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मंगलवार, मार्च 05, 2024

१८५७ एवं भारत के लोकगीत

अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जब तक भारत के अधिकांश लोग अनपढ़ थे, तब तक लोकगीतों के माध्यम से ही धर्म और इतिहास की बातें जनसाधारण तक पहुँचती थीं। पिछले कुछ दशकों में, नई तकनीकी व नये संचार माध्यमों के साथ-साथ साक्षरता भी बढ़ी है, इसलिए लोकगीतों के महत्व में बदलाव आया है।

इस आलेख में उत्तरी भारत की लुप्त होती हुई लोक-गीत परम्परा की कुछ चर्चा है, विषेशकर १८५७ के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध हुए विद्रोह-युद्ध से जुड़े हुए लोकगीतों की बातें हैं।

यह आलेख राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा की सन् १९९७ की फिल्म "१८५७ के लोकगीत" पर आधारित है। अरुण ने इस फिल्म को भारत की स्वतंत्रता की पच्चासवीं वर्षगांठ के संदर्भ में बनाया था। इस फिल्म की अधिकतर शूटिन्ग राजस्थान, उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश के बुंदेलखंडी क्षेत्रों तथा बिहार में की गई थी और इसे दूरदर्शन पर दिखाया गया था। 

इस फिल्म को बनाने में बुंदेलखंडी लोक संस्कृति के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त (१९३१-२००३) और राजस्थानी लोगसंगीत के विशेषज्ञ पद्मश्री कोमल कोठारी (१९२९-२००४) ने विषेश योगदान दिया था - नीचे के इस पहले वीडियो में कोमल कोठारी जी फिल्म के महत्व के बारे में बताते हैं:

यह लोकगीत खड़ी बोली, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, मगही, भोजपुरी, उर्दू तथा अन्य स्थानीय भाषाओं में गाये जाते थे। इस तरह की कुछ कविताएँ और १८५७ के लोकगीतों से सम्बंधित अन्य जानकारी, आप को डॉ. सुरेन्द्र सिंह पोखरण की वैबसाईट "क्रांति १८५७", सुनील कुमार यादव का आलेख,  समालोचन पर मैनेजर पाण्डेय का आलेख, डॉ. महिपाल सिंह राठौड़ का आलेख, आदि में भी मिल सकती है।

मेरा यह आलेख उपरोक्त आलेखों से थोड़ा सा भिन्न है क्योंकि इसमें आप अरुण चढ़्ढ़ा की फिल्म से ऐसे ही कुछ गीतों के अंशों को सुन भी सकते हैं और पुराने लोकगीतों की भाषा का अनुभव कर सकते हैं।

फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा से बातचीत

नवम्बर २०२२ में मैंने यह फिल्म देखी और अरुण से इसके बारे में जानकारी पूछी थी (नीचे तस्वीर में २०१२ में भारत के उपराष्ट्रपति से फिल्मकार श्री अरुण चढ़्ढ़ा को राष्ट्र पुरस्कार)।

अरुण चढ़्ढ़ा: "उत्तरी भारत में लोकगीत गाने की विभिन्न परम्पराएँ हैं, जिनमें १८५७ के समय पर गाये जाने वाले कुछ गीत आज से कुछ दशक पहले तक सुनने को मिल जाते थे। लेकिन तब भी गाँवों में रेडियो-टीवी-सिनेमा के आने से धीरे-धीरे लोकगायकी के मौके कम होने लगे थे और इनके गायक दूसरे काम खोजने लगे थे। मुझे लगा कि उनकी विभिन्न गायन शैलियों की जानकारी को सिनेमा के माध्यम से बचा कर रखना महत्वपूर्ण है। 

हमने एक बार खोज करनी शुरु की तो बहुत सी जानकारी मिली। जैसे कि बिहार में जगदीशपुर नाम की जगह पर राजा कुँवर सिंह थे, उनकी अंग्रेज़ों से लड़ाई के बारे में बहुत से गीत सुनने को मिले थे। हम लोग उनके गाँव में उनके परिवार के घर पर गये, वहाँ उनके पड़पोते ने अपने पूर्वज कुँवर सिंह की गाथा से जुड़े बहुत से गीतों को एक किताब में जमा किया था।

जैसा कि लोकगीतों में अक्सर होता है, यह कहना कठिन है कि इन लोकगीतों को कब लिखा गया और इन्हें किसने लिखा। अंग्रेज़ों को यह समझ नहीं आये कि इन गीतों में स्वतंत्रता तथा क्रांति की बाते हैं, उसके लिए भी तरीके खोजे गये, जैसे कि इन्हें फाग शैली में होली के समय गाना या बीच में "हर हर बम" जैसी पंक्ति जोड़ देना ताकि सुनने वाले को लगे कि यह शिव जी का भजन है।

मेरी फिल्म में पाराम्परिक लोकगायकों तथा उनके पाराम्परिक वाद्यों को देखा जा सकता है, जोकि धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं, क्योंकि अब वाद्य बनाने वाले और बजाने वाले, दोनों के पास आजकल टीवी और सिनेमा आदि की वजह से काम कम है। दिल्ली हाट और सूरजकुंड मेला जैसी जगहों से उन्हें कुछ काम मिल जाता है लेकिन जब उनके लोक संगीत का आज के जीवित लोक-जीवन से सम्पर्क टूट जाता है, तब उनके पुराने गीतों के शब्द भी खोने लगते हैं, क्योंकि यह गीत मौखिक याद किये जाते हैं, किसी कॉपी-किताब में नहीं लिखे जाते।"

फिल्म में राजस्थान के लोकगीत

फिल्म का पहला भाग राजस्थान के लोकगीतों पर केन्द्रित है। इस भाग में राजस्थान के प्रसिद्ध लोकसंगीत विशेषज्ञ पद्मभूषण-सम्मानित, श्री कोमल कोठारी (१९२९-२००४) ने सूत्रधार के रूप में इन लोकगीतों का परिचय दिया था। शास्त्रीय संगीत की तरह लोकगीतों की गायकी के भी विशिष्ठ शैलियाँ होती हैं और हर शैली के लिए सही लोक-गायक खोजना कठिन था, इस काम में श्री कमल कोठारी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था।

१८५७ में अंग्रेज़ों से विद्रोह करने वालों में राजस्थान के पाली जिले के आउवा गाँव के शासक ठाकुर कुशाल सिंह भी थे। उन्होंने सितम्बर १८५७ में दो बार अंग्रेज़ी फौज को हराया। जनवरी १८५८ में जब अंग्रेज़ों ने तीसरा हमला किया तब अपनी पराजय होती देख कर कुशाल सिंह अपने राज्य को अपने छोटे भाई को दे कर आउवा से चले गये। आउवा गाँव भिलवाड़ा और जोधपुर के बीच में पड़ता है।  फिल्म में दिखाये गये आउवा के गीत की कुछ शूटिन्ग आउवा गाँव में ठाकुर कुशाल सिंह की हवेली में की गई थी।

इस आउवा विद्रोह से जुड़े कई गीत अरुण की फिल्म के पहले भाग में मिलते हैं। इसी क्षेत्र में १८०८ में अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक ठाकुर का एक अन्य विद्रोह हो चुका था, कुछ गीतों में उस पहले विद्रोह का ज़िक्र भी है।

फिल्म में आउवा के बारे में एक फाग-गीत है जिसे लंगा घुम्मकड़ जाति के लोकगायकों ने लंगा शैली में गाया है (फाग केवल पुरुष गाते हैं लेकिन घुम्मकड़ जातियों में इन्हें औरतें भी गाती हैं।) यह गीत फरवरी-मार्च यानि फल्गुन के महीने में गाते हैं। नीचे के वीडियो में इस फिल्म से लंगा गायकी का छोटा सा नमूना प्रस्तुत है।


राजस्थान की पड़-गायकी में दो गायक बारी-बारी से प्रश्नोत्तर के अंदाज़ में गाते हैं और इनके पराम्परिक वाद्य को रावणहत्था कहते हैं (यानि उनके अनुसार यह वाद्य रावण के कटे हुए हाथ से बना है और रामायण काल से चला आ रहा है)। आजकल इस तरह के पाराम्परिक वाद्यों को बनाने तथा बजाने वाले दोनों कठिनाई से मिलते है। नीचे के वीडियो में पड़-गायकी का छोटा सा नमूना जिसे घुम्मकड़ जाति के गायक गा रहे हैं, इस गीत में किसी अंग्रेज़ छावनी पर हमले की बात है। इस वीडियो में आप रावणहत्था वाद्य को भी सुन सकते हैं।

१८५७ से जुड़े  कुछ लोकगीत राजस्थान की पाराम्परिक डिन्गल तथा पिन्गल शैली में थे, जिन्हें बाँकेदास जी और सूर्य बनवाले जैसे चारण कवियों ने लिखा था और इस फिल्म में डॉ. शक्तिदान कविया ने गाया था। डिन्गल भाषा व गायन शैली पश्चिमी राजस्थान में प्रचलित थी जबकि पिन्गल शैली पूर्वी राजस्थान में थी। नीचे वीडियो में शक्तिदान कविया की डिन्गल गायकी का छोटा सा नमूना है।

ऐसी ही एक अन्य शैली भरतपुर क्षेत्र में भी प्रचलित थी जिसमें चारण कवियों द्वारा लिखे फगुवा गीत होली के मौके पर गाये जाते थे। इन सभी गीतों और गाथाओं में कविताएँ और दोहों का प्रयोग होता है।

बुंदेलखंड और बिहार के लोकगीत

अरुण की फिल्म का दूसरा भाग अधिकतर बुंदेलखंड तथा बिहार में केन्द्रित है। इन गीतों में एक प्रमुख नाम था कुँवर सिंह का। इस फिल्म का कुँवर सिंह से जुड़ा एक हिस्सा बिहार में उनके गाँव जगदीशपुर में उनके घर में भी शूट किया गया था, जहाँ आज उनके वंशज रहते हैं।

बुंदेलखंड वाला हिस्सा झाँसी, टीकमगढ़, छत्तरपुर, बाँदा आदि क्षेत्रों में था लेकिन कानपुर तक जाता था। टीकमगढ़ में इस फिल्म में प्रसिद्ध ध्रुपद गायिका पद्मश्री असगरी बाई (१९१८-२००६), जो अपने समय में ओरछा की राजगायिका रह चुकी थीं, ने भी हिस्सा लिया था। फिल्म में वह लेद शैली में गाती हैं, लेद शैली की खासियत थी कि इसे शास्त्रीय तथा लोकगीत दोनों तरीकों से गा सकते हैं, जिसे वह जानती थीं। नीचे वाले वीडियो में इस फिल्म से सुश्री असगरी बाई की गायकी का छोटा सा नमूना।

इन लोकगीतों में १९४२ के बुंदेला विद्रोह से ले कर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानियाँ थीं।

मराठा राज्य के बाद जब बुंदेलखंड पर अंग्रेज़ों का राज हुआ तो उन्होंने राजस्व कर को बढ़ा दिया। १९३६ के बुढ़वा मंगल मेले में विद्रोह की बात शुरु हुई जिसमें जैतपुर के राजा परिछत (पारिछित या परीक्षित) द्वारा सागर की अंग्रेज़ छावनी पर हमला करने का निर्णय लिया गया था, जिसे बुंदेला विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इन लोकगीतों में उसी छावनी पर हमले की बात की गई है।

इन गीतों में हरबोलों द्वारा गाया राजा परिछित द्वारा छावनी पर हमले के गीत भी हैं जिनमें हर पंक्ति के बाद "हर हर बम" जोड दिया जाता है। बुंदेलखंड में लोकगीत गायकों ने यह "हर हर बम" जोड़ने का तरीका अपनाया था जिसकी वजह से लोग उन्हें "बुंदेली हरबोले" के नाम से जानने लगे थे। सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता "बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी", इन्हीं लोकगायकों की बात करती थी।

राजा परिछित की कहानी पर अरुण की फिल्म में एक गीत राजस्थानी पड़-गायकी से मिलती-जुलती बुंदेलखंड की सैर-गायकी शैली में भी है जिसमें दो लोग मिल कर गाते हैं। इस लोकगीत के लिए गायकों की खोज बहुत कठिन थी क्योंकि काम न होने से वे गायक अन्य कामों में लग गये थे। आखिरकार, एक गाँव से एक रंगरेज मिले थे, जिनके परिवार में यह गायकी होती थी जिसे वह भूले नहीं थे और वह इसे गाने के लिए तैयार हो गये थे। आज सैर-गायकी के गायक खोजना और भी कठिन होगा।

फिल्म में मूंज, लेघ, आदि शैलियों में भी लोकगीत हैं, शायद स्थानीय लोग इनकी बारीकियों को समझ सकते हैं। जैसे कि एक गीत में मसोबा की आल्हा शैली में रानी लक्ष्मीबाई के बारे में गाया गया है। 

अंत में

अरुण की इस फिल्म के दोनों भागों में उत्तर भारत की लोकगीत-शैलियों के इतने सारे नमूने मिलते हैं कि उनकी विविधता पर अचरज होता है, लेकिन सोचूँ तो लगता है कि यह फिल्म भारत के कुछ छोटे से हिस्सों की परम्पराओं को ही दिखाती हैं, बाकी भारत में जाने कितनी अन्य शैलियाँ थीं, जो लुप्त हो गईं या लुप्त हो रहीं होंगी। शायद सहपीडिया जैसी कोई संस्थाएँ हमारी इस सांस्कृतिक धरोहर को भविष्य के लिए संभाल कर रख रही हों, लेकिन वह संभाल भी संग्रहालय जैसी होगी, वे जीते-जागते लोक-जीवन और लोक-संस्कृति का हिस्सा नहीं होगीं।

नीचे के आखिरी वीडियो में कुँवर सिंह के बारे में एक भोजपुरी गीत का छोटा सा अंश है, जो मुझे बहुत अच्छा लगता है।


आज इंटरनेट पर नर्मदा प्रसाद गुप्त, कोमल कोठारी, शक्तिदान कविया, असगरी बाई जैसे लोगों की कोई रिकोर्डिन्ग नहीं उपलब्ध, कम से कम उस दृष्टि से अरुण की फिल्म में उनका कुछ परिचय मिलता है। मेरे विचार में ऐसी फिल्मों में भारत की सांस्कृतिक धरोहर का इतिहास है इसलिए दूरदर्शन को ऐसी फिल्मों को इंटरनेट पर उपलब्ध करना चाहिये।

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शुक्रवार, जुलाई 29, 2022

इटली की वाईन संस्कृति

मेरे इस आलेख का शीर्षक पढ़ कर शायद आप सोच रहे होगे कि शराब का संस्कृति से क्या लेना देना, शराब तो संस्कृति के विनाश का प्रतीक है? आज के भारत में एक ओर से शहरों में रहने वालों में शराब पीने वालों में वृद्धि हुई है। दूसरी और से "शराब बुरी चीज़ है", शराबबँदी होनी चाहिये जैसी सोच वाले लोग भी हैं और बिहार तथा गुजरात में शराब पीना गैरकानूनी है।



खैर, इस आलेख में भारत की बात कम है, बल्कि इटली तथा दक्षिण यूरोप की वाईन पीने की संस्कृति की बात है।

कल रात की बात

कल रात को हम लोग कुछ मित्रों के साथ तरबूज खाने गये। हमारे घर से करीब तीन किलोमीटर दूर एक छोटा सा गाँव है जहाँ के लोग मिल कर हर साल गर्मियों में तरबूज-समारोह आयोजित करते हैं जिसे "अँगूरियारा" कहते हैं। इस समारोह में आप खेतों के बीच में बैठ कर संगीत सुन सकते हैं, नाच सकते हैं और तरबूज, सैंडविच, तले आलू जैसी चीज़ें खा सकते हैं।

इसका सारा काम गाँव वाले लोग स्वयंसेवक की तरह बिना पगार लिये करते हैं। यह दो महीने चलता है, हर सप्ताह में दो या तीन दिन, शाम को आठ बजे से रात के ग्यारह बजे तक। इससे जो भी कमाई होती है, वह सारा पैसा गाँव के स्कूल, स्वास्थ्य क्लिनिक आदि के लिए सामान खरीदने के काम आता है। इस फेस्टिवल को उस गाँव के चर्च के पादरी ने शुरु करवाया था और अभी भी वह स्वयं अन्य स्वंयसेवकों के साथ बीच में काम करते दिख जाते हैं।  

कल रात वहाँ करीब पाँच सौ आदमी जमा थे, उनमें बच्चे, जवान, प्रौढ़, बूढ़े, सभी तरह के लोग थे। बहुत से लोग साथ में वाईन या बियर भी पी रहे थे। हम लोग वहाँ रात को देर तक रुके लेकिन उनमें से एक भी व्यक्ति नहीं दिखा जो शराब के नशे में लड़खड़ा रहा हो या किसी ने किसी लड़की या युवती से बद्तमीज़ी की हो। अधिकतर लोगों ने एक गिलास वाईन या बियर ली थी।

तब सोचा कि ऐसा समारोह अगर भारत में हो तो वहाँ गाँव में खेत में बैठ कर खुलेआम वाईन या बियर पीने ही नहीं दिया जायेगा। भारत में जिन समारोहों में शराब चलती है, जैसे कि विवाह या कोई पार्टी, तो वहाँ विभिन्न उम्र के बच्चे, लड़कियाँ, युवतियाँ नहीं मिलेंगी। साथ ही, अक्सर ऐसे मौकों पर कुछ लोग इतनी पी लेते हैं कि उनके होश काबू में नहीं रहते। कुछ लोग नशे में लड़कियों-युवतियों से छेड़खानी करने लगते हैं और कुछ लोगों को आसानी से गुस्सा आ जाता है, वह आपस में लड़ने लगते हैं।

यह सब सोच कर इटली की वाईन और शराब से जुड़ी संस्कृति की बात मेरे दिमाग में आयी।

प्राचीन समाजों में नशे की परम्पराएँ

एन्थ्रोपोलोजिस्ट (मानव समूहों के विशेषज्ञ) कहते हैं कि लाखों साल पहले से आदिमानवों के पुरखों ने नशा देने वाले पदार्थों को पहचाना और अपनी संस्कृतियों में इनको विषेश महत्व दिये।

वैज्ञानिकों के शोध ने दिखाया है कि मानव ही नहीं, पशु, पक्षी और यहाँ तक कि कीड़े मकोड़ों को भी नशा देने वाले पदार्थ अच्छे लगते हैं। अधिक पके और गले हुए फ़लों में प्राकृतिक शराब बन जाती है, जिनको खा कर पशु और पक्षी ही नहीं, उन फ़लों पर बैठने वाली मक्खियाँ और कीड़े भी नशे में लड़खड़ाने लगते हैं।

मध्य व दक्षिण अमरीकी जनजातियों के पाराम्परिक पुजारी और चिकित्सक शराब के साथ साथ, आयाहुआस्का, कोका तथा अन्य नशीले पदार्थों वाले पौधों को पहचानते थे और उनका नियमित उपयोग करते थे। दक्षिण अफ्रीका में एक शोध ने तीन सौ से अधिक पौधों के बारे में जानकारी एकत्रित की जिन्हें उनके पाराम्परिक चिकित्सक बीमारियों के इलाज में उपयोग करते थे और पाया कि उनमें बहुत से पौधे नशीले पदार्थ वाले थे।

भारत के प्राचीन ग्रंथों वेदों में सोम रस के उपयोग की बातें थीं जबकि सदियों से हमारे ऋषियों और साधुओं ने भाँग तथा चरस जैसे पदार्थों का भगवान की खोज या समझ बढ़ाने के लिए उपयोग किया है। समकालीन भारत के छोटे शहरों और गाँवों में पान मसाला, सुर्ती, पान, ज़र्दा, भाँग, चरस, ताड़ी, देसी शराब जैसे नशीले पदार्थों का सेवन आम बात है।

पाराम्परिक तथा आदिवासी जन समूहों में इन नशीले पदार्थों में शराब का विषेश स्थान रहा है। लगभग हर देश व प्राँत में अपने विषेश तरीके से शराब बनाने की परम्पराएँ रहीं हैं।

यूरोप की वाईन परम्परा

दक्षिण-पश्चिमी यूरोप के देशों में अँगूरों से वाईन बनाने की परम्परा बहुत पुरानी है। यह परम्परा में इटली और फ्राँस में विशेष रूप से विकसित हुई। दुनिया के जिन कोनों में इटली और फ्राँस के प्रवासी गये, वह इस परम्परा को अपने साथ ले गये। इन में हर देश की अपनी वाईन संस्कृति है।

मध्य इटली में दो हज़ार साल पहले रोमन समय का जीवन पोम्पेई में एक ज्वालामुखी के फटने से राख में कैद हो गया था। वहाँ के घरों में और होटलों में वाईन पीने के दृश्य उनकी दीवारों पर बनी तस्वीरों में दिखते हैं और वाईन रखने के बड़े मर्तबानों से इसका महत्व समझ में आता है।

ईसाई धर्म का प्रारम्भ मध्य एशिया में जेरूसल्म में हुआ लेकिन उनके पैगम्बर ईसा मसीह की मृत्यु के बाद उनके सबसे महत्वपूर्ण अनुयायी, जैसे कि सैंट पीटर और सैंट पॉल, इटली में रोमन साम्राज्य में रहने आये और उनका धर्म रोम से पूरे यूरोप में फैला। उनके धार्मिक अनुष्ठानों में वाईन को विषेश स्थान दिया गया और आज भी कैथोलिक गिरजाघरों में पादरी पूजा के समय वाईन पीते हैं।

इटली की वाईन संस्कृति

इटली और फ्राँस, इन दोनों देशों में कोई ऐसा जिला, उपजिला और गाँव मिलना कठिन है जहाँ अपने स्थानीय अंगूरों से वाईन बनाने की परम्परा न हो।

उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारे छोटे से शहर में, जिसमें आप किसी भी दिशा में निकल जाईये, तीन या चार किलोमीटर से कम दूरी में आप शहर की सीमा के बाहर निकल आयेंगे और वहाँ खेत शुरु हो जायेगे जिनमें हर तरफ़ अंगूरों की खेती होती है। यहाँ लोगों में "हमारे अंगूर, हमारी वाईन" के प्रति बहुत गर्व होता है और अक्सर लोग आपस में बहस करते कि इस साल किसकी वाईन बेहतर हुई है।

हमारे शहर के आसपास कम से सात या आठ किस्म की वाईन बनती हैं। बहुत सारे लोगों के घरों में अपनी वाईन को बनाया जाता है। सबके घरों में बेसमैंट में वाईन की बोतलों को सही तापमान और उमस के साथ संभाल कर रखा जाता है और अधिकाँश लोग एक या दो गिलास वाईन को खाने के साथ पीते हैं।

उत्तरपूर्वी इटली में दो तरह की अंगूर की शराब बनती है। पहली तो है वाईन जिसमें शराब यानि इथोनोल की मात्रा सात से ग्यारह प्रतिशत की होती है। फ्रागोलीनो यानि कच्ची वाईन में फ़लों का स्वाद अधिक महसूस होता है, उनमें इथोनोल की मात्रा कम (तीन या चार प्रतिशत) होती है, लेकिन फ्रागोलीनो वाईन केवल अक्टूबर या नवम्बर में मिलती है, जब अंगूर इकट्ठे किये जाते हैं और वाइन बनाना शुरु करते हैं।

यहाँ की दूसरी शराब को ग्रापा कहते हैं जिसमें इथोनोल की मात्रा अठारह से तीस प्रतिशत के आसपास होती है। ग्रापा को अक्सर बूढ़े लोग अधिक पीते हैं या लोग पार्टियों में पीते हैं। ग्रापा में चैरी, स्ट्राबेरी, शहतूत जैसे फ़लों को डाल कर या उनमें जड़ी-बूटियाँ भिगो कर रखते हैं, इस तरह के विषेश ग्रापा को "डाईजेस्टिव" (पचाने वाले) कहते हैं और अक्सर जब मेहमान हों तो उन्हें खाना समाप्त करने के बाद इसे छोटे गिलासों में पीया जाता है।

हमारा पहाड़ी इलाका है। आज से तीस-चालीस साल पहले तक पहाड़ी गाँवों में वाईन में डुबो कर रोटी को खाना या छोटे बच्चों को थोड़ी सी वाईन पिला कर शांत करवाना, सामान्य माना जाता था। आजकल ऐसा नहीं होता। पहले गाँव वाले लोग समझते थे कि लाल वाईन पीने से  खून बनता है और छोटे बच्चों को एक या दो घूँट लाल वाईन पिलाने को अच्छा माना जाता था। जबकि आजकल लोग जानते हैं कि वाईन के इथोनोल को जिगर में पचाया जाता है और पंद्रह-सोलह साल की आयु तक बच्चों के जिगर में यह पचायन शक्ति नहीं होती इसलिए उनको शराब देने से उनके जिगर खराब हो सकते हैं। इटली के कानून के अनुसार, अठारह साल से छोटे बच्चों को शराब नहीं बेची जा सकती, लेकिन घरों में अक्सर सोलह-सतरह साल के होते होते, बच्चों को थोड़ी बहुत बियर या वाईन को पीने से मना नहीं किया जाता। 

इटली तथा भारत की शराब संस्कृति में अंतर


यहाँ अमीर, मध्यमवर्गी, गरीब, सभी वाईन पीते हैं, वाईन को बिल्कुल न पीने वाले लोग कम ही देखे हैं। यहाँ के अधिकतर लोग खाने के साथ आधा या एक या बहुत हो गया तो दो गिलास वाईन पी लेते हैं, लेकिन नशे में धुत व्यक्ति कोई विरले ही होते हैं।

एक जमाने में यहाँ अंगूर का ग्रापा अधिक पीया जाता था, लेकिन आजकल ग्रापा पीने वाले बहुत कम हो गये हैं, अधिकतर लोग ग्रापा को विशेष अवसरों पर ही पीते हैं। पहले यहाँ बियर पीने वाले बहुत कम होते थे, जबकि पिछले दशकों में यहाँ बियर पीने वाले बढ़े हैं।

अगर आप मुझसे पूछें कि इटली तथा भारत की शराब संस्कृति में क्या अंतर है तो मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा अंतर है शराब की मात्रा और उसको पीने का तरीका।

इटली में आप बच्चे होते हैं जब आप परिवार के लोगों को खाने के समय वाईन पीता देखते हैं। लोग अक्सर बच्चों को उँगली से या चम्मच से वाईन का टेस्ट करा देते हैं और कहते हैं कि जब तुम बड़े होगे तो तुम इसे पी सकते हो। थोड़ी सी वाईन पी कर लोग खुल जाते हैं, आसानी से बातें करते हैं, अधिक हँसते हैं या नृत्य करते हैं। इस तरह बच्चे बचपन से देखते हैं और सीखते हैं कि वाईन या बियर किस तरह से सीमित मात्रा में आनन्द के लिए पी जाती हैं, नशे में आने के लिए नहीं। बच्चों को वाईन या बियर चखने से रोका नहीं जाता, ताकि उनमें भीतर वह जिज्ञासा नहीं हो कि यह क्या चीज़ है जिसे घर वालों से छुपा कर करना है।

वाईन हर सुपरमार्किट में खुले आम मिलती है और सस्ती है, घर पर आम पीने वाली डिब्बे में बिकने वाली वाईन एक यूरो की भी मिलती है, जबकि दो या तीन यूरो में आप को अच्छी वाईन की बोतल मिल सकती है। इसे वह बच्चों को नहीं बेचते पर वाईन खरीदना, सब्जी या डबलरोटी खरीदने से भिन्न नहीं है। हर रेस्टोरैंट में, ढाबे में, सड़क के किनारे, लोग वाईन या बियर खरीद या पी सकते हैं, जहाँ लोग एक या दो गिलासों से ऊपर कम ही जाते हैं।

यहाँ पर ज्यादा पीने वालों में और नशे में धुत होने वालों में अधिकतर गरीब लोग, विषेशकर प्रवासी अधिक होते हैं। यह लोग अधिकतर अँधेरा होने के बाद बागों के कोनों में या बैंचों पर बैठे मिलते हैं।

जबकि भारत के मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग के घरों में विह्स्की जैसी अधिक नशे वाली शराब अधिक पी जाती हैं। वहाँ लोग खाने से पहले पीते हैं और कई पैग पीते हैं जिनमें व्हिस्की में पानी या सोडा मिलाते हैं। और वहाँ पीने का मतलब है कि पक्का नशा चढ़ना चाहिये। आधा या एक गिलास केवल आनन्द के लिए पीना जिससे नशा नहीं हो, यह भारत में कम होता है। भारत में लोग बियर भी पीते हैं तो कई बोतलें पी जाते हैं क्योंकि लोग सोचते हैं कि शराब पी और पूरा नशा नहीं हो तो क्या फायदा।

अंत में


मेरे विचार में इटली व फ्राँस में दो या तीन हज़ार सालों से वाईन पीने की परम्परा की वजह से यहाँ के लोग उसे जीवन का हिस्सा समझते हैं, अधिकाँश लोग पीते हैं लेकिन सीमित मात्रा में पीने को सामाजिक मान्यता मिली है। यहाँ शराब पीना आम है, नशे में धुत होने वाले कम हैं।



जबकि भारत की व्हिस्की की परम्परा अंग्रेज़ों से आयी है, उनकी संस्कृति प्रोटेस्टैंट ईसाई धर्म से प्रभावित है जिसमें शराब या वाईन पीने को पाप या बुरा काम माना गया है और इसे सामाजिक व पारिवारिक मान्यता नहीं मिली है, बल्कि यह छुप कर करने वाली चीज़ है। वहाँ वाईन और शराब सामान्य जीवन के अंग की तरह नहीं है और वहाँ का समाज इन्हें गंदी बातों की तरह से देखता है। शायद इसी लिए शुक्रवार और शनिवार की रात को लँडन में पबों तथा नाईटकल्बों के बाहर नशे में धुत, जिस तरह के उल्टियाँ करते हुए नवयुवक व नवयुवतियाँ दिखते हैं, वैसे इटली में कभी नहीं देखे। हालाँकि इटली के नाईटक्लबों में अन्य तरह के नशे करने वाले लोग लँडन जितने ही होंगे।

मुझे मालूम है कि पिछले दशकों में महाराष्ट्र तथा कर्णाटक में लोगों ने अंगूरों की खेती तथा वाईन बनाना शुरु किया है। भारत की वाईन पीने की संस्कृति कैसी है? भारत के ग्रामीण समाजों में या आदिवासी समाजों में जो स्थानीय शराबें बनायी जाती हैं, उनके साथ जुड़ी संस्कृति कैसी है और वह इटली या फ्राँस की वाईन संस्कृति से किस तरह से भिन्न है?

सोमवार, जुलाई 18, 2022

पानी रे पानी


ब्रह्माँड में जीवन तथा प्रकृति का किस तरह से विकास होता है और कैसे वह समय के साथ बदलते रहते हैं इसे डारविन की इवोल्यूशन की अवधारणा के माध्यम से समझ सकते हैं। इसके अनुसार दुनिया भर में कोई ऐसा मानव समूह नहीं है जिसे हरियाली तथा जल को देखना अच्छा नहीं लगता, क्योंकि जहाँ यह दोनों मिलते हैं वहाँ मानव जीवन को बढ़ने का मौका मिलता है।

शाम को जब मैं सैर के लिए निकलता हूँ तो मैं भी वही रास्ते चुनता हूँ जहाँ हरियाली और जल देखने को मिलें। आज आप दुनिया में कहीं भी रहें, अपने आसपास के बदलते हुए पर्यावरण से अनभिज्ञ नहीं रह सकते। इस बदलाव में बढ़ते तापमानों और जल से जुड़ी चिंताओं का विषेश स्थान है।


ऊपर वाली तस्वीर का सावन के जल से भरा हुआ तालाब भारत के छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से है।

नदी, नहर और खेती

उत्तरपूर्वी इटली में स्थित हमारा छोटा सा शहर पहाड़ों से घिरा है और इसकी घाटी का नाम है ल्योग्रा। हमारे घर के पीछे, इस घाटी की प्रमुख नदी बहती है जिसका नाम भी ल्योग्रा ही है। इसे बरसाती नदी कहते हैं, क्योंकि अगर दो-तीन महीने बारिश नहीं हो तो इसमें पानी कम हो जाता है या बिल्कुल सूख जाता है। 

ल्योग्रा नदी के किनारे पेड़ों के नीचे बनी एक पगडँडी मेरी शाम की सैर करने की सबसे प्रिय जगह है। पहाड़ों से नीचे आती नदी पत्थरों से टकराती है और बीच-बीच में झरनों पर छलाँगे लगाती है, इसलिए किनारे पर चलते समय, नदी का गायन चलता रहता है, कभी द्रुत में, तो कभी मध्यम में।

इस साल पहली बार हुआ है कि हमारी नदी पिछले छह-सात महीनों से सूखी है। सर्दियों में बारिश कम हुई, जनवरी से मार्च के बीच में बिल्कुल नहीं हुई। उसके बाद, हर दस-पंद्रह दिनों में छिटपुट बारिश होती रही है, पर केवल दो-तीन बार ही खुल कर पानी बरसा है। जब बारिश आती है उस समय नदी में पानी आता है, जब रुकती है तो दो-तीन घँटों में वह पानी बह जाता है या सूख जाता है। नीचे की तस्वीर कुछ दिन पहले आयी बारिश के बाद की है जिसे मैंने अपनी शाम की सैर के दौरान खींचा था।



शहर में घुसने से पहले इस नदी से एक नहर निकलती है। जब बिजली नहीं थी, यहाँ की लकड़ी और आटे की मिलें, ऊन और कपड़े बुनने की फैक्टरियाँ सब कुछ इसी नहर के पानी से चलती थीं। आजकल नहर के पानी का अधिकतर उपयोग यहाँ के आसपास के किसान करते हैं।

घाटी के आसपास के पहाड़ों से छोटे नाले पानी को नदी की ओर लाते हैं। हर नाले पर छोटे छोटे बँद बने हैं, जिसमें लोहे के दरवाज़े हैं, जिन्हें नीचे कर दो तो वह पानी का बहाव रोक लेते हैं। पिछले महीनों की बारिशों से जो पानी आया है उसे नालों पर बने बँदों की सहायता से जमा किया जाता है, ताकि नहर से किसानों को खेती के लिए पानी मिलता रहे।

इटली के कई हिस्सों में इस साल बारिश कम होने से किसानों को बहुत नुक्सान हुआ है। बहुत सी जगहों पर पहले तो महीनों बारिश नहीं आयी, फ़िर अचानक एक दिन ऐसी बारिश आयी मानों कोई आकाश से बाल्टियाँ उड़ेल रहा हो, या साथ में मोटे ओले गिरे, तो जो बची खुची फसलें थी वह भी नष्ट हो गयीं।

मौसम बदल रहे हैं, यहाँ पहाड़ों के बीच भी गर्मी आने लगी है। आज से दस-बारह साल पहले तक यहाँ घरों में पँखे नहीं होते थे, अब कुछ घरों में एयरकन्डीशनर भी लग गये हैं। सबको डर है कि अगले दशक में यह सूखे और ऊँचे तापमान और भी बढ़ेंगे, स्थिति बिगड़ेगी।

प्रकृति का चक्र

शाम को जब सैर के लिए निकलता हूँ तो सूखी हुई नदी को देख कर दिल में धक्का सा लगता है। सोचता हूँ कि मछलियों के अलावा जो बतखें, सारस और अन्य पक्षी यहाँ नदी में रहते थे, वह कहाँ गये होंगे। अंत में सोचा कि अब इसकी जगह सैर की कोई अन्य जगह खोजी जाये।

इस तरह से इस साल, सूखे के बहाने, मैंने आसपास की बहुत सी नयी जगहें देखीं। इन नयी जगहों को देख कर समझ में आया कि मानव धरती के भूगोल को बदल रहा है, लेकिन प्रकृति धैर्य से वहीं ताक में बैठी रहती है और जैसे ही मानव विकास नयी ओर मुड़ता है, प्रकृति उस बदले भूगोल को फ़िर से दबोच कर अपने दामन में छुपा लेती है। कुछ दिन पहले ऐसा ही एक अनुभव हुआ।

नदी के दूसरी ओर के सबसे ऊँचे पहाड़ का नाम है मग्रे, जो कि करीब सात सौ मीटर ऊँचा है। उसकी चोटी हमारे यहाँ से करीब पाँच किलोमीटर दूर है, लेकिन इतनी चढ़ाई करना मेरे बस की बात नहीं, मैं आसपास की छोटी पहाड़ियों की ही सैर करने जाता हूँ।

कुछ दिन पहले मैं सैर को निकला तो बहुत सुंदर रास्ता था। कहीं खेतों में सूरजमुखी के बड़े बड़े फ़ूल लगे थे तो कहीं खेतों में किसानों ने सर्दियों में जानवरों को चारा देने के लिए भूसे को गोलाकार गट्ठों में बाँधा था। बीच में एक पहाड़ी नाला था जिसमें आसपास की पहाड़ियों से छोटी छोटी जल धाराएँ आ कर मिल जाती थीं, जिन पर बँद बने थे, पूरे इलाके में पानी को सँभाल कर नियमित किया गया था।

एक जगह बँद को देख रहा था तो अचानक एक सज्जन आ गये, मुझसे पूछा कि क्या देख रहा था, तो मैंने बँद की ओर इशारा किया और पूछा कि उसकी देखभाल कौन करता था। वह हँसे, बोले कि, "हम लोग, यहाँ के किसान, इन सभी नालों, नालियों की देखभाल करते हैं। पत्ते जमा हो रहे हों तो उनको साफ़ कर देते हैं, कही से नाली की दीवार टूट रही हो तो उसे ठीक करते हैं। इस पानी से हमारी खेती होती है, यह पानी नहीं हो तो हम भी नहीं रहेंगे।"

नीचे की तस्वीर में पहाड़ी नाले पर बना वही बंद है जहाँ मेरी उस व्यक्ति से मुलाकात हुई थी।



उन्होंने बताया कि वह सड़क कभी वहाँ की प्रमुख सड़क होती थी, बोले, "जब वह बड़ी वाली नयी सड़क नहीं बनी थी, तब ऊपर पहाड़ पर जाने वाले ट्रक, बसें, सब कुछ यहीं से जाता था। यह पानी, यह नाले, सब कुछ खत्म हो गये थे। फ़िर जब वह नयी सड़क बनी तो लोगों ने इधर आना बंद कर दिया, अब यह जगह फ़िर से शांत और सुंदर बन गयी है, हमारे खेत, खलिहान, नाले, पेड़, सब को नया जीवन मिला है।"

कान्हा के भिक्षुकों का जल

मुम्बई में पूर्वी बोरिविली लोकल ट्रेन स्टेशन के पास संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान है जिसके बीच में दो हज़ार साल पुरानी कन्हेरी की बौद्ध गुफ़ायें हैं, जोकि काली बाज़ाल्टिक चट्टानों में बनी हैं। "कन्हेरी" नाम उन्हीं काली चट्टानों की वजह से हैं। प्रणय लाल की अंग्रेज़ी पुस्तक "इन्डिका" में इन चट्टानों के बनने के बारे बहुत अच्छी तरह से बताया गया है।

ईसा से दो सौ या तीन सौ साल पहले पूरे भारत में इस तरह की बौद्ध गुफ़ाएँ विभिन्न स्थानों पर बनायी गयीं। औरंगाबाद के पास में अजँता की गुफ़ाएँ तो सारे विश्व में प्रसिद्ध हैं। यह गुफ़ाएँ बौद्ध भिक्षुओं के विहार थे, जहाँ चट्टानों में उनके रहने, प्रार्थना व पूजा करने, सभा करने, खाने, आदि सब जीवनकार्यों के लिए छोटे और बड़े कमरे बनाये गये थे। उसके साथ ही यह गुफ़ाएँ यात्रियों के रहने की सराय का काम भी करती थीं और भारत का व्यवसायिक जाल इन गुफ़ाओं से जुड़ा था।

यानि उन बोद्ध भिक्षुओं को चट्टानों के कठोर पत्थरों को कैसे काटा और तराशा जाये, इस सब की तकनीकी जानकारी थी। इन्हीं तकनीकों से एलौरा की गुफ़ाओं में एक महाकाय चट्टान के पहाड़ को काट कर पूरा कैलाश मन्दिर बनाया गया था। इन्हीं तकनीकों से दक्षिण भारत में भी बादामी तथा महाबलीपुरम के मन्दिर बनाये गये थे।

कान्हा की गुफ़ाओं में चट्टानें पहाड़ियों के ऊपर ऊँचाई में बनी हैं जबकि पानी नीचे घाटी में मिलता है जहाँ विभिन्न जल धाराएँ और नाले बहते हैं। उन गुफ़ाओं और चट्टानों में भी भिक्षुकों नें जल की एक-एक बूँद को इक्ट्ठा करने के लिए प्रयोजन किया था, जो दो हज़ार के बाद आज भी बढ़िया काम कर रहे हैं।

चट्टानों के ऊपर हर ढलान पर नालियाँ काटी गयीं थीं जिनमें बरसात का पानी इक्ट्ठा हो कर चट्टानों में बने जलाशयों में जमा होता था। नीचे की तस्वीर में कान्हा की चट्टानों में बनी गुफ़ाएँ हैं, ध्यान से देखेंगे तो हर सतह पर पानी जमा करने के लिए बनी हुई संकरी नालियों का जाल दिखाई देगा।



अगर आप मुम्बई जाते हैं तो कान्हा की गुफ़ाओं को अवश्य देखने जाईये, बहुत सुंदर जगह है, और वहाँ चट्टानों में काट कर बनी नालियों के जाल को भी अवश्य देखियेगा कि कैसे प्राचीन भारत ने जल संचय की तकनीकी का विकास किया था।

खरे हैं तालाब

अनुपम मिश्र की किताब "आज भी खरे हैं तालाब" हमारे गाँवों के ताल-तालाबों-बावड़ियों की बातें करती है, जोकि एक ज़माने में हर गाँव के जीवन का अभिन्न हिस्सा होते थे और जिनकी पूरी व्यवस्था तथा तकनीकी ज्ञान व कौशल पिछली दो सदियों में धीरे धीरे खोते गये हैं। इस किताब में मिश्र जी ने लिखा हैः

सैंकड़ों, हज़ारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिल कर सैकड़ों, हज़ार बनाती थी। पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गये समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया। ...

पाँचवीं सदी से पंद्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आये थे। कोई एक हज़ार वर्ष तक अबाध चलती हुई इस परम्परा में पद्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएँ आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से नहीं रुक पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लम्बे समय तक इतने व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से नहीं मिटा सका। अठाहरवीं तथा उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह जगह तालाब बन रहे थे। ...

देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैसे राजस्थान और उसमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हज़ारों गावों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते हैं। गावों के नाम के साथ ही जुड़ा है "सर"। सर यानि तालाब। सर नहीं तो गाँव कहां? ... एक समय की दिल्ली में करीब ३५० छोटे-बड़े तालाबों का ज़िक्र मिलता है। ...

आखिरी बार डुगडुगी पिट रही है। काम तो पूरा हो गया है पर आज फ़िर सभी लोग इकट्ठे होंगे, तालाब की पाल पर। अनपूछी ग्यारस को जो संकल्प लिया था, वह आज पूरा हुआ है। बस आगौर में स्तंभ लगना और पाल पर घटोइया देवता की प्राण प्रतिष्ठा होना बाकी है। आगर के स्तम्भ पर गणेश जी बिराजे हैं और नीचे हें सर्पराज। घटोइया बाबा घाट पर बैठ कर पूरे तालाब की रक्षा करेंगे। ...

आज जो अनाम हो गए, उनका एक समय में बड़ा नाम था। पूरे देश में तालाब बनते थे और बनाने वाले भी पूरे देश में थे। कहीं यह विद्या जाति के विद्यालय में सिखाई जाती थी तो कहीं यह जात से हट कर एक विषेश पांत भी बन जाती थी। बनाने वाले लोग कहीं एक जगह बसे मिलते थे तो कहीं ये घूम घूम कर इस काम को करते थे। ...

अनुपम मिश्र जी इस किताब में तालाबों, बावड़ियों के बारे में जो विवरण हैं, वह उस खोये हुए समय का क्रंदन है जिसे संजोरने और सम्भालने की हममे क्षमता नहीं थी। ट्यूबवैल और हैंडपम्प लगा कर धरती के गर्भ में छुपे जल को मशीन से बाहर निकालने की आसानी ने उस ज्ञान और कौशल को बेमानी बना दिया। अब जब मानसून और बारिशें अपने रास्ते भूल रहे हैं, जब धरती के गर्भ में छुपे जल का स्तर घटता जा रहा है, तो लोग बारिश का पानी कैसे बचाया जाये, इसकी बातें करते हैं। लेकिन उन तालाबों से जुड़े संसार को क्या हम लोग समय पर सहेज पायेंगे?

इस आलेख की अंतिम तस्वीर में छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के करीब गनियारी गाँव से एक तालाब का पुराना मंदिर है। आप बताईये क्या यह तालाब और मंदिर हम भविष्य के लिए समय रहते बचा पायेंगे या नहीं?



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पानी और तालाबों पर गीत

इस आलेख को पढ़ कर, हमारे शहर से करीब बीस किलोमीटर दूर रहने वाली श्यामा जी ने, जो वेनिस विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग से जुड़ी हैं, फेसबुक पर अपनी टिप्पणी में मनोज कुमार की "शोर" फ़िल्म से "पानी रे पानी तेरा रंग कैसा, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा" गीत को याद कराया, तो मन में प्रश्न उठा कि इस विषय पर, यानि पानी, जल और तालाब के विषय पर, और कौन कौन से प्रसिद्ध गीत हैं?

सबसे पहले तो कुछ-कुछ ऐसे ही अर्थ वाला "विक्की डोनर" से आयुष्मान खुराना का "पाणी दा रंग वेख के" याद आया। फ़िर एक अन्य पुरानी फ़िल्म से "ओह रे ताल मिले नदी के जल से" याद आया जिसे पर्दे पर संजीव कुमार ने गाया था। एक अन्य पुरानी फ़िल्म याद आयी, ख्वाजा अहमद अब्बास की "दो बूँद पानी" लेकिन गीत याद नहीं आया।

क्या आप को इस तरह का कोई अन्य गीत याद है? बस मेरी एक बिनती है कि अपनी याद वाला गीत बताईयेगा, गूगल करके खोजा हुआ नहीं।


मंगलवार, जून 21, 2022

धर्मों की आलोचना व आहत भावनाएँ

आप के विचार में धर्मों की, उनके देवी देवताओं की और उनके संतों और पैगम्बरों की आलोचना करना सही है या गलत?

मेरे विचार में धर्मों से जुड़ी विभिन्न बातों की आलोचना करना सही ही नहीं है, आवश्यक भी है।

अगर आप सोचते हैं कि अन्य लोग आप के धर्म का निरादर करते हैं और इसके लिए आप के मन में गुस्सा है तो यह आलेख आप के लिए ही है। इस आलेख में मैं अपनी इस सोच के कारण समझाना चाहता हूँ कि क्यों मैं धर्मों के बारे में खुल कर बात करना, उनकी आलोचना करने को सही मानता हूँ।



धर्मों की आलोचना का इतिहास

अगर एतिहासिक दृष्टि से देखें तो हमेशा से होता रहा है कि सब लोग अपने प्रचलित धर्मों की हर बात से सहमत नहीं होते और उनकी इस असहमती से उन धर्मों की नयी शाखाएँ बनती रहती हैं। उस असहमती को आलोचना मान कर प्रचलित धर्म उसे दबाने की कोशिश करते हैं, लेकिन फ़िर भी उस आलोचना को रोकना असम्भव होता है। यही कारण है कि दुनिया के हर बड़े धर्म की कई शाखाएँ हैं, और उनमें से आपस में मतभेद होना या यह सोचना सामान्य है कि उनकी शाखा ही सच्चा धर्म है, बाकी शाखाएँ झूठी हैं। कभी कभी एक शाखा के अनुयायी, बाकियों को दबाने, देशनिकाला देने या जान से मार देने की धमकियाँ देते हैं।

उदाहरण के लिए - ईसाई धर्म में कैथोलिक और ओर्थोडोक्स के साथ साथ प्रोटेस्टैंट विचार वालों के अनगिनत गिरजे हैं; मुसलमानों में सुन्नी और शिया के अलावा बोहरा, अहमदिया जैसे लोग भी हैं; सिखों के दस गुरु हुए हैं और हर गुरु के भक्त भी बने जिनसे खालसा, नानकपंथी, नामधारी, निरंकारी, उदासी, सहजधारी, जैसे पंथ बने।

जब धर्मों की नयी शाखाएँ बनती हैं तो उसके मूल में अक्सर आलोचना का अंश भी होता है। जैसे कि सोलहवीं शताब्दी में जब जर्मनी में मार्टिन लूथर ने ईसाई धर्म की प्रोटेस्टैंट धारा को जन्म दिया तो उनका कहना था कि कैथोलिक धारा अपने मूल स्वरूप से भटक गयी थी, उसमें संत पूजा, देवी पूजा और मूर्तिपूजा जैसी बातें होने लगी थीं। इसी तरह, उन्नीसवीं शताब्दी में सिख धर्म में सुधार लाने के लिए निरंकारी और नामधारी पंथों को बनाया गया। कुछ इसी तरह की सोच से कि हमारा धर्म अपना सच्चा रास्ता भूल गया है और उसे सही रास्ते पर लाना है, अट्ठारहवीं शताब्दी में सुन्नी धर्म के सुधार के लिए वहाबी धारा का उत्थान हुआ।

इन उदाहरणों के माध्यम से मैं कहना चाहता हूँ कि धर्मों में आलोचना की परम्पराएँ पुरानी हैं और यह सोचना कि अब कोई हमारे धर्म के विषय में कुछ आलोचनात्मक नहीं कहेगा, यह स्वाभाविक नहीं होगा।

भारतीय धर्मों में आलोचनाएँ

हिंदू धर्म ग्रंथ तो प्राचीन काल से धर्मों पर विवाद करने को प्रोत्साहन दते रहे हैं। धर्मों की इतनी परम्पराएँ भारत उपमहाद्वीप में पैदा हुईं और पनपी कि उनकी गिनती असम्भव है। कहने के लिए भारत की धार्मिक परम्पराओं को चार धर्मों में बाँटा जाता है - हिंदू, सिख, बौद्ध, और जैन। लेकिन मेरी दृष्टि में धर्मों का यह विभाजन कुछ नकली सा है। जिस तरह से दुनिया के अन्य धर्म अपनी भिन्नताओं के हिसाब से बाँटते हैं, उस दृष्टि से सोचने लगें तो भारत में हज़ारों धर्म हो जायें, पर अन्य सभ्यताओं से भारतीय सभ्यता में एक महत्वपूर्ण अंतर है कि उसकी दृष्टि धार्मिक भिन्नताओं को नहीं, उनकी समानताओं को देखती है।

इसके साथ साथ भारतीय धर्मों की एक अन्य खासियत है कि उनकी सीमाओं पर दीवारे नहीं हैं बल्कि धर्मों की मिली जुली परम्पराओं वाले सम्प्रदाय हैं। पश्चिमी पंजाब से आये मेरे नाना नानी के परिवारों में बड़े बेटे को "गुरु को देना" की प्रथा प्रचलित थी, यानि हिंदू परिवार का बड़ा बेटा सिख धर्म का अनुयायी होता था। हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध प्रार्थनाओं और पूजा स्थलों में अक्सर एक दूसरे की परम्पराओं को भी सम्मान दिया जाता है।

यही नहीं, उनके तथा ईसाई एवं मुसलमान परम्पराओं के बीच में भी सम्मिश्रण से सम्प्रदाय या साझी परम्पराएँ बनीं। मेवात के मुसलमानों में हिंदू परम्पराएँ और केरल के ईसाई जलूसों में हिंदू समुदायों का होना, सूफ़ी संतों की दरगाहों में भिन्न धर्मों के लोगों का जाना, विभिन्न हिंदू त्योहारों में सब धर्मों के लोगों का भाग लेना, इसके अन्य उदाहरण हैं।

इस साझा संस्कृति में सहिष्णुता स्वाभाविक थी और कट्टर होना कठिन था, इसलिए एक दूसरे के धर्म के बारे में हँसी मज़ाक करना या आलोचना करना भी स्वाभाविक था।

आहत भावनाओं की दुनिया

आजकल की दुनियाँ में ऐसे लोगों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है जिनकी भावनाएँ बहुत आसानी से आहत हो जाती हैं। भावनाओं के आहत होने से वह लोग बहुत क्रोधित हो जाते हैं और अक्सर उनका क्रोध हिँसा या तोड़ फोड़ में अभिव्यक्त होता है। इस वजह से, अगर आप लेखक हैं, कलाकार हैं, या फिल्मकार हैं, तो किसी भी सृजनात्मक कार्य से पहले आप को गम्भीरता से सोचना पड़ता है कि क्या मेरी कृति की वजह से किसी की भावनाएँ आहत तो नहीं हो जायेगीं? वैसे आप कितनी ही कोशिशें कर लें, पहले से कितना भी सोच लें, सब कोशिशों के बाद भी यह हो सकता है कि कोई न कोई, किसी भी वजह से आप से रुष्ठ हो कर आप को सबक सिखाने की धमकी दे देगा।

यूरोप में इस्लाम से सम्बंधित आहत भावनाओं वालों के गुस्से के बारे में तो सभी जानते हैं। इस्लाम के बारे में कुछ भी आलोचनात्मक बोलिये तो आप पर कम से कम इस्लामोफोबिया का छप्पा लग सकता है, और किसी को अधिक गुस्सा आया तो वह आप को जान से भी मार सकता है। भारत में अन्य धर्मों के लोगों में भी यही सोच बढ़ रही है कि हमारे धर्म, भगवान, धार्मिक किताबों तथा देवी देवताओं का "अपमान" नहीं होना चाहिये और अगर कोई ऐसा कुछ भी करता या कहता है तो उसको तुरंत सबक सिखाना चाहिये, ताकि अगर वह ज़िंदा बचे तो दोबारा ऐसी हिम्मत न करे। "अपमान" की परिभाषा यह लोग स्वयं बनाते हैं और यह कहना कठिन है कि वह किस बात से नाराज हो जायेगे।

जो बात धर्म से जुड़े विषयों से शुरु हुई, वह धीरे धीरे जीवन के अन्य पहलुओं की ओर फैल रही है। आप ने किसी भी जाति के बारे में ऐसा वैसा क्यों कहा? आप ने किसी जाति या धर्म वाले को अपने उपन्यास या फिल्म में बुरा व्यक्ति या बलात्कारी क्यों बनाया? यानि किसी भी बात पर वह गुस्सा हो कर उस जाति या धर्म या गुट के लोग आप के विरुद्ध धरना लगा सकते हैं या तोड़ फोड़ कर सकते हैं।

भारत की पुलिस अधिकतर उन दिल पर चोट खाने वालों के साथ ही होती है। आप ने ट्वीटर या फेसबुक पर कुछ लिखा, या यूट्यूब और क्लबहाउस में कुछ ऐसा वैसा कहा तो पुलिस आप को तुरंत पकड़ कर जेल में डाल सकती है, लेकिन अगर आप की भावनाएँ आहत हुईं हैं और आप तोड़ फोड़ कर रहे हैं या दंगा कर रहे हैं या किसी को जान से मारने की धमकी दे रहें हैं, तो अधिकतर पुलिस भी इसे आप का मानव अधिकार मानती है और बीच में दखल नहीं देती।

धर्म के निरादर पर गुस्सा करना बेकार है

एक बार मेरे एक भारतीय मूल के अमरीका में रहने वाले मित्र से इस विषय में बात हो रही थी, जो कि क्रोधित थे क्योंकि उन्होंने अमेजन की वेबसाईट पर ऐसी चप्पलों का विज्ञापन देखा था जिनपर गणेश जी की तस्वीर बनी थी। उनका कहना था कि बाकी धर्मों वाले, हिन्दुओं को कमज़ोर समझते हैं और हिन्दु देवी देवताओं का अपमान करते रहते हैं। उन लोगों ने मिल कर अमेजन के विरुद्ध ऐसा हल्ला मचाया कि अमेजन वालों ने क्षमा माँगी और उन चप्पलों के विज्ञापनों को हटा दिया।

मैंने शुरु में उनसे मजाक में कहा कि आप गणेश जी की चिंता नहीं कीजिये, वह उस चप्पल में पाँव रखने वाले को फिसला कर ऐसे गिरायेंगे कि उसकी हड्डी टूट जायेगी। तो मेरे मित्र मुझसे भी क्रोधित हो गये, बोले कि कैसी वाहियात बातें करते हो? उनकी सोच है कि कोई हमारे देवी देवताओं का इस तरह से अपमान करे तो हमें तुरंत उसका विरोध करना चाहिये। उनसे बहुत देर तक बात करने के बाद भी न तो मैं उन्हें अपनी बात समझा पाया, लेकिन उनके कहने से मेरी सोच भी नहीं बदली।

मुझे धर्म, पैगम्बर, धार्मिक किताबों या देवी देवताओं के अपमान की बातें निरर्थक लगती हैं। किताबों में कागज पर छपे शब्दों में पवित्रता नहीं, पवित्रता उनको पढ़ने वालों के मन में है, दुनिया की हर वस्तु की तरह किताब तो नश्वर है, एक दिन तो उसे नष्ट हो कर संसार के तत्वों में लीन होना ही है। मेरी सोच भगवत् गीता से प्रभावित है जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को अपना बृहद रूप दिखाते हैं कि सारा ब्रह्माँड स्वयं वही हैंः

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यदेवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ।।

जब ब्रह्माँड के कण कण में स्वयं भगवान हैं, जब भगवान न चाहे तो दुनिया का पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो मानव के पैरों के कण कण में और चप्पलों के कण कण में क्या वह भगवान नहीं हैं? अगर आप सचमुच अपने धर्म में और अपने देवी देवताओं में विश्वास करते हैं, तो आप यह क्यों नहीं समझते कि यह मानव के बस की बात ही नहीं है कि भगवान का अपमान कर सके?

हमारी एक कहावत भी है कि आसमान पर थूका वापस आप के अपने ऊपर ही गिरता है। भगवान, देवी देवता, यह सब हमारी श्रद्धा और विश्वास की बातें हैं। भगवान न तो पूजा के प्यासे हैं, न ही वह हमारे गुस्से पर नाराज होते हैं। जब हर व्यक्ति की आत्मा में ब्रह्म है, तो उसकी आत्मा में भी है जिसने आप के विचार में आप के भगवान या देवी देवता का अपमान किया है। यह उसका कर्मजाल है और इसका परिणाम वह स्वयं भोगेगा, उसमें आप क्यों भगवान के बचाव में उसके न्यायाधीश और जल्लाद बन जाते हैं?

सभी धर्म कहते हैं कि जिसे हम अलग अलग नामों से बुलाते हैं, वह गॉड, खुदा, भगवान, पैगम्बर सर्वशक्तिमान हैं। अगर वह न चाहें तो दुनियाँ में कोई उनके विरुद्ध कुछ कर सकता है क्या? अगर आप यह मानते हैं कि कोई भी मानव आप के गॉड, खुदा, पैगम्बर, देवी देवता या भगवान का अपमान कर सकता है तो वह सर्वशक्तिमान कैसे हुआ? लोग यह भी कहते हैं कि गॉड, खुदा और भगवान ही हमारा पिता है, जिसने सबको जीवन दिया है। तो हम यह क्यों नहीं मानते कि अगर कोई उनके विरुद्ध कुछ भी कहता या करता है, तो वह अपने पिता से झगड़ रहा है और उसे सजा देनी होगी तो उसका पिता ही उसे सजा देगा, आप उसकी चिंता क्यों करते हैं?

सिखों के पहले गुरु, नानक के बारे में एक कहानी है कि वह एक बार मदीना गये और काबा की ओर पैर करके सो रहे थे। कुछ लोगों ने उन्हें देखा तो क्रोधित हो गये, बोले काबा का अपमान मत करो। तब गुरु नानक ने उनसे कहा कि अच्छा तुम मेरे पैर उस ओर कर दो जहाँ काबा नहीं है। कहते हैं कि उन लोगों ने जिस ओर गुरु नानक के पैर मोड़े, उन्हें काबा उसी ओर नजर आया, तब वह समझे कि गुरु नानक बड़े संत थे। इसी तरह से संत रविदास कहते थे कि मन चंगा तो कठौती में गँगा। असली बात सब अपने मन की है और उसे निर्मल रखना सबसे अधिक आवश्यक है। इसलिए मेरी सलाह मानिये और आप अपने मन में झाँकिये और देखिये कि आप का मन चंगा है या नहीं, औरों के मन की जाँच परख को भूल जाईये।

हिंदू धर्म का अपमान

पिछले कुछ दशकों में विभिन्न धर्मों के लोगों में असहिष्णुता बढ़ रही है। शायद उनकी देखा देखी, बहुत से हिंदू भी "हिंदू धर्म के अपमान" के प्रति सतर्क हो गये हैं और जब वह ऐसा कुछ देखते हैं तो तुरंत लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। उनसे कुछ कहो तो वह मुसलमान, ईसाई या सिख समुदायों की अपने धर्मों के अपमान के विरुद्ध लड़ाईयों के उदाहरण देते हैं।

मेरे विचार में यह गलती है, हिंदू धर्म को बाकियों के लिए उदाहरण बनना चाहिये कि हम लोग धर्म की किसी तरह की आलोचना को स्वीकार करते हैं,कि हमारे देवी देवता, भगवान सर्वशक्तिमान हैं वह अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं। अन्य धर्मों के कट्टरपंथियों को उदाहरण मान कर, हम उनकी तरह बनने की कोशिश करेंगे तो वह हिंदू धर्म के मूल विचारों की हार होगी।

अंत में

यह आलेख लिखना शुरु किया ही था कि भारत में "नूपुर शर्मा काँड" हो गया। वैसे तो मैं टिवटर पर कम ही जाता हूँ लेकिन कुछ ऐसे माननीय लोग जिन्हें मैं उदारवादी और समझदार समझता था, और जो कि हिंदू धर्म की आलोचनाओं में खुल कर भाग लेते रहे हैं, उन लोगों ने भी जब "पैगम्बर का अपमान किया है" की बात करके दँगा करने वालों को बढ़ावा दिया, तो मुझे बड़ा धक्का लगा।

भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसम्प्रदायिक देश में किसी एक गुट की कट्टरता तो सही ठहराना खतरनाक है, इससे आप केवल अन्य कट्टर विचारवालों को मजबूत करते हैं। अगर हमारे पढ़े लिखे, दुनिया जानने वाले बुद्धिवादी लोग भी इस बात को नहीं समझ सकते तो भारत का क्या होगा?

1973 की राज कपूर की फ़िल्म बॉबी में गायक चँचल ने एक गीत गया था, "बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह यह कहता, पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता"। आज अगर यह गीत किसी फ़िल्म में हो तो शायद राज कपूर, चँचल और बुल्लेशाह, तीनों को लोग फाँसी पर चढ़ा देंगे।


मंगलवार, मई 31, 2022

धाय-माँओं की यात्राएँ

इतिहास अधिकतर राजाओं और बादशाहों की और उनके खानदानों, प्रेम सम्बंधों और युद्धों की बातें करते हैं। उन इतिहासों में सामान्य जन क्या कहते थे, सोचते थे, उनका क्या हुआ, यह बातें कम ही दिखती हैं। फ़िर भी, पिछली कुछ शताब्दियों में जब बड़ी संख्या में सामान्य लोगों के जीवनों पर कुछ बड़े प्रभाव पड़ते हैं तो इतिहास बाँचने वालों को उनके बारे में कुछ न कुछ लिखना ही पड़ता है।

ऐसा कुछ अश्वेत लोगों के साथ हुआ जब लाखों लोंगों को भिन्न अफ्रीकी देशों से पकड़ कर यूरोपी जहाजों में भर कर गुलाम बना कर दुनियाँ के विभिन्न कोनों में ले जाया गया। ऐसा कुछ भारतीय गिरमिटियों के साथ भी हुआ जिन्हें काम का लालच दे कर बँधक बना कर मारिशियस, त्रिनिदाद और फिजी जैसे देशों में ले जाया गया। लेकिन हमारे आधुनिक इतिहास की कुछ अन्य कहानियाँ भी हैं जो अभी तक अधिकतर छुपी हुई हैं।



ऐसी छुपी हुई कहानियों में है एक कहानी उन भारतीय औरतों की जिन्हें बड़े साहब लोग अपने बच्चों की देखभाल के लिए आया बना कर विदेशों में, विषेशकर ईंग्लैंड में, साथ ले गये। कुछ महीने पहले एक अंग्रेजी की इतिहास के विषय से जुड़ी पत्रिका हिस्टरी टुडे के जनवरी 2022 के अंक में मैंने सुश्री जो स्टेन्ली का एक आलेख देखा जिसका शीर्षक था "इनविजिबल हैंडज" यानि अदृश्य हाथ, जिसमें 1750 से ले कर 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक के समय में भारतीय आया बना कर ले जाई गयी औरतों की बात बतायी गयी थी।

उनका कहना है कि "आया" शब्द पुर्गालियों की भाषा से आया जिसमें नानी-दादी को "आइआ" (Aia) कहते हैं। भारत में इस काम को करने वाली औरतों को "धाय" या "धाय माँ" कहते थे। जैसे कि पन्ना धाय के बलिदान की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। अंग्रेजी में इसके लिए "बच्चों की गवर्नैस" का प्रयोग भी होता है।

भारत में रहने वाले अंग्रेजों के घरों में हज़ारों औरतें आया या धाय का काम करती थीं। जब वह लोग छुट्टी पर ईंग्लैंड जाते, तो बच्चों की देखभाल के लिए उनकी आया को भी साथ ले जाते। कुछ लोग भारत में काम समाप्त होने पर हमेशा के लिए ईंग्लैंड लौटते हुए भी कई माह लम्बी समुद्री यात्रा में उन्हें तकलीफ न हो, इसलिए इन औरतों को बच्चों की देखभाल और अन्य काम कराने के लिए साथ ले जाते थे। लेकिन एक बार ईंग्लैंड पहुँच कर वह इन्हें घर से निकाल भी सकते थे और घर वापस लौटने का किराया नहीं देते थे।

भारत में अंगरेज़ साहब और मेमसाहिब के पास बड़े आलीशान बँगले होते थे जिनमें नौकरों को रखने में कठिनाई नहीं होती थी, लेकिन ईंग्लैंड में वापस आ कर, उन साहबों को सामान्य घरों में रहना पड़ता था, तो समस्या होती थी कि भारत से लायी गयी आया को कहाँ रखा जाये? उनके लिए ईंग्लैंड में आया-होस्टल में बन गये थे, जहाँ यह औरतें भारत जाने वाले किसी अंग्रेज परिवार के साथ नयी नौकरी की प्रतीक्षा करती थीं।

न्यू योर्क विश्वविद्यालय की प्रोफेसर स्वप्न बैन्नर्जी अन्य शोधकारों के साथ मिल कर सन् 1780 से ले कर 1945 में भारत उपमहाद्वीप से काम करने के लिए दुनिया भर में ले जाये जानी वाली इन प्रवासी महिलाओं पर शोध कर रही हैं जिसके बारे में आया व आमाह के ब्लोग पर आप पढ़ सकते हैं। इसी ब्लाग पर पिछली सदी के प्रारम्भ का एक विज्ञापन है जिसमें लँडन के दक्षिण हेक्नी इलाके में बने "आया होम" के बारे में कहा गया कि अंग्रेज महिलाएँ कुछ पैसा दे कर भारत से लायी आया को यहाँ रखवा कर उनसे छुटकारा पा सकती हैं, साथ यह यहाँ हिंदुस्तानी बोलने की सुविधा भी है। (विज्ञापन नीचे की छवि में)



कुछ औरतों ने अंग्रेज परिवारों की समुद्री यात्रा में बच्चों की देखभाल का काम अच्छे तरीके से आयोजित किया था। 1922 में ईंग्लैंड में अखबार में छपे एक साक्षात्कार में भारत की श्रीमति एन्थनी पारैरा ने बताया वह 54 बार भारत-ईंग्लैंड यात्रा कर चुकी थीं। एक शोध के अनुसार, 1890 से ले कर 1953 तक, हर वर्ष करीब 20-30 औरतें आया बन कर ईंग्लैंड लायी जाती थीं। इनमें से अधिकतर औरतें "नीची" जाति से होती थीं। इसी काम के लिए कुछ चीनी औरतें भी ईंग्लैंड लायी जाती थीं जिन्हें "अमाह" कहते थे, हालाँकि उनकी संख्या भारतीय मूल की "आयाह" के मुकाबले एक चौथाई से भी कम होती थी।

उन औरतों की देखभाल में पले अंग्रेज बच्चों ने उनके बारे में अपनी आत्मकथाओं तथा स्मृतियों में वर्णन किया है कि उनको इन्हीं औरतों से परिवार का प्यार व स्नेह मिला। इन कहानियों से उन औरतों के जीवन की रूमानी छवि बनती है, जब कि जो स्टेन्ली के अनुसार उनकी जीवन की सच्चाई अक्सर रूमानी नहीं थी, बल्कि उसकी उल्टी होती थी। उनमें से कई औरतों के साथ उनके अंग्रेज मालिक बुरा व्यवहार करते थे।

अफ्रीका में जन्मी भारतीय मूल की इतिहासकार, डा. रोज़ीना विसराम ने इस विषय पर शोध करके कुछ पुस्तकें लिखी हैं। ब्रिटिश राष्ट्रीय पुस्तकालय ने इस विषय में सन् 1600 से ले कर 1947 तक के समय के विभिन्न दस्तावेज़ों को एकत्रित किया है। इनके अनुसार, शुरु में पुरुषों को अधिक लाया जाता था, वह परिवारों के नौकर तथा जहाज़ो में नाविक का काम करते थे। आया का काम करने वाली औरतों के अतिरिक्त, उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से बहुत से लोग ईंग्लैंड में पढ़ने के लिए भी आते थे ताकि वापस जा कर भारत में उनको अंग्रेजी सरकार में ऊँचे पदों पर नौकरी मिल सके।


कुछ वर्ष पहले, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की इतिहासकार प्रो. राधिका सिन्घा ने दो विश्व युद्धों में अंग्रेज़ी फौजों के साथ भारत से लाये गये सिपाहियों के जीवन पर शोध करके एक किताब लिखी थी जिसमें मैंने भी कुछ सहयोग किया था। उन भुला दिये गये सिपाहियों के अवशेष यूरोप के विभिन्न हिस्से में बिखरे हुए हैं, उनमें से इटली के फोर्ली शहर के एक स्मारक-कब्रिस्तान के बारे में मैंने एक बार लिखा था। हिस्टरी टुडे के भारत से आयी धाय-माँओं के बारे में आलेख ने सामान्य जनों के छुपे और भुलाए हुए इतिहासों के बारे में वैसी ही जानकारी दी। सोच रहा था कि जिन परिवारों की वह बेटियाँ, बहुएँ या माएँ थीं, गाँवों और शहरों में जब वह भारत छोड़ कर गयीं थीं, उस समय उनकी कहानियाँ भी कहानियाँ बनी होंगी, लोगों ने बातें की होंगी, फ़िर समय के साथ वह कहानियाँ लोग भूल गये होंगे। क्या जाने उनके बच्चे और वँशज उनकी स्मृतियों को सम्भाले होंगे या नहीं?

इतिहास ने और अंग्रेज़ों ने उन औरतों के साथ बुरा व्यवहार किया, उनको शोषित किया, लेकिन क्या स्वतंत्र होने के बाद भारत के नये शासक वर्ग ने वैसा शोषण बन्द कर दिया? भारत से विदेश जाने वाले संभ्रांत घरों के लोग अक्सर भारत से काम करने वाली औरतें बुलाते हैं और उन्हें घर में बन्दी बना कर रखते हैं। भारतीय दूतावासों में काम करने वाले लोगों के इस तरह के व्यवहार के बारे में कई बार ऐसी बातें सामने आयीं हैं। भारत के संभ्रांत घरों में नौकरी करने वाली औरतों के साथ भी कई बार गलत व्यवहार होता है। आज के परिवेश में भारत में ही नहीं, अरब देशों में भारतीय काम करने वालों के शोषण की भी अनगिनत कहानियाँ मिल जायेगी। मेरे विचार में जब हम इतिहास में हुए मानव अधिकारों के विरुद्ध आचरणों को देखते हैं तो हमें आज हो रहे शोषण को भी देखने समझने की दृष्टि मिलती है।

टिप्पणींः इस आलेख की सारी तस्वीरें आयाह और आमाह ब्लाग से ली गयीं हैं।

बुधवार, मई 25, 2022

अरे ओ साम्बा, कित्ती छोरियाँ थीं?

भारत में कितनी औरतें हैं यह प्रश्न गब्बर सिंह ने नहीं पूछा था, लेकिन यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है।

कुछ माह पहले भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने 2019 से 2021 के बीच में किये गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नतीजों की रिपोर्ट निकाली थी। इस रिपोर्ट के अनुसार आधुनिक भारत के इतिहास में पहली बार देश में लड़कियों तथा औरतों की कुल जनसंख्या लड़कों तथा पुरुषों की कुल जनसंख्या से अधिक हुई है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है जिससे देश की सामाजिक, आर्थिक व स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। यह भारत के लिए गर्व की बात है। अपने इस आलेख में मैंने इस बदलाव की राष्ट्रीय तथा राज्यीय स्तर पर कुछ विषलेशण करने की कोशिश की है।



नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात

कुल जनसंख्या में लड़कियों तथा औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक होनी चाहिए। अगर गर्भ में भ्रूण के बनते समय उसका नर या मादा होने के मौके एक बराबर ही होते हैं, तो समाज में नर और नारियों की संख्या भी एक बराबर होनी चाहिये। तो पुरुषों की संख्या औरतों से कम क्यों होती है? इसके कई कारण होते हैं। सबसे पहले हम नर तथा नारी जनसंख्या पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों को देख सकते हैं। 

नर भ्रूणों को स्वभाविक गर्भपात का खतरा अधिक होता है, इस लिए पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियाँ अधिक होती हैं। 

पैदा होने के बाद भी लड़के कई बीमारियों का सामना करने में लड़कियों से कमजोर होते हैं। समूचे जीवन काल में, बचपन से ले कर बुढ़ापे तक, चाहे एक्सीडैंट हों या आत्महत्या, चाहे शराब अधिक पीना हो या नशे की वजह हो, चाहे लड़ाईयाँ हों या सामान्य हिँसा, लड़के व पुरुष ही अधिक मरते हैं। लड़कों व पुरुषों की हड्डियाँ व माँस पेशियाँ अधिक मजबूत होती हैं, वह अधिक ऊँचे और शक्तिशाली होते हैं, लेकिन वह मजबूत शरीर बीमारियों से लड़ने तथा मानसिक दृष्टि से कम शक्तिशाली होते हैं। 

जबकि औरतों के जीवन में सबसे बड़ा स्वास्थ्य से जुड़ा खतरा होता है उनका गर्भवति होना और बच्चे को जन्म देना। पिछड़े व गरीब समाजों में औरतों की उर्वरता दर अधिक होती है, यानि बच्चों की संख्या अधिक होती है। कृषि से जुड़े गरीब समाजों को बच्चों के बाहुबल की आवश्यकता होती है। गरीब देशों की स्वास्थ्य सेवाएँ भी निम्न स्तर की होती हैं, तो बच्चों को टीके नहीं लगाये जाते या बीमार होने पर उनका सही उपचार नहीं हो पाता। इन सब वजहों से गरीब समाजों में बच्चे अधिक होते हैं। इसलिए गर्भवति होने वाली उम्र में गरीब समाजों में नवयुतियों के मरने का खतरा अधिक होता है। जबकि विकसित समाजों में, विषेशकर अगर लड़कियाँ पढ़ी लिखी हों, तो उनके बच्चे देर से पैदा होते हैं और उनकी संख्या कम हो जाती है। 

नारी शरीर की दूसरी कमजोरी का कारण है मासिक माहवारी। अगर उन्हें सही खाना मिलता रहे तो सामान्य माहवारी का उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं पड़ता, वरना इससे उनके रक्त में लोहे की कमी से अनीमिया होने का खतरा रहता है। लेकिन अगर प्रसव तथा माहवारी से जुड़े खतरों को छोड़ दें तो नारी शरीर में बीमारियों से लड़ने की अधिक शक्ति होती है। नारी शरीर के हारमोन उनकी बहुत सारी बिमारियों से, जैसे कि बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर तथा हृद्यरोग आदि से जब तक माहवारी चलती है, तब तक उनकी रक्षा करते हैं, उन बीमारियों से पुरुष अधिक मरते हैं। बुढ़ापे में भी नारी हारमोन उनकी कुछ हद तक रक्षा करते हैं जिससे कि औरतों की औसत जीवन अपेक्षा पुरुषों से अधिक होती है। 

प्राकृतिक स्वास्थ्य संबंधी कारणों के अतिरिक्त नर-नारी जनसंख्या पर सामाजिक सोच का असर पड़ता है। बहुत से समाजों में लड़कियों को पैदा होने से पहले ही गर्भपात करवा कर मरवा देते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि लड़कों से परिवार और संस्कृतियाँ चलती हैं। पैदा होने के बाद बेटों के तुलना में उन्हें खाना कम दिया जाता है, खेलकूद और पढ़ायी के अवसर कम मिलते हैं। और जब वह बीमार होती हैं तो उनका इलाज देर से करवाया जाता है और कम करवाया जाता है।



देशों में कुल जनसंख्या में नर अधिक होंगे या नारियाँ, उस आकंणे पर ऊपर बताये गये सब भिन्न प्रभावों के नतीजों को जोड़ कर देखना पड़ेगा। विश्व स्तर पर उन आकंणों को देखें तो हम पाते हैं कि विकसित देशों में जनसंख्या में नारियाँ अधिक होती हैं, जबकि कम विकसित तथा गरीब देशों में पुरुषों की संख्या अधिक होती है। जैसे जैसे समाज विकसित होने लगते हैं, औरतें अधिक पढ़ती लिखती हैं, नौकरी करके स्वंतत्र रहने के काबिल बन जाती हैं और आवश्यकता पड़ने पर माता पिता की देखभाल भी कर सकती हैं, तो जनसंख्या में उनका अनुपात बढ़ने लगता है। 

अन्य देशों से नर-नारी अनुपात के कुछ आकंणे

नये भारतीय सर्वेषण के नतीजों को देखने से पहले आईये पहले हम कुछ अन्य देशों में नर-नारी अनुपात की क्या स्थिति है उसको देखते हैं।

इस दृष्टि से पहले दुनिया के कुछ विकसित देशों की स्थिति कैसी है, पहले उसके आकणें देखते हैं। 1000 पुरुषों के अनुपात में देखें तो फ्राँस में 1054 औरतें हैं, जर्मनी में 1039, ईंग्लैंड और स्पेन में 1024, इटली में 1035, अमरीका में 1030, तथा जापान में 1057। यानि हर विकसित देश में लड़कियों व औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक है। 

आईये अब भारत के आसपास के देशों की स्थिति देखें। यहाँ पर 1000 पुरुषों के अनुपात में पाकिस्तान में 986 औरतें हैं, बँगलादेश में 976, नेपाल में 1016, और चीन में 953। यानि नेपाल में स्थिति बेहतर हैं जबकि चीन, पाकिस्तान व बँगलादेश में खराब है। हाँलाकि पिछले दो दशकों में चीन बहुत अधिक विकसित हुआ है लेकिन चीन में अभी कुछ समय पहले तक नियम था कि परिवार में एक से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिये, और वहाँ की सामाजिक सोच इस तरह की है जिसमें वह सोचते हैं कि लड़के ही पैदा होंने चाहिए, इसके दुष्प्रभाव पड़े हैं।

विभिन्न देशों के आंकणें देखते समय वहाँ की अन्य परिस्थितयों के असर के बारे में सोचना चाहिये। जहाँ युद्ध हो रहे हैं वहाँ पुरुषों की संख्या और भी कम हो सकती है। कुछ जगहों में पुरुषों को घर-गाँव छोड़ कर पैसा कमाने के लिए दूर कहीं जाना पड़ता है, तो वहाँ भी जनसंख्या में पुरुषों की संख्या कम हो जायेगी, जबकि जिन जगहों पर पुरुष प्रवासी काम खोजने आते हैं, वहाँ पर उनका अनुपात बढ़ जाता है। जब आंकणों में किसी जगह पर बहुत अधिक पुरुष या नारियाँ दिखें तो वहाँ की सामाजिक स्थिति के बारे में अन्य कारणों को समझना आवश्यक हो जाता है।

भारत के राष्ट्रीय स्तर के आंकणे

राष्ट्रीय स्तर पर यह आकंणे सन् 1901 के बाद से जमा किये जाते रहे हैं। चूँकि सौ वर्ष पहले के भारत में आज के पाकिस्तान, बँगलादेश तथा कुछ हद तक मयनमार भी शामिल थे तो उनके आंकणों की आधुनिक भारत के आंकणों से पूरी तरह तुलना नहीं की जा सकती लेकिन उनसे हमारी स्थिति के बारे में कुछ जानकारी तो मिलती है।

1901 में भारत में हर 1000 पुरुषों से सामने 972 औरतें थीं, जबकि 1970 में उनकी संख्या 930 रह गयी थी। 2005-06 में जब तृतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेषण में यह जानकारी जमा की गयी तो भी स्थिति में बदलाव नहीं आया था, 1000 पुरुषों के सामने 939 औरतें थीं। 2015-16 में जब चौथा सर्वेषण किया गया तो पहली बार महत्वपूर्ण बदलाव दिखा जब औरतों की संख्या बढ़ कर 991 हो गयी थी। इस वर्ष आये परिणामों में स्थिति और मजबूत हुई है, इस बार 1000 पुरुषों के मुकाबले में 1020 औरतें हैं।

इन आकंणो से हम क्या निष्कर्श निकाल सकते हैं? मेरे विचार में सौ साल पहले औरतों की संख्या कम होने का कारण था उन्हें खाना अच्छा न मिलना, बच्चे अधिक होना, और प्रसव के समय स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। यह सभी बातें 1970 के सर्वेषण तक अधिक नहीं बदली थीं। 1990 के दशक में भारत में विकास बढ़ा, साथ में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बेहतर हुई लेकिन साथ ही गर्भवति औरतों के लिए अल्ट्रासाँऊड टेस्ट कराने की सुविधाएँ भी तेजी सी बढ़ी जिनसे परिवारों के लिए होने वाले बच्चे का लिंग जानना बहुत आसान हो गया, जिससे बच्चियों की भ्रूण बहुत अधिक संख्या में गिरवाये जाने लगे। इसका असर 2005-06 के सर्वेषण पर पड़ा और बच्चे कम होने, भोजन बेहतर होने व स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर होने के बावजूद औरतों की संख्या कम ही रही।

भारत में बच्चियों का गर्भपात

हालाँकि भारत सरकार ने गर्भवति औरतों में अल्ट्रासाऊँड टेस्ट से लिंग ज्ञात करने की रोकथाम के लिए 1994 से कानून बनाया था, इसे 2005-06 के सर्वेषण के बाद सही तरह से लागू किया गया जब डाक्टरों पर सजा को बढ़ाया गया। लेकिन सामाजिक स्तर पर भारत में बेटियों की स्थिति अधिक नहीं बदली, इस कानून का भी कुछ विषेश असर नहीं पड़ा है।

भारत में बच्ची होने पर गर्भपात कराने की परम्परा अभी महत्वपूर्ण तरीके से नहीं बदली, यह हम एक अन्य आंकणे से समझ सकते हैं - छः वर्ष से छोटे बच्चों में लड़कों और लड़कियों के अनुपात को देखा जाये। 2001 में छः वर्ष से छोटे बच्चों की जनसंख्या में हर 1000 लड़कों के सामने 927 लड़कियाँ थीं। 2005-06 में यह संख्या घट कर 918 हो गयी। 2015-16 में यह संख्या बदली नहीं थी, 919 थी। और, 2019-21 के नये सर्वेषण में भी यह अधिक नहीं बदली, 924 है।

इसका अर्थ है कि औरतों की संख्या में बढ़ोतरी का बदलाव जो 2019-21 के सर्वेषण में दिखता है वह अन्य वजहों से हुआ है जैसे कि उन्हें पोषण बेहतर मिलना, छोटी उम्र में विवाह कम होना, विवाह के बाद बच्चे कम होना और प्रसव के समय बेहतर स्वास्थ्य सेवा मिलना।

ग्रामीण तथा शहरी क्षत्रों में अंतर

राष्ट्रीय स्तर पर और बहुत से प्रदेशों में ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की स्थिति शहरों से बेहतर है। राष्ट्रीय स्तर पर 1998-99 में 1000 पुरुषों के अनुपात में शहरी क्षेत्रों में 928 औरतें थीं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी संख्या 957 थी। बाईस साल बाद, 2019-21 के सर्वेषण में राष्ट्रीय स्तर के आंकणों में दोनों क्षेत्रों में स्थिति सुधरी है, शहरों में उनकी संख्या 985 हो गयी है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में संख्या 1037 हो गयी है।

लेकिन यह बदलाव बड़े शहरों से जुड़े ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं आया। दिल्ली, चंदीगढ़, पुड्डूचेरी जैसे शहरों के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की संख्या शहरों से कम है। यह आंकणे देख कर मुझे लगा कि इन क्षेत्रों में स्थिति को समझने के लिए विषेश शोध किये जाने चाहिये। एक कारण हो सकता है कि यहाँ बच्चियों का गर्भपात अधिक होता हो? शायद उससे भी बड़ा कारण है कि देश के अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी युवक इन गाँवों में सस्ती रहने की जगह पाते हैं जिसकी वजह से यहाँ पुरुषों की संख्या अधिक हो जाती है?

अन्य कुछ बातें भी हैं। जैसे कि सामान्य सोच है कि गाँवों में समाज अधिक पाराम्परिक या रूढ़िवादी होते हैं, वहाँ सामाजिक सोच को बदलने में समय लगता है। वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं को पाना भी कठिन हो सकता है, हालाँकि प्राथमिक सेवा केंद्रों तथा आशा कर्मियों से बहुत जगहों पर स्थिति में बहुत सुधार आया है। लेकिन इन सबको ठीक से समझने के लिए विषेश शोध होने चाहिये।

राज्य स्तर के आंकणे

अंत में राज्य स्तर के आंकणों के बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत है। जैसा कि मैंने ऊपर बताया है, इन आंकणों पर अन्य बहुत सी बातों का असर पड़ता है इसलिए उनके महत्व को ठीक से समझने के लिए सावधानी बरतनी चाहिये।

मेरे विचार में राज्यों की स्थिति को देश के विभिन्न भागों में बाँट कर देखना अधिक आसान है। मैंने राज्यों को चार भागों में बाँटा है - पहले भाग में हैं उत्तरपूर्व को छोड़ कर उत्तरी व मध्य भारत की सभी राज्य; दूसरे भाग में मैंने दक्षिण भारत के राज्यों को रखा है, जिनमें गोवा भी है; तीसरा भाग है उत्तरपूर्व के राज्य जिनमें सिक्किम भी है; और चौथा भाग है केन्द्रीय प्रशासित क्षेत्र जैसे कि अँडमान या चँदी गढ़, इनमें दिल्ली भी है।

उत्तर तथा मध्य भारत के राज्य

2015-16 के आंकणों के अनुसार, उत्तर व मध्य भारत में सात राज्यों में औरतों की संख्या की स्थिति नकरात्मक थी - हरियाणा 876, राजस्थान 887, पँजाब 905, गुजरात 950, महाराष्ट्र 952, एवं जम्मु कश्मीर में 971। उत्तरप्रदेश में स्थिति बाकियों के मुकाबले में कुछ ठीक थी, 995। बाकी के सभी प्रदेशों में (झारखँड, पश्चिम बँगाल, उत्तरखँड, छत्तीसगढ़, ओडीशा, बिहार व हिमाचल प्रदेश) में औरतों की संख्या पुरुष अनुपात में 1000 से अधिक थी, उनमें से सबसे उच्चस्थान पर थे बिहार 1062 तथा हिमाचल प्रदेश 1087।

2019-21 के आंकणें देखें तो कुछ बदलाव दिखते हैं। जम्मू कश्मीर को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में स्थिति में कुछ सुधार आया है, हालाँकि पँजाब व राजस्थान में सुधार की मात्रा थोड़ी सी ही है। इन परिवर्तनों के बाद सबसे अधिक नकारात्मक स्थितियाँ इन राज्यों में हैं - राजस्थान 891, हरियाणा 926, पँजाब 938, जम्मू कश्मीर 948, गुजरात 965, महाराष्ट्र 966, और मध्यप्रदेश 970। बाकी सभी राज्यों में औरतों का अनुपात 1000 से ऊपर है। सबसे बेहतर स्थिति है ओडीशा में 1063 तथा बिहार में 1090। मेरे विचार में जिन राज्यों में स्थिति सकारात्मक दिखती है वहाँ के आंकणों पर अधिक पुरुषों के प्रवासी होने का भी प्रभाव है।

दक्षिण भारत के राज्य

गोवा सहित दक्षिण भारत के राज्यों में 2015-16 में स्थिति केवल कर्णाटक में नकारात्मक थी, 979, बाकी सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक थी।

2019-21 के सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक हो गयी थी।

उत्तरपूर्वी भारत के राज्य

उत्तरपूर्वी भारत के आठ राज्यों में से 2015-16 में 3 राज्यों में स्थिति नकारात्मक थी - सिक्किम 942, अरुणाचल 958 तथा नागालैंड 968। दो राज्यों में स्थिति थोड़ी सी नकारात्मक थी, असम में 993 और त्रिपुरा में 998, जबकि मेघालय, मिजोरम तथा मणीपुर में स्थिति सकारात्मक थी।

इस बार के 2019-21 सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सुधरी है, हालाँकि अभी भी सिक्किम में 990 तथा अरुणाचल में 997 होने से थोड़ी सी नकारात्मक है।

दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भाग

अंत में दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भागों में देखें तो 2015-16 में चार क्षेत्रों में स्थिति गम्भीर थी - दादरा, नगर हवेली, दमन, दीव 813, दिल्ली 854, चंदीगढ़ 934 तथा अँडमान 977। सभी जगहों पर इन क्षेत्रों के ग्रामीण हिस्सों की स्थिति और भी गम्भीर थी, जिसका एक कारण अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी पुरुष हो सकता है।

2019-21 में स्थिति में कुछ सुधार हुआ और कुछ स्थिति और भी नकारात्मक हुई - दादरा, नगर हवेली आदि 827, दिल्ली 913, चंदीगढ़ 917, अँडमान 963, लदाख 971। अँडमान में कितने प्रवासी है, वहाँ क्या कारण हो सकते हैं, उसके आंकणों से मुझे थोड़ी हैरानी हुई।


अंत में

अगर हम पूरे भारत के स्तर पर विभिन्न राज्यों में नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात में आये परिवर्तनों को देखें तो पाते हैं कि बहुत राज्यों में स्थिति सुधरी है, विषेशकर लक्षद्वीप, केरल, कर्णाटक, तमिलनाडू, हरियाणा, सिक्किम, झारखँड, नागालैंड तथा अरुणाचल में। कुछ जगहों पर अनुपात कुछ घटा है जैसे कि हिमाचल प्रदेश, हालाँकि कुछ स्थिति अभी भी सकारात्मक है।

राज्य स्तर के आंकणों में आने वाले बदलावों को ठीक से समझना आसान नहीं है क्योंकि उस पर अन्य कारणों के साथ साथ पुरुषों के काम की खोज में अन्य राज्यों में जाने से भी बहुत असर पड़ता है। इसकी वजह से समृद्ध राज्य जहाँ प्रवासी आते हैं उनकी पुरुष संख्या बढ़ी दिखती है और पिछड़े राज्य, जहाँ से पुरुष प्रवासी बन कर निकलते हैं, उनके आंकड़े सच्चाई से बेहतर दिखते हैं।

राज्यों की स्थिति चाहे जो भी हो, राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जनसंख्या में औरतों के अनुपात में इस तरह से बढ़ौती बहुत सकारात्मक बदलाव है। केवल एक आंकणे पर अधिक बातें कहना सही बात नहीं होगी, उसके लिए हमें स्वास्थ्य से संबंधित अन्य आंकणों को देखना पड़ेगा। लेकिन यह स्थिति भारत को विकास की ओर बढ़ाने में यह सही राह पर होने का आभास देती है।

बुधवार, अगस्त 23, 2017

उत्तरप्रदेश में लड़कियाँ क्या सोचती हैं?

हिन्दी फ़िल्में देखिये तो लगता है कि छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों के जीवन बदल गये हैं. "बरेली की बरफ़ी", "शुद्ध देसी रोमान्स", और "तनु वेड्स मनु" जैसी फ़िल्मों में, छोटे शहरों की लड़कियों को न सड़कों पर डर लगता हैं, न वह लड़कों से वे स्वयं को किसी दृष्टि से पीछे समझती हैं. जाने क्यों, अक्सर पिछले कुछ सालों से हमारी फ़िल्मों में छोटे शहरों की लड़कियों की आधुनिकता को सिगरेट पीने से दिखाया जाता है (शायद इन फ़िल्मों को सिगरेट कम्पनियों से पैसे मिलते होंगे, क्योंकि अब भारत में सिगरेट के अन्य विज्ञापन दिखाना सम्भव नहीं)

हिन्दी फ़िल्मों की लड़कियों और सचमुच की लड़कियों के जीवनों में कोई अन्तर हैं, तो कौन से हैं? पिछले दशकों में छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों और युवतियों की सोच बदली है, तो कैसे बदली है? और अगर बदली है तो उसका उन सामाजिक समस्याओं पर क्या असर पड़ा है जो कि लड़कियों के जीवनों से जुड़ी हुई हैं? इस आलेख में इसी बात से सम्बंधित सर्वे की बात करना चाहता हूँ.

गाँव कनक्शन का सर्वे

इन दिनों में गाँव कनक्शन पर उत्तरप्रदेश की 15 से 45 वर्षीय महिलाओं के साथ हुए एक सर्वे के बारे में छपा है. इस सर्वे में पाँच हज़ार औरतों ने भाग लिया.

सर्वे में 56 प्रतिशत महिलाओं कहा कि वह नौकरी करना चाहती हैं. इसमें से सबसे अधिक महिलाएँ स्कूल में अध्यापिका बनना चाहती हैं.  14 प्रतिशत महिलाएँ डॉक्टर बनना चाहती हैं और 6 प्रतिशत पुलिस में जाना चाहती हैं.

67 प्रतिशत ने कहा कि अगर मौका मिले तो वह और पढ़ना चाहेंगी. 50 प्रतिशत महिलाओं-लड़कियों ने कहा कि उन्हें साइकिल चलाना पसंद है, लेकिन ससुराल में साइकिल चलाने की अनुमति कम ही मिलती है. 67 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें घर से बाहर निकलने के लिए पति या पिता से अनुमति लेनी पड़ती है, जबकि 15 प्रतिशत ने बताया कि वह घर से बाहर किसी के साथ ही जा सकती हैं.

81 प्रतिशत लड़कियों ने कहा कि वह जानती हैं कि उनकी शादी के समय उनके माता-पिता को दहेज देना पड़ेगा।

उत्तरप्रदेश में मेरा सर्वे

गाँव कनक्शन के इस सर्वे की लड़कियों-महिलाओं के जीवन, उनकी आशाएँ, और उनके सपने, फ़िल्मी छोटे शहरों की लड़कियों के जीवनों से बहुत भिन्न लगती हैं.

इस सर्वे के बारे में पढ़ कर मुझे अपना एक सर्वे याद आ गया. 2014 में, मैं उत्तरप्रदेश में कुछ दिन अपनी एक मित्र के पास ठहरा था जिनका एक प्राईवेट अस्पताल था और साथ में नर्सिंग ट्रेनिन्ग कॉलिज भी था जहाँ तीन वर्ष का नर्सिन्ग कोर्स होता था. वहाँ पढ़ने वालों को उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से छात्रवृत्ति मिल रही थी. मैंने इस सर्वे में द्वितीय वर्ष के छात्र-छात्राओं से स्वास्थ्य सम्बंधी तथा सामाजिक विषयों के प्रश्न पूछे थे.

सर्वे करने से पहले उसके प्रश्नों को तीसरे वर्ष के तीन छात्राओं में जाँचा गया और जाँच के अनुसार, जो प्रश्न अस्पष्ट थे या जिनके सही अर्थ समझने में छात्रों को कठिनाई हो रही थी, उन्हें सुधारा गया. किसी छात्र या छात्रा ने सर्वे में भाग लेने से मना नहीं किया, लेकिन करीब 20 प्रतिशत छात्राओं ने कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये.

सर्वे में भाग लेने वाले

कुल 35 छात्रों ने सर्वे में हिस्सा लिया जिनमें 31 छात्राएँ (89%) थीं और 4 छात्र थे. चूँकि सर्वे में पुरुष छात्र केवल चार थे, उनके उत्तरों का अलग से विश्लेषण नहीं किया गया है.


छात्रों की औसत आयू 21.7 वर्ष थी. उनमें से 33 लोग (94%) उत्तरप्रदेश से थे और 2 लोग अन्य करीबी राज्यों (बिहार तथा उत्तराखँड) से थे.

उत्तरप्रदेश के 33 लोगों में से 9 लोग (27%) लखनऊ से थे. बाकी के 24 लोग (73%) राज्य के 8 जिलों से थे (सीतापुर, बलिया, माउ, बस्ती, अकबरपुर, एटा, लक्खिमपुर तथा बाराबँकी). जिलों से आने वाले लोग जिला शहरों, उपजिलों के छोटे शहरों तथा गाँवों के रहने वाले थे. यानि सर्वे में प्रदेश की राजधानी से ले कर, गाँवों तक के, हर तरह की जगहों के लोग थे.

उनमें से 33 लोग (94%) हिन्दू थे, केवल 1 व्यक्ति मुसलमान परिवार से था और 1 ईसाई परिवार से. हिन्दू छात्रों में 20 लोग (60%) शिड्यूल कास्ट जातियों से थे और 6 लोग (18%) जनजातियों से थे.

छात्रों में से 19 लोग (54%) संयुक्त परिवारों में रहते थे, जबकि 16 लोग (46%) ईकाई (nuclear) परिवारों से थे.

छात्र परिवारों की आर्थिक स्थिति

उनमें से 32 लोगों (91%) ने खुद को मध्यम वर्गीय बताया, केवल 2 लोगों ने खुद को निम्न मध्यम वर्गीय कहा और 1 ने खुद को उच्च मध्यम वर्गीय कहा. उनमें से 18 लोगों (51%) के घर में स्कूटर, मोटरसाईकल या ट्रेक्टर थे जबकि बाकी के 17 लोगों (49%) के घर बैलगाड़ी या साईकल थी या कोई व्यक्तिगत यात्रा साधन नहीं था.

उनमें से अधिकाँश के घर में टीवी था, जबकि करीब 50% लोगों के घर में फ्रिज था.

इसका अर्थ है कि हालाँकि अधिकाँश लोग अपने आप को मध्यम वर्ग को कह रहे थे, उनमें से करीब पचास प्रतिशत लोगों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी.

पढ़ायी और अंग्रेज़ी ज्ञान

नर्सिंग कॉलिज में आने से पहले 34 छात्रों ने 12 कक्षा तक पढ़ाई की थी, केवल एक छात्रा के पास बीए की डिग्री थी.

छात्रों की माओं ने औसत 6 वर्ष की स्कूली पढ़ायी की थी, उनमें से 34% अनपढ़ थीं  और 11% के पास कॉलिज की डिग्री थीं. उनके पिताओं की औसत पढ़ायी 11 वर्ष की थी, उनमें से 11% अनपढ़ थे और 42% कॉलिज में पढ़े थे.

सब छात्रों ने स्वीकारा कि उनके माता पिता की पीढ़ी में पढ़ने के क्षेत्र में पुरुषों तथा महिलाओं के बीच में अधिक विषमताएँ थीं जो उनकी पीढ़ी में कम हो गयीं थीं. कई छात्राएँ जिनकी माएँ अनपढ़ थीं, बोलीं कि उनको अपनी माँ से पढ़ाई करने का बहुत प्रोत्साहन मिला था. एक छात्रा ने कहा, "मेरी माँ बचपन से मुझे कहती थी कि तुमको पढ़ना है, मेरी तरह अनपढ़ नहीं रहना."

छात्रों में से 19 लोगों (54%) ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी कमज़ोर थी जिससे उन्हें नर्सिंग की किताबों को पढ़ने व समझने में दिक्कत होती थी. उन्होंने बताया कि कुछ शिक्षकाएँ अक्सर अपनी बात को समझाने के लिए उसे हिन्दी में भी समझाती थी, जिससे उन्हें आसानी हो जाती थी.

बाकी के 16 लोगों ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी थी और उन्हें नर्सिन्ग की किताबें पढ़ने समझने में दिक्कत नहीं होती थी. लेकिन उनसे जब सर्वे के दौरान अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछे गये तो केवल एक छात्रा ही उसका सही अंग्रेज़ी में पूरा उत्तर दे पायी. बाकी लोगों को अंग्रेज़ी बोलने में कठिनाई थी. यानि जब छात्र अंग्रेज़ी की किताबों को पढ़ तथा समझ सकते हैं, तब भी उन्हें अंग्रेज़ी बोलने में हिचक या कठिनाई हो सकती है. इसका यह भी अर्थ है कि अंग्रेज़ी में उनकी अभिव्यक्ति कमज़ोर रहती है.

नर्सिंग पढ़ने का निर्णय किसने लिया

19 लोगों (54%) ने नर्सिंग की पढ़ायी करने का निर्णय स्वयं लिया था, जबकि बाकी 16 (46%) लोगों में यह निर्णय परिवार या अन्य लोगों ने लिया.

अधिकाँश लोगो ने माना कि उनके मन में कुछ अन्य पढ़ने की कामनाएँ थीं लेकिन उन्होंने अंत में नर्सिन्ग को चुना क्योंकि इसमें छात्रवृत्ति मिलती है, वरना उनके परिवार के लिए उनकी पढ़ायी का खर्चा पूरा कठिन होता. नर्सिन्ग पढ़ने का एक कारण यह भी था कि इस काम में नौकरी आसानी से मिल जाती है.

केवल दो लोगों ने कहा कि वह सचमुच नर्सिन्ग की पढ़ायी ही करना चाहते थे. 15 लोगों (43%) का कहना था कि वह शिक्षक बनना चाहते थे. 4 लोगों (11%) ने कहा कि वह पुलिस में काम करना चाहते थे. बाकी के लोगों की अलग अलग राय थी, कोई फेशन डिज़ाईनर बनना चाहता था, कोई ब्यूटी पार्लर चलाना चाहता था, कोई कम्पयूटर कोर्स तो कोई वकील या एकाऊँटेन्ट. उनमें से एक छात्रा ने कहा कि नर्सिन्ग की पढ़ायी पूरी करके वह आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलिज में पढ़ने की कोशिश करेगी.

विवाह और जीवन साथी का चुनाव

छात्रों में से 5 लोग विवाहित थे, वह पाँचों छात्राएँ थीं और पाँचों के पति परिवार ने चुने थे.

बाकी 30 लोगों में से 24 (80%) ने कहा कि उनका जीवन साथी परिवार चुनेगा. केवल 6 लोगों ने कहा कि वह अपना जीवन साथी स्वयं चुनना चाहेंगे, पर उनकी भी चाह थी कि उनका चुना जीवनसाथी उनके परिवार को पसंद आना चाहिये और वे परिवार की मर्ज़ी के विरुद्ध जा कर विवाह नहीं करना चाहेंगे. केवल एक छात्रा ने कहा कि चाहे उसका परिवार कुछ भी कहे, वह तो उसी से विवाह करेगी जो उसे पसंद होगा, और इसके लिए वह परिवार के विरुद्ध भी जा सकती है.

जाति और भेदभाव के अनुभव

केवल 6 लोगों (17%) ने कहा कि उनको जाति सम्बंधित भेदभाव के व्यक्तिगत अनुभव हुए थे। अन्य 9 लोगों (26%) ने कहा कि उनको स्वयं ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ लेकिन उनके परिवार में अन्य लोगों को ऐसे अनुभव हुए.

33 लोगों (95%) ने स्वीकारा कि समाज में जाति से सम्बंधित भेदभाव होता है.

भेदभाव के विषय पर बात करते समय कई छात्रों ने कहा कि नर्सिन्ग होस्टल में रहने की वजह से उनके जाति सम्बंधी विचार बदल गये थे. एक छात्रा ने कहा, "घर में कुछ भी कहते थे तो हम मान लेते थे. लेकिन होस्टल में हम लोग जात पात की बात नहीं सोचते, साथ बैठते, साथ खाना खाते हैं. अलग जाति की लड़कियाँ मेरी मित्र हैं, इससे जाति के बारे में मेरी सोच बदल गयी है."

साथ ही अधिकाँश लोगों का कहना था कि चाहे उनकी अपनी सोच बदल गयी है लेकिन जब वह घर जाते हैं और घर में बड़े बूढ़े लोग जाति का भेदभाव करते हैं तो वह उसका विरोध नहीं कर पाते. एक विवाहित छात्रा ने कहा, "मेरी सास जात-पात को बहुत मानती हैं, मैं अपने घर में किसी अन्य जाति के मित्र को नहीं बुला सकती. जब तक उनके साथ रहूँगी तो उनकी बात ही माननी पड़ेगी. मैं उनसे झगड़ा नहीं कर सकती."

उनसे कहा गया कि मान लीजिये की आप की सहेली या दोस्त अपनी जाति से भिन्न जाति या धर्म के व्यक्ति से प्रेम करता है और उससे विवाह करना चाहता है, लेकिन उसका परिवार इसके विरुद्ध है. आप किसकी तरफ़ होंगे, अपनी सहेली या दोस्त की ओर या उसके परिवार की ओर?

3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 21 (66%) ने कहा कि परिवार ठीक कहता है, जाति या धर्म से बाहर के व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं होगा, बाकी के 11 (34%) लोगों ने कहा कि जो जिससे प्रेम करता है उसे उसी से विवाह करना चाहिये.

घरेलू हिँसा

छात्रों से कहा गया कि मान लीजिये कि एक महिला का पति शाम को थका हुआ घर लौटा. देखा कि पत्नी की सहेली आयी थी, वह उससे बातें कर रही थी और उसने खाना नहीं बनाया था. अगर इस स्थिति में वह अपनी पत्नी को मारे तो क्या आप की राय में वह ठीक है?

10 लोगों (29%) का कहना था कि इस स्थिति में पति का पत्नी को मारना ठीक था. 25 (71%) लोगों ने कहा कि पति का मारना गलत था.

उन 25 में से 11 लोगों (44%) ने कहा कि पति को पहले पत्नी से बात करनी चाहिये थी. अगर ऐसा पहली बार हुआ हो या फ़िर अगर वह पत्नी की विषेश सहेली थी जिससे बहुत सालों से नहीं मिली थी, तो पति को इस बात को समझना चाहिये था कि कभी कभी पत्नी से भूल हो सकती है और उसे मारने की बजाय प्यार से समझाना चाहिये था. लेकिन अगर समझाने के बावज़ूद पत्नी बार बार ऐसा करती है तो उन्होंने कहा कि तब पति का उसे मारना सही है. यानि कुल 70% लोग यह मान रहे थे कि कई परिस्थितियों में पति का पत्नी को मारने को सही समझा जा सकता है.

केवल 7 लोगों (20%) ने कहा कि किसी भी हालत में पति को पत्नी को मारने का अधिकार नहीं है.

इस विषय पर बात करते हुए उनसे पूछा गया कि क्या पत्नी हिँसा करे तो वह सही मानी जा सकती है? मान लीजिये कि पत्नी काम पर गयी है, शाम को थकी हुई घर लौटी है. पति को उस दिन काम पर नहीं जाना था, वह सारा दिन घर पर ही था. पत्नी देखती है कि सारा घर गन्दा पड़ा है, खाना भी नहीं बना. पति के मित्र आये हैं, उनकी ताश और शराब चल रही है और पति ने जूए में बहुत पैसा खो दिया है. क्या ऐसी हालत में पत्नी पति से झगड़ा कर सकती है या उसे मार सकती है?

4 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी 31 में से 26 लोगों (84%) ने कहा कि नहीं पत्नी को लड़ना या हिँसा नहीं करनी चाहिये. उनमें से अधिकतर का कहना था कि पति तो भगवान बराबर होता है, पत्नी को उसका सम्मान करना होता है, वह उस पर किसी भी हालत में हाथ नहीं उठा सकती.

तो ऐसी हालत में पत्नी को क्या करना चाहिये? अधिकतर लोगों का कहना था कि अगर पति अक्सर ऐसा करता हो कि हर महीने घर का पैसा जूए और नशे में गँवा देता हो तो ऐसे पति को सुधारने के लिए घर के बड़े बूढ़ों को कहना चाहिये, उन्हें ही कुछ करना पड़ेगा.

5 लोगों (16%) ने कहा कि इस हालत में पत्नी का पति से लड़ना सही है और अगर यह बार बार हो तो ऐसे पति से तलाक भी ले सकते हैं.

परिवार में लड़कियों के प्रति भेदभाव

12 लोगों (34%) ने कहा कि उन्हें अपने परिवार में उन्होंने लड़को तथा लड़कियों के प्रति व्यवहार में भेदभाव का व्यक्तिगत अनुभव था.

32 लोगों ने माना कि समाज में लड़के तथा लड़कियों के प्रति  भेदभाव आम होता है. 10 लोगों (29%) ने, वह सभी लड़कियाँ थीं, इस भेदभाव को सही बताया.

उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि एक घर में शाम को लड़का बाहर जाना चाहता है, परिवार में उसे कोई मना नहीं करता. लेकिन जब उस लड़के की हमउम्र बहन शाम को बाहर जाना चाहती है तो परिवार उसे मना करता है, कहता है कि लड़कियों को घर से बाहर जाने में खतरा है. क्या आपकी राय में यह सही है या गलत?

3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 24 (75%) ने कहा कि परिवार सही करता है क्योंकि लड़कियों के लिए शाम को बाहर जाने में खतरा है. केवल 8 लोगों (25%) ने कहा कि लड़कियों पर इस तरह रोक लगाना सही बात नहीं हैं.

फ़िर उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि आप की सहेली का विवाह हो चुका है, उसकी एक बेटी है और वह फ़िर से गर्भवति हैं. उसका अल्ट्रासाउँड टेस्ट बताता है कि अगली भी बेटी होगी. उसकी सास कहती है कि गर्भपात करा दो. आप उसे क्या राय देंगी?

11 लोगों (31%) ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. बाकी के 24 लोगों में से 12 लोगों (50%) ने कहा कि सास की बात माननी पड़ेगी. 12 लोगों ने कहा कि उनकी सलाह होगी कि गर्भपात नहीं कराया जाये. दो छात्राओं ने कहा कि वह अपनी सहेली की सास  को समझाने की कोशिश करेंगी.

सरकारी व प्राईवेट अस्पताल

छात्रों के अनुसार सरकारी अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ कोई फीस नहीं होती, दवा भी निशुल्क होती है, स्पेशेलिस्ट डाक्टर अधिक होते हैं और सुविधाएँ अधिक होती हैं. उनकी बुरी बाते हैं कि वहाँ देखभाल अच्छी नहीं होती, अक्सर दवाईयाँ नहीं मिलती, सुविधाएँ नाम की होती हैं पर काम नहीं करती, कर्मचारी लापरवाह होते हैं, सफाई की कमी होती है, डाक्टर काम पर नहीं आते और बहुत भीड़ होती है.

प्राईवेट अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ देखभाल बेहतर होती है, कर्मचारी ज़्यादा ध्यान से काम करते हैं, सफाई बेहतर होती है, भीड़ कम होती है और जो भी सुविधाएँ होती हैं वह ठीक से काम करती हैं. उनकी बुरी बातें हैं कि वहाँ पैसे बहुत लगते हैं, अक्सर बिना जरूरत के टेस्ट किये जाते हैं, बिना ज़रूरत की दवाएँ दी जाती हैं, और अगर आप गरीब हैं तो आप को कोई नहीं पूछता.

उनसे पूछा गया कि अगर आप बीमार हों तो आप कहाँ जाना चाहेंगे, सरकारी अस्पताल में या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि अगर वह बीमार होंगे तो वह प्राईवेट अस्पताल में जाना चाहेंगे.

उनसे पूछा गया कि नर्सिंग की ट्रेनिन्ग पूरी होने के बाद आप सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि वे सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे. इसके कारण थे कि सरकारी काम में रहने के लिए घर मिलना, सेवा निवृति पर पैंशन मिलना, काम से छुट्टी लेना अधिक आसान है, काम करना भी अधिक आसान है और नौकरी से निकलना बहुत कठिन है.

यानि अपनी बीमारी हो या परिवार की तो लोग प्राईवेट अस्पताल में जाना पसंद करते हैं जबकि नौकरी सरकारी अस्पताल में करना चाहते हैं. पर इस बात में उत्तरप्रदेश के नवजवान लोग बाकी भारत जैसे ही है. अप्रैल 2017 में सी.एस.डी.एस. ने भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाले नवजवानों का सर्वे किया था, उस में भी केवल 7 प्रतिशत लोगों ने प्राईवेट सेक्टर में नौकरी को प्राथमिकता दी थी.

सर्वे में मिले उत्तरों पर विमर्श

जनसंख्या की दृष्टि से देखें तो अगर उत्तरप्रदेश स्वतंत्र देश होता तो दुनिया में पाँचवें स्थान पर होता. विश्व स्तर पर मानव विकास मापदँड की दृष्टि से देखें तो भारत काफ़ी नीचे है, स्वास्थ्य के कुछ आकणों में हमारी स्थिति बँगलादेश से भी पीछे है.

भारत के विभिन्न राज्यों के मानव विकास मापदँडों को देखें तो उत्तरप्रदेश का स्थान अन्य राज्यों की तुलना में बहुत नीचे है. चाहे वह बच्चियों के भ्रूणों की हत्या हो या वार्षिक बाल मृत्यू दर, उत्तरप्रदेश में इनकी स्थिति दयनीय है. स्वास्थ्य के कई आँकणों में उत्तरप्रदेश की स्थिति अफ्रीका के गरीब और पिछड़े देशों जैसी है या उनसे भी बदतर है.

ऐसी हालत में यह जानना कि उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी क्या सोचती है, महत्वपूर्ण है. आज की नर्सिन्ग छात्राएँ कल यहाँ की स्वास्थ्य सेवाओं में हिस्सा लेंगी, परिवारों को सलाह देंगी. उनकी सोच तथा आचरण से समाज के अन्य लोग भी प्रभावित होंगे.

तो आप के विचार में नर्सों से की मेरी बातचीत उत्तरप्रदेश के भविष्य के बारे में हमें क्या बताती है? कुछ दिन पहले गोरखपुर के अस्पताल में 60 बच्चों की मृत्यू से भारत के समाचार पत्रों में हल्ला मचा था, पर उत्तरप्रदेश के लिए यह कोई नयी बात नहीं है. वहाँ के पिछले दस वर्षों के आँकणे देखिये, हर साल वहाँ दस्त, न्योमोनिया, एन्सेफलाईटस, मलेरिया आदि बीमारियों से लाखों बच्चे मरते हैं, जिनका सही समय पर इलाज किया जाये तो वह बच्चे बच सकते हैं.

यही है भारत की अपने भीतर की विषमताएँ - भारत के दक्षिण के कुछ राज्यों के स्वास्थ्य आँकणे अमरीका जैसे हैं, और उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखँड जैसे राज्यों के अफ्रीका जैसे.

हमारी कथनी और करनी में भी अंतर है. पाराम्परिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. अगर हम पूछें कि क्या आप नारी पुरुष में बराबरी में विश्वास करते हैं, तो सब लोग हाँ कह देते हैं. अगर आप पूछते हैं कि घर और परिवार में नारी के साथ होने वाली हिँसा गलत है, तो भी सब लोग हाँ कह देते हैं. लेकिन इन विचारों की कहनी और प्रतिदिन के जीवन की करनी में विरोधाभास है. हम लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ और.

इसका यह अर्थ नहीं कि सकारात्मक बदलाव नहीं हुए है. माता और पिता की पढ़ायी के आँकणे दिखाते हैं कि शिक्षा के स्तर में पिछली पीढ़ी में बहुत भेदभाव था. सर्वे में भाग लेने वाले की करीब एक तिहाई माएँ अनपढ़ थीं. इस दृष्टि से सर्वे की युवतियाँ उन घरों में पढ़ने लिखने वाली युवतियों की पहली पीढ़ी हैं. शायद उनकी बेटियों में कथनी और करनी के यह विरोधाभास कम होंगे, वह लोग पारिवारिक हिँसा और भेदभाव के विरुद्ध आवाज़ उठायेंगी.

अंत में

इस सर्वे से मुझे लगा कि सामाजिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. हम जितने स्लोगन बना लें, पोस्टर बना लें, लोगों कों जानकारी हो जाती है लेकिन इससे उनके विचार या आचरण नहीं बदलते. ऊपर से दिखावे के लिए हम कुछ भी कह दें लेकिन हमारी भीतरी सोच क्या है, यह कहना समझना कठिन है.

मैं उम्र में उन नर्सिंग के छात्रों से बहुत बड़ा था, बाहर से आया था और पुरुष था. इसलिए यह नहीं कह सकते कि उन्होंने हर बात का जो सोचते हैं वही सच सच उत्तर दिया होगा. फ़िर भी इस सर्वे से उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी, विषेशकर नवयुवतियाँ क्या सोचती हैं, इसकी कुछ जानकारी मिलती है.

आप बताईये कि आप के अनुभव इस सर्वे में पायी जाने वाली स्थिति से कितने मिलते हैं और कितने भिन्न हैं? और अगर आप को इस तरह के प्रश्न पूछने का मौका मिलता तो बदलते उत्तरप्रदेश को समझने के लिए आप कौन से प्रश्न पूछते?

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मंगलवार, फ़रवरी 21, 2017

झाँकियों का अनूठा गाँव

यह दुनियाँ तेज़ी से बदल रही है और इस बदलती दुनियाँ में तकनीकी तथा अन्य विकासों की वजह से जीवनयापन के नये तरीके निकालना आवश्यक हो गया है. आज मैं उतरी इटली के एक गाँव की बात लिख रहा हूँ, जहाँ पर्यटकों को आकर्षित करने तथा स्थानीय व्यवसाय को बढ़ावा देने का एक नया तरीका अपनाया गया है. इस गाँव का नाम है संत अंतोनियो (Sant'Antonio) और यह उत्तरी पूर्व इटली में एल्पस की पर्वतश्रृख्ला के पाज़ूबियो पहाड़ के साये में बना एक गाँव है.

कुछ वर्ष पहले संत अंतोनियो के निवासियों ने पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए मोम की मूर्तियाँ बनाने की सोची. नीचे की तस्वीर में आप इन मूर्तियों का एक नमूना देख सकते हैं जिससे आप उनकी जीवंत कला का अन्दाज़ लगा सकते हैं.


स्कियो का बदलता जीवन

संत अंतोनियों का गाँव स्कियो (Schio) शहर की नगरपालिका का हिस्सा है. इसी स्कियो शहर में हमारा घर है जहाँ मैं रहता हूँ.

पाज़ूबियो (Pasubio) की पर्वत की छाया में बसे छोटे से शहर स्कियो में उन्नीसवीं शताब्दी में बड़े पैमाने पर उद्योगीकरण हुआ. यहाँ का सबसे बड़ा उद्योग था ऊन बनाने की फैक्टरियाँ. आसपास के पहाड़ों पर भेड़े तथा पहाड़ी बकरियाँ पालीं जाती जिनका फर कट कर स्कियो की फैक्टरियों में पहुँचता जहां उसकी रंगबिरंगी ऊन बनती. ऊनी कपड़े बुनने की भी फैक्टरियाँ थीं. इस सब की वजह से यह क्षेत्र बहुत समृद्ध था.

उस समय इटली की राष्ट्रसीमा स्कियो में पाज़ूबियो पर्वत पर थी, पहाड़ के उत्तर की ओर आस्ट्रिया था, दक्षिण में इटली. 1914 में यह क्षेत्र प्रथम विश्वयुद्ध की लपेट में आ गया, जब इटली तथा आस्ट्रिया (Austria) के बीच में भी लड़ाई छिड़ी. अमरीकी फौज की छावनी स्कियो में थी. विश्वयुद्ध के दौरान कुछ समय तक अमरीकी सिपाही अरनेस्ट हेमिगवे, स्कियो की एक ऊन की फैक्टरी में बने अस्पताल में एम्बूलैंस चालक थे, और युद्ध के बाद में प्रसिद्ध लेखक बने.

युद्ध का शहर पर तथा आसपास के गाँवों पर बहुत असर पड़ा लेकिन फ़िर धीरे धीरे, ऊन की फैक्टरियों का काम दोबारा से निकल पड़ा. युद्ध में आस्ट्रिया की हार हुई थी, इसलिए पाजूबियो पर्वत के उत्तर का हिस्सा भी इटली में जुड़ गया.

लेकिन पिछले बीस-तीस वर्षों में वैश्वीकरण की वजह से नयी समस्याएँ खड़ी हो गयीं थीं. चीन से आने वाली सस्ती ऊन तथा स्वेटरों की वजह से यहाँ बनने वाली स्थानीय ऊन का बाज़ार नहीं रहा और एक एक करके सारी ऊन की फैक्टरियाँ बन्द हो गयीं. नये तकनीकी विकास से जुड़े कुछ उद्योग उभर कर आये पर पहाड़ी गाँवों में भेड़ों बकरियों से जुड़े जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए कुछ नया खोजना आवश्यक था.

विभिन्न देशों में छोटे पहाड़ी गाँवों में पर्यटन से जुड़े विकास की कई कहानियाँ हैं. कहीं पर मेले आयोजित किये जाते हैं, कहीं पर नये खेल तो कहीं पर गाँवों को रंगबिरंगा बनाया जाता है. इस सब में आवश्यक है कि कुछ ऐसा किया जाये तो अन्य जगह न हो, जिससे गाँव की अपनी, अनूठी पहचान बने और पर्यटक वहाँ आने के लिए आकर्षित हों. संत अंतोनियो के गाँव ने भी ऐसा ही कुछ करने का सोचा.

संत अंतोनियो का खुली हवा में बना क्रिसमस की मूर्तियों का संग्रहालय

जैसे भारत में कृष्ण जन्माष्टमी पर अक्सर लोग घरों के बाहर झाँकियाँ बनाते हैं, इटली में क्रिसमस के अवसर में घर घर में छोटी छोटी झाँकियाँ बनायी जाती हैं.

संत अंतोनियों के लोगों ने सोचा कि इसी प्रथा को बड़े पैमाने पर तथा उसमें कुछ नया जोड़ कर बनाया जाये. चूँकि गाँव में कुछ मूर्तिकार रहते थे, उन्होंने कहा कि मानव आकार की ऐसी मूर्तियाँ बनायी जायें जो देखने में जीती जागती लगें.



उनका दूसरा निर्णय था कि सदियों से जिस तरह गाँव में परिवार रहते आये थे, वे जीवन शैलियाँ लुप्त होने लगी थीं, तो उनकी याद को जीवित रखा जाये जिससे आजकल के बच्चे यह जान सकें कि उनके दादा परदादा किस तरह रहते थे, किस तरह काम करते थे. यह भी निर्णय लिया गया कि उन मूर्तियों में वहां के रहने वालों की छवि दिखनी चाहिये, यानी उनके चेहरे तथा वस्त्र वहाँ के निवासियों पर आधारित होने चाहिये.

नीचे की छवियों में आप इस संग्रहालय की कुछ मूर्तियों को देख सकते हैं. मानव आकार की इन मूर्तियाँ को देख कर अक्सर धोखा हो जाता है कि यह सचमुच के व्यक्ति तो नहीं. पर असली आश्चर्य तो तब होता है जब अब मूर्ति के पास उस व्यक्ति को देखते हैं जिसकी प्रेरणा ले कर वह बनायी गयी थी, लगता है कि दो जुड़वा लोग कहीं से निकल आये हैं.



हर वर्ष यह संग्रहालय करीब 20 दिसम्बर से ले कर जनवरी के अन्त तक सजता है. यहाँ आने का, मूर्तियाँ देखने का, कार पार्किन्ग आदि का, फोटो या वीडियो खींचने का, किसी का कोई शुल्क नहीं है. शायद इसी लिए दूर दूर से बसों में तथा कारों में भर के लोग यहाँ आते हैं. इससे इस क्षेत्र के होटल, रेस्टोरेंट, हस्तकला तथा कला के दुकान वालों के काम तथा आय दोनो बढ़ जाते हैं और गाँव का नाम आसपास सब जगह प्रसिद्ध हो गया है.



यहाँ के रहने वाले इसका एक अन्य फायदा बताते हैं. इस मूर्तियाँ बनाने के कार्य में छोटे बड़े सभी लोग मिल कर काम करते हैं. एक पुरानी कला को जीवित करने का मौका मिला है जिसे वहाँ के नवयुवकों ने सीखा है. आपस में मित्रता तथा जानपहचान के भी नये मौके मिले हैं जिनसे उनका समुदाय सुदृढ़ हुआ है.

वैसे तो यहाँ की मूर्तियों में कई मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे कि घर की बालकनी में कपड़े सुखाने डालने वाली युवती की या फ़िर एक नवयुवती की खिड़की के नीचे खड़े उपर निहारते उसके प्रेम में पागल युवक की मूर्ति.


आइये आलेख के अंत में यहाँ की वह दो मूर्तियाँ दिखाऊँ जो मुझे सबसे अच्छी लगती हैं.

इन मूर्तियों में मध्यकालीन जीवन की वह छवि बनी है जब घरों में टायलट नहीं होते थे. तब लोग रात को कमरे में पिशाब करने का बर्तन रखते थे और सुबह उठ कर वह मूत्र सड़क पर फ़ैंक देते थे.


इन दो मूर्तियों में एक वृद्ध व्यक्ति हैं जो घर की बालकनी से रात का मूत्र फ़ैंकने को तैयार हैं. दूसरा व्यक्ति एक छोटा शैतान सा लड़का है, जिसके हाथ में गुलेल है जो वहाँ बालकनी के नीचे से गुज़र रहा है. इस दृश्य को देख कर सहसा हँसी आ जाती है. लगता है कि अभी बच्चा कदम आगे बढ़ायेगा और उसके सिर पर मूत्र की बरखा होगी.



तो बताना नहीं भूलियेगा कि संत अन्तोनियो की मोम की मूर्तियों का खुली हवा का यह संग्रहालय आप को कैसा लगा.

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हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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