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शुक्रवार, सितंबर 30, 2022

रोमाँचक यात्राएँ

मेरा सारा जीवन यात्राओं में बीत गया लेकिन अब लगता है कि जैसे इन पिछले ढ़ाई-तीन सालों में यात्रा करना ही भूल गया हूँ। जब आखिरी बार दिल्ली से इटली वापस लौटा था,  उस समय कोविड के वायरस के बारे में बातें शुरु हो रहीं थीं। उसके बाद ढाई साल तक इटली ही नहीं, अपने छोटे से शहर से भी बाहर नहीं निकला। पिछले कुछ महीनों में यहाँ आसपास कुछ यात्राएँ की हैं और अब पहली अंतर्राष्ट्रीय यात्रा की तैयारी कर रहा हूँ - अक्टूबर के प्रारम्भ में कुछ सप्ताह के लिए भारत वापस लौटूँगा, तो लम्बी यात्रा की सोच कर मन में कुछ घबराहट सी हो रही है।

सोचा कि आज अपने जीवन की कुछ न भूल पाने वाली रोमाँचकारी यात्राओं को याद करना चाहिये, जब सचमुच में डर और घबराहट का सामना करना पड़ा था (नीचे की तस्वीर में रूमझटार-नेपाल में एक रोमाँचक यात्रा में मेरे साथ हमारे गाईड कृष्णा जी हैं।)।



रोमाँचकारी बोलिविया यात्रा

अगर रोमाँचकारी यात्राओं की बात हो तो मेरे मन में सबसे पहला नाम दक्षिण अमरीकी देश बोलिविया का उभरता है। बोलिविया की राजधानी ला'पाज़ ऊँचे पहाड़ों पर बसी है। 1991 में जब वहाँ हवाई जहाज़ से उतरे तो हवाई अड्डे पर जगह-जगह लिखा था कि अगर चक्कर आयें या साँस लेने में दिक्कत हो या बेहोशी सी लगे तो तुरंत बैठ जायें और सिर को घुटनों के बीच में कर लें। तभी हमारे साथ का एक यात्री "चक्कर आ रहे हैं" कह कर वहीं ज़मीन पर लेट गया तो जी और भी घबराया। खैर मुझे ला'पाज़ में कुछ परेशानी नहीं हुई।

कुछ दिन बाद हम लोग छोटे से तीन सीट वाले हवाई जहाज़ से त्रिनीदाद शहर गये। वहाँ का हवाई अड्डा एक घास वाला मैदान था जहाँ पर गायें चर रही थीं। पायलेट साहब ने मैदान पर जहाज़ के चक्कर लगाये जब तक नीचे से कर्मचारियों ने गायों को हटाया। दो दिन बाद हम लोग वहाँ से ला'क्रूस जाने के लिए उसी मैदान में लौटे तो मूसलाधार बारिश हो रही थी। इस जहाज़ में दो ही सीटें थीं, तो मैं स्टूल पर पायलेट के पीछे बैठा। पायलट ने जहाज़ का इंजन चालू किया और चलने लगे, लेकिन बारिश इतनी थी कि जहाज़ हवा में उठ नहीं पाया। तब पायलेट ने जहाज़ को रोकने के लिए ब्रेक लगायी, तो भी एक पेड़ से टक्कर होते होते बची। उस ब्रेक में मेरा स्टूल भी नीचे से खिसक गया तो मैं नीचे गिर गया। चोट तो कुछ नहीं लगी लेकिन मन में डर बैठ गया कि शायद यहाँ से बच कर नहीं लौटेंगे। खैर पायलेट ने जहाज़ को घुमाया और फ़िर से उसको चलाने की कोशिश की, इस बात जहाज़ उठ गया। एक क्षण के लिए लगा कि वह पेड़ों से ऊपर नहीं जा पायेगा, लेकिन उनको छूते हुए ऊपर आ गया, तब जान में जान आयी (नीचे की तस्वीर में त्रिनिदाद शहर की बारिश में हमारा हवाई जहाज़)।



ला'क्रूस में हम लोगों को रिओ मादेएरा नाम की नदी के बीच में एक द्वीप पर बने स्वास्थ्य केन्द्र में जाना था। जाते हुए तो कुछ कठिनाई नहीं हुई। जब वापस चलने का समय आया तो अँधेरा होने लगा था। नदी का पानी बहुत वेग में था और बीच-बीच में पानी में तैरते हुए बड़े वृक्ष आ रहे थे। तब मालूम चला कि नाव की बत्ती खराब थी, अँधेरे में ही यात्रा करनी होगी। फ़िर नाव वाले ने बताया कि वहाँ नदी में पिरानिया मछलियाँ थीं जो माँस खाती हैं, इसलिए वहाँ पानी में हाथ नहीं डालना था। अँधेरे में नाव की उस आधे घँटे की यात्रा में दिल इतना धकधक किया कि पूछिये मत। डर था कि नाव किसी तैरते वृक्ष से टकरायेगी तो पानी में गिर जाऊँगा और अगर उसके वेग में न भी बहा तो पिरानिया मछलियाँ मेरे हाथों-पैरों के माँस को खा जायेंगी। मन में हनुमान चलीसा याद करते हुए वह यात्रा पूरी हुई।

उसके बाद में मैं बोलिविया दोबारा नहीं लौटा! तीस सालों के बाद भी मेरी यादों में वही यात्रा मेरे जीवन का सबसे रोमाँचकारी अनुभव है।

रोमाँचकारी नेपाल यात्रा

मैं नेपाल कई बार जा चुका था लेकिन 2006 की एक यात्रा विषेश रोमाँचकारी थी। उस यात्रा में हम लोग ऊँचे पहाड़ों के बीच ओखलढ़ुंगा जिले में गये थे, जहाँ से एवरेस्ट पहाड़ की चढ़ाई की लिए बेस कैम्प की ओर जाते हैं। रुमझाटार के हवाई अड्डे से ओखलढ़ुंगा शहर तक पैदल गये, तो पहाड़ की चढ़ाई में मेरा बुरा हाल हो गया। लेकिन असली दिक्कत तो लौटते समय समय हुई जब रुमझाटार में इतनी तेज़ हवा चल रही थी कि हमारा हवाई जहाज़ वहाँ उतर ही नहीं पाया। हमसे कहा गया कि हम अगले दिन लौटें, इसलिए रात को वहीं रुमझाटार के एक होटल में ठहरे (नीचे की तस्वीर में रूमझटार का एक रास्ता)।



वह इलाका माओवादियों के कब्ज़े में था। हालाँकि हम लोग जिस प्रोजेक्ट के लिए वहाँ गये थे, उसके लिए माओवादियों से अनुमति ली गयी थी, फ़िर भी कुछ डर था कि रात में माओवादी नवयुवक होटल पर हमला कर सकते थे। वैसा ही हुआ। लड़कों ने रात को मेरे दरवाज़े पर खूब हल्ला किया, लेकिन मैंने दरवाज़ा नहीं खोला। डर के मारे बिस्तर में दुबक कर बैठा रहा, सोच रहा था कि वह लोग दरवाज़ा तोड़ देंगे, लेकिन उन्होंने वह नहीं किया। करीब एक घँटे तक उनका हल्ला चलता रहा, फ़िर वे चले गये।

दूसरे दिन भी वह तेज़ हवा कम नहीं हुई थी तो हमारी उड़ान को एक दिन की देरी और हो गयी। दूसरी रात को कुछ परेशानी नहीं हुई। तीसरे दिन भी जब हवा कम नहीं हो रही थी तो मैं घबरा गया, क्योंकि मेरी काठमाँडू से वापस जाने वाली फ्लाईट के छूटने का डर था।

तो हमने एक हेलीकोप्टर बुलवाया। उस तेज़ हवा में जब वह हेलीकोप्टर ऊपर उठने लगा तो मुझे बोलिविया वाली उड़ान याद आ गयी। वह मेरी पहली हेलीकोप्टर यात्रा थी। खैर हम लोग सही सलामत वापस काठमाँडू वापस पहुँच गये।

रोमाँचकारी लंडन यात्रा

नब्बे के दशक में मैं अक्सर लंडन जाता था। हमारा आफिस हैमरस्मिथ में था, हमेशा वहीं के एक होटल में ठहरता था। वहाँ मेरी कोशिश रहती थी कि सुबह जल्दी उठ कर नाश्ते से पहले थेम्स नदी के आसपास सैर करके आऊँ, शहर का वह हिस्सा मुझे बहुत मनोरम लगता था (नीचे की तस्वीर में)।



वैसे ही एक बार मैं वहाँ गया तो शाम को पहुँचा। अगले दिन सुबह मेरी मीटिंग थी, मैं खाना खा कर सो गया। अगले दिन सुबह जल्दी नींद खुल गयी। तो मैंने टेबल लैम्प जलाया, सोचा कि नदी किनारे सैर के लिए जाऊँगा, इसलिए उठ कर बिजली की केतली में कॉफ़ी बनाने के लिए पानी गर्म करने के लिए लगाया और खिड़की खोली।

खिड़की खोलते ही बाहर देखा तो सन्न रह गया। बाहर चारों तरफ़ होटल की ओर बँदूके ताने हुए पुलिस के सिपाही खड़े थे। झट से मैंने खिड़की बन्द की, बत्ती बन्द की और वापस बिस्तर में घुस गया। एक क्षण के लिए सोचा कि बिस्तर के नीचे घुस जाऊँ, फ़िर सोचा कि अगर किस्मत में मरना ही लिखा है तो बिस्तर में मरना बेहतर है। करीब आधे घँटे के बाद कमरे के बाहर से लोगों की आवाज़ें आने लगीं, लोग आपस में बातें कर रहे थे। मैंने कमरे का दरवाज़ा हल्का सा खोला और बाहर झाँका तो हॉल पुलिस के आदमियों से भरा था, लेकिन अब उनके हाथों में बँदूकें नहीं थीं।

नहा-धो कर नीचे रेस्टोरैंट में गया तो वहाँ पुलिस वाले भी बैठ कर चाय-नाश्ता कर रहे थे। तब मालूम चला कि हमारे होटल में एक आतंकवादी ठहरा था, उसे पकड़ने के लिए वह पुलिसवाले आये थे। खुशकिस्मती से उस आतंकवादी ने पुलिस को आत्मसमर्पण कर दिया और बँदूक चलाने का मौका नहीं आया।

लंडन में ही एक और अन्य तरह की सुखद रोमाँचकारी याद भी जुड़ी है। मेरा ख्याल है कि वह बात 1995 या 96 की थी, जब वहाँ एक समारोह में मुझे प्रिन्सेज़ डयाना से मिलने का और बात करने का मौका मिला (नीचे की तस्वीर में)।



उनके अतिरिक्त, कई देशों में प्रधान मंत्री या राजघराने के लोगों से पहले भी मिला था और उनके बाद भी ऐसे कुछ मौके मिले, लेकिन उनसे मिल कर जो रोमाँच महसूस किया था, वह किसी अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति से मिल कर नहीं हुआ। उस मुलाकात के कुछ महीनों बाद जब सुना कि उनकी एक एक्सीडैंट में मृत्यु हो गयी है तो मुझे बहुत धक्का लगा था।

रोमाँचकारी चीन यात्रा

यह बात 1989 की है। तब चीन में विदेशियों का आना बहुत कम होता था। उस समय मेरे चीनी मित्र सरकारी दमन के विरुद्ध दबे स्वर में तभी बोलते थे जब हम खेतों के बीच किसी खुली जगह पर होते थे और आसपास कोई सुनने वाला नहीं होता था। वह कहते थे कि सरकारी जासूस हर जगह होते हैं। एक डॉक्टर मित्र, जिनके पिता माओ के समय में प्रोफेसर थे और जिन्हें खेतों में काम करने भेजा गया था, ने कैम्प में बीते अपने जीवन की ऐसी बातें बतायीं थीं जिनको सुन कर बहुत डर लगा था।

28 मई को हम लोग कुनमिंग से बेजिंग आ रहे थे तो रास्ते में हमारे हवाई जहाज़ का एक इँजिन खराब हो गया। उस समय जहाज़ पहाड़ों के ऊपर से जा रहा था, जब नीचे जाने लगा तो लोग डर के मारे चिल्लाये। खैर, पायलेट उस जहाज़ की करीब के हवाई अड्डे पर एमरजैंसी लैंडिग कराने में सफल हुए। तब चीन में अंग्रेज़ी बोलने वाले कम थे। जहाज़ की एयर होस्टेज़ और हवाई अड्डे के कर्मचारी किसी को इतनी अंग्रेज़ी नहीं आती थी कि हमें बता सके कि हम लोग किस जगह पर उतरे थे और हमारी आगे की बेजिंग यात्रा का क्या होगा।

जब हम लोगों को बस में बिठा कर होटल ले जाया जा रहा था तो सड़कों को बहुत से लोग प्रदर्शन करते हुए और नारे लगाते हुए दिखे, लेकिन वह भी हम लोग समझ नहीं पाये कि क्या हुआ था। वहाँ लोगों को खुलेआम सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करते देखना बहुत अद्भुत लगा था। (नीचे की तस्वीर सियान शहर में बस की खिड़की से खींची थी जिसमें सड़क के किनारे बैठा एक परिवार है)



होटल पहुँच कर एक ताईवानी चीनी ने हमको सब कुछ बताया। उस शहर का नाम सियान था, वहाँ कुछ वर्ष पहले  दो हज़ार वर्ष पुराने चीनी सम्राट की कब्र मिली थीं जिसमें उनके साथ हज़ारों टेराकोटा मिट्टी के बने सैनिकों, पशुओं आदि को भी दफ़नाया गया था। हम लोग उस टेराकोटा की फौज के खुदाई स्थल को देखने गये तो रास्ते में और प्रदर्शन करने वाले दिखे। मालूम चला कि एक उदारवादी नेता हू याओबाँग की मृत्यु हो गयी थी और लोग, विषेशकर विद्यार्थी, जनताँत्रिक सुधारों के लिए प्रदर्शन कर रहे थे।

दूसरे दिन दोपहर को जब हमारे हवाई जहाज़ के इँजिन की मरम्मत हुई तो हम लोग शाम को बेजिंग पहुँचे। अगले दिन, एक जून को सुबह हमारी स्वास्थ्य मंत्रालय में मीटिंग थी, उस समय बारिश आ रही थी। मंत्रालय से हमें लेने कार आयी तो रास्ते में तिआन-आँ-मेन स्कावर्य के पास से गुज़रे। तब मंत्रालय के सज्जन ने हमे बताया कि वहाँ भी विद्यार्थी हड़ताल कर रहे थे। उस समय बारिश तेज़ थी, इसलिए हम लोग कार से नहीं उतरे, वहीं कार की खिड़की से ही मैंने कुछ विद्यार्थियों की एक-दो तस्वीरें खींची। बारिश में भीगते, ठँडी में ठिठुरते उन युवकों को देख कर वह प्रदर्शन कुछ विषेश महत्वपूर्ण नहीं लग रहा था।

उसी दिन रात को हम लोग बेजिंग से वापस इटली लौटे। मेरे पास केवल एक दिन का कपड़े और सूटकेस बदलने का समय था, तीन जून को मुझे अमरीका में फ्लोरिडा जाना था। चार तारीख को शाम को जब फ्लोरिडा के होटल में पहुँचा तो वहाँ टीवी पर बेजिंग के तिआन-आँ-मेन स्कावर्य में टैंकों की कतारों और मिलेट्री के प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों पर हमले को देख कर सन्न रह गया। तब सोचा कि दुनिया ने बेजिंग में जो हो रहा था, केवल उसे देखा था, क्या जाने सियान जैसे शहरों में प्रदर्शन करने वाले नवजवानों पर क्या गुज़री होगी।

मैं उसके बाद भी चीन बहुत बार लौटा और उस देश को काया बदलते देखा है। मेरे बहुत से चीनी मित्र भी हैं, लेकिन उस पुराने चीन के डँडाराज को कभी नहीं भुला पाया।

अंत में

काम के लिए तीस-पैंतीस सालों तक मैंने इतनी यात्राएँ की हैं, कि अब यात्रा करने का मन नहीं करता। आजकल मेरी यात्राएँ अधिकतर भारत और इटली, इन दो देशों तक ही सीमित रहती हैं। बहुत से देशों की यात्राओं के बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं, क्यों कि होटल और मीटिंग की जगह के अलावा वहाँ कुछ अन्य नहीं देख पाया था।

उन निरंतर यात्राओं से मैं पगला सा गया था। जैसे कि, नब्बे के दशक में एक बार मुझे भारत हो कर मँगोलिया जाना था। मैं दिल्ली पहुँचा तो हवाई अड्डे से सीधा आई.टी.ओ. के पास मीटिंग में गया और उसके समाप्त होने के बाद सीधा वहाँ से हवाई अड्डा लौटा और बेजिंग की उड़ान पकड़ी। दिल्ली में घर पर माँ को भी नहीं मालूम था कि मैं उस दिन दिल्ली में था और उनसे बिना मिले ही चला आया था। इसी तरह से एक बार मैं पश्चिमी अफ्रीका के देश ग्विनेआ बिसाऊ में था। रात को नींद खुली तो सोचने लगा कि मैं कौन से देश में था? बहुत सोचने के बाद भी मुझे जब याद नहीं आया कि वह कौन सा देश था तो होटल के कागज़ पर शहर का नाम खोजा। (नीचे की तस्वीर दक्षिण अमरीकी देश ग्याना की एक यात्रा से है।)

Sunil in Rupununi, near the Brazilian border, in Guyana


इसीलिए उन दिनों में जब कोई मुझे कहता कि कितने किस्मत वाले हो कि इतने सारे देश देख रहे हो, तो मन में थोड़ा सा गुस्सा आता था, लेकिन चुप रह जाता था। शायद यही वजह है कि कोविड की वजह से कहीं बाहर न निकल पाने, कोई लम्बी यात्रा न कर पाने का मुझे ज़रा भी दुख नहीं हुआ। अब ढाई साल के गृहवास के बाद भारत लौटने का सोच कर अच्छा लगता है क्योंकि परिवार व मित्रों से मिलने की इच्छा है।

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मंगलवार, सितंबर 27, 2022

भारत के सबसे सुन्दर संग्रहालय

कुछ समय पहले भारत के अंग्रेज़ी अखबार फर्स्टपोस्ट पर रश्मि दासगुप्ता का एक आलेख पढ़ा था जिसका शीर्षक था "राष्ट्रीय संग्रहालय को बदलाव की आवश्यकता है"। इस आलेख की पृष्ठभूमि में मोदी सरकार का दिल्ली के "राजपथ" पर नये भवनों का निर्माण है जिनमें राष्ट्रीय संग्रहालय भवन भी आता है। कुछ दिन पहले ही प्रधान मंत्री ने नये राजपथ का उद्घाटन किया था और इसे नया नाम दिया गया है, "कर्तव्यपथ"।

इस नवनिर्माण में आज जहाँ राष्ट्रीय संग्रहालय है वहाँ कोई अन्य भवन बनेगा और कर्तव्यपथ के उत्तर में जहाँ अभी नॉर्थ तथा साउथ ब्लाक में मंत्रालय हैं वहाँ पर यह नया संग्रहालय बनाया जायेगा। चूँकि दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय मेरे मनपसंद संग्रहालयों में से है, मैंने सोचा कि भारत के अपने मनपसंद संग्रहालयों के बारे में एक आलेख लिखना चाहिये। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से उन्नीसवीं शताब्दी की धनुराशि का एक शिल्प दक्षिण भारत से है।

National Museum, Delhi

संग्रहालयों की उपयोगिता

सतरहवीं से बीसवीं शताब्दियों में युरोप के कुछ देशों ने एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका महाद्वीपों के विभिन्न देशों पर कब्ज़ा कर लिया। क्योंकि उन देशों की भाषाएँ, वेषभूषाएँ, परम्पराएँ यूरोप से भिन्न थीं, इसलिए उनकी संस्कृतियों को नीचा माना जाता था। उन "पिछड़ी" सभ्यताओं के बारे में ज्ञान एकत्रित करने के लिए "मानव सभ्यता विज्ञान" यानि एन्थ्रोपोलोजी के विषेशज्ञ तैयार किये गये जो उन उपनिवेशित देशों में जा कर वहाँ के "जँगली" लोगों के बीच में रह कर उनके रहने, खाने, रीति रिवाज़, आदि विषयों का अध्ययन करते थे। उन देशों से लायी कीमती वस्तुएँ, जिनमें सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि के गहने थे, वह सब भी यूरोप पहुँच गये। उनकी कला व साँस्कृतिक धरौहरों के लिए संग्रहालय बनाये गये, जिनमें विभिन्न देशों से लायी वस्तुओं को रखा गया।

आज भी एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों की बहुत सी साँस्कृतिक धरौहरें लँदन, पैरिस और एमस्टरडैम के संग्रहालयों में मिलती हैं। समय के साथ, नये स्वतंत्र हुए विकासशील देशों ने धीरे धीरे अपने संग्रहालय बनाने शुरु किये हैं। पहले जहाँ संग्रहालयों में वस्तुओं को अधिकतर कौतुहल का विषय मान कर रखा जाता था, उसमें बदलाव आया। धीरे-धीरे यह समझ बनी कि हर वस्तु को उसके साँस्कृतिक तथा सामाजिक अर्थ, इतिहास व परिवेश की पृष्ठभूमि के साथ ही समझा जा सकता है। डिजिटल तकनीकी के विकास ने संग्रहालयों को इंटरएक्टिव बना दिया जिससे दर्शकों को हर प्रदर्शित वस्तु के बारे में जानकारी पाने का एक नया माध्यम मिला।

स्वतंत्रता के बाद धीरे धीरे भारत के लोगों में अपनी प्राचीन सभ्यता के विषय में जानने की इच्छा बनी है, और पुरात्तव विभाग ने कई जगहों पर काम किये हैं। हमारे अधिकतर संग्रहालय पुरानी, धूल से भरी जगहें हैं, जो बिना समझ वाले बाबू लोगों द्वारा संचालित हैं, लेकिन साथ ही सुन्दर संग्रहालय बनाने के कुछ प्रयास हुए हैं। जैसे जैसे भारत विकसित देश बनेगा, देश की पुरातत्व संस्थाओं को और संग्रहालयों के बजट बढ़ेंगेतो इनमें और भी सुधार आयेगा। 

दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय

भारत की स्वतंत्रता के उपलक्ष्य में लँदन में सन् 1947-48 में एक भारतीय कला प्रदर्शनी लगायी गयी थी, उस कला प्रदर्शनी के समाप्त होने के बाद उस प्रर्दशनी के लिए एकत्रित वस्तुओं से हमारे राष्ट्रीय संग्रहालय की शुरुआत की गयी थी। जब तक राष्ट्रीय संग्रहालय का भवन बन कर तैयार नहीं हुआ था, तब तक सब सामान राष्ट्रपति भवन में रखा गया था।

मुझे हमारा राष्ट्रीय संग्रहालय बहुत अच्छा लगता है। मैंने यूरोप में कई संग्रहालय देखे हैं, मुझे यहाँ की प्रदर्शनी विदेशों के किसी भी संग्रहालय से कम नहीं लगती। दिल्ली में जब भी मौका मिलता है मैं राष्ट्रीय संग्रहालय में अवश्य एक चक्कर लगा लेता हूँ। संग्रहालय की गैलरियों में प्रदर्शित शिल्प, कला तथा आम जीवन की वस्तुओं में भारत के दो हज़ार वर्षों से अधिक इतिहास को देखा जा सकता है। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से बाहरवीं शताब्दी की काकातीय शैली का त्रिदेव का शिल्प हैदराबाद के पास वारांगल से है।

National museum, Delhi

उत्तरी, पूर्वी, पक्षिमी, और दक्षिण भारत के भिन्न हिस्सों के विभिन्न युगों के इतिहासों को एक जगह पर ठीक से दिखाना चाहें तो आज के राष्ट्रीय संग्रहालय से दस गुना जगह भी शायद कम पड़ेगी। उसकी प्रदर्शित वस्तुएँ इतनी सुन्दर हैं कि मैं हर बार वहाँ कई घँटों तक घूमता रहता हूँ। सुना है कि नये भवन में संग्रहालय को अपनी प्रर्दशनियों के लिए अधिक और बेहतर जगह मिलेगी।

मेरे विचार में हर सप्ताह-अंत में, राष्ट्रीय संग्रहालय में जन सामान्य के लिए इतिहास, संगीत, धर्म, संस्कृति आदि के विषेशज्ञयों द्वारा संचालित गाईडिड टूर होने चाहिये ताकि लोगों को हमारे इतिहास के बारे में रुचि बढ़े और उन्हें किताबी समझ के दायरे से बाहर का ज्ञान मिले। उन्हें जनता के लिए फ़िल्मों तथा वार्ताओं के कार्यक्रम भी नियमित रूप से आयोजित करने चाहिये, जिनमें संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं के बारे में गहराई से जाना जा सके।

सहपीडिया का डिजिटल संग्रहालय

इंटरनेट तथा डिजिटल तकनीकी ने साईबरलोक में नई तरह के संग्रहालय बनाने का मौका दिया है। भारत में इसका सबसे बढ़िया नमूना है सहपीडिया में जिनके आरकाईव में भारत के राज्यों, लोगों के जीवन, धर्म, रीति रिवाज़ों, और साँस्कृतिक धरौहरों के बारे में आप को घर बैठे या खाली समय में बहुत सी जानकारी मिल सकती है जिसे किसी एक संग्रहालय में एकत्रित करना असंभव है।

मैंने उनके दिल्ली के दफ्तर में कई दिलचस्प वार्ताओं व सम्मेलनों में हिस्सा लिया है। इस सब के साथ वह वर्कशॉप, तथा देश के विभिन्न शहरों में साँस्कृतिक महत्व की जगहों पर "हेरीटेज वॉक" का आयोजन भी करते रहते हैं।

उनके कुछ पृष्ठ हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में हैं, लेकिन बहुत सी सामग्री केवल अंग्रेज़ी में है। यही सहपीडिया की सबसे बड़ी कमज़ोरी है।

गुरुग्राम का संस्कृति संग्रहालय

दिल्ली के पास गुरुग्राम में, दिल्ली मैट्रो के अंजनगढ़ स्टेशन के पास आनन्दग्राम में एक अन्य सुन्दर संग्रहालय है, संस्कृति संग्रहालय। यह छोटा सा है लेकिन यहाँ भारत के विभिन्न राज्यों से आयी हुई जनजातियों द्वारा बनाई गयी मिट्टी की कला वस्तुओं का संग्रह मुझे बहुत अच्छा लगा। यह एक निजि संग्रहालय है जिसे श्री ओमप्रकाश जैन द्वारा बनवाया गया था।

संग्रहालय के तीन भाग हैं - आम जीवन में प्रयोग आने वाली वस्तुएँ, मिट्टी की कला यानि टेराकोटा (Terracotta) कला तथा बुनकर कला जिसमें भिन्न तरह के करघे पर बुने कपड़े (टेक्टाईल)हैं। नीचे की तस्वीर में गुरुग्राम के संस्कृति संग्रहालय से तामिलनाडू से कुप्पास्वामी का टेराकोटा शिल्प है जोकि भगवान आइनार की सेना के अधिपति हैं।

Sanskriti museum, Gurugram

संग्रहालय पहुँचने के लिए मैट्रोस्टेशन से कुछ किलोमीटर चलना पड़ता है। यह कठिनाई केवल इस संग्रहालय की नहीं बल्कि बहुत से संग्रहालयों की है - मेरी दृष्टि में कुछ जगहों पर जनपरिवहन का न होना इनके प्रबँधकों की लापरवाही भी दर्शाता है, जो शायद सोचते हैं कि अगर आप के पास अपनी कार या स्कूटर नहीं तो आप को संग्रहालय में दिलचस्पी नहीं होगी। कुछ कमी स्थानीय प्रशासन की भी है जिसे मैट्रो स्टेशनों पर वहाँ के आसपास के संग्रहालय व साँस्कृतिक संस्थानों के बारे में सूचना देनी चाहिये तथा वहाँ पहुँचने के लिए जनसाधनों का प्रबंध करना चाहिये।

केरल में कोची का जनजाति संग्रहालय

केरल में कोची का जनजाति संग्रहालय भी एक निजि संग्रहालय है जोकि वहाँ के वास्तुशिल्प, कला, सभ्यता व संस्कृति से आप का परिचय कराता है। यह संग्रहालय लकड़ी के एक पारम्पिक तरीके के बने भवन में बनाया गया है। इस संग्रहालय में धार्मिक कला शिल्प के बहुत सुन्दर नमूने देखने को मिलते हैं। नीचे की तस्वीर में कोची के जनजाति संग्रहालय में तमिलनाडू से सतरहवीं शताब्दी की लकड़ी की गरुण की मूर्ति का शिल्प है।

Folklore Museum, Kochi

इसी संग्रहालय में मैंने पहली बार उत्तरी केरल के कन्नूर जिले के आसपास की प्रचलित थैयम परम्परा के नमूने देखे जिनमें कुछ जनजातियों के लोग पाराम्परिक श्रृंगार और वस्त्र पहन कर देवी देवताओं को अपने शरीर में उतारते हैं। इनको देखने के बाद ही मुझमें कन्नूर जा कर वहाँ के गाँवों में थैयम पूजा को देखने की जिज्ञासा जागी, जोकि मेरे जीवन का बहुत रोमांचक अनुभव था।

नागालैंड में किसामा का हेरीटेज गाँव

नागालैंड के गाँवों में अधिकाँश जगहों पर ईसाई धर्म और आधुनिकता के साथ पाराम्परिक सँस्कृति, पुराने तरीके का रहन सहन, रीति रिवाज़ आदि लुप्त से हो रहे हैं। प्राचीन समय में विभिन्न नागा जातियों की अपनी विशिष्ठ परम्पराएँ, वास्तुशिल्प, पौशाकें होती थीं। नागालैंड की राजधानी कोहिमा से थोड़ी दूर किसामा साँस्कृतिक धरौहर गाँव है जहाँ नागा जनजातियों के घरों, पौशाकों तथा कलाओं को दिखाया गया है (नीचे की तस्वीर में)।


एक स्तर पर लगता है कि किसामा गाँव विभिन्न नागा जनजातियों के पाराम्परिक जीवन को दिखाने वाला खोखला ढाँचा सा है जिसमें सचमुच का जीवन नहीं है, लेकिन मेरे विचार में आने वाली नागा पीढ़ियों के यह महत्वपूर्ण है कि उनकी पश्चिमी सभ्यता की नयी पहचान के बीच में उनके सदियों के पुराने जीवन की कुछ यादें भी बची रहें।

हर वर्ष दिसम्बर में इस गाँव में एक संगीत तथा साँस्कृतिक समारोह होता है, जो होर्नबिल फेस्टीवल (Hornbill festival) के नाम से जाना जाता है और जिसमें नागा युवक व युवतियाँ अपने प्राचीन वस्त्र, रीति रिवाज़ों तथा परम्पराओं को याद करते हैं। इस समारोह के लिए दूर दूर से पर्यटक नागालैंड आते हैं।

गुवाहाटी का श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र संग्रहालय

गुवाहाटी के "छह मील" नाम के क्षेत्र के पास पँजाबाड़ी में असमिया संगीतकार व कलाप्रेमी भूपेन हज़ारिका द्वारा स्थापित "कलाक्षेत्र संग्रहालय" में असम की साहित्य, नृत्य, कला, नाटक तथा जनजातियों से जुड़ी परम्पराओं को प्रदर्शित किया गया है। इस तरह कलाक्षेत्र केवल संग्रहालय नहीं है, यह कला, नृत्य और नाटकों से असम की जीवंत सँस्कृति से जुड़ा है। यहाँ केवल प्रदर्शनी देखने की जगह नहीं है, बल्कि वहाँ आप असम की सभ्यता को जी सकते हैं।

मेरा सौभाग्य था कि कुछ वर्ष पहले मुझे कलाक्षेत्र से थोड़ी दूर ही रहने का मौका मिला, जिससे कलाक्षेत्र जाने के बहुत मौके मिले। कलाक्षेत्र का जनजाति सभ्यता संग्रहालय छोटा सा है लेकिन बहुत सुन्दर है।

भक्तीकाल में असम में श्रीमंत शंकरदेव तथा अन्य संतो के द्वारा एक जातिविहीन, कृष्ण भक्ति पर आधारित एक नये तरह के हिन्दु धर्म की परिकल्पना की गयी थी, जिसकी नींव सादे जीवन पर टिकी थी। हिंदू धर्म के इस रूप का केन्द्र नामघर तथा सत्रिया होते हैं। कलाक्षेत्र में आप को इस नामघर संस्कृति को जानने और समझने का मौका भी मिलता है (नीचे की तस्वीर में)।

Namghar, Kalakshetra, Guwahati

कलाक्षेत्र के साथ ही शिल्पग्राम भी है जहाँ विभिन्न असमियाँ जनजातियों के घरों और गाँवों को दिखाया गया है जोकि किसामा के नागा गाँवों से मिलता है। यहाँ अक्सर प्रदर्शनियाँ लगती रहती हैं जहाँ आप गृहउद्योग तथा पराम्परिक हस्तकला को देख व खरीद सकते हैं।

भोपाल के राष्ट्रीय मानस संग्रहालय व जनजाति संग्रहालय

भोपाल का मानस संग्रहालय व जनजाति संग्रहालय मुझे बहुत प्रिय हैं। दो बार वहाँ जा चुका हूँ लेकिन अगर मौका मिले तो वहाँ अन्य दस बार लौटना चाहूँगा। मैंने बहुत दुनिया घूमी है और मेरे विचार में जनजातियों की सभ्यता व संस्कृतियों के बारे में यह दुनिया का सबसे सुंदर संग्रहालय है। नीचे की तस्वीर में छत्तीसगढ़ से राजवर जनजाति के जीवन को दिखाती एक कृति भोपाल के मानस संग्रहालय से।

Manas Sangrahalaya museum, Bhopal

मध्यप्रदेश की विभिन्न जनजातियों के आम जीवन की वस्तुएँ, उनके घर, वस्त्र, रीति रिवाज़, विभिन्न कलाओं, आदि से जुड़ी इन संग्रहालयों में इतनी वस्तुएँ हैं कि उनको देखने और समझने के लिए कई महीने चाहिये। सब कुछ इतने सुन्दर तरीके से प्रदर्शित किया गया है कि यहाँ घूम कर महीनों तक यहाँ के सपने आते रहते हैं।

अगर आप को भोपाल जाने का मौका मिले तो आप को इन दोनों संग्रहालय को अवश्य देखने जाना चाहिये।

अंत में

रश्मि दासगुप्ता नें अपने आलेख में लिखा है कि भारत में संग्रहालयों में जाने की परम्परा नहीं है। शायद यह बात सच है लेकिन मेरी राय में अगर लोगों को संग्रहालय में आकर्षित करने के लिए वस्तुओं को शीशे के डिब्बे से बाहर निकाल कर रखा जाये और लोगों को वहाँ सैल्फ़ी खींचने आदि से नहीं रोका जाये, तो धीरे धीरे अपनी संस्कृति को जानने समझने के बारे में जिज्ञासा बनायी जा सकती है। अगर संग्रहालय केवल वस्तुओं को दिखाने तक सीमित न रहें, उनमें पारम्परिक कला सीखने, फिल्म, नाटक व नृत्य देखने की सुविधाएँ हों, वहाँ के बारे में दिलचस्प तरीके से समझाने बताने वाले गाईड हों, वहाँ बैठने की जगहें हों जहाँ लोग चाय-कॉफ़ी पी सकें, जहाँ लोग छोटे बच्चों को ले कर आ सकें और जो जनपरिवहन सेवाओं से जुड़े हों, तो नयी पीढ़ी में संग्रहालय जाने की तथा देश की संस्कृति का महत्व समझने की परम्परा भी बन सकती है।

अधिकतर संग्रहालय सरकारी बाबू लोगों की निजी रियासतें जैसी होती हैं, जहाँ फोटो खींचना मना होता है और न ही उन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से कैसे दर्शकों को संग्रहालय से जोड़ा जाये की कोई जानकारी होती है। आज का युग मोबाईल फ़ोन का व सैल्फ़ी का युग है, अगर आप दर्शकों को संग्रहालयों में टिवटर, टिकटॉक, फेसबुक आदि पर सैल्फ़ी नहीं दिखाने देंगे तो बहुत से लोग वहाँ नहीं आयेंगे, विषेशकर नवजवान लोग। यह समझ निज़ी संग्रहालयों में अधिक है, इसलिए वह वस्तुओं को ऐसे रखते हैं ताकि लोग वहाँ फोटो खींचे और संग्रहालय के बारे में अपने मित्रों व जानकारों को दिखा सकें कि संग्रहालय में उन्होंने क्या क्या दिलचस्प चीज़ें देखीं, जिससे अन्य लोग भी वहाँ आना चाहें।

दूसरी बात है कि भारत में पुराने मन्दिर, मस्जिद, किले, राजमहल, भग्नावषेश, बहुत हैं जो कि खुले संग्रहालय जैसे हैं, उनके सामने कमरों में बन्द सँग्रहालय कम दिलचस्प लगते हैं। जैसे कि एक बार हम्पी या महाबलिपुरम के भग्नावषेशों के बीच घूम लें तो उनके संग्रहालयों में वह आनन्द नहीं मिलता। इसलिए यह कहना की लोगों में संग्रहालय जाने की परम्परा नहीं है, शायद संग्रहालयों की कमियों को न देख पाना है।

आशा है कि आप को मेरे प्रिय भारतीय संग्रहालयों का यह टूर अच्छा लगा होगा। क्या आप की दृष्टि में भारत के किसी अन्य राज्य में कोई अन्य संग्रहालय है जो आप को बहुत अच्छा लगता है और जिसे इस सूची का हिस्सा होना चाहिये था? मुझे इसके बारे बताईयेगा, ताकि मैं अगर उस तरफ़ जाऊँ तो उसे अवश्य देखने जाऊँ।


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रविवार, अगस्त 21, 2022

अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट का घोटाला

गेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़, युएसएड जैसी संस्थाओं के नाम दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं। युनेस्को और युनिसेफ़ तो संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाएँ हैं। ऐसी संस्थाएँ जब कोई रिपोर्ट निकालती हैं तो हम उन पर तुरंत विश्वास कर लेते हैं।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के प्रति कुछ संदेह जागे हैं। जैसे कि २०१९ के अंत में चीन में वुहान से कोविड की बीमारी निकली और दुनिया भर में फ़ैली तो विश्व स्वास्थ्य संस्थान ने जब इस महामारी की समय पर चेतावनी नहीं दी तो बहुत से लोगों ने इस संस्था की ओर उंगलियाँ उठायीं कि उन्होंने चीनी सरकार के रुष्ट होने के भय से दुनिया के देशों को समय पर महत्वपूर्ण जानकारी नहीं दी। ऐसी ही कुछ बात शिक्षा से जुड़ी एक नयी अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट के बारे में भी उठायी गयी है जिसका विषय है प्राथमिक विद्यालयों के छात्रों में पढ़ायी की क्षमता। इस रिपोर्ट पर आरोप है कि उन्होंने इस रिपोर्ट में जान बूझ कर गलत आंकणों का प्रयोग किया है। यह आलेख इस रिपोर्ट और उस पर लगे आरोपों के बारे में है।


दो तरह की रिपोर्टें

कर्मा कोलोनियलिस्म की वेबसाईट पर साशा एलिसन ने प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा छापी २०२२ की एक नयी रिपोर्ट "सीखने की गरीबी" (Global Learning Poverty Report, 2022) के बारे में लिखा है, जिसमें विभिन्न देशों में शिक्षा की स्थिति के बारे में चर्चा है। इन देशों में भारत भी है। इस रिपोर्ट को छापने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ हैं वर्ल्ड बैंक, युनिसेफ, युनेस्को, बिल गेटस फाऊन्डेशन तथा कुछ विकसित देशों की सहायता एजेन्सियाँ।

एलिसन ने अपने आलेख में दिखाया है कि यह संस्थाएँ दो तरह की रिपोर्टें छापती हैं। जब यह दिखाना हो कि इन संस्थाओं के कार्यक्रमों से लाभ पाने बच्चों का शिक्षा स्तर कितना सुधरा है तो यह सकारात्मक जानकारी देती हैं। जब जनता से और सरकारों से अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे माँगने का समय आता है तो अचानक उन्हीं बच्चों के शिक्षा स्तर गिर जाते हैं। इसके लिए यह रिपोर्टें आंकणों को अपनी मनमर्ज़ी से गलत ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर दिखाती हैं।

जैसे कि २०१५ में जब संयुक्त राष्ट्र के लिए मिल्लेनियम डेवेलेपमैंट गोलस् (सहस्राब्दी विकास लक्ष्य) में मिली सफलताओं की रिपोर्ट तैयार की गयी तो युनेस्को की रिपोर्ट में बच्चों की शिक्षा की रिपोर्ट बहुत सकरात्मक थी, क्योंकि उसमें दिखाना था कि सन् २००० से २०१५ तक के किये खर्चे से चलाये जाने वाले कार्यक्रमों से दुनिया में बच्चों को कितना लाभ हुआ।

एक साल बाद संयुक्त राष्ट्र ने सस्टेनेबल डेवलेपमैंट गोलस् के तहत २०३० तक के नये लक्ष्य निर्धारित किये, तो सभी संस्थाएँ अपने कार्यक्रमों के लिए पैसे जमा करने के लिए अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों की शिक्षा स्थिति के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट दिखाने लगीं।

२०२२ की अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा रिपोर्ट

एलिसन स्वयं लाओस में शिक्षा के क्षेत्र में काम करते थे और जब उन्होंने "सीखने की गरीबी" रिपोर्ट में पढ़ा कि लाओस में स्कूल जाने वाले पाँचवीं कक्षा के ९७.६ प्रतिशत बच्चे ठीक से नहीं पढ़ सकते तो उन्हें शक हुआ कि यह गलत आंकणे लिये गये हैं। उन्होंने इस रिपोर्ट में शिक्षा के बारे में छपे आंकणों का विशलेषण किया है और दिखाया है कि इसमें अफ्रीका और एशिया के विकासशील देशों के बारें में जानबूझ कर गलत आंकणे लिए गये हैं। उदाहरण के लिए इस रिपोर्ट के हिसाब से एशिया के छः देशों में केवल ३७ प्रतिशत बच्चे सरल भाषा की किताब को पढ़ सकते हैं जबकि इसका सही आंकणा ८४ प्रतिशत होना चाहिये था।

रिपोर्ट के लिए गलत जानकारी देने के अतिरिक्त इस रिपोर्ट में आंकणों की एक अन्य समस्या है, कि अगर किसी देश से आंकणे न मिलें तो उसके आसपास के देशों के आंकणे ले कर उन सब देशों के औसत आंकणे बना लीजिये। जैसे कि रिपोर्ट में नाईजीरिया के आंकणे नहीं थे। जनसंख्या की दृष्टि से नाईजीरिया अफ्रीका का सबसे बड़ा देश है। इसलिए एलिसन कहते हैं कि आसपास के उससे दस गुना छोटे देशों की स्थिति के आधार पर इतने बड़े देश की स्थिति के बारे में "औसत आंकणे" दिखाना गलत है। लेकिन इस औसत आंकणों की बात को रिपोर्ट में स्पष्ट रूप में नहीं बताया गया है।

भारत में शिक्षा की स्थिति

भारत में बच्चों की शिक्षा से पायी समझ को मापने के लिए "आसेर" (Annual State of Education - ASER) के टेस्ट किये जाते हैं, इसमें देखा जाता कि पाँचवीं कक्षा के कितने प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ सकते हैं। भारत की स्वयंसेवी संस्था "प्रथम" इसको जाँचने के लिए देश के विभिन्न राज्यों में समय-समय पर सर्वे करती है। इसका आखिरी "आसेर" सर्वे २०१८ में किया गया, जिसकी रिपोर्ट २०१९ में निकली थी।

इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में राष्ट्रीय स्तर पर करीब ४५ प्रतिशत पाँचवीं कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को आसानी से पढ़ सकते थे, जबकि बाकी के ५५ प्रतिशत बच्चों को वह किताबें पढ़ने में कठिनाई थी। विभिन्न राज्यों के स्थिति में बहुत अंतर था - एक ओर हिमाचल प्रदेश में ७५ प्रतिशत, केरल में ७३ प्रतिशत बच्चे पढ़ाई में सक्षम थे जबकि, दूसरी ओर झारखँड में केवल २९ प्रतिशत और असम में ३३ प्रतिशत बच्चे सक्षम थे। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस वर्षों में बच्चों की पढ़ने की सक्षमता बेहतर होने के बजाय कुछ कमज़ोर हुई है, जो चिंता की बात है। शिक्षा व्यवस्था राज्य सरकारों के आधीन है, इसलिए जिन राज्यों में स्थिति कमज़ोर है उन्हें इसे सुधारने में प्रयत्न करना चाहिये और "प्रथम" की रिपोर्ट पर ध्यान देना चाहिये।

२०२२ की "पढ़ाई की गरीबी" रिपोर्ट में भारत के बारे में कहा गया है कि ५६ प्रतिशत पाँचवीं के बच्चे दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ने में असमर्थ थे,जोकि ऊपर दी गयी "प्रथम" की सर्वे की रिपोर्ट के आंकणे से मिलता है।

अंत में

जब कोई अंतर्राष्टीय रिपोर्ट, विषेशकर जब उससे गेट फाऊँन्डेशन, युनेस्को, युनिसेफ़ युएसएड जैसे बड़े और प्रतिष्ठित नाम जुड़े हों तो हम उस पर तुरंत भरोसा कर लेता हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि इतनी बड़ी संस्थाएँ अवश्य अच्छा काम ही करेंगी।

साशा एलिसन का आलेख दिखाता है कि कभी कभी ऊँची दुकान, फ़ीका पकवान वाली बात हो सकती है। यानि बड़े नामों पर भरोसा नहीं कर सकते और उनकी रिपोर्टों को आलोचनात्मक दृष्टि से परखना चाहिये।

अक्सर ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में भारतीय विशेषज्ञ जुड़े होते हैं और भारत का राष्ट्रीय सर्वे संस्थान विभिन्न विषयों पर सर्वे करता रहता हैं इसलिए उनमें भारत सम्बंधी गलत जानकारी या आंकणें नहीं मिलने चाहिये, लेकिन फ़िर भी सावधानी बरतना आवश्यक है।


बुधवार, मई 25, 2022

अरे ओ साम्बा, कित्ती छोरियाँ थीं?

भारत में कितनी औरतें हैं यह प्रश्न गब्बर सिंह ने नहीं पूछा था, लेकिन यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है।

कुछ माह पहले भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने 2019 से 2021 के बीच में किये गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नतीजों की रिपोर्ट निकाली थी। इस रिपोर्ट के अनुसार आधुनिक भारत के इतिहास में पहली बार देश में लड़कियों तथा औरतों की कुल जनसंख्या लड़कों तथा पुरुषों की कुल जनसंख्या से अधिक हुई है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है जिससे देश की सामाजिक, आर्थिक व स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। यह भारत के लिए गर्व की बात है। अपने इस आलेख में मैंने इस बदलाव की राष्ट्रीय तथा राज्यीय स्तर पर कुछ विषलेशण करने की कोशिश की है।



नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात

कुल जनसंख्या में लड़कियों तथा औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक होनी चाहिए। अगर गर्भ में भ्रूण के बनते समय उसका नर या मादा होने के मौके एक बराबर ही होते हैं, तो समाज में नर और नारियों की संख्या भी एक बराबर होनी चाहिये। तो पुरुषों की संख्या औरतों से कम क्यों होती है? इसके कई कारण होते हैं। सबसे पहले हम नर तथा नारी जनसंख्या पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों को देख सकते हैं। 

नर भ्रूणों को स्वभाविक गर्भपात का खतरा अधिक होता है, इस लिए पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियाँ अधिक होती हैं। 

पैदा होने के बाद भी लड़के कई बीमारियों का सामना करने में लड़कियों से कमजोर होते हैं। समूचे जीवन काल में, बचपन से ले कर बुढ़ापे तक, चाहे एक्सीडैंट हों या आत्महत्या, चाहे शराब अधिक पीना हो या नशे की वजह हो, चाहे लड़ाईयाँ हों या सामान्य हिँसा, लड़के व पुरुष ही अधिक मरते हैं। लड़कों व पुरुषों की हड्डियाँ व माँस पेशियाँ अधिक मजबूत होती हैं, वह अधिक ऊँचे और शक्तिशाली होते हैं, लेकिन वह मजबूत शरीर बीमारियों से लड़ने तथा मानसिक दृष्टि से कम शक्तिशाली होते हैं। 

जबकि औरतों के जीवन में सबसे बड़ा स्वास्थ्य से जुड़ा खतरा होता है उनका गर्भवति होना और बच्चे को जन्म देना। पिछड़े व गरीब समाजों में औरतों की उर्वरता दर अधिक होती है, यानि बच्चों की संख्या अधिक होती है। कृषि से जुड़े गरीब समाजों को बच्चों के बाहुबल की आवश्यकता होती है। गरीब देशों की स्वास्थ्य सेवाएँ भी निम्न स्तर की होती हैं, तो बच्चों को टीके नहीं लगाये जाते या बीमार होने पर उनका सही उपचार नहीं हो पाता। इन सब वजहों से गरीब समाजों में बच्चे अधिक होते हैं। इसलिए गर्भवति होने वाली उम्र में गरीब समाजों में नवयुतियों के मरने का खतरा अधिक होता है। जबकि विकसित समाजों में, विषेशकर अगर लड़कियाँ पढ़ी लिखी हों, तो उनके बच्चे देर से पैदा होते हैं और उनकी संख्या कम हो जाती है। 

नारी शरीर की दूसरी कमजोरी का कारण है मासिक माहवारी। अगर उन्हें सही खाना मिलता रहे तो सामान्य माहवारी का उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं पड़ता, वरना इससे उनके रक्त में लोहे की कमी से अनीमिया होने का खतरा रहता है। लेकिन अगर प्रसव तथा माहवारी से जुड़े खतरों को छोड़ दें तो नारी शरीर में बीमारियों से लड़ने की अधिक शक्ति होती है। नारी शरीर के हारमोन उनकी बहुत सारी बिमारियों से, जैसे कि बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर तथा हृद्यरोग आदि से जब तक माहवारी चलती है, तब तक उनकी रक्षा करते हैं, उन बीमारियों से पुरुष अधिक मरते हैं। बुढ़ापे में भी नारी हारमोन उनकी कुछ हद तक रक्षा करते हैं जिससे कि औरतों की औसत जीवन अपेक्षा पुरुषों से अधिक होती है। 

प्राकृतिक स्वास्थ्य संबंधी कारणों के अतिरिक्त नर-नारी जनसंख्या पर सामाजिक सोच का असर पड़ता है। बहुत से समाजों में लड़कियों को पैदा होने से पहले ही गर्भपात करवा कर मरवा देते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि लड़कों से परिवार और संस्कृतियाँ चलती हैं। पैदा होने के बाद बेटों के तुलना में उन्हें खाना कम दिया जाता है, खेलकूद और पढ़ायी के अवसर कम मिलते हैं। और जब वह बीमार होती हैं तो उनका इलाज देर से करवाया जाता है और कम करवाया जाता है।



देशों में कुल जनसंख्या में नर अधिक होंगे या नारियाँ, उस आकंणे पर ऊपर बताये गये सब भिन्न प्रभावों के नतीजों को जोड़ कर देखना पड़ेगा। विश्व स्तर पर उन आकंणों को देखें तो हम पाते हैं कि विकसित देशों में जनसंख्या में नारियाँ अधिक होती हैं, जबकि कम विकसित तथा गरीब देशों में पुरुषों की संख्या अधिक होती है। जैसे जैसे समाज विकसित होने लगते हैं, औरतें अधिक पढ़ती लिखती हैं, नौकरी करके स्वंतत्र रहने के काबिल बन जाती हैं और आवश्यकता पड़ने पर माता पिता की देखभाल भी कर सकती हैं, तो जनसंख्या में उनका अनुपात बढ़ने लगता है। 

अन्य देशों से नर-नारी अनुपात के कुछ आकंणे

नये भारतीय सर्वेषण के नतीजों को देखने से पहले आईये पहले हम कुछ अन्य देशों में नर-नारी अनुपात की क्या स्थिति है उसको देखते हैं।

इस दृष्टि से पहले दुनिया के कुछ विकसित देशों की स्थिति कैसी है, पहले उसके आकणें देखते हैं। 1000 पुरुषों के अनुपात में देखें तो फ्राँस में 1054 औरतें हैं, जर्मनी में 1039, ईंग्लैंड और स्पेन में 1024, इटली में 1035, अमरीका में 1030, तथा जापान में 1057। यानि हर विकसित देश में लड़कियों व औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक है। 

आईये अब भारत के आसपास के देशों की स्थिति देखें। यहाँ पर 1000 पुरुषों के अनुपात में पाकिस्तान में 986 औरतें हैं, बँगलादेश में 976, नेपाल में 1016, और चीन में 953। यानि नेपाल में स्थिति बेहतर हैं जबकि चीन, पाकिस्तान व बँगलादेश में खराब है। हाँलाकि पिछले दो दशकों में चीन बहुत अधिक विकसित हुआ है लेकिन चीन में अभी कुछ समय पहले तक नियम था कि परिवार में एक से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिये, और वहाँ की सामाजिक सोच इस तरह की है जिसमें वह सोचते हैं कि लड़के ही पैदा होंने चाहिए, इसके दुष्प्रभाव पड़े हैं।

विभिन्न देशों के आंकणें देखते समय वहाँ की अन्य परिस्थितयों के असर के बारे में सोचना चाहिये। जहाँ युद्ध हो रहे हैं वहाँ पुरुषों की संख्या और भी कम हो सकती है। कुछ जगहों में पुरुषों को घर-गाँव छोड़ कर पैसा कमाने के लिए दूर कहीं जाना पड़ता है, तो वहाँ भी जनसंख्या में पुरुषों की संख्या कम हो जायेगी, जबकि जिन जगहों पर पुरुष प्रवासी काम खोजने आते हैं, वहाँ पर उनका अनुपात बढ़ जाता है। जब आंकणों में किसी जगह पर बहुत अधिक पुरुष या नारियाँ दिखें तो वहाँ की सामाजिक स्थिति के बारे में अन्य कारणों को समझना आवश्यक हो जाता है।

भारत के राष्ट्रीय स्तर के आंकणे

राष्ट्रीय स्तर पर यह आकंणे सन् 1901 के बाद से जमा किये जाते रहे हैं। चूँकि सौ वर्ष पहले के भारत में आज के पाकिस्तान, बँगलादेश तथा कुछ हद तक मयनमार भी शामिल थे तो उनके आंकणों की आधुनिक भारत के आंकणों से पूरी तरह तुलना नहीं की जा सकती लेकिन उनसे हमारी स्थिति के बारे में कुछ जानकारी तो मिलती है।

1901 में भारत में हर 1000 पुरुषों से सामने 972 औरतें थीं, जबकि 1970 में उनकी संख्या 930 रह गयी थी। 2005-06 में जब तृतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेषण में यह जानकारी जमा की गयी तो भी स्थिति में बदलाव नहीं आया था, 1000 पुरुषों के सामने 939 औरतें थीं। 2015-16 में जब चौथा सर्वेषण किया गया तो पहली बार महत्वपूर्ण बदलाव दिखा जब औरतों की संख्या बढ़ कर 991 हो गयी थी। इस वर्ष आये परिणामों में स्थिति और मजबूत हुई है, इस बार 1000 पुरुषों के मुकाबले में 1020 औरतें हैं।

इन आकंणो से हम क्या निष्कर्श निकाल सकते हैं? मेरे विचार में सौ साल पहले औरतों की संख्या कम होने का कारण था उन्हें खाना अच्छा न मिलना, बच्चे अधिक होना, और प्रसव के समय स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। यह सभी बातें 1970 के सर्वेषण तक अधिक नहीं बदली थीं। 1990 के दशक में भारत में विकास बढ़ा, साथ में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बेहतर हुई लेकिन साथ ही गर्भवति औरतों के लिए अल्ट्रासाँऊड टेस्ट कराने की सुविधाएँ भी तेजी सी बढ़ी जिनसे परिवारों के लिए होने वाले बच्चे का लिंग जानना बहुत आसान हो गया, जिससे बच्चियों की भ्रूण बहुत अधिक संख्या में गिरवाये जाने लगे। इसका असर 2005-06 के सर्वेषण पर पड़ा और बच्चे कम होने, भोजन बेहतर होने व स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर होने के बावजूद औरतों की संख्या कम ही रही।

भारत में बच्चियों का गर्भपात

हालाँकि भारत सरकार ने गर्भवति औरतों में अल्ट्रासाऊँड टेस्ट से लिंग ज्ञात करने की रोकथाम के लिए 1994 से कानून बनाया था, इसे 2005-06 के सर्वेषण के बाद सही तरह से लागू किया गया जब डाक्टरों पर सजा को बढ़ाया गया। लेकिन सामाजिक स्तर पर भारत में बेटियों की स्थिति अधिक नहीं बदली, इस कानून का भी कुछ विषेश असर नहीं पड़ा है।

भारत में बच्ची होने पर गर्भपात कराने की परम्परा अभी महत्वपूर्ण तरीके से नहीं बदली, यह हम एक अन्य आंकणे से समझ सकते हैं - छः वर्ष से छोटे बच्चों में लड़कों और लड़कियों के अनुपात को देखा जाये। 2001 में छः वर्ष से छोटे बच्चों की जनसंख्या में हर 1000 लड़कों के सामने 927 लड़कियाँ थीं। 2005-06 में यह संख्या घट कर 918 हो गयी। 2015-16 में यह संख्या बदली नहीं थी, 919 थी। और, 2019-21 के नये सर्वेषण में भी यह अधिक नहीं बदली, 924 है।

इसका अर्थ है कि औरतों की संख्या में बढ़ोतरी का बदलाव जो 2019-21 के सर्वेषण में दिखता है वह अन्य वजहों से हुआ है जैसे कि उन्हें पोषण बेहतर मिलना, छोटी उम्र में विवाह कम होना, विवाह के बाद बच्चे कम होना और प्रसव के समय बेहतर स्वास्थ्य सेवा मिलना।

ग्रामीण तथा शहरी क्षत्रों में अंतर

राष्ट्रीय स्तर पर और बहुत से प्रदेशों में ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की स्थिति शहरों से बेहतर है। राष्ट्रीय स्तर पर 1998-99 में 1000 पुरुषों के अनुपात में शहरी क्षेत्रों में 928 औरतें थीं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी संख्या 957 थी। बाईस साल बाद, 2019-21 के सर्वेषण में राष्ट्रीय स्तर के आंकणों में दोनों क्षेत्रों में स्थिति सुधरी है, शहरों में उनकी संख्या 985 हो गयी है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में संख्या 1037 हो गयी है।

लेकिन यह बदलाव बड़े शहरों से जुड़े ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं आया। दिल्ली, चंदीगढ़, पुड्डूचेरी जैसे शहरों के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की संख्या शहरों से कम है। यह आंकणे देख कर मुझे लगा कि इन क्षेत्रों में स्थिति को समझने के लिए विषेश शोध किये जाने चाहिये। एक कारण हो सकता है कि यहाँ बच्चियों का गर्भपात अधिक होता हो? शायद उससे भी बड़ा कारण है कि देश के अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी युवक इन गाँवों में सस्ती रहने की जगह पाते हैं जिसकी वजह से यहाँ पुरुषों की संख्या अधिक हो जाती है?

अन्य कुछ बातें भी हैं। जैसे कि सामान्य सोच है कि गाँवों में समाज अधिक पाराम्परिक या रूढ़िवादी होते हैं, वहाँ सामाजिक सोच को बदलने में समय लगता है। वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं को पाना भी कठिन हो सकता है, हालाँकि प्राथमिक सेवा केंद्रों तथा आशा कर्मियों से बहुत जगहों पर स्थिति में बहुत सुधार आया है। लेकिन इन सबको ठीक से समझने के लिए विषेश शोध होने चाहिये।

राज्य स्तर के आंकणे

अंत में राज्य स्तर के आंकणों के बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत है। जैसा कि मैंने ऊपर बताया है, इन आंकणों पर अन्य बहुत सी बातों का असर पड़ता है इसलिए उनके महत्व को ठीक से समझने के लिए सावधानी बरतनी चाहिये।

मेरे विचार में राज्यों की स्थिति को देश के विभिन्न भागों में बाँट कर देखना अधिक आसान है। मैंने राज्यों को चार भागों में बाँटा है - पहले भाग में हैं उत्तरपूर्व को छोड़ कर उत्तरी व मध्य भारत की सभी राज्य; दूसरे भाग में मैंने दक्षिण भारत के राज्यों को रखा है, जिनमें गोवा भी है; तीसरा भाग है उत्तरपूर्व के राज्य जिनमें सिक्किम भी है; और चौथा भाग है केन्द्रीय प्रशासित क्षेत्र जैसे कि अँडमान या चँदी गढ़, इनमें दिल्ली भी है।

उत्तर तथा मध्य भारत के राज्य

2015-16 के आंकणों के अनुसार, उत्तर व मध्य भारत में सात राज्यों में औरतों की संख्या की स्थिति नकरात्मक थी - हरियाणा 876, राजस्थान 887, पँजाब 905, गुजरात 950, महाराष्ट्र 952, एवं जम्मु कश्मीर में 971। उत्तरप्रदेश में स्थिति बाकियों के मुकाबले में कुछ ठीक थी, 995। बाकी के सभी प्रदेशों में (झारखँड, पश्चिम बँगाल, उत्तरखँड, छत्तीसगढ़, ओडीशा, बिहार व हिमाचल प्रदेश) में औरतों की संख्या पुरुष अनुपात में 1000 से अधिक थी, उनमें से सबसे उच्चस्थान पर थे बिहार 1062 तथा हिमाचल प्रदेश 1087।

2019-21 के आंकणें देखें तो कुछ बदलाव दिखते हैं। जम्मू कश्मीर को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में स्थिति में कुछ सुधार आया है, हालाँकि पँजाब व राजस्थान में सुधार की मात्रा थोड़ी सी ही है। इन परिवर्तनों के बाद सबसे अधिक नकारात्मक स्थितियाँ इन राज्यों में हैं - राजस्थान 891, हरियाणा 926, पँजाब 938, जम्मू कश्मीर 948, गुजरात 965, महाराष्ट्र 966, और मध्यप्रदेश 970। बाकी सभी राज्यों में औरतों का अनुपात 1000 से ऊपर है। सबसे बेहतर स्थिति है ओडीशा में 1063 तथा बिहार में 1090। मेरे विचार में जिन राज्यों में स्थिति सकारात्मक दिखती है वहाँ के आंकणों पर अधिक पुरुषों के प्रवासी होने का भी प्रभाव है।

दक्षिण भारत के राज्य

गोवा सहित दक्षिण भारत के राज्यों में 2015-16 में स्थिति केवल कर्णाटक में नकारात्मक थी, 979, बाकी सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक थी।

2019-21 के सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक हो गयी थी।

उत्तरपूर्वी भारत के राज्य

उत्तरपूर्वी भारत के आठ राज्यों में से 2015-16 में 3 राज्यों में स्थिति नकारात्मक थी - सिक्किम 942, अरुणाचल 958 तथा नागालैंड 968। दो राज्यों में स्थिति थोड़ी सी नकारात्मक थी, असम में 993 और त्रिपुरा में 998, जबकि मेघालय, मिजोरम तथा मणीपुर में स्थिति सकारात्मक थी।

इस बार के 2019-21 सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सुधरी है, हालाँकि अभी भी सिक्किम में 990 तथा अरुणाचल में 997 होने से थोड़ी सी नकारात्मक है।

दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भाग

अंत में दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भागों में देखें तो 2015-16 में चार क्षेत्रों में स्थिति गम्भीर थी - दादरा, नगर हवेली, दमन, दीव 813, दिल्ली 854, चंदीगढ़ 934 तथा अँडमान 977। सभी जगहों पर इन क्षेत्रों के ग्रामीण हिस्सों की स्थिति और भी गम्भीर थी, जिसका एक कारण अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी पुरुष हो सकता है।

2019-21 में स्थिति में कुछ सुधार हुआ और कुछ स्थिति और भी नकारात्मक हुई - दादरा, नगर हवेली आदि 827, दिल्ली 913, चंदीगढ़ 917, अँडमान 963, लदाख 971। अँडमान में कितने प्रवासी है, वहाँ क्या कारण हो सकते हैं, उसके आंकणों से मुझे थोड़ी हैरानी हुई।


अंत में

अगर हम पूरे भारत के स्तर पर विभिन्न राज्यों में नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात में आये परिवर्तनों को देखें तो पाते हैं कि बहुत राज्यों में स्थिति सुधरी है, विषेशकर लक्षद्वीप, केरल, कर्णाटक, तमिलनाडू, हरियाणा, सिक्किम, झारखँड, नागालैंड तथा अरुणाचल में। कुछ जगहों पर अनुपात कुछ घटा है जैसे कि हिमाचल प्रदेश, हालाँकि कुछ स्थिति अभी भी सकारात्मक है।

राज्य स्तर के आंकणों में आने वाले बदलावों को ठीक से समझना आसान नहीं है क्योंकि उस पर अन्य कारणों के साथ साथ पुरुषों के काम की खोज में अन्य राज्यों में जाने से भी बहुत असर पड़ता है। इसकी वजह से समृद्ध राज्य जहाँ प्रवासी आते हैं उनकी पुरुष संख्या बढ़ी दिखती है और पिछड़े राज्य, जहाँ से पुरुष प्रवासी बन कर निकलते हैं, उनके आंकड़े सच्चाई से बेहतर दिखते हैं।

राज्यों की स्थिति चाहे जो भी हो, राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जनसंख्या में औरतों के अनुपात में इस तरह से बढ़ौती बहुत सकारात्मक बदलाव है। केवल एक आंकणे पर अधिक बातें कहना सही बात नहीं होगी, उसके लिए हमें स्वास्थ्य से संबंधित अन्य आंकणों को देखना पड़ेगा। लेकिन यह स्थिति भारत को विकास की ओर बढ़ाने में यह सही राह पर होने का आभास देती है।

बुधवार, मई 18, 2022

स्वास्थ्य विषय पर फ़िल्मों का समारोह

विश्व स्वास्थ्य संस्थान (विस्स) यानि वर्ल्ड हैल्थ ओरग्नाईज़ेशन (World Health Organisation - WHO) हर वर्ष स्वास्थ्य सम्बंधी विषयों पर बनी फ़िल्मों का समारोह आयोजित करता है, जिनमें से सर्व श्रेष्ठ फ़िल्मों को मई में वार्षिक विश्व स्वास्थ्य सभा के दौरान पुरस्कृत किया जाता है। विस्स की ओर से जनसामान्य को आमंत्रित किया जाता है कि वह इन फ़िल्मों को देखे और अपनी मनपसंद फ़िल्मों पर अपनी राय अभिव्यक्त करे। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चुनने वाली उनकी जूरी इस जन-वोट को भी ध्यान में रखती है। आजकल इस वर्ष की फ़िल्मों को विस्स की यूट्यूब चैनल पर देखा जा सकता है। कुछ दिन पहले मैंने इस फैस्टिवल में तीन श्रेणियों में सम्मिलित की गयी लघु फ़िल्मों को देखा। वह श्रेणियाँ थीं - स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष (Innovation), पुनर्क्षमताप्राप्ति (Rehabilitation) तथा अतिलघु फ़िल्में। यह आलेख उनमें से मेरी मनपसंद फ़िल्मों के बारे में हैं।


स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष विषय की फ़िल्में

स्वास्थ्य के बारे में सोचें कि उससे जुड़े नये उन्मेष (innovation) या नयी खोजें किस किस तरह की हो सकती हैं तो मेरे विचार में हम उनमें नयी तरह की दवाएँ या नयी चिकित्सा पद्धतियों को ले सकते हैं, नये तकनीकों तथा नये तकनीकी उपकरणों को भी ले सकते हैं, जनता को नये तरीकों से जानकारी दी जाये या किसी विषय के बारे में अनूठे तरीके से चेतना जगायी जाये जैसी बातें भी हो सकती हैं। इस दृष्टि से देखें तो मेरे विचार में इस श्रेणी की सम्मिलित फ़िल्मों में सचमुच का नयापन अधिक नहीं दिखा। इन सभी फ़िल्मों की लम्बाई पाँच से आठ मिनट के लगभग है।

एक फ़िल्म में आस्ट्रेलिया के एक भारतीय मूल के डॉक्टर की कहानी है (Equal Access) जिनका कार दुर्घटना में मेरूदँड (रीड़ की हड्डी) में चोट लगने से शरीर का निचले हिस्से को लकवा मार गया था। वह कुछ वैज्ञानिकों के साथ मिल कर विकलाँगों द्वारा उपयोग होने वाले नये उपकरणों के बारे में होने वाले प्रयोगों के बारे में बताते हैं जैसे कि साइबर जीवसत्य (virtual reality) का प्रयोग। इसमें नयी बात थी कि वैज्ञानिक यह प्रयोग प्रारम्भ से ही विकलाँग व्यक्तियों के साथ मिल कर रहे हैं जिससे वह उनके उपयोग से जुड़ी रुकावटों तथा कठिनाईयों को तुरंत समझ कर उसके उपाय खोज सकते हैं।

एक अन्य फ़िल्म (Malakit) में दक्षिण अमरीकी देश फ्राँसिसी ग्याना में सोने की खानों में काम करने वाले ब्राज़ीली मजदूरों में मलेरिया रोग की समस्या है। जँगल में जहाँ वह लोग सोना खोजते हैं, वहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं हैं। वह मजदूर जब भी उन्हें बुखार हो, अपने आप ही बिना कुछ जाँच किये मलेरिया की दवा ले कर खा लेते हैं जिससे खतरा है कि मलेरिया की दवाएँ काम करना बन्द कर देंगी। इसलिए सरकार ने किट बनाये हैं जिससे लोग अपने आप यह टेस्ट करके देख सकते हैं कि उन्हें मलेरिया है या नहीं, और अगर टेस्ट पोसिटिव निकले तो उसमें मलेरिया का पूरा इलाज करने की दवा भी है। मजदूरों को यह किट मुफ्त बाँटे जाते हैं और मलेरिया का टेस्ट कैसे करें, तथा दवा कैसे लें, इसकी जानकारी भी उन्हें दी जाती है।

पश्चिमी अफ्रीकी देश आईवरी कोस्ट की एक फ़िल्म (A simple test for Cervical cancer) में वहाँ की डॉक्टर मेलानी का काम दिखाया गया है जिसमें वह एक आसान टेस्ट से औरतों में उनके गर्भाश्य के प्रारम्भिक भाग में होने वाले सर्वाईक्ल कैंसर (Cervical cancer) की जाँच करती हैं, और अगर यह टेस्ट पोसिटिव निकले तो उस स्त्री की और जाँच की जा सकती है।

मिस्र यानि इजिप्ट की एक फ़िल्म में विकलाँग बच्चों को कला के माध्यम से उनके विकास को प्रोत्साहन देने की बात है, तो फ्राँस की एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों को पहाड़ पर चढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। नेपाल में एक सामुदायिक कार्यक्रम स्कूल जाने वाले किशोरों को मासिक माहवारी की जानकारी देता है, जबकि पश्चिमी अफ्रीकी देश सिएरा लिओने में पैर कटे हुए विकलाँग लोगों के लिए त्रिभुज छपाई (3D printing) से कृत्रिम पैर बनाने की बात है, जबकि तन्ज़ानिया में बच्चियों तथा लड़कियों को यौन अंगों की कटाई की प्रथा से बचाने की बात है।


मुझे लगा कि इन फ़िल्मों में सचमुच का नवोन्मेष थोड़ा सीमित था या पुरानी बातें ही थीं। नेपाल में मासिक माहवारी की जानकारी देना या तन्ज़ानियाँ में यौन कटाई की समस्या पर काम करना महत्वपूर्ण अवश्य हैं लेकिन यह कितने नये हैं इसमें मुझे संदेह है। सिएरा लिओने का कृत्रिम पैर नयी तकनीकी की बात है लेकिन उसमें भी उपकरण के एक हिस्से को बनाने की बात है, उसका बाकी का हिस्सा पुरानी तकनीकी से बनाया जा रहा है।

पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा

पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा(rehabilitation) के लिए अधिकतर लोग पुनर्निवासन शब्द का प्रयोग करते हैं जोकि मुझे गलत लगता है। पुनर्निवासन की बात उस समय से आती है जब विकलाँग व्यक्ति को रहने की जगह नहीं मिलती थी और उनके रहने के लिए विषेश संस्थान बनाये जाते थे। आजकल जब हम रिहेबिलिटेशन की बात करते हैं तो हम उन चिकित्सा, व्यायाम तथा उपकरणों की बात करते हैं जिनसे व्यक्ति अपने शरीर के कमजोर या भग्न कार्यक्षमता को दोबारा पाते हैं। इस चिकित्सा में फिजीयोथैरेपी (physiotherapy) यानि शारीरिक अंगों की चिकित्सा, आकूपेशनल थैरेपी (occupational therapy) यानि कार्यशक्ति को पाने की चिकित्सा जैसी बातें भी आती हैं। इसलिए मैं यहाँ पर पुनर्निवासन की जगह पर पूर्वक्षमताप्राप्ति शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। अगर किसी पाठक को इससे बेहतर कोई शब्द मालूम हो तो मुझे अवश्य बतायें।

पुनर्क्षमताप्राप्ति विषय की कुछ फ़िल्में मुझे अधिक अच्छी लगीं। यह फ़िल्में भी अधिकतर पाँच से आठ मिनट लम्बी थीं।

जैसे कि एक फ़िल्म (Pacing the Pool) में आस्ट्रेलिया के एक ६४ वर्षीय पुरुष बताते हैं कि बचपन से विकलाँगता से जूझने के बाद कैसे नियमित तैरने से वह अपनी विकलाँगता की कुछ चुनौतियों का सामना कर सके। दुनिया में वृद्ध लोगों की जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और मुझे उस सबके लिए तैरना या चलना या अन्य तरह के व्यायाम नियमित रूप से करना बहुत महत्वपूर्ण लगता है।

इसके अतिरिक्त दो फ़िल्में कोविड से प्रभावित लोगों की बीमारी से ठीक होने के बाद लम्बे समय तक अन्य शारीरिक कठिनाईयों का समाना करने की बात है। नेपाल की एक फिल्म में (A Model One Stop) उन कठिनाईयों का अस्पताल में विभिन्न स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सहायता से चिकित्सा करना दिखाया गया जबकि एक अमरीकी फ़िल्म (Long Haul) में पीड़ित व्यक्तियों का कमप्यूटर या मोबाइल फोन के माध्यम से नियमित मिलना, आपस में आपबीती सुनाना, एक दूसरे को सहारा देना जैसी बातें हैं। यह अमरीकी फ़िल्म मुझे बहुत अच्छी लगी और कोविड के शरीर पर किस तरह से लम्बे समय के लिए असर रह सकते हें इसकी कुछ नयी समझ भी मिली।

इंग्लैंड की एक फ़िल्म (Move Dance Feel) में कैसर से पीड़ित महिलाओं का हर सप्ताह दो घँटे के लिए मिलना और साथ में स्वतंत्र नृत्य करने का अनुभव है। ऐसा ही एक कार्यक्रम उत्तरी इटली में हमारे शहर में भी होता है, जिसमें महिला और पुरुष दोनों भाग लेते हैं। यह बूढ़े लोग, बीमार लोग, मानसिक रोग से पीड़ित लोग, आदि सबके लिए होता है, और सब लोग सप्ताह में एक बार मिल कर साथ में नृत्य का अभ्यास करते हैं।


इनके साथ कुछ अन्य फ़िल्में थीं जिनमें मुझे कुछ नया नहीं दिखा जैसे कि बँगलादेश की एक फ़िल्म में एक नवयुवती की कृत्रिम टाँग पाने से उसके जीवन में आये सुधार की कहानी है। ब्राजील की एक फिल्म में टेढ़े पाँव के साथ पैदा हुए एक बच्चे के इलाज की बात है। मिस्र से विकलाँग बच्चों का कला, संगीत आदि से उनके विकास को सशक्त करने की बात है।

अतिलघु फ़िल्में

यह फ़िल्में दो मिनट से छोटी हैं, इसलिए इनके विषय समझने में सरल हैं। एक फिल्म से कोविड से बचने के लिए मास्क तथा वेक्सीन का मह्तव दिखाया गया है तो कामेरून की एक फ़िल्म में एक स्थानीय अंतरलैंगिक संस्था की कोविड की वजह से एडस कार्यक्रम में होने वाली कठिनाईयों की बात है। दो फ़िल्मों में, एक मिस्र से और दूसरी किसी अफ्रीकी देश से, घरेलू पुरुष हिँसा के बारे में हैं। एक फ़िल्म में स्वस्थ्य रहने के लिए सही भोजन करने के बारे में बताया गया है, तो एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से उबरने में व्यायाम के महत्व को दिखाया गया है।

मुझे इन सबमें से एक इजराईली फ़िल्म (Creating Connections) सबसे अच्छी लगी जिसमें मानसिक रोगियों को विवाह करने वाले मँगेतरों के लिए हस्तकला से अँगूठी बनाना सिखाते हैं जिससे रोगियों को प्रेमी युगलों से बातचीत करने का मौका मिलता है।


अंत में

अगर आप को लघु फिल्में देखना अच्छा लगता है और स्वास्थ्य विषय में दिलचस्पी है, तो मेरी सलाह है कि आप विस्स के फैस्टिवल में सम्मिलित फ़िल्मों को अवश्य देखें। सभी फ़िल्मों में अंग्रेजी के सबटाईटल हैं और फ़िल्म देखना निशुल्क हैं। सबटाइटल में फ़िल्म में लोग जो भी बोल रहे हों वह लिखा दिखता है, इसलिए शायद उन्हें हम हिंदी में "बोलीलिपि" कह सकते हैं। इसके बारे में अगर आप को इससे बेहतर शब्द मालूम हो मुझे बताइये।

अभी तक ऐसे सोफ्तवेयर जिनसे अंग्रेजी के सबटाईटल अपने आप हिंदी में अनुवाद हो कर दिखायी दें, यह सुविधा नहीं हुई है, जब वह हो जायेगी तो हम लोग किसी भी भाषा की फ़िल्म को देख कर अधिक आसानी से समझ सकेंगे। शायद कोई भारतीय नवयुवक या नवयुवती ही ऐसा कुछ आविष्कार करेगें जिससे अंग्रेजी न जानने वाले भी इन फ़िल्मों को ठीक से देख सकेंगे।

बुधवार, सितंबर 14, 2016

डागधर बाबू कहाँ तक पढ़े हैं?

कुछ दिन पहले विश्व स्वास्थ्य संस्थान की भारत में स्वास्थ्य कर्मियों की स्थिति के बारे में एक दिलचस्प रिपोर्ट को पढ़ा. अक्सर इस तरह की रिपोर्टों में समाचार पत्रों या पत्रिकाओं को दिलचस्पी नहीं होती. इनके बारे में अंग्रेज़ी प्रेस में शायद कुछ मिल भी जाये, हिन्दी के समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में इसकी चर्चा कम ही होती है. इसलिए सोचा कि इसकी बात ब्लाग के माध्यम से करनी चाहिये.



भारत में स्वास्थ्य सेवा कर्मी

हर वर्ष, संयुक्त राष्ट्र की विश्व स्वास्थ्य संस्था दुनिया के विभिन्न देशों के बारे में स्वास्थ्य-कर्मी सँबधी आँकणे प्रकाशित करती है, जो उन्हें देश की सरकारें देती हैं. पर इसमें भारतीय आँकणे अक्सर अधूरे रहते हैं. आँकणे हों भी तो राष्ट्रीय स्तर के औसत आँकणे होते हैं जिनमें विभिन्न राज्यों की स्थिति को समझना आसान नहीं. इन आँकणों की विश्वासनीयता भी संदिग्ध होती है.

उदाहरण के लिए अगर हम विश्व स्वास्थ्य सँस्था द्वारा प्रकाशित सन् 2011 के आँकणे देखें तो उनके अनुसार सन 2000 से 2010 के अंतराल के समय में भारत में हर 10,000 जनसंख्या के लिए 6 डाक्टर, 13 नर्से व दाईयाँ तथा 0.7 दाँतों के डाक्टर थे.

इन आँकणों को विश्वासनीय माना जाये तो हम कह सकते हैं कि विकसित देशों के मुकाबले में भारत बहुत पीछे था. जैसे कि 2011 की रिपोर्ट के अनुसार फ्राँस में हर 10,000 जनसंख्या में 35 डाक्टर, 90 नर्सें व दाईयाँ तथा 7 दाँतों के डाक्टर थे. लेकिन अपने आसपास के देशों के मुकाबले हमारी स्थिति उतनी बुरी नहीं है. जैसे कि बँगलादेश में हर 10,000 जनसंख्या में 3 डाक्टर, 2.7 नर्सें व दाईयाँ तथा 0.2 दाँतों के डाक्टर थे. हाँ इस रिपोर्ट में पड़ोसी देशों में चीन के मुकाबले में हम थोड़ा पीछे थे, जहाँ हर 10,000 जनसंख्या में 14 डाक्टर, 14 नर्सें व दाईयाँ तथा 0.4 दाँतों के डाक्टर थे.

विश्व स्वास्थ्य संस्था की वार्षिक रिपोर्ट में सरकारें अपने नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कितना खर्चा करती हैं, इसकी जानकारी भी होती है. 2011 की इस रिपोर्ट के अनुसार सन 2008 में देशों के द्वारा कुल राष्ट्रीय आय का कितना हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं में गया उसकी स्थिति ऐसी थी - फ्राँस ने 11.2 प्रतिशत, बँगलादेश ने 3.3 प्रतिशत, चीन ने 4.4 प्रतिशत और भारत ने 4.2 प्रतिशत. यानि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर किये जाने वाले खर्च की स्थिति बुरी नहीं थी.

लेकिन अगर यह देखें कि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे में कितना प्रतिशत सरकार ने किया और कितना प्रतिशत लोगों नें अपनी जेब से उस खर्चे को उठाया तो स्थिति कुछ बदल जाती है. सन 2008 में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में सरकारी खर्च के हिस्से की स्थिति कुछ इस तरह की थी - फ्राँस में 76 प्रतिशत, चीन में 47 प्रतिशत और भारत में 32 प्रतिशत. यानि भारत में बीमारी का इलाज कराने के लिए दो तिहायी से अधिक खर्चा लोग स्वयं उठाते हैं.

भारत में हुए एक अन्य शोध ने दिखाया था कि गरीब लोगों में कर्ज़ा लेने के सबसे पहला कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चा है. स्वास्थ्य तथा शिक्षा दोनो ही क्षेत्रों में सरकारी सेवाओं पर लोगों का भरोसा कम है. दूसरी ओर, भारत में प्राईवेट स्कूल तथा अस्पताल, दोनों ही बड़े बिज़नेस हैं.

भारत में स्वास्थ्यकर्मियों पर विश्व स्वास्थ्य संस्था की 2016 की नयी रिपोर्ट

यह रिपोर्ट कहने के लिए नयी है और भारत में इस तरह की जानकारी पहली बार उपलब्ध हुई है, इसलिए महत्वपूर्ण है. पर यह कहना आवश्यक है कि यह शोध सन 2001 में की गयी राष्ट्रीय जनगणना की जानकारी पर आधारित है. यानि इसकी जानकारी आज की स्थिति की जानकारी नहीं देती, बल्कि 16 वर्ष पहले की स्थिति की जानकारी देती है. इस रिपोर्ट को प्रो. सुधीर आनन्द तथा डा. विक्टोरिया फान ने एक शौध पर तैयार किया है.

जनगणना में "आप क्या काम करते हैं?" का प्रश्न होता है. प्रो. आनन्द तथा डा. फान ने इस प्रश्न के उत्तर देने वालों में कितने स्वास्थ्य कर्मी थे, उन उत्तरों को निकाल कर उसका विशलेषण किया है. चूँकि यह जानकारी हर जनगणना में एकत्रित की जाती है, मेरी आशा है कि भारतीय जनगणना संस्थान तथा स्टेसस्टिक विभाग 2011 की जनगणना की जानकारी पर भी इस तरह का विशलेषण करेगा और उसके लिए हमें सोलह साल की प्रतीक्षा नहीं करायेगा.

2001 की जनगणना पर किये शोध में एलोपेथिक, होम्योपेथिक, आयुर्वेदिक तथा युनानी सभी स्वास्थ्य प्रणालियों में काम करने वाले कर्मियों के बारे में जानकारी मिलती है. इनमें से कुछ प्रमुख जानकारियाँ हैं:

- हर 10,000 जनसंख्या में 8 डाक्टर थे, जिनमें से 77 प्रतिशत एलोपेथिक थे.

- 80 प्रतिशत डाक्टर शहरों में थे, 20 प्रतिशत डाक्टर ग्रामीण शेत्रों में.

- अपने आप को एलोपेथिक डाक्टर कहने वालों में से 57 प्रतिशत के पास कोई मेडिकल डिग्री नहीं थी, उनमें से 31 प्रतिशत ने केवल हाई स्कूल तक पढ़ायी की थी. इनमें से अधिकतर तथाकथित डाक्टर गाँवों में काम कर रहे थे. गाँवों में काम करने वाले एलोपेथिक डाक्टरों में से केवल 19 प्रतिशत के पास मेडिकल डिग्री थी. गाँवों में मेडिकल कॉलेज में शिक्षित डाक्टरों में महिलाएँ अधिक थीं.

- हर 10,000 जनसंख्या में 6 नर्सें या मिडवाइफ थीं, जिनमें से केवल 12 प्रतिशत महिलाओं तथा 3 प्रतिशत पुरुषों के पास नर्सिंग की डिग्री थी.

- ऊपर के सभी आँकणे राष्ट्रीय स्तर की औसत स्थिति को बताते हैं. राज्य स्तर पर जानकारी इस औसत स्थिति से बहुत भिन्न हो सकती है.

  • जैसे कि, पश्चिम बँगाल में देश की 8 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के कुल 31 प्रतिशत होम्योंपेथी के डाक्टर वहाँ काम करते थे. उत्तर प्रदेश में देश की 16 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के 37 प्रतिशत युनानी डाक्टर. महाराष्ट्र में देश की 9 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के 23 प्रतिशत आयुर्वेदिक डाक्टर.
  • केरल में देश की 3 प्रतिशत जनसंख्या थी और वहाँ की 38 प्रतिशत नर्सों के पास नर्सिंग डिग्री थी.
  • त्रिपुरा, ओडिशा तथा केरल में एलोपेथिक डाक्टर राष्ट्रीय औसत से कम थे, वह करीब 60 प्रतिशत थे और अन्य चिकित्सा पद्धितियों के डाक्टर करीब 40 प्रतिशत.
  • केरल तथा मेघालय में महिला स्वास्थ्य कर्मचारी करीब 64 प्रतिशत थीं, जबकि उत्तरप्रदेश तथा बिहार में 20 प्रतिशत से भी कम.
इस रिपोर्ट में अन्य भी दिलचस्प जानकारियाँ हैं. अगर आप चाहें तो अंग्रेज़ी में पूरी रिपोर्ट को निशुल्क डाउनलोड कर सकते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संस्थान की रिपोर्ट का महत्व

भारत में कितने स्वास्थ्य कर्मी हैं, उनमें कितनी महिलाएँ कितने पुरुष हैं, उनमें कितनो के पास मेडिकल प्रशिक्षण की डिग्री है, किस राज्य में क्या स्थिति है, शहरों तथा गाँवों में क्या अंतर है, आदि प्रश्नों के भारत सरकार से इस से पहले कुछ उत्तर नहीं मिलते थे. इस रिपोर्ट में इन प्रश्नों के पहली बार कुछ उत्तर मिले हैं, इस दृष्टि से यह रिपोर्ट बहुत महत्वपूर्ण है.

इस रिपोर्ट का दूसरा महत्व है यह जानना कि यह जानकारी हमारे जनगणना कार्यक्रम से मिल सकती है, इसके लिए कोई विषेश शौध नहीं किया गया, बल्कि केवल 2001 की जनगणना के आँकणों को नयी दृष्टि से देखा व समझा गया. यानि अगर भारत सरकार चाहे तो इसी तरीके से यह जानकारी 2011 की जनगणना के आँकणों से भी मिल सकती है.

जनगणना से मिलने वाली जानकारी इस शौध की दृष्टि से कितनी विश्वासनीय है, यह सोचना भी आवश्यक है. कोई आप से पूछे कि आप कहाँ तक पढ़े हैं, फ़िर पूछे की क्या काम करते हैं, तो क्या आप सच बोलेंगे कि आपकी पढ़ायी हाई स्कूल की है और काम डाक्टर का करते हैं? यह हो सकता है कि कुछ लोग इन प्रश्नों के उत्तर ठीक से न दें. यानि रिपोर्ट की जानकारी की शत प्रतिशत विश्वस्नीय नहीं कहा जा सकता.

यह जानकारी कुछ अधूरी भी है. जैसे कि यह नहीं बताती कि जो लोग गाँवों में बिना डिग्री के "डाक्टर" का काम करते हैं उनमें से कितने लोगों ने इससे पहले कितने सालों तक किसी अस्पताल या डाक्टर के साथ काम किया था?

स्वास्थ्य सेवा कर्मियों से जुड़े कुछ अन्य प्रश्न

एक ओर से आप इस रिपोर्ट से मिलने वाली जानकारी के बारे में सोचिये और दूसरी ओर से सोचिये कि राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर की भारतीय मेडिकल एसोशियनें, कोशिश करती रहती हैं कि बिना डिग्री वाले डाक्टरों पर पुलिस कार्यवाही करे और उनके क्लिनिक बन्द किये जायें. इन्होंने इस तरह के कानून बनायें हैं कि विदेश से पढ़े डाक्टरों की मेडिकल डिग्रियाँ भारत में न मानी जायें औेर उन्हें भारतीय मेडिकल रजिस्ट्रेशन न मिले, उन्हें कठिन इम्तहान पास करने के लिए कहा जाये.

भारतीय सरकारी अस्पतालों में काम करने होम्योपेथी, युनानी तथा आयुर्वेदिक चिकित्सकों को तन्खवाह तथा सुविधाएँ कम मिलती हैं, और सामाजिक स्तर पर उनको एलोपेथिक डाक्टरों से नीचा माना जाता है. ऐसे भी कानून हैं कि बिना डाक्टर के नर्स क्लिनिक नहीं चला सकतीं न ही इलाज कर सकती हैं.

यानि कानून क्या कहता है और देश की सच्चाई क्या है, कथनी व करनी में बहुत बड़ा अंतर है. दिल्ली, मुम्बई में कानून लागू किये जा सकते हैं, गाँवों में उन्हें कौन लागू करेगा?

यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि अगर स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने के लिए मेडिकल कॉलेज या नर्सिन्ग की डिग्री आवश्यक है तो वह ग्रामीण क्षेत्रों वाले क्या करें जहाँ देश के केवल 20 प्रतिशत डाक्टर हैं और उनमें से अधिकाँश के पास ऐसी कोई डिग्री नहीं है? कुछ माह पहले मुझे महाराष्ट्र में कुछ गाँवों में घूमने का मौका मिला. वहाँ मैंने देखा कि कई बार प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (प्रा.स्वा.के.) तथा गाँवों के बीच तीस पैंतीस किलोमीटर की दूरी होती है, और प्रा.स्वा.के. पहुँचने के लिए यातायात मिलना कठिन होता है. लोग दो तीन घँटे की यात्रा के बाद प्रा.स्वा.के. पहुँचते हैं तो डाक्टर मिलेगा या नहीं, यह कहना आसान नहीं. डाक्टर हो भी तो दवा होंगी, यह कठिन है. कभी उन्हें कहा जाता है कि उन्हें जिला अस्पताल जाना पड़ेगा, जिसके लिए और दो चार घँटे की यात्रा करनी पड़े. इस स्थिति में लोग किससे इलाज करायें?

यह स्थिति केवल महाराष्ट्र में है, ऐसी बात नहीं, बल्कि शायद महाराष्ट्र में स्थिति बाकी देश से कुछ बेहतर है. छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले में गणियारी में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था "जन स्वास्थ्य सहयोग" ने अपनी नयी पुस्तिका "ग्रामीण स्वास्थ्य एटलस" (An Atlas of Rural Health) में मलेरिया से मरने वालों की स्थिति का जो विवरण दिया है, उससे प्रा.स्वा.के. में इलाज करवाने की कठिनाईयों के साथ साथ राज्य स्तर पर आँकणों की विश्वस्नीयता के बारे में जानकारी मिलती है:

रिगबार गाँव के छः वर्षीय श्यामलाल यादव को तीन दिन से बुखार व सिरदर्द था. जब उसका शरीर पीला पढ़ने लगा तो उसके परिवार ने झाड़ फ़ूँक करने वाले ओझा को बुलाया, फ़िर वहाँ के स्थानीय बिना डिग्री वाले डाक्टर के पास ले गये जिसने एक इन्जेक्शन लगाया, जिससे बच्चे का बुखार एक दिन के लिए उतरा.
अगले दिन जब बच्चे के पिता आनन्द राम ने देखा कि बच्चे को तेज़ बुखार था और साँस लेने में कठिनाई हो रही थी तो उसे रतनपुर में 25 कि.मी. दूर प्रा.स्वा.के. में ले जाने की सोची, पर समस्या थी कि कैसे ले कर जाये. सरपंच साहब ने मोटरसाईकल का इन्तज़ाम किया. प्रा.स्वा.के. ने जाँच करके बताया कि मलेरिया है और इलाज के लिए 30 कि.मी. दूर बिलासपुर ले जाने के लिए कहा. उस दिन अंतिम बस पकड़ कर आनन्द राम रात को 8 बजे गाँव वापस पहुँचा. अपनी एक एकड़ ज़मीन को फसल के साथ गिरवी रख कर 8000 रुपये लिए और सुबह की इन्तज़ार की. सुबह चार बजे, बच्चे ने अंतिम साँस ली...
सरकारी आँकणों के अनुसार, भारत में वर्ष में 20 लाख लोगों को मलेरिया होता है और उससे 700 व्यक्तियों की मृत्यू होती है. विश्व स्वास्थ्य संघ ने अनुमान लगाया है कि भारत में वर्ष में असल में करीब एक करोड़ पचास लाख लोगों को मलेरिया होता है और करीब 20 हज़ार व्यक्ति मरते हैं. एक अन्य शौध ने अनुमान लगाया है मलेरिया से हर वर्ष कम से कम डेड़ से सवा दो लाख लोगों की मृत्यू होती हैं...
सरकारी आँकणों के हिसाब से 2010 में पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में मलेरिया से केवल 42 व्यक्ति मरे, जबकि उसी वर्ष "जन स्वास्थ्य सहयोग" के एक शौध के अनुसार राज्य के बिलासपुर जिले के एक ब्लॉक में कम से कम 200 व्यक्ति मलेरिया से मरे ...

सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में काम करने वालों पर बहुत दबाव होता है कि स्वास्थ्य समस्याओं की स्थिति बुरी न दिखायी जाये ताकि राज्य की छवि को नुकसान न हो. भारत में कुष्ठ रोग से सम्बन्धित मेरे एक शौध में स्वास्थ्य कर्मियों ने माना कि अगर उनके इलाके में अधिक कुष्ठ रोगी पाये जायेंगे तो अफसर कहेंगे कि वहाँ स्थिति खराब है और काम ठीक से नहीं हो रहा. यानि अगर आप अच्छा काम करेंगे तो आप के काम को बुरा माना जायेगा. इसलिए वह रोगियों को कम करके दिखाते हैं, ताकि अफसर कहें कि वहाँ काम अच्छा हो रहा है.

अंत में

स्वास्थ्य कर्मियों की कमी के साथ साथ, सरकारी स्वास्थ्य सेवा की कमियाँ और हर ओर बढ़ते निजिकरण की कठिनाईयों जैसे विषय भी जुड़े हैं. जब स्वास्थ्य सेवा के साथ पैसा कमाने की बात जुड़ी हो तो कितने डाक्टर इलाज की निर्पेक्ष सलाह दे पाते हैं? एक ओर छोटे शहरों तथा गाँवों में डाक्टर, नर्स, फिसियोथेरापिस्ट, साइकोलोजिस्ट जैसे सेवाकर्मी नहीं मिलते, दूसरी ओर बड़े शहरों में प्राईवेट अस्पतालों में स्पेशलिस्टों की भरमार तथा अधिक से अधिक पैसा कैसे बनाया जाये के चक्कर हैं.

भारत के फ़र्ज़ी बिना डिग्री के डाक्टरों की बात तो बहुत लोग करते हैं लेकिन इस बारे में कोई शौध नहीं हुआ कि उनका लोगों तक स्वास्थ्य सेवा पहूँचाने में क्या सहयोग है? कई बार देखा कि गाँवों में डिग्री वाले और बिना डिग्री वाले कम्पाउँडर-डाक्टर दोनो हैं, और गाँव में सबको मालूम था कि उस "डाक्टर" के पास डिग्री नहीं थी, तो मेरा प्रश्न था कि सब कुछ जान कर भी और प्रशिक्षत डाक्टर का विकल्प होने के बावज़ूद लोग ऐसे फ़र्ज़ी डाक्टर पर क्यों जाते थे? क्या मिलता था उन्हें इन डाक्टरों से जिसकी वजह से उनके क्लिनिक में इतनी भीड़ होती थी?

पर मेरा अनुभव है कि मेडिकल एसोशियेशनों में लोग सख्त कानून बनवाने की बातें करते हैं, उन्हें यह जानने में दिलचस्पी नहीं कि बने कानून क्यों काम नहीं कर रहे और लोग सब कुछ जान समझ कर भी, ऐसी जगहों पर इलाज कराने क्यों जाते हैं.

भारत सरकार ने ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन तथा आशा (ऍक्रेडिटिट सोशल हेल्थ एक्टीविस्ट - ASHA) कार्यक्रमों के माध्यम से गाँवों तथा जिला स्तरों के छोटे शहरों में स्वास्थ्य आवश्यकताओं का उत्तर देने की कोशिश की है. मेरे विचार में जहाँ इस व्यवस्था ने काम किया है, उसका अच्छा प्रभाव पड़ा है. इसके बारे में पिछले एक दो वर्षों में मुझे उत्तरप्रदेश, असम तथा महाराष्ट्र में स्थिति समझने का कुछ मौका मिला है, पर उनके बारे में बात फ़िर कभी होगी.

तकनीकी विकास के साथ आज दुनिया तेज़ी से बदल रही है. मोबाइल फ़ोन और कम्प्यूटरों के माध्यम से चिकित्सा क्षेत्र में बहुत से बदलाव हो रहे हैं. गाँवों में काम करने वाले स्वास्थ्य सेवा कर्मियों के काम में इन तकनीकी विकासों से नये बदलाव आयेंगे. पश्चिमी देशों में कोई भी तकनीकी विकास हो, भारत में उसके सस्ते और सुलभ तरीके खोज लिये जाते हैं. इसलिए मेरे विचार में अगले दशक में भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में भी तकनीकी विकास आयेंगे, पर इसकी बात भी फ़िर कभी होगी.

अंत में आप से कुछ पूछना चाहूँगा - आप बिना डिग्री के डाक्टर नर्सों के बारे में क्या सोचते हैं? क्या आप कभी ऐसे लोगों के पास इलाज कराने गये? आप के अपने क्या अनुभव हैं? आप के विचार में लोग ऐसे स्वास्थ्य कर्मियों के पास क्यों जाते हैं?

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शुक्रवार, अप्रैल 17, 2015

एक चायवाले का विद्रोह

आजकल मोदी जी ने चायवालों को प्रसिद्ध कर दिया है, लेकिन यह आलेख उनके बारे में नहीं है. वैसे चाय की बातें मोदी जी के पहले भी महत्वपूर्ण होती थीं जैसा कि अमरीकी इतिहास बताता है, जहाँ अमरीका की ब्रिटेन से स्वतंत्रता की लड़ाई भी सन् 1733 के चाय लाने वाले पानी के जहाज़ से जुड़ी थी जिसे बोस्टन की "चाय पार्टी के विद्रोह" के नाम से जानते हैं. पर आज की मेरी बात भारत में सन् 1857 के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध विद्रोह से जुड़े असम के एक चाय बागान वाले व्यक्ति के बारे में है जिनका नाम था मणिराम दत्ता बरुआ जिन्हें लोग मणिराम दीवान के नाम से भी जानते हैं. उन्हें उत्तर पूर्व के भारत के स्तंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद सैनानी के नाम से जाना जाता है.

क्या आप ने पहले कभी उनका नाम सुना है? असम से बाहर रहने वाले लोग अक्सर उनके नाम से अपरिचित होते हैं. मैं भी उन्हें नहीं जानता था. उनसे "पहली मुलाकात" गुवाहाटी में नदी किनारे हुई थी. 

उत्तर पूर्व के स्वंत्रता सैनानी

असम की राजधानी गुवाहाटी में आये कुछ दिन ही हुए थे जब मछखोवा में ब्रह्मपु्त्र नदी के किनारे एक बाग में एक स्मारक देखा जिसमें आठ लोगों की मूर्तियाँ बनी हैं. स्मारक के नीचे लिखा था कि देश की स्वाधीनता के लिए इन वीर व वीरांगनाओं ने त्याग व बलिदान दिया. मुझे वह स्मारक देख कर कुछ आश्चर्य हुआ क्यों कि उन आठों में से एक का भी नाम मैंने पहले नहीं सुना था. वह आठ व्यक्ति थे कनकलता बरुआ, कुशल कोंवर, मणिराम दीवान, पियाली बरुआ, कमला मीरी, भोगेश्वरी फूकननी, पियाली फूकन तथा गँधर कोंवर.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

कुछ दिन बाद नेहरु पार्क में घूम रहा था तो वहाँ फ़िर से शहीद कुशल कोंवर की मूर्ति दिखी, तो मछखोवा के स्मारक की बात याद आ गयी. 

सोचा कि भारत में रहने वालों में अपने उत्तर पूर्वी भाग के इतिहास के बारे में तथा यहाँ रहने वाले लोगों के बारे में कितनी काम जानकारी है. जिन लोगों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए जान दी, उनके नाम भी बाकी भारत में अनजाने हैं. तो सोचा कि इसके बारे में अधिक जानने की कोशिश करूँगा और इसके बारे में लिखूँगा. पर सोचने तथा करने में कुछ अंतर होता है. बात सोची थी, वहीं रह गयी, और मैं इसके बारे में भूल गया.

Kushal Konwar, Guwahati, Assam, India - Images by Sunil Deepak

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फ़िर पिछले माह काम के सिलसिले में उत्तरी असम में जोरहाट गया तो उनमें से एक स्वतंत्रता सैनानी के जीवन से अचानक परिचय हुआ.

मैं जोरहाट शहर से थोड़ा बाहर, मरियानी रेल्वे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क पर सिन्नामारा में विकलाँगों के लिए काम करने वाली एक संस्था "प्रेरणा" की अध्यक्ष सुश्री सायरा रहमान से मिलने गया था. उनकी संस्था गाँव में रहने वाले विकलाँग लोगों के साथ कैसे काम करती है, यह देखने के लिए सायरा जी ने अपने एक कार्यकर्ता मोनोजित के साथ, मुझे वहीं करीब ही एक चाय बागान से जुड़े गाँव में भेजा.

वहीं बातों बातों में मालूम चला कि यह सिन्नामारा के चाय बागान, स्वतंत्रता सैनानी मणिराम दीवान ने प्रारम्भ किये थे. इस बार संयोग से उनकी कर्मभूमि से परिचय हुआ था तो मुझे लगा कि उनके बारे में अवश्य अधिक जानना चाहिये.

उस दिन शाम को वापस जोरहाट में अपने होटल में पँहुचा तो मालूम चला कि वह चौराहा जिसके करीब मैं ठहरा था, उसे मणिराम दत्ता बरुआ चौक  (बरुआ चारिआली) ही कहते हैं. वहाँ सन् 2000 में असम सरकार की ओर से "मिल्लेनियम स्मारक" बनाया गया है जिसमें उनकी कहानी भी चित्रित है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

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तो कौन थे मणिराम दीवान और क्या किया था उन्होंने, जिसके लिए अंग्रेज़ी सरकार ने उन्हें विद्रोही मान लिया था?

मणिराम दत्ता बरुआ या मणिराम दीवान

मणिराम का जन्म 17 अप्रेल 1806 को चारिन्ग में हुआ जब उनके पिता श्री राम दत्ता को, उस समय के असम के अहोम राजा कमलेश्वर सिंह से, "डोलाकशारिया बरुआ" का खिताब मिला था. मणिराम को पढ़ाई के लिए बँगाल में नबद्वीप भेजा गया जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी तथा फारसी भाषाएँ भी पढ़ी. 1817 से 1823 के बीच अँग्रेज़ों ने असम पर काबू करने की कोशिश शुरु की, उसी के संदर्भ में मणिराम ने अंग्रेज़ी अफसर डेविड स्कोट तथा उनकी फौज को उत्तरी असम जाने में मार्गदर्शन दिया. वफ़ादार काम करने पर, बीस वर्ष की आयू में मणिराम को डेविड स्काट ने अंग्रेज़ी शासन की ओर से तहसीलदार व शेरिस्तदार का पद दिया.

1833 से 1838 तक, मणिराम अंग्रज़ो द्वारा स्वीकृत असम राजा पुरेन्द्र सिह के "बोरबन्दर बरुआ" यानि प्रधान मंत्री नियुक्त हुए. 1839 में असम में चाय उत्पादन के लिए लँदन में असम कम्पनी बनायी गयी. तभी असम की अंग्रेज़ी सरकार में डेविड स्काट की जगह कर्नल जेनकिन्स ने ली, जिन्होंने मणिराम को दीवान का खिताब दिया तथा वह असम कम्पनी के अफसर बन गये.

1843 में मणिराम ने असम कम्पनी की नौकरी छोड़ दी क्योंकि वह अपना चायबागान लगाना चाहते थे. असम कम्पनी के अंग्रेज़ इस बात से खुश नहीं थे.

1845 में मणिराम ने जोरहाट के पास अपना पहला चायबागान लगाया जहां कलकत्ता में रहने वाले चीनी चाय विषेशज्ञ लाये गये, जोकि उनके सलाहकार बने. उनकी वजह से उस चायबागान को लोग चिन्नामारा (चीनी बाग) कहने लगे. इस जगह को अब सिन्नामारा के नाम से लोग जानते हैं.

मणिराम उद्योगपति बन गये, केवल चाय उत्पादन में नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी - जैसे कि नमक बनाने व इस्पात बनाने का कारकाना भी लगाया, ईँटें तथा सिरेमिक बनाने की भट्टियाँ लगायीं.

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उनकी उन्नति से असम कम्पनी के अंग्रेज़ अफसर चितिंत हुए क्योंकि उनकी दृष्टि में भारतीयों का चाय कारोबार में पड़ने का अर्थ, अंग्रेज़ी कम्पनी का नुकसान था. 1851 में अंग्रेज़ सरकार ने उनके चायबागान तथा सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया. असम पर काबू रखने के लिए अंग्रेज़ों ने बंगाल तथा मारवाड़ से लोगों को बुला कर उन्हें अफसर बनाया. मणिराम ने कलकत्ता की अदालत में न्याय के लिए अर्ज़ी दी तथा अंग्रेज़ टेक्सों की आालोचना की कि उनसे स्थानीय अर्थव्यवस्था को कमज़ोर किया जा रहा है. लेकिन अदालत ने उनकी यह अर्ज़ी नामँजूर कर दी, तथा उनके चाय बागान अंग्रेजों को दे दिये गये.

1857 की अंगरेज़ों के विरुद्ध सिपाही क्राँती से मणिराम ने प्रेरणा पायी और उत्तरपूर्व में अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध काम प्रारम्भ किया. अंग्रेज़ी शासन के विद्रोह के आरोप में मणिराम को गिरफ्तार किया गया और 26 फरवरी 1858 को उन्हें फाँसी दी गयी.

आज का सिन्नामारा

सिन्नामारा में आज भी चायबागान हैं, जहाँ बहुत से लोग संथाल जनजाति के हैं. चायबागानों में काम करने के लिए अंग्रेज़ केन्द्रीय भारत से संथाल जाति के लोगों को ले कर आये थे. स्थानीय भाषा न जानने वाले लोगों को रखने का फायदा था कि उन्हें आसानी से दबाया जा सकता था और उनमें विद्रोह कठिन था. इस तरह से आज असम में लाखों संथाली रहते हैं जिनके पूर्वज यहाँ एक सौ पचास वर्ष पहले मजदूर की तरह लाये गये थे.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

असम में होने वाले जाति-प्रजाति सम्बँधित झगड़ों-विवादों में एक यह विवाद भी है जिसमें "विदेशी" और "भूमिपुत्रों" की बात की जाती है. आर्थिक तथा सामाजिक पिछड़ापन, संचार तथा यातायात की कठिनाईयाँ आदि की वजह से इतने सालों में असम के समुदायों में जो एकापन आना या समन्वय आना चाहिये था, वह नहीं आया. बल्कि आज उस पर धर्म सम्बँधी भेद भी जुड़ गये हैं.

चायबागान चलाने वालों का कहना है कि चाय के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर निर्भर करते हैं, इस लिए चायबागानों में काम करने के लिए न्यूनतम पगार जैसी बातों को नहीं लागू किया जा सकता. इस तरह से प्रतिदिन आठ घँटे काम करने वाले यहाँ के चायबागान के काम करने वालों को, सप्ताह के 400 रुपये के आसपास की तनख्वाह तथा कुछ खाने का सामान दिया जाता है.

सिन्नामारा में अंग्रेज़ों के समय का पुराना अस्पताल भी है, जिसे असम चाय उद्योग चालाता था लेकिन जो कई वर्षों से बन्द पड़ा है.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

अंगरेज़ों के समय और आज का समय देखें तो, बहुत सी बातों में आज दुनिया बहुत बदल गयी है. आज हम स्वतंत्र हैं, जो काम करना चाहें, जिस राह पर बढ़ना चाहें, उसे स्वयं चुन सकते हैं. लेकिन गरीबी, अशिक्षा तथा भ्रष्टाचार, आज भी जँज़ीरें है जो हमें बाँधे रखती हैं.

मेरी चायबागान में काम करने वाले पढ़े लिखे कुछ नवयुवकों से बात हुई, बोले कि पढ़ायी करके भी वही मजदूरी करनी पड़ती है क्योंकि "बिना घूस दिये कुछ काम नहीं मिलता, और घूस देने लायक पैसा हमारे पास नहीं".

आज के भारत की दुनिया बदली है लेकिन चायबागानों में काम करने वाले मजदूरों की दृष्टि से देखे तो जितनी बदलनी चाहिये थी उतनी नहीं बदली.

Maniram Dewan & Cinnamara tea gardens, Jorhat, Assam, India - Images by Sunil Deepak

मणिराम दीवान ने अपना जीवन अंग्रेजों के साथी की तरह प्रारम्भ किया, पर उनमें चाकरी की भावना कम थी, वह स्वयं को उनसे कम नहीं मानते थे, स्वयं उद्योगपति बनने का सपना देखते थे! इन सब बातों की वजह से उन्हें विद्रोह की राह चुननी पड़ी. स्वतंत्रता की राह में उन जैसे कुर्बानी करने वाले अन्य बहुत लोग होंगे लेकिन उनकी अपेक्षा मणिराम दीवान की याद को अधिक प्रमुखता मिली, जोकि स्वाभाविक है क्योंकि इतिहास ऐसे ही बनना है,

कुछ लोग अपने व्यक्तित्व या सामाजिक स्थिति की वजह से लोगों में प्रतीक बन कर रास्ता दिखाते हैं, प्रेरणा देते हैं. पर उस स्वतंत्रता का जितना लाभ यहाँ के गरीब लोगों को मिलना चाहिये था, उसमें हमारे देश में कुछ कमी आ गयी!

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सोमवार, मई 27, 2013

मिथकों में जीवन

बात कहीं से शुरु होती है और फ़िर किसी अन्य दिशा से कोई तार उससे आ मिलते हैं, और बातों में बातें जुड़ जाती हैं.

Mithak - Myths
कुछ यूँ ही हुआ जब मैंने अपने फोटो ब्लाग "छायाचित्रकार" पर तीन महाद्वीपों से विभिन्न तरह की गिलहरियों की तस्वीरें लगाने की सोची. दिल्ली में कुतुब मीनार के पास खींची गिलहरी की तस्वीर देख रहा था तो उसकी पीठ पर कथई रंग की धारियों से याद आया कि उसके बारे में बचपन में कहानी सुनी थी. उस कथा के अनुसार, जब राम अपनी सैना को ले कर लँका जाने के लिए सागर पर पुल बना रहे थे तो गिलहरी ने पत्थर लाने में बहुत मेहनत की और गिलहरी को धन्यवाद देने के लिए उन्होंने जब उसकी पीठ को सराहा तो उनकी उँगलियों के निशान उसकी पीठ पर रह गये.

फ़िर सोचा कि मानव ने क्यों इस तरह के मिथक रचे? मिथकों का जीवन में क्या लाभ है?

केवल भारत में नहीं, हर देश, हर संस्कति ने पूर्वेतिहासिक काल में अपने मिथक रचे, तो मानव समाज में अवश्य उनका कुछ महत्व और उपयोग होता था, जिसकी वजह से सभी सभ्यताओं में मिथक रचे गये. अक्सर सभ्यताओं से जुड़े मिथक, उन सभ्यताओं के प्रचलित धर्मों से जुड़ जाते हैं, जिसकी वजह से अंग्रेज़ी में धार्मिक कथाओं को माइथोलोजी (mythology) कहते हैं, यानि "मिथकों की कहानियाँ".

यह सोच रहा था तो जानी मानी भारतीय विचारक, पारम्परिक जनजातियों के ज्ञान की रक्षा की पक्षधर और भूमण्डलीकरण की विरोधी सुश्री वन्दना शिव की एक बात याद आयी. वन्दना मेरी मित्र डा. मीरा शिव की बहन हैं. कुछ वर्ष पहले वह इटली के फ्लोरैंस शहर में एक समारोह में आमन्त्रित थीं. मीरा ने उनके हाथ मेरे लिए कुछ सामान भेजा था, जिसके लिए मैं वन्दना से मिलने फ्लोरैंस गया था और उनका भाषण सुनने का मौका मिला. अपने भाषण में उन्होंने बात की थी, नयी तकनीकों से बीजों के डीएनए (DNA) को बदल कर नयी तरह की वनस्पतियों को बनाने के प्रयोगों से प्राकृति के संरक्षण की. उन्होंने कहा कि भारत में हिन्दू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवता माने जाते हैं, और हर देवी देवता के साथ किसी न किसी पशु या पक्षी या वनस्पति का नाम भी जुड़ा होता है, जिनकी वजह से धर्म में विश्वास रखने वाले उन सब की रक्षा करते हैं. इस तरह से यह पौराणिक मिथक, मानव व प्राकृति के साथ साथ सामन्जस्य से रहने का संदेश देते हैं.

यानि, प्राचीन काल में जब विज्ञान नहीं था, किताबें नहीं थीं, तब मिथकों के द्वारा मानव जीवन के अनुभवों से अर्जित ज्ञान को याद रखा जाता था. इस तरह से देवी देवताओं की कहानियाँ एक माध्यम बन गयीं जिनसे मानव और प्राकृति में सामन्जस्य की आवश्यकता को नैतिक रूप दिया गया.

कुछ इसी तरह की बात एक बार मिस्र में एक मित्र ने मुसलमानों द्वारा सूअर के माँस को अपवित्र मानने के बारे में कही थी. वह कहते थे कि मध्य-पूर्व के देशों में सूअरों में सिस्टोसरकोसिस का रोग होता था और सूअर का माँस खाने से वह मानव शरीर में, विषेशकर दिमाग के तंतुओं में फैल जाता था. इसलिए सूअर के माँस की वर्जना की बात, वहाँ रहने वाली मानव जाति की सुरक्षा से जुड़ी थी.

मिथक क्यों बने, यह समझना हमेशा आसान नहीं होता. बहुत सी सभ्यताओं में नमक का गिरना या बिखरना अशुभ माना गया है. शायद इस मिथक के पीछे, पुराने समय में नमक को पाने की कठिनाई थी क्योंकि यह केवल सागर तटवर्ती क्षेत्रों में मिलता था. पर बहुत सी सभ्यताओं में काली बिल्ली को क्यों अशुभ माना गया, इसका कारण क्या हो सकता है?

जब लिखाई नहीं थी, किताबें नहीं थीं, तब इतिहास की महत्वपूर्ण बातों को न भूलने के लिए भी मिथक काम आते थे. जैसे कि अमरीकी जनजातियों के मिथकों में पृथ्वी पर मानव जीवन कैसे बना इसकी कहानियाँ हैं. इन मिथकों में आकाश से या चाँद से धरती तक एक पुल का बनना और उसे पार करके धरती पर आने की बातें हैं. इन कहानियों में कुछ इतिहासकारों ने करीब दस हज़ार वर्ष पहले के हिमयुग में उत्तरी सागर के बर्फ से जमने और उसे पार कर के एशियाई मूल के लोगों के अमरीका महाद्वीप पहुँचने की यात्रा के संकेत पाये हैं.

मिथक सामाजिक विचारों को भी शक्ति देते हैं. चाहे समाज में पुरुष के मुकाबले में नारी का नीचा स्थान हो या विकलाँग व्यक्तियों को समाज से बाहर देखने के प्रवृति, इनको प्राचीन मिथकों का सहारा मिलता है, जिनकी जड़ें समाज में बहुत गहरी होती हैं और जिन्हें बदलना आसान नहीं होता. दिल्ली में विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत मेरी मित्र डा. अनीता घई, रामायण में सूर्पनखा की कहानी का उदाहरण देती हैं कि सुन्दर सूर्पनखा स्वतंत्र हैं, उसकी यौनकिता भी स्वच्छंद है जोकि पितृसत्तावादी समाज में स्वीकार नहीं की जाती थी और इस अपराध के लिए उसकी नाक काट कर उसे विकलाँग बनाया जाता है, जिससे उसकी यौनकिता अस्वीकृत हो जाती है. इस तरह से मिथकों से जुड़े विचार, समाजिक रूढ़ीवाद का हिस्सा भी हो सकते हैं.

अपनी संस्कृति के मिथकों को जानना, हमें अपनी संस्कृति को गहराई से समझने का मौका देता है. भारतीय पारम्परिक मिथकों के बारे में डा. उषा पुरी विद्यावाचस्पति ने एक जानकारी से भरपूर किताब लिखी है, "भारतीय मिथकों में प्रतीकात्मकता" (सार्थक प्रकाशन, दिल्ली, 1997).  उदाहरण के लिए इसमें वह पूजा में उपयोग किये जाने वाली वस्तुओं तथा रीतियों के बारे में बताती हैं कि "ऊँ", शंख और स्वस्तिक में सृष्टि के आरम्भ का नाद है, जलयुक्त कलश को जल, वायू तथा सूर्य का प्रतीक मानते हैं, तथा कलश की गर्दन में बँधा कलावा मंगलमय आयोजन में समाज को स्नेहसूत्र में बाँधने का द्योतक है. रूद्राक्ष, शिव के आँसू या पसीने से बना है इसलिए मनुष्य को आधि व्याधि से मुक्त करता है. हल्दी में रोग निवारण शक्ति हैं और स्वर्ण का प्रतीक है, चावल दीर्घायुदायी हैं, जबकि दीपक प्रकाश तथा ज्ञान का प्रतीक है.

Cover of Bhartiya mithakon mein pratikatamkta by Dr Usha Puri Vidyavachaspati

यह बात नहीं कि मिथक केवल प्राचीन ही होते थे और आजकल नये मिथक नहीं बनते. पिछले वर्ष अमरीकी माया सभ्यता के कैंलेण्डर की भविष्यवाणी बता कर "20.12.2012 को दुनिया का अंत होगा" की बात को बहुत से लोगों ने सच मान लिया था. यानि आज "मिथक" का अर्थ धर्म से जुड़ी बातों से हट कर, झूठ या काल्पनिक बातों की तरह से होने लगा है. लोग फेसबुक और टिव्टर जैसे सोशल मीडिया की सहायता से नये मिथक बनाते हैं जो विभिन्न भाषाओं में अनुवादित हो कर एक देश या सभ्यता में सीमित नहीं रहते बल्कि सारी दुनिया में फ़ैलते हैं. इन नये मिथकों को "शहरी मिथक" भी कहते हैं जिनसे लोगों को डराते हैं. "अगर आप के पास इस तरह का ईमेल आये तो उसे नहीं खोलिये" या "अगर आप ने इस ईमेल को कम से कम दस लोगों को नहीं भेजा तो आप का विनष्ट होगा" या "इस ईमेल को दस लोगों को भेजेंगे तो लाटरी जीतेगें" जैसी बातें शहरी मिथक के दायरे में आती हैं. (नीचे की तस्वीर में "12 दिसम्बर को दुनिया का अंत होगा" के विषय पर बनी एक कलाकृति)

2012 Maya calendar myth sculpture by Joe Venturi and Matteo Varsellona

देखा आपने, एक गिलहरी की तस्वीर से शुरु हुआ विचार कहाँ तक पहुँच गया! मेरे विचार में प्राचीन मिथकों में छुपे प्राचीन ज्ञान को केवल अँधविश्वास कह कर भूल जाना या अस्वीकार करना गलती है. बहुत से मिथकों में सामाजिक बुराईयों के अँधविश्वास बने हैं, जो केवल मिथकों के शब्दिक अर्थ से जुड़े विचारों की कट्टरता का नतीजा हैं. पर जैसे वन्दना शिव के दिये उदाहरण से स्पष्ट होता है, इनमें छिपे सभी ज्ञान अवैज्ञानिक नहीं है. चाहे हम मिथकों में छुपे ज्ञान को संजोने की सोचे या उनसे जुड़ी गलत सामाजिक परम्पराओं को बदलने की बदलने की कोशिश करें, उनके महत्व को नहीं नकार सकते. आधुनिक मिथकों को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये, पर अपनी सोच समझ से उनके सच और झूठ को परखना चाहिये.

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हमारी भाषा कैसे बनी

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