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रविवार, फ़रवरी 05, 2012

छोटू, नन्हे और रामू काका


एक दो दिन पहले टीवी के सीरियल तथा फ़िल्में बाने वाली एकता कपूर का एक साक्षात्कार पढ़ा जिसमें उनसे पूछा गया कि क्या आप को अपने बीते दिनों की अपनी किसी बात पर पछतावा है, जिसके लिए आज आप चाह कर भी क्षमा नहीं माँग सकती. उन्होंने उत्तर दिया कि  "हाँ, मेरे पास अम्मा के लिए समय नहीं था. उन्होंने 27 साल तक हमारी देख भाल की. जब वह मर रहीं थीं तो मैं अपने काम में इतना व्यस्त थी कि उनके पास नहीं थी."

"स्वदेश" के मोहन भार्गव (शाहरुख खान) ऐसे ही पछतावे से प्रेरित हो अपनी बचपन की कावेरी अम्मा को मिलने के लिए भारत आते हैं.

"आई एम कलाम" का छोटू भट्टी साहब के ढाबे में काम करता है. काम तो बहुत करना पड़ता है और उसे पढ़ने का समय भी नहीं मिलता, लेकिन भट्टी बुरा आदमी नहीं है, वह छोटू से प्यार से बात करता है.

साठ सत्तर के दशक में फ़िल्मों में मध्यवर्गीय बड़े परिवार होते थे जिनमें घर में काम करने वाले पुराना वफ़ादार नौकर अवश्य होता था जिसे घर के लोग अक्सर रामू काका कहते थे. मनमोहन कृष्ण, ए. के. हँगल, सत्येन कप्पू, नाना पलसीकर जैसे अभिनेता यह भाग निभाने के लिए प्रसिद्ध थे. महमूद ने भी यह भाग बहुत सी फ़िल्मों में निभाया था, पर उनके अभिनीत नौकर खुशमिज़ाज़ होते थे जिन्हें अक्सर घर में काम करनी वाली लड़की से प्यार होता था, जबकि बाकि लोगों द्वारा अभिनीत नौकरों को दुखी या गम्भीर दिखाया जाता था. नब्बे के दशक में राजश्री की फ़िल्मों में लक्ष्मीकाँत बिर्डे ने यही भाग कई फ़िल्मों में निभाये थे.

अगर उन फ़िल्मों की बात करें जिनमें घर में काम करने वाले नौकर का भाग प्रमुख था तो मेरे दिमाग में नाम याद आते हैं - ऋषीकेश मुखर्जी की "बावर्ची" जिसमें बावर्ची बने थे राजेश खन्ना और "चुपके चुपके" जिसमें नौकर-ड्राइवर थे धर्मेन्द्र , गुलज़ार की "अँगूर" जिसमें नौकर के जुड़वा भाग में थे देवेन वर्मा और इस्माइल मेमन की "नौकर" जिसमें  नौकर  बने थे महमूद लेकिन जिनकी जगह नौकर बन कर आ जाते हैं संजीव कुमार. ऋषीकेश मुखर्जी की ही फ़िल्म "मिली" में घर के पुराने नौकर के भाग में नाना पलसिकर की बेबसी ने मेरे दिल को छू लिया था, जो बचपन से पाले शेखर (अमिताभ बच्चन) के शराबी हो कर बरबाद होते देख समझ कर भी कुछ कर नहीं पाता.

आजकल की फ़िल्मों में माता, पिता, भाई बहन, के साथ साथ, घर में काम करने वाले लोग भी पर्दे से गुम से हो गये हैं, कभी कभार ही दिखते हैं.

लेकिन क्या यह फ़िल्मों वाले रामू काका या नन्हे सचमुच के जीवन में भी होते हैं? और सचमुच के घर में काम करने वालों से कैसा व्यवहार किया जाता है? पच्चीस साल पहले दिल्ली में जहाँ रहते थे वहाँ हमारे पड़ोसी प्रोफेसर साहब के यहाँ पूरन काम करता था, गढ़वाल से आया था, जब छोटा सा था. प्रोफेसर साहब ने स्वयं उसे पढ़ा कर स्कूल के सब इन्तहान प्राईवेट ही पास करा दिये थे, फ़िर सरकारी नौकरी भी लग गयी थी और अपने परिवार के साथ रहता था, लेकिन जब तक प्रोफेसर साहब व उनकी पत्नि रहे, वह दफ्तर से आ कर उनके लिए खाना बना देता था.

पर अधिकतर घरों में काम करने वाले लोग, चाहे बच्चे हो या बड़े, उन्हें इन्सान कितने लोग समझते हैं? घर के बच्चों के लिए शिक्षा, खिलौने, मस्ती, और उसी घर में काम करने वाला बच्चा सारा दिन खटता है और अपेक्षा की जाती है कि उसे अहसानमन्द होना चाहिये कि भूखा नहीं मर रहा, बस दो वक्त की रोटी जो मिल जाती है.

Servant, graphic S. Deepak, 2012
अपनी नौकरी में समय से अधिक काम करना पड़े तो ओवरटाईम की बात होती है पर घर में काम करने वाले नौकर को दिन रात कभी भी जगा दो, जितनी देर तक मन आये काम करा लो, उसके लिए न ओवरटाईम न छुट्टी. रेस्टोरेंट में कई बार देखने को मिलता है कि सारा परिवार मिल कर मज़े से खाना खा रहा है और वहीं कोने में छोटी उम्र का नौकर चुपचाप घर के छोटे बच्चे की निगरानी कर रहा है.

कई बार जान पहचान वाले लोगों के घर देखे हैं, बड़े, खुले और आलीशान पर उन्हीं घरों में घर में काम करने वाले के लिए केवल छोटी सी अँधेरी कोठरी ही होती है. बहुत से घरों में वह कोठरी भी नहीं होती, वह रात को रसोई या अन्य किसी कमरे में ज़मीन पर भी बिस्तर लगाते हैं. कई लोगों को जानता हूँ जहाँ घर के काम करने वाले घर की कुर्सी या सोफ़े पर नहीं बैठ सकते, उन्हें नीचे ज़मीन पर ही बैठना होता है.

घर में काम करने वालों का कुछ यही हाल अन्य देशों में भी है. फिल्लीपीनस् की कितनी स्त्रियाँ यूरोप और मध्यपूर्व के देशों में घरों के काम करती हैं, उनके बच्चे और पति फिल्लीपीनस् में रहते हैं और वह घर पैसा भेजने के लिए खटती मरती हैं. यहाँ इटली में फिल्लीपीनस् के अतिरिक्त, पूर्वी यूरोप की रोमानिया, मालदाविया, यूक्रेन आदि देशों से बहुत सी स्त्रियाँ भी हैं. यहाँ भी कभी कभी घर में काम करने वालों से दुर्व्यवहार की बात सुनायी देती है लेकिन यहाँ मध्य पूर्व तथा भारत के आसपास के देशों वाला बुरा हाल नहीं है.

ईथियोपिया की औरतें जो मध्य पूर्व के देशों में काम करने जाती हैं, उनके पासपोर्ट ले लेते हैं और उन्हें गुलामी की हालत में रखते हैं और उनका यौनिक शोषण भी करते हैं. समाजशास्त्री बीना फेरनान्डेज़ ने एक सर्वे किया था जिसमें निकला कि सन 2009 में बयालिस हज़ार औरते ईथियोपिया से साऊदी अरेबिया में काम करने आयीं. सर्वे में यह भी निकला कि उनसे दिन में दस से बीस घँटे काम करवाया जाता है और महीने में एक दिन की छुट्टी मिलती है.

पिछले दिनों पाकिस्तान में इस्लामाबाद से खबर आयी थी ग्यारह वर्ष के शान अली की मृत्यु की जिसको उसकी मालकिन श्रीमति अतिया अल हुसैन ने गुस्से में गला दबा कर मार डाला था. इसी रिपोर्ट में लिखा था कि पाकिस्तान में छोटे बच्चे अक्सर घरों में काम करते हैं और उनके साथ बुरा व्यावहार होना आम बात है. अन्तर्राष्ट्रीय कामगार संस्था के अनुसार पाकिस्तान में दो लाख चौंसठ हज़ार बच्चे घरों में नौकर हैं. उनका कहना कि बहुत से परिवार बच्चों को ही काम पर रखना पसंद करते हैं क्योंकि इससे उन्हें लगता है कि घर की औरतों और बच्चों को कोई खतरा नहीं होगा.

घर में काम करने वाले रखना चीन तथा मेक्सिको जैसे देशों में आम है, लेकिन वहाँ घरों में काम करने जाने वाले बच्चे आम नहीं हैं.

भारत में घरों में काम करने वालों का अनुमान लगाया गया है कि एक करोड़ हैं, उनमें से अधिकाँश औरते एवं लड़कियाँ हैं. जहाँ बड़े परिवार टूट रहे हैं और उनकी जगह माता-पिता और उनके एक या दो बच्चों वाले परिवार ले रहे हैं और जहाँ औरतें काम पर जाती हैं वहाँ घर में काम करने वाले के बिना गुज़ारा नहीं होता.

ऐसा कैसे हो कि वे "नौकर" नहीं "कामगार" माने जायें और हर कामगार की तरह उनके भी अधिकार हों?

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शुक्रवार, नवंबर 11, 2011

अल्वीरा का पत्र


आखिरकार इतालवी प्रधानमंत्री श्री बरलुस्कोनी के सूर्यास्त का समय आ ही गया. सरकार में रह कर उन्होंने क्या किया और क्या नहीं किया, शायद इसे तो इतिहास भूल भी जाये, पर उनके व्यक्तिगत जीवन की बातें जैसे कि भद्दे इशारे या मज़ाक करना, नवजवान और नाबालिग लड़कियों से जुड़े हुए किस्से, बहुत समय तक याद रखे जायेंगे. उनके राजनीतिक भविष्य का क्या होगा यह तो समय ही बतायेगा. कुछ समय पहले अल्बानिया देश की यात्रा में कही उनकी कुछ बातों पर अल्बानी मूल के लेखिका अल्वीरा दोनेस (Elvira Dones) जो इटली में रहती हैं, ने उनके नाम एक चिट्ठी लिखी थी जिसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ.

पिछले दशकों में इटली के दक्षिण में भूमध्यसागर के आसपास के देशों, टुनिज़ी, मोरोक्को, लिबिया, अल्बानिया आदि से हो कर अफ़्रीका तथा एशिया से नावों से समुद्र के रास्ते इटली में बहुत से गैरकानूनी प्रवासी आने लगे थे. बरलुस्कोनी सरकार ने प्रवासियों का हव्वा बना दिया था कि यह गुण्डे हैं, अपराधी हैं और इटली की सभ्यता को मिटा रहे हैं. इसी वजह से इन गैरकानूनी प्रवासियों को रोकने के लिए उनकी सरकार ने नये कठोर कानून बनाये. यहाँ तक कि समुद्र में डूबते हुए, मरते हुए लोगों को मदद देने को भी बुरा माना जाने लगा, मानो प्रवासी इन्सान न हों.

इसके साथ ही बरलुस्कोनी सरकार ने भूमध्यसागर के आसपास के देशों को पैसे दिये और उनसे समझौते किये कि वे अपने समुद्रतटों पर पहरेदारी करें और नाव वालों को प्रवासियों को ले कर इटली में घुसने से रोकें. जिस बात पर अल्वीरा ने चिट्ठी लिखी वह इन्हीं प्रवासियों की नावों को रोकने की बात से जुड़ी थी.
"आदरणीय प्रधानमंत्री जी, आप को उस अखबार के माध्यम से यह चिट्ठी लिख रही हूँ जिसे शायद आप नहीं पढ़ते होंगे, लेकिन बिना कुछ लिखे नहीं रह सकती थी क्योंकि पिछले शुक्रवार को आप ने हमेशा की तरह अपने क्रूर मज़ाक करने की आदत से उन लोगों की बात की जो मुझे बहुत प्रिय हैं: अल्बानिया की सुन्दर लड़कियाँ. जब मेरे देश के प्रधानमंत्री आप को भरोसा दे रहे थे कि वह इटली की ओर आने वाली प्रवासियों की नावों को रोकेंगे तो आप ने कहा कि "सुन्दर लड़कियों के लिए यह बात लागू नहीं होती".
मैं उन "सुन्दर लड़कियों" से कई बार मिली हूँ, रातों में, दिनों में, अपने दलालों से छुपते हुए, मैंने उत्तर में मिलान से दक्षिण में सिसली तक उनकी यात्रा देखी है. मुझे उन्होंने मुझे अपने तबाह, शोषित जीवनों के बारे में बताया है.
"स्तेल्ला" के पेट पर उसके मालिकों ने गरम सलाख से एक शब्द दाग़ दिया थाः वैश्या.
सुन्दर थी वह बहुत, लेकिन उसमें एक कमी थी. अल्बानिया से उठा कर इटली में लायी गयी स्तेल्ला फुटपाथ पर स्वयं को बेचने से इन्कार करती थी. एक महीने तक उसके साथ अल्बानी दल्लों और उनके इतालिवी साथियों ने मिल कर बलात्कार किये और अंत में उसे अपनी इस नियती के सामने झुकना पड़ा. वह उत्तरी इटली के बहुत से शहरों के फुटपाथों पर बिकी. फ़िर तीन साल बाद, उसके पेट पर वह शब्द दाग़ा गया, शायद यूँ ही मज़ाक में या समय बिताने के लिए. एक समय था जब वह सुन्दर थी. आज वह दुनिया के हाशिये से बाहर है. न कभी प्यार होगा उसे, न वह कभी माँ बनेगी, न कभी किसी की नानी या दादी. उस पेट पर लिखे वैश्या शब्द ने उसके भविष्य से सभी आशाओं और सपनों को छीन लिया है. पुरुषों को खिलौना बन कर उसका गर्भअंग भी नष्ट हो चुका है.
इन "सुन्दर लड़कियों" पर मैंने एक किताब लिखी थी, "सोले ब्रुचातो" (जला हुआ सूर्य). फ़िर कुछ सालों के बाद स्विटज़रलैंड के टेलीविज़न के लिए इसी विषय पर एक डाकूमैंटरी फ़िल्म भी बनायी थी. उस फ़िल्म के लिए मैं एक अन्य सुन्दर लड़की की खोज में निकली थी जिसका नाम था ब्रुनिल्दा. उसके पिता ने मुझे प्रार्थना की थी कि मैं उसकी बेटी को खोजने में मदद करूँ. वह उन अल्बानी पिताओं मे से हैं जो अपनी बेटियाँ खोज रहे हैं. उनकी बेटियाँ अल्बानियाँ से उठा कर इटली लायी जाती हैं, उन्हें कसाईघरों में उल्टा लटकाया जाता है, उनके साथ बलात्कार करते हैं, उन्हें यातना देते हैं जब तक वह वैश्या बनने को मानती नहीं. प्रधानमंत्री जी, वह भी आप के ही जैसे पिता हैं पर आप जैसा भाग्य नहीं है उनका. आज भी ब्रुनिल्दा का पिता मानना नहीं चाहता कि उसकी बेटी मर चुकी है, वह किसी चमत्कार में आशा रखता है कि उसकी बेटी कहीं छिपी है, वापस आ जायेगी.
लम्बी कहानी है प्रधानमंत्री जी, आप शायद सुनना नहीं चाहेंगे. इतना अवश्य कहूँगी कि मुझसे अगर आप अपने मज़ाक की बातें करेंगी तो उन्हें चुप नहीं सुनूँगी. हर स्तेल्ला, बियाँका, ब्रुनिल्दा और उनके परिवारों के नाम पर आप को यह पत्र लिखना मेरा कर्तव्य था. पिछले बीस सालों के बदलाव में मेरे देश अल्बानिया ने स्वयं अपने आप को बहुत से घाव और दुख दिये हैं, लेकिन अब हम लोग सिर उठा कर, गर्व से चलना चाहते हैं. बेमतलब की क्रूर टिप्पणियों को नहीं स्वीकार करेंगे.
Graphic by S. Deepak, 2011
मेरे विचार में किसी मानव जीवन की दर्दपूर्ण नियति पर अगर अपनी क्रूर टिप्पणियाँ नहीं करें तो इसमे सभी का भला होगा. आप के उन शब्दों पर किसी ने कुछ नहीं कहा. शायद सब लोग अन्य झँझटों की सोच रहे हैं. किसी के पास समय नहीं जबकि आप व आप के अन्य साथी, औरतों के बारे में इस तरह की नीची बातें हमेशा से ही करते आये हैं. इस तरह की सोच और बातें, उन अपराधियों से जो अल्बानी नवयुवतियों का शोषण करते हैं, कम नहीं हैं. आप की ओर से शर्म के साथ अल्बानी औरतों से मैं क्षमा माँगती हूँ."
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शुक्रवार, अगस्त 12, 2011

अधिकारों का आरक्षण


जब एक मानव अधिकार, किसी दूसरे के मानव अधिकार को प्रभावित करे, तो किस मानव अधिकार को महत्व और सरंक्षण मिलना चाहिये? श्री प्रकाश झा की नयी फ़िल्म "आरक्षण" पर हो रही बहसों के बारे में पढ़ कर मैं यही बात सोच रहा था.

इस बहस में है एक ओर फ़िल्म बनाने वालों की कलात्मक अभिव्यक्ति का अधिकार, अपनी बात कहने का अधिकार, और दूसरी ओर है, दलित शोषित मानव वर्ग की चिन्ता कि सवर्णों की कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर उन्हें फ़िर से नीचा दिखाने और संघर्षों से अर्ज़ित अधिकारों के विरुद्ध बात की जायेगी.

Poster of film - Aarakshan

कौन सा अधिकार सर्वोच्च माना जाया उसकी यह बहस नयी नहीं है और अन्य मानव गुट बहुत समय से इसका समाधान खोज रहे हैं.

जैसे कि विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों तथा नारी अधिकारों की बात करने वाले गुटों की बहस.

नारी अधिकारों में गर्भपात का अधिकार भी है, जिसे कुछ देशों में बहुत कठिनायी से जीता गया है. इस अधिकार का अर्थ है कि गर्भ के पहले 18 से 20 सप्ताह में, अगर नारी किसी वजह से उस गर्भ को नहीं चाहती तो वह गर्भपात करवा सकती है. बहुत से देशों में यह अधिकार नहीं है. कैथोलिक धर्म नेताओं ने इस अधिकार का हमेशा विरोध किया है क्योंकि वह मानते हैं कि जीवन उसी क्षण से प्रारम्भ हो जाता है जब नर और नारी के अंश मिल कर गर्भ की शुरुआत करते हैं, इसलिए उनका मानना है कि नारी का गर्भपात का अधिकार, होने वाले बच्चे के जीवन के अधिकार के विरुद्ध है, और जीवन का अधिकार सर्वोच्च है. चाहे होने वाला बच्चा बलात्कार का परिणाम हो या यह मालूम हो कि बच्चा विकलाँग होगा, कैथोलिक धर्म नेता यही कहते हैं कि उसका जीवन अधिकार नहीं छीना जा सकता.

विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों का कहना है कि यह मानना कि विकलाँग होने से किसी व्यक्ति को जीने का अधिकार नहीं, और उसे गर्भपात से मारने की अनुमति देना गलत है, विकलाँग बच्चों को भी पैदा होने का अधिकार है. वह नारियों के गर्भपात के अधिकार के विरुद्ध नहीं लेकिन कहते हैं कि यह गलत है कि केवल इस लिए गर्भपात किया जाये क्योंकि होने वाला बच्चा विकलाँग होगा.

विकलाँग व्यक्तियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले गुट भी टीवी, फ़िल्म आदि में विकलाँग व्यक्तियों के चित्रण के विरुद्ध लड़ते आये हैं. उनका कहना है कि अक्सर सिनेमा में विकलाँग व्यक्तियों को हास्यप्रद व्यक्ति बनाया जाता है जिसमें लोग उनकी विकलाँगता का मज़ाक उड़ाते हैं, उनके बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनके पुरुष होने या स्त्री होने के मानव अधिकारों को नकारते हैं.

तो प्रकाश झा की "आरक्षण" के बारे में हो रही बहस का क्या समाधान है? मेरे विचार में इसका समाधान बहस ही है, यानि फ़िल्म क्या कहती है, कैसे कहती है, हम उससे सहमत हैं या असहमत, इस पर सभ्यता से बहस करना.

यह कहना कि उसकी कहानी बदल दी जाये या उसके डायलाग बदल दिये जायें, यह नकारना है कि दुनिया में ऐसे व्यक्ति होते हें जो उस तरह का सोचते या बोलते हैं, और फ़िल्मकार की स्वतंत्रता पर रोक लगायी जाये कि कौन से पात्र चुने, कौन सी कहानी कहे.

यह कहना कि फ़िल्में, कहानियाँ, उपन्यास, दलितों के विरुद्ध कुछ भी कहने से पहले इस व्यक्ति या उस कमिशन या इस दल की अनुमति लें का अर्थ हर नागरिक के अधिकारों का हनन है.

चाहे सवर्ण हो या दलित, मराठी हों या गुजराती या बँगाली, नर हो या नारी, अमीर हो या गरीब, हर समाज में कुछ लोग होते हैं जो बात चीत में नहीं बल्कि हिँसा में और तानाशाही में विश्वास रखते हैं. मुम्बई में जब शिवसैना के लोग किसी फ़िल्म को या किताब को या चित्रकला को बैन करने या नष्ट करने के लिए धमकी देते हैं वह लोग उन दलित नेताओं से किस तरह भिन्न हैं जो किसी फ़िल्म को या किताब को बैन करने की माँग करते हैं? किसी भी बात पर, लोगों को अपनी सहमती असहमती को न जताने देना, यह कहना कि बस मेरी बात मानिये, गणतंत्र का हिस्सा नहीं, तानाशाही का हिस्सा है.

जिन राज्यों ने फ़िल्म को प्रदर्शित होने से रोका है, मालूम है कि रोकने से केवल सिनेमा हाल में फ़िल्म रोकी जायेगी. इस रोक से बहुत से लोगों में फ़िल्म देखने की उत्सुकता बढ़ेगी और दूसरे तीसरे दिन ही पायरेटिक डीवीडी बाज़ार में मिल जायेंगी. जो लोग देखना चाहते हैं वह फ़िल्म तो देखेंगे, हाँ निर्माता निर्देशक को अवश्य आर्थिक नुकसान होगा, और डँडाराज की मानसिकता इसी से प्रसन्न होगी, कि कैसा पाठ पढ़ाया, अगली बार कोई हमारे सामने सिर नहीं उठायेगा. सवर्णों ने सदियों से यही किया है, डँडाराज के सहारे दलितों को दबाया है, जब मौका मिलता है तो दलित क्यों न वही हथियार उठायें?

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शुक्रवार, मार्च 04, 2011

हाहाकार का नाम

"ख़ामोशी" फ़िल्म में गुलज़ार साहब का एक बहुत सुन्दर गीत था, "हमने देखी हैं उन आँखों की महकती खुशबु ... प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो". लेकिन अगर आँखों में प्यार नहीं हाहाकार हो तो क्या उसे नाम देने की कोशिश करना ठीक है?

कुछ दिन पहले घुघूती बासूती जी के चिट्ठे पर "बच्चा खोने के दर्द" में जमनीबाई की कहानी पढ़ते पढ़ते, अचानक मन में कुछ साल पहले की एक पार्टी की याद उभर आयी थी. मेरे साथ काम करने वाले मित्र के यहाँ थी वह पार्टी. वहीं मेरी मुलाकात एक अर्जेनटीनी युवक से हुई जो तब जेनेवा में रहता था. मैं तब कई महीने तक जेनेवा में रह कर वापस इटली लौटा था और हम लोग आपस में जेनेवा में रहने के अपने अनुभवों की बात कर रहे थे. क्या नाम था उसका यह याद नहीं, लेकिन क्या बात कही थी उसने, वह याद है.

खाना लगा तो हम दोनो साथ साथ ही बैठे और बातें करते रहे. खाना समाप्त हुआ तो हम दोनो वाईन का गिलास ले कर, बाहर बालकनी में आ खड़े हुए. मेरे मित्र का घर पहाड़ी पर है और बालकनी के नीचे बड़ा बाग है, जहाँ महमानों के बच्चे शोर मचाते हुए खेल रहे थे. पहाड़ी पर उतरती शाम के साये, हल्की सी ठँड, बहुत सुन्दर लग रहा था. यात्राओं की बात चल रही थी, तो उसने अपने पंद्रह बीस साल पहले के एक अनुभव के बारे में बताना शुरु किया जब वह बुओनुस आयरस के विश्वविद्यालय से एन्थ्रोपोलोजी में नयी स्नातक डिग्री ले कर निकला था और अपने विश्वविद्यालय के कुछ मित्रों के साथ मिल कर वहीं के एक छोटे से फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी में काम करने वाले एक छोटे से गुट में काम करने लगा था.

एन्रथ्रोपोलोजी यानि मानवविज्ञान में मानव जीवन, रहन सहन, रीति रिवाज़, सभ्यता जैसे विषयों को पढ़ा जाता है, जैसे कि लोग आदिवासी जातियों के बारे में यह सब बातें जानने की कोशिश करते हैं. "फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी" (Forensic anthropology) यानि "कानूनी मानवविज्ञान", हड्डियों और अन्य मानव अवषेशों की सहायता से उनके बारे में जानने की कोशिश करता है. यही काम था उस गुट का, सत्तर के दशक में अर्जेन्टीना में हुए तानाशाही शासन में गुम कर दिये गये लोगों की सामूहिक कब्रों से हड्डियाँ निकाल कर, यह समझने की कोशिश करना कि वह किसकी हड्डियाँ थीं और उन्हें उस व्यक्ति के परिवार को देना ताकि वह उसका ठीक से संस्कार कर सकें. कुछ ही सालों में यह गुट इस तरह के काम करने में इतना दक्ष हो गया था कि आसपास के देशों से भी उन्हें बुलावे आने लगे थे कि वहाँ जा कर सामुहिक कब्रों में रखे अवषेशों की पहचान में उनकी मदद करें.

इसी काम में उस युवक को ग्वाटेमाला जाने का मौका मिला था, जिस यात्रा की वह बात बता रहा था, "बड़ी सामुहिक कब्र थी, जिसमें उन्होंने सौ से भी अधिक बच्चे मार कर डाले थे. उनकी हड्डियों को जोड़ कर शवों को अलग अलग करके पहचानने की कोशिश करने का काम था. सभी बच्चे बारह साल से छोटी उम्र के थे. बच्चों की हड्डियाँ देखने लगे तो समझ में आया कि उन्हें किस तरह मारा गया था. शायद उनके पास गोलियाँ कम थीं या गोलियाँ मँहगी होती हैं और वह इतना खर्चा नहीं करना चाहते थे. तो वह लोग बच्चे का सिर चट्टान पर मार कर फोड़ते थे और फ़िर उसके शव को नीचे खड्डे में फैंक देते थे."

शायद वाईन का असर था या उस सुन्दर शाम का, मैं पहले तो स्तब्ध सुनता रहा, फ़िर मुझे रोना आ गया. मुझे रोता देख वह चुप हो गया.

बासूती जी की पोस्ट पढ़ी तो यह बात याद आ गयी. दुनिया में कितने बच्चों का दर्द जिनके माता पिताओं को गायब कर दिया गया, कितने माता पिताओं का दर्द, जिनके बच्चों को गायब कर दिया गया.

मैंने इंटरनेट पर फोरेन्सिक एन्थ्रोपोलोजी के उस अर्जेन्टीनी गुट के बारे में खोजा तो मालूम चला कि उसका नाम है एआफ यानि "एकीपो अर्जेन्टिनो दे एन्थ्रोपोलोजिया फोरेन्से" (Equipo Argentino de Antropología Forense, EAAF). उनके बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो उनके वेबपृष्ठ पर पढ़ सकते हैं. इंटरनेट पर एआफ की सन 2007 की वार्षिक रिपोर्ट भी है जिसमें उनके काम के बारे में बहुत सी जानकारी मिलती है.

मुझे इस रिपोर्ट में उन देशों की लम्बी लिस्ट देख कर हैरत हुई, जहाँ एआफ को इस तरह सामूहिक कब्रों में हड्डियों की पहचान के लिए बुलाया गया है. यानि दुनिया के इतने सारे देशों में तानाशाहों ने, या तथाकथित जनतंत्रों में भी पुलिस या मिलेट्री ने कितने हज़ारों लोगों को मारा होगा! हड्डियों से पहचानना कि यह कौन सा व्यक्ति था, इस काम में अर्जेन्टीना का यह गुट "एआफ" दुनिया के सबसे अनुभवी गुटों में गिना जाता है और यह लोग एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों में काम कर चुके हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने दक्षिण अमरीकी क्राँतिकारी चे ग्वेवारा के अवषेशों से उनकी कब्र को पहचान कर बहुत प्रसिद्ध पायी थी. जब एआफ ने काम करना शुरु किया था तो डीएनए की जाँच करना संभव नहीं था लेकिन पिछले दशक में यह तकनीक बहुत आसान हो गयी है और पहचान में आसानी हो गयी है. अपने बच्चों या प्रियजनों को खोजने वालों से थोड़ा सा खून देने को कहा जाता है और उस खून के डीएनए को हड्डियों के डीएनए से मिलाया जाता है.

सब लोगों के शव नहीं मिलते. एक एक करके मारना खर्चीला होता है, कहते हैं कि अर्जेन्टीना में लोगों को मिलट्री वाले जहाज़ में बिठा कर ले जाते थे, और समुद्र के ऊपर सबको बाहर धक्का दे देते थे.

Monument to the dead, certosa cemetry, Bologna

सत्तर के दशक में अर्जेंन्टीना में करीब 9000 लोग "गुम" किये गये. पहले तो सालों तक उन लोगों की माएँ, नानियाँ, दादियाँ लड़ती रहीं यह जानने के लिए कि उनके बच्चों का क्या हुआ. जिन नवयुवकों और नवयुवतियों को "गुम" किया गया, कई बार उनके बच्चों को नहीं मारा गया, बल्कि, उनके माँ बाप को मारने वाले मिलेट्री वालों के कुछ परिवारों ने उन्हें अपने बच्चों की तरह पाला. आज भी, तीस चालिस सालों के बाद, उन्हीं परिवारों की नयी पीढ़ियाँ इसी लड़ाई में लगे हैं, या जानने के लिए कि उनके परिवार के लोगों का क्या हुआ. बहुतों के मन में आशा है कि शायद उनके खोये हुए बच्चों का पता मिल जाये. वह न भी मिले, परिवार वालों को अपने प्रियजन के मृत शरीर के अवषेश मिलना भी एक तरह की मानसिक शाँती है जिससे कि सालों की खोज और उससे जुड़ी आशा समाप्त हो जाती है.

हमारे रिश्ते, हमारे परिवार, हमारे बच्चे ही हमारे जीवन का सार हैं. उनके बिना जीवन भी अर्थहीन लगे. अगर अपना किसी दुर्घटना में मरे या मार दिया जाये, तो भी वेदना कम नहीं होती, लेकिन मन को समझ तो आ जाता है कि जाने वाला चला गया. जिन्होंने अपने खोये हैं, जो एक दिन घर से निकले फ़िर वापस नहीं आये, या जिन्हें पुलिस ले गयी पर उनका कुछ पता नहीं चले कि क्या हुआ, तो मन भटकता ही रहेगा, इसी आशा में शायद कहीं किसी तरह से बच गयें हों और एक दिन मिल जायें.

हड्डियों को नाम मिल जाने से, जिसे खोया था वह तो नहीं मिल सकता लेकिन उसे खोने का जो हाहाकार आँखों में बसा होता है, उसे एक नाम मिल जाता है.

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बुधवार, मार्च 02, 2011

दुनिया का पाकिस्तानीकरण

कुछ समय पहले सूडान में एक जनमत हुआ जिसमें देश के दक्षिणी भाग में रहने वाले लोगों को चुनना था कि वह सूडान में रहना चाहेंगे या फ़िर अपना अलग देश चाहेंगे. इस जनमत का नतीजा निकला है कि 98 प्रतिशत से अधिक दक्षिणी सूडान के लोग अपने लिए अपना अलग देश चाहते हैं. अधिकतर लोगों ने इस जीत का स्वागत किया है, वह कहते हैं कि इससे लाखों लोगों की मृत्यु और वर्षों से चलते दंगों का अंत होगा. धर्म के नाम पर अलग देश चाहने वालों की जीत से मेरे मन में बहुत से प्रश्न उठे, जिनके उत्तर शायद आसान नहीं.

अफ्रीकी जीवन के विषेशज्ञ प्रोफेसर अली मज़रुयी का एक लेख पढ़ा जिसमें मुझे अपने प्रश्नों की प्रतिध्वनि दिखी. प्रोफेसर मरज़ुई ने इसे "दुनिया का बढ़ता हुआ पाकिस्तानीकरण" कहा है. उन्होंने लिखा हैः
यूरोपीय साम्राज्यवाद के बाद के अफ्रीका महाद्वीप में दो तरह की लड़ाईयाँ हुई हैं - आत्म पहचान की लड़ाईयाँ जैसे कि रुवान्डा में हुटू और टुटसी की लड़ाई, और प्राकृतिक सम्पदा की लड़ाई जैसे कि नीजर डेल्टा में पैट्रोल के लिए होने वाली लड़ाई... पर अफ्रीकी महाद्वीप में 2000 से अधिक जाति गुट बसते हैं, अगर उनमें से दस प्रतिशत को भी अपने लिए स्वतंत्र राज्य मिले तो अफ्रीका छोटे छोटे देशों में बँट जायेगा जिनमें आपस में युद्ध होंगे. ..अफ्रीका में होने वाले विभिन्न, अपना अलग राज्य पाने के प्रयासों के पीछे, अधिकतर जाति या नस्ल के प्रश्न रहे हैं, न कि धार्मिक प्रश्न. 1950 के दशक में क्वामे न्करुमाह जैसे अफ्रीका नेताओं ने "पाकिस्तानीकरण" के विरुद्ध, यानि धार्मिक बुनियादों पर अलग होने के विचार पर चिंता व्यक्त की थी. जब भारत का विभाजन हुआ था, कई अफ्रीकी राष्ट्रवादी नेता, ब्रिटिश भारत में हिंदू मस्लिम तनाव का कारण बता कर में भारत के विभाजन करने के विरुद्ध थे, क्योंकि जानते थे कि अफ्रीका में भी ऐसे कुछ देश थे, जहाँ इस तरह के निर्णय लिये जा सकते थे. जैसे कि नाईजीरिया जहाँ उत्तर में मुसलमानों का बहुमत है और दक्षिण में ईसाईयों का.

आखिर यह नीति सुडान तक पहुँच गयी है, ईसाई बहुमत वाला दक्षिणी भाग, उत्तरी मुस्लिम भाग से अलग हो जायेगा. दक्षिणी सूडानी कहते हैं कि उत्तरी सूडानी उनसे भेदभाव करते हैं... लेकिन दक्षिण सूडान भी अलग जाति गुटों से बना है. कल को वहाँ रहने वाली अल्पमत गुट कहने लगेगें कि डिंका लोग हमें समान अधिकार नहीं देते. पैट्रोल की सम्पदा को कैसे बाँटा जाये, भी जटिल प्रश्न होगा.
धर्म के नाम पर, या अन्य किसी जाति विभिन्नता के नाम पर अलग देश माँगना, एक ऐसा चक्कर है जो कहीं नहीं रुकता. पाकिस्तान अलग देश बना तो क्या उसके अपने बलूचियों, सिंधियों, पँजाबियों, पठानों के बीच के अंतर्विरोध मिट गये? भारत के उत्तर में कश्मीर की घाटी में इसी नाम से हिँसा आज भी जारी है. किसी भी देश के सब निवासियों को जाति, धर्म आदि के भेदों से ऊपर उठ कर विकास के समान अधिकार मिलें यह अवश्यक है, और उन्हें ऐसी सरकारें चाहियें जो यह नीति लागू कर सकें. पर जब ऐसा नहीं होता, या किसी गुट को लगे कि उसके साथ न्याय नहीं हो रहा, तो अलग अपना देश या राज्य माँगने लगते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि अक्सर, बँटवारा चाहने वाले, समान विकास और अधिकारों के प्रश्न को महत्वपूर्ण नहीं मानते, अपनी जाति, मान, रीति और धर्म के प्रश्न उठा कर राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काते हैं और पीछे ध्येय होता है कि कैसा बाकी सब गुटों से ताकतवर बने और देश की सम्पदा को अपने काबू में रखें.

कुछ देशों में मुस्लिम बहुमत वाले इलाकों ने शरीयत पर आधारित काननों को सब पर लागू कराना चाहा है, वह ज़ोर डालते हैं कि सब लोग उनके कहे के अनुसार पहने, खायें, व्यवहार करें. इससे अलग होने की भावना तेज होती है. नाईजीरिया में इसी वजह से तनाव बढ़े हैं. भारत के कुछ हिस्सों में हिंदू संस्कृति या मुसलमान आत्मनिष्ठा के नाम पर लोगों पर इसी तरह के दबाव डालते हैं. यही वजह है कि जब सूडान के दक्षिण वाले लोगों के जनमत में अलग होने के निर्णय के बारे में सुना तो मुझे कुछ भय सा लगा कि इससे अलग होने वाले गुटों को बल मिलेगा.

आज की दुनिया की बहुत सी समस्याओं की जड़ें पिछली सदी के यूरोपीय साम्राज्यवाद में छुपी हैं. साम्राज्यवाद के समाप्त होने के बाद भी, यूरोप ने विभिन्न तरीकों से अफ्रीका, अमरीका और एशिया के देशों में अपने स्वार्थ के लिए तानाशाहों को सहारा दिया है, जिसमें देशों में रहने वाले विभिन्न गुटों को समान अधिकार नहीं मिले. आज जहाँ एक ओर विभिन्न अरब देशों में इजिप्ट, टुनिज़ि, लिबिया जैसे देशों में हो रहे जनतंत्र के आन्दोलन इस्लाम की नहीं, मानव अधिकारों के मूल्यों की आवाज़ उठा रहे हैं, वहीं जनतंत्र की दुहायी देने वाले यूरोपी नेता अपने तानाशाह मित्रों पर आये खतरे से घबरा कर "इस्लामी रूढ़िवाद" के डर की बात कर रहे हैं.

दूसरी ओर, यूरोप में रहने वाले अन्य देशों से आये प्रवासियों में रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं की आवाज़, अपने मानव अधिकारों के नाम पर पारम्परिक रीति रिवाज़ों और मूल्यों को बनाये रहने की लिए ही उठती है. यही लोग अक्सर विदेशों से अपने देशों में रुढ़िवादी और देशों को बाँटने वाली ताकतों को पैसा भेजते हैं. वह यूरोप या अमरीका जैसे देशों में रह कर भी संस्कृति बचाने के नाम पर अपने परिवारों और गुटों पर पूरा काबू बना कर रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर मारने मरवाने से नहीं घबराते. उनमें नारी के समान अधिकारों या विकास की बात कम ही होती है. इस विषय यूरोप में रहने वाले मुसलमान नेताओं के बारे में फरवरी के "हँस" में शीबा जी ने लिखा हैः
कठमुल्ला वर्ग बड़ी बेशर्मी से फ्रांस के बुरक़ा बैन पर टीवी, अखबार आदि में अवतरित हो कर फ्रांस की सरकार को लोकताँत्रिक मूल्य याद दिलाने लगता है. तब इन्हें शर्म नहीं आती कि जिस मुँह से यह ज़बरदस्ती बुरक़ा उतारने को बुरा कह रहे हैं "चुनाव की आज़ादी" के आधार पर, उसी मुँह से इन्हें अरब ईरान आदि देशों में ज़बरदस्ती औरतों को बुरक़ा पहनाने की भर्त्सना भी तो करनी चाहिये जो उतना ही चुनाव के अधिकार का हनन है. लेकिन नहीं, इन्हें अरब ईरान पर उंगली उठाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती क्योंकि वहाँ की ज़बरदस्ती इन्हें जायज़ लगती है.
पर यह बात केवल मुसलमान गुटों की नहीं है. अमरीका में रहने वाले कट्टरपंथी यहूदी गुट एक अन्य उदाहरण है जिनका ईज़राईल पर गहरा प्रभाव है.

धार्मिक रूढ़िवाद और परम्परा बनाये रखने वालों की लड़ाई है कि अपने आप को कैसे अन्य गुटों से अलग किया जाये, दुनिया को कैसे बाँटा जाये, कैसे अपने धर्म का झँडा सबसे ऊँचा किया जाये और कैसे अन्य सब धर्मों को नीचा किया जाये. उदारवाद और मानव अधिकारों की दृष्टि से देखें तो धर्म व्यक्तिगत मामला है, कानून के लिए सभी समान होने चाहिये, सबको समान अधिकार और मौके मिलने चाहिये. समय के साथ इन दोनों में से किसका पलड़ा भारी होगा, कौन से रास्ते पर जायेगी मानवता?

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शुक्रवार, जनवरी 21, 2011

अलेसान्द्रा का प्रश्न

बोलोनिया में रहने वाली मेरी जान पहचान की अलेस्साँद्रा की कहानी आज कल हर दिन किसी न किसी अखबार पत्रिका या टीवी पर दिखायी जा रही है. अलेस्साँद्रा कहती है, "मेरा बस चलता तो मैं यह बात इस तरह से नहीं उठाती, लेकिन बात मेरे मानव अधिकारों की है और मैं पीछे नहीं हटूँगी."

हुआ यह कि अलेस्साँद्रा ने नगरपालिका दफ़्तर में अर्ज़ी दी अपना नया व्यक्तिगत पहचानपत्र यानि आई कार्ड बनाने की. नगरपालिका वालों ने कहा कि हम आप को आई कार्ड में विवाहित नहीं लिख सकते, आप को तलाक लेना पड़ेगा, आप का विवाह हमारे देश के कानून के हिसाब से गलत है.

Alessandra Bernaroli, Bologna, Italy

अलेस्साँद्रा कहती है, "क्या जबरदस्ती है, मैं क्यों तलाक लूँ? मैंने चर्च में भगवान के सामने शादी की है, फ़िर कोर्ट में सिविल विवाह किया है. हमने सुख दुख में साथ निभाने की कसम खायी है, जब हम दोनो खुश हैं तो हम क्यों तलाक लें, हम तलाक नहीं लेंगे."

इस कहानी को समझने के लिए हमें घड़ी की सूई को पीछे ले जाना पड़ेगा. 39 वर्ष पहले जब अलेस्साँद्रा पैदा हुई थी तो उसका नाम अलेस्साँद्रो रखा गया था. पर बचपन से ही अलेस्साँद्रो को समझ आ गया कि कुछ गलत था, उसका शरीर तो पुरुष का था लेकिन वह भीतर से स्वयं को स्त्री महसूस करता था. साथ ही उसे यह भी समझ आया कि समाज में इस तरह के लोगों को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया जाता, उनकी हँसी उड़ाई जाती है, शर्मनाम समझते हैं. इसलिए इस बात को उसने स्वयं से ठीक से नहीं स्वीकारा, बल्कि वर्ज़िश करना, पहलवानों वाला शरीर बनाना जैसे शौक पाल लिए. उसके माता पिता, दोनो अध्यापक हैं, लेकिन कुछ पुराने विचारों के थे और चूँकि कैथोलिक चर्च इस बात को ठीक नहीं मानता, तो उसने अपने भीतर की इस इच्छा को दबा और भुला दिया.

जब विश्वविद्यालय में पढ़ने गया तो वहाँ अलेस्साँद्रो की मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी से हुई. जल्दी ही दोनो में प्यार हो गया, और दस वर्ष तक यह प्यार चला, फ़िर 2005 में दोनो ने वहले चर्च में विवाह किया फ़िर कोर्ट में सिविल विवाह भी किया. विवाह के कुछ समय बाद, उसमें इतनी हिम्मत आयी कि अपनी भावनाओं और इच्छाओं को इमानदारी से समझ सके, अपने आप को स्वीकार कर सके. उसने इस बात को अपनी पत्नी से बताया कि वह सेक्स बदल कर नारी बनना चाहता था.

"मेरी पत्नी बहुत हिम्मतवाली है, पर शर्माती है, इसलिए वह प्रेसवालों से कुछ नहीं कहना चाहती या मिलना चाहती. शुरु में उसे धक्का लगा, लेकिन फ़िर वह समझ गयी कि मैं जैसा भी हूँ मैं ही हूँ. तब से उसने हमेशा मेरा साथ दिया है, मेरे हर निर्णय को समझा है. मैंने अपने माता पिता से भी यह बात की, उन्हें भी धक्का लगा लेकिन फ़िर भी समय के साथ उन्होंने मुझे समझा, और मैंने लिंग बदलाव का रास्ता अपनाया."

लिंग बदलाव आसान नहीं. 2007 से ले कर अलेस्साँद्रा के 13 ओप्रेशन हुए हैं. अमरीका में जा कर गले का ओप्रेशन कराया जिससे आवाज़ औरत जैसे हुई. यौन हिस्से का ओप्रेशन थाईलैंड में हुआ. चेहरे के निचले भाग का भी एक नाज़ुक ओप्रेशन हो चुका है.

अलेस्साँद्रा कहती है, "शरीर का बाहरी बदलाव, यौन सम्बन्धों में बदलाव, यह सब आवश्यक हैं, लेकिन इन सबके साथ, एक बदलाव अपने अंदर भी है, जो आसान नहीं. आप किस तरह से दूसरों से बात करते हो, किस भाषा का प्रयोग करते हो, लोग आप से किस तरह बात करते हैं, जब पुरुष था तो यह भिन्न तरीके से होता था, अब नारी हो कर भिन्न होता है. पुरुष नारी से किस तरह मिलता बात करता है, और नारी पुरुष से किस तरह मिलती बात करती है, यह दोनो बातें भिन्न है, और मैंने समझी हैं. इनसे अलग मैंरे जीवन का एक हिस्सा है जो मैंने नारी और पुरुष दोनो की दृष्टि से देखा है. यह सब बातें बहुत जटिल हैं और कम शब्दों में नहीं समझायी जा सकती. इस विषय पर मेरे पास बहुत कुछ है कहने सुनाने को, मेरे मन में इस विषय पर किताब लिखने की इच्छा है."

Alessandra Bernaroli, Bologna, Italy

नर शरीर के साथ पैदा होना और अंदर से स्वयं को नारी महसूस करना या फ़िर, नारी शरीर के साथ पैदा होना पर भीतर से खुद को नर महसूस करना, इसे ट्राँसजेंडर कहा जाता है. अक्सर नर शरीर के साथ पैदा हुए हों पर भीतर से खुद को नारी महसूस करने वाले लोगों का यौन आकर्षण अन्य पुरुषों की ओर होता है, इसलिए अक्सर वह समलैंगिग माने जाते हैं, लेकिन अलेस्साँद्रो को प्यार हुआ एक लड़की से. पाँच साल पहले, दोनो ने चर्च में विधिवत विवाह किया. उस समय किसी ने उँगली नहीं उठायी क्योंकि उस समय अलेस्साँद्रो पुरुष थे और स्त्री से विवाह कर रहे थे. "शरीर की बाहरी और भीतरी यौन पहचान में अन्तर होना एक बात है, नर या नारी के लिए यौन आकार्षण महसूस करना अलग बात है", अलेस्साँद्रा समझाती है.

इटली में अधिकतर लोग कैथोलिक ईसाई हैं. इस धर्म में तलाक को आसानी से नहीं स्वीकारा जाता. साथ ही कैथोलिक चर्च समलैंगिकता के भी विरुद्ध है और समलैंगिक विवाहों को नहीं स्वीकारता. इन्हीं दो बातों से अलेस्साँद्रा का धर्मसंकट का प्रश्न उठा, क्योंकि उन्होंने बैंकाक जा कर पुरुष से नारी बनने की शल्यक्रिया करवाने के बाद, इतालवी कानून के हिसाब से कोर्ट में अर्ज़ी दी कि उन्हें लिंग बदलने की अनुमति दी जाये. कोर्ट ने उनकी यह बात स्वीकार की और इस तरह अलेस्साँद्रो कानूनी तौर से भी, अलेस्साँद्रा बन गये. लेकिन अलेस्साँद्रा के बारे में चर्च के लोगों ने नगरपालिका द्वारा उनके तलाक की जबरदस्ती करने का विरोध किया है, वह कहते हैं कि पुरुष रूप में अलेस्साँद्रो ने अपनी पत्नी से विधिवत विवाह किया था, हमारी नज़र में कुछ नहीं बदला है, यह दोनो पति पत्नि हैं.

इतालवी कानून जहाँ एक और समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं देता, दूसरी और ट्राँसजेंडर विषय में प्रगतिशील है, इसे एक बीमारी की तरह देखता है, उनके इलाज की सुविधा और लोगों को कानूनी लिंग बदलने की अनुमति देता है. अलेस्साँद्रा को क्या सलाह दी जाये, इस पर पुराने विचारों वाले लोग भी कुछ परेशान हैं, उन्हें भी कुछ समझ नहीं आता. अगर कहें कि उनका विवाह नहीं माना जा सकता क्योंकि वह दो औरतों का विवाह है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि पति या पत्नी की बीमारी के नाम पर तलाक को स्वीकृति दी जा रही है. और अगर उन्हें तलाक के लिए मजबूर न करें तो समलैंगिक विवाह को स्वीकृति मिलती है.

अलेसान्द्रा ने मुझसे भारत में रहने वाले हिँजड़ों की स्थिति के बारे में पूछा. मुझे इस विषय में विषेश जानकारी नहीं थी, लेकिन मैंने उसे बताया कि इस वर्ष जनगणना में पहली बार भारत में ट्राँसजेन्डर लोगों को गिना जा रहा है, और उनके लिए पुरुष, स्त्री से अलग श्रेणी बनायी गयी है. अलेसान्द्रा बोली, "मुझे भारत के ट्राँसजेन्डर लोगों के बारे में मालूम नहीं इस लिए नहीं कह सकती कि यह सही है या गलत, लेकिन मैं नहीं मानती कि हमारे लिए एक अलग श्रेणी बनायी जाये. मैं अपने आप को पूर्ण रूप से स्त्री मानती हूँ और चाहती हूँ कि कानून मुझे नारी माने."

अलेस्साँद्रा कहती है, "हमारा समाज भिन्नता से डरता है, उसे स्वीकार नहीं करता. लेकिन मैं तलाक नहीं लूँगी. जब हम दोनो साथ खुश हैं तो हमें क्यों अलग किया जा रहा है? बात केवल आई कार्ड की नहीं, टेक्स, प्रापर्टी, सब की बी है, अगर नगरपालिका हमें पति पत्नी नहीं मानेगी तो वह सब झँझट खड़े हो जायेंगे. यह मेरे मानव अधिकारों की बात है, मैं लड़ूँगी."

आप का क्या विचार है, अलेसान्द्रा के प्रश्न के बारे में?

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अलेसान्द्रा अलेसान्द्रा इटली के बड़े बैंक में कामगार यूनियन के लिए काम कार्यरत हैं और उनके काम का एक ध्येय यह भी है कि बैंक में काम करने वालों की भिन्नता को सम्पदा के रूप में देखा जाये न कि परेशानी के रूप में. इस विषय पर उन्होंने अन्य मित्रों के साथ मिल कर एक कम्पनी भी बनायी है जिसमें मानव भिन्नता से जुड़े विषयों का ध्यान और मान रख कर किस तरह बिज़नस किया जाये विषय पर सिखाया जाता है. उनकी तस्वीरें फेदेरीको बोरैला की हैं.

(Images of Alessandra Bernaroli are by Federico Borella)


शनिवार, दिसंबर 11, 2010

इच्छा मृत्यु या हत्या ?

संजय लीला भँसाली की फ़िल्मों से अन्य जो भी शिकायत हो, उनके मौलिक कलात्मक अंदाज़ को, तथा उसकी सौंदर्यपूर्ण और संवेदशनशील अभिव्यक्ति को, नहीं नकारा जा सकता. उनकी फ़िल्मों के विषयों की प्रेरणा तो अक्सर विश्व सिनेमा से मिली लगती है, लेकिन फ़िल्म को कहने का तरीका उनका अपना है.

मेरे विचार में उनकी फ़िल्मों की विशेषता है कि उनमें एक ओर मानव भावों को प्रधानता दी जाती है, दूसरी ओर उन भावनाओं की संकेतात्मक अभिव्यक्ति करने के लिए अक्सर वह कोई विशेष वातावरण बनाते हैं जिसमें प्रकृति, रंग, भवन वास्तुकला, संगीत आदि, कला के हर पक्ष को वह खोज कर गढ़ा जाता है. इस तरह उनकी फ़िल्मों का वातावरण भव्य, सुंदर और भावपूर्ण तो होता है, पर साथ ही, अगर सोच कर देखा जाये तो नकली या नाटकीय भी. यह तो उनकी कला अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत शैली है, जो विषेशकर पिछली कुछ फ़िल्मों में गहरी हो गयी है. कोई कलाकार अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए किस शैली को चुनता है, यह तो उसका निजि निर्णय है, लेकिन मुझे लगता है कि बहुत से आलोचक उनकी फ़िल्मों को केवल इस शैली के मापदँड से देख कर उनकी आलोचना लिखते हैं, उसके परे नहीं जा पाते.

"खामोशी" से ले कर "देवदास", "साँवरिया" और "ब्लैक" तक, मुझे अब तक उनकी कोई फ़िल्म सिनेमा हाल में देखने का मौका नहीं मिला था, टेलीविज़न पर ही डीवीडी से देखा था, और हर बार सोचता था कि उनकी फ़िल्मों के हर दृश्य की भव्य नाटकीयता को सिनेमा हाल के बड़े परदे पर देखना अच्छा लगेगा. इसलिए इस बार भारत में था तो उनकी नयी फ़िल्म "गुज़ारिश" को सिनेमा हाल में देखने का मौका मिला, तो बहुत अच्छा लगा.

Guzaarish by Sanjay Leela Bhansali

इस फ़िल्म में भी वह अपनी कला शैली पर ही डटे हैं, यानि फ़िल्म में देखने में भव्य भी है और सुंदर भी, हर एक दृश्य जैसे चित्रकार ने तूलिका से बनाया हो. घने बादलों और बारिश के रंगों का फ़िल्म में प्रभुत्व हैं - गहरा नीला, भूरा, कत्थई, काला.

गोवा की जो सामान्य छवि मन में होती है, नीला समुद्र तट और उस पर अठखेलियाँ करते पर्यटक, या "आयेंगा खायेंगा, तुम हमको क्या बोलता" जैसी भाषा बोलने वाले मछुआरे, वे सब नहीं दिखते इस फ़िल्म में. फ़िल्म के तीनो मुख्य चरित्र, ईथन, सोफ़िया, उसकी देखभाल करने वाली नर्स देवयानी और जादू सीखने वाला शिष्य ओमार, गोवा के गाँवों के पुर्तगाली घर, वहाँ के पुर्तगाली रहन सहन, वस्त्रों आदि के साथ, भारतीय और पुर्तगाली सम्मिश्रण से रचा गया है, कुछ कुछ वैसा जैसे "ब्लैक" के लिए रचा गया था.

फ़िल्म के सभी अभिनेता अभिनेत्रियाँ, हृतिक रोशन और एश्वर्या राय से ले कर छोटे बड़े सभी चरित्र, चाहे वह डाक्टर हो या रसोई में काम करने वाली मारिया या चर्च का पादरी, हर एक को सोच कर सावधानी से रचा गया है जिससे कि सभी पात्रों हाड़ माँस के व्यक्ति हैं, केवल कहानी को बढ़ाने वाले कागज़ी चरित्र नहीं. अभिनय की दृष्टि से सभी प्रशंसनीय हैं, किसी के अभिनय के सुर में बेसुरापन नहीं लगता. हृतिक रोशन ने तो ईथन के भाग में जान डाली ही है, लेकिन बहुत समय के बाद मुझे एश्वर्य राय भी अच्छी लगीं.

भँसाली जी ने पहले भी "खामोशी" और "ब्लैक" फ़िल्मों में विकलाँगता की बात बहुत संवदेना के साथ की थी और "गुज़ारिश" में एक बार फ़िर इस विषय को छूना प्रशंसनीय है. आज के मल्टीप्लेक्स वातावरण में, व्यवसायिक प्रेम कहानियों से निकल कर, गम्भीर बातों को छूने का साहस सामान्य बात नहीं.

लेकिन जहाँ फ़िल्म एक ओर कला अनुभव के रूप में खरी उतरती है, उसकी कथा के संदेश, यानि विकलाँगता और इच्छा मृत्यु, के बारे में मेरे मन में कुछ दुविधाएँ हैं. लेकिन उन दुविधाओं के बारे में बात करने से पहले, मैं कुछ माह पहले अंग्रेज़ी साप्ताहिक पत्रिका "तहलका" में छपे एक लेख के बारे में कहना चाहूँगा जिसमें बात थी तमिलनाडू तथा दक्षिण भारत में गरीब परिवारों में, वृद्ध माता पिता को जान से मारने की.

इस लेख के अनुसार, कुछ गरीब परिवारों में वृद्ध माता पिता की जबरदस्ती तेल से मालिश की जाती है और दिन भर उन्हें नारियल का पानी पिलाया है जिससे उनके गुर्दे काम करना बन्द देते हैं और दो तीन दिनों में बूढ़े मर जाते हैं. अगर तेल मालिश और नारियल के पानी से बात न बने तो नाक बन्द करके जबरदस्ती मुँह में मिट्टी या जहर भी दिया जा सकता है. कुछ वृद्ध इसी डर से घर छोड़ कर चले जाते हैं, पर साथ ही वे अपने बच्चों को दोष नहीं देना चाहते क्योंकि वह जानते हैं कि गरीबी में बूढ़े माता पिता का ध्यान रखना आसान नहीं. कई बार इस तरह मारने से पहले, सब रिश्तेदारों को बुलाया जाता हैं ताकि मरनेवाले से मिल कर सब लोग ठीक से विदा ले सकें.

जीवन और मानव अधिकारों को बात करते हुए भी, मुझे मालूम है कि गरीब घर में भूखे प्यासे लोग जो जीवन मृत्यु के निर्णय लेते हैं, उन्हें वह लोग नहीं समझ सकते जिन्होंने स्वयं भूख न झेली हो. नैतिकता की बात करना आसान है पर जब छोटे छोटे खर्चों पर पूरे परिवार के जीने मरने का भविष्य टिका हो तो असली अनैकतिकता, गरीबी और भुखमरी हैं. अनचाही बच्चियों या विकलाँग बच्चों को मारने के लिए ज़हर या गला घोंटने की ज़रूरत नहीं, बस इतना काफ़ी है कि खाने के लिए कम दो या बीमारी में डाक्टर के पास न ले जाओ.

लेकिन आज के जीवन में, जिसमें खरीदना, दिखना, सफलता पाना ही जीवन के सबसे महत्वपूर्ण ध्येय हैं, शायद बात भुखमरी वाली गरीबी की नहीं, मनचाहा न खरीद पाने वाली गरीबी की है जिसमें बूढ़े माता पिता या विकलाँग बच्चों की जानें, हमारी आकाक्षाओं की राह में रुकावट बन जाती है और जिन्हें राह से हटाना अधिक आसान है? सचमुच स्वेच्छा से मरना चाहने वालों से, लालच में मारने वाले कई गुणा अधिक हैं और इसी लिए मानव जीवन रक्षा के कानून बने हैं. इस दृष्टि से देख कर मेरे मन में "गुज़ारिश" से कुछ दुविधाएँ उठीं थीं.

"गुज़ारिश" फ़िल्म के नायक ईथन को, 14 वर्ष पहले एक दुर्घटना की वजह से शरीर के गर्दन से नीचे के भाग को लकवा मार गया है. वह न हाथ पाँव हिला सकते हैं न शरीर पर स्पर्श का अनुभव कर सकते हैं. अपने आप वह करवट भी नहीं ले सकते और लेटे रहने की वजह से, उनकी पीठ पर घाव बन रहे हैं और उनके गुर्दे भी काम नहीं कर रहे जिससे उन्हें नियमित रूप से डायलेसिस की आवश्यकता होने लगी है. उनका जिगर भी ठीक से काम नहीं कर रहा. इन सब का अर्थ है कि उनका शरीर धीरे धीरे मृत्यु के करीब जा रहा है और वह उनके जीवन के कुछ ही महीने बचे हैं.

इस हालत में, यह जान कर कि अंत समय आ रहा है, कुछ महीनों की बात है, और घुट घुट कर मरने के बजाय, ईथन चाहता है कि उसे शान्ति से मरने दिया जाये, यह बात मेरी समझ में आती है. लेकिन फ़िल्म में ईथन के मरने की इच्छा की बात इस दृष्टि से नहीं की जाती, या की जाती है पर बहुत सीमित रूप में.

बजाय यह कहने के कि ईथन कुछ ही महीनों में मरने वाला है, और शायद वह घुट घुट के, तड़प तड़प के मरेगा, अदालत में बहस के दौरान तर्क दिये जाते हैं कि चूँकि ईथन कुछ महसूस नहीं कर सकता, अपने आप हिल भी नहीं सकता, और इसकी वजह से मानसिक तकलीफ़ में है इसलिए उसे मरने दिया जाये. लेकिन अगर इस विचार को सही मान लिया जाये तो शायद यह नहीं माना जायेगा कि जिनका आधा या पूरा शरीर लकवे से बँधा है, या जो विकलाँगता की वजह से सीमित है, उन सबको मरने दिया जाये या मार दिया जाये? वैसे "गुज़ारिश" में कई बार कहा जाता है कि बात सभी या अन्य विकलाँग व्यक्तियों की नहीं, केवल ईथन की है लेकिन ईथन के बारे में जो तर्क दिये जाते हैं वे तर्क तो अन्य व्यक्तियों के लिए भी कहे जा सकते हैं.

बोलोनिया में मेरे एक मित्र क्लाऊडियो इमप्रूदेंते का, जन्म से ही गर्दन से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त है. वह बोल भी नहीं सकते लेकिन पारदर्शी बोर्ड जिसपर ए, बी, सी, डी, लिखा हो, के माध्यम से आँखों के इशारे से बात करते हैं, लिखते हैं, मानव अधिकारों की बात करते हैं, स्कूलों में बच्चों को विकलाँगता और मानव अधिकारों की बात समझाते हैं. अगर "गुज़ारिश" के तर्कों को मान लिया जाये तो क्या यह समाज इस बात की अनुमति देगा कि क्लाऊडियो जैसे लोगों को जन्म होते ही जीवित न रखा जाये?

मैं सोचता हूँ कि जीवन की गुणवत्ता को मापने की कसौटी विकलाँगता का होना या होना नहीं है. बहुत से लोग, विकलाँगता के बावजूद जीवन को खुल कर, पूरा जीते हैं, और कुछ लोग विकलाँग न हो कर भी, जीवन को उस तरह से नहीं जी पाते.

मैं यह नहीं कहता कि हर हालत में जबरदस्ती मानव शरीर को मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये. जीवन और मृत्यु, दोनों जुड़े हुए हैं और प्रकृति का हिस्सा हैं, बिना मृत्यु के जीवन नहीं हो सकता. मैं मानता हूँ कि जब वह समय आये जिसमें जीवन केवल पीड़ा भरी मृत्यु की प्रतीक्षा भर ही रह जाये, तो व्यक्ति को शान्ति से मरने का अधिकार चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. लेकिन मेरे विचार में "गुज़ारिश" में इस विचार को बिल्कुल ठीक ढंग से नहीं प्रस्तुत किया गया है. बजाय ईथन की विकलाँगता के तर्क दे कर, अगर फ़िल्म ईथन के सम्मान से और शांति से मर पाने के मानव अधिकार की बात करती तो वह बेहतर होता.

Guzaarish by Sanjay Leela Bhansali

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सोमवार, सितंबर 20, 2010

ज़ंग लगे गुलाब

हल्की हल्की बारिश आ रही है. हवा की ठंडक से झुरझुरी सी आ रही है. ग्रीष्म ऋतु कब गयी और शिशर कब आया, पता ही नहीं चला. पेड़ों के कथ्थई, भूरे, पीले पत्तों की चादर बिछी है बाग में, उन पर चलो तो छपक छपक की गीली आवाज़ आती है और जूतों पर चिपक जाते हैं. लगता है कि बस पलक झपकूँगा तो वर्ष बीत जायेगा, समय इतनी तेज़ी से निकल रहा है. विश्वास नहीं होता कि कल लगभग इसी समय मैं मापूतो शहर में था.

चमकती हरी घास पर पानी की बूँदें. तम्बारा के बूढ़े नवयुवकों के चेहरे सामने आ जाते हैं. बालों में, आँखों में, नाक में धूल भर गयी थी. सात घँटों तक कच्ची सड़क पर जीप के धक्के खाने से कमर दर्द कर रही थी, सुबह सुबह चाय के साथ बस एक केला खाया था, भूख भी लगी थी. वे सब हमारे इन्तज़ार में स्वयंसेवकों की संस्था के दफ़्तर में बैठे थे. आसपास कोई और पक्का घर नहीं था, केवल झोपड़ियाँ. "स्वास्थ्य के अतिरिक्त और क्या समस्याएँ हैं यहाँ की?" मैंने टीबी, कुष्ठ रोग और एड्स की रिपोर्ट पढ़ने वाले नवयुवक से पूछा था. मुझे कुछ देर तक देखता रहा था, फ़िर धीरे से बोला था, "भूख, भूख है हमारी सबसे बड़ी समस्या, कुछ खाने को नहीं मिलता." उसके पिचके गाल और निराश आँखों में दबे गुस्से से हतप्रभ रह गया था, अपने आप पर बहुत शर्म आयी थी.

दस साल बीत गये लड़ाई को खत्म हुए, अब जगह जगह दबे बम जिससे बच्चों की टाँगें उड़ जाती है, बहुत कम हैं. लेकिन बीहड़ जंगल में अब भी कोई चिड़िया पशु आसानी से नहीं दिखते, लड़ाई में सब खत्म हो गया. थोड़ी दूर ही बहती है जम्बेज़ी नदी, जिसका पाट इतना चौड़ा है कि दूसरा सिरा नहीं दिखता, पर गाँव वाले बारिश के पानी के लिए तरस रहे हैं. हथियार मिल जाते हैं इस दुनिया में, बम मिल जाते हैं, सड़क, पानी नहीं मिलते.

"मेरा एक साल का बेटा मरा, पेट खराब हुआ था उसका", "मेरी छः महीने की बेटी मरी, मीसल्स से", "मेरा तीन महीने का बच्चा मरा मलेरिया से", मेरे एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उनके मरे हुए छोटे बच्चों की सूची खत्म होने को नहीं आती थी.

"यह सब सोचने से क्या फ़ायदा", मैं स्वयं से कहता हूँ. यहाँ हरे भरे बाग में कुत्ते को सैर कराते समय, अफ्रीकी गाँव की धूल मिट्टी सपना सा लगती है.

छप छप करते हैं जूते पानी पर. क्यारी में लगे पीले गुलाब को देख कर पोलैंड के कवियत्री मारिया पाउलीकोव्सका की कविता की पंक्तियाँ याद आती हैं
पतझड़ के जंग लगे गुलाब
बारिश के सफेद हाशिये को देखते हैं - बारिश आसमान को धरती से सिल रही है
झुरझुरियों और टाँकों के साथ
कश्मीर में भी गुलाबों को जंग लगा होगा. पत्थर फैंकने वाले किशोरों की लाशों का. उनकी माँओं के आँसुओं से अब तक झील में बाढ़ नहीं आयी क्या?

शुक्रवार, जुलाई 09, 2010

पिँजरे के पंछी

अमरीकी महाद्वीप के बहुत से हिस्सों में इतिहास बस कुछ सौ साल पुराना ही दिखता है, उससे पहले का इतिहास, कोलोम्बस के बाद आये यूरोपीय उपनिपेश से मिट कर, दब कर, कहीं गुम हो चुका है.

"यह भवन शहर के सबसे प्राचीन भवनों में से है", हमारी साथी और गाईड तानिया ने बताया था. ऊँची दीवारें और काले रंग से पुते ऊँचे गेट के पीछे से भवन दिख नहीं रहा था. गेट पर बड़ा भारी सा ताला लगा था. उसे खोला गया और गाड़ी भीतर गयी, तो सामने वैसा ही एक अन्य गेट था, जिसे खोलने से पहले, पहले वाला गेट बंद किया गया, उस पर ताला लगाया गया.

"मिल्ट्री वालों की बटालियन वहाँ तैनात रहती है, उन्हें अस्पताल में अंदर आना मना है", तानिया ने एक कोने में बंदूक ले कर खड़े सिपाहियों की ओर इशारा कर के कहा. हरी भरी घास से घिरा, वह पुराना भवन सुंदर लग रहा था. घास पर इधर उधर पीले वस्त्रों में बहुत से पुरुष थे, एक ओर पीले रंग की मेज़ और कुर्सियाँ थीं, जिन पर और पीले वस्त्र पहने पुरुष बैठे थे. लगा कि कोई बसंत मेला लगा हो. "यहाँ किसी व्यक्ति की तस्वीर नहीं खींच सकते", तानिया ने मुझे कैमरा बाहर निकालते देख कर कहा तो मैंने कैमरा वापस बैग में रख लिया. हर तरफ़ तो आदमी थे, बिना उनके कैसे तस्वीर खींचता?

"स्वागत है, आईये" कहते कहते, अस्पताल के अध्यक्ष डा. पाउलो हमें लेने आ गये. उन्होंने ही अस्पताल के बारे में बताया कि यह मानसिक रोग वाले अपराधियों के लिए अस्पताल भी है और जेल भी, जहाँ सौ से कुछ अधिक मानसिक रोगी रहते हैं जिनमे से अधिकतर पुरुष हैं. डा. पाउलो के साथ अस्पताल के विभिन्न भागों में निरीक्षण के लिए गये. जैसे मानसिक रोग के अस्पतालों में अक्सर होता है, हर तरफ़ गेट और ताले लगे थे, कहीं से भी घुसते या निकलते तो गार्ड हमारे लिए ताला खोलता और पीछे से तुरंत ही बंद कर देता. अस्पताल के वार्डों में हर जगह, नर्स और डाक्टर भी, तालों के पीछे अपने कमरों में जेल की तरह ही बंद थे, तभी बाहर आते थे, जब कुछ काम हो.

मैं कहीं कुछ रुक कर देखने लगा तो घबरायी हुई तानिया मेरे पास आयी, बोली "तुम सब लोगों के साथ झुँड में ही रहो, पीछे रुक कर अकेले पड़ने में खतरा है." तो मुझे कुछ हँसी आयी. मैंने पहले भी बहुत से मानसिक रोग के अस्पताल देखें हैं, जहाँ असमान्य व्यवहार करने वाले लोग अक्सर दिखते हैं लेकिन वे लोग किसी तरह से खतरनाक नहीं होते. भारत में तो कई बार बेघर लोगों को, मानसिक रोगियों तथा कुष्ठ रोगियों को भी इसी तरह जेल में बंद कर देते हैं, और गरीब अनपढ़ लोग बिना किसी जुर्म के सुनवाई के इंतज़ार में जेल काट देते हैं. वह बोली कि यह विचार आम मानसिक अस्पतालों के बारे में सही था लेकिन इस अस्पताल+जेल में रहने वाले केवल रोगी ही नहीं अपराधी भी हैं और आम मानसिक रोगियों से भिन्न हैं, अधिक खतरनाक हैं.

वहाँ पर जहाँ एक ओर सचमुच के अपराधी थे, कुछ लोग ऐसे भी थे जिनका यही अपराध था कि वह मानसिक रोगी थे. डा. पाउलो ने बताया कि जब इस तरह के व्यक्ति को पुलिस वहाँ ले आती है, तो भी उस व्यक्ति को छोड़ नहीं सकते, उसे पहली सुनवाई का इंतज़ार करना पड़ता है जब मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को निर्दोष कह कर जेल से जाने की अनुमति दे सकता है, और इसमें कुछ महीने लग जाते हैं. अन्य देशों के मुकाबले में मुझे लगा कि ब्राज़ील की इस जेल+अस्पताल में डाक्टरों और नर्सों का व्यवहार अच्छा है, काम करने में मानसिक रोगियों के मानव अधिकारों की भी कुछ संचेतना है.

अस्पताल में घूमते हुए अंत में महिला विभाग में पहुँचे. गेट के पास ही एक गर्भवती महिला खड़ी थी. पाउलो ने बताया कि वह सुनवाई का इंतज़ार कर रही थी, उसने कोई अपराध नहीं किया था, और शायद उसका गर्भ भी बलात्कार का नतीजा था. मानसिक रोग वाली युवतियों के साथ अक्सर बलात्कार होते हैं, कई बार तो अस्पतालों में भी और जेलों में भी.

पीछे एक कोने में बाल बिखेरे उदास मुख वाली एक वृद्ध सी महिला बैठी थीं. इन्होंने क्या किया, मैंने जिज्ञासा से पूछा. "दो सप्ताह पहले आयी थी, तो इनकी बीमारी दूसरे चर्म पर थी", पाउलो ने बताया, "ज़ोर ज़ोर से गाना गा रही थी, चिल्ला रही थी, हँस रही थी. इसने अपने पति को उसका गला दबा कर उसे मार डाला और फ़िर घर को आग लगाने की कोशिश की."

"क्या मालूम बेचारी पर क्या बीती होगी, शायद इसका पति शराबी था, या घर में मारपीट करता था?", मैंने उस वृद्ध महिला के भोले भाले उदास चेहरे को देख कर कहा, तो पाउलो ने मुस्करा कर सिर हिला दिया, "नहीं सब कहते हैं कि वह बहुत अच्छा था, कई सालों से यह बीमार चल रही थी और वह पत्नी की देखभाल करता था. यह बात तो है कि अगर पुरुष हिंसा करता है तो सब लोग उसे तुरंत दोषी मान लेते हैं, स्त्री करती है तो पहला विचार यही आता है कि मजबूर हो कर किया होगा. पर यह बात भी है कि यहाँ हिंसा का अपराध करने वाले करीब पचास पुरुष कैदी हैं, जबकि हिंसा करने वाली स्त्री यहाँ बस एक ही है."

जनाना वार्ड में खिड़की के बाहर सलेटी और काले रंग की चिरईया को देखा तो मन में बिमल राय की फ़िल्म बंदिनी की याद आ गयी. फ़िल्म में जेल में बंद कैदी स्त्रियाँ पिंजरे में बंद पक्षी को देख कर गाना गाती हैं, "ओ पंछी प्यारे, सांझ सखारे, बोले तो कौन सी बोली बता रे, बोले तू कौन सी बोली".

A bird in the psychiatric prison-hospital, Brazil

निरीक्षण स्माप्त हुआ और बाहर आने लगे तो पाउलो ने कहा, "आज मानसिक रोगो का इलाज करना बहुत सरल हो गया है, नयी दवाएँ असरकारी होती हैं, पुराने इलाज जैसे बिजली के शाक देना आदि को अब ठीक नहीं माना जाता. पर आम लोगों में इन रोगियों के बारे में बहुत डर भी होते हैं और अंधविश्वास भी. यहाँ लाये जाने वाले लोगों में से करीब बीस पच्चीस प्रतिशत लोगों ने कोई अपराध नहीं किया होता, अन्य कई छोटे मोटे अपराध करने वाले भी इसी लिए यहाँ ले आते हें कि वह रोगी हैं."

उस अस्पताल के बारे में सोचूँ तो मन में खुशनुमा पीले कपड़े पहने हुए उदास चेहरे वाले कैदी याद आते हैं. और उस वृद्धा का उदास चेहरा दिखता है, जाने क्या सोच रही थी वह?

रविवार, दिसंबर 13, 2009

नये सुपर मानव

मेरी एक डाक्टर मित्र कियारा अफ्रीका में कोंगो में शल्य चिकित्सक यानि सर्जन का काम करती थी. 1992 में एक कार दुर्घटना में उसका दाँया हाथ बुरी तरह ज़ख्मी हुआ और अंत में उसे कोहनी से ऊपर से काटना पड़ा. बहुत महीनों तक कियारा अस्पतालों में चक्कर काटती रही, शुरु में बहुत हताश थी कि अफ्रीका में अपने काम करने का सपना अधूरा रह गया. फ़िर धीरे धीरे, कियारा ने बाँयें हाथ से लिखना सीखा. हमारे शहर बोलोनिया के पास छोटी सी जगह है बुद्रियो जहाँ कृत्रिम हाथ और पैर बनाने वाला एक ओर्थोपेडिक केंद्र है जो इस कार्य में अपनी तकनीकी दक्षता के लिए यूरोप में प्रसिद्ध है. कई बार मैं कियारा के साथ वहाँ गया.

प्रारम्भ में तो कियारा को एक कृत्रिम बाजू मिली, जिसे लगाने से, अगर गौर से न देखें तो पता नहीं चलता था कि कियारा का दाँया हाथ नहीं है, पर उस कृत्रिम हाथ से कियारा कुछ काम नहीं कर पाती थी. लेकिन फ़िर भी वह वापस कोंगो लौट गयी, जहाँ वह नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों को पढ़ाने के काम में लग गयी.

हर एक‍ दो सालों में जब भी कियारा वापस इटली आती है, बुद्रियो के ओर्थोपेडिक केंद्र में अपने कृत्रिम हाथ की जाँच कराने जाती है. समय के साथ उसका कृत्रिम हाथ भी बदल गया है, और अब वह अपनी बाजु की बची माँस पेशियों से अपने हाथ से कुछ काम कर सकती है.

कियारा की वजह से शरीर के कृत्रिम अंगों के विषय में मेरी दिलचस्पी बनी और इस क्षेत्र में कोई नयी खोज तो मैं उसके बारे में पढ़ने जानने की कोशिश करता हूँ. इसीलिए जब मैंने टच बायोनिक्स नाम की कम्पनी द्वारा प्रोडिजिट उँगलियों के बनाये जाने के बारे में सुना तो उसके बारे में अधिक जानने की कोशिश की.


अगर किसी की हथेली या उँगलियाँ कट गयी हों तो प्रोडिजिट उँगलियों से वह अपने हाथ का पूरा उपयोग कर सकते हैं. कृत्रिम उँगलियों को बनाने में अब तक सबसे कठिन बात थी उनके हिलने, पकड़ने आदि कामों ऐसा नियंत्रण लाना जिससे बारीक काम जैसे कि उँगली और अँगूठे के बीच में बारीक चीज़ को पकड़ना.

अभी तक कृत्रिम हाथ इस तरह का बारीक काम नहीं कर सकते थे, लेकिन अब प्रोडिजिट से यह भी संभव हो गया है.



यह तकनीकी प्रगति किसके लिए?

एक तरफ़ विज्ञान इतनी तेज़ी से प्रगति कर रहा है, जो बात कल तक असंभव लगती थी, वह आज संभव हो रही है, पर मेरे विचार में एक प्रश्न हम शायद अक्सर भूल जाते हैं, कि यह प्रगति किसके लिए है? हम सोचते हें कि कोई भी नया आविष्कार होगा तो समय के साथ उसकी कीमत कम हो जायेगी और वह आविष्कार सब जन साधारण तक पहुँचेगा. शायद यह बात उन सब तकनीकी प्रगतियों के लिए सच हो जिनका बाज़ार है, जिनको उपयोग करने वाले लाखों करोड़ों लोग हैं, तो बेचने के लिए वह वस्तु देर सवेर सस्ती हो सकती है, जैसे कि मोबाइल टेलीफोन.

लेकिन कृत्रिम अंग जिनका उपयोग कुछ ही लोगों को करना होगा, क्या कभी वह गरीब लोगों या फ़िर मध्यम वर्ग के बस की बात होंगे?

कियारा तो इटली आ कर नया हाथ बनवा सकती है लेकिन जिन गरीब लोगों के लिए काम करती है, उनमें से कितने अफ्रीका के लोग इस तरह का हाथ खरीद सकते हैं? प्रोडिजिट की उँगलियाँ कितनों के काम आयेंगी?

और भारत जैसा देश, जहाँ अमीरी गरीबी की विषमताएँ शायद दुनिया में सबसे अधिक हैं, वहाँ तकनीकी प्रगति किसके काम आयेगी? एक तरफ़ भारत के चिकित्सक और अपोलो जैसे अस्पताल दुनिया में प्रसिद्ध हैं, विदेशों से लोग अपना इलाज करवाने भारत आते हैं, दूसरी ओर दुनिया में दस्त या न्योमोनिया जैसे सामान्य एवं आसानी से इलाज हो सकने वाली बीमारियों से मरने वाले पाँच साल से कम आयु के बच्चों में से 25 प्रतिशत भारत में मरते हैं. तेज़ी से तरक्की करता विकासरत भारत, भुखमरी और अनपढ़ता में भी दुनिया में सबसे पहले स्थान पर है, और विषमताएँ घटने की बजाय बढ़ रही हैं. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार ब्राज़ील में पिछले दशक में आर्थिक विकास के साथ साथ विषमताएँ भी कम हुई हैं जबकि भारत में विषमताएँ बढ़ी हैं.

मेरे एक केनेडा के मित्र ग्रेगोर वोलब्रिंग का कार्यक्षेत्र नेनोटेकनोलोजी जैसी नयी तकनीकें है. ग्रेगोर कहते हैं कि तकनीकी इतनी तेज़ी से बढ़ रही है, नये नये आविष्कार हो रहे हैं, लेकिन उनके लिए जिनके पास इसकी कीमत चुकाने की क्षमता है. अगर पिछले दो सौ सालों दुनिया में उद्यौगिक विषमताएँ बनी, फ़िर डिजिटल विषमताओं का दौर आया, तो अब नयी तकनीकों की विषमताओं का दौर आ रहा है. पहले विषमताएँ दुनिया के उत्तर में अमरीका, यूरोप आदि देश और दक्षिण में विकासशील देशों के बीच में थी, यह नयी विषमताएँ देशों के बीच में नहीं, अमीरों और गरीबों के बीच होंगी. जिनके पास सामर्थ्य है, वह जीन थैरेपी से तंदरुस्त पैदा होंगे, लम्बा जीवन जीयेंगे, शरीर का कोई अंग कष्ट देगा तो उसे बदल पायेंगे, वे नये सुपर मानव होंगे. जिनके पास सामर्थ्य नहीं, वह दस्तों, बुखारों से वैसे ही मरते रहेंगे जैसे आज मरते हैं.

इस बार कर्नाटक के गाँवों में घूम रहा था तो लोग सरकारी साक्षरता, रोजगार, विकलाँगता आदि विषयों से सम्बधित कार्यक्रमों के बारे में बताते थे, पर साथ ही कहते कि घूसखोरी से कुछ भी करवा लो उसे  बदलना कठिन है, जातपात का दबाव कम नहीं होता, कागज़ पर कुछ लिखते हैं पर सच्चाई कुछ और होती है.

कुछ बदलाव आया है पर जितना आना चाहिये था, उतना नहीं. क्या उपाय होगा इसका?

गुरुवार, जून 04, 2009

प्रेम के लिए जेहाद

इस बार के बोलिनिया फ़िल्म फेस्टिवल में भारतीय मूल के फ़िल्म निर्देशक परवेज़ शर्मा की फ़िल्म "प्रेम के लिए जेहाद" (Jehad for Love) देखने का मौका मिला. इस फ़िल्म के बारे में पिछले वर्ष के जैंडर बैंडर फ़ैस्टिवल (Gender Bender Film Festival) में सुना था पर तब इसे देख नहीं पाया था. फ़िल्म का विषय है आज के वातावरण में विभिन्न देशों में मुसलमान समुदाय में समलैंगिक होने का अर्थ. फ़िल्म में भारत, मिस्र, दक्षिण अफ्रीका, पाकिस्तान, तुर्की, मोरोक्को जैसे देशों से मुसलमान समलैंगिक स्त्रियों तथा पुरुषों की कहानियाँ दिखायीं गयीं हैं. यह अपनी तरह की पहली फ़िल्म है क्योंकि ईस्लाम समलेंगिकता को बिल्कुल स्वीकृति नहीं देता और शारिया की बात की जाये, तो बहुत से परम्परावादी मुसलमान समलैंगकिता की सजा मौत बताते हैं.

यही वजह है कि फ़िल्म में साक्षात्कार देने वाले बहुत से लोग अपनी कहानियाँ तो सुनाते हैं पर अपना चेहरा नहीं दिखाते, हालाँकि सुना है कि 2007 में इस फ़िल्म के प्रदर्शित होने के बाद स्वयं परवेज़ को और फ़िल्म में अपनी कहानी सुनाने वाले कई लोगों को मृत्यु की धमकियाँ मिल चुकी हैं.

दक्षिण अफ्रीकी कहानी है एक समलैंगिक इमाम मुहसिन हैंडरिक्स की, जिनका विवाह हुआ था, दो बेटियाँ भी थीं पर जब उन्होंने पत्नी से तलाक होने के बाद अपनी समलैंगिकता की बात को छुपाने के बजाय खुलेआम स्वीकार किया तो उनके जीवन में तूफ़ान आ गया और उन्हें इमाम के पद से हटा दिया गया. बहुत कोशिशों के बाद उनके शहर के कुछ मुसलमानों ने स्वीकार किया कि वे उन्हें अपनी मस्जिद में इमाम चाहते थे. उनसे बात करने के लिए, बाहर से एक जाने माने करान शरीफ़ के ज्ञानी को बलाया गया, जिनका फैसला बहुत कठोर था, "अगर तुम अपने को नहीं बदल सकते तो समलैंगिकता की सजा मृत्यु दँड है. इस बात पर बहस कर सकते हें कि किस तरह से यह मृत्यु दँड दिया जाये, लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि इसकी सज़ा मृत्यु दँड ही है."

मुहसिन का अपनी बेटियों से बात करने का दृष्य बहुत अच्छा लगा. मुहसिन पूछते हैं, "अगर मुझे पत्थर मार कर जान से मारने की सजा सुनायी जायेगी तो क्या होगा?" उनकी बड़ी बेटी कहती है कि दक्षिण अफ्रीका में इस तरह की सज़ा कोई नहीं दे सकता. उनकी छोटी बेटी कहती है, "पापा, अगर ऐसा होगा तो में चाहुँगी कि तुम पहले पत्थर से ही मर जाओ और तुम्हें तकलीफ़ न हो."

ईरान के कुछ नवयुवकों की कहानियाँ हैं जो कि तुर्की में छुपे हैं और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ का शरणार्थी कमीशन उनकी अर्ज़ी को मान ले और उन्हें कनाडा में जाने की अनुमति मिल जाये. उनके दिन घर वालों, साथियों, मित्रों और प्रेमियों की यादों में कटते हैं जिनको वह अपने गाँवों में छोड़ कर आये हैं, माँ से टेलिफ़ोन से बात करने वाला एक युवक बिलख कर रोता है, उसे मालूम है कि वापस गाँव जा कर वह अपनी माँ को दोबारा कभी नहीं मिल पायेगा क्योंकि उसके नाम पर पुलिस का वारंट है.

कुछ मिलती जुलती कहानी है मिस्र के लड़के की जो कि फ्राँस में शरणार्थी बन कर रह रहा है. मिस्री जेल में अपने बलात्कार के बारे में बताते हुए उसकी भी आँखों में आँसू आ जाते हैं. सबकी बातों में घर परिवार, मित्रों से बुछुड़ने का दर्द भी है और अपनी समाज व्यवस्था पर रोष भी जो उन्हें मानव नहीं मानती.



भारत की कहानियां उत्तरप्रदेश से हैं. एक व्यक्ति बताता है कि वह मक्का की तीर्थ यात्रा कर चुका है और उसने निश्चय किया है वह स्वयं पर कँट्रोल करने की कोशिश करेगा, वह दोबारा से स्त्री वस्त्र नहीं पहनेगा. एक अन्य नवयुवक, जो कि एक इस्लाम के ज्ञानी से अपनी परेशानी की सलाह चाहता है, कहता है, "क्या करें, जब मुसलमान जात में पैदा हुए हैं तो अपनी जात की बात तो माननी ही पड़ेगी." ज्ञानी जी का विचार है कि समलैंगिता गलत है और किसी भी हालत में उसी सही नहीं माना जा सकता, इसलिए उनकी सलाह है कि नवयुवक को स्वयं पर अपने "गलत आदतों" को रोकने के लिए संयम का प्रयोग करना होगा. जब वह नवयुवक ज़िद करता है कि यह बात उसके बस में नहीं, तो ज्ञानी जी कहते हैं कि समलैंगिकता एक बिमारी है जिसका इलाज उन्हें अस्पताल में कराना चाहिये. रात को सब समलैंगिक मित्र छुप कर एक घर में मिलते हैं जब उनमें से कई लोग स्त्री वस्त्र पहनते हैं और "जब प्यार किया तो डरना क्या" पर नाचते हैं.

मिस्र की दूसरी कहानी दो स्त्रियों की है, माहा और मरियम. माहा ने अपनी समलैंगिकता को स्वीकार कर लिया है, जबकि मिरियम को अपराधबोध खा रहा है कि वह अपने धर्म के विरुद्ध जा रही है. "हमें नहीं मिलना चाहिये, हमें खुद को बदलने की कोशिश करनी चाहिये", मिरियम कहती है. माहा अपनी सखी को समझाने के लिए इस्लाम धर्म के बारे में एक किताब खरीद कर लाती है, "देखो, इसमें लिखा है कि अगर मिथुन क्रिया न हो तो वह समलैंगिकता उतनी गम्भीर बात नहीं, इसका मतलब है कि हमारा पाप उतना बड़ा नहीं."



फ़िल्म में बस एक ही खुश जोड़ा है, तुर्की की दो औरतें, फेर्दा और केयमत, जो मसजिद के बाहर भी आपस में मज़ाक करती हैं और छुप कर एक दूसरे को चूम लेती हैं. उनके रिश्ते को पारिवारिक स्वीकृति भी मिली है.

समलैंगिकता किसी धर्म में आसान नहीं, लेकिन इस्लाम से जुड़ी कठिनाईयां अधिक जटिल लगती हैं. फ़िल्म देखने से पहले मुझे नहीं मालूम था कि मुसलमान और समलैंगिक होने में इतनी कठिनाईयाँ है. इस दृष्टि से यह फ़िल्म महत्वपूर्ण है क्योंकि एक दबे छुपे विषय को, जिसका असर विभिन्न देशों के इतने सारे लोगों पर पड़ता है, को खुले में लाती है और उनसे जुड़े प्रश्न उठाती है. फ़िल्म में जिन लोगों की बात उठायी गयी है उन सब के जीवन की कठिनाईयों में मुसलमान समाज का समलैंगिकता के प्रति दृष्टिकोण और सोच का हिस्सा तो है लेकिन साथ ही साथ, उनका स्वयं के बारे में यह सोचना कि वे लोग धर्म के विरुद्ध गलत काम करते हैं, भी एक बड़ी समस्या है.
यानि औरों की सोच बदलने के साथ साथ, इस फ़िल्म के अनुसार, मुस्लिम समलैंगिक लोगों को अपनी सोच को भी बदलने की समस्या है और जब तक वह लोग अपने इस अपराधबोध से नहीं निकल पायेंगे, किस तरह संतोषजनक जीवन बिता सकते हैं? इस बात से मुझे थोड़ा सा आश्चर्य हुआ कि इतने सारे मुस्लिम समलैगिक युवक और युवतियाँ, "उनका धर्म क्या कहता है" वाली बात को इतनी गँभीरता से लेते हैं.

हिंदू धर्म में समलैंगिकता को किसी प्राचीन धार्मिक पुस्तक में गलत कहा गया हो, मुझे नहीं मालूम हालाँकि हिंदू धर्म के रक्षक होने का दावा करने वाले हिंदुत्व वादी कहते हैं कि समलैंगिकता धर्म के विरुद्ध है. बल्कि शिव के अर्धनारीश्वर होने की बात या फ़िर देवी देवताओं के मनचाहने पर पुरुष या स्त्री रूप धारण करना आदि बातों से लगता है कि हिंदू धर्म में मानव के पुरुष रूप और स्त्री रूप की भिन्नता को स्वीकारने की जगह थी. यह सच है कि आज का हिंदू समाज हिँजड़ा कहे जाने वाले लोगों को जिनमें अंतरलैंगिकता, समलैंगिकता के अंश होते हैं, को समाज से बाहर देखता है, लेकिन मैंने नहीं सुना कि कोई कहे कि वे लोग हिंदू धर्म के विरुद्ध हैं. ईसाई धर्म में बाईबल की कुछ बातों को ले कर यह कहा जाता है कि समलैंगिकता अप्राकृतिक है, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है, गलत है.

मुझे लगता है कि उनके धर्म कुछ भी कहें, परिवार कुछ भी कहें, आज अन्य धर्मों के समलैंगिक लोग अपना जीवन अपनी मर्जी से, स्वतंत्रता से जीने के लिए लड़ते हैं और कई बार अपने धर्म की संकीर्ण तरीके से सोच के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं. लड़कपन में जब अपनी यौनिक पहचान स्पष्ट न बनी हो, उस समय में उनमें अपराधबोध हो सकता है पर समय के साथ वे लोग इस अपराधबोध से निकल जाते हैं और अक्सर धर्म से दूर हो जाते हैं. जबकि फ़िल्म देख कर लगा कि मुस्लिम समलैंगिक लोगों में अपराधबोध से निकलना अधिक कठिन है. मैं सोचता हूँ कि अगर हमारे धर्म में कोई बात मानव अधिकारों के विरुद्ध है तो उसे बदलना चाहिये, जबकि फ़िल्म से लगता है कि इस्लाम में यह नहीं हो सकता क्योंकि कुरान शरीफ़ को बदला नहीं जा सकता.

इस तरह की फ़िल्म बनाने के लिए बहुत साहस चाहिये. परवेज़ को धमकियाँ मिली हैं, उनके विरुद्ध फेसबुक पर पृष्ठ बनाये गये हैं. परवेज़ अपने चिट्ठे पर अपनी लड़ाई के बारे में बताते हैं.

शुक्रवार, अगस्त 05, 2005

गाँधी जी और कम्प्यूटर

पिछले दिनों इटली की टेलीफोन कम्पनी "टेलीकोम" का यहाँ के टेलीविजन पर नया विज्ञापन आया जिसने कुछ हलचल सी मचा दी है और उसके बारे में बहुत सी बहसे हुई हैं.

विज्ञापन के शुरु का दृश्य है कि गाँधी जी धीरे धीरे चल कर अपनी कुटिया की ओर जा रहे हैं. कुटिया में वह पालथी मार कर बैठ जाते हैं और बोलना शुरु करते हैं.

गाँधी जी के सामने एक वेबकैम उनकी वीडियो तस्वीर ले कर उसे सारी दुनिया में दिखा रहा है. फिर दिखाते हैं कि सारी दुनिया में लोग गाँधी जी की बात को सुन और देख रहे हैं. न्यू योर्क और क्रैमलिन में विशालकाय पर्दों पर, इटली और चीन में मोबाईल टेलीफोन पर, अफ्रीका में रेगिस्तान में एक कम्प्यूटर पर. विज्ञापन के अंत में यह वाक्य उभरते हैं "अगर सारी दुनिया ने यह संदेश सुना होता तो आज यह दुनिया कैसी होती ?"

इस विज्ञापन में गाँधी जी को अंग्रेज़ी में बोलते दिखाया गया हैं. 2 अप्रैल 1947 को दिल्ली में दिया गये उनका यह भाषण "एशिया में आपसी संबध" नाम की अंतरराष्ट्रीय सभा में दिया गया था. जो अंश विज्ञपन में दिया गया है उसमें गाँधी जी कहते हैं "अगर आप दुनिया को कोई संदेश देना चाहते हैं तो प्रेम का संदेश दीजिये, सत्य का संदेश दीजिये. मैं आप के दिलों से माँग कर रहा हूँ. अपने दिलों की धड़कनों को मेरे शब्दों के साथ एक हो कर बजने दीजिये. एक मित्र ने मुझसे पूछा कि क्या मैं "एक दुनिया" की बात में विश्वास करता हूँ? यह कैसे हो सकता है कि मैं "एक दुनिया" के सिद्धांत से अलग कुछ और सोचूँ? मैं "एक दुनिया" में विश्वास करता हूँ."

विज्ञापन के बारे में कई सारी बहसे हो रही हैं.

एक बहस तो यह कि अगर गाँधी जी का संदेश अहिंसा का संदेश था तो फिर इस विज्ञापन को बनाने का काम होलीवुड के प्रसिद्ध निर्देशक स्पाईक ली को क्यों सौंपा गया जिन्होंने "मैलकोम एक्स" जैसी हिंसावादी फिल्में बनायी हैं?

दूसरी बहस यह है कि गाँधी जी तो उपभोक्तावादी (कोनस्यूमिस्टिक) संस्कृति के खिलाफ़ थे. इसलिए उनकी छवि और शब्दों को एक विज्ञापन में कम्प्यूटर और टेलीफोन बेचने के लिए उपयोग करना उनका अपमान करना हैं.

तीसरी बहस है इस विज्ञापन के संदेश की, जो कहता है कि अगर इस दुनिया के लोगों ने गाँधी जी की बातें सुनी होती तो शायद आज यह दुनिया भिन्न होती. लोग कहते हैं कि अगर गाँधी जी को स्वयं बन्दूक की गोली से मरना पड़ा तो उनके शब्द सुनने मात्र से दुनिया में हो रही हिंसा को कैसे रुकती?

इस बहस में आप कुछ भी कहिये या सोचिये, यह तो मानना ही पड़ेगा कि यह विज्ञापन बहुत सुंदर है. अगर आप इसे देखना चाहें तो यहाँ देख सकते हैं.



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