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बुधवार, जुलाई 02, 2025

यौन दुराचरण और हमारी चुप्पियाँ

पिछले कुछ दिनों में फेसबुक पर साहित्यकारों से जुड़ी यौन दुराचरण की एक बहस चल रही है। मैं फेसबुक पर कम ही जाता हूँ और कोशिश करता हूँ कि नकारात्मक बातें न पढ़ू, फ़िर भी इस बहस के कुछ हिस्सों पर मेरी नज़र पड़ी। उस बहस में जिन व्यक्तियों की और जिस घटना की बात हो रही है, मैं दोनों से अपरिचित हूँ, इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं लिखना चाहता।

लेकिन इस बात से मुझे अपने कार्य-जीवन से जुड़ीं यौन दुराचरण की बातें याद आ गईं। यह आलेख मेरी उन यादों, अनुभवों, तथा विचारों के बारे में है।


आप क्या करेंगे?  

अगर आप को पता चले कि आप का मित्र या ऐसा व्यक्ति जिसे आप बहुत मानते हैं वह यौन-दुराचरण कर रहा है तो आप क्या करेंगे? यह बातें फ़िल्मों में देख कर या दैनिक या पत्रिका में पढ़ कर आसान लगती है, और हम सोचते हैं कि इसके विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए। 

जैसे कि मीरा नायर की फ़िल्म "मॉनसून वेडिन्ग" में यह प्रश्न उठता है, जब पता चलता है कि परिवार का एक सम्मानित आदमी जिसने परिवार की कई अवसरों पर मदद की है, घर की बच्ची के साथ जबरदस्ती यौन सम्बंध करता था। उस फ़िल्म में परिवार के वरिष्ठ लोग उस आदमी को वहाँ से चले जाने के लिए कहते हैं। लेकिन फ़िल्मों के बाहर की दुनिया में क्या होता है? वहाँ अक्सर इस विषय पर चुप्पियाँ मिलती हैं, और लोग इस बारे में बात करने में असहज हो जाते हैं।

मेरे व्यक्तिगत अनुभव भी यही बताते है कि सामान्य जीवन में इस तरह के निर्णय लेना कभी-कभी बहुत कठिन हो सकता है। अगर आप को यौन विषय पर पढ़ने-सुनने से परेशानी होती है, तो मेरी सलाह है कि आप इस आलेख को आगे नहीं पढ़िये।

दो जाने-माने नाम

एब्बे पिएर फ्राँस में १९१२ में पैदा हुए थे और उनकी मृत्यु सन् २००७ में हुई थी। उन्हें लोग संत मानते-बुलाते थे। सन् १९४९ में एब्बे पिएर ने यूरोप में एम्माउस नाम की संस्था बनाई थी जो गरीबों, विकलांगों, कुष्ठ रोगियों, शरणार्थियों आदि के साथ सक्रिय थीं। उनकी संस्था से प्रभावित हो कर बहुत सी अन्य एम्माउस एसोसियेशन भी बनीं। चूँकि मैं भी कुष्ठ रोग और विकलांगता के क्षेत्र में सक्रिय था, उनमें से कई संस्थाओं के साथ मेरे सम्पर्क बने और उनके साथ बहुत बार काम भी किया।

करीब तीस-पैंतीस साल पहले, नब्बे के दशक में मैं एब्बे पिएर से एक बार मिला था और उनकी बातों और सोच से बहुत प्रभावित हुआ था। इसलिए जब पिछले वर्ष (२०२४ में), एब्बे पिएर के बारे में खबरें आईं कि उन्होंने बहुत सी बच्चियों के साथ यौन दुराचार किया था, तो मुझे बहुत धक्का लगा था। इस विषय पर एक नई किताब आई है जिसकी लेखिकाओं ने इस विषय पर छानबीन की है जिससे स्पष्ट होता है कि उनके यौन दुराचार की बातें लोगों को बहुत पहले से मालूम थीं लेकिन इसके बारे में कोई खुल कर नहीं बोलता था। ३३ स्त्रियों ने बचपन में उनके इस तरह के व्यवहार के व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में गवाही दी है।

जब इस तरह की बातें पता चलती हैं तो पहला प्रश्न जो मेरे मन में उठता है वह है - उस व्यक्ति के अच्छे कामों के बारे में क्या किया जाये? उन्हें भुला दिया जाना चाहिये? किसी व्यक्ति की बात करते हुए  उसके अच्छे और बुरे कर्मों को किस तराजू में कैसे तोला जाये?

दूसरी बात है समय की। एब्बे पिएर को गुज़रे हुए सतरह साल हो चुके हैं तो अब यह बातें कहने का क्या लाभ है? मेरे विचार में सच्ची बात को अभिव्यक्त करना भी आवश्यक है। इस समाचार के बाद कुछ एम्माउस संस्थाओं ने अपनी वेबसाईट आदि से एब्बे पिएर का नाम हटा दिया है। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि इतने सालों के बाद की उन औरतों की स्मृति पर भरोसा नहीं किया जा सकता, या फ़िर किसी को मानसिक रोग हो तो वह गलत सम्बंध की बात की कल्पना भी कर सकता है, इसलिए इन बातों पर पूरा विश्वास करना कठिन है। लेकिन मुझे लगता है कि इतनी सारी औरतों की शिकायतों को मानसिक रोग कहना सच्चाई से मुँह छुपाना है।

दूसरी बात डेविड वर्नर की है। पिछड़े और विकासशील देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले बहुत सारे लोग डेविड वर्नर की दो किताबों को जानते हैं, "जहाँ कोई डॉक्टर नहीं है" और "गाँव के विकलांग बच्चे"। १९८०-९० के समय में यह दोनों किताबें बहुत प्रसिद्ध थीं और इनसे प्रेरणा पा कर इस तरह की अन्य कई किताबें भी लिखी गईं जैसे कि "जहाँ कोई डैंटिस्ट नहीं है", "जहाँ कोई मनोरोग विषेशज्ञ नहीं है", आदि।

मैंं डेविड से पहली बार १९८८ में मिला था और विकलांगता से सम्बंधित विषयों पर उसकी सोच-समझ को प्रेरणादायक पाया था।

२००३-४ के आसपास मैंने सुना कि उस पर आरोप लगा है कि मैक्सिको के जिस गाँव में रहता और काम करता था, वहाँ के कई बच्चों के साथ उसके यौन सम्बंध भी थे। मुझे विश्वास नहीं हुआ, लेकिन मेरी एक अंग्रेज़ी मित्र ने मुझे उसकी एक चिट्ठी दिखायी जिसमें वह इस तरह के "प्रेम सम्बंधों" को वह बच्चों के मानसिक विकास के लिए सही बता रहा था। हमारे मित्रों के गुट ने उस समय उससे सब सम्बंध तोड़ लिए थे। बाद में मैंने सुना कि वह अपनी बात से पलट गया है, वह इंकार करता है कि उसने ऐसा कुछ किया था।

डेविड मुझसे करीब बीस साल बड़ा था, अगर वह आज जीवित है तो नब्बे साल का होगा। बहुत सालों से मेरा उससे सम्पर्क नहीं है। लेकिन इसके बारे में मेरे मन में दुविधा है। उसकी जिन किताबों की वजह से लाखों लोगों को लाभ भी हुआ था और आज भी होता होगा, उनके लिए उसके योगदान को कैसे देखा जाये? मैं कई विकलांग लोगों को जानता हूँ जो कहते हैं कि उसकी किताबों में उन्होंने अपना जीवन जीने की राह पाई है।

मी टू - व्यस्कों में सम्बंधों की जटिलताएँ

कुछ वर्ष पहले "मी टू" (मुझे भी) के नाम से यौन दुराचार की बहुत सी बातें बाहर निकलीं, कई लोगों पर आरोप लगे जिसमें बड़ी उम्र के जाने-पहचाने या प्रसिद्ध या उच्चे पद के अफसरों-अधिकारियों ने अपने नीचे काम करने वाली युवतियों को सैक्स के लिए मजबूर किया था। कानूनी जाँच में बहुत से ऐसे आरोप सही निकले और कुछ में आरोपितों को सजा मिली या नौकरी से निकाला गया। कुछ ऐसे आरोप झूठे भी निकले। 

कुछ स्त्रियों का कहना है कि जिस समय यह हादसा हुआ था, यह इतना अप्रत्याशित था कि उस समय वह कुछ नहीं कह पायीं। अगर महिला ने रोका नहीं या स्पष्ट मना नहीं किया तो क्या इसे गलतफहमी का नतीजा भी माना जा सकता है?

यह भी सच है कि नीचे काम करने वाले को दबाव महसूस होता है कि अगर वह ऐसे सम्बंधों को नहीं स्वीकारेंगे तो उनके केरियर पर बुरा असर पड़ेगा। इसलिए कुछ लोग कहते हैं कि इस तरह के सम्बंध हमेशा गलत होते हैं। लेकिन ऐसे कई दम्पत्ति हैं जिनकी जानपहचान और प्रेम साथ में काम करने की वजह से हुए, जब उनमें से एक ऊँचे पदवे पर था और दूसरा नीचे। इसलिए यह सोचना कि ऊँचे और नीचे पद वालों के बीच किसी तरह के सम्बंध नहीं बने, को लागू करना कठिन होगा।

यह भी हो सकता है कि कैरियर में आगे बढ़ने के लिए या किसी लाभ की आशा से कुछ व्यक्ति इस तरह के सम्बंध सोच-समझ कर बनायें, लेकिन बाद में प्रमोशन या लाभ न मिलने पर गुस्सा हो जायें और बदला लेने के लिए कहें कि उनके साथ जबरदस्ती हुई है। यह बात सोच कर मुझे व्यस्क व्यक्तियों के बीच हुए सम्बंधों का मामला अधिक कठिन लगता है। 

समलैंगिक यौन दुराचरण की जटिलतायें

नब्बे के दशक में एक अधेड़ उम्र की नर्स हमारे एक प्रोजेक्ट में काम करने तीन महीने के लिए विदेश गईं। उन्होंने लौट कर मुझसे शिकायत की वहाँ काम करने वाली, उनसे दस वर्ष बड़ी हमारे प्रोजेक्ट की प्रमुख ने उनसे यौन सम्बंध बनाने की कोशिश की। वह चाहती थीं कि हम उस प्रोजेक्ट प्रमुख को नौकरी से निकाल दें। जहाँ तक मुझे समझ में आया शिकायत करने वाली महिला के साथ किसी तरह की कोई जबरदस्ती नहीं हुई थी, बल्कि वह सोचती थीं कि लेसबियन होना गलत है और ऐसी औरतों को प्रोजक्ट में ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं रखना चाहिए। जबकि मुझे लगा कि लेसबियन होना और व्यस्क महिला से सम्बंध के लिए कहना या पूछना कोई जुर्म नहीं है। अंत में मैंने इस शिकायत के बारे में कुछ नहीं किया।

एक बार भारत में एक कुष्ठआश्रम के काम करने वाली यूरोपीय मूल की नर्स-नन के बारे में भी मुझे यही शिकायत मिली कि वह लेसबियन है। मैं उन्हें बहुत सालों से जानता था और मुझे लगा कि वह बहुत मेहनत तथा प्यार से रोगियों की सेवा करती थीं। मैंने सोचा कि लेसबियन होना अपराध नहीं है, और अगर वह किसी से जबरदस्ती नहीं कर रहीं तो यह उनका निजि मामला है। बाद में मुझे खबर मिली कि उनकी संस्था (कोनग्रेगशन) ने उन्हें संस्था से निकाल दिया है और वह यूरोप वापस लौट आईं।

कुछ साल पहले अमरीकी अभिनेता केविन स्पेसी पर भी कुछ पुरुषों ने आरोप लगाये थे कि कुछ दशक पहले जब वह नाबालिग थे तब स्पेसी ने उनके साथ जबरदस्ती सम्बंध बनाये थे। इन आरोपों की वजह से स्पेसी को कई फिल्मों और सीरियल से निकाल दिया गया, लेकिन बाद में न्यायालय ने उन आरोपों को सही नहीं माना। एक ओर से यह हो सकता है कि इतने पुराने ज़ुर्म को अदालत में साबित करना आसान नहीं है, लेकिन दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि प्रसिद्ध और पैसे वाले व्यक्ति पर झूठा आरोप लगाने का कारण व्यक्तिगत लाभ की आशा हो। 

एक और अनुभव

मेरा तीसरा अनुभव एक यूरोपी पुरुष से जुड़ा है जो करीब बीस साल से अफ्रीका में काम करते थे। उन्होंने वहाँ की महिला से विवाह किया था और उनके बच्चे भी थे, जिनमें वहाँ के कुछ गोद लिए हुए बच्चे भी थे। उन्होंने बहुत से बच्चों को छात्रवृति दिलवा कर यूरोप पढ़ने भेजा था। एक दिन उनके विरुद्ध शिकायत आई कि वह वहाँ अनाथाश्रम के बच्चों से यौन सम्बंध बनाते हैं। इस बात की जाँच के लिए वहाँ एक व्यक्ति को भेजा गया। तीन सप्ताह तक उस व्यक्ति ने वहाँ के बच्चों से, वहाँ काम करने वालों से, आदि से साक्षात्कार किये, और इस बारे में प्रश्न पूछे। पता चला कि आरोप लगाने वालों में कुछ लोगों का उनसे झगड़ा हुआ था, लेकिन किसी बच्चे से इसके बारे में बातचीत से कोई संदेहजनक बात नहीं निकली। आखिर में कुछ सबूत नहीं मिलने से यह जाँच बंद कर दी गयी और उनके विरुद्ध कुछ कार्यवाही नहीं की गई।

इस बात के चार-पाँच साल के बाद उस देश की सरकार ने उन्हें अपने देशवासियों की सेवा के लिए विषेश पुरस्कार दिया। इस बात को बीस-पच्चीस साल हो गये हैं और वह सज्जन, जो अब वृद्ध हैं, आज भी उसी देश में रहते हैं और उसी अनाथाश्रम में स्वयंसेवक की तरह काम करते हैं।

सच कहूँ तो आज भी मेरे मन में इस घटना के बारे में दुविधाएँ हैं, हालाँकि उनके अपने गोद लिए हुए बच्चे, जो अब व्यस्क हैं, कहते हैं कि उनके पिता पर लगे आरोप झूठे थे। आप बताईये कि आप इस मामले में क्या करते?

अंत में

मेरे लिए, व्यक्तिगत स्तर पर, इस विषय पर सबसे बड़ी दुविधा का कारण है कि जहाँ बलात्कार जैसे सबूत नहीं हों, किसी पर लगे आरोपों को कैसे जाँचा जाये? बाद में मन में संदेह रह जाता है, उसे निकालना असम्भव होता है, तो यह लगता है कि आरोप लगाना बहुत आसान है, लोग कुछ भी कह सकते हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू है कि जब कोई औरत, अतीत में हुई किसी बात को बताती है, तो उसके लिए यह कहना आसान नहीं होता, उसे कैसे गम्भीरता से न लिया जाये?

अंत में बात घूम-फ़िर कर वहीं आ जाती है कि उपन्यासों, फ़िल्मों या अखबारों या फेसबुक में यह बातें आसान लग सकती हैं, कि यह हुआ, ऐसा या वैसा करना चाहिए था। फेसबुक जैसे सोशल मीडिया में कुछ भी लिखना आसान है। लेकिन जब आप को निर्णय लेना पड़े तो यह कभी-कभी बहुत कठिन हो सकता है। 

पटना की घटना से जुड़ी बहस पर साहित्यकारों और साहित्य की बात करते हुए, मित्र ओम थानवी ने लिखा है, "अच्छा या बड़ा लेखक जाति, विचार, चरित्र, आचरण के बावजूद अच्छा या बड़ा होता है। कम-से-कम इस तरह के आधारों पर उसे त्याज्य या उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता।" कुछ यही बात अन्य क्षेत्रों में काम करने वालों के लिए भी कही जा सकती है।

आप बताईये आप इस विषय के बारे में क्या सोचते हैं? 

*** 

शुक्रवार, जून 20, 2025

राशन की चीनी

आज सुबह चाय बना रहा था तो अचानक मन में बचपन की एक याद कौंधी। 

यह बात १९६३-६४ की है। मैं और मेरी छोटी बहन, हम दोनों अपनी छोटी बुआ के पास मेरठ में गर्मियों की छुट्टियों पर गये थे। १०१ नम्बर का उनका घर साकेत में था। साथ में और सामने बहुत सी खुली जगह थी। बुआ के घर में पीछे पपीते का पेड़ लगा था और साथ वाले घर में अंगूर लगे थे। एक बार दोपहर में जब अन्य लोग सो रहे थे, पड़ोसी घर से अंगूर चुरा कर खाने की सजा भी मिली थी। बुआ के यहाँ अजीत नाम के गढ़वाली सज्जन रसोईये का काम करते थे।

तब मैं नौ-दस साल का था और सुबह दूध पीता था। दिल्ली में घर पर दूध में चीनी मिला कर पीते थे। उन दिनों में चीनी राशन से मिलती थी और शायद मेरठ में उसकी कमी चल रही थी, इसलिए वहाँ दूध फीका पीना पड़ता था। ऐसी आदत पड़ी थी कि बिना चीनी का दूध पीया ही नहीं जाता था, मतली आने लगती थी। तब अजीत कहता कि गुड़ का टुकड़ा मुँह में रख लो और साथ में दूध का घूँट पीयो, चीनी की कमी महसूस नहीं होगी।

पिछले दस-पंद्रह सालों से मैं दूध, चाय और कॉफी बिना चीनी के पीता हूँ। मसूढ़ों में तकलीफ रहती थी तब डैन्टिस्ट ने कहा कि शायद मेरे मसूढ़ों को चीनी और कॉफी का सम्मिश्रिण सूट नहीं करता, इसलिए मुझे कुछ दिन तक बिना चीनी की कॉफी पी कर देखना चाहिए। एक बार कॉफी से शुरु किया तो चाय और दूध में भी चीनी डालना छोड़ दिया।

तब से फीका पीने की ऐसी आदत पड़ी है कि अगर चाय में चीनी हो तो मुझसे पी नहीं जाती, मतली आने लगती है। भारत में छोटे-बड़े शहरों में घूमते हुए कई बार ऐसा होता है कि वह लोग चाय बना कर रख लेते हैं जिसमें चीनी मिली होती है और आप उनसे बिना चीनी की चाय माँगिये तो वह मना कर देते हैं। रेल में भी यही होता है।

कर्णटक में एक पशु मेले में चाय बेचने वाली - Image by Sunil Deepak

तब सोचता हूँ कि जीवन भी कितना विचित्र है। कभी चीनी न होने पर उसके लिए तरसते थे और आज चीनी होने पर तरसते हैं।

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साठ-सत्तर के दशक के बारे में सोचो तो मन में प्रश्न उठता है कि अगर गुड़ मिलने में कोई कठिनाई नहीं होती थी तो चीनी क्यों नहीं मिलती थी? गुड़ से चीनी बनाना ऐसा कठिन नहीं है। शायद तब बात गन्ने या गुड़ की कमी की नहीं थी बल्कि फैक्टरियों को चीनी बनाने के कोटा मिलना की थी, क्योंकि कोई फैक्टरी वाला, जितनी अनुमति मिली हो उससे अधिक चीनी का उत्पादन नहीं कर सकता था। अगर वह कोटे से अधिक उत्पादन करते थे तो सरकारी बाबू उन पर जुर्माना लगा देते थे।

यह कोटे वाली बात आज की पीढ़ी के लिए समझना आसान नहीं है। एक बार मैंने विक्स बनाने वाली कम्पनी के अधीक्षक का एक साक्षात्कार सुना था जिसमें उन्होंने बताया कि इंदिरा गाँधी की सरकार के समय में एक साल फ्लू का बुखार बहुत फ़ैला। इसलिए विक्स की माँग बहुत थी तो कम्पनी ने उत्पादन बढ़ा दिया। इस बात के कुछ महीने बाद उन्हें दिल्ली के एक अफसर ने बुलाया, वह अपने वकील के साथ गये। उन्हें कहा गया कि तुमने कोटे से अधिक विक्स बना कर अपराध किया है, उसका जुर्माना देना पड़ेगा।

आज का हिन्दुस्तान में बहुत सी बातें बदली हैं, अब फैक्टरियों को कोटे से अधिक बनाने का जुर्माना नहीं लगता, क्योकि अब कोटे नहीं होते। लेकिन कई क्षेत्रों में कुछ सरकारी बाबूओं की सोच में बहुत बदलाव नहीं हुआ है। उनका ध्येय जनसेवा नहीं, जब तक आप उनके हाथ गर्म नहीं करें तब तक उनका काम आप के काम में अड़चने डालना है।

आप की क्या राय है, हिन्दुस्तान में क्या बदलना चाहिए जो अभी भी नहीं बदला?

*****       

शनिवार, जून 07, 2025

झाड़ू-पौंछे का रोबोट

बचपन से देखा था कि माँ सुबह स्कूल में पढ़ाने जाने से पहले घर में झाड़ू लगा कर जाती थी, अक्सर झाड़ू के बाद गीला पौंछा भी लगता था। जब मेरी छोटी बहनें बड़ी हुईं तो कभी-कभी वह भी माँ का हाथ बँटाती थीं। जब से इटली में आया तो हमेशा पत्नी को यही काम करते देखा। यह हमारी झाड़ू-पौंछे की पुरानी दुनिया थी।

चीन में सड़क की सफाई करने वाले कर्मचारी

पहले गर्मियों की छुट्टियों में जब बेटे को ले कर पत्नी महीने-दो महीने के लिए समुद्र तट वाले घर में रहने चली जाती, तो मैं उनसे मिलने जाने के लिए सप्ताह-अंत की प्रतीक्षा करता था। लेकिन उन दिनों में घर की सफाई की ज़िम्मेदारी मेरी होती थी। तब मैं हफ्ते में एक बार झाड़ू लगाता था, और कभी-कभी पौंछा भी लगाता था। साथ में यह ध्यान रखता था कि जिस दिन पत्नी को घर लौटना है, उससे पहले घर की सफाई ठीक से की जाये। लेकिन कई बार ऐसा हुआ कि वह लोग छुट्टियों से एक-दो दिन पहले घर लौट आये और मुझे ठीक से सफाई करने का मौका नहीं मिला। तब पत्नी के माथे पर बल पड़ जाते कि "अरे, घर कितना गंदा हो रहा है"।

करीब दस साल पहले, मैं दो साल के लिए गौहाटी में काम करने गया तो वहाँ किराये के घर में अकेला रहता था। वहाँ घर में एक झाड़ू-पौंछा लगाने वाली आती थी। पिछले तीस-चालीस सालों में मुझे यहाँ पर एकदम साफ-सुथरे में रहने की ऐसी आदत हो गई थी कि मुझे लगता कि गौहाटी की झाड़ू-पौंछा लगाने वाली ठीक से काम नहीं करती थी, जल्दी-जल्दी दो हाथ चलाती और चली जाती। मैं एक-दो बार तो उसे ठीक से सफाई करने को कहा, जब देखा कि उनका काम तो उसे हटा कर एक अन्य महिला को रखा। जब समझ में आया कि काम तो वैसे ही होगा तो उन्हें काम पर आने से मना कर दिया। तब मैं खुद ही सुबह घर में अच्छी तरह से झाड़ू-पौंछा लगा कर ही काम पर जाता था।

नयी दुनिया की नयी सफाई

कुछ साल पहले हमने सफाई करने वाला रोबोट खरीदा। यह घर की धूल, मिट्टी, कूड़ा जमा करने में बढ़िया काम करता है, हालाँकि मेरी पत्नी को उससे संतोष नहीं होता, वह कई बार, इसकी सफाई के बाद, अलग से वेक्यूम क्लीनर ले कर उससे दोबारा सफाई करती है। लेकिन अब जब पत्नी गर्मियों में एक-दो महीने के लिए समुद्र तट पर रहने चली जाती है (और मैं वहाँ नहीं जाता क्योंकि मैं वहाँ तीन-चार दिन में ऊब जाता हूँ), तो घर में मेरे मित्र रोबोट जी ही सफाई करते हैं।

रोबोट से कालीन की सफाई

घर के पिछवाड़े में इस रोबोट का बिस्तर लगा है, वहाँ रख दो तो पूरा चार्ज हो जाते हैं। हर दूसरे-तीसरे दिन इन्हें काम पर लगा देता हूँ। गोल-गोल घूम कर यह कमरे के कोने-कोने में जाते हैं। इनके भीतर कम्पयूटर लगा है, इनके पास घर का पूरा नक्शा है कि कहाँ  क्या रखा है, सोफे और मेज़ आदि के चक्कर लगाना आता है, और यह सीढ़ियों से नीचे नहीं गिरते। ऊँचाई कम है इसलिए यह अलमारियों, बिस्तरों आदि के नीचे घुस कर सफाई कर सकते हैं। इन्हें चलाने से पहले, मैं कमरे की जो चीज़ें आसानी से हट सकती हैं, उन्हें वहाँ से हटा लेता हूँ ताकि यह खुले घूमें।

रोबोट अलमारियों, बिस्तर आदि के नीचे भी घुस जाता है

छोटे-मोटे कालीन आदि भी झाड़ कर हटा देता हूँ, जबकि मोटे कालीन को वहीं अपनी जगह पर छोड़ देता हूँ ताकि उसके  ऊपर से भी अच्छी तरह से सफाई हो जाये। 

जब यह काम कर लेता है तो वापस अपने बिस्तर की ओर लौट जाता है और अपने आप को रिचार्ज के लिए लगा लेता है। चूँकि हमारे पिछवाड़े में बारिश के समय पानी जमा हो जाता है, इसलिए हमने इनका बिस्तर ज़मीन से उठा कर चबूतरे पर बनाया है, तो जब रिचार्ज करना हो बेचारा चबूतरे के पास जा कर थोड़ी देर तक तड़पता है, फ़िर वहीं बत्ती बुझा कर बैठा रहता है कि हम इसे उठा कर इसके रिचार्ज-पोर्ट पर रखें।

सफाई वाले रोबोट का रिचार्ज

हमारे मॉडल में केवल वैक्यूम से कूड़ा खींचने वाला झाड़ू है, लेकिन बाज़ार में दूसरे मॉडल मिलते हैं जिनमें पौंछा लगाने की सुविधा भी है। हमने अपना सस्ता सफाई का रोबोट मॉडल, दो-तीन साल पहले, करीब दो सौ यूरो (पंद्रह-सोलह हज़ार रुपये) का खरीदा था। आजकल यहाँ इटली में घर में सफाई का काम करने वाले लोग एक घंटे का करीब दस यूरो (आठ-नौ सौ रुपये) लेते हैं, उस हिसाब इन्हें खरीदना कम खर्चीला है। इसका बटन है, जिसे दबाओ तो कूड़े वाला हिस्सा बाहर निकल आता है और उसे साफ करना आसान है। 

बटन दबा कर रोबोट से कूड़ा बाहर निकालना

 जब यह रोबोट जी मेरे आस-पास घुर-घुर करके घूम रहे होते हैं, तो मैं कभी-कभी इनसे बातें भी करता हूँ। कल जब मानव-शरीर जैसे रोबोट बनेंगे तो शायद उनसे पूछूँगा, "भाई साहब, आप चाय पीयेंगे?"

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शनिवार, मई 31, 2025

महाबुद्धिमानों के वंशज

इटली के सबसे प्रसिद्ध कलाकारों में दो नाम सबसे ऊपर हैं, लेयोनार्दो द विंची और माईकलएँजेलो। लेयोनार्दो को उनकी चित्रकला और माईकलएँजेलो को उनकी शिल्पकला के लिए जाना जाता है। पैरिस के लूव्र संग्रहालय में रखी लेयोनार्दो की कलाकृति "मोनालिज़ा" शायद दुनिया की सबसे प्रसिद्ध कलाकृति है।

इस पहली तस्वीर में लेयोनार्दो के गाँव विंची में उनकी एक कलाकृति पर आधारित स्मारक दिखाया गया है। विंची का गाँव, रोम से करीब दो सौ किलोमीटर उत्तर में इटली के तस्कनी प्रदेश में अपेनीनी पहाड़ों में स्थित है।

Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak

चित्रकला के साथ-साथ, लेयोनार्दो को विभिन्न आविष्कारों के लिए भी जाना जाता है। अपनी डायरी में उन्होंने विभिन्न आविष्कारों के चित्र और उन्हें कैसे बनाया जाये, इसकी विधियाँ लिखीं थीं। उन आविष्कारों में हवाई जहाज़, हैलीकोप्टर, टैंक, पानी का पम्प आदि शामिल हैं, जिन्हें कई सौ सालों के बाद मानव ने बनाया। इनकी वजह से लेयोनार्दो को जीनियस यानि महाबुद्धिमान मानते हैं।

यह आलेख उनके वंशजों से ले कर उनके गाँव विंची से होता हुआ उनके बनाये शेर के खिलौने तक जाता है। 

लेयोनार्दो के महाबुद्धिमान वशंज

लेयोनार्दो का जन्म विंची नाम के पहाड़ी गाँव में सन् १४५२ में हुआ और उनकी मृत्यु ६८ साल की उम्र में फ्राँस में हुई। कुछ समय पहले उनके वंशज-पुरुषों में उनकी डी.एन.ए. की जाँच की गई ताकि यह पता चले कि उनमें से कितनो को लेयोनार्दो के जीन्स मिले हैं, जिनसे वह भी जीनियस हो सकते हैं।

मानव शरीर के कोषों में डी.एन.ए. के २३ धागों के जोड़े होते हैं जिन्हें क्रोमोज़ोम कहते हैं, हर क्रोमोज़ोम पर जीन्स होते हैं। मनुष्यों में लिंग के हिसाब से एक क्रोमोज़ोम के जोड़े को सैक्स क्रोमोज़ोम कहते हैं, जो बच्चियों में एक जैसे होते हैं, एक्स और एक्स, जबकि लड़कों में इस सैक्स क्रोमोज़ोम के जोड़े में दो विभिन्न धागे होते हैं, एक्स और वाई। वाई क्रोमोज़ोम केवल उनके पिता से मिलता है, जबकि एक्स क्रोमोज़ोम पिता या माता किसी से भी मिल सकता है।

लियोनार्दो के वंशजों को खोजने के लिए उनके परिवार के लड़कों के डी.एन.ए. की जाँच की गई। उनके वंशजों की छह शाखाएँ मिलीं, उनमें से ३९ पुरुषों में से छह पुरुषों में पाया गया कि उनका वाई क्रोमोज़ोम बिल्कुल लेयोनार्दो जैसा था। नीचे की इस तस्वीर में, जो एक इतालवी अखबार से ली गई है, आप उनमें से पाँच लोगों को देख सकते हैं।

Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak

हालाँकि उनका वाई जीन्स लेयोनार्दो जैसा है, लेकिन वह सभी सामान्य सफलता वाले लोग हैं, उनमें से कोई भी जीनियस और जगप्रसिद्ध कलाकार नहीं है। उनमें से एक कुर्सियों पर कपड़ा चढ़ाने का काम करते हैं, एक बैंक में लगे हैं, एक नगरपालिका में काम करते हैं, एक अन्य दफ्तर में। लेकिन नम्बर दो पर ८९ साल के दलमाज़िओ ने कुछ छोटे-मोटे आविष्कार अवश्य किये हैं, जबकि माउरो के कुर्सियों, सोफों आदि के कपड़ा चढ़ाने के हुनर को बड़े-बड़े लोग मानते हैं, उन्होंने दुनिया के कई प्रसिद्ध नेताओं-अभिनेताओं के लिए फर्नीचर तैयार करने का काम किया है। 

इनके परिवारों की कहानियों में इनके लक्कड़दादा के लक्कड़दादा लेयोनार्दो को छोड़ कर, ऐसे किसी व्यक्ति की बात नहीं सुनने को मिलती जिससे लगे कि वह महाबुद्धिमान थे।

लेयोनार्दो का घर

Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak

करीब पंद्रह साल पहले, एक दिन घूमते हुए हम लोग लियोनार्दो के गाँव विंची में पहुँच गये। यह गाँव फ्लोरैंस शहर के करीब के पहाड़ों पर बसा है। उनके घर को संग्रहालय की तरह रखा गया है लेकिन वहाँ लियोनार्दो की कोई कलाकृति आदि नहीं है, क्योंकि उनकी हर कृति की कीमत करोड़ों में आँकी जाती है और उन्हें छोटी-मोटी जगहों पर नहीं रखते। ऊपर वाली तस्वीर में लेयोनार्दो के घर का एक हिस्सा है और नीचे वाली तस्वीर में, उनके घर के बाहर का रास्ता है।

Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak
 

लेयोनार्दो का शेर

लेयोनार्दो को चाभी से चलने वाले खिलौने बनाने का बहुत शौक था। उनके बनाये खिलौनों को उस समय के राजा-महाराजों को उपहार के लिए दिया जाता था। मुझे एक बार बोलोनिया में एक प्रदर्शनी में उनके बनाये चाभी से चलने वाले छोटा सा लकड़ी का शेर को देखने का मौका मिला, जिसमें चाभी भरते थे तो वह पिछले पैरों पर खड़ा हो कर अपनी छाती खोल देता था, जहाँ फ़ूलों का गुलदस्ता लगा होता था। कहते हैं कि इस शेर को खतरनाक माना गया क्योंकि वह अपने भीतर फ़ूलों की जगह पर बम भी छुपा सकता था, जिससे राजा को मार सकते थे।

Leonardo's lion - Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak

ऐसा ही एक चाभी से चलने वाला चीता हिन्दुस्तान में टीपू सुल्तान के पास भी था, जिसे अब लंदन के विक्टोरिआ-एल्बर्ट संग्रहालय में देखा जा सकता है। यह लकड़ी का चीता आकार में बहुत बड़ा था और किसी यूरोप के सिपाही को मार कर खाता दिखता था। इसकी चाभी चलाओ यह चीता मुँह चलाता और मरे सिपाही की बाजू हिलती थी। चीता और सिपाही भारत के किसी कारीगर ने बनाये लेकिन उनके भीतर के मशीनी हिस्से यूरोप से लाये गये थे। 

Tipu's tiger in Victoria and Albert Museum, London, UK - Image by Sunil Deepak

 

अंत में

बात शुरु हुई अखबार के समाचार से जिसमें लियोनार्दो के वंशजों की बात थी, वहाँ से गई लियोनार्दो के गाँव विंची में और फ़िर वहाँ से लेयोनार्दो के शेर से होते हुए, टीपू सुल्तान की चीते तक पहुँची। आशा है कि आप को यह यात्रा मज़ेदार लगी। नीचे की आखिरी तस्वीर में लेयोनार्दो के घर से पहाड़ का विहंगम दृष्य है, सोचिये कि जब वह बच्चे थे और सुबह उठ कर बाहर देखते थे तो उन्हें यह दृष्य दिखता था।

Leonardo da Vinci, his descendents, his village in Tuscany .. Images by Sunil Deepak

 

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बुधवार, फ़रवरी 26, 2025

इतिहास और मानव समाज के बदलते मूल्य

इअन मौरिस (Ian Morris) इंग्लैंड में जन्में लेखक, इतिहासकार तथा पुरातत्व विशेषज्ञ हैं जो आजकल अमरीका में स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। मेरा यह आलेख उनकी २०१५ में लिखी एक पुस्तक (Forager, farmers and Fossil Fuels) से प्रेरित है जिसमें वह आदि मानव से ले कर आज के बदलते समाजों की सरंचना और उनके बदलते मूल्यों की बात करते हैं।

भीमबेटका, भोपाल, भारत क हाथी पर शिकार करने का पाषाणचित्र, तस्वीरकार सुनील दीपक

मैंने यह पुस्तक कुछ दिन पहले पढ़ी और मुझे इसके मूलभूत विचार दिलचस्प लगे। इसे पढ़ते हुए, मेरे मन में भारतीय पौराणिक कथाओं से जुड़ी कुछ बातें भी मन में उठीं, इसलिए इस आलेख को लिखने की सोची। ऊपर के चित्र में मध्यप्रदेश में भीमबेटका से हाथी पर चढ़ कर शिकार करने का पाषाणचित्र है (चित्र पर क्लिक करके बड़ा करके देख सकते हैं)।

इअन मौरिस की किताब का सार

मौरिस का मूलभूत विचार है कि जैसे-जैसे मानव समाज विकसित हुए, उनके ऊर्जा खोजने के साधन और उस ऊर्जा का उपयोग करने की शक्ति बदली, इस बदलाव से उनके समाजों की सरंचना और उनके मूल्य भी बदले।

इसमें ऊर्जा का अर्थ बहुमुखी है, यानि वह शारीरिक ऊर्जा (भोजन) से ले कर मानव के सब कामों में खर्च होने वाली ऊर्जा (यात्रा, तरह-तरह की मशीनें, संचार, रोशनी, इत्यादि) सबकी बात कर रहे हैं।

इस दृष्टि से वह आदि मानव से ले कर आज तक के समाजों को तीन प्रमुख हिस्सों में बाँटते हैं:

(१) आदिमानव के प्रारम्भिक हज़ारों सालों का समय जब मानव की ऊर्जा का स्रोत प्रकृति से भोजन इकट्ठा करना था, जैसे की जंगलों में होने वाले फ़ल, कंद, मूल, बीज, तथा पशु-पक्षियों के शिकार से मिला माँस-मछली आदि। इस समय में ऊर्जा का स्तर बहुत कम था, मानव छोटे गुटों में रहते थे और हर गुट को भोजन खोजने के लिए विस्तृत क्षेत्र की आवश्यकता होती थी, इसलिए दूसरों गुटों का आप के क्षेत्र में अतिक्रमण स्वीकार नहीं किया जा सकता था, जिसकी वजह से गुटों के बीच में हिँसा आम थी।

छिनहम्पेरे, मोज़ाम्बीक में शिकार करने का पाषाणचित्र, तस्वीरकार सुनील दीपक

चूँकि ज़मीन-जँगल किसी एक की निजि जयदाद नहीं होते थे, सामाजिक व आर्थिक स्तर पर गुटों के बीच समानता अधिक थी और विषमताएँ कम। चूँकि गुट एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते थे, इसलिए अधिक सामान को ले कर घूमना कठिन था, और निजि सम्पत्ति नहीं होती थी। छोटे बच्चों को खिलाना-पिलाना और उन्हें साथ ले कर घूमना भी कठिन होता था इसलिए बच्चे कम होते थे। अधिकांश लोग लम्बा नहीं जीते थे और चूँकि पुरुष अपने वारिस बच्चों के लिए कुछ विषेश नहीं छोड सकते थे, अपने बच्चे होना उतना महत्वपूर्ण नहीं था, इसलिए स्त्री-पुरुष दोनों में एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान होना ज़रूरी नहीं था, दोनों अपने साथी बदल सकते थे। ऊपर के चित्र में मोज़ाम्बीक में छिनहम्पेरे से शिकारियों का आदिकाल का पाषाणचित्र है (चित्र पर क्लिक करके बड़ा करके देख सकते हैं)।

(२) दस से सात हज़ार पहले का समय जब कृषि का विकास हुआ, तो समाज में बदलाव आये। एक ओर मानव ने पौधों को उगाना और उनके बीज चुन कर विषेश तरह के पौधों को बढ़ावा देना सीखा और दूसरी ओर, पशुओं को पालतू बनाना और विभिन्न कामों के लिए विषेश तरह के पशुओं को चुन कर उन्हें बढ़ावा देना सीखा। इससे दो तरह के समाज निकले - एक कृषि-प्रधान और दूसरे पशु-पालन प्रधान। कृषि प्रधान को ज़मीन की सीमाएँ निर्धारित करनी थीं ताकि उसकी उपज को कोई नष्ट न करे, और पशु-पालन प्रधान लोगों को खुली जमीन चाहिये थी ताकि पशु जहाँ चाहें वहाँ चर सकें, इसलिए दोनों गुटों में संघर्ष भी हुए। बहुत जगहों पर, समय के साथ अक्सर यह दोनों गुट मिल कर एक ही हो गये, जो कृषि करते थे, वही सीमित मात्रा में पशु भी पालते थे।

इस बदलाव के साथ समाज में ऊर्जा का स्तर बढ़ा, लोग एक जगह पर रहने लगे और समाज बदले। मानव गुटों के लिए भोजन की मात्रा बढ़ी, जनसंख्या बढ़ी, नये कार्यक्षेत्र बने जैसे पशुओं को चराने वाले, खुरों में नाल लगाने वाले, अनाज बेचने वाले, आदि। समय के साथ, नये शहर बने, राज्य बने, उनके राजा, अधिकारी बने।

खेतों में काम करने के लिए अधिक लोग चाहिये थे, इसलिए औरतों से घर में रहने, बच्चे पैदा करने और घर के काम करने के लिए कहा गया। ज़मीन और सम्पत्ति हुई, तो वारिस छोड़ना और अपने खून वाले वारिस होने का महत्व बढ़ा तो स्त्री-पुरुष के विवाह होना, एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान होने का महत्व बढ़ा। समाज में विषमताएँ बढ़ीं और हिंसा के नई मौके बने। सैना रखना, युद्ध करना, साम्राज्य बनाना जैसी बातें होने लगीं। 

(३) पिछले कुछ सौ सालों में ज़मीन में दबे ऊर्जा स्रोतों को निकालने और मशीनी युग के साथ मानवता का ऊर्जा स्तर बहुत अधिक बढ़ गया है और बढ़ता ही जा रहा है। आने वाले समय में कृत्रिम बुद्धि, अतिसूक्ष्म नैनो-तकनीकी, रोबोट-तकनीकी, स्वचलित वाहन, हाइड्रोजन शक्ति, परमाणू शक्ति, सूर्य-शक्ति, पवन शक्ति, आदि से ऊर्जा के स्तर जब इतने बढ़ जायेंगे तो उनका मानव समाजों पर क्या असर होगा?

इस वजह से अमरीका, यूरोप आदि के विकसित देशों में कई दशकों से सामाजिक बदलाव आये हैं, जैसे कि पुरुषों और औरतों दोनों का नौकरी करना, शादी देर से करना या नहीं करना, बच्चे नहीं पैदा करना, युद्ध और हिंसा में कमी, भुखमरी और बीमारियों में कमी, मानव-अधिकारों के साथ जीव-अधिकारों की बातें, आदि। वैसे ही बदलाव अब चीन, भारत, वियतनाम, कोरिया आदि में भी आ रहे हैं, विषेशकर बड़े और मध्यम स्तर के शहरों में। इन बदलावों की वजह से विषमताएँ कम हो रही हैं, स्त्री-पुरुष के बीच भी विषमताएँ कम हो रहीं हैं, युद्ध से जुड़ी हिँसा कम हो रही है। साथ ही आज व्यक्ति अधिक अकेले रह रहे हैं लेकिन साईबर जगत के माध्यम से उनकी वरच्यूअल बातचीत-सम्पर्क भी बढ़ रहे हैं।

यह बदलाव अभी चल रहा है, पूरा नहीं हुआ है। कृषि-प्रधान जीवन से आधुनिक जीवन का बदलाव भिन्न परिस्थितों में पारम्परिक तथा आधुनिक के बीच में टैन्शन बना रहा है।  यह बदलाव भविष्य में हमें किन नयी दिशाओं की ओर ले कर जायेंगे?

भारत की पौराणिक कहानियों में यह बदलाव

कुछ दिन पहले मनु पिल्लाई (Manu Pillai) की नयी किताब (Gods, Guns and Missionaries) के बारे में एक पॉडकास्ट सुन रहा था। उन्होंने कहा कि हमारे पौराणों में वेदों-उपनिषदों के विचारों का सारे भारत में फ़ैलने का दो हज़ार साल पहले  का इतिहास लिखा है। यानि, भारत के विभिन्न स्थानों पर वेदों-उपनिषदों के विचार, किस तरह से लोगों के स्थानीय विचारों से मिले और उनमें समन्वित हो कर वह धर्म बना जिसे आज लोग हिंदु धर्म कहते हैं।

यह सुन कर मेरे मन में प्रश्न उठा कि वेद-उपनिषद के ज्ञान को सबसे पहले सोचने वाले लोग कौन थे? क्या हमारे ऋषी-मुनि, वह जंगलों में फ़ल-कंद-मूल-बीज खोजने और शिकार करने वाले छोटे गुट में रहने वाले लोग थे? या वह पशु-पालक प्रधान लोगों का हिस्सा थे? या वे कृषि प्रधान लोगों से जुड़े थे? इन ग्रंथों को लिखा बाद में गया, क्योंकि लिखाई का आविष्कार बहुत बाद में हुआ लेकिन इनकी सोच बनाने के समय किस तरह का समाज था? आप की क्या राय है?

फ़िर मन में देवदत्त पटनायक का एक आलेख याद आया जिसमें उन्होंने परशुराम की कहानी लिखी थी। इस कथानुसार, परशुराम ने सभी क्षत्रियों को मार दिया, केवल माँओं के गर्भों में बचे क्षत्रिय बालक बच गये। बाद में इन बचे हुए क्षत्रियों की विभिन्न जातियों ने शस्त्र त्याग कर दूसरे काम अपनाये। खत्री वाणिज्य में चले गये, जाट गौ पालन और पशु पालन में, कायस्थ लेखन में, आदि।

इसे पढ़ कर मुझे लगा कि शायद कहानी प्राचीन जंगलों में रहने वाले लोगों से, जिनमें अधिकतर पुरुष शिकारी और कुछ पुरोहित होते थे जब पशु-पालन और कृषि विकास के बाद शहर बने, उन पहले शहरों के जीवन के बदलाव की बात कर रही है, जहाँ जीवन यापन के नये-नये व्यवसाय निकलने लगे थे, और पहले जो शिकारी थे, उन्हें नये काम सीखने पड़े।    

अंत में

अधिकतर इतिहासकार पिछले हज़ार-दो हज़ार सालों के साम्राज्यों, युद्धों के इतिहास लिखते हैं और पुरातत्व विशेषज्ञ इतिहास पूर्व के आदिमानव की बात करते हैं।

लेकिन कुछ इतिहासकार मानवता के प्रारम्भ से आज तक की विहंगम स्थिति को समझने की कोशिश करते हैं, उन्हें पढ़ना मुझे अच्छा लगता है। इअन मौरिस की तरह मुझे जारेड डायमण्ड (Jared Diamond) और युवाल नोह हरारी (Yuval Noah Harari) जैसे इतिहासकारों की किताबें भी अच्छी लगती हैं।

उनकी हर बात से सहमत होना आवश्यक नहीं, लेकिन उनसे सोचने की नयी दिशाएँ खुल जाती हैं। 

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सोमवार, अप्रैल 15, 2024

कौन बनेगी जूलियट

मई २०२४ में लंदन की एक प्रसिद्ध नाटक कम्पनी का नया म्यूज़िकल आ रहा है, "रोमियो और जूलियट", जिसकी आजकल कुछ नकारात्मक चर्चा हो रही है क्योंकि इसमें जूलियट का भाग निभा रहीं हैं अफ्रीकी मूल की अभिनेत्री फ्राँसेसका अमेवूडाह-रिवर।

इस बहस के दो पक्ष हैं। पहली बात है कि दुनिया में जातिभेद, नस्लभेद, रंगभेद के संकीर्ण विचार रखने वालों की कमी नहीं, अक्सर इनका काम गाली दे कर या खिल्ली उड़ा कर लोगों को अपमानित करना है। सोशल मीडिया में ऐसे सज्जनों की बहुतायत है, एक खोजिये, तो हज़ार मिलते हैं। यह लोग आजकल सुश्री अमेवूडाह-रिवर को गालियाँ देने में व्यस्त हैं।

दूसरी बात है वोक-संस्कृति की, जो जातिभेद, नस्लभेद व रंगभेद आदि से लड़ने के नाम पर स्वयं को सबसे अधिक पीड़ित दिखा कर उसके बदले में अपना अधिपत्य जमाने के चक्कर में है।

रोमियो-जूलियट नाटक की बहस

रोमियो और जूलियट की कहानी, अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपियर ने तेहरवीं शताब्दी की उत्तर-पूर्वी इटली के वेरोना शहर में दिखायी थी। आलोचक कह रहे हैं कि उस समय इटली में अफ्रीकी प्रवासी नहीं रहते थे, इसलिए इस भाग के लिए अफ्रीकी युवती को लेना गलत है। मेरे विचार में यह बहस त्वचा के रंग की है, अगर यह भाग दक्षिण अफ्रीका की कोई गोरी त्वचा वाली युवती निभाती तो यह चर्चा नहीं होती।

रोमियो और जूलियट, शिल्पकला, न्यू योर्क, अमरीका, तस्वीरकार डॉ. सुनील दीपक

अमरीका तथा यूरोप में फ़िल्मों तथा नाटकों की दुनिया में कुछ लोगों ने ऐसी नीति बनायी है जिसे "क्लर-ब्लाइंड" (रंग-न देखो) कहते हैं, यानि त्वचा के रंग को नहीं देखते हुए पात्रों के लिए अभिनेता और अभिनेत्रियों को चुना जाये। इसका ध्येय है कि हर तरह के लोगों को नाटकों और फ़िल्मों में काम करने का मौका मिले, चाहे वह एतिहासिक दृष्टि से और नाटक/कहानी के लेखन की दृष्टि से गलत हो।

इटली के प्रमुख अखबार "कोरिएरे दैल्ला सेरा" में जाने-माने इतालवी लेखक मासिमो ग्रैम्लीनी ने इस बात पर "जूलियट की ओर से एक पत्र" लिखा है जिसमें कहा हैः 

"यह भाग श्याम-वर्ण की अभिनेत्री को दिया गया है क्योंकि हम चाहते हैं कि हम सब तरह के लोगों को स्वीकार करें, किसी को उसकी त्वचा के रंग की वजह से अस्वीकृति नहीं मिलनी चाहिये, किसी को बुरा नहीं लगना चाहिये कि हमारी नस्ल या वर्ण की वजह से हमें सबके बराबर नहीं समझा जाता। यह भावना सही है।

लेकिन जब आप यह करते हो आप मुझे, यानि वेरोना की जूलियट को, अस्वीकार कर रहे हो। मैं वैसी नहीं थी और चौदहवीं शताब्दी के वेरोना शहर में श्याम वर्ण की युवतियाँ नहीं थीं। क्या इस बहस में मेरी भावनाओं की बात भी की जायेगी?

मुझे भी अच्छा लगेगा कि एक प्रेम कहानी में श्याम वर्ण की युवती नायिका हो, लेकिन उसके लिए आप एक नयी कहानी लिखिये, इसके लिए आप को मेरी पुरानी कहानी ही क्यों चाहिये?"

इतिहास को झुठलाना?

जब रोमियो-जूलियट नाटक की यह चर्चा सुनी तो मुझे एक अन्य बात याद आ गयी। पिछले वर्ष, २०२२-२३ में, नेटफ्लिक्स पर एक सीरियल आया था "ब्रिजर्टन", उसमें मध्ययुगीन ईंग्लैंड के नवाबी परिवारों की प्रेमकहानियाँ थीं, जिनमें ईंग्लैंड की रानी और एक नवाब के भाग अफ्रीकी मूल के अभिनेताओं ने और राजकुमारी का भाग एक भारतीय मूल की युवती ने निभाये थे। यह सीरियल बहुत हिट हुआ था और उसके लिए भी यही बात कही गयी थी कि नस्ल भेद और वर्ण भेद से ऊपर उठने के लिए इस तरह के अभिनेता-अभिनेत्रियाँ चुनना आवश्यक है।

उस ब्रिजर्टन सीरियल को देखते समय मेरे मन में एक विचार आया था, कि उसमें जिस समय के ईंग्लैंड में यह श्याम वर्ण वाले पात्र - रानी, राजकुमार और राजकुमारियाँ दिखा रहे हैं, सचमुच के ईंग्लैंड में उनके साथ उस समय क्या होता था? तब ऐसे लोगों को जहाज़ों में पशुओं की तरह भर कर भारत और अफ्रीका के विभिन्न देशों से गुलाम बना कर दूर देशों में ले जाते थे, और उस समय के अंग्रेजी क्ल्बों के गेट पर लिखा होता था कि कुत्तों और कुलियों को भीतर आने से मनाही है। अगर आज हम उस इतिहास को उलट कर नई काल्पनिक दुनिया बना रहे हैं जिसमें उस ज़माने में कोई भेदभाव नहीं था, विभिन्न देशों, जातियों, वर्णों के लोग एक साथ प्रेम से रहते थे, तो क्या हम अपने इतिहास पर सफेदी पोत कर उसे झूठा नहीं बना रहे हैं? जिन लोगों से उनके घर और देश छुड़ा कर, दूर देशों में ले जा कर, यूरोप के साम्राज्यवादी मालिकों ने उनसे दिन-रात खेतो और फैक्टरियों में जानवरों से भी बदतर व्यवहार किये, क्या यह सीरियल उनके शोषण को झुठला नहीं रहे हैं?

वोक जगत यानि ज़रूरत से अधिक "जागृत" जगत

भेदभाव से लड़ने वाले अतिजागृत योद्धा "शोषण करने वालों" को और उनके समाज को बदलने के लिए नयी रणनीतियाँ बना रहे हैं। अमरीकी व यूरोपी फ़िल्मों और नाटकों आदि में श्याम वर्ण या गैर-यूरोपी लोगों को प्रमुख भाग मिलने चाहिये की मांग इस रणनीति का एक हिस्सा है। ऐसे लोगों के लिए अंग्रेज़ी में "वोक" (woke) शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।

इसके अन्य भी बहुत से उदाहरण हैं। जैसे कि यह वोक-रणनीति कहती है कि अगर आप का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है तो आप को फ़िल्म या नाटक में ऐसे व्यक्तियों के भाग नहीं मिलने चाहिये। यानि अगर कोई भाग अंतरलैंगिक या समलैंगिक व्यक्ति का है तो उसे अंतरलैंगिक या समलैंगिक अभिनेता/अभिनेत्री ही करे, अगर दलित का रोल है तो उसे दलित व्यक्ति ही करे।

इसका यह अर्थ भी है कि लेखक या कवि के रूप में आप को उस विषय पर नहीं लिखना चाहिये, जिसमें आप का व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। अगर आप किसी सभ्यता/संस्कृति में नहीं जन्में तो आप को वहाँ के वस्त्र नहीं पहनने चाहिये, वहाँ का खाना बनाने की बात नहीं करनी चाहिये, आदि। यानि अगर आप अफ्रीकी नहीं हैं तो आप को अफ्रीकी नायक या नायिका वाला उपन्यास नहीं लिखना चाहिये। अगर आप दलित नहीं तो दलित विषय पर नहीं लिखिये, अगर आप वंचित वर्ग से नहीं तो वंचितों पर मत लिखिये। वोक-धर्म में शब्दों की भी पाबंदी है, कुछ शब्द जायज़ हैं, कुछ वर्जित।

मानव अधिकारों की बात करने वाले "वोक योद्धा", लोगों की सामूहिक पहचान को प्राथमिकता देते हैं, वह लोग व्यक्तिगत स्तर पर क्या हैं, इसको नहीं देखना चाहते। यानि अगर आप अफ्रीकी मूल के हैं या तथाकथित निम्न जाति से हैं या श्याम वर्णी हैं तो आप शोषित ही माने जायेंगे चाहे आप अपने देश के राष्ट्रपति या करोड़पति भी बन जाईये। इसका अर्थ यह भी है कि अगर आप गौरवर्ण के या उच्च जाति के हैं, तो आप सड़क पर भीख भी मांग लो फ़िर भी आप ही शोषणकर्ता हो और रहोगे।

आप के पासपोर्ट पर भी निर्भर करता है कि आप शोषित हैं या नहीं। मैं एक नाईजीरिया की लेखिका का साक्षात्कार पढ़ रहा था, वह अपने अमरीकावास के बारे में कह रहीं थीं कि अगर आप अभी अफ्रीका से आयें हैं तो अमरीकी वोक-बौद्धिकों के लिए आप कम शोषित हैं जबकि अमरीका में पैदा होनॆ वाले अफ्रीकी मूल के लोग सच्चे शोषित हैं क्योंकि उनके पूर्वजों को गुलाम बना कर लाया गया था।

"मैं शोषित वर्ग का हूँ" कह कर अमरीका और यूरोप में "वोक" संगठनों में नेता बने हुए कुछ लोग हैं, जो अपने दुखभरे जीवनों के कष्टों की दर्दभरी कहानियाँ बढ़ा-चढ़ा कर सुनाने में माहिर हैं। वे उन लोगों के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं जो भारत, अफ्रीका के देशों और अन्य अविकसित क्षेत्रों में रहने वाले असली शोषित हैं। एक ओर वंचित वर्ग के लोग अपनी मेहनत और श्रम से अपनी और अपने समाजों की परिस्थियाँ बदल रहे हैं, दूसरी ओर अमरीका और यूरोप के एकादमी में अच्छी नौकरियाँ करने वाले या पढ़ने वाले वोक-यौद्धा उनके सच्चे प्रतिनिधि होने का दावा करके उसके लाभ पाना चाहते हैं।

मुझे लगता है कि हमारी सामूहिक पहचान को सर्वोपरी मानने का अर्थ है स्वयं को केवल पीड़ित और सताया हुआ देखना, इससे हमें समाज की गलतियों से लड़ने और उसे बदलने की शक्ति नहीं मिलती। वोक-विचारधारा हमसे हमारी मानवता को छीन कर कमज़ोर करती है, यह हमारी सोचने-समझने-कोशिश करने की हमारी शक्ति छीनती है।

मंगलवार, मार्च 05, 2024

१८५७ एवं भारत के लोकगीत

अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जब तक भारत के अधिकांश लोग अनपढ़ थे, तब तक लोकगीतों के माध्यम से ही धर्म और इतिहास की बातें जनसाधारण तक पहुँचती थीं। पिछले कुछ दशकों में, नई तकनीकी व नये संचार माध्यमों के साथ-साथ साक्षरता भी बढ़ी है, इसलिए लोकगीतों के महत्व में बदलाव आया है।

इस आलेख में उत्तरी भारत की लुप्त होती हुई लोक-गीत परम्परा की कुछ चर्चा है, विषेशकर १८५७ के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध हुए विद्रोह-युद्ध से जुड़े हुए लोकगीतों की बातें हैं।

यह आलेख राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा की सन् १९९७ की फिल्म "१८५७ के लोकगीत" पर आधारित है। अरुण ने इस फिल्म को भारत की स्वतंत्रता की पच्चासवीं वर्षगांठ के संदर्भ में बनाया था। इस फिल्म की अधिकतर शूटिन्ग राजस्थान, उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश के बुंदेलखंडी क्षेत्रों तथा बिहार में की गई थी और इसे दूरदर्शन पर दिखाया गया था। 

इस फिल्म को बनाने में बुंदेलखंडी लोक संस्कृति के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त (१९३१-२००३) और राजस्थानी लोगसंगीत के विशेषज्ञ पद्मश्री कोमल कोठारी (१९२९-२००४) ने विषेश योगदान दिया था - नीचे के इस पहले वीडियो में कोमल कोठारी जी फिल्म के महत्व के बारे में बताते हैं:

यह लोकगीत खड़ी बोली, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, मगही, भोजपुरी, उर्दू तथा अन्य स्थानीय भाषाओं में गाये जाते थे। इस तरह की कुछ कविताएँ और १८५७ के लोकगीतों से सम्बंधित अन्य जानकारी, आप को डॉ. सुरेन्द्र सिंह पोखरण की वैबसाईट "क्रांति १८५७", सुनील कुमार यादव का आलेख,  समालोचन पर मैनेजर पाण्डेय का आलेख, डॉ. महिपाल सिंह राठौड़ का आलेख, आदि में भी मिल सकती है।

मेरा यह आलेख उपरोक्त आलेखों से थोड़ा सा भिन्न है क्योंकि इसमें आप अरुण चढ़्ढ़ा की फिल्म से ऐसे ही कुछ गीतों के अंशों को सुन भी सकते हैं और पुराने लोकगीतों की भाषा का अनुभव कर सकते हैं। (इसके अतिरिक्त अरुण की एक अन्य फ़िल्म है जिसमें उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, हिंदी और अन्य उत्तर भारतीय भाषाओं की बात की थी, आप उसके बारे में भी पढ़ सकते हैं )

फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा से बातचीत

नवम्बर २०२२ में मैंने यह फिल्म देखी और अरुण से इसके बारे में जानकारी पूछी थी (नीचे तस्वीर में २०१२ में भारत के उपराष्ट्रपति से फिल्मकार श्री अरुण चढ़्ढ़ा को राष्ट्र पुरस्कार)।

अरुण चढ़्ढ़ा: "उत्तरी भारत में लोकगीत गाने की विभिन्न परम्पराएँ हैं, जिनमें १८५७ के समय पर गाये जाने वाले कुछ गीत आज से कुछ दशक पहले तक सुनने को मिल जाते थे। लेकिन तब भी गाँवों में रेडियो-टीवी-सिनेमा के आने से धीरे-धीरे लोकगायकी के मौके कम होने लगे थे और इनके गायक दूसरे काम खोजने लगे थे। मुझे लगा कि उनकी विभिन्न गायन शैलियों की जानकारी को सिनेमा के माध्यम से बचा कर रखना महत्वपूर्ण है। 

हमने एक बार खोज करनी शुरु की तो बहुत सी जानकारी मिली। जैसे कि बिहार में जगदीशपुर नाम की जगह पर राजा कुँवर सिंह थे, उनकी अंग्रेज़ों से लड़ाई के बारे में बहुत से गीत सुनने को मिले थे। हम लोग उनके गाँव में उनके परिवार के घर पर गये, वहाँ उनके पड़पोते ने अपने पूर्वज कुँवर सिंह की गाथा से जुड़े बहुत से गीतों को एक किताब में जमा किया था।

जैसा कि लोकगीतों में अक्सर होता है, यह कहना कठिन है कि इन लोकगीतों को कब लिखा गया और इन्हें किसने लिखा। अंग्रेज़ों को यह समझ नहीं आये कि इन गीतों में स्वतंत्रता तथा क्रांति की बाते हैं, उसके लिए भी तरीके खोजे गये, जैसे कि इन्हें फाग शैली में होली के समय गाना या बीच में "हर हर बम" जैसी पंक्ति जोड़ देना ताकि सुनने वाले को लगे कि यह शिव जी का भजन है।

मेरी फिल्म में पाराम्परिक लोकगायकों तथा उनके पाराम्परिक वाद्यों को देखा जा सकता है, जोकि धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं, क्योंकि अब वाद्य बनाने वाले और बजाने वाले, दोनों के पास आजकल टीवी और सिनेमा आदि की वजह से काम कम है। दिल्ली हाट और सूरजकुंड मेला जैसी जगहों से उन्हें कुछ काम मिल जाता है लेकिन जब उनके लोक संगीत का आज के जीवित लोक-जीवन से सम्पर्क टूट जाता है, तब उनके पुराने गीतों के शब्द भी खोने लगते हैं, क्योंकि यह गीत मौखिक याद किये जाते हैं, किसी कॉपी-किताब में नहीं लिखे जाते।"

फिल्म में राजस्थान के लोकगीत

फिल्म का पहला भाग राजस्थान के लोकगीतों पर केन्द्रित है। इस भाग में राजस्थान के प्रसिद्ध लोकसंगीत विशेषज्ञ पद्मभूषण-सम्मानित, श्री कोमल कोठारी (१९२९-२००४) ने सूत्रधार के रूप में इन लोकगीतों का परिचय दिया था। शास्त्रीय संगीत की तरह लोकगीतों की गायकी के भी विशिष्ठ शैलियाँ होती हैं और हर शैली के लिए सही लोक-गायक खोजना कठिन था, इस काम में श्री कमल कोठारी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था।

१८५७ में अंग्रेज़ों से विद्रोह करने वालों में राजस्थान के पाली जिले के आउवा गाँव के शासक ठाकुर कुशाल सिंह भी थे। उन्होंने सितम्बर १८५७ में दो बार अंग्रेज़ी फौज को हराया। जनवरी १८५८ में जब अंग्रेज़ों ने तीसरा हमला किया तब अपनी पराजय होती देख कर कुशाल सिंह अपने राज्य को अपने छोटे भाई को दे कर आउवा से चले गये। आउवा गाँव भिलवाड़ा और जोधपुर के बीच में पड़ता है।  फिल्म में दिखाये गये आउवा के गीत की कुछ शूटिन्ग आउवा गाँव में ठाकुर कुशाल सिंह की हवेली में की गई थी।

इस आउवा विद्रोह से जुड़े कई गीत अरुण की फिल्म के पहले भाग में मिलते हैं। इसी क्षेत्र में १८०८ में अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक ठाकुर का एक अन्य विद्रोह हो चुका था, कुछ गीतों में उस पहले विद्रोह का ज़िक्र भी है।

फिल्म में आउवा के बारे में एक फाग-गीत है जिसे लंगा घुम्मकड़ जाति के लोकगायकों ने लंगा शैली में गाया है (फाग केवल पुरुष गाते हैं लेकिन घुम्मकड़ जातियों में इन्हें औरतें भी गाती हैं।) यह गीत फरवरी-मार्च यानि फल्गुन के महीने में गाते हैं। नीचे के वीडियो में इस फिल्म से लंगा गायकी का छोटा सा नमूना प्रस्तुत है।


राजस्थान की पड़-गायकी में दो गायक बारी-बारी से प्रश्नोत्तर के अंदाज़ में गाते हैं और इनके पराम्परिक वाद्य को रावणहत्था कहते हैं (यानि उनके अनुसार यह वाद्य रावण के कटे हुए हाथ से बना है और रामायण काल से चला आ रहा है)। आजकल इस तरह के पाराम्परिक वाद्यों को बनाने तथा बजाने वाले दोनों कठिनाई से मिलते है। नीचे के वीडियो में पड़-गायकी का छोटा सा नमूना जिसे घुम्मकड़ जाति के गायक गा रहे हैं, इस गीत में किसी अंग्रेज़ छावनी पर हमले की बात है। इस वीडियो में आप रावणहत्था वाद्य को भी सुन सकते हैं।

१८५७ से जुड़े  कुछ लोकगीत राजस्थान की पाराम्परिक डिन्गल तथा पिन्गल शैली में थे, जिन्हें बाँकेदास जी और सूर्य बनवाले जैसे चारण कवियों ने लिखा था और इस फिल्म में डॉ. शक्तिदान कविया ने गाया था। डिन्गल भाषा व गायन शैली पश्चिमी राजस्थान में प्रचलित थी जबकि पिन्गल शैली पूर्वी राजस्थान में थी। नीचे वीडियो में शक्तिदान कविया की डिन्गल गायकी का छोटा सा नमूना है।

ऐसी ही एक अन्य शैली भरतपुर क्षेत्र में भी प्रचलित थी जिसमें चारण कवियों द्वारा लिखे फगुवा गीत होली के मौके पर गाये जाते थे। इन सभी गीतों और गाथाओं में कविताएँ और दोहों का प्रयोग होता है।

बुंदेलखंड और बिहार के लोकगीत

अरुण की फिल्म का दूसरा भाग अधिकतर बुंदेलखंड तथा बिहार में केन्द्रित है। इन गीतों में एक प्रमुख नाम था कुँवर सिंह का। इस फिल्म का कुँवर सिंह से जुड़ा एक हिस्सा बिहार में उनके गाँव जगदीशपुर में उनके घर में भी शूट किया गया था, जहाँ आज उनके वंशज रहते हैं।

बुंदेलखंड वाला हिस्सा झाँसी, टीकमगढ़, छत्तरपुर, बाँदा आदि क्षेत्रों में था लेकिन कानपुर तक जाता था। टीकमगढ़ में इस फिल्म में प्रसिद्ध ध्रुपद गायिका पद्मश्री असगरी बाई (१९१८-२००६), जो अपने समय में ओरछा की राजगायिका रह चुकी थीं, ने भी हिस्सा लिया था। फिल्म में वह लेद शैली में गाती हैं, लेद शैली की खासियत थी कि इसे शास्त्रीय तथा लोकगीत दोनों तरीकों से गा सकते हैं, जिसे वह जानती थीं। नीचे वाले वीडियो में इस फिल्म से सुश्री असगरी बाई की गायकी का छोटा सा नमूना।

इन लोकगीतों में १९४२ के बुंदेला विद्रोह से ले कर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानियाँ थीं।

मराठा राज्य के बाद जब बुंदेलखंड पर अंग्रेज़ों का राज हुआ तो उन्होंने राजस्व कर को बढ़ा दिया। १९३६ के बुढ़वा मंगल मेले में विद्रोह की बात शुरु हुई जिसमें जैतपुर के राजा परिछत (पारिछित या परीक्षित) द्वारा सागर की अंग्रेज़ छावनी पर हमला करने का निर्णय लिया गया था, जिसे बुंदेला विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इन लोकगीतों में उसी छावनी पर हमले की बात की गई है।

इन गीतों में हरबोलों द्वारा गाया राजा परिछित द्वारा छावनी पर हमले के गीत भी हैं जिनमें हर पंक्ति के बाद "हर हर बम" जोड दिया जाता है। बुंदेलखंड में लोकगीत गायकों ने यह "हर हर बम" जोड़ने का तरीका अपनाया था जिसकी वजह से लोग उन्हें "बुंदेली हरबोले" के नाम से जानने लगे थे। सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता "बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी", इन्हीं लोकगायकों की बात करती थी।

राजा परिछित की कहानी पर अरुण की फिल्म में एक गीत राजस्थानी पड़-गायकी से मिलती-जुलती बुंदेलखंड की सैर-गायकी शैली में भी है जिसमें दो लोग मिल कर गाते हैं। इस लोकगीत के लिए गायकों की खोज बहुत कठिन थी क्योंकि काम न होने से वे गायक अन्य कामों में लग गये थे। आखिरकार, एक गाँव से एक रंगरेज मिले थे, जिनके परिवार में यह गायकी होती थी जिसे वह भूले नहीं थे और वह इसे गाने के लिए तैयार हो गये थे। आज सैर-गायकी के गायक खोजना और भी कठिन होगा।

फिल्म में मूंज, लेघ, आदि शैलियों में भी लोकगीत हैं, शायद स्थानीय लोग इनकी बारीकियों को समझ सकते हैं। जैसे कि एक गीत में मसोबा की आल्हा शैली में रानी लक्ष्मीबाई के बारे में गाया गया है। 

अंत में

अरुण की इस फिल्म के दोनों भागों में उत्तर भारत की लोकगीत-शैलियों के इतने सारे नमूने मिलते हैं कि उनकी विविधता पर अचरज होता है, लेकिन सोचूँ तो लगता है कि यह फिल्म भारत के कुछ छोटे से हिस्सों की परम्पराओं को ही दिखाती हैं, बाकी भारत में जाने कितनी अन्य शैलियाँ थीं, जो लुप्त हो गईं या लुप्त हो रहीं होंगी। शायद सहपीडिया जैसी कोई संस्थाएँ हमारी इस सांस्कृतिक धरोहर को भविष्य के लिए संभाल कर रख रही हों, लेकिन वह संभाल भी संग्रहालय जैसी होगी, वे जीते-जागते लोक-जीवन और लोक-संस्कृति का हिस्सा नहीं होगीं।

नीचे के आखिरी वीडियो में कुँवर सिंह के बारे में एक भोजपुरी गीत का छोटा सा अंश है, जो मुझे बहुत अच्छा लगता है।


आज इंटरनेट पर नर्मदा प्रसाद गुप्त, कोमल कोठारी, शक्तिदान कविया, असगरी बाई जैसे लोगों की कोई रिकोर्डिन्ग नहीं उपलब्ध, कम से कम उस दृष्टि से अरुण की फिल्म में उनका कुछ परिचय मिलता है। मेरे विचार में ऐसी फिल्मों में भारत की सांस्कृतिक धरोहर का इतिहास है इसलिए दूरदर्शन को ऐसी फिल्मों को इंटरनेट पर उपलब्ध करना चाहिये।

इसके अतिरिक्त अरुण की एक अन्य फ़िल्म है जिसमें संस्कृत, पालि, पाकृत, हिंदी, और उत्तर भारतीय भाषओ-बोलियों के जन्म की बात की गई है, आप उसके बारे में भी इसी ब्लॉग में एक अन्य आलेख में पढ़ सकते हैं - जिस तरह हम बोलते हैं (इसमें भी फ़िल्म के कुछ वीडियो-क्लिप देख भी सकते हैं)।

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शुक्रवार, जुलाई 29, 2022

इटली की वाईन संस्कृति

मेरे इस आलेख का शीर्षक पढ़ कर शायद आप सोच रहे होगे कि शराब का संस्कृति से क्या लेना देना, शराब तो संस्कृति के विनाश का प्रतीक है? आज के भारत में एक ओर से शहरों में रहने वालों में शराब पीने वालों में वृद्धि हुई है। दूसरी और से "शराब बुरी चीज़ है", शराबबँदी होनी चाहिये जैसी सोच वाले लोग भी हैं और बिहार तथा गुजरात में शराब पीना गैरकानूनी है।



खैर, इस आलेख में भारत की बात कम है, बल्कि इटली तथा दक्षिण यूरोप की वाईन पीने की संस्कृति की बात है।

कल रात की बात

कल रात को हम लोग कुछ मित्रों के साथ तरबूज खाने गये। हमारे घर से करीब तीन किलोमीटर दूर एक छोटा सा गाँव है जहाँ के लोग मिल कर हर साल गर्मियों में तरबूज-समारोह आयोजित करते हैं जिसे "अँगूरियारा" कहते हैं। इस समारोह में आप खेतों के बीच में बैठ कर संगीत सुन सकते हैं, नाच सकते हैं और तरबूज, सैंडविच, तले आलू जैसी चीज़ें खा सकते हैं।

इसका सारा काम गाँव वाले लोग स्वयंसेवक की तरह बिना पगार लिये करते हैं। यह दो महीने चलता है, हर सप्ताह में दो या तीन दिन, शाम को आठ बजे से रात के ग्यारह बजे तक। इससे जो भी कमाई होती है, वह सारा पैसा गाँव के स्कूल, स्वास्थ्य क्लिनिक आदि के लिए सामान खरीदने के काम आता है। इस फेस्टिवल को उस गाँव के चर्च के पादरी ने शुरु करवाया था और अभी भी वह स्वयं अन्य स्वंयसेवकों के साथ बीच में काम करते दिख जाते हैं।  

कल रात वहाँ करीब पाँच सौ आदमी जमा थे, उनमें बच्चे, जवान, प्रौढ़, बूढ़े, सभी तरह के लोग थे। बहुत से लोग साथ में वाईन या बियर भी पी रहे थे। हम लोग वहाँ रात को देर तक रुके लेकिन उनमें से एक भी व्यक्ति नहीं दिखा जो शराब के नशे में लड़खड़ा रहा हो या किसी ने किसी लड़की या युवती से बद्तमीज़ी की हो। अधिकतर लोगों ने एक गिलास वाईन या बियर ली थी।

तब सोचा कि ऐसा समारोह अगर भारत में हो तो वहाँ गाँव में खेत में बैठ कर खुलेआम वाईन या बियर पीने ही नहीं दिया जायेगा। भारत में जिन समारोहों में शराब चलती है, जैसे कि विवाह या कोई पार्टी, तो वहाँ विभिन्न उम्र के बच्चे, लड़कियाँ, युवतियाँ नहीं मिलेंगी। साथ ही, अक्सर ऐसे मौकों पर कुछ लोग इतनी पी लेते हैं कि उनके होश काबू में नहीं रहते। कुछ लोग नशे में लड़कियों-युवतियों से छेड़खानी करने लगते हैं और कुछ लोगों को आसानी से गुस्सा आ जाता है, वह आपस में लड़ने लगते हैं।

यह सब सोच कर इटली की वाईन और शराब से जुड़ी संस्कृति की बात मेरे दिमाग में आयी।

प्राचीन समाजों में नशे की परम्पराएँ

एन्थ्रोपोलोजिस्ट (मानव समूहों के विशेषज्ञ) कहते हैं कि लाखों साल पहले से आदिमानवों के पुरखों ने नशा देने वाले पदार्थों को पहचाना और अपनी संस्कृतियों में इनको विषेश महत्व दिये।

वैज्ञानिकों के शोध ने दिखाया है कि मानव ही नहीं, पशु, पक्षी और यहाँ तक कि कीड़े मकोड़ों को भी नशा देने वाले पदार्थ अच्छे लगते हैं। अधिक पके और गले हुए फ़लों में प्राकृतिक शराब बन जाती है, जिनको खा कर पशु और पक्षी ही नहीं, उन फ़लों पर बैठने वाली मक्खियाँ और कीड़े भी नशे में लड़खड़ाने लगते हैं।

मध्य व दक्षिण अमरीकी जनजातियों के पाराम्परिक पुजारी और चिकित्सक शराब के साथ साथ, आयाहुआस्का, कोका तथा अन्य नशीले पदार्थों वाले पौधों को पहचानते थे और उनका नियमित उपयोग करते थे। दक्षिण अफ्रीका में एक शोध ने तीन सौ से अधिक पौधों के बारे में जानकारी एकत्रित की जिन्हें उनके पाराम्परिक चिकित्सक बीमारियों के इलाज में उपयोग करते थे और पाया कि उनमें बहुत से पौधे नशीले पदार्थ वाले थे।

भारत के प्राचीन ग्रंथों वेदों में सोम रस के उपयोग की बातें थीं जबकि सदियों से हमारे ऋषियों और साधुओं ने भाँग तथा चरस जैसे पदार्थों का भगवान की खोज या समझ बढ़ाने के लिए उपयोग किया है। समकालीन भारत के छोटे शहरों और गाँवों में पान मसाला, सुर्ती, पान, ज़र्दा, भाँग, चरस, ताड़ी, देसी शराब जैसे नशीले पदार्थों का सेवन आम बात है।

पाराम्परिक तथा आदिवासी जन समूहों में इन नशीले पदार्थों में शराब का विषेश स्थान रहा है। लगभग हर देश व प्राँत में अपने विषेश तरीके से शराब बनाने की परम्पराएँ रहीं हैं।

यूरोप की वाईन परम्परा

दक्षिण-पश्चिमी यूरोप के देशों में अँगूरों से वाईन बनाने की परम्परा बहुत पुरानी है। यह परम्परा में इटली और फ्राँस में विशेष रूप से विकसित हुई। दुनिया के जिन कोनों में इटली और फ्राँस के प्रवासी गये, वह इस परम्परा को अपने साथ ले गये। इन में हर देश की अपनी वाईन संस्कृति है।

मध्य इटली में दो हज़ार साल पहले रोमन समय का जीवन पोम्पेई में एक ज्वालामुखी के फटने से राख में कैद हो गया था। वहाँ के घरों में और होटलों में वाईन पीने के दृश्य उनकी दीवारों पर बनी तस्वीरों में दिखते हैं और वाईन रखने के बड़े मर्तबानों से इसका महत्व समझ में आता है।

ईसाई धर्म का प्रारम्भ मध्य एशिया में जेरूसल्म में हुआ लेकिन उनके पैगम्बर ईसा मसीह की मृत्यु के बाद उनके सबसे महत्वपूर्ण अनुयायी, जैसे कि सैंट पीटर और सैंट पॉल, इटली में रोमन साम्राज्य में रहने आये और उनका धर्म रोम से पूरे यूरोप में फैला। उनके धार्मिक अनुष्ठानों में वाईन को विषेश स्थान दिया गया और आज भी कैथोलिक गिरजाघरों में पादरी पूजा के समय वाईन पीते हैं।

इटली की वाईन संस्कृति

इटली और फ्राँस, इन दोनों देशों में कोई ऐसा जिला, उपजिला और गाँव मिलना कठिन है जहाँ अपने स्थानीय अंगूरों से वाईन बनाने की परम्परा न हो।

उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारे छोटे से शहर में, जिसमें आप किसी भी दिशा में निकल जाईये, तीन या चार किलोमीटर से कम दूरी में आप शहर की सीमा के बाहर निकल आयेंगे और वहाँ खेत शुरु हो जायेगे जिनमें हर तरफ़ अंगूरों की खेती होती है। यहाँ लोगों में "हमारे अंगूर, हमारी वाईन" के प्रति बहुत गर्व होता है और अक्सर लोग आपस में बहस करते कि इस साल किसकी वाईन बेहतर हुई है।

हमारे शहर के आसपास कम से सात या आठ किस्म की वाईन बनती हैं। बहुत सारे लोगों के घरों में अपनी वाईन को बनाया जाता है। सबके घरों में बेसमैंट में वाईन की बोतलों को सही तापमान और उमस के साथ संभाल कर रखा जाता है और अधिकाँश लोग एक या दो गिलास वाईन को खाने के साथ पीते हैं।

उत्तरपूर्वी इटली में दो तरह की अंगूर की शराब बनती है। पहली तो है वाईन जिसमें शराब यानि इथोनोल की मात्रा सात से ग्यारह प्रतिशत की होती है। फ्रागोलीनो यानि कच्ची वाईन में फ़लों का स्वाद अधिक महसूस होता है, उनमें इथोनोल की मात्रा कम (तीन या चार प्रतिशत) होती है, लेकिन फ्रागोलीनो वाईन केवल अक्टूबर या नवम्बर में मिलती है, जब अंगूर इकट्ठे किये जाते हैं और वाइन बनाना शुरु करते हैं।

यहाँ की दूसरी शराब को ग्रापा कहते हैं जिसमें इथोनोल की मात्रा अठारह से तीस प्रतिशत के आसपास होती है। ग्रापा को अक्सर बूढ़े लोग अधिक पीते हैं या लोग पार्टियों में पीते हैं। ग्रापा में चैरी, स्ट्राबेरी, शहतूत जैसे फ़लों को डाल कर या उनमें जड़ी-बूटियाँ भिगो कर रखते हैं, इस तरह के विषेश ग्रापा को "डाईजेस्टिव" (पचाने वाले) कहते हैं और अक्सर जब मेहमान हों तो उन्हें खाना समाप्त करने के बाद इसे छोटे गिलासों में पीया जाता है।

हमारा पहाड़ी इलाका है। आज से तीस-चालीस साल पहले तक पहाड़ी गाँवों में वाईन में डुबो कर रोटी को खाना या छोटे बच्चों को थोड़ी सी वाईन पिला कर शांत करवाना, सामान्य माना जाता था। आजकल ऐसा नहीं होता। पहले गाँव वाले लोग समझते थे कि लाल वाईन पीने से  खून बनता है और छोटे बच्चों को एक या दो घूँट लाल वाईन पिलाने को अच्छा माना जाता था। जबकि आजकल लोग जानते हैं कि वाईन के इथोनोल को जिगर में पचाया जाता है और पंद्रह-सोलह साल की आयु तक बच्चों के जिगर में यह पचायन शक्ति नहीं होती इसलिए उनको शराब देने से उनके जिगर खराब हो सकते हैं। इटली के कानून के अनुसार, अठारह साल से छोटे बच्चों को शराब नहीं बेची जा सकती, लेकिन घरों में अक्सर सोलह-सतरह साल के होते होते, बच्चों को थोड़ी बहुत बियर या वाईन को पीने से मना नहीं किया जाता। 

इटली तथा भारत की शराब संस्कृति में अंतर


यहाँ अमीर, मध्यमवर्गी, गरीब, सभी वाईन पीते हैं, वाईन को बिल्कुल न पीने वाले लोग कम ही देखे हैं। यहाँ के अधिकतर लोग खाने के साथ आधा या एक या बहुत हो गया तो दो गिलास वाईन पी लेते हैं, लेकिन नशे में धुत व्यक्ति कोई विरले ही होते हैं।

एक जमाने में यहाँ अंगूर का ग्रापा अधिक पीया जाता था, लेकिन आजकल ग्रापा पीने वाले बहुत कम हो गये हैं, अधिकतर लोग ग्रापा को विशेष अवसरों पर ही पीते हैं। पहले यहाँ बियर पीने वाले बहुत कम होते थे, जबकि पिछले दशकों में यहाँ बियर पीने वाले बढ़े हैं।

अगर आप मुझसे पूछें कि इटली तथा भारत की शराब संस्कृति में क्या अंतर है तो मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा अंतर है शराब की मात्रा और उसको पीने का तरीका।

इटली में आप बच्चे होते हैं जब आप परिवार के लोगों को खाने के समय वाईन पीता देखते हैं। लोग अक्सर बच्चों को उँगली से या चम्मच से वाईन का टेस्ट करा देते हैं और कहते हैं कि जब तुम बड़े होगे तो तुम इसे पी सकते हो। थोड़ी सी वाईन पी कर लोग खुल जाते हैं, आसानी से बातें करते हैं, अधिक हँसते हैं या नृत्य करते हैं। इस तरह बच्चे बचपन से देखते हैं और सीखते हैं कि वाईन या बियर किस तरह से सीमित मात्रा में आनन्द के लिए पी जाती हैं, नशे में आने के लिए नहीं। बच्चों को वाईन या बियर चखने से रोका नहीं जाता, ताकि उनमें भीतर वह जिज्ञासा नहीं हो कि यह क्या चीज़ है जिसे घर वालों से छुपा कर करना है।

वाईन हर सुपरमार्किट में खुले आम मिलती है और सस्ती है, घर पर आम पीने वाली डिब्बे में बिकने वाली वाईन एक यूरो की भी मिलती है, जबकि दो या तीन यूरो में आप को अच्छी वाईन की बोतल मिल सकती है। इसे वह बच्चों को नहीं बेचते पर वाईन खरीदना, सब्जी या डबलरोटी खरीदने से भिन्न नहीं है। हर रेस्टोरैंट में, ढाबे में, सड़क के किनारे, लोग वाईन या बियर खरीद या पी सकते हैं, जहाँ लोग एक या दो गिलासों से ऊपर कम ही जाते हैं।

यहाँ पर ज्यादा पीने वालों में और नशे में धुत होने वालों में अधिकतर गरीब लोग, विषेशकर प्रवासी अधिक होते हैं। यह लोग अधिकतर अँधेरा होने के बाद बागों के कोनों में या बैंचों पर बैठे मिलते हैं।

जबकि भारत के मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग के घरों में विह्स्की जैसी अधिक नशे वाली शराब अधिक पी जाती हैं। वहाँ लोग खाने से पहले पीते हैं और कई पैग पीते हैं जिनमें व्हिस्की में पानी या सोडा मिलाते हैं। और वहाँ पीने का मतलब है कि पक्का नशा चढ़ना चाहिये। आधा या एक गिलास केवल आनन्द के लिए पीना जिससे नशा नहीं हो, यह भारत में कम होता है। भारत में लोग बियर भी पीते हैं तो कई बोतलें पी जाते हैं क्योंकि लोग सोचते हैं कि शराब पी और पूरा नशा नहीं हो तो क्या फायदा।

अंत में


मेरे विचार में इटली व फ्राँस में दो या तीन हज़ार सालों से वाईन पीने की परम्परा की वजह से यहाँ के लोग उसे जीवन का हिस्सा समझते हैं, अधिकाँश लोग पीते हैं लेकिन सीमित मात्रा में पीने को सामाजिक मान्यता मिली है। यहाँ शराब पीना आम है, नशे में धुत होने वाले कम हैं।



जबकि भारत की व्हिस्की की परम्परा अंग्रेज़ों से आयी है, उनकी संस्कृति प्रोटेस्टैंट ईसाई धर्म से प्रभावित है जिसमें शराब या वाईन पीने को पाप या बुरा काम माना गया है और इसे सामाजिक व पारिवारिक मान्यता नहीं मिली है, बल्कि यह छुप कर करने वाली चीज़ है। वहाँ वाईन और शराब सामान्य जीवन के अंग की तरह नहीं है और वहाँ का समाज इन्हें गंदी बातों की तरह से देखता है। शायद इसी लिए शुक्रवार और शनिवार की रात को लँडन में पबों तथा नाईटकल्बों के बाहर नशे में धुत, जिस तरह के उल्टियाँ करते हुए नवयुवक व नवयुवतियाँ दिखते हैं, वैसे इटली में कभी नहीं देखे। हालाँकि इटली के नाईटक्लबों में अन्य तरह के नशे करने वाले लोग लँडन जितने ही होंगे।

मुझे मालूम है कि पिछले दशकों में महाराष्ट्र तथा कर्णाटक में लोगों ने अंगूरों की खेती तथा वाईन बनाना शुरु किया है। भारत की वाईन पीने की संस्कृति कैसी है? भारत के ग्रामीण समाजों में या आदिवासी समाजों में जो स्थानीय शराबें बनायी जाती हैं, उनके साथ जुड़ी संस्कृति कैसी है और वह इटली या फ्राँस की वाईन संस्कृति से किस तरह से भिन्न है?

सोमवार, जुलाई 18, 2022

पानी रे पानी


ब्रह्माँड में जीवन तथा प्रकृति का किस तरह से विकास होता है और कैसे वह समय के साथ बदलते रहते हैं इसे डारविन की इवोल्यूशन की अवधारणा के माध्यम से समझ सकते हैं। इसके अनुसार दुनिया भर में कोई ऐसा मानव समूह नहीं है जिसे हरियाली तथा जल को देखना अच्छा नहीं लगता, क्योंकि जहाँ यह दोनों मिलते हैं वहाँ मानव जीवन को बढ़ने का मौका मिलता है।

शाम को जब मैं सैर के लिए निकलता हूँ तो मैं भी वही रास्ते चुनता हूँ जहाँ हरियाली और जल देखने को मिलें। आज आप दुनिया में कहीं भी रहें, अपने आसपास के बदलते हुए पर्यावरण से अनभिज्ञ नहीं रह सकते। इस बदलाव में बढ़ते तापमानों और जल से जुड़ी चिंताओं का विषेश स्थान है।


ऊपर वाली तस्वीर का सावन के जल से भरा हुआ तालाब भारत के छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से है।

नदी, नहर और खेती

उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारा छोटा सा शहर पहाड़ों से घिरा है और इसकी घाटी का नाम है ल्योग्रा। हमारे घर के पीछे, इस घाटी की प्रमुख नदी बहती है जिसका नाम भी ल्योग्रा ही है। इसे बरसाती नदी कहते हैं, क्योंकि अगर दो-तीन महीने बारिश नहीं हो तो इसमें पानी कम हो जाता है या बिल्कुल सूख जाता है। 

ल्योग्रा नदी के किनारे पेड़ों के नीचे बनी एक पगडँडी मेरी शाम की सैर करने की सबसे प्रिय जगह है। पहाड़ों से नीचे आती नदी पत्थरों से टकराती है और बीच-बीच में झरनों पर छलाँगे लगाती है, इसलिए किनारे पर चलते समय, नदी का गायन चलता रहता है, कभी द्रुत में, तो कभी मध्यम में।

इस साल पहली बार हुआ है कि हमारी नदी पिछले छह-सात महीनों से सूखी है। सर्दियों में बारिश कम हुई, जनवरी से मार्च के बीच में बिल्कुल नहीं हुई। उसके बाद, हर दस-पंद्रह दिनों में छिटपुट बारिश होती रही है, पर केवल दो-तीन बार ही खुल कर पानी बरसा है। जब बारिश आती है उस समय नदी में पानी आता है, जब रुकती है तो दो-तीन घँटों में वह पानी बह जाता है या सूख जाता है। नीचे की तस्वीर कुछ दिन पहले आयी बारिश के बाद की है जिसे मैंने अपनी शाम की सैर के दौरान खींचा था।



शहर में घुसने से पहले इस नदी से एक नहर निकलती है। जब बिजली नहीं थी, यहाँ की लकड़ी और आटे की मिलें, ऊन और कपड़े बुनने की फैक्टरियाँ सब कुछ इसी नहर के पानी से चलती थीं। आजकल नहर के पानी का अधिकतर उपयोग यहाँ के आसपास के किसान करते हैं।

घाटी के आसपास के पहाड़ों से छोटे नाले पानी को नदी की ओर लाते हैं। हर नाले पर छोटे छोटे बँद बने हैं, जिसमें लोहे के दरवाज़े हैं, जिन्हें नीचे कर दो तो वह पानी का बहाव रोक लेते हैं। पिछले महीनों की बारिशों से जो पानी आया है उसे नालों पर बने बँदों की सहायता से जमा किया जाता है, ताकि नहर से किसानों को खेती के लिए पानी मिलता रहे।

इटली के कई हिस्सों में इस साल बारिश कम होने से किसानों को बहुत नुक्सान हुआ है। बहुत सी जगहों पर पहले तो महीनों बारिश नहीं आयी, फ़िर अचानक एक दिन ऐसी बारिश आयी मानों कोई आकाश से बाल्टियाँ उड़ेल रहा हो, या साथ में मोटे ओले गिरे, तो जो बची खुची फसलें थी वह भी नष्ट हो गयीं।

मौसम बदल रहे हैं, यहाँ पहाड़ों के बीच भी गर्मी आने लगी है। आज से दस-बारह साल पहले तक यहाँ घरों में पँखे नहीं होते थे, अब कुछ घरों में एयरकन्डीशनर भी लग गये हैं। सबको डर है कि अगले दशक में यह सूखे और ऊँचे तापमान और भी बढ़ेंगे, स्थिति बिगड़ेगी।

प्रकृति का चक्र

शाम को जब सैर के लिए निकलता हूँ तो सूखी हुई नदी को देख कर दिल में धक्का सा लगता है। सोचता हूँ कि मछलियों के अलावा जो बतखें, सारस और अन्य पक्षी यहाँ नदी में रहते थे, वह कहाँ गये होंगे। अंत में सोचा कि अब इसकी जगह सैर की कोई अन्य जगह खोजी जाये।

इस तरह से इस साल, सूखे के बहाने, मैंने आसपास की बहुत सी नयी जगहें देखीं। इन नयी जगहों को देख कर समझ में आया कि मानव धरती के भूगोल को बदल रहा है, लेकिन प्रकृति धैर्य से वहीं ताक में बैठी रहती है और जैसे ही मानव विकास नयी ओर मुड़ता है, प्रकृति उस बदले भूगोल को फ़िर से दबोच कर अपने दामन में छुपा लेती है। कुछ दिन पहले ऐसा ही एक अनुभव हुआ।

नदी के दूसरी ओर के सबसे ऊँचे पहाड़ का नाम है मग्रे, जो कि करीब सात सौ मीटर ऊँचा है। उसकी चोटी हमारे यहाँ से करीब पाँच किलोमीटर दूर है, लेकिन इतनी चढ़ाई करना मेरे बस की बात नहीं, मैं आसपास की छोटी पहाड़ियों की ही सैर करने जाता हूँ।

कुछ दिन पहले मैं सैर को निकला तो बहुत सुंदर रास्ता था। कहीं खेतों में सूरजमुखी के बड़े बड़े फ़ूल लगे थे तो कहीं खेतों में किसानों ने सर्दियों में जानवरों को चारा देने के लिए भूसे को गोलाकार गट्ठों में बाँधा था। बीच में एक पहाड़ी नाला था जिसमें आसपास की पहाड़ियों से छोटी छोटी जल धाराएँ आ कर मिल जाती थीं, जिन पर बँद बने थे, पूरे इलाके में पानी को सँभाल कर नियमित किया गया था।

एक जगह बँद को देख रहा था तो अचानक एक सज्जन आ गये, मुझसे पूछा कि क्या देख रहा था, तो मैंने बँद की ओर इशारा किया और पूछा कि उसकी देखभाल कौन करता था। वह हँसे, बोले कि, "हम लोग, यहाँ के किसान, इन सभी नालों, नालियों की देखभाल करते हैं। पत्ते जमा हो रहे हों तो उनको साफ़ कर देते हैं, कही से नाली की दीवार टूट रही हो तो उसे ठीक करते हैं। इस पानी से हमारी खेती होती है, यह पानी नहीं हो तो हम भी नहीं रहेंगे।"

नीचे की तस्वीर में पहाड़ी नाले पर बना वही बंद है जहाँ मेरी उस व्यक्ति से मुलाकात हुई थी।



उन्होंने बताया कि वह सड़क कभी वहाँ की प्रमुख सड़क होती थी, बोले, "जब वह बड़ी वाली नयी सड़क नहीं बनी थी, तब ऊपर पहाड़ पर जाने वाले ट्रक, बसें, सब कुछ यहीं से जाता था। यह पानी, यह नाले, सब कुछ खत्म हो गये थे। फ़िर जब वह नयी सड़क बनी तो लोगों ने इधर आना बंद कर दिया, अब यह जगह फ़िर से शांत और सुंदर बन गयी है, हमारे खेत, खलिहान, नाले, पेड़, सब को नया जीवन मिला है।"

कान्हा के भिक्षुकों का जल

मुम्बई में पूर्वी बोरिविली लोकल ट्रेन स्टेशन के पास संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान है जिसके बीच में दो हज़ार साल पुरानी कन्हेरी की बौद्ध गुफ़ायें हैं, जोकि काली बाज़ाल्टिक चट्टानों में बनी हैं। "कन्हेरी" नाम उन्हीं काली चट्टानों की वजह से हैं। प्रणय लाल की अंग्रेज़ी पुस्तक "इन्डिका" में इन चट्टानों के बनने के बारे बहुत अच्छी तरह से बताया गया है।

ईसा से दो सौ या तीन सौ साल पहले पूरे भारत में इस तरह की बौद्ध गुफ़ाएँ विभिन्न स्थानों पर बनायी गयीं। औरंगाबाद के पास में अजँता की गुफ़ाएँ तो सारे विश्व में प्रसिद्ध हैं। यह गुफ़ाएँ बौद्ध भिक्षुओं के विहार थे, जहाँ चट्टानों में उनके रहने, प्रार्थना व पूजा करने, सभा करने, खाने, आदि सब जीवनकार्यों के लिए छोटे और बड़े कमरे बनाये गये थे। उसके साथ ही यह गुफ़ाएँ यात्रियों के रहने की सराय का काम भी करती थीं और भारत का व्यवसायिक जाल इन गुफ़ाओं से जुड़ा था।

यानि उन बोद्ध भिक्षुओं को चट्टानों के कठोर पत्थरों को कैसे काटा और तराशा जाये, इस सब की तकनीकी जानकारी थी। इन्हीं तकनीकों से एलौरा की गुफ़ाओं में एक महाकाय चट्टान के पहाड़ को काट कर पूरा कैलाश मन्दिर बनाया गया था। इन्हीं तकनीकों से दक्षिण भारत में भी बादामी तथा महाबलीपुरम के मन्दिर बनाये गये थे।

कान्हा की गुफ़ाओं में चट्टानें पहाड़ियों के ऊपर ऊँचाई में बनी हैं जबकि पानी नीचे घाटी में मिलता है जहाँ विभिन्न जल धाराएँ और नाले बहते हैं। उन गुफ़ाओं और चट्टानों में भी भिक्षुकों नें जल की एक-एक बूँद को इक्ट्ठा करने के लिए प्रयोजन किया था, जो दो हज़ार के बाद आज भी बढ़िया काम कर रहे हैं।

चट्टानों के ऊपर हर ढलान पर नालियाँ काटी गयीं थीं जिनमें बरसात का पानी इक्ट्ठा हो कर चट्टानों में बने जलाशयों में जमा होता था। नीचे की तस्वीर में कान्हा की चट्टानों में बनी गुफ़ाएँ हैं, ध्यान से देखेंगे तो हर सतह पर पानी जमा करने के लिए बनी हुई संकरी नालियों का जाल दिखाई देगा।



अगर आप मुम्बई जाते हैं तो कान्हा की गुफ़ाओं को अवश्य देखने जाईये, बहुत सुंदर जगह है, और वहाँ चट्टानों में काट कर बनी नालियों के जाल को भी अवश्य देखियेगा कि कैसे प्राचीन भारत ने जल संचय की तकनीकी का विकास किया था।

खरे हैं तालाब

अनुपम मिश्र की किताब "आज भी खरे हैं तालाब" हमारे गाँवों के ताल-तालाबों-बावड़ियों की बातें करती है, जोकि एक ज़माने में हर गाँव के जीवन का अभिन्न हिस्सा होते थे और जिनकी पूरी व्यवस्था तथा तकनीकी ज्ञान व कौशल पिछली दो सदियों में धीरे धीरे खोते गये हैं। इस किताब में मिश्र जी ने लिखा हैः

सैंकड़ों, हज़ारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिल कर सैकड़ों, हज़ार बनाती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गये समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया। ...

पाँचवीं सदी से पंद्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आये थे। कोई एक हज़ार वर्ष तक अबाध चलती हुई इस परम्परा में पद्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएँ आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से नहीं रुक पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लम्बे समय तक इतने व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से नहीं मिटा सका। अठाहरवीं तथा उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह जगह तालाब बन रहे थे। ...

देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैसे राजस्थान और उसमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हज़ारों गावों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते हैं। गावों के नाम के साथ ही जुड़ा है "सर"। सर यानि तालाब। सर नहीं तो गाँव कहां? ... एक समय की दिल्ली में करीब ३५० छोटे-बड़े तालाबों का ज़िक्र मिलता है। ...

आखिरी बार डुगडुगी पिट रही है। काम तो पूरा हो गया है पर आज फ़िर सभी लोग इकट्ठे होंगे, तालाब की पाल पर। अनपूछी ग्यारस को जो संकल्प लिया था, वह आज पूरा हुआ है। बस आगौर में स्तंभ लगना और पाल पर घटोइया देवता की प्राण प्रतिष्ठा होना बाकी है। आगर के स्तम्भ पर गणेश जी बिराजे हैं और नीचे हें सर्पराज। घटोइया बाबा घाट पर बैठ कर पूरे तालाब की रक्षा करेंगे। ...

आज जो अनाम हो गए, उनका एक समय में बड़ा नाम था। पूरे देश में तालाब बनते थे और बनाने वाले भी पूरे देश में थे। कहीं यह विद्या जाति के विद्यालय में सिखाई जाती थी तो कहीं यह जात से हट कर एक विषेश पांत भी बन जाती थी। बनाने वाले लोग कहीं एक जगह बसे मिलते थे तो कहीं ये घूम घूम कर इस काम को करते थे। ...

अनुपम मिश्र जी इस किताब में तालाबों, बावड़ियों के बारे में जो विवरण हैं, वह उस खोये हुए समय का क्रंदन है जिसे संजोरने और सम्भालने की हममे क्षमता नहीं थी। ट्यूबवैल और हैंडपम्प लगा कर धरती के गर्भ में छुपे जल को मशीन से बाहर निकालने की आसानी ने उस ज्ञान और कौशल को बेमानी बना दिया। अब जब मानसून और बारिशें अपने रास्ते भूल रहे हैं, जब धरती के गर्भ में छुपे जल का स्तर घटता जा रहा है, तो लोग बारिश का पानी कैसे बचाया जाये, इसकी बातें करते हैं। लेकिन उन तालाबों से जुड़े संसार को क्या हम लोग समय पर सहेज पायेंगे?

इस आलेख की अंतिम तस्वीर में छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से एक तालाब का पुराना मंदिर है। आप बताईये क्या यह तालाब और मंदिर हम भविष्य के लिए समय रहते बचा पायेंगे या नहीं?



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पानी और तालाबों पर गीत

इस आलेख को पढ़ कर, हमारे शहर से करीब बीस किलोमीटर दूर रहने वाली श्यामा जी ने, जो वेनिस विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग से जुड़ी हैं, फेसबुक पर अपनी टिप्पणी में मनोज कुमार की "शोर" फ़िल्म से "पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा" गीत को याद कराया, तो मन में प्रश्न उठा कि इस विषय पर, यानि पानी, जल और तालाब के विषय पर, और कौन कौन से प्रसिद्ध गीत हैं?

सबसे पहले तो कुछ-कुछ ऐसे ही अर्थ वाला "विक्की डोनर" से आयुष्मान खुराना का "पाणी दा रंग वेख के" याद आया। फ़िर एक अन्य पुरानी फ़िल्म से "ओह रे ताल मिले नदी के जल से" याद आया जिसे पर्दे पर संजीव कुमार ने गाया था। एक अन्य पुरानी फ़िल्म याद आयी, ख्वाजा अहमद अब्बास की "दो बूँद पानी" लेकिन गीत याद नहीं आया।

क्या आप को इस तरह का कोई अन्य गीत याद है? बस मेरी एक बिनती है कि अपनी याद वाला गीत बताईयेगा, गूगल करके खोजा हुआ नहीं।


मंगलवार, जून 21, 2022

धर्मों की आलोचना व आहत भावनाएँ

आप के विचार में धर्मों की, उनके देवी देवताओं की और उनके संतों और पैगम्बरों की आलोचना करना सही है या गलत?

मेरे विचार में धर्मों से जुड़ी विभिन्न बातों की आलोचना करना सही ही नहीं है, आवश्यक भी है।

अगर आप सोचते हैं कि अन्य लोग आप के धर्म का निरादर करते हैं और इसके लिए आप के मन में गुस्सा है तो यह आलेख आप के लिए ही है। इस आलेख में मैं अपनी इस सोच के कारण समझाना चाहता हूँ कि क्यों मैं धर्मों के बारे में खुल कर बात करना, उनकी आलोचना करने को सही मानता हूँ।



धर्मों की आलोचना का इतिहास

अगर एतिहासिक दृष्टि से देखें तो हमेशा से होता रहा है कि सब लोग अपने प्रचलित धर्मों की हर बात से सहमत नहीं होते और उनकी इस असहमती से उन धर्मों की नयी शाखाएँ बनती रहती हैं। उस असहमती को आलोचना मान कर प्रचलित धर्म उसे दबाने की कोशिश करते हैं, लेकिन फ़िर भी उस आलोचना को रोकना असम्भव होता है। यही कारण है कि दुनिया के हर बड़े धर्म की कई शाखाएँ हैं, और उनमें से आपस में मतभेद होना या यह सोचना सामान्य है कि उनकी शाखा ही सच्चा धर्म है, बाकी शाखाएँ झूठी हैं। कभी कभी एक शाखा के अनुयायी, बाकियों को दबाने, देशनिकाला देने या जान से मार देने की धमकियाँ देते हैं।

उदाहरण के लिए - ईसाई धर्म में कैथोलिक और ओर्थोडोक्स के साथ साथ प्रोटेस्टैंट विचार वालों के अनगिनत गिरजे हैं; मुसलमानों में सुन्नी और शिया के अलावा बोहरा, अहमदिया जैसे लोग भी हैं; सिखों के दस गुरु हुए हैं और हर गुरु के भक्त भी बने जिनसे खालसा, नानकपंथी, नामधारी, निरंकारी, उदासी, सहजधारी, जैसे पंथ बने।

जब धर्मों की नयी शाखाएँ बनती हैं तो उसके मूल में अक्सर आलोचना का अंश भी होता है। जैसे कि सोलहवीं शताब्दी में जब जर्मनी में मार्टिन लूथर ने ईसाई धर्म की प्रोटेस्टैंट धारा को जन्म दिया तो उनका कहना था कि कैथोलिक धारा अपने मूल स्वरूप से भटक गयी थी, उसमें संत पूजा, देवी पूजा और मूर्तिपूजा जैसी बातें होने लगी थीं। इसी तरह, उन्नीसवीं शताब्दी में सिख धर्म में सुधार लाने के लिए निरंकारी और नामधारी पंथों को बनाया गया। कुछ इसी तरह की सोच से कि हमारा धर्म अपना सच्चा रास्ता भूल गया है और उसे सही रास्ते पर लाना है, अट्ठारहवीं शताब्दी में सुन्नी धर्म के सुधार के लिए वहाबी धारा का उत्थान हुआ।

इन उदाहरणों के माध्यम से मैं कहना चाहता हूँ कि धर्मों में आलोचना की परम्पराएँ पुरानी हैं और यह सोचना कि अब कोई हमारे धर्म के विषय में कुछ आलोचनात्मक नहीं कहेगा, यह स्वाभाविक नहीं होगा।

भारतीय धर्मों में आलोचनाएँ

हिंदू धर्म ग्रंथ तो प्राचीन काल से धर्मों पर विवाद करने को प्रोत्साहन दते रहे हैं। धर्मों की इतनी परम्पराएँ भारत उपमहाद्वीप में पैदा हुईं और पनपी कि उनकी गिनती असम्भव है। कहने के लिए भारत की धार्मिक परम्पराओं को चार धर्मों में बाँटा जाता है - हिंदू, सिख, बौद्ध, और जैन। लेकिन मेरी दृष्टि में धर्मों का यह विभाजन कुछ नकली सा है। जिस तरह से दुनिया के अन्य धर्म अपनी भिन्नताओं के हिसाब से बाँटते हैं, उस दृष्टि से सोचने लगें तो भारत में हज़ारों धर्म हो जायें, पर अन्य सभ्यताओं से भारतीय सभ्यता में एक महत्वपूर्ण अंतर है कि उसकी दृष्टि धार्मिक भिन्नताओं को नहीं, उनकी समानताओं को देखती है।

इसके साथ साथ भारतीय धर्मों की एक अन्य खासियत है कि उनकी सीमाओं पर दीवारे नहीं हैं बल्कि धर्मों की मिली जुली परम्पराओं वाले सम्प्रदाय हैं। पश्चिमी पंजाब से आये मेरे नाना नानी के परिवारों में बड़े बेटे को "गुरु को देना" की प्रथा प्रचलित थी, यानि हिंदू परिवार का बड़ा बेटा सिख धर्म का अनुयायी होता था। हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध प्रार्थनाओं और पूजा स्थलों में अक्सर एक दूसरे की परम्पराओं को भी सम्मान दिया जाता है।

यही नहीं, उनके तथा ईसाई एवं मुसलमान परम्पराओं के बीच में भी सम्मिश्रण से सम्प्रदाय या साझी परम्पराएँ बनीं। मेवात के मुसलमानों में हिंदू परम्पराएँ और केरल के ईसाई जलूसों में हिंदू समुदायों का होना, सूफ़ी संतों की दरगाहों में भिन्न धर्मों के लोगों का जाना, विभिन्न हिंदू त्योहारों में सब धर्मों के लोगों का भाग लेना, इसके अन्य उदाहरण हैं।

इस साझा संस्कृति में सहिष्णुता स्वाभाविक थी और कट्टर होना कठिन था, इसलिए एक दूसरे के धर्म के बारे में हँसी मज़ाक करना या आलोचना करना भी स्वाभाविक था।

आहत भावनाओं की दुनिया

आजकल की दुनियाँ में ऐसे लोगों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है जिनकी भावनाएँ बहुत आसानी से आहत हो जाती हैं। भावनाओं के आहत होने से वह लोग बहुत क्रोधित हो जाते हैं और अक्सर उनका क्रोध हिँसा या तोड़ फोड़ में अभिव्यक्त होता है। इस वजह से, अगर आप लेखक हैं, कलाकार हैं, या फिल्मकार हैं, तो किसी भी सृजनात्मक कार्य से पहले आप को गम्भीरता से सोचना पड़ता है कि क्या मेरी कृति की वजह से किसी की भावनाएँ आहत तो नहीं हो जायेगीं? वैसे आप कितनी ही कोशिशें कर लें, पहले से कितना भी सोच लें, सब कोशिशों के बाद भी यह हो सकता है कि कोई न कोई, किसी भी वजह से आप से रुष्ठ हो कर आप को सबक सिखाने की धमकी दे देगा।

यूरोप में इस्लाम से सम्बंधित आहत भावनाओं वालों के गुस्से के बारे में तो सभी जानते हैं। इस्लाम के बारे में कुछ भी आलोचनात्मक बोलिये तो आप पर कम से कम इस्लामोफोबिया का छप्पा लग सकता है, और किसी को अधिक गुस्सा आया तो वह आप को जान से भी मार सकता है। भारत में अन्य धर्मों के लोगों में भी यही सोच बढ़ रही है कि हमारे धर्म, भगवान, धार्मिक किताबों तथा देवी देवताओं का "अपमान" नहीं होना चाहिये और अगर कोई ऐसा कुछ भी करता या कहता है तो उसको तुरंत सबक सिखाना चाहिये, ताकि अगर वह ज़िंदा बचे तो दोबारा ऐसी हिम्मत न करे। "अपमान" की परिभाषा यह लोग स्वयं बनाते हैं और यह कहना कठिन है कि वह किस बात से नाराज हो जायेगे।

जो बात धर्म से जुड़े विषयों से शुरु हुई, वह धीरे धीरे जीवन के अन्य पहलुओं की ओर फैल रही है। आप ने किसी भी जाति के बारे में ऐसा वैसा क्यों कहा? आप ने किसी जाति या धर्म वाले को अपने उपन्यास या फिल्म में बुरा व्यक्ति या बलात्कारी क्यों बनाया? यानि किसी भी बात पर वह गुस्सा हो कर उस जाति या धर्म या गुट के लोग आप के विरुद्ध धरना लगा सकते हैं या तोड़ फोड़ कर सकते हैं।

भारत की पुलिस अधिकतर उन दिल पर चोट खाने वालों के साथ ही होती है। आप ने ट्वीटर या फेसबुक पर कुछ लिखा, या यूट्यूब और क्लबहाउस में कुछ ऐसा वैसा कहा तो पुलिस आप को तुरंत पकड़ कर जेल में डाल सकती है, लेकिन अगर आप की भावनाएँ आहत हुईं हैं और आप तोड़ फोड़ कर रहे हैं या दंगा कर रहे हैं या किसी को जान से मारने की धमकी दे रहें हैं, तो अधिकतर पुलिस भी इसे आप का मानव अधिकार मानती है और बीच में दखल नहीं देती।

धर्म के निरादर पर गुस्सा करना बेकार है

एक बार मेरे एक भारतीय मूल के अमरीका में रहने वाले मित्र से इस विषय में बात हो रही थी, जो कि क्रोधित थे क्योंकि उन्होंने अमेजन की वेबसाईट पर ऐसी चप्पलों का विज्ञापन देखा था जिनपर गणेश जी की तस्वीर बनी थी। उनका कहना था कि बाकी धर्मों वाले, हिन्दुओं को कमज़ोर समझते हैं और हिन्दु देवी देवताओं का अपमान करते रहते हैं। उन लोगों ने मिल कर अमेजन के विरुद्ध ऐसा हल्ला मचाया कि अमेजन वालों ने क्षमा माँगी और उन चप्पलों के विज्ञापनों को हटा दिया।

मैंने शुरु में उनसे मजाक में कहा कि आप गणेश जी की चिंता नहीं कीजिये, वह उस चप्पल में पाँव रखने वाले को फिसला कर ऐसे गिरायेंगे कि उसकी हड्डी टूट जायेगी। तो मेरे मित्र मुझसे भी क्रोधित हो गये, बोले कि कैसी वाहियात बातें करते हो? उनकी सोच है कि कोई हमारे देवी देवताओं का इस तरह से अपमान करे तो हमें तुरंत उसका विरोध करना चाहिये। उनसे बहुत देर तक बात करने के बाद भी न तो मैं उन्हें अपनी बात समझा पाया, लेकिन उनके कहने से मेरी सोच भी नहीं बदली।

मुझे धर्म, पैगम्बर, धार्मिक किताबों या देवी देवताओं के अपमान की बातें निरर्थक लगती हैं। किताबों में कागज पर छपे शब्दों में पवित्रता नहीं, पवित्रता उनको पढ़ने वालों के मन में है, दुनिया की हर वस्तु की तरह किताब तो नश्वर है, एक दिन तो उसे नष्ट हो कर संसार के तत्वों में लीन होना ही है। मेरी सोच भगवत् गीता से प्रभावित है जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को अपना बृहद रूप दिखाते हैं कि सारा ब्रह्माँड स्वयं वही हैंः

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यदेवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ।।

जब ब्रह्माँड के कण कण में स्वयं भगवान हैं, जब भगवान न चाहे तो दुनिया का पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो मानव के पैरों के कण कण में और चप्पलों के कण कण में क्या वह भगवान नहीं हैं? अगर आप सचमुच अपने धर्म में और अपने देवी देवताओं में विश्वास करते हैं, तो आप यह क्यों नहीं समझते कि यह मानव के बस की बात ही नहीं है कि भगवान का अपमान कर सके?

हमारी एक कहावत भी है कि आसमान पर थूका वापस आप के अपने ऊपर ही गिरता है। भगवान, देवी देवता, यह सब हमारी श्रद्धा और विश्वास की बातें हैं। भगवान न तो पूजा के प्यासे हैं, न ही वह हमारे गुस्से पर नाराज होते हैं। जब हर व्यक्ति की आत्मा में ब्रह्म है, तो उसकी आत्मा में भी है जिसने आप के विचार में आप के भगवान या देवी देवता का अपमान किया है। यह उसका कर्मजाल है और इसका परिणाम वह स्वयं भोगेगा, उसमें आप क्यों भगवान के बचाव में उसके न्यायाधीश और जल्लाद बन जाते हैं?

सभी धर्म कहते हैं कि जिसे हम अलग अलग नामों से बुलाते हैं, वह गॉड, खुदा, भगवान, पैगम्बर सर्वशक्तिमान हैं। अगर वह न चाहें तो दुनियाँ में कोई उनके विरुद्ध कुछ कर सकता है क्या? अगर आप यह मानते हैं कि कोई भी मानव आप के गॉड, खुदा, पैगम्बर, देवी देवता या भगवान का अपमान कर सकता है तो वह सर्वशक्तिमान कैसे हुआ? लोग यह भी कहते हैं कि गॉड, खुदा और भगवान ही हमारा पिता है, जिसने सबको जीवन दिया है। तो हम यह क्यों नहीं मानते कि अगर कोई उनके विरुद्ध कुछ भी कहता या करता है, तो वह अपने पिता से झगड़ रहा है और उसे सजा देनी होगी तो उसका पिता ही उसे सजा देगा, आप उसकी चिंता क्यों करते हैं?

सिखों के पहले गुरु, नानक के बारे में एक कहानी है कि वह एक बार मदीना गये और काबा की ओर पैर करके सो रहे थे। कुछ लोगों ने उन्हें देखा तो क्रोधित हो गये, बोले काबा का अपमान मत करो। तब गुरु नानक ने उनसे कहा कि अच्छा तुम मेरे पैर उस ओर कर दो जहाँ काबा नहीं है। कहते हैं कि उन लोगों ने जिस ओर गुरु नानक के पैर मोड़े, उन्हें काबा उसी ओर नजर आया, तब वह समझे कि गुरु नानक बड़े संत थे। इसी तरह से संत रविदास कहते थे कि मन चंगा तो कठौती में गँगा। असली बात सब अपने मन की है और उसे निर्मल रखना सबसे अधिक आवश्यक है। इसलिए मेरी सलाह मानिये और आप अपने मन में झाँकिये और देखिये कि आप का मन चंगा है या नहीं, औरों के मन की जाँच परख को भूल जाईये।

हिंदू धर्म का अपमान

पिछले कुछ दशकों में विभिन्न धर्मों के लोगों में असहिष्णुता बढ़ रही है। शायद उनकी देखा देखी, बहुत से हिंदू भी "हिंदू धर्म के अपमान" के प्रति सतर्क हो गये हैं और जब वह ऐसा कुछ देखते हैं तो तुरंत लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। उनसे कुछ कहो तो वह मुसलमान, ईसाई या सिख समुदायों की अपने धर्मों के अपमान के विरुद्ध लड़ाईयों के उदाहरण देते हैं।

मेरे विचार में यह गलती है, हिंदू धर्म को बाकियों के लिए उदाहरण बनना चाहिये कि हम लोग धर्म की किसी तरह की आलोचना को स्वीकार करते हैं,कि हमारे देवी देवता, भगवान सर्वशक्तिमान हैं वह अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं। अन्य धर्मों के कट्टरपंथियों को उदाहरण मान कर, हम उनकी तरह बनने की कोशिश करेंगे तो वह हिंदू धर्म के मूल विचारों की हार होगी।

अंत में

यह आलेख लिखना शुरु किया ही था कि भारत में "नूपुर शर्मा काँड" हो गया। वैसे तो मैं टिवटर पर कम ही जाता हूँ लेकिन कुछ ऐसे माननीय लोग जिन्हें मैं उदारवादी और समझदार समझता था, और जो कि हिंदू धर्म की आलोचनाओं में खुल कर भाग लेते रहे हैं, उन लोगों ने भी जब "पैगम्बर का अपमान किया है" की बात करके दँगा करने वालों को बढ़ावा दिया, तो मुझे बड़ा धक्का लगा।

भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसम्प्रदायिक देश में किसी एक गुट की कट्टरता को सही ठहराना खतरनाक है, इससे आप केवल अन्य कट्टर विचारवालों को मजबूत करते हैं। अगर हमारे पढ़े लिखे, दुनिया जानने वाले बुद्धिवादी लोग भी इस बात को नहीं समझ सकते तो भारत का क्या होगा?

1973 की राज कपूर की फ़िल्म बॉबी में गायक चँचल ने एक गीत गया था, "बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह यह कहता, पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता"। आज अगर यह गीत किसी फ़िल्म में हो तो शायद राज कपूर, चँचल और बुल्लेशाह, तीनों को लोग फाँसी पर चढ़ा देंगे।

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