बुधवार, मार्च 04, 2015

जीवन का अंत

चिकित्सा विज्ञान तथा तकनीकी के विकास ने "जीवन का अंत" क्या होता है, इसकी परिभाषा ही बदल डाली है. जिन परिस्थितियों में दस बीस वर्ष पहले तक मृत्यू को मान लिया जाता था, आज तकनीकी विकास से यह सम्भव है कि उनके शरीरों को मशीनों की सहायता से "जीवित" रखा जाये. लेकिन जीवन का अंतिम समय कैसा हो यह केवल चिकित्सा के क्षेत्र में हुए तकनीकी विकास और मानव शरीर की बढ़ी समझ से ही नहीं बदला है, इस पर चिकित्सा के बढ़ते व्यापारीकरण का भी प्रभाव पड़ा है. तकनीकी विकास व व्यापारीकरण के सामने कई बार हम स्वयं क्या चाहते हैं, यह बात अनसुनी सी हो जाती है.

तो जब हमारा अंतिम समय आये उस समय हम किस तरह का जीवन और किस तरह की मृत्यू चुनते हैं? किस तरह का "जीवन" मिलता है जब हम अंतिम दिन अस्पताल के बिस्तर में गुज़ारते हैं? इस बात का सम्बन्ध जीवन की मानवीय गरिमा से है. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी कीमत केवल पैसों में नहीं मापी जा सकती है, बल्कि इसकी एक भावनात्मक कीमत भी है जो हमारे परिवारों व प्रियजनों को उठानी पड़ती है. आज मैं इसी विषय पर अपने कुछ विचार आप के सामने रखना चाहता हूँ.

ICU in an Indian hospital - Image by Sunil Deepak

चिकित्सा क्षेत्र में तकनीकी विकास

पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की की है. आज कई तरह के कैंसर रोगों का इलाज हो सकता है. कुछ जोड़ों की तकलीफ़ हो तो शरीर में कृत्रिम जोड़ लग सकते हैं. हृदय रोग की तकलीफ हो तो आपरेशन से हृदय की रक्त धमनियाँ खोली जा सकती हैं. कई मानसिक रोगों का आज इलाज हो सकता है. नये नये टेस्ट बने हैं. घर में अपना रक्तचाप मापना या खून में चीनी की मात्रा को जाँचना जैसे टेस्ट मरीज स्वयं करना सीख जाते हैं. नयी तरह के अल्ट्रासाउँड, केटस्केन, डीएनए की जाँच जैसे टेस्ट छोटे शहरों में भी उपलब्ध होने लगी हैं.

इन सब नयी तकनीकों से हमारी सोच में अन्तर आया है. आज हमें कोई भी रोग हो, हम यह अपेक्षा करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान इसका कोई न कोई इलाज अवश्य खोजेगा. कोई रोग बेइलाज हों, यह मानने के लिए हम तैयार नहीं होते.

कुछ दशक पहले तक, अधिकतर लोग घरों में ही अपने अंतिम क्षण गुज़ारते थे. उन अंतिम क्षणों के साथ मुख में गंगाजल देना, या बिस्तर के पास रामायण का पाठ करना जैसी रीतियाँ जुड़ी हुईं थीं. लेकिन शहरों में धीरे धीरे, घर में अंतिम क्षण बिताना कम हो रहा है. अगर अचानक मृत्यू न हो तो आज शहरों में अधिकतर लोग अपने अंतिम क्षण अस्पताल के बिस्तर पर बिताते हैं, अक्सर आईसीयू के शीशों के पीछे. जब डाक्टर कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता तब भी अंतिम क्षणों तक नसों में ग्लूकोज़ या सैलाइन की बोतल लगी रहती है, नाक में नलकी डाल कर खाना देते रहते हैं. अगर साँस लेने में कठिनाई हो तो साँस के रास्ते पर नली लगा कर तब तक वैंन्टिलेटर से साँस देते हैं जब तक एक एक कर के दिल, गुर्दे व जिगर काम करना बन्द नहीं कर देते. जब तक हृदय की धड़कन मापने वाली ईसीजी मशीन में दिल का चलना आये और ईईजी की मशीन से मस्तिष्क की लहरें दिखती रहीं, आप को मृत नहीं मानते और आप को ज़िन्दा रखने का तामझाम चलता रहता है.

वैन्टिलेटर बन्द किया जाये या नहीं, ग्लूकोज़ की बोतल हटायी जाये या नहीं, दिल को डिफ्रिब्रिलेटर से बिजली के झटके दे कर दोबारा से धड़कने की कोशिश की जाये या नहीं, यह सब निर्णय डाक्टर नहीं लेते. अगर केवल डाक्टर लें तो उन पर "मरीज़ को मारने" का आरोप लग सकता है. यह निर्णय तो डाक्टर के साथ मरीज़ के करीबी परिवारजन ही ले सकते हैं. पर परिवार वाले कैसे इतना कठोर निर्णय लें कि उनके प्रियजन को मरने दिया जाये? चाहे कितना भी बूढ़ा व्यक्ति हो या स्थिति कितनी भी निराशजनक क्यों न हो, जब तक कुछ चल रहा है, चलने दिया जाता है. बहुत कम लोगों में हिम्मत होती है कि यह कह सकें कि हमारे प्रियजन को शाँति से मरने दिया जाये.

अपने प्रियजन के बदले में स्वयं को रख कर सोचिये कि अगर आप उस परिस्थिति में हों तो आप क्या चाहेंगे? क्या आप चाहेंगे कि उन अंतिम क्षणों में आप की पीड़ा को लम्बा खींचा जाये, जबरदस्ती वैन्टिलेटर से, नाक में डली नलकी से, ग्लूकोज़ की बोतल और इन्जेक्शनों से आप के अंतिम दिनों को जितना हो सके लम्बा खीचा जाये?

चिकित्सा का व्यापारीकरण

लोगों की इन बदलती अपेक्षाओं से "चिकित्सा व्यापार" को फायदा हुआ है. कुछ भी बीमारी हो, वह लोग उसके लिए दबा कर तरह तरह के टेस्ट करवाते हैं. महीनों इधर उधर भटक कर, पैसा गँवा कर, लोग थक कर हार मान लेते हैं. भारत में प्राइवेट अस्पतालों में क्या हो रहा है,  किसी से छुपा नहीं है. उनके कमरे किसी पाँच सितारा होटल से कम मँहगे नहीं होते. लेकिन सब कुछ जान कर भी आज की सोच ऐसी बन गयी है कि कुछ भी हो बड़े अस्पताल में स्पेशालिस्ट को दिखाओ, दसियों टेस्ट कराओ, क्योंकि इससे हमारा अच्छा इलाज होगा.

गत वर्ष में आस्ट्रेलिया के एक नवयुवक डाक्टर डेविड बर्गर ने चिकित्सा विज्ञान की विख्यात वैज्ञानिक पत्रिका "द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में भारत के चिकित्सा संस्थानों के बारे में अपने अनुभवों पर आधारित एक आलेख लिखा था जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. वह भारत में छह महीनों के लिए एक गैरसरकारी संस्था के साथ वोलैंटियर का काम करने आये थे.

डा. बर्गर ने लिखा था कि "भारत में हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार कैसर की तरह फ़ैला है. इस भ्रष्टाचार की जड़े चिकित्सा की दुनिया में हर ओर गहरी फ़ैली हैं जिसका प्रभाव डाक्टर तथा मरीज़ के सम्न्धों पर भी पड़ता है. स्वास्थ्य सेवाएँ भी विषमताओं से भरी हैं, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण दुनिया में सबसे अधिक है. भारत में बीमारी पर होने वाला सत्तर प्रतिशत से भी अधिक खर्चा, लोग स्वयं उठाते हैं. यानि स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण अमरीका से भी अधिक है. जिनके पास पैसा है उन्हें आधुनिक तकनीकों की स्वास्थ्य सेवा मिल सकती है, हालाँकि इसकी कीमत उन्हें उँची देनी पड़ती है. पर भारत के अस्सी करोड़ लोगों को यह सुविधा नहीं, उनके लिए केवल घटिया स्तर के सरकारी अस्पताल या नीम हकीम हैं जिनको किसी का डर नहीं. लेकिन अमीर हों या गरीब, भ्रष्टाचार सबके लिए बराबर है."

हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था "साथी" (Support for Advocacy and Training to Health Initiatives) ने भारतीय चिकित्सा सेवा में लगी सड़न की रिपोर्ट निकाली है, जिसमें बहुत से डाक्टरों ने साक्षात्कार दिये हैं और किस तरह से भ्रष्टाचार से चिकित्सा क्षेत्र प्रभावित है इसका खुलासा किया है. इस रिपोर्ट में 78 डाक्टरों के साक्षात्कार हैं कि किस तरह भारतीय चिकित्सा सेवाएँ लालच तथा भ्रष्टाचार से जकड़ी हुई हैं. प्राइवेट अस्पतालों में व्यापारिता इतनी बढ़ी है कि किस तरह से अधिक फायदा हो इस बात का उनके हर कार्य पर प्रभाव है.

एक सर्जन ने बताया कि अस्पताल के डायरेक्टर ने उनसे शिकायत की कि उनके देखे हुए केवल दस प्रतिशत लोग ही क्यों आपरेशन करवाते हैं, यह बहुत कम है और इसे चालिस प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ेगा, नहीं तो आप कहीं अन्य जगह काम खोजिये.

अगर डाक्टर किसी को हृद्य सर्जरी एँजियोप्लास्टी के लिए रेफ़र करते हें तो उन्हें इसकी कमीशन मिलती है. एमआरआई, ईसीजी जैसे टेस्ट भी कमीशन पाने के लिए करवाये जाते हैं.

कुछ दिन पहले मुम्बई की मेडिएँजलस नामक संस्था ने भी अपने एक शोध के बारे में बताया था जिसमें बारह हज़ार मरीजों के, जिनके आपरेशन हुए थे, उनके कागज़ों की जाँच की गयी. इस शोध से निकला कि हृदय में स्टेन्ट लगाना, घुटने में कृत्रिम जोड़ लगाना, कैसर का इलाज या बच्चा न होने का इलाज जैसे आपरेशनों में 44 प्रतिशत लोगों के बिना ज़रूरत के आपरेशन किये गये थे.

डाक्टरों ने किस तरह से कई सौ औरतों को गर्भालय के बिना ज़रूरत आपरेशन किये, इसकी खबर भी कुछ वर्ष पहले अखबारों में छपी थी.

इन समाचारों व रिपोर्टों के बावजूद, क्या स्थिति कुछ सुधरी है? आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में सोचिये और बताईये कि क्या चिकित्सा क्षेत्र में भ्रष्टाचार कम हुआ है या बढ़ा है?

विभिन्न जटिल स्थितियाँ

पर इस वातावरण में ईमानदार डाक्टर होना भी आसान नहीं. आप को कुछ भी रोग हो या तकलीफ़, चिकित्सक यह कहने से हिचकिचाते हैं कि उस तकलीफ़ का इलाज नहीं हो सकता. अगर वह ऐसा कहें भी तो मरीज़ इसे नहीं मानना चाहते हैं तथा सोचते हैं कि किसी अन्य जगह में किसी अन्य चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये. यानि अगर कोई चिकित्सक ईमानदारी से समझाना चाहे कि उस बीमारी का कुछ इलाज नहीं हो सकता तो लोग कहते हें कि वह चिकित्सक अच्छा नहीं, उसे सही जानकारी नहीं.

अगर बिना ज़रूरत के एन्टीबायटिक, इन्जेक्शन आदि के दुर्पयोग की बात हो तो देखा गया है कि लोग यह मानते हैं कि मँहगी दवाएँ, इन्जेक्शन देने वाला डाक्टर बेहतर है. लोग माँग करते हैं कि उन्हें ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ायी जाये या इन्जेक्शन दिया जाये क्योंकि उनके मन में यह बात है कि केवल इनसे ही इलाज ठीक होता है.

ऐसी एक घटना के बारे में कुछ दिन पहले असम के जोरहाट शहर के पास एक चाय बागान में सुना. बागान में काम करने वाले मजदूर के चौदह वर्षीय बेटे को दीमागी बुखार हुआ और बुखार के बाद वह दोनों कानों से बहरा हो गया. मेडिकल कालेज में उन्हें कहा गया कि दिमाग के अन्दर के कोषों को हानि पहुँच चुकी है जिसकी वजह से बहरा होने का कुछ इलाज नहीं हो सकता. उन्होंने सलाह दी कि लड़के को बहरों की इशारों की भाषा सिखायी जानी चाहिये. पर वह नहीं माने, बेटे को ले कर कई अन्य अस्पतालों में भटके. अंत में डिब्रूगढ़ के एक अस्पताल में बच्चे को भरती भी किया गया. कई जगह उसके एक्सरे, अल्ट्रसाउँड, केट स्केन जैसे टेस्ट हुए. इसी इलाज के चक्कर में उन्होंने अपनी ज़मीन बेच दी, कर्जा भी लिया, जिसे चुकाने में उन्हें कई साल लगेंगे, पर बेटे की श्रवण शक्ति वापस नहीं आयी. घर में सन्नाटे में बन्द बेटा अब मानसिक रोग से भी पीड़ित हो गया है. यह कथा सुनाते हुए उसके पिता रोने लगे कि बेटे की बीमारी में सारे परिवार के भविष्य का नाश हो गया.

इसमें किसको दोष दिया जाये? शायद भारत की सरकार को जो स्वतंत्रता के साठ वर्ष बाद भी नागरिकों को सरकारी चिकित्सा संस्थानों में स्तर की चिकित्सा नहीं दे सकती? उन चिकित्सा संस्थानों को जो जानते थे कि बहुत से टेस्ट ऐसे थे जिनसे उस लड़के को कोई फायदा नहीं हो सकता था लेकिन फ़िर भी उन्होंने करवाये? या उन माता पिता का, जो हार नहीं मानना चाहते थे और जिन्होंने बेटे को ठीक करवाने के चक्कर में सब कुछ दाँव पर लगा दिया?

जीवन के अंत की दुविधाएँ

शहरों में रहने वाले हों तो परिवार में किसी की स्थिति गम्भीर होते ही सभी अस्पताल ले जाने की सोचते हैं. लेकिन जब बात वृद्ध व्यक्ति की हो या फ़िर गम्भीर बीमारी के अंतिम चरण की, तो ऐसे में अस्पताल से हमारी क्या अपेक्षाएँ होती हैं कि वह क्या करेंगे? जो खुशकिस्मत होते हैं वह अस्पताल जाने से पहले ही मर जाते हैं. पर अगर उस स्थिति में अस्पताल पहुँच जायें,  तो उस अंतिम समय में क्या करना चाहये, यह निर्णय लेना आसान नहीं. कैंसर का अंतिम चरण हो या अन्य गम्भीर बीमारी जिससे ठीक हो कर घर वापस लौटना सम्भव नहीं तो मशीनों के सहारे जीवन लम्बा करना क्या सचमुच का जीवन है या फ़िर शरीर को बेवजह यातना देना है?

कोमा में हो बेहोश हो कर, मशीनों के सहारे कई बार लोग हफ्तों तक या महीनों तक अस्पतालों में आईसीयू पड़े रहते हैं. परिवार वालों के लिए यह कहना कि मशीन बन्द कर दीजिये आसान नहीं. उन्हें लगता है कि उन्होंने पैसा बचाने के लिए अपने प्रियजन को जबरदस्ती मारा है. व्यापारी मानसिकता के डाक्टर हों तो उनका इसी में फायदा है, वह उस अंतिम समय का लम्बा बिल बनायेंगे.

ईमानदार डाक्टर भी यह निर्णय नहीं लेना चाहते. वह कैसे कहें कि कोई उम्मीद नहीं और शरीर को यातना देने को लम्बा नहीं खींचना चाहिये? वह सोचते हैं कि यह निर्णय तो परिवार वाले ही ले सकते हैं. इस विषय में बात करना बहुत कठिन है क्योंकि मन में डर होता है कि उस परिस्थिति में कुछ भी कहा जायेगा तो उसका कोई उल्टा अर्थ न निकाल ले या फ़िर भी मरीज़ की हत्या करने का आरोप न लगा दिया जाये.

अपना बच्चा हो या अपने माता पिता, कहाँ तक लड़ाई लड़ना ठीक है और कब हार मान लेनी चाहिये, इस प्रश्न के उत्तर आसान नहीं. हर स्थिति के लिए एक जैसा उत्तर हो भी नहीं सकता. जब तक ठीक होने की आशा हो, तो अंतिम क्षण तक लड़ने की कोशिश करना स्वाभाविक है. लेकिन जब वृद्ध हों या ऐसी बीमारी हो जिससे बिल्कुल ठीक होना सम्भव नहीं हो या फ़िर जीवन तो कुछ माह लम्बा हो जाये पर वह वेदना से भरा हो तो क्या करना चाहिये? कौन ले यह निर्णय कि ओर कोशिश की जाये या नहीं?

अपने अंतिम समय का निर्णय

भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक अतुल गवँडे ने अपनी पुस्तक "बिइन्ग मोर्टल" (Being Mortal) में इस विषय पर, अपने पिता के बारे में तथा अपने कुछ मरीजों के अनुभवों के बारे में बहुत अच्छा लिखा है. मालूम नहीं कि यह पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध है या नहीं, पर हो सके तो इसे अवश्य पढ़िये. उनका कहना है कि हमें अपने होश हवास रहते हुए अपने परिवार वालों से इस विषय में अपने विचार स्पष्ट रखने चाहिये कि जब हम ऐसी अवस्था में पहुँचें, जब हमारी अंत स्थिति आयी हो, तो हमें मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये या नहीं. किस तरह की मृत्यू चाहते हैं हम, इसका निर्णय केवल हम ही ले सकते हैं. ताकि जब हमारा अंत समय आये तो हमारी इच्छा के अनुसार ही हमारा इलाज हो.

जब हमें होश न रहे, जब हम अपने आप खाना खाने लायक नहीं रहें या जब हमारी साँस चलनी बन्द हो जाये, तो कितने समय तक हमें मशीनों के सहारे "ज़िन्दा" रखा जाये? इसका निर्णय हमारी परिस्थितियों पर निर्भर करेगा और हमारे विचारों पर. अगर मैं सोचता हूँ कि महीनों या सालों, इस तरह स्वयं के लिए "जीवित" रहना नहीं चाहता तो आवश्यक नहीं कि बाकी लोग भी यही चाहते हैं. यह निर्णय हर एक को अपने विचारों के अनुसार लेने का अधिकार है. और आवश्यक है कि हम अपने प्रियजनों से इस विषय में खुल कर बात करें तथा अपनी इच्छाओं के बारे में स्पष्ट रूप से कहें.

अपने बारे में मेरी अंतिम इच्छा मेरे दिमाग में स्पष्ट है. मुझे लगता है कि मैंने अपना सारा जीवन पूरी तरह जिया है, अपने हर सपने को जीने का मौका मिला है मुझे. जहाँ तक हो सके, मैं अपने घर में मरना चाहूँगा. अगर मेरी स्थिति गम्भीर हो तो मैं चाहूँगा कि मुझे अपने पारिवार का सामिप्य मिले, लेकिन मुझे मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखने की कोई कोशिश न की जाये!

मैंने इस विषय में कई बार अपनी पत्नी, अपने बेटे से बात भी की है और अपने विचार स्पष्ट किये हैं. आप ने क्या सोचा है अपने अंतिम समय के बारे में?

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