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सोमवार, दिसंबर 30, 2024

इंदो-अमरीकी लेखिका सोमा वीरा

कभी-कभी जीवन आप को बरसों पुरानी, एक पुरानी भूली-बिसरी याद के सामने ला कर खड़ा देता है, और आप चकित रह जाते हैं। मुझे कुछ ऐसा ही लगा जब अचानक एक दिन, एक पुरानी पत्रिका में कुछ खोजते हुए मेरी हिन्दी लेखिका सोमा वीरा से मुलाकात हो गई।

नीचे की इस तस्वीर में उन्नीस सौ पचास और नब्बे के दशकों की सोमा वीरा जी की तस्वीरें हैं (तस्वीरों को बड़ा करके देखने के लिए, उन पर क्लिक करें)।

इंदो-अमरीकी लेखिका सोमा वीरा

सोमा जी की हिन्दी कहानियों का संग्रह, "धरती की बेटी", आत्माराम एण्ड सन्स ने १९६२ में प्रकाशित की थी। यह किताब मुझे बहुत प्रिय थी और मैंने इसे बचपन में पढ़ा था।

आज से करीब बीस साल पहले, २००६ में, मैंने अपने मन-पसंद हिन्दी लेखकों की बात करते हुए सोमा वीरा जी की इस किताब के बारे में लिखा था। उस आलेख के कुछ साल बाद, हिन्दी पत्रिका अभिव्यक्ति निकालने वाली लेखिका पूर्णिमा वर्मन जी ने मुझे ईमेल भेजा कि क्या उस किताब के कवर पर सोमा वीरा की कोई तस्वीर है? उन्होंने ही मुझे बताया था कि सोमा वीरा अमरीका चली गईं थीं, जहाँ उनकी २००४ में मृत्यु हुई थी, लेकिन उनकी कोई तस्वीर नहीं मिल रही थी। इस किताब के पीछे भी सोमा वीरा जी की तस्वीर नहीं थी, मैंने पूर्णिमा जी को लिखा था। लेकिन इतने वर्षों पहले की यह बात मैं भूला नहीं था, जब भी मेरी दृष्टि मेरी अलमारी में रखी "धरती की बेटी" की ओर जाती थी तो यह बात मुझे याद आ जाती थी।

फ़िर अचानक कुछ दिन पहले जब एक पुरानी पत्रिका में उनकी एक कहानी दिखी और साथ में उनकी तस्वीर भी दिखी, तो लगा कि कोई दुर्लभ वस्तु मिल गई हो। आज के मेरे इस आलेख में उसी पुरानी सोमा वीरा की कुछ बातें हैं। लेकिन सबसे पहले देखते हैं कि इंटरनेट पर उनके बारे में क्या जानकारी मिलती है।

सोमा वीरा का परिचय

इंटरनेट पर खोजें तो अभिव्यक्ति की वेबसाईट पर उनके बारे में एक पृष्ठ मिलता है, जिसके अनुसार उन्होंने अमरीका में विश्वविद्यालय स्तर पर कार्य किया, उन्हें अमरीकी लेखक के रूप में भी जाना और सम्मानित किया गया था।
 
ई-पुस्तकालय पर उनकी एक किताब "साथी हाथ बढ़ाना" पीडीएफ में पढ़ सकते हैं। लेकिन उनकी कहानियों की किताब "धरती की बेेटी" कहीं नहीं दिखी। (यह किताब मेरे पास है, मेरे विचार में अब इसका कॉपीराईट नहीं होगा। अगर इसे पीडीएफ में इंटरनेट पर डालना चाहें तो क्या करना चाहिये, इसके लिए सुझाव दीजिये)।
इंदो-अमरीकी लेखिका सोमा वीरा / अंग्रेज़ी किताब का कवर

अमरीका के साईन्स फिक्शन डाटाबेस के अनुसार उनका जन्म २० नवम्बर १९३२ को लखनऊ में हुआ था। इस डाटाबेस में उनके कुछ अंग्रेज़ी उपन्यासों के नाम भी हैं और वहीं से, एक किताब के पीछे लगी, मुझे उनकी नब्बे की दशक वाली तस्वीर भी मिली (साथ में बायें)।
 
नब्बे के दशक में उन्होंने साईन्स फिक्शन विधा पर अंग्रेज़ी के बहुत से उपन्यास लिखे जो अमेज़न पर उपलब्ध हैं। अमेज़न पर ही उनके एक उपन्यास के पीछे उनके परिचय में लिखा है कि उन्होंने अमरीका में कोलोराडो विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिग्री ली और उसके बाद न्यू योर्क विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय सम्बंध तथा आर्थिक विकास विषय में पी.एच.डी. की। वह न्यू योर्क में रहती थीं और वहीं पर, संयुक्त राष्ट्र संस्थान के साथ लेकचर्र का काम करती थीं। वह अमरीका के प्रवासी भारतीय एसोसिएशन से भी जुड़ी थीं। (नीचे उनकी एक अंग्रेज़ी किताब का कवर, अमेजोन की वेबसाईट से)

इंदो-अमरीकी लेखिका सोमा वीरा/ अंग्रेज़ी किताब का कवर
 

पचास के दशक की सोमा वीरा से मेरी मुलाकात

मैं अपनी वेबसाईट कल्पना पर हर साल अपने पिता ओमप्रकाश दीपक के कुछ पुराने लेख व कहानियाँ टाईप करके जोड़ता रहता हूँ। गुड़गाँव में मेरी छोटी बहन ने एक अलमारी में उनके कुछ कागज़ सम्भाल कर रखे हैं। कुछ सप्ताह पहले कुछ दिनों के लिए गुड़गाँव गया था तो उसी अलमारी में पापा के कागज़ देख रहा था कि अब किस आलेख को इंटरनेट पर डालना चाहिये।

तब हाथ में हिन्दी पत्रिका "सरिता" का एक अंक आया जिसमें पापा की एक कहानी छपी थी। उसके पन्ने पलट रहा था कि देखा कि उस अंक में सोमा वीरा की एक कहानी भी छपी थी, "ढहती कगारें" जो उनके कथा-संग्रह "धरती की बेटी" में भी थी। जुलाई १९५८ की सरिता के उस अंक के शुरु में "सरिता के लेखक" पृष्ठ पर सोमा वीरा जी की तस्वीर और उनका परिचय भी था। उस परिचय में लिखा था:

"पच्चीस वर्षीय सोमा वीर शाहजहांपुर में अपने परिवार के कामधंधों के बीच भी कहानियाँ लिखने के लिए भी कैसे समय निकाल लेती हैं इसके पीछे एक मनोरंजक घटना छिपी है। सातवीं क्लास में एक प्रसिद्ध लेखक की कहानी पढ़ने के बाद जब आप ने कहा कि ऐसी कहानी तो मैं भी लिख सकती हूँ तो आप के भाई ने व्यंग किया था: "पुस्तकें पढ़-पढ़ कर यदि दो-चार विचार मस्तिष्क में उभर भी आयें तो क्या! तुम्हें कहानी लिखने का सिर-पैर भी नहीं आता।"

तभी से सोमा वीर ने उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने की ठान ली और प्रेमचंद व शरत जैसे महान लेखकों की कृतियों का अध्ययन करने लगीं। शिक्षा तो दसवीं से ज़्यादा न प्राप्त कर सकीं - विवाह हो गया - पर उच्चतम हिंदी साहित्य का अध्ययन चलता रहा। कुछ कहानियाँ लिखीं जो प्रकाशित न हुईं। उन्हें फाड़ कर फैंक दिया। निराशा हुई पर साहस नहीं छोड़ा। सरिता के नये अंकुर स्तम्भ में जब पहली बार कहानी छपी तो साहस बढ़ा। एक-दो कहानियाँ और भी छपीं, पाठकों ने उनका स्वागत किया। भाषा मंजती गई, विचार परिपक्व होते गये। आगे भी लिखते रहने का साहस बढ़ गया। इसी अंक में एक कहानी "ढहती कगारें" प्रकाशित हुई है। शीघ्र ही एक कहानी संग्रह भी प्रकाशित होने वाला है।"

सोमा वीरा की जीवन यात्रा

आत्माराम एण्ड संस द्वारा १९६२ में प्रकाशित "धरती की बेटी" की भूमिका प्रसिद्ध हिंदी लेखक विष्णु प्रभाकर ने लिखी थी और यह किताब वीरा जी ने अपने पिता को समर्पित करते हुए लिखा था - "महामना पिता श्री श्यामलाल को, जिनके युगान्तकारी विचारों ने मेरे व्यक्तित्व के 'अहम्' को जन्म दिया"।

अपनी भूमिका में प्रभाकर जी ने लिखा था, "सोमा बहन हार मानने में विश्वास नहीं करतीं। वह चुनौती को स्वीकार करती हैं। उनकी लेखनी में जीने की तीव्र आकांक्षा है। इसलिए वह प्रहार करती हैं ... वह कई वर्षों से अमरीका में अध्ययन कर रही हैं। उनका जीवन संघर्षों के बीच से गुज़रा है। अपने पैरों पर खड़े हो कर उन्होंने अंधकार के बीच से राह बनाई है।"

उनकी जीवन-यात्रा क्या थी, मुझे नहीं मालूम, मैं अटकलें ही लगा सकता हूँ। जुलाई १९५८ में जब सरिता में उनकी कहानी छपी थी, तब वह शाहजहांपुर में रहती थीं और १९६२ में जब उनका कहानी-संग्रह छपा तब वह "कुछ वर्षों से" अमरीका में पढ़ रही थीं। १९५८ में वह "दसवीं पास" ग्रहणी थीं तो अमरीका में पढ़ने कैसे गईं?

शायद उनके पति अमरीका में पढ़ने गये थे और वहाँ जा कर उन्होंने हाई स्कूल पूरा किया, फ़िर विश्वविद्यालय में पढ़ीं? और साईन्स फिक्शन के विषय पर लेखन की ओर वह कब व कैसे गईं?

अंत में

अपने प्रिय लेखकों के बारे में जानना-समझना सभी को अच्छा लगता है। जब खोई हुई जानकारी मिल जाये तो और भी खुशी होती है। बहुत साल पहले पूर्णिमा जी की ईमेल ने मेरे मन में जो जिज्ञासा जगाई थी, संयोगवश अब उसके कुछ उत्तर मिल गये। क्या जाने कि उनके परिवार का कोई सदस्य इस आलेख को पढ़ कर उनके बारे में और जानकारी साझा करे!


***

बुधवार, अक्टूबर 23, 2024

व्यक्तिगत संरचनाएँ: वेनिस कला प्रदर्शनी

आजकल वेनिस द्वीवार्षिकी कला प्रदर्शनी (Biennale) चल रही है। लेकिन चाह कर भी उसे देखने नहीं गया, क्योंकि प्रदर्शनी बहुत फ़ैले हुए क्षेत्र में लगती है जिससे वहाँ चलना बहुत पड़ता है और मेरे घुटने दुखने लगते हैं। लेकिन प्रमुख प्रदर्शनी के साथ-साथ वेनिस शहर में बहुत सी अन्य छोटी-बड़ी कला प्रदर्शनियाँ भी लगती हैं, जिन्हें देखना मेरे लिए अधिक आसान है। ऐसी ही एक कला प्रदर्शनी वेनिस के यूरोपी सांस्कृतिक केन्द्र  में लगी तो कुछ दिन पहले मैं उसे देखने गया।

इस आलेख में मैंने आप के लिए अपनी पसंद की कुछ कलाकृतियाँ की लघु-प्रदर्शनी बनाई है। 

यूरोपी सांस्कृतिक केन्द्र का भवन तीन हिस्सों में बंटा है - पालात्ज़ो बैम्बो, पालात्ज़ो मोरो तथा मारिनारेस्सा के बाग। इसमें कुल मिला कर करीब चालिस कक्ष हैं जिनमें विभिन्न देशों के करीब दो सौ कलाकारों की यह प्रदर्शनी लगी है। यह भवन वेनिस रेलवे स्टेशन से रिआल्तो पुल जाने वाले प्रमुख रास्ते पर है।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures

इस प्रदर्शनी में चैक रिपब्लिक की एक कलाकृति ने मुझे बहुत प्रभावित किया, देख कर ऐसा लगा मानो किसी ने छाती पर मुक्का मारा हो और साँस नहीं ली जा रही हो। इसलिए मेरे लिए यह इस प्रदर्शनी की सबसे महत्वपूर्ण कलाकृति थी। यह कलाकृति आप को नीचे मेरे आलेख के अंत में मिलेगी।

इस प्रदर्शनी को "व्यक्तिगत संरचनाएँ: सीमाओं से परे" का नाम दिया गया है और यह २४ नवम्बर २०२४ तक चलेगी। इसे देखने के लिए कोई टिकट नहीं चाहिये। अगर आप इन दिनों में वेनिस आ रहे हैं और आप को कला में रुचि है, तो इस प्रदर्शनी को अवश्य देखें।

नीचे की सभी कलाकृतियों की तस्वीरों पर क्लिक करके आप उन्हें बड़ा करके देख सकते हैं। तो आईये चलते हैं मेरी यह लघु कला प्रदर्शनी देखने।

ग्रीस के कोसतिस ज्योर्जो (Kostis Georgiou) की कलाकृतियाँ

यह पहली दो कलाकृतियाँ भवन में घुसने से पहले, उसके सामने वाले बाग में दिखती है। एलुमिनियम की बनी मानव मूर्तयों को उन्होंने लाल रंग से रंगा है। एक में दो आकृतियाँ एक चक्र के ऊपर हवा में टिकी हैं, दूसरी में एक सीढ़ी के आसपास चार आकृतियाँ ऊपर नीचे हैं। कुछ रंग की वजह से, कुछ आकृतियों का हवा में तैरना और खेलना, मुझे अच्छा लगा। अगर आप कोसतिस के वेब-स्थल वाली लिंक पर देखेंगे तो वहाँ लाल रंग से  इस तरह की अन्य अनेक कलाकृतियाँ देख सकते हैं।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Kostis Georgiou

अमरीका की अलकनंदा मुखर्जी (Alakananda Mukerjin) की कला

अलकनंदा की जल-रंगों कि विभिन्न चित्रकला इस प्रदर्शनी में दिखी। मुझे यह विषेश नहीं भाईं, कुछ बेतरतीब सी लगीं, लेकिन साथ ही लगा कि उनकी आकृतियों में मकबूल फिदा हुसैन साहब की आकृतियों की प्रेरणा दिखती है। क्या आप को भी ऐसा लगता है?

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Alakananda Mukherjin

 आस्ट्रेलिया की एनेट्टे गोल्डन (Annette Golden) की चित्रकला

प्रदर्शनी में एनेट्ट की कलाकृतियों के लिए एक पूरा कमरा था जिसमें उनकी बीस-पच्चीस कलाकृतियाँ लगी थीं। वह एक्रेलिक, तेल-रंग और धातुओं की पत्तियाँ लगा कर केनवास पर कलाकृतियाँ बनाती हैं, जिनमें रंगबिरंगे विभिन्न नारी स्वरूप दिखते हैं। उन्हीं में से एक कलाकृति प्रस्तुत है जिसकी काली पृष्ठभूमि पर लाल और नीले रंगों से बनी युवती मुझे अच्छी लगी।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Annette Golden

न्यूज़ीलैंड तथा भारत के अरीज़ कटकी (Areez Katki) का इस्टालेशन

अरीज़ पारसी हैं और उनके इंस्टालेशन में रुमालों में ज़राथुस्त्रा गाथा के सतरह हा (टुकड़े या हिस्से) दिखते हैं। रुमालों पर उन्होंने चित्र बना कर, उन्हें धागों से छत से लटकाया था। पीछे खिड़की से आती वेनिस की रोशनी और और वहाँ से दिखते भवनों के साथ उनके प्राचीन धर्म ग्रंथ का चित्रण मुझे अच्छा लगा हालाँकि उन चित्रों में कौन सी कहानी थी, यह समझ नहीं आया।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Areez Katki

अमरीका के ब्रायन माक (Brian J. Mac) की वास्तुकला की कलाकृति

ब्रायन माक अमरीकी वास्तुकार हैं। अपने २७ सालों के वास्तुकार कार्य के हर साल उन्होंने एक डिब्बा बनाया जिसमें उनके रेखाचित्र, मॉडल, इत्यादि तोड़-मोड़ कर घुसा दिये। एक तरह से उनका पूरा कार्यजीवन इस तरह से उनकी कलाकृति में दिखता है। इसे देखते हुए मैं सोच रहा था कि हमारी हर चीज़ के साथ हमारी यादें जुड़ी होती हैं, कि  इसे वहाँ से खरीदा था, इसे वैसे बनाया था, आदि, लेकिन हमारे बाद हमारी यादों की कोई कीमत नहीं रहती, उस सब सामान को कूड़े की तरह फ़ैंक देते हैं। इस दृष्टि से यह कलाकृति मुझे यादों का व्यक्तिगत स्मारक लगी।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Brian J. Mac

रोमेनिया की कालिन टोपा (Calin Topa) और अदा गालेस (Ada Gales) की इन्स्टालेशन

कालिन स्वरों और ध्वनि की कलाकार है, उन्होंने इस प्रदर्शनी में एक लाल रोशनी वाला एक गलियारा बनाया, और जिसे स्वरों से भरा है। उस गलियारे की दीवारों पर अदा ने अपने शब्द लिखे हैं, और इस तरह से दोनों की कला-दृष्टि का संगम हुआ। मैं आप को कालिन की ध्वनि नहीं महसूस करा सकता लेकिन अदा के विभिन्न वाक्यों में से जो शब्द मैंने चुने हैं उनमें लिखा है, "मैं कभी कला बनाना चाहती हूँ और कभी थाई नूडल खाना चाहती हूँ"।  

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Calin Topa
 

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Ada Gales
 
ध्वनियों को मिला कर भी कला बनती है, के विषय पर कई इंस्टालेशन मैं पहले भी देख चुका हूँ लेकिन यह एक कला अनुभव है, यह बात मुझे अभी भी कुछ अजीब सी लगती है, हालाँकि इसे तार्किक स्तर पर समझता हूँ। मेरे लिए कला देखने की चीज़ है, छू कर देखने की चीज़ है। इसी तरह से मुझे कला प्रदर्शनियों में वीडियो इंस्टालेशन भी कुछ अजीब से लगते हैं।

स्विटज़रलैंड की केरोल कोहलर (Carole Kohler) की लुकन-छिपाई

केरोल कोहलर ने कपड़े उतराते हुए व्यक्तियों की मूर्तियाँ बनायी थीं और कोलाज बनाये थे जिन्हें ३-डी चश्में से देखो तो उनके भीतर छुपी हुई आकृतियाँ दिखती थीं। मैं आप को वे छिपी हुई आकृतियाँ नहीं दिखा सकता लेकिन आप उनकी कपड़े उतारने वालों  की मूर्तियों की एक झलक देख सकते हैं। सब मूर्तियों में बनियान या कमीज उतारने वालों के कपड़े से चेहरे छिप गये हैं, अवश्य इसका कोई प्रतीकात्मक अर्थ है, जैसे बच्चे अपना चेहरा ढक कर सोचते हैं कि उन्हें कोई नहीं देख सकता। या शायद, कलाकार कहना चाहता है कि हम कड़वी सच्चाई देखने से डरते हैं और उनसे अपना मुँह चुराते हैं।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Carole Kohler

स्विटज़रलैंड के क्रिस्टोफ स्टुकेलबर्गर (Christoph Stuckelberger) की जड़ें

स्टुकेलबर्गर हर वस्तु के नयी तरह से देखने के लिए कहते हैं। उनकी कलाकृतियों के लिए एक पूरा कक्ष था जिसमें वस्तुओ के भितर से बाहर, या नीचे से ऊपर, उल्टा दिखाया गया था। इस तस्वीर में आप उनकी "जड़ें" देख सकते हैं जो आपस में एक दूसरे के ऊपर-नीचे जा कर एक जाल बनाती हैं। जिस वस्तु को एक तरह से देखने की आदत हो, जब वह उससे भिन्न दिखे तो हमें रुकने और सोचने के लिए नया दृष्टिकोण देती है।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Christoph Stuckelberger

हंगरी के डेविड सज़ेंतग्रोती (David Szengroti) की अमूर्त चित्रकला

प्रदर्शनी में बहुत सी अमूर्त चित्रकला के नमूने थे जो मुझे अच्छे लगे। मैंने उनमें से इस लघु-प्रदर्शनी के लिए हंगरी के चित्रकार सज़ेंतग्रोती की तीन चित्रकलाओ को चुन कर उनकी एक मिली-जुली तस्वीर बनायी है। ऐसी कलाकृतियों के सामने मैं लम्बे समय तक खड़ा रह कर उन्हें देख सकता हूँ। इसमें रंगो का चुनाव, उनके आपस में सम्बंध, उनमें दिखती अमूर्त आकृतियाँ, सब का असर मिल जुल कर मुझे बहुत सुंदर लगा। 

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - David Szengroti (composit)

बेल्जियम की जाँन ओपगेन्होफ्फेन (Jeanne Opgenhoffen) की सिरामिक कला

ज़ाँन अपने सिरामिक के काम के लिए जानी जाती हैं। उनकी जिस कलाकृति को मैंने इस आलेख के लिए चुना है उसके लिए उन्होंने पहले महीन सेरामिक के चिप्स जैसे आकार के टुकड़े बनाये, फ़िर उन सबको जोड़ कर यह अमूर्त चित्र बनाये, जिनमें रंगों और अकृतियों का मेल मुझे बहुत अच्छा लगा। इसे देख कर सोचना कि इसे बनाने में उन्हें कितना समय और मेहनत लगी होगी, से इसकी सुंदरता और भी महत्वपूर्ण लगती है। इस तस्वीर पर क्लिक करके इसे बड़ा करके देखिये तब इसकी सुंदरता दिखेगी।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Jeanne Opgenhoffen

सीरिया-फिलिस्तीन के खैर अलाह सलीम (Khair Alah Salim) की चित्रकला

सलीम फिलिस्तीनी हैं और सीरिया में रहते हैं, उनकी केनवास पर एक्रेलिक से बनी इस तस्वीर की उदास मुस्कान वाली युवती मुझे बहुत अच्छी लगी। लगता है जैसे उसका चेहरा एक अंडे के छिलके के ऊपर बना है जिसमें दरारें पड़ रही हैं, जिनसे उसकी उदासी और भी गहरी हो जाती है।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Khair Alah Salim

फ्राँस के निकोलास लावारेन्न (Nicolas Lavarenne) और कोरीन फन्कन (Corin Funken) की कलाकृतियाँ

निकोलास ने रेज़िन से सोती हुई युवती की शिल्पकला बनाई है जिसकी बाजू नीचे, कोरीन की चित्रकला के सामने लडक रही है। निकोलास की मूर्ति छत पर लोहे के हैम्मोक पर झूल रही है, जबकि कोरीन की चित्रकला में वेनिस शहर के समुद्र से जुड़ी बातों-घटनाओं का चित्रण है जिसे उन्होंने "हमारा समुद्र" का नाम दिया है। मुझे कोरीन की चित्रकला कुछ विषेश नहीं लगी लेकिन निकोलास की मूर्ति के चेहरे का भाव और उनका कक्ष में छत पर तैरना बहुत अच्छे लगे।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Nicolas Lavarenne

 नाईजीरिया की ओर्री शेनजोबी (Orry Shenjobi) की आ-वाम-बे पार्टी

ओर्री की कलाकृतियों का एक पूरा कक्ष है जिसमें दीवारों पर उन्होंने वहाँ की पाराम्परिक पार्टी जिसे आ-वाम-बे कहते हैं, में भाग लेने वालों की तस्वीरों के ऊपर से विभिन्न चीज़ो को जॊड़ कर कोलाज जैसे बनाये हैं। उनकी कलाकृति ऊर्जा, रंगों और आनंद लेते हुए लोगों से भरी हुई है। इस कक्ष में बहुत देर तक रुका। नीचे वाली तस्वीर में आप को उस कक्ष की दो दीवारों के हिस्से दिखेंगे। इस तस्वीर पर भी क्लिक करके उसे बड़ा करके देखिये, तब दिखेगा कि किस तरह उन्होंने तस्वीरों पर अन्य वस्तुओं को जोड़ कर कैसे कोलाज बनाये हैं।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Orry Shenjobi (composit)

चिल्ली की पेटरिशिया टोरो रिब्बेक (Patricia Toro Ribbeck) की मिठाईयाँ

दक्षिण अमरीका की इस कलाकार ने रंग-बिरंगी चमकती हुई सिरामिक से तरह-तरह के केक, पेस्ट्रियाँ और मिठाईयाँ बनाई हैं, जिन्हें देख कर भूख लग जाती है। मेरे विचार में यह कलाकृति जिस घर में रहेगी वहाँ रहने वाले लोग डाईटिन्ग नहीं कर सकते। वह कहती हैं कि इसे उन्हें कोविड के समय में घर में बन्द रहने के समय बनाया था क्योंकि उस समय वह सुंदर सपने देखना चाहती थीं।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Patrizia Toro Ribbeck

फिलीपीनी कलाकारों का कक्ष

प्रदर्शनी में एक कक्ष में बहुत सारे फिलीपीनी कलाकारों की कलाकृतियाँ थीं। मुझे उनमें से कई कलाकृतियाँ अच्छी लगीं लेकिन उदाहरण के लिए मैंने उनमें से दो कलाकृतियाँ चुनी हैं। पहली चित्रकला डेमी पाडुवा की है और दूसरी चित्रकला सेड्रिक डेला पाज़ की है, दोनों कलाकृतियाँ केनवास पर एक्रेलिक रंगों से बनाई गई हैं।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Demi Padua
 
European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Cedric dela Paz

प्रिन्सटन विश्वविद्यालय के फ़िल्म-शोध स्टूडियो की तस्वीरें

यह वाला कक्ष अमरीकी श्याम वर्ण के लोगों के संघर्ष के बारे में बना है। इसमें एक और हज़ारों छोटी-छोटी तस्वीरों को मिला कर कम्प्यूटर से चित्र बनाये थे जिनमें दूर से देखो तो उनमें जाने-पहचाने व्यक्तियों के चेहरे दिखतॆ थे। जैसे कि नीचे वाली तस्वीर अमरीकी अभिनेता जोर्डन पील की है, जिसे ध्यान से देखेंगे तो यह बहुत सी छोटी तस्वीरों को जोड़ कर बनाई गई है। इस तस्वीर पर क्लिक करके उसे बड़ा करके देखिये कि पील का चेहरा कैसे बनाया गया है।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Princeton Uni Research film studio

सेशैल के रायन शैट्टी (Ryan Shetty) की तैरते हुए घर

रायन ने इस कक्ष में विभिन्न इस्टालेशन बनाई थीं। उनमें से मुझे यह तैरते घरों वाला हिस्सा अच्छा लगा। सफेद, चकोर, डिब्बे जैसे कमरों में खिड़कियाँ, सीढ़ियाँ और खम्बे बने हैं। नीचे से रोशनी से पीछे की दीवार पर प्रतिबिम्ब थे और साथ में एक वीडियो इंस्टालेशन भी था (यह सब इस तस्वीर में नहीं दिखते)।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Ryan Shetty

भारत की सोनल अम्बानी (Sonal Ambani) का घायल बैल

सोनल के धातुओं के टुकड़ों को जोड़ कर बना यह बैल देख कर मुझे दिल्ली के चर्खा संग्रहालय में बने शेर की शिल्पकला याद आई जिसे भारत सरकार ने "भारत में बनाईये" कम्पेन के लिए लगाया था। बैल देख कर फाईनेन्शियल और शेयर बाज़ार मार्किट का ध्यान आता है, शायद इसलिए लाल तीरों से घायल यह बैल नहीं है, प्रतीमात्मक गाय है। यह शिल्प स्टील, पीतल और लकड़ी से बना है और उनके अनुसार, यह पुरुष तथा नारी को काम के लिए मिलने वाली पगार की विषमताओं को दर्शाता है। सोनल जी ने इस कलाकृति का नाम दिया है, "बड़े सौभाग्य के तीर और गुलेलें"।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Sonal Ambani

दक्षिण कोरिया के याओ जुई छुंग (Yao Jui Chung) का झंडा

छुंग की इस कलाकृति के रंग यूक्रेन के झंडे के रंगों की याद दिलाते हैं और इस पर बनी दो आकृतियाँ ध्यान खींचती हैं। एक आकृती कुत्ते या सियार जैसी लगती है और दूसरी का चेहरा मानव सा है लेकिन उसके सींग हैं, यानि शैतान है। इसका अर्थ मुझे समझ नहीं आया लेकिन देख कर अच्छा लगा।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures- Yao Jui Chung

चीन के शांग मिंग शेंग (Chang Ming Sheng) की क्वान्टम भौतिकी कला

बाद में पता चला कि कलाकृति का नाम यी जिंग है और कलाकार का नाम शांग मिंग शेंग है। यह वैज्ञानिक तरीके से बालू के कणों को क्वांटम भौतिकी के माध्यम से घुमा कर अपनी कला बनाते हैं जो द्वीरूप और त्रीरूप के बीच में घूमती है। मुझे उनकी कोई बात समझ नहीं आई कि वह क्या करते हैं और क्यों करते हैं, इसलिए उनकी चित्रकला का एक नमूना यहाँ प्रस्तुत है ताकि आप में से बुद्धिमान व्यक्ति इसे समझ कर मुझे भी समझायें। 

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Chang Ming Sheng

चेक गणतंत्र के डानिएल पेस्टा (Daniel Pesta) की चोटियाँ

मेरी इस लघु-प्रदर्शनी के अंत में वह कलाकृति प्रस्तुत है जिसने मेरे दिल को गहराई से छुआ। इसे देख कर मुझे बहुत धक्का लगा, मैं वहाँ खड़ा रह गया।

कलाकृति में युवतियों की तीन कटी हुई, खून से सनी हुई चोटियाँ हैं, जिनके नीचे लिखा है, "मेरा खून जंगली था", "मेरा खून गर्म था", और "मेरा खून स्वतंत्र था"। जब लड़की जंगली हो, काबू में न आये, स्वतंत्र जीना चाहे तो अक्सर समाज उन्हें दीवारों और पर्दों के पीछे छुपा देते हैं और फ़िर भी न माने, तो परिवार और धर्म की इज़्ज़त के नाम पर जान से मार देते हैं।

दुनिया भर में लड़कियों और औरतों पर धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के नाम पर होने वाले अत्याचारों और बंधनों को दिखाती यह कलाकृति मेरे मन को छू गई। नीचे वाली तस्वीर में मैंने तीनो कलाकृतियों को एक तस्वीर में जोड़ दिया है। इस तस्वीर को क्लिक करके इसे बड़ा करके अवश्य देखें।

इसे देख कर पंजाबी गीत, "काली तेरी गुत ते परांदा तेरा लाल नी" का नया ही अर्थ दिखता है।

European Cultural Centre Venice - art exhibition - Personal structures - Daniel Pesta

अंत में 

पिछले दशक से कॉनसैप्ट आर्ट यानि किसी विचार पर आधारित कला का महत्व बढ़ता जा रहा है, जिसमें कलाकार अपनी कला का कौशल नहीं दिखाता बल्कि कला के माध्यम से एक विचार को अभिव्यक्ति देता है। डानियल पेस्टा की कला में लड़कियों की चोटियाँ बनाने का कौशल प्रभावित नहीं करता बल्कि उसके पीछे उनका विचार है कि जो लड़कियाँ हमारे समाज की बात नहीं मानती उनकी चोटियाँ काट कर उनके सिरों को लहु-लुहान कर दो।

कुछ कलाकार वैचारिक-कला के नाम पर आलसपन दिखाते हैं जैसे कि कोई कुछ टूटी ईंटों को रख कर, उसे "टूटे सपने" नाम की कलाकृति बताईये। लेकिन चेक कलाकार डानियल की इस कलाकृति को देख कर मुझे लगा कि वैचारिक कला भी बहुत सशक्त हो सकती है।

कहिये आप का क्या विचार है और मेरी इस लघु कला प्रदर्शनी में आप को कौन सी कलाकृति सबसे अधिक अच्छी लगी।

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मंगलवार, मई 21, 2024

किताब, चाय और यादें

हमारे घर में एक छोटा सा बाग है, मैं उसे रुमाली बाग कहता हूँ, क्योंकि वो छोटे से रुमाल जैसा है। उसमें एक झूला है, बाहर की सड़क की ओर पीठ किये, पौधों की क्यारी से लगा हुआ,  जिस पर हरी और सफेद धारियों वाले कुशन हैं, और सामने एक गोल मेज़ और दो कुर्सियाँ हैं, और तीन ओर पौधे लगे हैं। वहीं, एक कुर्सी को करीब खींच कर, उस पर चाय का प्याला रख कर, आज सुबह मैं झूले पर बैठा अपनी किताब पढ़ रहा था।

उपन्यास पढ़ने के लिए यह झूला मेरी सबसे प्रिय जगह है, लेकिन जब नॉन-फिक्शन पढ़ता हूँ तो यहाँ नहीं बैठता। वैसे यहाँ बैठने का मौका कम ही मिलता है, क्योंकि हमारे यहाँ आधा साल सर्दी चलती है, और जब सर्दी नहीं होती तो शायद पहाड़ों की वजह से बारिश बहुत होती है।

जब गर्मी आती है तो बाग में फ़ूल खिल जाते हैं, आसपास के पेड़ों में पक्षी घोंसले बनाते हैं और सुबह से चहचहाने लगते हैं। हमारे सामने वालों के यहाँ चीड़ के दो ऊँचे पेड़ हैं, मुझे उनसे ज़रा सी खुन्दक है क्योंकि उनकी वजह से, मुझे उनके पीछे वाला पहाड़ नहीं दिखता, लेकिन उनमें पक्षियों की पूरी कोलोनी बसती है, जिनके गीत गर्मियों के दिनों का पार्श्वसंगीत बन जाते हैं।

जब गर्मी आती है तो मच्छर भी आ जाते हैं, लेकिन अभी तक सुबह-शाम का तापमान दस-बारह डिग्री के आसपास घूम रहा है इसलिए इस वर्ष अभी तक मच्छर नहीं आये।

खैर, बात बाहर बैठ कर किताब पढ़ते हुए चाय पीने की शुरु थी। पढ़ते-पढ़ते, अपनी किताब को नीचे रख कर मैं सोचने लगा कि अगर कुछ दिन इस तरह से धूप निकलती रहे तो मैं वेनिस में कला-बिएन्नाले प्रदर्शनी को देखने जा सकता हूँ।  

यहीं से शुरु हुई मेरी सोयीं यादों के जगने की शुरुआत, जो कब, कहाँ, और किस बात से जाग जाती हैं, यह कहना कठिन होता है। आज उन यादों को जगाया हुसैन साहब की कला प्रदर्शनी के विचार ने। वेनिस बिएन्नाले की प्रदर्शनियों में इस बार दिल्ली के केएनएम संग्रहालय वालों की मकबूल फिदा हुसैन साहब के चित्रों की प्रदर्शनी भी है, जिसे देखना चाहता हूँ। यही सोचते हुए बचपन की एक बात याद आ आई।

क्नॉट प्लेस का पुराना कॉफी हाऊज़ ...

मेरा ख्याल है कि यह बात १९६३ या ६४ की है। उस समय दिल्ली में क्नॉट प्लेस में, जहाँ आज पालिका बाज़ार है, वहाँ पर प्रसिद्ध कॉफी हाऊज़ होता था, जिसके आसपास अर्ध-चक्र में लकड़ी के खोखे बने थे जिनमें विभिन्न राज्यों के एम्पोरियम थे। मेरे ख्याल में उस समय बाबा खड़गसिंह मार्ग पर नये भवनों के निर्माण का काम चल रहा था। तब मैं नौ-दस साल का था। खैर, जिस शाम की मैं बात कर रहा हूँ, उस शाम मेरे मम्मी-पापा के साथ पिता के कुछ पत्रकार-लेखक मित्र थे और हुसैन साहब भी बैठे थे।

फ़िर सब लोग उठे कि चलो त्रिवेणी कला संगम चलो, वहाँ पर हुसैन साहब की कोई प्रदर्शनी लगी थी जिसका उद्घाटन होना था। हम साथ चल रहे थे तो मुझे हुसैन साहब का नंगे पाँव चलना बहुत अजीब लगा था। हम सब लोग बारहखम्बा रोड से होते हुए पैदल ही त्रिवेणी कला संगम आये। प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए वहाँ पर भारत के उपराष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन आये थे। तब सिक्योरिटी की चिंता नहीं होती थी। मैं भी हुसैन साहब के चित्रों को देख रहा था जब डॉ. ज़ाकिर हुसैन जी ने मुझे रोका, मुझसे पूछा कि मुझे वह चित्र कैसे लग रहे थे? मैं झूठ नहीं बोल पाया, बोला कि पता नहीं यह क्या बनाया है, शायद कोई जेल बनायी है जिसके आसपास यह नुकीले काँटों वाली तारे लगी हैं। हुसैन साहब ने मेरी आलोचना सुनी तो मुस्कराये, डॉ. ज़ाकिर हुसैन साहब भी हँसे।

हालाँकि मुझे हुसैन साहब की उस प्रदर्शनी के चित्र अच्छे नहीं लगे थे लेकिन मैंने उनके कुछ अन्य चित्र देखे थे, जैसे कि हैदराबाद में बदरीविशाल पित्ती जी के घर में, जो मुझे अच्छे लगते थे। रामायण पर बनी उनकी चित्र-श्रिंखला मुझे बहुत अच्छी लगी थी।

रघुवीर जी, अशोक जी, जुगनू जी ...

हुसैन जी की चित्र-प्रदर्शनी से शुरु हुई यादें वहाँ से पापा के मित्रों तक पहुँच गयीं। मुझे पापा के साथ क्नॉट प्लेस के कॉफी हाउज़ जाने का मौका शायद दो-तीन बार ही मिला था, वे मित्र-बैठकें बच्चों के लिए नहीं होती थीं।  पापा के कुछ मित्र लेखकों से मुलाकात ७ रकाबगंज रोड पर हुई थी, जहाँ डॉ. राम मनोहर लोहिया का घर था और शायद उनके सर्वैंट क्वाटर में समाजवादी पार्टी की पत्रिका "जन" का दफ्तर था जिसमें पापा काम करते थे। उस घर में एक बार जब खान अब्दुल गफ्फार साहब आये थे तो उन्हें देखा था। 

अधिकतर लोगों से मुलाकात घर पर होती थी, जब वह पापा से मिलने आते थे। राजेन्द्र नगर में सरवेश्वर दयाल सक्सेना जी हमारे घर के पास रहते थे। कभी-कभी घर आते, एक-दो बार राशन की दुकान पर भी मिले। एक सुबह मुझे उनका मफलर लपेटे, मुख पर बंदर टोपी, सलेटी स्वैटर और धारीवाला पजामे में घर आना याद है। तब मैं उनकी ओर ध्यान नहीं देता था, अब जब उनकी कविताएँ पढ़ता हूँ तो सोचता हूँ कि वह मिलें तो उनसे कितनी बातें करना चाहूँगा।

ऐसी ही बात कुछ रघुवीर सहाय के साथ भी थी, वह भी अक्सर घर आते थे। तब मुझे कुछ नहीं मालूम था कि सर्वेश्वर जी या रघुवीर जी, क्या लिखते थे।

केवल मोहन राकेश जी, जो साठ के दशक में राजेन्द्र नगर में आर-ब्लॉक में रहते थे, केवल उनके लेखन से मेरा कुछ परिचय था, उनके घर जा कर लगता था कि हाँ यह प्रसिद्ध लेखक हैं। उन दिनों में उनकी बेटी पूर्वा का मुडंन हुआ था। जब उनकी अचानक मृत्यु हुई थी तो बहुत धक्का लगा था।

बंगला देश युद्ध के दौरान पापा "दिनमान" के लिए कई बार बंगलादेश गये थे। फ़िर बिहार छात्र आंदोलन के समय वह जेपी के साथ थे। इस वजह से छात्र आंदोलन से जुड़े बिहार के लोग घर आने लगे थे। उनमें से अधिकांश नाम भूल गया हूँ, केवल जुगनू शारदेय और अख्तर भाई के नाम याद हैं। फ़िर १९७५ में अचानक पापा भी चले गये तो बहुत से रिश्ते टूट गये। पहले वाले लोगों में से केवल अशोक सेकसरिया और जुगनू जी से कुछ सम्बंध बने रहे। एक बार मैं कलकत्ता में अशोक जी के १६ लार्ड सिन्हा वाले घर में कुछ दिन तक ठहरा था।

लेकिन वे सब भी क्या लिखते थे, क्या सोचते थे, उस समय मुझे कुछ मालूम नहीं था। उन दिनों में मैं मेडिकल कॉलेज में था, लेखन, साहित्य और राजनीति आदि के बारे में सोचने का शायद समय ही नहीं था?

गौहाटी में ...

जुगनू जी की बात से मुझे मेरा गौहाटी वाला घर याद आ गया। २०१५ में जब मैं गौहाटी में रहता था तो जुगनू जी मेरे पास रहने आये थे। उन दिनों में मैंने निर्णय किया था कि अपने घर के सब काम मैं खुद करूँगा। तीन कमरों का घर था। खाना बनाने के साथ, मैं खुद ही घर के सब काम जैसे कपड़े धोना, सफाई-झाड़ू-पौंछा, आदि भी करता था। सुबह सब काम करके संस्था के दफ्तर गया। शाम को घर लौटा तो सारे घर में सिगरेट की राख और टुकड़े बिखरे थे। मैंने जुगनू जी से कहा, कि सुबह मैंने इतनी मेहनत से झाड़ू लगाया, पौंछा लगाया, और आप से हाथ में अपनी एशट्रे भी नहीं ली जाती कि अपनी सिगरेट की राख को उसमें झाड़ें? बाद में मुझे शर्म भी आयी कि मुझे उनसे इस तरह से नहीं बोलना चाहिये था, तो उनसे क्षमा मांगी। खैर दो दिन के बाद वह किसी अन्य व्यक्ति के पास ठहरने चले गये।
 
जुगनू जी वह मेरी आखिरी मुलाकात थी। कुछ साल पहले फेसबुक से पता चला कि वह नहीं रहे।

लौट कर बुद्धू ...

कहाँ से शुरु हुई मेरी यादों की लड़ी, कहाँ पहुँच गयी। खैर, यादों का एक सुख है, कितनी भी दूर ले जायें, वहाँ से लौटने में समय नहीं लगता और मैं लौट कर वापस अपने रुमाली बाग में अपने उपन्यास पर आ गया।
 
असली बात तो वेनिस में हुसैन जी के चित्रों की प्रदर्शनी है, यह कमब्खत बारिश रुके तो वहाँ जाने का कार्यक्रम बनाना है। 

***

सोमवार, अप्रैल 15, 2024

कौन बनेगी जूलियट

मई २०२४ में लंदन की एक प्रसिद्ध नाटक कम्पनी का नया म्यूज़िकल आ रहा है, "रोमियो और जूलियट", जिसकी आजकल कुछ नकारात्मक चर्चा हो रही है क्योंकि इसमें जूलियट का भाग निभा रहीं हैं अफ्रीकी मूल की अभिनेत्री फ्राँसेसका अमेवूडाह-रिवर।

इस बहस के दो पक्ष हैं। पहली बात है कि दुनिया में जातिभेद, नस्लभेद, रंगभेद के संकीर्ण विचार रखने वालों की कमी नहीं, अक्सर इनका काम गाली दे कर या खिल्ली उड़ा कर लोगों को अपमानित करना है। सोशल मीडिया में ऐसे सज्जनों की बहुतायत है, एक खोजिये, तो हज़ार मिलते हैं। यह लोग आजकल सुश्री अमेवूडाह-रिवर को गालियाँ देने में व्यस्त हैं।

दूसरी बात है वोक-संस्कृति की, जो जातिभेद, नस्लभेद व रंगभेद आदि से लड़ने के नाम पर स्वयं को सबसे अधिक पीड़ित दिखा कर उसके बदले में अपना अधिपत्य जमाने के चक्कर में है।

रोमियो-जूलियट नाटक की बहस

रोमियो और जूलियट की कहानी, अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपियर ने तेहरवीं शताब्दी की उत्तर-पूर्वी इटली के वेरोना शहर में दिखायी थी। आलोचक कह रहे हैं कि उस समय इटली में अफ्रीकी प्रवासी नहीं रहते थे, इसलिए इस भाग के लिए अफ्रीकी युवती को लेना गलत है। मेरे विचार में यह बहस त्वचा के रंग की है, अगर यह भाग दक्षिण अफ्रीका की कोई गोरी त्वचा वाली युवती निभाती तो यह चर्चा नहीं होती।

रोमियो और जूलियट, शिल्पकला, न्यू योर्क, अमरीका, तस्वीरकार डॉ. सुनील दीपक

अमरीका तथा यूरोप में फ़िल्मों तथा नाटकों की दुनिया में कुछ लोगों ने ऐसी नीति बनायी है जिसे "क्लर-ब्लाइंड" (रंग-न देखो) कहते हैं, यानि त्वचा के रंग को नहीं देखते हुए पात्रों के लिए अभिनेता और अभिनेत्रियों को चुना जाये। इसका ध्येय है कि हर तरह के लोगों को नाटकों और फ़िल्मों में काम करने का मौका मिले, चाहे वह एतिहासिक दृष्टि से और नाटक/कहानी के लेखन की दृष्टि से गलत हो।

इटली के प्रमुख अखबार "कोरिएरे दैल्ला सेरा" में जाने-माने इतालवी लेखक मासिमो ग्रैम्लीनी ने इस बात पर "जूलियट की ओर से एक पत्र" लिखा है जिसमें कहा हैः 

"यह भाग श्याम-वर्ण की अभिनेत्री को दिया गया है क्योंकि हम चाहते हैं कि हम सब तरह के लोगों को स्वीकार करें, किसी को उसकी त्वचा के रंग की वजह से अस्वीकृति नहीं मिलनी चाहिये, किसी को बुरा नहीं लगना चाहिये कि हमारी नस्ल या वर्ण की वजह से हमें सबके बराबर नहीं समझा जाता। यह भावना सही है।

लेकिन जब आप यह करते हो आप मुझे, यानि वेरोना की जूलियट को, अस्वीकार कर रहे हो। मैं वैसी नहीं थी और चौदहवीं शताब्दी के वेरोना शहर में श्याम वर्ण की युवतियाँ नहीं थीं। क्या इस बहस में मेरी भावनाओं की बात भी की जायेगी?

मुझे भी अच्छा लगेगा कि एक प्रेम कहानी में श्याम वर्ण की युवती नायिका हो, लेकिन उसके लिए आप एक नयी कहानी लिखिये, इसके लिए आप को मेरी पुरानी कहानी ही क्यों चाहिये?"

इतिहास को झुठलाना?

जब रोमियो-जूलियट नाटक की यह चर्चा सुनी तो मुझे एक अन्य बात याद आ गयी। पिछले वर्ष, २०२२-२३ में, नेटफ्लिक्स पर एक सीरियल आया था "ब्रिजर्टन", उसमें मध्ययुगीन ईंग्लैंड के नवाबी परिवारों की प्रेमकहानियाँ थीं, जिनमें ईंग्लैंड की रानी और एक नवाब के भाग अफ्रीकी मूल के अभिनेताओं ने और राजकुमारी का भाग एक भारतीय मूल की युवती ने निभाये थे। यह सीरियल बहुत हिट हुआ था और उसके लिए भी यही बात कही गयी थी कि नस्ल भेद और वर्ण भेद से ऊपर उठने के लिए इस तरह के अभिनेता-अभिनेत्रियाँ चुनना आवश्यक है।

उस ब्रिजर्टन सीरियल को देखते समय मेरे मन में एक विचार आया था, कि उसमें जिस समय के ईंग्लैंड में यह श्याम वर्ण वाले पात्र - रानी, राजकुमार और राजकुमारियाँ दिखा रहे हैं, सचमुच के ईंग्लैंड में उनके साथ उस समय क्या होता था? तब ऐसे लोगों को जहाज़ों में पशुओं की तरह भर कर भारत और अफ्रीका के विभिन्न देशों से गुलाम बना कर दूर देशों में ले जाते थे, और उस समय के अंग्रेजी क्ल्बों के गेट पर लिखा होता था कि कुत्तों और कुलियों को भीतर आने से मनाही है। अगर आज हम उस इतिहास को उलट कर नई काल्पनिक दुनिया बना रहे हैं जिसमें उस ज़माने में कोई भेदभाव नहीं था, विभिन्न देशों, जातियों, वर्णों के लोग एक साथ प्रेम से रहते थे, तो क्या हम अपने इतिहास पर सफेदी पोत कर उसे झूठा नहीं बना रहे हैं? जिन लोगों से उनके घर और देश छुड़ा कर, दूर देशों में ले जा कर, यूरोप के साम्राज्यवादी मालिकों ने उनसे दिन-रात खेतो और फैक्टरियों में जानवरों से भी बदतर व्यवहार किये, क्या यह सीरियल उनके शोषण को झुठला नहीं रहे हैं?

वोक जगत यानि ज़रूरत से अधिक "जागृत" जगत

भेदभाव से लड़ने वाले अतिजागृत योद्धा "शोषण करने वालों" को और उनके समाज को बदलने के लिए नयी रणनीतियाँ बना रहे हैं। अमरीकी व यूरोपी फ़िल्मों और नाटकों आदि में श्याम वर्ण या गैर-यूरोपी लोगों को प्रमुख भाग मिलने चाहिये की मांग इस रणनीति का एक हिस्सा है। ऐसे लोगों के लिए अंग्रेज़ी में "वोक" (woke) शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।

इसके अन्य भी बहुत से उदाहरण हैं। जैसे कि यह वोक-रणनीति कहती है कि अगर आप का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है तो आप को फ़िल्म या नाटक में ऐसे व्यक्तियों के भाग नहीं मिलने चाहिये। यानि अगर कोई भाग अंतरलैंगिक या समलैंगिक व्यक्ति का है तो उसे अंतरलैंगिक या समलैंगिक अभिनेता/अभिनेत्री ही करे, अगर दलित का रोल है तो उसे दलित व्यक्ति ही करे।

इसका यह अर्थ भी है कि लेखक या कवि के रूप में आप को उस विषय पर नहीं लिखना चाहिये, जिसमें आप का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। अगर आप किसी सभ्यता/संस्कृति में नहीं जन्में तो आप को वहाँ के वस्त्र नहीं पहनने चाहिये, वहाँ का खाना बनाने की बात नहीं करनी चाहिये, आदि। यानि अगर आप अफ्रीकी नहीं हैं तो आप को अफ्रीकी नायक या नायिका वाला उपन्यास नहीं लिखना चाहिये। अगर आप दलित नहीं तो दलित विषय पर नहीं लिखिये, अगर आप वंचित वर्ग से नहीं तो वंचितों पर मत लिखिये। वोक-धर्म में शब्दों की भी पाबंदी है, कुछ शब्द जायज़ हैं, कुछ वर्जित।

मानव अधिकारों की बात करने वाले "वोक योद्धा", लोगों की सामूहिक पहचान को प्राथमिकता देते हैं, वह लोग व्यक्तिगत स्तर पर क्या हैं, इसको नहीं देखना चाहते। यानि अगर आप अफ्रीकी मूल के हैं या तथाकथित निम्न जाति से हैं या श्याम वर्णी हैं तो आप शोषित ही माने जायेंगे चाहे आप अपने देश के राष्ट्रपति या करोड़पति भी बन जाईये। इसका अर्थ यह भी है कि अगर आप गौरवर्ण के या उच्च जाति के हैं, तो आप सड़क पर भीख भी मांग लो फ़िर भी आप ही शोषणकर्ता हो और रहोगे।

आप के पासपोर्ट पर भी निर्भर करता है कि आप शोषित हैं या नहीं। मैं एक नाईजीरिया की लेखिका का साक्षात्कार पढ़ रहा था, वह अपने अमरीकावास के बारे में कह रहीं थीं कि अगर आप अभी अफ्रीका से आयें हैं तो अमरीकी वोक-बौद्धिकों के लिए आप कम शोषित हैं जबकि अमरीका में पैदा होनॆ वाले अफ्रीकी मूल के लोग सच्चे शोषित हैं क्योंकि उनके पूर्वजों को गुलाम बना कर लाया गया था।

"मैं शोषित वर्ग का हूँ" कह कर अमरीका और यूरोप में "वोक" संगठनों में नेता बने हुए कुछ लोग हैं, जो अपने दुखभरे जीवनों के कष्टों की दर्दभरी कहानियाँ बढ़ा-चढ़ा कर सुनाने में माहिर हैं। वे उन लोगों के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं जो भारत, अफ्रीका के देशों और अन्य अविकसित क्षेत्रों में रहने वाले असली शोषित हैं। एक ओर वंचित वर्ग के लोग अपनी मेहनत और श्रम से अपनी और अपने समाजों की परिस्थियाँ बदल रहे हैं, दूसरी ओर अमरीका और यूरोप के एकादमी में अच्छी नौकरियाँ करने वाले या पढ़ने वाले वोक-यौद्धा उनके सच्चे प्रतिनिधि होने का दावा करके उसके लाभ पाना चाहते हैं।

मुझे लगता है कि हमारी सामूहिक पहचान को सर्वोपरी मानने का अर्थ है स्वयं को केवल पीड़ित और सताया हुआ देखना, इससे हमें समाज की गलतियों से लड़ने और उसे बदलने की शक्ति नहीं मिलती। वोक-विचारधारा हमसे हमारी मानवता को छीन कर कमज़ोर करती है, यह हमारी सोचने-समझने-कोशिश करने की हमारी शक्ति छीनती है।

सोमवार, अप्रैल 01, 2024

अच्छी पगार, घटिया काम

अगर काम आई.टी. प्रोफेशनल, या मार्किटिन्ग, या आफिस का हो, और साथ में पगार बढ़िया हो, इतनी बढ़िया की अन्य कामों से पाँच गुणा ज्यादा, तो आप ऐसी कम्पनी में काम करना स्वीकार कर लेंगे जो ओनलाईन जूआ चलाती हो, या अश्लील वीडियो दिखाती हो? 

इस काम में कुछ भी गैरकानूनी नहीं हो, तो क्या यह काम करने में बदनामी का डर हो सकता है? प्रश्न है कि आप हाँ कहेंगे या न?

***

कोयले की दलाली में हाथ काले होते है, इसे सब जानते हैं। लेकिन अगर आप को कोयले की दुकान के बैक-आफिस में क्लर्क या एकाऊँटैंट की नौकरी मिले, तो क्या उसमें भी हाथ काले होने का डर है? क्या आप यह नौकरी स्वीकार करेंगे, विषेशकर जब कोयले की दुकान के मालिक आप को चलते रेट से चार-पाँच गुणा अधिक पगार देने के लिए तैयार हों

कुछ ऐसा ही प्रश्न उठाया गया था कुछ दिन पहले के अमरीकी अखबार "द वॉल स्ट्रीट जर्नल" में, जिसमें काल्लुम बेर्चर के लिखे एक आलेख में कम्पयूटर टैकनोलोजी से जुड़े कुछ ऐसे कामों की बात थी, जिनके लिए पगार बहुत बढ़िया मिलती है लेकिन लोग जिन्हें करना नहीं चाहते या उसके बारे में किसी को बताना नहीं चाहते। यह काम अश्लील या सैक्स फ़िल्मों वाली पोर्न वेबसाईट तथा जूआ खेलने वाली वेबसाईट से जुड़े हुए हैं।

उदाहरण के लिए आलेख में एक युवती कहती है कि वह एक पोर्न कम्पनी के लिए काम करती थी, उसकी पगार बहुत अच्छी थी, अन्य जगहों से छह गुणा अधिक थी। उनकी वेबसाईट पर लोग अपने सैक्सी वीडियो लगाते थे और उसका काम था कि लोगों को प्रोत्साहित करें ताकि अधिक लोग उन्हें अपने ऐसे वीडियो भेजें। जब उन्होंने शहर बदला और नया काम खोजने के लिए लोगों को अपना परिचय-अनुभव का सी.वी.भेजा तो जितने लोग उन्हें साक्षात्कार के लिए बुलाते थे वह सबसे पहले यही जाना चाहते कि पोर्न-फिल्में आदि से उनके काम का क्या सम्बंध था? कोई उन्हें काम नहीं देता था। अंत में तंग आ कर उन्होंने अपने सी.वी. उस काम की बात को हटा दिया, लिखा कि वह उस समय बेरोजगार थीं और एक कोर्स कर रहीं थीं।

वेबसाईट कोई भी हो, किसी भी तरह की हो, उसे बनाने और चलाने के लिए इन्फोरमेशन टैनोलोजी के विशेषज्ञ चाहिये। और धँधा कुछ भी हो, नशीली ड्रगस का, जूए का या माफिया और गुंडा-गर्दी का, पैसे सम्भालने और काले धन की धुलाई के लिए एकाऊँटैंट, वकील, क्लर्क, ड्राईवर, सब तरह के काम करने वालों की आवश्यकता होती है। अगर आप को ऐसा मौका मिले और तन्खवाह बहुत बढ़िया हो फ़िर भी ऐसा काम स्वीकार करने में कई तरह की दिक्कते हैं।

पहली दिक्कत है कि आप को परिवार वालों और अन्य लोगों को अपनी कम्पनी के काम के बारे में बताने में शर्म आयेगी। दूसरी दिक्कत है कि अगर उस काम की कुछ जड़े कानून की सीमा से बाहर हैं, तो हो सकता है कि कुछ को जेल जाने की नौबत आ सकती है।

अगर आप के बॉस गुंडा टाईप के हैं (ऐसे धँधों को चलाने वाले अधिकतर लोग शायद गुंडा टाईप के ही होते हैं) तो जान से मरने या कम से कम, हड्डियाँ तुड़वाने का खतरा भी हो सकता है।

और यह सब कुछ भी नहीं हो, जैसे इस आलेख में बताया गया है, जब तक यह काम चले तब तक ठीक है, लेकिन अगर उसे बदलना पड़े तो दिक्कतें आ सकती है। लेकिन शायद कुछ लोग ऐसे कामों से आकर्षित होते हैं और उन्हें इन दिक्कतों से डर नहीं लगे।

मैंने इस बारे में सोचा, मुझे लगा कि मैं ऐसी नौकरी नहीं कर पाऊँगा। आप बताईये, क्या आप ऐसी किसी कम्पनी में काम करना चाहेंगे? अगर हाँ तो क्यों? और नहीं तो क्यों? लेकिन जिसकी नौकरी चली गयी हो या जो बेरोजगार हो और परिवार पालने हों, अक्सर ऐसी हालत में कोई भी नौकरी स्वीकार की जा सकती है।

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मंगलवार, मार्च 26, 2024

एक बार फ़िर २५ मार्च की होली

२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था।

उन दिनों वह एंडियन एक्सप्रेस की अंग्रेज़ी की साप्ताहिक पत्रिका एवरीमैन के लिए काम कर रहे थे, और सुबह जब ड्राईवर उन्हें हवाई अड्डे ले जाने आया था तब तक वह अपनी लम्बी अंतिम यात्रा के लिए निकल चुके थे। उस समय वह ४७ साल के थे।

कल, एक बार फ़िर, २५ मार्च की होली थी। कल जब होली की बात हो रही थी तब मुझे वह रात याद आई थी, उनकी उखड़ती हुई साँस की आवाज़ और साथ में बैठी माँ, उन्हें पुकारती हुईं, उनकी छाती को मलती हुई।

*** 

परिवार की तस्वीर - यह एक तस्वीर है जिसमें हम सब लोग हैं, दादी, पापा, मम्मी और हम तीनों। कुछ माह पहले मेरे बेटे ने किसी सोफ्टवैर से इसमें रंग भर दिये थे। यह उस साल की है जब नेहरू जी की मृत्यु हुई थी, और इसे मेरठ में छिपीटैंक के एक स्टूडियो में खींचा गया था।

***

पापा अगर अब होते तो ९७ साल के होते। मन ही मन में उनसे मेरी बातचीत चलती रहती है। बहुत दुनिया घूमी और भिन्न विचारधाराएँ देशों को कहाँ ले जाती है, करीब से देखने का मौका मिला। जीवन में अलग-अलग सोच वाले लोगों के साथ काम करने का मौका भी मिला, उनके आदर्शों और सोच के बारे में मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच भी बनी।

जब इसके बारे में सोचता हूँ तो उनकी कमी महसूस होती है - मैं मन में उनसे अपनी सोच की बात कहता हूँ लेकिन उनका उत्तर नहीं मिलता। मैं सत्तर साल का हो रहा हूँ लेकिन स्मृतियों वाले पापा अभी भी ४७ साल पर ही रुके हैं, तो मैं उन्हें कहता हूँ कि पापा मेरे जीवन का अनुभव आप से अधिक हो गया। 

अक्सर जब कोई अच्छी किताब पढ़ता हूँ तब भी मन में उनसे बात होती है, सोचता हूँ कि उन्हें वह किताब अच्छी लगती या नहीं? शायद सभी बच्चे ऐसा ही करते हैं, हमारी उम्र चाहे कितनी भी हो जाये, मन ही मन अपने माता-पिता से बातें करना जीवन भर चलता रहता है?

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पापा की २३वीं बरसी पर, १९९८ में माँ ने अपनी डायरी में लिखा था -

आज सचमुच जीवन का सफ़र जहाँ से शुरु किया था उसकी बहुत याद आ रही है। कश्यप भार्गव तुम्हारा प्रिय मित्र। हमारी शादी में उसकी माँ और बहने दोनो थीं। एक बार जानकीदेवी कॉलेज से निकल रही थी तो सविता मिली थी। तुम्हारे जाने के साल भर बाद ही, उसी तिथि और उसी समय में ही, कश्यप भी नहीं रहा था। वैसे ही दिल के दौरे में वही 25 मार्च को, वह भी नहीं रहा। क्या कहती उससे। अकेले ही बच्चों का पालन पोषण किया होगा उसने। कई बार मन में आया कि उसके स्कूल, बाल भारती में , जा कर पता लगाऊँ, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी उससे मिलने की।

ज़िन्दगी में दूसरे लोग ही नहीं खुद अपनी नज़रें, अपना दिल और अपने अहसास भी धोखा दे जाते हैं तो इसका कुछ हो भी तो नहीं सकता। ज़िन्दगी को बेहद गम्भीरता से लेने वाले और उस पर लम्बी बहसें करने वाला कश्पी जो मुझे लखनऊ छोड़ने गया था और लखनऊ में साथ भी रहा था। फ़ैज़ाबाद में भी हमारी शादी में भी उसने मेरे भाई की भूमिका निभाई थी। मुझे ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद दिया था उसने। जीवन के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय तुमने और कश्यपी ने कैसे लिये थे? आज भी मुझे इस पर हैरानी होती है।

तुम्हारी मृत्यु के बाद सविता को ले कर आया था और जाते हुए कहने लगा कि अब मेरी ही बारी है, सूरजप्रकाश और दीपक तो नहीं रहे, मैं अकेला क्या करूँगा। और ठीक एक वर्ष बाद तुम्हारे जैसा वही समय, वही दिन, वह भी चला गया। सचमुच उसकी बारी आ गयी थी. इस पर हैरान हूँ।

पापा के उस मित्र कश्पी (कश्यप भार्गव) और दिल्ली के बालभारती स्कूल में पढ़ाने वाली उनकी पत्नी सविता भार्गव से कभी कहीं मिलने की मुझे कोई याद नहीं, न ही कभी उनके बच्चों से कभी कोई परिचय हुआ। जब भी माँ कश्पी की बात करती थी तो मन में यही प्रश्न उठता था कि वह पापा के इतने अच्छे दोस्त थे तो हमारी कभी उनसे मुलाकात या जान पहचान कैसे नहीं हुई?

उनके बच्चे कहाँ होंगे? मन में आता है कि उनसे मिलना अच्छा लगेगा।

***

जब पापा गुज़रे थे तब मैं मेडिकल कॉलेज के तीसरे वर्ष में पढ़ रहा था। उन दिनों में पापा जयप्रकाश नारायण जी के साथ बिहार में बहुत समय बिता रहे थे, वे बिहार छात्र आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रांति वाले दिन थे। जे.पी. के कहने से ही इंडियन एक्सप्रेस के गुएनका जी ने मेरी मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई के लिए छात्रवृति स्वीकार कर ली थी, वरना शायद डॉक्टर बनने का सपना कठिनाई से पूरा होता।

शायद इसीलिए सारा जीवन मन में लगता रहा है कि इंडियन एक्सप्रेस "हमारा अपना" अखबार है। यादें कहाँ से शुरु होती हैं और कहाँ चली जाती हैं!


मंगलवार, फ़रवरी 20, 2024

पति, पत्नी और वह

पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया।

*****

सुबह नींद खुली तो बाहर अभी भी अंधेरा था। कुछ देर तक फोन पर इमेल, फेसबुक, आदि चैक किये, फ़िर सोचा कि उठ कर कॉफी बना लूँ। नीचे आ रहा था कि सीढ़ी पर पाँव ठीक से नहीं रखा, गिर ही जाता पर समय पर हाथ बढ़ा कर दीवार से सहारा ले लिया, इसलिए गिरा नहीं केवल पैर थोड़ा सा मुड़ गया।

मेरे मुँह से "हाय राम" निकला तो वह बोली, “देख कर चलो, ध्यान दिया करो।"

“ठीक है, सुबह-सुबह उपदेश मत दो", मैंने उत्तर दिया।

“एक दिन ऐसे ही हड्डी टूट जायेगी, फ़िर मेरे उपदेशों को याद करना", उसने चिढ़ कर कहा।

कॉफी पी कर कमप्यूटर पर बैठा तो समय का पता ही नहीं चला। साढ़े आठ बज रहे थे, उसने कहा, “आज सारा दिन यहीं बैठे रहोगे क्या? नहाना-धोना नहीं है?”

“उठता हूँ, बस यह वीडियो पूरा देख लूँ।"

“यह वीडियो कहीं जा रहा है? इसे पॉज़ कर दो, पहले नहा लो, फ़िर बाकी का देख लेना।"

“अच्छा, अच्छा, अभी थोड़ी देर में जाता हूँ, तुम जिस बात के पीछे पड़ जाती हो तो उसे छोड़ती नहीं", मुझे भी गुस्सा आ गया।

“नहाने के बाद तुम्हें दूध और सब्ज़ी लेने भी जाना है", वह मुस्करा कर बोली।

वह बहुत ज़िद्दी है, जब तक अपनी बात नहीं मनवा लेती, चुप नहीं होती, इसलिए अंत में मुझे उठना ही पड़ा। नहा कर निकला ही था कि बन्नू का फोन आ गया।

बोला, “दोपहर को मिल सकता है? गर्मी बहुत हो रही है, कहीं बियर पीने चलते हैं, फ़िर बाहर खाना खा लेंगे।"

मैंने कहा, “नहीं यार, सच में गर्मी बहुत है, दोपहर को बाहर निकलने का मन नहीं कर रहा। शाम को मिलते हैं।"

उसने कहा, “सारा दिन घर पर अकेले बोर हो रहा हूँ, चल न, कहीं गपशप मारेंगे।"

मैं हँसा, बोला, “एक नयी एप्प आई है, जीवनसाथी एप्प, अपने फोन पर डाऊनलोड कर ले, सारा अकेलापन दूर हो जायेगा।"

फोन रखा तो वह बोली, “अपने दोस्त से मेरी इतनी तारीफें कर रहे थे, अब एप्प रिवयू में मुझे पाँच स्टार देना, समझे?”

 ***

गुरुवार, सितंबर 21, 2023

रहस्यमयी एत्रुस्की सभ्यता

ईसा से करीब आठ सौ वर्ष पहले, इटली के मध्य भाग में, रोम के उत्तर-पश्चिम में, बाहर कहीं से आ कर एक भिन्न सभ्यता के लोग वहाँ बस गये जिन्हें एत्रुस्की (Etruscans) के नाम से जाना जाता है। इनकी सभ्यता से जुड़ी बहुत सी बातें, जैसे कि इनकी भाषा, अभी तक पूरी नहीं समझीं गयी हैं। 

उस समय दक्षिण इटली में ग्रीस से आये यवनों का राज था। एत्रुस्की भी लिखने के लिए यवनी वर्णमाला का प्रयोग करते थे, लेकिन उनकी भाषा, धर्म, आदि बाकी यवनों तथा इटली वालों से भिन्न थे। ईसा से करीब सौ/डेढ़ सौ साल पहले जब रोमन सम्राज्य का उदय हुआ तो एत्रुस्की उनसे युद्ध हार गये और धीरे-धीरे उनकी सभ्यता रोमन सभ्यता में घुलमिल कर लुप्त हो गयी।

Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak

एत्रुस्कियों के इटली में बारह राज्य थे, हर एक का अपना शासक था, लेकिन वह सारे एक ही धर्मगुरु के अधिपत्य को स्वीकारते थे। ईसा से चार-पाँच सौ वर्ष पूर्व उनका एक राज्य बोलोनिया शहर के पास भी था, जहाँ एक बार मुझे उनके शहर के पुरातत्व अवषेशों को देखने का मौका मिला। इस आलेख में उन्हीं प्राचीन भग्नावशेषों का परिचय है।

पुरातत्व में रुचि

मुझे इतिहास और पुरातत्व के विषयों में बहुत रुचि है। मेरे विचार में जन सामान्य में इतिहास तथा पुरातत्व के बारे में चेतना जगाने में संग्रहालयों का विषेश योगदान होता है। जितना मैंने देखा है, भारत में कुछ संग्रहालयों को छोड़ कर, अधिकांश में हमारी प्राचीन सांस्कृतिक धरौहर का न तो सही तरीके से संरक्षण व प्रदर्शन होता है और न ही उनके बारे में अच्छी जानकारी आसानी से मिलती है। अक्सर, धूल वाले शीशों के पीछे वस्तुएँ बिना विषेश जानकारी के रखी रहती हैं और वहाँ पर तस्वीर नहीं खींचने देते। शायद इसीलिए जन समान्य को इस विषय में कम रुचि लगती है।

सेवा-निवृत होने के बाद, पिछले कुछ वर्षों में, मैं इतिहास और पुरातत्व के बारे में पढ़ता रहता हूँ। मुझे लगता है कि भारतीय इतिहास और पुरातत्व के क्षेत्रों में अभी तक बहुत कम काम किया गया है और बहुत कुछ खोजना तथा समझना बाकी हैं।

खैर, अब चलते हैं उत्तरी-मध्य इटली के बोलोनिया (Bologna - इतालवी भाषा में g और n मिलने से 'इ' की ध्वनि बनती है) शहर के पास मार्ज़ाबोत्तो (Marzabotto) में मिले आज से करीब २६०० साल पुराने एत्रुस्की शहर के भग्नावषेशों की ओर। 

मार्ज़ाबोत्तो के एत्रुस्की भग्नावषेश

युरोप की बहुत सी प्राचीन सभ्यताओं में शहर तीन स्तरों पर बंटे होते हैं - (१) एक ऊँचा शहर, जो किसी पहाड़ी या ऊँचे स्थल पर बना होता है, इन्हें एक्रोपोली (ग्रीक भाषा में 'एक्रो' यानि ऊँचा और 'पोलिस' यानि शहर) जहाँ पर बड़े मन्दिर या राजभवन या किले या अमीर लोगों के घर होते हैं; (२) पोली यानि एक मध्य शहर, जो एक्रोपोली के पास में लेकिन थोड़ा सा नीचे होता है, जहाँ आम जनता रहती है; और (३) एक निचला शहर होता है जो सबसे नीचे होता है और जिसे नेक्रोपोली ('नेक्रो' यानि मृत) कहते हैं जहाँ पर कब्रें होती हैं।

मार्ज़ाबोत्तो के एत्रुस्की शहर के भग्नावषेशों में यह तीनों स्तर दिखते हैं। नीचे की तस्वीर में वहाँ के लोगों के घरों और भवनों की दीवारों और उनके बीच बनी गलियों या सड़कों के अवशेष देख सकते हैं जिनसे उनके जीवन के बारे में जानकारी मिलती है। यह सभी भवन छोटे पत्थरों से बने थे जिन्हें माल्टे से जोड़ते थे। उनकी सबसे चौड़ी सड़क पंद्रह मीटर चौड़ी थी, उसे देख कर मुझे लगा कि उस पर घोड़े या बैल के रथ और गाड़ियाँ आराम से चल सकती थीं।

Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak

यहाँ के भग्नवशेषों में पुरात्तवविद्यों ने तिनिआ (Tinia) नाम के एक देवता के मन्दिर को खोजा है, यह प्राचीन ग्रीक के देवताओं की कहानियों के राजा ज़ेउस (Zeus) जैसे थे। "तिनिआ" शब्द का अर्थ 'दिन' या 'सूर्य' भी था, इसलिए शायद इसे सूर्य पूजा की तरह भी देखा जा सकता है। यहाँ एक मन्दिर वाले हिस्से की खुदाई अभी चल रही है, जहाँ पर बीच में एक तालाब या कूँआ जैसा दिखता है।

इस क्षेत्र के दक्षिणी-पूर्व के हिस्से में कुछ नीचे जा कर वहाँ पर एत्रुस्की नेक्रोपोलिस यानि कब्रिस्तान के कुछ हिस्से दिखते हैं। इन भग्नावशेषों में सोने के गहने, कमर में बाँधने वाली पेटियाँ, कानों की बालियाँ, आदि मिली हैं जो कि बोलोनिया शहर के पुरातत्व संग्रहालय में रखी हैं। यहाँ पर पत्थरों की बनी चकौराकार छोटी कब्रें मिलती हैं जिनमें से कुछ के ऊपर बूँद या अंडे जैसे आकार के तराशे हुए  पत्थर टिके हुए दिखते हैं। शायद यह तराशे पत्थर सभी कब्रों पर लगाये जाते थे और समय के साथ कुछ कब्रों से नष्ट हो गये या शायद, उन्हें किन्हीं विषेश व्यक्तियों की कब्रों के लिए बनाया जाता था, जैसा कि आप नीचे की तस्वीर में देख सकते हैं।

Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak

एत्रुस्कों की भाषा

एत्रुस्कों की वर्णमाला यवनी/ग्रीक वर्णमाला जैसी थी लेकिन उनकी भाषा यवनी नहीं थी। इनकी भाषा को यवनी से पुराना माना जाता है, और उसे प्रोटो-इंडोयुरोपी भाषा भी कहा गया है। पुरातत्वविद्य कहते हैं कि यह लोग यवनभूमि के आसपास के किसी द्वीप के निवासी थे।

मुझे एत्रुस्कों के कुछ शब्दों में संस्कृत का प्रभाव लगा। जैसे कि 'ईश' को वह लोग 'एइसना' कहते थे, 'यहाँ' को 'इका', 'वहाँ' को 'इता', आदि। उनकी भाषा में 'सूर्य' का एक नाम 'उशिल' भी था, जिसमें मुझे 'उषा' की प्रतिध्वनि सुनाई दी। लेकिन उनके अधिकांश शब्दों में संस्कृत का प्रभाव नहीं है।

एत्रुस्की संग्रहालय

भग्नावशेषों के पास में ही मार्ज़ाबोत्तो में मिली एत्रिस्की वस्तुओं का संग्रहालय भी है। वहाँ उनके मिट्टी के बने तोलने वाले छोटे बट्टे दिखे (नीचे तस्वीर में).

Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak

उनकी एक पूजा की थाली लिये हुए स्त्री की मूर्ति मुझे सुन्दर लगी।

Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak

नीचेवाली, संग्रहालय की तीसरी तस्वीर में एत्रुस्की स्त्रियों के वस्त्रों को दिखाया गया है।

Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak

अंत में

जब तक भाप के जहाज़, रेलगाड़ियाँ, मोटरगाड़ियाँ आदि नहीं थीं, एक जगह से दूसरी जगह जाना कठिन होता था। जिस रास्ते को आज हम साईकल से एक-दो घंटों में पूरा कर लेते हैं, कभी उसे पैदल चलने में पाँच-छह घंटे लग जाते थे। पहाड़ी घाटियों और द्वीपों में यह रास्ते पार करना और भी कठिन होता था। तब हर दस किलोमीटर पर, हर शहर, हर घाटी, हर द्वीप में, लोगों की भाषा, उनके खानपान का तरीका, आदि बदल जाते थे। एत्रुस्की सभ्यता ऐसे ही समय का नतीजा थी, यह एक द्वीप के लोगों की सभ्यता थी, जिसे ले कर वहाँ के निवासी दूर देश की यात्रा पर निकले और उन्हें उत्तरी-मध्य इटली में नया घर मिला।

घोड़े से मानव को इतिहास का पहला तेज़ वाहन मिला और दुनिया सिकुड़ने लगी। आज की दुनिया में तकनीकी विकास के सामने दूरियाँ और भी कम हो रहीं हैं और फिल्म-टीवी-इंटरनेट-मोबाइल आदि के असर से हमारी भाषाएँ, संस्कृतियों की भिन्नताएँ आदि धीरे-धीरे लुप्त हो रहीं हैं।

मानव समाजों का इतिहास क्या था, कैसे दुनिया के विभिन्न भागों में अलग-अलग सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ विकसित हुईं, भविष्य के लिए इसकी याद को सम्भाल कर रखने के लिए, हम सभी को प्रयत्न करना चाहिये। आप चाहे जहाँ भी रहते हो, चाहे वह छोटा शहर हो या कोई गाँव, यह बदलाव का तूफान एक दिन आप की दुनिया को भी बदल देगा। आप कोशिश करो कि बदलाव से पहले वाली दुनिया की जानकारी को, उसकी सांस्कृतिक धरौहर की यादों को सम्भाल कर संजो रखो।

Etruscan archeological ruins, Marzabotto, Italy - Image by S. Deepak

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शनिवार, जून 17, 2023

प्राचीन भित्ती-चित्र और फ़िल्मी-गीत

कुछ सप्ताह पहले मैं एक प्राचीन भित्ती-चित्रों की प्रदर्शनी देखने गया था। दो हज़ार वर्ष पुराने यह भित्ती-चित्र पोमपेई नाम के शहर में मिले थे। उन चित्रों को देख कर मन में कुछ गीत याद आ गये। भारत में फ़िल्मी संगीत हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाता है, और हमारे जीवन में कोई भी परिस्थिति हो, उसके हिसाब से उपयुक्त गीत अपने आप ही मानस में उभर आते है। यह आलेख इसी विषय पर है।

पोमपेई के प्राचीन भित्ती-चित्र

इटली की राजधानी रोम के दक्षिण में नेपल शहर के पास एक पहाड़ है जिसका नाम वैसूवियो पर्वत है। आज से करीब दो हज़ार वर्ष पूर्व इस पहाड़ से एक ज्वालामुखी फटा था, जिसमें से निकलते लावे ने पहाड़ के नीचे बसे शहरों को पूरी तरह से ढक दिया था। उस लावे की पहली खुदाई सन् १६०० के आसपास शुरु हुई थी और आज तक चल रही है।



इस खुदाई में समुद्र तट के पास स्थित दो प्राचीन शहर, पोमपेई और एरकोलानो, मिले हैं जहाँ के हज़ारों भवनों, दुकानों, घरों, और उनमें रहने वाले लोगों को, उनके कुर्सी, मेज़, उनकी चित्रकला और शिल्पकला, आदि सबको उस ज्वालामुखी के लावे ने दबा दिया था और जो उस जमे हुए लावे के नीचे इतनी सदियों तक सुरक्षित रहे हैं।

मैं पोमपेई के भग्नवषेशों को देखने कई बार जा चुका हूँ और हर बार वहाँ जा कर दो हज़ार वर्ष पहले के रोमन जीवन के दृश्यों को देख कर चकित हो जाता हूँ। जैसे कि नीचे वाले चित्र में आप पोमपेई का एक प्राचीन रेस्टोरैंट देख सकते हैं - इसे देखते ही मैं पहचान गया क्योंकि इस तरह के बने हुए ढाबे और रेस्टोरैंट आज भी भारत में आसानी से मिलते हैं।
 

इन अवषेशों से पता चलता है कि उस ज़माने में वहाँ के अमीर लोगों को घरों की दीवारों को भित्तीचित्रों से सजवाने का फैशन था, जिनमें उनके देवी-देवताओं की कहानियाँ चित्रित होती थीं। इन्हीं चित्रों की एक प्रदर्शनी कुछ दिन पहले बोलोनिया शहर के पुरातत्व संग्रहालय में लगी थी।

पोम्पेई कैसा शहर था और ज्वालामुखी फटने से क्या हुआ इसे समझने के लिए आप एक छोटी सी (८ मिनट की) फिल्म को भी देख सकते हैं जो कि बहुत सुंदर बनायी गयी है।

अब बात करते हैं पोमपेई के कुछ भित्तीचित्रों की जिन्हें देख कर मेरे मन में हिंदी फिल्मों के गीत याद आ गये।

प्रार्थना करती नारी

नीचे वाला भित्तीचित्र पोमपेई के एक बंगले में मिला जिसे चित्रकार का घर या सर्जन (शल्यचिकित्सक) का घर कहते हैं। इसमें एक महिला स्टूल पर बैठी है, उनके सामने एक मूर्ति है और मूर्ति के नीचे किसी व्यक्ति का चित्र रखा है। चित्र के पास एक बच्चा बैठा है और नारी के पीछे दो महिलाएँ खड़ी हैं। चित्र को देख कर लगता है कि वह नारी भगवान से उस व्यक्ति के जीवन के लिए प्रार्थना कर रही है। सभी औरतों के वस्त्र भारतीय पौशाकों से मिलते-जुलते लगते हैं।
 

इस चित्र को देखते ही मुझे १९६६ की फ़िल्म "फ़ूल और पत्थर" का वह दृश्य याद आ गया जिसमें राका (धर्मेंद्र) बिस्तर पर बेहोश पड़ा है और विधवा शांति (मीना कुमारी) भगवान के सामने उनके ठीक होने की प्रार्थना कर रही है, "सुन ले पुकार आई, आज तेरे द्वार लेके आँसूओं की धार मेरे साँवरे"।

इसी सैटिन्ग में "लगान" का गीत "ओ पालनहारे" भी अच्छा फिट बैठ सकता है। वैसे यह सिचुएशन हिंदी फिल्मों में अक्सर दिखायी जाती है और इसके अन्य भी बहुत सारे गाने हैं।

संगीतकार और जलपरी की कहानी

पोमपेई के भित्ती-चित्रों में ग्रीक मिथकों की कहानियों से जुड़े बहुत से भित्ती-चित्र मिले हैं। जैसे कि प्राचीन ग्रीस के मिथकों की एक कहानी में भीमकाय शरीर वाले पोलीफेमों को जलपरी गलातेया से प्यार था, उन्होंने संगीत बजा कर उसे अपनी ओर आकर्षित करने की बहुत कोशिश की लेकिन जलपरी नहीं मानी क्यों कि वह किसी और से प्यार करती थी। नीचे दिखाये भित्ती-चित्र में पोलीफेमो महोदय निर्वस्त्र हो कर गलातेया को बुला रहे हैं जबकि गलातेया अपनी सेविका से कह रही है कि इस व्यक्ति को यहाँ से जाने के लिए कहो।


इस चित्र की जलपरी सामान्य महिला लगती है और उनके वस्त्र व वेशभूषा भारतीय लगते हैं। मेरे विचार में भारत में अप्सराओं को गहनों से सुसज्जित बनाते हैं जबकि यह जलपरी उनके मुकाबले में बहुत सीधी-सादी लगती है।

जैसा कि इस चित्र में दिखाया गया है, प्राचीन रोमन तथा यवनी भित्तीचित्रों में पुरुष शरीर की नग्नता बहुत अधिक दिखती है और उसकी अपेक्षा में नारी नग्नता कम लगती है। इस चित्र को देख कर मुझे लगा कि इसमें पोलीफेमो अनामिका फिल्म का गीत गा रहा है, "बाहों में चले आओ, हमसे सनम क्या परदा", जबकि जलपरी कन्यादान फिल्म का गीत गा रही है, "पराई हूँ पराई, मेरी आरजू न कर"।

यवनी सावित्री और सत्यवान

प्राचीन ग्रीस की भी एक सावित्री और सत्यवान की कहानी से मिलती हुई कथा है। उनके नाम थे अलसेस्ती और अदमेतो, लेकिन इनकी कथा भारतीय कथा से थोड़ी सी भिन्न थी।

जब अदमेतो को लेने मृत्यु के देवता आये तो अदमेतो ने उनसे विनती की कि उन्हें नहीं मारा जाये, तो मृत्यु देव ने कहा कि वह उनके बदले उनके परिवार के किसी भी व्यक्ति की आत्मा ले कर चले जायेंगे, जो  उनकी जगह मरने को तैयार हो।

अदमेतो ने अपने माता-पिता से अपनी जगह पर मरने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। तब उनकी पत्नी अलसेस्ती बोली कि वह उसकी जगह मरने को तैयार थी। मृत्यु देव अलसेस्ती की आत्मा को ले कर वहाँ से जा रहे थे जब भगवान अपोलो ने उसे जीवनदान दिया और वह पृथ्वी पर अपने पति के पास लौट आयी।

इस चित्र में नीचे वाले हिस्से में अदमेतो, अलसेस्ती और उनके दास को दिखाया गया है। ऊपरी हिस्से में, उनके पीछे बायीं ओर अदमेतो के बूढे माता-पिता हैं और दायीं ओर, अलसेस्ती और भगवान आपोलो हैं।
 

इस चित्र में अलसेस्ती की वेशभूषा और उसके चेहरे का भाव मुझे बहुत भारतीय लगे, जबकि अदमेतो को निर्वस्त्र दिखाया गया है।
 
सावित्री-सत्यवान की कहानी पर बहुत सी फ़िल्में बनी हैं, लेकिन इस सिचुएशन वाला उनका कोई गीत नहीं मालूम था, उसकी जगह पर मेरे मन में एक अन्य गीत याद आया, “मार दिया जाये कि छोड़ दिया जाये, बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाये"। कहिये, यह गीत इस सिचुएशन पर भी बढ़िया फिट बैठता है न?

विश्वामित्र और मेनक

कालीदास की कृति "अभिज्ञान शकुंतलम" में ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र स्वर्गलोक से अप्सरा मेनका को भेजते हैं, और उनके मिलन से शकुंतला पैदा होती है। अगले चित्र में ऐसी ही स्वर्ग की एक देवी की प्राचीन यवनी कहानी है।

इस ग्रीक कथा में स्वर्ग की देवी सेलेने का दिल धरती के सुंदर राजा एन्देमेनों पर आ जाता है तो वह खुद को रोक नहीं पाती और कामातुर हो कर उनसे मिलन हेतू धरती पर आती है। यह कहानी भी उस समय बहुत लोकप्रिय थी क्योंकि इस विषय पर बने बहुत से भित्तीचित्र मिले हैं। नीचे वाले चित्र में सेलेने निर्वस्त्र हो कर एन्देमेनो कीओर आ रही हैं, उनकी पीछे एक एँजल बनी है।


इस कथा के अनुसार देवी सेलेने उससे प्रेम करते समय एन्देमेनों को सुला देती है, इस तरह से वह सोचता है कि वह सचमुच नहीं था बल्कि उसने सपने में किसी सुंदर अप्सरा से प्रेम किया था।

इस तस्वीर को देख कर मेरे मन में आराधना फ़िल्म का यह गीत आया - “रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना, भूल कोई हमसे न हो जाये"। इस सिचुएशन पर अनामिका फ़िल्म का गीत, "बाहों में चले आओ, हमसे सनम क्या परदा" भी अच्छा फिट होता।

हीरो जी

अंत में अपने हीरो जैसे शरीर पर इतराते एक युवक की शिल्पकला है, जिसे देख कर मुझे सलमान खान की याद आई। इस शिल्प कला से लगता है कि उस समय अमीर लोगों का अपने घरों में नग्न पुरुष शरीर को दिखाना स्वीकृत था।


जब मैंने इस कलाकृति को देखा तो मन में सलमान खान का गीत "मैं करूँ तो साला करेक्टर ढीला है" याद आ गया। अगर कोई आप से इस युवक के चित्र के लिए गीत चुनने को कहे तो आप कौन सा गीत चुनेंगे?

मैंने पढ़ा कि शिल्प और चित्रकला में पुरुष शरीर को दिखाने की ग्रीक परम्परा में पुरुष यौन अंग को छोटा दिखाना बेहतर समझा जाता था, क्यों कि वह लोग सोचते थे कि इससे पुरुष वीर्य जब बाहर निकलता है तो वह अधिक गर्म और शक्तिशाली होता है, जबकि अगर वह अंग बड़ा हो गा तो वीर्य बाहर निकलते समय ठंडा हो जायेगा और उसकी शक्ति कम होगी।

अंत में

मुझे पोमपेई की गलियों और घरों में घूमना और वहाँ के दो हज़ार साल पहले के जीवन बारे में सोचना बहुत अच्छा लगता है।

भारत में मध्यप्रदेश में भीमबेटका में आदि मानव के जीवन और महाराष्ट्र में अजंता जैसी गुफाओं में भगवान बुद्ध के समय के जीवन, या फ़िर उत्तर-पश्चिम में लोथाल, गनेरीवाला और राखीगढ़ी जैसी जगहों पर पुरातत्व अवशेषों से और भित्ती-चित्रों से सिंधु घाटी सभ्यता को समझने के मौके मिलते हैं, लेकिन पोमपेई तथा एरकोलानो में जिस तरह से उस समय का समस्त जीवन पिघले हुए लावे में कैद हो गया, वह दुनिया में अनूठा है।

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