शनिवार, जून 17, 2006

मैं शिव हूँ

अक्सर मैं अपने चिट्ठे पर लिखी टिप्पणियाँ पढ़ने में देर कर देता हूँ. समय कम होता है और लिखने की, और दूसरे लोग क्या लिख रहे हैं, इसकी चिंता अधिक होती है, मेरे लिखे पर किसने क्या कहा, इसकी कम. पर कई बार टिप्पड़ियाँ पढ़ कर सोचता रह जाता हूँ. कई बार मालूम चलता है कि टिप्पणियों के माध्यम से थोड़ी बहस भी हो गयी और मैंने उस बहस में हिस्सा ही नहीं लिया. थोड़ी सी शर्म आती है कि इतनी दिलचिस्प बात हो रही थी जो मेरी बजह से शुरु हुई, जिसमें भाग नहीं लिया.

ऐसी ही टिप्पणी थी सृजनशिल्पी की जो उन्होंने मेरे कुछ दिन पहले के अंतरलैगिक (Transgender) चिट्ठे पर लिखी थी जिसे पढ़ कर सोचता रहा. उन्होंने लिखा था:
"हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास वाणभट्ट की आत्मकथा में किसी व्यक्ति में पुरुष और स्त्री के द्वंद्व के संबंध में भारतीय दर्शन के दृष्टिकोण से प्रकाश डाला गया है, जिससे इस विषय के मनोविज्ञान को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है।"
मैं भी यह सोचता हूँ कि आजकल के भूमँडलीकरण के ज़माने में हम अक्सर बहुत से विषयों पर पश्चिमी विचारों को देवकथित सत्य वचन सा मान लेते हैं, जबकि हमारी अपनी सभ्यता में उस विषय पर, उससे भिन्न सोच थी, उसे भूल सा जाते हैं. मैं यह नहीं कहता कि हर विषय पर हमारी सोच या पश्चिमी सोच बेहतर या घटिया है, पर यह मानता हूँ कि भिन्न विचारों का होना मानव सभ्यता की धरोहर है और इस विभिन्नता को सम्भाल कर रखना चाहिये, खोने नहीं देना चाहिये.

जैसे कि नारीत्व (femminism) पर मानुषी पत्रिका की सम्पादक मधु किश्वर के विचार मुझे इसी लिए महत्वपूर्ण लगते हैं क्योंकि प्रचलित पश्चिमी विचारधारा से भिन्न अर्थ देते हैं.

अंतरलैंगिकी (Transgender) और यौन रुझान (sexual orientation) भी ऐसे ही विषय हैं जिनमें भारतीय दर्शन क्या कहता या सोचता है इस पर बहुत कुछ है जो खो सकता है और जिससे इन विषयों को समझने के नये अर्थ मिल सकते हैं. सृजनशिल्पी जी अगर हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास में वर्णित दर्शन को समझा सकें तो अच्छा होगा.

उदाहरण के लिए, मेरे विचार में पश्चिमी प्रचलित सोच यौन रुझान को विषमलैंगिक (heterosexual) और समलैंगिक (homosexual) की श्रेणियाँ बना कर कैद कर देती है. यह श्रेणियाँ स्वयं पश्चिमी देशों में रहने वालों को अधूरी लगी, तो पिछले दो दशकों में इनमें एक नयी श्रेणी जुड़ गयी, द्विलैंगिक (Bisexual).

जबरदस्ती मानव यौन व्यवहार को श्रेणियों में बाँधना, शोध या चिंतन के लिए तो समझ आता है पर उसे सचमुच की बंद कैदघर की तरह सोचना मुझे लगता है कि बात को छोटा कर रहे हैं. अगर विषमलैंगिक, समलैंगिक और द्विलैंगिक को विभिन्न दिशाओं में बने कमरों की तरह सोचें तो मेरे विचार में विभिन्न मानव उन कमरों के बीच में, आगे पीछे, हर तरफ़ खड़े नज़र आयेंगे.

जब यौन रुझान की बात होती है तो इसे मानव को मापने वाला प्रथम या सबसे अधिक महत्वपूर्ण मापदँड मानना भी मुझे कुछ अजीब सा लगता है. इस विषय पर अपने कुछ इतालवी समलैगिक मित्रों से लम्बी बहस के बाद भी हम किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सके. पर मुझे लगता है, भारत में समलैगिक लोग इसके बारे में क्या भिन्न सोचते होंगे ?

भारतीय दर्शन में शिव का अर्धनारीश्वर रुप मुझे इस विषय में हर मानव मन में साथ बसे पुरुष और स्त्री रुपों की बात करने का बेहतर तरीका लगता है.

किस संस्कृति में कौन सा रुप कितना बाहर आ सकता है यह उस संस्कृति की सामाजिक मान्यताओं पर निर्भर करता है. आज यहाँ इटली में पुरुष अक्सर छोटे बच्चों के साथ सुपरमार्किट में सामान खरीदते दिखाई देते हें, और यहाँ के लोग कहते हैं कि बीस साल पहले तक अधिकतर पुरुष ऐसा नहीं करते थे, क्योंकि छोटे बच्चे को उठा कर चलना पुरुष व्यक्तित्व के विरुद्ध माना जाता था.

जब पुरुषोचित व्यवहार के सामाजिक मापदँड बदल गये तो बाह्य व्यवहार भी बदल जाते हैं. कुछ दिन पहले फिल्म देखी थी जिसमें अभिनेता सैफ़ अपने मित्रों के साथ फिल्म देखने जाते हैं और कोई दृष्य देख कर रोते हैं, यह भी दस या बीस साल पहले पुरुषोचित व्यवहार नहीं माना जाता था. आज मेट्रोसेक्सूअल (metrosexual) पुरुष और स्त्री के लिए अपने भीतर छुपी स्त्री या पुरुष को स्वीकार करना अधिक आसान है!

1 टिप्पणी:

"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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