सामने आया है।

मित्तानी जब असीरी देश में आये उस समय मिस्र में थुटमोज़ तृतीय फरोहा थे। मित्तानियों ने अपने देश को हर्री या हुर्री देश बुलाया और उनकी राजधानी का नाम वाशुकर्नी या वाशुकर्णी था। वे अपने रथों पर लड़ने वाले योद्धाओं को मरियान्नु बुलाते थे। तब मिस्र के फरोहा थुटमोज़ तृतीय ने उन पर हमला करके उन्हें हरा दिया था।

थुटमोज़ से हारने के करीब बीस साल बाद, मित्तानियों के राजा सौषतत्र ने असीरी देश पर हमला किया और उन्हें हराया और उनका सोना-चांदी उठा कर अपनी राजधानी वाशुकर्नी में ले आये।

इस बात के करीब चालिस-पैंतालिस साल के बाद, ईसा से १४८५ साल पहले, मित्तानी राजा तुशरथ ने मिस्र के फरोहा अमनेहोटेप तृतीय के लिए भेंटें भेजीं थीं, और उन्होंने अपने पत्र में मिस्री फरोहा को "निम्मूरेया" कह कर सम्बोधित किया था।

तशरथ राजा के बेटे का नाम शत्तीवज़ा था, और उनके प्रधान मंत्री का नाम केलिआ था। उस समय के अन्य मित्तानी लोगों के नाम थे - अर्तात्मा, अर्तशुम्रा, नीयू, मसीबदली, तुलुब्री, और हमशशि। मिस्र के फरोहा अमनेहोटेप तृतीय ने दो मित्तानी राजकुमारियों से विवाह भी किया था।

राजा तुशरथ के समय से करीब सौ-एक सौ बीस साल बाद, मित्तानी राजा शुर्तर्न-द्वितीय और असीरी राजा असुरउबलित में युद्ध हुआ और मित्तानी हार गये। इस युद्ध में हारने के बाद मित्तानियों का राज्य कमज़ोर होता गया। करीब बीस-पच्चीस साल बाद, मित्तानियों पर अनातोलिया से हित्ती राज्य ने भी हमला किया, और उनकी राजधानी वाशुकर्नी को नष्ट कर दिया। मित्तानी वहाँ पर शायद पचास साल तक और रुके, लेकिन असीरी राजा असुरशेलमनेसेर, जिन्होंने ईसा से १२७५ - १२४५ साल पहले तक शासन किया, के समय उनके राज्य का अंत हुआ। इस समय के बाद वहाँ के किसी इतिहासिक दस्तावेज़ में मित्तानी साम्राज्य का कोई निशान नहीं मिलता।

भारत के पुराणों में

अगर तीनों इन्दो-यूरोपी भाषा बोलने वाले जन समूह एक सोत्र से निकले थे, एक जैसी भाषा बोलते थे, तो यह हो सकता है कि उनके बीच में प्रारम्भ की सदियों में कुछ सम्पर्क रहे हों। चूँकि हमारे ग्रंथों में असुरों की बात होती है, हो सकता है असीरियों से हार कर बचे हुए मित्तानी भारत आ गये और अपने साथ वह लोग वहाँ की कहानियाँ अपने साथ ले कर आये।

देवों और असुरों के युद्ध की कहानियों में अमृत-मंथन और उसमें से कीमती पदार्थों के मिलने की बात है, जिन्हें देव धोखे से चुरा लेते हैं - शायद यह कहानी भी किसी मित्तानी और असीरी युद्ध को संकेतात्मक ढंग से बताती है। इस कहानी में मित्तानी लोग चालाकी से जीत जाते हैं, शायद इस तरह से उन्होंने अपनेआप को ऊँचा दिखाने की कोशिश की हो।

डॉ. रांगेय राघव ने पुराणों पर आधारित अपनी किताब "प्राचीन ब्राह्मण कहानियाँ" (१९५९, किताब महल, इलाहाबाद) में विभिन्न जन समूहों से सम्बंधों के बारे में लिखा है -

नहुष के द्वितीय पुत्र ययाति ने दो विवाह किये - एक विवाह किया दैत्यगुरु व योगाचार्य शुक्राचार्य की पुत्री देवयानि से, और उनके दो पुत्र हुए, यदु और पुर्वसु; दूसरा विवाह किया असुरराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से, और उनके तीन पुत्र हुए, द्रुह्यु, अनु और पुरु। देवयानि और शर्मिष्ठा सहेलियाँ थीं। ययाति पूरी पृथ्वी पर शासन करते थे और उन्होंने अपने राज्य को पाँच हिस्सों में बाँट कर अपने पाँचों बेटो में बाँट दिया था।

राजा दम ने दैत्यराज वृषपर्वा से धनुष चलाने की शिक्षा ली थी, दैत्यराज दुन्दुभि से अस्त्र प्राप्त किये थे, महार्षि शांति से वेदों का ज्ञान सीखा था और राजर्षि अष्टिर्षेण से योग विद्या ली थी।

वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वंश के राजा बाहु का दैत्यो से युद्ध हुआ। दैत्यों की ओर से शकों, यवन, पारद, काम्बोज आदि गणों ने युद्ध में भाग लिया और बाहु हार कर वन में रहने चले गये।

देवों तथा असुरों के युद्ध में दैत्य-योद्धाओं ने असुरों की ओर से भाग लिया था और वे अपने पराक्रम से देवों को हरा रहे थे। जब देवों को राजा रजि का सहारा मिला तब वे जीते। उस समय दैत्यराज प्रह्लाद इन्द्र के पद पर थे।
 
आज यह कहना कठिन है कि दैत्य और दानव कौन से देश के लोग थे, लेकिन इन कहानियों के कुछ लोग, जैसे कि यवन और शक, ऊपर वर्णित इतिहास की बातों में भी मिलते हैं। इन कहानियों में एक ही व्यक्ति के लिए कहीं पर दैत्यराज और कहीं पर असुरराज  शब्द का प्रयोग किया गया है, इसलिए हो सकता है कि उनका अर्थ एक ही हो। चूंकि इस इतिहास को उस समय संस्कृत में नहीं, बल्कि अक्काडियन या आरामाइक जैसी भाषाओं में लिखा गया इसलिए आज हम इन्हें ग्रीक या अंग्रेज़ी में अनुवादित नामों से ही जानते हैं और उनका पुराणों की कहानियों से तालमेल बैठाना कठिन हो। 
 
फ़िर भी, मित्तानी राजा तुशरथ का नाम देख कर मुझे अचरज हुआ और यह जान कर भी कि मिस्र के फरोहा ने मित्तानी राजकुमारियों से विवाह किया था। मैं सोच रहा था कि क्या उनके बाद के फरोहा, जैसे कि रामसेस आदि के नामों पर भी क्या मित्तानी भाषा का प्रभाव पड़ा?

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बुधवार, अप्रैल 17, 2024

ब्रह्मी से देवनागरी की लिपि यात्रा

उत्तर भारत की सबसे प्राचीन भाषा जिसके आज लिखित प्रमाण हैं, वह वैदिक संस्कृत थी और इसका प्रमाण है ऋग्वेद जो ईसा से करीब १५०० वर्ष पहले लिखा गया। विशेषज्ञ कहते हैं कि इसे सबसे पहले ब्रह्मी लिपि में लिखा गया। नीचे की तस्वीर में ओडिशा में धौलागिरि की वह चट्टान है जिस पर सम्राट अशोक के संदेश ब्रह्मी लिपि में लिखे हैं। 

धौलागिरि चट्टान जिसपर सम्राट अशोक का संदेश ब्रह्मी लिपि में अंकित है

फ़िर समय के साथ ब्रह्मी से देवनागरी लिपि विकसित हुई। ब्रह्मी से ही मराठी, गुजराती, बंगाली और गुरुमुखी जैसी भारतीय भाषाओं की लिपियाँ बनीं जो देवनागरी से मिलती जुलती है, लेकिन उनमें भिन्नताएँ भी हैं। मैं सोचता था कि भाषाएँ तो यूरोप की भी बहुत भिन्न हैं, जैसे कि अंग्रेज़ी, स्पेनी, फ्राँसिसी, इतालवी, आइरिश, आदि, लेकिन उन सबकी लिपि एक जैसी है, जिसे रोमन वर्णमाला कहते हैं जो लेटिन पर आधारित है।

इसलिए मेरे मन में प्रश्न उठता था कि हमने भारत की भिन्न भाषाओ के लिए एक जैसी देवनागरी लिपि या कोई और लिपि क्यों नहीं अपनाई, उससे हमारी भाषाओं को सीखना शायद कुछ अधिक आसान हो जाता। 

कुछ दिनों से मैं आचार्य चतुर सेन की १९४६ में प्रकाशित हुई किताब "हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास" पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने अठाहरवीं शताब्दी में भारत में प्रिन्टिन्ग प्रैस के आने के बाद की भारतीय भाषाओं को लिपिबद्ध करने के बारे में जानकारी दी है, जिसमें मेरे प्रश्न का उत्तर था कि हमारी भाषाओं की लिपिया भिन्न क्यों हैं? यह आलेख इसी विषय पर है।

ब्रह्मी और देवनागरी लिपियों की वर्णमाला

सबसे पहले अगर हम स्वरों को देखें तो देवनागरी तथा ब्रह्मी भाषा की लिपि के अंतर देख सकते हैं - 

अ आ - 𑀅 𑀆    इ ई - 𑀇 𑀈    उ ऊ - 𑀉 𑀊   ए ऐ - 𑀏 𑀐    ओ औ - 𑀑 𑀒

अं अः - 𑀅𑀁 𑀅𑀂    ऋ -𑀋

और अब आप इन दो लिपियों में व्यंजनों के स्वरूप तथा अंतर देख सकते हैं -

क ख ग घ ङ  -  𑀓 𑀔 𑀕 𑀖 𑀗       च छ ज झ ञ - 𑀘 𑀙 𑀚 𑀛 𑀜    ट ठ ड ढ ण - 𑀝 𑀞 𑀟 𑀠 𑀡          

त थ द ध न - 𑀢 𑀣 𑀤 𑀥 𑀦          प फ ब भ म - 𑀧 𑀨 𑀩 𑀪 𑀫        य र ल व - 𑀬 𑀭 𑀮 𑀯

श ष स ह - 𑀰 𑀱 𑀲 𑀳

प्रारम्भ में अंग्रेज़ ब्रह्मी लिपि को पिन-मैन (Pin-man) लिपि कहते थे क्योंकि यह माचिस की तीलियों या छोटी डंडियों से बनी आकृतियों जैसी लगती थी। समय के साथ इस लिपी के स्वरूप भी कुछ बदले लेकिन पांचवीं शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य काल तक इसे ब्रह्मी लिपि ही कहते है। नीचे तस्वीर में दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय से वह चट्टान जिसपर सम्राट अशोक का संदेश ब्रह्मी लिपि में लिखा है।

दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सम्राट अशोक का ब्रह्मी लिपि में लिखा संदेश
छठी शताब्दी के बाद से ब्रह्मी लिपि के बदलाव अधिक मुखर हुए और उन्हें नये नाम दिये गये। उत्तर भारत में ब्रह्मी से नागरी, सिद्धम तथा शारदा लिपियाँ बनी जबकि दक्षिण भारत में कदम्ब, पल्लव, आदि लिपियाँ बनी।

चूंकि दक्षिण भारत में ग्रंथों को नुकीली कलम से ताड़ के पत्तों पर खरोंच कर लिखने की परम्परा थी, उन पर नागरी की सीधी रेखाओं वाली लिपि से पत्ते कट जाते थे, इसलिए वहाँ गोलाकार लिपियाँ विकसित हुईं जिनमें शब्दों को देवनागरी की तरह ऊपरी रेखा से जोड़ा नहीं जाता था।

बोलचाल की बोली में बदलाव

एक ओर लिपि में बदलाव हो रहे थे, तो दूसरी ओर बोलने वाली भाषा भी बदल रही थी, क्योंकि जन सामान्य को बोलचाल की भाषा में सरलता चाहिये, वह भाषा की कठिन ध्वनियों को और जटिल व्याकरण नियमों की जगह आसान ध्वनियों और सरल व्याकरण को प्राथमिकता देते हैं। इस तरह से उत्तर भारत में समय के साथ, संस्कृत से लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंष, खड़ी बोली और अन्य बोलियाँ बनी।
 
जब समाज बदलते हैं, और नये ज्ञान से नयी समझ और तकनीकी बदलती है, तो नये औज़ार, अस्त्र, कार्यक्षेत्र, कार्यकौशल, आदि बनते हैं, जिनके लिए भाषाओं को नये शब्द चाहिये। दूसरी ओर, जब सड़कें नहीं हों और यातायात के साधन सीमित हों तो कुछ लोग ही लम्बी यात्राएँ कर पाते हैं। इन दोनों बातों की वजह से, समय के साथ, एक ही भाषा विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न स्वरूप बदल-बदल कर विकसित होती है।
 
इस तरह से उत्तरभारत में प्राकृत भाषा, देश के विभिन्न क्षेत्रों में डिन्गल, पिन्गल, ब्रज, खड़ी बोली, अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि लोकभाषाओं में विकसित हुई। यही नहीं, इनमें से हर लोकभाषा में कुछ-कुछ कोस की दूरी पर कुछ शब्दों में अंतर आ जाते थे और स्थानीय बोलियाँ बन जाती थीं, जैसे कि आज़मगढ़, जौनपुर और सुल्तानपुर, सभी में अवधी बोलते थे लेकिन उनकी अवधी एक जैसी नहीं थी, उसमें कुछ अंतर थे।
 
बीसवीं सदी में दुनिया के बदलने की गति और तेज़ हो गयी। सड़कों और यातायात के साधनों की वृद्धि से लोग अधिक यात्रा करने लगे हैं, और फ़िर, रेडियो-टीवी-फ़िल्म-इंटरनेट-यूट्यूब आदि नये संचार माध्यमों के आविष्कार से, लोगों के बीच दूरियाँ कम होने लगीं, इस वजह भाषाओं की छोटी-मोटी स्थानीय भिन्नताएँ भी लुप्त होने लगीं। आज के बच्चे स्कूल में, उपन्यासों में, फ़िल्मों और टीवी पर जो भाषा सुनते हैं, वही बोलने लगते हैं और अपने घर-परिवार-गांव की बोली को भूलने लगते हैं।
 
भाषा के कुछ बदलाव दो उल्टी दिशाओं में जा रहे हैं। एक ओर भविष्य में नौकरी अच्छी मिले, यह सोच कर हम अपने बच्चों को अंग्रेज़ी बुलवाने में गौरव महसूस करते हैं इसलिए शहरों के समृ्द्ध परिवारों में बच्चे केवल अंग्रेज़ी पढ़ते-बोलते हैं।
 
दूसरी ओर, यूट्यूब, टिक-टॉक आदि एप्प से छोटे शहरों और गावों में स्थानीय बोलियों के गीत-संगीत-नाटक-शिक्षा-ज्ञान से आय के नये साधन निर्मित हो रहे हैं, जिनसे उन बोलियों के उपयोग को बढ़ावा मिल रहा है।
 
कृत्रिम बुद्धि के अनुवादक की सहायता से आप किसी भी भाषा के लेखन, फ़िल्म, नाटक आदि को आसानी से समझ सकते हैं। गूगल के आटोमेटिक अनुवादक से आप केवल हिंदी, इतालवी, फ्रांसिसी या स्पेनी भाषाओं में ही नहीं, असमिया, भोजपुरी, मैथिली जैसी भाषाओं में अनुवाद कर सकते हैं। आने वाली सदियों में इन सब बदलावों का हमारी बोलियों और भाषाओं पर क्या असर पड़ेगा, यह कहना मुझे कठिन लगता है। 

छपाईखानों की तकनीकी से जुड़े लिपि के बदलाव

आचार्य चतुरसेन अपनी पुस्तक "हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास" में इस विषय पर दिलचस्प जानकारी देते हैं।
 
छापेखाने यानि प्रिन्टिन्ग प्रैस का प्रारम्भिक विकास चीन में हुआ था, लेकिन इसे बड़े पैमाने पर विकसित किया जर्मनी के जोहान गूटनबर्ग ने जिन्होंने १४४८ ई. में पहली बाईबल की किताब छापी। इससे पहले किताबें हस्तलिपि से ही लिखी जाती थीं और केवल एक-दो पन्नों के इश्तहार आदि छापने के लिए आप लकड़ी पर उल्टे शब्द काट कर उस पर स्याही लगा कर उन्हें छाप सकते थे। हस्तलिपि से किताब लिखना और पूरे पन्ने को लकड़ी में काट कर छापना, दोनों मेहनत के काम थे और बहुत मंहगे थे।
 
गूटनबर्ग ने वर्णमाला के हर अक्षर को धातू में बनाया, फ़िर इन अक्षरों को लोहे की प्लेट पर चिपका कर आप एक पृष्ठ की हज़ारों प्रतियाँ छाप सकते थे। उस पृष्ठ को छापने के बाद, उन्हीं अक्षरों को उसी लोहे की प्लेट पर उनकी जगह बदल कर आप दोबारा प्रयोग कर सकते थे और नया पृष्ठ छाप सकते थे। छपाई प्रेस के जगह-बदलने वाले अक्षरों से किताबों की छपाई में क्रांति आ गई।
 
इसी तकनीक की प्रेरणा से बाद में टाईप-राईटर का भी आविष्कार हुआ। एक बार यह छपाई वाले अक्षर बने तो यूरोप के भिन्न देशों ने उन्हें अपना लिया और सबने रोमन वर्णमाला में अपनी भाषाओं के ग्रंथों को छापना शुरु किया। सबसे पहले और सबसे अधिक छपाई बाईबल ग्रंथ की हुई। इस तरह से सबकी भाषाएँ अलग रहीं लेकिन लिपि एक जैसी हो गयी।
 
भारत में हर क्षेत्र में अलग बोलियाँ थीं जिन्हें लोग हस्तलिपि से लिखते थे। इनकी लिपि जो नागरी पर आधारित थी, समय के साथ हर क्षेत्र में कुछ भिन्न तरीके से विकसित हुई। अठाहरवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत में ईसाई मिशनरी बाईबल को स्थानीय भाषाओं में छापना चाहते थे। उन्होंने पहले सोचा कि हर भारतीय भाषा को रोमन वर्णमाला में ही छापा जाये, ताकि नये अक्षर न बनाने पड़ें, लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली, क्योंकि भारतीय भाषाओं में ध्वनियाँ अधिक थीं जिनके लिए रोमन वर्णमाला में लिखे शब्दों के अर्थ समझना कठिन था। तब उन्होंने हर क्षेत्र में स्थानीय हस्तलिपि को ले कर उसके लिए अक्षर बनाये, इस तरह से उनकी किताबें स्थानीय भाषाओं में छपीं। भारत की विभिन्न भाषाओं में अक्षर बनाने का काम कठिन था और इसमें करीब सौ/डेढ़ सौ साल लगे। इसका यह नतीजा हुआ कि हमारे हर क्षेत्र की हस्तलिपियों पर आधारित भिन्न लिपियाँ विकसित हुईं।
 
बाद में जब विभिन्न लिपियों की कठिनाईयाँ समझ में आयीं तब उनके एकीकरण, यानि भारत की हर भाषा को एक लिपि में लिखा जाये, की कई कोशिशें हुईं लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। लोगों को एक बार जिस लिपि में अपनी भाषा पढ़ने की आदत पड़ी, वह उसे बदलना नहीं चाहते थे।

आचार्य चतुर सेन देवनागरी लिपि की छपाई की कुछ अन्य कठिनाईयों पर भी विस्तार से बताते हैं, विषेशकर मात्राओं और संयुक्ताक्षरों की छपाई से जुड़ी कठिनाईयाँ, जिनके लिए विभिन्न उपाय खोजे गये लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली या सीमित सफलता मिली। उनकी यह किताब पीडीएफ में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

अंत में

आचार्य चतुरसेन का भाषा और साहित्य का इतिहास भारत की स्वतंत्रता से कुछ पहले तक की कहानी कहता है। उसे पढ़ते समय मुझे पिछले तीस वर्ष की इंटरनेट पर देवनागरी और अन्य भारतीय भाषाएँ लिखने से जुड़ी बातों की याद आ रही थी।
 
१९९० के दशक में जब इंटरनेट फ़ैलने लगा तो प्रारम्भ में हर वेबसाईट के अपने फोन्ट होते थे। मैंने १९९४ में अमरीका में बोस्टन के संग्रहालय में इंटरनेट क्या होता है वह देखा, तो इटली में घर लौट कर तुरंत इंटरनेट का कनेक्शन ले लिया। तब इंटरनेट में देवनागरी में कुछ नहीं मिलता था।
 
सन् २००० के आसपास कम्पयूटर पर इक्का-दुक्का देवनागरी दिखने लगी लेकिन तब देवनागरी के लिए कृतिदेव, मंगल आदि फोन्ट का प्रयोग होता था। उनकी कठिनाई थी कि अगर आप के कम्पयूटर पर वह वाला फोन्ट नहीं है तो आप उसे नहीं पढ़ सकते थे, आप को हर जगह केवल चकौर डिब्बे दिखते थे।
 
तब रोमन वर्णमाला के युनिकोड के फोन्ट ऐसे बनाये गये थे कि उन्हें कोई भी कम्पयूटर समझ सकता था। हम पूछते थे कि हिंदी का युनीकोड कब आयेगा। सबसे पहले हिंदी को युनीकोड में लिखने के लिए ASCII कोड आया लेकिन एक-एक अक्षर के लिए कोड नम्बर लिखना बहुत कठिन काम था।

जहाँ तक मुझे याद है, मैं २००३ तक शूशा फोंट से लिखता था। उस समय सुनते थे कि युनिकोड के हिंदी फोन्ट बन रहे थे। शायद यह काम २००४-०५ के आसपास पूरा हुआ। शुरु में जब यनिकोड के फोन्ट बन गये तब भी यह दिक्कत थी कि अंग्रेज़ी कीबोर्ड से उन्हें कैसे लिखा जाये, इसके सोफ्टवेयर को प्रयोग करना आसान नहीं था।
 
मैंने युनिकोड के रघू फोन्ट का उपयोग जून २००५ में अपना ब्लाग बना कर शुरु किया। आप चाहें तो २००५ की मेरी उस ब्लोगपोस्ट में युनीकोड उपलब्धी के बारे में मेरी खुशी के बारे में पढ़ सकते हैं। उन दिनों में युनीकोड में लिखना भी आसान नहीं था, उन प्रारम्भिक कठिनाईयों के बारे में पढ़ सकते हैं।
 
जब भारत से मेरे इंटरनेट के मित्र पंकज ने मुझे "तख्ती" प्रोग्राम के बारे में बताया। उन दिनों में हिंदी में ब्लाग लिखने वालों का हमारा गुट था जिसमें कई इन्फोरमेशन तकनीकी के विशेषज्ञ थे, जो हम सब को सलाह देते थे। अगस्त २००५ में अनूप शुक्ला ने अनुगूँज नाम का ब्लाग बनाया था जिसमें हम सब चिट्ठा लेखक उनकी दी गयी थीम पर आलेख लिखते थे। मार्च २००६ में हमारे ब्लाग साथी देवाषीश ने "द एशियन एज" अखबार में आलेख में हिंदी और भारतीय चिट्ठाजगत के बारे में आलेख लिखा था।
 
करीब दो साल पहले तक, मैं अपना सारा हिंदी लेखन उसी "तख्ती" पर करता था, और वहाँ से कॉपी-पेस्ट करके हर जगह चेप देता था। इतने साल तक बहुत कोशिश करने के बाद भी विन्डोज पर हिंदी लेखन का कीबोर्ड याद करना मुझे कठिन लगता था। बहुत सालों तक मैंने भारत में हिंदी का कम्पयूटर कीबोर्ड खरीदने की कोशिश की लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। क्या मालूम अब वह आसान हुआ है नहीं?
 
दो साल पहले, २०२१ में पुराने ब्लागर साथी रवि रतलामी, जो अब नहीं रहे, उनकी सलाह से मुझे लीनक्स पर हिंदी लिखने के लिए "का-पा-गा" सोफ्टवेयर मिला जिसे मैंने अंग्रेज़ी कीबोर्ड पर लिखना आसानी से सीख लिया, तब जा कर मेरा जीवन आसान हुआ।
 
लेकिन आज भी अगर विन्डोज़ वाला कम्पयूटर हो, जैसे कि यात्राओं में लैपटॉप का प्रयोग करना हो, तो अभी भी "तख्ती" पर ही लिखता हूँ, क्योंकि उनका हिंदी कीबोर्ड मुझे कठिन लगता है। अगर आज कोई हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास लिखे तो उसे इन सब बदलावों के बारे में भी जानकारी होनी चाहिये।

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सोमवार, अप्रैल 15, 2024

कौन बनेगी जूलियट

मई २०२४ में लंदन की एक प्रसिद्ध नाटक कम्पनी का नया म्यूज़िकल आ रहा है, "रोमियो और जूलियट", जिसकी आजकल कुछ नकारात्मक चर्चा हो रही है क्योंकि इसमें जूलियट का भाग निभा रहीं हैं अफ्रीकी मूल की अभिनेत्री फ्राँसेसका अमेवूडाह-रिवर।

इस बहस के दो पक्ष हैं। पहली बात है कि दुनिया में जातिभेद, नस्लभेद, रंगभेद के संकीर्ण विचार रखने वालों की कमी नहीं, अक्सर इनका काम गाली दे कर या खिल्ली उड़ा कर लोगों को अपमानित करना है। सोशल मीडिया में ऐसे सज्जनों की बहुतायत है, एक खोजिये, तो हज़ार मिलते हैं। यह लोग आजकल सुश्री अमेवूडाह-रिवर को गालियाँ देने में व्यस्त हैं।

दूसरी बात है वोक-संस्कृति की, जो जातिभेद, नस्लभेद व रंगभेद आदि से लड़ने के नाम पर स्वयं को सबसे अधिक पीड़ित दिखा कर उसके बदले में अपना अधिपत्य जमाने के चक्कर में है।

रोमियो-जूलियट नाटक की बहस

रोमियो और जूलियट की कहानी, अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपियर ने तेहरवीं शताब्दी की उत्तर-पूर्वी इटली के वेरोना शहर में दिखायी थी। आलोचक कह रहे हैं कि उस समय इटली में अफ्रीकी प्रवासी नहीं रहते थे, इसलिए इस भाग के लिए अफ्रीकी युवती को लेना गलत है। मेरे विचार में यह बहस त्वचा के रंग की है, अगर यह भाग दक्षिण अफ्रीका की कोई गोरी त्वचा वाली युवती निभाती तो यह चर्चा नहीं होती।

रोमियो और जूलियट, शिल्पकला, न्यू योर्क, अमरीका, तस्वीरकार डॉ. सुनील दीपक

अमरीका तथा यूरोप में फ़िल्मों तथा नाटकों की दुनिया में कुछ लोगों ने ऐसी नीति बनायी है जिसे "क्लर-ब्लाइंड" (रंग-न देखो) कहते हैं, यानि त्वचा के रंग को नहीं देखते हुए पात्रों के लिए अभिनेता और अभिनेत्रियों को चुना जाये। इसका ध्येय है कि हर तरह के लोगों को नाटकों और फ़िल्मों में काम करने का मौका मिले, चाहे वह एतिहासिक दृष्टि से और नाटक/कहानी के लेखन की दृष्टि से गलत हो।

इटली के प्रमुख अखबार "कोरिएरे दैल्ला सेरा" में जाने-माने इतालवी लेखक मासिमो ग्रैम्लीनी ने इस बात पर "जूलियट की ओर से एक पत्र" लिखा है जिसमें कहा हैः 

"यह भाग श्याम-वर्ण की अभिनेत्री को दिया गया है क्योंकि हम चाहते हैं कि हम सब तरह के लोगों को स्वीकार करें, किसी को उसकी त्वचा के रंग की वजह से अस्वीकृति नहीं मिलनी चाहिये, किसी को बुरा नहीं लगना चाहिये कि हमारी नस्ल या वर्ण की वजह से हमें सबके बराबर नहीं समझा जाता। यह भावना सही है।

लेकिन जब आप यह करते हो आप मुझे, यानि वेरोना की जूलियट को, अस्वीकार कर रहे हो। मैं वैसी नहीं थी और चौदहवीं शताब्दी के वेरोना शहर में श्याम वर्ण की युवतियाँ नहीं थीं। क्या इस बहस में मेरी भावनाओं की बात भी की जायेगी?

मुझे भी अच्छा लगेगा कि एक प्रेम कहानी में श्याम वर्ण की युवती नायिका हो, लेकिन उसके लिए आप एक नयी कहानी लिखिये, इसके लिए आप को मेरी पुरानी कहानी ही क्यों चाहिये?"

इतिहास को झुठलाना?

जब रोमियो-जूलियट नाटक की यह चर्चा सुनी तो मुझे एक अन्य बात याद आ गयी। पिछले वर्ष, २०२२-२३ में, नेटफ्लिक्स पर एक सीरियल आया था "ब्रिजर्टन", उसमें मध्ययुगीन ईंग्लैंड के नवाबी परिवारों की प्रेमकहानियाँ थीं, जिनमें ईंग्लैंड की रानी और एक नवाब के भाग अफ्रीकी मूल के अभिनेताओं ने और राजकुमारी का भाग एक भारतीय मूल की युवती ने निभाये थे। यह सीरियल बहुत हिट हुआ था और उसके लिए भी यही बात कही गयी थी कि नस्ल भेद और वर्ण भेद से ऊपर उठने के लिए इस तरह के अभिनेता-अभिनेत्रियाँ चुनना आवश्यक है।

उस ब्रिजर्टन सीरियल को देखते समय मेरे मन में एक विचार आया था, कि उसमें जिस समय के ईंग्लैंड में यह श्याम वर्ण वाले पात्र - रानी, राजकुमार और राजकुमारियाँ दिखा रहे हैं, सचमुच के ईंग्लैंड में उनके साथ उस समय क्या होता था? तब ऐसे लोगों को जहाज़ों में पशुओं की तरह भर कर भारत और अफ्रीका के विभिन्न देशों से गुलाम बना कर दूर देशों में ले जाते थे, और उस समय के अंग्रेजी क्ल्बों के गेट पर लिखा होता था कि कुत्तों और कुलियों को भीतर आने से मनाही है। अगर आज हम उस इतिहास को उलट कर नई काल्पनिक दुनिया बना रहे हैं जिसमें उस ज़माने में कोई भेदभाव नहीं था, विभिन्न देशों, जातियों, वर्णों के लोग एक साथ प्रेम से रहते थे, तो क्या हम अपने इतिहास पर सफेदी पोत कर उसे झूठा नहीं बना रहे हैं? जिन लोगों से उनके घर और देश छुड़ा कर, दूर देशों में ले जा कर, यूरोप के साम्राज्यवादी मालिकों ने उनसे दिन-रात खेतो और फैक्टरियों में जानवरों से भी बदतर व्यवहार किये, क्या यह सीरियल उनके शोषण को झुठला नहीं रहे हैं?

वोक जगत यानि ज़रूरत से अधिक "जागृत" जगत

भेदभाव से लड़ने वाले अतिजागृत योद्धा "शोषण करने वालों" को और उनके समाज को बदलने के लिए नयी रणनीतियाँ बना रहे हैं। अमरीकी व यूरोपी फ़िल्मों और नाटकों आदि में श्याम वर्ण या गैर-यूरोपी लोगों को प्रमुख भाग मिलने चाहिये की मांग इस रणनीति का एक हिस्सा है। ऐसे लोगों के लिए अंग्रेज़ी में "वोक" (woke) शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।

इसके अन्य भी बहुत से उदाहरण हैं। जैसे कि यह वोक-रणनीति कहती है कि अगर आप का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है तो आप को फ़िल्म या नाटक में ऐसे व्यक्तियों के भाग नहीं मिलने चाहिये। यानि अगर कोई भाग अंतरलैंगिक या समलैंगिक व्यक्ति का है तो उसे अंतरलैंगिक या समलैंगिक अभिनेता/अभिनेत्री ही करे, अगर दलित का रोल है तो उसे दलित व्यक्ति ही करे।

इसका यह अर्थ भी है कि लेखक या कवि के रूप में आप को उस विषय पर नहीं लिखना चाहिये, जिसमें आप का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। अगर आप किसी सभ्यता/संस्कृति में नहीं जन्में तो आप को वहाँ के वस्त्र नहीं पहनने चाहिये, वहाँ का खाना बनाने की बात नहीं करनी चाहिये, आदि। यानि अगर आप अफ्रीकी नहीं हैं तो आप को अफ्रीकी नायक या नायिका वाला उपन्यास नहीं लिखना चाहिये। अगर आप दलित नहीं तो दलित विषय पर नहीं लिखिये, अगर आप वंचित वर्ग से नहीं तो वंचितों पर मत लिखिये। वोक-धर्म में शब्दों की भी पाबंदी है, कुछ शब्द जायज़ हैं, कुछ वर्जित।

मानव अधिकारों की बात करने वाले "वोक योद्धा", लोगों की सामूहिक पहचान को प्राथमिकता देते हैं, वह लोग व्यक्तिगत स्तर पर क्या हैं, इसको नहीं देखना चाहते। यानि अगर आप अफ्रीकी मूल के हैं या तथाकथित निम्न जाति से हैं या श्याम वर्णी हैं तो आप शोषित ही माने जायेंगे चाहे आप अपने देश के राष्ट्रपति या करोड़पति भी बन जाईये। इसका अर्थ यह भी है कि अगर आप गौरवर्ण के या उच्च जाति के हैं, तो आप सड़क पर भीख भी मांग लो फ़िर भी आप ही शोषणकर्ता हो और रहोगे।

आप के पासपोर्ट पर भी निर्भर करता है कि आप शोषित हैं या नहीं। मैं एक नाईजीरिया की लेखिका का साक्षात्कार पढ़ रहा था, वह अपने अमरीकावास के बारे में कह रहीं थीं कि अगर आप अभी अफ्रीका से आयें हैं तो अमरीकी वोक-बौद्धिकों के लिए आप कम शोषित हैं जबकि अमरीका में पैदा होनॆ वाले अफ्रीकी मूल के लोग सच्चे शोषित हैं क्योंकि उनके पूर्वजों को गुलाम बना कर लाया गया था।

"मैं शोषित वर्ग का हूँ" कह कर अमरीका और यूरोप में "वोक" संगठनों में नेता बने हुए कुछ लोग हैं, जो अपने दुखभरे जीवनों के कष्टों की दर्दभरी कहानियाँ बढ़ा-चढ़ा कर सुनाने में माहिर हैं। वे उन लोगों के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं जो भारत, अफ्रीका के देशों और अन्य अविकसित क्षेत्रों में रहने वाले असली शोषित हैं। एक ओर वंचित वर्ग के लोग अपनी मेहनत और श्रम से अपनी और अपने समाजों की परिस्थियाँ बदल रहे हैं, दूसरी ओर अमरीका और यूरोप के एकादमी में अच्छी नौकरियाँ करने वाले या पढ़ने वाले वोक-यौद्धा उनके सच्चे प्रतिनिधि होने का दावा करके उसके लाभ पाना चाहते हैं।

मुझे लगता है कि हमारी सामूहिक पहचान को सर्वोपरी मानने का अर्थ है स्वयं को केवल पीड़ित और सताया हुआ देखना, इससे हमें समाज की गलतियों से लड़ने और उसे बदलने की शक्ति नहीं मिलती। वोक-विचारधारा हमसे हमारी मानवता को छीन कर कमज़ोर करती है, यह हमारी सोचने-समझने-कोशिश करने की हमारी शक्ति छीनती है।

सोमवार, अप्रैल 01, 2024

अच्छी पगार, घटिया काम

अगर काम आई.टी. प्रोफेशनल, या मार्किटिन्ग, या आफिस का हो, और साथ में पगार बढ़िया हो, इतनी बढ़िया की अन्य कामों से पाँच गुणा ज्यादा, तो आप ऐसी कम्पनी में काम करना स्वीकार कर लेंगे जो ओनलाईन जूआ चलाती हो, या अश्लील वीडियो दिखाती हो? 

इस काम में कुछ भी गैरकानूनी नहीं हो, तो क्या यह काम करने में बदनामी का डर हो सकता है? प्रश्न है कि आप हाँ कहेंगे या न?

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कोयले की दलाली में हाथ काले होते है, इसे सब जानते हैं। लेकिन अगर आप को कोयले की दुकान के बैक-आफिस में क्लर्क या एकाऊँटैंट की नौकरी मिले, तो क्या उसमें भी हाथ काले होने का डर है? क्या आप यह नौकरी स्वीकार करेंगे, विषेशकर जब कोयले की दुकान के मालिक आप को चलते रेट से चार-पाँच गुणा अधिक पगार देने के लिए तैयार हों

कुछ ऐसा ही प्रश्न उठाया गया था कुछ दिन पहले के अमरीकी अखबार "द वॉल स्ट्रीट जर्नल" में, जिसमें काल्लुम बेर्चर के लिखे एक आलेख में कम्पयूटर टैकनोलोजी से जुड़े कुछ ऐसे कामों की बात थी, जिनके लिए पगार बहुत बढ़िया मिलती है लेकिन लोग जिन्हें करना नहीं चाहते या उसके बारे में किसी को बताना नहीं चाहते। यह काम अश्लील या सैक्स फ़िल्मों वाली पोर्न वेबसाईट तथा जूआ खेलने वाली वेबसाईट से जुड़े हुए हैं।

उदाहरण के लिए आलेख में एक युवती कहती है कि वह एक पोर्न कम्पनी के लिए काम करती थी, उसकी पगार बहुत अच्छी थी, अन्य जगहों से छह गुणा अधिक थी। उनकी वेबसाईट पर लोग अपने सैक्सी वीडियो लगाते थे और उसका काम था कि लोगों को प्रोत्साहित करें ताकि अधिक लोग उन्हें अपने ऐसे वीडियो भेजें। जब उन्होंने शहर बदला और नया काम खोजने के लिए लोगों को अपना परिचय-अनुभव का सी.वी.भेजा तो जितने लोग उन्हें साक्षात्कार के लिए बुलाते थे वह सबसे पहले यही जाना चाहते कि पोर्न-फिल्में आदि से उनके काम का क्या सम्बंध था? कोई उन्हें काम नहीं देता था। अंत में तंग आ कर उन्होंने अपने सी.वी. उस काम की बात को हटा दिया, लिखा कि वह उस समय बेरोजगार थीं और एक कोर्स कर रहीं थीं।

वेबसाईट कोई भी हो, किसी भी तरह की हो, उसे बनाने और चलाने के लिए इन्फोरमेशन टैनोलोजी के विशेषज्ञ चाहिये। और धँधा कुछ भी हो, नशीली ड्रगस का, जूए का या माफिया और गुंडा-गर्दी का, पैसे सम्भालने और काले धन की धुलाई के लिए एकाऊँटैंट, वकील, क्लर्क, ड्राईवर, सब तरह के काम करने वालों की आवश्यकता होती है। अगर आप को ऐसा मौका मिले और तन्खवाह बहुत बढ़िया हो फ़िर भी ऐसा काम स्वीकार करने में कई तरह की दिक्कते हैं।

पहली दिक्कत है कि आप को परिवार वालों और अन्य लोगों को अपनी कम्पनी के काम के बारे में बताने में शर्म आयेगी। दूसरी दिक्कत है कि अगर उस काम की कुछ जड़े कानून की सीमा से बाहर हैं, तो हो सकता है कि कुछ को जेल जाने की नौबत आ सकती है।

अगर आप के बॉस गुंडा टाईप के हैं (ऐसे धँधों को चलाने वाले अधिकतर लोग शायद गुंडा टाईप के ही होते हैं) तो जान से मरने या कम से कम, हड्डियाँ तुड़वाने का खतरा भी हो सकता है।

और यह सब कुछ भी नहीं हो, जैसे इस आलेख में बताया गया है, जब तक यह काम चले तब तक ठीक है, लेकिन अगर उसे बदलना पड़े तो दिक्कतें आ सकती है। लेकिन शायद कुछ लोग ऐसे कामों से आकर्षित होते हैं और उन्हें इन दिक्कतों से डर नहीं लगे।

मैंने इस बारे में सोचा, मुझे लगा कि मैं ऐसी नौकरी नहीं कर पाऊँगा। आप बताईये, क्या आप ऐसी किसी कम्पनी में काम करना चाहेंगे? अगर हाँ तो क्यों? और नहीं तो क्यों? लेकिन जिसकी नौकरी चली गयी हो या जो बेरोजगार हो और परिवार पालने हों, अक्सर ऐसी हालत में कोई भी नौकरी स्वीकार की जा सकती है।

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मंगलवार, मार्च 26, 2024

एक बार फ़िर २५ मार्च की होली

२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था।

उन दिनों वह एंडियन एक्सप्रेस की अंग्रेज़ी की साप्ताहिक पत्रिका एवरीमैन के लिए काम कर रहे थे, और सुबह जब ड्राईवर उन्हें हवाई अड्डे ले जाने आया था तब तक वह अपनी लम्बी अंतिम यात्रा के लिए निकल चुके थे। उस समय वह ४७ साल के थे।

कल, एक बार फ़िर, २५ मार्च की होली थी। कल जब होली की बात हो रही थी तब मुझे वह रात याद आई थी, उनकी उखड़ती हुई साँस की आवाज़ और साथ में बैठी माँ, उन्हें पुकारती हुईं, उनकी छाती को मलती हुई।

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परिवार की तस्वीर - यह एक तस्वीर है जिसमें हम सब लोग हैं, दादी, पापा, मम्मी और हम तीनों। कुछ माह पहले मेरे बेटे ने किसी सोफ्टवैर से इसमें रंग भर दिये थे। यह उस साल की है जब नेहरू जी की मृत्यु हुई थी, और इसे मेरठ में छिपीटैंक के एक स्टूडियो में खींचा गया था।

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पापा अगर अब होते तो ९७ साल के होते। मन ही मन में उनसे मेरी बातचीत चलती रहती है। बहुत दुनिया घूमी और भिन्न विचारधाराएँ देशों को कहाँ ले जाती है, करीब से देखने का मौका मिला। जीवन में अलग-अलग सोच वाले लोगों के साथ काम करने का मौका भी मिला, उनके आदर्शों और सोच के बारे में मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच भी बनी।

जब इसके बारे में सोचता हूँ तो उनकी कमी महसूस होती है - मैं मन में उनसे अपनी सोच की बात कहता हूँ लेकिन उनका उत्तर नहीं मिलता। मैं सत्तर साल का हो रहा हूँ लेकिन स्मृतियों वाले पापा अभी भी ४७ साल पर ही रुके हैं, तो मैं उन्हें कहता हूँ कि पापा मेरे जीवन का अनुभव आप से अधिक हो गया। 

अक्सर जब कोई अच्छी किताब पढ़ता हूँ तब भी मन में उनसे बात होती है, सोचता हूँ कि उन्हें वह किताब अच्छी लगती या नहीं? शायद सभी बच्चे ऐसा ही करते हैं, हमारी उम्र चाहे कितनी भी हो जाये, मन ही मन अपने माता-पिता से बातें करना जीवन भर चलता रहता है?

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पापा की २३वीं बरसी पर, १९९८ में माँ ने अपनी डायरी में लिखा था -

आज सचमुच जीवन का सफ़र जहाँ से शुरु किया था उसकी बहुत याद आ रही है। कश्यप भार्गव तुम्हारा प्रिय मित्र। हमारी शादी में उसकी माँ और बहने दोनो थीं। एक बार जानकीदेवी कॉलेज से निकल रही थी तो सविता मिली थी। तुम्हारे जाने के साल भर बाद ही, उसी तिथि और उसी समय में ही, कश्यप भी नहीं रहा था। वैसे ही दिल के दौरे में वही 25 मार्च को, वह भी नहीं रहा। क्या कहती उससे। अकेले ही बच्चों का पालन पोषण किया होगा उसने। कई बार मन में आया कि उसके स्कूल, बाल भारती में , जा कर पता लगाऊँ, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी उससे मिलने की।

ज़िन्दगी में दूसरे लोग ही नहीं खुद अपनी नज़रें, अपना दिल और अपने अहसास भी धोखा दे जाते हैं तो इसका कुछ हो भी तो नहीं सकता। ज़िन्दगी को बेहद गम्भीरता से लेने वाले और उस पर लम्बी बहसें करने वाला कश्पी जो मुझे लखनऊ छोड़ने गया था और लखनऊ में साथ भी रहा था। फ़ैज़ाबाद में भी हमारी शादी में भी उसने मेरे भाई की भूमिका निभाई थी। मुझे ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद दिया था उसने। जीवन के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय तुमने और कश्यपी ने कैसे लिये थे? आज भी मुझे इस पर हैरानी होती है।

तुम्हारी मृत्यु के बाद सविता को ले कर आया था और जाते हुए कहने लगा कि अब मेरी ही बारी है, सूरजप्रकाश और दीपक तो नहीं रहे, मैं अकेला क्या करूँगा। और ठीक एक वर्ष बाद तुम्हारे जैसा वही समय, वही दिन, वह भी चला गया। सचमुच उसकी बारी आ गयी थी. इस पर हैरान हूँ।

पापा के उस मित्र कश्पी (कश्यप भार्गव) और दिल्ली के बालभारती स्कूल में पढ़ाने वाली उनकी पत्नी सविता भार्गव से कभी कहीं मिलने की मुझे कोई याद नहीं, न ही कभी उनके बच्चों से कभी कोई परिचय हुआ। जब भी माँ कश्पी की बात करती थी तो मन में यही प्रश्न उठता था कि वह पापा के इतने अच्छे दोस्त थे तो हमारी कभी उनसे मुलाकात या जान पहचान कैसे नहीं हुई?

उनके बच्चे कहाँ होंगे? मन में आता है कि उनसे मिलना अच्छा लगेगा।

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जब पापा गुज़रे थे तब मैं मेडिकल कॉलेज के तीसरे वर्ष में पढ़ रहा था। उन दिनों में पापा जयप्रकाश नारायण जी के साथ बिहार में बहुत समय बिता रहे थे, वे बिहार छात्र आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रांति वाले दिन थे। जे.पी. के कहने से ही इंडियन एक्सप्रेस के गुएनका जी ने मेरी मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई के लिए छात्रवृति स्वीकार कर ली थी, वरना शायद डॉक्टर बनने का सपना कठिनाई से पूरा होता।

शायद इसीलिए सारा जीवन मन में लगता रहा है कि इंडियन एक्सप्रेस "हमारा अपना" अखबार है। यादें कहाँ से शुरु होती हैं और कहाँ चली जाती हैं!


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