"आजादी के बाद यदि हमने कुछ अंश में कुछ पाया भी है, तो खोया है उससे अधिक. हमारी संस्कृति धीरे धीरे हमारी मुट्ठियों से निकलती जा रही है और परायी संस्कृति के प्रति हमारी निष्ठा, हमारा मोह, हमारा ध्येय भावना को शिथिल करता जा रहा है. अतीत में हमारी सर्वोच्च निष्ठा धर्म के प्रति थी, इसे से हमारे पारंपरिक धर्मानुष्ठानों में हमारी संस्कृति भी अपने स्वाभाविक रुप में जीवंत थी... हमारी संस्कृति बनी रहे, अतीत के प्रति हमारी निष्ठा शिथिल न हो, इसके लिएआवश्यक है सदियों से प्रचलित हमारी ये प्रथा संस्थाएं बनी रहें. किंतु धीरे धीरे इन उत्सवों में भी अब न उत्साह रहा है न वह आकर्षण! हाथ में ट्राजिस्टर लिए ग्रामीणों की टोली अब न वह मीठे झोड़े गाती, न चांचरी! स्त्रियां अब सभ्य शिष्ट पर्दों की ओट से डोला देखती हैं, छतों पर उनके रुप की फुलझड़ी नायकों की टोली को नहीं गुदगुदा पाती. महिषों की भीड़ अब चमकीले तेल लगे सींग घुमाती झूलती झालती नहीं निकलती, कुमाऊं का ग्रामीण अब पूर्ण रुप से सभ्य हो चुका है, देवी यदि भैंसे की बलि न देने से अप्रसन्न होती है तो हुआ करें. यह मेले में धूम धाम, अब पहले की भांति तेल की जलेबियां नहीं खाता, वह अब खाता है छोले भटूरे. झोड़े, चांचड़ी, हुड़का में अब भला क्या रखा है! ट्रंजिस्टर खोलते ही तो लता कभी भी कानों में रसवृष्टि कर सकती है, फिर भला वह दुनाली पहाड़ी मुरली फूंकने में सांस क्यों फुलाए!"आज अगर शायद शिवानी जी उस मेले में जा सकतीं तो पातीं कि ट्राजिस्टरों का जमाना जा रहा है. लता जी न जाने कहाँ खो गयीं. आजकल रिमिक्स का जमाना है, जिन्हें आप कान में नलकी लगा कर सुनिये, हर कोई अलग अलग, अपनी पसंद के एमपीथ्री सुन रहा है. छोले भटूरे तो पुराने हो गये, आज तो मोमो और हेमबर्गर का जमाना है. सदियों से एकांत में बढ़े, पनपे, हमारी धरती में अपनी जड़ें भीतर गहरे तक खोदने वाले हमारे रीति रिवाज आधुनिकता और विकास के रास्ते में अन्य रीति रिवाजों से घुल मिल गये हैं, इसमें मेरा तेरा सोचना केवल बूढों की नियती है जो बीते दिनों की यादों के पल्लू छोड़ नहीं पाते. आज बड़ी होने वाली पीढ़ी, कल जाने कौन सा संगीत सुनेगी और जाने क्या खायेगी, और मोमो तथा हेमबर्गरों को याद करके ठँडी सांसे भरेगी.
यही समयचक्र है, यही जीवनचक्र है.
सब बुरा ही हो, यह बात नहीं. पुराने, गुजरे कितने गीत, संगीत, लेखक, विचारक, जाने कहाँ गुम हो गये, कुछ निशान नहीं बचा उनका. आज सब कुछ संभाल कर चक्रडिस्क पर चढ़ाना अधिक आसान है, ताकि भविष्य के लिए यह धरोहर गुम न हो. पर भविष्य में किसके पास समय होगा कि धूल लगी अलमारियों में बंद इन चक्रडिस्कों को देखने या सुनने का ?