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शनिवार, अक्टूबर 18, 2025

हड़प्पा की मोहरें और वेदिक संस्कृति

कुछ माह पहले मैंने अमरीका में रहने वाले भरत कुमार (यजन्देवम) के बारे में अपने अंग्रेज़ी ब्लाग में लिखा था, जिनका दावा है कि कृत्रिम बुद्धि की सहायता से उन्होंने हड़प्पा (सिंधु घाटी सभ्यता) की मोहरों की भाषा को समझा है। उनके अनुसार, उन मोहरों चिन्हों में संस्कृत में लिखी वेद-ऋचाओं का संक्षिप्त रूप हैं। उनकी यह खोज अभी तक किसी वैज्ञानिक जर्नल में नहीं छपी है और अन्य भाषाविदों ने उनके शोध से सम्बंधित बहुत से प्रश्न और संदेह उठाये हैं, इसलिए यह खोज सही साबित होगी या नहीं, यह समय ही बतायेगा।

आज मैं हड़प्पा की मोहरों के विषय में एक अन्य शोधकर्ता की बात करना चाहता हूँ, जिनका नाम है सुश्री रेखा राव। रेखा जी की धारणा है कि हड़प्पा की मोहरों पर वेदों की, विषेशकर ऋग्वेद में वर्णित देवी-देवताओ और उनसे जुड़े धार्मिक अनुष्ठानों की बाते हैं। अपने व्यक्तिगत शोध के आधार पर वह कहती हैं कि यह मोहरें पुरोहितों के लिए मंत्रों, उनके पाठ तथा अनुष्ठानों को याद करने के लिए बनायी गई थीं। 

रेखा जी ऐसे परिवार से हैं जहाँ वेदिक मंत्र तथा यज्ञ जैसे अनुष्ठान उनके दैनिक जीवन का हिस्सा रहे हैं। वह कहती हैं, "मैं अपने उन अनुभवों के आधार पर शोध के इस निष्कर्ष तक पहुँची हूँ।"

करीब पाँच साल पहले उन्होंने बँगलौर के एक संग्रहालय में अपने शोध की प्रस्तुती की थी जिसे आप इंटरनेट पर देख सकते हैं। उन्होंने इस विषय में कई किताबें भी लिखी हैं। मुझे उनसे बात करने का मौका मिला और मैंने उनको विचारों के बारे में जाना तो मुझे थोड़ी सी हैरानी हुई कि इसके बारे में पहले कहीं सुना क्यों नहीं था? मुझे उनकी बातें बहुत दिलचस्प और नयीं लगीं, शायद इसलिए भी कि मैंने ऐसी बात पहले कभी नहीं सुनी थी। यह आलेख उनके शोध के निष्कर्ष और उनके विचारों की बात करना चाहता हूँ। आप इस आलेख की सभी तस्वीरों पर क्लिक करके उन्हें बड़ा करके देख सकते हैं, अधिकाँश तस्वीरें उनके प्रज़ेनटेशन से ली गयी हैं।

सुश्री रेखा राव

रेखा जी भारतनाट्यम नृत्य की सुविख्यात नृत्यांगना रही हैं। उन्होंने नृत्य के लिए नाट्यरत्न प्राप्त किया, तथा कर्णाटक में कोलार गोल्ड फील्ड, और जकार्ता व मुम्बई में भरतनाट्यम सिखाया भी है। आजकल वह प्राचीन प्रतिमाओं में नृत्य-मुद्राओं के विषय पर शोध कर रही हैं।

उन्होंने मैसूर विश्वविद्यलय से भारतीय ज्ञान परम्परा में उच्चतर शिक्षा की डिग्री ली है। उन्होंने कुछ वर्षों तक भारत पुरातत्व सर्वे के उपाध्यक्ष डॉ. एस आर राव की छत्रछाया में शोध किया और सन् 2010 से स्वतंत्र शोधकर्ता की तरह काम कर रही हैं। उन्होंने भारतीय सास्कृतिक परम्पराओं से जुड़े विषयों पर बहुत सी किताबें और आलेख लिखे हैं जो अमेज़न पर उपलब्ध हैं।

रेखा जी ने कहा कि करीब बीस-पच्चीस साल पहले हड़प्पा की एक मोहर में उन्हें पक्षी जैसा एक चिन्ह दिखा, जो उन्हें एक विषेश यज्ञ-वेदिका जैसी लगी। वह जानती थीं कि अलग-अलग धार्मिक अनुष्ठानों में भिन्न आकारों वाली यज्ञ-वेदिकाएँ बनायी जाती हैं। वेदों तथा वेदांगों में विभिन्न आकारों की यज्ञ-वेदिकाओं में यज्ञ करने का वर्णन है। तैत्तरीय ब्राह्मण में शयन पक्षी के आकार की वेदिका बनाने की बात की जाती है। चूँकि उन्होंने इस आकार की एक वेदिका कुछ समय पहले देखी थी, वह इसे मोहर में पहचान गयीं। इस बात से  उनमें इन मोहरों का अध्ययन करने की इच्छा जागी। इसके बाद उन्होंने करीब दो सौ मोहरों का अध्ययन किया। जिस पहली मोहर से उनके मन में यह बात आयी, वह नीचे की तस्वीर में है। 


उनके विचार इस विषय में प्रचलित अन्य सब से भिन्न हैं, इसलिए मैंने उनसे पूछा कि इस विषय के विशेषज्ञ आप की इन धारणाओं के बारे में क्या कहते हैं तो उन्होंने बहुत सरलता से कहा कि वह कोई प्रोफैसर नहीं हैं, किसी विश्वविद्यालय या संस्था से भी नहीं जुड़ी हैं, शायद इसलिए उनकी बातों को विशेषज्ञ गम्भीरता से नहीं लेते।

उनकी सोच उनके परिवार के वेदिक संस्कृति के वातावरण और ज्ञान पर आधरित है। आजकल वेदिक संस्कृति की बात करने का मतलब है कि लोग आप को हिन्दुत्ववादी कहेंगे या बीजेपी की समर्थक, इसलिए आप की बातों को गम्भीरता से नहीं लिया जायेगा। वैसे भी अक्सर लोग उन्हें परम्परावादी स्त्री की तरह की तरह से देखते हैं, इसलिए उनकी बातों को गम्भीरता से नहीं लिया जाता।

हड़प्पा के बारे में देश-विदेश के बहुत से विशेषज्ञों ने पहले से बहुत किताबें लिखी हैं और जेनेक्टिकस जैसे आधुनिक शोधों से भी इंदो-आर्य तथा हड़प्पा के मूल निवासियों के बारे में अलग तरह की समझ बनी है, इसलिए भी उनके वेदिक संस्कृति की बात करने को गम्भीरता से नहीं लिया जाता।

लेकिन हमेशा से मेरी सोच रही है कि कोई भी नयी बात सुनने को मिले, मैं उसका मूल्यांकन अपनी दृष्टि और समझ से करना चाहता हूँ। मेरी आशा है कि इस आलेख को पढ़ने वाले भी उनकी बातों और विचारों को बिना पूर्वाग्रहों के पढ़ेंगे और तभी इस पर अपने विचार बनायेगे।   

यह आलेख रेखा जी की प्रेज़ेन्टेशन पर आधारित है जिसे आप यूट्यूब पर देख सकते हैं।

हड़प्पा की मोहरों का रहस्य

रेखा जी के विचार में हड़प्पा की मोहरों में वेदिक संस्कृति से सम्बंधित विषयों की जानकारी छिपी है।

वह कहती हैं कि वेदों में देव-पूजा का अर्थ यज्ञ करना है और हर यज्ञ में तीन बातें होती हैं - देवी-देवता, मंत्र-पाठ और आहूती। वेदों और वेदांगों में हज़ारों की संख्या में ऋचाएँ और मंत्र हैं, जिनका विभिन्न अनुष्ठानों में सही क्रम, तरीके और स्वर से उच्चारण करना आवश्यक है। उनके अनुसार, जब मोहरें बनीं तब वेदों का प्रभाव पश्चिम में गांधार तक था, जहाँ नवयुवा पुरोहितों को भेजा जा रहा था, इसलिए उनका प्रयोजन है कि शायद उस समय यह मोहरें उन युवा पुरोहितों की सहायता के लिए बनीं। मोहरों के माध्यम से उन्हें पता चलता था कि किस तरह के यज्ञ में, उसके उद्देश्य के अनुसार कौन से मंत्र और छंद, किस तरह से पढ़े जायें। उनके अनुसार यह सब जानकारी मोहरों में संकेतिक रूप में दिखायी गयी है। 

वह बताती हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता में तीन तरह की मोहरें मिलती हैं - (1) जिनमें आकृतियाँ और चिन्ह दोनों हों (2) जिनमें केवल चिन्ह हों (3) जिनमें केवल देवी-देवता या मानव या अन्य आकृतियाँ हों। हर सील का आकार 3x3 सेटी.मी. और भार 9-10 ग्रा. होता है। नीचे तीनों तरह की सील (मोहरें) दिखायी गयी हैं।


हड़प्पा की मोहरों में वेदिक देवता, पुरोहित तथा अनुष्ठान 

देवताओं की पहचान के लिए वृषभ के सींग: उन्होंने ऋग्वेद की ऋचाओं के कई उदाहरण दिये जिनमें इन्द्र और अग्नि, की तुलना वृषभ यानि बैल से की गयी है। इसलिए वह कहती हैं कि मोहरों पर देवताओं के सिर पर या सिर के पास बैल के सींग बनाये गये, जिनसे हम देवताओ को पहचान सकते हैं। इस तस्वीर में सिर के ऊपर बने सींगों को लाल परिधि में दिखाया गया है।

पुरोहितों को एक सींग वाले वृषभ के रूप में दिखाना: उनका दूसरा प्रस्ताव है कि मोहरों पर होत्र-पुरोहितों को एक सींग वाला बैल दिखाया गया। इसका कारण है कि यज्ञ करने वाले पुरोहितों को अपने नाखूनों से पीठ खुजाने की मनाही होती है और यज्ञ कई दिन या लम्बे समय के लिए भी चल सकते हैं। पीठ खुजाने के लिए उन्हें काले मृग के एक सींग, जिसे कंडुयानी कहते हैं, दिया जाता है, यह उनकी पीठ के वस्त्र के ऊपरी भाग में लगा दिया जाता है। चूँकि वृषभ यानि अग्नि देवता, स्वयं सभी देवताओ के पुरोहित हैं, इसलिए हड़प्पा की मोहरों में एक सींग वाले वृषभ को पुरोहित का प्रतीक बना कर दिखाया गया है।


इसके अतिरिक्त इन एक सिंगा वृषभों की पीठ पर एक, दो या तीन तार वाला जनेऊ बना दिखता है, यह भी उनके पुरोहित का चिन्ह होने का प्रमाण है। जैसे के ऊपर वाली मोहरों में वृषभों की पीठ पर दो तार वाले जनेऊ दिखते हैं। 

इन मोहरों में एकसिंगा वृषभ के सिर की मुद्रा से मंत्र पढ़ने वाले पुरोहितों को अन्य जानकारियाँ दी जाती थीं - उसका सिर अगर ऊपर की दिशा में है तो मंत्र उदात्त यानि ऊँचे स्वर में पाठ करते हैं, अगर सिर निचली दिशा में है तो मंत्रों को अनुदात्त यानि नीचे स्वर में पाठ करते हैं और अगर सिर सीधा है (यानि स्वरिता हो) तो उन मंत्रों और छंदों का समान्य स्वर में पाठ करते हैं (नीचे की तस्वीर में)।


वृषभ के सिर के नीचे चारा-स्तम्भ जैसी आकृति: जितनी भी एकसिंगा वृषभ वाली मोहरें हैं, उनमें बैल के सिर के नीचे एक स्तम्भ पर कुछ बना हुआ लगता है, जैसे कि वृषभ के चारा रखने के लिए बना है। लेकिन उनके शोध से पता चलता है कि यह आकृतियाँ आपस में बहुत भिन्न बनी हैं, यह ऊपर से ढकी हुई हैं और किसी मोहर में वृषभ को इसमें खाता हुआ नहीं दिखाया गया है। इसलिए उनका निष्कर्ष है कि यह चारा-स्तम्भ नहीं हैं, बल्कि यह आकृतियाँ ऋग्वेद के विभिन्न भागों और उनके छंदों के बारे में बताती हैं ताकि यज्ञ करने वाले पुरोहित को पता रहे कि उस यज्ञ में वेद के किस भाग और छन्द का पाठ करना है। नीचे तस्वीर में इन स्तम्भों की आकृतियों के कुछ नमूने हैं।

मोहरों पर बने चिन्ह: उनका कहना है कि मोहरों के चिन्ह, आकृतियाँ आदि सब मिला कर देखने चाहिये, केवल चिन्हों के अर्थ अलग से खोजना सही नहीं है। उनके अनुसार मोहरों के चिन्हों से यज्ञ और अनुष्ठान के बारे में अन्य जानकारी दी जाती है जैसे कि कौन सा यज्ञ, कैसी वेदिका, किस कड़छी से आहुती दी जाये, आदि।

दो प्रश्न

रेखा जी की इन बातों से मेरे मन में दो प्रश्न उठे जो मैंने उनसे पूछे:

पहला प्रश्न: अगर मोहरों का काम पुरोहितों को जानकारी देना है कि यज्ञ कैसे किया जाये, कौन से छंद और मंत्र कैसे पढ़े जायें, आदि तो उन्होंने यह केवल छोटी-छोटी मोहरों से क्यों किया, जिन्हें देखना उतना आसान नहीं है? उन्होंने कुछ बड़ी मोहरें क्यों नहीं बनायीं?

रेखा राव: जिस समय हड़प्पा की संस्कृति बन रही थी, वेदिक संस्कृति पश्चिम में गंधार तक फैली थी। नये क्षेत्रों में जाने वाले कम अनुभवी युवा पुरोहितों के लिए आवश्यक था कि वे हज़ारों मंत्रों और अनुष्ठानों को सही विधियों से याद रखें और करवायें। यह मोहरें वे अपने साथ ले कर जाते थे। छोटी मोहरों को सामान में ले जाना अधिक आसान था। 

मेरी टिप्पणी:  ऐसी मोहरें भी मिली हैं जिनके पीछे छेद बने हैं, ऐसी मोहरों को रस्सी या धागे में पिरो कर यात्रा में ले जाना सुविधाजनक होता होगा, जैसे इस अगली तस्वीर में देख सकते हैं।


दूसरा प्रश्न: अपनी प्रेज़ेनटेशन में एक जगह पर नीचे सिर किये हुए एकसिंगा वृषभ और उसके नीचे छोटे से स्तम्भाकार आकृति के बारे में आप कहतीं हैं कि यह जिन छंदों के पाठ की मोहर है उन्हें बहुत धीमे स्वर में पढ़ा जाता है, जैसा यजुर्वेद में कहा गया है। इस बात से मेरे मन में प्रश्न उठा कि यजुर्वेद तो बहुत बाद में लिखा गया था, तब उन्होंने इसकी मोहर हड़प्पा काल में कैसे बनाई?

रेखा राव: मंत्र और ऋचाएँ तो ऋग्वेद की ही थीं, यजुर्वेद में उन रीति-रिवाज़ों की सही विधियाँ बाद में लिखी गयीं, लेकिन यह विधियाँ प्राचीन थीं। ग्रंथ जब भी लिखे गये हैं, उनके अनुभव उस समय से बहुत पुराने थे। मंत्र पढ़ते समय कुछ शब्द सपाट स्वर में बोले जाते हैं, अन्य शब्दों में आवाज़ को ऊपर ले जाते हैं, कुछ अन्य मंत्र ऐसे होते हैं जिन्हें इतना धीमे बोलते हैं कि पास में खड़ा व्यक्ति भी नहीं सुन पाता। यह सब बातें कि कब, कहाँ पर कौन सा मंत्र और छंद कैसे बोलना है, यह ज्ञान मोहरों में अंकित है। 

कुछ दिलचस्प मोहरें

रेखा जी की प्रेज़ेन्टेशन में कुछ मोहरें मुझे बहुत दिलचस्प लगीं। इस बारे में मैं उनके प्रेज़ेन्टेशन से कुछ स्लाइड दिखाना चाहता हूँ।

(1)  वज्रबाहू इन्द्र की मोहर: वह बताती हैं कि ऋग्वेद में इंद्र को वज्रबाहू कहा गया है, वह बारिश रोकने वाले असुर से लड़ते हैं और बारिश करवाते हैं। इस मोहर को देखें तो स्पष्ट दिखता है मानो उनकी बाहों से वज्र निकल रहे हों, इसलिए इस मोहर का वज्रबाहू नाम सही लगता है।


(2) प्रजापति मोहर: मैंने इस मोहर को दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में देखा था, वहाँ इसे योगमुद्रा में बैठे  शिव का पशुपति रूप कहा गया है। जबकि रेखा जी का कहना है कि यह पशुपति मोहर नहीं है, बल्कि यह स्वर्णकंगन पहने प्रजापति हरण्यबाहू की मोहर है जिसमें विभिन्न जँगली पशुओं को दिखाया गया है। उनके अनुसार ऋग्वेद में पशुपति को पालतू पशुओं का स्वामी कहा गया है, वह दैविक चिकित्सक हैं जो मनुष्यों और पालतु गाय, भैंस जैसे पशुओं की रक्षा करते हैं। जबकि इस मोहर में पालतू पशु नहीं बल्कि जँगली पशु दिखाये गये हैं। इसलिए वह कहती हैं कि इसे पशुपति नहीं प्रजापति मोहर कहना चाहिये।


 (3) अग्न्याधेया यज्ञ के अग्नि कुंड: उनके अनुसार इस विषेश यज्ञ में जिस तरह से भिन्न अग्नि कुँड बनाये जाते हैं, वैसे ही कुँड हड़प्पा की मोहरों में भी दिखते हैं। नीचे की तस्वीर में आप अग्न्याधेया यज्ञ के आजकल बनने वाले कुँड और हड़प्पा की मोहरों में उनका चित्रण, दोनों देख सकते हैं।


(4) प्रावर्ग्या यग्न: रेखा जी कहती हैं कि इस यग्न में सप्तहोत्री यानि सात पुरोहितों द्वारा अग्नि का आवाह्न किया जाता है जिसमें बहुत गर्म घी को दूध में मिलने से अग्नि विस्फोट जैसा हो कर अग्निस्तम्भ बनता है, जिसकी उन्होंने केरल प्रदेश से पंजल नाम की जगह की तस्वीर दिखायी। वह मानती हैं कि नीचे वाली हड़प्पा की मोहर में इसी यज्ञ को दिखाया गया है। इसमें अध्वर्यू यानि अग्नि देवता पूजा कर रहे हैं, नीचे सप्तहोत्री खड़े हैं, बायीं ओर खारा नाम की गोल वेदी पर रखे महावीर कुम्भ में बृहस्पति बने हैं जोकि यज्ञ में अग्नि-स्तम्भ रूप में प्रकट होते हैं। फोटो पर क्लिक करके बड़ा करके देखिये।

(5) श्राध की मोहरें: रेखा जी कहती हैं कि जब पितृों का श्राध करते हैं तो उसमें तीन पुजारी तीन भिन्न दिशाओं से आते हैं और भिन्न दिशाओं में ही रीति अनुसार यजमान की तीन पीढ़ियों के श्राध के लिए मंत्रों का पाठ करते हैं। इसलिए वह कहती हैं कि जिन मोहरों पर तीन अलग दिशाओं की ओर मुँह किये हुए तीन वृषभ बने हैं, यह श्राध की रीति और मंत्र समझाने वाली मोहरें हैं। 


अंत में

मुझे सुश्री रेखा राव की हड़प्पा की मोहरों की बातें कि यह वेदिक मंत्रों, छंदों और अनुष्ठानों को अंकित करती हैं, बहुत दिलचस्प लगीं। शायद अगर मोहरों के चिन्हों के अर्थ समझ में आ जायें तो उनकी बातों के प्रमाण भी मिल जायें, वरना उनके प्रस्ताव रोचक लग सकते हैं लेकिन उनके प्रमाण मिलना कठिन है।

उनकी बातों में अपना तर्क है लेकिन यह सब बातें आज के जाने-माने विशेषज्ञों से इतनी भिन्न हैं कि इन्हें स्वीकार किया जाना कठिन लगता है। जेनेटिक्स और अन्य प्रमाणों से इंदो-आर्य के आने की बात की जाती है, उनमें और हड़प्पा की मोहरों के इस अर्थ के बीच में सामंजस्य नहीं बिठा सकते। 


जहाँ तक मैंने पढ़ा है, सारी बहसें मोहरों पर बने चिन्हों को भाषा मान कर उनके अर्थ समझने के बारे में हैं, उनके तीनों भागों को मिला कर, उनके आंतरिक अंतर-सम्बंधों को जोड़ कर नहीं देखा गया है। जबकि रेखा जी की बातों में तर्क है और उनकी बातों से स्पष्ट है कि उन्हें वेदिक अनुष्ठानों की बहुत अच्छी जानकारी है, इसलिए वह उन पहलुओं को देख-समझ सकती हैं जिन्हें अन्य विशेषज्ञ नहीं देख पाते। 

***

शुक्रवार, मार्च 22, 2024

ऋग्वेद कथा

गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि गाथिन आये थे। गृत्समद ऋषि अपने मित्र की आवभगत करने गये, उनसे गले मिले और उन्हें आदर से अपने शिक्षाकक्ष में ले आये, विद्यार्थियों से उनका परिचय कराया, उन्हें बैठने का स्थान दिया, जल और भोजन दिया।

"प्रिय भाई गाथिन, तुम कितने समय के बाद आये, आशा है कि तुम्हारे समुदाय में सब कुशल है", उन्होंने मेहमान से कहा। कुशल-मंगल पूछने और औपचारिकता की बातों के बाद उन्होंने मित्र से पूछा, "इतनी लम्बी यात्रा करके यहाँ आने का क्या कोई विषेश कारण है?"

गाथिन बोले, "पिछली सदियों में आर्यावर्त बहुत बढ़ गया है और बदल गया है। वह समय जब सब राजन मिल कर एक मनु, एक इन्द्र और सप्तऋषियों का चुनाव करते थे, लोग उस समय के बारे में भूलते जा रहे हैं। आर्यावर्त इतना फैल गया है कि इसके बाहर वाले हिस्सों के जनपदों के आश्रमों में कौन से ऋषि हैं और वह कौन से मंत्र पढ़ा रहे हैं, यह सब हमें पता ही नहीं हैं। जब प्रथम मनु का मनवन्तर था और पहले सप्तऋषि मण्डल में वाशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वानदेव तथा शौनक जैसे ऋषि थे, तब ऐसा नहीं था। लेकिन उसके बाद, पिछली सदियों में मनु बदले, मनवन्तर बदले और उनके सप्तऋषि भी बदलते रहे, तो उनका इतिहास कहीं पर संजोया नहीं गया।"

गृत्समद ऋषि बोले, "इतिहास की इन सब बातों से तुम क्यों परेशान हो रहे हो?"

विश्वामित्र बोले, "कुछ समय पहले मेरे कुछ शिष्य दूर देश की यात्रा से लौटे, उन्होंने बताया कि आर्यावर्त के सुदूर राज्यों में ऐसे नये ऋषि हैं जो अपने शिष्यों को नया पढ़ा रहे हैं, उनके कुछ ऐसे मंत्र और ऋचाएँ भी हैं, जो उन्होंने पहले कभी नहीं सुनी थीं। तबसे मैं इसके बारे में सोच रहा हूँ और तुम्हारी राय जानना चाहता था।"

गृत्समद ऋषि बोले, "यह तो प्रकृति का नियम है, इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं, फ़िर बदलाव से कैसा भय?"

विश्वामित्र ऋषि बोले, "लेकिन अगर भविष्य के हमारे ऋषि भूल जायेंगे कि हमारी संस्कृति और सभ्यता की नींव किस मूल दर्शन तथा किन विचारों पर खड़ी हुई थी, क्या वह भय की बात नहीं?"

गृत्समद ऋषि मुस्कराये बोले, "कैसे भूल जायेंगे? हमारे शिष्य, हमारे मंत्रों और ऋचाओं के केवल शब्द कंठस्थ नहीं करते, उनके हर सुर के नियम हैं, हर ध्वनि को याद किया जाता है। हमारे शिष्य और हमारी व्यवस्था इतनी सक्षम हैं कि हम अपने मंत्रों को सदियों के बाद भी इस तरह से दोहरा सकते हैं कि उनकी लाखों ध्वनियों में से एक ध्वनि भी नहीं बदलती। हमने पूर्वैतिहासिक आदिकाल के अपने पूर्वजों की उन ऋचाओं को भी सम्भाल कर संजोया है, जिनकी ध्वनियों के अर्थ भी आज कोई नहीं जानता या समझता। अगर हमने उस परम्परा को भी लुप्त नहीं होने दिया, तो फ़िर कैसा भय?"

विश्वामित्र ऋषि भी मुस्कराये, बोले, "मुझे हमारे शिष्यों की क्षमता कम होने का भय नहीं है, बल्कि आर्यावर्त के फैलने का और उस परिधी पर नये की उत्पत्ति की चिंता है, कि कल यही आर्यावर्त इतना बड़ा हो जायेगा कि उसके एक छोर के व्यक्ति, उसके दूसरी छोर के व्यक्ति को नहीं पहचानेंगे और उन्हें नये-पुराने का भेद नहीं मालूम होगा।"

गृत्समद ऋषि के माथे पर बल पड़ गये, बोले, "इसका क्या उपाय है?"

"मेरे विचार में इसका उपाय है कि हम लोग अपने प्रमुख ऋषियों को और आश्रमों के प्रतिनिधियों को एक जगह पर एकत्रित करें", विश्वामित्र ऋषि ने कहा, "और सर्वसम्मत राय से उन मंत्रों तथा ऋचाओं की सूची बनायें जो हमारे पूर्वजों की निधि हैं और भविष्य के लिए जिनकी रक्षा करना महत्वपृ्र्ण है। आजकल हमारे आश्रमों में शब्दों को लिपीबद्ध करने की नयी तकनीक बनी है, कुछ लोग इसे ब्राह्मी लिपी कहते हैं। हमारे जिन मंत्रों तथा ऋचाओं को सर्वसम्मति से स्वीकारा जायेगा, हम उन्हें लिपीबद्ध कर देंगे ताकि भविष्य में उनका निशान रहे। कालांतर में जब नये ऋषि, अपने ध्यान और अंतर्दृष्टि से अगर नये मंत्र और ऋचाओं का ज्ञान जोड़ेंगे, तो भविष्य में उनके लिए नये ग्रंथ बन सकते हैं लेकिन उससे पहले हम अपने पित्रों के पूर्व-ज्ञान को भी सम्भाल कर रखें।"

गृृत्समद ऋषि सोच कर बोले, "बात तो तुम ठीक कह रहे हो। मैंने कृष्णद्वैपायन नाम के एक ऋषि के बारे में सुना है जिन्होंने ब्राह्मी लिपि में कुछ मंत्र लिपिबद्ध किये हैं, हमारे प्राचीन मंत्रों को लिपीबद्ध करने का काम उनके आश्रम को सौंपा जा सकता है।"

***

गृत्समद और विश्वामित्र आश्रम के ऋषियों की इस बातचीत के सात माह के बाद वह सभा आयोजित हुई जिसमें दूर-करीब के सभी आश्रमों के ऋषियों को आमंत्रित किया गया।

सभा में सबसे पहले उन मंत्रों और ऋचाओं पर विचार किया गया जो कि पित्रों की परम्परा से चले आ रहे थे। इन सभी १,९७६ मंत्रों को जो १९१ सूक्तों में विभाजित थे, इन्हें प्राथमिकता देने का निर्णय लिया गया। फ़िर सात प्राचीन आश्रमों के ऋषियों को अपनी-अपनी परम्परा के अन्य महत्वपूर्ण मंत्र और सूक्त बताने के लिए कहा गया। उन सबके योगदानों को विभिन्न मण्डलों में जोड़ा गया। गृत्समद ने दूसरे, गाथिन विश्वामित्र ने तीसरे, वामदेव गौतम ने चौथे, अत्रि ने पाँचवें, वासर्पत्य भारद्वाज ने छठे, वशिष्ठ ने सातवें, एवं अंगीरस व कण्व ने आठवें मण्डल के मंत्र दिये।

अंत में बाकी के ऋषियों से योगदान माँगा गया ताकि तब तक हुए विमर्श में अगर कोई महत्वपूर्ण मंत्र छूट गये थे तो उन्हें भी जोड़ा जा सके। 

सभा के अंत तक, ऋग्वेद तैयार था, जिसमें कुल १०,५७९ मंत्र जोड़े गये, जो १०२८ सूक्तों में विभाजित थे, पूरा ऋग्वेद दस मण्डलों में विभाजित था।

इस सारे विचार-विमर्श से जो मंत्र, सूक्त तथा ऋचाएँ चुनी गयीं थीं, कृष्णद्वैपायन ने अपने शिष्यों की सहायता से उन्हें लिपिबद्ध किया। इस तरह से ऋषियों के पहले ग्रंथ का संकलन पूरा हुआ जिसे ऋग्वेद संहिता का नाम दिया गया। इस महत्वपूर्ण कार्य में योगदान देने वाले ऋषि कृष्णद्वैपायन को वेद-व्यास का नाम मिला।

एक बार प्राचीन ज्ञान, कथाओं और परम्पराओं को लिपिबद्ध करने का काम शुरु हुआ तो वह फ़िर नहीं रुका।

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टिप्पणियाँ

१. यह काल्पनिक कहानी है, हमारे किसी ग्रंथ में ऐसा वर्णन नहीं है। मैंने बहुत वर्षों तक अंतर्राष्ट्रीय सभाओं की रिपोर्टें तैयार की हैं, ऋग्वेद के ढांचे को देख कर मुझे लगा कि वह भी किसी ऐसी ही सभा में हुए विमर्श का नतीजा लगता है। यह कथा इसी विचार का स्वरूप है।

२. इस कहानी को लिखने के लिए मैंने ऋग्वेद से जुड़े कुछ ग्रंथों को पढ़ा और उनसे जानकारी ली, जिनमें प्रमुख था "ऋग्वेद संहिता भाषाभाष्य", जिसके भाष्यकार पंडित जयदेवशर्मा थे, संशोधनकर्ता आचार्य भद्रसेन थे, प्रकाशक आर्य साहित्य मण्डल, अजमेर, २००८ विक्रम संवत (१९५२ ई.) द्वारा छपा ग्रंथ का तीसरा संस्करण था। इसके अनुसार "वेदों को अनादि काल का ईश्वरीय ज्ञान मानने वालों ऋषियों को वेदमंत्रों के कर्ता नहीं माना, प्रत्युत मंत्रों का दृष्टा स्वीकार किया है ... अग्नि, वायु और आदित्य, तपस्यायुक्त इन तीनों से ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद, यह तीनों प्रकट हुए, इसी का मनु ने अनुवाद किया है ... शांखायन स्रोत सूत्र में ऋग्वेद के प्रथम प्रवक्ता के रूप में अग्नि को स्वीकारा गया है ... इस संकल्प में अग्नि को उपदेष्टा, वायु को उपश्रोता और आदित्य को अनुख्याता स्वीकार किया है ... वैदिक साहित्य में 'ऋषि' शब्द का प्रयोग 'आचार्य' के अर्थ में किया जाता है, यानि इसका अर्थ 'विद्वान-गुरु' है"।

३. हिंदी लेखक और संस्कृत विद्वान डॉ. रांगेय राघव की पुस्तक "प्राचीन ब्राह्मण कहानियाँ" (सन् १९५९ में "किताब महल" द्वारा प्रकाशित) में दी गयी जानकारी के अनुसार - 

"मानव समूहों के अधिनायकों को मनु कहते थे और हर मनु के कार्यकाल को मन्वंतर कहते थे। प्रथम मनु, यानि स्वयंभू मनु का जन्म ब्रह्मा से हुआ। स्वयंभू से पहले ब्रह्मा ने नौ अन्य मानस पुत्रों को जन्म दिया, जो नौ-ब्रह्मा बने, उनके नाम थे - भृगु, पुलस्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वशिष्ठ। राजा उत्तम के पुत्र औतम तीसरे मनु बने थे, स्वरोचिष आठवें मनु थे, सावर्णि नवें मनु थे, ब्रह्मसावर्णि दसें मनु थे, आदि।

हर मन्वंतर में मनु के साथ एक इन्द्र और कुछ देवगण-गुट भी नियुक्त होते थे। इन्द्र की पदवी पाने के लिए यज्ञ और तपस्या आवश्यक होती थी। हर देवगण गुट में १०-१५ व्यक्ति होते थे, जोकि यज्ञयोगी होते थे। जैसे कि औतम मनु के समय सुशान्ति नाम के इन्द्र हुए और उनके साथ पाँच देवगण-गुट थे - स्वधामा, सत्य, शिव, पतर्दन, और वशवर्ती। जबकि रैवत मनु के मन्वंतर में चार देवगण-गुट थे - सुमेधा, भूपति, वेकुंठ और अमिताभ, और हर गुट में चौदह व्यक्ति थे।

हर मन्वंतर में सात ऋषि भी होते थे, जैसे कि औतम मनु के समय गुरु वष्शिठ के सात पुत्रों को सप्तऋषि की पदवी मिली थी।

समाज से दूर वन में रहने वालों में मुनि भी होते थे। यह विवाह नहीं करते थे और तपस्या, पूजा जैसे कामों में जीवन बिताते थे।"

उपरोक्त विवरण से लगता है कि प्राचीन काल में यज्ञों यानि अग्नि पूजा को बहुत महत्व दिया जाता था, और यज्ञ करने वाले को इन्द्र तथा देवगण जैसी पदवी मिलती थी। यानि इन्द्र व देवगण पुजारी होते थे, उनका काम यज्ञ करना था। जबकि ऋषि ज्ञानी व्यक्ति होते थे, वनों में रहते थे, उनका काम आश्रम में शिक्षा देने से जुड़ा था।

मनु, इन्द्र, देवगण, ऋषि, आदि की नियुक्ति एक मन्वंतर के अंतर्गत होती थी, यानि जब मनु बदलते थे तो उनके साथ इन सब अन्य पदों पर नये व्यक्ति नियुक्त होते थे।

जबकि मुनि ऋषियों से भिन्न थे, उनका काम अकेले रहना, तपस्या तथा यज्ञ करना आदि थे (शायद मुनि शब्द मौन से बना है?)। लेकिन नये मनु के साथ नये मुनियों की नियुक्ति नहीं होती थी, मुनि बनने का निर्णय व्यक्तिगत स्तर लिया जाता था।

दूसरी बाद समझ में आती है कि राजा और मनु के पद में अंतर था, और मनु का पद राजा से ऊँचा था। शायद मनु के आधीन बहुत से राजा आते थे, जैसे कि केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकार? मनु की क्या ज़िम्मेदारी होती थी, यह बात इस किताब में दिये हुए विवरण से समझ नहीं आती।

तीसरी बात जो इससे समझ आती है, वह है कि मनु, इन्द्र, देवगण और ऋषि, इसी धरती के व्यक्ति होते थे, जिन्हें चुना जाता था या नियुक्त किया जाता था। इस किताब के विवरण में मनु बनने के लिए या इन्द्र बनने के लिए युद्ध करने या जीतने की कोई बात नहीं लिखी है। 

इसमें जिस तरह के प्रशासनिक आयोजन की बातें की गई हैं उनसे यह यायावर समूह का वर्णन नहीं लगता, बल्कि एक जगह पर स्थायी रहने वाला शहरी जनसमूह लगता है। यानि अगर आर्य लोग मध्य एशिया से यात्रा करके भारत में आये थे, तो जब ऋग्वेद लिपिवद्ध किया गया, तब तक यह लोग उनके वंशज थे जो पीढ़ियों से एक स्थान पर रहते थॆे, जहाँ इन्होंने राज्य और शहर बनाये थे।

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मंगलवार, अगस्त 29, 2023

"आदिपुरुष" की राम कथा

कुछ सप्ताह पहले आयी फ़िल्म "आदिपुरुष" का जन्म शायद किसी अशुभ महूर्त में हुआ था। जैसे ही उसका ट्रेलर निकला, उसके विरुद्ध हंगामे होने लगे। कुछ मित्रों ने देख कर फ़िल्म के बारे में कहा कि वह तीन घंटों की एक असहनीय यातना थी, जिसकी जितनी बुराईयाँ की जायें, वह कम होंगी। जब फ़िल्म के बारे में इतनी बुराईयाँ सुनी तो मन में उसे देखने की इच्छा का जागना स्वाभाविक था, कि मैं भी देखूँ और फ़िर उसकी बुराईयाँ करूँ। चूँकि फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर है तो उसे देखने का मौका भी मिल गया।

जैसा कि अक्सर होता है, जब किसी फ़िल्म की बहुत बुराईयाँ सुनी हों और उसे देखने का मौका मिले तो लगता है कि वह इतनी भी बुरी नहीं थी। "आदिपुरुष" देख कर मुझे भी ऐसा ही लगा, बल्कि लगा कि उसके कुछ हिस्से और बातें अच्छी थीं।

फ़िल्म की जो बातें मुझे नहीं जंचीं

लेकिन इस आलेख की शुरुआत उन बातों से करनी चाहिये जो मुझे भी अच्छी नहीं लगी। उनमें सबसे पहली बात है कई जगहों पर कम्प्यूटर ग्राफिक्स का प्रयोग अच्छा नहीं है। जैसे कि मुझे कम्प्यूटर ग्राफिक्स से बने दोनों पक्षी, यानि रावण का वहशी वाहन और जटायू, यह दोनों और उनकी लड़ाई वाले हिस्से अच्छे नहीं लगे। इसी तरह से बनी वानर सैना भी मुझे अच्छी नहीं लगी। फ़िल्म के जिन हिस्सों में यह सब थे, मुझे लगा कि वह कमज़ोर थे, क्योंकि उनमें अत्याधिक नाटकीयता थी जिसकी वजह से उन दृष्यों से भावनात्मक जुड़ाव नहीं बनता था।

लेकिन इन हिस्सों के अतिरिक्त कुछ अन्य हिस्से थे, जहाँ के कम्प्यूटर ग्राफिक्स मुझे अच्छे लगे, हालाँकि मेरे विचार में फ़िल्म में कपिदेश तथा लंका वाले हिस्सों में श्याम और गहरे नीले रंगों को इतनी प्रधानता नहीं देनी चाहिये थी। शायद फ़िल्म के यह काले-गहरे नीले रंगों वाले हिस्से हॉलीवुड की चमगादड़-पुरुष यानि बैटमैन की फ़िल्मों से कुछ अधिक ही प्रभावित थे। इसी तरह से फ़िल्म के अंत में रावण के शिव मंदिर से बाहर निकलने वाले दृश्य में हज़ारों चमगादड़ जैसे जीवों का निकलना भी उसी प्रभाव का नतीज़ा था।

भारतीय कथा-कहानियों के कल्पना जगत, उनके भगवान और उनके लीलास्थल, रोशनी और रंगों से भरे हुए होते हैं, जैसा कि हमारे मंदिरों की मूर्तियों, रामलीलाओं, नाटकों और नृत्यों में होता है। बजाय "बैटमैन" से प्रेरणा लेने के, अगर फ़िल्म "अवतार" जैसे प्रज्जवलित रंगो वाले संसार की सृष्टि की जाती तो वह बेहतर होता (फ़िल्म में जंगल के ऐसे कुछ हिस्से हैं, लेकिन थोड़े से हैं).

फ़िल्म में "सोने की लंका" को काले पत्थर की लंका बना दिया गया है, जो मेरी कल्पना वाली लंका से बिल्कुल उलटी थी।

लंका की अशोक वाटिका, जहाँ जानकी कैद होती हैं, को इस फ़िल्म में जापानी हानामी फैस्टिवल जैसा बनाया गया है जिसमें काले पत्थरों के बीच में गुलाबी चैरी के फ़ूलों से भरे पेड़ लगे हैं जो देखने में बहुत सुन्दर लगते हैं। हालाँकि यह भी मेरी कल्पना की अशोक वाटिका से भिन्न थी, लेकिन यह मुझे अच्छी लगी, क्योंकि मुझे लगा कि इन दृश्यों में वे काले पत्थर जानकी की मानसिक दशा को अभिव्यक्त करते थे। फ़िल्म के अभिनेताओं में मुझे जानकी का भाग निभाने वाली अभिनेत्री सबसे अच्छी लगीं।

हनुमान, सुग्रीव तथा वानर सैना

जब फ़िल्म का ट्रेलर आया था तो लोग उसमें हनुमान जी के स्वरूप को देख कर बहुत क्रोधित हुए थे। फ़िल्म में हनुमान जी को देख कर मुझे भी शुरु में कुछ अजीब सा लगा लेकिन फ़िर मुझे वह अच्छे लगे। लोग उनके डायलोग सुन कर भी खुश नहीं थे, जबकि मुझे लगा कि इस तरह से फ़िल्म में हनुमान जी की वानर बुद्धि दिखाई गयी है। यानि इसके हनुमान जी सीधी-साधी सोच वाले, कुछ-कुछ गंवार से हैं, लेकिन राम-भक्ती से भरे हैं। वह ऐसे जीव हैं जिन्हें ऊँची जटिल बातों और कठिन पहेलियों के उत्तर नहीं आते, लेकिन वह हर बात को अपनी राम-भक्ति के चश्में से देख कर उनका सहज उत्तर खोज लेते हैं। मुझे उनका यह गैर-बुद्धिजीवि रूप अच्छा लगा।

फ़िल्म में वानरों और कपि-पुरुषों को भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाया गया है। जैसे कि अगर हनुमान जी की त्वचा मानवीय लगती है तो बाली और सुग्रीव की गोरिल्ला जैसी। साथ में वानर भी विभिन्न प्रकार के हैं। मेरी समझ में फ़िल्म में इस तरह से वानर सैना और कपिराजों को आदिकालीन प्राचीन मानव की विभिन्न नसलों की तरह बनाया गया है।

मैंने बचपन से रामपाठ और रामलीलाएँ देखी हैं, उनमें सामान्य लोकजन के लिए हँसी-मज़ाक भी होता है और नर्तकियों के झटकेदार नृत्य भी होते हैं, जबकि कुछ लोग जो फ़िल्म की बुराई कर रहे थे,उन्हें इन सब बातों से आपत्ति थी। रामकथा को धर्म और श्रद्धा से सुनने का अर्थ यह बन गया है कि उसमें से लोकप्रिय हँसी-मजाक और ठुमके वाले गीत-नृत्यों आदि को निकाल दिया जाये। मेरी दृष्टि में यह गलती है। यह सच है कि अन्य धर्मों के पूजा स्थलों पर चुपचाप रहना और गम्भीर चेहरा बनाना होता है, वहाँ पर हँसी-मज़ाक की जगह नहीं होती, लेकिन मैंने मन्दिरों में, तीर्थ स्थलों आदि में आम जनता को कभी चुपचाप नहीं देखा, फ़िल्मी धुनों पर भजन और गीत गाना, हँसी-मज़ाक करना, अड़ोसियों-पड़ोसियों की आलोचना करना, मन्दिरों में और तीर्थस्थलों पर यह सब कुछ आनंद से होता है। अन्य धर्मों की देखा-देखी, हिन्दू धर्म की खिलंदड़ता और आनंद को दायरों में बाँधना, कहना कि ऐसा न करो, वैसा न करो, मुझे गलत लगता है।

रामकथा की नयी परिकल्पना

रामायण की कथा को अनेकों बार विभिन्न रूपों में परिकल्पित किया गया है। इन सब परिकल्पनाओं में तुलसीदास जी की रामचरित मानस का विशिष्ठ स्थान है। लेकिन यह कहना कि रामकथा को नये समय के साथ नये तरीकों से परिभाषित न किया जाये, तो बहुत बड़ी गलती होगी। हमारे उपनिषद कहते हैं कि हर जीव में ईश्वर हैं और जीवन के अंत में हर आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है, यानि "अहं शिवं अस्ति", हमारे भीतर शिव हैं, इसलिए हर आत्मा को अधिकार है कि वह अपनी समझ से अपने ईश्वर से बात करे। जब आप यह बात स्वीकार करते हैं तो क्या व्यक्ति से अपने अंदर के भगवान से बात करने के उसके अधिकार को छीन लेंगे? रामायण को और धर्म से जुड़ी हर बात को, हर कोई अपनी दृष्टि से परिभाषित कर सके, यह भी तो हमारा अधिकार है।

यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हम लोग समय और विकास के साथ, अपने धर्म को बदल व सुधार सकें, उसे सही दिशा में ले कर जायें।

इस दृष्टि से "आदिपुरुष" में रामकथा के कुछ हिस्सों की नयी परिभाषा की गयी है जो मुझे अच्छी लगीं। जैसे कि बाली और सुग्रीव के युद्ध में राम का हस्ताक्षेप। रामलीला में जब यह हिस्सा आता था तो मुझे हमेशा लगता था कि राम ने छिप कर बाली पर पीठ से वार करके सही नहीं किया, क्योंकि इसमें मर्यादा नहीं थी। लेकिन "आदिपुरुष" में इस घटना को जिस तरह से दिखाया गया है, वह नयी परिभाषा मुझे अच्छी लगी।

ऐसे ही रामलीला में लक्ष्मण का सूर्पनखा की नाक को काटना भी मुझे हमेशा गलत लगता था लेकिन फ़िल्म में इस घटना को जिस तरह दिखाया गया है, जिसमें लक्ष्मण सीता जी की रक्षा के लिए दूर से सूर्पनखा पर वार करते हैं जो उसकी नाक पर लग जाता है, यह परिकल्पना भी मुझे अच्छी लगी।

लेकिन फ़िल्म का रावण मुझे विद्वान और ज्ञानी ब्राह्मण कम और सामान्य खलनायक अधिक लगा। फ़िल्म के प्रारम्भ में उसकी तपस्या से खुश हो कर जब ब्रह्मा जी उसे वरदान देते हैं तब भी उसे दम्भी, अहंकारी दिखाया गया है, तो मन में प्रश्न उठा कि ब्रह्मा जी कैसे भगवान थे कि वह उसके मन की इन भावनाओं को देख नहीं पाये? क्या तपस्या का अर्थ केवल शरीर को कष्ट देना या ध्यान करना है, उसमें मन का शुद्धीकरण नहीं चाहिये? बाद में रावण का सीताहरण भी केवल वासना तथा अहंकार का नतीजा दिखाया गया है। रावण के व्यक्तित्व से जुड़ी यह दोनों बातें मुझे इस फ़िल्म की कमज़ोरी लगीं।

लेकिन रामानंद सागर की रामायण या रामलीला में डरावना दिखाने के लिए जिस तरह से "हा-हा-हा" करके हँसने वाले रावण या कुंभकर्ण आदि दिखाये जाते थे, वे यहाँ नहीं दिखे, यह बात मुझे अच्छी लगी।

और अंत में

मुझे "आदिपुरुष" फ़िल्म बुरी नहीं लगी, बल्कि इसके कुछ हिस्से और फ़िल्म का संगीत बहुत अच्छे लगे। मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूँ जो फ़िल्मों को बैन करने की बात करते हैं। मेरे विचार में हमें रामकथा या महाभारत या अन्य धार्मिक कथाओ को नये तरीकों से परिभाषित करते रहना चाहिए। अगर आप को उन नयी परिभाषाओ से आपत्ति है तो उसके विरुद्ध लिखिये, या आप अपनी नयी परिभाषा गढ़िये।  

पिछले कुछ समय से बात-बात पर कुछ लोग सोशल मीडिया पर उत्तेजित हो कर तोड़-फोड़ या बैन की बातें करने लगते हैं। कहते हैं कि उन्होंने हमारे भगवान का या धर्म का या भावनाओ का अपमान किया है, इसलिए हम इस नाटक, फ़िल्म, कला या किताब को बाहर नहीं आने देंगे, दंगा कर देंगे या आग लगा देंगे। मेरे विचार में इन लोगों को हिन्दू धर्म का ज्ञान नहीं है और यह देवनिंदा को अन्य धर्मों की दृष्टि से देखते हैं (मैंने "देवनिंदा" के विषय पर पहले भी लिखा है, आप चाहे तो उसे पढ़ सकते हैं।) मुझे लगता है कि यह उनके आत्मविश्वास की कमी तथा मन में हीनता की भावना का नतीजा है। 

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मंगलवार, जून 21, 2022

धर्मों की आलोचना व आहत भावनाएँ

आप के विचार में धर्मों की, उनके देवी देवताओं की और उनके संतों और पैगम्बरों की आलोचना करना सही है या गलत?

मेरे विचार में धर्मों से जुड़ी विभिन्न बातों की आलोचना करना सही ही नहीं है, आवश्यक भी है।

अगर आप सोचते हैं कि अन्य लोग आप के धर्म का निरादर करते हैं और इसके लिए आप के मन में गुस्सा है तो यह आलेख आप के लिए ही है। इस आलेख में मैं अपनी इस सोच के कारण समझाना चाहता हूँ कि क्यों मैं धर्मों के बारे में खुल कर बात करना, उनकी आलोचना करने को सही मानता हूँ।



धर्मों की आलोचना का इतिहास

अगर एतिहासिक दृष्टि से देखें तो हमेशा से होता रहा है कि सब लोग अपने प्रचलित धर्मों की हर बात से सहमत नहीं होते और उनकी इस असहमती से उन धर्मों की नयी शाखाएँ बनती रहती हैं। उस असहमती को आलोचना मान कर प्रचलित धर्म उसे दबाने की कोशिश करते हैं, लेकिन फ़िर भी उस आलोचना को रोकना असम्भव होता है। यही कारण है कि दुनिया के हर बड़े धर्म की कई शाखाएँ हैं, और उनमें से आपस में मतभेद होना या यह सोचना सामान्य है कि उनकी शाखा ही सच्चा धर्म है, बाकी शाखाएँ झूठी हैं। कभी कभी एक शाखा के अनुयायी, बाकियों को दबाने, देशनिकाला देने या जान से मार देने की धमकियाँ देते हैं।

उदाहरण के लिए - ईसाई धर्म में कैथोलिक और ओर्थोडोक्स के साथ साथ प्रोटेस्टैंट विचार वालों के अनगिनत गिरजे हैं; मुसलमानों में सुन्नी और शिया के अलावा बोहरा, अहमदिया जैसे लोग भी हैं; सिखों के दस गुरु हुए हैं और हर गुरु के भक्त भी बने जिनसे खालसा, नानकपंथी, नामधारी, निरंकारी, उदासी, सहजधारी, जैसे पंथ बने।

जब धर्मों की नयी शाखाएँ बनती हैं तो उसके मूल में अक्सर आलोचना का अंश भी होता है। जैसे कि सोलहवीं शताब्दी में जब जर्मनी में मार्टिन लूथर ने ईसाई धर्म की प्रोटेस्टैंट धारा को जन्म दिया तो उनका कहना था कि कैथोलिक धारा अपने मूल स्वरूप से भटक गयी थी, उसमें संत पूजा, देवी पूजा और मूर्तिपूजा जैसी बातें होने लगी थीं। इसी तरह, उन्नीसवीं शताब्दी में सिख धर्म में सुधार लाने के लिए निरंकारी और नामधारी पंथों को बनाया गया। कुछ इसी तरह की सोच से कि हमारा धर्म अपना सच्चा रास्ता भूल गया है और उसे सही रास्ते पर लाना है, अट्ठारहवीं शताब्दी में सुन्नी धर्म के सुधार के लिए वहाबी धारा का उत्थान हुआ।

इन उदाहरणों के माध्यम से मैं कहना चाहता हूँ कि धर्मों में आलोचना की परम्पराएँ पुरानी हैं और यह सोचना कि अब कोई हमारे धर्म के विषय में कुछ आलोचनात्मक नहीं कहेगा, यह स्वाभाविक नहीं होगा।

भारतीय धर्मों में आलोचनाएँ

हिंदू धर्म ग्रंथ तो प्राचीन काल से धर्मों पर विवाद करने को प्रोत्साहन दते रहे हैं। धर्मों की इतनी परम्पराएँ भारत उपमहाद्वीप में पैदा हुईं और पनपी कि उनकी गिनती असम्भव है। कहने के लिए भारत की धार्मिक परम्पराओं को चार धर्मों में बाँटा जाता है - हिंदू, सिख, बौद्ध, और जैन। लेकिन मेरी दृष्टि में धर्मों का यह विभाजन कुछ नकली सा है। जिस तरह से दुनिया के अन्य धर्म अपनी भिन्नताओं के हिसाब से बाँटते हैं, उस दृष्टि से सोचने लगें तो भारत में हज़ारों धर्म हो जायें, पर अन्य सभ्यताओं से भारतीय सभ्यता में एक महत्वपूर्ण अंतर है कि उसकी दृष्टि धार्मिक भिन्नताओं को नहीं, उनकी समानताओं को देखती है।

इसके साथ साथ भारतीय धर्मों की एक अन्य खासियत है कि उनकी सीमाओं पर दीवारे नहीं हैं बल्कि धर्मों की मिली जुली परम्पराओं वाले सम्प्रदाय हैं। पश्चिमी पंजाब से आये मेरे नाना नानी के परिवारों में बड़े बेटे को "गुरु को देना" की प्रथा प्रचलित थी, यानि हिंदू परिवार का बड़ा बेटा सिख धर्म का अनुयायी होता था। हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध प्रार्थनाओं और पूजा स्थलों में अक्सर एक दूसरे की परम्पराओं को भी सम्मान दिया जाता है।

यही नहीं, उनके तथा ईसाई एवं मुसलमान परम्पराओं के बीच में भी सम्मिश्रण से सम्प्रदाय या साझी परम्पराएँ बनीं। मेवात के मुसलमानों में हिंदू परम्पराएँ और केरल के ईसाई जलूसों में हिंदू समुदायों का होना, सूफ़ी संतों की दरगाहों में भिन्न धर्मों के लोगों का जाना, विभिन्न हिंदू त्योहारों में सब धर्मों के लोगों का भाग लेना, इसके अन्य उदाहरण हैं।

इस साझा संस्कृति में सहिष्णुता स्वाभाविक थी और कट्टर होना कठिन था, इसलिए एक दूसरे के धर्म के बारे में हँसी मज़ाक करना या आलोचना करना भी स्वाभाविक था।

आहत भावनाओं की दुनिया

आजकल की दुनियाँ में ऐसे लोगों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है जिनकी भावनाएँ बहुत आसानी से आहत हो जाती हैं। भावनाओं के आहत होने से वह लोग बहुत क्रोधित हो जाते हैं और अक्सर उनका क्रोध हिँसा या तोड़ फोड़ में अभिव्यक्त होता है। इस वजह से, अगर आप लेखक हैं, कलाकार हैं, या फिल्मकार हैं, तो किसी भी सृजनात्मक कार्य से पहले आप को गम्भीरता से सोचना पड़ता है कि क्या मेरी कृति की वजह से किसी की भावनाएँ आहत तो नहीं हो जायेगीं? वैसे आप कितनी ही कोशिशें कर लें, पहले से कितना भी सोच लें, सब कोशिशों के बाद भी यह हो सकता है कि कोई न कोई, किसी भी वजह से आप से रुष्ठ हो कर आप को सबक सिखाने की धमकी दे देगा।

यूरोप में इस्लाम से सम्बंधित आहत भावनाओं वालों के गुस्से के बारे में तो सभी जानते हैं। इस्लाम के बारे में कुछ भी आलोचनात्मक बोलिये तो आप पर कम से कम इस्लामोफोबिया का छप्पा लग सकता है, और किसी को अधिक गुस्सा आया तो वह आप को जान से भी मार सकता है। भारत में अन्य धर्मों के लोगों में भी यही सोच बढ़ रही है कि हमारे धर्म, भगवान, धार्मिक किताबों तथा देवी देवताओं का "अपमान" नहीं होना चाहिये और अगर कोई ऐसा कुछ भी करता या कहता है तो उसको तुरंत सबक सिखाना चाहिये, ताकि अगर वह ज़िंदा बचे तो दोबारा ऐसी हिम्मत न करे। "अपमान" की परिभाषा यह लोग स्वयं बनाते हैं और यह कहना कठिन है कि वह किस बात से नाराज हो जायेगे।

जो बात धर्म से जुड़े विषयों से शुरु हुई, वह धीरे धीरे जीवन के अन्य पहलुओं की ओर फैल रही है। आप ने किसी भी जाति के बारे में ऐसा वैसा क्यों कहा? आप ने किसी जाति या धर्म वाले को अपने उपन्यास या फिल्म में बुरा व्यक्ति या बलात्कारी क्यों बनाया? यानि किसी भी बात पर वह गुस्सा हो कर उस जाति या धर्म या गुट के लोग आप के विरुद्ध धरना लगा सकते हैं या तोड़ फोड़ कर सकते हैं।

भारत की पुलिस अधिकतर उन दिल पर चोट खाने वालों के साथ ही होती है। आप ने ट्वीटर या फेसबुक पर कुछ लिखा, या यूट्यूब और क्लबहाउस में कुछ ऐसा वैसा कहा तो पुलिस आप को तुरंत पकड़ कर जेल में डाल सकती है, लेकिन अगर आप की भावनाएँ आहत हुईं हैं और आप तोड़ फोड़ कर रहे हैं या दंगा कर रहे हैं या किसी को जान से मारने की धमकी दे रहें हैं, तो अधिकतर पुलिस भी इसे आप का मानव अधिकार मानती है और बीच में दखल नहीं देती।

धर्म के निरादर पर गुस्सा करना बेकार है

एक बार मेरे एक भारतीय मूल के अमरीका में रहने वाले मित्र से इस विषय में बात हो रही थी, जो कि क्रोधित थे क्योंकि उन्होंने अमेजन की वेबसाईट पर ऐसी चप्पलों का विज्ञापन देखा था जिनपर गणेश जी की तस्वीर बनी थी। उनका कहना था कि बाकी धर्मों वाले, हिन्दुओं को कमज़ोर समझते हैं और हिन्दु देवी देवताओं का अपमान करते रहते हैं। उन लोगों ने मिल कर अमेजन के विरुद्ध ऐसा हल्ला मचाया कि अमेजन वालों ने क्षमा माँगी और उन चप्पलों के विज्ञापनों को हटा दिया।

मैंने शुरु में उनसे मजाक में कहा कि आप गणेश जी की चिंता नहीं कीजिये, वह उस चप्पल में पाँव रखने वाले को फिसला कर ऐसे गिरायेंगे कि उसकी हड्डी टूट जायेगी। तो मेरे मित्र मुझसे भी क्रोधित हो गये, बोले कि कैसी वाहियात बातें करते हो? उनकी सोच है कि कोई हमारे देवी देवताओं का इस तरह से अपमान करे तो हमें तुरंत उसका विरोध करना चाहिये। उनसे बहुत देर तक बात करने के बाद भी न तो मैं उन्हें अपनी बात समझा पाया, लेकिन उनके कहने से मेरी सोच भी नहीं बदली।

मुझे धर्म, पैगम्बर, धार्मिक किताबों या देवी देवताओं के अपमान की बातें निरर्थक लगती हैं। किताबों में कागज पर छपे शब्दों में पवित्रता नहीं, पवित्रता उनको पढ़ने वालों के मन में है, दुनिया की हर वस्तु की तरह किताब तो नश्वर है, एक दिन तो उसे नष्ट हो कर संसार के तत्वों में लीन होना ही है। मेरी सोच भगवत् गीता से प्रभावित है जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को अपना बृहद रूप दिखाते हैं कि सारा ब्रह्माँड स्वयं वही हैंः

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यदेवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ।।

जब ब्रह्माँड के कण कण में स्वयं भगवान हैं, जब भगवान न चाहे तो दुनिया का पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो मानव के पैरों के कण कण में और चप्पलों के कण कण में क्या वह भगवान नहीं हैं? अगर आप सचमुच अपने धर्म में और अपने देवी देवताओं में विश्वास करते हैं, तो आप यह क्यों नहीं समझते कि यह मानव के बस की बात ही नहीं है कि भगवान का अपमान कर सके?

हमारी एक कहावत भी है कि आसमान पर थूका वापस आप के अपने ऊपर ही गिरता है। भगवान, देवी देवता, यह सब हमारी श्रद्धा और विश्वास की बातें हैं। भगवान न तो पूजा के प्यासे हैं, न ही वह हमारे गुस्से पर नाराज होते हैं। जब हर व्यक्ति की आत्मा में ब्रह्म है, तो उसकी आत्मा में भी है जिसने आप के विचार में आप के भगवान या देवी देवता का अपमान किया है। यह उसका कर्मजाल है और इसका परिणाम वह स्वयं भोगेगा, उसमें आप क्यों भगवान के बचाव में उसके न्यायाधीश और जल्लाद बन जाते हैं?

सभी धर्म कहते हैं कि जिसे हम अलग अलग नामों से बुलाते हैं, वह गॉड, खुदा, भगवान, पैगम्बर सर्वशक्तिमान हैं। अगर वह न चाहें तो दुनियाँ में कोई उनके विरुद्ध कुछ कर सकता है क्या? अगर आप यह मानते हैं कि कोई भी मानव आप के गॉड, खुदा, पैगम्बर, देवी देवता या भगवान का अपमान कर सकता है तो वह सर्वशक्तिमान कैसे हुआ? लोग यह भी कहते हैं कि गॉड, खुदा और भगवान ही हमारा पिता है, जिसने सबको जीवन दिया है। तो हम यह क्यों नहीं मानते कि अगर कोई उनके विरुद्ध कुछ भी कहता या करता है, तो वह अपने पिता से झगड़ रहा है और उसे सजा देनी होगी तो उसका पिता ही उसे सजा देगा, आप उसकी चिंता क्यों करते हैं?

सिखों के पहले गुरु, नानक के बारे में एक कहानी है कि वह एक बार मदीना गये और काबा की ओर पैर करके सो रहे थे। कुछ लोगों ने उन्हें देखा तो क्रोधित हो गये, बोले काबा का अपमान मत करो। तब गुरु नानक ने उनसे कहा कि अच्छा तुम मेरे पैर उस ओर कर दो जहाँ काबा नहीं है। कहते हैं कि उन लोगों ने जिस ओर गुरु नानक के पैर मोड़े, उन्हें काबा उसी ओर नजर आया, तब वह समझे कि गुरु नानक बड़े संत थे। इसी तरह से संत रविदास कहते थे कि मन चंगा तो कठौती में गँगा। असली बात सब अपने मन की है और उसे निर्मल रखना सबसे अधिक आवश्यक है। इसलिए मेरी सलाह मानिये और आप अपने मन में झाँकिये और देखिये कि आप का मन चंगा है या नहीं, औरों के मन की जाँच परख को भूल जाईये।

हिंदू धर्म का अपमान

पिछले कुछ दशकों में विभिन्न धर्मों के लोगों में असहिष्णुता बढ़ रही है। शायद उनकी देखा देखी, बहुत से हिंदू भी "हिंदू धर्म के अपमान" के प्रति सतर्क हो गये हैं और जब वह ऐसा कुछ देखते हैं तो तुरंत लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। उनसे कुछ कहो तो वह मुसलमान, ईसाई या सिख समुदायों की अपने धर्मों के अपमान के विरुद्ध लड़ाईयों के उदाहरण देते हैं।

मेरे विचार में यह गलती है, हिंदू धर्म को बाकियों के लिए उदाहरण बनना चाहिये कि हम लोग धर्म की किसी तरह की आलोचना को स्वीकार करते हैं,कि हमारे देवी देवता, भगवान सर्वशक्तिमान हैं वह अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं। अन्य धर्मों के कट्टरपंथियों को उदाहरण मान कर, हम उनकी तरह बनने की कोशिश करेंगे तो वह हिंदू धर्म के मूल विचारों की हार होगी।

अंत में

यह आलेख लिखना शुरु किया ही था कि भारत में "नूपुर शर्मा काँड" हो गया। वैसे तो मैं टिवटर पर कम ही जाता हूँ लेकिन कुछ ऐसे माननीय लोग जिन्हें मैं उदारवादी और समझदार समझता था, और जो कि हिंदू धर्म की आलोचनाओं में खुल कर भाग लेते रहे हैं, उन लोगों ने भी जब "पैगम्बर का अपमान किया है" की बात करके दँगा करने वालों को बढ़ावा दिया, तो मुझे बड़ा धक्का लगा।

भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसम्प्रदायिक देश में किसी एक गुट की कट्टरता को सही ठहराना खतरनाक है, इससे आप केवल अन्य कट्टर विचारवालों को मजबूत करते हैं। अगर हमारे पढ़े लिखे, दुनिया जानने वाले बुद्धिवादी लोग भी इस बात को नहीं समझ सकते तो भारत का क्या होगा?

1973 की राज कपूर की फ़िल्म बॉबी में गायक चँचल ने एक गीत गया था, "बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह यह कहता, पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता"। आज अगर यह गीत किसी फ़िल्म में हो तो शायद राज कपूर, चँचल और बुल्लेशाह, तीनों को लोग फाँसी पर चढ़ा देंगे।

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सोमवार, मई 27, 2013

मिथकों में जीवन

बात कहीं से शुरु होती है और फ़िर किसी अन्य दिशा से कोई तार उससे आ मिलते हैं, और बातों में बातें जुड़ जाती हैं.

Mithak - Myths
कुछ यूँ ही हुआ जब मैंने अपने फोटो ब्लाग "छायाचित्रकार" पर तीन महाद्वीपों से विभिन्न तरह की गिलहरियों की तस्वीरें लगाने की सोची. दिल्ली में कुतुब मीनार के पास खींची गिलहरी की तस्वीर देख रहा था तो उसकी पीठ पर कथई रंग की धारियों से याद आया कि उसके बारे में बचपन में कहानी सुनी थी. उस कथा के अनुसार, जब राम अपनी सैना को ले कर लँका जाने के लिए सागर पर पुल बना रहे थे तो गिलहरी ने पत्थर लाने में बहुत मेहनत की और गिलहरी को धन्यवाद देने के लिए उन्होंने जब उसकी पीठ को सराहा तो उनकी उँगलियों के निशान उसकी पीठ पर रह गये.

फ़िर सोचा कि मानव ने क्यों इस तरह के मिथक रचे? मिथकों का जीवन में क्या लाभ है?

केवल भारत में नहीं, हर देश, हर संस्कति ने पूर्वेतिहासिक काल में अपने मिथक रचे, तो मानव समाज में अवश्य उनका कुछ महत्व और उपयोग होता था, जिसकी वजह से सभी सभ्यताओं में मिथक रचे गये. अक्सर सभ्यताओं से जुड़े मिथक, उन सभ्यताओं के प्रचलित धर्मों से जुड़ जाते हैं, जिसकी वजह से अंग्रेज़ी में धार्मिक कथाओं को माइथोलोजी (mythology) कहते हैं, यानि "मिथकों की कहानियाँ".

यह सोच रहा था तो जानी मानी भारतीय विचारक, पारम्परिक जनजातियों के ज्ञान की रक्षा की पक्षधर और भूमण्डलीकरण की विरोधी सुश्री वन्दना शिव की एक बात याद आयी. वन्दना मेरी मित्र डा. मीरा शिव की बहन हैं. कुछ वर्ष पहले वह इटली के फ्लोरैंस शहर में एक समारोह में आमन्त्रित थीं. मीरा ने उनके हाथ मेरे लिए कुछ सामान भेजा था, जिसके लिए मैं वन्दना से मिलने फ्लोरैंस गया था और उनका भाषण सुनने का मौका मिला. अपने भाषण में उन्होंने बात की थी, नयी तकनीकों से बीजों के डीएनए (DNA) को बदल कर नयी तरह की वनस्पतियों को बनाने के प्रयोगों से प्राकृति के संरक्षण की. उन्होंने कहा कि भारत में हिन्दू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवता माने जाते हैं, और हर देवी देवता के साथ किसी न किसी पशु या पक्षी या वनस्पति का नाम भी जुड़ा होता है, जिनकी वजह से धर्म में विश्वास रखने वाले उन सब की रक्षा करते हैं. इस तरह से यह पौराणिक मिथक, मानव व प्राकृति के साथ साथ सामन्जस्य से रहने का संदेश देते हैं.

यानि, प्राचीन काल में जब विज्ञान नहीं था, किताबें नहीं थीं, तब मिथकों के द्वारा मानव जीवन के अनुभवों से अर्जित ज्ञान को याद रखा जाता था. इस तरह से देवी देवताओं की कहानियाँ एक माध्यम बन गयीं जिनसे मानव और प्राकृति में सामन्जस्य की आवश्यकता को नैतिक रूप दिया गया.

कुछ इसी तरह की बात एक बार मिस्र में एक मित्र ने मुसलमानों द्वारा सूअर के माँस को अपवित्र मानने के बारे में कही थी. वह कहते थे कि मध्य-पूर्व के देशों में सूअरों में सिस्टोसरकोसिस का रोग होता था और सूअर का माँस खाने से वह मानव शरीर में, विषेशकर दिमाग के तंतुओं में फैल जाता था. इसलिए सूअर के माँस की वर्जना की बात, वहाँ रहने वाली मानव जाति की सुरक्षा से जुड़ी थी.

मिथक क्यों बने, यह समझना हमेशा आसान नहीं होता. बहुत सी सभ्यताओं में नमक का गिरना या बिखरना अशुभ माना गया है. शायद इस मिथक के पीछे, पुराने समय में नमक को पाने की कठिनाई थी क्योंकि यह केवल सागर तटवर्ती क्षेत्रों में मिलता था. पर बहुत सी सभ्यताओं में काली बिल्ली को क्यों अशुभ माना गया, इसका कारण क्या हो सकता है?

जब लिखाई नहीं थी, किताबें नहीं थीं, तब इतिहास की महत्वपूर्ण बातों को न भूलने के लिए भी मिथक काम आते थे. जैसे कि अमरीकी जनजातियों के मिथकों में पृथ्वी पर मानव जीवन कैसे बना इसकी कहानियाँ हैं. इन मिथकों में आकाश से या चाँद से धरती तक एक पुल का बनना और उसे पार करके धरती पर आने की बातें हैं. इन कहानियों में कुछ इतिहासकारों ने करीब दस हज़ार वर्ष पहले के हिमयुग में उत्तरी सागर के बर्फ से जमने और उसे पार कर के एशियाई मूल के लोगों के अमरीका महाद्वीप पहुँचने की यात्रा के संकेत पाये हैं.

मिथक सामाजिक विचारों को भी शक्ति देते हैं. चाहे समाज में पुरुष के मुकाबले में नारी का नीचा स्थान हो या विकलाँग व्यक्तियों को समाज से बाहर देखने के प्रवृति, इनको प्राचीन मिथकों का सहारा मिलता है, जिनकी जड़ें समाज में बहुत गहरी होती हैं और जिन्हें बदलना आसान नहीं होता. दिल्ली में विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत मेरी मित्र डा. अनीता घई, रामायण में सूर्पनखा की कहानी का उदाहरण देती हैं कि सुन्दर सूर्पनखा स्वतंत्र हैं, उसकी यौनकिता भी स्वच्छंद है जोकि पितृसत्तावादी समाज में स्वीकार नहीं की जाती थी और इस अपराध के लिए उसकी नाक काट कर उसे विकलाँग बनाया जाता है, जिससे उसकी यौनकिता अस्वीकृत हो जाती है. इस तरह से मिथकों से जुड़े विचार, समाजिक रूढ़ीवाद का हिस्सा भी हो सकते हैं.

अपनी संस्कृति के मिथकों को जानना, हमें अपनी संस्कृति को गहराई से समझने का मौका देता है. भारतीय पारम्परिक मिथकों के बारे में डा. उषा पुरी विद्यावाचस्पति ने एक जानकारी से भरपूर किताब लिखी है, "भारतीय मिथकों में प्रतीकात्मकता" (सार्थक प्रकाशन, दिल्ली, 1997).  उदाहरण के लिए इसमें वह पूजा में उपयोग किये जाने वाली वस्तुओं तथा रीतियों के बारे में बताती हैं कि "ऊँ", शंख और स्वस्तिक में सृष्टि के आरम्भ का नाद है, जलयुक्त कलश को जल, वायू तथा सूर्य का प्रतीक मानते हैं, तथा कलश की गर्दन में बँधा कलावा मंगलमय आयोजन में समाज को स्नेहसूत्र में बाँधने का द्योतक है. रूद्राक्ष, शिव के आँसू या पसीने से बना है इसलिए मनुष्य को आधि व्याधि से मुक्त करता है. हल्दी में रोग निवारण शक्ति हैं और स्वर्ण का प्रतीक है, चावल दीर्घायुदायी हैं, जबकि दीपक प्रकाश तथा ज्ञान का प्रतीक है.

Cover of Bhartiya mithakon mein pratikatamkta by Dr Usha Puri Vidyavachaspati

यह बात नहीं कि मिथक केवल प्राचीन ही होते थे और आजकल नये मिथक नहीं बनते. पिछले वर्ष अमरीकी माया सभ्यता के कैंलेण्डर की भविष्यवाणी बता कर "20.12.2012 को दुनिया का अंत होगा" की बात को बहुत से लोगों ने सच मान लिया था. यानि आज "मिथक" का अर्थ धर्म से जुड़ी बातों से हट कर, झूठ या काल्पनिक बातों की तरह से होने लगा है. लोग फेसबुक और टिव्टर जैसे सोशल मीडिया की सहायता से नये मिथक बनाते हैं जो विभिन्न भाषाओं में अनुवादित हो कर एक देश या सभ्यता में सीमित नहीं रहते बल्कि सारी दुनिया में फ़ैलते हैं. इन नये मिथकों को "शहरी मिथक" भी कहते हैं जिनसे लोगों को डराते हैं. "अगर आप के पास इस तरह का ईमेल आये तो उसे नहीं खोलिये" या "अगर आप ने इस ईमेल को कम से कम दस लोगों को नहीं भेजा तो आप का विनष्ट होगा" या "इस ईमेल को दस लोगों को भेजेंगे तो लाटरी जीतेगें" जैसी बातें शहरी मिथक के दायरे में आती हैं. (नीचे की तस्वीर में "12 दिसम्बर को दुनिया का अंत होगा" के विषय पर बनी एक कलाकृति)

2012 Maya calendar myth sculpture by Joe Venturi and Matteo Varsellona

देखा आपने, एक गिलहरी की तस्वीर से शुरु हुआ विचार कहाँ तक पहुँच गया! मेरे विचार में प्राचीन मिथकों में छुपे प्राचीन ज्ञान को केवल अँधविश्वास कह कर भूल जाना या अस्वीकार करना गलती है. बहुत से मिथकों में सामाजिक बुराईयों के अँधविश्वास बने हैं, जो केवल मिथकों के शब्दिक अर्थ से जुड़े विचारों की कट्टरता का नतीजा हैं. पर जैसे वन्दना शिव के दिये उदाहरण से स्पष्ट होता है, इनमें छिपे सभी ज्ञान अवैज्ञानिक नहीं है. चाहे हम मिथकों में छुपे ज्ञान को संजोने की सोचे या उनसे जुड़ी गलत सामाजिक परम्पराओं को बदलने की बदलने की कोशिश करें, उनके महत्व को नहीं नकार सकते. आधुनिक मिथकों को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये, पर अपनी सोच समझ से उनके सच और झूठ को परखना चाहिये.

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मंगलवार, फ़रवरी 12, 2013

मानव और पशु

सुबह बाग में अपने कुत्ते के साथ सैर कर रहा था तो अचानक दूर से कुछ कुत्तों के भौंकने और लोगों के चिल्लाने की आवाज़ सुनायी दी. आगे बढ़ने पर दो आदमी ऊँची आवाज़ में बहस करते दिखे, दोनो के हाथ में उनके कुत्तों की लगाम थी जिसे वह ज़ोर से खींच कर पकड़े थे. दोनो कुत्ते बड़े बुलडाग जैसे थे, और एक दूसरे की ओर खूँखार दाँत निकाल कर गुर्रा रहे थे. हमारा कुत्ता छोटा सा है और बहुत बूढ़ा भी. डर के मारे मैं वापस मुड़ गया, यह सोच कर कि दूसरी ओर सैर करना बेहतर होगा.

मुझे वापस आता देख कर एक सज्जन जिनसे अक्सर बाग में दुआ सलाम होता रहता है और जिनकी छोटी कुत्तिया हमारे कुत्ते से भी छोटी है, मुस्करा कर बोले, "कुत्ते में टेस्टोस्टिरोन का हारमोन होता है, उससे वह अपने आप पर काबू नहीं रख पाते. कुत्तिया देखते हैं तो उस पर तुरंत डोरे डालने की कोशिश करते हैं और दूसरे कुत्तों से लड़ाई करते हैं. अब जब कुत्ता पाला है तो यह तो होगा ही, इसमें लड़ने की क्या बात है? यह तो कुत्तों की प्रकृति है. अगर कुत्तों का आपस में लड़ना पसंद नहीं है तो या तो उनका आपरेशन करके उनके अन्डकोष निकलवा दो, इससे टेस्टोस्टिरोन बनना बन्द हो जायेगा, और वे शाँत हो जायेंगे. कुत्ते का आपरेशन  नहीं कराना तो कुत्ता पालो ही नहीं, कुत्तिया रखो."

मैं उनकी बात पर देर तक सोचता रहा. टेस्टोस्टिरोन हारमोन सभी स्तनधारी जीवों में, विषेशकर हर जीव जाति के नरों में होता है. यह हारमोन माँसपेशियों का विकास करता है, शरीर में बाल उगाता है, आवाज़ को भारी करता है. सम्भोग की इच्छा और सम्भोग क्रिया में नर भाग निभाने की क्षमता भी इसी हारमोन से जुड़ी हैं.

यही सोच कर मन में यह बात आयी कि हमारे समाजों में जब किसी युवती को पुरुष मारता है, या उससे ब्लात्कार करता है तो अक्सर लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्यों कि उस लड़की ने उस पुरुष को कुछ ऐसा किया जिससे वह अपने पर काबू नहीं कर पाया. इसके लिए वे दोष देते हैं लड़की को, कि लड़की रात को अकेली बाहर गयी, या उसने पश्चिमी वस्त्र पहने थे या छोटे वस्त्र पहने या वह ज़ोर से हँस रही थी.  यानि उनका सोचना है कि चूँकि नर में टेस्टोस्टिरोन है इसलिए यह उसकी प्रकृति है कि जब मादा उसे आकर्षित करेगी तो वह अपने आप पर काबू नहीं कर पायेगा और उस पर हमला करेगा. इसलिए हमारे समाज लड़कियों को अपने शरीरों को चूनर, घूँघट या बुर्के में ढकने की सलाह देते हैं, कहते है कि बिना पुरुष के अकेली बाहर न जाओ, आदि.

Graphic - man attacking woman


शायद इसी बात को सोच कर बहुत से देशों में युवा लड़कियों के यौन अंगो को काट कर सिल दिया जाता है, या उन्हें शरीर ढकने, घर से बाहर न जाने की सलाह दी जाती है, ताकि उनके मन में यौन भावनाएँ न उभरें. शायद इसी वजह से हमारे समाजों ने रीति रिवाज़ बनाये जैसे कि विधवा युवती का सर मूँड दो, उसे सफ़ेद वस्त्र पहनाओ, उसे खाने में तीखे स्वाद वाली कोई चीज़ न दो, जिससे उसे न लगे कि वह जीवित है और उसकी भी कोई शारीरिक इच्छा हो सकती है. इस सब से युवती का आकर्षण कम होगा और अपने पर काबू न रख पाने वाले पुरुष उस पर हमला नहीं करेंगे.

यानि हमारे समाजों ने पुरुषों को पशु समान माना और यह माना कि उनमें किसी युवती को देख कर अपने आप को रोक पाने की क्षमता नहीं हो सकती. इस तरह से हमारे समाजों ने एक ओर "पुरुष अपनी प्रकृति पर काबू नहीं कर सकते" वाले नियम बनाये, जिससे स्वीकारा जाता है कि पुरुष शादी से पहले या विवाह के बाहर भी शारीरिक सम्बन्ध बना सकता है या कई औरतों से विवाह कर सकता है. दूसरी ओर नियम बनाये कि "नारी का अपनी प्रकृति को काबू में रखना ही नारी धर्म है", जिससे निष्कर्ष निकलता है कि अगर पुरुष कुछ भी करता है तो इसमें गलती हमेशा नारी की ही मानी जायेगी.

यानि यह समाज पुरुष को अन्य पशुओं की तरह देखता है, यह नहीं मानता कि परिवार की शिक्षा, समाज की सभ्यता और अपने दिमाग से पुरुष अपना व्यवहार स्वयं तय करता है.

पर इस तरह की सोच हमारे ही समाजों में क्यों बनी हुई है? जैसे यूरोप, अमरीका, ब्राज़ील आदि में समय के साथ बदल गयी है, वैसे हमारे समाजों में क्यों नहीं बदली? यूरोप, ब्राज़ील में आप समुद्र तट पर जाईये आप छोटी बिकिनी पहने या खुले वक्ष वाली युवतियाँ देख सकते हैं, उन पर वहाँ के पुरुष हमला क्यों नहीं करते? शायद यहाँ के पुरुषों में टेस्टोस्टिरोन की कमी है? लेकिन इन देशों में भारत, पाकिस्तान, अरब देशों आदि से आने वाले प्रवासी पुरुष क्यों नहीं इन युवतियों पर हमले करते, क्या यहाँ के कानून से डरते हैं या शायद यहाँ आने से उनके टेस्टोस्टिरोन भी कम हो जाते हैं?

आप ही बताईये क्या हम पुरुष पशु समान होते हैं क्योंकि हमे अपने पर काबू करना नहीं आता? मेरे विचार में यह सब बकवास है.

कुछ पुरुष मानसिक रोगी हो सकते हैं जिन्हें सही गलत का अंतर न मालूम हो. पर यह सोचना कि सभी पुरुष पशु होते हैं, उन्हें अपने शरीरों पर, अपने कर्मों पर काबू नहीं, यह मैं नहीं मानता. पुरुष किसी भी युवती पर हमला कर सकते हैं, इसलिए युवतियों को शरीर ढकना चाहिये, घर से अकेले नहीं निकलना चाहियें, शर्मा कर, छिप कर रहना चाहिये, मेरे विचार में यह सब गलत है.

जो लोग इसे स्वीकारते हैं, वह मानव सभ्यता को नकारते हैं, इस बात को नकारते हैं कि भगवान ने हमें दिमाग भी दिया है, केवल हारमोन नहीं दिये. मुझे लगता है कि इस तरह की सोच पुरुषों को बचपन से ही यह सिखाती है कि जो मन में आये कर लो, हमें औरतों को दबा कर रखना है. इसके लिए हमारे समाज धर्म, संस्कृति और परम्पराओं का सहारा लेते हैं इस तरह की सोच को ठीक बताने के लिए.

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शनिवार, दिसंबर 08, 2012

वियतनाम में बुद्ध धर्म


गौतम बुद्ध के उपरांत, कुछ सदियों में ही बुद्ध धर्म भारत और नेपाल से निकल कर पूर्वी और पश्चिमी एशिया में फ़ैल गया. वियतनाम में बुद्ध धर्म चीन से तथा सीधा दक्षिण भारत से, प्रथम या द्वितीय ईस्वी में पहुँचा. वियतनामी बुद्ध धर्म पर चीन से ताओ धर्म तथा प्राचीन वियतनामी मिथकों के प्रभाव दिखते हैं. आज करीब 80 प्रतिशत वियतनामी स्वयं को बुद्ध धर्म के अनुयायी मानते हैं.

बुद्ध धर्म के वियतनाम में पहुँचने के करीब पाँच सौ वर्ष बाद, भारत से हिन्दू धर्म का प्रभाव भी वियतनाम पहुँचा जो कि मध्य तथा दक्षिण वियतनाम के चम्पा सम्राज्य में अधिक मुखरित हुआ. वियतनाम में चम्पा साम्राज्य की राजधानी अमरावती, तथा अन्य प्रमुख शहर जैसे विजय, वीरपुर, पाँडूरंगा आदि में बहुत से हिन्दू मन्दिर बने जिनके भग्नावषेश आज भी वियतनाम के मध्य भाग में देखे जा सकते हैं. इस तरह से वियतनामी बुद्ध धर्म में हिन्दू धर्म का प्रभाव भी आत्मसात हो गया.

वियतनाम की आधुनिक राजधानी हानोई के उत्तर में बाक निन्ह जिले में स्थित निन्ह फुक पागोडा को वियतनाम का प्रथम बुद्ध संघ तथा मन्दिर का स्थान माना जाता है. कहते हैं कि प्राचीन समय में यहाँ पर भारत से आये बहुत से बुद्ध भिक्षुक रहते थे. इस पागोडा को लुए लाउ (Luy Lâu) पागोडा के नाम से भी जाना जाता है. पहाड़ों के पास, डुओन्ग नदी के किनारे बना यह पागोडा, प्राचीन दीवारों में बन्द लुए लाउ शहर से जुड़ा है, और बहुत सुन्दर है. पागोडा के प्रँगण में 1647 ईस्वी की बाओ निह्म मीनार बनी है जिसमें पागोडा के प्रथाम बुद्ध महाध्यक्ष के अवषेश सुरक्षित रखे हैं.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वियतनाम में कम्युनिस्ट शासन स्थापत हुआ जिसने धर्म को सार्वजनिक जीवन से निकालना चाहा और बौद्ध धार्मिक स्थान भी बन्द कर दिये, भिक्षुकों को जेल में डाला गया. 1986 के बाद धीरे धीरे शासन ने रूप बदला और धार्मिक संस्थानो को फ़िर से चलने की अनुमति मिली.

आज वियतनाम में प्राचीन बुद्ध मन्दिरों को सरकारी सहयोग मिलता है और पर्यटक उन्हें देखने जाते हैं. लेकिन बुद्ध धर्म की प्रार्थनाएँ अभी भी चीनी भाषा में हैं जिसे आम वियतनामी नहीं समझ पाते. इन प्रार्थनाओं में अमिताभ सूत्र तथा पद्म सूत्र सबसे अधिक प्रचलित हैं. इसी तरह बुद्ध मन्दिरों में प्रार्थनाओं को ध्वज पर लिखवा कर घर में रखने का प्रचलन है, पर यह प्रार्थनाएँ भी चीनी भाषा में ही लिखी जाती हैं.

बुद्ध मन्दिरों में विभिन्न बौद्धिसत्वों जैसे कि अमिताभ की मूर्तियाँ मिलती हैं.

साथ ही बुद्ध मन्दिरों में प्राचीन पूर्वज पूजा भी प्रचलित है जिसमें अगरबत्तियों के साथ साथ, लोग कागज़ की मानव मूर्तियों या नकली नोटों को भी जलाते हैं.

पूर्वज पूजा से ही जुड़ी है गुरु पूजा की परम्परा. हानोई में राजपरिवार के प्राचीन गुरुओं का "साहित्य मन्दिर" बना है, जहाँ विद्यार्थी इम्तहान में पास होने की प्रार्थना करने जाते हैं.

वियतनामी मन्दिरों में फोनिक्स के काल्पनिक जीव जो विभिन्न पशु पक्षियों के सम्मिश्रिण से बना है अक्सर दिखता है.

जापानी प्रभाव से विकसित हुए ज़ेन बुद्ध धर्म या थियन बुद्ध धर्म के भिक्षुक, लेखक तथा विचारक थिच नाह्ट (Thích Nhất Hạnh) अपने ध्यान योग और बुद्ध साधना की किताबों और प्रवचनों के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं.

बुद्ध धर्म से जुड़ी मेरी एक वियतनाम यात्रा की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

(1) चीनी भाषा में लिखा प्रार्थना ध्वज

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(2) हानोई में बना गुरु पूजा का साहित्य मन्दिर

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(3) वियतनाम में मध्य भाग से कुछ बुद्ध मन्दिर

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(4) मन्दिर में चढ़ाने के लिए कागज़ के मानव व पशु जलाने की रीति

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(5) प्राचीन निन फुक पागोडा

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

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बुधवार, नवंबर 21, 2012

फ़िर ले आया दिल .. यमुना किनारे

उम्र के बीतने के साथ पुरानी भूली भटकी जगहों को देखने की चाह होने लगती है, विषेशकर उन जगहों की जहाँ पर बचपन की यादें जुड़ी हों. ऐसी ही एक जगह की याद मन में थी, दिल्ली में यमुना किनारे की.

बात थी 1960 के आसपास की. मेरी बड़ी बुआ डा. सावित्री सिन्हा तब दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कोलिज में हिन्दी पढ़ाती थीं. उनका घर था इन्द्रप्रस्थ कोलिज के साथ से जाती छोटी सी सड़क पर जिसे तब मेटकाफ मार्ग कहते थे, जो अँग्रेज़ो के ज़माने के मेटकाफ साहब के घर की ओर जाती थी जिन्होंने महरौली के पास के प्राचीन भग्नावशेषों को खोजा था और जहाँ आज भी उनके नाम की एक छतरी बनी है.

यमुना वहाँ से दूर नहीं थी, पाँच मिनट में पहुँच जाते थे. तब वहाँ घर नहीं थे, बस रेत ही रेत और कोई अकेला मन्दिर होता था. तभी वहाँ नया नया बौद्ध विहार बना था. वहीं रेत पर दिन में खेलने जाते थे या कभी शाम को परिवार वालों के साथ सैर होती थी.

बीस साल बाद, 1978 के आसपास जब सफ़दरजंग अस्पाल में हाउज़ सर्जन का काम करता था तो अपने मित्रों के साथ बौद्ध विहार के करीब बने तिब्बती ढाबों में खाना खाने जाया करते थे.

इस बार मन में आया कि उन जगहों को देखने जाऊँ. मैट्रो ली और आई.एस.बी.टी. के स्टाप पर उतरा. पीछे से बस अड्डे के साथ से हो कर, सड़क पार करके, यमुना तट पर पहुँचने में देर नहीं लगी. चारों ओर नयी उपर नीचे जाती साँपों सी घुमावदार सड़कें बन गयी थीं.

नदी के किनारे गाँवों और छोटे शहरों से आये गरीबों की भीड़ लगी थी, बहुत से लोग सड़क के किनारे सोये हुए थे, कुछ यूँ ही बैठे ताक रहे थे. उदासी और आशाहीनता से भरी जगह लगी, पर साथ ही यह भी लगा कि चलो बेचारे गरीबों को आराम करने के लिए खुली जगह तो मिली. वहाँ कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाने वाले रैनबसेरे भी हैं जहाँ अधिक ठँड पड़ने पर रात को सोने के लिए कम्बल और जगह मिल जाती है, और दिन में खाने को भी मिल जाता है.

बैठे लोगों को पार करके नदी तक पहुँचा तो गन्दे बदबूदार पानी को देख कर मन विचट गया.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

एक ओर निगम बोध पर जलते मृत शरीरों का धूँआ उठ रहा था. जगह जगह प्लास्टिक के लिफ़ाफे और खाली बोतलें पड़ी थीं.

Pollution Yamuna river, Delhi

दूसरी ओर छठ पूजा की तैयारी हो रही थी. नदी के किनारे देवी देवताओं की मूर्तियाँ रंग बिरंगे वस्त्र पहने खड़ी थीं. पानी में गहरे पानी में जाने से रोकने के लिए लाल ध्वजों वाले बाँस के खम्बे लगाये जा रहे थे. कुछ लोग नदी के गन्दे पानी में नहा रहे थे.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

जिसे यमुना माँ कहते हैं, उसके साथ इस तरह का व्यवहार हो रहा है, उसमें लोग गन्दगी, कचरा, रसायन, आदि फैंक कर प्रदूषण कर रहे हैं. इसे धर्म को मानने वाले कैसे स्वीकार कर रहे हैं? यह बात बहुत सोच कर भी समझ नहीं पाया.

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पुराणों में यमुना नदी के जन्म की कहानी बहुत सुन्दर है. यमुना के पिता हैं सूर्य और माता हैं संज्ञा, भाई हैं यम. इस कहानी के अनुसार सूर्य देव के तेज प्रकाश तथा उष्मा से घबरा कर संज्ञा अपने पिता के घर भाग गयीं. उन्हें वापस लाने के लिए सूर्य के अपने प्रकाश के कुछ हिस्से निकाल कर बाँट दिये. सूर्य से ग्रहों के उत्पन्न होने की यह कथा, और संज्ञा तथा सूर्य की उर्जा से जल यानि जीवन तथा मृत्यू का जन्म होना, यह बातें आज की वैज्ञानिक समझ से भी सही लगती हैं.

पुराणों की अनुसार, गँगा की तरह यमुना भी देवलोक में बहने वाली नदी थी जिसे सप्तऋषि अपनी तपस्या से धरती पर लाये. देवलोक से यमुना कालिन्द पर्वत पर गिरी जिससे उसे कालिन्दी के नाम से भी पुकारते हैं और पर्वतों में नदी के पहले कुँड को सप्तऋषि कुँड कहते हैं. इस कुँड का जल यमुनोत्री जाता है जहाँ वह सूर्य कुँड के गर्म जल से मिलता है.

भारत की धार्मिक पुस्तकों में और सामान्य जन की मनोभावनाओं में पर्वत, नदियों और वृक्षों को पवित्र माना गया है. नदी में स्नान करने को स्वच्छ होने, पवित्र होने और पापों से मुक्ति पाने की राहें बताया गया हैं. इसलिए नदियों के प्रदूषण के विरोध में साधू संतो ने भी आवाज उठायी है. लेकिन राजनीतिक दलों से और आम जनता में इन लड़ाईयों को उतना सहयोग नहीं मिला है.

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यमुना के किनारे जहाँ बौद्ध विहार होता था वह सारा हिस्सा पक्के भवनों से भर गया है. जहाँ ढाबे होते थे वहाँ भी पक्के रेस्त्राँ बन गये हैं. जहाँ कुछ तिब्बती लोग बैठ कर ऊनी वस्त्र बेचते थे, उस जगह पर भीड़ भाड़ वाली मार्किट बन गयी है.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

मन में लगा कि बेकार ही इस तरफ़ घूमने आया. जितनी मन में सुन्दर यादें थीं, उनकी जगह अब यह सिसकती तड़पती हुई नदी और सूनी आँखों वाले गरीबों के चेहरे याद आयेंगे.

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बुधवार, अगस्त 29, 2012

ब्राज़ील यात्रा डायरी - खोयी सभ्यता की तलाश (1)


23 अगस्त 2012, गोईयास वेल्यो

दो कक्षाओं के बच्चे अपनी अध्यापिकाओं के साथ आये थे. पहाड़ की ढलान पर ऊपर नीचे जाती सीढ़ियाँ, नीचे चमकता नदी का पानी, अमेरिंडयन जनजाति के गाँव की झोपड़ियाँ, बच्चे यह सब कुछ मंत्रमुग्ध हो कर देख रहे थे.

एक ओर हारोल्दो और गुस्तावियो स्वागत के ढोल बजा रहे थे. दूसरी ओर एक चबूतरे पर रेजीना और शर्ली हाथ में कटोरियाँ ले कर खड़ी थीं जिनमें एक पौधे के बीजों से बनाया गहरा कत्थई रँग था जिससे वे हर बच्चे के गालों पर स्वागत चिन्ह बना रही थीं.

Vila Esperança, Indigenous culture festival, Brazil

दो अध्यापिकाएँ भी उत्साहित सी हो कर बच्चों के साथ अपने गालों पर स्वागत चिन्ह लगवाने लगीं, जबकि दो अन्य अध्यापिकाएँ दूर से ही खड़ी देख रही थीं. उनके चेहरे के भाव से स्पष्ट था कि उन्हें यह सब अच्छा नहीं लग रहा था.

चेहरे पर स्वागत चिन्ह बनवाने के बाद बच्चे एक चकौराकार भवन में गये  जिसकी छत बीच में से खुली थी और जिसके बीच में लकड़ी का खम्बा लगा था. भवन की दीवारों पर अमेरिंडियन मुखौटे लगे थे. एक ओर रोबसन और लुसिया जनजातियों के गीत गा रहे थे. गीतों के बाद रोबसन ने धरती, अम्बर, पवन और अग्नी की पूजा की और फ़िर बच्चों को एक अमेरिंडियन लोककथा सुनायी.

फ़िर बारी आयी नत्यों की. जनजातियों के विभिन्न नृत्य थे, जिन्हें रोबसन पहले सिखाता फ़िर सब बच्चे मिल कर करते. बच्चों ने खूब मस्ती की.

Vila Esperança, Indigenous culture festival, Brazil

नृत्य के बाद बच्चों को छोटे छोटे गुटों में बाँट दिया गया. कोई जनजातियों की कला सीखने गया, कोई जनजातियों में आभूषण कैसे बनाते हैं यह सीखने. कोई मूर्तियों को बनाने की कला सीख रहा था, तो कोई सूखी घास से वस्त्र कैसे बनायें यह सीख रहा था. एक घँटे तक बच्चे इस तरह अलग अलग गुटों में कुछ न कुछ सीखते रहे.

इसके बाद सब बच्चे वापस चकौराकार भवन में एकत्रित हुए, जहाँ रोबसन ने पहले प्रकृति को प्रसाद चढ़ाया फ़िर सब बच्चों को खाने को मिला. प्रसाद के खाने में उबला हुआ भुट्टा, केला, तरबूज आदि थे और पीने के लिए अनानास का रस था. इसके साथ ही "जनजाति सभ्यता" का कार्यक्रम समाप्त हुआ.

***

दोपहर को मैं रोबसन के साथ बैठा बात कर रहा था. रोबसन ने "विल्ला स्पेरान्सा" (Vila Esperança) यानि "आशा घर" नाम की संस्था बनायी है, जहाँ हर सप्ताह इस तरह के कार्यक्रम होते हैं जिनमें जनजातियों या अफ्रीकी सभ्यताओं के गीतों, कहानियों, नृत्यों, कलाओं, आदि के बारे में बच्चों को सिखाया जाता है.

रोबसन बोला, "मैं देखने में युरोपीय लगता हूँ लेकिन मेरे परिवार में अफ्रीकी और यहाँ के मूल निवासियों की जनजातियों का खून भी है. यूरोप से आये लोगों के खून से घुलने मिलने से हमारे परिवार जैसे बहुत परिवार हैं ब्राज़ील में, जिनमें कुछ लोग यूरोप के लगते हैं, कुछ अफ्रीका के और कुछ जनजातियों के. लेकिन हमारे देश में यूरोपीय सभ्यता को उच्च समझा जाता है, और जनजाति तथा अफ्रीकी सभ्यताओं को निम्न. हर कोई अपने आप को यूरोपीय दिखाना चाहता है. जिसका चेहरा यूरोपीय लोगों की तरह गोरा है वह अपने परिवार के अफ्रीकी और जनजाति वाले हिस्से को छुपाने की कोशिश करते हैं. जिनके चेहरे और रंग में अफ्रीकी या जनजाति का प्रभाव स्पष्ट होगा तो वह इस भेदभाव को छोटी उम्र से ही महसूस करते हैं. यह नीचा होने की भावना, हीन भावना बचपन से ही मन में घर कर लेती है, इसे निकालना बहुत कठिन है. हमें बचपन से ही शिक्षा मिलती है कि अपनी अफ्रीकी और जनजाति मूल सभ्यता को भूल जाओ, बस यूरोपी सभ्यता को मान्यता दो."

Vila Esperança, Indigenous culture festival, United colours of Brazil

इसी भावना के विरुद्ध काम करने की सोची रोबसन ने और "आशा घर" को 1989 में संस्थापित किया. वह बोला, "वैसे तो बहुत सी किताबों में, बातों में कहते हैं कि रंग और सभ्यता का भेदभाव करना गलत बात है, लेकिन वे केवल बातें हैं. हमारे घरों परिवारों में, हमारे आम जीवन में, टीवी पर दिखाये जाने वाले कार्यक्रमों में, विज्ञापनों में, हमारा समाज कुछ और संदेश देता है, जो कहता है कि काला रंग या अफ्रीकी चेहरा या जनजाति के नाकनक्श का अर्थ हीनता, नीचापन है."

हाँ, हमारे भारत में भी बिल्कुल यही बात है, मैंने रोबसन को बताया. भारत में अगर आप का काला रंग हो या जाति की वजह से, हमारे समाज में हर ओर से छोटी उम्र से ही यही संदेश मिलता है कि तुम नीचे हो, तुममे कमी है. उस पर भारत में भाषा से जुड़ी हीन भावना भी है, अगर अंग्रेज़ी न बोलनी आये तो तुममे कुछ भी करने की शक्ति नहीं है यह कहते हैं. नर्सरी स्कूल से ही बच्चों को अंग्रेज़ी की कवितायें याद करायी जाती हैं.

रोबसन बोला, "हमारी मूल भाषाएँ तो अब लुप्त ही हो गयी हैं, सभी केवल पोर्तगीज़ भाषा बोलते हैं, जिन्होंने हमारे देश पर राज किया. कुछ जनजाति की प्राचीन भाषाओं के शब्द उनके धार्मिक रीति रिवाज़ों के साथ जुड़ी प्रार्थनाओं में बचे हुए हैं लेकिन आज उन शब्दों के अर्थ कोई नहीं जानता. इसलिए मेरे लिए 'आशा घर'  का यह कार्यक्रम बहुत महत्वपूर्ण है कि केवल बात न की जाये, बल्कि बच्चे यहाँ आ कर अपनी अफ्रीकी और जनजाति की सभ्यताओं को स्वीकार करें. यह समझें कि यह गीत, कहानियाँ, मिथक, नृत्य आदि हीन नहीं हैं, इनकी अपनी गरिमा है. कोई ऊँचा नीचा नहीं, बल्कि हमें अपने अंदर दौड़ रहे अफ्रीकी और जनजातियों के खून पर गर्व होना चाहिये."

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रोबसन से बात करने के कुछ देर बाद मेरी बात रेजीमार से हुई जो कि 'आशा घर' द्वारा चलाये जाने वाले प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक है. रेजीमार अफ्रीकी मूल का है. उसने कहा, "अन्य जगह बात बराबरी की होती है, कि हम सब एक बराबर हैं, कोई ऊँचा नीचा नहीं, लेकिन वह सिर्फ़ कहने की बाते हैं. यहाँ 'आशा घर' में इन विचारों को कहने की नहीं, जीने की कोशिश है. इस तरह जियो कि हर इन्सान की गरिमा को महत्व दो. यह नहीं कहता कि समाज में हर कोई भेदभाव करता है लेकिन अगर अन्य लोग भेदभाव न भी करें, तो हमारे अपने मन में हीन भावना इतनी गहरी होती है कि हम स्वयं भीतर से अपने आप को अन्य लोगों के बराबर नहीं मानते. इसलिए बच्चों के साथ काम करना बहुत महत्वपूर्ण है, जिससे उनके अन्दर वह हीन भावना न पनपे."

"लेकिन अगर स्कूल में बराबरी का महत्व समझ में आ भी जाये तो स्कूल के बाहर का असर उससे रुक सकेगा? बच्चे स्कूल से बाहर जायेंगे तो खेल के मैदान में, घर में, वहीं भेदभाव वाला समाज नहीं मिलेगा उन्हें?" मैंने पूछा.

"हमारा स्कूल अन्य स्कूलों से भिन्न है, हमारे यहाँ बच्चे शिक्षा का केन्द्र हैं न कि शिक्षक या फ़िर किताबें. हम कोशिश करते हैं कि बच्चों में प्रश्न पूछने, अपने उत्तर स्वयं खोजने की क्षमता दें. बच्चा कुछ भी पूछ सकता है, कुछ भी कह सकता है. हमारे बच्चे एक बार दुनिया को अपनी तरह से समझने का तरीका सीख लेते हैं तो घर परिवार, समाज हर जगह इसका असर पड़ता है. पंद्रह साल हो गये मुझे यहाँ पढ़ाते, इन सालों में इतनी बार औरों से अपनी आलोचना सुनी है कि 'आप के स्कूल के बच्चे प्रश्न बहुत पूछते हैं, टीचर कुछ भी कहे उसे यूँ ही नहीं मान लेते' तो मुझे बहुत गर्व होता है. मैं सोचता हूँ कि हमारे बच्चे बाहर के हर भेदभाव से लड़ सकते हैं, इतना आत्मविश्वास बन जाता है उनका."

24 अगस्त, 2012, गोईयास वेल्यो

सुबह उठा तो बाहर सैर करने की सोची. हमारे होटल के बिल्कुल साथ में नदी बहती है, रियो वेरमेल्यो (Rio Vermelho), यानि "सिँदूरी नदी". सैर करते हुए उसी नदी के किनारे पहुँच गया. नदी के ऊपर एक पुराना कुछ टूटा हुआ सा पुल था, जिसके पीछे एक झरना भी दिख रहा था. बहुत सुन्दर जगह थी. आसपास कोई था भी नहीं, बस एक बूढ़े से खानाबदोश किस्म के व्यक्ति दिखे जो अपने दो कुत्तों के साथ घूम रहे थे. उन्होंने मेरी ओर देखा तक नहीं, अपने में ही मग्न थे. आधे घँटे तक वहीं झरने के पास बैठा रहा, कुछ तस्वीरें खींचीं. रात को नींद ठीक नहीं आयी थी, लेकिन उस आधे घँटे में सारी थकान दूर हो गयी.

Rio Vermelho, Goias Velho, Brazil

वापस होटल पहुँचा तो जी भर के नाश्ता खाया. नाश्ते में इमली का खट्टा सा रस भी था जो मुझे बहुत अच्छा लगा. इतनी अलग अलग तरह के फ़ल मिलते हैं यहाँ, जो दुनियाँ में अन्य कहीं नहीं देखे जैसे माराकुजा और कुपुआसू. और उनका स्वाद भी बहुत बढ़िया है. नाश्ते में इतना खाया कि बाद में अपने पर खीज आ रहा थी. अपने को रोकने की और संयम की शक्ति मेरी बहुत कम है.

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"आशा घर" में पढ़ने वाले एक बच्चे के पिता से बात हुई तो उसने एक अन्य बात बतायी. बोला, "इस स्कूल के बारे में शहर में बहुत से गलत बातें कही जाती हैं कि यहाँ धर्म बदल देते हैं. इसलिए यहाँ बहुत से लोग अपने बच्चे को नहीं भेजना चाहते. मैं इस बात को नहीं मानता. मेरे बच्चों ने कोई धर्म नहीं बदला, बल्कि यहाँ की शिक्षा ने उन्हें सोचने समझने की ताकत दी है. मेरा बड़ा बेटा अब विश्वविद्यालय में पढ़ता है, वह यहीं से पढ़ा है. वह कहता है कि इस स्कूल में पढ़े दिन उसके जीवन के सबसे सुन्दर दिन थे और उसने जो यहाँ सीखा है उससे उसका दिमाग और चरित्र दोनो बने हैं."

बाद में मैंने यह बात रोबसन से पूछी कि अन्य धर्म वाले तुमसे नाराज़ क्यों हैं? वह बोला, "मैं कन्दोमब्ले धर्म में विश्वास करता हूँ जो कि अफ्रीकी मूल के आये लोगों के मूल धर्म से प्रेरित है. अफ्रीकी गुलामों को यहाँ ला कर उन्हें ईसाई बनाया गया, लेकिन उन्होंने अपने मूल धर्म को छुपा कर बचाये रखा. आज का कन्दोमब्ले उनके पुराने अफ्रीकी धर्म से साथ ईसाई धर्म और यहाँ रहने वाले मूल जनजाति के निवासियों के धर्म के सम्मिश्रण से बना है. हमारे धर्म के अनुसार पृथ्वी की हर वस्तु, पेड़ पौधे, पहाड़ पत्थर, मानव और पशु पक्षी, सबमें एक ही परमात्मा है. 'आशा घर' की बहुत से कार्यक्रम मेरे धर्म के विश्वास से प्रभावित हैं लेकिन हमारे यहाँ कैथोलिक, एवान्जेलिक सब धर्मों के लोग काम करते हैं, सब धर्मों के बच्चे पढ़ते हैं, मैंने कभी किसी का धर्म बदलने की कोशिश नहीं की. मैं उनके धर्म का मान करता हूँ क्योंकि अगर सोचोगे कि हर वस्तु में वही परमात्मा है तो कोई तुमसे भिन्न नहीं, तो मैं उनके विरुद्ध कैसे कुछ कह या कर सकता हूँ? लेकिन यहाँ के कैथोलिक और एवान्जेलिक लोग हमारे विरुद्ध प्रचार करते हैं कि हम बच्चों का धर्म बदलना चाहते हैं."

मैं सोच रहा था कि दुनिया के दो कोनों पर हैं भारत और ब्राज़ील, लेकिन फ़िर भी कितनी बातों में हमारी समस्याएँ एक जैसी हैं! रोबसन ने कहा कि उन पर यह भी आरोप लगाया जाता है कि वह बच्चों से ईसाई धर्म की आलोचना की बातें करते हैं.

मेरे विचार में यह सोचना कि कोई अन्य तुम्हारे भगवान की या पैगम्बर की आलोचना या बुराई कर सकता है, यह बात असम्भव है. क्योंकि भगवान या पैगम्बर इतने कमज़ोर नहीं हो सकते कि किसी के कुछ कहने, लिखने या चित्र बनाने से उनकी बेइज़्ज़ती हो जाये. यह तो मानव के अपने मन की असुरक्षा की भावना है जो यह सोच सकती है. दूसरी ओर बात है धर्म के नाम पर लोगों को उल्लू बनाना या उनको दबाना और उनके मानव अधिकार और गरिमा का शोषण करना. धर्म के नाम पर जो लोग इस तरह की बात करते हैं उसकी आलोचना करना तो मेरे विचार में भगवान की पूजा के बराबर होगी.

पर यह सच है कि दुनिया के बहुत से देशों में बहुसंख्यकों के धर्म की रक्षा के नाम पर दूसरे अल्पसंख्यक धर्मों के लोगों के साथ अन्याय होता है, उन्हें दबाया जाता है. बहुत से देशों ने तो कानून भी बनाये हैं जहाँ धर्म की बेइज़्ज़ती के नाम पर लोगों को कारावास या मृत्यू दँड तक दे देते हैं.

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इस बार पोर्तगीज़ बोलने में मुझे अधिक कठिनाई हो रही है!

आखिरी बार पोर्तगीज़ यहीं ब्राज़ील में ही बोली थी, करीब चौदह महीने पहले. उसके बाद किसी पोर्तगीज़ भाषा के देश में जाने का मौका नहीं मिला. शायद इस लिए भाषा को कुछ जंग सा लग गया. या फ़िर उम्र का असर है.

एक अन्य कारण भी हो सकता है इसका, मेरा ईबुक रीडर! पहले कोई भी यात्रा हो साथ में एक किताब तो अवश्य होती थी, लेकिन नये देश में जा कर, वहाँ के समाचार पत्र पढ़ना, टीवी देखना, लोगों से बातें करना, इस सबसे भाषा का अभ्यास तुरंत शुरु हो जाता था. इस बार ईबुक रीडर है जिसमें 153 किताबें हैं, बस हर समय उसी में मग्न रहता हूँ. शायद इसी लिए इस बार पोर्तगीज़ भाषा को ठीक से  बोलने में इतनी कठिनायी हो रही है.

26 अगस्त 2012, गोईयानिया

कल शाम को गोईयास वेल्यो से वापस आये. आज रविवार को मैं खाली था. सुबह सुबह शहर का नक्शा ले कर निकल पड़ा कि धूप तेज़ होने से पहले शहर में कुछ नया देखा जाये.

रास्ते में एक बाग में छोटा उल्लू का बच्चा दिखा जो तेज़ स्वर में पुकार रहा था. शायद उसके माता पिता उसके खाने की खोज में ही गये थे. मैं तस्वीर खींचने के लिए करीब गया तो एक पत्थर के नीचे खुदे खड्डे में दुबक गया.

Baby owl, Goiania, Brazil

आजकल ब्राज़ील के राष्ट्रीय फ़ूल इपे के खिलने का मौसम है. इपे के अधिकतर पेड़ों में पत्ते नहीं हैं बस फ़ूलों से भरे हैं. बागों में गुलाबी, जामुनी, पीले, नीले, विभिन्न रंगों के इपे दिखते हैं.

Ipé tree, Goiania, Brazil

घूमते घूमते विश्वविद्यालय वाले इलाके में पहुँच गया, जहाँ एक बाग में ब्राज़ीली शिल्पकारों की बनायी बहुत सी मूर्तियाँ लगीं थीं. मिट्टी की बनी एक कलाकृति मुझसे सबसे अच्छी लगी, पर शायद विश्वविद्यालय के छात्रों को एक हाथ की कलाकृति सबसे अधिक पसंद थी जिसके ऊपर उन्होंने अपने संदेश लिख दिये थे. उस हाथ की कलाकृति के अतिरिक्त किसी अन्य कलाकृति को लिख कर नहीं बिगाड़ा गया था.
Terracotta Sculptures University square, Goiania, Brazil

Hand Sculpture university square, Goiania, Brazil

तीन घँटे तक चला, जब वापस होटल पहुँचा तो टाँगें थकान से चूर हो रही थीं. फ़िर भी खाना खा कर होटल के करीब एक बाग में लगे चित्रकला बाज़ार में गया, क्योंकि वहाँ अपने एक पुराने मित्र तादेओ से मिलना चाहता था. तादेओ भी चित्रकार है और कुछ वर्ष पहले खरीदी उसकी एक कलाकृति बोलोनिया में हमारे घर में भी लगी है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है. तादेओ को बचपन में कुष्ठ रोग हुआ था, जिसकी वजह से उन्हें उनके परिवार से हटा कर कुष्ठ रोगियों की कोलोनी में रहना पड़ा, परिवार भाई बहनों से उनके सब नाते टूट गये. आज वह बात नहीं है क्योंकि अब कुष्ठ रोग का उपचार आसान है इसलिए किसी को उसके परिवार से निकाल कर कोलोनी में बन्द करने वाली बातें अब नहीं होतीं. सोचा था कि तादेओ की एक अन्य पैंटिंग खरीदूँगा, लेकिन बाज़ार में तादेओ नहीं दिखा. अन्य चित्रकारों से पूछा तो उसके एक मित्र ने बताया कि उसकी तबियत ठीक नहीं थी.

Ashwarya Rai in art market, Goiania, Brazil

चित्रकला बाज़ार में भारत की एश्वर्या राय भी दिखीं. एक कलाकार ने उनकी बड़ी तस्वीर पर चमकते सितारे और मोती टाँक कर तस्वीर बनायी थी जिसे लोग दिलचस्पी से देख रहे थे और किसकी तस्वीर है यह पूछ रहे थे.

अब नींद आ रही है, जल्दी सोना चाहिये क्योंकि कल सुबह सुबह बेलेन जाने की उड़ान लेनी है.

27 अगस्त 2012, बेलेम

आज दोपहर को बेलेम पहुँचे. होटल बस अड्डे के सामने है. मैं सामान आदि रख कर घूमने निकला, सोचा था कि यहाँ के एक संग्रहालय और बाग में घूमूँगा लेकिन सोमवार होने की वजह से दोनो ही बन्द थे. शाम को खाना खाने हम लोग पुरानी बँदरगाह की ओर गये जहाँ पुराने गौदामों में नये रेस्टोरेंट, दुकाने आदि खोली गयी हैं. वहीं एक "किलो रेस्टोरेंट" में खाना खाया. किलो रेस्टोरेंट में आप अपनी प्लेट में कुछ भी खाना ले लेजिये, बाद में उसके वजन के हिसाब से उसकी कीमत चुकाईये. इस तरह अगर आप चाहे तो केवल चावल सब्जी खाईये नहीं तो केवल माँस मछली, उससे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता, बस वजन के हिसाब से कीमत लगेगी. शहर के अधिकतर किलो रेस्टोरेटों में 20 या 22 रियाइस यानि 500 या 550 रुपये प्रति किलो की कीमत होती है लेकिन बँदरगाह के नये शापिंग सेंटर की कीमत दुगनी थी, फ़िर भी खाना अच्छा था.

मैंने खाने के साथ खूब आम भी खाये. इस साल बोलोनिया में कई बार आम खोजने गया था पर नहीं मिले थे, केवल चटनी वाले कच्चे आम मिलते थे. वहीं छत पर लटकते चबूतरे पर बैठ कर एक युवक गिटार बजा रहा था और साथ गीत गा रहा था, वही चबूतरा भवन में इधर उधर घूम रहा था.

खाना खा कर यहाँ कि पुराने पुर्तगाली किले और उसके सामने बने कैथेड्रल को देखने गये. सफ़ेद रंग का कैथेड्रल, सफेद और लाल रोशनियों से सजा, रात के अँधेरे में बहुत सुन्दर लग रहा था.

Cathedral, Belem, Brazil

मेरे साथ यहाँ आयी ब्राज़ीली साथी दियोलिँदा यहीं नदी के बीच में एक द्वीप में पैदा हुई थी. वह अपने बचपन की साठ साल पहले की बातें बता रही थी कि कैसे यहाँ सड़क नहीं थी और वह अपनी माँ के साथ बाग में लगने वाले हाट में खाने का सामान बेचने आती थी. उसकी माँ अफ्रीकी मूल की थीं और पिता एक फ्राँसिसी और अमेज़न जनजाति के सम्मिश्रित. उसके परिवार में गोरे, काले, हर रँग और नस्ल के दिखने वाले लोग हैं. उसके अपने बच्चों में भी अफ्रीकी रँग और चेहरे वाले भी हैं और सुनहरे बालों वाले यूरोपीय दिखने वाले भी.

गोयानिया में आकाश इतना नीला दिखता था मानो शेम्पू से धोया हो. यहाँ का आसमान उसके मुकाबले में कुछ मटमैला सा है.

Bosque do Buritis lake, Goiania, Brazil

कल सुबह अबायतेटूबा यानि "भीमकाय लोगों का गाँव" जाना है जो कि अमेज़न जँगल के बीच में बसा है. राज्य स्वास्थ्य विभाग की गाड़ी आयेगी हमें लेने, और आधा रास्ता नाव में नदी पार करने का होगा. वहाँ पिछले वर्ष भी गया था. लोग सागर जैसे नदी के बीच में अलग अलग द्वीपों में रहते हैं.

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(अंत भाग 01)

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