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रहस्यमयी एत्रुस्की सभ्यता

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ईसा से करीब आठ सौ वर्ष पहले, इटली के मध्य भाग में, रोम के उत्तर-पश्चिम में, बाहर कहीं से आ कर एक भिन्न सभ्यता के लोग वहाँ बस गये जिन्हें एत्रुस्की (Etruscans) के नाम से जाना जाता है। इनकी सभ्यता से जुड़ी बहुत सी बातें, जैसे कि इनकी भाषा, अभी तक पूरी नहीं समझीं गयी हैं।  उस समय दक्षिण इटली में ग्रीस से आये यवनों का राज था। एत्रुस्की भी लिखने के लिए यवनी वर्णमाला का प्रयोग करते थे, लेकिन उनकी भाषा, धर्म, आदि बाकी यवनों तथा इटली वालों से भिन्न थे। ईसा से करीब सौ/डेढ़ सौ साल पहले जब रोमन सम्राज्य का उदय हुआ तो एत्रुस्की उनसे युद्ध हार गये और धीरे-धीरे उनकी सभ्यता रोमन सभ्यता में घुलमिल कर लुप्त हो गयी। एत्रुस्कियों के इटली में बारह राज्य थे, हर एक का अपना शासक था, लेकिन वह सारे एक ही धर्मगुरु के अधिपत्य को स्वीकारते थे। ईसा से चार-पाँच सौ वर्ष पूर्व उनका एक राज्य बोलोनिया शहर के पास भी था, जहाँ एक बार मुझे उनके शहर के पुरातत्व अवषेशों को देखने का मौका मिला। इस आलेख में उन्हीं प्राचीन भग्नावशेषों का परिचय है। पुरातत्व में रुचि मुझे इतिहास और पुरातत्व के विषयों में बहुत रुचि है। मेरे विचार में

"आदिपुरुष" की राम कथा

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कुछ सप्ताह पहले आयी फ़िल्म "आदिपुरुष" का जन्म शायद किसी अशुभ महूर्त में हुआ था। जैसे ही उसका ट्रेलर निकला, उसके विरुद्ध हंगामे होने लगे। कुछ मित्रों ने देख कर फ़िल्म के बारे में कहा कि वह तीन घंटों की एक असहनीय यातना थी, जिसकी जितनी बुराईयाँ की जायें, वह कम होंगी। जब फ़िल्म के बारे में इतनी बुराईयाँ सुनी तो मन में उसे देखने की इच्छा का जागना स्वाभाविक था, कि मैं भी देखूँ और फ़िर उसकी बुराईयाँ करूँ। चूँकि फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर है तो उसे देखने का मौका भी मिल गया। जैसा कि अक्सर होता है, जब किसी फ़िल्म की बहुत बुराईयाँ सुनी हों और उसे देखने का मौका मिले तो लगता है कि वह इतनी भी बुरी नहीं थी। "आदिपुरुष" देख कर मुझे भी ऐसा ही लगा, बल्कि लगा कि उसके कुछ हिस्से और बातें अच्छी थीं। फ़िल्म की जो बातें मुझे नहीं जंचीं लेकिन इस आलेख की शुरुआत उन बातों से करनी चाहिये जो मुझे भी अच्छी नहीं लगी। उनमें सबसे पहली बात है कई जगहों पर कम्प्यूटर ग्राफिक्स का प्रयोग अच्छा नहीं है। जैसे कि मुझे कम्प्यूटर ग्राफिक्स से बने दोनों पक्षी, यानि रावण का वहशी वाहन और जटायू, यह दोनों और उनकी लड़ाई वाले हिस

प्राचीन भित्ती-चित्र और फ़िल्मी-गीत

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कुछ सप्ताह पहले मैं एक प्राचीन भित्ती-चित्रों की प्रदर्शनी देखने गया था। दो हज़ार वर्ष पुराने यह भित्ती-चित्र पोमपेई नाम के शहर में मिले थे। उन चित्रों को देख कर मन में कुछ गीत याद आ गये। भारत में फ़िल्मी संगीत हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाता है, और हमारे जीवन में कोई भी परिस्थिति हो, उसके हिसाब से उपयुक्त गीत अपने आप ही मानस में उभर आते है। यह आलेख इसी विषय पर है। पोमपेई के प्राचीन भित्ती-चित्र इटली की राजधानी रोम के दक्षिण में नेपल शहर के पास एक पहाड़ है जिसका नाम वैसूवियो पर्वत है। आज से करीब दो हज़ार वर्ष पूर्व इस पहाड़ से एक ज्वालामुखी फटा था, जिसमें से निकलते लावे ने पहाड़ के नीचे बसे शहरों को पूरी तरह से ढक दिया था। उस लावे की पहली खुदाई सन् १६०० के आसपास शुरु हुई थी और आज तक चल रही है। इस खुदाई में समुद्र तट के पास स्थित दो प्राचीन शहर, पोमपेई और एरकोलानो, मिले हैं जहाँ के हज़ारों भवनों, दुकानों, घरों, और उनमें रहने वाले लोगों को, उनके कुर्सी, मेज़, उनकी चित्रकला और शिल्पकला, आदि सबको उस ज्वालामुखी के लावे ने दबा दिया था और जो उस जमे हुए लावे के नीचे इतनी सदियों तक सुर

उपन्यास और जीवन

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कई बार जब जीवन का समय कम बचता है तो जिस बात को जीवन भर नहीं कह पाये थे, उसे कहने का साहस मिल जाता है। मेरे मन में भी बहुत सालों से कुछ कहानियाँ घूम रही थीं और अब जीवन के अंतिम चरण में आ कर उन्हें लिखने का मौका मिला है। शनिवार पहली अप्रैल को इतालवी लेखिका आदा द'अदामो चली गयीं। कुछ माह पहले ही उनका पहला उपन्यास, “कोमे द'आरिया" (जैसे हवा) आया था और आते ही बहुत चर्चित हो गया था। कुछ सप्ताह में २०२२-२३ के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास का इतालवी पुरस्कार स्त्रेगा घोषित किया जायेगा, उसके लिए चुनी गयी दस पुस्तकों में "कोमे द'आरिया" भी है। पचपन वर्ष की आदा को कैंसर था और अपनी आत्मकथा पर आधारित उनके उपन्यास में उन्होंने उस कैंसर की बात और अपनी बेटी दारिया की बात की है। उनके उपन्यास के शीर्षक को "जैसे हवा" की जगह पर "जैसे दारिया" भी पढ़ सकते हैं। दारिया को एक गम्भीर विकलाँगता है और रोज़मर्रा के जीवन के लिए उन्हें सहायता की आवश्यकता है। आदा की भी वही चिंता है जो उन हर माता-पिता की होती है जिनके बच्चों को गम्भीर विकलाँगता होती है और जिनमें मन में प्रश्न उठते है

2022 के सबसे सुंदर गीत

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परिवार व मित्रों को खोने की दृष्टि से देखें तो मेरा यह बीता वर्ष बहुत बुरा रहा। जितने लोग इस वर्ष खोये, उतने शायद पहले किसी एक साल में नहीं खोये थे। नीचे की तस्वीर में दो परिवार के सदस्य (मेरी साली मिरियम और मेरा मौसेरा भाई राजन) और दो मित्र (इटली में दॉन सिल्वियो और इन्दोनेशिया में डा. नूरशाँती) हैं जिन्हें हमने इस वर्ष खोया। इन खोये साथियों की आत्माओं की शाँती के लिए प्रार्थना करने के साथ मेरी यही आशा है कि नया वर्ष हम सब के लिए सकरात्मक रहे, सुख लाये। नये वर्ष को सकरात्मक ढंग से प्रारम्भ करने के लिए मैं बीते साल के अपने मनपसंद गानों की बात करना चाहता हूँ।  मुझे वह गाने अच्छे लगते हैं जो कर्णप्रिय हों, जिनमें शोर-शराबा नहीं हो और जिनके शब्दों में कुछ गहराई हो। पिछले कई सालों से मुझे लगता था कि हिंदी में इस तरह के नये गाने बनते ही नहीं हैं। इसलिए इस वर्ष मैंने नये हिंदी गानों को ध्यान से सुना। जब मैं बच्चा था तो मुझे अमीन सयानी का बिनाका गीत माला सुनना बहुत अच्छा लगता था जिसमें हर वर्ष-अंत के अवसर पर वह उस साल के सबसे लोकप्रिय गीत प्रस्तुत करते थे। उसी तरह से इस आलेख में इस वर्ष के मे

रोमाँचक यात्राएँ

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मेरा सारा जीवन यात्राओं में बीत गया लेकिन अब लगता है कि जैसे इन पिछले ढ़ाई-तीन सालों में यात्रा करना ही भूल गया हूँ। जब आखिरी बार दिल्ली से इटली वापस लौटा था,  उस समय कोविड के वायरस के बारे में बातें शुरु हो रहीं थीं। उसके बाद ढाई साल तक इटली ही नहीं, अपने छोटे से शहर से भी बाहर नहीं निकला। पिछले कुछ महीनों में यहाँ आसपास कुछ यात्राएँ की हैं और अब पहली अंतर्राष्ट्रीय यात्रा की तैयारी कर रहा हूँ - अक्टूबर के प्रारम्भ में कुछ सप्ताह के लिए भारत वापस लौटूँगा, तो लम्बी यात्रा की सोच कर मन में कुछ घबराहट सी हो रही है। सोचा कि आज अपने जीवन की कुछ न भूल पाने वाली रोमाँचकारी यात्राओं को याद करना चाहिये, जब सचमुच में डर और घबराहट का सामना करना पड़ा था (नीचे की तस्वीर में रूमझटार-नेपाल में एक रोमाँचक यात्रा में मेरे साथ हमारे गाईड कृष्णा जी हैं।)। रोमाँचकारी बोलिविया यात्रा अगर रोमाँचकारी यात्राओं की बात हो तो मेरे मन में सबसे पहला नाम दक्षिण अमरीकी देश बोलिविया का उभरता है। बोलिविया की राजधानी ला'पाज़ ऊँचे पहाड़ों पर बसी है। 1991 में जब वहाँ हवाई जहाज़ से उतरे तो हवाई अड्डे पर जगह-जगह लिखा था

भारत के सबसे सुन्दर संग्रहालय

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कुछ समय पहले भारत के अंग्रेज़ी अखबार फर्स्टपोस्ट पर रश्मि दासगुप्ता का एक आलेख पढ़ा था जिसका शीर्षक था "राष्ट्रीय संग्रहालय को बदलाव की आवश्यकता है"। इस आलेख की पृष्ठभूमि में मोदी सरकार का दिल्ली के "राजपथ" पर नये भवनों का निर्माण है जिनमें राष्ट्रीय संग्रहालय भवन भी आता है। कुछ दिन पहले ही प्रधान मंत्री ने नये राजपथ का उद्घाटन किया था और इसे नया नाम दिया गया है, "कर्तव्यपथ"। इस नवनिर्माण में आज जहाँ राष्ट्रीय संग्रहालय है वहाँ कोई अन्य भवन बनेगा और कर्तव्यपथ के उत्तर में जहाँ अभी नॉर्थ तथा साउथ ब्लाक में मंत्रालय हैं वहाँ पर यह नया संग्रहालय बनाया जायेगा। चूँकि दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय मेरे मनपसंद संग्रहालयों में से है, मैंने सोचा कि भारत के अपने मनपसंद संग्रहालयों के बारे में एक आलेख लिखना चाहिये। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से उन्नीसवीं शताब्दी की धनुराशि का एक शिल्प दक्षिण भारत से है। संग्रहालयों की उपयोगिता सतरहवीं से बीसवीं शताब्दियों में युरोप के कुछ देशों ने एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका महाद्वीपों के विभिन्न देशों पर कब्ज़ा कर ल