पुरात्तवविज्ञ मानते हैं कि आज से करीब ३-४ हज़ार साल पहले मध्य-एशिया से इन्दो-यूरोपी भाषी लोग भारतीय उपमहाद्वीप में
आ कर बसे। उस समय भारत के इस हिस्से में सिंधु घाटी की सभ्यता के लोग रहते थे, लेकिन वह सभ्यता उस समय अपने उतार पर थी। यह लोग कैस्पियन सागर के आसपास से, विषेशकर अनातोलिया (Anatolia) क्षेत्र से आये थे, जो अब तुर्की का हिस्सा है।
भारत में आने वाले समूह के अतिरिक्त, दो अन्य इन्दो-यूरोपी भाषा बोलने वालों के समूहों के भी इतिहास में वर्णन मिले हैं - दक्षिण-पूर्वी सीरिया में मित्तानी या मितन्नी (Mitanni) साम्राज्य और आधुनिक ईरान के क्षेत्र में प्राचीन फारसी (Persian) साम्राज्य। यह तीनों जनसमूह एक जैसी भाषा बोलते थे, और उनका मूल स्थान एक ही था या आसपास था।
मैंने हाल में इतिहास की दो दिलचस्प किताबें पढ़ीं - प्राचीन ईरान के इतिहास पर लायड लेवेल्लिन (Lloyd Llewellyn) की किताब, "Persians - The Age of the Great Kings" और पश्चिम एशिया के इतिहास पर एरिक क्लाइन (Eric H. Cline) की किताब, "1177 BC - The Year Civilization Collapsed".
इस आलेख में इन दोनों किताबों से मिली जानकारी और इनसे जुड़ी भारतीय पुराणों की कहानियों की चर्चा है।
लायड लेवेल्लिन का फारसी इतिहास
यह किताब, ईसा से करीब ६०० वर्ष पहले के फारसी राजाओं के बारे में है। उस समय के फारसी राजाओं ने यवन-देश (Greece) पर कई हमले किये थे, जिन पर कुछ साल पहले हॉलीवुड की कुछ प्रसिद्ध फ़िल्में भी बनी थीं, विषेशकर "३००" और "३०० - डॉन ओफ द एम्पायर"। इन फ़िल्मों में और पुराने फारसी इतिहास की किताबों में उन राजाओं के नाम डारियस, ज़ेरेक्सिस, आदि दिये जाते हैं।
लेवेल्लिन अपनी किताब में लिखते हैं कि फारसी राजाओं के यह नाम उन्हें यवनों ने दिये थे और वह स्वयं अपने आप को दूसरे नामों से बुलाते थे, और उनकी भाषा में वहाँ के राजाओं के नाम कुरुष, अर्तसुर, दार्यवौश (Darius), ज़्यश्यार्षा (Xerexes), विदर्न आदि थे। यानि, इतनी सदियों के बाद भी फारस देश राजाओं के नामों में संस्कृत के शब्दों की कुछ प्रतिध्वनि थी।
(क्योंकि यह सब किताबें अंग्रेज़ी में हैं, अक्सर शब्दों के उच्चारण समझना कठिन होता है, जैसे कि समझ नहीं आता कि शब्द में "त" स्वर था या "ट"।)
क्लाइन के इतिहास में मित्तानी साम्राज्य और असुर
क्लाइन की किताब में ईसा से करीब १५०० वर्ष पहले असीरी देश के दक्षिण-पूर्वी में आ कर बसने वाले मित्तानी लोगों के वर्णन हैं। उस समय असीरी लोग अक्केडियन भाषा बोलते थे और, आधुनिक मिस्र, ईराक, लेबनान, साईप्रस तथा सीरिया देशों के क्षेत्रों में विभिन्न साम्राज्य थे, जिनके आपस में सम्बंध समय के साथ बदलते रहते थे। कभी दो राजा मिल कर तीसरे पर हमला करते थे, कभी पुराने दुश्मन, दोस्त बन जाते थे, कभी वह अपने बेटे-बेटियों के विवाह करवा कर रिश्तेदार बन जाते थे। उस समय का यह इतिहास मिस्र, इराक, सीरिया आदि देशों में मिले विभिन्न दस्तावेज़ों की जानकारी से सामने आया है।
मित्तानी जब असीरी देश में आये उस समय मिस्र में थुटमोज़ तृतीय फरोहा थे। मित्तानियों ने अपने देश को हर्री या हुर्री देश बुलाया और उनकी राजधानी का नाम वाशुकर्नी या वाशुकर्णी था। वे अपने रथों पर लड़ने वाले योद्धाओं को मरियान्नु बुलाते थे। तब मिस्र के फरोहा थुटमोज़ तृतीय ने उन पर हमला करके उन्हें हरा दिया था।
थुटमोज़ से हारने के करीब बीस साल बाद, मित्तानियों के राजा सौषतत्र ने असीरी देश पर हमला किया और उन्हें हराया और उनका सोना-चांदी उठा कर अपनी राजधानी वाशुकर्नी में ले आये।
इस बात के करीब चालिस-पैंतालिस साल के बाद, ईसा से १४८५ साल पहले, मित्तानी राजा तुशरथ ने मिस्र के फरोहा अमनेहोटेप तृतीय के लिए भेंटें भेजीं थीं, और उन्होंने अपने पत्र में मिस्री फरोहा को "निम्मूरेया" कह कर सम्बोधित किया था।
तशरथ राजा के बेटे का नाम शत्तीवज़ा था, और उनके प्रधान मंत्री का नाम केलिआ था। उस समय के अन्य मित्तानी लोगों के नाम थे - अर्तात्मा, अर्तशुम्रा, नीयू, मसीबदली, तुलुब्री, और हमशशि। मिस्र के फरोहा अमनेहोटेप तृतीय ने दो मित्तानी राजकुमारियों से विवाह भी किया था।
राजा तुशरथ के समय से करीब सौ-एक सौ बीस साल बाद, मित्तानी राजा शुर्तर्न-द्वितीय और असीरी राजा असुरउबलित में युद्ध हुआ और मित्तानी हार गये। इस युद्ध में हारने के बाद मित्तानियों का राज्य कमज़ोर होता गया। करीब बीस-पच्चीस साल बाद, मित्तानियों पर अनातोलिया से हित्ती राज्य ने भी हमला किया, और उनकी राजधानी वाशुकर्नी को नष्ट कर दिया। मित्तानी वहाँ पर शायद पचास साल तक और रुके, लेकिन असीरी राजा असुरशेलमनेसेर, जिन्होंने ईसा से १२७५ - १२४५ साल पहले तक शासन किया, के समय उनके राज्य का अंत हुआ। इस समय के बाद वहाँ के किसी इतिहासिक दस्तावेज़ में मित्तानी साम्राज्य का कोई निशान नहीं मिलता।
भारत के पुराणों में
अगर तीनों इन्दो-यूरोपी भाषा बोलने वाले जन समूह एक सोत्र से निकले थे, एक जैसी भाषा बोलते थे, तो यह हो सकता है कि उनके बीच में प्रारम्भ की सदियों में कुछ सम्पर्क रहे हों। चूँकि हमारे ग्रंथों में असुरों की बात होती है, हो सकता है असीरियों से हार कर बचे हुए मित्तानी भारत आ गये और अपने साथ वह लोग वहाँ की कहानियाँ अपने साथ ले कर आये।
देवों और असुरों के युद्ध की कहानियों में अमृत-मंथन और उसमें से कीमती पदार्थों के मिलने की बात है, जिन्हें देव धोखे से चुरा लेते हैं - शायद यह कहानी भी किसी मित्तानी और असीरी युद्ध को संकेतात्मक ढंग से बताती है। इस कहानी में मित्तानी लोग चालाकी से जीत जाते हैं, शायद इस तरह से उन्होंने अपनेआप को ऊँचा दिखाने की कोशिश की हो।
डॉ. रांगेय राघव ने पुराणों पर आधारित अपनी किताब "प्राचीन ब्राह्मण कहानियाँ" (१९५९, किताब महल, इलाहाबाद) में विभिन्न जन समूहों से सम्बंधों के बारे में लिखा है -
नहुष के द्वितीय पुत्र ययाति ने दो विवाह किये - एक विवाह किया दैत्यगुरु व योगाचार्य शुक्राचार्य की पुत्री देवयानि से, और उनके दो पुत्र हुए, यदु और पुर्वसु; दूसरा विवाह किया असुरराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से, और उनके तीन पुत्र हुए, द्रुह्यु, अनु और पुरु। देवयानि और शर्मिष्ठा सहेलियाँ थीं। ययाति पूरी पृथ्वी पर शासन करते थे और उन्होंने अपने राज्य को पाँच हिस्सों में बाँट कर अपने पाँचों बेटो में बाँट दिया था।
राजा दम ने दैत्यराज वृषपर्वा से धनुष चलाने की शिक्षा ली थी, दैत्यराज दुन्दुभि से अस्त्र प्राप्त किये थे, महार्षि शांति से वेदों का ज्ञान सीखा था और राजर्षि अष्टिर्षेण से योग विद्या ली थी।
वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वंश के राजा बाहु का दैत्यो से युद्ध हुआ। दैत्यों की ओर से शकों, यवन, पारद, काम्बोज आदि गणों ने युद्ध में भाग लिया और बाहु हार कर वन में रहने चले गये।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुशील जी
हटाएंसुदूर इतिहास के बारे में अत्यंत रोचक जानकारी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया, दोनो किताबो को लिस्ट में सहेज लिया है। सुझाने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंनीरज रोहिल्ला
🙏🙏🙏
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