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शनिवार, मई 18, 2013

सपनों की दुनिया


"मिलान में इतालवी वोग (Vogue) पत्रिका की नयी फोटो-प्रदर्शनी लगाने की तैयारी हो रही है" के समाचार के साथ अंग्रेज़ी फोटोग्राफर किर्स्टी मिशेल (Kirsty Mitchell) की एक तस्वीर देखी तो देखता रह गया.

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

आजकल क्मप्यूटर की मदद से तस्वीरें बना कर कलाकार कई तरह की पूरी काल्पनिक दुनियाँ बना सकते हैं, जिन पर "अवतार" (Avatar) जैसी पूरी फ़िल्में बनती हैं. इन फ़िल्मों को देख कर यह कहना कठिन होता है कि उनमें कितना असली है और कितना क्मप्यूटर पर बना हुआ है.

इसलिए जब किर्स्टी की तस्वीर देखीं तो यही सोचा कि उन्होंने भी इसे क्मप्यूटर की मदद से ही बनाया होगा. जैसे कि पिछले कुछ वर्षों में एच.डी.आर. (HDR) यानि हाई डायनेमिक रेन्ज की फोटो तकनीक आयी है जिसमें कई तस्वीरों को मिला कर उनसे एक तस्वीर बनाते हैं, जिसमें रंग बहुत निखर कर आते हैं. मैंने सोचा कि किर्स्टी की तस्वीरें एच.डी.आर से बनी होंगी. लेकिन जब पढ़ा कि किर्स्टी ने यह तस्वीर क्मप्यूटर पर नहीं बनायी, बल्कि उन्होंने सचमुच के वस्त्र, विग, मेकअप आदि बना कर, सचमुच के फ़ूलों के सामने वह तस्वीर खीँची है, तो बहुत आश्चर्य हुआ और अच्छा भी लगा.

आज आप को फोटोग्राफ़ी का शौक हो तो उसे पूरा करने के बहुत तरीके हैं. डिजिटल फोटोग्राफ़ी के कैमरे सस्ते भी मिलते हैं. फोटोग्राफ़ी कैसे करें, फोटो को कैसे सुधारें, उनकी कमियों को कैसे छुपायें, उनके रंगो को कैसे निखारें - इस सब को समझने के पाठ इंटरनेट पर मुफ्त भरे पड़े हैं, हालाँकि अधिकाँश अंग्रेज़ी में ही है, हिन्दी में इस तरह की अच्छे स्तर की सुविधाएँ न के बराबर हैं. उदाहरण के लिए, दुनिया के जाने माने फोटोग्राफ़र किस तरह की तस्वीरें खींचते हैं इसे देखने के लिए, उनसे प्रेरणा पाने के लिए और फोटोग्राफी के ट्यूटोरियल पढ़ने के लिए, मुझे 121 क्लिकस की वेबसाइट अच्छी लगती है. जबकि फोटो कैसे खींचने चाहिये इस पर मुझे यूट्यूब पर एडोरामा के वीडियो पाठ भी अच्छे लगते हैं (इन्हें सही समझने के लिए पहले सबसे पुराने वाले पाठ शुरु से देखिये), पर इनके जैसी वेबसाइट और वीडियो अन्य भी बहुत हैं, आप खोजेंगे तो बहुत से मिल जायेंगे.

यानि कि तकनीकी दृष्टि से आज हर कोई बढ़िया फोटोग्राफर बनना सीख सकता है. पर हर कोई बढ़िया तकनीक वाला फोटोग्राफर, बढ़िया कलाकार नहीं होता. आप किसकी फोटो खीँचते हैं, किस एँगल से खीँचते हैं, उसमें किसको महत्व देते हैं, आप की तस्वीरों में आप का व्यक्तिगत दृष्टिकोण क्या है, आप का अपना अन्दाज़ क्या है - आप को कलाकार माना जाये यह उन सब बातों पर निर्भर करता है. इस दृष्टि से देखें तो किर्स्टी की तस्वीरें अन्य फोटोग्राफरों से भिन्न, फोटोग्राफी के कलाजगत में अपनी विशिष्ठ जगह बनाती हैं.

किर्स्टी का जन्म 1976 में इँग्लैंड के कैन्ट जिले में हुआ. उन्होंने फोटोग्राफ़ी 2007 में करनी शुरु की. उनकी माँ बच्चों के लिए किताबें लिखती थीं. सन 2008 में माँ की कैन्सर रोग से मृत्यू के बाद, माँ की याद में ही किर्स्टी ने "वन्डरलैंड" (Wonderland) श्रृँखला की तस्वीरें खीँचना शुरु किया, जिसमें वह अपनी माँ कि किताबों के कल्पना जगतों को मूर्त रूप देना चाहती थीं.

सबसे पहले वह हर तस्वीर की मानसिक तस्वीर बनाती हैं, रंगो का चयन करती हैं, अपने हाथों से उसकी पौशाक, विग, और फोटो में प्रयोग की जाने वाली हर वस्तु को बनाती हैं. तस्वीरों को खीँचने के लिए वह सही मौसम की, जैसे कि बर्फ़ हो या किसी विषेश रंग के फ़ूल खिले हों, इसकी प्रतीक्षा करती हैं. जब सब कुछ उन्हें उनकी कल्पना के अनुसार मिल जाता है तो वह तस्वीर खीँचती हैं. इस तरह उनकी हर एक तस्वीर के पीछे, कई महीनो की मेहनत लगती है.

किर्स्टी की तस्वीरों को दुनिया भर में प्रदर्शनियों के आमँत्रण और पुरस्कार मिले हैं. वह पहले फैशन और कोसट्यूम की एक कम्पनी में काम करती थीं, वहाँ से सन 2011 में उन्होंने इस्तीफ़ा दे कर अपना फ्रीलाँस काम खोला है. वह कहती हैं, "चार साल पहले कोई मुझे कहता कि बड़ी प्रदर्शिनों में मेरी तस्वीरें लगेंगी, हार्पर बाज़ार जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं के मुख्यपृष्ठ पर छपेगीं तो कौन विश्वास करता? इतालवी वोग पत्रिका की मिलान में लगने वाली प्रदर्शनी के लिए मुझे कई हज़ार फोटोग्राफरों में से चुना गया है. मुझे यह सब सपना सा लगता है."

आप किर्स्टी के काम के कुछ नमूने देखिये, सचमुच उनका काम प्रशंसनीय है, इसलिए भी क्योंकि यह क्मप्यूटर पर नहीं बना और इसे उन्होंने अपनी मेहनत से बना कर अपनी कल्पना को साकार किया है.

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

आप किर्स्टी मिशेल की और तस्वीरें उनकी वेबसाइट पर देख सकते हैं. क्या मालूम, आप में से किसी पाठक को इससे प्रेरणा मिले, किर्स्टी की नकल करने की नहीं, बल्कि, अपनी कल्पना से अपनी नयी दृष्टि बनाने की और उसे सच में बदलने की, ताकि एक दिन हम आप के काम को भी इसी तरह अचरज से देखें और आप को वाह-वाह कहें.!

बुधवार, अप्रैल 04, 2012

तस्वीरों की दुनिया

पिछले तीन-चार सौ वर्षों को "लिखाई की दुनिया" कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने पढ़ने की क्षमता का आम जनता में प्रसार हुआ. धीरे धीरे इस युग में आम जीवन के बहुत से कामों के लिए लिखना पढ़ना जानना आवश्यक होने लगा. डाक से चिट्ठी भेजनी हो, बस से यात्रा करनी हो, या बैंक में एकाउँट खोलना हो, बिना लिखना पढ़ना जाने, जीवन कठिन हो गया था. बहुत से लोगों का सोचना है कि मानव सोच और उसके साथ जुड़े वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास इसी लिखने पढ़ने की क्षमता की वजह से इस युग में तेज़ी से बढ़े.

लेकिन मानवता का भविष्य कैसा होगा और क्या आने वाले समय में लिखने पढ़ने का वही महत्व रहेगा? इसके बारे में भविष्यदर्शी वैज्ञानिकों की बहस का प्रारम्भ हो चुका है. भविष्य में क्या होगा यह जानने की उत्सुकता हमेशा से ही मानव  प्रवृति का हिस्सा रही है. जो कोई भविष्य को ठीक से पहचानेगा, वह उसकी सही तैयारी भी कर सकेगा और उसे भविष्य में समद्धि तथा ताकत प्राप्त करने का मौका अधिक मिलेगा. कुछ भविष्यदर्शियों का सोचना है कि मानवता का भविष्य लिखने पढ़ने से नहीं, तस्वीरों और वीडियो से जुड़ा होगा.

आदिमानव और लिपि का विकास

मानव जाति का प्रारम्भिक विकास, दृष्टि की शक्ति यानि आँखों से दुनिया देखने की शक्ति से ही हुआ था. प्राचीन मानव के द्वारा बनाये गये सबसे पहले निशान गुफ़ाओं में बने जीव जन्तुओं तथा मानव आकृतियों के चित्र हैं. आदि मानव सामाजिक जन्तु था, गुटों में रहता था और जीव जन्तुओं के शिकार के लिए, भोजन की तलाश के लिए, और खतरों से बचने के लिए, इशारों और ध्वनि का प्रयोग करता था जिनसे मानव भाषा का विकास हुआ. गले के ऊपरी भाग में बने वाक् कक्ष (लेरिन्कस - Larynx) के विकास से हम आदि मानव की भाषा शक्ति के विकास के क्रम को समझ सकते हैं. कुछ लोग कहते हैं कि निआन्डरथाल मानव जो कि दो लाख वर्ष पहले धरती पर आया था बोल सकता था. अन्य लोग कहते हैं कि नहीं, आदि मानव में भाषा की शक्ति करीब तीस से चालिस हज़ार वर्ष पहले ही आयी. (नीचे तस्वीर में आदि मानव की कला, मोज़ाम्बीक से)

Mozambique rock paintings - S. Deepak, 2010

भाषा विकसित होने के कितने समय बाद लिखाई का आविष्कार हुआ, यह ठीक से जानना कठिन है क्योंकि प्राचीन लकड़ी या पत्तों पर लिखे आदि मानव के पहले शब्द समय के साथ नष्ट हो गये, हमारे समय तक नहीं बच सके. मानव की यह पहली लिखाई तस्वीरों से प्रभावित थी, चित्रों से ही शब्दों के रूप बने, जैसा कि पिरामिडों में मिले तीन चार हज़ार वर्ष पुराने ताबूतों तथा कब्रों से दिखता है. पुरातत्व विषेशज्ञों का कहना है कि मानव की पहली लिखाई एतिहासिक युग के प्रारम्भ में प्राचीन बेबीलोन में हुई जहाँ आज ईराक है. इस पहली लिखाई में व्यापारियों की मुहरें थीं जिन पर तिकोनाकार निशान बनाये जाते थे. तीन हज़ार साल पहले की हड़प्पा की मुहरों का भी व्यापार के लिए उपयोग होता था, यह कुछ लोग कहते हैं और इसकी लिखाई में चित्र शब्द जैसे ही थे, जिनको आज तक ठीक से नहीं समझा जा सका है. (नीचे तस्वीर में मिस्र के एक प्राचीन ताबूत पर चित्रों की भाषा)

Egyptian hieroglyphics - S. Deepak, 2010

प्राचीन समय में किताबों को छापने की सुविधा नहीं थी. हर किताब को हाथों से लिखा जाता और फ़िर हाथों से नकल करके जो कुछ प्रतियाँ बनती उनकी कीमत इतनी अधिक होती थी कि सामान्य नागरिक उन्हें नहीं खरीद सकते थे. इसलिए लिखना पढ़ना जानने वाले लोग बहुत कम होते थे. (नीचे तस्वीर में तैहरवीं शताब्दी की हाथ की लिखी किताब)

Medieval manuscript - S. Deepak, 2010

छपाई की क्रांति और साक्षरता

हालाँकि वर्णमाला को जोड़ कर छपाई का काम चीन में पहले प्रारम्भ हुआ लेकिन चीनी भाषा में वर्णमाला से नहीं, चित्रों से बने शब्दों में लिखते हैं, जिससे चीन में इस छपाई का विकास उतना आसान नहीं था. 1450 में यूरोप में वर्णमाला को जोड़ कर किताबों की छपाई का काम शुरु हुआ जिससे यूरोप में किताबों की कीमत कम होने लगी और यूरोप में समृद्ध परिवारों ने अपने बच्चों को लिखना पढ़ाना शुरु कर दिया. कहते हैं कि इसी लिखने पढ़ने से ही यूरोपीय विचार शक्ति बढ़ी. दुनिया कैसे बनी हैं, क्यों बनी है, पेड़ पौधै कैसे होते हैं, मानव शरीर कैसा होता है जैसी बातों पर मनन होने लगा जिससे विभिन्न विषयों का विकास हुआ, वैज्ञानिक खोजें हुई और समय के साथ उद्योगिक क्रांती आयी.

भारत में लिखने पढ़ने का काम ब्राह्मणों के हाथ में था, लेकिन उसका अधिक उपयोग प्राचीन ग्रंथों की, उनमें बिना कोई बदलाव किये हुए, उनकी नकल उतारने या धार्मिक विषयों पर लिखने पढ़ने से था. पर यूरोप के उद्योगिक विकास के साथ, यूरोपीय साम्राज्यवाद का दौर आया, अफ्रीका से लोगों को गुलाम बना कर उनका व्यापार शुरु हुआ. इसी साम्राज्यवाद और गुलामों के व्यापार के साथ, पढ़ने लिखने की क्षमता धीरे धीरे पूरे विश्व में फ़ैलने लगी. करीब पचास साठ साल पहले, साम्राज्यवाद के अंत के साथ, पढ़ने लिखने का विकास और भी तेज हो गया.

बच्चों को विद्यालय में पढ़ने भेजना यह अमीर गरीब, हर स्तरों के लोगों में होने लगा, हालाँकि बिल्कुल पूरी तरह से सारे नागरिकों में लिखने पढ़ने की क्षमता हो, यह विकासशील देशों में अभी तक संभव नहीं हो पाया है. मसलन, 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो देश की 12 प्रतिशत जनता साक्षर थी, जब कि 2011 के आँकणो के अनुसार करीब 75 प्रतिशत जनता साक्षर है. लेकिन स्त्रियों के साक्षरता, पुरुषों से अभी भी कम है. दूसरी ओर, लंदन में 1523 में 33 छपाई प्रेस थीं, और सोलहवीं शताब्दी में लन्दन में 80 प्रतिशत जनता साक्षर हो चुकी थी जबकि उस समय ईंग्लैंड के गाँवों में साक्षरता करीब 30 प्रतिशत थी. अठाहरवीं शताब्दी के आते आते, पूरे पश्चिमी यूरोप में अधिकाँश लोग साक्षर हो चुके थे. सामाजिक शौधकर्ता कहते हैं कि इसी साक्षरता से यूरोप का उद्योगिक तथा आर्थिक विकास हुआ, जिससे यूरोप के देशों ने सारी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपने शासन बनाये. इस तरह से भारत जैसे विकासशील देशों के सामाजिक तथा आर्थिक पिछड़ेपन का एक कारण, पढ़ने लिखने की क्षमता की कमी को माना गया है.

कम्पयूटर युग और तस्वीरों की दुनिया

आज दुनिया कम्प्यूटरों तथा इंटरनेट की है. कुछ दिन पहले अमरीकी पत्रिका एटलाँटिक में मेगन गार्बर का एक आलेख पढ़ा जिसमें वह लिखती हैं कि इतिहास में पहली बार तस्वीरें हर जगह आसानी से मिलने लगी हैं. इतिहास में तस्वीर मिलना बहुत कठिन था और अच्छी तस्वीर की कीमत बहुत थी.  आज यह तस्वीरें मुफ्त की मिल सकती हैं और एक खोजो तो पचास मिलती हैं. बढ़िया कैमरे जितने सस्ते आज है, पहले कभी इतने सस्ते नहीं थे. हर किसी के मोबाइल टेलीफ़ोन में कैमरा है, लोग जहाँ जाते हैं तस्वीरें खीचते हैं, वीडियो बनाते हैं, उन्हें इंटरनेट पर चढ़ा देते हैं.

इंटरनेट अब शब्दों के बजाय तस्वीरों तथा वीडियो का इंटरनेट बन रहा है. विकीपीडिया कहता है कि हर दिन 60 अरब तस्वीरें दुनिया में इंटरनेट पर चढ़ायी जाती हैं. अकेले फेसबुक पर हर दिन 20 करोड़ तस्वीरें अपलोड होती हैं. जबकि यूट्यूब पर हर मिनट में दुनिया के लोग 60 घँटे का वीडियो अपलोड करते हैं. आज अगर हम चाहें भी तो भी यूट्यूब में चढ़ाये गये केवल एक दिन के वीडियो को नहीं देख पायेंगे, उन्हें देखने के लिए हमारा जीवन छोटा पड़ने लगा है. मेगन पूछती हैं कि इसका क्या असर पड़ेगा मानव मस्तिष्क पर और मानव सभ्यता पर? क्या एक दिन हमारे जीवन में केवल तस्वीरें तथा वीडियो ही सब काम करेंगे, लिखे हुए शब्दों की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी?

दुनिया कैसे बदल रही है यह समझने के लिए बीस साल पहले की और आज की अपनी अलमारियों के बारे में सोचिये. आज न आडियो कैसेट की आवश्यकता है न सीडी की, न डीवीडी की, न किताबों की. पहले जितनी फ़िल्मों को घर में सम्भालने के लिए अलमारियाँ रखते थे, उससे कई गुना फ़िल्में, संगीत और किताबें आप जेब में पैन ड्राइव में ले कर घूम सकते हैं. शायद भविष्य में सालिड होलोग्राम जैसी किसी तकनीक से बटन दबाने से हवा में बिस्तर, सोफ़ा, कुर्सी, घर, बनेगा, जिसपर आप बैठ कर आराम करेंगे और जब बाहर जाने का समय आयेगा तो उसे बटन से आफ़ करके गुम कर देंगे, और बटन को अपनी जेब में रख लेंगे. यह बात आप को खाली दिमाग की कल्पना लग सकती है लेकिन दस साल पहले भी कोई आप से कहता कि वीडियो कैसेट फ़ैंको, कल से एक इंच के पैन के ढक्कन जितनी वस्तु में पचास फ़िल्में रख सकोगे, तो आप उसे भी खाली दिमाग की कल्पना कहते!

इन तकनीकों की बदलने की गति के सामने मानव ही मशीनों से पीछे रह गया लगता है. कुछ ब्लाग देखूँ तो हँसी आती है कि लोग अपनी तस्वीरों पर अपना नाम कोने में नहीं लिखते, बल्कि नाम को बड़ा बड़ा कर के तस्वीर के बीच में लिखते हैं, इस डर से कि कोई उन्हें चुरा न ले. देखो तो लगता है कि मानो किसी अनपढ़ माँ ने बुरी नज़र से बचाने के लिए बच्चे के चेहरे पर काला टीका लगाने के बदले सारा मुँह ही काला कर दिया हो. एक ब्लाग पर देखा कि महाश्य ने अपने वृद्ध माता पिता और बहन की तस्वीर पर भी ऊपर से इसी तरह अपना नाम चेप दिया था मानो कोई उनके माता पिता की तस्वीर को चुरा कर, उन्हें अपने माता पिता न बना ले. वैसे भी अक्सर इन तस्वीरों के स्तर विषेश बढ़िया नहीं होते, पर आप किसी भी विषय पर तस्वीर गूगल पर खोज कर देखिये, ऐसा कोई विषय नहीं जिससे आप को चुनने के लिए इंटरनेट से आप को बीस पचास बढ़िया तस्वीरें न मिलें, तो चोरी की इतनी चिन्ता क्यों?

अंत में

मुझे कई लोग कहते हें कि वाह कितनी बढ़िया तस्वीरें हैं आप की, हमें भी कुछ गुर सिखाईये. लेकिन मेरे मन में अपनी तस्वीरों के बढ़िया होने का कोई भ्रम नहीं. इंटरनेट पर खोजूँ तो अपने से बढ़ कर कई हज़ार बढ़िया फोटोग्राफर मिल जायेंगे. पर एक तस्वीर में मैं क्या देखता हूँ, क्या अनुभूति है मेरी, क्या सोच है, वह सिर्फ मेरी है, उसे कोई अन्य मेरी तरह से नहीं देख सकता, और न ही चुरा सकता है.

मैं सोचता हूँ कि आज के युग में होना हमारा सौभाग्य है, क्योंकि अपने भीतर के कलाकार को व्यक्त करना आज जितना आसान है, इतिहास में पहले कभी नहीं था. कौन मुझसे बढ़िया और कौन घटिया, किसको कितने लोग पढ़ते हैं, किसने मेरा क्या चुराया, इन सब बातों को सोचना भी मुझे समय व्यर्थ करना लगता है.

मैं सोचता हूँ कि अगर आने वाला युग तस्वीरों और वीडियो का युग होगा तो शायद इस नये युग में भारत जैसे विकासशील देशों में नये आविष्कार होगें.  हमारे गरीब नागरिकों का लिखने पढ़ने वाला दिमाग नहीं विकसित हुआ तो कोई बात नहीं, हममें जीवन को समझने की दृष्टि, विपरीत बातों को समन्वय करने की शक्ति और यादाश्त के गुण तो हैं जो इस नये युग की प्रगति का आधार बनेगें.

अगर आने वाला युग तस्वीरों और वीडियो का युग होगा तो समाज में अन्य कौन से बदलाव आयेंगे, यह मैं नहीं जानता, पर शायद भारत जैसे देश उस बदलाव में कम पिछड़ेंगे. आप का क्या विचार है इस बारे में?

***

शुक्रवार, सितंबर 16, 2011

धँधा है, सब धँधा है


अखबार में पढ़ा कि इंफोसिस कम्पनी ने अपने व्यापार को विभिन्न दिशाओं में विकसित करने का फैसला किया है, इसलिए कम्पनी अब प्राईवेट बैंक के अतिरिक्त चिकित्सा क्षेत्र में भी काम खोलेगी. चिकित्सा क्षेत्र को नया "सूर्योदय उद्योग" यानि Sunrise industry कहते हैं क्योंकि इसमें बहुत कमाई है, जो धीरे धीरे उगते सूरज की तरह बढ़ेगी.

सोचा कि दुनिया कितनी बदल गयी है. पहले बड़े उद्योगपति बहुत पैसा कमाने के बाद खैराती अस्पताल और डिस्पैंसरियाँ खोल देते थे ताकि थोड़ा पुण्य कमा सकें, अब के उद्योगपति सोचते हैं कि लोगों की बीमारी और दुख को क्यों न निचोड़ा जाये ताकि और पैसा बने.

पिछले वर्ष फरवरी में चीन में काम से गया था जब छोटी बहन ने खबर दी थी कि माँ बेहोश हो गयी है और वह उसे अस्पताल में ले जा रही है. माँ का यह समय भी आना ही था यह तो कई महीनो से मालूम हो चुका था. पिछले दस सालों में एल्सहाईमर की यादाश्त खोने की बीमारी धीरे धीरे उनके दिमाग के कोषों को खा रही थी, जिसकी वजह से कई महीनों से उनका उठना, बैठना, चलना,सब कुछ बहुत कठिन हो गया था. मन में बस एक ही बात थी कि माँ के अंतिम दिन शान्ती से निकलें. मैं खबर मिलने के दूसरे ही दिन दिल्ली पहुँच गया. अस्पताल पहुँचा तो माँ के कागजों में उन पर हुए टेस्ट देख कर दिमाग भन्ना गया. जाने कितने खून के टेस्ट, केट स्कैन आदि किये जा चुके थे, पर मुझे दुख हुआ जब देखा कि माँ की रीढ़ की हड्डी से जाँच के लिए पानी निकाला गया था.

करीब सत्ततर वर्ष की होने वाली थी माँ. इतने सालों से लाइलाज बिमारी का कुछ कुछ इलाज उसी अस्पताल के डाक्टर कर रहे थे. यही इन्सान की कोशिश होती है कि मालूम भी हो कि कुछ विषेश लाभ नहीं हो रहा तब भी लगता है कि बिना कुछ किये कैसे छोड़ दें. मरीज़ कुछ गोली खाता रहे, तो मन को लगेगा कि हम बिल्कुल लाचार नहीं हैं, कुछ कोशिश कर रहे हैं.

कोमा में पड़ी माँ के अंतिम दिन थे, यह सब जानते थे. किसी टेस्ट से उन्हें कुछ होने वाला नहीं था. उस हाल में खून के टेस्ट, ईसीजी, ईईजी, केट स्कैन आदि सब बेकार थे, पर उन्हें स्वीकारा जा सकता था, यह सोच कर कि इतना बड़ा प्राईवेट अस्पताल चलाना है तो वह लोग कुछ न कुछ कमाने की सोचेंगे ही. पर रीढ़ की हड्डी से पानी निकालना? यानि उनकी इस हालत में जब हाथ, पैर घुटने अकड़े और जुड़े हुए थे, उन्हें खींच तान कर, इस तरह से तकलीफ़ देना, यह तो अपराध हुआ.

मुझे बहुत गुस्सा आया. छोटी बहन को बोला कि तुमने उन्हें यह रीढ़ की हड्दी से पानी निकालने का टेस्ट करने क्यों दिया? वह बोली मैं उन्हें क्या कहती, वह डाक्टर हैं वही ठीक समझते हैं कि क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये! डाक्टर आये तो मन में आया कि पूछूँ कि रीढ़ की हड्दी से पानी वाले टेस्ट में क्या देखना चाहते थे, लेकिन कुछ कहा नहीं. मैंने उन्हें यही कहा कि मैं माँ को घर ले जाना चाहूँगा. तो बोले कि हाँ ले जाईये, यही बेहतर है, इनकी हालत ऐसी है कि यहाँ हम तो कुछ कर नहीं सकते.

मैं माँ को घर ला सका था क्योंकि मेरे मन में था कि मैं स्वयं माँ का अंतिम दिनो में उपचार करूँगा. कुछ समय तक मैंने आई.सी.यू. में काम किया था, मालूम था कि उनकी देखभाल जिस तरह मैं कर सकता हूँ, उस तरह अन्य लोग नहीं कर सकते. क्योंकि मेरे उपचार में अपना लाभ नहीं छुपा था, केवल माँ के अंतिम दिनों में उनको शान्ति मिले इसका विचार था. लेकिन जिनके अपनों में कोई डाक्टर न हो जो उनका ध्यान कर सके, क्या उसके अच्छा इलाज का अर्थ यही है कि पैसे कमाने वाले "सूर्योदय उद्योग" से उसे निचोड़ सकें?


Graphic on doctor and money

भारत के डाक्टर, नर्स, फिज़योथेरापिस्ट आदि अपने काम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं. मेरे विचार में अगर कोई चिकित्सा क्षेत्र में काम करने की सोचता है तो उसे धँधा समझ कर यह सोचे, ऐसे लोग कम ही होंगे. इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर लोग अपने मन में स्वयं को भले आदमी के रूप में ही देखते सोचते हैं कि वह लोगों की भलाई का काम कर रहे हैं. लेकिन जब अपने काम से अपनी रोटी चलनी हो और मासिक पागार नहीं बल्कि कौन मरीज़ कितना देगा की भावना हो तो धीरे धीरे लालच मन में आ ही जाता है. बिना जरूरत के आपरेशन से बच्चा करना, बिना बात के ओपरेशन करना या दवाईयाँ खिलाना, नयी बिमारियाँ बनाना, बेवजह के टेस्ट और एक्सरे कराना, जैसी बातें इसी लालच का नतीजा हैं.

हर क्षेत्र की तरह इस क्षेत्र में भी अच्छे और बुरे दोनो तरह के लोग होते हैं. भारत में चिकित्सा क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ जो आदर्शवादी हैं और इसे सेवा के रूप में देखते हैं. भारत के चिकित्सा से जुड़े कुछ उद्योगों ने भी दुनिया में अपनी धाक आदर्शों के बल पर ही बनायी है, जैसे कि जेनेरिक दवा बनाने वाले तथा सिपला जैसी दवा बनाने की कम्पनियाँ जिन्होंने एडस, मलेरिया, टीबी जैसी बीमारियों की सस्ती दवाईयाँ बना कर विकासशील देशों में रहने वाले गरीब लोगों को इलाज कराने का मौका दिया है.

पर बड़े शहरों में पैसे वालों के लिए सरकारी अस्पतालों की तुलना में पाँच सितारा अस्पतालों में या नर्सिंग होम में लोगों को सही इलाज मिल सकेगा, इसके बारे में मेरे मन में कुछ दुविधा उठती है. वहाँ सरकारी अस्पताल सी भीड़ और गन्दगी शायद न हो, लेकिन क्या चिकित्सा की दृष्टि से वह इलाज मिलेगा जिसकी आप को सच में आवश्यकता है?

अहमदाबाद की संस्था "सेवा" के एक शौध में निकला था कि भारत में गरीब परिवारों में ऋण लेने का सबसे पहला कारण बीमारी का इलाज है. प्राईवेट चिकित्सा संस्थाओं को बीमारी कैसी कम की जाये, इसमें दिलचस्पी नहीं, बल्कि पैसा कैसे बनाया जाये, इसकी चिन्ता उससे अधिक होती है. वहाँ काम करने वाले लोग कितने भी आदर्शवादी क्यों न हों, क्या वह निष्पक्ष रूप से अपने निर्णय ले पाते हैं और वह सलाह देते हैं जिसमें मरीज़ का भला पहला ध्येय हो, न कि पैसा कमाना?

इसीलिए जब सुनता हूँ कि भारत में अब अमरीका जैसे बड़े स्पेशालिटी अस्पताल खुले हैं जहाँ पाँच सितारा होटल के सब सुख है, जहाँ सब नयी तकनीकें उपलब्ध हैं, विदेशों से भी लोग इलाज करवाने आते हैं, तो मुझे लगता है कि अगर मुझे कुछ तकलीफ़ हो तो वहाँ नहीं जाना चाहूँगा, कोई सीधा साधा डाक्टर ही खोजूँगा.

***

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

वैज्ञानिक की परीक्षा

जाने क्यों बचपन से ही मेरे मन में बात घुस गयी कि गणित बहुत कठिन है और मेरे बस की बात नहीं. जब हाई स्कूल पास किया तो गणित में अच्छे नम्बर आये थे लेकिन उससे भी मेरे मन की यह सोच नहीं बदली. तब से गणित के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए सम्मान और उत्सुकता महसूस होती है कि जाने कैसे यह लोग इस विषय में दिलचस्पी रखते हैं और इसे समझ पाते हैं. उनके बारे में कुछ नया सुनता हूँ तो अवश्य पढ़ता हूँ और समझने की कोशिश करता हूँ. इसीलिए जब भारतीय अंग्रेज़ी दैनिक टेलीग्राफ़ में शीर्षक पढ़ा "भारतीय इंजीनियर विनय देवलालिकर ने गणित की जटिल समस्या का हल किया" तो तुरंत उस समाचार को पढ़ा.

इस समाचार में जिस जटिल समस्या की बात की गयी है, उसे कहते हैं, "पी बनाम एनपी" समस्या, लेकिन इसका क्या अर्थ है, यह मेरी समझ से बाहर है. तीस साल से इस समस्या का समाधान खोजने वालों ने घोषणा की हुई है कि इस समस्या को सुलझाने वाले को दस लाख डालर का पुरस्कार मिलेगा. समाचार में यह भी बताया गया कि दुनिया के बहुत से अन्य गणितविज्ञों ने संदेह प्रकट किया है कि सचमुच विनय देवलालिकर ने इस समस्या का समाधान खोज निकाला है, या यह झूठ है. एक महोदय ने तो अपनी तरफ़ दावा किया है कि अगर देवलालिकर जी ने सचमुच इस समस्या का हल निकाला हो तो वह अपनी ओर से अन्य दो लाख डालर का पुरस्कार देंगे.

देवलालिकर के दावे और उस पर होती बहस की बात से कुछ दिन पढ़ी एक अन्य बात याद आ गयी. इस वर्ष मानव कोष के डीएनए (DNA) में छुपे जीन (Gene) का नक्शा समझने की दसवीं वर्षगाँठ मनायी जा रही है. इसी जीन के माध्यम से सभी पेड़, जीव जन्तु अपनी संतान को अपने गुण देते हैं और इस मानव जीन के नक्शे से भविष्य की वैज्ञानिक तरक्कियों की बहुत सी उम्मीदें जुड़ी हैं. इसकी वजह से आज कई तरह के कैंसर तथा अन्य बीमारियों की समझ बढ़ी है और नयी दवाईयों की खोज हो सकी है, कई जन्मजात बीमारियों यानि माँ के गर्भ में ही पनपी बीमारियों के इलाज की आशा बँधी है. आने वालों दशकों में इस खोज से मानव जीवन कितना बदल जायेगा, इसका आज अनुमान लगाना आसान नहीं, लेकिन इसमें किसी को शक नहीं इस खोज से दुनिया बदल जायेगी.

Gene research
छोटे से बैक्टीरिया यानि सूक्ष्म एक कोषरुपी किटाणुओं से ले कर मानव जैसे विकसित जन्तुओं के जीन करोड़ों छोटे कणों से बने होते हैं जिन्हें जीनोम (Genome) कहते हैं, और जीन का नक्शा बनाने का अर्थ है कि यह बताया जाये कि उन करोड़ों कणों में से कौन सा कण कहाँ पर है.

आज से करीब बीस साल पहले, 1989 में सिस्टिक फाईब्रोसिस नाम की बीमारी के जीन का नक्शा बनाने वाली एक कम्पनी ने इस खोज पर कई सालों तक काम किया था और इसमें खर्चा पड़ा था करीब 5 करोड़ डालर. आज कुछ हज़ार डालर में पूरे मानव डीएनए के सभी जीनों का पूरा नक्शा बनाया जा सकता है. कहते हैं कि अगले कुछ वर्षों में इसकी कीमत एक हज़ार डालर से भी कम हो जायेगी. जीन शौध के साथ एक अन्य महत्वपूर्ण बात जुड़ी है कि इस वैज्ञानिक खोज की सभी जानकारी किसी एक व्यक्ति या एक कम्पनी के हाथ में नहीं है बल्कि खुले रूप में दुनिया के सभी वैज्ञानिकों के लिए उपलब्ध है. इस वर्ष मार्च में भारत ने भी घोषणा की कि दिल्ली की जेनोमिक्स संस्थान ने एक मानव जीन का नक्शा पूरा किया.

इस जीन के नक्शे बनाने की खोज में एक वैज्ञानिक ने बहुत महत्वपूर्ण काम किया था जिनका नाम है जीन मेयरस (Gene Myers).

मेयरस ने एक नये तरीके से जीन की जाँच की खोज की थी. इस तरीके में पूरे डीएनए को सूक्ष्म कोष स्तर पर बम विस्फोट जैसा करके छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है फ़िर उन टुकड़ों की जाँच की जाती है. 1998-99 जब उन्होंने अपना यह नया तरीका अन्य वैज्ञानिकों के सामने पेश किया तो उस समय अन्य वैज्ञानिकों ने उनके तरीके की बहुत आलोचना की थी. अन्य वैज्ञानिकों का कहना था कि इससे बहुत गलतियाँ होंगी और यह ठीक तरीका नहीं. आज भी मेयरस के मन में गुस्सा है कि शुरु में उनके काम को सराहना नहीं मिली. उनका एक साक्षात्कार पढ़ा जिसमें वह कह रहे थे कि प्रारम्भ में उनके तरीके को जो उपेक्षा मिली, उसकी चोट उनके दिल में आज भी है, जबकि आज जीनोम शौध में उनका तरीका ही अच्छा माना जाता है.

मेरा विचार है कि किसी भी नयी बात का आविष्कार जो उस समय होने वाले तरीकों से बिल्कुल भिन्न हो या उल्टा लगे, उस पर संदेह करना आवश्यक है. इसी में विज्ञान की प्रगति छुपी है. सच्चा वैज्ञानिक वही है जो अपने काम पर संदेह करने वालों से निर्भय बात, बहस कर सके और अपने विचारों की सच्चाई को साबित कर सके.

कई बार सब लोग सोचते हैं कि हाँ बहुत अच्छा और बढ़िया आविष्कार है लेकिन समय ही बताता है कि वह सचमुच का नया आविष्कार था या केवल मन का धोखा. दुनिया में नीम हकीम और लोगों के विश्वासों का फायदा उठाने वाले लोग कम नहीं हैं, उनकी बात नहीं कर रहा मैं. जिसने सच में पूरी वैज्ञानिक सोच के साथ कुछ नया खोजा हो, उस पर भी संदेह करना, उसमें नुक्स निकालना, उसकी कमियों की बात करना, यही वैज्ञानिक प्रगति का रास्ता है. शायद इसीलिए अधिकतर आविष्कारक बिना प्रसिद्धि और पैसे के ही जीवन गुज़ारते हैं और यह प्रसिद्धि उनके मरने के बाद ही आती है.

शनिवार, जुलाई 31, 2010

भाषा, लिपि और लेखनी

आजकल अक्सर हिंदी के शब्द अँग्रेज़ी यानि रोमन लिपि में लिखे हुए दिखने लगे हैं. ईमेल से या मोबाईल पर एस.एम.एस से या फ़िर गूगल टाक या फैसबुक पर चेट, बहुत सी बातें होती तो हिंदी में हैं लेकिन सहूलियत के लिए लिखी रोमन लिपि में जाती है. भारतीय नामों को अगर रोमन लिपि में देखा जाये तो अक्सर पता नहीं चलता कि उनका सही उच्चारण क्या है, क्योंकि अँग्रेज़ी भाषा तथा रोमन लिपि में बहुत से स्वर होते ही नहीं.

Artwork by Sunil Deepak on languages
कुछ साल पहले जर्मनी में रहने वाले एक भारतीय डाक्टर हमारे यहाँ बोलोनिया आये, नाम था गोपाल दाबड़े. तब वह यही कह रहे थे कि यहाँ यूरोप के लोग उनके नाम को कितनी अलग अलग तरह से कहते हैं. यानि अँग्रेज़ी भाषा के अलावा अन्य यूरोपीय भाषाओं को देखें तो दिक्कतें और भी बढ़ जाती हैं, क्योंकि बहुत सी भाषाओं में रोमन लिपि का ही प्रयोग होता है पर उनका उच्चारण अलग अलग है, जिससे दाबड़े का डाबड, डाबडे, दाबदे, दबदे, कुछ भी बन सकता है.

इन्हीं बातों के अनुभव से सोच रहा था कि क्या धीरे धीरे हमारी हिंदी के कुछ स्वर जो अन्य भाषाओं में नहीं होते, लुप्त हो जायेंगे?
वैसे तो एशिया में अन्य कई देश हैं, जैसे इंदोनेशिया, फिलिपीन, वियतनाम, जहाँ पर उनकी भाषा रोमन लिपि में लिखी जाती है, पर इससे उनकी भाषा ने अपने विषेश स्वर नहीं खोये. इसका एक कारण यह है कि इन देशों में आम जनता में अँग्रेज़ी बोलने वाले बहुत कम हैं, और वर्षों पहले जब इन्होंने रोमन लिपि को अपनाने का निश्चय किया तो उस समय रोमन लिपि की वर्णमाला की कमियों को पूरा करने के लिए एक्सेंट वाले वर्णों को लेटिन वर्णमाला से ले कर जोड़ लिया जिनका प्रयोग अन्य यूरोपीय भाषाओं में होता है जैसे कि à á â ã ä å. इस तरह उन्हें अपनी भाषा के विषेश स्वरों को लिखने के अन्य वर्ण मिल गये.

उदाहरण के लिए D Ð Ď d जैसे वर्णों से आप वियतनामी भाषा में द, ड, ड़, ध जैसे विभिन्न स्वरों को अलग अलग वर्ण दे सकते हैं, इसलिए जब वह रोमन लिपि में लिखते हैं तो भी अपनी भाषाओं के विषेश स्वरों के उच्चारण को संभाल कर रखते हैं. पर हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के साथ ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे उनकी बोली और विषेश स्वरों का रोमनीकरण न हो?

भाषा एक जैसी नहीं रहती, समय के साथ बदलती रहती है. वेदों, पुराणों, बाइबल, कुरान और अन्य प्राचीन ग्रंथों को भाषाविज्ञानी जाँच कर बता सकते हें कि कौन सा हिस्सा पहले लिखा गया, कौन सा बाद में जोड़ा गया.

भाषा समय के साथ क्यों बदलती है? इसकी एक वजह तो नये आविष्कार है, जिनके लिए नये शब्दों की ज़रूरत पड़ती है. जैसे कम्प्यूटर, ईमेल, इंटरनेट जो पहले नहीं थे, और इनसे जुड़ी बहुत से बातों के शब्द नये बने हैं. समय के साथ कुछ वस्तुओं का उपयोग कम या बंद हो जाता है, जैसे लालटेन, बैलगाड़ी आदि और इनके शब्द धीरे धीरे समय के साथ खो जाते हैं. जब छोटा था तो गुसलखाने में झाँवा होता था पाँव साफ़ करने के लिए लेकिन जब पिछली बार दिल्ली गया और छोटी बहन से पूछा कि क्या उसके घर में झाँवा मिलेगा तो वह हँसने लगी, बोली कितने सालों के बाद यह शब्द सुना है.

विद्वानों का कहना है कि भाषा के विकास का सम्बंध उसकी लिखायी से भी हैं.

बोलने वाली भाषा और लिखने वाली भाषा के बीच में क्या सम्बंध होता है इस विषय पर वाल्टर जे ओंग (Walter J. Ong) ने बहुत शौध किया है और लिखा है. उनकी 1982 की किताब ओराल्टी एँड लिट्रेसी (Orality and Literacy) जो इसी विषय पर है, मुझे बहुत अच्छी लगी. उनका कहना है कि मानव बोली का विकास तीस से पचास हज़ार साल पहले हुआ जबकि लिखाई का आविष्कार केवल छः हज़ार साल पहले हुआ. इस तरह से मानव भाषाएँ बोली के साथ विकसित हुईं. दुनिया की हज़ारों भाषाओं में से केवल 106 में लिखित साहित्य की रचना हुई. आज भी कई सौ ऐसी बोली जाने वाली भाषाएँ हैं जिनकी कोई लिपि नहीं है.

ओंग कहते हैं कि लिखने से मानव के सोचने का तरीका बदल जाता है. शब्दों के जो आज अर्थ हैं, पहले कुछ और अर्थ थे. बोले जाने वाली भाषा में जब नये अर्थ बनते थे, तो पुराने अर्थ धीरे धीरे गुम हो जाते थे. लेकिन जब से लिखाई का आविष्कार हुआ, शब्दों के पुराने अर्थ गुम नहीं होते, उन्हें खोजा जा सकता है. इसीलिए उनका कहना है कि पुरानी किताबों को पढ़ें तो उनका अर्थ समझने के लिए आज की भाषा का प्रयोग करना उचित नहीं. मैंने भी एक बार पढ़ा था कि ऋगवेद में वर्णित अश्वमेध, घोड़ों के वध की बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि उस समय अश्व का अर्थ कुछ और भी था.

ओंग कहते हैं कि बोलने वाली भाषा में रची कविताओ़, कथाओं, काव्यों में एक ही बात को कई बार दोहराया जाता है, विभिन्न तरीके से कहा जाता है, मुहावरों का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इससे सुनने वालों को समझने में और याद रखने में आसानी होती है. इसी तरह से बोलने वाली भाषा के बारे में ही प्राचीन ग्रीस में भाषण देने की कला के नियम बनाये गये थे. बोलने वाले को इतना कुछ याद रखना होता है, जिससे उसकी सोच और तर्क का विकास भी सीमित रहता है. गीत, कविता में बार बार कुछ पंक्तियों को दोहराना, शब्दों की ताल, धुन खोजना, यह बोलने वाली भाषा के लिए ज़रूरी है. बोलने वाली भाषा में अमूर्त विचारों और तर्कों का गहन विशलेषण करना कठिन है, बात गहरी या जटिल भी हों तो उन्हे सरलता से ही कहना होता है, वरना लोग समझ नहीं पाते.

जबकि लिखने से मानव सोच को याद रखने की आवश्यकता नहीं, जरुरत पढ़ने पर दोबारा पढ़ा जा सकता है. इससे दिमाग को स्मृति पर ज़ोर नहीं देना पड़ता और वह अन्य दिशाओं मे विकसित हो सकता है. इसलिए विचार और तर्क अधिक जटिल तरीके से विकसित किये जा सकते हैं, कविताओं, कहानियों को भी दोहराव नहीं चाहिये, जिस दिशा में चाहे, विकसित हो सकती हैं और लेखक के लिखने का तरीका बदल जाता है. ओंग के अनुसार, इसी वजह से लिखने पढ़ने वाला मानव दिमाग विज्ञान और तकनीकी तरक्की कर पाया.

मेरे विचार में प्राचीन भारत में संस्कृत लिखी जाने वाली भाषा थी, हालाँकि अधिकाँश जनता संस्कृत लिखना, पढ़ना, बोलना नहीं जानती थी. दूसरी ओर हिंदी भाषा का विकास बोलने वाली भाषा की तरह हुआ. पिछले कुछ सौ सालों को छोड़ दिया जाये तो भारत के अधिकाँश लोगों के लिए हिंदी केवल बोलने वाली बोली थी, लिखने वाली नहीं. जब भारत स्वतंत्र हुआ तब भी पढ़ने लिखने वाले लोग भारत की जनसंख्या का छोटा सा हिस्सा थे. जब उसे लिखने लगे तो उससे उसके स्वरों तथा शब्दों में कुछ बदलाव आये. भाषा के लिखने से आने वाले अधिकतर बदलाव पिछले कुछ दशकों में ही आये हैं, जब भारत की अधिकाँश जनसंख्या शिक्षित होने लगी है, और लोग किताब पत्रिका पढ़ने लगे हैं. लेकिन क्या इस वजह से भारत के अधिकाँश लोगों के सोचने का तरीका अभी भी बोलने वाली भाषा पर टिका है, लिखी भाषा पर नहीं? और समय के साथ जैसे जैसे साक्षरता बढ़ेगी, भारतीय मानस के सोचने का तरीका इस बात से बदल जायेगा?

पिछले कुछ समय में, टीवी और टेलीफ़ोन के विकास से, बोलने और सुनने की संस्कृति बढ़ रही है, पढ़ने की कम हो रही है. दूसरी ओर, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, जैसी भाषाएँ जो भूली जा रहीं थीं, लेकिन इंटरनेट की वजह से आज उन्हें भी नया जीवन मिल सकता है.

इन सब बदलावों के क्या अर्थ हैं, क्या प्रभाव पड़ेगा हमारी भाषा पर, उसके विकास पर? क्या रोमन लिपि में लिखी हिंदी कमज़ोर हो कर मर जायेगी, या रूप बदल लेगी? आप का क्या विचार है?

रविवार, दिसंबर 13, 2009

नये सुपर मानव

मेरी एक डाक्टर मित्र कियारा अफ्रीका में कोंगो में शल्य चिकित्सक यानि सर्जन का काम करती थी. 1992 में एक कार दुर्घटना में उसका दाँया हाथ बुरी तरह ज़ख्मी हुआ और अंत में उसे कोहनी से ऊपर से काटना पड़ा. बहुत महीनों तक कियारा अस्पतालों में चक्कर काटती रही, शुरु में बहुत हताश थी कि अफ्रीका में अपने काम करने का सपना अधूरा रह गया. फ़िर धीरे धीरे, कियारा ने बाँयें हाथ से लिखना सीखा. हमारे शहर बोलोनिया के पास छोटी सी जगह है बुद्रियो जहाँ कृत्रिम हाथ और पैर बनाने वाला एक ओर्थोपेडिक केंद्र है जो इस कार्य में अपनी तकनीकी दक्षता के लिए यूरोप में प्रसिद्ध है. कई बार मैं कियारा के साथ वहाँ गया.

प्रारम्भ में तो कियारा को एक कृत्रिम बाजू मिली, जिसे लगाने से, अगर गौर से न देखें तो पता नहीं चलता था कि कियारा का दाँया हाथ नहीं है, पर उस कृत्रिम हाथ से कियारा कुछ काम नहीं कर पाती थी. लेकिन फ़िर भी वह वापस कोंगो लौट गयी, जहाँ वह नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों को पढ़ाने के काम में लग गयी.

हर एक‍ दो सालों में जब भी कियारा वापस इटली आती है, बुद्रियो के ओर्थोपेडिक केंद्र में अपने कृत्रिम हाथ की जाँच कराने जाती है. समय के साथ उसका कृत्रिम हाथ भी बदल गया है, और अब वह अपनी बाजु की बची माँस पेशियों से अपने हाथ से कुछ काम कर सकती है.

कियारा की वजह से शरीर के कृत्रिम अंगों के विषय में मेरी दिलचस्पी बनी और इस क्षेत्र में कोई नयी खोज तो मैं उसके बारे में पढ़ने जानने की कोशिश करता हूँ. इसीलिए जब मैंने टच बायोनिक्स नाम की कम्पनी द्वारा प्रोडिजिट उँगलियों के बनाये जाने के बारे में सुना तो उसके बारे में अधिक जानने की कोशिश की.


अगर किसी की हथेली या उँगलियाँ कट गयी हों तो प्रोडिजिट उँगलियों से वह अपने हाथ का पूरा उपयोग कर सकते हैं. कृत्रिम उँगलियों को बनाने में अब तक सबसे कठिन बात थी उनके हिलने, पकड़ने आदि कामों ऐसा नियंत्रण लाना जिससे बारीक काम जैसे कि उँगली और अँगूठे के बीच में बारीक चीज़ को पकड़ना.

अभी तक कृत्रिम हाथ इस तरह का बारीक काम नहीं कर सकते थे, लेकिन अब प्रोडिजिट से यह भी संभव हो गया है.



यह तकनीकी प्रगति किसके लिए?

एक तरफ़ विज्ञान इतनी तेज़ी से प्रगति कर रहा है, जो बात कल तक असंभव लगती थी, वह आज संभव हो रही है, पर मेरे विचार में एक प्रश्न हम शायद अक्सर भूल जाते हैं, कि यह प्रगति किसके लिए है? हम सोचते हें कि कोई भी नया आविष्कार होगा तो समय के साथ उसकी कीमत कम हो जायेगी और वह आविष्कार सब जन साधारण तक पहुँचेगा. शायद यह बात उन सब तकनीकी प्रगतियों के लिए सच हो जिनका बाज़ार है, जिनको उपयोग करने वाले लाखों करोड़ों लोग हैं, तो बेचने के लिए वह वस्तु देर सवेर सस्ती हो सकती है, जैसे कि मोबाइल टेलीफोन.

लेकिन कृत्रिम अंग जिनका उपयोग कुछ ही लोगों को करना होगा, क्या कभी वह गरीब लोगों या फ़िर मध्यम वर्ग के बस की बात होंगे?

कियारा तो इटली आ कर नया हाथ बनवा सकती है लेकिन जिन गरीब लोगों के लिए काम करती है, उनमें से कितने अफ्रीका के लोग इस तरह का हाथ खरीद सकते हैं? प्रोडिजिट की उँगलियाँ कितनों के काम आयेंगी?

और भारत जैसा देश, जहाँ अमीरी गरीबी की विषमताएँ शायद दुनिया में सबसे अधिक हैं, वहाँ तकनीकी प्रगति किसके काम आयेगी? एक तरफ़ भारत के चिकित्सक और अपोलो जैसे अस्पताल दुनिया में प्रसिद्ध हैं, विदेशों से लोग अपना इलाज करवाने भारत आते हैं, दूसरी ओर दुनिया में दस्त या न्योमोनिया जैसे सामान्य एवं आसानी से इलाज हो सकने वाली बीमारियों से मरने वाले पाँच साल से कम आयु के बच्चों में से 25 प्रतिशत भारत में मरते हैं. तेज़ी से तरक्की करता विकासरत भारत, भुखमरी और अनपढ़ता में भी दुनिया में सबसे पहले स्थान पर है, और विषमताएँ घटने की बजाय बढ़ रही हैं. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार ब्राज़ील में पिछले दशक में आर्थिक विकास के साथ साथ विषमताएँ भी कम हुई हैं जबकि भारत में विषमताएँ बढ़ी हैं.

मेरे एक केनेडा के मित्र ग्रेगोर वोलब्रिंग का कार्यक्षेत्र नेनोटेकनोलोजी जैसी नयी तकनीकें है. ग्रेगोर कहते हैं कि तकनीकी इतनी तेज़ी से बढ़ रही है, नये नये आविष्कार हो रहे हैं, लेकिन उनके लिए जिनके पास इसकी कीमत चुकाने की क्षमता है. अगर पिछले दो सौ सालों दुनिया में उद्यौगिक विषमताएँ बनी, फ़िर डिजिटल विषमताओं का दौर आया, तो अब नयी तकनीकों की विषमताओं का दौर आ रहा है. पहले विषमताएँ दुनिया के उत्तर में अमरीका, यूरोप आदि देश और दक्षिण में विकासशील देशों के बीच में थी, यह नयी विषमताएँ देशों के बीच में नहीं, अमीरों और गरीबों के बीच होंगी. जिनके पास सामर्थ्य है, वह जीन थैरेपी से तंदरुस्त पैदा होंगे, लम्बा जीवन जीयेंगे, शरीर का कोई अंग कष्ट देगा तो उसे बदल पायेंगे, वे नये सुपर मानव होंगे. जिनके पास सामर्थ्य नहीं, वह दस्तों, बुखारों से वैसे ही मरते रहेंगे जैसे आज मरते हैं.

इस बार कर्नाटक के गाँवों में घूम रहा था तो लोग सरकारी साक्षरता, रोजगार, विकलाँगता आदि विषयों से सम्बधित कार्यक्रमों के बारे में बताते थे, पर साथ ही कहते कि घूसखोरी से कुछ भी करवा लो उसे  बदलना कठिन है, जातपात का दबाव कम नहीं होता, कागज़ पर कुछ लिखते हैं पर सच्चाई कुछ और होती है.

कुछ बदलाव आया है पर जितना आना चाहिये था, उतना नहीं. क्या उपाय होगा इसका?

रविवार, नवंबर 01, 2009

प्रकृति का चक्र

पिछले दो दशकों से बदलते पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ पढ़ा सुना है. एक तरफ कहा जाता है कि मानव क्रियाओं, जिनमें मानव निर्मित फैक्टरियाँ आदि भी शामिल हैं, की वजह से पर्यावरण प्रदूषण का स्तर खतरे की सीमा से बाहर जाने वाला है, पर साथ ही विभिन्न देशों की सरकारें इसी चिंता में रहती हैं कि किस तरह उन का विकास न रुके और विकास रोकने के लिए नयी फैक्टरियाँ बनाना, अधिक से अधिक नयी वस्तुएँ बेचना, बड़ी बड़ी कारें बनाना और उन्हें भी अधिक से अधिक बेचना, जैसी नीतियाँ बनाती रहती हैं, जिनसे प्रदूषण का रोना बिल्कुल बनावटी लगता है.

कुछ थोड़े से लोग हैं जो यह कहते हैं कि मानव जीवन के विकास के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है पर उन्हें बाकी के लोग उन्हें आदर्शवादी या पागल ही कह कर टाल देते हैं.

कुछ दिन पहले जब अमरीकी पत्रिका अटलाँटिक के जुलाई अंक के एक लेख को पढ़ने का मौका मिला तो पर्यावरण की बहस की गम्भीरता को समझने के लिए नयी बात जानी. इस लेख का विषय था कि किस तरह नयी तकनीकों के माध्यम से पर्यावरण के बदलाव के बुरे प्रभावों को रोका जाये. इस लेख में बहुत सारी तकनीकों का विवरण है जिनके बारे में वैज्ञानिक विचार कर रहे हैं.

कई वैज्ञानिकों का सुझाव है कि आकाश में करीब बीस हज़ार मीटर की ऊँचाई पर सल्फर डाईओक्साइड गैस छोड़ी जायी जिससे विश्व के बड़े हिस्से पर इस गैस के बादल छा जायें और कई महीनों या सालों तक छाये रहें, जिससे सूरज की रोशनी तथा गर्मी धरती तक न पहुँचे या कम पँहुचे. उनका विचार है कि इस तरह से थोड़े समय में ही धरती ठँडी होने लग जायेगी और समुद्र का तापमान कम हो जायेगा. इस सुझाव में यह उपाय नहीं बताया गया कि जब बारिश से सल्फर की गैस सल्फूरिक एसिड बन कर धरती पर गिरेगी और पेड़, खेत, फसलें जला देगी और लोंगो को साँस की बीमारी से मारेगी, उसका क्या किया जाये?

इस सुझाव में एक अन्य कठिनाई है कि इससे मानसून के बादल बनने बंद हो जायेगे, जिससे भारत और अफ्रीका के कई देशों पर बुरा असर पड़ेगा, पर चूँकि यह मानवता को बचाने के लिए किया जायेगा तो इस "कोलेटरल डेमेज" को स्वीकार किया जा सकता है?

दूसरी ओर इस सुझाव की अच्छाई है कि हमें कार्बन डाईओक्साइड को कम करने की या अपनी जीवन पद्धिति को बलने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी, हम जितना चाहें प्रदूषण बढ़ाते रहें, उसकी कोई चिंता नहीं.

जोह्न लाथाम तथा स्टेफन साल्टर का विचार है कि अगर समु्द्र से पानी की भाप को बादलों पर छोड़ा जाये तो बादल घने और गहरे हो जायेंगे और उनका रंग भी अधिक सफेद हो जायेगा, जिससे सूरज की रोशनी धरती पर नहीं आ सकेगी और धरती ठँडी हो जायेगी. इस तरह से धरती को ठँडा करने के लिए १५०० जहाज़ो की आवश्यकता होगी, जिसके लिए इन वैज्ञानिकों ने बहुत सी जहाज़ कम्पनियों से बात की है कि और छह सौ करोड़ डालर के खर्च पर इसकी कोशिश की जा सकती है. यानि चाहें तो बिल गेटस जैसे अमीर लोग अपनी सम्पत्ति का थोड़ा सा हिस्सा दे दें तो यह किया जा सकता है. पहले साल अधिक खर्च होगा फ़िर हर साल करीब सौ करोड़ डालर के खर्च से इसकी मैंन्टेनेन्स हो सकती है.

अरिज़ोना के रोजर एँजेल का विचार है कि आकाश में एक विशालकाय छतरी खोली जाये, जिससे सूर्य ग्रहण जैसा वातावरण बन जाये. एँजेल कहते हैं कि "यह बात आप को पागलपन की लग सकती है, पर जिस तरह पर्यावरण बदल रहा है, उससे जो जीवन बदलने वाला है उसके असर को हम लोग समझ नहीं पा रहे हैं, चूँकि मानव प्रकृति को बदला नहीं जा सकता, बस इसी तरह के पागलपन के विचार ही शायद मानवता को बचा सकते हैं."

इस तरह की बात करने वाले लोग कोई अनजाने वैज्ञानिक नहीं बल्कि उनमें थोमस शैलिंग जैसे नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं, जिनका कहना है कि पर्यवरण के बदलाव में प्रकृति चक्र इतना आगे जा चुका है कि अब वापस लौटना सँभव नहीं, बस इसी तरह की किसी तरकीब से इस विपत्ति को टाला जा सकता है. मानवता को अगर सौ या दो सौ साल और मिल जायें तो ऊर्जा की नयी तकनीकें खोजी जा सकती हैं जिनसे प्रदूषण कम हो जायेगा और भविष्य में इस तरह की तरकीबों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.

कल जब कीनिया के सूखे में मर रही गायों की तस्वीर देखी तो जी मिचला गया. रोयटर के फोटोग्राफर थोमस मूकोया ने यह तस्वीर कीनिया की राजधानी नैरोबी से करीब पचास किलोमीटर दूर अथी नदी पर खींची है.

शायद यही भविष्य है हमारा, या हमारे बाद आने वाली पीढ़ी का, प्यासे तड़प तड़प कर मरना?

मंगलवार, सितंबर 29, 2009

क्षमता की सोच

बचपन से ही जाने किन बातों की वजह से मेरे मन में जो अपनी छवि बनी थी उसमें हाथों से कुछ भी काम न कर पाने की भावना थी. यानि सोचने विचारने वाले काम कर सकता था, लिख पढ़ सकता था पर बत्ती का फ्यूज़ उड़ा हो या साईकल का पंक्चर ठीक करना हो, तो मेरे बस की बात नहीं. समय के साथ, यही सोच तकनीकी विषयों के बारे में भी होने लगी. यानि गणित हो, या केलकुलस या ईंजीनियरिंग से जुड़ी कोई बात, यह सब अपनी समझ से बाहर थीं.

पहली बार कम्प्यूटर शायद 1988 या 1989 में देखा तो सोचा कि भैया यह तो अपने बस की बात नहीं लगती. तब ईलैक्ट्रोनिक टाईपराईटर से भी मुझे दिक्कत होती थी, टेलेक्स का उपयोग बहुत दूभर सा लगता था. दो तीन साल तक मैं कम्प्यूटर के करीब नहीं गया. मुझे मेरे साथ काम करने वाले बहुत लोगों ने कहा कि कम्प्यूटर से कुछ लिखना टाईपराईटर से अधिक आसान है पर मैं कहता कि मुझे टाईपराईटर की टिप टिप ही पसंद है. फ़िर हमारे दफ्तरवालों नें कम्प्यूटर से लिखने के प्रोग्राम वर्डस्टार का कोर्स का आयोजन किया और कहा कि मुझे उसमें भाग लेना ही पड़ेगा. तब पहली बार कम्प्यूटर को छुआ. तब लगा कि भाई इतना कठिन तो नहीं था, बल्कि आसान ही था.

1992-93 की बात है कि जब ईमेल का प्रयोग होने लगा था. मुझे भी कहा गया कि ईमेल के कोर्स में भाग लूँ, तो मैंने मना कर दिया. कहा कि सैकरेट्री सीख लेगी, मुझसे यह नयी नयी तकनीकें नहीं सीखी जातीं. तब आज के कम्प्यूटरों वाली बात नहीं थी, डास पर कैसे डायरेक्टरी देखी जाये, फारमेट की जाये, कोपी की जाये, सब याद करना पड़ता था.

बदलाव आया 1994 में जब अमरीका में इंटरनेट देखा, जाना कि लोग ईमेल से हर दिन भारत के समाचार पढ़ सकते थे. वापस इटली आये तो ईमेल इंटरनेट के बारे में सीखा भी, घर के लिए भी कम्प्यूटर लिया और इंडिया मेलिंग लिस्ट से भारत के समाचार पाने लगे.

उसके बाद का बड़ा बदलाव आया 2001 के पास जब अपनी बेवसाईट बनाने की सोची. हाँ, न करते करते कई महीने निकल गये, धीरे धीरे एच टी एम एल भाषा को सीखा और सृजन नाम से बेवसाईट बनी जो बाद में कल्पना में बदल गयी. 2005 में इँटरनेट के माध्यम से बने मित्रों ने, विषेशकर देबू ने ब्लाग बनाने में सहायता की, तो वे भी बन गये. धीरे धीरे कल्पना के पृष्ठ फैलते बढ़ते गये.

अब पिछले एक साल से परेशान हूँ. एच टी एम एल से कल्पना के नये पृष्ठ बनाना, कुछ भी बदलाव करना हो तो इतना समय लग जाता है कि कुछ अन्य करने का समय ही नहीं मिलता. जानकार लोग बोले, "यार तुम सी एस एस का प्रयोग क्यों नहीं करते? या फ़िर जुमला या वर्डप्रेस से कल्पना को चलाओ." देबू और पंकज ने कुछ सलाह दीं. पर मन में वही बात आ जाती कि जाने मुझसे होगा या नहीं, यह नयी तकनीकें कैसे सीखूँगा? अपनी अक्षमता की बात के साथ मन में उम्र की बात भी जुड़ गयी है कि भैया अब अपनी उम्र देखो, अब नयी बातें सीखना उतना आसान नहीं.

खैर न न करते करते भी, सी एस एस पढ़ने लगा हूँ. शुरु शुरु में लगा कि यह तो अपनी समझ से बाहर की बात है, पर अब लगता है कि धीरे धीरे आ ही जायेगी. इसी चक्कर में इधर उधर जुमला, वर्डप्रेस आदि के बारे में कुछ जानकारी ली, तो सोचा कि सबसे आसान काम है इस चिट्ठे को बदलना. कल्पना पर जिस टेम्पलेट पर यह चल रहा है, वह 2006 में बना था, तबसे ब्लाग चलाने की तकनीकों में बदलाव आ गया है और चार सालों में लिखीं 396 पोस्ट के भार से बेचारा दबा हुआ है कि नयी पोस्ट जोड़ना कठिन हो गया है.

इसलिए यह इस चिट्ठे की आखिरी पोस्ट है. इसके बाद सभी पोस्ट "जो न कह सके" के नये चिट्ठे पर ही होंगी.



31 अक्टूबर 2009: सोचा तो यही था, वर्डप्रेस पर नया चिट्ठा भी बनाया था, लेकिन फ़िर एक मित्र ने पुराने चिट्ठे को नये ब्लागर टेम्पलेट पर लगाने का तरीका सिखाया. एक बार फ़िर लगा, अरे इतना कठिन तो नहीं था, अगर थोड़ी मेहनत करता तो शायद अपने आप ही समझ में आ जाता. खैर, देर आये पर दुरस्त आये,  और लौट कर बुद्धू वापस पुराने चिट्ठे पर आ गये. यानि "जो न कह सके" कहीं नहीं गये, जहाँ थे, वहीं रहेंगे.

लोग कहते थे कि वर्डप्रेस बहुत बढ़िया है, अवश्य होगा, पर मुझे शुरु से ब्लागर की आदत बनी थी, अब लगता है कि अपने लिये यही ठीक है!


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